रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-05)

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो) 

भारत के भटके युवक

मेरे प्रिय आत्मन्!
हमारी चर्चाओं का अंतिम दिन है, और बहुत से प्रश्न बाकी रह गए हैं। तो मैं बहुत थोड़े-थोड़े में जो जरूरी प्रश्न मालूम होते हैं, उनकी चर्चा करना चाहूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। उसे सच्ची राह पर कैसे लाया जा सकता है?
पहली तो यह बात ही झूठ है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। भारत का जवान राह नहीं खो बैठा है, भारत की बूढ़ी पीढ़ी की राह अचानक आकर व्यर्थ हो गई है, और आगे कोई राह नहीं है। एक रास्ते पर हम जाते हैं और फिर रास्ता खत्म हो जाता है, और खड्डा आ जाता है। आज तक हमने जिसे रास्ता समझा था वह अचानक समाप्त हो गया है, और आगे कोई रास्ता नहीं है। और रास्ता न हो तो खोने के सिवाय मार्ग क्या रह जाएगा?
भारत का जवान नहीं खो गया है, भारत ने अब तक जो रास्ता निर्मित किया था, इस सदी में आकर हमें पता चला है कि वह रास्ता है नहीं। इसलिए हम बेराह खड़े हो गए हैं। रास्ता तो तब खोया जाता है जब रास्ता हो और कोई रास्ते से भटक जाए। जब रास्ता ही न बचा हो तो किसी को भटकने के लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। जवान को रास्ते पर नहीं लाना है, रास्ता बनाना है। रास्ता नहीं है आज।

और रास्ता बन जाए तो जवान सदा रास्ते पर आने को तैयार है, हमेशा तैयार है। क्योंकि जीना है उसे, रास्ते से भटक कर जी थोड़े सकेगा! बूढ़े रास्ते से भटके, तो भटक सकते हैं। क्योंकि अब उन्हें जीना नहीं है। और सब रास्ते--भटके हुए रास्ते भी कब्र तक पहुंचा देते हैं।
लेकिन जिसे जीना है, वह भटक नहीं सकता। भटकना मजबूरी है उसकी। जीना है तो रास्ते पर होना पड़ेगा, क्योंकि भटके हुए रास्ते जिंदगी की मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं। जिंदगी की मंजिल तक पहुंचने के लिए ठीक रास्ता चाहिए, लेकिन रास्ता नहीं है। मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि युवक नहीं भटक गया है, हमने जो रास्ता बनाया था वह रास्ता ही विलीन हो गया; वह रास्ता ही नहीं है अब। आगे कोई रास्ता ही नहीं है। और अगर हम युवक वर्ग को ही गाली दिए जले जायेंगे कि तुम भटक गए हो, तो वह हमपर सिर्फ क्रुद्ध हो सकता है क्योंकि उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है और आप कहते हैं भटक गए हो। हमने कुछ रास्ता बनाया था, जो बीसवीं सदी में आकर व्यर्थ हो गया है। हमने एक रास्ता बनाया था। वह रास्ता ऐसा था कि उसका व्यर्थ हो जाना अनिवार्य था।
पहली तो बात यह है: हमने पृथ्वी पर चलने लायक रास्ता कभी नहीं बनाया। हमने रास्ता बनाया था, जैसे बेबीलोन में टॉवर बनाया था कुछ लोगों ने स्वर्ग जाने के लिए। वह जमीन पर नहीं जाता था, वह ऊपर आकाश की तरफ जा रहा था। स्वर्ग पहुंचने के लिए कुछ लोगों ने एक टॉवर बनाया था। हिंदुस्तान ने पांच हजार सालों में जमीन पर चलने लायक रास्ता नहीं बनाया, स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजे हैं। स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजने में हम पृथ्वी पर रास्ते बनाने भूल गए हैं। हमारी आंखें आकाश की तरफ अटक गई हैं। और हमारे पैर तो मजबूरी से पृथ्वी पर ही चलेंगे। बीसवीं सदी में आकर हमको अचानक पता चला है कि हमारी आंखों और पैरों में विरोध हो गया है। आंखें आकाश से वापस जमीन की तरफ लौटी हैं तो हम देखते हैं, नीचे कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि नीचे हमने कभी देखा ही न था।
इस देश मे हमने एक पारलौकिक संस्कृति बनाने की कोशिश की थी। बड़ा अदभुत सपना था, लेकिन सफल नहीं हुआ, न सफल हो सकता था। इस पृथ्वी पर रहने वाले को इस पृथ्वी की संस्कृति बनानी पड़ेगी, पार्थिव। इस पृथ्वी की संस्कृति हम निर्मित नहीं किए।
मैंने सुना है, यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी एक रात एक गड्ढे में गिर गया। चिल्लाया है, बड़ी मुश्किल से पास की किसी किसान औरत ने उसे निकाला है। जब निकाला है तब उस ज्योतिषी ने कहा है कि मां, तुझे बहुत धन्यवाद। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं, तारों के संबंध में मुझसे ज्यादा कोई भी नहीं जानता। अगर तुझे तारों के संबंध में कुछ भी जानना हो तो मैं बिना फीस के तुझे बता दूंगा, तू चली आना। मेरी फीस भी बहुत ज्यादा है। उस बूढ़ी औरत ने कहाः बेटे, तुम निशिं्चत रहो, मैं कभी न आऊंगी; क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते हैं उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा मैं कैसे करूं?
उस बूढ़ी औरत ने ठीक कहा। और वह ज्योतिषी गिरा इसीलिए गड्ढे में, कि वह रात को आकाश के तारों का अध्ययन करता हुआ चला जा रहा था। पैर भटक गए और वह गड्ढे में गिर गया।
भारत कोई तीन हजार साल से गड्ढे में पड़ा है आकाश की तरफ आंखें उठाने के कारण। नहीं, मैं यह नहीं कहता हूं कि किन्हीं क्षणों में आकाश की तरफ न देखा जाए, लेकिन आकाश की तरफ देखने में समर्थ वही है जो जमीन पर रास्ता ठीक से बना ले और विश्राम कर सके। वह आकाश की तरफ देख सकता है। लेकिन हम जमीन को भूल कर अगर आकाश की तरफ देखेंगे तो गहरी खाई में गिरने के सिवाय कोई मार्ग नहीं है। लेकिन पूछा जा सकता है कि भारत के जवान ने इसके पहले यह भटकन क्यों न ली? बीसवीं सदी में आकर क्या बात हो गई? रास्ता--मैं कह रहा हूं, तीन हजार साल से हमारी पूरी संस्कृति ने जमीन पर रास्ता ही नहीं बनाया। अगर हम पुराने शास्त्र पढ़ें तो उनमें हमें मिल जाएंगी किताबें, जिनका नाम है, ‘मोक्षमार्ग’, मोक्ष की तरफ जाने वाला रास्ता। लेकिन पृथ्वी पर चलने वाले रास्ते के संबंध में एक किताब भारतीय संस्कृति के पास नहीं है। स्वर्ग जाने का रास्ता भी है, नरक जानेे का रास्ता भी है, लेकिन पृथ्वी पर चलने के रास्ते के संबंध में कोई बात नहीं है।
पूछा जा सकता है, आज ही क्यों यह सवाल उठा? इसके पहले जवान ने इनकार क्यों न किया? उसका कारण हैं। हमने एक और तरकीब की थी। हमने एक तरकीब की थी कि हम जवान को जवान होने ही न देते थे। बच्चों की शादियां कर देते थे और जब बच्चों की शादियां हो जाती थीं, वे जिम्मेवार हो जाते थे। सत्रह और अठरह साल का होते-होते लड़का बाप बन जाता था। बाप जवान नहीं हो सकता, बाप बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। और जब कोई व्यक्ति बाप बन जाता है तो वह बूढ़ोें की तरह सोचने लगता है। हिंदुस्तान में जवान भी नई घटना है, नया फिनोमिना है। हिंदुस्तान में जवान पहले कभी नहीं था। बच्चे थे और बूढ़े थे। और दोनों के बीच में हमने ऐसा तालमेल बिठाया था कि बीच की सीढ़ी को बिलकुल ही गोल कर दिया था। उसका पता ही नहीं चलता था कि कहां है। आठ और नौ साल के बच्चे की शादी कर देंगे तो जवान कैसे पैदा होगा?
जवान भी बीसवीं सदी की घटना है। क्योंकि अब शादी होती है पच्चीस और छब्बीस वर्ष में। बचपन चला जाता है बारह, तेरह, चैदह साल में। फिर चैदह साल के बाद दस साल का वक्त बचता है जब आदमी बच्चा भी नहीं होता और बूढ़ा भी नहीं होता। यह दस साल का वक्त है जब वह युवा होता है। यह पीढ़ी पहली दफे पैदा हुई है। यंगर जनरेशन नई घटना है। यह कभी थी ही नहीं दुनिया में। और इसलिए उसके साथ नये सवाल आ गए हैं। उस नई पीढ़ी ने पूछना शुरू किया है। उस नई पीढ़ी ने संदेह करना शुरू किया है। उस नई पीढ़ी ने कहा कि हमें पृथ्वी पर रहना है। यह स्वर्ग की बातें बंद करो। हमें जमीन पर रहने का रास्ता बताओ। और जमीन पर रहने का हमारे पास कोई रास्ता नहीं है, इसलिए वह भटक गई है। और अगर आज भारत की नई पीढ़ी पश्चिम का अनुकरण कर रही है तो मजबूरी में; क्योंकि हमारे बापदादों ने उसके लिए कोई रास्ता नहीं बनाया। उसे मजबूरी में दूसरों की तरफ देखना पड़ रहा है। वह मजबूरी है। उसके लिए जवान को दोेषी मत ठहराना। और अगर हमने देर की तो शायद हो सकता है कि हम सदा के लिए इमिटेटिव हो जाएं, सदा के लिए हम नकल करने लगें।
हमें जल्दी करनी चाहिए और जमीन के रास्ते अपने बना लेने चाहिए ताकि हम अपने पैर पर खड़े हो सकें। आज हमें हर चीज के लिए पश्चिम की तरफ देखना पड़ रहा है। हर चीज के लिए हमें उनकी तरफ आंख उठानी पड़ती है। और उसका कारण है। उसका कारण यह है कि हमारे पास कुछ भी नहीं है। सच यह है कि हमारे मां-बाप हमारे लिए वसीयत में सिवाय अध्यात्म के और कुछ भी नहीं छोड़ गए हैं। अकेले अध्यात्म से जिया नहीं जा सकता। हां, मरना हो तो मरा जा सकता है। अकेले अध्यात्म से जीना नहीं निकलता है। और ध्यान रहे, अध्यात्म की उत्सुकता जवान की नहीं होती है, आमतौर से बूढ़े की होती है। क्योंकि जैसे आदमी मरने के करीब पहुंचता है, वह विचार करने लगता है, मरने के बाद क्या? जवान पूछता है जिंदगी में क्या है? बूढ़ा पूछता है, मरने के बाद क्या है? उनके सवाल अलग हैं, उनके जवाब अलग होंगे। हमारे सारे शास्त्र बूढ़ों के लिए लिखे गए हैं। कोई परीक्षित मरते समय सुनता है। वह बूढ़े के शास्त्र हैं जो पूछ रहा है कि मरने के बाद क्या होगा--स्वर्ग होंगे, नरक होंगे, देवता होंगे, आत्मा बचेगी, नहीं बचेगी, मैं कहां जाऊंगा, नहीं जाऊंगा? वह मरते आदमी के शास्त्र हैं। जिंदा आदमी, जिसे जीना है उसके लिए हमने कौन सा शास्त्र निर्मित किया है? इसलिए हम विज्ञान पैदा नहीं कर पाए। विज्ञान जवान का शास्त्र है, धर्म बूढ़े का शास्त्र है।
तो हमारा जवान जरूर मुश्किल में है, बहुत कठिनाई में है। और मेरी अपनी मान्यता है कि वह करुणा योग्य है, क्रोध के योग्य नहीं। बहुत दया के योग्य है क्योंकि उसको कोई वसीयत नहीं छोड़ गया है। एक अर्थ में हमारा युवक अनाथ है। अनाथ इस अर्थों में कि उसकी जमीन की कोई वसीयत उसके पास नहीं है। उसकी पुरानी पीढ़ियां उसके लिए जीने योग्य, जिंदगी से रस निकालने योग्य, कोई भी तकनीक, कोई भी साइंस नहीं छोड़ गई हैं। हां, उसे एक तरकीब बता दी है कि अगर तुम्हें मरना हो तो मोक्ष जाने का रास्ता है। अभी वह मरना नहीं चाहता है, वह जीना चाहता है--उसके लिए व्यर्थ है। इसलिए मंदिरों में, मस्जिदोें में जवान दिखाई नहीं पड़ता। हां, लड़कियों वगैरह के खयाल से कोई जवान पहुंच गया हो तो बात अगल है। लेकिन मंदिर और मस्जिद के लिए जवान नहीं जाता, वहां बूढ़े इकट्ठे हो रहे हैं।
वहां बूढ़े क्यों दिखाई पड़ रहे हैं, उसका कारण है। उसका कारण है, बूढ़े की उत्सुकता बदल गई। अब वह जिंदा रहने में उत्सुक नहीं है। अब वह ढंग से मरने में उत्सुक है। ठीक है, उसकी उत्सुकता गलत नहीं है। उसकी उत्सुकता की भी तृप्ति होनी चाहिए और उसके चिंतन को भी मार्ग मिलना चाहिए कि मृत्यु के बाद क्या है? लेकिन वह जवान का चिंतन नहीं है। तो हम कठिनाई में पड़ गए हैं। रास्ता नहीं है, रास्ता बनाना पड़ेगा।
कौन बनाएगा यह रास्ता? बड़ी जटिलता का सवाल है क्योंकि बूढ़े विरोध में हैं, वृद्ध पीढ़ी विरोध में है और जवान पीढ़ी अनुभवहीन है। रास्ता कौन बनाएगा? रास्ता बनाने के लिए दोे चीजों की जरूरत है--अनुभव की और शक्ति की। शक्ति जवान के पास है, अनुभव बूढ़े के पास है। उन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं है। रास्ता बनेगा कैसे? रास्ता बनाने के लिए हिंदुस्तान की बूढ़ी पीढ़ी को जवान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण होना पड़ेगा। अपने अनुभव से उसे सचेत करना पड़ेगा,और जवान की शक्ति को नियोजित करना पड़ेगा। लेकिन बूढ़ी पीढ़ी निंदा में संलग्न है। वह सिर्फ निंदा कर रही है, वह सिर्फ गालियां दे रही है कि सब बिगड़ गए हैं। लेकिन यह कहने से कुछ फल नहीं होता। इससे अगर कोई बिगड़ भी गया हो तो उसे कोई सुधरने का मार्ग नहीं मिलता। अगर कोई न भी बिगड़ा हो तो बार-बार कहने से कि बिगड़ गया है, उसके चित्त में बिगड़ने की दिशा पैदा होती है।
नहीं, वृद्ध पीढ़ी को, बहुत की कीमती समय यह है कि, वह अपने सारे अनुभव पर ध्यान देकर भारत के लिए नया रास्ता बनाने में युवक की शक्ति का नियोजन कर सके। लेकिन यह तभी हो सकता है जब वृद्ध--पुरानी पीढ़ी--नई पीढ़ी की तरफ निंदा से न देखे, करुणा और प्रेम से देखे। लेकिन वृद्ध नाराज है। नाराज वह इसलिए है कि उसकी पुरानी सारी दुनिया अस्तव्यस्त हो गई है। नाराजगी का कारण दूसरा है। नाराजगी का कारण युवक नहीं है। नाराजगी का कारण उसका अब तक का बनाया हुआ सारा ढांचा गिर गया है। जैसे में एक मकान बनाऊं और पूरा मकान गिर जाए और मैं अपने बेटे की पिटाई शुरू कर दूं। मेरा क्रोध तो उस मकान के गिर जाने के लिए है।
पुरानी संस्कृति का पूरा मकान गिर रहा है, गिर गया है। नाराजगी बेटे पर है और ऐसा लग रहा है कि ये बेटे मकान को गिराए दे रहे हैं। नहीं। मकान, जैसा हमने बनाया था, वह गिरने ही वाला था। हां बेटों ने अब तक उसे सहारा दिया था क्योंकि बेटों को हम बहुत जल्दी बूढ़ा बना देते थें। अब बेटे उसको बचाने में सहायता नहीं दे रहे हैं। गिरा नहीं रहें हैं, सिर्फ बचाने में सहायता नहीं दे रहे हैं। और बूढ़े हाथ कैसे किसी मकान को बचा सकते हैं? वह गिर रहा है। वे बेटों पर नाराज हैं। उस नाराजगी को छोड़ना पड़ेगा। और मेरी दृष्टि मेें अगर पिछली पीढ़ी नाराजगी को छोड़ दे, तो नई पीढ़ी उसके प्रति आदर से भर सकती है। जो निंदा करे उसके प्रति आदर नहीं हो सकता। नई पीढ़ी का आदर नहीं है पुरानी पीढ़ी के प्रति, क्योंकि पुरानी पीढ़ी सिवाय निंदा के और कुछ भी नहीं कर रही है।
मैं एक घर में जाता हूं। जब भी जाता हूं, वह सज्जन अपने लड़के को सामने लाकर खड़ा कर देते हैं अपराधी की तरह, कहते हैं, देखिए साहब, अभी कितनी उम्र है तुम्हारी? और मुंह सूंघिए, सिगरेट की बास आ रही है। और उस लड़के को सामने खड़ा कर देते हैं। वह आंख झुकाए हुए खड़ा है। अपराधी अनुभव कर रहा है। वह बाप का दुश्मन हुआ जा रहा है। बुढ़ापे में इस पिता को वह ठीक करेगा। छोड़ नहीं सकता है। यह इकट्ठा हो रहा है क्रोध। उन्होंने न मालूम कितनों के सामने उस लड़के को खड़ा किया होगा और भूल से मेरे सामने भी खड़ा कर दिया।
मैंने उनसे पूछाः यह लड़का सिगरेट अभी नहीं पीएगा तो कब पीएगा? उन्होंने कहाः क्या कहा, क्या कहते हैं आप? क्या कहते हैं आप! उस लड़के ने आंख उठा कर मुझे गौर से देखा। पहली दफा एक आदमी आया है कि जिसने सहानुभूति प्रकट की। वह लड़का रात मुझसे अलग से मिलने आया और उसने कहा कि आप मुझे बताएं कि मैं सिगरेट कैसे छोड दूं? मैं भी परेशान हूं। लेकिन मेरे पिता इतने क्रुद्ध हैं कि मैं सिर्फ उनका क्रोध तोड़ने के लिए, और उनके खिलाफ बगावत करने के लिए सिगरेट पीए चला जा रहा हूं। और मैं पीता रहूंगा। वे कितना इनकार करते हैं, देखते हैं। चोरी से पीऊंगा, छिप कर पीऊंगा, लेकिन मैं पीता रहूंगा। मेरे पास और कोई उपाय नहीं है इनकार करने का, तो मैं सिगरेट पीकर डिनाई कर रहा हूं, अपने पिता को इनकार कर रहा हूं। लेकिन आपको कैसे इनकार करूं? आपने कहा कि यह उम्र है पीने की, तो मैं पछने आया हूं, सच में सिगरेट पीने में कोई हर्ज नहीं है? मैं छोड़ना चाहता हूं, लेकिन मेरे पिता मुझे नहीं छोड़ने दे रहे हैं।
पिताओं को पता नहीं है कि उनकी निंदा उनके बच्चों में उनके प्रति घृणा पैदा करती है, सम्मान नहीं। फिर जब घृणा पैदा करती है और आदर नहीं मिलता तो वे कहते हैं, बेटे आदर नहीं दे रहे हैं। नई पीढ़ी अनादर से भरी है। गलत हे यह बात। मेरे अनुभव में ऐसा नहीं आया। सच तो यह है कि नई पीढ़ी बहुत आदर देना चाहती है, लेकिन आदर योग्य लोग खोजने मुश्किल हैं। नई पीढ़ी आदर देने को आतुर है, लेकिन न गुरु आदर योग्य मालूम पड़ता है, न पीता आदर योग्य मालूम पड़ते हैं। न मां आदर योग्य मालूम पड़ती है। क्यों? क्योंकि पिता, मां और गुरु इस तरह के झूठ बोल रहे हैं जिनको बच्चे बहुत जल्दी आविष्कृत कर लेते हैं।
पिता बच्चे को समझा रहा है कि सिगरेट पीना बुरा है, और पिता खुद सिगरेट पी रहा है। कितनी देर तक यह बात छिपाई जाएगी? पिता बेटे को कह रहा है कि गाली देना बुरा है, और पिता खुद गालियां दे रहा है। और पिता बेटे को कह रहा है कि दूसरे की स्त्रियों को मां-बहन समझना चाहिए, और पिता खुद नहीं समझ पा रहा है। लड़के इसका पता लगा लेते हैं, यह बहुत देर नहीं लगती। लड़के बहुत बुद्धिमान हैं, उनको दिखाई पड़ने लगता है कि क्या हो रहा है?
यह जो सब उन्हें दिखाई पड़ता है तो आदर असंभव हो जाता है। उन्हें आदर योग्य कोई भी नहीं मिलता। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि नई पीढ़ी पिता के कारण ही परमात्मा तक को मानने से इनकार कर रही है क्योंकि परमात्मा सदा परमपिता की तरह ही सोच गया है। जब पिता धोखेबाज निकला तो परमपिता परम धोखेबाज हो सकता है। पुरानी पीढ़ियों ने पिता के आदर के कारण ही परमात्मा को भी आदर दिया था इसलिए उसको हम परमपिता, गॉड-फादर और सब कहते थे। पिता को इतना आदर था कि ऐसा लगता था, सारा जगत भी किसी पिता के प्रोटेक्शन में है। लेकिन पिता गया कि परमपिता को भी उनके पीछे विदा होना पड़ रहा है। वह नहीं बच सकते। नहीं, पुरानी पीढ़ी को बहुत सोच-समझ की जरूरत है कि वह नये बच्चों का आदर कैसे उपलब्ध कर सकें। आदर के योग्य पात्र होने की जरूरत है।
मैं अभी एक शिक्षकों के सम्मेलन में गया था। वहां सबसे बड़ा सवाल यही था। सब शिक्षकों के मन में यही सवाल है कि विद्यार्थी शिक्षक को आदर नहीं देते, आदर मिलना चाहिए। पहली तो बात है कि आदर मांगने की इच्छा बहुत आदर योग्य नहीं है। क्योंकि जब मैं कहता हूं कि मुझे आदर मिलना चाहिए तभी मैं अपात्र और अनाधिकारी हो जाता हूं। जो आदर मिलने योग्य है, उसे आदर मिलता है, वह चाहता नहीं, वह मांगता नहीं। शिक्षक बहुत परेशान है, आदर मिलना चाहिए। असल में आदर मिलने चाहिए की आकांक्षा तभी पैदा होती है, जब भीतर हम आदर योग्य नहीं रह जाते। उनमें से एक शिक्षक ने वहां कहा कि पुराने शास्त्रों में लिखा है कि गुरु को आदर दिया जाना चाहिए। मैंने उनसे कहाः आपने या तो शास्त्र को गलत पढ़ा होगा, या शास्त्र में गलत लिखा होगा। फिर से शास्त्र लिखना पड़ेगा। उन्होंने कहाः क्या मतलब आपका? मैंने कहाः मैं यह नहीं कहता कि गुरु को आदर दिया जाना चाहिए; मैं कहता हूं, जिसको आदर देना पड़ता है, वह गुरु है। गुरु को आदर दिए जाने का सवाल नहीं है, जिसे आदर देना पड़ता है वह गुरु है। हमें परिभाषा बदल देनी पड़ेगी। जो आदर उपलब्ध कर लेता है वह गुरु है। गुरु को आदर देने का कोई सवाल नहीं है। गुरु कोई प्रोफेशन थोड़े ही है, कोई धंधा थोड़े ही है कि आदर देने की बात कोइ मजबूरी कर दी जाए, कानून बना दिया जाए कि गुुरु को आदर हो। वह एक प्रेम का हार्दिक नाता है।
पिता भी अनादृत हुआ है, दुखी है। दुख स्वाभाविक है। लेकिन उसके कारण नहीं खोज रहा है। उसके कारण खोजेगा तो पाएगा कि अनादर के कारण अपने पास हैं। अभी मैं एक घर में रुका। उनके पिता ने कहा कि मेरे लड़के को आप समझाइए। वह किसी लड़की के प्रेम में पड़ा हुआ है और मैं नहीं चाहता कि इस लड़की से संबंध हो। और मैं हैरान हुआ, क्योंकि ये जो पिता हैं, इन्होेंने भी प्रेम-विवाह किया था। तो मैंने उनसे कहाः आप यह क्या कह रहे हैं? तो उन्होंने कहा हमारी बात और थी। सब पिता यही सोचते हैं कि हमारी बात और थी। ये लड़के भी कल पिता होकर यही सोचेंगे कि हमारी बात और थी।
नहीं, इस तरह नहीं चलेगा। इस तरह नहीं चल सकता है। नया युवक भटक नहीं गया है, पुरानी पीढ़ी मार्ग देने में असमर्थ है। अगर हम यह असमर्थता स्वीकार कर लें तो मार्ग बन सकता है, कोई कठिनाई नहीं है। इतना स्वस्थ, इतना बुद्धिमान, इतना विचारशील युवक कब था पृथ्वी पर? यह पहला मौका है, जो सौभाग्य बनना चाहिए वह दुर्भाग्य बन रहा है। इतना विचारशील युवक कब था पृथ्वी पर? कभी भी नहीं था। जो सौभाग्य बन सकती है घटना, वह दुर्भाग्य में बदलती जा रही है।
बुद्धिमत्ता खतरनाक है एक अर्थों में, कि अगर उसे ठीक मार्ग न मिले तो विध्वंसात्मक हो जाती है। घर में दो बेटे हों, एक बेटा अगर गोबरगणेश है तो आज्ञाकारी होगा, सदा आज्ञाकारी होगा, क्योंकि आज्ञा तोड़ने के लिए थोड़ी बुद्धि की जरूरत पड़ती है। हां कहने के लिए किस बुद्धिमत्ता की जरूरत है? न कहने के लिए बुद्धिमत्ता की जरूरत है, क्योंकि न कहने के लिए कारण भी बताने पड़ेंगे, तर्क भी देना पड़ेगा। न कहने के लिए खड़ा होना पड़ेगा, पिता से टक्कर भी लेनी पड़ेगी। तो गोबरगणेश बेटा होगा तो चुपचाप राजी हो जाता है कि हां, पिता खुश होते हैं। बहुत प्रसन्नता की बात है, लड़का बड़ा आज्ञाकारी है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि लड़का बिलकुल मरा हुआ है, लड़का जिंदा नहीं है।
अगर लड़के में थोड़ी बुद्धिमत्ता होगी तो हजार सवाल उठाएगा, सब बातों पर राजी नहीं हो जाएगा, इनकार करेगा। और पिता को अगर खयाल हो कि मैं सर्वज्ञ हूं तो कष्ट शुरू हो जाएगा। लेकिन कोई सर्वज्ञ नहीं है, पिता होने से कोई सर्वज्ञ नहीं होता। असल में पिता होना इतना सरल है कि उसके लिए बुद्धिमत्ता की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती। पिता होने के लिए कौन सी बुद्धिमत्ता की जरूरत है? पिता होना इतनी सरल घटना है, इतनी टेक्नीकल कि उसके लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है। लेकिन पिता होने के साथ एक अहंकार जुड़ा रहा है अब तक कि मैं सब जानता हूं।
नहीं, ये बच्चे अब राजी नहीं हो सकते कि आप सब जानते हैं। यह झूठ है बात। अब पिता को जो वह जानता है, उतना ही कहना पड़ेगा, इतना मैं जानता हूं। जो नहीं जानता वह कहना पड़ेगा कि नहीं जानता हूं। और जीवन के सारे सत्य खोल देने पड़ेंगे तो बाप और बेटे के बीच सेतु बन सकता है। लेकिन बाप और बेटे के बीच कोई सेतु नहीं मालूम होता है क्योंकि डॉयलाग ही नहीं होता है। उनके बीच कोई चर्चा ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि बाप अपने बेटों को बिठा कर बात कर रहा हो जिंदगी के मसलों की। अपनी तकलीफें बता रहा हो, अपनी भूलें बता रहा हो, अपनी जिंदगी की मुसीबतें बता रहा हो, नहीं, ऐसा नहीं है। बाप एक सख्त रुख रखता है कि मैं सब जानता हूं, मैंने कभी भूल नहीं की, मैं सदा ठीक हूं।
अन्यायपूर्ण है यह बात। इससे बेटों से संबंध बनेगा नहीं, टूट जाएगा। और इसका रिएक्शन, प्रतिक्रिया यह होगी कि बेटे यह समझेंगे कि कुछ भी नहीं जानता है। नहीं, इसे तोड़ना पड़ेगा। और इसे तोड़ने में कौन शुरुआत करे? बेटे शुरुआत करें कि पिता शुरुआत करे? मैं मानता हूं, बेटे शुरुआत करें--यह जरा मुश्किल है। बेटे आखिर बेटे हैं, बच्चे आखिर बच्चे हैं। उनसे हम वृद्धों से ज्यादा बुद्धिमानी की अपेक्षा एकदम से करें तो कठिन है। नहीं, पिता को ही शुरुआत करनी पड़ेगी। उसेे मार्ग बनाना पड़ेगा। बेटे से संबंध और मित्रता जोड़नी पड़ेगी। तो हम जिंदगी के संबंध में सवाल उठा सकते हैं, सीख सकते हैं, हल कर सकते हैं।
नई पीढ़ी भटक नहीं गई हैं, नई पीढ़ी सिर्फ अतिरिक्त शक्ति से भरी हुई सामने खड़ी है और हम कोई मार्ग नहीं खोज पा रहे हैं। जैसे कोई झरने में ताकत हो, पानी फूट पड़ने को हो और कोई मार्ग न मिलता हो, पानी सब तरफ से बिखर जाता हो, व्यर्थ हो जाता हो। जैसे आकाश में बिजली चमकती है और हम बिजली को मार्ग न दे सकें तो सिर्फ चमकती है और व्यर्थ हो जाती है। युवकों के पास बड़ी शक्ति है, होनी ही चाहिए। वह बड़ी शक्ति बिलकुल अनियोजित भटक रही है। उसे कोई नियोजन नहीं है, कोई दिशा नहीं है। दिशा-हारा युवक खड़ा है, लेकिन जिम्मेवार युवक नहीं है। और ध्यान रहे, यह मैं किसी खास पीढ़ी से नहीं कर रहा हूं। आज जो युवक हैं, कल वे पिता हो जाएंगे और वे भी इसी तरह अपनेे बेटों को जिम्मेवार ठहराने लगेंगे। वही गलती फिर शुरू हो जाएगी।
नहीं, पुरानी पीढ़ी को बहुत शांति से विचार करना चाहिए। क्रोध छोड़ कर बच्चों के निकट आना पड़ेगा और जिंदगी कैसे बने, उसकी दिशाएं सोचनी पड़ेंगी, और साथ खड़े होना पड़ेगा। आज्ञा देने वाले की तरह नहीं, सहयात्री की तरह, एल्डर ब्रदर्स की तरह। पिता भी अब बड़े भाई से ज्यादा नहीं है। उसी भांति उसे खड़ा होना पड़ेगा। पुरानी प्रिस्टिज और पुराने आदर सम्मान का केंद्र अब नहीं चल सकता है। वह बात गई। उस बात को भूल जाना चाहिए। वह इतिहास का अध्याय समाप्त हो गया है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि क्या विद्यार्थी राजनीति में भाग लें?

सवाल बहुत महत्वपूर्ण है, और राजनीतिज्ञ दोे तरह के उत्तर देंगे। अगर राजनीतिज्ञ के हित में होगा तो वह कहेगा, राजनीति में भाग लेना चाहिए। जैसे आजादी के पहले कांग्रेस के नेता कहेंगे कि राजनीति में भाग लेना चाहिए। और आजादी के बाद कांग्रेस के नेता कहेंगे विद्यार्थी को राजनीति में भाग कभी नहीं लेना चाहिए। जो पार्टी हुकूमत में है वह कहेगी, राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। जो पार्टी हुकूमत में नहीं है, वह कहेगी राजनीति में भाग लेना चाहिए। राजनीतिज्ञ अपना हित देख कर चलता है। और राजनीतिज्ञ देखता है कि जब युवक की ताकत मिलने से उसे फायदा होगा तो वह कहता है कि भाग लो। और जब उसे दिखता है कि अब हम ताकत में आ गए, और युवक ने अगर भाग लिया तो वह कुर्सी से नीचे उतार सकता है। वह कहता है, भाग मत लो। विद्यार्थियों का काम युनिवर्सिटी में अध्ययन करना है।
मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं और मैं मानता हूं कि चाहे सत्ता में, चाहे सत्ता के बाहर जो लोग भी कहते हैं कि राजनीति में भाग लो, उनके कहने में भी राजनीति है। और जो कहते हैं, राजनीति में भाग मत लो, उनके इस कहने में भी राजनीति है। ये दोेनों ही पोलिटिकल हैं--दोेनों ही वक्तव्य। लेकिन मेरी दृष्टि यह है कि विद्यार्थी जिंदगी की तैयारी कर रहा है, उसे जिंदगी में अभी उतरना नहीं चाहिए, तैयारी करनी चाहिए। राजनीति को समझना चाहिए पूरी तरह। राजनीति में भाग लेने का अभी कोई अर्थ नहीं है। राजनीति को समझना चाहिए ताकि जब वह कल भाग लेने की स्थिति में आए तो उसका शोषण न किया जा सके। राजनीतिज्ञ उसका शोषण न कर पाएं। लेकिन गांधी जी ने एक गलत आदत इस मुल्क में डाली।
गांधी जी पहले आदमी हैं जो विद्यार्थी को राजनीति में लाए। रवींद्रनाथ ने विरोध किया था, लेकिन रवींद्रनाथ की कौन सुनता! बल्कि रवींद्रनाथ को लोगों ने देशद्रोही कहा कि यह आदमी देशद्रोही है। गांधी जी ने कहा कि विद्यार्थी छोड़ दें युनिवर्सिटी, और कालेज छोड़ कर आजादी की लड़ाई में आ जाएं। रवींद्रनाथ ने कहाः यह बहुत गलत बात सिखा रहे हैं आप। क्योंकि एक बार विद्यार्थी युनिवर्सिटी को छोड़ कर बाहर आ जाएगा, तो भीतर ले जाना फिर बहुत मुश्किल पड़ेगा। अब मुश्किल पड़ रहा है। लेकिन लोगों ने कहा कि रवींद्रनाथ देशद्रोही है। गांधी जी देश-प्रेम की बातें कर रहे हैं, विद्यार्थी को अभी पढ़ने का वक्त नहीं है। जब देश गुलाम है तो पढ़ाई कैसी! लड़कों को बाहर आ जाना चाहिए। लड़के बाहर आ गए और जब सबे वह बाहर आए हैं तब से उन्होंने भीतर जाने का नाम ही नहीं लिया है।
आजादी तो आ गई, अब वे भीतर नहीं जाते। अब वे लड़के यह कहते हैं कि अब हमें समाजवाद लाना है। कोई लड़का कहता है, हमें साम्यवाद लाना है, कोई कुछ और कह रहा है। वह कह रहा है, पढ़ना-लिखना कैसा? जब तक साम्यवाद न आ जाए, जब तक समाजवाद न आ जाए? अब पढ़ना-लिखना कभी नहीं हो सकता। एनीबीसेंट ने गांधी जी का विरोध किया तो एनीबीसेंट की सारी इज्जत खतम हो गई। जनता बहुत अदभुत है। एनीबीसेंट की सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई क्योंकि उसने कहा कि यह बात गलत है। विद्यार्थी को विश्वविद्यालय के बाहर लाना बहुत महंगा काम है। आजादी के लिए लड़ने के लिए और कोई नहीं है, विद्यार्थी हैं सिर्फ? यह इतना बड़ा मुल्क है, सिर्फ विद्यार्थी ही आजादी के लिए लड़ने के लिए है? लेकिन गांधी जी विद्यार्थीयों को बाहर ले आए।
असल में गांधी जी तो शिक्षा के विरोधी थे। उन्होंने अपने बेटों को पढ़ाया-लिखाया नहीं, सबकी जिंदगी खराब की। उनके बड़े बेटे ने इसीलिए बगावत की, और उनके बड़े बेटे ने लिखा कि हमारी जिंदगी तुम खराब कर रहे हो। गांधी जी से उसने कहा कि तुम खुद तो पढ़-लिख गए हो और हमें पढ़ा-लिखा नहीं रहे हो। तो गांधी जी कहते थे कि बुनियादी शिक्षा काफी है। बुनियादी शिक्षा से एक आदमी ठीक अर्थों में आदमी ही नहीं बन सकता। बुनियादी शिक्षा का मतलब है, अशिक्षित रहने का उपाय। बुनियादी शिक्षा का मतलब है, चरखा चलाना सीख लो, तकली चलाना सीख लो, जूता सीना सीख लो, कपड़ा बुनना सीख लो, काम पूरा हो गया। फिर आइंस्टीन कैसे पैदा होगा? और फिर अणु-शक्ति कौन खोजेगा और चांद पर कौन पहुंचेगा? अभी तक चरखे पर बैठ कर चांद पर पहुंचने का कोई उपाय तो निकला नहीं। नहीं, लेकिन इतना काफी है। गांधी जी मानते थे, शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है। गांधी जी समझते थे, यह शिक्षा बहुत बड़ा रोग है, तो ठीक था कि उन्होंने लोगों को शिक्षा के बाहर ले आए और वे विद्यार्थी अब तक नहीं गए। और हिंदुस्तान की प्रतिभा को भारी नुकसान पहुंच रहा है।
मैं विद्यार्थियों से कहना चाहूंगा, उनके सामने सबसे बड़ा सवाल है, देश की प्रतिभा में रोज नये चांद लगाना। देश की प्रतिभा कितनी निखरे, इसके लिए देश उनको पच्चीस वर्ष तक भोजन की, कपड़े की सारी व्यवस्था कर रहा है। उनसे देश और कोई अपेक्षा नहीं करता। उनसे सिर्फ एक अपेक्षा करता है कि वह देश की प्रतिभा को ऊंचाइयों पर ले जाएं। गौरीशंकर तक पहुंचा दें, शिखरों को छुआ दें। दुनिया में कोई प्रतिभा उनसे आगे न हो। पूरा देश उनके लिए मेहनत करके इस आशा से पच्चीस वर्ष सुरक्षित कर रहा है, और वह--वह अगर राजनीतिक नेताओं के पीछे नारेबाजी में लगे हैं और झंडे लेकर जयजयकार कर रहे हैं तो वे देश के साथ बहुत नुकसान की बात कर रहे हैं, और अपने साथ भी नुकसान की बात कर रहे हैं।
मैं विद्यार्थियों के राजनीति में भाग लेने का एकदम विरोधी हूं। इसलिए विरोधी हूं कि विद्यार्थी का मतलब ही खत्म हो जाता है। हां, विद्यार्थी राजनीति समझे, और ठीक से समझे ताकि कल जब वह पच्चीस साल का होकर युनिवर्सिटी के बाहर आए और जिंदगी में उतरे, तो उसे कोई दोे कौड़ी के आदमी राजनीति में धोखेबाजी न कर सकें। कोई भी मुल्क के ऊपर हावी न हो सकें। लेकिन, जो हुकूमत में नहीं हैं वे राजनीतिज्ञ उसको कहते रहेंगे कि राजनीति में आओ। उसे लगाते रहेंगे। आखिर उनकी इतनी आतुरता विद्यार्थी के प्रति क्यों है? उसका कारण है कि विद्यार्थी शक्ति का स्रोत है। विद्यार्थी जिसके साथ खड़ा हो जाए वह गलत हो कि सही, उसके पास शक्ति उपलब्ध हो जाती है। इसलिए जवान का शोषण हमेशा किया जाता रहा है। चाहे कोई भी मूवमेंट हो, आंदोेलन हो, जवान को पकड़ने की कोशिश की जाती है। हिटलर ने नाजी पार्टी बनाई, तो उसने दूसरों की फिकर न की। वह छोटे-छोटे बच्चों और जवानों के पास गया। उसने उनको पकड़ने की कोशिश की क्योंकि कल वे जवान होंगे, कल उनके हाथ में ताकत आएगी और फिर उनके द्वारा सब कुछ करवाया जा सकता है।
सब राजनीतिज्ञ उत्सुक हैं युवकों में, लेकिन युवकों को राजनीतिज्ञों में उत्सुकता बिलकुल छोड़ देनी चाहिए। हां, राजनीति में उत्सुकता लेनी चाहिए, लेकिन इस हिसाब से कि हम समझ पाएं। भाग लेने का कोई सवाल नहीं है। भाग लेने का वक्त आएगा। इतनी जल्दी भी क्या है? भाग लेने का वक्त जल्दी आ जाएगा। उसके पहले बुद्धि परिपक्व हो, हम ठीक से समझ पाएं देश का हित क्या है, अहित क्या है, जगत की व्यवस्था क्या है? कुछ भी हम नहीं समझ पा रहे हैं। अगर हिंदुस्तान का विद्यार्थी राजनीति ठीक से समझे तो बहुत हैरान होगा। हिंदुस्तान में राजनीति के नाम से क्या हो रहा है, बहुत अजीब बात है।
हिंदुस्तान का कांस्टीट्यूशन अगर हम उठा कर देखें तो जिसको पहले भानुमती का पिटारा कहते थे, वही है। सारी दुनिया के सारे कांस्टीट्यूशंस में से चुन कर जो भी ठीक मालूम पड़ौ, इकट्ठा कर लिया है। जैसे कि बिल्ली की आंख अच्छी लगी तो आंख ले ली, कुत्ते की टांग अच्छी लगी तो टांग ले ली, सब इकट्ठा कर लिया, कौवे के पंख अच्छे लगे तो पंख ले लिए। अब एक जानवर बना है जिसमें कोई जान ही नहीं है। और वह कोई जानवर भी नहीं है। भगवान भी नहीं पहचान सकता है कि यह कौन है? राजनीतिक बोध हमारा बहुत कम है, अत्यंत कम है।
वह राजनीतिक बोध हिंदुस्तान को कौन देगा? हिंदुस्तान में आने वाली पीढ़ी अगर राजनीति को ठीक से समझती है तो वह बोध पैदा होगा। कैसा दुर्भाग्य है कि एक राजनीतिक पार्टी खड़ी होती है तो चुनाव चिह्न पर भी जीत जाती है। चिह्न बहुत महत्वपूर्ण है। गावों में जाकर समझाया जा सकता है कि अगर बैल न रहेंगे तो तुम खेती कैसे करोगे? और बेचारा किसान सोचता है कि बात तो ठीक है, अगर बैल न रहे तो खेती कैसे करेंगे? बैल जोड़ी को वोट देनी चाहिए।
जहां राजनीतिक चेतना इतनी कम है वहां हिंदुस्तान के युवकों में राजनीतिक चेतना में ठीक निष्णात होने की जरूरत है। राजनीति में भाग जितना जल्दी आप लेंगे, उतने अपरिपक्व होंगे। रुकें, अध्ययन करें, जानें, पहचानें समझें, चारों तरफ की जिंदगी को देखें। दुनिया का इतिहास देखें, दुनिया की आज की व्यवस्था देखें और सोचें कि इस देश के लिए हमें क्या करना है। कल वक्त आएगा, उसके लिए तैयार हो जाएं। लेकिन अगर आज आप कूद जाते हैं, तो सिर्फ आपका शोषण होगा, औैर कुछ भी नहीं हो सकता है। विद्यार्थी राजनीति में भाग लेंगे, देश का दुर्भाग्य ही हो सकता है, सौभाग्य नहीं।
लेकिन राजनीतिज्ञ चाहते हैं। कुछ चाहते हैं कि भाग लो, कुछ चाहते हैं कि मत लो; लोकिन वे दोेेनों की राजनीतिक चालें हैं। जो आज कहता है मत लो, अगर कल अपदस्थ हो जाएगा तो वह कहेगा, लो। और जो आज कहता है राजनीति में भाग लो, कल अगर हुकूमत में पहुंच जाएगा, वह कहेगा, बस अब ठीक है, काम पूरा हो गया, अब तुम पढ़ने जाओ। अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है।
नहीं, इन दोेनों राजनीतिज्ञों से सावधान हो जाने की जरूरत है। हिंदुस्तान को राजनीतिज्ञों से सावधान होना ही पड़ेगा, अन्यथा हिंदुस्तान का राजनीतिज्ञ हिंदुस्तान को रोज नरक में ले जाएगा। वह यात्रा करवा रहा है। बीस साल में उसने बड़ी कुशलता से यह कार्य किया है। आगे भी वह अपनी कुशलता बढ़ाए चला जा रहा है। मुल्क को नरक में ले जाने के लिए उसकी कुशलता बढ़ती चली जा रही है।
कौन इसे रोकेगा? असल में हम इतने दिन गुलाम थे कि हमारा कोई राजनीतिक बोध--पोलिटिकल कांशसनेस नहीं है, इसलिए हम नारेबाजी से जीते हैं। नारा पकड़ जाए, बस! फिर बात खत्म हो जाती है। फिर हम बहुत गहरे कारणों में नहीं उतरते कि क्या कारण होगा! क्या करने से हित होगा, अहित होगा, वह सब हम नहीं सोचते। हिंदुस्तान आजाद हुआ, अगर हममें राजनीतिक चेतना होती तो जो लोग जेल गए थे, आजादी की लड़ाई लड़ी थी, झंडा उठा कर क्रांति की थी, हम कभी भी उनके हाथ में सत्ता न देते, क्योंकि जेल जाना एक तरह का क्वालिफिकेशन है, सत्ता में होना बिलकुल दूसरी तरह की योग्यता चाहिए। जेल जाना योग्यता नहीं है, सत्ता में होने की। लेकिन हमने कहा कि जो जेल गए हैं वे महान हैं। बिलकुल, निश्चित महान हैं, लेकिन जेल जाने में महान हैं। उनको सत्ता देना खतरनाक भी हो सकता है। जो आदमी जिंदगी के बीस साल जेल में गुजारे, उसके हाथ में राजनीति की पूरी बागडोर सौंप देनी महंगी पड़ सकती है--और महंगी पड़ी।
इंग्लैंड में एक चेतना है राजनीति की। मुल्क युद्ध में गया, चर्चिल को उन्होंने बुला लिया कि आ जाओ, सम्हाल लो। क्योंकि वे जानते हैं कि युद्ध में चर्चिल कुशल है। युद्ध खत्म हुआ, फिर उन्होंने नहीं कहा कि चर्चिल हमारे राष्ट्रपिता हैं, अब उनको हम कभी न छोड़ेंगे। अब तो तुम रहो। युद्ध खत्म हुआ, उन्होंने चर्चिल को ऐसे विदा कर दिया कि जैसे पता ही नहीं चला कि चर्चिल ने कुछ बड़ा काम किया हो। चर्चिल ने इतना बड़ा काम किया जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है, लेकिन चर्चिल को चुपचाप विदा कर दिया। क्योंकि जो युद्ध में योग्य था वह कोई राष्ट्र के निर्माण में योग्य होगा, यह जरूरी नहीं है।
हिंदुस्तान में एक राजनीतिक बोध नहीं है। अगर एक आदमी ने जाकर मजदूरों के पैर दबाए, कोढ़ियों की सेवा की--बहुत अच्छा काम किया, उनके फोटो छापो, उनको भारत-रत्न की पदवियां दे दोे लेकिन कृपा करके उनको सत्ता मत दें देना। एजुकेशन मिनिस्टर मत बना देना। उपद्रव कर देंगे वह। उपद्रव हो ही जएगा! ऐसी हालत है इस वक्त देश में कि, जिनका शिक्षा से कोइ संबंध नहीं हैं वह शिक्षा मंत्री हैं। लेकिन...जिन्होंने कभी किचन में पैर नहीं रखा, वे खाद्यमंत्री बने हुए हैं! कोइ मतलब नहीं हैं। जिन्होंने कभी सोचा नहीं कि भोजन क्या बला है, वे खाद्यमंत्री होंगे। क्यों? उनकी योग्यता यह है कि वे दस दफा जेल में गए। कुछ समझ में नहीं आता। दस दफा जेल में जाने से किसी को डाक्टर बनाइएगा? दस दफे जेल में जाने से कोई सर्जन बन जाएगा? लेकिन दस दफा जेल में जाने से वह मंत्री बन सकता है। मंत्री क्या सबसे अयोग्य काम है? इसके लिए कोई योग्यता की जरूरत नहीं है?
इस वक्त हिंदुस्तान में अगर चपरासी भी होना हो तो एक विशेष योग्यता की जरूरत है। लेकिन प्रधानमंत्री भी मुल्क का होना हो तो किसी योग्यता की कोई जरूरत नहीं है। सबसे अयोग्य काम, जिसके लिए शिक्षित होने की, योग्य होने की, किसी तरह के विशेष ज्ञान की कोई जरूरत नहीं है, वह राजनीति है। इसलिए राजनीति अशिक्षित, अयोग्य, जो कुछ भी न कर सके, सब तरह से पंगु, बुद्धिहीन, उन सबका धंधा बन गया है। उनका अड्डा वहां खड़ा हो गया है। इससे मुल्क को बचाना पड़ेगा।
आज अजीब हालत है। जो सोच सकते हैं, विचार सकते हैं उनकी कोई आवाज नहीं है। जो जोर से चिल्ला सकता है, मुक्का पटक कर टेबल बजा सकता है, दस-पांच आदमियों को किसी भांति राजी कर सकता है अपने को कि ये बाबूजी हैं, पिताजी हैं कहने के लिए, वह आदमी जीत जाएगा। वह मुल्क में ताकत में पहुंच जाएगा। वह फिर बैठ जाएगा वहां। और एक अजीब जाल है जो बहुत हैरान करनेवाला है।
दिल्ली में मैं होता हूं, देख कर बड़ी हैरानी होती है। बड़े नेताओं से मिलना होेता है तो बड़ी हैरानी होती है कि नेता का बड़ा होना क्या जरूरी रूप से बुद्धि का छोटा होना होता है। शरीर तो नेताओं के जरूर बड़े हो गए हैं। और शरीर फैलते जा रहे हैं, अत्यंत कुरूप और बेढ़ंगे चले होते जा रहे हैं, लेकिन बुद्धि भीतर सिकुड़ती जा रही है। बुद्धि का कोई पता नहीं चलता।
एक बड़े नेता के घर में मैं मेहमान था। वे मेरे साथ यात्रा कर रहे थे, फिर कहीं हम रुके थे। तो सुबह-सुबह दूध के लिए घर वालों ने पूछा। तो उन्होंने कहाः मैं गाय का ही दूध पीता हूं, भैंस का नहीं पीता। मैंने कहाः क्या हुआ? उन्होंने कहा कि भैंस का दूध पीने से बुद्धि खराब हो जाती है। तो मैंने कहाः उसके लिए कम से कम बुद्धि होनी तो चाहिए, तभी खराब हो सकती है। आप बेफिकर पीओ, आपको कोई पीने में डर नहीं होना चाहिए। कोई डर की जरूरत नहीं है।...मगर आप हंसे, वे हंसे भी नहीं। उसके लिए भी समझने की तो बुद्धि चाहिए न? वे मुझे मुंह बाके देखते रह गए कि मैं क्या कह रहा हूं?
एकदम बुद्धिहीन नेतृत्व मुल्क के ऊपर बैठ रहा है। कौन उसे अलग करेगा? आने वाले दस वर्षों में देश की राजनीतिक चेतना विकसित हो तो यह हो सकता है। स्पष्ट रूप से राजनीतिक चेतना विकसित होनी चाहिए। बहुत हैरानी का मामला हुआ है, लेकिन चारों तरफ घटित हो रहा है। और इसे कैसे रोका जाए? युवकों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए, लेकिन राजनीति पर गहरी नजर रखनी चाहिए। समझना चाहिए, पहचानना चाहिए, अध्ययन करना चाहिए। जब वह कल जिंदगी में भाग लेने आएं तो जो भूल पिछले बीस सालों में हमने की है वह आगे न हो--इसका बोध, इसकी मेहनत, इसका श्रम उन्हें उठाना है। लेकिन अगर वे नारेबाजी में लगे, और नेताओं के स्वागत करने में लगे, और बाजार में शोर-गुल मचाने में लगे, और वोट देने और दिलवाने में लगे तो यह राजनीतिक बोध कौन विकसित करेगा? नहीं, फिर यह नहीं हो सकेगा।
देश के युवक के सामने बड़ा सवाल है राजनीतिक चेतना को देश में उन्नत करने का। वह हमारी बिलकुल नहीं है। एक हजार साल तक गुलाम रहने का परिणाम है कि हमने राजनीतिक बोध खो दिया। हम धीरे-धीरे यही कहने लगे, कुछ भी हो, हमें क्या मतलब है? अपना खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता सब ठीक है। बाकी जो हो रहा है होने दोे। ‘कोई नृप होय हमें का हानी!’ हमारा ऐसा भाव होता चला गया। कोई भी हो, होता रहे।
अब यह नहीं चल सकता क्योंकि अब सारे देश की जिंदगी हमारे निर्णय पर निर्भर है। और हम निर्णय लेने वाले कितने बुद्धिमान हैं, इस पर देश का भविष्य निर्भर है।

एक दूसरे युवक ने पूछा है--जरूरी सवाल है, और आज की जिंदगी में महत्वपूर्ण सवाल है। उन्होंने पूछा है कि आज की अर्धनग्न कालेजियन लड़कियों के बारे में आपका क्या खयाल है?

सवाल महत्वपूर्ण है। सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि कपड़े हमें लगते हैं कि बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं लेकिन महत्वपूर्ण हैं। वे हमारे व्यक्तित्व को निर्मित करते हैं। दोे-तीन बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं।। पहली बात तो यह ध्यान में रखनी जरूरी है कि जैसे-जैसे शरीर स्वस्थ होता है और अनुपात में आता है, सुंदर होता है वैसे-वैसे पूरे शरीर कोे ढंकने का खयाल मिटने लगता है। सिर्फ अत्यंत गरीब, दीन-हीन अविकसित समाज की स्त्रियां पूरे शरीर को ढांकती हैं। जैसे-जैसे शरीर सुंदर होगा वैसे-वैसे शरीर उघड़ना शुरू होगा। जहां-जहां शरीर का सौष्ठव आएगा वहां-वहां कपड़े कम होंगे। इसमें बहुत घबड़ाने की जरूरत नहीं है।
असल में कपड़ों के कम होने से इतनी घबड़ाहट हमें क्यों होती है? उस घबड़ाहट के पीछे कोई कारण है। उस घबड़ाहट के पीछे कारण क्या है? उस घबड़ाहट के पीछे यही कारण है कि हम शरीरों को अर्द्धनग्न देखना चाहते हैं। देखना चाहते हैं--वह हमारी चाह तभी मिटेगी जब शरीर धीरे-धीरे उघाड़े होंगे तभी हमारी चाह मिटेगी। अगर लड़कियों ने हिम्मत की और बीस साल वे ऐसे ही कपड़े पहने रहीं तो हमारी बुद्धि में काफी फर्क पड़ेगा। लेकिन सभी लड़कियों के लिए छोटे कपड़े, कम कपड़े सुंदर नहीं हैं, काव्यपूर्ण नहीं हैं। और कुछ स्त्रियां भी लड़कियां बनने की कोशिश करती हैं, तब जरा मुश्किल हो जाता है।
लड़कियां हलके-फुलके कपड़े पहनें, लड़के हलके-फुलके कपड़े पहनें, यह बिलकुल स्वाभाविक है। बूढ़ोें की तरह गंभीर कपड़े पहनना उचित भी नहीं है। हलके-फुलके कपड़े पहनें, दौड़ सकें, कूद सकें, फांद सकें, तैर सकें, वृक्षों पर चढ़ सकें, ऐसे कपड़े पहनें, यह उचित है। बच्चों के कपड़े उसी तरह के होने चाहिए। लेकिन जब रोग चलना शुरू होता है तो उसका पता नहीं चलता है, वह कहां पहुंच जाता है। भारी-भरकम मोटी स्त्रियां सड़कों पर ऐसे कपड़े पहने चली जा रही हैं जैसे वे छोटी लड़कियां हों। उन्हें देख कर बहुत बेहूदा मालूम होता है, बहुत असंस्कृत मालूम होता है। इसलिए नहीं कि शरीर पर चुस्त कपड़े सदा बुरे मालूम पड़ते हैं लेकिन शरीर भी तो चुस्त कपड़ों के योग्य तो होना चाहिए।
अब हमारे नेता हैं, वे भी हमारी मोटी स्त्रियों से कम नहीं हैं। चुस्त कपड़े वे भी पहने हुए हैं, पेट तो बहुत बड़ा हो रहा है, चूड़ीदार पाजामा पहने हुए हैं, ऊपर से वह कोट पहने हुए हैं। वह चुस्त पाजामा पहने हुए खड़ा हुआ है, उसको देखो तो अब कोई कार्टून बनाने की जरूरत नहीं है, फोटो उतार लेना काफी है। बेहूदी है वह बात। बिलकुल बेहूदी है। कपड़ों की अपनी शालीनता है और प्रत्येक तल पर कपड़ों का अपना उपयोग है। एक गंभीर आदमी अगर चुस्त कपड़े पहने तो ठीक नहीं मालूम पड़ता है क्योंकि ढीले कपड़ों की एक अपनी गौरव गरिमा है। चुस्त कपड़ो का एक हल्कापन है।
छोटी-छोटी चीजों का अर्थ है। अगर आपको चुस्त कपड़े पहना दिए जाएं तो आपकी चाल में तेजी आ जाएगी। आप सीढ़ियों पर दोे सीढ़ियां एक साथ चढ़ जाएंगे। और अगर आपको ढीले कपड़े पहना दिए जाएं तो आप दो सीढ़ियां इकट्ठी कभी नहीं चढ़ेंगे, आप एक-एक सीढ़ी चढ़ेंगे। सड़क पर आप आहिस्ता से चलेंगे। कपड़े ढीले होंगे तो एक गंभीरता लाते हैं। लेकिन गंभीरता की एक उम्र है, और गंभीरता के अपने आयाम हैं। कपड़ों की चुस्ती एक बात लाती है। अगर हम मिलिटरी में लोगों को ढीले-ढाले कपड़े पहना दें, साधु-संन्यासियों के वस्त्र पहना दें तो फिर लड़ाई-झगड़ा नहीं हो सकता, फिर लड़ाई-झगड़े के लिए उपाय नहीं हैं। उसके लिए चुस्त कपड़े चाहिए। बंधे हुए कपड़े चाहिए। शरीर और कपड़े में फासला न रहे, यह पता ही न चले कि कपड़ा कोई बाधा दे रहा है, वैसे कपड़े चाहिए।
लड़कियां, युवक चुस्त कपड़े पहनें, बुरा नहीं है। लेकिन चुस्त कपड़े पहनने की दृष्टि पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या दृष्टि होगी चुस्त कपड़े पहनने की? चुस्त कपड़ा पहनने का एक हलकापन है, ताजगी है, गति है, तीव्रता है, श्रम करने की सुविधा है, यह ठीक है। लेकिन अगर चुस्त कपड़े का केवल अर्थ सेक्सुअल एक्सप्रेशन है, अगर केवल यौन अभिव्यक्ति है तो बात जरा बेहूदी है। लेकिन है, वह बात भी है। और वह बात इसीलिए है कि हम चीजों को सीधे नहीं लेतेे तो उनको हमको उलटे रास्ते से लेना पड़ता है।
अब, एक स्त्री रास्ते से गुजरती हो--चुस्त कपड़े पहनेगी, लेकिन अगर आप उसको गौर से देखें तो नाराज होगी। और कोई पूछे कि फिर इतने चुस्त कपड़े पहन कर वह इस रास्ते से निकली किसलिए हैं? वह निकली इसलिए है कि आप गौर से देखें। अब बड़ा कंट्राडिक्ट्री मामला हो गया। अगर कोई न देखे तो दुखी घर लौटेगी, अगर कोई देखे तो नाराज होगी। तो मुश्किल की बात हो गई। तब कठिनाई की बात हो गई।
अगर कालेज में एक लड़की पढ़े और कोई उस पर कंकड़ न फेंके तो भी दुख होता है, अगर कंकड़ फेंके तो भी दुख होता है। हालांकि कंकड़ फेंकने से न कंकड़ फेंकने वाला दुख ज्यादा होता है। क्योंकि न कंकड़ फेंकने का मतलब है, कोई ध्यान नहीं दे रहा है। कंकड़ इतनी चोट कभी नहीं पहुंचाता जितना कोई ध्यान न दे तो चोट पहुंचती है। यह भी स्वाभाविक है। दूसरे का ध्यान हमारे ऊपर पड़े यह कुछ अस्वाभाविक नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। आदमी एक सामाजिक प्राणी है, वह दूसरों की आंखों में भी देखना चाहता है, लोग हमें प्रेम करें, पसंद करें, चाहें, यह बिलकुल स्वभाविक है। उनकी चाह के योग्य हम हों, यह भी बड़ा स्वाभाविक है।
एक बहुत अदभुत घटना मुझे याद आती है। गांधी जी रवींद्रनाथ के पास मेहमान थे। सांझ को घूमने निकलते थे, तो रवींद्रनाथ न कहाः रुकिए, मैं थोड़े बाल बना आऊं। एक बूढ़ा आदमी बाल बनाए, गांधी जी की समझ के बिलकुल बाहर है। उन्होंने कहाः बाल! लेकिन रवींद्रनाथ से कुछ कह भी न सके। कोई और होता तब तो वह उपदेश देते, लेकिन रवींद्रनाथ को उपदेश देना जरा मुश्किल था। रवींद्रनाथ जब तक जा भी चुके थे। दस मिनट बीत गए, पंद्रह मिनिट बीत गए, गांधी जी का गुस्सा बढ़ता चला गया। भीतर जाकर देखा, वे आदमकद आईने के सामने बड़े मंत्रमुग्ध बाल संवार रहे हैं।
गांधी जी ने कहाः आप और इस उमर में बाल संवार रहे हैं? आप यह कर क्या रहे हैं? तो रवीन्द्रनाथ ने कहा कि जब मैं जवान था तो बिना संवारे भी चल जाता था, जबसे बूढ़ा हो गया, तबसे संवारना पड़ता है। और फिर मैं सड़क पर निकलूं और किसी को असुंदर मालूम पडूं तो भी मैं मानता हूं, मैंने दूसरे को दुख पहुंचाया। वह मेरी दृष्टि में हिंसा ही है। मैं सड़क पर चलूं और किसी को अच्छा लगूं तोे मैं उसे मानता हूं, मैंने सुख पहुंचाया। वह मेरी दृष्टि में अहिंसा है।
गांधी जी की पकड़ में ऐसी अहिंसा कभी नहीं आ सकती थी। लेकिन रवींद्रनाथ कुछ बात बड़ी कीमत की कह रहे हैं। गांधी जी की अहिंसा से कहीं ज्यादा कीमत अहिंसा की बात कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं कि आपकी आंख को भी मैं अप्रीतिकर लगूं, अरुचिकर लगूं, बेहूदा लगूं तो मैंने आपको चोट पहुंचाई है। मैं आपको प्राीतिकर लगूं, आनंदपूर्ण लगूं--अच्छा है।
मैं मानता हूं, हिंदुस्तान के बच्चे ऐसे कपड़े पहनें जो प्रीतिकर हों, आनंदपूर्ण हों और चारों तरफ एक सुगंध फैलाते हों, एक हलकापन लाते हों, प्रफुल्लता लाते हों--अच्छा है। हिंदुस्तान बहुत दिन से गंभीर है, इसकी गंभीरता तोड़नी है। इसे थोड़ा हलका-फुलकापन लाना है। यह थोड़ा हंस सके, मुस्कुरा सके, यह जिंदगी में थोड़ा रस ले सके, ऐसी स्थिति पैदा करनी है। इसमें बुरा नहीं है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को अपने कपड़े कनफर्मिटी से नहीं चुनने चाहिए। क्योंकि सभी लड़कियां चुस्त कपड़े पहने हैं इसलिए बाकी लड़कियों को भी चुस्त कपड़े पहनने हैं, तो फिर मूढ़ता हो जाती है। सभी लड़के चुस्त पायजामें पहने हैं, या पेंट पहने हैं, तो बाकी को भी पहनने हैं तो मूढ़ता हो जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के अनुकूल कपड़े चुनने चाहिए। हर व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व है। उसे अपने ढंग से सोचना चाहिए। अगर सारे लोग एक से कपड़े पहनने लगें तो यह भी एक बुद्धिहीनता का सबूत है। क्योंकि यह इस बात की खबर है कि हम अपने कपड़े भी इनवेंट नहीं कर सकते। हम इनवेंट क्या करेंगे? हम अपने कपड़े भी नहीं खोज सकते कि मेरे लिए क्या सुखद है, क्या आनंदपूर्ण है। मुझे क्या अच्छा है, वह मुझे खोजना चाहिए।
लेकिन यह मैं मानता हूं कि इधर कपड़ों के संबंध में हमारी रुचि में परिवर्तन हुआ है। और शुभ है परिवर्तन क्योंकि कपड़े उदासी से थोड़े मुक्त हुए है, थोड़े प्रफुल्लता के निकट आए हैं। लेकिन हमारी जो दृष्टि है पुरानी, घूर-घूर कर देखने की, उसके लिए बड़ी मुसीबत हो गई है। उसके लिए बड़ी अड़चन आ गई है। अगर एक स्त्री बुर्का ओढ़ कर जाती हो तो घूरने में बड़ा आनंद आता है क्योंकि घूरने के लिए बड़ा उपाय रहता है। तांगे के चारों तरफ घूमा जा सकता है, झांका जा सकता है। अगर एक स्त्री सीधे-सादे कपड़े पहने हुए बैठी है, उघड़ी ही, अब उसको घूर कर देखना मुश्किल हो जाता है। उसको घूर कर देखो तो अभद्रता मालूम होती है। बुर्का घूरने को सुविधा देता है।
क्या आपने कभी ख्याल किया है कि, हम ऐसे लोगों को लुच्चा कहते हैं। लुच्चे का मतलब होता है, घूर कर देखने वाला। लुच्चा, संस्कृत में लोचन, आंख को कहते हैं। आलोचक कहते है जो खूब सोच-विचार कर किसी चीज को देखता है। लुच्चा उसको कहते हैं, जो देखते ही चला जाता है, आंख हटाता ही नहीं। लुच्चे का मतलब है स्टेयरिंग, एकदम देखते चले जाना। लुच्चे को बड़ी तकलीफ हो गई है क्योंकि अब घूरने को, बहुत देर देखने को कुछ बचा नहीं। चीजें साफ हो गई हैं। जितनी चीजें साफ हो जाएंगी, उतने लुच्चे विदा हो जाएंगे। चीजें साफ हो जानी चाहिए।
अच्छा समाज शरीर के सौष्ठव और अनुपात के प्रति भी रस लेता है। अच्छा समाज शरीर को भी फूल की तरह सुंदर मानता है। शरीर को अस्वीकार नहीं करता, शरीर के आनंद को भी स्वीकार करता है। लेकिन हमारे देश ने हजारों साल से शरीर को अस्वीकार किया है। यहां शरीर को गंदा रखना अध्यात्म है। यहां शरीर को बीमार और पीला बना देना स्वर्ग जाने का उपाय है। यहां ऐसे साधु हैं जो स्नान नहीं करते हैं। ऐसे साधु हैं जो दतौन नहीं करते हैं। ऐसे साधु हैं जो हाथ का मैल नहीं छुड़ाते हैं। ऐसे साधु मुझे कभी मिलने आ जाते हैं तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। उनके पास बैठना कठिन है। उनका मुंह बास छोड़ता है, उनके शरीर से गंदगी आती है। लेकिन वे अपने अध्यात्म में बड़े प्रतिष्ठित हैं। ये सब अध्यात्म के सबूत हैं।
नहीं, शरीर के प्रति हमारा विरोध समाप्त करना पड़ेगा। शरीर जिंदगी का एक अदभुत तथ्य है। सच तो यह है कि शरीर इतना बड़ा रहस्य है कि अगर हम शरीर को पूरी तरह जान पाएं तो हम परमात्मा के एक बड़े रहस्य को समझने में समर्थ हो जाएंगे। शरीर के रहस्य का हमें पता ही नहीं है कि शरीर कितना बड़ा रहस्य है। इससे बड़ी मिस्ट्री हुई नहीं। चांद-तारे इतनी बड़ी मिस्ट्री नहीं हैं जितना शरीर--इतना बड़ा रहस्य! आप रोटी खाते हैं, वह कैसे खून बन जाती है और सत्तर साल तक अनवरत श्वास चलती है। सत्तर साल अगर लोहे का फेफड़ा भी हो तो सत्तर साल में जवाब दे दे, लेकिन फेफड़ा काम किए चला जाता है। सत्तर साल तक मस्तिष्क चैबीस घंटे काम करता है। एक क्षण विश्राम नहीं करता है, लेेकिन काम करता रहता है। लोहे के तार भी थक जाएं लेकिन बारीक और महीन रेशे वह भी नहीं थकते। शरीर बहुत अदभुत व्यवस्था है। इतना बड़ा यंत्र है कि अगर हम उसे फैला कर देखने जाएं तो एक बड़ी फैक्ट्री भी उतना काम पूरा नहीं कर सकती, जितना एक शरीर--एक छोटा सा शरीर कर रहा है। लेकिन हम उसके प्रति दुष्टता, क्रोध और कठोरता से भरे हैं।
फिर हम फूल के सौंदर्य में आनंदित होते हैं। एक वृक्ष जब हरा हो उठता है तब हम आनंदित होते हैं। जब आकाश में बादल घिरते हैं तब आनंदित होते हैं, और जब एक मोर नाचता है तब हम आनंदित होते हैं, और जब बगुलों की सफेद कतार आकाश से निकल जाती है तब हम प्रसन्न हो जाते हैं। तो आदमी के शरीर का ही क्या कसूर है कि उसे देख कर हम प्रसन्न न हो सकें? बगुले का शरीर आनंद देता है, एक तोते की लाच चोंच आनंद देती है, वृक्षों के हरे शरीर आनंद देते हैं, मोर का नाचते हुए पंखों का फैलाव आत्मा के भीतर भी कुछ फैला देता है, फिर आदमी के शरीर से ही क्या नाराजगी है? सच तो यह है कि कोई भी शरीर आदमी के शरीर के जितना अदभुत रहस्यपूर्ण नहीं है। लेकिन हमें गलत तरह के धार्मिक लोगों ने शरीर की दुश्मनी सिखाई और इसलिए शरीर के सौंदर्य को तोड़ने के लिए हम आतुर हैं कि शरीर सुंदर न हो। शरीर आकर्षक न हो, शरीर सुगंधित न हो इसलिए हम बड़े आतुर हैं। क्योंकि हम शरीर के दुश्मन हैं।
मैं शरीर का दुश्मन नहीं हूं। और मैं मानता हूं, जो शरीर का दुश्मन है वह आत्मा का प्रेमी क्या हो पाएगा! क्योंकि इसी शरीर में उस आत्मा का वास है। इसी शरीर में उस आत्मा ने अपना निवास चुना है। हम इस शरीर को भी प्रेम करें और इस शरीर के भीतर प्रेम करके प्रवेश करें तो शायद उस आत्मा तक भी पहुंच सकते हैं। तो मैं खिलाफत में नहीं हूं कि कोई सुंदर वस्त्र न पहने। मैं इसकी भी खिलाफत में नहीं हूं कि शरीर के बहुत से अंग उघाड़े हों। मैं इसकी जरा भी खिलाफत में नहीं हूं। खिलाफत में इस बात के हूं कि हमें यह बेचैनी क्यों होती है? एक आदमी को सुख है कि वह जैसा कपड़ा उसे पहनना है, पहन रहा है। हम सब चिंता में क्यों पड़े हुए हैं?
वाइस चांसलर बैैठ कर कमेटियां करते हैं और विचार करते हैं कि लड़कियों को कैसे कपड़े पहन कर आने देना है और कैसे कपड़े पहन कर नहीं आने देना है। वाइस चांसलर को और कोई काम नहीं बचा है सोचने का? लड़कियों के कपड़ों की इतनी चिंता है? वाइस चांसलरों के दिमाग का कुछ इलाज होना चाहिए। लड़कियां कपड़े पहनती हैं, यह उनका सुख है। धीरे-धीरे हम उसके लिए राजी हो जाएंगे, धीरे-धीरे हम उन्हें स्वीकार कर लेंगे। कपड़े कम होंगे। शरीर...आप ध्यान रखें। हैरान होंगे, मेरी अपनी समझ ऐसी है कि शरीर में जो-जो कुरूप है उसे ढांकने के लिए हमने कपड़े ईजाद किए हैं। जो-जो सुंदर हैं उसे हमने प्रकट रखा है। जो-जो कुरूप है उसे हमने दबा लिया है।
महावीर जैसा आदमी नग्न खड़ा हो गया। कोई और समझता होगा कुछ, मैं यही समझता हूं कि महावीर का शरीर इतना सुंदर था, इतना प्रपोर्शनेट, इतने अनुपात में था कि ढांकने की कोई जरूरत न थी। वे पूरे के पूरे सुंदर थे। पूरा शरीर नग्न खड़ा हो गया। उनका सौंदर्य मन को मोह लेने वाला होगा। ढांकने को कुछ भी न था। सिर्फ कुरूपता ढांकी जाती है। जैसे-जैसे मनुष्य-जाति सुंदर होगी, समृद्ध होगी--और निरंतर सुंदर और समृद्ध हो रही है, वैसे-वैसे मनुष्य के कपड़े कम होते चले जाएंगे और मनुष्य नग्न खड़े होने में भी एक तरह का आनंद ले सकेगा। नदी पर, घाट पर, फूल पर, स्नान में, वह नग्न भी हो सकेगा और हमारी बेचैनी खत्म हो जाएगी। हमने शरीर में सिर्फ कुरूप अंगों को छिपाया है। अगर शरीर पूरा सुंदर हो जायें...इसलिए देखना कुरूप आदमी बहुत कपड़े डाल-डूल कर चलता है, वह कपड़ों में अपनी कुरूपता को छिपाता है।
कोई अपने कोट के कंधों में रुई भरे हुए है। अब कंधे उठे हुए होने चाहिए, स्वस्थ पुरुष का लक्षण होना चाहिए। अब वह तो कंधे तो दबे हुए हैं। अब रुई भर कर कंधे उठा लिए तो कोट कैसे निकालें? कोट को पहन कर ही चलना पड़ेगा। तो कोट में आदमी ज्यादा सुंदर मालूम पड़ता है। क्योंकि रुई भरे हुए कंधे, रुई भरी हुई छातियां आदमी को वह दे देती है जो शरीर से मिलना चाहिए।
अगर हम सौ आदमियों को नंगा खड़ा करें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे, जो बड़े सुंदर मालूम पड़ते थे, नंगे खड़े होकर एकदम बेहूदे मालूम पड़ने लगेंगे। उसका कारण यह है कि बाकी शरीर में कुछ भी सुंदर नहीं हैै, हमने सिर्फ चेहरे की थोड़ी बहुत फिकर कर ली, बाकी शरीर को बिलकुल छोड़ दिया है। बाकी शरीर निगलेक्टेड है। अगर आप भी आइने के सामने नंगे खड़ें होंगे तो हैरानी मालूम पड़ेगी कि अपना ही शरीर है, जल्दी ढांको, इसे छिपा लो। शरीर सुंदर होगा, स्वस्थ होगा अनुपात में होगा तो नग्न होने में हमारा डर कम हो जाएगा। डर का और कोई कारण नहीं है। शरीर उघड़ेगा, शरीर थोड़ा प्रकट होगा। छिपाने की कोई जरूरत नहीं है। आदमी अकेला है पृथ्वी पर जिसने कपड़े पहने हुए हैं। लेकिन कभी आपको खयाल आया, मोर नंगा है। आ सकता है...!
मैंने सुना है, लंदन में महिलाओं की एक समिति है। उसने एक प्रस्ताव किया है कि कुत्तों को कपड़े पहनाना चाहिए। यह दिमाग इनका खराब हो गया है, इन औरतों का। इनको कुत्ते भी नंगे दिखाई पड़ रहे हैं! इनके दिमाग की खराबी है, और कोई कारण नहीं है। यह कुत्ता बेचारा...! आदमी अब तक नंगा दिखाई पड़ता था, आज कुत्ता नंगा दिखाई पड़ा, कल बैल नंगे दिखाई पड़ेंगे, तो मुश्किल हो जाएगी। हम कहां-कहां नग्नता को ढांकते फिरेंगे। सारी प्रकृति नंगी है, परमात्मा नग्न है, आदमी भर ढंका हुआ है।
नहीं, इतने ढंकने का मोह भी क्या है, इतनी बेचैनी भी क्या है? जिंदगी को सरलता, हलकेपन से, प्रसन्नता से लिया जा सके--ऐसे कपड़े चाहिए, ऐसा रहने-सहने का ढंग चाहिए, इतनी मुक्ति चाहिए...! और एक-दूसरे की शरीर में आंखें डालने की चेष्टा बहुत ही कुरूप है, लेकिन सप्रेसिव सोसाइटीज में होती हैं। हम एक-दूसरे के कपड़े के भीतर भी देखने की कोशिश करते हैं। अगर आंखें कपड़े के भीतर प्रवेश कर सकें, तो हम आंखों को भीतर ले जा सकते हैं। यह बहुत दमन से भरा हुआ चित्त है हमारा। बहुत कुरूप, अग्ली है, यह सुंदर नहीं है। नहीं, इतनी हमें बेचैनी नहीं लेनी चाहिए। आदमी के स्वास्थ्य के साथ सौंदर्य के साथ कपड़ों में रूपांतरण निश्चित है--हो रहा है--होगा। उसे प्रेम से स्वीकार कर लेंगे, तो हम उसे कलात्मक और सांस्कृतिक ढंग दे सकेंगे। अगर हम प्रेम से स्वीकार न करेंगे तो वह असांस्कृतिक, कुरूप और बेढंगा हो जाएगा।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है--वह अंतिम सवाल, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं--उन्होंने पूछा है, कुटुंब नियोजन के बाबत, बर्थ-कंट्रोल के बाबत आपके क्या खयाल हैं?

यह अंतिम बात, क्योंकि यह भारत की अंतिम और सबसे बड़ी समस्या है। और अगर हमने इसे हल कर लिया तो हम सब हल कर लेंगे। यह अंतिम समस्या है। यह अगर हल हो गई तो सब हल हो जाएगी। भारत के सामने बड़े से बड़ा सवाल जनसंख्या का है; और रोज बढ़ता जा रहा है। हिंदुस्तान की आबादी इतने जोर से बढ़ रही है कि हम कितनी ही प्रगति करें, कितना ही विकास करें, कितनी ही संपत्ति पैदा करें कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि जितना हम पैदा करेंगे उससे चैगुने मुंह हम पैदा कर देते हैं। और सब सवाल वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, हल नहीं होते।
मनुष्य ने एक काम किया है कि मौत से एक लड़ाई लड़ी है। मौत को हमने दूर हटाया है। हमने प्लेग, महामारियों से मुक्ति पा ली है। हम आदमी को ज्यादा स्वस्थ कर सके। बच्चे जितने पैदा होते हैं, करीब-करीब बचाने का हमने उपाय कर लिया है। हमने मौत से तो लड़ाई लड़ ली, लेकिन हम यह भूल गए कि हमें जन्म से भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एकतरफा लड़ाई महंगी पड़ जाएगी। हमने मौत का दरवाजा तो क्षीण कर दिया और जन्म का दरवाजा पुरानी रफ्तार से, बल्कि और बड़ी रफ्तार से जारी है। तो एक उपद्रव मुश्किल हो गया। प्रकृति में एक संतुलन था कि प्रकृति उतने ही लोगों को बचने देती थी इस पृथ्वी पर, जितने लोगों के बचने का उपाय था।
आपको शायद पता न हो, आपने घर में छिपकली देखी होगी दीवारों पर। छिपकली एक बहुत पुराने जानवर का वंशज है। आज से कोई दस लाख साल पहले जमीन पर हाथियों से भी कोई पांच-पांच गुने बडी छिपकलियां थी, वह सब खत्म हो गईं। क्योंकि उन्होंने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि आत्मघात हो गया। उनके मरने का और कोई कारण नहीं है। न कोई भूकंप आया, न कोई अकाल पड़ा। उनका कुल कारण यह है कि उन्होंने इतने बच्चे पैदा कर लिए कि उन बच्चों के लिए भोजन जुटाना असंभव हो गया और सारी छिपकलियां मर गईं। उनका एक वंशज बहुत छोटे रूप में हमारे घरों में रह गया। हाथियों से बड़े जानवर थे वे। और भी बहुत से जानवरों की जातियां पृथ्वी से तिरोहित हो गई हैं, सदा के लिए विलीन हो गई हैं। कभी थीं, अब नहीं हैं। और उसका कुल कारण एक था कि वे बच्चे पैदा करते चले गए। और सीमा वहां आ गई, जहां भोजन कम पड़ गया और लोग ज्यादा हो गए और मृत्यु के सिवाय कोई रास्ता न रहा।
प्रकृति आदमी के साथ भी अलग तरह का सलूक न करेगी, आदमी इस भूल में न रहे। अगर हम संख्या बढ़ाते चले जाते हैं तो हमारे साथ भी वही होगा जो सब पशुओं के साथ हो सकता है। हमारे साथ कोई भगवान अलग से हिसाब नहीं रखेगा। आज पृथ्वी पर साढ़े तीन अरब लोग हैं। हिंदुस्तान की आबादी पाकिस्तान के बंटने के वक्त जितनी थी, पाकिस्तान बंटने से अगर किसी ने सोचा होगा कि हम कम हो जाएंगे तो गलती में है। हमने एक पाकिस्तान को तब तक फिर पैदा कर लिया। आज पाकिस्तान-हिंदुस्तान की आबादी मिल कर बहत्तर करोड़ है। हिंदुस्तान की आबादी उन्नीस सौ तीस में तैंतीस करोड़ थी। तैंतीस करोड़ से बहत्तर करोड़ हो गई--सिर्फ चालीस वर्षों में! इस सदी के पूरे होते-होते हम कहां खड़े होंगे, कहना बहुत मुश्किल है। सभा करने की कोई जरूरत न रह जाएगी, जहां भी होंगे सभा में ही होंगे। कोहनी हिलाने की जगह नहीं रह जाने वाली है। लेकिन इतने लोग कैसे जी सकते हैं?
सारे जगत के सामने सवाल है, हमारे सामने सबसे ज्यादा। सबसे ज्यादा इसलिए है कि समृद्ध कौमें बच्चे कम पैदा करती हैं, गरीब कौमें ज्यादा बच्चे पैदा करती हैं। इसका कारण है। अमरीका में कोई जनसंख्या बढ़ नहीं रही। फ्रांस में तो घट रही है। फ्रांस की सरकार चिंतित है कि कहीं हमारी संख्या न घट जाए। बड़ी अजीब दुनिया है। इधर हम मरे जा रहे हैं कि संख्या बढ़ी जा रही है, उधर फ्रांस में संख्या कम पड़ी जा रही है। फ्रांस की सरकार चिंतित है कि कहीं संख्या कम न हो जाए। बीस साल से ठहरी हुई है संख्या। क्या कारण था?
असल में जैसे आदमी समृद्ध होता है, संपत्तिवान होता है, बुद्धिमान होता है, वैसे ही उसकी जिंदगी में मनोरंजन की बहुत सी दिशाएं खुल जाती हैं। और गरीब के पास मनोरंजन की एक ही दिशा है, सेक्स। और कोई मनोरंजन की दिशा नहीं है। और मुफ्त! कोई टिकट नहीं, कोई पैसा नहीं। कोइ खर्च नहीं। वह दिन भर का थका-मांदा, सिनेमा जाए तो पैसा खर्च हो जाते हैं, नृत्य देखे तो पैसा खर्च हो जाते हैं, रेडियो कहां से लाए, टेलीविजन कहां से लाए। सेक्स एकमात्र उसके पास मुफ्त मनोरंजन है। उसकी वजह से गरीब बच्चे पैदा करता चला जाता है। पहले कोई खतरा न था। पहले भी गरीब बच्चे पैदा करता था। एक आदमी बीस बच्चे पैदा करता था, एकाध बचा लिया तो बहुत, दोे बच गए तो बड़ी कृपा भगवान की। वह भी गंडे-ताबीज वगैरह बांध कर मुश्किल से बच पाते थे। लेकिन अब खतरा है, गरीब का बच्चा भी बचेगा। अमीर बच्चे कम पैदा करता है। क्योकि उसके पास मनोरंजन के साधन ज्यादा हैं। इसलिए अमीरों को पहले भी बच्चे गोद लेने पड़ते थे, अब भी लेने पड़ते हैं। उसके पास मनोरंजन के साधन बहुत हैं।
और एक और मजे की बात है कि आदमी जितने आराम में रहे, विश्राम में रहे, उसकी सेक्सुअल एनर्जी उतनी एब्जार्ब हो जाती है। जितने विश्राम में आदमी रहेगा उतनी उसकी काम शक्ति शरीर में विसर्जित हो जाती है। और जितना आदमी श्रम करेगा उतनी काम शक्ति बाहर निकलने के लिए आतुर हो जाती है। इसलिए श्रमिक की तकलीफ है क्योंकि इसके सारे शरीर की काम शक्ति निचोड़ कर इकट्ठी हो जाती है और बाहर फिंकना चाहती है। विश्राम करने वाले आदमी को उतनी काम शक्ति बाहर निकलने के लिए आतुर नहीं करती। इसलिए संपन्नता बढ़ने के साथ नये आयाम मिलते हैं--मनोरंजन के, सृजन की नई दिशाएं मिलती हैं। और तनाव और श्रम कम हो जाने से शरीर की यौन शक्ति शरीर में विसर्जित हो जाती है।
गरीब मुल्क के सामने बड़ा सवाल है। गरीब मुल्क क्या करे? हम क्या करें? हमारे सज्जन, अच्छे आदमी, जो हमें बड़े महंगे पड़ते रहे हैं, और अब भी महंगे पड़ रहे हैं--वे हमें समझाते हैं कि ब्रह्मचर्य रखो, संयम रखो तो सब ठीक हो जाएगा। कोई ब्रह्मचर्य रख नहीं सकता, न रखता है। कोई रख सके करोड़ में, दोे करोड़ में एक व्यक्ति तो उसके लिए उसे इतने शीर्षासन और इतनी चेष्टाएं और इतनी विधियां करनी पड़ती हैं कि संभव नहीं है कि आम--मास स्केल पर ब्रह्मचर्य कभी हो जाए। और फिर अगर किसी को ब्रह्मचर्य रखना हो तो फिर वह एक ही काम कर सकता है कि ब्रह्मचर्य रखे। चैबीस घंटे उसी काम में लगा रहे, फिर दूसरा काम नहीं कर सकता। इसलिए साधु-संन्यासी संसार छोड़ कर भागते हैं, उसका और कोई कारण नहीं है। एक ही काम, पूरा का पूरा एब्जार्बिंग है--ब्रह्मचर्य साधना। इतना खाना खाओ, इतना खाना मत खाओ, यह पानी पीओ, यह पानी मत पीओ, इस तरह सोओ, इस तरह मत सोओ, यह पढ़ोे, यह मत पढ़ोे, यह देखो, यह मत देखो--चैबीस घंटे वह ब्रह्मचर्य ही साध लें तो पर्याप्त--उनके जीवन की यात्रा हो गई। लेकिन यह बड़ी बेहूदी यात्रा है कि अगर सिर्फ ब्रह्मचर्य सधा तो क्या सध गया? यह मासेस के स्केल पर नहीं हो सकता।
मासेस के स्केल पर, बड़े जन-समूह के पैमाने पर तो कृत्रिम साधनों का, वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करना पड़ेगा। लेकिन भारत का मन उन साधनों का उपयोग करने की तैयारी नहीं दिखा रहा है। अगर हमने तैयार नहीं दिखाई तो हम मरेंगे, अपने हाथ से मरेंगे। और अगर हम तैयारी नहीं दिखाते तो मेरी अपनी समझ यह है कि बर्थ-कंट्रोल कंपल्सरी होना चाहिए। अगर शिक्षा कम्पल्सरी हो सकती है, जो कि उतनी जरूरी बात नहीं है आज।
अगर कुछ लोग अशिक्षित रह जाएं, तो नुकसान होगा, लेकिन भारी नुकसान नहीं हो जाएगा। लेकिन संतति-नियमन--बोर्ड लगे हैं जगह-जगह--‘दोे या तीन बच्चे, बस’; उससे कुछ होने वाला नहीं है। समझाने से भी कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि अगर हम समझाने में लगे तो...मैं अभी एक आंकड़ा पढ़ रहा था कि अगर हिंदुस्तान के एक-एक आदमी को समझाने की कोशिश की जाए बर्थ-कंट्रोल के लिए, तो कम से कम हमको सौ साल लगेंगे समझाने में, और सौ साल में वे इतने बच्चे पैदा कर देंगे कि उनको कौन समझाएगा? वह सौ साल रुके तो नहीं रहेंगे कि हम जब समझ लेंगे तब बच्चे पैदा करेंगे। वह बच्चे तो पैदा करते रहेंगे। पूरी जमीन पर डेढ़ लाख बच्चे रोज पैदा हो रहे हैं। बड़ा हिस्सा एशिया पैदा कर रहा है। एशिया में भी बड़ा हिस्सा चीन के बाद हम पैदा कर रहे हैं।
नहीं, बर्थ-कंट्रोल, संतति-नियमन समझाने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह जीवन मरण का सवाल है। वह अनिवार्य होना चाहिए। अनिवार्य का मतलब यह है कि दोे बच्चों के बाद आपरेशन अनिवार्य होगा। अनिवार्य का यह भी मतलब है कि दोे बच्चों के बाद, जिनके पास ज्यादा और बच्चे हैं उन बच्चों पर सरकार सुविधाएं कम कर देगी। जितने जिसके पास कम बच्चे हैं उनको उतनी ज्यादा सुविधाएं मिलनी चाहिए, अभी हालतें उलटी हैं।
अभी हालतें यह हैं कि एक अविवाहित आदमी पर टैक्स ज्यादा है और विवाहित होने पर टैक्स कम है। बच्चे हो जाएं तो और कम है। बड़ी उलटी बात है। बच्चों को कम करना है तो यह उलटा हिसाब लग रहा है। अविवाहित आदमी पर टैक्स बिलकुल नहीं होना चाहिए--या कम से कम होना चाहिए। विवाहित पर ज्यादा टैक्स होना चाहिए और बच्चे होने पर टैक्स बढ़ता जाना चाहिए, तब हम रोक पाएंगे। और अविवाहित व्यक्ति, और जो निःसंतान रहने को तैयार हैं उनको हमें प्रतिष्ठा देनी चाहिए, आदर देना चाहिए, सम्मान देना चाहिए, पुरस्कार देना चाहिए। और सब तरफ से दोे बच्चों के बाद सख्त ,सख्त से सख्त कदम उठा कर रोक देना चाहिए, अन्यथा उन्नीस सौ अठहत्तर तक हमारी संख्या इतनी हो जाएगी कि एक बड़े अकाल की संभावना है जिसमें दस करोड़ लोगों को मरना पड़ेगा--कम से कम--ज्यादा भी मर सकते हैं। अगर सारी दुनिया ने भी हमें खाने की सहायता दी तो भी बीस वर्षों के भीतर एक बड़े अकाल से गुजरने की आशा माननी चाहिए। घबड़ाने वाली बात है। ऐसा न हो, अच्छा है। लेकिन सारी स्थितियां यह कहती हैं कि यह हो जाएगा।
क्या यह अच्छा होगा कि दस करोड़ लोग अकाल में मरें? या हम पहले ही बच्चों को रोकें? लेकिन धर्मगुरु उलटी बातें सिखाते हैं। वे यह कहते हैं कि बच्चे भगवान देता है। भगवान का इसमें कोई हाथ नहीं है, कोई अपराध नहीं। भगवान पर मुकदमा चलाया ही नहीं जा सकता है इस मामले में। मजे की बात यह है कि जो धर्मगुरु यह समझाते हैं कि भगवान देता है बच्चे, वे यह नहीं समझाते कि बीमारी भी भगवान देता है, इसका इलाज नहीं करवाना चाहिए। बीमारी के लिए इलाज करवाने के लिए संन्यासी भी अस्पताल मे भर्ती हो जाते है। बीमारी भगवान ने दी है, इलाज किससे करवा रहे हो? नहीं, बीमारी भगवान की नहीं है, बीमारी डाक्टर से दूर करवाएंगे, और बच्चे भगवान पर थोप देंगे।
बहुत मिरेकल की घटना है कि एक आदमी के शरीर में इतने वीर्याणु बनते हैं एक जिंदगी में कि एक पुरुष से आज पृथ्वी पर जितनी संख्या है उतने बच्चे पैदा हो सकते हैं। एक संभोग में एक पुरुष से इतने वीर्याणु निकलते हैं कि एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं। और एक पुरुष सामान्य रूप से जिंदगी में अगर चार हजार बार संभोग करे तो चार हजार करोड़ बच्चों का बाप बन सकता है। यह तो स्त्री की कृपा है कि वह एक ही बच्चे को साल में दे सकती है, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में कभी के पड़ गए होते! बहुत झंझट में पड़ गए होते।
यह रोकना पड़ेगा। न केवल यह रोकना पड़ेगा बल्कि दोे तीन बातें मेरे खयाल में और हैं जो मैं कहना चाहूंगा। हमें न केवल संतति पर नियमन करना पड़ेगा, हमें संतति वैज्ञानिक रूप से पैदा हो इसका भी विचार करना होगा। अंधे, लूले, लंगड़े, कोढ़ी, पंगु, बुद्धि-भ्रष्ट, पागल, वे सब बच्चे पैदा करते जाएं, यह बहुत खतरनाक है। यह तो बहुत महंगा है। यह तो सारी रेस को खराब करने की व्यवस्था है। हमें इसकी भी फिकर करनी पड़ेगी कि दोे व्यक्ति अगर विवाह करते हैं--तो विवाह तो कोई भी व्यक्ति किसी से भी कर सकता है क्योंकि प्रेम के संबंध में कोई भी कानून नहीं लगाया जा सकता। लेकिन दोे व्यक्ति अगर विवाह करते हैं तो विवाह के बाद उनको सर्टिफिकेट लेना ही चाहिए मेडिकल बोर्ड का कि वे बच्चे पैदा कर सकते हैं या नहीं। हर आदमी को बच्चा पैदा करने का हक बहुत खतरनाक है; आगे ठीक नहीं है। साइंटिफिक ब्रीडिंग के लिए उचित नहीं है। क्योंकि कोई भी बच्चे पैदा करता है। एक आदमी सड़क पर भीख मांग रहा है, मस्तिष्क खराब है, पागल है, वह भी बच्चे पैदा करता है। तो हम आगे की रेस को खराब करते चले जाते हैं। हमारी प्रतिभा, शक्ति, सौंदर्य सब नष्ट होता चला जाता है। वह हमें रोकना पड़ेगा।
और अब, अब चूंकि आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन ने, कृत्रिम गर्भाधारण ने, नई दिशाएं खोज दी हैं, जोे बहुत अदभुत हैं। अब यह संभव है कि मैं मर जाऊं तो मेरे मरने के दस बारह साल बाद मेरा बेटा पैदा हो सके। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई। अब बाप की मौजूदगी बेटे के लिए जरूरी नहीं है। मेरे वीर्य-अणु संरक्षित किए जा सकते हैं। इसका यह मतलब है कि अब हम श्रेष्ठतम व्यक्तियों के, आइंस्टीन के, या बुद्ध के, या महावीर के वीर्य-अणु सुरक्षित कर सकते हैं। श्रेष्ठतम स्त्रियों के वीर्य-अणु सुरक्षित हो सकते हैं। और उन अणुओं से हम नये तरह के ज्यादा श्रेष्ठतम व्यक्तियों को जन्म दे सकते हैं। अब हर व्यक्ति को बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए।
लेकिन हम कहेंगे कि मेरा बच्चा और अणु किसी और का? यह नहीं हो सकता। लेकिन मेरा बच्चा--उसके लिए साइकिल कोई और बनाता है तो चढ़ता है। मेरा बच्चा--गुड्डी कोई और बनाता है। मेरा बच्चा--कपड़े कोई दर्जी सीता है। मेरा बच्चा--दवाई कोई डाक्टर बनाता है। मेरा बच्चा--शिक्षा कोई शिक्षक देता है। जब हम सारी बातों में किसी और से इंतजाम करवा लेते हैं तो व्यक्ति का जो मौलिक अणु है वह मेरे बच्चे के लिए श्रेष्ठतम मिले, यह जो बाप अपने बेटे को प्यार करता है, इसकी फिकर करेगा--करना चाहिए। अब यह संभव है। लेकिन आदमी की कठिनाई यह है कि विज्ञान जिसे संभव बना देता है, आदमी की बुद्धिहीनता के कारण वह सैकड़ों वर्ष तक संभव नहीं हो पाता। अब यह संभव है कि मनुष्य की प्रतिभा बढ़ाई जा सके, बुद्धि बढ़ाई जा सके और श्रेष्ठतम, सुंदरतम स्वस्थतम, मनुष्य को पैदा किया जा सके।
लेकिन वे तो दूर के सपने हैं। अभी तो हमारे सामने सवाल यह है कि हम किसी तरह आती हुई भीड़ को रोक सकें। भीड़ एकदम आकाश से उतर रही हैं, पूरे मुल्क को भरती चली जाएंगी। अगर हमने पचास साल में हिम्मत न दिखाई तो हम अपने हाथ से मर सकते हैं। किसी एटम की, किसी हाइड्रोजन बम की हमारे ऊपर फेंकने की जरूरत न पड़ेगी। हमारा पापुलेशन एक्सप्लोजन ही हमारे लिए हाइड्रोजन बम बन जाएगा। वह जो जनसंख्या फूट रही है, वही हमारी मृत्यु बन सकती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने इन चार दिनों में कहीं, बहुत बातें कहने को शेष रह गईं। लेकिन जिन्होंने मेरी बातेें सुनी हैं वे उन प्रश्नों पर भी इस दिशा में विचार कर सकेंगे जिन पर मैं नहीं बोल सका हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 


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