सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-16)

बोध कथा--सौहलवी  

एक सम्राट के बडे वजीर की मृत्यु हो गई थी। उसके समक्ष राज्य के सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति को चुन कर वजीर बनाने का जटिल सवाल था। फिर अनेक प्रकार की परीक्षाओं के द्वारा अंततः तीन व्यक्ति चुने गए। अब उन तीन में से भी एक को चुना जाना था। उसकी निर्णयात्मक-परीक्षा के एक दिन पूर्व ही यह अफवाह उडा दी गई थी कि सम्राट उन्हें एक ऐसे कक्ष में बंद करने को है, जिसके द्वार पर राज्य के कुशलतम यांत्रिकों द्वारा निर्मित एक ऐसा अदभुत ताला लगा हुआ है, जिसे जो गणित में सर्वाधिक प्रतिभाशाली होगा, केवल वही खोलने में समर्थ हो सकता है। उस रात्रि उन तीन व्यक्तियों में से दो तो चिंता और उत्तेजना के कारण सो ही नहीं सके। वे रात्रिभर तालों के संबंध में लिखे गए शास्त्रों को प.ढते रहे और गणित के नियमों और सूत्रों को समझते रहे। सुबह तक तो वे गणित से इतने ज्यादा भर गए थे कि दो-दो जोडना भी शायद उनसे संभव नहीं होता!

राजमहल जाते समय उन्होंने गणित की कुछ पुस्तकें भी अपने वस्त्रों में छिपा ली थीं, जिनकी किसी भी समय आवश्यकता पड सकती थी।

अपनी दृष्टि में वे सब भांति तैयार थे, यद्यपि शास्त्रों के साथ रात्रि-जागरण करने के कारण उनके मन ठिकाने नहीं थे और उनके पैर ऐसे पड रहे थे जैसे वे नशे में हों। शास्त्रों और ज्ञान का भी नशा तो होता ही है। लेकिन उन दो को वह तीसरा व्यक्ति निश्चय ही पागल मालूम हो रहा था, जो रात्रि भर शांति से सोया रहा था। उसकी निशिंचतता सिवाय पागलपन के और किस बात की द्योतक हो सकती थी? वे दोनों रात्रि में भी उसके ऊपर हंसते रहे थे और अब भी उसकी नासमझी पर हंस रहे थे। राजमहल पहुंच कर उन्हें ज्ञात हुआ कि निश्चय ही वह अफवाह सच थी। वहां पहुंचते ही उन्हें एक विशाल कक्ष में बंद कर दिया गया, जिसके द्वार पर वह बहुचर्चित ताला लगा हुआ था, जो उस समय की यांत्रिक प्रतिभा का अन्यतम आविष्कार था। उस ताले को गणित के आधार पर निर्मित किया गया था और वह एक अत्यंत कठिन पहेली की भांति था, जिसे गणित के द्वारा ही हल भी किया जा सकता था। ये सब बातें अफवाहों से भी ज्ञात थीं और उस ताले पर बने गणित-अंक और चिह्न भी इन्हीं की घोषणा कर रहे थे। उन तीनों व्यक्तियों को कक्ष में बंद कर सम्राट के निर्णय से अवगत करा दिया गया कि जो भी व्यक्ति उस कक्ष के ताले को खोल कर सबसे पहले बाहर निकलने में समर्थ होगा, उसे ही महामंत्री के पद पर नियुक्त कर दिया जाएगा। वे दोनों व्यक्ति शीघ्र ही ताले पर बने चिह्नों का अध्ययन कर गणित के अंकों से जूझने में लग गए। वे बीच-बीच में साथ में लाए शास्त्रों को भी देखते जाते थे।
सर्दी की ऋतु थी और कक्ष के बडे-बडे झरोखों से सुबह की शीतल वायु भी भीतर आ रही थी। लेकिन उनके माथों से पसीने की धारें बह रही थीं। थोडा सा समय, और उस ताले को खोलने की कठिन समस्या थी। शीघ्र ही उनके जीवन का भाग्यनिर्णय होने वाला था। इससे उनकी बेचैनी और घबडाहट स्वाभाविक ही थी। उनके हाथ कंप रहे थे और श्वास ब.ढ गई थी। वे लिखते कुछ थे और लिखा कुछ जाता था। लेकिन जो व्यक्ति रात भर सोया रहा था, उसने न तो ताले का ही अध्ययन किया और न कलम ही उठाई और न कोई गणित ही हल किया। वह तो शांति से आंखें बंद किए बैठा था। उसके चेहरे पर न कोई चिंता थी, न उत्तेजना थी। उसे देख कर ऐसा भी नहीं लगता था कि वह कुछ सोच रहा है। उसके भाव और विचार निर्वात गृह में स्थिर दीपशिखा की भांति मालूम होते थे। वह था एकदम शांत, मौन और शून्य। वह अचानक उठा और अत्यंत सहज और शांत भाव से धीरे-धीरे कक्ष के द्वार के पास पहुंचा। उसने अत्यंत आहिस्ते से द्वार का हत्था घुमाया और आश्चर्य कि द्वार उसके छूते ही खुल गया! वह खुला हुआ ही था! वह ताला और उसकी सारी कथा धोखा थी। लेकिन उसके जो दो मित्र गणित की पहेलियां बूझ रहे थे, उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं चला। उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उनका एक साथी अब भीतर नहीं है। यह चैंकाने वाला सत्य तो उन्होंने तभी जाना जब सम्राट द्वार के भीतर आया और उसने उनसे कहाः ‘‘महानुभावो, अब यह गणित बंद करो। जिसे निकलना था, वह निकल चुका है!’’ वे बेचारे तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे! उनका वह सब भांति अयोग्य साथी सम्राट के पीछे खडा था। सम्राट ने उन्हें अवाक देख कर यह भी कहा थाः ‘‘जीवन में भी सबसे पहले यही महत्वपूर्ण है कि देखा जाए कि समस्या वस्तुतः है भी या नहीं? ताला बंद भी है या नहीं? जो समस्या को ही नहीं खोजता और समाधान करने लग जाता है, वह स्वभावतः ही भूल में पडता है और सदा के लिए भटक जाता है।’’
यह कथा अदभुत रूप से सत्य है।
परमात्मा के संबंध में भी मैंने यही पाया है। उसका द्वार भी सदा से ही खुला हुआ है। और उस पर लगे तालों की सब अफवाहें एकदम असत्य हैं। लेकिन उसके द्वार से प्रवेश पाने के लिए उत्सुक उम्मीदवार उन तालों के भय से शास्त्रों को साथ बांध लेते हैं। फिर ये शास्त्र और सिद्धांत ही उनके लिए ताले बन जाते हैं। फिर वे उसके द्वार के बाहर ही बैठे रह जाते हैं, क्योंकि जब तक वे शास्त्रों की गणित-पहेलियों को हल न कर लें, तब तक प्रवेश संभव ही कैसे है?
मुश्किल से ही कोई कभी इतना दुस्साहस करता है कि बिना शास्त्रों के ही उसके द्वार पर पहुंच जाता हो। मैं ऐसे ही पहुंच गया था। पहुंच कर देखा कि जहां तक आंखें देख सकती थीं, वहां तक पंडितगण अपने-अपने शास्त्रों के ढेर में दबे हुए थे और कुछ सवालों के हल करने में इस भांति तल्लीन थे कि मुझ अपात्र का वहां पहुंच जाना भी उन्हें ज्ञात नहीं हुआ था। मैं तो गया और उसके द्वार का हत्था घुमाया और पाया कि वह तो खुला ही हुआ है! पहले तो यही समझा कि मेरे भाग्य से जरूर ही द्वारपालों से कोई भूल हो गई है। अन्यथा यह कैसे संभव था कि जो शास्त्र न जाने, सिद्धांत न जाने, वह सत्य के जगत में प्रवेश पा ले? और मैं डरा-डरा ही भीतर प्रविष्ट हुआ था। लेकिन जो वहां पहले से ही प्रविष्ट हो गए थे, उन्होंने बताया कि परमात्मा के द्वार बंद होने की खबर तो शैतान के द्वारा फैलाई गई निरी झूठी अफवाह है। उसके द्वार तो सदा से ही खुले हुए हैं! प्रेम के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं? सत्य के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं?

ओशो 

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