तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-नौवां-(अमन
ही द्वारा है)
दिनांक
09 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
सरहा
के सूत्र—
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है
तो
देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।
सबसे
अधिक उपयोगी होता है।
जब
भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है
वह
स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।
प्रसन्नता
और आनंद की कलियां
तथा
दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।
यदि
कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है
तो
मौन परमानंद फल देगा ही।
जो
भी अभी तक किया गया है
और
इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा
वह
कुछ भी नहीं है।
यद्यपि
इसके परिणाम स्वरूप
वह ‘इस’ और ‘उस’ के लिए उपयोगी होता है।
वह
चाहे कामवासना में लिप्त हो अथवा न हो
उसका स्वरूप शून्यता ही होता है।
यदि
मैं सांसारिक कीचड़ में घंसा हुआ
लालसा
से भरा एक सूअर के समान हूं,
तो
उन्हें मुझे बताना चाहिए
कि
एक पवित्र मन में कौन सा दोष दिखाई देता है
ऐसा
क्या है, जिसका उस एक पर
कोई
भी प्रभाव नहीं पड़ता
अब
उस एक को कैसे बेड़ियों में
बाँध
कर रखा जा सकता है?
इस
स्थान पर सत्य तक पहुंचने के दो मार्ग है: एक ज्ञान का मार्ग और प्रज्ञा अथवा
बुद्धिमत्ता का मार्ग। ज्ञान मार्ग है उस बारे में सोचना, उस बारे में कल्पना करना और उस बारे में एक मत
बना लेना। सभी कल्पनाएं अर्थहीन हैं। क्योंकि तुम उस बारे में कल्पना कैसे कर सकते
हो, जिसे तुम जानते ही नहीं? तुम उसे बारे में कैसे सोच सकते हो जिसे तुम जानते
ही नहीं।
अज्ञात
के बारे में नहीं सोचा जा सकता; अज्ञान
के बारे में सोचने का वहां कोई भी उपाय नहीं हैं; वह सभी कुछ जो तुम सोचे चले जा रहे हो, वह ज्ञात है,
जिसे तुम अपने मन में दोहराते चले जा
रहे हो। हां, तुम पुराने विचारों से नए संयोग सृजित
कर सकते हो, लेकिन केवल नए संयोगों और संधियों का
निर्माण कर तुम सत्य की खोज करने नहीं जा रहे हो। तुम धोखा खाओगे।
उथला
ज्ञान संसार में सबसे बड़ा धोखे बाज़ी है। इस थोथे ज्ञान के द्वारा मनुष्य बीते
हुए युगों से धोखे खाता रहा हैं। इस ज्ञान के द्वारा तुम बहुत दूर से सत्य की
व्याख्या करते हो, तुम उसे स्पष्ट नहीं करते हो। इस ज्ञान
के द्वारा तुम अपने स्वयं के चारों और इतनी अधिक धूल उत्पन्न करते हो, कि तुम सत्य को किसी भी प्रकार से देख नहीं
सकते। तुम अस्तित्वगत से कटे हुए हो, तुम
अपने शब्दों, अपने विचारों और अपने तर्कों के जाल
में बंद हो। तुम अपने शास्त्रों और धर्मग्रंथों में खो गए हो—कोई भी व्यक्ति अन्य कहीं और कभी नहीं खोता है।
यह धर्म शास्त्रों का जंगल ही है जहां जाकर मनुष्य भटक गए हैं।
तंत्र
प्रज्ञा अथवा बुद्धिमत्ता का मार्ग है, वह
थोथे ज्ञान का मार्ग नहीं है। वह किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं देता है। वह किसी
भी चीज़ की जरा भी व्याख्या नहीं करता हे। वह अव्याख्य है। वह एक प्रश्नावली ने
होकर एक खोज पर जाना है। यह सत्य के बारे में कोई भी जांच नहीं है। यह सत्य के
अंदर जांच-पड़ताल है। यह सत्य के अंदर प्रवेश करती है। यह तुम्हारे चारों और घिरे
हुए सारें बादलों को नष्ट करने का प्रयास करती है। जिससे सत्य जैसा वह है, उसे तुम वैसे ही देख सको।
तंत्र
सोच-विचार के पार जाता है। यही कारण है कि तांत्रिकों के द्वारा प्रेम की इतनी
अधिक प्रशंसा की जाती है। यहीं कारण है कि संभोग का सर्वोच्च शिखर आनंद ही अंतिम
सत्य का प्रतीक बन गया है। कारण यह है कि संभोग के सर्वोच्च शिखर पर ही सत्य कुछ
क्षणों के लिए अपने मन को खो देते हो। सामान्य मनुष्य के लिए अ-मन की केवल यही
स्थिति उपलब्ध है। तुम्हारे पास सत्य की झलक देखने की केवल यही एक सम्भावना है।
इसीलिए
तंत्र के मार्ग पर संभोग का सर्वोच्च शिखर अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया है। न केवल
यह तुम्हें अंतिम सत्य की झलक देता है, बल्कि
यह तुम्हें बहुत क्षणिक एक छोटी सी खिड़की देता है, यह लम्बी अवधि तक नहीं ठहरती, लेकिन
तो भी तुम्हारे लिए केवल यही एक संभावना है कि सत्य के साथ तुम्हारा थोड़ा सा सम्पर्क
हो पाता है। अन्यथा तुम हमेशा अपने विचारों के चारों और से घिरे रहते हो और
विचारों से कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। सभी स्पष्टीकरण और व्याख्याएं पूरी तरह से
मूर्खता पूर्ण हैं।
अब
मैं तुम्हें एक चुटकुला सुनाना चाहूंगा। तुम जानते हो कि वे मेरे पास बहुत से हैं, जिन्हें सुनाता नहीं हूं।
इस
मज़ाक का इसी व्यक्ति से लेना-देना, जो
अपने वर्ण से दुःखी उस कोने में खड़ा है। वह कोने में खड़ा हुआ ऊपर की और देखता है
और अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहता है—‘है
परमात्मा तूने मुझे इतना अधिक काला क्यों बनाया?’
और
परमात्मा सोचता है, वह चिंतन करता है—कुछ तो उत्तर देना जरूरी है, इसलिए वह अपने उत्तर को दार्शनिक बनाने का
प्रयास करता हुआ कहता है—‘मेरे बच्चे! तुझे इतना अधिक काला बनाने
का कारण यह है कि जब तुम गर्मियों में जंगलों में दौड़ रहे होते हो, तो तुम्हें इसी कारण लूँ नहीं लगती।’
वह
काला व्यक्ति उसके कथन से असंतुष्ट होने पर भी कहता है—‘यह तो ठीक है, मुझे जंगलों में जाना ही होता है। लेकिन मेरे प्रभु, फिर आपने मेरे बालों को इतना अधिक भद्दा और
कुरूप क्यों बनाया?’
परमात्मा
उत्तर देता है—‘मेरे बच्चे! मैंने इस कारण ऐसा किया कि
जब तुम अपनी गाड़ियों को खींचने वाले विशाल सांडों जैसे जंगली जानवरों और शेरों की
खोज में जंगल में दौड रहे होते हो तो, तुम्हारे
बाल कटीली झाड़ियों में न उलझ जायें।’
इस
बात से भी संतुष्ट न होते हुए भी उसने कहा—‘यह
तो ठीक है, लेकिन मेरे प्रभु! आपने मेरे पैरों को
इतना अधिक लम्बा क्या बनाया?’
परमात्मा
उत्तर देता है—‘मेरे पुत्र! मैंने तेरे पैरों को इस
वजह से लम्बा बनाया जिससे जब तुम जंगल में, सांडों
हाथियों और गैंड़ों जैसे जंगली जानवरों की खोज में लम्बे-लम्बे डग भरत हुए दौड रहे
हो, तो बहुत तेजी से दौड़ सको। क्या
तुम्हारे पास कोई और प्रश्न है?’
वह
काला व्यक्ति इस उत्तर से भी मन ही मन असंतुष्ट होता हुआ कहता है—‘फिर ठीक है परमात्मा! पर यदि मुझे वैसा नर्क ही
भोगना है तो मैं यहां पूना में क्या कर रहा हूं?’
कोई
भी स्पष्टीकरण सहायता नहीं करता है। कोई भी स्पष्टीकरण कभी भी किसी चीज़ को स्पष्ट
नहीं करता। अब परमात्मा को ही किंकर्तव्यविमूढ़ होना चाहिए।
मनुष्य
की वास्तविकता एक रहस्य है। वहां कोई भी उत्तर नहीं है, जो इसका उत्तर देत सकता हो, क्योंकि पहली बात तो यह कि यह एक प्रश्न ही
नहीं है। यह कोई समस्या ही नहीं है। जिसे हल किया जा सके। यह तो एक रहस्य है जिसे
जीना है।
और
एक समस्या और एक रहस्य के मध्य के अंतर को स्मरण बना रहे: एक रहस्य अस्तित्वगत
होता है और एक समस्या बुद्धिगत होती है। एक रहस्य मन के द्वारा सृजित नहीं होता है, इसलिए मन उसका समाधान नहीं कर सकता है। पहली
बात तो यह कि समस्या मन के द्वारा निर्मित की जाती है, इसलिए मन उसे हल कर सकता है। इसमें वहां कोई
समस्या है ही नहीं। लेकिन जीवन का यह रहस्य वह अस्तित्वगत रहस्य जो तुम्हें चारों
और से घेरे हुए है—वे वृक्ष, वे सितारे, वे
पक्षी, यह लोग और स्वयं तुम—इन्हें मन के द्वारा कैसे हल कर सकते हो?
मन
का बहुत-बहुत हाल ही में आगमन हुआ है। प्रारम्भ में ही अस्तित्व बिना मन के रहता
आया है। मन विकास क्रम से जुड़ा है, उसकी
घटना हाल ही में घटी है। वैज्ञानिक कहते है कि यदि हम मनुष्य के इतिहास को एक दिन
या चौबीस घंटों में विभाजित करते हैं, तो
केवल दो क्षण पूर्व ही मन आया है, केवल
दो क्षण पूर्व ही। यदि पूरे इतिहास का चौबीस घंटों का यह मान बनने जा रहा है- तब
मन का प्रवेश केवल दो क्षणों पूर्व ही हुआ है। फिर इसको कैसे हल किया जा सकता है? कौन इसका समाधान कर सकता है? इसका प्रारम्भ ही ज्ञान नहीं है, और न इसका अंत ज्ञात है। यह ठीक अभी मध्य में
आया है। इसका कोई दृश्य रूप नहीं है।
यदि
कोई वास्तव में जानना ही चाहता है कि यह अज्ञात है क्या, तो उसे मन को छोड़ना ही होगा। तो उसे इस
अस्तित्व में विलुप्त होना होगा। यही तंत्र का मार्ग है। तंत्र एक दर्शनशास्त्र
नहीं है। तंत्र पूर्ण रूप से अस्तित्वगत है। और स्मरण रहे, जब मैं कहता हूं कि तंत्र अस्तित्वगत है, तो इससे मेरा अर्थ सार्त्र, कामू, केमस, मार्सेल और अन्य लोगों के अस्तित्ववाद से नहीं
है। अस्तित्ववाद पुन: एक दर्शनशास्त्र है, वह
अस्तित्व का एक तत्व ज्ञान है, लेकिन
वह तंत्र का मार्ग नहीं है,
और अंतर बहुत विशाल है।
पश्चिम
के अस्तित्ववादी दार्शनिक केवल नकारात्मक चीजें जैसे वेदना और जीवन में चिंता, अवसाद, उदासी, व्यग्रता, निराशा
अर्थहीनता और उद्देश्य हीनता से टकराये हैं और ये सभी नकारात्मक हैं। तंत्र उन सभी
चीजों से टकराया है जो सुंदर है, आनंद
पूर्ण और प्रसन्नता से भरी हैं। तंत्र कहता है कि अस्तित्व में एक कामोन्माद है और
एक शाश्वत कामक्रीड़ा निरंतर चलती चली जा रही है। वह हमेशा-हमेशा से संभोग के
सर्वोच्च शिखर का परमानंद रहा है।
वे
लोग अनिवार्य रूप भिन्न दिशाओं में गति शील हो रहे हैं। सार्त्र अस्तित्व के बारे
में सोचता चला जाता है। तंत्र कहता है कि सोच-विचार द्वार नहीं है। वह एक अंधी ओर
बंद गली है, जो कहीं भी नहीं ले जाती है, वह तुम्हें केवल एक और खुलने वाली तंग और
अंधेरी गली में ले जाती है। दर्शनशास्त्र महान है, यदि तुम मूर्ख बने केवल चारों और भटकना चाहते हो तब दर्शनशास्त्र
बहुत महान है। तुम तिल का पहाड़ बना सकते हो और इस यात्रा का आनंद ले सकते हो। कुछ
ही दिनों पूर्व ही मैं एक अत्यंत ही दार्शनिकता से भरा अंश पढ़ रहा था। उस पर
ध्यान करो....
‘मेरे साथ एक सबसे अधिक अजीब घटना घटी, और मैं इसे तुम्हें इसलिए बतला रहा हूं कि हो
सकता है ऐसा संयोग हो कि वह घटना एक बार अथवा दूसरी बार तुम्हारे साथ भी घटे तो
मेरी बात सुनकर जब वह तुम्हें फिर से घटे तो तुम उस स्थिति की कहीं अधिक अच्छी तरह
उसकी व्यवस्था कर सकोगे।
कल
मैं एक रेस्त्रां में था और दोपहर का भोजन लाने का आदेश दिया। लोगों के एक छोटे से
समूह के साथ हम लच के लिए एक मेज के चारों और बैठे हुए थे। ऐसा नहीं था, तुम जानो उस मेज़ के चारों और छ: सात लोग थे।
मैं नहीं जानता—शायद आठ नौ लोग हों—और लगभग चालीस लोगों का समूह लच ले रहा था।
मैंने
अपने भोजन के साथ एक गिलास दूध लाने को कहा, अब
मैं दूध लेना पसंद करता हूं। तुम जानते हो कि मक्खन निकले दूध के बारे में मैं
कैसा अनुभव करता हूं, लेकिन शुद्ध दूध को मैं पसंद करता हूं।
दूध से मैं प्रेम करता हूं। मैं ताज़े ठंडे दूध को पसंद करता हू। यदि वह गर्म है:
तो खुजली सी होती है। यदि मैं स्वाद ले सकता तो भी मैं उसे पसंद न करता।’
किसी
तरह से दूध आया। और मैं बस उसे लगभग पीने ही जा रहा था कि मैंने नोट किया कि दूध
के ऊपर एक बहुत छोटा सा नन्हा सा काला धब्बा सा तैर रहा था। और मैं यहां तुम्हें
बताऊं कि संसार में किसी भी चीज़ से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन वह छोटा सा काला धब्बा या तिनका? वह मेरे जीवन के लिए अगले कुछ क्षणों के लिए
सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज़ बन गया। सबसे पहले तो मैं यह कहने नहीं जा रहा हूं कि
उस अप्रिय चीज़ को कैसे मैं अपने अंदर चला जाने दूं। मैं तुम्हें बतलाऊंगा तुम
जानते हो, कि इन दिनों कौन जाने कि वह क्या चीज़ थी? तुम जानते हो कि वह एक रासायनिक तत्व स्ट्रैमोनियम
90 का ठोस अंश भी हो सकता था। अथवा हो सकता है कि
वह टायफायड के जीवाणुओं की एक बड़ी कालोनी ही हो। किसी भी तरह से मैं उसे निगल
नहीं सकता था।
अब, मैंने काले धब्बे पहले भी देखे हैं। मैं एक
तर्क निष्ठ व्यक्ति हूं, और मैं इसी तरह जिया हूं—और मुझे विश्वास है कि तुमने भी उन्हें देखा
होगा। तुम उन्हें किसी भी स्थान पर देख सकते हो। मैं सोचता हूं, किसी तरह तुमने अधिकतर उन्हें चीनी रखने के
बाउल्स में जरूर देखा होगा। तुम कभी भी आटे के एक कटोरे में छिपे हुए एक ऐसे तिनके
या जीव को पकड़ सकते हो। आटे का बना भोजन काले धब्बों से भरा हुआ होता है। यदि तुम
यह सत्य जानना चाहते हो तो मेरे पड़ोस में आटे मिल में सबसे अधिक काले तिनके होते
है। लेकिन वह न तो यहां हैं और न वहां हैं।
अब
जिस चीज़ ने मुझे चिंता में डाला, वह
इस काले धब्बे जैसी चीज़ के बारे में था कि मैं यह नहीं जानता था कि वह कहां से
आया। यही वह चीज़ थी जिसने मुझे परेशान किया। मैं जानता था कि दूध कहां से आया और
इससे भी मुझे फिक्र हुई, लेकिन कम से कम मैं जानता था कि वह कहां
से आया है। इसलिए मैंने उस काले तिनके जैसी चीज़ को दूध से बाहर निकालने का निर्णय
लिया।
क्या
तुम जानते हो कि यह करना कितना अधिक कठिन था? वे
काले धब्बे नर्क जैसे फुर्तीले थे, वे
एक चम्मच की गंध को मीलों दूर से सूंघ लेते थे। जिस क्षण तुम उन्हें चम्मच से उठाते
थे, वे गिलास में चारों और दौड़ना शुरू कर
देते थे, क्या वे ऐसा नहीं करते थे। तुम उन्हें
उठा भी लो, तो भी वे छलांग लगा जाते थे। तुम्हें
बहुत सावधान रहना होता था अथवा वे अधिक बुद्धिमान बनकर डाइव मारकर तली में समा
जाते थे, और तुम्हें एक मूर्ख की तरह बैठकर उनकी
प्रतीक्षा करनी होती। कि वे कब ऊपर आकर तैरने लगें।
अब
इस बारे में तुम एक ही कार्य कर सकते थे, यदि
तुम उँगली के ऊपर वाले पोर से उस काले तिनके को बहुत आहिस्ता से स्पर्श कर निकलो।
वह तुम्हारी उँगली पर दूध के एक बड़े बुलबुले के साथ अटक जायेगा—और तुम उसे बाहर निकाल लोगे। लेकिन तुम जानते
हो, कि जब तुम लोगों के एक समूह के साथ हो, तो तुम अपनी अंगुली को दूध में नहीं डालना
चाहोगे। तुम जानते ही हो कोई बुद्धिमान व्यक्ति निश्चित रूप से यह कहेगा—‘मुझे बतलाइये आप अपनी उँगली को दूध में क्या डाल
रहे हैं?’ क्या तुम यह कहने जा रहे हो, ‘मैं एक काले तिनके को बाहर निकालने का प्रयास
कर रहा हूं।’ तुम जानते हो, तुम्हारे पास इसका कोई भी उत्तर नहीं है।
अब
वहां एक दूसरा कार्य है जो तुम कर सकते हो। तुम बहुत सावधानी से, पूर समय काले तिनके पर अपनी दृष्टि जमाये हुए
दूध को पी सकते हो। जिस क्षण वह तुम्हारी और गति शील होना प्रारम्भ करता है, तुम रूक जाओ। तुम उस छोटे से शैतान को मूर्ख
बनाओ। लेकिन यह केवल तभी संभव है,यदि
वह काला तिनका गिलास की दूसरी और हो। इस स्थिति में वह मेरे निकट होता था, बस प्रतीक्षा किये जाओ। इस प्रकार तुम करोगे क्या?तुम गिलास को घुमाते हो—और वह घृणित चीज़ भी ठीक वहीं ठहरी ही रहती है।
मैंने
क्या किया, मैं तुम्हें यही बताने जा रहा हूं।
जिससे जब भी ऐसी घटना तुम्हारे साथ होती है, तुम
ठीक इसी तरह से स्थिति को व्यवस्थित कर सको। मैं उठ खड़ा हुआ और चारों और टहलता
हुआ मेज़ के दूसरी और गया और मैंने उसे वहां जाकर पिया। कोई इसे कभी जान ही नहीं
पाया।
दर्शन
शास्त्र तिल का पहाड़ सृजित कर रहा है। तुम आगे बढ़ते चले जाओ। वहां उसका कोई अंत
ही नहीं है। कम से कम पाँच हजार वर्षों से मनुष्य इस बारे में प्रत्येक चीज़ पर
उसके प्रारम्भ के बारे में,
उसके अंत के बारे में, और उसके मध्य के बारे में और लगभग प्रत्येक
चीज़ के बारे में दार्शनिकता से विचार कर रहा है। और एक भी प्रश्न का समाधान नहीं
हुआ है। अकेले एक छोटे से छोटे प्रश्न का समाधान नहीं हुआ है, अथवा वह लुप्त हुआ है। दर्शनशास्त्र में प्रत्येक
प्रयासों का सबसे अधिक व्यर्थ होना सिद्ध हुआ है। लेकिन तो भी मनुष्य भली भांति यह
जानते हुए भी कि वह कभी भी किसी चीज़ का उद्धार नहीं करता है, उसे निरंतर जारी रखता है। आखिर क्यों? क्योंकि वह वायदा किया चले जाता है लेकिन कभी
भी किसी चीज को उद्धार नहीं करता है। तब मनुष्य क्यों इस प्रयास को जारी रखता है?
यह
बहुत सस्ता है; इसमें कोई आर्थिक संकट नहीं है, इसमें किसी वचन बद्धता की जरूरत नहीं है और न
कोई पाबंदी ही है। तुम अपने कुर्सी पर बैठ सकते हो और सोचते चले जाते हो, यह एक सपना है। इसे यह भी जरूरत नहीं है कि तुम
सत्य को देखने के लिए परिवर्तन करना चाहिए। जहां, ‘वह’ है, वहां
साहस की जरूरत है, साहसिक कार्य करने के लिए साहस की
जरूरत है। सत्य को जानने के लिए, सबसे
बड़ा साहसिक कार्य जो वहां है, तुम
उसकी और गतिशील हो रहे हो। तुम खो भी सकते हो, यह
कौन जानता हैं? कौन जानता है कि तुम कभी वापस भी लौट
सकते हो? अथवा तुम पूर्ण रूप से बदले हुए वापस
लौट सकते हो और कौन जानता है कि वह अच्छे के लिए होगा अथवा नहीं?
यात्रा
अज्ञात है, यात्रा इतनी अधिक अनजानी है कि तुम
उसकी योजना भी नहीं बना सकते हो। तुम्हें उसके अंदर एक छलांग लगानी होगी। आंखों पर
पट्टी बाँध कर अंधेरी रात में तुम बिना किसी मान चित्र के, बिना यह जाने हुए कि तुम कहां जा रहे हो, और बिना यह जाने हुए कि तुम किसके लिए जा रहे
हो, उसके अंदर एक छलांग लगानी होगी। इस
अस्तित्वगत खोज में बहुत थोड़े से दु:सहासी लोग ही प्रवेश करते हैं। इसीलिए तंत्र
बहुत थोड़े लोगों को आकर्षित करता है। लेकिन वे लोग पृथ्वी का नमक होते हैं। सरहा
उनमें से एक है।
अब
हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे ये अंतिम चार सूत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है, इन्हें अपने ह्रदय में उतरने दें।
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है
तो
देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।
सबसे
अधिक उपयोगी होता है।
जब
भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है
वह
स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।
अनिवार्य
रूप से राजा ने सरहा से कहा होगा कि लोग उसके बारे में न जाने क्या-क्या कह रहे
हैं। वे कह रहे थे कि वह इन्द्रिय सुखों का उपभोग कर रहा था। वह विषय सुखों की और
आसक्त था। अब वह एक लम्बी अवधि से सन्यासी भी नहीं रह गया था, उसका परित्याग झूठा था, वह पतित हो गया था।
उसने
राज से एक बौद्ध-भिक्षु होने की आज्ञा मांगी थी और वह एक बौद्ध भिक्षु बन गया था।
उसने एक बौद्ध भिक्षु का नियंत्रित और अनुशासित जीवन जिया था। और तब वह विद्रोही
तांत्रिक तीर कमान से निशान साधने वाली वह स्त्री आई और उसने उसके पूरे जीवन, उसकी पूरी जीवन शैली और उसके अस्तित्व को बदल
दिया। उसने उसके चरित्र को भ्रष्ट कर दिया। उसने उसको स्वतंत्रता दी—स्वतंत्रता से जीने की, जहां साथ में न अतीत हो और न साथ में कोई
भविष्य हो, उसने उसे क्षण प्रति क्षण से मुक्त
होने की आज्ञा दी।
स्वाभाविक
रूप से सामान्य लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि वह अपनी गौरव गरिमा से पतित हो गया
है। और उसने संन्यास के साथ विश्वासघात किया है। और वह एक प्रकाण्ड पंडित और महान
विद्वान था। उन्होंने उससे बहुत आशाएं की थी कि वह देश में कुछ ज्ञान लायेगा और अब
वह एक पागल कुत्ते के समान बन गया था। उसके बारे में देश भर में चारों और अनेक
कहानियां अनिवार्य रूप से फैल गई, और
यह कहा गया कि राजा को सरहा को यह बतलाना चाहिए कि लोग उसके बारे में क्या सोच रहे
थे। राजा को चोट लगी, वह इस व्यक्ति से प्रेम करते थे, उन्होंने उस व्यक्ति को सम्मान दिया था—लेकिन राजा भी इसी संसार का एक अंग था। उसके भी
सोचने के ढंग आम लोगों की ही तरह से थे। उसके पास भी सत्य में अथवा स्वयं में कोई
भी अंर्तदृष्टि नहीं थी।
सरहा
राजा से कहता है—‘यदि आप, संतुलित होकर एक बार भी यह जान लें कि आनंद क्या होता है, तो आप सारी कहानियों को भूल जायेंगें। एक बार, यदि एक बार भी आपको यह स्वाद मिल जाए कि जीवन
क्या होता है, तो आप चरित्र सदाचार और प्रतिष्ठा की
इन सभी मूर्खता पूर्ण बातों को भूल जायेंगें।’
आप
निरंतर केवल एक प्रतिष्ठित जीवन जीते चले आ रहे हो। और यदि आपका अभी तक भी जीवन से
सम्पर्क नहीं हुआ है, और आप मर जाते हैं, तो भी आप प्रतिष्ठित ढंग में जी सकते है। जीवन
जड़ों से जुड़े रहने वाली एक घटना है। यह एक भ्रम है, पर एक बहुत सृजनात्मक भ्रम है, लेकिन यह सभी एक जैसा ही भ्रम है।
सरहा
कहता है—‘एक बार पूर क्षेत्र में ‘वह’ पूर्ण
नंद छा जाता है तो देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।.....लेकिन प्रश्न उसे अनुभव
करने का है।’
सरहा
कहता है—‘मैं इसे स्पष्ट नहीं कर सकता कि मुझे
ऐसा क्या घटा है, लेकिन मैं इससे अधिक नहीं कह सकता कि
यदि आप भी एक बार उसका स्वाद ले लें तो आप रूपांतरित हो जायेंगे। स्वाद ही
रूपांतरण का एक ढंग है।’
सरहा
कहता है—‘मैं किसी तर्कपूर्ण ढंग से आपको कायल
करने नहीं जा जा रहा हूं,
और न मेरे पास कोई तत्वज्ञान है। मेरे
पास एक विशिष्ट अनुभव है,
और मैं आपको उस अनुभव के साथ सहभागी
बना सकता हूं, लेकिन सहभागी बनाना केवल मेरी और से ही
नहीं हो सकता है। आपको भी अपने अहंकार पूर्ण धार्मिक सिद्धांतों और दृष्टिकोण से
आगे बढ़ना होगा, और आपको उस अज्ञात में मेरे साथ आना
होगा। मैं आपको उस खिड़की तक ले जा सकता हूं, जहां
से अस्तित्व स्पष्ट और पारदर्शी है, लेकिन
आपको उस खिड़की तक आने में मेरा हाथ पकड़ना होगा।’
यही
वह अर्थ होता है, एक सद्गुरू के होने और करने का, वह शिष्य का हाथ पकड़ता है और उसे उस खुले छेद
तक ले जाता है, जहां से उसने इस अस्तित्व में देखा है।
आलंकारिक रूप में वह अपनी आंखें तुम्हें उधार दे देता है। एक बार तुमने स्वाद ले
लिया, तब वहां कोई भी समस्या नहीं है। तब वही
प्रामाणिक स्वाद तुम्हें अपनी और खींच कर ले जायेगा। तब वह खिंचाव इतना अधिक होता
है कि तुम वहीं नहीं बने रह सकते जहां तुम एक वनस्पति की भांति उगे और ठहरे हुए
थे।
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है
तो
देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।
लेकिन
उस पूर्ण आनंद का स्वाद लेने के लिए एक देखने वाले मन की जरूरत हैं—एक ऐसा मन, जो
बहुत अधिक चमड़े के पट्टों के भार से बोझिल न हो,जिस पर पर्त दर पर्त न चढ़ी हो। उनकी आंखें, पर्दों और पर्दों, और-और पर्दों के पीछे खो जाती हैं। उन पर्दों
को उतार कर ठीक उसी तरह हटा देना है जैसे की तुम प्याज को छीलते हो। उन सभी पर्दों
को हटा देना है, तब तुम्हारे पास एक देखने वाला मन
होगा।
ठीक
अभी तो, जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह है एक न देखने वाला मन। वह केवल बहाना करता
है कि वह देखता है। वह केवल कहता है, और
विश्वास करता है कि वह देखता है। तुम्हारी आंखें देखती नहीं, तुम्हारे कान सुनते नहीं और तुम्हारे हाथ
स्पर्श नहीं करते, क्योंकि तुमने वह संवेदनशीलता खो दी
है। जो प्रवाहित होते हुए,
तुम्हारी आंखों को देखने वाली आंखें
बना सकती है, जो तुम्हारे कानों को सुनने वाले कान
बना सकती है। यही कारण है कि जीसस को अपने शिष्यों से यह बार-बार कहना पड़ा—‘यदि तुम देख सकते हो, तो उसे देखो, यदि तुम्हारे पास आंखें हैं, तो
उसे देखो। यदि तुम्हारे पास कान है तो ध्यान देकर सुनो।’ वह ऐसे लोगों से बात चीज कर रहे थे जो अंधे
नहीं थे, और न ही वह बहरे ही थे। उनके पास देखने
की उतनी ही अधिक क्षमता थी जैसी तुम्हारे पास है। और सुनने की वैसी ही क्षमता थी
जैसी तुम्हारे पास है, वे लोग सामान्य थे।
लेकिन
फिर बार-बार यह क्यों कहते हैं—‘यदि
तुम्हारे पास आंखें हैं....? क्या
वह हमेशा तुम्हारे जैसे ही अंधे लोगों से बात करते थे?’ लेकिन इसका क्या अर्थ है? जब वह कहते हैं—‘यदि तुम्हारे पास आंखें है....?’ यह ‘यदि’ आखिर
क्यों? यह बहुत बड़ा ‘यदि’ है, क्योंकि लोगों के पास आंखें होना प्रतीत होता
हैं, तो भी वह उनके पास हैं नहीं। और यह
प्रतीत होना बहुत खतरनाक है, क्योंकि
वे यह विश्वास किये चले जाते हैं कि उनके पास आंखें हैं।
क्या
तुमने कभी भी किसी की चीज़ को अपने अंदर बिना विचारों के देखा है? वे विचार हस्तक्षेप कर रहे हैं, ध्यान भंग कर रहे है। और व्याख्या कर रहे हैं? क्या तुमने कभी भी एक गुलाब के फूल को अपने
अंदर बिना कोई भाषा आए हुए बिना मत के देखा है? तुम्हारा
मन तुरंत कहा रहा है—‘यह एक गुलाब का फूल है, यह बहुत सुंदर फूल है, अथवा यह और वह हैं? जिस क्षण तुम कहते हो—यह एक गुलाब का फूल हैं, तो तुम इस फूल को नहीं देख रहे हो। तब वे सभी
गुलाब के फूल तुमने देखे हैं, और
जिनके बारे में तुमने सुना है, वे
सभी के सभी एक पंक्ति में तुम्हारी आंखों के सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। असली गुलाब
का फूल तो बहुत दूर खड़ा रह जाता है। जिस क्षण तुम कहते हो कि यह एक गुलाब का फूल
है, तुम अपने आंखों के ऊपर एक पर्दा डाल
रहे हो।’
भाषा
सबसे बड़ा पर्दा है। क्या तुम इस फूल को ठीक वैसा ही नहीं देख सकते, जैसा वह है, बिना
यह पुकारते हुए कि यह एक गुलाब है, बिना
कहे हुए कि यह एक फूल है?
जरूरत क्या है? क्या तुम उसकी वास्तविकता में बिना किसी विचार
के, बिना अपने चारों और घूमते हुए किसी
बादल के धुंधलके के देख नहीं सकते हो? क्या
तुम क्षण भर के लिए बिना भाषा के नहीं रह सकते हो? यदि तुम एक क्षण भर के लिए बिना भाषा के हो तो तुम्हारे पास देखने
वाला मन होगा। कभी इसे प्रारम्भ करने का प्रयास करो। किसी वृक्ष की बगल में बैठकर, यह मत सोचो कि यह एक वृक्ष है, बस उस वृक्ष की और मात्र देखों। यह मत सोचो कि
यह कितना सुंदर है, हरा है, किसी भी प्रकार का विचार मन में मत लाओ, मात्र होना जहां तुम कुछ नहीं जानते हो। केवल
एक निरीक्षण करता की तरह। एक्स-बाई जेड़, वह
जो कुछ भी है—उसे वह ‘जो कुछ भी’ बना रहने दो। निर्णय करो ही मत बस तुम
हो और वह वृक्ष बीच के माध्यम मन को तिरोहित कर दो।
जीसस
कहते हैं—‘तुम निर्णय मत करो।’ भाषा ही एक निर्णय है। निर्णय के साथ ही सभी
पक्षपात और धारणाएं आती हैं। निर्णय के साथ ही तुम्हारा पूरा अतीत आ जाता है। और
जब अतीत अंदर आता है, तुम वर्तमान से पृथक हो जाते हो।
मैं
पढ़ रहा था......
वहां
एक व्यक्ति था, जो एक गैराज का मालिक था, और उसके पास एक बिल्ली भी थी। एक दिन वह एक
ग्राहक की कार में पेट्रोल भर रहा था, जब
कुछ पेट्रोल बिल्ली के दूध में गिर गया। बिल्ली ने वह सब दूध पी लिया। और उस स्थान
के चारों और साठ मीत प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना शुरू कर दिया। तब अचानक वह
रूकी और मर गई।
ग्राहक
ने पूंछा—‘क्या बिल्ली मर गई?’
गैरेज
के मालिक ने कहा—‘मैं सोचता हूं कि वह पेट्रोल के कारण ‘रन आउट’ हो
गई।’
एक
गैराज के मालिक के पास उसकी अपनी भाषा अपना अतीत और अपनी पूर्व धारणाएं होती हैं।
वह चीजों को एक विशिष्ट ढंग से समझता है। वह कहता है—‘नहीं, मैं
सोचता हूं कि वह पेट्रोल के कारण रन आउट हो गई। और ऐसा निरंतर हो रहा है।’
ऐसा
हुआ.....
यह
तब हुआ जब हमारा संन्यासी सर्वेश यहां था और वह राधा ऑडिटोरियम में अपने बात करने
वाले कठपुतली के साथ एक प्रदर्शन कर रहा था। जिसमें वह स्वयं की आवाज के साथ ऐसी
आवाज़ में भी बात कर रहा था। जैसे कोई दूसरा व्यक्ति बोल रहा हो। वह कठपुतली सभी
तरह के चुटकुले सुना रहा था। जो प्रत्येक धर्मों प्रत्येक देश और प्रत्येक चीज़ के
बारे में थे। तभी उसने कहा—‘अब मुझे एक चुटकुला जर्मन लोगों के
बारे में सुनाने की आज्ञा दीजिए।’
इसलिए
एक जर्मन संन्यासी—तुम्हें ध्यान रहे कि वह हरि दास नहीं
था। उठकर खड़ा हो गया और उसने कहा—‘मैं
आपको जर्मन के बारे में चुटकुले नहीं सुनाने दूंगा। आप जानते हैं, कि हम लोग उतनी मोटी खाल के नहीं होते, जैसा कि आप सोचते हैं।’
सर्वेश
ने कहा—‘शांत हो जाइए श्रीमान! कृपया शांति से
बैठ जाइये। इसमें व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं है।’
उस
जर्मन ने कहा—‘मैं आपसे बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो
उस छोटे से व्यक्ति से बात कर रहा हूं, जो
आपके घूटने पर बैठा हुआ है।’
तुम्हारा
मन, तुम्हारा मन है। वह चाहे मोटी खाल का
हो अथवा पतली खाल का, वह चाहे अच्छा हो अथवा बुरा हो, वह हमेशा वहां बना रहता है। वह चाहे शिक्षित हो
अथवा अशिक्षित, वह वहां हमेशा होता है। जर्मन, भारतीय, अमेरिकन,वे हमेशा वहां बने रहते हैं। और सत्य न तो
जर्मन है, और न सत्य अमेरिकन है और न सत्य भारतीय
है, इसलिए जब तुम जर्मन आंखों के साथ, भारतीय आंखों के साथ अथवा ईसाई आंखों के साथ
आते हो, तब तुम सत्य से चूक जाते हो।
प्रारम्भ
करो—यह तुम्हें तंत्र में छलांग लगाने के
लिए बहुत अच्छी तरह से तैयार करेगा। प्रारम्भ करो,जब कभी भी तुम बैठे हो, गतिशील
हो रहे हो, टहल रहे हो, बात चीत कर रहे हो, बार-बार वास्तविकता के साथ बने रहने का प्रयास
करो, उस वास्तविकता के बारे में बिना कोई
व्याख्या किये हुए और बिना कोई निर्णय लिए हुए। और धीमे-धीमे द्वार खुलता है।
धीमे-धीमे तुम्हारे पास थोड़े से क्षण आना शुरू हो जाते हैं। जो मन के क्षण नहीं
होते, जो बिना भाषा की सत्य की अंर्तदृष्टि
होती है, जो सत्य और अ-मन की अंर्तदृष्टि होती
है—और वह ही तुम्हें तैयार करेंगी।
सरहा
कहता है—
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब परमानंद छा जाता है।
तो
देखने वाला मन समृद्ध हो जाता है....
इसलिए
पहली बात यह है कि मन को देखना और दूसरी बात है प्रसन्नता और आनंद से दूर न रहना।
खुले ह्रदय के साथ, ग्राह्णशीलता के साथ और स्वागत भरे
अस्तित्व के साथ उन तक पहुंचो और उन्हें अपने में अवशोषित कर लो। जहां कहीं भी
आनंद है, वहां परमात्मा ही है। संक्षेप में यही
तंत्र का संदेश है: जहां कहीं भी आनंद है, वहीं
परमात्मा है।
आनंद
के तीन तल होते हैं। पहला है वह जिसे हम सुख कहते हैं, सुख शरीर का होता है। दूसरा है—प्रसन्नता, प्रसन्नता
मन की होती है। तीसरा है परमानंद। परमानंद आत्मा का होता है, वह आध्यात्मिक होता है। लेकिन वे सभी एक सत्य
में सहभागी बनते हैं और वह सत्य है—आनंद!
आनंद ही शरीर की भाषा में बदल कर सुख अथवा मज़ा बन जाता है। शरीर के द्वारा
प्राप्त सुख प्रसन्नता बन जाता है। मन के द्वारा प्राप्त आनंद, प्रसन्नता बन जाती है। आनंद न तो शरीर के
द्वारा और न मन के द्वारा ही प्राप्त होता है—वह बिना
मन और बिना शरीर के प्राप्त होता है—वही
परमानंद बन जाता है। यह परमानंद की तीन पर्तें हैं।
केवल
परमानंद ही सत्य है। परमानंद ही परमात्मा है। परमानंद ही वह सामग्री है जिससे यह
अस्तित्व बना हुआ है।
सरहा
कहता है—उस आनंद के लिए उपलब्ध बने रहना है, वह ‘चाहे
कहीं से भी’ आता हो। कभी उसे अस्वीकार मत करो। कभी
भी उसका तिरस्कार मत करो। जब भले ही वह शरीर का ही सूख हो, तो भी उससे क्या फर्क पड़ता है? तब परमात्मा तुम्हारे शरीर में दस्तक दे रहा
है। जब तुम भोजन कर रहे हो और एक विशिष्ट सुख और तृप्ति प्राप्त कर रहे होते हो।
तो तुम आपने भोजन का सुख-स्वाद आनंद लो। तो वह भी परमात्मा ही है। जिसे तुम निगल
रहे हो। जब तुम एक स्त्री अथवा एक पुरूष अथवा एक मित्र का अथवा किसी भी व्यक्ति का
अत्यधिक प्रेम से हाथ पकड़ते हो तो वहां तुम्हारे शरीर की ऊर्जा में एक विशेष
रोमांच होता है, वहां एक नृत्य होता है, तुम्हारे शरीर का ऊर्जा एक विशेष तरह से आंदोलित
हो उठती है, एक नवीनता एक जीवंतता वहां दो हाथों के
बीच में प्रवेश कर जाती है। जब तुम उत्तेजित होते हो तो विद्युत के सामान कुछ चीज
तरंगित होने लगती है। एक नयापन और ताजगी आ जाती है। और तुम फिर से एक युवा हो जाते
हो, जैसे तुम हमेशा से रहे हो। उसकी
अपेक्षा तुम्हें कुछ चीज कहीं अधिक जीवंत बनाती है—और यही आनंद है, और
यह शरीर के द्वारा परमात्मा का आना है।
जब
तुम संगीत सुन रहे होते हो तो अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव करते हो, तो यह मन के द्वारा मिला आनंद है। फूल को बिना
उसका स्पर्श किए हुए और बिना मन को उसमें लाए हुए जब तुम देखते हो, तो एक क्षण ऐसा आता है, जब वहां परमानंद होता है—वहां सूक्ष्म, शांत और एक गूढ़ रहस्य बरसता है। लेकिन यह सभी आनंद की भिन्न-भिन्न
अभिव्यक्तियां है।
जॉए-अर्थात
आनंद, अंग्रेजी भाषा में सबसे अधिक सुंदर
शब्दों में से एक है। वह सभी तरह की प्रसन्नताओं, हर्ष और उल्लास के सारे फैलाव को ढांक लेता है। तंत्र कहता है कि
पहली चीज़ है आनंद के लिए उपलब्ध बने रहना। तुम्हें आश्चर्य होगा कि आखिर यह आग्रह
क्यों? क्या हम आनंद और उल्लास के लिए उपलब्ध
नहीं होते हैं। यह कहने में दुःख होता है, लेकिन
है ऐसा ही: तुम होते ही नहीं। कोई व्यक्ति भी नहीं होता। हम दुखों के लिए कहीं
अधिक ग्रहणशील हैं। हम आनंदित होने के लिए तैयार रहने की अपेक्षा, दुखों के लिए कहीं अधिक तैयार हैं; हम आनंद की अपेक्षा वेदना के लिए कही अधिक
उपलब्ध है। वहां उसमें कुछ चीज़ है। जो हमें खिचती है।
आनंद
और उल्लास तुम्हारे अहंकार को दूर ले जाता है, और
दुःख तथा कष्ट तुम्हें बहुत दृढ़ तरीके से तुम्हारा अहंकार देते हैं। दुःख अहंकार
सृजित करता है, और आनंद उसे हटा कर दूर ले जाता है।
आनंद का कोई भी क्षण हो, और तुम उसमें खो जाते हो। आनंद का क्षण
अहंकार का क्षण नहीं होता। और दुखों के बहुत सघन अहंकार के क्षण होते हैं। जब तुम
दुःखी होते हो, तो तुम वहां होते हो, क्योंकि तुम्हें दुःख को प्राप्त करना होता है।
और जब तुम आनंदित होते हो तो तुम वहां होते ही नहीं वहां कोई भी नहीं होता। सब मिट
जाता है। केवल होता है आनंद।
इसलिए
मैं फिर दोहरना चाहता हूं: क्योंकि हम अहंकारी हैं, हम दुखों, कष्टों, पीड़ा, वेदनाओं और उदासी व अप्रसन्नता के लिए
कहीं अधिक उपलब्ध होते हे। हम अपने चारों और एक आनंद विहीन जीवन सृजित करते है। हम
आनंद के सभी अवसरों को उदासी में बदल देते हैं। क्योंकि अहंकार के अस्तित्व में
बने रहने का केवल यही एक तरीका है। अहंकार केवल नर्क में ही अस्तित्व में बना रह
सकता है। स्वर्ग में अहंकार का अस्तित्व नहीं रहता।
बीती
हुई सदियों में तुम्हें बताया गया है कि यदि तुम अहंकार शून्य हो जाते हो तो तुम
स्वर्ग में प्रवेश करोगे। मैं तुमसे यह कहता हूं कि यदि तुम अहंकार शून्य हो जाते
हो, तो स्वर्ग तुम्हारे अंदर प्रविष्ट हो
जाता है। स्वर्ग एक भौगोलिक स्थान नहीं है। जो कहीं पर स्थित हो और ऐसा भी नहीं है
कि तुम वहां जाते हो। जब तुम अहंकार शून्य होते हो, तो तुम्हीं स्वर्ग हो। जब तुम अहंकार से भरे होते हो, तो तम ही नर्क होते हो। ऐसा नहीं है कि नर्क
अस्तित्व के वहां कहीं निम्नतम तल में स्थित हो और स्वर्ग अस्तित्व के शिखर पर
कहीं स्थित हो—ये केवल अलंकार हैं। स्वर्ग और नर्क
तुम्हारे होने की एक स्थितियों हैं।
जब
तुम हो, तुम नर्क में हो। जब तुम नहीं हो तो तुम
स्वर्ग में हो1 और इसी कारण यदि तुम अपने अहंकार से
बहुत अधिक बंधे हुए हो, और तुम स्वयं का अनुभव करना चाहते हो-
कि तुम पृथक भिन्न और अद्वितीय हो, यह
अथवा वह हो—तब तुम दुःखी बने रहोगे। अब यही
विरोधाभास है: अहंकार दुःख सृजित करता हैं—और
अहंकार आनंदपूर्ण बना रहना चाहता है। अहंकार आनंद और उल्लास के बारे में बहुत
लालची है, अहंकार उसकी खोज करता है, वह चाहता है कि जितने भी आनंद संभव हों, वे सभी उसके पास हों--और अहंकार दुःख सृजित
करता हे। अब तुम जाल में फंस जाते हो। जितना अधिक दुःख हो, वह उतना ही अधिक अहंकार उत्पन्न करता है। और
अहंकार उतनी ही अधिक दिलचस्पी आनंद में बने रहने के लिए करता है। लेकिन वह आनंद
सृजित नहीं कर सकता। आनंद उसका कार्य नहीं है। यही अंर्तदृष्टि तंत्र की
अंर्तदृष्टि है।
सरहा कहता है-‘श्रीमान! आनंद का एक क्षण, एक
बार भी वह आनंद आपको बदलने के प्रर्याप्त है। वह राजा से कहता है: ‘एक बार, एक
क्षण ही, वही पर्याप्त तर्क और प्रमाण होगा कि
मैं किस तरह का जीवन जी रहा हूं, और
किस तरह के अस्तित्व में हूं।’
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब परमानंद छा जाता है,
तो
देखने वाला मन समृद्ध हो जाता है.....
और मन
कभी भी तर्क वितर्क और दार्शनिकता से समृद्ध नहीं होता। यह सिद्धांतों के द्वारा
समृद्ध नहीं होता, वह थोथे ज्ञान के द्वारा समृद्ध नहीं
होता है—वह केवल अनुभव के द्वारा समृद्ध होता
है। एक समृद्ध मन का अर्थ है, जिसने
सत्य की कुछ चीज़ का अनुभव किया है, जिसने
सत्य का अनुभव किया है। इस बारे में केवल एक ही समृद्धता है—और वह है सत्य की। और यहां एक ही निर्धनता है
और वह है झूठ की। यदि तुम सत्य को नहीं जानते हो, तो झूठ में जीते हो; तुम
भ्रमों प्रक्षेपणों और सपनों में जीते हो।
सबसे
अधिक उपयोगी होता है।
जब
भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है
वह
स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।
सामान्य
रूप से लोग वस्तुओं की और क्यों दौड़ते हैं? कोई
व्यक्ति कार चाहता है, कोई व्यक्ति एक मकान चाहता है, कोई व्यक्ति धन चाहता है और कोई व्यक्ति सत्ता
और शक्ति चाहता है—आखिर लोग क्यों वस्तुओं के पीछे दौड़
रहे हैं? उनकी लालसा पूर्ण और उत्तेजनापूर्ण
गतिविधियों की बुनियादी कारणों का आधार क्या हैं? तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे। तंत्र कहता
है कि वे स्वयं से दूर भागना चाहते हैं। वे लोग वस्तुओं की और नहीं भाग रहे हैं,वे पूरी तरह से स्वयं से दूर भागना चाहते हैं।
वस्तुएं तो एक बहाना हैं,
वे तुम्हारी सहायता करती हैं, कि तुम स्वयं की और से अपनी पीठ मोड़ लो। तुम
स्वयं से ही भयभीत हो, वहां तुम्हें स्वयं अपने बारे में बहुत
बड़ा भय है।
ऐसा
यहां प्रतिदिन होता है: जब कभी व्यक्ति ध्यान के निकट आता है, वह भयभीत हो जाता है। क्यों? क्योंकि जब तुम स्वयं अपने अंदर देखते हो, तो तुम वहां किसी भी व्यक्ति को नहीं पाओगे।
वहां शून्यता, अतल खाई—और अथाह शून्यता है। तुम कंपना शुरू हो जाते हो, तुम पर्वत की चोटी की कगार पर खड़े हो, केवल एक गलत कदम उठा और तुम समाप्त हुए। कोई भी
व्यक्ति स्वयं से भागना शुरू कर देता है। लोग दौड़ रहे हैं—वस्तुओं के लिए नहीं, लोग स्वयं से भाग रहे हैं। वे किसी चीज के लिए
नहीं भाग-दौड़ कर रहे हैं,
वे तो स्वयं से भाग रहे है। और वह कुछ
और चीज़ स्वयं उनका अपना आस्तित्व है।
इसलिए
जब कभी भी तुम व्यस्त होते हो, तुम
अच्छा महसूस करते हो। जब कभी तुम व्यक्त होते हो तुम बहुत अधिक बैचेनी का अनुभव
करते हो। करने को कुछ भी नहीं हो तो तुम स्वयं में गिरना शुरू हो जाते हो। यदि
वहां करने के लिए कुछ भी नहीं है, तो
तुम व्यस्त हो, जब तुम व्यस्त होते हो तुम उस अतल खाई
को भूल जाते हो। जो तुम्हारे अंदर से तुम्हें बुला रही है। अतल खाई ही है वो
परमात्मा।
उस
अतल खाई के साथ व्यवहार में आना, उस
अतल खाई के साथ मित्रवत बनना। सत्य की और उठाया गया पहला कदम है।
यद्यपि
इसके परिणाम स्वरूप
वह ‘इस’ और ‘उस’ के लिए उपयोगी होता है।
वह
चाहे कामवासना में लिप्त हो अथवा न हो
उसका
स्वरूप शून्यता ही होता है।
सरहा
कहता है कि सामान्य लोग वस्तुओं के पीछे दौड़ रहे हैं। क्योंकि वे स्वयं से बचना
चाहते हैं। लेकिन एक व्यक्ति जो जान गया है कि सत्य क्या है, यदि वह व्यक्ति भी वस्तुओं की और जा रहा हैं, तो धोखा मत खा जाना क्योंकि वह उनमें भी आनंद
लेगा। वास्तव में केवल वह ही व्यक्ति है जो उनमें आनंद ले सकता है।
तुम
वस्तुओं के पीछे दौड़ रहे हो, क्योंकि
तुम स्वयं से बचना चाहते हो। उसके पास कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे वह बचे
अथवा दूर रहना चाहे, वह कहीं और से पलायन नहीं कर रहा है।
वह वस्तुओं का आनंद ले सकता है। वास्तव में यही है वह व्यक्ति जो आनंद के मार्ग पर
खड़ा है। तुम वस्तुओं का आनंद कैसे ले सकते हो, जब
तुम निरंतर स्वयं अपने ही अस्तित्व से भयभीत हो?
सरहा
कहता है कि यदि तुम एक तांत्रिक को एक स्त्री के साथ आनंद लेते हुए अथवा मदिरा पान
करते हुए अथवा स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेते हुए देखते हो, तो उसके बारे में कोई निर्णय मत लो, क्योंकि वह ठीक दूसरे सामान्य व्यक्ति के समान
दिखाई जरूर देता है, जब की वह वैसा है नहीं। अंतर बहुत गहरा
है, और अंतर ही प्रामाणिक रूप से सारभूत
है। परिधि पर वे दोनों एक जैसे दिखाई देते हैं। तुम यह भेद कैसे कर सकते हो कि एक
व्यक्ति जो एक स्त्री के पीछे भाग रहा है, एक
सामान्य व्यक्ति है अथवा एक तांत्रिक है? बाहर
से यह जानना बहुत कठिन है,
क्योंकि बाहर से वे लगभग समान दिखाई
देते हैं।
थोड़े
से उदाहरण लो: दो नर्तक नृत्य कर रहे हैं। एक नर्तक केवल अहंकार का अनुभव करने के
लिए प्रदर्शन इसलिए कर रहा है, कि
वह एक महान नर्तक है। यह एक प्रदर्शन है। वह लोगों की आंखों में उनकी तालियों की
प्रतीक्षा कर रहा है। वह यह आशा कर रहा है कि वे लोग प्रशंसा करने जा रहे है। वे
लोग उसके अहंकार को थोड़ा और अधिक मजबूत बनाने में सहायता करेंगे।
और
वहां उसी मंच पर एक दूसरा नर्तक भी केवल इसलिए नृत्य कर रहा है, क्योंकि वह उसका आनंद ले रहा है। वह प्रदर्शन
नहीं कर रहा है। वह इस बात की भी फिक्र नहीं कर रहा है, कि लोग प्रशंसा कर रहे हैं, अथवा नहीं, लोग
वहां हैं भी अथवा नहीं हैं?
वह अपने नृत्य में पूरी तरह डूबा हुआ
है, वह अपने नृत्य में मगन है। क्या
तुम्हारे लिए यह संभव होगा कि तुम बाहर से उनमें अंतर कर सको। सह बहुत कठिन होगा।
अधिक
संभावना यही है कि तुम उनमें कोई भी अंतर करने में समर्थ न हो सकोगे। यह संभव है
कि तुम यह भी सोच सकते हो कि प्रदर्शन करने वाला एक महान नर्तक है, क्यों वह अहंकार की समान भाषा बोल रहा हे। जिसे
तुम समझते हो। प्रदर्शन और अभिनय न करने वाला नर्तक हो सकता है थोड़ा सा सनकी
दिखाई दे। अभिनय न करने वाला नर्तक इतनी अधिक स्वेच्छया और स्वच्छंदता से नाचेगा
कि जब तक तुम स्वेच्छा और स्वच्छंदता की भाषा न जानते हो, तुम उसे नहीं समझ सकते हो।
किसी
भी चीज को समझने के लिए तुम्हें कम से कम उसकी भाषा को जानना होगा। एक तांत्रिक एक
स्त्री की बगल में बैठा हुआ उसका हाथ पकड़े हुए है,और एक सामान्य व्यक्ति भी एक स्त्री का हाथ पकड़े हुए है, तुम उन दोनों के मध्य में भेद या भिन्नता कैसे
करोगे? सामान्य व्यक्ति तो स्वयं से भागने का
प्रयास कर रहा है। वह इस स्त्री में अपने को खो देना चाहता है। जिससे वह स्वयं को
भूल सके। वह स्वयं अपने साथ ही प्रेम में नहीं है, इसी वजह से वह इस स्त्री से प्रेम कर रहा है—जिससे वह अपनी वास्तविकता को भूल वह इस स्त्री
का उपयोग एक नशे की भांति कर रहा है। एक मदिरा की भांति। जिससे वह स्त्री उसे इतना
उन्मत्त बना दे कि वह स्वयं के बारे में भूल जाये। वह सहायता करती है, वह उसे विशिष्ट विश्राम में ले जाती है। वह कम
से कम कुछ क्षणों के लिए अपनी सामान्य विक्रितियों में नहीं रहता है।
और
वह तांत्रिक, जो अत्यधिक आनंद में उस स्त्री का हाथ
थामें हुए है। ऐसा नहीं है कि वह पलायन करना चाहता है—वह भागकर कहीं भी नहीं जाता है और वहां ऐसा कोई
भी नहीं है जिससे उसे पलायन करना हो। वह उस स्त्री का हाथ केवल इसलिए थामें हुए है
जिससे वह उसे किसी अत्यधिक मूल्य की किसी चीज में सहभागी बना सके।
लोग
मुझसे पूछते हैं कि आप जनसमूह से बात क्यों नहीं करते। मैं उनके मध्य बात नहीं
करता, क्योंकि मेरे पास कुछ चीज बांटने को है
और उसमें गहन आस्था रखने वालों को ही सहभागी बनाया जा सकता है। उसे केवल गहन प्रेम
में ही बांटा जा सकता है। मैं केवल उन्हीं लोगों के साथ बातचीत कर सकता हूं, जो मेरे साथ प्रेम में हैं। अन्यथा वह अर्थहीन
है। वे लोग समझेंगे नहीं,
बल्कि गलत समझेंगे। इस बारे में उन्हें
समझाने का कोई भी उपाय नहीं है। वह केवल तभी सम्प्रेषित किया जा सकता है जब तुम प्रति
उत्तर के लिए तैयार हो।
जब
तुम्हारे हृदय के द्वार खुले हैं और वे तैयार हैं, मैं तुम्हारे हृदय तंत्री के तारों को छेड़ सकता हूं और एक महान
संगीत उत्पन्न होगा लेकिन यदि तुम बिना किसी आस्था के, संदेह करते हुए हृदय के द्वारा बंद करके आते हो, तब मैं वह संगीत उत्पन्न नहीं कर सकता। यह
असंभव है, क्योंकि तुम मुझे अपने अस्तित्व के
अंतरस्थ केंद्र में प्रवेश करने की और अपने हृदयों के साथ खेलने की अनुमति नहीं
देते। यदि तुम मुझे अनुमति देते हो तब संगीत उत्पन्न नहीं हो सकता है। कैसे हो
सकता हैं?
और
तब तुम जानना चाहते हो कि क्या संगीत कहीं अस्तित्व में भी है और तुम्हें सचेत
बनाने का कि वह अस्तित्व में है, केवल
यही उपाय है कि उसे तुम्हारे अंदर ही सृजित किया जाये। तुम कहते हो—‘हां, मैं
विश्वास करूंगा यदि मैं संगीत का अनुभव कर सकता हूं।’ समस्या यह है कि जब तक तुम विश्वास न कर लो, तुम संगीत का अनुभव नहीं कर सकते। उसे सृजित
करना होगा, केवल तभी तुम जान सकते हो कि वह है।
लेकिन तुम उसे जान सको। उससे पूर्व आस्था बरना एक मूल आवश्यकता है।
तांत्रिक
एक स्त्री का हाथ पकड़ रहा है। वह किसी भी व्यक्ति का हाथ पकड़ सकता है, लेकिन वह उस ऊर्जा को हस्तांतरित करने में जो
उसे घटी है, समर्थ नहीं होगा। वह उसे किसी ऐसे
व्यक्ति को जो उससे प्रेम करता है बहुत सरलता से हस्तांतरित कर सकता है। और वह भी
केवल विशिष्ट क्षणों में ही हस्तांतरित की जा सकती है।
वहां
विशिष्ट क्षण तब होते हैं,
जब दो व्यक्ति इतने अधिक निकट आते हैं
कि ऊर्जा एक व्यक्ति से दूसरे पर छलांग लगा सके। तुम उन क्षणों को जानते हो, वे वहां दिन के चौबीस घंटे नहीं होते हैं—यदि तुमने किसी व्यक्ति से प्रेम किया है, तो तुम उन्हें जानोगे। यदि तुम एक स्त्री से—अपनी पत्नी अथवा अपने बच्चों अथवा अपने पति से
प्रेम करती हो, तब भी तुम जानते हो कि वह क्षण वहां
दिन के चौबीसों घंटे नहीं होते है। वह क्षण बहुत कम घटते हैं। कभी-कभी वे घटते हैं—किसी भी समय, कुछ भी चीज़ होती है, और
तुम एक साथ उन क्षणों में डूब जाते हो। कभी-कभी तुम अनुभव करते हो कि दूसरा
व्यक्ति सरक कर बहुत-बहुत निकट आ गया है। तुम्हारी परिधियों ने एक दूसरे को ढक
लिया है। यही वह क्षण होता है, जब
कुछ चीज़ हस्तांतरित हो सकती है।
अब
सरहा राजा से कहता है—‘यदि श्रीमान! आप बाहर से देखते हैं, तो आप हम तांत्रिकों को ठीक वैसे ही देखेगें
जैसे सामान्य लोग चीजों के लिए और जीवन के सामान्य सुखों की और भटक रहे हैं। हम
लोग ऐसे नहीं हैं।’
और
वह कहता है—
एक
बार पूरे क्षेत्र में जब वह पूर्णानन्द छा जाता है
तो
देखने वाला मन समृद्ध बन जाता है।
सबसे
अधिक उपयोगी होता है।
जब
भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है
वह
स्वयं से पृथक से पृथक बना रहता है।
‘यह’ समसारा
है और ‘वह’ निर्वाण
है। सरहा कहता है कि यह समृद्ध मन, परमानंद
से समृद्ध होता है, वह ‘यह’ और ‘वह’ के लिए समसारा और निर्वाण के लिए, बाहर और अंदर के लिए भौतिक और अध्यात्मिक के
लिए तथा दृश्य और अदृश्य दोनों के ही लिए उपयोगी बन जाता है, वह और यह तथा दोनों के लिए उपयोगी और समर्थ बन
जाता है। यह एक बहुत महान वक्तव्य है।
सामान्य
रूप से तथाकथित आध्यात्मिक लोग यह सोचते हैं कि तुम्हारा मन संसार में अथवा
परमात्मा में से किसी एक में उपयोग हो सकता है, उनकी
सोच है कि या तो ‘यह’ अथवा
‘वह’।
तंत्र कहता है कि यह चिंतन जीवन को निम्नतम और उच्चतम में भौतिकता और अध्यात्मिक
में समसारा और निर्वाण में विभाजित कर देता है: यह विभाजन गलत है क्योंकि जीवन
अविभाज्य है। और वास्तव में यदि तुम बुद्धिमान हो तो तुम न केवल परमात्मा का बल्कि
तुम सामान्य वस्तुओं का भी आनंद लेने में समर्थ हो सकोगे। तुम एक चट्टान का भी
उतना ही आनंद लेने में समर्थ हो सकोगे जितना अधिक परमात्मा का आनंद लेने में समर्थ
होगे।
इस
गूढ़ और महान वक्तव्य पर जरा दृष्टिपात करो: जब मन आनंद से वास्तव में बुद्धिमान
और समृद्ध होता है, तुम परमानंद का उपभोग करने में समर्थ
होगे। तुम प्रसन्नता का उपभोग करने में समर्थ होगे और तुम सुख का भी उपभोग करने
में समर्थ होगे क्योंकि वह सभी अस्तित्व के ही अंश हैं, जितना अधिक निम्नतम उसका अंश है उतना ही अधिक
उच्चतम भी है,
और
परिणाम स्वरूप ‘यह’ और ‘वह’ के लिए
वो
सबसे अधिक उपयोगी होता है।
जब
भी वह वस्तुओं के पीछे दौड़ता है,
वह
स्वयं से पृथक बना रहता है।
और
सरहा कहता है—‘यदि तुम मुझे दौड़ते हुए पाते हो, तो वस्तुओं के पीछे भागना, यह तुम्हारी व्याख्या है। मैं नहीं दौड़ रहा
हूं, क्योंकि वहां वह स्थान कहीं भी नहीं है
जहां दौड़ना है, और न दौड़ने वाला कोई व्यक्ति ही है।’ यह स्थिति वह है जहां एक व्यक्ति ने अपनी
अंतरस्थ की प्रज्वलितता को प्राप्त कर लिया है। जो ऐसी है कि वह एक व्यक्ति भोजन से
लेकर परमात्मा तक और संभोग से लेकिन समाधि तक प्रत्येक वस्तु का उपयोग कर सकता है।
वहां कोई भी विभाजन नहीं है; वहां
होना भी नहीं चाहिए, और उसके वहां होने की कोई जरूरत भी
नहीं है।
तंत्र
तुम्हें दोनों संसार देता है। तंत्र दो में से एक का दृष्टिकोण नहीं है, उसके लिए ‘यह’ अथवा ‘वह’ दोनों एक समान है। ये एक बहुत गहरी समझ है। इस
तरह से सभी धर्म निर्धन प्रतीत होते हैं, क्योंकि
वे संसार को अलग कर देते हैं, और
तुम्हें अनावश्यक चुनाव करने के लिए बाध्य करते हैं। वे कहते हैं—‘या तो संसार को चुनो अथवा परमात्मा को। वे परमात्मा
को संसार के विरोध में रखते हैं। केवल तंत्र ही सम्पूर्ण धर्म है। वह अकेला एक
समग्र धर्म है। पृथ्वी पर ऐसा कोई भी धर्म उत्पन्न नहीं हुआ है जिसके पास ऐसी
समग्र अंतदृष्टि हो।’
सरहा
कहता है—‘दोनों! वहां चुनाव का कोई प्रश्न ही
नहीं है—वह सभी कुछ तुम्हारा है। तुम बाजार के
बीच में रह सकते हो और तुम बाजारू स्थान का भी उपभोग कर सकते हो—और तो तभी तुम उसके पार हो सकते हो, और तुम उस पार का भी उपभोग कर सकते हो। वह
तुम्हें चुनाव करने के लिए विवश नहीं करता है, सारे
चुनाव विनाशक हैं। और इन धर्मों के दो में से एक के दृष्टिकोण के कारण ही, यह संसार, सांसारिक
ही बना रहा है।’
परमात्मा
के बारे में कौन फिक्र करता है? परमात्मा
इतनी अधिक दूर है और इसीलिए वह वास्तविक नहीं है। और तब कोई एक सोचता है....नाद
में....। कोई भी परमात्मा को आगे के लिए स्थगित कर सकता है, लेकिन जीवन तो भागा जा रहा है—पहले उसका उपभोग करो। ये धर्म, जिन्होंने मनुष्य पर चुनाव बलात थोप दिया है, उन्होंने मनुष्य को सांसारिक बने रहने के लिए
विवश किया है। दस लाख में से केवल एक व्यक्ति ही धार्मिक बनेगा। एक अनावश्यक और
कठोर चुनाव है—कि उसे संसार का परित्याग करना होता है, उसे अपने परिवार और अपने मित्रों को छोड़कर
जाना होता है, उसे अपने सारे प्रेमियों के विरूद्ध
जाना होता है। तुम अनावश्यक रूप से उसे विवश करते हो।
और
तब एक दूसरी समस्या उठ खड़ी होती है। ये लोग जो संसार के विरूद्ध परमात्मा को
चुनने के लिए तैयार हैं, ये लोग कम अथवा कुछ अधिक विकृत
मस्तिष्क के जो किसी तरह से असफल हुए हैं, जो
किसी भांति जीवन को समझने में पर्याप्त बुद्धिमान नहीं रहे, जो किसी तरह से मूर्ख हैं जो किसी प्रकार से
अपने को अथवा दूसरों को यातनाएं देकर सुख पाने वाले हैं। अथवा जो किसी प्रकार से
अहंकारी और मानसिक रूप से रूग्ण व्यक्ति हैं। वे संसार से पलायन कर सकते हैं, वे स्वयं को यातनाएं देना प्रारम्भ कर सकते हैं, यहीं है वह जो अभी तक का संन्यास है। तुम स्वयं
को दो स्वयं के ही प्रति हिंसक बनो और स्वयं को मारो, और धीमे-धीमे अपने अस्तित्व को जहर से भरते चले
जाओ। ये लोग स्वस्थ बिलकुल नहीं हैं, ये
बीमार है।
इसलिए
दस लाख लोगों में से एक व्यक्ति परमात्मा का चुनाव करने में अभिरुचि लेता है। और
तथाकथित सौ धार्मिक लोगों में निन्यानवे लोग मानसिक रूप से रूग्ण दिखाई देते हैं।
इसलिए दस करोड़ लोगों में एक व्यक्ति कृष्ण अथवा बुद्ध अथवा क्राइस्ट बनता है। यह
केवल एक हानि है।
जरा
एक ऐसा उद्यान के बारे में सोचो, जहां
एक करोड़ वृक्ष उगाए गए हो और केवल एक वृक्ष ही फूलों ओर फलों से लद जाये। क्या
तुम उस स्थान को बागान कहकर पुकारोगे या उस माली को माला कहोगे? वास्तव में तुम एक स्वाभाविक निष्कर्ष पर आओगे
कि जो वृक्ष पुष्पित हुआ है वह माली के कारण नहीं हुआ...उसे उसकी देखरेख के बिना
किसी अन्य कारण से हुआ मानोगे। उसका होना अपना है। उसने एक करोड़ वृक्ष रोपे थे, और केवल एक वृक्ष ही पुष्पित हुआ और उस पर फल
भी आए। ऐसा माली के कारण तो कम से कम नहीं ही हुआ होना चाहिए। इसे इसलिए होना
चाहिए, क्योंकि वह किसी तरह माली की दृष्टि से
बच गया। और माली उसे नष्ट नहीं कर सका। किसी तरह से माली ने उसकी अपेक्षा की, और किसी प्रकार माली उसके बारे गया उससे कुछ
चूक हो गई, वरना तो उसे भी उन करोड़ वृक्ष की तरह
से ही होना चाहिए। प्रत्येक वृक्ष में फल-फूल देने की संभावना छिपी होती है। उसकी
सम्भावित शक्ति उसे फलने-फूलने में समर्थ बनाती है और प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा
बनने में समर्थ है।
तंत्र
पूर्ण रूप से एक नया धर्म सृजित करता है। वह कहता है कि इस बारे में चुनाव करने की
कोई भी आवश्यकता नहीं है,
तुम जहां कहीं भी हो जैसे भी हो, एक दम से ठीक हो वहीं से तुम उस पूर्णता की और
जा ही रहे हो। वहीं से तुम अपनी यात्रा या धार्मिकता का अनुभव कर सकते हो। तंत्र
संसार के विरूद्ध बिलकुल नहीं है। वह धार्मिकता के लिए ही है। और उसका परमात्मा
इतना अधिक विराट है कि उसमें पूरा संसार शामिल हो सकता है।
मेरे
देखे, यह बहुत संगत है कि सृष्टा को सृष्टि
में ही होना चाहिए, वह उसका अंग होना चाहिए, उसमें सम्मिलित होना चाहिए। उससे अलग या उसके
विरूद्ध तो बिलकुल भी नहीं। यह किसी तरह का तर्क है जो यह कहता है, कि सृष्टि, सृष्टा
के विरूद्ध है। यदि वह परमात्मा है जिसने तुम्हारा सृजन किया है, यदि वह परमात्मा है जिसने तुम्हारे शरीर की
सृष्टि की है, तुम्हारी कामवासना और तुम्हारी
इन्द्रियों के सुखों को सृजन किया है, तो
वे परमात्मा के विरूद्ध कैसे हो सकती है।
जार्ज
गुरूजिएफ कहा करता था कि सभी धर्म परमात्मा के विरूद्ध हैं। और वह तंत्र के सिवाय
बिलकुल ठीक कहता था। सभी धर्म परमात्मा के विरूद्ध हैं। यदि तुम परमात्मा की
सृष्टि के विरूद्ध हो तो तुम यह संकेत दे रहे हो कि तुम परमात्मा के विरूद्ध हो।
यदि तुम एक चित्र के विरूद्ध हो, तो
क्या तुम यह नहीं कर रहे हो कि तुम चित्रकार के विरूद्ध हो। यदि तुम कविता के
विरूद्ध हो तो क्या तुम अप्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कह रहे हो कि तुम कवि के
विरूद्ध हो।
यदि
परमात्मा एक सृष्टा है, तो यह सृष्टि उसकी रचना हुई, इस के प्रत्येक स्थान पर उसी के हस्ताक्षर होने
चाहिए। तुम्हें केवल अपनी आंखें भर खोलनी है, एक
देखने वाले मन की जरूरत है,
और कुछ भी नहीं अपने को थोड़ा ग्रहणशील
बनाना है, ताकि उस आनंद में जो हमारे चारों और
बरस रहा है उसमें हम स्नान कर सके उस में हम डूब सके। तुम ने अपने आप को छोड़ा और
घटनाएं घटनी शुरू हो जायेगी।
प्रसन्नता
और आनंद की कलियां
तथा
दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।
यदि
कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है
तो
मौन परमानंद फल देगा ही।
यह
रहस्य की कुंजी है। ये सरहा के अंतिम सूत्र हैं। उसने जो अभी तक कहा है वह उसे
अंतिम स्पर्श दे रहा है। वह अंतिम वक्तव्य दे रहा है।
वह
कहता है कि सुख शरीर के हैं। सुख बाहर जा रहे हैं—सुख के लिए हमें दूसरे व्यक्ति की जरूरत है। सुख वस्तु के लिए लालसा
कर रहा है, और सुख एक बहिर्मुखी यात्रा है। यह
अच्छा है। इस बारे में कुछ भी गलत नहीं है। और तब आनंद एक अंतर्मुखी यात्रा है। यह
अच्छा है। इस बारे में कुछ भी गलत नहीं है। और तब आनंद एक अंतर्मुखी यात्रा है।
आनंद की अभिरुचि स्वयं व्यक्ति में है, आनंद
कहीं अधिक वैयक्तिक है। सुख के लिए दूसरा व्यक्ति जरूरी है, और आनंद के लिए तुम ही पर्याप्त हो।
सुख
शारीरिक अथवा भौतिक है और आनंद आस्तित्वगत है। लेकिन वे दोनों अंकुर बने रहते हैं, जब तक तुम में किसी तीसरे आनंद में सर्वोच्च पूर्ण
नंद घटित नहीं होता। यह पूर्ण नंद सहस्त्र दल कमलों के खिलने का है। यह तुम्हारा
चेतना के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना है। जब वह खिलता है तो सभी कलियां खिल जाती
हैं।
अब
यह बात समझने जैसी है। एक सामान्य व्यक्ति के पास केवल एक बहुत सीमित हर्ष-उल्लास
होता है, जो शरीर के द्वारा मिलता है, लेकिन एक तांत्रिक को अपने शरीर के द्वारा ही
अत्यधिक आनंद मिलेगा। वह केवल एक कली नहीं बना रहेगा, वह एक खिलावट होगी। एक सामान्य व्यक्ति को
संगीत में, ध्यान में, नृत्य में एक विशिष्ट आनंद मिल सकता है, लेकिन एक तांत्रिक को अनंत आनंद प्राप्त होता
है। जब तुमने अंतिम को जान लिया होता है, तो
अंतिम प्रत्येक उस चीज़ में जिसे तुम करते हो प्रतिबिम्बित होना प्रारम्भ हो जाता
है।
यदि
तुमने धार्मिकता को जाना है तो जहां कहीं भी तुम चलते हो तुम धार्मिक पृथ्वी पर ही
चलते हो। तब तुम जो कुछ भी देखते हो, तुम
धार्मिकता को देख रहे हो। तब तुम जिस किसी भी व्यक्ति से मिलते हो, तुम परमात्मा से ही मिलते हो।
सदा
स्मरण रहे: तुम्हारा सर्वोच्च अनुभव ही तुम्हारे निम्नतम अनुभवों में प्रतिबिम्बित
होता है। बिना उच्चतम अनुभव के निम्नतम अनुभव बहुत तुच्छ है। यही समस्या है। इसी
कारण लोग तांत्रिकों को जब वे कहते हैं कि सेक्स से भी समाधि संभव है, नहीं समझ सकते। वे नहीं समझ सकते और यह बात
समझने योग्य है कि वे क्यों नहीं समझ सकते। वे समाधि को ही नहीं जानते है। वे बहुत
सामान्य कुरूप सेक्स को ही जानते हैं। वे उसे केवल निराशा के द्वारा जानते है। वे
केवल वासना के द्वारा जानते हैं।
अंग्रेजी
शब्द लव (प्रेम) बहुत अर्थपूर्ण है। यह संस्कृति के मूल ‘लोभ’ से
आता है। लोभ का अर्थ है लालच-लालसा। सामान्य प्रेम और कुछ भी न होकर केवल लालसा और
लोभ है। सामान्य मनुष्य ये कैसे समझ सकता है कि प्रेम में भी सर्वोच्च
प्रतिबिम्बित हो सकता है?
लेकिन जब तुमने अंतिम और सर्वोच्च को
जान लिया होता है, तब निम्नतम भी उसके साथ जुड़ जाता है।
जब कोई भी चीज़ उसे उत्तेजित करती है, तब
उससे कोई भी चीज़ एक संदेश बन जाती है।
यह
ठीक इस भांति है....तुम सड़क पर पड़े एक रूमाल से होकर गुज़रते हो; वह एक सामान्य रूमाल है, जिसका मूल्य एक रूपये से अधिक नहीं है। लेकिन
एक दिन तुम एक स्त्री के साथ प्रेम में पड़ जाते हो, और तुम फिर सड़क पर पड़े एक रूमाल से होकर गुज़रते हो—जो वैसा ही एक रूपये मूल्य का रूमाल है, लेकिन अब वह उस स्त्री का है जिसे तुम प्रेम
करते हो। अब उसका मूल्य बहुत अधिक है, अब
वह केवल एक रूपये मूल्य का नहीं रहा। यदि कोई व्यक्ति तुम्हें उसके लिए एक हजार
रूपये देने जा रहा था, तो भी तुम उस रूमाल को देने के लिए
तैयार नहीं होगे। क्यों? क्योंकि वह उस स्त्री का है जिसे तुम
प्रेम करते हो। अब यह सामान्य रूमाल के पास कुछ ऐसी चीज़ है जो इस से पूर्व उसमें
नहीं थी: वह तुम्हें तुम्हारी प्रेमिका का स्मरण दिलाता है।
यह
ठीक उसी भांति है। जब तुम समाधि को जान गए हो, तब
संभोग का सर्वोच्च शिखर तुम्हें समाधि का स्मरण कराता है, तब प्रत्येक चीज तुम्हें समाधि का स्मरण दिलाती
है। तब पूरा अस्तित्व और अधिक सम्पूर्ण धार्मिकता से ओतप्रोत हो जाता है।
प्रसन्नता
और आनंद की कलियां,
और
दिव्य सौंदर्य और दीप्ति के पत्ते उगते हैं।
कलियां
है, आनंद और प्रसन्नता की और कोंपलें हैं, उसका गर्व और गौरव। लेकिन सामान्य रूप से तुम
कोंपलें या पत्तियां देखोगे, जब
तुम सामान्य कोंपलों और पत्तियों में भी उस सर्वोच्च आनंद को घटता देखते हो। जब वह
सर्वोच्च आनंद घटता है तो तुम्हारे जीवन की सामान्य पत्तियां भी सामान्य पत्तियां
नहीं होती हैं: उनके द्वारा ही वह सर्वोच्च खिलावट घटी है। और अब तुम जानते हो कि
सर्वोच्च खिलावट में वहीं पौधों का सार है, वहीं
जीवन का तत्व प्रवाहित होता है, प्रसन्नता
और आनंद की कलियों में....और पत्तों में भी वहीं समान जीवन रस प्रवाहित होता है।
वे सभी एक साथ मिलकर सहस्त्र कमल खिलने में सहायता करते हैं।
दिव्य
सौंदर्य के दीप्तिवान पत्तों का अर्थ है...सौंदर्य और अनुग्रह के किसलय। तुम
अस्तित्व के दिव्य सौंदर्य व दीप्ति का अनुभव करना प्रारम्भ कर देते हो और
तुम्हारा जीवन दीप्तिवान हो उठता है। वह अब और सामान्य नहीं रह जाता है, वह धार्मिकता से प्रकाशित हो उठता है।
यदि
कहीं भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है..... और कब यह सहस्त्र दल कमल खिल जाता है? यह तभी खिलता है जब अंदर से कुछ भी नहीं रिसता
है।
अब
ज़रा देखो: पहले सुख मिलता है जब तुम्हारी ऊर्जा बाहर प्रवाहित होती है...यह
शारीरिक सुख है। आनंद तब मिलता है जब तुम्हारी ऊर्जा अंदर की और प्रवाहित होती
है...यह वैयक्तिक और आत्मिक आनंद है। और परमानंद कब घटित होता है? जब तुम्हारी ऊर्जा कहीं नहीं रिसती, वह पूरी तरह से वहीं अंदर बनी रहती है। तुम
कहीं भी नहीं जा रहे हो, तुम पूरी तरह से वहीं हो, तुम केवल एक सारभूत अस्तित्व हो।
अब
तुम्हारे पास कोई लक्ष्य नहीं हैं, अब
तुम्हारे पास पूरी करने को कोई कामनाएं नहीं हैं, और अब तुम्हारे पास कोई भविष्य भी नहीं है। तुम केवल अभी और यहीं हो।
जब ऊर्जा कहीं भी न जाकर एक कुंड बन जाती हैं, वह
बाहर कहीं भी रिसती नहीं है। जब पाने को कोई भी लक्ष्य नहीं होता, कुछ खोजने को नहीं होता, तुम केवल यहीं होते हो, पूर्ण रूप से आश्चर्यजनक रूप से अपने में होते
हो। अब तुम्हारे लिए पूरे समय यही ‘अभी’ ही बच जाता है, और यह ‘यही’ पूरे अंतराल में होता हे। अब अचानक ऊर्जा के एक ही स्थान पर एकत्रित
हो जाने से जो अब कहीं भी गतिशील नहीं हो रही है, जो शरीर और मन के द्वारा ध्यान भंग नहीं कर रही है, तुम्हारे अंदर एक तीव्र वेग बन जाता है, और सहस्त्र दल कमल खिल जाता है।
यदि
कहीं से भी बाहर कुछ भी नहीं रिसता है
तो
वह मौन परमानंद फल देगा ही।
और
तब फल आते हैं। इसलिए सुख और आनंद कलियां हैं, दिव्य
सौंदर्य दीप्ति, और अनुग्रह पत्ते हैं, और परमानंद की यह सर्वोच्च खिलावट ही, साधना का पूरा होना और प्राप्ति का स्वाद है।
तुम अब अपने घर आ गये हो।
जो
भी अभी तक किया गया है,
और
इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा
वह
कुछ भी नहीं है।
और
अब तुम जानते हो, कि जो कुछ भी किया गया है अथवा नहीं
किया गया है, वह केवल एक स्वप्न था। अब तुम जानते हो
कि कर्म और क्रिया का कुछ भी अर्थ नहीं है। तुम पानी पर केवल लकीरें खींच रहे थे।
जो विलुप्त होती चली जा रही हैं। कुछ भी नहीं बचता है। वास्तव में कुछ भी नहीं
होता है। सभी कुछ है। कुछ भी नहीं होता है।
जो
भी अभी तक किया गया है,
और
इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा,
वह
कुछ भी नहीं है।
लेकिन
वह कहता है, यह सत्य है, इसने ‘यह’ और ‘वह’ के लिए सहायता की है। यद्यपि की है। यद्यपि वह
थोड़े से समय तक का एक स्वप्न था, वह
सहायक था। वह ही मुझे इस सत्य तक लाया है। मैं उस स्वप्न पर कदम रख कर आगे बढ़ा
हूं, लेकिन अब मैं जानता हूं कि वह एक सपना
था, लेकिन उसने सहायता की है—उसने मुझे सर्वोच्च प्राप्ति का स्वाद दिया है।
‘यह’ समसारा
और ‘वह’ निर्वाण
दोनों ही उस सपने के कारण समृद्ध हुए हैं। वह स्वप्न सिर्फ व्यर्थ ही नहीं था, वह सहायक था, वह उपयोगी था। लेकिन सत्य न था।
मैं
तुम्हें एक प्रसंग बताना चाहता हूं....
वहां
एक शिकारी था, जो जंगल से होकर गुज़र रहा था, और उसे उस रास्ते पर अपनी और आता गुर्राता हुआ
एक चीता मिला। वह अपनी बंदूक के लिए लपका। दहशत में भरकर उसने देखा कि उसके पास
गोलियां नहीं है। चीता निकट आता जा रहा था, और
वह आक्रमण करने जा रहा था।
शिकारी
उसी स्थान पर भय से बर्फ की तरह जम गया और उसने सोचा—‘अब मैं क्या कर सकता हूं। अब मैं उसके द्वारा
खाया जाने वाला हूं।’ ठीक जैसे ही चीता उस पर लगभग उछलने ही
जा रहा था, उस शिकारी को एक अजीब अनुभूति हुई।
उसने स्वयं से कहा—‘मुझे पक्का विश्वास है कि यह एक स्वप्न
है। और अगर मैं काफी प्रयास करूंगा तो शायद में जाग सकता हूं।’ इस लिए उसने स्वयं पर एक तगड़ी चिकोटी काटी, अपने को हिलाया डुलाया और अपनी पलकें झपकाई। एक
क्षण में ही चीता चला गया था। वह अचानक
लुप्त हो गया था। और वह शिकारी अपने बिस्तरे पर सुरक्षित लेटा था। कैसे सुकून मिला? वह भय के साथ अभी भी कांप रहा था, लेकिन अब वह हंसा भी, वह चीता कितना अधिक वास्तविक दिखाई देता था।
परमात्मा का धन्यवाद है कि वह केवल एक स्वप्न था।
जब
उसने फिर से शांति का अनुभव किया तो वह शिकारी बिस्तरे से उठा और उसे स्वयं चाय
बनाकर पी। वह अभी भी थकावट का अनुभव कर रहा था। इसलिए वह झोपड़ी से बाहर जाकर अपनी
आराम-कुर्सी पर पसर गया और अपना पाइप से धूम्रपान करने का आनंद लेने लगा। वह
वास्तव में नींद का अनुभव कर रहा था, इसलिए
उसने अपने चेहरे को अपने टोप से ढक लिया और अपनी आंखें बंद कर मन ही मन कहा—‘अब मैं पूरे दिन सो सकता हूं।’
कुछ
समय बाद उसने फिर गुर्रा हट सुनी। शिकारी ने कहा—परमात्मा मुझे आर्शीवाद दे। मैं अनिवार्य रूप से फिर से सो जाऊं, और सपने में फिर वहीं चीता वापस लौट आया है।
उसने कहा—‘तुम एक मूर्ख चीते हो। फौरन भाग जाओ।
मैं तुम्हारे बारे में सपना देखते-देखते थक चूका हूं।’
चीता
पुन: गुर्राया और उसके अधिक निकट आ गया।
शिकारी
ने कहा—‘मैं तुमसे डरता नहीं हूं, तुम केवल एक सपना हो।’ तब वह अपनी कुर्सी से उठा, टहलता हुआ चीते के निकट गया और उसकी नाक पर एक
घूंसा जड़ दिया।
चीते
ने सोचा—‘यह कितना मज़ाकिया व्यक्ति है? लोग तो डरकर प्रायः मुझसे दूर ही भागते है।’ और वास्तव में इस अजीब व्यक्ति को देखकर चीता
दूर भाग गया।
जैसे
ही वह चीता उस व्यक्ति से दूर भाग रहा था, वह
व्यक्ति इस तथ्य के प्रति सचेत हुआ कि वह पूरी तरह जागा हुआ था। और चीता एक सपना
नहीं था। वह एक वास्तविकता थी।
लेकिन
हुआ क्या? उस स्वप्न ने असली चीते को भी ठीक करने
में सहायता की। स्वाभाविक रूप से उस चीते को बहुत उलझन में पड़ जाना चाहिए था। ऐसा
कभी भी नहीं हुआ था। यह किस तरह का व्यक्ति है, जो
उठता है और ठीक उस तरह से मेरे चेहरे पर आघात करता है?
सभी
स्वप्न है, लेकिन वास्तविकता को समझने में और
वास्तविकता पर विजय पाने में स्वप्न सहायता कर सकते हैं।
सरहा
कहता है:
जो
भी अभी तक किया गया है
और
इसलिए स्वयं में उससे जो भी होगा
वह
कुछ भी नहीं है।
यद्यपि
इसके परिणाम स्वरूप
वह ‘इस’ और ‘उस’ के लिए उपयोगी होता है।
वह
चाहे कामवासना में लिप्त हो अथवा न हो
उसका
स्वरूप शून्यता ही होता है।
सरहा
कहता है: चाहे तुम वासना पूर्ण जीवन जी रहे हो अथवा निर्वासना का जीवन, जो लोग जानते हैं, वे अपनी गहराई में यह भली भांति जानते हैं, वे अपनी गहराई में यह भली भांति जानते हैं, कि न तो वासना से और न निर्वासना से कोई भी
फर्क नहीं पड़ता है। अंदर गहराई में वह विशुद्ध शून्यता ही है।
वह
ठीक एक फिल्म के समान है जो एक कोरे स्क्रीन पर प्रक्षेपित की जाती है। एक सुंदर
दृश्य प्रक्षेपित किया जाता है, और
तुम उसकी सुंदरता के साथ रोमांचित हो उठते हो, एक
भयानक दृश्य प्रक्षेपित किया जाता है और तुम कांपने लग जाते हो। लेकिन सरहा कहता
है कि जिस दिन तुम यह समझते हो, वहां
पर्दे पर सिवाय छायाओं के खाली पर्दे पर कुछ भी नहीं रह जाता है। पापी होना भी एक
प्रक्षेपण है, और संत होना भी एक प्रक्षेपण ही है।
अच्छा भी एक प्रक्षेपण है,
और बुरा भी एक प्रक्षेपण ही है। वास्तविकता
तो एक कोरा पर्दा ही है, सभी कुछ मन के द्वारा प्रक्षेपण किया
जा रहा है।
इसलिए
सेहरा राजा से कहता है—‘श्रीमान! जो कुछ भी वे लोग कहते हैं, उससे आप बहुत अधिक परेशान न हों। मैं जानता हूं
कि केवल एक खाली पर्दा है।’
चाहे सरहा एक बहुत चरित्रवान व्यक्ति
हो अथवा एक चरित्र हीन आवारा व्यक्ति ही क्यों न हो। चाहे सरहा लोगों के द्वारा
सम्मानित किया जाए अथवा तिरस्कृत और उसे गाली देने से भी कुछ भी फर्क नहीं पड़ता—वह तो एक खाली और कोरा पर्दा है और उस पर लोग
अपने विचार प्रक्षेपित करते हैं।
मैं
इस शून्यता को जान गया हूं। और यह शून्यता का अनुभव और सहस्त्र-दल-कमल खिलने का
अनुभव, एक ही घटना के दो पहलू हैं। एक और तो
तुम सर्वोच्च परमानंद को उपलब्ध होते हो, और
दूसरी और अब तुम जानते हो कि प्रत्येक चीज केवल एक खाली सपना ही है। वहां न तो कुछ
भी छोड़ने को है, और न कहीं जाना ही है, किसी व्यक्ति को छोड़ना है और न किसी व्यक्ति
को कहीं भी जाना है। केवल वह वस्तुएं ही खाली और शून्य नहीं हैं, तुम भी खाली और शून्य ही हो। अंदर, बाहर, सभी
और वह शून्यता ही है—ठीक एक स्वप्न की भांति। एक स्वप्न में
क्या होता हैं? तुम ही उसे सृजित करते हो, वह मात्र एक कल्पना ही तो है।
अब
हम आखिरी सूत्र को लेंगे:
यदि
मैं सांसारिक कीचड़ में घंसा हुआ
लालसा
से भरा एक सूअर के समान हूं,
तो
उन्हें मुझे बताना चाहिए
कि
एक पवित्र मन में कौन सा दोष दिखाई देता है
ऐसा
क्या है, जिसका उस एक पर
कोई
भी प्रभाव नहीं पड़ता
अब
उस एक को कैसे बेड़ियों में
बाँध
कर रखा जा सकता है?
सरहा
कहता है—‘यदि मैं एक सूअर के समान हूं, तो यह ठीक हैं।’ यदि लोग कहते हैं, कि
सरहा एक सूअर अथवा एक पागल कुत्ता बन गया है, तो
यह पूरी तरह से ठीक ही तो है। यदि वे कहते कि सरहा एक महान संत बन गया है, अथवा वे कहते कि यह सांसारिक कीचड़ में धंसा
हुआ एक लालसा पूर्ण सूअर है—तो
उन्हें मुझे बताना चाहिए कि एक पवित्र मन में कौन सा दोष स्थिर होता है? और इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। जो कुछ भी मैं
हूं, असल में तो कुछ भी नहीं हूं, मैं जानता हूं कि मेरे अंदर केवल शून्यता ही रह
गई है। कोई भी क्रिया मेरे अस्तित्व को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करती है।
इसलिए श्रीमान! आप मुझे बतलाइये...एक पवित्र मन में कौन सा दोष स्थिर होता है। ऐसा
क्या है, जिसका उस एक पर कोई भी प्रभाव नहीं
पड़ता; अब उस एक को कैसे बेड़ियों में बांधा
जा सकता है?
और
ये चीज़ें मुझे इस तरह से अथवा उस तरह से प्रभावित नहीं करती हैं। न मैं निरासक्त
हूं और न मैं आसक्त हूं। जो भी जैसा भी होता है, मैं चीज़ों को होने देता हूं, मेरे
पास अब और कोई भी योजना नहीं है और न मेरे पास जीवन पर आरोपित करने वाली कोई और
शैली ही है। मैं स्वच्छंदता से सहज जीता हूं; जो
कुछ भी होता है, होता है और मेरे पास कोई भी निर्णय
नहीं है। और मैं यह नहीं कहता हूं, कि
इस तरह से होना चाहिए। मेरे पास ‘चाहिए’ नहीं रह गया है। और न मेरे पास ‘न चाहिए’ ही
रहा है।
सिर्फ
इस स्थिति पर ध्यान करो: ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए। न कोई योजना न
कोई निराशा, न कोई पछतावा—क्योंकि कभी भी कुछ भी गलत नहीं होता है। जब
तुम्हारे पास ठीक होने का कोई विचार ही नहीं होता, तो कैसे कोई भी चीज़ गलत हो सकती है।
यह
है सर्वोच्च स्वतंत्रता, यह है अंतिम मुक्ति।
कोई
चीज़ कैसे गलत हो सकती है?
गलत केवल तब हो सकता है, यदि तुम्हारे पास ठीक होने की एक विशिष्ट धारणा
होती है, यदि तुम्हारे पास कोई विचार या धारणा
ही नहीं होती है, और न ही तुम्हारे पास कोई विशेष आदर्श
ही होता है।
सरहा
कहता है—‘जिसका उस एक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, अब उस एक को कैसे बेड़ियों में बाँध कर रखा जा सकता
है?’
और
सूत्र के अंतिम वाक्य में एक महान सौंदर्य है। जब तुम वास्तव में अपने ‘घर’ आते
हो और तुम देखते हो—यह क्या है, तुम यह अनुभव नहीं करोगे कि तुम मुक्त हो गए
हो। इसके विपरीत तुम्हें यह अनुभव होगा—‘यह
कैसा हास्य पद बात है कि मैं हमेशा यही सोचता रहा की में मुक्त नहीं था।’ अंतर बहुत बड़ा है।
यदि
जब तुम घर आते हो, जब तुम जान पाते हो कि सत्य क्या है, तो तुम बहुत बढ़ा कर कुछ ही देर तक यह अनुभव
करना शुरू कर देते हो कि तुम जिस आनंद और उत्तेजना की बाढ़ में बहे जा रहे हो, और तुम कहते हो—‘अब मैं मुक्त हो गया हूं,’ इसका
अर्थ है कि तुम अभी तक मुक्त नहीं थे। इसका अर्थ है कि तुम अभी भी यह सोचते हो कि
बंधन वास्तविक था, इसका अर्थ है कि तुम अभी भी एक स्वप्न
में हो—अब यह एक दूसरा सपना है, एक सपना बंधन का था और यह दूसरा सपना मुक्ति का
है, लेकिन ये है सपना ही।
सरहा
कहता है कि जब तुम वास्तव में मुक्त हो गए हो—सभी
ठीक से ओर मुक्त हो गए हो। सभी कुछ अच्छे और बुरे से मुक्त हो गए हो—तब तुम न केवल बंधन से मुक्त हो गए हो, तुम स्वयं से भी मुक्त हो गए होते हो। तब अचानक
तुम हंसना प्रारम्भ कर दोगे, कितना
हास्यास्पद है? पहली बात तो यह कि बंधन हो ही नहीं
सकता। बंधन कभी हुआ ही नहीं था। यह केवल एक विश्वास था, जिसमें मैं विश्वास करता था। और अपने विश्वास
के द्वारा ही मैंने उसे सृजित किया था। वह एक सपना था, अब सपना समाप्त हो चुका है।
यही
कारण है कि अंतिम वाक्य एक प्रश्न चिन्ह पर समाप्त होता है। यह केवल अकेला एक है।
मैं ऐसे किसी अन्य ग्रंथ को नहीं जानता हूं। जिसका अंत इस तरह प्रश्न चिन्ह के साथ
हुआ हो।
धर्मशास्त्र
प्रारम्भ तो एक प्रश्न चिन्ह से होता हैं और उनका अंत उत्तर से होता है। एक
तर्कपूर्ण पुस्तक को ऐसा ही होना चाहिए। उसकी भूमिका एक प्रश्न चिन्ह हो सकती है, पर उपसंहार अथवा अंत नहीं। लेकिन सरहा के ये
सुंदर गीत एक प्रश्न चिन्ह पर समाप्त होते है—
यदि
मैं सांसारिक कीचड़ में घंसा हुआ
लालसा
से भरा एक सूअर के समान हूं,
तो
उन्हें मुझे बताना चाहिए
कि
एक पवित्र मन में कौन सा दोष दिखाई देता है
ऐसा
क्या है, जिसका उस एक पर
कोई
भी प्रभाव नहीं पड़ता
अब
उस एक को कैसे बेड़ियों में
बाँध
कर रखा जा सकता है?
वह
यह घोषणा नहीं करता है कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है, वह यह घोषणा नहीं करता की वह मुक्त हो गया है।
और वह यह भी घोषित नहीं करता है कि वह अपने घर आ गया है। वह सामान्य रूप से यही
कहता है—‘मैं इस वास्तविक विचार पर हंसता हूं कि
मैं कही और चला गया था। मैं कहीं भी नहीं गया था। मैं हमेशा और हमेशा से अपने घर
में ही रहा हूं। मैं हमेशा ही अभी और यहीं में ही रहा हूं। मैं केवल सपना देख रहा
था, इसलिए सपनों ने भ्रम सृजित कर दिया था
कि मैं कहीं और चला गया था। अब सपना विलुप्त हो चुका है, और मैं वहां हूं, जहां में हमेशा ही से रहा हूं। इसी कारण वह कहता है...उस एक व्यक्ति
को बेड़ियों में बाँध कर कैसे रखा जा सकता है?’
बेड़ियों
में बाँध कर रखे जाने वाला वहां कोई भी व्यक्ति नहीं है और न वहां बेड़ियों जैसी
कोई भी चीज़ है। बंधन विलुप्त हो गए हैं, और
ऐसे ही वह व्यक्ति भी विलुप्त हो गया है, जो
बंधन में था। जब संसार विलुप्त हो जाता है, तो
उसके ही साथ अहंकार भी विलुप्त हो जाता है, वह
समान खेल के भाग हैं। अंदर अहंकार है और बाहर संसार है। वे दोनों अलग नहीं रह सकते, वे हमेशा ही एक साथ होते हैं। जब एक विलुप्त
होता है, दूसरा भी एक साथ विलुप्त हो जाता है।
अब वहां अहंकार नहीं है और न वहां संसार ही है।
सरहा
बुद्ध की सबसे बड़ी अंर्तदृष्टि का प्रतिपादन कर रहा है। बुद्ध कहते हैं वहां कोई
भी पदार्थ नहीं है, और न वहां कोई आत्मा ही है, वहां कोई भी पदार्थ नहीं है, सब शून्यता ही है। और तुम्हारे अंदर कोई भी
आत्मा नहीं है, और वहां भी सभी और शून्यता है। इस
शून्यता को देखने के लिए आओ—जैसे
शून्यता में सचेतनता तैर रही है, जो
विशुद्ध और बंधनहीन चेतना है। यह चेतना स्वयं में एक शून्यता है अथवा यह शून्यता
ही स्वयं चेतना है। यह शून्यता चेतना के साथ आलोकित है, यह सम्पूर्ण चेतना है।
वस्तुओं
में तंत्र की एक गहरी अंतदृष्टि है। लेकिन अंतिम रूप से स्मरण रहे, यह कोई तत्वज्ञान नहीं है। यह एक अंतदृष्टि है।
और यदि तुम इसके अंदर जाना चाहते हो तो तुम्हें मन के द्वारा नहीं अ-मन के द्वारा
जाना होगा।
अ-मन
ही तंत्र का द्वार है। निर्विचार ही तंत्र का मार्ग है। अनुभव करना ही तंत्र की
कुंजी है।
आज
बस इतना ही।
thank you guruji
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