शनिवार, 23 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-सत्र-02

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र--दूसरा
मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं--इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं।

कैसे मैं उस पुस्तक को भूल गया जो परम शिखर है: ‘दि बुक ऑफ दि सूफी़ज!’ शायद इसीलिए भूल गया क्योंकि इसमें कुछ है ही नहीं, बस खाली पन्ने। पिछले बारह सौ वर्षों से सूफियों ने इसे परम श्रद्धापूर्वक संजोया है, वे इसे खोलते हैं और पढ़ते हैं। किसी को भी आश्चर्य होता है कि वे पढ़ते क्या हैं। जब बहुत लंबे समय तक खाली पन्नों को देखो तो स्वयं पर ही लौट आने के लिए बाध्य हो जाते हो। यही असली अध्ययन है--असली काम।


‘दि बुक’ को मैं कैसे भूल गया? अब कौन मुझे क्षमा करेगा? ‘दि बुक’ का उल्लेख सर्वप्रथम होना चाहिए, अंत में नहीं। इसका अतिक्रमण तो हो ही नहीं सकता। इससे बेहतर पुस्तक रची कैसे जा सकती है, जिसमें कुछ भी न हो, शून्य का संदेश हो?
अपने नोट्‌स में देवगीत, ना-कुछ, नथिंगनेस को ना-कुछ-पन ही लिखना। अन्यथा ना-कुछ का नकारात्मक अर्थ होता है--खालीपन। पर ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है ‘पूर्णता।’ पूरब में खालीपन दूसरे ही संदर्भ में प्रयुक्त होता है...‘शून्यता।’
अपने एक संन्यासी को मैंने ‘शून्यो’ नाम दिया है, लेकिन वह बेवकूफ अपने को डॉक्टर इचलिंग कहता रहता है। अब इससे अधिक बेवकूफी क्या होगी? ‘डॉक्टर इचलिंग’--कितना भद्दा नाम है! और डॉक्टर इचलिंग बनने के लिए उसने अपनी दाढ़ी मूंडवा दी, क्योंकि दाढ़ी में वह थोड़ा सुंदर लगता था।
पूरब में शून्यता--खालीपन का अर्थ खालीपन नहीं है जैसा अंग्रेजी भाषा में होता है। इसका अर्थ है पूर्णता, अतिशय होना, इतना पूर्ण कि और किसी कुछ की आवश्यकता ही न रहे। ‘दि बुक’ का यही संदेश है। कृपया सूची में इसे सम्मिलित कर लो।

पहली पुस्तक: दि बुक ऑफ दि सूफी़ज।

दूसरी: खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट।’ ‘दि प्रोफेट’ को मैं आसानी से छोड़ सकता था, इसका सामान्य सा कारण यह कि इसमें फ्रेड्रिक नीत्शे की ‘दस स्पेक जरथुस्त्रा’ की ही अनुगूंज है। हमारे संसार में कोई भी सत्य नहीं बोलता। हम इतने झूठे हैं, इतने औपचारिक, इतने शिष्टाचारी... ‘दि प्रोफेट’ बस सुंदर है, क्योंकि इसमें जरथुस्त्र की अनुगूंज है।

तीसरी: ‘दि बुक ऑफ लीहत्सू।’ मैंने लाओत्सु का उल्लेख किया, च्वांग्त्सु का उल्लेख किया; लीहत्सू को मैं भूल गया, और वह लाओत्सु तथा च्वांग्त्सु दोनों के परम शिखर हैं। लीहत्सू तीसरी पीढ़ी में आते हैं। लाओत्सु सदगुरु थे, च्वांग्त्सु शिष्य थे। लीहत्सू शिष्य के शिष्य थे, शायद इसीलिए मैं उन्हें भूल गया। लेकिन उनकी पुस्तक शानदार है और सूची में शामिल किया जाना है।

चौथी--और यह सचमुच आश्चर्य है कि मैंने प्लेटो रचित ‘डायलॉग्स ऑफ साक्रेटीज’ का उल्लेख नहीं किया। प्लेटो के कारण शायद मैं भूल गया। प्लेटो उल्लेख योग्य नहीं है, वह एक दार्शनिक भर था, लेकिन उसकी ‘डायलॉग्स ऑफ साक्रेटीज एंड हिज डेथ’ की जितनी प्रशंसा की जाए कम है और यह सम्मिलित करने योग्य है।

पांचवीं... ‘दि नोट्‌स ऑफ दि डिसाइपल्स ऑफ बोधिधर्मा’ को भी मैं भूल गया। जब मैं गौतम बुद्ध के बारे में बात करता हूं तो बोधिधर्म के बारे में सदैव भूल जाता हूं, शायद इसलिए कि मुझे लगता है कि उनको मैंने उनके सदगुरु बुद्ध में सम्माहित कर लिया है। लेकिन नहीं, यह ठीक नहीं है। बोधिधर्म अपनी स्वयं की शक्ति पर खड़े हैं। वे एक महान शिष्य थे, इतने महान कि गुरु भी उनसे ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने स्वयं एक शब्द भी नहीं लिखा, लेकिन उनके अज्ञात शिष्यों ने जिन्होंने अपने नाम का उल्लेख भी नहीं किया, बोधिधर्म के शब्दों के नोट्‌स लिखे। यद्यपि ये नोट्‌स बहुत थोड़े से हैं, लेकिन कोहिनूर जैसे मूल्यवान। तुम्हें मालूम है, कोहिनूर शब्द का अर्थ है: विश्व का प्रकाश। नूर यानी प्रकाश, कोहिनूर यानी विश्व। यदि किसी चीज को मुझे कोहिनूर जैसी बताना हो तो मैं बोधिधर्म के अनाम शिष्यों के नोट्‌स की ओर इशारा करूंगा।

छठवीं: मैं ‘रुबाइयात’ को भी भूल गया। मेरी आंखों में आंसू आ रहे हैं। सभी कुछ भूलने के लिए मैं क्षमा मांग सकता हूं लेकिन ‘रुबाइयात’ भूलने के लिए नहीं। उमर खय्याम... मैं बस चिल्ला सकता हूं, रो सकता हूं। आंसुओं से ही क्षमा मांग सकता हूं, शब्दों से काम न चलेगा। ‘रुबाइयात’ संसार में सबसे अधिक गलत समझी जाने वाली और फिर भी सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में से एक है। अनुवाद के माध्यम से ही उसे समझा जाता है, लेकिन उसका भाव सदैव गलत समझा गया है। अनुवादक इसके भाव की अभिव्यक्ति नहीं कर पाया है। ‘रुबाइयात’ में प्रतीकों का उपयोग किया गया है, और अनुवादक अनुशासित मन वाला एक ऐसा अंग्रेज था, जिसे अमरीका में लोग व्यवस्थित मन वाला कहते हैं, जो लीक से जरा भी न हटता हो। ‘रुबाइयात’ को समझने के लिए तुम्हें जरा लीक से हट कर चलने की आवश्यकता पड़ेगी।
‘रुबाइयात’ में सुरा और सुंदरी की ही चर्चा है और कुछ नहीं; इसमें सुरा और सुंदरी के ही गीत हैं। सारे अनुवादक--और वे बहुते से हैं--सभी गलत हैं। और उन्हें गलत होना ही था--क्योंकि उमर खय्याम एक सूफी थे, तसव्वुफ के आदमी, एक ऐसा आदमी जो जानता है। जब वे स्त्री की बात करते हैं, तो वे परमात्मा की बात कर रहे हैं। परमात्मा को बुलाने का सूफियों का ढंग यही है: ‘‘महबूबा, ओ मेरी महबूबा।’’ और परमात्मा के लिए वे सदैव स्त्रीलिंग का ही उपयोग करते हैं, इसे खयाल में रखना चाहिए। मानवता और चैतन्य के पूरे इतिहास में संसार भर में किसी ने भी परमात्मा को स्त्री के रूप में संबोधित नहीं किया है। केवल सूफी ही परमात्मा को महबूबा कहते हैं। और ‘शराब’ वह है जो दोनों के बीच घटित होती है, अंगूर से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है। वह कीमिया जो दो प्रेमियों के बीच घटती है, गुरु और शिष्य के बीच घटती है, साधक और साध्य के बीच घटती है, पूजक और परमात्मा के बीच घटती है... वह कीमिया, वह रूपांतरण शराब है। ‘रुबाइयात’ को इतना गलत समझा गया है, शायद इसीलिए मैं इसे भूल गया।

सातवीं: जलालुद्दीन रुमी की ‘मसनवी।’ इसमें छोटी-छोटी बोधकथाएं है। उस विराट को बोधकथाओं से ही व्यक्त किया जा सकता है। जीसस बोधकथाओं में ही बोलते हैं; ऐसे ही ‘मसनवी।’ मैं इसे क्यों भूल गया? बोधकथाओं से मुझे प्रेम है। मुझे इसको नहीं भूलना चाहिए था। इसकी हजारों बोधकथाएं मैंने सुनाई हैं। ये बोधकथाएं इतनी अधिक मेरी अपनी लगती हैं कि इसीलिए अलग से इसका उल्लेख करना मैं भूल गया। लेकिन यह क्षम्य नहीं है। इसके लिए क्षमा मांगना आवश्यक है।

आठवीं: आठवीं है ‘ईशा उपनिषद।’ मैं इसको क्यों भूल गया यह समझ लेना आसान है। मैंने इसे पी लिया है, यह मेरे रक्त और अस्थियों में समाहित हो चुका है; यह मैं ही हूं। हजारों बार मैं इस पर बोल चूका हूं। यह बहुत छोटा सा उपनिषद है। एक सौ आठ उपनिषद हैं और उनमें ‘ईशा’ सबसे छोटा उपनिषद है। इसे पोस्टकार्ड पर लिखा जा सकता है, वह भी बस एक तरफ, लेकिन इसमें सभी एक सौ सात समाए हुए हैं, इसलिए उनका उल्लेख करने की आश्यकता नहीं है। ईशा में ही बीज है।
‘ईशा’ का अर्थ है दिव्य। तुम्हें आश्चर्य होगा कि भारत में हम क्राइस्ट को ‘क्राइस्ट’ नहीं, ‘ईसा’ कहते हैं--ईसा, जो अंग्रेजी के ‘जोशुआ’ की तुलना में अरैमेक भाषा के ‘येशुआ’ के कहीं अधिक निकट है। उनके माता-पिता उन्हें येशु ही कहते होंगे। येशु शब्द भी काफी लंबा है। भारत तक आते-आते येशु बन गया ईशु। भारत ने तुरंत ही पहचान लिया कि ईशु शब्द ईशा जैसा ही है, जिसका अर्थ है परमात्मा, इसलिए उन्हें ईसा कहना ही बेहतर होगा।
‘ईशा उपनिषद’ ध्यान में उतर चुके लोगों की महानतम कृतियों में से एक है।

नौवीं: गुरजिएफ और उनकी पुस्तक ‘ऑल एंड एवरीथिंग’ के बारे में कुछ कहना तो मैं भूल ही गया... शायद इसलिए कि यह बहुत अजीब पुस्तक है, पढ़ने योग्य भी नहीं। मुझे नहीं लगता कि मेरे अलावा किसी भी जीवित व्यक्ति ने इसे पहले पेज से आखिरी पेज तक पढ़ा हो। गुरजिएफ के कई अनुयायियों से मैं मिला हूं, लेकिन किसी ने भी ‘ऑल एंड एवरीथिंग’ को पूरा नहीं पढ़ा है।
‘ईशा उपनिषद’ से ठीक विपरीत--यह एक विशालकाय ग्रंथ है--एक हजार पृष्ठ। और गुरजिएफ इतना दुष्ट फकीर है--मुझे उसके लिए दुष्ट फकीर का संबोधन प्रयोग करने दो--वह इस प्रकार से लिखता है कि पढ़ना असंभव हो जाता है। एक ही वाक्य कई-कई पृष्ठों तक चलता रहता है। जब तक तुम वाक्य के अंत में पहुंचो उसका प्रारंभ भूल चूके होते हो। और मेरी ही तरह, वह अपने ही बनाए हुए शब्दों का प्रयोग करता है। अजीब शब्द... उदारहण के लिए, जब वह कुंडलिनी के बारे में लिख रहा था, तो उसने इसे ‘कुंडा-बफर’ कहा; कुंडलिनी के लिए यह उसका शब्द था। यह पुस्तक अत्यंत महत्व की है, लेकिन हीरे सामान्य पत्थरों में छिपे रहते हैं, उनको ढूंढना और खोजना पड़ता है।
मैंने इस पुस्तक को एक बार नहीं अनेक बार पढ़ा है। जितना ही मैं इसमें डूबा उतना ही मैं इसे प्रेम करने लगा। क्योंकि उसकी उतनी ही दुष्टता मेरी समझ में आ गई, मुझे दिखने लगा कि जिनको नहीं जानना चाहिए उनसे वह बात छिपा ली गई है। ज्ञान उनके लिए नहीं है जो अभी उसे समझने योग्य नहीं हैं। ज्ञान को बेहोश लोगों से छिपाना है, यह केवल उनके लिए है जो पचा सकें। यह केवल उन लोगों को दिया जाना चाहिए, जो तैयार हैं। विचित्र ढंग से इसे लिखने का अभिप्राय यही है। गुरजिएफ की ‘ऑल एंड एवरीथिंग’ से विचित्र दूसरी कोई पुस्तक नहीं और सचमुच यह सब और सब-कुछ है।

 दसवीं: मुझे यह पुस्तक याद है, लेकिन मैंने इसका उल्लेख नहीं किया, क्योंकि यह गुरजिएफ के उस शिष्य पी.डी. ऑस्पेंस्की ने लिखी है, जिसने गुरजिएफ को धोखा दिया। उसकी इसी धोखाधड़ी के कारण मैं इसे शामिल नहीं करना चाहता था, लेकिन यह पुस्तक सदगुरु के साथ धोखा करने के पहले लिखी गई थी, इसलिए अंततः मैंने इसे शामिल करने का निर्णय लिया। पुस्तक का नाम है: ‘इन सर्च ऑफ दि मिरेकुलस।’ यह अत्यंत सुंदर पुस्तक है, इसलिए भी कि इसे उस व्यक्ति ने लिखा है, जो केवल शिष्य था, जिसने अभी स्वयं जाना नहीं है। वह न केवल शिष्य था बल्कि बाद में जुदास बन गया, उसने गुरजिएफ को धोखा दिया। यह अजीब है, लेकिन संसार अजीब बातों से भरा पड़ा है।
गुरजिएफ के द्वारा लिखी गई पुस्तक से कहीं अधिक ऑस्पेंस्की की पुस्तक गुरजिएफ का प्रतिनिधित्व करती है। हो सकता है कि चेतना की किसी विशेष भावदशा में गुरजिएफ ने ऑस्पेंस्की पर आधिपत्य करके माध्यम की तरह उपयोग किया हो, ऐसे ही जैसे मैं देवगीत का उपयोग माध्यम की तरह कर रहा हूं। इस समय वह नोट्‌स लिख रहा है और मैं अपने अधखुले नेत्रों से सब सब-कुछ देख रहा हूं। मैं बंद आंखों से भी देख सकता हूं। मैं केवल द्रष्टा हूं, शिखर पर बैठा द्रष्टा। मुझे सिवाय देखने के अब और कोई काम नहीं बचा है।

ग्यारहवीं: यह पुस्तक एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है जो संबुद्ध नहीं है, जो न सदगुरु है न ही शिष्य: वाल्ट व्हिटमैन रचित ‘लीव्स ऑफ ग्रास।’ लेकिन कोई बात उससे अभिव्यक्त हुई है, कवि के माध्यम से प्रकट हो गई है। कवि ने बांस की पोंगरी का काम किया है और वे गीत बांसुरी के नहीं हैं, वे बांस के भी नहीं हैं। वाल्ट व्हिटमैन बस एक अमरीकन बांस है। लेकिन ‘लीव्स ऑफ ग्रास’ अत्यंत शानदार है। अस्तित्व से जो प्रवाहित हो रहा था उसे कवि ने ग्रहण कर लिया है। जहां तक मुझे पता है, वाल्ट व्हिटमैन के अलावा कोई भी अमरीकन इस भाव को छू तक नहीं पाया है, यहां तक कि आंशिक रूप से भी नहीं। अन्यथा कोई भी अमरीकन कवि इतना प्रतिभाशाली नहीं है।
हस्तक्षेप मत करो!--कम से कम जब अपने नोट्‌स लिख रहे हो तब तो बिलकुल भी नहीं। बाद में तुम पछताओगे कि तुमसे यह छूट गया, वह छूट गया। बस अपने नोट्‌स लिखते रहो। जब समय पूरा हो जाएगा, तो मैं खुद कहूंगा--बंद करो।
क्या मेरा समय समाप्त हो चला है? मेरा समय तो बहुत पहले से ही समाप्त हो गया था; आज नहीं, पच्चीस वर्ष पहले। मैं एक मरणोपरांत जीवन जी रहा हूं, बस पत्र में लिखा गया पुनश्च लेख। लेकिन कभी-कभी पुनश्च लेख पत्र के मूल लेख से भी अधिक महत्वपूर्ण होता है।
कैसा अदभुत संसार है। इन ऊंचाइयों पर भी घाटी से उठती हुई खिलखिलाहट सुनाई दे रही है। एक तरह से यह अच्छा है, यह दोनों का मेल कराती है।

दुख है यह शीघ्र समाप्त होगा।
इसे हम शाश्वत नहीं बना सकते?
कम से कम अभी तो मेरे साथ धोखा मत करो।
आदमी तो कायर है।
क्या शिष्य जुदास होने से बच नहीं सकते?
जब यह समाप्त हो जाए तो रुक सकते हो।
तो ठीक है...अलेलूइया!

 आज इतना ही

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