शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सत्य का अन्वेषण-(प्रवचन-05)

प्रवचन पांचवां-(प्रेम के पंख) 

सत्य को या परमात्मा को जानना कोई बौद्धिक ऊहापोह, कोई विचार मात्र करने की बात नहीं है, वरन वे ही व्यक्ति सत्य से परिचित हो पाते हैं, जो अपने भीतर सत्य को ग्रहण करने की क्षमता, पात्रता या ग्राहकता पैदा कर लेते हैं। हम केवल उतने ही अर्थों में जानते हैं, जितनी जानने की क्षमता हममें पैदा होती है और इसलिए स्मरण रखें कि जो हमारा ज्ञान है, वही सत्य की सीमा कभी भी नहीं है। हमारे ज्ञान से सत्य हमेशा बड़ा है। क्यों? क्योंकि जितना हम जानते हैं, उससे बहुत ज्यादा जानने को सदा शेष है। जो हमारा ज्ञान है, वही सत्य नहीं है। सत्य हमारे ज्ञान से सदा बड़ा है। क्यों? क्योंकि हमारी जानने की क्षमता पूर्ण नहीं है। वह मनुष्य जो अपने ज्ञान को ही सत्य की सीमा समझ लेता है, रुक जाता है, ठहर जाता है। संसार में भी जो हम जानते हैं, वह हमारी इंद्रियों के द्वारा सीमित है। यदि किसी व्यक्ति के पास आंख न हो, तो उसे इस जगत में प्रकाश जैसी कोई भी चीज नहीं होगी। अगर एक ऐसा समाज हो अंधों का, जहां किसी के पास आंख न हो, तो उस समाज के भीतर प्रकाश के संबंध में कोई धारणा नही होगी।

प्रकाश तो दूर, वे अंधकार को भी नहीं जानेंगे, क्योंकि उसे जानने के लिए भी आंख का होना और प्रकाश का अनुभव जरूरी है। और यदि हमारे पास कान न हों, तो फिर हमारे लिए ध्वनि नहीं हैं। वस्तुतः केवल उसकी सत्ता ही हमारे समक्ष अनावरित होती है,

जिसकी ग्राहकता हममें है। हमारे संसार की सीमा वही है, जो कि हमारी ग्रहण सीमा है। लेकिन संसार उतना ही नहीं है, हमारे संसार की और संसार की सीमाएं एक ही नही हैं। हमारा संसार हमसे ही सीमित है। इस भांति एक ही संसार में बहुत से संसार हैं। जितनी प्राणी-जातियां हैं, उतने ही संसार हैं। और सूक्ष्मता से देखें, तो जितने व्यक्ति हैं उतने ही संसार हैं। ऐसे एक ही संसार के अनंत संसार हैं, क्योंकि अनंत जानने देखने और अनुभव करने वाले हैं। जितनी अस्मिताएं हैं, संसार उतने ही काल्पनिक खंडों में विभाजित है। मनुष्य से पीछे बहुत से पशु हैं, जिनकी इंद्रियां मनुष्य से कम हैं। किन्हीं नीचे की विकास की सीढ़ियों पर किन्हीं प्राणियों के पास आंखे नहीं हैं, किन्हीं प्राणियों के पास कान नहीं हैं। किन्हीं प्राणियों के पास स्वाद या गंध नहीं है। वे प्राणी उस तल पर प्रकाश या ध्वनियों या गंधों की सत्ता का बोध भी नहीं कर पाते हैं। ऐसे ही मनुष्य के पास जितनी इंद्रियां हैं, उतना उसके जगत का ज्ञान है और यह अज्ञान होगा कि उतनी ही जानकारी को हम संसार की सीमा समझ लें। यदि और इंद्रियां हों, तो संसार का सीमा विस्तार और बड़ा हो जाएगा। वैज्ञानिक उपकरणों से यह हुआ भी है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि ताकि यह समझ में आ सके कि हम उतना ही जानते हैं जितने की जानने की हम अपने में क्षमता पैदा कर लेते हैं। हमारा जानना हमारी क्षमता पर निर्भर है। और जो दृष्य संसार के संबंध में सत्य है, वही अदृष्य सत्ता के संबंध में भी सत्य है। लोग जब भी मुझसे पूछते हैं ईश्वर है, आत्मा है? तब मैं उनसे यही पूछता हूंः क्या आत्मा व ईश्वर को अनुभव करने की क्षमता आपके भीतर है? क्योंकि प्रश्न हमेशा क्षमता का है, प्रश्न ईश्वर के होने का नहीं है। यदि आपके भीतर क्षमता है, तो आप उन सत्यों को अनुभव कर पाएंगे जो अभी आपको अनुभव नहीं होते और यदि क्षमता नहीं है, तो वे सत्य असत्य ही प्रतीत होंगे। और किसी भय से यदि उन्हें स्वीकार भी कर लिया जाए, तो भी वे सत्य नहीं बन सकते हैं। सत्य तो बस वही सत्य बनता है, जो अनुभव बन जाता है।
एक व्यक्ति ने पच्चीस सौ वर्ष पहले एक गांव में बुद्ध के चरण पकड़े थे और उनसे कहा था कि मैं सत्य को जानने आया हूं। क्या आपकी दृष्टि है, क्या आपकी धारणा है? बुद्ध ने कहाः मेरी जो धारणा होगी, वह तुम्हारे लिए व्यर्थ होगी, क्योंकि सत्य को देखने की जो आंख है, वह तुम्हारे पास नहीं है। मैं जो भी कहूंगा वह असत्य मालूम होगा। क्योंकि जिसे तुम अनुभव नही कर सकते हो, उसकी सत्यता को तुम कैसे जान सकते हो? और बुद्ध ने उससे यह भी कहा था कि मैं एक गांव में गया था, वहां कुछ लोग मेरे पास एक अंधे को लाए थे। उन्होंने मुझसे कहा कि इसे समझा दें कि प्रकाश है। तो मैैंने उन लोगों को कहा कि यह पागलपन की बात है। जिसके पास आंख नहीं, उसे कैसे समझाऊंगा कि प्रकाश है? तो मैने उन लोगों को कहा कि इसे मेरे पास मत लाओ। इसे किसी चिकित्सक के पास ले जाओ किसी वैद्य के पास ले जाओ, इसकी आंख ठीक करवाओ, प्रकाश के संबंध में समझाना व्यर्थ बात है।
आंख ठीक होनी चाहिए। आंख है तो प्रकाश है। और यही मैं आपसे भी कहता हूं। इसकी फिकर छोड़ दो कि सत्य क्या है, इसकी फिकर करो कि क्या आपके पास वह आंख है, जो कि पदार्थ के पार देखने में समर्थ हो जाए। हम जो भी देख रहे हैं, पदार्थ है। पदार्थ के अतिरिक्त जो भी है, वह हमारी अनुभूति के बाहर पड़ जाता है। उसकी संवेदना, उसकी तरंगे हमें स्पर्श नहीं कर पातीं। जब आप किसी मित्र को मिलते हैं तब भी आप केवल उसकी देह से मिल पाते हैं। उसकी आत्मा से आपका कोई मिलन नहीं हो पाता। जब आप बाहर दरख्तों को देखते हैं, तब भी आप दरख्तों की देह से मिल पाते हैं, उनकी आत्मा से आपका कोई मिलन नहीं हो पाता। क्यों, क्योंकि जिसका अभी अपनी आत्मा से मिलन नहीं हुआ है और जिसने अपने भीतर चैतन्य की ऊर्जा को अनुभव नहीं किया है, वह इस जगत में--व्याप्त चेतना को कैसे अनुभव कर सकेगा? प्रश्न ईश्वर का, सत्य का और प्रकाश का नहीं है, प्रश्न सदा आंख का है और इसलिए धर्म विचार न होकर मेरी दृष्टि में उपचार है। धर्म कोई वैचारिक बात न होकर उपचार है। यदि हम अपने भीतर की कुछ ऐसी संवेदनशीलताओं को सक्रिय कर सकें जो कि हमारे भीतर सोई हुई पड़ी हैं तो हमारे भीतर अनुभूति के नए-नए क्षितिज खुलते जाएंगे, और हम कुछ जानेंगे जिसे जाने बिना जीवन में न तो कोई अर्थ होता है, न अभिप्राय होता है, न आनंद होता है। जितनी सूक्ष्मतर संवेदना होती जाएगी आपकी, जितनी गहरी ग्राहकता होती जाएगी, उतना ही जगत में स्थूल विलीन होता जाएगा और सूक्ष्म के दर्शन होने लगेंगे। एक घड़ी आती है जब यह सारा जगत पदार्थ नहीं, परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। लेकिन उसके लिए स्वयं को तैयार करना होगा। जैसे कोई किसान खेत को तैयार करता है बीज बोने से पहले, वैसे ही जिसे परमात्मा की ओर उन्मुख होना है उसे अपनी भूमि को तैयार करना होगा, उसे अपने भीतर संगीत को पैदा करना होगा। तभी वह बाहर जो संगीत व्याप्त है उसका अनुभव कर सकेगा। सूरज दिखाई पड़ता है क्योंकि हमारे पास आंख है सूरज हमें प्रभावित कर सकता है, क्योंकि सूर्य को ग्रहण करने के लिए हमारे पास एक इंद्रिय और क्षमता है। मैं बोलता हूं, मेरी ध्वनि आपके भीतर जाकर प्रतिध्वनित हो जाती है, क्योंकि आपके पास एक ग्राहक इंद्रिय है जो उस ध्वनि को आपके पास पहुंचा देती है। परमात्मा चैबीस घंटे प्रतिक्षण चारों ओर खड़ा हुआ है। हमारी हर श्वास उसकी है, हर अंग उसका है, लेकिन उसका हमें बोध नहीं होता है, क्योंकि उसे हम तक पहुंचाने का द्वार हम अपने हाथों बंद किए हुए हैं। इस द्वार को खोलने के तीन सूत्र, मैं आज आपसे चर्चा कर रहा हूं कि कैसे आपके भीतर वह संवेदना शक्ति पैदा होगी, जिसके माध्यम से स्थूल विलीन हो जाता है और सूक्ष्म के दर्शन होने शुरू जाते हैं। पदार्थ विलीन हो जाता है और परमात्मा दृश्य हो उठता है। दृश्य से अदृश्य, स्थूल से सूक्ष्म, पदार्थ से परमात्मा की ओर ले जाने वाले तीन सूत्र हैं। पहला सूत्र है हम अपने से प्रेम करें। व्यक्ति स्वयं से प्रेम करे। यह प्रेम अबाध और बेशर्त हो। क्योंकि जो स्वयं से ही प्रेम नहीं करता, वह किसी से भी प्रेम नहीं कर पाता है, और प्रेम के अभाव में पदार्थ का अतिक्रमण असंभव है। प्रेम की शक्ति ही मनुष्य के पास एकमात्र शक्ति है, जो कि पार्थिव नहीं है। प्रेम के अपार्थिव सूत्र को पकड़ कर ही परमात्मा की सीढ़ियां चढ़ी जा सकती हैं। लेकिन स्वयं से प्रेम करने की बात सुन कर निश्चय ही थोड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि हमारी तथाकथित धार्मिक शिक्षाएं इसके विरोध में हैं। उनके द्वारा तो परोक्ष-अपरोक्ष ने स्वयं से शत्रुता ही सिखाई जाती है। स्वयं के प्रति निंदा और घृणा पर ही तो हमारे जीवन के आधार रखे जाते हैं। इन आधारों पर ही तो हम स्वयं का दमन सीखते और करते हैं। हमारी तथाकथित नैतिकता और धार्मिकता सिवाय आत्म-दमन के और क्या है? और आत्म-दमन स्वयं से घृणा और शत्रुता के अभाव में हो ही कैसे सकता है? मनुष्य की आज तक की धार्मिकता स्वयं को दो खंडो में तोड़ कर उनके संघर्ष और द्वंद्व पर ही तो खड़ी हुई है। इस भांति की आधारभूत भ्रांति पर खड़ा जीवन यदि कुरूप हो जाता हो तो कोई भी आश्चर्य नहीं है। जीवन का सौंदर्य आत्म-द्वंद्व से कभी भी फलित नहीं हो सकता है। क्योंकि जो अपने से ही लड़ता है, वह अपनी शक्ति ही खोता है और उसके जीवन में किसी भांति की विजय तो असंभव है। उसके जीवन में विजय असंभव है, इसलिए कि वह अपने ही दोनों हाथों को लड़ा रहा है। उन दोनों हाथों के पीछे वह स्वयं ही है। इसलिए, जीतेगा तो कौन किससे जीतेगा? जीत भी नहीं होगी--हार भी नहीं होगी। होगा मात्र द्वंद्व और द्वंद्व में शक्ति ह्रास और मृत्यु। इस भांति चूंकि व्यक्ति की सारी शक्तियां अपने ही विध्वंस में सलंग्न हो जाती हैं, इसलिए जीवन कुरूप और अपंग और व्यर्थ हो जाता है। जीवन स्वयं के सृजन में लगे तो ही सौंदर्य को, सत्य को और शिवम को उपलब्ध होता है। लेकिन आत्म-दमन के उपदेश व्यक्ति के भीतर संगीत तो पैदा नहीं कर पाते, वरन विसंगीत ही पैदा कर देते हैं। यह विसंगीत ही दुख है, चिंता है, संताप है। जो व्यक्ति अपने भीतर द्वंद्व से भर जाता है, जो अपने से ही लड़ने लगता है और अपने को ही शत्रु और स्वयं में विभाजित कर लेता है, जो अपने ही भीतर किन्हीं शक्तिओं को दुश्मन की तरह मानने लगता है और अपनी ही किन्हीं अन्य शक्तिओं को उनके विरोध में खड़ा करा लेता है, वह स्वयं ही स्वयं के लिए नरक का निर्माण कर लेता है। और ऐसे ही जीवन को हम धार्मिक जीवन मानते रहे हैं? मेरे देखे, धार्मिक जीवन बिलकुल ही और बात है। वह आंतरिक द्वंद्व का नहीं, वरन आंतरिक शांति और संगीत का जीवन है। वह आत्मविग्रह का नहीं आत्मिक ऐक्य और अखंडता का जीवन है। और जो इस आत्म संगीत को पाना चाहता है, उसे प्रारंभ से ही उसकी बुनियाद रखनी होगी। द्वंद्व से प्रारंभ कर कोई अद्वंद्व पर नहीं पहुंच सकता है। क्योंकि जो अंत है, वह प्रारंभ में ही उपस्थित रहता है। इसलिए स्मरण रहे कि प्रथम चरण अंतिम चरण से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। परमात्मा तो परम संगीत है। और इसके पहले कि मैं उस संगीत से जुडूं यह अति आवश्यक है कि मैं स्वयं संगीत बन जाऊं। और वह संगीत स्वयं को घृणा करने से नहीं, आत्म निंदा और आत्म विग्रह से नहीं, वरन स्वयं को प्रेम करने से उत्पन्न होता है। आध्यात्मिक जीवन की पहली बुनियादी आधार कड़ी अपने से प्रेम करना है। निश्चय ही इससे आप थोड़े हैरान होंगे, क्योंकि हमें तो कहा जाता है कि आपके भीतर कुछ है, जिसे दबाओ, आपके भीतर कुछ है जिसे नष्ट करो, किंतु मैं आपसे कहता हूं कि आपके भीतर ऐसा कुछ नहीं है, जिसे दबाओ, नष्ट करो। हां आपके भीतर कुछ शक्तियां जरूर हैं, जिन्हें रूपांतरित करना है, नष्ट नहीं। जिन्हें प्रेम करना और जगाना है, दबाना नहीं। जिन्हें मार्ग देना है और दिशा देनी है। लेकिन जो उन्हें शत्रु मान लेता है, वह तो उन्हें रूपांतरित करने में सफल नहीं हो सकता है। ध्यान रहे कि जिसे समझ है, वह अपने भीतर के विष को भी अमृत में परिणत कर लेता है और जिसे समझ नहीं है, वह तो अपने भीतर के अमृत को भी विष में गिरा देता है। इसलिए मैं तो समझ को ही अमृत कहता हूं और समझ के अभाव को ही विष। हम देखते हैं, सड़ी हुई चीजें, दुर्गंध देती हुई चीजें भी खाद बन जाती हैं। अभी मुझे किसी ने फूल भेंट किए हैं। वे कैसी सुगंध से भरे हैं? और जैसे ही उनकी सुगंध ने मेरे प्राणों को झंकृत किया, मुझे याद आया कि यह सुगंध कहां से आती है। खाद में जो दुर्गंध हैं, वही तो बीजों के माध्यम से प्रविष्ट होकर परिवर्तित हो जाती है। वही तो सुगंध बन जाती है। अगर घर के बाहर आप खाद को इकट्ठा कर लें तो आप दुर्गंध में रहने लगेंगे और अगर घर के बाहर आप खाद की बगिया बना लें तो आप सुगंध में रहने लगेंगे। जो दुर्गंध है वह सुगंध का ही अविकसित रूप है, सुगंध का विरोध नहीं। मित्र, वह जो दुर्गंध है वह सुगंध का ही अविकसित रूप है। जो विसंगीत है वह भी संगीत का ही अविकसित रूप है, अव्यवस्थित रूप है। मनुष्य के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे खंडित करना और नष्ट कर देना हो, मनुष्य के जीवन में ऐसा जरूर बहुत कुछ है, जिसे परिवर्तित करना है, जिसे उदात्त करना है, जिसे ऊपर उठाना है। मनुष्य के पास शक्तियां हैं, और स्मरण रहे, शक्तियां तटस्थ होती हैं। वे न शुभ होती हैं न अशुभ होती हैं, न अच्छी होती हैं, न बुरी होती हैं। शक्तियां तटस्थ होती हैं। उनका हम जैसा उपयोग करते हैं, वे वैसी ही हो जाती हैं। जिसे लोग सेक्स की शक्ति कहते हैं, काम की शक्ति कहते हैं और तथाकथित धार्मिक व्यक्ति जिसके विरोध में खड़े रहते हैं, वह बिलकुल तटस्थ शक्ति है, क्योंकि वही शक्ति परिवर्तित होकर दिव्य शक्ति में परिणत हो जाती है। वह तो सृजन की आद्य शक्ति है और उसके उपयोग पर निर्भर है कि वह क्या कर सकती है। उस पर नहीं वरन हमारी समझ और जीवन जीने की कला पर ही निर्भर है कि वह क्या हो सकती है, वही शक्ति तो परिवर्तित होकर ब्रह्मचर्य बन जाती है। ब्रह्मचर्य काम शक्ति का विरोध नहीं, उसका ही ऊध्र्वीकरण है? जिसे आप क्रोध कहते हैं, क्रोध में प्रकट होने वाली शक्ति ही तो शांति बन जाती है। परिवर्तन की बात है। जीवन में विनाश की नहीं सृजन की, श्रेष्ठतर सृजन की बात है और यदि सत्य स्पष्ट है, तो सवाल अपने से संघर्ष और शत्रुता का नहीं, अपने से प्रेम करने का है। क्योंकि स्वयं से स्वयं में ही स्वयं का सृजन हो सकता है। और मैं कहना चाहूंगा कि स्वयं से स्वयं के शरीर को बाहर मत रखना। उसे भी प्रेम दो। प्रेम पाकर वह भी जागता है। और उसकी सोई शक्तियां भी सक्रिय हो उठती हैं। लेकिन न तो तथाकथित भोगी शरीर से प्रेम करते हैं और न तथाकथित त्यागी। भोगी की स्वयं की देह के प्रति घृणा उसके असंयम में प्रकट होती है। इस घृणा में ही तो वह देह का अपव्यय कर पाता है। और चूंकि त्यागी भी इस भोगी की प्रतिक्रिया होते हैं, इसलिए शरीर के प्रति शत्रुता में वे भी पीछे नहीं हैं। निश्चय ही उनकी दिशा भिन्न होती है। वे संयम के नाम पर शरीर को सताते हैं। एक भोग के नाम पर सताता है, एक त्याग के नाम पर। लेकिन, शरीर के प्रति प्रेम और धन्यता का भाव उन दोनों में ही नहीं होता है। शरीर के प्रति अनूकुल का भाव और प्रेमपूर्ण दृष्टि स्वस्थ चित्त व्यक्ति का अनिवार्य लक्षण है। शरीर के साथ कैसा भी दुव्र्यवहार अस्वस्थ और रुग्ण चित्तता है। और चित्त के दो रोग हैं--भोग का रोग और त्याग का रोग। भोगी चित्त इसलिए तो एकदम से त्याग पर पहुंचता है। काश! वह बीच में रुक सकता। लेकिन एक रोग से दूसरे रोग पर जाना सदा ही आसान होता है और रोग से महारोग पर जाना हो, तब तो कहना ही क्या है? ऐसे ही रुग्ण-चित्त व्यक्तियों ने बहुत कुछ सिखाया है, वे सिखाते हैं कि शरीर शत्रु है। इससे लड़ना है। और ऐसी विषाक्त शिक्षाओं का ही परिणाम है कि धर्म अत्यंत शरीरवादी हो गया है। शरीर का विरोध भी तो शरीर पर ही केंद्रित कर देता है। इसलिए मैं कहता हूं कि यदि शरीर का अतिक्रमण करना है, यदि उससे ऊपर जाना है, तो उससे लड़ो मत, उससे शत्रुता मत पालो, वरन उसे प्रेम करो और उससे मित्रता साधो। शरीर शत्रु नहीं है। साधन है और बहुत अदभुत साधन है। उसका उपयोग करो और जिसका भी उपयोग करना हो उसके प्रति प्रेम का हाथ बढ़ाना चाहिए। सब से पहले अपने शरीर के प्रति प्रेम का हाथ बढ़ाना चाहिए। शरीर परमात्मा की अनूठी कृति है। वह बहुत रहस्यपूर्ण सीढ़ी है। उस पर से ही होकर तो परमात्मा तक जाना है। और वह व्यक्ति निश्चय ही पागल है, जो कि सीढ़ी को पार तो नहीं करता, वरन उससे लड़ता है। और ऐसे पागल चारों ओर हैं। उनसे सावधान रहना आवश्यक है। ऐसे पागलों के कारण मनुष्य जाति का कितना अहित हुआ है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। जो शरीर आपको सहज ही मिला है उसमें क्या क्या रहस्य छिपे हैं, यह आपको पता ही नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर के ही रहस्यों को जान ले, तो वह परमात्मा के अनंत रहस्यों की कुंजी पा सकता है। यह कितना छोटा सा शरीर है, पर इसमें बड़े विराट छिपे हैं। इसमें ही मन छिपा है। उस मन में ही आत्मा छिपी है। उस आत्मा में ही परमात्मा छिपा है। एक संत जब मर रहा था, तो उसने अपने पास उपस्थित सारे लोगों से विदा ली और सारे लोगों को धन्यवाद दिया और अंत में वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ और उसने कहाः ‘हे मेरे प्यारे शरीर, तू ने ही मुझे परमात्मा तक पहुंचाया है, मेरे धन्यवाद को स्वीकार कर। मैं तेरे लिए कुछ भी नहीं कर सका और उलटे मैंने तुझे सदा यातना और पीड़ा ही दी। मैंने सदा तुझसे काम लिया है और बदले में कुछ भी नहीं दिया है। मैं तेरा अत्यंत ऋणी हूं और इस विदा के क्षण में तुझसे क्षमा मांगता हूं। जो भूल-चूक मैंने तेरे साथ की हो, उसके लिए मुझे क्षमा करना। मुझ पर तेरे उपकार अनंत हैं। तेरे बिना मैं परमात्मा तक पहुंचने में असमर्थ ही था।’
 शरीर के प्रति ऐसी ही दृष्टि चाहिए--ऐसे ही अनुग्रह का भाव चाहिए--ऐसा ही प्रेम चाहिए। उस संत ने अपने शरीर से कहाः ‘हे मेरे प्यारे शरीर!’ ये शब्द मेरे हृदय को एक अदभुत आनंद से भर देते हैं! क्या आपके जीवन को भी ऐसी ही समझ आलोकित नहीं कर सकती है? क्या मैं पूछ सकता हूं कि क्या कभी आपने अपने शरीर के प्रति ऐसे प्रेम से भर कर निहारा है? क्या कभी उसकी सेवाओं के लिए अनुगृहीत हुए हैं? क्या कभी उसका धन्यवाद किया है? यदि नहीं तो यह कैसी अकृतज्ञता है? यह कैसी अशिष्टता है? यह कैसा असज्जनोचित्त व्यवहार है?
शरीर के प्रति समझ चाहिए। गहरी संवेदना चाहिए। उसकी हिफाजत का बोध चाहिए। और मैत्रीपूर्ण रुख चाहिए। वह बहुत बड़ी यात्रा पर सुख-दुख का साथी है। वह साधन है। वह सीढ़ी है। इसलिए मेरी दृष्टि में जिसको भी समझ है वह शरीर के प्रति दुष्टता और शत्रुता का व्यवहार नहीं कर सकता है। लेकिन दुनिया में ऐसे विक्षिप्त लोग हुए हैं और हैं, जिन्होंने अपने शरीर के साथ जो दुव्र्यवहार, जो हिंसा और जो दमन और जो उत्पीड़न किया है, वह हृदय को रूदन से भर देता है और प्रार्थना से कि हे परमात्मा! मनुष्य-जाति को ऐसी आध्यात्मिकता से मुक्त कर। ऐसे पागलों का व्यवहार सिवाय इसके कि उन्होंने अपनी बुद्धि खो दी हो और किसी बात का प्रमाण नहीं है। लेकिन ऐसे लोगों के भी दूषित प्रभाव पीछे छूट गए हैं और आज भी हमारा पीछा कर रहे हैं। इस तरह बीमार शिक्षाओं से स्वयं को मुक्त करें। ऐसे लोगों को पूजने की नहीं, वरन उनकी चिकित्सा की आवश्यकता है।। और मैं आशा करता हूं कि कभी न कभी हम यह जरूर ही कर सकेंगे। शरीर के भोग से जो अशक्ति, असफलता, और असंतुष्टि पैदा होती है, उसकी तीव्र प्रतिक्रिया में शरीर से शत्रुता हो जाती है। इस भांति स्वयं के दोष शरीर पर थोप दिए जाते हैं, जो कि बिलकुल ही निर्दोष है। मैं शरीर की शत्रुता पर खड़ी समस्त कृच्छ साधनाओं के प्रति सजग होने का निवेदन करता हूं, क्योंकि शरीर को जिस भांति आपने अब तक भोगा है, उसके कारण वैसी कृच्छ साधनाओं का एक प्रबल आकर्षण आपके भीतर भी हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति धन को देख कर लालच से भर जाए या किसी व्यक्ति के रूप को देख कर लोभ से और आकर्षण से भर जाए और अपनी आंखे फोड़ ले, तो उसे मैं पागल कहूंगा। क्योंकि आंखें न तो लोभ करने को कहती हैं, न राग करने को कहती हैं। आंखें तो कुछ भी नहीं कहती हैं। आप आंखों से जो उपयोग लेते हैं, वे उसी के लिए राजी हो जाती हैं। शरीर तो एकदम आपका अनुगत है, शरीर तो एकदम सेवक है। वह तो सदा तैयार है, उसे जहां आप ले जाएं। आप कहें नरक चलो तो शरीर नरक चलने को हाजिर है, आप कहें स्वर्ग चलो, तो शरीर स्वर्ग चलने को राजी है। सवाल शरीर का नहीं, वरन आपके संकल्प का है। और स्मरण रखें, संकल्प के पीछे शरीर सदा चला जाता है। हम गलती करेंगे, अगर हम संकल्प को तो न बदलें और शरीर को कष्ट देने लगें और पीड़ा देने लगे और शरीर को नष्ट करने लगें। शरीर के साथ किया गया दुराचार हिंसा का ही एक रूप है, आत्महिंसा का और उसका मैं समर्थन नहीं करता हूं। मैं आत्म-प्रेम का समर्थन करता हूं और मुझे दिखाई पड़ता है कि स्वयं के प्रति हिंसा से अधिक मूर्खतापूर्ण और कुछ भी नहीं हो सकता है। लेकिन आत्म-प्रेम से मेरा प्रयोजन अहं-केंद्रित व्यक्तित्व से नहीं है। अहं-केंद्रित व्यक्ति तो कभी स्वयं को प्रेम करता ही नहीं, क्योंकि यदि वह स्वयं को प्रेम करता, तो अहंकार से मुक्त हो जाता, क्योंकि अहंकार से अधिक पीड़ादायी तो कोई नरक ही नहीं है। अहं-केंद्रित व्यक्ति ही धार्मिक बन आत्म-हिंसा में प्रवृत्त होता है, क्योंकि इस भांति अहंकार की जितनी तृप्ति और पुष्टि होती है, उतनी और किसी भांति नहीं होती है। तथाकथित त्यागियों, साधुओं और अर्ध-महात्माओं में जो दर्प परिलक्षित होता है, वह इसी कारण। महात्मा होने के कारण वे अहंकारी हैं और अहंकारी होने के कारण महात्मा हैं।
परमात्मा की प्रकृति में कुछ भी ऐसा नहीं हो सकता है, जो आपके प्रति शत्रुतापूर्ण हो, कुछ भी ऐसा नहीं हो सकता हैं, जो आपके विरोध में खड़ा हो। लेकिन आप उसका उपयोग न करें या दुरुपयोग करें, तो बात ही दूसरी है। रास्ते पर पत्थर पड़ा हो तो जो जानते हैं, वे उसे सीढ़ी बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए बनी हुई सीढ़ी भी रास्ते में अटकाव, अवरोध हो जाती है। जीवन में सब कुछ दृष्टि की बात है। और दृष्टि ही भ्रांत हो, तो बहुत बड़ा अंतर पड़ता है। शरीर को शत्रु मान कर ही जो प्रारंभ करता है, उसके लिए वह शत्रु ही हो जाता है, तो आश्चर्य नहीं है। उसे मित्र मान कर प्रारंभ करें। उसे मित्र जानें। वह मित्र है। उसके प्रति विरोध--वैमनस्य जाते ही एक बोझ स्वयं से हट जाता है--एक तनाव से मुक्ति हो जाती है--एक शांति और विश्रांति का अनुभव होता है। करें और देखें। स्मरण रखें, शरीर तो केवल माध्यम है। वह किसी को कहीं नहीं ले जाता है। उसके प्रति सब दुर्भाव छोड़ें। पक्षपातमुक्त होकर उसे देखेंगे, तो उसकी मूक सेवाओं के प्रति हृदय अनायास ही प्रेम से भर जाता है। फिर शरीर पर ही नहीं रूक जाना है। और गहरे भी चलना है। शरीर तो स्वयं के प्रति प्रेम की यात्रा का प्रारंभ बिंदु ही है। शरीर से गहरे जाते ही मन है। इस मन को भी प्रेम करना है। इससे भी मैत्री करनी है। साधारणतः स्वयं के व्यक्तित्व के ये दो तल--शरीर और मन--ही तो हमें ज्ञात हैं। इनसे ऊपर या इनसे गहरे जाने को इनका ही तो उपयोग करना है। शरीर की भांति ही मन के विरोध में तो और भी बड़े प्रचार हैं। मन तो धार्मिक शत्रुता का केंद्र ही है। जब कि मन से मुक्त होने के लिए पहले इस शत्रुता से ही मुक्त होना आवश्यक है। मन तो एक शक्ति है और वैसे ही परमात्मा की शक्ति है जैसे अन्य सारी शक्तियां हैं। न केवल वह अन्य शक्तियों की भांति एक शक्ति मात्र है, बल्कि एक अत्यधिक विकसित और सूक्ष्म शक्ति है। उसकी निंदा और विरोध और उसे गालियां देना नासमझी तो है ही, अत्यंत घातक भी है। उचित तो यही है कि हम जानें कि अभी मनुष्य न तो मन के पूरे रहस्यों से ही परिचित है, और न ही मानस शक्ति का उपयोग ही करना जानता है। अभी मन की स्थिति वैसी ही है, जैसे कभी विद्युत की थी। एक समय था कि विद्युत केवल विनाश ही करती थी, लेकिन आज वह अत्यंत सृजनात्मक कार्यों मे प्रवाहित हो रही है। मन की शक्ति से जिस दिन मनुष्य पूरी तरह परिचित होगा, उस दिन मनुष्य जाति के इतिहास में बड़ी सृजनात्मक और सौभाग्य की घड़ी उपस्थित हो जाएगी। मन अपरिसीम शक्तिओं का भंडार है। लेकिन जो मन के विरोधी हैं, वे इन्हीं शक्तियों से टकरा कर अपने ही हाथों नष्ट हो जाते हैं। जो लोग मन के विरोध में हैं, उन की निंदा और विरोध का मूल कारण हैः मन की चंचलता। जबकि चंचलता जीवन का लक्षण है। किंतु अनेक लोग जीवन से ही भयभीत होते हैं और मृत्यु के आकांक्षी। ऐसे आकांक्षियों को जड़ता ही शुभ मालूम होती है, क्योंकि जड़ता में उन्हें शांति के दर्शन हो जाते हैं। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि वह शांति झूठी है, जो जड़ता से फलित होती है। चित्त की जड़ता तो आत्मघाती है। उसमें दिखने वाली शांति मरघट की शांति है। और मरघट की शांति से तो जीवन की अशांति भी बेहतर है। मन को मार कर लाई गई शांति नहीं, मन को जान कर आई शांति का ही मूल्य है और उसकी ही उपादेयता है। वैसी शांति ही और ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाला वाहन बन सकती है। मृत शांति तो परमात्मा की ओर नहीं, पदार्थ की ओर चली जाती है। चाहिए जीवंत शांति--जीवंत मौन। क्योंकि जो जीवंत है, वही परम जीवन की ओर जाने का द्वार बन सकता है। इसलिए मैं मन को मार कर--उसकी चंचलता को मार कर शांत होने को नहीं कहता हूं। वैसी जड़ता और मूढ़ता में कभी मत पड़ना। वैसे ही जड़ता काफी है, और आप उसे और न बढ़ाइए तो बड़ी कृपा होगी। मैं तो ऐसा चित्त चाहता हूं, जो कि जीवंत भी हो, और शांत भी। और चंचलता को--प्रवाहशीलता को बिना खोए जो शांति मिले वही जीवंत हो सकती है। सरोवरों की शांति नहीं, चाहिए सरिताओं की शांति--सतत सागर की ओर बहती जीवित सरिताओं की शांति। यह हो सके तो ही व्यक्ति परमात्मा तक पहुंच सकता है। इसलिए मैं कहता हूं कि मन की चंचलता से दुखी मत होइए, न ही उसकी निंदा करिए और न उसके शत्रु बनिए। अच्छा तो यही हो कि आप उसकी कृपा मानिए, नहीं तो आप बहुत पहले ही कहीं सरोवर बन गए होते। मन चंचल न हो तो आप किसी भी कूड़े-कचरे पर किसी भी घूरे के ढेर पर एकाग्र हो बैठ गए होते। मन चंचल न होता तो लोभी पर, मोही मोह पर, कामी काम पर ही सदा को ठहर जाता। फिर तो परमात्मा तक उठने का कोई मार्ग नहीं था। क्योंकि बीच यात्रा में ही कोई भी परमात्मा का काम दे सकता था। लेकिन मन की चंचलता के समक्ष सभी झूठे परमात्मा बह जाते हैं और मन आगे बढ़ जाता है। मन चंचल है इसलिए कहीं टिकने नहीं देता और सदा आगे बढ़ाता रहता है। मन की चंचलता के पीछे एक बड़ा रहस्य सूत्र है, जो मैं आपको कहना चाहता हूं और वह यह हैः ‘मन इसलिए चंचल है कि जब तक मन के योग्य अंतिम विश्राम न आ जाए, तब तक वह आपको चैन नहीं लेने देगा। मन केवल परमात्मा में जाकर ही अपनी चंचलता को छोड़ता है। इसके पहले वह अपनी चंचलता नहीं छोड़ता है। यह उसकी बड़ी कृपा है, अन्यथा आप संसार में ही न मालूम कहां स्थिर हो जाएं और परमात्मा तक पहुंचने की बात ही समाप्त हो जाए।’ इसलिए मन की चंचलता को गाली न दें और निंदा न करें। मन की चंचलता को भी कृपा जाने और उसका भी उपयोग करें। स्मरण रखें कि जहां मन स्थिर नहीं हुआ है, वहां जरूर कोई गलती है, इसलिए मन वहां बैठना नहीं चाहता। आप बैठाना चाहते हैं, और मन नहीं बैठना चाहता है, जरूर ही इसमें आप ही भूल में हैं। मन तो चंचल हो आपको चेता रहा है, लेकिन आप हैं कि चेतते ही नहीं और उलटे मन को ही शत्रु मान लेते हैं।
एक कहानी मैंने सुनी है। मिश्र में एक बादशाह था और वहीं एक छोटे से गांव में एक फकीर भी था। बादशाह फकीर का बहुत आदर करता था। वह उससे मिलने और उसे राजधानी में आमंत्रित करने उसके गांव गया। उसने पहले से कोई खबर नहीं की। वह जब फकीर के झोंपड़े पर पहुंचा, तो वहां उस फकीर का एक शिष्य बैठा हुआ था। उसने बादशाह को खेत की मेड़ पर बैठने को कहा और कहा कि मैं जाकर गांव में गए अपने गुरु को बुला लाता हूं। लेकिन बादशाह बैठा नहीं, वहीं टहलने लगा। यह देख उस युवक ने कहा आप झाड़ के नीचे बैठ जाएं, वहां छाया है। लेकिन फिर भी बादशाह बैठा नहीं, वह वृक्ष के नीचे ही टहलने लगा। युवक ने कुछ सोच उससे कहाः आप झोपड़े में अंदर चल कर बैठ जाएं। लेकिन बादशाह फिर भी नहीं बैठा और झोंपड़े की दहलान में ही घूमने लगा। यह देख युवक बहुत हैरान हुआ। वह जाकर गुरु को बुला लाया। मार्ग में उसने अपने गुरु से बादशाह के आश्चर्यजनक व्यवहार के संबंध में पूछा। उस वृद्ध फकीर ने कहाः बादशाह के बैठने योग्य स्थान हमारे पास नहीं है, इसलिए वह टहलता है।
मैं आप से कहना चाहता हूं कि मन भी इसलिए ही चंचल है। वह भी अब तक अपने योग्य सिंहासन नहीं पा सका है और इसलिए ही भटक रहा है। खोजें--उसके योग्य सिंहासन खोजें। वह तो नहीं करते हैं, उलटे आप उसकी चंचलता से ही लड़ने को आमादा हो उठें हैं! क्या कभी आपने सोचा कि बैठने के लिए आपने उसे कौन से स्थान बताए हैं? और क्या आप चाहते हैं कि वह उनमें से ही किसी पर बैठ जाता? मित्र, मन की चंचलता आपके ऊपर बड़ी कृपा है। आप जो-जो जगह उसे बताते हैं, यहां बैठ जाओ, वहां वह बैठता नहीं। परमात्मा के पहले मन कहीं भी नहीं बैठता है और उसकी यह असीम कृपा है। मन की चंचलता बड़ी सहायक है। स्मरण रखें, जहां मन नहीं बैठता, समझ जाएं कि वह मन के योग्य स्थान नहीं है। थोड़ी बहुत देर जबरदस्ती बिठा लें, वह फिर उठ जाएगा और फिर कहीं और भागने लगेगा। उस क्षण तक यह भाग चलती रहेगी जब तक परम विश्राम का बिंदु न आ जाए। वह परम विश्रांति का बिंदु ही परमात्मा है।
लोग कहते हैं कि मन को एकाग्र करें, तो परमात्मा मिल जाएगा। मैं कहता हूं, परमात्मा मिल जाए, तो मन एकाग्र हो जाए। लोग कहते हैं कि मन को बिठाएं तो परमात्मा मिल जाएगा और मैं कहता हूं कि परमात्मा मिल जाता है, तो मन बैठ जाता है। मन तो वहीं जाता है, जहां सुख है। मन दुख की ओर नहीं जाता है। मन तो वहीं भागता है, जहां सुख है, और जहां सुख की झलक टूटी, तो मन पुनः भागने लगता है। इसलिए मन कहीं नहीं टिकता है। दस हजार रुपये इकट्ठा कर लें मन पहले कहेगा शायद सुख हो। चलो दस हजार इकट्ठे हो गए, लेकिन लो, मन तो फिर भागने लगा। वह दस हजार पर बैठ भी नहीं पाया था कि उसका भ्रम दूर हो गया। दस लाख इकट्ठा कर लो, दस लाख इकट्ठे हो गए, तो फिर मन का भ्रम दूर हो जाएगा। दस करोड़ इकट्ठा कर लें। लेकिन फिर वही होगा। मन भागता ही रहता है। जहां सुख का आभास मिलता है, वहीं भागता है, जहां भी सुख का आभास टूटा वहीं से भागता है। मन उसी दिन अपने भागने को बंद करता है, जिस दिन सच्चा सुख मिल जाए, जिसका आभास नहीं टूटता। जैसे ही आभास टूटता है कि मन चंचल हो जाता है। जब तक आभास होता है तब तक मन थोड़ा सा थिर होता है। अगर सच में सुख मिल जाए तो मन बिलकुल थिर हो जाता है, फिर भागने का प्रश्न ही विलीन हो जाता है।
तो मैं आपको नहीं कहूंगा कि मन को जबरदस्ती ठहराएं। जबरदस्ती ठहराने से जड़ता आती है, अंतिम मंजिल नहीं। अंतिम मंजिल आने पर मन ठहर जाता है, इससे ही यह भ्रांति पैदा हुई कि जैसे उसके ठहर जाने से मंजिल आ जाएगी। यह तो बैलों के आगे गाड़ी बांधना है। यह तो वैसे ही है, जैसे नींद आने पर आंखें बंद हो जाती हैं, तो कोई सोचे कि आंखे बंद कर ली तो नींद आ गई। मैं तो आपको कहूंगा कि मन को उस दिशा में क्रमशः और प्रेम से गतिमय करें, जहां सच्चे सुख की सुगंध है, जहां सच्चे सुख का और आनंद का आवास है उस तरफ मन को क्रमशः ले चलें। आनंद की ओर आंखें उठावें और मन तो स्वतः पीछे आएगा। लेकिन भूल कर भी मन के साथ जोर जबरदस्ती और बलात्कार न करें। उसका परिणाम उल्टा ही होता है। मन प्रतिरोध करने लगता है। उससे प्रतिकार आने लगता है। फिर आपकी वर्जनाएं ही उसे आमंत्रण बन जाती हैं और आपके निषेध ही आकर्षण। वह उन्हीं दिशाओं में उत्सुक हो उठता है, जिनमें जाने से आप उसे रोकना चाहते हैं। यह स्वाभाविक ही है। इस सीधे सादे नियम को न जानने से आप व्यर्थ के क्लेशों में पड़ जाते हैं। पहली बात जानें कि मन आपका शत्रु नहीं है। उसे प्रेमपूर्ण दिशा निर्देश दें और उसकी वृत्तियों का दमन न करें। उसकी वृत्तियों को समझें। उसके प्रति विवेक को जाग्रत करें। विवेक के प्रकाश में जो शुभ है, वही शेष रह जाता है, और जानें कि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसको हम जीत लेते हैं। हम स्वर्ण सूत्र को सदा स्मरण रखें। और जिससे हम घृणा करते हैं उसको हम जीत नहीं पाते। कभी नहीं जीत पाते। कोई कभी नहीं जीत पाता है। जिसको हम घृणा करते हैं और शत्रु मान लेते हैं, उसे जीतना असंभव है और जिसे हम प्रेम करते हैं, केवल उसी को जीत सकते हैं। जिसे अपने मन को जीतना हो, उसे उससे प्रेम करना होगा। प्रेम के अतिरिक्त विजय का और कोई मार्ग नहीं है।
इसलिए पहला सूत्र है, अपने को प्रेम करें, घृणा नहीं। अपने को परिवर्तन करें, दमन नहीं। अपने भीतर द्वंद्व खड़ा न करें, स्वयं को एक इकाई बनाएं और इकाई प्रेम से ही बनती है। अगर मैं अपने समस्त व्यक्तित्व के प्रति जो भी मैं हूं, जैसा भी मैं हूं--पूरे प्रेम से भर जाऊं और सारी घृणा और निंदा मेरे मन से विलीन हो जाए--जो भी मैं हूं, जैसा भी मैं हूं बुरा और भला, उसके प्रति सारा विरोध छोड़ दूं और स्वयं की पूरी इकाई को प्रेम करने लगूं तो मेरे भीतर एक अखंड व्यक्तित्व पैदा हो जाएगा। व्यक्तित्व ऐसे ही पैदा होता है, क्योंकि प्रेम जोड़ता है, सारे अंगों को इकट्ठा करता है और जब मैं इकट्ठा हो जाता हूं, तो मेरे भीतर अदभुत शक्ति और ऊर्जा का जन्म होता है। जो शक्ति खंडित होकर बह जाती है, वही इकट्ठी और अखंड होकर बहुत बड़ी बन जाती है। और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि जिन क्षुद्र बातों से लड़ते थे और फिर भी जिन्हें जीत नहीं पाते थे, उनके प्रति जागते ही यह शक्ति, यह ऊर्जा उन्हें रूपांतरित कर देती है। व्यक्तित्व की अखंडता स्वयं के रूपांतर की मूलभिति है। स्वयं को बदलना है, तो सब से पहले एक बनो। खंड-खंडों में बंटा व्यक्ति अपनी सारी शक्ति उन खंडों को लड़ाने, सम्हालने और संतुलन बनाए रखने में ही व्यय कर देता है। आत्म-रूपांतरण के लिए उसके पास अतिरिक्त ऊर्जा ही नहीं होती है। यह ऊर्जा तो केवल उसके पास ही होती है, जो स्वयं को इतना प्रेम करता है कि उस प्रेम में अखंड हो जाता है।
प्रेम की उड़ान में दूसरा सूत्र क्या है? पहला सूत्र है अपने को प्रेम करें, दूसरा सूत्र है अन्यों को प्रेम करें। जो भी आपके चारों ओर आपको छोड़ कर शेष दिखाई पड़ रहा जीवन है, उनके प्रति यदि सदाशयता, सदभाव, प्रेम अहिंसा और करुणा का भाव न हो, तो आप कभी भी उस प्रेम की ओर अग्रसर न हो सकेंगे, जो कि परमात्मा तक ले जाता है।
क्राइस्ट ने कहा है कि जब तू मंदिर में प्रार्थना को जावे और घुटने टेक कर परमात्मा की तरफ हाथ उठावे और यदि तुझे याद आ जाए कि तेरा कोई पड़ोसी तुझसे नाराज है, तो पहले जा और उससे प्रेम कर। परमात्मा को छोड़ दे। यहीं और जा, उसको प्रेम कर और क्षमा मांग और उससे शांति स्थापित कर। क्योंकि जिस व्यक्ति ने अभी मनुष्यों से भी शांति स्थापित करने में सफलता नहीं पाई, वह स्वयं और परमात्मा के बीच शांति कैसे स्थापित कर सकेगा। निश्चित ही जो व्यक्ति अभी मनुष्यों के तल पर भी प्रेम को नहीं फैला सका, वह परमात्मा के तल पर प्रार्थना को कैसे फैला सकेगा?
एक साधु किसी गांव में ठहरा था। एक आदमी उसके पास आया और उसने उससे कहा कि मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं। मैं क्या करूं? साधु ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा होगा, बाहर से भीतर तक देखा होगा और उसे पूछा--एक बात पूछूं तो फिर मैं कुछ कहूं। तुझे किसी से प्रेम है? उस व्यक्ति ने सोचा होगा कि प्रेम तो परमात्मा के मार्ग पर एक अयोग्यता है, सो उसने कहा मुझे किसी से भी प्रेम नहीं है। मैं तो सिर्फ परमात्मा को पाना चाहता हूं। साधु ने कहा फिर थोड़ा गौर से सोचो। थोड़ा अपने भीतर खोजो। पत्नी से, बच्चों से, परिवार से, मित्रों से किसी से प्रेम है? उस आदमी ने कहा, मुझे किसी से कोई प्रेम नहीं है। मैं तो परमात्मा को पाना चाहता हूं। वह साधु चुप हो गया और उसकी आंखों में आसूं भर आएं। वह परमात्मा का खोजी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा आप रोते क्यों हैं और आप चुप क्यों हैं? उस साधु ने कहाः यदि तुझे किसी से प्रेम होता, तो उस प्रेम को परमात्मा की प्राप्ति में बदला जा सकता, लेकिन तुझे किसी से प्रेम ही नहीं है, तो द्वार ही टूट गया। लेकिन धर्म के नाम पर तो ऐसे बहुत से उपदेश है, जो आपको सिखाते हैं कि किसी से प्रेम न करें। वे सारे उपदेश आपके अहंकार को केंद्रित कर देंगे। वे आपको परमात्मा तक पहुंचाने में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि प्रेम तो उसका द्वार है। प्रेम से इतना भय क्यों है? शायद इसलिए कि कहीं वह हमें बांध न लें? लेकिन प्रेम तो तभी बांधता है, जब हम और प्रेम फैलाने में असमर्थ होते हैं। अर्थात प्रेम नहीं, प्रेम की कमी ही बांधती है। प्रेम थोड़ा है तो ही बंधन बनता है। छोटा प्रेम ही बांधता है। प्रेम विशाल हो, तो बंधनों को तोड़ बहने लगता है। वह जब आकाश जैसा बड़ा होता है, तब तो उस पर कहीं भी सीमा नहीं रह जाती है। इसलिए मैं कहता हूंः प्रेम को बड़ा करें, विशाल करें, उस पर कोई सीमा न लगाएं--कोई शर्त न लगाएं--वह निरंतर फैलता ही जाए। वह जिस पर बरसे उसका भी अतिक्रमण न करें। वह कहीं रुके न--ठहरे न। प्रेम के कहीं रुक जाने के भय से ही तो तथाकथित अध्यात्मवादी, प्रेम से ही भयभीत हो उठे हैं। किंतु यदि मेरा प्रेम रुकता है, तो वह प्रेम का नहीं मेरा ही कसूर है। उसके लिए प्रेम से शत्रुता कैसे उचित है? प्रेम का दोष प्रेम में नहीं, प्रेमी में है। प्रेम रुकता है, क्योंकि प्रेमी ओछा है--संकीर्ण है। लेकिन इससे जो प्रेम के विरोध में हो जाए वह तो और भी ओछा और संकीर्ण हो जाएगा। ऐसे तो उसमें जो थोड़ी-बहुत विशालता थी, वह भी विनिष्ट हो जाती है। तथाकथित धार्मिक लोगों के अति संकीर्ण मन होने का कारण यही है। मेरी दृष्टि में तो प्रेम को बढ़ाना है और स्वयं को खोना है। लेकिन जो प्रेम को खोता है वह केवल अहं को ही बचा पाता है। प्रेम को फैलाओ। जैसे हम सरोवर में पत्थर को फेंक देते हैं। एक जगह पत्थर गिरता है और फिर उसकी लहरें किनारे की ओर बढ़ने लगती हैं और वे तब तक बढ़ती जाती हैं, जब तक की दूर अज्ञात किनारों को न छू लें। ऐसा ही प्रेम कहीं भी उठे, किसी के प्रति उठे, सागर में उठी लहरों की तरह बढ़ता जाए, उस समय तक जब तक कि परमात्मा के किनारे न छू लें। तो ऐसा प्रेम ही प्रार्थना बन जाता है। तो फिर प्रेम ही प्रार्थना हो जाता है।
मैं नहीं कहता कि मां-बाप से घृणा करो, पत्नी और बच्चों से घृणा करो। मैं नहीं कहता कि किसी से भी घृणा करो। मैं तो कहता हूं कि उनको इतना प्रेम करे, इतना प्रेम करें कि प्रेम उनमें न समा सके और उनके बाहर फै ल जाए। और इतना प्रेम करें कि प्रेम कहीं भी न समा सके और बाहर फैल जाए। इतना प्रेम करें और इतना असीम प्रेम अपने भीतर पैदा करें कि सिवाय परमात्मा के उस प्रेम को कोई भी झेलने में समर्थ न रह जाए। क्योंकि असीम को केवल असीम ही झेल सकेगा। अगर असीम प्रेम होगा तो सीमित उसको नहीं झेल सकेगा। वह उसके पार निकल जाएगा, उसके अतीत हो जाएगा, उसके ऊपर उठ जाएगा। उससे दूर फैल जाएगा। उसको तो प्रेम मिलेगा, निश्चित प्रेम मिलेगा, बहुत प्रेम मिलेगा। वह तो प्रेम से भर जाएगा लेकिन आपके लिए उस पर किया गया प्रेम, बाधा नहीं बन पाएगा। वह तो तभी बाधा बनता है, जब कहीं रुक जाता है और ठहर जाता है। जो प्रेम रुक जाता है वह राग बन जाता है, वह आसक्ति बन जाता है। और जो प्रेम बढ़ जाता है वह प्रार्थना बन जाता है। स्मरण रखें, जो प्रेम रुक जाता है वह--मोह हो जाता है, वह राग हो जाता है, वह बंधन हो जाता है। और जो प्रेम आगे बढ़ जाता है लहर की भांति वह प्रार्थना हो जाता है, वह परमात्मा हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है। प्रेम मुक्त करता है, अगर प्रेम बढ़ता जाए और रुके नहीं। उस समय तक बढ़ता जाए जब तक कि कोई शेष न रह जाए जिस पर प्रेम न हो। उस क्षण जो मिलन है, वही मिलन है। वही मिलन परमात्मा से मिलन है। तो स्मरण रखें अपने से प्रेम को कहता हूं और सब से प्रेम को कहता हूं। कभी भी प्रेम को बुरा न समझें इतना ही समझ रखें कि प्रेम रुके नहीं। रुकावट बुरी है, प्रेम बुरा नहीं। लेकिन लोगों ने प्रेम को बुरा समझ लिया है और जब उन्होंने प्रेम को बुरा समझ लिया है, तो उसको सिकोड़ते हैं। वह नहीं जानते कि सिकुड़ा हुआ प्रेम ही रुका हुआ प्रेम है। वह जितना सिकुड़ जाएगा उतना ही गंदा हो जाएगा, उतना ही अपने में बंद हो जाएगा। जो व्यक्ति सब से प्रेम को खींच लेता है वह कहां जाएगा, वह अहंकार में केंद्रित हो जाएगा। जो व्यक्ति सब से अपने प्रेम को खींच लेता है, वह अपनी अस्मिता में, अहंकार में, ‘मैं’ में ही ठहर जाता है और अहं और ब्रह्म के बीच सर्वाधिक फासला है। वे दो बिंदु ही अस्तित्व में सर्वाधिक दूरी पर हैं।
और जो व्यक्ति ‘मैं’ में ठहर गया, वह नरक में पहुंच गया। उसके दुख और पीड़ा का अंत नहीं हो सकता। उसकी पीड़ा अनंत होगी अनंत दुख होगा, क्योंकि उसके आनंद के सब द्वार बंद हो गए हैं, जो कि प्रेम से खुलते हैं। उसके लिए सौंदर्य के सब द्वार बंद हो गए हैं, जो कि प्रेम से खुलते हैं, संगीत के सब द्वार बंद हो गए हैं जो कि प्रेम से खुलते हैं। प्रेम तो कुंजी हैः सत्य की, शिव की, सुंदर की--वही तो गुप्त कुंजी है। जीवन में जो भी श्रेष्ठतम है वह प्रेम से खुलता है और जो श्रेष्ठतम है वह अहंकार से बंद होता है। हां, अहंकार दूसरी कुंजी है। लेकिन, वह नरक के अतिरिक्त और कोई भी द्वार नहीं खोलती है।। और स्मरण रहे कि इन दो कुंजियों के अतिरिक्त और कोई कुंजी नहीं है। और यह भी स्मरण रहे कि एक मनुष्य के पास एक समय में एक ही कुंजी होती है। परमात्मा के विधान में दोनों कुंजियां एक ही साथ एक मनुष्य के पास कभी नहीं होती हैं। एक कुंजी को खोने को जो राजी होता है, उसे ही दूसरी कुंजी उपलब्ध होती है। प्रेम मनुष्य के हृदय को ही खोलने वाली कुंजी नहीं, वरन हृदय मात्र को खोलने वाली कुंजी है। फिर चाहे वह हृदय पत्थर का हो, पौधे का, पशु का या परमात्मा का। वनस्पति-शास्त्री लुथर बुरबांक की पौधों के प्रति प्रेम की घटना प्रसिद्ध है। उसने पौधों को प्रेम करके उनसे अपनी बातें भी मनवा लीं। उसने कंटीले पौधों से निरंतर कहाः ‘मित्रों, तुम्हें भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं। आत्मरक्षा के लिए इन कांटों की भी आवश्यकता नहीं। क्या मेरा प्रेम ही तुम्हारी पर्याप्त सुरक्षा नहीं है?’ और वर्षों के प्रेम के पुरस्कार में अंततः रेगिस्तान के उन कंटीले पौधों ने भी उसकी बात सुन ली और कांटों से रहित एक नई ही जाति को पैदा करने में वह सफल हो गया। और जब भी कोई उससे पूछता कि यह असंभव सी बात कैसे संभव हुई तो वह कहताः ‘प्रेम से।’
मैं भी आप से कहता हूं कि प्रेम से असंभव भी संभव हो सकता है। निश्चय ही परमात्मा से ज्यादा असंभव और क्या है, लेकिन वह भी प्रेम से संभव हो जाता है।
और प्रेम असंभव नहीं है। वह तो अत्यंत सरल है। वह तो सब में मौजूद ही है। बस, उसे विकसित करना है और विस्तीर्ण करना है। प्रेम के बीज तो सब में हैं, लेकिन प्रेम के फूलों तक पहुंचना बहुत ही थोड़े से व्यक्तियों का सौभाग्य हो पाता है। क्यों? क्योंकि हम प्रेम को अंकुरित ही नहीं होने देते। हम चाहते तो हैं लेकिन देते नहीं। और प्रेम पाने से नहीं, देने से विकसित होता है। प्रेम बेशर्त दान है। और जो ऐसा प्रेम देने में समर्थ है वह सहज ही उसे बहुलता से पाता भी है। दिया गया प्रेम, प्रेम पाने की क्षमता का भी निर्माता है। उससे ही प्रेम पाने की पात्रता भी निर्मित होती है। और फिर प्रेम जितना पाया जाता है उतना ही स्वयं से भी दिया जाता है। ऐसे ही प्रेम की गहराइयों पर गहराइयां उभरती हैं और धीरे-धीरे प्राण अपनी समग्रता में प्रेम और केवल प्रेम में ही परिणत हो जाते हैं। लेकिन प्रेम की इस पूर्णता का प्रारंभ सदा दान से होता है। और जो मांग से इसका प्रारंभ चाहते हैं, वे कभी प्रारंभ कर ही नहीं पाते। प्रेम तो सम्राट है। वह भिखारी नहीं है। इसलिए जो उसे मांगता है, वह पाता तो है ही नहीं, और इस असफलता में ही क्रमशः देने में भी असमर्थ होता जाता है। और जितनी यह असफलता बढ़ती है उतना ही पाना असंभव होता जाता है। इसलिए स्मरण रखें कि प्रेम देना है। बिना कुछ मांगे देना है। उसे प्रतिदान की आशा से मुक्त करें। वह सौदा नहीं है। वह तो बस दान ही है। उसका आनंद उसके देने में ही है, उसके बदले में कुछ पाने में नहीं। वह तो दिए जानें में ही इतना दे जाता है कि बदले में कुछ पाने का प्रश्न ही नहीं। इसलिए ही तो प्रेम देने वाला उसे स्वीकार करने वाले के प्रति सदा ही अनुगृहीत होता है। प्रेम के दान में--अशेष और असीम दान में ही तो प्राणों को परमात्मा तक ले जाने वाले पंख मिलते हैं। मित्र, प्रेम के पंखों को फैलाएं और परमात्मा के प्रकाश में उड़ें। प्रेम के पंख मिलते ही अपने--पराए मिट जाते हैं और जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। प्रेम के अभाव में तो मनुष्य को अहंकार की पत्थर सी सख्त भूमि पर ही रहना होता है, जहां कि घृणा, हिंसा और क्रोध के कंटीले पौधें बहुलता से उगते हैं। लेकिन प्रेम के पंख पाकर उसे इस भूमि पर रहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। फिर तो वह उस लोक में उड़कर जा सकता है जहां सौंदर्य है--अनंत सौंदर्य--अक्षय सौंदर्य है--अक्षत सौंदर्य है। इसलिए प्रेम से भरें--सबके प्रति और अकारण--और उठते-बैठते प्रेम से भरे रहें, सोते जागते प्रेम से भरे रहें--प्रेम प्रतिपल हृदय में लहरें लेता रहे--वह आपकी श्वास-प्रश्वास ही बन जाए। फिर तो मंदिर जाने की कोई जरूरत नहीं है। आप उसके मंदिर में पहुंच ही गए। प्रेम ही तो उसका मंदिर है। और शेष सब मंदिर तो पत्थर के हैं और इसलिए ही झूठे हैं। और पत्थरों के मंदिरों में जाने वालों का हृदय भी पत्थर का ही हो जाता हो, तो आश्चर्य नहीं है। पत्थरों के मंदिरों में बातें तो प्रेम की होती हैं, लेकिन फैलती वहां से घृणा ही है। शायद घृणा और हिंसा ने स्वयं के छिपाने के लिए ही प्रेम के वस्त्र पहन लिए हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम के मंदिर के अतिरिक्त और किसी मंदिर को प्रभु का मंदिर न मानना। मनुष्य प्रेम के मंदिर तक न पहुंच सके, इसलिए ही उनका आविष्कार हुआ है। शैतान इस चेष्टा में सदा से ही श्रमरत है! प्रेम मंदिर है--प्रेम ही सत्य शास्त्र है, कबीर ने कहा हैः ‘ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।’ निश्चय ही जो प्रेम को जान लेता है, उसे फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाता है। उसने सब शास्त्र जान ही लिए। और जिसने प्रेम नहीं जाना उसने कुछ भी नहीं जाना। प्रेम से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है--भाव नहीं है--अनुभव नहीं है। प्रेम की आंख उस सब को पढ़ लेती है जो पत्ती-पत्ती पर लिखा है, कण-कण में खुदा है, लहर-लहर में छिपा है। मित्र, परमात्मा के हस्ताक्षर हर जगह हैं, फिर आदमियों की किताबों से क्या लेना-देना है। मनुष्य के शब्दों से क्या मिलेगा, और मनुष्य के शब्द कहां पहुंचाएंगे। निश्चय ही मनुष्य के शब्द मनुष्य के ऊपर कभी नहीं पहुंचा सकते। जो मनुष्य से निकलता है, वह मनुष्य के पार नहीं ले जा सकता। मनुष्य के जाने के लिए तो उसे छोड़ कर ही चलना होगा। मनुष्य के शब्द, शास्त्र और सिद्धांत परमात्मा तक पहुंचने में बाधा हैं। परमात्मा तक चलने के लिए तो उसे पढ़ना होगा, जो कि परमात्मा का है। वह प्रेम में पढ़ा जाता है। मनुष्य के शास्त्रों को पढ़ने को मनुष्य की भाषाएं सीखनी पड़ती हैं। परमात्मा का शास्त्र पढ़ने को परमात्मा की भाषा। उसकी भाषा है प्रेम, प्रेम सीखो। यदि परमात्मा तक जाना है तो उसे सीखना ही होगा। परमात्मा की सृष्टि तो चारों तरफ है। वही-वही तो है। लेकिन यदि प्रेम न हो तो, न तो उसे देखा जा सकता है और न जाना। प्रेम की आंख मिलते ही एक चमत्कार हो जाता है। जो दिखाई पड़ता था, वह विलीन हो जाता है, और जो नहीं दिखाई पड़ता था वह प्रत्यक्ष। फिर परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है।
मैं कहता हूं कि पंडित भटकता है और प्रेमी पा लेता है। हां, प्रेम के ढाई अक्षर वाला पंडित हो तो बात दूसरी है। प्रेम के बिना जीवन में कोई प्रवेश नहीं है। ज्ञान बाहर भटकता है। ज्ञान में दूरी नहीं मिटती। दूरी तो मिटती है प्रेम में ही। ज्ञान शरीर से गहरा नहीं जाता है, और प्रेम आत्मा से पूर्व नहीं रुकता। इसलिए प्रेम के अतिरिक्त और सब ज्ञान अधूरा और मिथ्या है। प्रेम में जो ज्ञान है, वही ज्ञान है। लेकिन, प्रेम का क्या अर्थ? क्या प्रेम-प्रेम रटते रहें, जैसे कुछ पागल राम-राम रटते हैं या कृष्ण-कृष्ण रटते हैं? नहीं मित्र, शब्द रटने से कुछ भी नहीं होता है। प्रेम को जीएं--प्रेम को जीवन बनाएं। वह जीवंत भाव-दशा बनें तो ही सार्थक है। प्रेम की ऊर्जा सदा स्वयं में जागृत रहे। प्रेम का कोई भी अवसर उसे आप में सोया हुआ न पावे। प्रेम की कोई भी चुनौती खाली न जावे। हर चुनौती पर--हर पुकार पर आपका प्रेम उत्तर दे। और जब चुनौती न हो तब भी प्रेम वैसे ही बहता रहे जैसे दीए से प्रकाश बहता है, फूलों से सुगंध बहती है। उसकी एक शांत और अविच्छिन्न धारा तो सदा उपस्थित रहनी ही चाहिए।--निरंतर जब प्रेम हृदय को आंदोलित करता है, तो उसके मार्ग के अवरोध बह जाते हैं वैसे ही जैसे पहाड़ से गिरती कोमल जलधारा के सतत प्रवाह में कठोर पाषाण भी गल जाते और मार्ग से मिट जाते हैं। निश्चय ही प्रेम के मार्ग में बड़ी बाधाएं हैं--बड़ी कठोर चट्टानें हैं, लेकिन प्रेम की शक्ति असीम है। उस असीम शक्ति को काम करने दें--सक्रिय होने दें। अत्यंत धीमा और मौन उसका कार्य है। लेकिन उस शांत सक्रियता में ही बड़ी-बड़ी चट्टानें रेत होकर बह जाती हैं। असल में शोरगुल केवल कमजोरी का लक्षण है। बड़ी शक्तियां सदा ही मौन में कार्य करती हैं। परमात्मा की सारी सृजनात्मकता कितनी शांत, मौन और शून्य है!
मित्र, प्रेम को एक अवसर दें कि वह आपको आमूल बदल डाले। प्रेम की कीमिया से आपका नया जन्म हो सकता है--उसका जन्म हो सकता है, जिसकी कि फिर कोई मृत्यु नहीं है। इसलिए ही तो प्रेम मृत्यु के समक्ष भी अभय होता है, क्योंकि वह मृत्यु को जानता ही नहीं है।
सन अठारह सौ सत्तावन के गदर में, एक मौन संन्यासी को जो कि अनेक वर्षों से मौन था और कुछ भी नहीं बोला था, अंग्रेजों ने यह समझ कर कि यह कोई खुफिया है, विप्लवकारी लोगों का भेदिया है, उसे भालों से मार डाला। वह संन्यासी वर्षों से मौन था, लेकिन आज हंस पड़ा और बोलाः ‘तत्वमसि’--तू भी वही है। तू भी परमात्मा है। जिसने उसकी छाती में भाला छेदा था, उससे ही उसने यह कहा था। और यह कह कर उसने अपने हत्यारे को हृदय से भी लगा लिया था। उस संन्यासी की आंखों से मृत्यु के क्षण में भी प्रेम और प्रार्थनाएं बरस रही थीं। उसने स्वयं को शब्दों से और स्वयं से तो खाली किया था लेकिन प्रेम से जरूर हृदय भर लिया था। इसलिए ही तो भाले के लगते ही वह प्रेम फूट-फूट कर बाहर बहने लगा था। उसका हृदय सत्रह साल से मौन नहीं था, सत्रह साल से प्रेम से भरा था। वह प्रेम का एक झरना ही बन गया था। और इसलिए ही तो आज अपने हत्यारे में भी उसे शत्रु नहीं दिखाई पड़ रहा था। उसे उसमें भी अपने प्यारे के ही दर्शन हो रहे थे। प्रेम ने शत्रु को मित्र और मृत्यु को भी मोक्ष बना दिया था। प्रेम अंधकार को आलोक बना देता है। प्रेम विष को अमृत में परिणत कर देता है। प्रेम से बड़ा क्या कोई और भी जादू है? नहीं, प्रेम से बड़ा और कोई जादू नहीं हैै--प्रेम से बड़ा और कोई चमत्कार नहीं है। प्रेम सब कुछ बदल देता है क्योंकि प्रेम हमारी दृष्टि बदल देता है। और दृष्टि ही सृष्टि है। हमारी दृष्टि ही हमारा जगत है। इसलिए ही तो जैसी दृष्टि हो जाती है, वैसा ही सब हो जाता है। प्रेम है दृष्टि में तो सब ओर प्रियतम है। और प्रेम नहीं हैं तो सब ओर शत्रु है। प्रेम है तो परमात्मा है। प्रेम नहीं है तो परमात्मा नहीं है। एक गांव में सुबह-सुबह एक यात्री पहुंचा। गांव के बाहर ही द्वार पर एक बूढ़ा बैठा था। उससे उस अजनबी ने पूछाः ‘क्या मैं पूछूं कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में रुकना चाहता हूं। मैंने अपना गांव छोड़ दिया है।’ उस वृद्ध ने एक क्षण उसे देखा और कहाः ‘क्या मैं भी पूछ सकता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे, जिसे तुमने छोड़ दिया है?’ यह प्रश्न सुनते ही उस आदमी की आंखें क्रोध और घृणा से भर आई और उसने कहाः ‘उनका स्मरण करते भी क्रोध आता है। उन दुष्टों का नाम भी मेरे सामने मत लें। उनकी वजह से तो मुझे उस गांव को छोड़ना पड़ा। उस गांव जैसे दुष्ट लोग पृथ्वी पर और कहीं भी नहीं हैं।’ वह बूढ़ा बोलाः ‘मैं बहुत निराश हूं। इस गांव के लोग भी उस गांव से अच्छे नहीं हैं। इस गांव में भी वैसे ही दुष्ट लोग हैं। तुम रहने के लिए कोई और गांव चुन लो।’ वह आदमी गया भी नहीं था कि एक दूसरे यात्री ने आकर फिर उसी बूढ़े से वही पूछाः इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं इस गांव में बसना चाहता हूं। मुझे अपने गांव को छोड़ देना पड़ा है।’ उस बूढ़े ने पूछा कि इसके पहले कि मैं कोई उत्तर दूं, तुमसे पूछ लूं कि जिस गांव को छोड़ा है उस गांव के लोग कैसे थे? वह आदमी बोलाः मत पूछो उनकी बात। उसकी आंखों में प्रेम के आंसू आ गए, उसने कहाः इतने भले लोग मैंने कहीं नहीं देखे जितने उस गांव के थे, लेकिन कुछ मजबूरियों में मुझे उस गांव को छोड़ना पड़ा। उस बूढ़े ने कहाः ‘खुशी से आओ, स्वागत है तुम्हारा। इस गांव के लोगों को तुम उस गांव के लोगों से भी अच्छा पाओगे। यहां भी बड़े अच्छे लोग हैं।’
और उस बूढ़े ने आगे कहाः ‘किसी भी गांव में जाओ हर गांव में तुम्हारा स्वागत होगा। असल में हर गांव में तुम्हारे गांव से अच्छे लोग तुम्हें मिल जाएंगे। जिसकी जैसी दृष्टि होती है वैसी ही दुनिया हो जाती है!’ यह दुनिया कुछ है नहीं, हमारी दृष्टि के सिवाय और कुछ भी नहीं है। अगर प्रेम की दृष्टि हो तो चारों तरफ प्रेेमपूर्ण हृदय स्पंदित होते दिखाई पड़ेंगे। और जिस दिन सारा जगत प्रेम से स्पंदित होता दिखाई पड़ने लगे, उस दिन समझना प्रभु के निकट पहुंचना हो गया है। क्योंकि प्रभु पर पहुंचने का अर्थ नहीं है कि वहां कोई रामचंद्र जी धनुषबाण लिए खड़े होंगे। प्रभु पर पहुंचने का मतलब नहीं है कि वहां कोई कृष्णमुरारी बांसुरी बजाते होंगे। प्रभु पर पहुंचने का मतलब नहीं है कि कोई सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा आदमी खड़ा हुआ जगत का नियंत्रण करता होगा। ईश्वर पर पहुंचने का अर्थ है ऐसी अनुभूति पर पहुंच जाना जहां सारा जगत मात्र पदार्थ नहीं, बस परमात्मा है; वस्तु नहीं, शक्ति है। ईश्वर पर पहुंचने का अर्थ है परम आनंद पर पहुंच जाना। ईश्वर पर पहुंचने का अर्थ है--सत्य पर, सौंदर्य पर, अमृतत्व पर पहुंच जाना। परमात्मा व्यक्ति नहीं; अनुभूति है।
परमात्मा आनंद है। वह आनंद का अपरिसीम सागर है।
लेकिन इससे पहले कि वह सागर मिले, उस सागर का पहला अनुभव स्वयं के भीतर पैदा कर लेना होता है। और उस दिशा की ओर ले जाने वाले दो सूत्रों की मैंने चर्चा की। पहला सूत्र है स्वयं के प्रति प्रेम, दूसरा सूत्र है अन्यों के प्रति प्रेम। और अब तीसरे सूत्र पर विचार करें। तीसरा सूत्र है परमात्मा के प्रति प्रेम। इस तीसरे सूत्र में पहले दो सूत्रों का अतिक्रमण करना है। पहले सूत्र का अतिक्रमण है दूसरे सूत्र में, और तीसरे सूत्र में दोनों का अतिक्रमण है। पहले सूत्र में मान लिया है कि मैं हूं। वह सत्य तो नहीं है, लेकिन एक तथ्य है। अज्ञान में वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है। उससे जागा तो जा सकता है, लेकिन भागा नहीं। जो उससे भागते हैं, वे सदा उसे साथ ही पाते हैं। क्योंकि छायाओं से भागना संभव नहीं है। भागने से वे और पीछा करती हैं। इसलिए, अस्मिता को स्वीकार कर प्रेम की खोज करनी चाहिए। प्रेम बढ़ेगा तो अस्मिता जाएगी ही। छाया को स्वीकार कर जो प्रकाश को खोजता है, वह एक दिन सहज ही सभी भांति की छायाओं से मुक्त हो जाता है। छाया और प्रकाश का जो संबंध है, वही अहंकार और प्रेम का है। प्रेम का प्रकाश आते ही अहंकार का अंधकार तिरोहित हो जाता है। मैं को मानने से ही पर का, अन्य का जन्म होता है। मैं--मैं हूं, इसलिए ही तो अन्य अन्य हैं। इसलिए, प्रेम के प्रकाश में मैं के साथ ही साथ पर का, अन्य का भाव भी खो जाता है। अंततः तो प्रेम ही शेष रह जाता है। न मैं, न तू, बस प्रेम ही। इस प्रेम की दशा को ही मैं परमात्मा के प्रति प्रेम कहता हूं। वस्तुतः वह किसी के भी प्रति नहीं है। न किसी की ओर से ही है। वह तो बस है। इस शुद्ध प्रेम की अवस्था को ही मैं परमात्मा के प्रति प्रेम कहता हूं। परमात्मा के प्रति प्रेम का क्या अर्थ होगा? परमात्मा के प्रति प्रेम का अर्थ होगा कि मैं जो निरंतर अपने को मैं समझे हुए हूं कि मैं कुछ हूं, इस भ्रम को तोड़ देना। इससे झूठी बात और कोई भी नहीं है। आप बिलकुल नहीं हो। आप की व्यक्तिगत कोई सत्ता नहीं है। यह श्वास मेरे भीतर आती है और चली जाती है और मैं सोचता हूं मैं श्वास ले रहा हूं तो मैं गलती में हूं। क्योंकि जिस दिन श्वास नहीं लौटेगी उस दिन क्या मैं उसे ले सकूंगा? मैं सोचता हूं कि मैं जी रहा हूं तो मैं गलती में हूं क्योंकि जिस दिन जीवन मेरे भीतर से चला जाएगा तो क्या एक क्षण को भी मेरा आपके बीच रुकना संभव होगा? मैं सोचता हूं कि मैंने जन्म लिया है तो मैं भूल में हूं, और सोचता हूं कि मैं मर जाऊंगा तो मैं गलती में हूं। न तो मैंने जन्म लिया है और न मैं मरूंगा। न श्वास मेरी है, न श्वास पर नियंत्रण मेरा है। न जीवन मेरा है, न मृत्यु मेरी है। मेरे भीतर से किसी का खेल हो रहा है, मेरे भीतर से कोई खेल रहा है। मेरे भीतर, से कोई बोल रहा है। मेरे भीतर से कोई चल रहा है। मेरे भीतर कोई जन्म लेता है और मेरे भीतर से कोई विलीन हो जाता है, निकल जाता है। मैं केवल एक भूमि मात्र हूं। मैं केवल एक क्षेत्र मात्र हूं, जहां कोई आता है और जहां कोई चला जाता है। मैं केवल एक बांसुरी की तरह हूं जिससे कोई गीत गाता है। कबीर ने कहा है कि मैं बांस की पोंगरी से ज्यादा नहीं हूं। परमात्मा की ओर प्रेम के गीत तेरे हैं। इस बात को जो देख पाएगा, समझ पाएगा और पहली दो सीढ़ियों को जो पार कर जाएगा उसे यह बात समझनी कठिन नहीं है, यह बहुत सरल है, यह अत्यंत सरल है। इस जगत में व्यक्ति जैसा कुछ भी नहीं है। इस जगत में जो कुछ है, सब संयुक्त है और इकट्ठा है। यहां अलग-अलग कोई भी नहीं है। वह श्वास जिसे मैं अपनी समझ रहा हूं, अरबों-अरबों लोगों की श्वास रह चुकी है। और जिस श्वास को मैं छोड़ रहा हूं वह अभी अरबों लोगों की श्वास रहेगी। इस शरीर में जो कण इकट्ठे हुए हैं उससे पहले न मालूम कितने-कितने शरीरों में इकट्ठे हुए होंगे। वे मेरे कैसे हो सकते हैं और कल जब मैं उस शरीर को छोड़ दूंगा तो फिर न मालूम कितने के हो जाएंगे। और अभी भी जब मैंने यह शरीर नहीं छोड़ा है तब भी कोई शरीर ठहरे हुए थोड़े हैं? शरीर तो रोज बदल रहा है। रोज आप नए कण शरीर में ले जा रहे हैं और पुराने कण बाहर निकाल रहे हैं। जो कण आप शरीर के भीतर ले जा रहे हैं, वे दूसरों के शरीरों से आ रहे हैं। हजारों लोगों के शरीरों में, हजारों प्राणियों, करोड़ों प्राणियों के शरीरों में मेरा शरीर रह चुका है और आगे भी रहेगा। वह मेरा कैसे हो सकता है। और न ही मन मेरा है। क्योंकि उसके विचार अणु भी शरीर अणुओं की भांति ही आ जा रहे हैं। मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा कुछ भी नहीं है यह भाव परमात्मा के प्रति प्रेम की शुरुआत है। धीरे-धीरे जब देखेंगे कि मेरा कुछ भी नहीं है जब यह भाव गहरा होगा मेरा कुछ नहीं है, तब आपको एक दिन दिखेगा कि अगर मेरा कुछ भी नहीं है तो मैं कैसे हो सकता हूं। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो मैं कैसे हो सकता हूं। मेरा कुछ है इसी भाव से धीरे-धीरे यह भ्रम पैदा होता है कि मैं हूं और इसीलिए हम परिग्रह को इतना प्रेम करते हैं। जितना बड़ा मकान हो उतना बड़ा मैं हो जाता हूं। जितना बड़ा पद हो उतना बड़ा मैं हो जाता हूं, जितनी बड़ी संपत्ति हो उतना बड़ा मैं हो जाता हूं। जितना बड़ा अधिकार हो उतना बड़ा मैं हो जाता हूं। क्यों? क्योंकि जितनी मेरी चीजें बढ़ जाती हैं, उतना मेरा मैं बड़ा हो जाता है। मैं परिग्रह से बढ़ता है। मैं मेरे के साथ बढ़ जाता है। मेरे की जो सीमा है, वही मैं की सीमा बन जाती है। इसलिए यदि मेरे का भ्रम टूट जाए तो मैं को टिकने का कोई भी आधार नहीं रह जाता है। यदि मेरा कुछ नहीं है तो मैं कहां हूं? मेरा विलीन हो तो मैं निःसत्व हो जाता है--‘मैं’ शून्य हो जाता है। क्या मैं के भ्रम को तोड़ने के लिए हम वस्तुओं से भागें और उनका त्याग करें? यह मुझ से रोज-रोज पूछा जाता है। मैं कहता हूंः नहीं, वस्तुओं को छोड़ने, न छोड़ने की बात नहीं है। बात है उनके प्रति ‘मेरे’ के भाव की। वह भाव तो छोड़ने पर भी बना रह सकता है। वह तो छोड़ने में ही मौजूद है इसीलिए ही तो तथाकथित त्यागी हिसाब रखते हैं, कि उन्होंने क्या-क्या छोड़ा है, और छोड़ी गई वस्तुओं के मूल्य और मात्रा पर ही तो उनके त्याग का भी बड़ा या छोटा होना निर्भर करता है। एक साधु ने मुझसे कहा थाः ‘मैंने लाखों रुपयों पर लात मारी है।’ मैंने उनसे पूछाः यह लात कब मारी? वे बोलः कोई तीस वर्ष हुए। निश्चय ही सुन कर मुझे हंसी आ गई और मैंने उनसे निवेदन किया थाः ‘महाराज, लात ठीक से लग नहीं पाई, अन्यथा क्या तीस वर्षों में भी वे लाखों रुपयें भूले नहीं जा सकते थे!’
इसलिए, प्रश्न त्याग का नहीं है प्रश्न बोध का है। अबोध में जो त्याग है, वह भी अहंकार को भरने का कारण हो जाता है। यह मानना कि चीजें मेरी हैं गलती है। गलती यह नहीं है कि चीजें हैं। गलती यह है कि उन्हें मानना कि वे मेरी हैं। और इस गलती के दो रूप हैंः एक तो भोगी का रूप है जो कहता है कि मेरी हैं। मैं भोगूंगा। और एक त्यागी का रूप है, जो कहता है कि मेरी हैं, मैं छोडूंगा। लेकिन दोनों मानते हैं कि मेरी हैं। ज्ञान बिलकुल तीसरी बात कहता है। वह कहता है कि जो है, सर्व का है। सब परमात्मा का है। मेरा तेरा कुछ भी नहीं है। हम स्वयं भी अपने नहीं है। मैं हूं ही नहीं। अस्मिता भ्रम है, सब हो रहा है और उस होने में मैं भी एक हिस्सा हूं, एक हिस्सा मात्र। अगर यह प्रतीति और स्मरण हो तो जीवन हवा पानी की भांति सरल और सहज हो जाता है। ऐसा जीवन ही त्याग का जीवन है। ऐसा जीवन ही प्रेम का जीवन है। परमात्मा के प्रति प्रेम का अर्थ हैः अहंकार विसर्जन।
मलूक ने कहा है कि पंछी काम नहीं करते और अजगर चाकरी नहीं करता और सबका दाता राम है। यह बात बड़ी गलत समझी गई है क्योंकि लोग समझे कि मलूक ने कहा है कि कोई कुछ मत करो, पर यह तो नहीं कहा है। पंछी सुबह से लेकर शाम तक काम करते हैं। घोसले बनाते हैं। दाना चुगते हैं। सब तो करते हैं लेकिन फिर भी वह काम नहीं करते हैं क्योंकि मलूक का खयाल है कि उन्हें यह खयाल नहीं कि हम हैं। उन्हें यह खयाल नहीं कि मैं हूं। काम तो हो लेकिन मैं हूं का भाव चला जाए परिग्रह का भाव चला जाए कुछ भी मेरा है यह भाव चला जाए। जिस-जिस मात्रा में यह स्थिति बढ़ेगी, उस-उस मात्रा में प्रभु का प्रेम विकसित होता है। जिस दिन यह भाव पूरा हो जाता है और लगता है मैं नहीं हूं, जिस दिन लगता है मैं नहीं हूं, बस उसी दिन वह क्रांति हो जाती है जिसकी कि मैं बात करता हूं।
एक सूफी गीत हैः प्रेयसी के द्वार पर एक प्रेमी ने दस्तक दी है और जाकर जोर से दरवाजा हिला दिया है और पीछे से पूछा गया है कौन हो? उसने कहाः ‘मैं हूं तेरा प्रेमी,’ तो भीतर सन्नाटा हो गया। फिर भीतर चुप्पी हो गई। उसने दुबारा भड़भड़ाया, और कहाः उत्तर दो। घर ऐसा सूना मालूम देने लगा जैसे कोई है ही नहीं। भीतर से उत्तर आयाः वापस लौट जाओ, इस घर में दो के रहने लायक जगह नहीं है। प्रेमी वापस लौट गया और बरस आए और गए, वर्षा आई, धूप आई, शीत आई चांद उगे और विलीन हो गए और न मालूम फिर कितने दिन बीते। दुबारा वह प्रेमी आया और उसने द्वार पर दस्तक दी और भीतर से पूछा गयाः कौन हो? उसने कहाः अब तो तू ही है! और गीत कहता है कि फिर प्रेम के बंद द्वार खुल गए। यदि मैं इस गीत को गाता तो अभी द्वार नहीं खोल सकता था, क्योंकि मुझे लगता है यह खयाल कि ‘तू है’ अभी मैं के मौजूद होने की सूचना है। मैं तो प्रेमी को एक दफा और वापस लौटा देता। मेरी कहानी अभी थोड़ी और आगे जाती। और मैं कहता कि जैसे ही उसने कहा कि तू है कि फिर सन्नाटा हो गया। और जब कोई उत्तर नहीं आया तो उसने पूछा कि अब तो द्वार खुल जाएं अब तो मैं नहीं हूं, ‘तू ही’ है। लेकिन भीतर से कहा गया कि जिसे अभी अकेले का पता है उसे अभी दूसरे का भी पता है। जिसे अभी एक का बोध है उसे अभी दो का भी बोध है। जिसे अभी तू का स्मरण है उसे अभी मैं का भी स्मरण है। और इस मकान में तो केवल एक ही समा सकता है। प्रेमी फिर वापस लौट गया। और फिर वर्षा आई और फिर धूप आई और फिर चांद उगे और गिरे। सूरज निकला और बुझा लेकिन प्रेमी फिर दुबारा नहीं आया। क्योंकि उसे खयाल ही भूल गया कि कहीं जाना है और तब प्रेयसी स्वयं ही उसके पास गई और उसने कहाः प्रिय, अब आओ द्वार खुल गए हैं! जैसे ही ‘मैं’ गिर जाता है वैसे ही ‘तू’ गिर जाता है और शेष रह जाता है, वही है--वही है। वह, जिसकी कि खोज है। मैं और तू कि गिर जाने पर जो शेष है उसका नाम ही परमात्मा है। जहां मैं और तू गिर जाते हैं, वहां जो शेष रह जाता है, वही है सनातन सत्ता, वही है अनादि अनंत अस्तित्व। वह जो एक सागर मात्र है चेतना का, उसका नाम ही परमात्मा है। उसे जाना जा सकता है। उसमें जीआ जा सकता है, उसमें हुआ जा सकता है। उसमें हम हैं, उसमें ही हम खड़े हैं, उसमें ही हम जी रहे हैं, लेकिन हमें उसका बोध नहीं, पता नहीं, स्मृति नहीं। क्योंकि हम तो अपने हम से ही भरे हैं और उसके आने योग्य अवकाश भी तो हमने नहीं छोड़ा है। मैं से हम इतने भरे हैं कि वह शून्य नहीं हो पाता है। मैं से शून्य होता है, वह उससे पूर्ण हो जाता है। शून्य हो जाओ--मैं से शून्य हो जाओ। इसके लिए ही तीन सूत्र मैंने कहा। प्रेम में जो उतरता है, वह शून्य में ही उतरता है। प्रेम में सीढ़ी-सीढ़ी बढ़ो। प्रेम में बूंद-बूंद मिटो। और अंततः खो जाओ, वैसी ही जैसे बूंद सागर में खो जाती है। क्या आपको ज्ञात नहीं कि बूंद स्वयं को खोकर सागर हो जाती है?

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