बुधवार, 22 अगस्त 2018

अपने माहिं टटोल-(प्रवचन-06)

अपने माहिं टटोल-(साधना-शिविर)

छटवां प्रवचन-एक ही मंगल है--जागरण

मेरे प्रिय आत्मन्!
कल और आज, मनुष्य के चित्त पर जो बंधन हैं, उनमें से दो बंधनों के तोड़ने के संबंध में हमने विचार किया।
एक बंधन तो ज्ञान का बंधन है। हमेशा से यह कहा गया है कि मनुष्य अगर अपने अज्ञान को छोड़ सके, तो वह सत्य को पा सकेगा। लेकिन मैंने आपसे यह कहा कि इसके पहले कि मनुष्य अपने अज्ञान को छोड़े, जिस ज्ञान को उसने दूसरों से सीख लिया है, उस ज्ञान को छोड़ना और भी जरूरी है। उधार ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा घातक है। जो ज्ञान स्वयं का नहीं है, वह मुक्त नहीं करता, बल्कि बांध लेता है। इस संबंध में कल हमने चर्चा की।

आज सुबह, मनुष्य एक यंत्र है और उसे भ्रम है कि वह एक आत्मा जैसा व्यवहार कर रहा है। मनुष्य आत्मा हो सकता है, लेकिन है नहीं। मनुष्य एक सचेतन प्राणी हो सकता है, लेकिन है नहीं। और जिसको यह भ्रम पैदा हो जाता है कि अभी ही वह आत्मा है, वह आत्मा की खोज में हमेशा के लिए पिछड़ जाएगा। एक बीज है, बीज वृक्ष हो सकता है, लेकिन वृक्ष है नहीं। और किसी बीज को अगर यह ख्याल पैदा हो जाए कि वह वृक्ष हो गया है, तो फिर उस बीज के वृक्ष होने की सभी संभावनाएं समाप्त हो गईं। बीज को यह जानना ही होगा कि वह वृक्ष नहीं है, तभी उसके प्राणों में वृक्ष बनने की अभिलाषा जागेगी, प्यास उठेगी और वह वृक्ष हो सकता है। बीज वृक्ष हो सकता है, है नहीं।
मनुष्य एक जाग्रत आत्मा हो सकता है, लेकिन है नहीं। हमारा सामान्य जीवन अत्यंत यांत्रिक, मैकेनिकल है, उसका कांशसनेस से, उसका चेतना से अभी कोई संबंध नहीं है। इस संबंध में सुबह हमने बात की।
इन दोनों चर्चाओं पर बहुत से प्रश्न यहां मेरे पास आए हैं, उन पर थोड़ा सा विचार इस दोपहर हम करेंगे।

सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि ध्यान से शांति मिलेगी, वह ठीक है, लेकिन यह भी कहा जाता है कि मरते समय अगर मन की दशा अच्छी हो, तो भी आदमी मुक्त हो जाता है, अच्छी गति में पहुंच जाता है।
साथ और भी एक मित्र ने पूछा हैः अगर यह संभव है कि मरते समय चित्त की अच्छी दशा हो, तो फिर मरते समय के क्षणों को ही सम्हाल लेना उचित है, सारे जीवन क्या फायदा? या कि सारे जीवन चित्त को सम्हालना होगा?

यह जो कहा जाता रहा है कि मरते समय चित्त की जैसी दशा होगी, अच्छी होगी, शुभ होगी, तो पर्याप्त है। और इसलिए मरते वक्त गीता सुना दें, उपनिषद सुना दें, कुछ और सुना दें, तो जो मर रहा है उसकी आत्मा शुद्ध हो जाएगी और पवित्र हो जाएगी। ये बातें अत्यंत धोखे की, अत्यंत झूठ हैं। और ये, मनुष्य की अपने आपको धोखा देने की जो प्रवृत्ति है, उसके सबूत हैं।
मृत्यु के क्षण में चित्त की दशा वही होती है जो जीवन भर का सार-संक्षिप्त होता है। जीवन भर चेतना ने जिस भांति गति की है, उसका ही अत्यंत सारभूत अंश मृत्यु के समय मनुष्य के समक्ष होता है। मृत्यु सारे जीवन का आंकलन है, मृत्यु है सारे जीवन का निचोड़। तो यह नहीं हो सकता कि सारे जीवन हिंसा की हो और मृत्यु के क्षण अहिंसा का विचार मन में आ जाए। यह असंभव है। मृत्यु तो है निष्कर्ष पूरे जीवन का। यह नहीं हो सकता कि सारे जीवन घृणा की हो, क्रोध किया हो और मरते क्षण चित्त प्रेम से भर जाए। इससे ज्यादा असंभव और कोई बात नहीं हो सकती।
मृत्यु के क्षण में तो जीवन भर का जो जोड़ है, जीवन भर चित्त की जो दशा है, जो कंटिन्युटी है, जो क्रम है, वही अपने शिखर पर पहुंच जाएगा। जैसा मैंने कल आपको कहा, यह नहीं हो सकता कि बीज हम कड़वे बोएं और फल मीठे आ जाएं। बीज यात्रा की शुरुआत है, फल उसका अंत है। फल बीज की मृत्यु है, वहां जाकर बीज की यात्रा समाप्त होती है। तो बीज में जो छिपा था, वही फल में प्रकट होगा। जीवन भर चित्त ने जो कुछ अर्जित किया है, मृत्यु के क्षण में चित्त उसी के साथ होगा।
इसलिए इस धोखे में कोई भी न रहे कि मृत्यु के क्षण को हम सुधार लेंगे। पूरे जीवन को जो बदलता है, वही मृत्यु को भी बदलने में समर्थ होता है। लेकिन, चूंकि हम तरकीबें, शार्टकट निकालने के हमेशा उत्सुक होते हैं। जीवन भर कुछ भी करें, मरते वक्त गीता सुन लेंगे, कान में कोई मंत्र बोल देगा और सब ठीक हो जाएगा। इस तरह की धोखेधड़ियां, हो सकता है आदमी की दुनिया में चलती हों, लेकिन परमात्मा की दुनिया में नहीं चल सकती हैं।
मैंने एक घटना सुनी है, एक आदमी मरणशय्या पर था। उसका सारा परिवार उसके पास इकट्ठा था। उसकी पत्नी उसके पैरों के पास बैठी थी। चिकित्सकों ने कह दिया था कि बचना असंभव है। मरने की अंतिम घड़ी आ गई थी। उस आदमी ने आंख खोली और अपनी पत्नी को पूछाः मेरा बड़ा लड़का कहां है?
पत्नी के मन में हुआ, मृत्यु के क्षण में प्रेम का स्मरण आ रहा है, मृत्यु के क्षण में प्रेम का स्मरण आ रहा है। उसने कहाः घबड़ाएं न, आपके बिस्तर के पास ही बाईं तरफ बड़ा लड़का मौजूद है।
उसने पूछाः और मेरा छोटा लड़का?
वह भी मौजूद था। पत्नी ने कहाः वह भी मौजूद है।
उसने कहाः और उससे छोटा?
उसके पांचों लड़के मौजूद थे। पांचवें लड़के को पूछने के बाद वह एकदम से उठ कर बैठ गया और उसने कहाः इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
पत्नी सोच रही थी कि मरते वक्त वह प्रेम के कारण स्मरण कर रहा है। वह बेचारा हिसाब लगा रहा था कि दुकान पर कोई बैठा है या सब लोग यहीं इकट्ठे हैं! जीवन भर जो दुकान सामने रही थी, वह मरते वक्त दूर नहीं हो सकती। जीवन भर जो दुकान सामने थी, वह मरते क्षण में भी सामने होगी। वही होगी। वह जो गीता पढ़ी जा रही है, वह सामने नहीं हो सकती। क्योंकि चित्त कोई आकस्मिक घटना नहीं है, एक सतत क्रम है। पूरे जीवन हम चित्त को निर्मित करते हैं। तो वह जैसा निर्मित होता है, वही उसके समक्ष होगा। इसलिए एक मरते आदमी के कान में गीता और मंत्र सुनाने से ज्यादा नासमझी की और कोई बात नहीं हो सकती। और ये ऐसे धोखे हैं जिनके कारण हम लोगों को इस तरह की बातें सिखा कर अपने जीवन में भटकने का मौका दे देते हैं।
मैं आपसे बहुत स्पष्ट यह कह दूंः धर्म का संबंध समग्र जीवन से है, समग्र जीवन से। कोई मरने के क्षण में धार्मिक नहीं हो सकता। और यह भ्रांति, यह फैलेसी इसलिए पैदा होती है कि हमने धर्म को पूरे जीवन से कभी भी संबंधित नहीं माना। कोई आदमी सुबह एक घंटे को बैठ कर अपने कमरे में बंद होकर पूजा और प्रार्थना कर लेता है और सोचता है कि मैं धार्मिक हो गया। तेईस घंटे क्या करता है वह आदमी? अगर तेईस घंटे विपरीत हैं जीवन में, तो वह एक घंटा जो धर्म में बिताया है, बिल्कुल झूठा और धोखे का है। क्योंकि तेईस घंटे चेतना जहां रहती है, एक घंटे में उससे अन्यथा नहीं रह सकती।
गंगा हिमालय से बहती है, तो कोई यह कहे कि काशी में आकर पवित्र हो जाती है, काशी के पहले पवित्र नहीं थी और काशी के बाद फिर अपवित्र हो जाती है, तो कौन मानेगा इस बात को? गंगा तो एक सातत्य है। जो गंगा काशी के पहले है, वही गंगा काशी के घाट पर है, वही गंगा काशी के आगे है। यह नहीं हो सकता कि गंगा काशी के पहले अपवित्र हो और काशी पर पवित्र हो जाए और फिर आगे अपवित्र हो जाए।
चित्त की भी एक गंगा है, चित्त की भी एक सतत धारा है। यह नहीं हो सकता है कि एक घंटे के लिए मंदिर में जब बैठें तब वह पवित्र हो जाए और बाकी तेईस घंटे अपवित्र रहे। यह असंभव है। या तो चित्त की धारा पवित्र होती है या अपवित्र होती है, दो के बीच तीसरा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन हम धोखा देने में होशियार हैं। और दूसरों को धोखा देने में तो हैं ही, खुद को भी धोखा देने में बहुत होशियार हैं।
एक आदमी तेईस घंटे कुछ भी करे, एक घंटे मंदिर चला जाता है। तो क्या आप सोचते हैं उस मंदिर में यह दूसरा आदमी हो जाता होगा? यह कैसे हो जाएगा दूसरा आदमी उस मंदिर में? तेईस घंटे जो यह था, वही तो उस मंदिर में प्रवेश करेगा। तेईस घंटे जो यह था, वही तो उस मंदिर में पूजा करेगा। तेईस घंटे जो यह था, वही तो उस मंदिर में प्रार्थना करेगा। यह दूसरा आदमी कैसे हो जाएगा? चित्त कोई ऐसी बात तो नहीं है कपड़ों की भांति कि उतार कर रख दिया, और जब हुआ तब पहन लिया और जब चाहा तब उतार कर रख दिया। चित्त तो हमारी आंतरिक दशा है। इसलिए जो आदमी धार्मिक नहीं है, वह मंदिर में बैठ कर भी धार्मिक नहीं हो सकता। और जो आदमी धार्मिक है, उसे किसी मंदिर में जाने की कोई जरूरत नहीं, वह जहां है वहां धार्मिक है।
एक फकीर के बाबत मैंने सुना है, वह कोई सत्तर वर्षों तक निरंतर नमाज के लिए मस्जिद में जाता रहा। पांचों नमाज उसने पूरी कीं। और इस डर से वह कभी अपने गांव को छोड़ कर दूसरे गांव में नहीं गया कि हो सकता है वहां मस्जिद न हो, हो सकता है नमाज चूक जाए। सत्तर वर्ष की उम्र तक यह क्रम चलता था। बीमार था तो भी गया। कोई दिन ऐसा न था कि वह अनुपस्थित रहा हो। उस गांव के लोग मस्जिद और उस फकीर को एक ही साथ सोचने लगे थे। कभी कल्पना में भी नहीं आता था कि मस्जिद बिना फकीर के भी हो सकेगी। लेकिन एक दिन सुबह लोगों ने पाया कि फकीर नहीं आया है। सिवाय इसके कि फकीर रात मर गया हो, दूसरा कोई ख्याल किसी को नहीं आया। वे सारे लोग उस फकीर के घर की तरफ गए। लेकिन वे देख कर हैरान हो गए! वह अपनी एक खंजड़ी उठाए हुए अपने झाड़ के नीचे बैठा हुआ गीत गा रहा था। वह जिंदा था; न वह बीमार था और न वह मरा था। तो उन सारे लोगों ने कहा कि क्या बुढ़ापे में नास्तिक हो गए हो? यह क्या कर रहे हो? नमाज चूक गए? सत्तर वर्ष से जो बात नहीं चूकी थी, वह आज चूक गए?
वह बूढ़ा फकीर बोलाः मैं भूल में था। मैं सोचता था कि मस्जिद में जाने से धार्मिक हो जाऊंगा। लेकिन मैंने कभी यह ख्याल नहीं किया कि मैं जो मस्जिद के बाहर हूं, वही तो मैं मस्जिद के भीतर रहूंगा। अगर मैं बाहर अधार्मिक हूं तो भीतर धार्मिक कैसे हो जाऊंगा? यह तो कल रात ही मुझे ख्याल आया कि चौबीस घंटे की चेतना अगर परिवर्तित हो तो ही परिवर्तन हो सकता है, मस्जिद जाने से कुछ भी न होगा। और इसलिए आज से मैंने मस्जिद में जाना बंद कर दिया। और आज से मैं इस कोशिश में लगा हूं कि मैं जहां भी रहूं, वहीं मस्जिद में रहूं। अब मस्जिद में नहीं जाऊंगा।
दो तरह के लोग हैं, एक तो वे जो मंदिरों में जाएं और सोचें कि धार्मिक हो गए, और एक वे जो चित्त को इस भांति बनाएं कि वे जहां बैठे हों, वहीं मंदिर हो। दूसरे तरह के व्यक्ति को ही मैं धार्मिक कहता हूं। वह जहां बैठा हो, वहां मंदिर हो। उसकी मौजूदगी मंदिर हो। उसकी चेतना की सतत पवित्रता, उसकी चेतना का सतत आनंद, उसकी चेतना का सतत सौंदर्य, उसकी चेतना की सतत शांति और संगीत उसे धार्मिक बनाएंगे।
इसी भ्रम ने कि हम थोड़ी देर को धार्मिक हो सकते हैं, यह भी भ्रम पैदा कर दिया कि मरते वक्त अगर हम धार्मिक हो गए तो बात सब ठीक हो जाएगी। धार्मिक जीवन में इस बात से जितनी हानि पहुंची है, और किसी बात से नहीं पहुंची।
मनुष्य को समग्र, आमूल चेतना बदलनी होती है, पूरी चेतना बदलनी होती है। खंड-खंड और टुकड़ों-टुकड़ों में बदलाहट का कोई उपाय नहीं है। चेतना है अखंड, इकट्ठी, और उसकी धारा है सतत, उसे पूरा ही बदलना होता है।
तो जो व्यक्ति जीवन भर अपनी चेतना के जागरण में संलग्न होता है, उसकी शांति के लिए सतत प्रयासशील होता है, जहां भी है, जैसा भी है, वहीं अपनी चेतना को जागरूक, प्रबुद्ध करने में संलग्न होता है, जैसी भी घड़ियों में है, वहीं अपने मन को शांति और शून्य में ले जाने के लिए सतत ध्यानपूर्ण होता है, वही व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी चेतना धारा को बदल लेता है। फिर वह चाहे सोता हो, चाहे जागता हो, चाहे मंदिर में बैठा हो और चाहे मधुशाला में बैठा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी चेतना, उसकी सतत चेतना एक क्रांति से परिवर्तित होती रहती है, गुजरती रहती है। वैसा व्यक्ति जीवन में आनंद को उपलब्ध होता है, जीवन में परमात्मा को उपलब्ध होता है, वैसा ही व्यक्ति मृत्यु के क्षण में भी परमात्मा को उपलब्ध होता है और पाता है। जो जीवन में नहीं पाया गया, वह मृत्यु के क्षण में नहीं पाया जा सकता है। जो जीवन में पाया गया, उसे मृत्यु के क्षण में खोया नहीं जा सकता है।
इसलिए जो हम जीवन में पाते हैं, उपलब्ध करते हैं अंतस में, वही मृत्यु के क्षण में हमारा साथी होता है। बाकी धोखे की बातें हैं कि कोई आदमी ने मरते वक्त नारायण- नारायण का नाम ले लिया, तो वह स्वर्ग चला गया। ये पापियों की ईजादें हैं। पापी कोई सस्ते रास्ते खोजना चाहते हैं कि राम-राम कर लें और मामला हल हो जाए। पाप भी करें और राम-राम लेकर छुटकारा भी हो जाए। ऐसी होशियारी की बातें हमारे पापी चित्त की ईजाद हैं। ये कोई धार्मिक चित्त की ईजाद नहीं हैं कि एक आदमी मरते वक्त--जीवन भर हत्या करे, चोरी करे, बेईमानी करे, सोया रहे--मरते वक्त राम-राम कह दे। ये कथाएं जिन्होंने गढ़ी होंगी, उनसे ज्यादा अधार्मिक लोग जमीन पर दूसरे नहीं रहे। जिन्होंने ये कथाएं गढ़ीं कि एक आदमी मर रहा है--जीवन भर का हत्यारा, बेईमान, चोर--उसके लड़के का नाम नारायण है, वह मरते वक्त अपने नारायण को बुलाता है, अपने लड़के को कि नारायण तू कहां है? और भगवान ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं कि देखो, इसने मेरा नाम लिया। उसको स्वर्ग भेज देते हैं। ऐसे भगवान और ऐसी कथाएं और ऐसी सारी की सारी बातें इतनी झूठ हैं, इनमें रत्ती भर की भी कोई सच्चाई नहीं है।
ये किन्होंने गढ़ी होंगी? किन्होंने ईजाद की होंगी? किन्होंने ये कहानियां बनाई होंगी? ये हमारे पापी चित्त के आविष्कार हैं। हम पाप भी करना चाहते हैं और किसी सरल तरकीब से उससे छूट भी जाना चाहते हैं।
तो हमने बहुत सी सरल तरकीबें निकाली हैं। कोई राम-राम जप लेता है और सोचता है कि मामला हल हो गया। लेकिन पाप करते वक्त वह पाप-पाप जप कर मामले को हल नहीं समझता, पाप तो करता है। उस वक्त पाप का जप नहीं करता कि जप कर लें, मामला खत्म हो गया। एक आदमी की हत्या करनी है, तो बैठ कर हत्या-हत्या का जप कर लें, बात खत्म हो गई, यह वह नहीं करता। यह वह भलीभांति जानता है कि हत्या के जप करने से हत्या नहीं होगी, हत्या तो करनी पड़ेगी। हत्या तो करता है, लेकिन छूटने के लिए राम-राम जपता है। बड़ी होशियारी है। इसको कनिंगनेस, इसको चालाकी कहें या क्या कहें? चित्त कितना बेईमान है! भगवान को जपने से निपट लेना चाहता है और पाप को? पाप को करके निपटता है।
भगवान के जप से कुछ भी नहीं होगा। भगवान को भी करना ही होगा, जपना नहीं होगा। कोई आदमी भगवान होकर ही भगवान को पा सकता है, जप कर नहीं। क्योंकि पाप करके ही पाप को पाता है, तो परमात्मा को बिना किए कैसे पा सकता है?
लेकिन कितनी अजीब बात है कि हम दो-चार आने की माला खरीद लेते हैं, उसके गुरिए खिसकाते रहते हैं और सोचते हैं कि धर्म हो रहा है। चूंकि हजारों साल से एक बात चलती है, इसलिए हमारी आंखें अंधी हो जाती हैं, देखने में असमर्थ हो जाती हैं कि यह क्या हो रहा है। और चूंकि सारे लोग उसको मान कर किए चले जाते हैं, इसलिए हमको स्मरण भी नहीं आता कि हम क्या पागलपन कर रहे हैं! कोई बाजार से गुरिए खरीद कर इसको खिसकाने से कोई धार्मिक होगा? कोई गुरिए न खिसकाने से पापी हो गया है क्या, जो गुरिए खिसकाने से धार्मिक हो जाएगा? क्या पाप यही है कि हम माला नहीं फेर रहे? पाप गहरा है, हमारे पूरे प्राण में घुसा हुआ है। और निकालने की तरकीब बड़ी सस्ती है कि एक माला लेकर उसको हाथ पर फेर रहे हैं। यह एब्सर्डिटी दिखाई भी नहीं पड़ती, यह नासमझी दिखाई भी नहीं पड़ती--कि इसमें क्या संगति है? इसमें क्या तुक है? इसमें क्या अर्थ है? पाप तो हमारा प्राण बना हुआ है, लेकिन धर्म हमारा चार पैसे की कोई सस्ती तरकीब पर टिका हुआ है।
इसलिए दुनिया में पाप बढ़ता गया और धर्म कम होता गया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि धर्म हमारा धोखा है, और पाप हमारी असलियत है। पाप जैसा ही असली धर्म होना चाहिए, तो जीवन में क्रांति होती है, नहीं तो क्रांति नहीं होती। पाप जैसा ही असली धर्म चाहिए। पाप बिल्कुल असली है, ठोस, यथार्थ; और धर्म बिल्कुल काल्पनिक, हवाई। इसलिए धर्म हार जाता है, पाप जीत जाता है। और धर्म हारता चला गया रोज-रोज, और आज भी हार रहा है। और धर्म हारता है तो ये जो पागल इन सारी बातों का प्रचार करते हैं कि माला फेरो, राम-राम जपो, ऐसा करो, वैसा करो, वे और जोर से शोर मचा देते हैं कि देखो, माला कम फेरी जा रही है, इसलिए पाप बढ़ रहा है। ये लड़के माला नहीं फेरते, इसलिए पाप बढ़ता जा रहा है। दुनिया में अब लोग कम मंदिर जा रहे हैं, इसलिए पाप बढ़ रहा है। कम लोग राम-राम जप रहे हैं, इसलिए पाप बढ़ रहा है। वे यह गुहार मचाते हैं कि यह कम हो रहा है। असलियत यह है कि यह होता रहा है इसलिए पाप बढ़ा है।
पाप टूटेगा उस दिन, जिस दिन हम पाप की तरह ठोस धर्म को समझेंगे। पाप तो हमारी चेतना को बदल जाता है और धर्म हमारे हाथ में गुरिए बन जाता है। पाप तो हमारे पूरे प्राणों को आंदोलित कर देता है, घुस जाता है हमारे अचेतन चित्त तक, उसकी जड़ें पहुंच जाती हैं हमारे भीतर। और धर्म? धर्म हमारे टीके की भांति हमारे सिर पर लगा रहता है या जनेऊ की भांति गले में पड़ा रहता है, वह प्राणों तक नहीं पहुंचता। जनेऊ पहुंच भी कैसे सकता है प्राणों तक? कैसे यह हो सकता है? इसका क्या संबंध है? इसका कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन दिखाई नहीं पड़ती यह बात। अगर बहुत दिनों तक, हजारों वर्षों तक कोई बात प्रचलित रहे, तो लोकमानस उसके प्रति अंधा हो जाता है।
अरस्तू ने, जो कि पश्चिम में तर्क का और विचार का पिता समझा जाता है, उसने अपनी किताबों में ऐसी बेवकूफियां लिखी हैं जो कि उस समय प्रचलित थीं। और उसे ख्याल भी नहीं आया कि ये नासमझियां हैं। लेकिन चूंकि प्रचलित थीं, उसने लिख दी हैं। उसे ख्याल भी नहीं आया कि ये बिल्कुल गलत हैं। लेकिन हजारों साल से यूनान में चल रही थीं, वह भी उन्हीं के बीच पला था, वे उसके भी दिमाग में भर गई थीं। उसको भी दिखाई नहीं पड़ा कि यह क्या हम कह रहे हैं! उसने लिखा हैः औरतों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। क्योंकि यूनान में माना जाता था कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल बात यह है कि पुरुष कभी मानने को राजी ही नहीं हो सके हैं कि स्त्रियां किसी भी बात में उनके समान हो सकती हैं, दांत में भी कैसे समान हो सकती हैं! पुरुष का अहंकार यह मानने को राजी नहीं है कि स्त्रियां उसके समान हो सकती हैं किसी भी मामले में।
इसलिए पुरुषों ने जो शास्त्र लिखे हैं, उनमें स्त्रियों को मोक्ष जाने का अधिकार नहीं दिया। पहले उनको पुरुष जन्म लेना पड़ेगा, फिर वे मोक्ष जा सकती हैं। पुरुषों ने जो शास्त्र लिखे हैं, उनमें लिखा है कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं।
बड़ी हैरानी की बात है! अगर स्त्रियां नरक के द्वार हैं, तो फिर कोई स्त्री अब तक नरक न जा सकी होगी। क्योंकि उसके लिए द्वार कहां? पुरुष तो नरक चले गए होंगे, स्त्री कहां गई होगी? अगर स्त्रियां शास्त्र लिखतीं, तो वे लिखतींः पुरुष नरक के द्वार हैं। लेकिन उन्होंने कोई शास्त्र नहीं लिखे, इस झंझट में वे नहीं पड़ीं।
अरस्तू ने यूनान में सुन रखा था कि स्त्रियों के दांत कम हैं, उसने लिख दिया। और अजीब बात थी, उसकी एक औरत नहीं थी, दो औरतें थीं उसके पास। और वह किसी भी समय श्रीमती अरस्तू को कह सकता था कि देवी बैठो, जरा मैं तुम्हारे दांत गिन लूं। लेकिन नहीं गिने। गिनने की कोई जरूरत नहीं समझी। लिख दी किताब में। बात चलती थी, सारी दुनिया कहती थी, तो इसमें शक क्या था! और कोई शक करता तो शायद नासमझ समझा जाता।
एक हजार साल बाद अरस्तू के मरने के बाद भी यह माना जाता था कि स्त्रियों के दांत कम हैं। जिस आदमी ने पहली दफा स्त्रियों के दांत गिने, लोगों ने उसको पत्थर मारे--कि तुम हमारी परंपरा तोड़ रहे हो! यह कभी हुआ है! हजारों साल से अरस्तू जैसे महान विचारक ने भी लिखा हुआ है कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। तुम्हारी स्त्री के दांतों में कोई खराबी होगी, कोई ज्यादा उग आए होंगे, बराबर कभी हो नहीं सकते।
ऐसी अंधी हो जाती है हमारी चित्त की दशा। देखने में असमर्थ हो जाते हैं, सोचने में असमर्थ हो जाते हैं। हजारों वर्ष का प्रचार हमारे प्राणों को बधिर और अंधा कर देता है। ऐसे अंधेपन में हम खड़े हैं। धर्म के नाम पर हजारों साल की नासमझियां हमारे ऊपर इकट्ठी हो गई हैं।
कल रात मैंने कहा कि मैंने एक साधु की मुंहपट्टी अलग कर ली। मुझे क्या प्रयोजन है किसी की मुंहपट्टी अलग करने से? कोई सिर पर जूता भी रखे रहे तो मुझे क्या प्रयोजन अलग करने से? अलग की इसलिए ताकि मैं देख सकूं कि यह आदमी कहीं मुंहपट्टी से बंधा हुआ तो नहीं है? तो एक मित्र को दुख हो गया होगा, वे मुंहपट्टी वाले होंगे, उन्होंने एक प्रश्न पूछा हुआ है।
उन्होंने प्रश्न पूछा हुआ है कि यह तो बड़ा अन्याय किया आपने, बड़ा अनुचित किया कि किसी की मुंहपट्टी छीन ली। मुंहपट्टी तो, कोई अपनी प्रार्थना करने के लिए मुंहपट्टी बांधता है।
अब हद्द हो गई, प्रार्थना से मुंहपट्टी का क्या संबंध? ध्यान से मुंहपट्टी का क्या संबंध? ध्यान है आत्मा में जाना और मुंहपट्टी यहां बंधी हुई है। ध्यान है भीतर प्रवेश, मुंहपट्टी बाहर है। बाहर की कोई भी चीज भीतर ले जाने में समर्थ नहीं है, कोई भी चीज--न बाहर की प्रतिमा, न बाहर के शास्त्र, न बाहर का कोई और उपकरण। जो बाहर है, जो उसको पकड़ेगा, वह बाहर रुक जाएगा उसके कारण। जिसे भीतर जाना है, उसे बाहर का हर तरह का मोह छोड़ देना पड़ेगा।
लेकिन हम बड़े आश्चर्यजनक लोग हैं! एक आदमी घर-गृहस्थी छोड़ कर संन्यासी हो जाता है--घर छोड़ देता है, गृहस्थी छोड़ देता है, पत्नी और बच्चे छोड़ देता है। लेकिन एक गेरुए वस्त्रधारी संन्यासी से कहो कि मित्र, तुम गेरुए वस्त्र छोड़ दो! उसके प्राण कंप जाते हैं कि ये कैसे छोड़ सकता हूं? घर छोड़ता है, गृहस्थी, बच्चे और पत्नी, इन सबको छोड़ देता है, लेकिन गेरुए रंग के कपड़े नहीं छोड़ सकता। यह आदमी कैसा है? यह दिमाग कैसा है? क्या ये गेरुए वस्त्र और भी बहुमूल्य हैं उस संसार से जिसे यह छोड़ आया? और अगर यह गेरुए वस्त्र छोड़ने में कमजोर है, तो इसके संसार के छोड़ने का कितना मूल्य है? शायद कुछ बात और हो गई होगी। शायद यह पत्नी से नाराज रहा होगा, इसलिए छोड़ कर भागा है। क्योंकि बाहर से इसकी बुद्धि में कोई फर्क नहीं पड़ा है, बाहर की चीज छोड़ने की इसकी कोई तैयारी नहीं है।
गांधी के पास एक संन्यासी आए और उन्होंने कहा कि मैं सेवा करना चाहता हूं।
तो गांधी ने कहा कि मित्र, अगर सेवा ही करनी हो, तो पहला काम यह करना होगा कि ये गैरिक वस्त्र छोड़ देने होंगे। ये गेरुए वस्त्र छोड़ देने होंगे। क्योंकि इन वस्त्रों को लेकर लोग तुम्हारी सेवा करेंगे, तुम इन वस्त्रों के साथ कैसे लोगों की सेवा कर सकोगे? तो ये तुम छोड़ दो।
उस संन्यासी ने कहाः इनको मैं छोड़ दूं? तो फिर तो मैं संन्यासी ही न रह जाऊंगा!
अब सोच लें एक संन्यासी की बुद्धि को, वस्त्र छोड़ देगा गेरुए तो संन्यासी न रह जाएगा! मतलब यह हुआ कि गेरुए वस्त्र संन्यास है? तब तो बड़ी आसान बात है, दुनिया की हुकूमतें कानून बना लें कि सारे लोग गेरुए वस्त्र पहनें। दुनिया बदल जाएगी, मोक्ष हो जाएगा, सारे लोग गेरुए वस्त्र पहनेंगे, संन्यास हो जाएगा। इतनी आसान बात इतने दिन तक हम क्यों छोड़े बैठे हैं? सारी दुनिया को गेरुए रंग से पोता जा सकता है, क्या कठिनाई है! सारे लोगों के मुंह पर कानूनन मुंहपट्टियां बंधवाई जा सकती हैं, क्या कठिनाई है! सारे लोगों को तिलक लगवाया जा सकता है, क्या कठिनाई है! अगर दुनिया ऐसे धार्मिक होती हो, तब तो बड़ा आसान रास्ता है।
लेकिन जो यह सोचता हो कि इन बातों से हम धार्मिक हो रहे हैं, उसकी बुद्धि पर दया आनी जरूरी है। धार्मिक होना बड़ी गहरी और आंतरिक क्रांति है। धार्मिक होना एकदम आत्यंतिक रूप से आंतरिक है, बाह्य से उसका कोई भी संबंध नहीं है। यह बोध होना चाहिए, फिर कोई मुंहपट्टी बांधे, गेरुआ वस्त्र पहने, कुछ न कुछ तो पहनेगा, कुछ खाएगा, पीएगा, वह जाने। लेकिन उसके ऊपर पकड़ और आग्रह, उसको प्राणों की भांति चिपकाना, उसको समझना कि उसमें सब छिपा है रहस्य और उस पर लड़ाई लड़ना। और ये सारे संन्यासी इन चीजों पर लड़ाई लड़ते रहते हैं कि कौन सी चीज ठीक है और कौन सी चीज गलत है। और उतनी सी चीज बदल जाए, तो वह आदमी संन्यासी नहीं रह जाता। तो यह कैसे छोटे मन से हमारा सारा का सारा विचार विकसित हुआ है! और इसको हम समझते हैं कि यह धर्म है।
यह धर्म नहीं है। बाहर जिनकी श्रद्धा है, बाहर जिनकी निष्ठा है, उनके जीवन में धर्म का उदय नहीं हो सकता।
पहली बात है, बाहर की निष्ठा छूट जानी और आंतरिक निष्ठा का प्रवेश। भीतर क्या है, उसकी खोज का आग्रह। और वह खोज कोई न तो एक घंटा बैठ कर कर सकता है किसी मंदिर में और न वह खोज कोई मरते वक्त कर सकता है। यह तो पूरे जीवन का समग्र उपक्रम होगा, यह तो टोटल लाइफ, वह जो पूरा हमारा जीवन है, उसके कण-कण और रत्ती-रत्ती में और श्वास-श्वास में प्रविष्ट हो जानी होगी यह बात, तो ही यह परिवर्तन हो सकता है, नहीं तो यह नहीं हो सकता।
एक फकीर से जापान में एक राजा मिलने गया। सोचा होगा उसने कि वह फकीर बैठ कर ध्यान कर रहा होगा, प्रार्थना कर रहा होगा, पूजा कर रहा होगा, पाठ पढ़ रहा होगा, भगवान की स्तुति कर रहा होगा, यह सोचा होगा। उसकी बड़ी प्रशंसा सुनी थी, तो वह मिलने गया। फकीर की झोपड़ी के बाहर ही बड़ा बगीचा था और एक आदमी गड्ढे खोद रहा था। राजा ने पूछा कि मैं फलां-फलां फकीर से मिलने आया हूं, वह कहां है?
उस फकीर ने कहाः ऐसे तो यहीं और इसी वक्त उस फकीर से मिलना हो सकता है, लेकिन आपको जरा कठिनाई होगी, आप समझ न पाएंगे, इसलिए आप अंदर चल कर बैठिए, मैं फकीर को बुला कर लाता हूं।
वह राजा अंदर जाकर बैठा और थोड़ी देर बाद वही आदमी जो बाहर गड्ढे खोद रहा था, पीछे से आया और कहाः महानुभाव, मैं ही हूं वह फकीर। और वह वस्त्र वगैरह पहने हुए था साधु के।
राजा ने कहाः बड़ी हैरानी की बात है। आप ही तो गड्ढे खोद रहे थे?
उसने कहाः मैं ही गड्ढा खोद रहा था। और उस वक्त भी मैं धार्मिक था, लेकिन तुम्हारी आंखें शायद ही इस बात को देख पातीं, क्योंकि तुम्हारी आंखें वस्त्रों को देखने की आदी होंगी। गड्ढा मैं खोद रहा था, लेकिन मन मेरा परमात्मा के साथ एक था। गड्ढा तो खोद रहा था, लेकिन मन में मेरे कोई अशांति न थी। गड्ढा तो खोद रहा था, लेकिन गड्ढे खोदने के साथ मैं आत्मसात था। गड्ढा तो खोदता था, लेकिन वह मेरा ध्यान था, वह मेरा मेडिटेशन था। चित्त में कोई विचार न था, कोई विकल्प न था, सिर्फ गड्ढा ही खोद रहा था। लेकिन उसे आप न देख पाते, इसलिए मुझे यह नाटक करना पड़ा। मैं कपड़े पहन कर आ गया हूं, अब मैं संन्यासी हो गया हूं।
राजा ने कुछ समझा नहीं कि यह क्या बकवास है। उसने चारों तरफ देखा, वहां भगवान की कोई मूर्ति उस झोपड़े में न थी। उसने पूछाः कैसे फकीर हो, यहां कोई भगवान की मूर्ति भी नहीं दिखाई पड़ती!
उस फकीर ने कहाः यह कमरा बहुत छोटा है, दो के लायक यहां जगह नहीं है, यहां केवल एक ही रह सकता है। दो के लायक भी जगह कहां है! अब या तो मैं रहूं या भगवान रहें। तो मैंने सोचा कि मेरा ही रहना ज्यादा ठीक है। मैं जिंदा भगवान हूं। और एक मूर्ति को, एक मुर्दा भगवान को यहां लाकर भीड़ क्यों बढ़ाई जाए! और उसने कहाः जब दो हो जाते हैं तभी भगवान से मिलना बंद हो जाता है और जब एक ही होता है तभी भगवान से मिलना होता है। यहां मैं बिल्कुल अकेला रहता हूं तो भगवान से मिला रहता हूं और यहां कोई दूसरा हो जाता है तो सब गड़बड़ हो जाती है। तो यहां भगवान को नहीं लाया हूं ताकि भगवान से मिल सकूं।
उस राजा की तो समझ में नहीं आया। उसने दूसरे दिन भगवान की एक मूर्ति भिजवा दी उस फकीर को भेंट। भेंट में मूर्ति आ गई तो वह फकीर उसे क्या करे? उसने उसे एक खूंटी पर लटका दिया और नीचे लिख दिया कि हे भगवान, अब आप आ ही गए हो तो रहो। वैसे मैं अपने में इतना लीन रहता हूं कि आपकी बहुत फिकर न कर सकूंगा, इसलिए क्षमा करना और नाराज मत हो जाना। यहां कोई पूजा-प्रार्थना न हो सकेगी, क्योंकि मैं आप में इतना खोया रहता हूं कि इस मूर्ति की फिकर करने को कौन बचा है!
कुछ दिनों बाद वह राजा वापस आया। देखा मूर्ति पर धूल जम गई है। उसने पूछाः यह क्या हुआ? यह मूर्ति की कोई सफाई नहीं की गई? कोई फिकर नहीं की गई? इस पर धूल जम गई है।
वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा कि भगवान की फिकर अगर हमको करनी पड़े तो यह बड़ा अहंकार हो जाएगा। भगवान तो हमारी फिकर करने वाला है। और जिस भगवान पर हमारी फिकर न करने से धूल जम जाए, जान लेना वह भगवान ही न होगा, हमारा कोई खिलौना होगा। तो मैंने जान कर धूल जमने दी है ताकि आप ठीक से देख लें कि जो भगवान अपनी धूल भी नहीं झाड़ सकता है, वह हमारी धूल क्या झड़ाएगा? जो खुद असमर्थ है, वह हमारे लिए क्या करेगा?
निश्चित ही यह हमारा बनाया हुआ भगवान है, यह कोई भगवान नहीं है। मनुष्य जो भी बनाएगा, भगवान नहीं हो सकता--चाहे वह मंदिर बनाए, चाहे मूर्तियां बनाए। मनुष्य की बनाई हुई चीज भगवान कैसे हो सकती है? मनुष्य की बनाई हुई चीज कैसे भगवान हो सकती है? मनुष्य की कोई भी बनाई हुई चीज भगवान तो हो नहीं सकती। भगवान तक ले जाने का मार्ग भी नहीं बनती। मनुष्य की बनाई हुई किताबें, मनुष्य के बनाए हुए मंदिर, मनुष्य के बनाए हुए मंत्र, मनुष्य के बनाए हुए पूजा-पाठ, कोई भी भगवान तक ले जाने में समर्थ नहीं हैं। क्योंकि जो मनुष्य ने बनाया है, वह मनुष्य से छोटा होगा। मनुष्य अपने से बड़ी तो कोई चीज बना नहीं सकता। फिर क्या करें?
धार्मिक व्यक्ति वह है जो अपने को मिटाता है। और जिस दिन वह बिल्कुल मिट जाता है, उस दिन वह जान पाता है कि भगवान क्या है। मनुष्य के बनाने से भगवान तक नहीं पहुंचा जाता, मनुष्य अपने को मिटाता है, मिटाता चलता है। धीरे-धीरे एक वक्त आता है कि वह मिट जाता है, लीन हो जाता है, खो जाता है, उसकी अपनी कोई सत्ता, कोई अस्मिता, कोई अहंकार नहीं रह जाता। जिस दिन मनुष्य पूरी तरह मिट जाता है, उस दिन वह जानता है उसे, जो भगवान है, जो सत्य है, जो परमात्मा है। इसलिए न तो पूजाएं ले जा सकती हैं और न प्रार्थनाएं।

एक मित्र ने पूछा है कि पूजा कैसे करें? प्रार्थना कैसे करें?

कैसे भी करें, हर तरह की की गई प्रार्थना व्यर्थ है। आप ही तो करेंगे न? आप ही तो बनाएंगे न वह पूजा? आप ही तो प्रार्थना के शब्द जोड़ेंगे न? आपकी प्रार्थना, आपकी पूजा आपको कहां ले जाएगी? और आपकी बनाई हुई चीज आपको अपने ऊपर कैसे उठाएगी? जो आपकी बनाई हुई है, वह आपको अपने ऊपर नहीं उठा सकती। उससे कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। सिर पटकें, चिल्लाएं और रोएं, उससे कुछ होने वाला नहीं है।
इसलिए सवाल पूजा और प्रार्थना का नहीं है। सवाल है स्वयं के भीतर उस सूत्र को खोजने का जो कि मौजूद है। जिसे कहीं से लाना नहीं है। अगर हम जाग सकें, शांत हो सकें, तो वह सूत्र मौजूद है, वह जान लिया जा सकता है। भगवान को गढ़ना नहीं है, बनाना नहीं है, वह मौजूद है। सिर्फ आंख खोलनी है, सिर्फ जागना है। लेकिन हम आंख बंद किए रहते हैं कि कौन सी पूजा करें? कौन सी प्रार्थना करें?
आंख बंद किए कुछ भी नहीं हो सकता है। जैसा मैंने सुबह आपको कहाः यांत्रिक, सोया हुआ आदमी कुछ भी करे, उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। वह जो भी करेगा, वह अहितकर होगा। वह जो भी करेगा, उसके हाथ से अच्छी चीजें भी बुरे परिणाम लाएंगी, क्योंकि वह आदमी सोया हुआ है। वह जो भी करेगा, वह एक मंदिर भी बनाएगा तो हमें दिखाई पड़ेगा। ...

इस संबंध में भी कुछ मित्रों ने पूछा है कि आपने कहा कि सब चीजें यांत्रिक हैं। लेकिन दान? दान तो यांत्रिक नहीं है!

दान भी यांत्रिक है। सोया हुआ आदमी है, तो वह जो भी करेगा वह यांत्रिक होगा। एक आदमी मंदिर बनाए, तो हम सोचते हैंः कितना बड़ा काम कर रहा है। लेकिन आपको पता है, आज तक आदमियों ने भगवान के लिए मंदिर नहीं बनाए, अपने अहंकार के लिए मंदिर बनाए हैं। भगवान है नंबर दो, नंबर एक बनाने वाला है। इसलिए पहले, भगवान तो अंदर बैठे रहते हैं, दरवाजे पर उसी का नाम लिखा रहता है जो बनाने वाला होता है।
इंग्लैंड में थे गांधी। गांधी के एक मित्र बर्नार्ड शॉ को मिलने गए। बर्नार्ड शॉ से कहा कि आप महात्मा गांधी को तो जानते ही होंगे?
बर्नार्ड शॉ ने कहा कि भलीभांति जानता हूं।
मित्र ने पूछा गांधी के कि आप महात्मा को, गांधी को महात्मा मानते हैं या नहीं?
बर्नार्ड शॉ ने कहाः जरूर मानता हूं, लेकिन नंबर दो। नंबर एक तो मैं हूं। दुनिया में दो महात्मा हैं, एक मैं और एक यह तुम्हारा मोहनदास करमचंद गांधी। लेकिन नंबर एक मैं हूं। यह नंबर दो है। तो जाओ, कह देना अपने महात्मा को कि तुम नंबर दो, नंबर एक का महात्मा बर्नार्ड शॉ है।
उनको बहुत दुख हुआ। क्योंकि गांधी का शिष्य अपने महात्मा को बड़ा समझेगा, दूसरे को कैसे बड़ा समझ सकता है! अपने महात्मा को सभी बड़ा समझते हैं, क्योंकि उसको बड़ा समझने में हम भी बड़े हो जाते हैं। हमारा महात्मा बड़ा यानी हम भी बड़े। बहुत दुख लगा होगा, इस बात से नहीं कि गांधी छोटे हो गए, इस बात से कि शिष्य छोटे महात्मा का शिष्य हो गया। लौट कर गांधी को कहा कि बड़े दुख की बात है, यह आदमी बड़ा अहंकारी मालूम होता है, बर्नार्ड शॉ। अपने ही मुंह से कहने लगा कि मैं नंबर एक का महात्मा हूं और गांधी नंबर दो।
गांधी हंसे और उन्होंने कहाः वे बहुत सीधे और साफ आदमी मालूम होते हैं। दिल में तो हर आदमी को यही होता है कि नंबर एक मैं हूं। लेकिन कहने की हिम्मत कम लोगों में होती है। भीतर-भीतर हर आदमी सोचता है कि नंबर एक मैं हूं।
आप अपने मन में पूछना बहुत गहरे में कि भगवान है नंबर एक कि नंबर एक आप? आप अगर शांति से खोजेंगे, आप पाएंगेः आपके भगवान से भी आगे आप हैं। नंबर एक आप हैं, नंबर दो भगवान है।
एक मंदिर बन रहा था तो मैं उसके पास से निकला, मैंने पूछाः उस गांव में बहुत मंदिर हैं, वह गांव ही मंदिरों का है। तो मैं हैरान हुआ कि उसमें इतने मंदिर हैं कि पूजा करने वाले खोजने मुश्किल हो गए हैं, अनेक मंदिर बिना पूजा के पड़े हैं और अनेक भगवान बिल्कुल उपेक्षित हैं, नया और मंदिर क्यों बनने लगा? उस मंदिर को बनाने वाला जो बूढ़ा कारीगर था, उसके पास मैं गया और मैंने पूछा कि नया मंदिर क्यों बन रहा है?
उसने कहाः इसी मंदिर का राज पूछते हो कि सभी मंदिरों का? क्योंकि मैंने बहुत जिंदगी में मंदिर बनाए। पहले मैं भी सोचता था कि मंदिर भगवान के लिए बनते हैं, लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि कोई मंदिर भगवान के लिए नहीं बना है।
मैंने पूछाः फिर किसलिए बनते हैं?
वह मुझे पीछे ले गया, वहां जहां मूर्तियां गढ़ी जा रही थीं, जहां पत्थर खोदे जा रहे थे। और पीछे ले गया, और आखिर में एक पत्थर पर उसने जाकर कहाः इसलिए। एक पत्थर वहां खुद कर तैयार हो गया था, उस पर बनाने वाले का नाम लिखा हुआ था। अभी भगवान की मूर्तियां बन रही थीं, लेकिन वह पत्थर तैयार हो चुका था।
मंदिर बनते हैं मंदिर बनाने वालों के अहंकार के लिए। दिखता है ऊपर से कि यह आदमी मंदिर बना रहा है, धार्मिक काम कर रहा है, लेकिन सोया हुआ आदमी धार्मिक काम कर नहीं सकता। मंदिर बनाएगा अपने लिए। लेकिन अगर वह अपनी ही मूर्ति उसके अंदर रख दे तो कोई पूछेगा नहीं, दूसरे लोगों के अहंकार को चोट लग जाएगी। उसके मंदिर की हत्या हो जाएगी। इसलिए अपने को पीछे रखता है, भगवान को आगे रखता है। भगवान को आप सिर झुकाते हैं। भगवान की आड़ में उसको भी सिर झुक जाता है। भगवान की आड़ में वह अपने अहंकार की तृप्ति करता रहता है।
और इसलिए तो सारे मंदिर झगड़े के अड्डे बन जाते हैं, क्योंकि जहां अहंकार है, वहां झगड़ा है, वहां अशांति है, वहां उपद्रव है। और फिर दौड़ चलती है कि दूसरे का मंदिर हमसे छोटा रहे, हमारा मंदिर उससे बड़ा हो। बड़े मंदिरों की दौड़ चल रही है सारी दुनिया में। नहीं तो इतने मंदिरों की क्या जरूरत है? पूजने वाले मिलते नहीं और मंदिर बना लेते हैं। यह कौन मंदिर बनवा रहा होगा? अगर जैन एक मंदिर बना लेते हैं, तो हिंदुओं को बनाना जरूरी हो जाता है। अगर श्वेतांबर एक मंदिर बना लेते हैं, तो सामने ही दिगंबरों को एक मंदिर बनाना जरूरी हो जाता है। अगर मंदिर खड़े हो जाते हैं तो मस्जिद बननी चाहिए, मस्जिद बन गई तो गिरजा बनना चाहिए और एक से एक बड़ा बनना चाहिए। क्यों? यह बड़े की दौड़ क्या है? यह अहंकार पीछे काम कर रहा है--मैं।
पूछा है कि दान तो यांत्रिक नहीं है!
सब यांत्रिक है। दान किसलिए करते हैं, यह सोचा है? और जो लोग समझाते हैं कि दान करो, वे क्या समझाते हैं? वे समझाते हैं कि यहां दान करो तो आगे जन्म में मिल जाएगा। यहां दान करो तो वहां ऊपर उपलब्ध होगा। यहां एक पैसा चढ़ाओ तो भगवान वहां एक करोड़ पैसे देंगे। इस लोभ में दान किया जाता है। यह लोभ है पीछे। लोभ बिल्कुल यांत्रिक है। यह ग्रीड है पीछे। यहां हमने एक बड़ा मकान बना लिया है, स्वर्ग में भी बड़ा मकान होना चाहिए। तो उसके लिए दान करना जरूरी है। एजेंसीज खुली हुई हैं सारी दुनिया में। भगवान की तरफ से एजेंट्स बैठे हुए हैं जमीन पर--पंडे हैं, पुरोहित हैं, पादरी हैं, पोप हैं, साधु-संन्यासी हैं। वे समझा रहे हैं कि दान करो और वहां लो। पोप तो यूरोप में टिकटें बेचता रहा स्वर्ग के लिए। जो लोग टिकटें खरीद लेंगे, उनके लिए वहां रिजर्वेशन, वहां सुरक्षा होगी। वहां उनके लिए जगह निश्चित मिलेगी। यह नहीं होगा कि भीड़-भाड़ में क्यू लगाए खड़े हैं और घंटों लग गए, मर कर पहुंच गए और स्वर्ग में जगह नहीं मिल रही है, भीड़-भाड़ ज्यादा है। जो यहां पोप से टिकट खरीद लेगा, उसके लिए सुनिश्चित व्यवस्था रहेगी।
कैसी-कैसी बेवकूफियां चलती रहती हैं! और आदमियों ने टिकटें खरीदीं। करोड़ों रुपयों की टिकटें थीं, छोटी टिकटें नहीं थीं। गरीब आदमी को तो मिल नहीं सकती थीं। अमीर लोगों ने टिकटें खरीदीं।
हमारा सारा दान टिकट ही खरीदना है। एक गाय हम दान कर दें ब्राह्मण को, वैतरणी पार करवा देगी वह गाय। वहां तकलीफ न होगी। यहां दान देंगे, वहां मिल जाएगा, अगले जन्म में मिल जाएगा। यह इनवेस्टमेंट है, यह दान-वान नहीं है। जैसे एक आदमी दुकान में पैसा लगाता है दस हजार, ताकि बीस हजार मिल जाएं। ऐसे एक आदमी दस हजार दान में लगाता है कि बीस हजार का पुण्य मिल जाए, कोई तरकीब हाथ में आ जाए। तो अगर पैसा देने से पुण्य मिलता हो, धर्म मिलता हो, तो जिनके पास पैसे हैं वे मौका छोड़ेंगे? और लोगों के पास इतना पैसा है कि जमीन पर खरीदने के लिए चीजें नहीं रह गईं, तो अब वे स्वर्ग में खरीदते हैं, क्या करें? जमीन पर खरीदने के लिए चीजें नहीं हैं।
अब राकफेलर या मॉर्गन, या अमेरिका के करोड़पति, अरबपति, उनके पास इतना पैसा है कि समझ में नहीं आता कि क्या करें इसका? इसका कोई उपयोग नहीं रहा। एक सीमा पर जाकर पैसा व्यर्थ हो जाता है। क्या करिएगा? सोना खाइएगा, चांदी खाइएगा, क्या करिएगा? तो अब राकफेलर क्या करे? पैसा है बहुत, अब दान करता है। क्योंकि अगर होगा कहीं कोई भगवान, होगा कहीं स्वर्ग, तो वहां के लिए भी इंतजाम किए लेता है। आप यहां भी पिछड़ जाओगे, राकफेलर वहां भी आगे रहेगा। याद रखना, आप यहां पीछे पड़ जाओगे, बिड़ला जी वहां भी आगे रहेंगे। उन्होंने इतने मंदिर बनवाए, इतना दान किया। गरीब आदमी यहां भी पीछे रहेगा, स्वर्ग में भी पीछे रहेगा। क्योंकि धन से धर्म भी खरीदा जा सकता है।
मैं आपसे निवेदन करता हूंः जो धर्म धन से खरीदा जा सकता है, वह धर्म नहीं है। धर्म खरीदा जाता है प्राणों से, धन से नहीं। धर्म खरीदा जाता है आत्मा से, धन से नहीं। और बड़े मजे की बात तो यह है कि धन जिसे खरीदना होता है, उसे धर्म खोकर खरीदना होता है। यह सर्किल बड़ा अजीब है। धन खोजता है धर्म खोकर! धर्म खोकर जिस धन को इकट्ठा करता है, होशियारी बड़ी अजीब है, उसी धन से वह धर्म भी खरीद लेता है। धन इकट्ठा नहीं हो सकता धर्म खोए बिना। आदमी खा ले, कमा ले, कपड़े पहन ले, यह दूसरी बात है। लेकिन अरबों रुपये इकट्ठे नहीं हो सकते बिना धर्म खोए। दूसरों को अशांत और पीड़ित किए बिना धन इकट्ठा नहीं हो सकता। शोषण किए बिना धन इकट्ठा नहीं हो सकता। धन इकट्ठा होने की तरकीबें शोषण ही हैं। तो धन तो इकट्ठा होता है धर्म खोकर और फिर उसी धन से पंडे-पुजारी, साधु-संन्यासी हमें समझा रहे हैं कि वापस धर्म खरीद लो। खून में भीगा हुआ है सारा धन और उसी धन से फिर धर्म भी खरीदा जाता है और भगवान भी खरीदे जाते हैं। ये भगवान भी झूठे और ईजाद किए हुए हैं, यह धर्म भी झूठा और ईजाद किया हुआ है।
दान कौन करेगा? और जिस मन को यह ख्याल आ गया है कि मैं दान दूं, वह क्या धन इकट्ठा कर सकेगा? जिसको यह ख्याल आ गया है कि मैं दान दूं, वह धन इकट्ठा कर सकेगा? एक आदमी एक करोड़ रुपये इकट्ठा कर लेता है और एक लाख रुपये दान कर देता है, और वाह-वाह और सारे लोग कहते हैं--बड़ा धार्मिक है, बड़ा दानवीर है। यह करोड़ रुपया इकट्ठा करने में इसकी धर्म-बुद्धि कहीं भी बाधा नहीं बनती और लाख रुपये यह दान कर देता है और धर्मवीर भी हो जाता है और दानवीर भी हो जाता है और सारी स्वर्ग की सारी संपत्ति भी कमा लेता है।
यह दान बिल्कुल ही यांत्रिक है, इसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। सच बात यह है कि जब तक हमारा चित्त सोया हुआ है, हम कुछ भी करें, जब तक हम बिल्कुल मशीन की तरह हैं, तब तक हम कुछ भी करें, हमारे किसी किए हुए का कोई मूल्य नहीं हो सकता। इसलिए मेरा जोर इस बात पर हैः जागना चाहिए चित्त। न तो दान काम करेगा, न प्रार्थना, न पूजा, न सेवा।

एक मित्र ने और पूछा है कि हम सेवा करें? कल वे मेरे पास आए थे, तो उन्होंने कहा कि सेवा तो धर्म है। हम गरीबों की सेवा करें? बीमारों की सवा करें?

अंतिम रूप से इस पर चर्चा करूंगा, फिर और प्रश्न बचेंगे, उनकी रात बात करूंगा।
मैं आपसे कहूंः सेवा भी धर्म नहीं है। धार्मिक व्यक्ति में सेवा हो सकती है, लेकिन सेवक धार्मिक है, इस बात के समझने की भूल में मत पड़ जाना। जिस व्यक्ति के चित्त में धर्म है, उसके जीवन में सेवा हो सकती है। लेकिन जो सेवा करने निकल पड़ा, उसके जीवन में धर्म हो जाएगा, इस भूल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। जिस व्यक्ति का चित्त शांत होगा, आनंदित होगा, प्रेम से परिपूर्ण होगा, उसका सारा जीवन सेवा बन जाता है। लेकिन एक आदमी सेवा करने निकल पड़े और सोचता हो कि इस सेवा से मेरा चित्त आनंदित हो जाएगा, तो गलती में है। सेवा भी अहंकार का पोषण बनती है।
इसलिए आपने देखा होगा, सेवकों का अहंकार धनियों के अहंकार से भी ज्यादा होता है। मैं सेवक हूं, यह इतनी जोर की बात, उसके चारों तरफ वह घोषणा होती रहती है, जिसका कोई हिसाब नहीं।
मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है।
एक पादरी ने एक स्कूल के बच्चों को सेवा की शिक्षा दी। और उनसे कहा कि सर्विस, सेवा ही धर्म है। तुम रोज जरूर थोड़ी न बहुत सेवा किया करो। बिना सेवा किए कोई आदमी भगवान को नहीं पा सकता।
उन बच्चों ने पूछाः कैसी सेवा?
उसने कहा कि कोई नदी में डूबता हो तो बचाना चाहिए, कोई गिर पड़े तो उठाना चाहिए, कोई बूढ़ा आदमी रास्ता पार न कर सकता हो तो रास्ता पार कराना चाहिए। कुछ न कुछ सेवा का काम रोज करना चाहिए।
सात दिन बाद वह वापस आया। तो उसने बच्चों से पूछाः तुमने कोई सेवा का कृत्य किया?
तीन बच्चों ने तीस बच्चों में से हाथ उठाए। पादरी खुश हुआ, क्योंकि जमाने बदल गए हैं, तीस बच्चों में से तीन भी मान लें तो बहुत। बहुत खुश हुआ। उसने कहाः कोई हर्ज नहीं, यह भी संख्या काफी है, तीन बच्चों ने बात मान ली। बताओ मेरे बेटो, तुमने क्या सेवा की?
एक लड़के ने कहाः मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। बड़ी भीड़ थी, बड़ा टै्रफिक था, बड़ी कठिनाई थी, बड़ी मुश्किल से करवा पाया। लेकिन मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
उस पादरी ने उसकी पीठ ठोंकी और कहाः धन्यवाद, बहुत अच्छा तुमने किया। ऐसा सदा करो। दूसरे से पूछाः तुमने क्या किया?
उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई। बड़ी भीड़ थी, बड़ा टै्रफिक था।
उस पादरी को थोड़ा कुछ ख्याल हुआ। फिर उसने सोचा, हो सकता है इसे भी कोई बूढ़ी औरत मिल गई हो, बूढ़ी औरतों की कोई कमी तो है नहीं। उसने कहाः तुमने भी ठीक किया।
उसने तीसरे से पूछाः तुमने क्या किया?
उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई।
तब उसे थोड़ी हैरानी हुई। उसने कहाः तुम तीनों को तीन बूढ़ी औरतें मिल गईं?
वे तीनों एक साथ बोलेः तीन नहीं, बूढ़ी औरत तो एक ही थी, हम तीनों ने इकट्ठे ही पार करवाई।
उसने कहाः हद्द हो गई! क्या बहुत ही बूढ़ी थी? क्या चल-फिर भी नहीं सकती थी? इसलिए क्या तुमको उठा कर ले जाना पड़ा कि तीन-तीन आदमियों की जरूरत पड़ी?
वे तीनों बोलेः नहीं, यह बात नहीं है। वह असल में सड़क पार करना ही नहीं चाहती थी। हमको बड़ी मुश्किल में पार करवानी पड़ी। उसको उस तरफ जाना ही नहीं था, तो बड़ी हुज्जत और बड़ी परेशानी से हम पार करवा पाए। लेकिन आपने कहा था तो हमने सेवा की। हमने पार करा दी।
ये जो दुनिया के सेवक हैं, ये अक्सर ऐसे ही काम करते हैं और करते रहे हैं। और इन सेवकों से ज्यादा मिस्चीफ मांगर्स दुनिया में और कोई भी नहीं है। इनसे ज्यादा उपद्रवी और कोई भी नहीं है। इनसे दुनिया का जितना अहित हुआ है, उसका ठिकाना नहीं है, उसकी गणना नहीं की जा सकती। इनको इससे कोई मतलब नहीं है कि क्या हो रहा है। इनको सेवा करनी है। क्योंकि सेवा धर्म है और सेवा से मोक्ष मिलने वाला है। तो ये सेवा किए जाते हैं, बिना इस बात की फिकर किए कि उस सेवा से क्या हो रहा है। उसके क्या परिणाम हो रहे हैं, आदमी के जीवन में क्या हो रहा है उससे। लेकिन ये सेवा किए जाते हैं। हजार तरह की सेवाएं सेवक करते हैं। दुनिया का क्या अहित हो रहा है, इसका उन्हें कोई पता नहीं।
एक सेवक है, वह आपके पास आता है और कहता हैः हिंदू धर्म को संगठित करना है, मैं तैयार हूं। हिंदू धर्म संगठित होना चाहिए। और पता नहीं हिंदू धर्म संगठित हो जाएगा तो मुसलमानों की हत्या के सिवाय और क्या करेगा? एक मुसलमान है, वह इस्लाम के लोगों से जाकर कहता हैः इस्लाम खतरे में है, मैं धर्म की सेवा करना चाहता हूं। इकट्ठे हो जाओ मुसलमानो। वह उनको इकट्ठा करवा देता है, पाकिस्तान बनवा देता है, लाखों लोगों को कटवा देता है। वह सेवक का काम है, उसने इस्लाम की सेवा कर दी।
सारी दुनिया में क्रिश्चिएनिटी की सेवा करने वाले पादरी घूम रहे हैं लाखों की तादाद में। वे जो सेवा कर रहे हैं, उससे जिस दिन मुक्ति हो जाएगी, दुनिया का उस दिन कितना हित होगा, नहीं कहा जा सकता। हजार तरह की सेवा चल रही है और हर आदमी यह कह रहा है कि हम सेवा करना चाहते हैं मनुष्यता की। और उसे पता भी नहीं है अभी खुद की मनुष्यता का, तो वह दूसरे की क्या सेवा करने जाएगा! उसे खुद पता भी नहीं कि क्या है जीवन का सत्य, और वह सेवा करने निकल पड़ा है। उससे खतरे होंगे।
दुनिया में हर कौम की सेवा करने वाले लोग हैं। राष्ट्रीय नेता हैं, वे कहते हैं, हम देश की सेवा करते हैं। राष्ट्रीय नेताओं के कारण सारी दुनिया में युद्ध होते रहे हैं और हो रहे हैं। जहां-जहां नेशनलिज्म है, जहां-जहां राष्ट्र का भाव है, वहां-वहां युद्ध होगा। लेकिन हमारे मुल्क में आकर एक नेता हमसे कहता हैः हम देश की सेवा कर रहे हैं--झंडा ऊंचा रहे हमारा! हम सेवा कर रहे हैं। हमको पता नहीं कि जब तक, झंडा ऊंचा रहे हमारा, ऐसा कहने वाले लोग होंगे, तब तक दुनिया में युद्ध होगा। क्योंकि दूसरी कौम भी यही कहती है कि झंडा ऊंचा रहे हमारा। अब दो झंडे एक बराबर ऊंचे नहीं रह सकते। कोई थोड़ा ऊंचा हुआ तो हमारा उसको नीचा करेगा। तो झगड़ा होगा।
ये राष्ट्र के गीत गाने वाले सेवक युद्ध की बुनियाद हैं। यह समझाने वाले कि भारत महान देश है, यह समझाने वाले कि चीन महान देश है, यह समझाने वाले कि अमेरिका महान है, रूस महान है, ये सारे खतरनाक लोग हैं। और ये सेवा कर रहे हैं। और हम इनकी सेवा ले रहे हैं और इनके पैर छू रहे हैं कि ये बहुत बड़े सेवक हैं। दो महायुद्ध लड़वाए इन्होंने अभी-अभी। दस करोड़ लोगों की हत्या करवाई दो महायुद्धों में इन सेवकों ने। राष्ट्रीय सेवक!
जमीन पर पांच हजार साल के इतिहास में पंद्रह हजार लड़ाइयां लड़ी गई हैं। पंद्रह हजार युद्ध किसने करवाए? इन राजनैतिक सेवकों ने। और दिखाई हमें पड़ता नहीं कि सेवक क्या कर रहे हैं, ये क्या समझा रहे हैं, ये क्या पकड़ा रहे हैं, ये कौन से पागलपन और कौन से रोग के कीटाणु फैला रहे हैं। इनको सेवा करनी है। हम खुश होते हैं कि बड़ी सेवा कर रहे हैं। उस सेवा के जाल में क्या निकलता है आखिर में, उसका कोई हिसाब नहीं रह जाता कि क्या हो रहा है।
जिन्ना ने मुसलमानों की सेवा कर दी, हिंदुस्तान की सेवा कर दी, इस्लाम की सेवा कर दी, और जब तक चलेगी यह सेवा न मालूम सैकड़ों वर्षों तक इस जमीन के दो टुकड़े आपस में लड़ेंगे और न मालूम कितने लोगों की हत्या होगी। और सेवक थे जिन्ना। कर गए सेवा, उन्होंने कर दी सेवा इस्लाम की। अब यह चलेगा। अब बहुत कठिन है कि ये दो टुकड़े आपस में कब हत्या बंद करेंगे एक-दूसरे की, यह बहुत कठिन है। यह सेवा का फल हो गया। असल में सोए हुए नेता और सोए हुए लोग और सोए हुए सेवक जो कुछ भी करेंगे, उससे अहित होगा, हित नहीं हो सकता।
एक ही हित है जीवन में, वह है जागरण। एक ही मंगल है जीवन में, वह है प्रबुद्ध चेतना। और उस जागे हुए चित्त से जो भी निकलता है, उससे हित होता है, मंगल होता है। और सोए हुए चित्त से जो भी निकलता है, उससे अहित होता है। चाहे वह सेवा हो, चाहे प्रेम, चाहे धर्म, चाहे पूजा, चाहे प्रार्थना।
मेरा जोर इस बात पर है, यह सवाल है कि आप क्या हैं? क्योंकि आपके होने से आपका करना निकलता है। अगर आप भीतर गलत हैं, तो आप जो भी करेंगे वह गलत होगा। और अगर आप भीतर सही हैं, तो आप जो भी करेंगे वह सही होगा। क्योंकि कोई और अन्यथा हो नहीं सकता। और भीतर से निकलता है हमारा जीवन, इसलिए वह भीतर परिवर्तित हो जाना चाहिए।
और भीतर के परिवर्तन के लिए हम इन दिनों में विचार करते हैं। आज रात उस संबंध में और सोचेंगे कि वह भीतर का परिवर्तन कैसे हो जाए। ये जो सारे प्रश्नों के जो उत्तर मैं दे रहा हूं, इसी ख्याल से ताकि आपकी नजर से यह बात हट ही जाए, कि बाहर का कोई परिवर्तन आत्मिक क्रांति नहीं बन सकता।
शायद कई दफा मेरी बात सुन कर आपको ऐसा लगता हो कि यह भी गलत, यह भी गलत, वह भी गलत, तो फिर हम क्या करें?
मैं निश्चित जान कर कह रहा हूं कि यह सब गलत है। अगर ये सब बातें आपको गलत दिखाई पड़ जाएं तो ही वह दिखाई पड़ सकता है जो ठीक है और सही है। लेकिन जब तक हम कोई गलत बात को पकड़े रहें, तब तक वह सही बात दिखाई नहीं पड़ सकती। एक बार हो सकता है मेरे प्रश्न आपको दुख पहुंचाते हों, मेरे उत्तर दुख पहुंचाते हों, मन को चोट लग जाती हो, ऐसा लगता हो कि आप जो भी मानते हैं उसको मैं गलत कह रहा हूं। उसको जान कर गलत कह रहा हूं और चोट पहुंचाना चाहता हूं, क्योंकि चोट पहुंच जाए तो चिंतन पैदा हो सकता है। और चोट न पहुंचे तो चिंतन कभी पैदा नहीं होता।
तो जो मैं कह रहा हूं, उसे सोचें। यह कोई व्याख्यान नहीं है, कोई भाषण नहीं है कि मैं आया और मैंने व्याख्यान दिया और आपने ताली बजाई। दूसरे महात्मा काफी हैं, उनके लिए ताली बजाइए और सुनिए। यह कोई व्याख्यान नहीं है, कोई भाषण नहीं है, यह मुझे कोई रोग नहीं है कि आपको कुछ बातें समझाऊं और आप ताली बजाएं, और ताली बजा कर सुन कर उसका आनंद लें। मेरे हृदय में मुझे कुछ दिखाई पड़ता है, वह आपसे निवेदन कर रहा हूं, प्रार्थना कर रहा हूं कि आप उस पर सोचें। आप सुनने वाले, मैं बोलने वाला, ऐसा मामला नहीं है। ऐसा कोई संबंध मेरे और आपके बीच नहीं है। मैं गुरु और आप शिष्य, ऐसा कोई संबंध नहीं है। मैं एक मित्र की हैसियत से, मुझे जो दिखाई पड़ता है, वह आपसे कह रहा हूं। एक मित्र की हैसियत से उसे सोचें, विचार करें, तो हो सकता है कोई बात आपको भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाए। और अगर कोई बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो आपके भीतर वह द्वार खुल जाएगा जो जीवन में क्रांति लाता है और परिवर्तन लाता है।

और बहुत से प्रश्न हैं, उनकी रात को मैं आपसे चर्चा करूंगा। दोपहर की बैठक समाप्त हुई।

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