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श्रावस्ती नगरी के श्रेष्ठी आयु सेन के दो बच्चे थे। एक लड़की और एक लड़के जिनके नाम चन्द्र बाला और चन्द्र देव थे। घर धन-धान्य से भरा था। पर नहीं था तो माता-पिता के पास समय, जो बच्चों के लिए निकाल पाते। माता पिता दोनों व्यवसाय में इतने डूबे रहते थे, या ये कह ली जीए की काम इतना अधिक था की दोनों की देखे-रेख में भी पूरा नहीं होता था। घर में नौकर चाकर सुख सुविधा सब थी पर नहीं था तो मां बाप का प्यार दुलार संग साथ। दोनों बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे। उनकी जरूरतें बढ़ने लगी पर माता-पिता को इस की कोई भी चिंता नहीं था। जो भी मांगा जाता उसे पूरा कर दिया जाता। धीरे-धीरे चन्द्र बाला बचपन से जवानी की और बढ़ने लगी। इस आयु को हम अल्हड़पन-लड़कपन कहते है। इसी तरह से एक नौकर शुम्भी नाथ नाम का नवयुवक था, जो बचपन से ही अनाथ हो गया था और सेठ जी ने उसे अपने घर पर रख लिया। अब वह भी बड़ा हो कर घर के काम काज देखने लगा था। बचपन से ही इसी घर में पला तो उसके साथ नौकर सा व्यवहार नहीं किया जाता था। वह स्वतंत्र था पूरे घर में जहां जाए, देखने में सांवला रंग रूप था परंतु उसके नाक नक्श अति सुंदर थे। शरीर से भी बलिष्ठ था। वहीं चन्द्र बाला का बाल सखा था, दोनों साथ रहते खेलते अब वह चंद्र बाला की देख रेख के लिए नियुक्त कर दिया था। वह उसे बाहर घूमाने ले जाता। सारथी रथ ले चलता, कभी उपवन, तो कभी जलविहार या नौकायान के लिए अचरवती नदी के तीर ले जाता।
उम्र में दो तीन साल चन्द्र बाला से बड़ा
था। बहुत छोटा ही इस घर में आ गया था। शायद मां बाप मर गये हो या अनाथ छोड़ दिया
हो। अब सेठ आयु सेन ही उसके मां-पिता तुल्य थे। मन से वह उनका बहुत सम्मान करता
था। मालिक का वफ़ादार था, आज्ञाकारी, और मेहनती उन पर अपनी जान छिड़कता था।
दोनों हम आयु होने से ऊंच नीच का भेद जो अभी उनके बाल मन पर नहीं फैला था। उन्हें
इस बात का भान ही नहीं था की ये नौकर है या मैं मालिक हूं।
बचपन
का ये खेल धीरे-धीरे कब प्रेम बन गया इस बात का दोनों को पता ही नहीं चला। माता
पिता को दूसरे नौकरों ने कान भरे। कुछ ने शुम्भी नाथ को भी समझाया की ये सब ठीक
नहीं है। पर जब तक बहुत देर हो चुकी। शुम्भी ने नीचे देखा तो उसके जमीन ही नहीं
थी। उसे इस बात को सोच कर बहुत ग्लानि हुई । पर अब उस के हाथ से पतवार निकल चुकी
थी। त्रिया हट के आगे उसकी एक न चली। उसने मालिक के आगे हाथ जोड़े और अपनी सफ़ाई
दी आयु सेन समझदार व्यवसाय था। उसने शुम्भी नाथ की आंखों में देखा और पूछा झूठ मत
बोलना जो है सत्य-सत्य बता, शुम्भी नाथ न मालिक के पैर पकड़ लिए और दोनों
हाथ जाड़ कर कहां: ‘’मालिक शरीर में कोढ़ पड़ जाये ज़ुबान
में कीड़े पड़ जाये जो मैने नमक हलाली की हो। हम साथ हंसते खेलते भर है। मेरे मन
में कोई पाप नहीं है। मैं तो चंद्र बाला को अपनी बहन ही मानता हूं।‘’
बात
आई गई हो गई माता पिता ने सोचा की पानी सर से ऊपर जाये इससे पहले क्यों न कोई
सुयोग्य लड़का देख कर चन्द्र बाला का विवाहा कर दिया जाये। पर होनी को शायद कुछ
और ही मंजूर था!
माता-पिता ने एक सुयोग्य वर देख कर उस के साथ चन्द्र बाला कि
मंगनी तय कर दी। आते जेष्ठ में विवाहा पक्का कर दिया। नौकर शंभु नाथ को डाट कर
गोदाम के काम पर लगा दिया। घर वो कभी-कभी ही आता था। पर न जाने चन्द्र बाला के मन
को क्या हो गया था, उसे शुम्भी नाथ के सिवाय कोई भाता ही
नहीं था। एक दिन उसने शुम्भी नाथ को अपने कमरे में बुलाया और साम दंड भय प्रेम के
सभी गीत गा कर मजबूर कर दिया की वो उसके साथ भाग जाये। उसने हाथ पेर जोड़े परंतु
चंद्र बाला ने उसकी एक न चलने दी। मरे मन से वह चंद्र बाला के साथ एक अंधेरी रात
में उसके साथ टूटे कदमों हो लिया। चंद्र बाला ने घर से कुछ सामान भी चुरा लिया जो
भी उनके हाथ लगा। चिंगारी पर राख जमा होने से ही क्या होता है उस का ताप कम थोड़े
ही हो जाता है। और मन में दबे इसी ताप के कारण वह मजबूर हो चंद्र बाला के साथ भाग
लिया।
इधर
घर में शादी की तैयारी चल रही थी। घर में गहमा-गहमी थी। जेवर, कपड़े, बर्तन खरीदे जा रहे थे। उधर जब पता चला की चन्द्र बाला अपने कमरे में
नहीं है। और साथ वहीं नौकर शुम्भी नाथ भी गायब है। तो माता-पिता का माथा ठनका।
उन्हें लगा उन्होंने सांप को पाला। जो आज उन्हें डस कर चला गया। माता-पिता की
बहुत बदनामी हुई। पर जो हो गया था उसे लोटा कर नहीं लाया जा सकता है। चन्द्र बाला
दूर एक छोटे से शहर में अपने पति के साथ रहने लगी। प्यार में ताकत होती है। राज
महलों में पली, हर सुख सुविधा में जीने वाली चन्द्र बाला आज
अपने घर के नौकर के साथ प्रेम से रहने लगी। आज वह किस गई बीती अवस्था में रह रही
है। अगर उसके माता-पिता देखे तो उन्हें यकीन ही न होगा। बेचारी ने क्या नहीं किया
चूल्हा, चौका, पानी लाना जो उसने कभी
नहीं किया वो सब करना पड़ रहा था। परंतु वह बहुत खुश थी। क्योंकि शुम्भी नाथ उसके
साथ था। शुम्भी नाथ लाख चाहता था की चंद्रबाला को कम से कम काम करना पड़े उसकी
बहुत मदद करता। जितना हो सकता उसे कम से कम काम करने देता। पर क्या कहीं एक हाथ
से ताली बजती है। शुम्भी नाथ जब काम पर चला जाता। तो पीछे से चन्द्र बाला घर का
काम किस प्रेम की मगन अवस्था में करती थी ये देखते ही बनता था।
दिनों के पंख लग गए थे। सुबह कब होती और कब
रात हो जाती इस बात का पता नहीं चलता था। इस काम की मार में एक प्रेम था एक अपना
पन था, एक पूर्णता थी, अपने होने का एक एहसास था। थका मादा
जब शुम्भी नाथ घर आता तो वह चह कर उसे पानी देती। दोनों साथ बैठ कर खाना खाते। और
खुशी-खुशी सो जाते भगवान का धन्यवाद देते की हम दोनों साथ है। समय मानों चल नहीं रहा
था उस के पंख लग गये थे। कब साल बीत गया। इस बीच उनके घर में एक पुत्र रत्न ने
जन्म लिया । लड़का अपनी माता पर गया था। ऊंचा भाल, गोर वर्ण, तीखे नाक नक्श, देखने से ही किसी ऊंचे खानदान का
लगता था। पुत्र का नाम रखा ‘’अमरत्न’’
शायद वो ही उन के भाग्य को बदल दे। रह-रह कर उसे घर भी बहुत याद आती परंतु मन मार
कर वह रह जाती की किस मुख से उनके सामने जाऊ। परंतु दूसरी तरफ लगता की मां जब
अमरत्न को देखेगी तो कितनी प्रसन्न हो उठेगी। एक दिन माता पिता के सामने जाये। और
उन्हें माफ़ कर दे।
जब से अमरत्न आया है। उसे उस घर में कुछ कमी
सी महसूस होने लगी। वह अपनी नहीं अपने बच्चे की जरूरते पूरी नहीं कर पा रहे थे। शुम्भी
नाथ लाख मेहनत करता परंतु दो टाइम की रोटी का जुगाड़ कर पाता था। जा घर पहले चन्द्र
बाला को वह घर नहीं खटकता था। अब वह उसे चिरता था लगता है, अपने मन
तो आदमी मार सकता है। ये सोच कर कि उसने किया है। उसे भरना होगा। उसी का तो बोया
हुआ है। अब किसे इस बात का दोषी माने। पर जब बच्चें का मुहँ देखती तो उसे घर की
बहुत याद आती। जो एक खिलौना, या खाने की वस्तु वह लाख मिन्नत
कर के भी नहीं खाती थी। उसकी ही औलाद सुखी रोटी को तरस जाती थी। घर जहां दूध दही
कोई छूता तक नहीं था। बच्चा पड़ोस से मांग कर लाई हुई छाछ को किस चाव से पीता है।
उसकी यह अवस्था देख वह अपने को दोषी मानती की मैंने ये क्या किया।।
नौबत
यहां तक आ गई की उन्हें खाने के लाले पड़ गये। दो दिन से बारिश रूकने का नाम नहीं
ले रही थी। घर में एक चावल का दाना तक नहीं था। अमरत्न अब दो-तीन साल को हो गया
था। दौड़ा फिरता था घर गलियों में। बार-बार मां के पास आता कुछ खाने को दो ना। मां
बेचारी कहां से लाती। उधर चन्द्र बाला के पेट में दूसरा बच्चा भी आने को तैयार
था। वह सोचने लगी एक को तो भर पेट दे नहीं पाती दूसरा आ गया तो कहां से लायेंगे।
पति-पत्नी ने सोचा अब यहां पर गुजारा नहीं है। भूखो मरने से तो बेहतर है। श्रावस्ती
चली जाए उसे न अपनाये तो कोई बात नहीं उस औलाद को ही रख ले तो यही उपकार होगा।
यहीं सोच कर दोनो पति-पत्नी घर का थोड़ा बहुत जो सामान था। साथ ले कर चल दिये।
दिन भर आसमान में बादल छाए रहे । बीच-बीच में रूक-रूक कर बुंदा बाँदी भी हो जाती
थी। सोचा श्याम होने से पहले किसी गांव में पहुंच जायेंगे। पर अचानक बादल घिर आए
और मूसलाधार वर्षा होने लगी। लग रहा था मानों आज आसमान फाट पड़ेगा। सालों से ऐसी
वर्षा न देखी थी। वर्षा के साथ हवा भी इस तीव्र गति से चल रही थी मानों आज कुछ
होने वाला है। तीनों प्राणी एक बड़ी सी झाड़ी की ओट में बैठ गए। पैड के नीचे तो बैठना
ठीक नहीं समझा। इतनी तेज आंधी में पेड़ जड़ से ही उखड जाते है। फिर वर्षा के इस
गीले माहौल में जब जमीन नाजुक और कमजोर हो जाती है तो उपर से कोई टहना ही टूट कर
गिर जाये। क्योंकि बारिश की बुंदों के कारण उसका वज़न भी बढ़ जाता है। श्याम से अब
रात घिरने लगी थी। जंगल में वे कितने गहरे थे उन्हें इस बात का पता भी नहीं था।
रात की कालिमा ने सारी प्रकृति को ढकना शुरू कर दिया था। और कोई चारा न देख शुम्भी
नाथ ने कहां की मैं कुछ बेल काट कर ले आता हूं। जिससे छुपने को एक झोपड़ी बन जाएगी, बरसात के
पानी से कुछ तो राहत मिलेगी। इस तरह से शुम्भी नाथ को जाते देख, चन्द्र बाला का दिल जोर से धड़कने लगा। उसे कुछ अशुभ का भय लगा रहा था।
अंदर से उसका मन कह रहा था की वह उसे मना कर दे कि तुम हमसे दूर मत जाओ, पर वह मन की बात कह नहीं पाई। और देखते ही देखते शुम्भी नाथ तेज बारिश
ओर अंधकार में जंगल में गायब हो गया।
रात
भर हवा और बरसात अपना तांडव करती रही। इंतजार करती चंद्रबाला कब आँख लगी कब जंगली जानवरों
की दहाड़ से उसकी नींद खुली। सोच रही थी की कितनी देर हो गई शुम्भु नाथ को गए। उसे
लगा रहा था जैसे एक युग ही बीत गया है। परंतु अब क्या करती जब कब बिजली कड़की और पूरा जंगल प्रकाश से नाह जाता
तो वह दूर तक देखने की कोशिश करती की शुम्भी नाथ आ रहा है या नहीं। लेकिन अभी तक
शुम्भी नाथ नहीं आया। इसी उधेड़-बुन में उसे प्रसव पीडा होने लगी। पास में भूखा अमरत्न
डरा मां से चिपट कर रोते-रोते सो गया था। उस बरसात और कीचड़ में ही उसने एक बच्चे
को जन्म दिया। सुबह होते तक बरसात भी कम हो गई। रात की कालिमा के साथ वह भयंकर
प्रलाप अपने साथ ले गई। चारों तरफ पानी ही पानी था। दूर तक पेड़ की टहनीया टूटी
बिखरी हुई। थी। मानों किसी जंगली हाथी ने यहां उत्पात मचा दिया हो। अमरत्न की
उँगली पकड़ और नवजात बच्चे को गोद में ले। चन्द्र बाला अपने पति को ढूंढने चली
की ने जाने वो कहां चले गये। पूरी रात गुजर गई। देखा तो पास की झाड़ियों में उसका मृत
पडा है, शरीर अकड़ गया था और नीला हो गया है। मुख खुला हुआ था और उससे झाग निकल
कर सुखे पड़े थे। इस अवस्था को देख कर वह समझ गई की शायद किसी विषैले विषधर ने उसे
डस लिया था। अपने भाग्य को रोती कल्पित पति की लाश को इसी अवस्था में दाग भी
नहीं दे सकती थी। तब बेचारी ने पति को उसने उन्हीं लकड़ियों के ढेर से दबा दिया।
जिन्हें वो ले कर आ रहा था। अब आग वो जला नहीं सकती थी। एक गहरी स्वास ले वह दोनों
बच्चों को ले श्रावस्ती की और चल दी। क्या भाग्य को मंजूर है क्या होने वाला है।
मनुष्य ये सब अगर जान पाता तो शायद बदल देता। रोती बिलखती वह कहां तक सहती—इस बात
की वह पहले कल्पना भी नहीं कर सकती थी। परंतु मनुष्य भी अदम्य साहस का प्राणी है।
जिस की हम कल्पना भी नहीं करते होने से पहले वो हम पर जब गुजर जाता है। तो मनुष्य
कैसे उसे बस देखता ही रह जाता है और क्रिया सब उस पर से गुजर जाती है।
दूर
तक न गांव न कोई मुसाफिर, बस चल दी दशा हीन सी। अपनी जीवेषणा को उन दो प्राणियों में छूपाये। थोड़ी
देर में उसे अचरवती नदी दिखाई दी। उसे लगा में घर पहुंच गई। मन के पर्दे पर अपना
घर वो गलियाँ उसे सब सामने दिखाई देने लगे। पर ये खुशी ज्यादा देर नहीं टीक सकी
क्योंकि अचरवती नदी में जोर का पूर आया हुआ था। रात भर बरसात के बाद वह इतनी भंयकर
हो गई थी की उसका दूसरा किनारा नजर नहीं आ रहा था। सोचा कि कोई मल्लाह मिल
जायेगा। बेचारी ने दो दिन से कुछ खाया नहीं था। पास के झाड़ से कुछ जंगली फल निकालकर उसने खाए और अमरत्न को खिलाते।
फल कुछ कसेला था। पर उसकी पत्तियां खट्टी और स्वादिष्ट थी। अमरत्न ने मन मार कर भूखा
होने के कारण एक दो फल खाए। फल खाते ही उसके शरीर में प्राणों का नया संचार हुआ।
जैसे किसी ने संजीवनी बूटी खिला दी हो। नदी का पाट खाली था दुर तक कोई नाव न कोई मुसाफिर
एक अबला असहाय एक नव जात बच्चा और दूसरा तीन साल का बच्चा, कैसे करे पार इस अचरवती को जो पानी हमारे जीवन दायिनी
है वह काल का रूप भी ले सकता है। यह समय और स्थिति पर निर्भर होता है। अपने अति
पर कोई भी चीज जा कर वह अपना कितना विकराल रूप ले सकता है ये गुजरने वाला ही जान
सकता है। श्याम होने को हो गई, कोई चारा न देख यही
जंगली जानवरों का ग्रास बनने से अच्छा है। किसी तरह से नदी पार कर ली जाए। खतरा
दोनों तरफ बराबर था, पर नदी को तो अपने धैर्य और सामर्थ्य से
पार किया जा सकता है। अखीर उसने निर्णय ले लिया कि इस उफनती नदी को वह पास करेगी।
कोई और अवस्था हो ती तो शायद वह इतना खतरनाक निर्णय नहीं लेती। पर ये परिस्थिति
तो एक दम जीवन के उस किनारे को छू रही है।
उसने
नवजात बच्चे को एक झाड़ी में छुपा दिया और अपने तीन साल के पुत्र अमरत्न को अपनी
पीठ से बांधा। और उतर गई उस हरहराती अचरवती हलोरे मारती लहरो को पार करने के लिए।
सच बड़े जीवट की स्त्री थी पटाचारी( चन्द्र बाला) करीब आधा मील आगे निकल गई दूसरा
किनारा छूने के लिए उसने पूर्ण साहास का उपयोग किया। अखीर पहला पड़ाव तो पार कर
उसने अमरत्न को उसने किनारे बैठा कर कहा की तुम यहीं रहना मैं छोटे भाई को लेकर
अभी आती हूं फिर हम घर की और चलेगें जहां तुम्हें खूब दूध गुड़ मिलेगा। तेज बहाओ
को देखते हुए उसने आगे की और दो फ़रलांग जाकर नदी में उतर गई। ताकी दूसरे किनारे
जाते-जाते अपने छोटे बेटे के करीब ही निकले। पर जैसे ही वह नदी के बीच में पहुंची
तो क्या देखती है कि उसके छोटे नवजात बच्चे को एक गिद्ध कपड़े समेत अपने पंजों
से पकड़े उड़ा चला जा रहा है। उसके प्राण मुंह को आ गये। उसने दोनो हाथ हिला-हिला
कर शि...शि...शि...की आवाज कर उसे लाख डराने की कोशिश की ताकि डर के मारे वह बच्चे
को छोड़ कर चला जाये, पर क्या बच्चा इतने उपर से पानी या जमीन
में गिरता तो बच पाता। गिद्ध ने बच्चे को तो नहीं छोड़ पर दूसरे किनारे खड़ा
अमरत्न ये सब देख रहा था। उसने मां को हाथ उठा कर शि..शि कि आवाज करते सुना तो वह
ये समझा कि मां मुझे बुला रही है। और वह पानी में कूद गया। पटाचारी ये सब देखती भर
रह गई ये इतनी जल्दी सब घटा की शायद उसे सोचने ओर समझने का मौका ही नहीं मिला। वह
मझधार में खडी ये सब देख रही थी और दोनों किनारों पर उसके दोनों पूत्र मृत्यु को
प्राप्त हो गए। वह कुछ न कर सकी।
सब
कुछ पल में खत्म हो गया। किसी तरह से वह वापिस किनारे पर पहुंची और अपने घर की और
चली। रास्ते में श्मशान घाट पड़ता था। वहां लोगो की भिड़ देख उसने पूछा की कौन मर
गया। सब लोग उसका मुंह देख रहे थे। की लगती तो यह वही लड़की चन्द्र बाला है। ये
भी कैसा चमत्कार है कि वह कैसे आ गई। लोगों ने उसे पकड़ बिठाया, और उसे थोड़ा विश्राम करने को कहां। कि बेटी
जो होना था वो तो हो गया। तू अपने को सम्हाल। चन्द्र बाला को समझ में नहीं आ रहा
था कि ये किस घटना की बात कर रहे है। मैने तो अभी इन्हें अपना दुःख बताया भी नहीं
है। तब पता चला कि रात बहुत बड़ा तूफान आया था,
इसमें उनका पाँच मंजिला मकान गिर गया और पूरा परिवार नौकर चाकर सब दब कर मर गये।
अब चन्द्र बाला को काटो तो खून नहीं। एक ही रात में ये सब क्या हो गया। किस पाप
की सज़ा उसे मिल रही है। पाप तो मैने किया था पर सजा उसके आस पास के प्राणियों को भगवान
दे रहा है। मुझ पापीन को जीवित रखे हुए है। और वह जौर से चीख मार कर बेहोश हो गई।
लोग ने उसे उठ कर एक वृक्ष के नीचे लिटा
दिया और हवा करने लगे। जिन लोगों ने उसे कुलटा और न जाने क्या-क्या पदवी से
नवाजा था इस दुःख के समय वह उस सारी बातों को भूल गये थे। और उन के मन में उसके
प्रति वेदना-पीड़ा की टीस सी उठने लगी। की भगवान इतने छोटे कसूर की इतनी बड़ी सज़ा
क्यों दे रहा है। पर जब तक देर हो चुकी थी शायद उनकी ये ह्रदय कि पुकार और क्षमा
याचिका उस चन्द्र बाला तक पहुंचे वह अपना होश हवास खो चुकी थी। हमारा तन-मन इतने
तनाव को सहन नहीं कर सकता। फिर वह उसमें
अवरोध पैदा कर देता है। उसकी संवेदन सीलता को पीछे धकेल देता है। और गफलत की एक
मोटी चादर आगे छा जाती हे। सब भुला दिया जाता है। पर ऐसा नहीं है की पागल आदमी सब
भूल गया, बस उस के पीछे सब तनाव चल रहा होता है। एक बेचैनी
पीछे सरकती रहती है। शायद जितनी बेचैनी और तनाव को एक पागल झेल रह है हम समाज में
कुछ भी नहीं के बराबर ही समझो। पर उसकी बेचैनी दिखाई नहीं देती। काश उसके मस्तिष्क
को पढ़ा जा सकता या देखा जा सकता तो आप दंग रहे जाते और आपने तनाव और बेचैनी को
शूद्र समझते। एक बुद्ध पुरूष की आंखे हमारे शरीर में एक्सरे का काम कर जाती है। वो
हमारे अन्तस तक पहुंच जाती है। जिसकी हमें भी खबर नहीं होती। ये सब प्रकृति हमारे
फायदे के लिए ही करती है। की हमारा होश छिन लेती है। और चन्द्र बाला लोगों की
पकड़ से छूटने को बेचैन होने लगी, अपने बाल नोचने लगी
उनमें मिट्टी डालने लगी। कपड़े फाड़ने लगी। और लोगो की पकड़ से अपने को छुड़ा कर
जंगल की और भाग गई लोगो को दया आई पर अब कौन था उसका इस संसार में जो उसके साथ चल
सकता। लोगों ने उसे अपने हाल पर छोड़ दिया।
वह
श्रावस्ती में नग्न घूमने लगी कोई उसे कुछ खाने को दे देता तो खा लेती। उसे अपने
शरीर का कोई होश नहीं रहा। बच्चें उसके पीछे लग जाते उस पर पत्थर मारते। उसके सर
से खून निकल जाता, हम अपने से कमजोर पर कैसे हिंसात्मक हो
जाते है। छोटे बच्चें पागल और गली के कुत्तों को कैसे यातना देते है। कैसी
हिंसात्मक प्रवर्ती है हमारी। इतने दुखों का पहाड़ किसी पर गिरता तो उसकी भी शायद
यहीं हालत होती। चन्द्र बाला न जाने किस जन्म में कुछ गलत किया जो उसे ये सज़ा भोगिनी
पड़ रही है। पर प्रकृति की गोद में क्या रहस्य छिपा है। हम उसे बीज रूप में देख
कर नहीं समझ सकते । ये प्रत्येक प्राणी के जीवन में घटता है। बस अनुपात में भेद
होता है। पर मेरे देखे कोई भी घटना जो मनुष्य के जीवन में बुरी से बुरी घट रही हो
उसका विवेचन अगर वह वृक्ष होने तक करे तो उसे समझ में आ जायेगा। फिर ये त्वरा भी
है। पीड़ा कितनी है। और वृक्ष फलों से लदने लायक बनेगा या मौसमी फूल बन जायेगा।
जीवन में एक तो घटता है एक हम चाहते है। दोनों में भेद है। होना स्वभाविक है। और
कर्ता में आप आ जाते है।
बच्चो
ने उसका जीन हराम कर दिया था, कुछ लोग भी चाहते थे
कि वह नग्न श्रावस्ती में न घूमे वह भी बच्चें को उकसाते थे। खूद आगे आये तो
बदनामी होती। कितने लोग चाहते थे उसकी मदद करे पर वह उसके पार जा चुकी थी। कभी जौर
से हंसती कभी जौर से रोती.... जीवन बड़ा दुष्कर हो गया था। एक दिन अचानक वह जैत बन
की और निकल गई और उन्हीं दिनों भगवान भी वहां आये हुए थे। भगवान अपनी गंध कुटी के
बहार सुबह का सत्संग कर रहे थे। हजारों लोग और भिक्षु उसका अम्रत पान कर रहे थे।
अचानक पटाचारी को वहां देख सब को लगा ये कहां से आ गई। सब गड़बड़ कर देगी। कुछ
भिक्षु उसे रोकने की कोशिश करने लगे। पर भगवान न उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया।
लोग सोच रहे थे न जाने अब आगे क्या होगा सब की साँसे बद हो गई थी। मानों दिल ने
धड़कना बंद कर दिया हो। कैसी जीवंत शांति चारों और फैल गई, जीवंत शायद इसलिए क्योंकि भगवान की
जीवंतता उसे लिप्त भी। एक मरघट की शांति होती है। उसमें मातम भरा होता है। वह एक मुर्दे
के संग साथ की शांति है। पर यह एक जीवित शांति थी।
भगवान
ने उसे अपने पास बुलाया, पास आओ मेरी पुत्री। मेरे नजदीक आओ। यहां
बैठो। एक आज्ञाकारी बच्चें की भाति चन्द्र बाला भगवान के सामने जाकर बैठ गई।
न
जाने कोन सी शक्ति या प्रेम उसे खींचे चला जा रहा था। हजारों लोग बैठे थे। ये सब
देख रहे थे। लोग देख रहे थे जैसे-जैसे चन्द्र बाला भगवान के पास आ रही थी। उसके
चेहरे पर फैला अंधेरा सिमट रहा था। वह मुद्रा चेहरा जीवंत होता जा रहा था। उसके
कदमों में एक अल्हाद-एक उत्सव भरता जा रहा थ। जो कदम जमीन से उठते तक नहीं थे अब
कैसे नृत्यांगना की तरह एक संगीत बिखेरते से लग रहे थे। उसके पैरो में होश की
मादकता, एक आनंद का सागर उतर आया था। मानों तपते
रेगिस्तान से चलते मुसाफिर के सामने हरा भरा छेत्र आ गया हो। उसकी सीतलता उसके तन
मन और अंतस तक फैल रही है। ये उसके अंग भाव में आप साफ देख सकते है। उसकी बेहोशी टूटने
लगी। प्रकाश के सामने अंदर कितनी देर टिक सकता है। वह भगवान के चरणों में सर रख को
फफक-फूट कर रोने लगी। जैसे जमा पत्थर जो उसके सीने पर था वह आंखों के आंसू बन कर
बह जाना चाहते था। भगवान ने उसके सर पर हाथ रख दिया। अब उसको धीरे-धीरे अपने तन का
होश आने लगा। जैसे-जैसे उसे तन का होश आने लगा वह अपने अंगों को समेटने और छुपाने
लगी। उसने आपने दोनों हाथ अपने सिने पर रख लिए और आंखों नीची कर ली। भगवान ने अपना
चीवर उतार उसे उड़ा दिया। भगवान की उर्जा तरंगों में लिपटे उस चीवर ने उसके तन को
ही नहीं ढका उसके अंतस को शांत करता चला गया। इस से उस का ना पडा पटाचारा ’’
भगवान—बेटी
होश को सम्हाल, माता-पिता, भाई बंधु, मित्र-पिय जन। का साथ संसार को क्षण भंगुर
है। ये पानी पर पड़ी लहर की तरह से है, जो
बन भी नहीं पाती है और मिट जाती उसी सागर में जिस पर अभी लहर बनी थी। यहां प्रीत
केवल दुःख लेकर आती है। यहां थिरता नहीं है। मन को क्या तू शांत कर सकेंगी, आज तुम उस किनारे पर पहुंच गई है। जहां पर
घाट है, अब सन्यास की नाव पर सवार हो और छोड़ दे
पतवार। अब चेत, ये दुःख ये पीडा जो तूने झेली है, वो सब यहां तक लाने के लिया था। प्रकृति
कभी कुछ गलत नहीं करती। पर हम उस दुर के किनारे को देख नहीं पाते। कि बीज में इतना
बड़ा वृक्ष भी हो सकता है जिसपर हजारों पक्षी बैठेंगे, उसकी छाव में हजारों मुसाफिर विश्राम करेंगे।
वे फलों से लदेगा। क्या उस बीज में कुछ दिखाई देता है। उसके लिए बहुत होश चाहिए। ये
सब साधना का ही एक अंग है। भूल जा उस काली रात को देख तेरे सामने नया सूर्य उदय हो
रहा है। खोल अपनी आंखें। पटाचारा की आंखों से झर-झर आंसू बन कर बह चले वो दुःख जो
उसके ह्रदय में जम गया था। जो आंखे अभी तक धुँधली और कोहरे से ढकी थी अचानक भगवान
से सामने वह निर्दोष-स्फटिक पर दर्शी हो गई। आंखें हमारे अंतस का आईना है। आप किसी
पागल की आंखों में झांक कर देखना वहाँ कितना कुहासा कितना धुंधलका भरा आपको दिखाई
देगा, वहीं किसी बच्चें या बुद्ध की आंखों को
देखना कितनी स्फटिक पर दर्शी दिखाई देंगी। वो बादल छंट गये, नीला आसमान दिखाई देने लगा।
उसका
रोएं-रोएं में जागरण भर रहा था। उसके चेहरे पल-पल बदल रहा था। जहां अभी पल भर पहले
अंधकार था और तमस भी हुआ था अब स्वर्णिम प्रकाश फैल रहा था। श्रोतापति को उपलब्ध
हो गई पटाचारा। नदी में छोड़ दिया अपने को, ध्यान
की नदी ले चली उसकी चेतना को अनन्त सागर की और। पटाचारा भिक्षुणी हो गई।
पटचारा भगवान की
अग्रिम शिष्यों में से एक थी, वो खुद ही नहीं जागी अपने साथ हजारों भिक्खुणियों
को ध्यान का रसास्वादन कराया। जो कल तक अबला असहाय, और पागल
थी। उस सबला ने कितनी अबलाओं के दुखों को हरा, उस से मुक्त किया।
कितनों को सन्मार्ग पर अपने संग साथ ले चली, एक दीपक जला तो
कितनों को और मार्ग दिखाया। पटचारा उन गिनती की भिक्खुणियों में से एक थी जो भगवान
के जीते जी निर्वाण को उपल्बध हुई। भगवान ने खुद इसकी घोषणा की........मेरी पुत्री
आवागमन से मुक्त हो गई है ये ‘’पटचारा’’।
मनसा आनंद ‘’मानस ’’
Very sad story...
जवाब देंहटाएंBut this is how destiny works. She got shocks in life, and life gave her Buddha ...
बहुत दुखद कहानी...
जवाब देंहटाएंलेकिन नियति ऐसे ही काम करती है। उसे जीवन में झटके मिले, और जीवन ने उसे बुद्ध...