बोलना और सोचना छोड़ दो-(प्रवचन-तीसरा)
Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)----ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
वस्तुओं के यथार्थ को अस्वीकार करना,
उनकी वास्तविकता से चूक जाना है;
यह कहना कि वस्तुएं असार हैं
उनकी वास्तविकता से फिर चूक जाना है।
जितना तुम
सत्य के विषय में बोलते और सोचते हो,
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
बोलना और सोचना छोड़ दो,
तो फिर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम न जान सकोगे।
वास्तविकता
सदा से वहां है बस तुम्हारे हृदय के निकट, तुम्हारी आंखों के निकट, तुम्हारे हाथों के निकट प्रतीक्षा करती हुई। तुम उसे छू सकते हो तुम उसे अनुभव
कर सकते हो, तुम उसे जी सकते हो-लेकिन तुम उसका चिंतन नहीं कर
सकते। देखना संभव है अनुभूति संभव है, स्पर्श संभव है लेकिन सोच-विचार
करना संभव नहीं है।
विचार-प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की कोशिश करो। विचार सदा किसी
के विषय में होता है, वह कभी सीधा-सीधा नहीं होता। तुम वास्तविकता
को देख सकते हो, लेकिन तुम्हें इसके विषय में सोचना पड़ेगा और
' विषय में ' एक जाल है, क्योंकि जब भी तुम किसी के विषय में सोचते हो तो तुम उससे दूर चले जाते हो।
' उसके विषय में ' काअर्थ है अप्रत्यक्ष। ' उसके विषय में ' का अर्थ है कि तुम इस फूल को यहीं और अभी नहीं देखोगे तुम उसके विषय में सोचोगे और ' उसके विषय में ' बाधा बन जाएगा। ' उसके विषय में ' के माध्यम से तुम इस फूल तक कभी पहुंच नहीं पाओगे।
देखना
प्रत्यक्ष है छूना प्रत्यक्ष है सोच-विचार करना अप्रत्यक्ष है। इसी कारण से सोच-विचार
इससे चूक जाता है। एक प्रेमी वास्तविकता को जान सकता है यहां तक कि एक नर्तक भी उसे
जान सकता है,
एक गायक इसकी अनुभूति कर सकता है लेकिन एक विचारक लगातार इससे चूकता
रहता है।
मैंने
एक यहूदी विचारक के विषय में सुना है। वह एक साधारण सा किसान था लेकिन बहुत विचारशील
था। उसका नाम योसेल था। जैसा कि दर्शनशास्त्री किया करते हैं वह प्रत्येक बात के बारे
में सोच-विचार किया करता था। उसके लिए कुछ भी कर पाना मुश्किल था, क्योंकि सोच-विचार
में उसका बहुत सा समय निकल जाता था, और जब तक वह तैयार होता,
अवसर खो चुका होता था।
एक
बार वह पास के एक गांव के बाजार में अपना गेहूं बेचने गया। उसने अपनी पत्नी से कहा
जैसे ही मैं गेहूं बेच लूंगा शीघ्र ही मैं तुम्हें तार भेज दूंगा।
उसने
अच्छा लाभ कमा कर गेहूं बेच दी। वह पोस्ट ऑफिस गया उसने तार भेजने के लिए फॉर्म भरा
और फिर उसके बारे में सोचने लगा।
उसने
लिखा था गेहूं लाभ पर बेच दी है। कल आ रहा हूं। प्रेम और चुंबन - योसेल।
फिर
उसने सोचना शुरू किया और उसने सोचा मेरी पत्नी सोचेगी कि मैं पागल हो गया हूं। ' लाभ पर '
क्यों लिखे क्या मैं अपना गेहूं घाटे पर बेचने वाला था? तो उसने ' लाभ पर ' शब्द काट दिया।
तब वह और चिंतित हो गया क्योंकि अगर वह भूल कर सकता था और गलत शब्द लिख सकता था तो
हो सकता है कि उसने और भी गलतियां कर दी हों। तो उसने फिर देखा प्रत्येक शब्द के विषय
में सोचने लगा।
फिर
उसने कहा कल आ रहा हूं क्यों? क्या मैं अगले महीने, या अगले
साल जाने वाला था? मेरी पत्नी जानती है कि गेहूं बिक जाएगा,
मैं जल्दी ही वापस लौट जाऊंगा। इसलिए उसने ' कल
आ रहा हूं ' शब्दों को काट दिया।
तब
उसने सोचा, मेरी पत्नी तो यह जानती है कि मैं गेहूं बेचने आया हूं तो गेहूं बेच दी है
क्यों लिखूं?' उसने उसे भी काट दिया।
और
फिर वह हंसने लगा। उसने कहा मैं अपनी खुद की पत्नी को लिख रहा हूं। मैं ' प्रेम और चुंबन
' क्यों लिखूं? क्या मैं किसी दूसरे की
पत्नी को लिख रहा हूं? और क्या यह उसका जन्म-दिन है या यम किपूर
का पर्व है या कुछ और है? उसने उसे भी काट दिया।
अब
केवल उसका नाम ही बचा था योसेल। उसने अपने आप से कहा योसेल क्या तुम पागल हो गए हो? तुम्हारी पत्नी
पहले से ही तुम्हारा नाम जानती है। इसलिए उसने तार फाड़ डाला और प्रसन्न हुआ कि उसने
पैसे बचा लिए और मूर्खता करने से भी बच गया।
लेकिन
ऐसा ही होता है अगर तुम किसी के विषय में सोचते ही रहते हो तो तुम सारे जीवन को ही
चूक जाते हो- धीरे- धीरे सब-कुछ काट दिया जाता है। अंत में तुम भी काट दिए जाते हो।
न केवल शब्द कट जाता है बल्कि अंत में तुम भी काट दिए जाते हो। सोच-विचार करना धुएं
के समान हो जाता है सब-कुछ इसके भीतर जाता है और सभी कुछ समाप्त हो जाता है। और कुछ
करना असंभव हो जाता है-तार तक भेजना भी संभव नहीं रहता है। कृत्य असंभव हो जाता है
क्योंकि कृत्य प्रत्यक्ष है और विचार करना अप्रत्यक्ष है। उनका कभी मिलन नहीं होता।
संसार
में यही समस्या है जो लोग विचार करते हैं वे कभी कृत्य नहीं करते, और जो लोग
विचार नहीं करते वे काम करते रहते हैं। संसार दुख में है। जो लोग मूर्ख हैं,
वे कर्म किए चले जाते हैं, क्योंकि वे कभी विचार
नहीं करते वे हर मामले में कूद पड़ते हैं। हिटलर और नेपोलियन और माओ जैसे लोग वे कर्म
करते चले जाते हैं। और बुद्धिमान लोग ये तथाकथित विचारक लोग- अरस्तु, या कांट, या हीगल ये लोग सोचते ही रहते हैं वे कभी कुछ
नहीं करते।
वास्तविकता
की खोज करने वाले व्यक्ति की यही समस्या है कि वह विचारों के दुष्चक्र को कैसे रोके
और फिर भी सजग रहे। क्योंकि मूढ़ भी नहीं सोचते लेकिन वे सजग नहीं हैं। सजग रहो जो ऊर्जा
विचार में चली जाती है उसे सजगता बननी चाहिए।
जो चेतना सोच-विचार के साथ दुष्चक्र में चली जाती है उसे बचाया जाना चाहिए, शुद्ध करना चाहिए। सोच-विचार रुक जाना चाहिए चेतना का एक वर्तुल में घूमना बंद होना चाहिए लेकिन चेतना को नहीं रुकना है। चेतना और घनीभूत होनी चाहिए। और कर्म को वहां होना चाहिए कर्म को बंद नहीं होना चाहिए।
जो चेतना सोच-विचार के साथ दुष्चक्र में चली जाती है उसे बचाया जाना चाहिए, शुद्ध करना चाहिए। सोच-विचार रुक जाना चाहिए चेतना का एक वर्तुल में घूमना बंद होना चाहिए लेकिन चेतना को नहीं रुकना है। चेतना और घनीभूत होनी चाहिए। और कर्म को वहां होना चाहिए कर्म को बंद नहीं होना चाहिए।
सजगता
और कर्म और तुम शीघ्र ही वास्तविकता को उपलब्ध कर लोगे। और केवल तुम ही नहीं- तुम एक
ऐसी परिस्थिति निर्मित कर दोगे कि दूसरे भी वास्तविकता को उपलब्ध कर सकते हैं। तुम्हारे
चारों ओर एक ऐसा वातावरण एक ऐसी आबोहवा बन जाएगी जिसमें घटनाएं अपने आप से ही घटित
होने लगेंगी। यही बुद्ध के साथ हुआ यही सोसान के साथ हुआ और नागर के साथ हुआ।
स्मरण
रहे, कर्म उचित है सोचना दुष्चक्र है; यह कभी कहीं नहीं ले
जाता है। इसलिए विचार करना रुक जाना चाहिए, कर्म करना बंद नहीं
होना चाहिए। ऐसे लोग हैं जो सोच-विचार करते चले जाएंगे कर्म बंद हो जाएगा। ऐसा ही होता
है जब कोई जीवन त्याग करता है जंगल में या हिमालय पर चला जाता है। वह कर्म का त्याग
कर देता है सोच-विचार का नहीं। वह उस संसार को छोड़ देता है जहां कर्म की आवश्यकता थी।
वह यथार्थ को ही त्याग रहा है क्योंकि कर्म के द्वारा ही तुम वास्तविकता के संपर्क
में आते हो। देखना कर्म है चलना कर्म है, नृत्य करना कर्म है
चित्रकारी कर्म है। तुम जो भी करो, तुम वास्तविकता के संपर्क
में आते हो। तुम को अपने कार्य में और- और संवेदनशील होते जाना है। कर्म का त्याग नहीं
किया जाना है।
कर्म
समग्रता से होना चाहिए क्योंकि वह मार्ग है जिससे गुजर कर तुम वास्तविकता में प्रवेश
करते हो और वास्तविकता तुम्हारे भीतर प्रवेश करती है। इसे समझने का प्रयत्न करो क्योंकि
यह मूलभूत बात है- मेरे लिए मूलभूत सोच-विचार को त्याग दो कर्म का त्याग मत करो।
यहां
लोग हैं जो सोचते ही रहते हैं और ऐसे लोग हैं जो कर्म को त्यागते रहते हैं। लेकिन वे
हिमालय में क्या करेंगे?
तब कर्म न करने पर सारी ऊर्जा सोच-विचार में चली जाएगी। वे महान विचारक
हो जाएंगे। लेकिन दर्शनशास्त्र मूर्खों का जगत है तुम शब्दों में जीते हो वास्तविकताओं
में नहीं। प्रेम मिट जाता है केवल ' प्रेम ' शब्द ही बचा रहता है। परमात्मा खो जाता है- क्योंकि वह तो खेतों में था बाजार
में था संसार में था- लेकिन ' परमात्मा ' शब्द रह जाता है। कर्म खो जाता है केवल धारणाएं रह जाती हैं। तुम्हारा सिर
तुम्हारा सारा अस्तित्व बन जाता है।
इससे
बचो। कर्म का त्याग कभी मत करो केवल सोच-विचार का त्याग करो। लेकिन अगर तुम सोच-विचार
को त्याग देते हो तो ऐसी संभावना है कि तुम मूर्च्छा में चले जाओ- या तुम मूर्ख हो
जाओ। हो सकता है कि तुम कुछ भी करना शुरू कर दो, क्योंकि अब तुम नहीं जानते हो
कि क्या करना है और तुम सोच-विचार भी नहीं करते हो। हो सकता है तुम पागल हो जाओ। विचार-प्रक्रिया
को त्यागना है लेकिन तुम्हें और बेहोश, और मूर्च्छित नहीं होना
है। तुम्हें और अधिक सजग होना है।
ध्यान
की सारी कला यही है कर्म में कैसे गहरे होना है विचार का त्याग कैसे करना है और उस
ऊर्जा को कैसे सजगता में बदल देना है जो सोच-विचार में गति कर रही थी।
यह
बहुत ही नाजुक और सूक्ष्म बात है, क्योंकि अगर तुम एक कदम भी चूकते हो तो अंतहीन मूढ़ता
में गिर जाते हो।
विचारों
को त्याग देना सरल है लेकिन तब तुम्हें नींद आ जाती है। प्रतिदिन रात गहरी नींद में
यही होता है तुम त्याग देते हो सोच-विचार बंद हो जाता है- लेकिन तब तुम वहां नहीं होते
चेतना भी खो जाती है। तुम्हारी चेतना विचार के साथ इतनी आसक्त, इतनी संयुक्त
है कि जब भी सोच-विचार बंद हो जाता है तुम मूर्च्छा में चले जाते हो।
और
यही समस्या है। सोच-विचार छोड़ देना है मूर्च्छा में नहीं गिरना है, क्योंकि मूर्च्छा
तुम्हें वास्तविकता की ओर नहीं ले जाएगी। अगर तुम मूर्च्छित हो जाते हो, तुम वास्तविकता में नहीं जा रहे हो तुम केवल गहरी नींद में हो चेतन अचेतन में
लीन हो गया है। इससे ठीक विपरीत को पाना है अचेतन को चेतन में विलीन हो जाना है। अगर
चेतन अचेतन में गिर जाता है तो तुम पर्दा में चले जाते हो और अगर अचेतन चेतन में गिर
जाता है और स्वयं ही चैतन्य हो जाता है तो तुम संबुद्ध हो जाते हो, तुम एक बुद्ध, एक सोसान हो जाते हो।
और
चेतन को अचेतन में नीचे गिरने में सहायता देना बहुत सरल है, क्योंकि यह
बहुत छोटा सा अंश है। तुम्हारे अस्तित्व का दसवां भाग चेतन है और तुम्हारे अस्तित्व
के नौ भाग अचेतन हैं। केवल एक छोटा सा अंश चेतन हो गया है और वह भी सदा डांवाडोल रहता
है। किसी भी क्षण वह गिर सकता है यह बहुत सरल है।
नशे
में यही होता है तुम शराब पीते हो चेतन अचेतन में गिर जाता है। इसीलिए सभी युगों में
सब तरह के वातावरण में और सभी देशों में शराब के लिए इतना आकर्षण है। और जब तुम मादक
द्रव्य लेते हो तो यही होता है? चेतन अचेतन में गिर जाता है।
यह
अच्छा है क्योंकि सोच-विचार रुक जाता है। नींद सुंदर है और तुम्हारे बहुत से सपने हैं।
और अगर तुम एक अच्छे स्वप्नदर्शी हो तो मादक द्रव्य तुम्हें सुंदर सपने देगा- विलक्षण
और कोई भी सपना जितना रंगीन हो सकता है उससे भी अधिक रंगीन, उससे अधिक
जगमगाता हुआ। तुम स्वर्ग में, एक स्वप्नलोक में पहुंच जाते हो
लेकिन तुम वास्तविकता में प्रवेश नहीं कर रहे हो।
एल.
एस. डी. मारिजुआना,
मेस्कलीन, या कोई भी नशीली दवाई केवल तुम्हें एक
अच्छी नींद देती है, और उस अच्छी नींद में तुम सपने देखते हो।
वे सपने रंगीन हैं, और तुम्हारा जीवन इतना दरिद्र और दुखपूर्ण
है कि तुम इस दुखी जीवन में जीने के स्थान पर उन सपनों में जीना चाहोगे। अगर केवल एक
को ही चुनना हो कि इस दुखी जीवन को जीना है या कि सुंदर सपने में जीना है तो तुम सपने
को चुन लोगे। यह जीवन एक दुखस्वप्न की भांति है। अगर मादक औषधि भी तुम्हें एक जगमगाता
हुआ, रंगीन, तीन आयामी सपना देती हो तो
क्यों न उसे ले लिया जाए? क्योंकि इस जीवन में रखा ही क्या है?
क्योंकि जीवन इतना उपद्रव है, कि तुम सपनों को
चुन लेते हो।
नशीली
दवाइयां, शराब या अन्य मादक द्रव्य, सदा से धार्मिक व्यक्तियों
द्वारा इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, लेकिन उनके द्वारा तुम कभी
भी वास्तविकता में नहीं जा सकते हो। उनके द्वारा तुम जड़ता में, मूर्च्छा में गिर जाते हो, और उस पर्दा में तुम सपने
देख सकते हो। और अगर तुम परमात्मा के विषय में बहुत सोच-विचार करते रहे हो,
तो तुम्हें परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं क्योंकि तुम अपने खुद के सपनों
को प्रक्षेपित कर सकते हो। सपनों को निर्देशित किया जा सकता है उन्हें दिशा दी जा सकती
है। अगर तुम क्राइस्ट के बारे में बहुत कुछ सोचते रहे हो तो जब तुम नशीली दवा के प्रभाव
में होते हो तब तुम्हारे सामने जीसस क्राइस्ट प्रकट हो जाएंगे। यह तुम्हारा अपना मन
खेल खेल रहा है। अगर तुम कृष्ण से बहुत अधिक जुड़े हुए हो तो वह ओंठों पर बांसुरी रखे
नाचते-गाते हुए तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाएंगे। अगर कोई हिंदू कृष्ण भक्त एल. एस.
डी. ले लेता है तो वह कृष्ण के दर्शन करेगा और ईसाई जीसस के दर्शन करेगा, बौद्ध बुद्ध के दर्शन करेगा-लेकिन ये मन के प्रक्षेपण हैं।
वास्तविकता
पीड़ादायक है,
लेकिन सपनों के लिए लालायित मत होना, क्योंकि अगर
तुम सपनों का लोभ करते हो तो केवल एक ही रास्ता है. चेतन को दोबारा अचेतन बनने में
सहायता कैसे दी जाए। एक छोटा सा अंश अचेतन से ऊपर उठ गया है, और यही मनुष्य-जाति का सौंदर्य है, हर्ष और विषाद दोनों,
लेकिन यही मनुष्य का सौंदर्य है- कि विस्तृत अचेतन में वह एक द्वीप बन
गया है। इस द्वीप को और और उन्नति करते हुए इतना विकसित हो जाना चाहिए ताकि वह एक महाद्वीप
बन जाए। नशीली औषधियों के द्वारा वह फिर से जल के भीतर डूब जाएगा, तुम्हें फिर से एक पशु या वृक्ष का जीवन जीना पड़ेगा- अपने आप में सुंदर हैं,
लेकिन तुम्हारे योग्य नहीं हैं, क्योंकि तुम बहुत
कुछ खो रहे हो। और तुम्हें वास्तविकता उपलब्ध हो सकती थी, वह
द्वीप एक महाद्वीप बन सकता था। लेकिन केवल मादक औषधियां ही नहीं- चेतन के अचेतन बनने
में सहायता करने वाले और भी सूक्ष्म उपाय हैं। संगीत के माध्यम से भी वह हो सकता है,
मंत्रोच्चार से भी
हो सकता है। अगर तुम निरंतर एक मंत्र का उच्चार करो तुम्हें नींद आ जाएगी, क्योंकि एकरसता मूर्च्छा लाती है।
हो सकता है। अगर तुम निरंतर एक मंत्र का उच्चार करो तुम्हें नींद आ जाएगी, क्योंकि एकरसता मूर्च्छा लाती है।
वे
सूक्ष्म उपाय हैं,
सतह पर नशीली दवाइयों की तरह नहीं हैं। प्रत्येक मंदिर में गिरजाघर में
यही हो रहा है- और मंदिर गिरजाघर नशीली दवाइयों के विरुद्ध हैं लेकिन वे नहीं जानते
हैं कि वे क्या कर रहे हैं। वे भी सूक्ष्म मादक औषधियों का उपयोग कर रहे हैं,
भले ही वे एल. एस. डी. या मारिजुआना की तरह अपरिष्कृत नहीं हैं फिर भी
हैं मादक औषधियां- क्योंकि जब तुम एक शब्द का सतत उच्चार करते हो, यह तुम्हें सुला देता है- यह तुम्हें और कुछ नहीं दे सकता। तुम विश्रांत हो
जाते हो। उच्चार मात्र ही तुम्हें गहरी ऊब देता है। वही शब्द- राम राम, राम- तुम बोलते चले जाते हो, बोलते चले जाते हो,
बोलते चले जाते हो... तुम क्या करोगे? क्योंकि
मन केवल तभी सतर्क रहता है जब कुछ नया घट रहा हो, अन्यथा मन सो
जाता है। अगर कुछ नया घट रहा हो तो मन सतर्क रहता है। अगर कुछ नया नहीं हो रहा,
केवल राम, राम राम का उच्चार हो रहा है और तुम
जानते हो कि बार-बार अनंत बार यही होगा तो मन को नींद आने लगती है।
प्रत्येक
मां यह जानती है जब भी बच्चे को नींद न आ रही हो वह गीत की एक ही पंक्ति दोहराएगी बड़ी
सीधी सी बात है,
वह दो-तीन शब्दों को ही बार-बार दोहराएगी, एक लोरी
गाएगी। वह लोरी मंत्र का काम करती है और बच्चा सो जाता है। और मन तो वही हैं-चाहे तुम
बच्चे हो या बूढ़े इससे कोई फर्क नहीं पड़ता-- मन लोरियों से सो जाता है लेकिन प्रक्रिया
वही है।
विचार-प्रक्रिया
को रोकना ही होगा लेकिन मूर्च्छित होकर नहीं। विचार-प्रक्रिया को और अधिक सचेत, सजग सतर्क
होकर छोड़ना होगा ताकि जो ऊर्जा विचार में जा रही है वह चैतन्य में जाए और तुम्हारे
भीतर ' साक्षी ' का उदय हो। इसलिए स्मरण
रहे विचार को मंत्रोच्चार द्वारा बंद नहीं करना है बल्कि विचार-प्रक्रिया के प्रति
साक्षी होकर- उसको देखते हुए, सजगता से देखते हुए पहाड़ी पर खड़े
द्रष्टा की भांति निरीक्षण करते हुए, अवलोकन करते हुए
अगर
तुम शब्दों को गहराई से बेधक दृष्टि से देखो, तो वे तिरोहित होना शुरू हो जाते हैं।
एक खाली स्थान अंतराल आता है। बादल छंट जाते हैं और नीला आकाश दिखाई देने लगता है।
तुम सजग हो, संवेदनशील हो, मूर्च्छा में
नहीं हो। चेतना की ओर और अधिक अचेतनता को खींच लिया गया है तुम्हारी ज्योतिशिखा और
प्रज्वलित हो गई है और तेजोमयी हो गई है, और तुम ज्यादा देख सकते
हो ज्यादा स्पर्श कर सकते हो ज्यादा सूंघ सकते हो। और तुम्हारा कृत्य एक नया गुण,
दिव्यता का गुण ग्रहण कर लेता है। जब कोई बुद्धपुरुष तुम्हें छूता है,
उसका स्पर्श भिन्न होता है। तुम भी छूते हो, तुम
भी कभी-कभी फर्क महसूस करते हो। तुम बस संयोगवश किसी व्यक्ति को छू लेते हो,
लेकिन तुम अपने हाथ के माध्यम से उसमें प्रवेश नहीं करते हो। तब हाथ
मुर्दा है, बंद है तुम मुर्दा हाथ से केवल हेलो कहते हो। तुम
इसे अनुभव कर सकते हो कि हाथ देकर भी नहीं दिया गया। वह कूटनीतिपूर्ण था। हाथ सजीव
नहीं था, उसमें कोई ऊष्मा नहीं थी तुम से मिल नहीं रहा था और
तुम में लीन नहीं हो रहा था। कभी-कभी जब प्रेम में हाथ में हाथ दिया जाता है,
वह एक विलय है ऊर्जा उसके माध्यम से प्रवाहित होती है यह एक द्वार है।
हाथ के माध्यम से अस्तित्व तुम से मिलने आता है। यह गर्म है यह जीवंत है यह तुम पर
विश्वास करता है।
जब
कोई बुद्धपूरुष तुम्हें स्पर्श करता है तो यह पूरी तरह से अलग होता है उसकी गुणवत्ता
बदल गई है- क्योंकि जब कहीं चेतना समग्र परम होती है, प्रत्येक कृत्य
संपूर्ण हो जाता है। जब वह स्पर्श करता है, वह बस स्पर्श ही हो
जाता है। अब वह और कुछ भी नहीं है। उसका संपूर्ण अस्तित्व स्पर्श है वह उसमें प्रवाहित
हो जाता है। वह और कहीं भी नहीं है, वह इसी स्पर्श में है।
उस
क्षण में वह आंखें नहीं है वह कान नहीं है; उस क्षण उसका पूरा अस्तित्व स्पर्श
में बदल गया है। वह पूरा स्पर्श ही बन जाता है- और तुम्हें अनुभव होगा कि उसके स्पर्श
से तुम आलोकित हो गए हो- एक ऊर्जा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो गई है। अगर तुम इसके लिए
तैयार नहीं थे तो तुम्हें झटका भी लग सकता है। अगर तुम तैयार थे तो तुम इसमें आह्वादित
हो जाओगे, तुम उसमें आनंदित हो जाओगे।
जब
कोई बुद्धपुरुष तुम्हें देखता है वह सिर्फ आंखें ही हो जाता है अन्यथा ऐसा हो पाना
संभव नहीं है,
क्योंकि अपने भीतर वह खंडित नहीं है। जब तुम देखते हो तुम देखते तो हो
और साथ ही बहुत कुछ और भी करते हो। विचार-प्रक्रिया चलती रहती है, तुम सक्रिय बने रहते हो भीतर तुम खंडित होते हो। तुम्हारी आंखें समग्र नहीं
होतीं।
जब
कोई बुद्धपुरुष तुम्हें देखता है, उसकी आंखें समग्र होती हैं। वे प्रज्वलित सूर्य
के समान होंगी। वे तुम्हारे भीतर तक भेद जाएंगी वे तुम्हारे भीतर एक छेद कर देंगी वे
सीधे तुम्हारे हृदय में पहुंच जाएंगी। तुम फिर कभी वैसे नहीं रहोगे- अगर तुमने ऐसा
होने दिया तो। अन्यथा तुम बंद बने रह सकते हो और वह तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।
अगर वह तुम्हें छूता भी है तो वह एक मृत शरीर को ही स्पर्श करता है- तुम बंद बने रह
सकते हो।
जब
भी वहां चेतना है और कर्म है तो चेतना और कर्म मिलकर संपूर्णता को उपलब्ध हो जाते हैं।
अब
इन शब्दों को समझने का प्रयत्न करो वे अति सुंदर हैं।
वस्तुओं के यथार्थ को अस्वीकार
करना
उनकी वास्तविकता से चूक जाना है;
उनकी वास्तविकता से चूक जाना है;
यह कहना कि वस्तुएं असार है
उनकी वास्तविकता से फिर चूक जाना है।
'
वस्तुओं के यथार्थ को अस्वीकार करना '….. ऐसे दर्शनशास्त्री
हुए हैं जो वस्तुओं
के यथार्थ को इनकार करते रहे हैं। देखो हम एक ही काम दो ढंगों से कर सकते हैं...
के यथार्थ को इनकार करते रहे हैं। देखो हम एक ही काम दो ढंगों से कर सकते हैं...
एक
बहुत प्रीतिकर कहानी है। एक बार ऐसा हुआ:
महान
मुगल सम्राट अकबर ने दीवाल पर एक रेखा खींची और उसने अपने बुद्धिमान राजदरबारियों से
कहा कि वे इसे बिना छुए छोटी करें। वे उलझन में पड़ गए और
उन्होंने सोचा ' यह तो असंभव है। '
उन्होंने सोचा ' यह तो असंभव है। '
उसके
बुद्धिमान दरबारियों में एक व्यक्ति बीरबल ने इस रेखा के पास में दूसरी रेखा खींच दी
पहली रेखा को बिना छुए उससे लंबी रेखा। जब लंबी रेखा खींच दी गई तो पहली रेखा छोटी
हो गई।
अगर
तुम छोटी रेखा खींचते हो तो पहली रेखा बड़ी हो जाएगी इसलिए दो ढंग हैं। या तो तुम अस्तित्व
को बड़ा बनाओ - तब संसार छोटा और छोटा और छोटा और भी छोटा हो जाता है एक घड़ी आती है
जब तुम्हारा अस्तित्व संपूर्ण हो जाता है ब्रह्म हो जाता है संसार विलीन हो जाता है
तब वहां पर कोई संसार नहीं है। फिर एक दूसरा ढंग है और दूसरा सिर्फ धोखा है तुम निरंतर
कहते रहते हो कि जगत मिथ्या है माया है यह है ही नहीं। तुम संसार की वास्तविकता को
निरंतर अस्वीकार करते रहते हो और स्वयं को विश्वास दिलाते रहते हो कि यह नहीं है यह
नहीं है यह वास्तविक नहीं
है यह स्वप्नवत है। इसलिए तुम स्वयं को समझा लेते हो कि यह संसार एक स्वप्न है तुम अनुभव करते हो कि अब तुम वास्तविक हो लेकिन यह अनुभूति सत्य नहीं है। यह एक धोखा है।
है यह स्वप्नवत है। इसलिए तुम स्वयं को समझा लेते हो कि यह संसार एक स्वप्न है तुम अनुभव करते हो कि अब तुम वास्तविक हो लेकिन यह अनुभूति सत्य नहीं है। यह एक धोखा है।
दर्शनशास्त्र
सदा यही करता है यह कहे चला जाता है कि जगत सत्य नहीं है। तुम वेदांतियो के पास जाओ-
शंकराचार्य को यह भिन्न रूप से घटित हुआ था। शंकराचार्य को अपनी सत्ता का साक्षात अनुभव
हुआ था वे असीम हो गए थे तब संसार विलीन हो गया था, क्योंकि दो अनंतताएं नहीं हो
सकतीं। अगर तुम असीम हो जाते हो तो संसार विलीन हो जाता है। वह समाहित हो जाता है क्योंकि
दो असीमताएं संभव नहीं हैं, केवल एक असीमता' होनी संभव है।
शंकर
असीम हो गए, ब्रह्म हो गए, परम हो गए थे तब वे कह सके कि जगत माया
है और वे ठीक थे। लेकिन वह कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं था, यह
एक धार्मिक अनुभूति थी। उन्होंने अनुभव किया कि संसार नहीं है। लेकिन फिर अनुयायियों
ने इस गीत को पकड़ लिया और वे उसे एक हजार वर्ष से अधिक समय से इसे गा रहे हैं। वे कहते
हैं कि जगत भ्रांति है यह माया है, वह है नहीं ऐसा केवल प्रतीत
होता है।
दर्शनशास्त्र
के द्वारा तुम एक विश्वास तक पहुंच सकते हो, हां, तुम नकारते
जा सकते हो, तुम्हें स्वयं को विश्वास दिला सकते हो कि वह नहीं
है, तुम प्रमाण और तर्क खोजने की चेष्टा कर सकते हो कि यह माया
है। और यदि तुम अपने मन को विश्वास दिला सको कि यह माया है, तुम्हें
अनुभव होगा झूठा अनुभव होगा कि तुम ब्रह्म हो गए हो।
तुम्हारा
ब्रह्म हो जाना आवश्यक है तब यह जगत माया हो जाता है दूसरे ढंग से ऐसा नहीं होता है।
अगर जगत माया हो जाता है तो तुम कैसे ब्रह्म होओगे? और तुम सोचते हो कि यह माया
नहीं बन सकता क्योंकि यह केवल एक धारणा है।
वेदांती
लोग कहे चले जाते हैं कि संसार माया है लेकिन उनकी ओर देखो। उनके ऊपर एक पत्थर फेंक
दो और वे क्रोधित हो जाएंगे वे तुम्हारे साथ झगड़ना शुरू कर देंगे। संसार माया नहीं
है. केवल उनके पास एक धारणा है, एक दर्शनशास्त्र है और दर्शनशास्त्री बहुत चालाक
हो सकते हैं।
एक
बार ऐसा हुआ '
नागार्जुन का एक अनुयायी... नागार्जुन उन महान रहस्यदर्शियों में से
एक है जिन्हें भारत ने जन्म दिया है। उन्हें अपनी अनंत सत्ता का साक्षात हुआ था- जगत
मिट गया था। तब अनुयायी आए, और अनुयायी तो सदा कार्बनकॉपी होते
हैं होंगे ही, जब तक वे स्वयं वास्तविकता में प्रवेश का प्रयत्न
नहीं करते और गुरु के शब्दों को विश्वास नहीं बना लेते हैं।
सदगुरु
के शब्द तो मात्र प्रेरणा देते हैं उकसाते हैं सहायता करते हैं लेकिन उनको एक विश्वास
की तरह से नहीं लिया जाना चाहिए नहीं तो शब्द एक दर्शनशास्त्र बन जाएंगे। तुम्हें स्वयं
इनका अनुभव करना होगा। और जब तुम अनुभव कर लेते हो केवल तभी तुम कह सकते हो ही सदगुरु
सत्य था। तुम पहले से ऐसा कैसे कह सकते थे? लेकिन दार्शनिक ढंग से सिर हिला कर
हामी भरना सरल है।
अनुयायी
बन गए और उनमें से एक अनुयायी- जो महान दार्शनिक था और बहुत तर्क-वितर्क वाला व्यक्ति
था- उसने कई ढंगों से यह सिद्ध किया कि संसार सत्य नहीं है। उस देश के सम्राट ने उसे
आमंत्रित किया क्योंकि उसका नाम राजदरबार तक पहुंच गया था और सम्राट ने कहा क्या वास्तव
में तुम सोचते हो कि संसार असत्य है? फिर सोच लो, क्योंकि
मैं बहुत खतरनाक व्यक्ति हूं। और मैं शब्दों से खेलने वाला व्यक्ति नहीं हूं मैं कर्म
में विश्वास करता हूं। मैं कुछ ऐसा करूंगा जिससे प्रमाणित होगा कि जगत मिथ्या नहीं
है। इसलिए दुबारा सोच लो।
उस
व्यक्ति ने कहा दुबारा सोचने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैंने लाखों बार सोच लिया है
और मेरे पास प्रमाण है कि जगत मिथ्या है।
लेकिन
वह दर्शनशास्त्री भी नहीं जानता था कि सम्राट क्या करने जा रहा है। उसके पास एक पागल
हाथी था। तो पागल हाथी को मैदान में लाया गया। और उस दर्शनशास्त्री को भी उसी मैदान
में फेंक दिया गया। वह तो चिल्लाने लगा और दौड़ने लगा पागल हाथी उसके पीछे पड़ा था। पागल
हाथी ने उसे दबोच लिया। उस समय वह सम्राट से कहने लगा मुझे बचाइए! यह हाथी सत्य है।
मैं अपना वक्तव्य वापस लेता हूं।
उसे
बचा लिया गया। सम्राट ने फिर उसे बुलवाया-जब वह होश में आ गया- क्योंकि वह कांप रहा
था, उसे पसीना छूट रहा था और उसका सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया था, जगह-जगह से खून रिस रहा था। सम्राट ने कहा अब तुम क्या कहते हो?
उसने
उत्तर दिया जगत मिथ्या है।
सम्राट
ने कहा क्या मतलब है तुम्हारा? जिस क्षण हाथी तुम्हें मार ही डालने वाला था,
तब तुमने कहा कि जगत सत्य है। अब तुम फिर से बात बदल रहे हो?
उस
दार्शनिक ने कहा वह हाथी वह आदमी वह आग्रह सब मिथ्या हैं। वह हाथी उस हाथी का पागलपन
वह आदमी जिस को आप अपने सामने देख रहे हैं, वह आदमी जिसने आग्रहपूर्वक कहा था कि
जगत सत्य है-सभी मिथ्या हैं।
सम्राट
ने कहा तब मैं फिर से उस पागल हाथी को बुलवाता हूं।
और
दार्शनिक ने कहा फिर वही सब दोबारा से होगा। मैं कह दूंगा कि यह सत्य है। लेकिन फिर
मैं क्या कर सकता हूं?
दर्शनशास्त्र
बहुत चालाक हो सकता है। तुम अपने साथ खेल-खेल सकते हो और तुम स्वयं को यह विश्वास दिला
सकते हो कि जगत मिथ्या है। लेकिन इस बात को सिद्ध करने की और विश्वास दिलाने की क्या
आवश्यकता है?
आवश्यकता पड़ती है क्योंकि तुम जानते नहीं हो। जब तुम जान लेते हो तब
मनवाने का, सिद्ध करने का तर्क देने का प्रश्न ही नहीं उठता।
दर्शनशास्त्र ज्ञान का विकल्प है। अगर तुम जानते ही हो तो दर्शनशास्त्र की कोई आवश्यकता
नहीं है। अगर तुम नहीं जानते तब जरूरत है क्योंकि दर्शनशास्त्र के माध्यम से प्राप्त
ज्ञान वास्तविक ज्ञान के समान प्रतीत होता है।
यह
सिद्ध करने का प्रश्न नहीं है कि संसार मिथ्या है। यह सूत्र कहता है ' वस्तुओं के
यथार्थ को अस्वीकार करना उनकी वास्तविकता से चूक जाना है '... और उनकी वास्तविकता परमात्मा है उनकी वास्तविकता सत्य है। एक वृक्ष है अगर
तुम वृक्ष के यथार्थ को अस्वीकार करते हो तो तुमने उसके भीतर छिपे परमात्मा को अस्वीकार
कर दिया है उसके भीतर के सत्य को अस्वीकार कर दिया है। वृक्ष बस एक तथ्य है एक तथ्य
सत्य के ऊपर एक आवरण है। पक्षी एक और तथ्य है लेकिन सत्य वही है। सत्य कभी पक्षी के
रूप में प्रकट होता है कभी वृक्ष के रूप में कभी एक चट्टान के रूप
में कभी मनुष्य के रूप में। ये सभी रूप हैं।
में कभी मनुष्य के रूप में। ये सभी रूप हैं।
तथ्य
रूप हैं लेकिन अगर तुम और गहरे जाओ तो प्रत्येक तथ्य में सत्य है। अगर तुम सब रूपों
को अस्वीकार करते हो तो तुमने उनके भीतर छिपे निराकार को इनकार कर दिया है। अगर तुम
कहते हो कुछ भी सत्य नहीं है तो फिर दिव्य परमात्मा कैसे सत्य हो सकता है? अगर तुम कहते
हो यह संसार माया है तब इस मायारूपी संसार का सष्टा कैसे सत्य हो सकता है? और एक सत्य परमात्मा मिथ्या जगत का सृजन कैसे कर सकता है? यह असंभव है क्योंकि सत्य से ही सत्य निकलता है और मिथ्या से मिथ्या निकलता
है। एक सत्य परमात्मा मिथ्या जगत की रचना नहीं कर सकता है। और यदि जगत असत्य है तो
सष्टा भी असत्य है। अगर तुम तथ्यात्मकता को
अस्वीकार करते हो तो तुम सत्य को अस्वीकार कर देते हो।
अस्वीकार करते हो तो तुम सत्य को अस्वीकार कर देते हो।
सोसान
का सूत्र कहता है '
वस्तुओं के यथार्थ को अस्वीकार करना उनकी वास्तविकता से चूक जाना है
' - और वह यथार्थ ही सत्य है- ' यह कहना
कि वस्तुएं असार हैं उनकी वास्तविकता से फिर चूक जाना है। '
अगर
तुम कहते हो कि वस्तुए हैं लेकिन वे सारहीन हैं वह भी एक दार्शनिक दृष्टिकोण है-पहले
से थोड़ा बेहतर। पहला कहता है कि सारा जगत ही मिथ्या है वह नहीं है, उसका अस्तित्व
नहीं है, वह केवल तुम्हारे मन में है वह और कहीं नहीं है;
वह मन का प्रक्षेपण है, वह एक विचार है वह एक स्वप्न
के समान है।
एक
दूसरा दर्शन जो थोड़ा बेहतर है कहता है वस्तुएं हैं लेकिन वे असार हैं।
उनके
भीतर कोई आत्मा नहीं है वे सारवान नहीं हैं। वे मृत हैं भीतर से खाली हैं। वे जोड़ के
अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं,
कोई आत्मा वहां नहीं है। वृक्ष का अस्तित्व है लेकिन एक जोड़ की तरह है
वृक्ष के पास कोई आत्मा नहीं है। अगर तुम जोड़ को अलग-अलग कर दो तो वहां कुछ नहीं बचेगा।
वह केवल एक यांत्रिक संरचना की तरह है अगर तुम मशीन के सब कल पुरजों को निकाल दो तो
पीछे कुछ भी नहीं बचता है।
वह
भी सत्य नहीं है क्योंकि वृक्ष का अस्तित्व इसलिए नहीं है कि वह पदार्थ का संयोजन है, बल्कि इसलिए
कि वह एक जीवंत प्राणी है। एक चट्टान में भी प्राण हैं, जब तुम
संवेदनशील और सजग हो जाते हो तब तुम देखोगे कि चट्टान की भी भावदशा! होती हैं। कभी
वह प्रसन्न होती है और तब तुम उसकी प्रसन्नता को अनुभव कर सकते हो कभी वह अप्रसन्न
होती है और तुम चट्टान की अप्रसन्नता को महसूस कर सकते हो; और
कभी वह गा रही होती है और तुम उसके गीत को सुन सकते हो।
लेकिन
तुम्हें अधिक संवेदनशीलता की आवश्यकता है) क्योंकि अभी तो तुम एक बुद्धपुरुष का गीत
भी नहीं सुन सकते- तुम एक चट्टान का गीत कैसे सुन सकोगे? तुम बहरे और
अंधे हो, तुम संवेदनाशून्य और मतिमंद हो।
तुम
सचेतन नहीं हो। तुम्हारी चेतना इतनी कम है कि दैनिक कार्यों और नित्यकर्मों में ही
समाप्त हो जाती है। तुम इतने ही चेतन हो कि तुम राह पर बिना किसी दुर्घटना के अपने
ऑफिस पहुंच जाते हो और घर वापस लौट आते हो बस तुम उतने ही चेतन हो। लेकिन तुम किसी
चट्टान को तुम किसी वृक्ष को महसूस नहीं कर सकते।
अब
वैज्ञानिक यह खोज कर रहे हैं कि पेड़ों के पास इतनी अधिक संवेदनशीलता होती है जिसकी
तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो। वृक्ष उन लोगों का स्वागत करते हैं जिनमें मित्र- भाव
है और उनके प्रति बंद हो जाते हैं जिनमें शत्रु- भाव है। अगर माली आता है और केवल काट-छांट
ही करता रहता है तो वृक्ष उसके प्रति बंद हो जाते है। माली के आने से पहले ही... जैसे
ही वह प्रवेश करता है सारा बगीचा बंद हो जाता है क्योंकि शत्रु आ रहा है।
एक
वैज्ञानिक जो बहुत गहनता से अध्ययन कर रहा था उसने पाया कि वृक्ष केवल तुम्हारे कृत्यों
के ही नहीं तुम्हारे विचारों के प्रति भी सचेत हो जाते हैं। वह एक पौधे पर प्रयोग कर
रहा था। पौधा तारों के साथ बहुत सूक्ष्म यंत्रों से जुड़ा था ताकि यह निश्चित किया जा
सके कि उसके भीतर क्या घट रहा है। और उसने सोचा ' अगर इस क्षण मैं अचानक पौधे
को आधा काट दूं तो क्या होगा?' और यंत्र की सुई बहुत तेजी से
कांपने लगी- पौधे ने विचार को ग्रहण कर लिया था।
फिर
उसने कई प्रयोग किए। उसने पौधे को काटा भी नहीं था उसे कोई हानि नहीं पहुंचाई थी- केवल
विचार! जब भी विचार किया सुई दिखा देती थी कि पौधा बहुत चिंतित और क्रोधित है। केवल
इतना ही नहीं अगर तुम एक पौधे को काटते हो तो पड़ोसी पौधे भी उदासी चिंता, क्रोध घबड़ाहट
प्रकट करेंगे। अब तो ऐसे यंत्र हैं जो बता सकते हैं कि पौधे के भीतर क्या घटित हो रहा
है और देर- अबेर ऐसे यंत्र भी तैयार हो जाएंगे जो बता पाएंगे कि चट्टान के भीतर क्या
घट रहा है।
सब-कुछ
सजीव है कुछ असार नहीं है। सब-कुछ चेतना से परिपूरित है-अलग-अलग प्रकार की चेतना से-
इसी कारण तुम उनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकते। चेतना की भिन्न-भिन्न भाषाओं के कारण
यह कठिन है। पेड़ की चेतना अलग प्रकार की है, चट्टान की बिलकुल अलग है। उनके साथ
संवाद कर पाना कठिन है क्योंकि भाषाएं भिन्न हैं, लेकिन अगर तुम
और अधिक सतर्क सचेत हो जाते हो और तुम्हारा चित्त विचारों से भरा नहीं है तब तुम चट्टान
से भी संपर्क जोड़ सकते हो। कुछ भी खाली नहीं है प्रत्येक के भीतर अपनी स्वयं की आत्मा
है।
हिंदू
सदा से जानते हैं कि सबके भीतर परमात्मा है। इसीलिए वे नदी की पूजा कर सकते हैं वे
वृक्ष की पूजा कर सकते हैं क्योंकि वे कहते हैं ' यह वृक्ष का देवता नदी का देवता
चट्टान का देवता। ' इस जगत में सब-कुछ परमात्मा से पूरित है,
कुछ भी असार नहीं है।
एक
बार तुम कह देते हो कि चीजें असार हैं फिर से तुम उनकी वास्तविकता से चूक जाते हो।
लेकिन दार्शनिक यह सिद्ध करने का प्रयत्न क्यों करते हैं कि चीजें नहीं हैं या चीजें
असार हैं? वे प्रयत्न कर रहे हैं, क्योंकि अगर यह सिद्ध किया जा
सके कि चीजें सारहीन हैं तो उनकी तुलना में तुम भरे हुए होते हो-तुम और अधिक भरे हुए
हो जाओगे। चारों ओर खालीपन से घिरे रह कर तुम भरे हुए हो जाते हो।
लेकिन
यह नकली उपाय है। तुम भर जाओ। तुलना करने वाली यह तरकीब सहायता नहीं करेगी। जब तुम
प्रेम, सजगता, ध्यान से परिपूर्ण हो जाते हो तो तुम्हें ऐसा
नहीं लगेगा कि संसार असार है। वास्तव में क्योंकि तुम खाली हो, प्रत्येक वस्तु खाली दिखाई देती है। क्योंकि तुम रिक्त आंखों से देखते हो,
सब-कुछ रिक्त हो जाता है-तुम स्वयं को वस्तुओं में ले आते हो।
अगर
तुम्हारे भीतर प्रेम नहीं है, तो तुम्हें लगेगा कि संसार में कोई प्रेम नहीं है।
अगर तुम्हारे पास हृदय है जो प्रेम से धड़कता है, तो तुम्हें उस
धड़कन का अहसास सभी तरफ, चारों ओर होगा-वृक्षों से गुजरती हुई
हवाओं में, सागर की ओर बहती नदी में। तुम्हें सब कहीं प्रेम की
अनुभूति होगी। तुम उसे अनुभव करने में समर्थ होओगे। तुम केवल उसे ही अनुभव कर सकते
हो जो तुम्हारे पास है, अन्य कुछ भी अनुभव नहीं किया जा सकता।
दर्शनशास्त्र
सापेक्षिक रूप से अनुभव करने की एक चालबाजी है। और हम सब इसका शिकार हो जाते हैं क्योंकि
हम सब उस चालबाजी में निपुण हैं। यही कारण है कि जब कोई कहता है कि तुम्हारा पड़ोसी
एक दुष्ट, अनैतिक व्यक्ति है तुम शीघ्र विश्वास कर लेते हो- क्योंकि यदि वह दुष्ट है
अनैतिक है तो तुम अनायास ही सदाचारी और भले आदमी हो जाते हो। अगर कोई कहता है कि तुम्हारा
पड़ोसी बहुत नैतिक साधु-महात्मा व्यक्ति है इस पर तुम विश्वास नहीं कर पाते। तुम कहते
हो, ' प्रमाण दो! तुम्हारे पास क्या प्रमाण हैं? किस आधार पर तुम ऐसा कह रहे हो? मैं उसे भलीभांति जानता
हूं वह मेरा पड़ोसी है। वह ऐसा कुछ भी नहीं है। ' क्यों?
जब
कभी कोई दूसरे के विरोध में कुछ कहता है तुम शीघ्र इस पर विश्वास कर लेते हो, तुम कभी इस
पर प्रश्न नहीं उठाते। इसीलिए गपशप इतनी अधिक चलती है। लेकिन जब कभी कोई किसी के समर्थन
में कुछ कहता है, तुम शीघ्र सतर्क हो जाते हो। क्यों?
क्योंकि अगर वह इतना अच्छा है तो अचानक तुम बुरे हो जाते हो। अगर कोई
साधु है तब तुम कौन हो? तुम मूढ़ हो। अगर कोई पुण्यात्मा है तो
तुम पापी हो। हो सकता है तुम इस चालाकी के प्रति सजग न होओ लेकिन खेल इसी तरह चलता
रहता है।
दो
उपाय हैं : या तुम संत हो जाओ या यह सिद्ध करो कि सभी पापी हैं। दर्शनशास्त्र
यही चालाकी करता चला जाता है। तुम जो भी होना चाहते हो तुम उसे संसार के लिए इनकार करते हो। लेकिन इससे कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम अपने सिवाय और किसी को धोखा नहीं दे रहे हो।
यही चालाकी करता चला जाता है। तुम जो भी होना चाहते हो तुम उसे संसार के लिए इनकार करते हो। लेकिन इससे कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम अपने सिवाय और किसी को धोखा नहीं दे रहे हो।
सोसान
का सूत्र कहता है:
वस्तुओं के यथार्थ को अस्वीकार करना,
उनकी वास्तविकता से चूक जाना है;
यह कहना कि वस्तुएं असार है
उनकी वास्तविकता से फिर चूक जाना है।
जितना तुम सत्य के विषय में
बोलते और सोचते हो
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
विचार
करना दूर चले जाना है भटक जाना है। जब भी तुम किसी के विषय में सोचते हो तत्काल तुमने
दूर जाना प्रारंभ कर दिया है। मैं यहां हूं, तुम मेरे साथ हो सकते हो- लेकिन अगर
तुम मेरे बारे में सोचना शुरू कर दो तो तुम एक यात्रा पर निकल जाते हो जो आगे और आगे
बढ़ती चली जाती है और तुम जितना अधिक विचार में पड़ोगे उतना ही तुम दूर हो जाओगे। विचार
करना वास्तविकता से पलायन का मार्ग है, वह तुम्हें एक भीतरी दिशा
देता है वह तुम्हारे लिए मन में एक मार्ग बनाता है और तुम उस पर चल पड़ते हो।
कोई
विचारक कभी यहीं और अभी नहीं होता वह कभी वर्तमान में नहीं होता वह हमेशा कहीं और होता
है। एक ध्यानी हमेशा यहां और अभी होता है वह कहीं और नहीं होता। यही कारण है कि विचार
करना ध्यान में एक मात्र अवरोध है। तुम्हें सजग हो जाना पड़ता है और धीरे- धीरे तुम
जितना सजग होते जाते हो उतना ही तुम विचार के साथ सहयोग करना बंद कर देते हो।
मैं
तुम्हें एक गुलाब लाकर देता हूं और तुम सोचना शुरू कर देते हो। मन तुरंत इस सदी के
ब्रिटेन के महान दार्शनिकों में से एक जी. ई. मूर ने एक पुस्तक लिखी है ' प्रिंसिपिआ
ईथिका यह पुस्तक क्या अच्छा है इसको परिभाषित करने के श्रेष्ठतम तार्किक प्रयासों में
से एक है। दो-तीन सौ पृष्ठों में बहुत सघन तार्किक विवेचना के बाद वह कहता है कि क्या
अच्छा है यह परिभाषित कर पाना कठिन है। अंत में वह कहता है कि यह अपरिभाष्य है- लेकिन
तर्क-वितर्क के दो-तीन सौ पृष्ठों के बाद।
प्रखर
बुद्धि वाले व्यक्तियों में से एक इस तरह से या उस तरह से प्रयत्न करता है और प्रयत्न
करता चला जाता है वह इस द्वार को खटखटाता है और उस द्वार को खटखटाता है। और वह इस निष्कर्ष
पर पहुंचता है कि शुभ अपरिभाष्य है- क्यों? वह कहता है कि यह एक साधारण गुण है,
बस पीले रंग की भांति। तुम पीले रंग को कैसे परिभाषित करते हो?
अगर कोई तुमसे पूछे, पीला क्या है? तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे पीला रंग पीला है। तुम
इसको कैसे परिभाषित करोगे?
एक
गुलाब बस एक गुलाब है बस एक गुलाब। तुम इसकी कैसे परिभाषा करोगे? अगर तुम कहते
हो कि यह सुंदर है तो क्या तुम जानते हो कि सौंदर्य क्या है? क्या कभी किसी ने इसकी परिभाषा दी है? नहीं, वे कहते हैं कि सौंदर्य अपरिभाष्य है। अगर तुम इसकी दूसरे गुलाबों के साथ तुलना
करो... क्या तुम्हें पता है कि प्रत्येक वस्तु अतुलनीय है? तुम
इसकी दूसरे गुलाबों के साथ कैसे तुलना कर सकते हो? यह गुलाब सिर्फ
यही गुलाब है यह कोई दूसरा गुलाब नहीं है। तुम दूसरे गुलाबों को बीच में क्यों लाते
हो?
और
जब तुम दूसरे गुलाबों को बीच में लाते हो तुम्हारे मन में सब गड़बड़ हो जाता है फिर तुम्हारे
मन में कई बातें होती हैं और वे रुकावट बन जाएंगी। और यह गुलाब तुम तक पहुंच ही नहीं
पाएगा। और यहां पर कुछ वास्तविक था- वह तुम्हारे भीतर गहराई तक पहुंच गया होता इसकी
सुगंध तुम्हारे भीतर तक चली गई होती। यह गुलाब तुम्हारे हृदय पर दस्तक देने को तैयार
था लेकिन तुमने उसके बारे में विचार करना आरंभ कर दिया। और जब तक तुम वापस आते हो वह
गुलाब वहां पर नहीं होगा,
क्योंकि गुलाब प्रतीक्षा नहीं करेगा- वह मुर्झा चुका होगा। उसके पास
एक संदेश था, वह
अपने साथ अज्ञात का कुछ लेकर आया था। लेकिन अज्ञात नाजुक है वह सदा बना नहीं रह सकता है।
अपने साथ अज्ञात का कुछ लेकर आया था। लेकिन अज्ञात नाजुक है वह सदा बना नहीं रह सकता है।
वह
उस पार की कुछ खबर लेकर आया था- प्रत्येक गुलाब लेकर आता है। प्रत्येक सुबह वह आता
है तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है लेकिन तुम महान विचारक हो। कुछ अज्ञात का दिव्य
का समयातीत का गुलाब के माध्यम से समय में प्रवेश करता है लेकिन अगर तुम सोच-विचार
करते हो तो तुम चूक जाते हो, क्योंकि सोच-विचार करने में तुम भटक जाते हो तुम
पहले ही दूर जा चुके हो।
कहता
है सुंदर! मैंने ऐसा सुंदर गुलाब कभी नहीं देखा! या मैंने ठीक इसी तरह के दूसरे दर्शनशास्त्री
गुलाब के विषय में सोच-विचार करता है। कवि गुलाब को महसूस कई गुलाब देखे हैं और तुम
सोचते चले जाते हो। और फिर तुम्हारा मन यह प्रश्न उठा। करता है। और अगर तुम्हें निर्णय
करना हो तो हमेशा कवि के पक्ष में निर्णय करना। वह सकता है सौंदर्य क्या है? कोई नहीं जानता
है कोई किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा है। वास्तविकता को दार्शनिक से बेहतर ढंग से स्पर्श
करता है। और रहस्यदर्शी वह न तो सोच-विचार करता है, न ही अनुभव
करता है-वह गुलाब की उपस्थिति में बस ठहर जाता है। क्योंकि अनुभव करना भी दूर चले जाना
है- इतना दूर नहीं जितना सोच-विचार
चला जाता है, लेकिन अनुभव करना भी दूर चले जाना है क्योंकि अनुभव करना भी एक सूक्ष्म कृत्य है।
चला जाता है, लेकिन अनुभव करना भी दूर चले जाना है क्योंकि अनुभव करना भी एक सूक्ष्म कृत्य है।
रहस्यदर्शी
सिर्फ गुलाब की उपस्थिति में रहता है. कोई कृत्य नहीं, कोई सोच- विचार
नहीं कोई अनुभूति नहीं, न हृदय, न सिर।
वह सिर्फ गुलाब के साथ वहां है। हिंदू इसको सत्संग कहते हैं। जब कभी व्यक्ति का गुलाब
होता है- कोई बुद्ध, कोई सदगुरु होता है, तुम बस उसके साथ बने रहते हो। तुम सोच-विचार नहीं करते, तुम अनुभव नहीं करते। तुम बस उसके साथ रहते हो, सिर्फ
उसके साथ में-तुम उसकी संगति में होते हो। इसको हिंदू सत्संग कहते हैं- सत्य के साथ
रहना। सत्संग शब्द का अर्थ है नई- सत्य की उपस्थिति में होना।
एक
गुलाब है-तुम उसके साथ हो रहो। किसी भी स्थूल क्रिया या सूक्ष्म किया को मत करो। विचार
करना बहुत ही ठोस क्रिया है, अनुभूति सूक्ष्म क्रिया है- लेकिन तुम जानते हो
कि अनुभूति विचार में बदल सकती है और विचार करना अनुभूति में बदल सकता है। वे परिवर्तनीय
हैं, वे एक-दूसरे से बहुत दूर नहीं हैं। अनुभूति विचार की राह
पर है, हो सकता है बीजरूप में हो या बस अभी अंकुरित हो रही हो
हो; और विचार वृक्ष है, लेकिन प्रक्रिया
अलग नहीं है। हृदय और सिर बहुत दूर नहीं हैं। बातें हृदय से शुरू होती हैं और इसके
पहले कि तुम सचेत हो पाओ वे तुरंत सिर में पहुंच जाती हैं।
बस
साथ भर होने से फिर सभी कुछ प्रकट हो जाता है फिर सब द्वार खुल जाते हैं। फिर कोई प्रश्न
नहीं कोई उत्तर नहीं। तुम सत्य के साथ बस एक हो गए हो। विचार- और तुम अलग हो। अनुभूति-
इतनी अलग नहीं,
फिर भी अलग है, साथ जुड़ी हुई, लेकिन फिर भी अलग।
न
विचार न अनुभूति बस साथ भर होने से और अचानक तुम वहां नहीं होते और संसार भी वहां नहीं
होता। एक ब्रह्म प्रकट हो जाता है। तुम और संसार दोनों एक हो गए होते हो। वह एक अनंत
वहां पर होता है निराकार वहां है- और वही सत्य है।
सत्य
कोई दर्शनशास्त्रीय निष्कर्ष नहीं है यह एक अस्तित्वगत अनुभव है। यह न तो विचार है
और न ही अनुभूति,
यह अस्तित्वगत है अपने समग्र अस्तित्व सहित तुम उसके साथ हो।
जब
पानी की बूंद सागर में गिरती है चाहे वह सिर के साथ गिरे, या हृदय के
साथ
गिरे वह पूरी तरह से गिर जाती है-हृदय सिर सभी कुछ, अच्छा-बुरा सभी कुछ; महात्मा पापी सभी कुछ-वह पूरी तरह से गिर जाती है।
गिरे वह पूरी तरह से गिर जाती है-हृदय सिर सभी कुछ, अच्छा-बुरा सभी कुछ; महात्मा पापी सभी कुछ-वह पूरी तरह से गिर जाती है।
न
तो महात्मा लोग दिव्यता को जान सकते हैं क्योंकि वे कुछ अधिक अच्छे हैं और उनकी अच्छाई
ही बाधा बन जाती है और न ही पापी क्योंकि वे सोचते हैं कि वे बहुत बुरे हैं और उनकी
बहुत बुराई बाधा बन जाती है। वह व्यक्ति जो न तो महात्मा है, न ही पापी
है, न यह है, न वह, वह व्यक्ति जिसने कोई चुनाव नहीं किया है वह जो किसी बात का दावा नहीं करता
है कि मैं यह हूं या वह हूं वह जो बस उसकी उपस्थिति में रहता है दिव्यता को जान सकता
है।
और
तुम्हें हिमालय पर जाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि तुम चट्टान के साथ रह सकते
हो और घटना घट जाएगी तुम्हें मंदिर जाने की भी आवश्यकता नहीं है। तुम वृक्ष के साथ
रह सकते हो और घटना घट जाएगी। तुम्हें वृक्ष के पास जाने की भी आवश्यकता नहीं तुम स्वयं
के साथ बने रह सकते हो और घटना घट जाएगी- क्योंकि वह सब जगह है। प्रत्येक परमाणु उसके
साथ आदोलित होता है, प्रत्येक परमाणु उसके साथ उत्सव मनाता है।
सभी कुछ और कुछ भी नहीं है, बल्कि यही है।
जितना तुम सत्य के विषय में
बोलते और सोचते हो,
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
उतना ही तुम उससे दूर भटक जाते हो।
बोलना और सोचना छोड़ दो,
तो फिर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम न जान सकोगे।
निर्विचार
होना द्वार है। निःशब्द होना द्वार है। अ-मन मार्ग है।
इसे
कैसे उपलब्ध किया जाए?
इसे प्राप्त करने के लिए तुम क्या करोगे? केवल
इसे सुनने से मदद नहीं मिलने वाली है, क्योंकि मन बहुत चालाक
है। मन इसके बारे में विचार करने लगेगा कि सोसान क्या कह रहा है; मन सोचना शुरू करेगा और इसके चारों ओर सिद्धांतों का जाल बुनना शुरू कर देगा।
मन कहेगा, हां, यह ठीक प्रतीत होता है।
लेकिन मन कहेगा, यह ठीक लगता है, और तुम
भटक गए। मन कहेगा, नहीं, यह कठिन मालूम
होता है, असंभव लगता है। तुम विचार करना कैसे छोड़ सकते हो?
और तुम भटक गए। मन की सुनो और तुम कभी सत्य के निकट नहीं होते हो। मन
की सुनो और तुम सदा यात्रा पर रहोगे।
मैंने
एक महिला के विषय में सुना है, वह एक दर्शनशास्त्री एक विचारक थी, उसने बहुत सी पुस्तकें लिखी थीं वह बहुत प्रसिद्ध थी। और फिर उसने अचानक अपने
मित्रों को बताया कि वह विवाह करने जा रही है।
किसी
ने उसके प्रेम-संबंधों के बारे में कभी कोई अफवाह भी नहीं सुनी थी, क्योंकि जो
लोग सोचते हैं वे कभी प्रेम नहीं करते। किसी ने यह कभी नहीं सोचा था कि वह विवाह करेगी,
इसलिए वे बहुत हैरान हुए।
उन्होंने
कहा. यह आदमी कौन है?
तब
उसने नाम बताया- वे और भी हैरान हुए। उन्होंने कहा तुमने उस आदमी में क्या देखा है?
एक
अति साधारण व्यक्ति - और वह एक सुविख्यात महिला। वह युनिवर्सिटी में प्रोफेसर थी उसने
कई किताबें लिखी थीं देश भर में उसका नाम था। ' उस व्यक्ति के साथ? क्यों, तुमने उसमें क्या देखा है?'
उस
महिला कहा: एक ही अच्छी बात-वह यात्रा पर रहने वाला विक्रेता है। वह कभी यहां नहीं
होगा, वह सदा यात्रा करता रहेगा। विचारक सदा यात्रा करने वाले विक्रेता के साथ विवाह
करते हैं। वह कभी यहां नहीं होगा और मैं विचार करने के लिए और अपने काम करने के लिए
स्वतंत्र रहूंगी।
मन
के साथ विवाह करने का अर्थ सेल्समैन के साथ विवाह, एक यात्रा पर रहने वाले विक्रेता
के साथ विवाह करना है जो हमेशा यात्रा पर रहता है। और इस मन के कारण जो सदा यात्रा
पर रहता है, तुम कभी वास्तविकता के संपर्क में नहीं आ सकते। तुम
खाते हो लेकिन तुम खाने को चूक जाते हो। सुगंध, स्वाद,
उसकी गंध- तुम उनसे चूक जाते हो। तुम बस भोजन को अंदर डाल लेते हो। यह
कुरूप है। लेकिन तुम क्यों चूक जाते हो? क्योंकि मन सोचता रहता
है, खाते समय तुम हजार बातें सोचते रहते हो।
रिंझाई
कहता है जब मैं खाता हूं मैं केवल खाता हूं और जब मैं सोता हूं मैं केवल सोता हूं।
किसी
ने कहा लेकिन उसमें कुछ विशेष बात नहीं, हर कोई ऐसा ही कर रहा है। रिंझाई हंसा
और उसने कहा अगर हर कोई ऐसा कर रहा है तो फिर हर व्यक्ति बुद्ध है, हर व्यक्ति आत्मोपलब्ध है।
भोजन
कर रहे हो, बस भोजन करो। इसके साथ हो रहो। चल रहे हो, बस चलो,
वहीं होओ। आगे मत जाओ, इधर-उधर छलांग मत लगाओ।
मन हमेशा ही आगे चला जाता है या पीछे लौटता है। उस क्षण में रहो।
शुरू-शुरू
में उसी क्षण में बने रहना बहुत कठिन होगा। और कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि वह क्षण
बहुत खुशी का न हो। तुम क्रोधित हो, तब मन पश्चाताप के विषय में सोचना शुरू
कर देगा या फिर कुछ ऐसा करने की चेष्टा करेगा ताकि फिर कभी क्रोध न आए। कभी तुम उदास
हो, तुम रेडियो या टी. वी. खोल लेते हो, तुम कोई पुस्तक पढ़ने लगते हो, क्योंकि तुम उदास नहीं
होना चाहते। तुम मन को कहीं और लगाना चाहते हो। और क्योंकि दुख के क्षण सुख के क्षणों
की अपेक्षा अधिक हैं, इसलिए यह आदत सी बन जाती है। और जब यह आदत
पक्की हो जाती है, तब भले ही प्रसन्नता आए तुम घर पर नहीं होते,
तुम कहीं और होते हो।
इसका
निश्चय कर लो जो कुछ भी हो- उदासी, क्रोध, जो कुछ
भी अवसाद, अप्रसन्नता- इसके साथ रहो। और तुम अचानक हैरान हो जाओगे
कि अगर तुम उदासी के साथ बने रहो तो उदासी एक सुंदर भाव में बदल जाती है, उदासी एक गहराई बन जाती है। अगर तुम क्रोध के साथ बने रहते हो, उसके विषय में सोचते नहीं, मात्र इसके साथ बने रहने से
क्रोध रूपांतरित हो जाता है- यह क्षमा बन जाता है। अगर तुम कामवासना के साथ बने रहते
हो, तो कामवासना एक भिन्न गुण ग्रहण कर लेती है- यह प्रेम बन
जाती है।
अगर
तुम क्षण के संग रहना शुरू कर देते हो, तो तुम देखोगे कि क्षण के साथ रहना
एक चमत्कार है, उसका एक जादू है। प्रसन्नता और गहरी हो जाएगी।
साधारणतया तुम्हारी प्रसन्नता सिर्फ सतह पर ही होती है- भीतर कहीं गहरे में तुम लाखों
चीजें साथ लिए रहते हो; प्रसन्नता केवल सतह पर। अगर तुम इसके
साथ बने रहते हो तो यह गहरी, और गहरी, और गहरी होती जाएगी। अगर तुम इसके साथ जीना
शुरू कर देते हो, तो सभी कुछ रूपांतरित हो जाता है क्योंकि तुम्हारे
अस्तित्व में, सजगता में, साक्षी भाव में
एक नया गुण आ जाता है। उदासी के विरुद्ध संघर्ष मत करो और प्रसन्नता के लिए लालायित
मत होओ, क्योंकि वह दूर चले जाना है, भटक
जाना है।
क्या
तुमने देखा है?
- यदि तुम हिमालय या स्विटजरलैंड छुट्टियां मनाने जाते हो, वहां पहुंचने के लिए तुम महीनों योजना बनाते हो, और जिस
क्षण तुम वहां पहुंचते हो तुम्हारे मन ने पहले ही वापसी की योजना बनानी शुरू कर दी
है, घर वापस कैसे लौटना है। देखो। महीनों तुमने योजना बनाई कि
कैसे पहुंचना है, और जब तुम पहुंच जाते हो- या तुम्हारे पहुंचने
से पहले ही, बस रास्ते में ही- तुम्हारे मन ने वापस जाना आरंभ
कर दिया है कैसे लौट कर जाना है? तुम्हारा प्रत्येक पहुंचना बस
वापस लौटने की शुरुआत है। और तुम कभी वहां पर नहीं हो, क्योंकि
तुम वहां पर नहीं हो सकते हो। फिर से घर लौट कर तुम सोचने लगोगे। घर लौट कर तुम सोचना
शुरू करोगे कि हिमालय में क्या कुछ घटित हुआ था, तुम कितने खूबसूरत
अनुभवों से होकर गुजरे थे- और तुम वहां कभी नहीं थे। यह ऐसा है जैसे कि तुमने उनके
विषय में पढ़ा हो, यह ऐसा है जैसे कि किसी और ने तुम्हें बताया
हो। तुम स्मृति को ऐसा समझते हो जैसे कि स्मृति अपने आप काम करती है, वह चित्र खींच लेती है और एक एलबम बन जाती है। घर लौटने पर तुम एलबम खोल कर
देख लोगे, और तुम अपने मित्रों से कहोगे, ' सुंदर!' और तुम योजना बनाने लगोगे- फिर अगले साल तुम
हिमालय जा रहे हो।
जहां
पर तुम हो, मन कभी वहां नहीं है, सजगता सदा वहां होती है जहां तुम
हो। मन और उसके क्रियाकलापों को छोड़ते चले जाओ और अधिकाधिक सजग और सचेत होते चले जाओ।
अपने आप को समग्र रूप से इस क्षण में ले आओ।
प्रारंभ
में ऐसा कर सकना कठिन होगा। मन पुरानी आदत के अनुसार बार-बार दूर चला जाएगा। उसे वापस
ले जाओ। संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है! बस उसे वापस बुला लो, ' आ जाओ। '
वह फिर चला जाएगा... कुछ ही क्षणों में वह वहां पर नहीं होगा। उसे फिर
वापस बुला लो।
और
धीरे- धीरे जब तुम '
इस ' क्षण- इस शाश्वत अभी, वह एक मात्र समय जो वहां है, वह एक मात्र अस्तित्व जो
वहां है, वह एक मात्र जीवन जो वहां है- का आनंद लेने लगते हो;
जब तुम उसका आनंद लेने लगते हो, मन वहां बार-बार
आने लगेगा; फिर यह कम से कम वहां से हटेगा।
तब
एक लयबद्धता घटित होती है। अचानक तुम यहां होते हो, घर पर, और सत्य उदघाटित हो जाता है। सत्य तो सदा वहां था, तुम
वहां नहीं थे। यह सत्य नहीं है जिसकी खोज की जानी है, यह तुम
हो जिसको घर वापस लाना है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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