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शनिवार, 18 अप्रैल 2015

गीता दर्शन--(भाग--7) प्रवचन--175

संकल्‍पसंसार का या मोक्ष का(प्रवचनतीसरा)

अध्‍याय—15
सूत्र—

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पाक्क:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 6।।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 7।।
शरीरं यदवाम्नोति यच्‍चाप्‍युत्‍क्रामतीश्‍वर:।
गृहीत्‍वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्:।। 8।।
श्रोत्रं चक्षु: स्यर्शनं च रमनं घ्राणमेव च।
आधिष्ठाय मनश्चायं विश्यानुपसेवते।। 9।।

उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिम परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में गौं आते है वही मेरा परम धाम है।
और हे अर्जुन, हम देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और की इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।

जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों की ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।
और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्‍मा श्रोत्र, चक्षु और त्‍वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों की सेवन करता है।

 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : शरणागत— भाव को कैसे उपलब्ध हुआ जा सकता है?

 जीवन में सर्वाधिक कठिन, सब से ज्यादा दुरूह अगर कोई भाव—दशा है, तो शरणागति की है।
मन अहंकार के आस—पास निर्मित है। मन को मानना आसान है कि मैं ही केंद्र हूं सारे जगत का। जैसे पृथ्वी और सूर्य, तारे, सब मेरे आस—पास घूमते हों, मेरे लिए घूमते हों, पूरा जीवन साधन है और साध्य मैं हूं।
अहंकार की भाव—दशा का अर्थ है कि मैं साध्य हूं और सभी कुछ साधन है। सब कुछ मेरे लिए है और मैं किसी के लिए नहीं हूं। मैं ही लक्ष्य हूं; मेरे लिए ही सब घटित हो रहा है। सभी कुछ मेरी सेवा का आयोजन है। यह अहंकार भाव है।
शरणागति का भाव ठीक इससे विपरीत है; कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मेरा होना शून्यवत है और केंद्र मुझसे बाहर है। वह केंद्र आप कहां रखते हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई उसे बुद्ध में रखे, कोई उसे क्राइस्ट में रखे, कोई उसे राम में, कृष्ण में, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे होने का केंद्र मैं नहीं हूं मुझसे बाहर है, और मैं उसके लिए जी रहा हूं। मैं साधन हूं वह साध्य है।
अति कठिन बात है। क्योंकि अहंकार बिलकुल स्वाभाविक मालूम होता है। लेकिन इस क्रांति के बिना घटे कोई भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि सत्य यही है कि आपका केंद्र आपके भीतर नहीं है।
इस सारे जगत का केंद्र एक ही है। सभी का केंद्र एक है। इसलिए प्रत्येक के भीतर अलग— अलग केंद्र होने का कोई उपाय नहीं है। हम संयुक्त जीते हैं, वियुक्त नहीं। व्यक्ति होना भ्रांति है। सारा अस्तित्व जुड़ा हुआ इकट्ठा है। यह विश्व एक इकाई है, एक यूनिट है। यहां खंड—खंड अलग—अलग नहीं हैं। यहां कोई एक पत्ता भी अलग नहीं है।
हमने सुन रखा है कि राम की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। और हमने जो उसको अर्थ दिए हैं, वे नासमझी से भरे हैं। राम की बिना मरजी के पत्ता भी नहीं हिलता, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि इस संसार में दो मरजिया काम नहीं कर रही हैं। पत्ते की मरजी और इस अस्तित्व की मरजी, दो नहीं हैं। यह पूरा अस्तित्व इकट्ठा है। और जब पत्ता हिलता है, तो पूरे अस्तित्व के हिलने के कारण ही हिलता है।
अकेला पत्ता हिल नहीं सकता है। हवाएं न हों, फिर पत्ता न हिल सकेगा। सूरज न हो, तो हवाएं न हिल सकेंगी। सब संयुक्त है। और एक छोटा—सा पत्ता भी हिलता है, तो उसका अर्थ यह हुआ कि सारा अस्तित्व उसके हिलने का आयोजन कर रहा है। उस क्षण में सारे अस्तित्व ने उसे हिलने की सुविधा दी है। उस सुविधा में रत्तीभर भी कमी हो और पत्ता नहीं हिल पाएगा।
राम की बिना मरजी के पत्ता नहीं हिलता है, इसका केवल इतना ही अर्थ है। ऐसा कुछ अर्थ नहीं कि कोई राम जैसा व्यक्ति ऊपर बैठा है और एक—एक पत्ते को आज्ञा दे रहा है कि तुम अब हिलो, तुम अब मत हिलो। वैसी धारणा मूढ़तापूर्ण है।
लेकिन अस्तित्व एक है। दूर, अरबों प्रकाश वर्ष दूर जो तारे हैं, उनका भी हाथ आपके बगीचे में हिलने वाले पत्ते में है। उनके बिना ये पत्ते नहीं हिल सकते।
समुद्र में लहर उठती है, चांद का हाथ उसमें है। चांद के बिना वह लहर नहीं उठ सकती। चांद में रोशनी है, क्योंकि सूरज का हाथ उसमें है। चांद के पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज से उधार प्रतिबिंब है, प्रतिफलन है। चांद से सागर हिलता है। और जब सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। क्योंकि सारा जीवन सागर से पैदा हुआ है।
आपके भीतर पचहत्तर प्रतिशत सागर का पानी है। आप पचहत्तर प्रतिशत सागर हैं। और आपके भीतर जो जल है, उसका स्वाद ठीक सागर के जैसा स्वाद है। उतनी ही नमक की मात्रा है, उतना ही खारा है, उतने ही रासायनिक द्रव्य हैं उसमें। मछली ही सागर में नहीं जीती, आप भी सागर में जीते हैं। फर्क इतना है कि मछली के चारों तरफ सागर है; आपके भीतर सागर है। आपके भीतर नमक कम हो जाए, आपकी मृत्यु हो जाएगी। ज्यादा हो जाए, आप अड़चन में पड़ जाएंगे। ठीक सागर की जितनी मात्रा है, उतनी ही आपके भीतर होनी चाहिए।
वह जो बच्चा पहली दफा मां के गर्भ में पैदा होता है, तो मां के गर्भ में ठीक सागर की स्थिति हो जाती है। ठीक सागर जैसे पानी में ही बच्चे का पहला जन्म होता है। बच्चा पहले मछली की तरह बड़ा होता है।
जब सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। अगर सागर के पास बैठकर आपको सुख मालूम होता है, तो आपने कभी सोचा नहीं होगा, क्यों? वह जो सागर का कंपन है, जीवन है, वह आपके छोटे—से सागर को भी कंपाता है, जीवंत करता है।
अगर रात चांद को देखकर आपको अच्छा लगता है, सुखद मालूम होता है, एक शांति मिलती है, तो वे चांद की किरणें हैं, जो आपके भीतर के सागर को कंपित कर रही हैं, जीवंत कर रही हैं।
पूर्णिमा की रात दुनियाभर में सबसे ज्यादा लोग पागल होते हैं; अमावस की रात सबसे कम। पागलपन में भी एक ज्वार— भाटा है। पूर्णिमा की रात दुनिया में सबसे ज्यादा अपराध होते हैं; अमावस की रात सबसे कम। आप शायद उलटा सोचते होंगे कि अमावस की अंधेरी रात सबसे ज्यादा अपराध होने चाहिए। अपराध नहीं होते हैं। क्योंकि अमावस की रात लोग उत्तेजित नहीं होते हैं। पूर्णिमा की रात उत्तेजित हो जाते हैं।
पागलों के लिए पुराना शब्द है, चांदमारा। अंग्रेजी में शब्द है, काटिक। लूनाटिक कार से बना है। कार का मतलब चांद है। पागलपन में चांद का हाथ है।
और अगर पागलपन में चांद का हाथ है, तो बुद्धिमत्ता में भी चांद का हाथ होगा। और अगर बुद्ध को पूर्णिमा की रात बुद्धत्व प्राप्त हुआ, तो चांद के हाथ को इनकार नहीं किया जा सकता। सब जुड़ा है, सब संयुक्त है। हम अलग—अलग नहीं हैं।
शरणागति का अर्थ है, इस तथ्य को समझ लेना कि मेरे जीवन का केंद्र मेरे भीतर नहीं है, अस्तित्व में है। फिर उस केंद्र को भक्त भगवान कहता है; ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं। जो बहुत तार्किक ज्ञानी हैं, वे सत्य कहते हैं। यह सब शब्दों का फासला है। क्या आप कहते हैं, यह सवाल नहीं है। अपने से बाहर केंद्र को समझ लेना शरणागत हो जाना है।
और जब केंद्र मेरे भीतर नहीं, तो अकड़ किस बात की है? जब मैं सिर्फ एक लहर हूं और खुद सागर नहीं हूं, तो अकड़ किस बात की है? इतना अहंकार किस बात का है? अपने आपको इतना समझ लेना पागलपन है। ठीक से जो अपने को समझेगा, वह शून्य समझेगा। गलत जो अपने को समझेगा, वह अपने को बहुत कुछ समझेगा।
तो जितना ज्यादा आप अपने को समझते हों, उतने ही कम धार्मिक होने की संभावना है। जितना कम आप समझते हों अपने आपको, उतने धार्मिक होने की संभावना ज्यादा है। और जिस दिन आप समझ लें कि आप शून्य हैं, उस दिन आप स्वयं भगवान हैं। शून्य होते ही शरणागति घटित हो जाती है।
इसलिए शरणागति के दो उपाय हैं। और दुनिया में दो ही तरह के धर्म हैं। क्योंकि शरणागति के दो ही उपाय हैं।
एक तो उपाय यह है कि आप शून्य हो जाएं। बुद्ध, महावीर जो कहते हैं, अशरण हो जाओ, वह आपको शून्य होने के लिए कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बिलकुल शांत हो जाएं, शून्य हो जाएं। शून्य होते से वही घटना घट जाती है, केंद्र आपके भीतर नहीं रह जाता। दूसरा मार्ग है कि आप अपने को विचार ही मत करें, राम के चरणों में रख दें सिर, कि कृष्ण के चरणों में रख दें। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज—स्ब छोड़, सब धर्म; मेरी शरण आ जा। आप किसी के चरण में सिर रखते हैं। या तो आप शून्य हो जाएं, तो केंद्र मिट गया भीतर से। और या आप किसी को पूर्ण मान लें, तो भीतर से केंद्र मिट गया। दोनों ही अवस्था में आप मिट जाते हैं।
जैन—बौद्ध पहली धारणा को मानकर चलते हैं। परिणाम वही है। शून्य हो जाना है, शांत हो जाना है, मौन हो जाना है। अहंकार को भूल जाना है, विसर्जित कर देना है। इसलिए वे अशरण की बात बोल सकते हैं। अशरण की इसलिए—थोड़ा समझ लेना जरूरी है—क्योंकि महावीर कहते हैं कि अहंकार इतना सूक्ष्म है कि तुम जब शरणागति करोगे, तो उसमें भी बच सकता है।
उनकी बात में सचाई है। महावीर कहते हैं कि जब तुम किसी की शरण में जाओगे, तो तुम ही जाओगे। यह तुम्हारा ही निर्णय होगा। तुम ही सोचोगे, तय करोगे, कि मैं शरण जाता हूं। तो यह तुम्हारे मैं का ही निर्णय है। इसमें डर है कि मैं छिप जाएगा, मिटेगा नहीं। क्योंकि तुम सदा मालिक रहोगे। जब चाहो, अपनी शरण वापस ले सकते हो।
अर्जुन कृष्ण से कह सकता है कि बस, बहुत हो गया। अब मैंने आपके चरणों में जो सिर रखा था, वापस लेता हूं। तो कृष्ण क्या करेंगे?
आप किसी व्यक्ति को गुरु चुनते हैं, वह आपका ही चुनाव है। कल आप गुरु को छोड़ देते हैं, तो गुरु क्या कर सकता है! अगर आप शरण जाने के बाद भी छोड़ने में समर्थ हैं, तो यह शरण झूठी हुई और धोखा हुआ; और आपने सिर्फ अपने को भुलाया, विस्मृत किया, लेकिन मिटे नहीं।
यह डर है। इस डर के कारण महावीर ने कहा, यह बात ही उपयोगी नहीं है। दूसरे की शरण मत जाओ, अपने को ही सीधा मिटाओ। दूसरे के बहाने नहीं, सीधा। यह सीधा आक्रमण है।
कृष्ण, राम, मोहम्मद, क्राइस्ट, जरथुस्त्र, वे सब शरण को मानते हैं कि शरण जाओ। उनकी बात में भी बड़ा बल है। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तुम शरण जाकर भी नहीं मिटते हो और अपने को धोखा दे सकते हो, तो जो व्यक्ति दूसरे के बहाने अपने को धोखा दे सकता है, वह अकेले में तो धोखा दे ही लेगा। जो दूसरे की मौजूदगी में भी धोखा देने से नहीं बचता, जहां कि एक गवाह भी था, जहां कि कोई देख भी रहा था, वह अकेले में तो धोखा दे ही लेगा।
आप ताश खेलते हैं, तो आप दूसरों को धोखा देते हैं। लेकिन लोग हैं, जो कि पेशेंस खेलते हैं, अकेले ही खेलते हैं, अपने को ही धोखा दे देते हैं। अगर आपने अकेले ही ताश के पत्ते दोनों तरफ से चले हैं, तो आपको पता होगा कि आपने कई दफा धोखा दिया। किसको धोखा दे रहे हैं! लेकिन अकेले ताश खेलने में भी लोग धोखा देते हैं
अड़चन है। अड़चन आदमी के साथ है। कोई भी विधि हो, अड़चन रहेगी। तो कृष्ण और जरथुस्त्र और क्राइस्ट की मान्यता है कि जो आदमी गुरु के सामने भी धोखा दे लेता है और अपने अहंकार को बचा लेता है, उसको अकेला छोड़ना खतरनाक है। कम से कम दूसरे की आंखें, दूसरे की मौजूदगी सम्हलने का मौका बनेगी। और इसमें सचाई है।
जैन साधना ने बड़े अहंकारी साधु पैदा किए। जैन साधु में विनम्रता दिखाई नहीं पड़ती, अकड़ दिखाई पड़ती है। अकड़ का कारण भी है, क्योंकि साधना करता है, सचाई से जीता है, ब्रह्मचर्य साधता है, उपवास करता है, तप करता है। अकड़ का कारण भी है। अकारण नहीं है अकड़। लेकिन कारण हो या अकारण हो, अकड़ रोग है। और चूंकि शरण जाने का कहीं कोई उपाय नहीं है, इसलिए मैं कर रहा हूं यह धारणा मजबूत होती है।
दोनों के खतरे हैं। दोनों के लाभ हैं। जिस व्यक्ति को लगे कि खतरा कहां है, वहा वह न जाए।
अगर आप बहुत धोखेबाज हैं और बहुत बेईमान हैं, और अपने को भी धोखा देने में समर्थ हैं, सेल्फ डिसेप्‍शन आपके लिए आसान है, तो महावीर का मार्ग आपके लिए खतरनाक है। अगर आप अपने को धोखा देने में असमर्थ हैं, तो महावीर का मार्ग आपके लिए सुगम है।
साधक को निर्णय करना होगा, कैसे जाए। लेकिन प्रयोजन एक ही है कि साधक को मिटना पड़ेगा। या तो सीधा मिट जाए, शून्य हो जाए; या दूसरे के चरण में जाकर खो जाए और लीन हो जाए। यह शरणागति कैसे आएगी?
अपनी स्थिति समझने से। अपनी वास्तविक स्थिति समझने से। यह ठीक—ठीक समझ लेने से कि मैं क्या हूं।
च्चांग्त्सु एक कब्रिस्तान से निकल रहा था। सुबह का अंधेरा था; भोर होने में देर थी। एक आदमी की खोपड़ी से उसका पैर टकरा गया। तो उस खोपड़ी को अपने साथ ले आया। उसे सदा अपने पास रखता था। अनेक बार उसके शिष्यों ने कहा भी, इस खोपड़ी को फेंकें; यह भद्दी मालूम पड़ती है। और इसे किसलिए रखे हैं?
तो च्चांग्त्सु कहता था, इसे मैं याददाश्त के लिए रखे हूं। जब भी मेरी खोपड़ी भीतर गरम होने लगती है, मुझे लगता है कि मैं कुछ हूं तभी मैं इसकी तरफ देखता हूं कि आज नहीं कल मरघट में पड़े रहोगे; लोगों की ठोकरें लगेंगी। कोई क्षमा भी मांगने रुकेगा नहीं। जब मुझे कोई गाली देता है या जब कोई मुझे मारने को तैयार हो जाता है, तब मैं उसकी तरफ नहीं देखता, इस खोपड़ी की तरफ देखता हूं। तब मेरा मन भीतर ठंडा हो जाता है कि ठीक ही है। इस खोपड़ी को कब तक बचाऊंगा? फिर अनंत काल तक यह पड़ी रहेगी, ठोकरें खाएगी। तो क्या फर्क पड़ता है कि अभी कोई मार जाता है कि कल कोई मार जाएगा, जब मैं बचाने के लिए मौजूद न रहूंगा!
तो यह खोपड़ी भी शून्यता में ले जाएगी।
अपनी वास्तविक स्थिति का स्मरण कि मैं मरणधर्मा हूं कि यह देह थोड़ी देर के लिए है; कि मेरी सीमाएं हैं; कि मेरे ज्ञान की सीमा है, मेरे सामर्थ्य की सीमा है, और मैं स्वतंत्र नहीं हूं परतंत्र हूं; सब तरफ से मैं घिरा हूं और सब तरफ से परस्पर आश्रित हूं; मेरी कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है। ऐसी प्रतीति गहरी होती जाए, यह विचार गहन होता जाए, यह ध्यान में उतरता जाए, यह हृदय में बैठ जाए, तो शरणागति फलित होगी।
कठिन इसलिए है, कि मैं कुछ भी नहीं हूं यह मानने का मन नहीं होता। मैं कुछ हूं ऐसा मोह है। बहुत दीन मोह है, बहुत दुर्बल मोह है, किसी मूल्य का भी नहीं; दो कौड़ी उसकी कीमत नहीं है, लेकिन मैं कुछ हूं...।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के बड़े भाई ने उसे अपनी पत्नी को लेने ससुराल भेजा। और जाते वक्त कहा कि नसरुद्दीन, व्यर्थ की बकवास मत करना। ज्यादा उलटी—सीधी बात करने की तुम्हारी आदत है, इसका उपयोग मत करना। तुम तो न या ही में ही जवाब दे देना।
तो नसरुद्दीन ने गांठ बौध ली कि न और ही से दूसरा शब्द बोलेगा ही नहीं। पहुंचा, तो भाई के ससुर ने पूछा कि तुम आए हो नसरुद्दीन, तुम्हारे बड़े भाई नहीं आए? तो नसरुद्दीन ने कहा, न। तो पूछा ससुर ने कि क्या बीमार हैं? तो नसरुद्दीन ने कहा, हा। तो पूछा ससुर ने कि क्या बचने की कोई आशा नहीं? तो नसरुद्दीन ने कहा, हां। तो घर में कोहराम मच गया। लोग छाती पीटने लगे, रोने लगे। और फिर ससुर ने कहा कि जब तुम्हारे भाई आखिरी क्षण में हैं, तो अब मेरी लड़की को लिवा ले जाकर क्या करोगे! मैं भेजने से मना करता हूं। वह तो बेवा हो ही गई।
तो नसरुद्दीन दुखी और रोता हुआ वापस लौटा। रोता हुआ लौटा, तो भाई ने पूछा कि क्या हुआ? और भाभी कहा है? तो नसरुद्दीन ने कहा, वह बेवा हो गई। तो भाई ने कहा, नालायक, मैं जिंदा बैठा हूं तो वह बेवा हो कैसे सकती है! तो नसरुद्दीन ने कहा कि तुम जिंदा बैठे हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। जब बुआ बेवा हुई थीं, तब भी तुम जिंदा थे। जब चाची बेवा हुईं, तब भी तुम जिंदा थे। सैकड़ों औरतें गांव में बेवा हो गईं, तुम जिंदा थे। किसी को न रोक पाए बेवा होने से। तो अब तुम क्या कर सकते हो? किसी का बेवा होना, न होना, तुम पर निर्भर है क्या?
नसरुद्दीन ठीक ही कह रहा है। लेकिन वह जो भीतर मैं है, वह पूरे समय अपने को केंद्र मानकर बैठा है। नसरुद्दीन का व्यंग्य बिलकुल ही ठीक है। तुम्हारे रहने से क्या होता है? लेकिन प्रत्येक सोच रहा है कि उसके रहने से ही सब कुछ होता है। छिपकली भी सोचती है कि उसका सहारा नहीं होगा, तो मकान गिर जाएगा। हम सब भी उसी भाषा में सोचते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं; कहते हैं, ध्यान करना चाहते हैं, शांत होना चाहते हैं। लेकिन अगर हम शांत हो जाएंगे, तो क्या होगा? परिवार है, पत्नी है, बच्चे हैं।
हर एक को खयाल है कि सारा संसार उसकी वजह से चल रहा है; उसके सहारे चल रहा है। और कब्रिस्तान भरे पड़े हैं इस तरह के लोगों से, जिनको सभी को यह खयाल था। जिस जगह पर आप बैठे हैं, उस जगह पर कम से कम दस आदमी मर चुके और गड़ चुके। जमीन पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां दस—दस परतें लाशों की न बिछ चुकी हों। उन सभी को यही खयाल था जो खयाल आपको है कि मैं कुछ हूं।
यह भांति टूट जाए, तो शरणागति आनी शुरू होती है। और इसे तोड्ने के लिए कुछ करना नहीं है, सिर्फ आंख खोलनी काफी है। अपने चारों तरफ आंख भर खोलनी काफी है।
स्थिति ही यही है कि आप कुछ भी नहीं हैं। छोटा—सा संयोग है। वह भी पानी की लहर की तरह संयोग है। बन भी नहीं पाता और मिट जाता है। कोई पत्थर की लकीर भी नहीं है, पानी पर खिंची लकीर है। अपने को जो ठीक से सोचना—समझना, अपनी स्थिति को पहचानना शुरू करेगा, जागतिक संदर्भ में जो अपने को रखेगा और पहचानने की कोशिश करेगा, वह अनुभव करेगा कि मैं एक पानी की बूंद हूं सागर होने का भ्रम गलत है।
और जो अपनी तरफ सोच—विचार में लगेगा, विमर्श करेगा, चिंतन करेगा, उसे यह भी दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि जगत मुझसे बहुत बड़ा है। मेरे पीछे, मुझसे आगे, मेरे चारों ओर विराट
जगत है। उस विराट जगत में मैं एक छोटा—सा कंपित होता हुआ जीवन—क्या हूं केंद्र मैं नहीं हूं।
शरणागति सहज हो जाएगी। और अगर कोई परमात्मा न दिखाई पड़ता हो, कोई ईश्वर की प्रतीति न होती हो, तो शून्यता सध जाएगी। दोनों के परिणाम एक हैं। या तो शून्यता सध जाए या शरण— भाव आ जाए। आपका मिटना जरूरी है। जैसे ही आप खोते हैं, वैसे ही जीवन का सत्य प्रकट हो जाता है।

 दूसरा प्रश्न :

अपने स्रोत की ओर लौटने के लिए प्राइमल स्कीम का होना आपने जरूरी बताया। पर हम कैसे पहचानेंगे कि कौन—सी रेचन—प्रक्रिया वांछित प्राइमल स्कीम है?

 पको पहचानने की जरूरत ही न पड़ेगी। उसके बाद आप तत्‍क्षण दूसरे हो जाएंगे। आप बीमार हों, तो आप कैसे पहचानते हैं जब आप स्वस्थ हो जाते हैं? कोई उपाय है आपके पास पहचानने का? नहीं, बीमारी जाती है, तो आप तत्क्षण अनुभव करते हैं कि स्वस्थ हो गए। जब आपका सिरदर्द खो जाता है, तो आप कैसे पता लगा पाते हैं कि अब सिरदर्द नहीं है और सिर ठीक हो गया?
प्राइमल स्कीम का जो रेचन है, जो कैथार्सिस है, जिस क्षण हो जाएगी, उसी क्षण आप फूल की तरह हलके हो जाएंगे, जैसे सारा बोझ खो गया। बोझ है भी नहीं आप पर, सिर्फ आपको खयाल है। पर इस बोझ को आप खींचते हैं, क्योंकि बिना बोझ के अहंकार नहीं चल सकता।
इसलिए जितना अहंकारी आदमी हो, उतना बड़ा बोझ ले लेता है। अहंकारी हो, तो राष्ट्रपति हो जाना जरूरी है, प्रधानमंत्री हो जाना जरूरी है। क्योंकि पूरे मुल्क का बोझ चाहिए, पूरी पृथ्वी का बोझ चाहिए, तब अहंकार को लगता है कि मैं कुछ हूं। हालांकि कुछ राजनीतिज्ञ कर नहीं पाते हैं। बोझ को घटाते हैं, ऐसा लगता नहीं, बढ़ाते भला हों। लेकिन बड़ा बोझ लेकर उन्हें अनुभव होता है कि हम कुछ हैं।
मैंने सुना है कि स्टैलिन ने मरने के पहले खु्रश्चेव को दो पत्र दिए। और कहा कि जब मैं मर जाऊं और तू ताकत में आ जाए, तो इन पत्रों को सम्हालकर रखना। इसमें नंबर एक का जो पत्र है, वह तू तब खोलना, जब तेरी कोई योजना इतनी असफल हो जाए कि तेरा तख्ता डांवाडोल हो उठे। और दूसरा तब खोलना, जब कि कोई भरोसा ही न रह जाए तेरे बचने का, सब डूबने की हालत हो जाए और तुझे उतरने के सिवा कोई चारा न रहे, तब तू दूसरा खोलना। जब ख्रुश्‍चेव असफल हुआ।
और सभी राजनीतिज्ञ असफल होते हैं। अब तक कोई राजनीतिज्ञ जमीन पर सफल नहीं हुआ। होंगे भी नहीं। क्योंकि सफलता से राजनीति का कोई संबंध भी नहीं है।
समस्याएं बड़ी हैं, और आदमी का अहंकार भर उसे खयाल देता है कि मैं हल कर लूंगा। समस्याएं विराट हैं। किसी से हल नहीं होतीं। पर थोड़ी देर को यह वहम भी मन को बड़ा सुख देता है, अहंकार को बड़ी तृप्ति देता है कि मैं हल करने की कोशिश कर रहा हूं। यह खयाल भी कि सारी समस्याओं के हल मुझ पर निर्भर हैं और लोगों की आशा मुझ पर लगी है, काफी सुख देता है।
जब ख्रुश्‍चेव की योजनाएं असफल हुईं, तो उसने मजबूरी में पहला पत्र खोला। उस पहले पत्र में स्टैलिन ने लिखा था कि सब जिम्मेवारी मेरे सिर पर थोप दे।
यह पुरानी तरकीब है राजनीतिज्ञों की कि जो ताकत में नहीं हैं, जो पीछे ताकत में थे, जो मर गए हैं, उन पर सारी जिम्मेवारी थोप देना कि उनके कारण.।
ख्रुश्‍चेव ने वही किया। थोड़े दिन नाव और चली। फिर नाव के डूबने के दिन फिर आ गए। तब उसने दूसरा पत्र खोला। दूसरे पत्र में स्टैलिन ने लिखा था कि अब तू भी दो पत्र लिख।
आदमी की बड़ी से बड़ी समस्या है और वह यह कि बिना समस्याओं के आपका अहंकार निर्मित नहीं हो सकता। लोग कहते हैं, हम कैसे शांत हों! लेकिन वे शांत होना नहीं चाहते। क्योंकि अगर आप शांत होंगे, तो आपका अहंकार खड़ा कैसे होगा? बड़ी समस्याएं चाहिए, चुनौती चाहिए, संघर्ष चाहिए, उसके मुकाबले अहंकार खड़ा होगा।
अहंकार को बडा करने के लिए लोग समस्याएं खड़ी करते हैं। आप भी खड़ी करते हैं। और अगर दो—चार दिन कोई समस्या न हो, तो बड़ी बेचैनी शुरू हो जाती है। खाली लगते हैं। कुछ करने को नहीं सूझता। पृथ्वी पर होना न होना बराबर मालूम पड़ता है। जिंदा अगर हैं, तो कुछ उपद्रव चाहिए। जितना ज्यादा उपद्रव, उतने आप जिंदा मालूम होते हैं।
मनसविद कहते हैं, अपराधी और राजनीतिज्ञ एक ही कोटि के लोग हैं। अपराधी भी बिना अपराध किए नहीं रह सकता। क्योंकि अपराध करके वह उपद्रव खड़े कर लेता है, और उनके बीच में महत्वपूर्ण हो जाता है। और राजनीतिज्ञ भी बिना उपद्रव खड़े किए नहीं रह सकता, क्योंकि उपद्रव के बिना उसका कोई मूल्य नहीं, कोई अर्थ नहीं।
इसीलिए युद्ध के समय में बड़े नेता पैदा होते हैं, क्योंकि युद्ध से बड़ा उपद्रव और किसी समय में पाना मुश्किल है। इसलिए जिसको बड़ा नेता होना हो, उसे युद्ध को पैदा करवाना ही पड़ता है।
आप भी यही कर रहे हैं। उपद्रव खडे करते हैं, खोजते हैं, निर्माण करते हैं, न हों, तो कल्पना करते हैं। ये सारे उपद्रव आपके भीतर अपनी छाया, अपने दाग, अपने घाव छोड़ जाते हैं, अपना दुख छोड़ जाते हैं। आपके भीतर एक खंडहर निर्मित हो जाता है। प्राइमल स्कीम, मूल रुदन इस सारे घाव का इकट्ठा रेचन है। जो कुछ आपने इकट्ठा किया है—कूडा—कर्कट, दुख—पीड़ाएं, झूठ, असत्य, धोखे—वह जो आपने एक खंडहर अपने भीतर निर्मित किया है, वह पूरा का पूरा एक चीख में बाहर आ जाए। उसके बाद आप एकदम हलके हो जाते हैं। मन की सारी व्यथा खो जाती है। इतना ही कहना ठीक नहीं, मन ही खो जाता है।
पहचानने की जरूरत नहीं पडेगी; अचानक आप पाएंगे कि पंख लग गए, आप उड़ सकते हैं। अचानक पाएंगे, ग्रेविटेशन समाप्त हो गया, जमीन आपको खींचती नहीं, वजन न रहा; आप निर्भार हो गए। कोई चिंता न आगे है, न पीछे है। यह क्षण पर्याप्त है। और यह क्षण बहुत सुखद है। आनंद की अनुभूति आपको बताएगी कि रेचन हो गया है। दुख बताता है कि रेचन बाकी है।
और आप रेचन भी नहीं होने देते। हृदयपूर्वक रो भी नहीं सकते, चीख भी नहीं सकते। हृदयपूर्वक कुछ भी करने का उपाय नहीं है। सब अधूरा— अधूरा, झूठा—झूठा करते हैं। और तब अगर पूरी जिंदगी एक उदास ऊब हो जाए, तो कुछ आश्चर्य नहीं है।
इसलिए साधक को साहस चाहिए कि जो भीतर दबा है, उसे वह बाहर फेंक सके। और एक बार भी आप हिम्मत जुटा लें, तो बाहर फेंकना बहुत कठिन नहीं है। और एक बार रस अनुभव होने लगे, जैसे ही बोझ अलग हो और रस अनुभव होने लगे।
मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते से गुजर रहा है। और बड़ी अश्लील, भद्दी गालियां दे रहा है अपने जूतों को। उसके एक मित्र ने पूछा कि क्या बात है? और इतने उदास, इतने दुखी,
और चेहरे पर ऐसे भाव जैसे कांटे चुभ रहे हों। उसने कहा कि जूते छोटे हैं, और पैरों में बड़ा कष्ट है। तो मित्र ने कहा, तुम इन्हें उतार क्यों नहीं देते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि वह मैं नहीं कर सकता। मित्र कुछ समझा नहीं। उसने पूछा कि कारण न करने का? तो नसरुद्दीन ने कहा, बस यही एक मेरे सुख का सहारा है। जब दिनभर का थका—मादा, हारा, पराजित, दुकान— धंधे से उदास घर वापस लौटता हूं। पत्नी देखते ही टूट पड़ती है; बकने लगती है, चीखने—चिल्लाने लगती है। बच्चे अपनी मांगें मौजूद कर देते हैं। पास में पैसा नहीं है। पूरे दिनभर के इस दुख और पीड़ा के बाद जब घर जाकर मैं अपने पैर के जूते निकालता हूं तो मोक्ष का आनंद उपलब्ध होता है। जूते उतारते से ही लगता है कि जिंदगी में सुख है। और कोई सहारा नहीं है सुख का। बस, यह एक जूता ही सहारा है। आप भी अपने दुख को पकड़े हैं। क्योंकि वह दुख ही आपके सुख की छोटी—मोटी झलक है, बस। जब उसको आप उतारकर रखते हैं, थोड़ा—सा लगता है अच्छा।
नसरुद्दीन कहता है, ये जूते मैं उतार नहीं सकता। क्योंकि इनके सिवाय तो जीवन में कोई सुख नहीं है।
आप किस—किस बात को सुख कहते हैं, आपने कभी खयाल किया? लोग काम को, सेक्स को सुख कहते हैं; वह सिर्फ आपका जूता उतारने से ज्यादा नहीं है। तनाव इकट्ठे हो जाते हैं। दिनभर आप तनाव इकट्ठे करते हैं। शरीर से बाहर जाती ऊर्जा के कारण तनाव शिथिल हो जाते हैं। लगता है, सुख मिला।
महावीर या बुद्ध कामवासना को जीतकर आनंद को उपलब्ध नहीं होते हैं। चूंकि आनंद को उपलब्ध होते हैं, इसलिए कामवासना व्यर्थ हो जाती है। जूता उतारकर सुख अनुभव नहीं करते। सुख अनुभव हो रहा है, इसलिए जूते के दुख को झेलने की और सुख की आशा बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
दिनभर के तनाव से भरे हुए जाकर एक फिल्म में बैठ जाते हैं; सुख मिलता है। कैसा सुख मिलता होगा! आंखें और थकती हैं। लेकिन कम से कम दो घंटे, तीन घंटे के लिए अपने को भूल जाते हैं; व्यस्त हो जाते हैं कथा में। व्यस्तता ज्यादा हो जाती है, स्वयं का विस्मरण हो जाता है।
लेकिन जिसको दिनभर स्वयं का विस्मरण रहा हो, जिसको अहंकार ही न हो, विस्मरण करने को कुछ न हो, उसे तीन घंटा भुलाने के लिए किसी फिल्म में बैठने की कोई जरूरत नहीं है। उसने जूते ही उतार दिए।
शराब पीकर थोड़ी देर सुख मिलता है। वही अहंकार शराब पीकर मिट जाता है। इसलिए शराब पीने वाले लोग विनम्र होते हैं। जो लोग शराब छोड़े होते हैं, वे लोग अक्डैल, दुष्ट प्रकृति के होते हैं। उन्हें अहंकार को हटाने का कोई उतना भी उपाय नहीं है।
इसलिए अक्सर आप पाएंगे कि शराब पीने वाला मृदु होगा, मैत्रीपूर्ण होगा, भला होगा; वक्त पर काम पड़ सकता है। आप उस पर भरोसा कर सकते हैं। कंजूस नहीं होगा, कठोर नहीं होगा। क्योंकि थोडी शराब के द्वारा कम से कम अहंकार भूलता है : मिटता तो नहीं, लेकिन थोड़ी देर को भूल जाता है।
इसलिए आप शराब पीए, तो थोड़ी देर में चेहरे की उदासी खो जाती है और एक प्रसन्नता प्रकट होने लगती है। पैरों में गति आ जाती है और नाच आ जाता है। यह वही आदमी है, थोड़ी देर पहले ऐसा मरा हुआ चल रहा था, चेहरा ऐसा था जैसे कि बस, जीवन में कोई अर्थ नहीं है। इसकी आंखों में रौनक आ गई, चेहरे पर चमक आ गई, पैर में गति आ गई।
यह हलका—फुलका कैसे हो गया? शराब किसी को हलका— फुलका नहीं करती। शराब केवल अहंकार को सुला देती है।
इसलिए सूफी फकीर कहते हैं कि जिन्होंने परमात्मा की शराब पी ली, फिर इस शराब में उन्हें कोई भी अर्थ नहीं है। परमात्मा की शराब का मतलब इतना ही है कि जिन्होंने अहंकार ही छोड़ दिया, जिन्होंने उसकी शरण पकड़ ली, उनको अब भुलाने को कुछ नहीं बचा।
इसलिए फकीरों की मस्ती शराबियों की ही मस्ती है, पर बड़ी गहन शराब की है। और शराबी की मस्ती बड़ी महंगी है। क्योंकि पाता बहुत ना—कुछ है और बहुत—से दुख उठाता है। फकीर की मस्ती बिना कुछ खोए बहुत कुछ पाने की है।
हम दुख को पकड़े बैठे हैं और दुख को हम इकट्ठा करते हैं। हम रस भी लेते हैं।
लोगों को देखें, जब वे अपने दुख की कथा किसी को सुनाते हैं, तो कितने प्रसन्न मालूम होते हैं! यह बड़ी हैरानी की बात है। अगर कोई आपकी दुख की कथा न सुने, तो आपको दुख लगता है। सुने, आपको रस आता है। और हर आदमी अपने दुख की कहानी बढ़ा—चढ़ाकर बताता है।
एक मेरे मित्र ने मुझसे कहा—उनकी पत्नी मेरे पास आती थी—उन्होंने कहा, आप इसकी बातों में ज्यादा मत पड़ना। क्योंकि इसको फुंसी हो जाती है, और कैंसर बताती है। और मैंने पाया कि वे ठीक कहते थे। फुंसी भी कोई बीमारी है! जब तक कैंसर न हो, तब तक अहंकार को रस नहीं आता।
आपने खयाल न किया होगा, जब आप डाक्टर की तरफ जाते हैं सोचकर कि बड़ी बीमारी पकड़ गई है, और डाक्टर कहता है कुछ भी नहीं है, तो आपको अच्छा नहीं लगता। मन में थोड़ी—सी चोट लगती है; शक होता है कि शायद यह डाक्टर ठीक नहीं है। मुझ जैसे आदमी को और छोटी—मोटी बीमारी या कुछ भी नहीं! यह उलटा मालूम पड़ता है, लेकिन भीतर यह लगता है कि बेकार आना जाना हुआ।
तो जो बेईमान डाक्टर हैं या कुशल, वे आपको देखकर बड़ा गंभीर चेहरा बना लेंगे। उससे आपका चित्त प्रसन्न होता है। और जब आपका हाथ हाथ में लेते हैं, तो ऐसा लगता है कि बहुत गंभीर स्थिति है। आपको कोई बीमारी न भी हो, तो भी वे बीमारी को बढ़ा—चढ़ाकर खड़ा करते हैं। उससे मरीज प्रसन्न होता है।
किसी मरीज को कह दें कि आपको मानसिक खयाल है, बीमारी है नहीं। वह आपका दुश्मन हो जाता है।
कोई यह बात मानने को राजी नहीं है कि हम दुख को भी पकड़ते हैं, लेकिन हम पकड़ते हैं। दुख को भी हम बड़ा करते हैं। फिर वह दुख बड़ा होकर हमारे सिर पर पत्थर की तरह, छाती पर पत्थर की तरह सवार हो जाता है। फिर हम उसको ढोते हैं।
रेचन का अर्थ है, दुख को उतार देना। प्राइमल स्कीम का अर्थ है, दुख को प्रकट हो जाने देना, निकल जाने देना। एक भयंकर चीत्कार में वह बाहर हो जाए और छाती हलकी हो जाए; हृदय का बोझ उतर जाए।
तो कोई आपको पता नहीं लगाना पड़ेगा कि कैसे पता चले कि यह प्राइमल स्कीम थी! ऐसे पता चलेगा कि उसके बाद एकदम आप हलके हो जाएंगे। आप पाएंगे कि जैसे आपके पास कोई दुख कभी था ही नहीं। आप सदा ही आनंद में रहे। जैसे एक स्वप्न देखा हो दुख का और नींद टूट गई। और अब कोई स्वप्न नहीं है। और आप हंस रहे हैं।

 तीसरा प्रश्न :

कल आपने बताया कि वासनाओं की जड़ें गहरे अचेतन में हैं और केवल बौद्धिक तल पर घटित वैराग्य का निर्णय अपर्याप्त है। वैराग्य का जागरण गहरी अचेतन जड़ों तक कैसे हो सकता है?

नुभव के अतिरिक्त कोई भी उपाय नहीं। और हम सब चाहते हैं कि अनुभव के बिना कुछ हो जाए। अनुभव से बिना गुजरे कोई उपाय नहीं है, चाहे अनुभव कितनी ही पीड़ा दे, कितना ही जलाए। हमारी आकांक्षा ऐसी है, जैसे सोना सोचता हो कि बिना आग से गुजरे और मैं शुद्ध हो जाऊं। आग से गुजरना ही पड़ेगा। पहली बात। अनुभव से गुजरना ही पड़ेगा।
और दूसरे के अनुभव आपके काम न आएंगे, यह ध्यान में रखें। बुद्ध कहते हैं, संसार दुख है। आप पढ लें, सुन लें। मैं कहता हूं संसार दुख है। आप सुन लें, समझ लें। इससे कुछ होगा नहीं। इससे खतरा है कि आप पाखंडी हो जाएंगे।
यह अनुभव आपका ही होना चाहिए कि संसार दुख है। इसीलिए इस तरह के सवाल उठते हैं कि वैराग्य कैसे गहरा हो? वैराग्य को गहरा करने का सवाल नहीं है। जीवन के अनुभव को पूरा का पूरा भोगने का है। लेकिन हम सब का मन यह होता है कि.......।
बुद्ध तो दुख भोगकर वैराग्य को उपलब्ध हुए, फिर उन्होंने आनंद पाया। हम बुद्ध से भी ज्यादा कुशलता दिखाना चाहते हैं। दुख भोगने से भी बचना चाहते हैं, और जैसा वैराग्य बुद्ध को हुआ, वैसा वैराग्य चाहते हैं, और वैसा आनंद चाहते हैं, जैसा वैराग्‍य के बाद उन्हें हुआ!
नहीं, यह नहीं होगा। वैराग्य का अपना गणित है। और कोई शार्टकट न कभी रहा है और न कभी होने वाला है। और अगर आप इतने लंबे दिनों से भटक रहे हैं, तो शार्टकट की तलाश की वजह से। नहीं तो कभी का आपको भी।
कितने जन्मों तक आप भी गुजरे हैं! पर आपकी आशा यह है कि बिना दुख से गुजरे, बिना अनुभव से गुजरे और वैराग्य हो जाए। और फिर वैराग्‍य से मोक्ष मिले और परम आनंद की उपलब्धि हो। आप पहली सीढ़ी चूक रहे हैं। बुद्ध जैसे दुख से गुजरना पड़े, तो ही बुद्ध जैसा वैराग्य उत्पन्न होगा।
और ऐसा नहीं है कि दुख की आपको कोई कमी है। दुख काफी है। लेकिन आप उससे गुजरते नहीं, बचते हैं। आपने पलायन, एस्केप को अपना रास्ता बनाया हुआ है। कैसे बच जाएं, इसकी फिक्र में रहते हैं।
जो दुख से बचेगा, उसे वैराग्य कभी उत्पन्न नहीं होगा। क्योंकि दुख की गहनता ही वैराग्‍य का जन्म है।
आपका प्रियजन मर जाता है, आप बचने की तलाश में लग जाते हैं। आप मृत्यु का दुख नहीं भोगते। आप पूछने चले जाते हैं पंडित से, पुरोहित से कि आत्मा अमर है? पत्नी मर गई है, या पति मर गया, या बेटा मर गया, मौत सामने खड़ी है। आप साधु—संन्यासियों से पूछ रहे हैं कि आत्मा अमर है?
आप झुठलाना चाहते हैं मौत को, कि कोई कह दे कि आत्मा अमर है, भरोसा दिला दे, तो रोने की जरूरत न रहे, दुख की जरूरत न रहे। क्यों? क्योंकि अगर आत्मा अमर है, तो कुछ बात नहीं। शरीर ही छूटा, वस्त्र बदले; लेकिन बेटा कहीं न कहीं जिंदा है, कभी न कभी मिलना होगा।
ईसाई, मुसलमान, सभी सोचते हैं कि मरने के बाद फिर अपने संबंधियों से मिलना हो जाता है। तो थोड़े दिन का फासला है, थोड़े दिन की बात है, झेल लो। और कोई मिटा नहीं, कोई मरा नहीं। आप दुख से बचने का उपाय खोज रहे हैं।
मौत सामने खड़ी है, इसके दुख को भोगो। झुठलाओ मत। तरकीबें मत खोजो। जिस पत्नी से सुख पाया है, उसका दुख भी भोगो। जिस पति से आनंद अनुभव किया था, उस पति के जाने पर अभाव का जो नरक है, उससे गुजरी। न तो शराब पीकर भुलाओ, न सिद्धांतों को पीकर भुलाओ। न भजन—कीर्तन करके अपने को समझाओ, न गीता पढ़कर अपने मन को यहां—वहा लगाओ। दुख सामने खड़ा है, दुख को सीधा भोगो। दुख को ही तुम्हारा ध्यान बन जाने दो।
तो उस मृत्यु से तुम निखरकर बाहर आओगे। तुम आग से गुजर जाओगे, तुम्हारा सोना निखर जाएगा; वैराग्य का उदय होगा। फिर तुम्हें मुझसे नहीं, किसी से भी नहीं पूछना पड़ेगा कि वैराग्य गहरा कैसे हो? वैराग्य गहरा हो जाएगा।
एक मौत को भी तुम ठीक से देख लो, तो जिंदगी व्यर्थ हो जाती है। एक सूखा पत्ता वृक्ष से गिरता हुआ भी तुम ठीक से समझ लो, तो जिंदगी में कुछ पाने जैसा नहीं रह जाता।
लेकिन नहीं, जब कोई मरता है, तब तुम अपने को समझाने में लग जाते हो। और जब कोई मर भी जाता है, तब भी तुम यही सोचते हो कि दुर्घटना है।
मौत जीवन का वास्तविक तथ्य है, दुर्घटना नहीं। यह कोई संयोग नहीं है। यह होने ही वाला है, यह जीवन की नियति है। जब कोई मरता है, तो तुम ऐसा सोचते हो कि कुछ भूल—चूक हो गई, कहीं कुछ गड़बड़ हो गई, कुछ कर्म का फल रहा होगा। तुम यह बात भूल रहे हो कि मौत हर जीवन के पीछे लगी ही है, होगी ही; उससे ज्यादा निश्चित और कुछ भी नहीं है। वही एकमात्र निश्चित तथ्य है।
फिर जब दूसरा मरता है, तब तुम्हें कभी खयाल नहीं आता कि यह मेरे मरने की भी खबर है। तब तुम दूसरे पर दया करने का विचार करते हो, कि बड़ा बुरा हुआ; बेचारा! तुम्हें यह खयाल कभी भी नहीं आता कि कोई भी जब मरता है, तब तुम ही मर रहे हो। लेकिन हर आदमी यह सोचकर चलता है कि हमेशा दूसरा मरता है, मैं तो कभी मरता नहीं। और एक लिहाज से आपका तर्क ठीक भी है। कम से कम अभी तक तो आप मरे नहीं। इसलिए.......।
मैंने सुना है कि एक आदमी एक पक्षियों की दुकान से एक तोता खरीदकर ले गया। दूसरे दिन ही वापस आया और तोता बेचने वाले पर नाराज होने लगा और कहा कि तुमने किस तरह का तोता दिया! वह घर जाकर मर गया। तो उस दुकानदार ने कहा, लेकिन यह मैं मान ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसी हरकत उसने इसके पहले कभी नहीं की। तोता यहां भी था, महीनों तक रहा, ऐसी हरकत उसने पहले कभी की नहीं। इसलिए मैं भरोसा कर ही नहीं सकता।
आपका भी तर्क यही है। अभी तक आप मरे नहीं, तो भरोसा कैसे कर सकते हैं कि मर जाएंगे! और जो अब तक नहीं हुआ, वह आगे भी क्यों होगा!
जब दूसरा मरता है, तब भी आप सोचते हैं, दूसरा मरता है। तब आपको खयाल नहीं आता है कि मैं भी मरूंगा या मैं भी मर रहा हूं या यह खबर मेरी मौत की खबर है।
अगर आप दुख को ठीक से जीएं, तो हर मौत आपको अपनी मौत मालूम पड़ेगी। तब वैराग्य गहरा हो जाएगा।
जब कोई दूसरा असफल होता है या जब आप खुद भी असफल होते हैं जीवन में, तो आप सोचते हैं, संयोग ठीक न थे, भाग्य साथ न था, दूसरे लोगों ने बेईमानी की, चालबाजी की, चार सौ बीस थे, इसलिए वे सफल हुए; मैं असफल हुआ। लेकिन आप यह कभी नहीं देख पाते हैं कि पूरा जीवन असफलता है। इसमें सफल होना होता ही नहीं। लेकिन कोई तरकीब आप निकाल लेते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव से गुजर रहा है। कोई मर गया है, घर के आस—पास भीड़ है, लाश सामने रखी है। नसरुद्दीन भूखा है। छोटा गांव है। सारा गांव वहीं इकट्ठा है। कोई भोजन देने के लिए भी अभी उत्सुक नहीं होगा। अभी कोई मेहमान बनाने की भी तैयारी में नहीं है। और गांव इतने दुख में है कि वह यह बात भी करे कि मुझे भूख लगी है, कि मुझे भोजन चाहिए तो भद्दा मालूम पड़ेगा।
वह भी भीड़ में जाकर खड़ा हो गया और उसने पूछा कि क्या बात है? क्यों रो रहे हो? तो उन्होंने कहा कि क्यों रो रहे हैं, यह भी पूछने की कोई बात है? घर का आदमी मर गया है। गांवभर का प्यारा था।
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं उसे जिला सकता हूं। लेकिन अभी मैं भूखा हूं। पहले मेरा पेट भर जाए, मैं स्नान कर लूं, पूजा—पाठ कर लूं; इसे मैं जिला सकता हूं। रोने की कोई भी जरूरत नहीं है।
भूख में ऐसा कह तो गया। फिर जब पेट भर गया, हाथ—मुंह धोकर पूजा—पाठ जब उसने की, तब पूजा—पाठ कर नहीं सका, क्योंकि अब उसको झंझट मालूम हुई कि अब क्या करना? कहीं मरा हुआ कभी कोई जिंदा हुआ है!
फिर भी वह आया, लाश के पास बैठा; और उसने कहा कि यह आदमी कौन था? इसका धंधा क्या था? उन्होंने कहा कि यह आदमी! जाहिर आदमी है, यह बड़ा नेता था; राजनीति इसका धंधा था। नसरुद्दीन क्रोध से खड़ा हो गया और उसने कहा कि नालायको, मेरा समय खराब किया! राजनीतिज्ञ मरकर कभी जिंदा नहीं होते। तुम्हें पहले ही बताना था, नाहक मेरा समय खराब करवा दिया। अब तक मैं दूसरे गांव पहुंच गया होता।
आप भी जिंदगी में बहाने खोज रहे हैं। कभी यह, कभी वह। लेकिन हमेशा समझा लेते हैं अपने को कि असफलता का कोई कारण है।
बुद्ध का वैराग्य गहरा हुआ, क्योंकि बुद्ध ने अपने को समझाया नहीं, बल्कि सीधा देखा और पाया कि जीवन पूरी की पूरी असफलता है; इसमें कारण की कोई जरूरत नहीं है। यहां कुछ भी करो, सफलता तो हो नहीं सकती। क्योंकि यहां कुछ भी करो, सुख तो मिल नहीं सकता। यहां कुछ भी करो, कहीं पहुंचना नहीं हो सकता। स्‍वप्‍नवत है।
जो सीधा देखना शुरू करेगा, उसका वैराग्य गहरा हो जाता है। और वैराग्य के बिना गहरा हुए, कोई शास्त्र सहयोगी नहीं है, कोई गुरु अर्थ का नहीं है। वैराग्य गहरा हो, तो गुरु से संबंध हो सकता है। वैराग्य गहरा हो, तो शास्त्र का अर्थ प्रकट हो सकता है। और वैराग्य गहरा हो, तो गुरु भी न हो, शास्त्र भी न हो, तो पूरा जीवन ही गुरु और शास्त्र बन जाता है।
लेकिन वैराग्य को गहरा करने की तरकीबें नहीं हैं। वैराग्य को गहरा करने का एक ही मार्ग है, आपका अनुभव पूरी सचाई में जीया जाए। जो भी अनुभव हो—सुख का हो, दुख का हो, संताप
हो, चिंता हो, असफलता हो—जो भी अनुभव हो, उसे पूरी तरह जीया जाए, होशपूर्वक जीया जाए। वह अनुभव ही आपको बताएगा कि जीवन व्यर्थ है, छोड़ देने योग्य है। पकड़ने योग्य यहां कुछ भी नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।

उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही। तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।
पहली बात, इस जगत में जो भी हम देखते हैं, वह दूसरे से प्रकाशित है। आप मुझे देख रहे हैं; बिजली बुझ जाए, फिर आप मुझे नहीं देख सकेंगे। मैं आपको देख रहा हूं; बिजली बुझ जाए, फिर मैं आपको नहीं देख सकूंगा। आप हैं, लेकिन कोई और चीज चाहिए, जिसके द्वारा आप प्रकाशित हैं।
दिन में दिखाई पड़ता है, रात में दिखाई नहीं पड़ता। आंख तो होती है, चीजें भी होती हैं, लेकिन सूरज नहीं होता। सभी चीजें पर—प्रकाश चाहती हैं। कोई और चाहिए, जो प्रकाशित कर सके। कृष्य कह रहे हैं, लेकिन मेरा परम धाम वहां है, जहां न तो सूर्य के प्रकाश की कोई जरूरत है, न चंद्र के प्रकाश की कोई जरूरत है; न अग्नि की कोई जरूरत है, जहां दूसरे प्रकाश की कोई जरूरत नहीं है। मेरा परम धाम स्व—प्रकाशित है, सेल्फ इस्मृमिन्द है।
यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि यह बहुत गहरा और मौलिक आधार है समस्त साधना का। और इसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है। ऐसी कौन—सी घटना है जो स्व—प्रकाशित है? ऐसा क्या अनुभव है जो स्व—प्रकाशित है?
आप आंख बंद कर लें, तो मैं नहीं दिखाई पडूंगा। आंख बंद करके लेकिन आप तो अपने को दिखाई पड़ते ही रहेंगे। शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन स्वयं का होना तो प्रतीत होता ही रहेगा। दीया बुझ जाए, मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा। लेकिन आप अपने को तो अनुभव करते ही रहेंगे कि मैं हूं। आपके होने के लिए तो किसी और प्रकाश की जरूरत नहीं है।
तो आपके होने में कोई एक तत्व चेतना का है, जो स्वयं प्रकाशित है; जिसका होना अपने आप में काफी है। यह जो चेतना की हल्की—सी झलक आपके भीतर है, यही झलक जब पूरी प्रकट हो जाती है, तो कृष्ण कहते हैं, वह परम धाम मेरा है; वही मैं हूं।
उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है—न करने की कोई जरूरत है—न चंद्रमा और न अग्नि, तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।
यहां कृष्ण कह रहे हैं कि जितना ही व्यक्ति चेतन होता चला जाता है, उतना ही वह परम धाम की तरफ गति करता है। और जिस दिन परम चैतन्य प्रकट होता है, उस परम चैतन्य को प्रकाशित करने के लिए किसी की भी कोई जरूरत नहीं है, वह स्व—प्रकाशित है। और एक ही बात इस जगत में स्व—प्रकाशित है, वह स्वयं का होना है। उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। उसको असिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर आप यह भी कहें कि मैं नहीं हूं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके कहने से सिर्फ आपका होना ही सिद्ध होता है।
और अंधा आदमी भी अपने को अनुभव करता है। अंधेरे में भी आप अपने को अनुभव करते हैं। आपकी आंखें चली जाएं, आपके कान खो जाएं, आपके हाथ काट दिए जाएं, आपकी जीभ काट दी जाए, आपकी नाक नष्ट कर दी जाए, तो भी आप अपना अनुभव कर सकते हैं, तो भी आप होंगे और आपकी प्रतीति में रत्तीभर का भी फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आंखों से दूसरे देखे जाते हैं, स्वयं नहीं। कानों से दूसरे सुने जाते हैं, स्वयं नहीं। सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भीतर के होने में जरा भी अंतर नहीं पड़ता।
वह जो भीतर का होना है, वहा कोई प्रकाश नहीं है, फिर भी आप जानते हैं कि आप हैं। और आप कभी भीतर नहीं गए हैं अभी। अगर आप भीतर जाएं, तो आपको वहा भी प्रकाश का अनुभव होना शुरू हो जाएगा।
ध्यान में जो लोग भी गति किए हैं, उन सभी का अनुभव प्रकाश का अनुभव है। वे किस प्रकाश को जानते हैं?
कबीर कहते हैं कि जैसे आकाश में बिजलियां चमक रही हैं, ऐसा मेरे भीतर कुछ हो रहा है। दादू कहते हैं कि जैसे हजार सूरज एक साथ उग गए हों, ऐसा मेरे भीतर कुछ उग आया है। फिर चाहे मुसलमान फकीर हों, ईसाई फकीर हों, सभी फकीरों का अनुभव है कि जब भीतर ध्यान की गहराई उतरती है, तो परम प्रकाश के अनुभव होते हैं।
वह प्रकाश न तो सूरज का है, न अग्नि का है, न चांद का है। वह प्रकाश कहां से आता है? वह प्रकाश कहीं से भी नहीं आता; आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं। आपका होना ही वह प्रकाश है।
इस प्रकाश को कह रहे हैं कृष्ण कि वह मेरा परम धाम है। और जो उस स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, वह इस संसार में वापस नहीं लौटता। वही मूल—स्रोत है, वही उदगम है।
और हे अर्जुन, इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।
उस स्व—प्रकाशित ज्योति—पुंज का एक हिस्सा ही प्रत्येक देह के भीतर छिपा है।
इसे हम ऐसा समझें। आप आंख बंद कर लें, तो आप अपने विचारों को देख सकते हैं। आंख बंद है; विचार देखे जा सकते हैं। कौन देखता है? भीतर क्रोध उठे, कामवासना उठे, आप उसे भी देख सकते हैं। कौन देखता है? वह जो देखने वाला है, उसको आप नहीं देख सकते।
जिस—जिसको आप देख सकते हैं, वह—वह आप नहीं हैं, यह गणित है। और जो सबको देखता है, लेकिन स्वयं नहीं देखा जा सकता, वह आप हैं। वही आपका मूल उत्स है। उससे पीछे जाने का कोई उपाय नहीं। नहीं तो उसको भी आप देख लेते। उससे पीछे खड़े हो जाते, उसको भी देख लेते। लेकिन उसे आप नहीं देख सकते।
सब देख सकते हैं। शरीर देखा जा सकता है, मन के विचार देखे जा सकते हैं; हृदय की भावनाएं देखी जा सकती हैं; कुंडलिनी के अनुभव देखे जा सकते हैं; सब देखा जा सकता है। जो भी देखा जा सकता है, वह आपका स्वभाव नहीं है। देखने वाला जो है, वही आपका स्वभाव है। वह जो द्रष्टा है, वह इररिडयूसिबल है। उसे आप दृश्य नहीं बना सकते। उसको आप विषय नहीं बना सकते। वह हमेशा विषयी है। वह हमेशा सब्जेक्ट है, वह आब्जेक्ट नहीं हो सकता।
जैसे ही सारे विषय खो जाते हैं, और सिर्फ जानने वाला ही रह जाता है, और जानने को कुछ नहीं बचता, परम प्रकाश का उदय होता है। यह परम प्रकाश बाहर से नहीं आता, न सूरज से, न चांद से, यह आपके भीतर ही छिपा है।
सूरज भी चुक जाएगा। उसकी गरमी भी कम होती है। यह बिजली भी चुक जाएगी। दीया जलता है, तेल चुक जाएगा, दीया बुझ जाएगा। सिर्फ एक ज्योति है, जो कभी नहीं बुझती, क्योंकि वह बिना ईंधन के जलती है, वह चेतना की ज्योति है। कोई तेल उसे नहीं जलाता। कोई ईंधन, कोई पेट्रोल, कोई बिजली, कोई हीलियम गैस उसे नहीं जलाती। इसलिए उसके समाप्त होने का कोई उपाय नहीं है। वह शाश्वत है।
वैज्ञानिक बड़ी खोज करते हैं कि कोई ऐसा प्रकाश उपलब्ध हो जाए, जो बिना ईंधन के चले। क्योंकि सब ईंधन चुकते जाते हैं, सब ईंधनों की सीमा है। कोयला खत्म होता जाता है, पेट्रोल खत्म होता जाता है। आज नहीं कल सब ईंधन चुक जाएंगे। और आदमी बिना ईंधन के जी नहीं सकता। तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई है। वैज्ञानिक सोचते हैं, ईंधनरहित कोई प्रकाश।
और कृष्ण उसी प्रकाश की बात कर रहे हैं। वह प्रकाश प्रत्येक के भीतर है। लेकिन उसे यंत्र से पैदा करने का कोई भी उपाय नहीं है। चैतन्य उसी प्रकाश का नाम है।
इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है—उस परम प्रकाश का ही अंश है—और वही इन त्रिगुणमयी माया में स्थित हुई मन सहित पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है।
और यह जो चेतना का अंश आपके भीतर है, यही आपकी पांचों इंद्रियों को अपने में आकर्षित किए हुए है, सम्हाले हुए है। यह थोड़ा समझने जैसा है। क्योंकि बडी भ्रांति है इस संबंध में।
आमतौर से आदमी सोचते हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा हुआ है। कृष्ण कह रहे हैं कि आप ही इंद्रियों को पकड़े हुए हैं। इंद्रियां आपको क्या बांधेगी! इंद्रियां जड़ हैं, वे आपको बांधें, इसका कोई उपाय नहीं है। आप बंधे हुए हैं। और यह आपका ही संकल्प है; यह आपका ही निर्णय है। इस निर्णय की बड़ी प्रक्रिया है।
आप रूप देखना चाहते हैं। रूप देखने की जो वासना है, वह आपकी आंखों को आपसे बांधे रखती है। उस वासना के रज्‍जु से आंख बंधी रहती है। अगर आपकी देखने की इच्छा खो जाए, आप इसी क्षण अंधे हो जाएंगे।
मेरे पास एक युवती को लाया गया। वह अचानक अंधी हो गई। और चिकित्सकों ने जांच की और पाया कि उसकी आंख में कोई शारीरिक भूल—चूक नहीं है। आंख बिलकुल ठीक है। इसलिए इलाज का कोई उपाय नहीं है। और चिकित्सकों ने कहा कि यह तो मानसिक अंधापन है, कुछ किया नहीं जा सकता।
किसी ने सुझाव दिया, उसके मां—बाप उस युवती को मेरे पास ले आए। मैंने उससे पूछा कि कैसे हुआ? क्या हुआ? क्योंकि अगर मानसिक घटना है, तो उसका इतिहास होगा। क्योंकि मन तो अतीत से काम करता है, मन तो अतीत है। तो मैंने मां—बाप को कहा कि आप जाएं; मैं उस युवती से अलग से ही बात कर लूं।
उससे पूछताछ की, खोजा—बीना, तो पता चला कि पड़ोस के युवक से उसका प्रेम है। और उसके बिना वह नहीं रह सकती।
लेकिन वह ब्राह्मण की लड़की है। पड़ोस में जो व्यक्ति है, वह ब्राह्मण तो है ही नहीं, हिंदू भी नहीं है। यह प्रेम चलाया नहीं जा सकता। यह विवाह हो नहीं सकता। तो सब तरफ से मा—बाप ने रोक लगा दी; और दोनों के मकान .के बीच छत पर एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी, जिससे कि आर—पार देखा न जा सके। जिस दिन दीवार बनी है, उसी दिन से उसकी आंखें चली गई हैं।
मैंने उसको पूछा कि तेरे भीतर क्या भाव है? उसने कहा कि जिसे मैं देखने के लिए जीती हूं अगर उसे न देख सकूं? तो इन आंखों का कोई अर्थ नहीं है।
चिकित्सक इसका इलाज न कर सकेंगे। क्योंकि इसकी देखने की इच्छा वापस लौट गई है। आंखें निर्जीव पड़ी रह गई हैं। आंखों से देखने की इच्छा का जो प्रवाह है, वही आंखों में जीवन देता है। मैंने उनके मां—बाप को कहा कि उपाय एक ही है, वह दीवार बीच से गिरा दो। और जो—जो बंधन खड़े किए हैं; वह हटा लो। या फिर यह लड़की अंधी रहेगी, इसे स्वीकार कर लो।
उनको बात समझ में आ गई, जो कि बडा चमत्कार है। क्योंकि मां—बाप की समझ में कुछ आ जाए! वे राजी हो गए। दीवार नहीं गिरानी पड़ी; उनके राजी होते से ही, मेरे सामने ही बैठे—बैठे उस लड़की की आंखें वापस आ गईं। फिर से देखने की इच्छा प्रवाहित हो गई।
आप आंखों को पकड़े हैं, क्योंकि देखना चाहते हैं। कान को पकड़े हैं, क्योंकि सुनना चाहते हैं। हाथ को पकड़े हैं, क्योंकि छूना चाहते हैं। आपकी चाह आपकी इंद्रियों के और आपके बीच सेतु है। इसलिए बुद्ध ने कहा है कि आंखें मत फोड़ो; कान बंद करने से कुछ भी न होगा। चाह को गिरा दो, चाह को हटा दो, तो इंद्रियों से संबंध धीरे— धीरे अपने आप छूट जाता है।
ध्यान रहे, आप आमतौर से यही सुनते रहे हैं कि इंद्रियों ने आपको बांधा है, इंद्रिया दुश्मन हैं। और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं। क्या कह रहे हैं कि आपने इंद्रियों को चाहा है; उनका उपयोग किया है। आपने ही उनको खींचा और आकर्षित किया है, इसलिए वे हैं। और जिस दिन आप निर्णय करेंगे, जिस दिन आपका रुख बदल जाएगा, आपकी धारा भीतर बहने लगेगी, उसी दिन इंद्रिया तिरोहित हो जाएंगी।
इंद्रियों को दोष मत दें। दोष किसी का भी नहीं है। आपका संकल्प है। आपकी चेतना ने इस शरीर में रहना चाहा है, इसलिए शरीर में है। जिस दिन नहीं रहना चाहेगी, उसी दिन शरीर छूट जाएगा।
अगर यह बात खयाल में आ जाए, तो इंद्रियों से जो दुश्मनी चलती है, वह बंद हो जाए। वह मूढूतापूर्ण है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। और वह गलत है। उसके परिणाम भयानक हैं। क्योंकि आप इंद्रियों से लड़ने में शक्ति गंवा देते हैं। और लड़ाई वहा अर्थहीन है। लड़ाई कहीं और होनी चाहिए। लड़ाई होनी चाहिए कि मेरा इंद्रियों को पकड़ने का रुख कम हो जाए।
मन सहित पांचों इंद्रियों को वही आकर्षण करता है। जैसे कि वायु गंध के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिको का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।
जब आप मरते हैं, तब भी आप सूक्ष्म इंद्रियों को अपने साथ ले जाते हैं। जैसे हवा फूलों की गंध को अपने साथ ले जाती है। फूल को तो नहीं ले जा सकती, फूल तो पीछे रह जाता है, लेकिन हवा का झोंका फूल की गंध को अपने साथ ले जाता है। आपकी चेतना शरीर को तो नहीं ले जा सकती, लेकिन शरीर को पकड़ने की जो वासना है, उसको गंध की तरह अपने साथ ले जाती है।
उसी वासना के आधार पर, उसको हिंदुओं ने सूक्ष्म इंद्रियां कहा है। आंख स्थूल इंद्रिय है; देखने की वासना सूक्ष्म इंद्रिय है। जीभ स्थूल इंद्रिय है; स्वाद की आकांक्षा सूक्ष्म इंद्रिय है। फूल तो पड़े रह जाते हैं।
आप जानकर चकित होंगे कि हिंदू मरे हुए आदमी के शरीर की हड्डियां जब मरघट से उठाकर लाते हैं, तो उनको फूल कहते हैं। बिलकुल प्यारा शब्द है।
फूल पड़े रह जाते हैं, लेकिन गंध आपके साथ चली जाती है। और वह जो गंध आपके साथ चली जाती है, वह नए जन्मों की तलाश करती है। वह नए शरीर खोजती है, नए गर्भ खोजती है। और जैसी आपकी वासना होती है, वैसा गर्भ आपको उपलब्ध हो जाता है।
जो आप होना चाहते हैं, जो आप होना चाहने की कामना इकट्ठी करते रहे हैं, वही संगृहीभूत हो जाती है, वही क्रिस्टलाइज हो जाती है। नई देह का निर्माण... आप नई देह को पकड़ लेते हैं।
यह तब तक चलता रहेगा, जब तक हवा गंध को ले जाती रहेगी। यह उस दिन बंद हो जाएगा, जिस दिन हवा फूल को ही नहीं छोड़ेगी, गंध को भी छोड़ देगी। हवा खाली उड़ जाएगी।
बुद्ध ऐसे ही उड़ते हैं। महावीर ऐसे ही उड़ते हैं। फूल भी छोड़ जाते हैं, गंध भी छोड़ जाते हैं। फिर कोई देह उपलब्ध नहीं होती, फिर कोई गर्भ उपलब्ध नहीं होता। फिर किसी शरीर में प्रवेश का उपाय नहीं रह जाता। प्रवेश का उपाय आपको साथ लेकर चलना पड़ता है।
और उस शरीर में स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है।
फिर यात्रा शुरू हो जाती है। फिर वही भोग शुरू हो जाता है। फूल बदल जाते हैं, गंध की यात्रा चलती रहती है। इंद्रियां बदल जाती हैं, वासना की यात्रा चलती रहती है।
इंद्रियों को छोड़ना नहीं है, वासनाओं को छोड़ देना है। इंद्रियां अपने से छूट जाती हैं। लेकिन हमें इंद्रियां छोड़ना आसान मालूम पड़ता है। कोई भोजन छोड़ देता है, कोई भोजन में नमक छोड़ देता है, कोई भोजन में घी छोड़ देता है, कोई भोजन में शक्कर छोड़ देता है, कोई आंखें नीची करके चलने लगता है, कोई स्त्री के स्पर्श से भयभीत हो जाता है; कोई कीमती वस्त्र का स्पर्श नहीं करता। यह सब इंद्रियों का छोड़ना है।
यह वैसे ही है, जैसे कोई जीवन से ऊबा हुआ आदमी आत्महत्या कर ले। और आत्महत्या से जीवन समाप्त नहीं होता; सिर्फ देह बदलती है। मरे नहीं कि नया शरीर ग्रहण हो जाएगा। और आत्महत्या करने वाले को और भी विकृत देह के उपलब्ध होने की संभावना है। क्योंकि जिसने अपने को नष्ट करना चाहा, उसका चित्त विकृत अवस्था में है। और इस विकृति की छाप उसके ऊपर रहेगी, आत्महत्या की।
आपने अपने को आग लगाकर जला लिया। तो एक क्षण में तो नहीं जल जाएंगे। जलने के पहले सोचेंगे, विचारेगे, सब विकृति भीतर इकट्ठी होगी। फिर आग लगाएंगे। फिर तड़पेंगे। फिर उस तड़पती हुई आग में बचना भी चाहेंगे, और बच भी न सकेंगे। पुकारेंगे, चीखेंगे, सोचेंगे कि भूल हो गई; बड़ा विषाद उत्पन्न होगा, बड़ा संताप, बड़ी पीड़ा होगी। और उस पीड़ा में मरेंगे।
इस पीड़ा की छाप, ये कुंठित वासनाएं, ये जलती हुई आग की लपटें, सब की गंध आपके साथ चली जाएगी। गंध तो जाएगी ही, दुर्गंध भी जाएगी, उत्तप्तता भी जाएगी। और नया गर्भ आप लेंगे, वह गर्भ भी विकृत, उत्तप्त होगा। उसमें भी आप अपंग पैदा होंगे, अंधे पैदा होंगे, टूटे—फूटे पैदा होंगे, खंडहर की तरह पैदा होंगे। क्योंकि खंडहर करने की जो चेष्टा आपने की, उसका संस्कार अपने साथ ले आए।
लेकिन यह तो हमारी समझ में आ जाता है कि इस तरह कोई अपने को आत्मघात करे तो पाप है, बुरा है और इसके दुष्परिणाम होंगे। लेकिन छोटी—छोटी आत्महत्याएं लोग करते हैं, वे हमारी समझ में नहीं आती हैं।
एक आदमी आंखें बंद करके बैठ जाता है। वह एक बटे पांच आत्महत्या हुई, क्योंकि पांच इंद्रियां हैं। एक आदमी ने पांचों को जला लिया, और एक आंख बंद करके बैठ गया।
सूरदास की हमने कथा सुनी है। अगर सूरदास ढंग के आदमी रहे हों, तो कथा झूठी होनी चाहिए। अगर कथा सच्ची हो, तो सूरदास ढंग के आदमी नहीं हो सकते। कथा है कि एक सुंदर युवती को देखकर उन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं।
यह तर्क तो समझ में आता है। इस तरह के बहुत सूरदास हैं। लेकिन सुंदर स्त्री की जो वासना उठती है, वह सुंदर स्त्री से नहीं उठ रही है, वह मेरे भीतर से उठ रही है। वह मेरी आंखों से भी नहीं उठ रही। आंखों से मेरे भीतर से आ रही है, आंखों से गुजर रही है। उस सुंदर स्त्री को शायद पता भी न हो कि कोई उसके पीछे सूरदास हो गया। और इन आंखों का कोई कसूर भी न था। आंखें तो वहीं गईं, जहां मैं ले जाना चाहता था। आंखों ने वही देखा, जो मैं देखना चाहता था। आंखों ने वही चाहा, जो मेरी चाह थी। आंखें मेरा अनुसरण कर रही थी। और मैंने आंखें फोड़ दीं।
यह आत्महत्या हुई, एक बटा पांच। इस तरह की आत्महत्या करने वाले को हम साधु कहते हैं। मगर यह भी विकृति है। और इस तरह की आत्महत्या करने वाला भी दुर्गति को उपलब्ध होता है। सवाल इंद्रियों को नष्ट करने का है ही नहीं, सवाल इंद्रियों से मुक्त होने का है। और इंद्रियों ने आपको नहीं बांधा है, आपने उनको बांधा है। इसलिए इंद्रियों का कहीं भी कोई कसूर नहीं है। आपका भी कोई कसूर नहीं है। अगर आप चाहते हैं यही, तो कोई कसूर नहीं है। पर इसे होशपूर्वक होने दें। फिर इसमें प्रसन्न हों। फिर वैराग्‍य की कामना न करें।
राग की कामना कर रहे हैं और वैराग्य के सवाल उठाते हैं, तब आप दुविधा में पड़ जाते हैं।
रोज मेरे पास लोग आते हैं, जिनका कष्ट एक ही है, रण और वैराग्य की दुविधा। राग तो उनके जीवन का रस है और किन्हीं सिरफिरों की बातें सुनकर वैराग्य उनको पकड़ गया है। तो वैराग्य भी उनके सिर में घूम रहा है। और राग उनकी अवस्था है। अब इन दो झंडों के नीचे उनकी यात्रा चल रही है। इससे वे बड़े कष्ट चुनाव है। और अगर इस गुलामी को भी मैंने चुना है, तो जिस क्षण में हैं और खंडित हो गए हैं, टूट गए हैं, स्‍प्‍लिट। दो आदमी हैं मैं चाहूं उसी क्षण तोड़ सकता हूं। यह ध्यान आते ही रुख बदल उनके भीतर। एक राग की तरफ खींचता है, एक वैराग्य की तरफ जा सकता है।
खींचता है। इसलिए एक क्षण में समाधि लग सकती है, और एक क्षण में इस संताप से कोई आत्म—उपलब्धि होने वाली नहीं है। वैराग्य और राग साथ—साथ नहीं जी सकते हैं। जब तक राग है, तब तक वैराग्य को पकड भी नहीं सकते आप, सिर्फ सोच सकते हैं शब्दों में। शब्दों में सोचने का कोई अर्थ नहीं है, वह निष्प्राण है।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी में कुछ खटापटी हो गई, बोलचाल बंद हो गया, जैसा पति—पत्नी में अक्सर हो जाता है। ऐसे तो बोलचाल चलता है, तब भी बंद ही रहता है। लेकिन कभी—कभी बिलकुल ही बंद हो जाता है।
मुल्ला की पत्नी को सुबह कहीं जाना था जल्दी, सर्दी के दिन थे। तो वह कैसे पति को कहे? और जब भी बोलचाल बंद होता है, तो पति को ही शुरू करना पड़ता है। पत्नी कभी शुरू नहीं करती। वह स्त्री का स्वभाव नहीं है, पहल करने का, इनीशिएटिव लेने का।
तो पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ी। सर्दी के दिन हैं, सुबह जल्दी उठना है। तो उसने एक कागज पर लिखकर नसरुद्दीन को दिया कि मुल्ला, सुबह पांच बजे मुझे उठा देना। नसरुद्दीन ने चिट्ठी खीसे में रख ली।
सुबह जब पत्नी की नींद खुली, तो वह चकित हुई; सूरज उग चुका था और कोई आठ बज रहे थे। कुछ कह तो सकती नहीं नसरुद्दीन से, क्योंकि बोलचाल बंद है। आस—पास देखा; एक चिट रखी थी उसके बिस्तर पर, कि देवी जी, पांच बज गए हैं, उठिए।
बस, आपका वैराग्य ऐसा कागजी हो सकता है। उससे आप उठेंगे नहीं, सोए ही रहेंगे राग में और वैराग्य की चिट्ठियां आपके आस—पास तैरती रहेंगी। शास्त्र से आया हुआ वैराग्य कागजी होगा।
अपने राग को ठीक से समझें। और यह भी समझें कि यह मेरा संकल्प है। यह मैंने ही तय किया है, चाहे अनंत जन्मों पहले तय किया हो। यह मेरा ही निर्णय है कि मैं शरीर की यात्रा पर जाता हूं; इस संसार के सागर में उतरता हूं; इस संसार के वृक्ष में डूबता हूं; यह मेरा निर्णय है। मैं नियंता हूं। जिस दिन मैं यह निर्णय बदलूंगा, उसी दिन धारा बदल जाएगी। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है।
यह हिंदू विचार अनूठा है। कोई मुझे ले जा नहीं रहा है, मैं मालिक हूं; इस गुलामी में भी मैं मालिक हूं। मैं जा रहा हूं यह मेरा बोध उत्पन्न हो सकता है। बुद्ध होने के लिए अनंत जन्मों की जरूरत नहीं है। एक क्षण में भी घटना घट सकती है।
कृष्ण यही अर्जुन को कह रहे हैं कि मेरा ही अंश तेरे भीतर है, सबके भीतर है। उसी अंश ने इंद्रियों को पकडा है। और वही अंश उन इंद्रियों की गंध को ले जाता है नई यात्राओं पर। जिस क्षण तू जान लेगा कि तेरा संकल्प ही तेरी यात्रा है, उस क्षण तू चाहे तो यात्रा रुक सकती है। और अगर तू यात्रा करना चाहे, तो कर सकता है। लेकिन तब यात्रा खेल होगी; तब यात्रा लीला होगी। क्योंकि तू ही कर रहा है; कोई करवा नहीं रहा है। तेरी ही मौज है।
इस संबंध में यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। क्योंकि ईसाई सोचते हैं कि ईश्वर ने दंड दिया आदमी को, इसलिए संसार है। अदम ने भूल की, पाप किया, गुनाह किया, तो निष्कासित किया अदम को। मुसलमान भी वैसा ही सोचते हैं। जैन सोचते हैं कि आदमी ने कोई पाप किया, कोई कर्म—बंध किया, उसकी वजह से भटक रहा है। बुद्ध भी ऐसा ही सोचते हैं।
हिंदुओं का सोचना बहुत अनूठा है। हिंदू चितना यह है कि यह तुम्हारा संकल्प है। न तुम्हारा पाप है, न किसी ने तुम्हें दंड दिया है, न कोई दंड देने वाला बैठा है। और पाप तुम करोगे कैसे? कभी तो तुमने शुरुआत की होगी! कभी तो पहले दिन तुमने किया होगा बिना किसी पिछले कर्म के! आज हो सकता है कि मैं जो कर रहा हूं—पिछले कर्मों के कारण, पिछले जन्म में और पिछले कर्मों के कारण। लेकिन प्रथम क्षण में तो बिना किसी कर्म के मैंने कुछ किया होगा। वह मेरा संकल्प रहा होगा। वह मैंने चाहा होगा।
अगर यह मेरी चाह से ही संसार का वृक्ष है, तो मेरी चाह से ही समाप्त हो जा सकता है। राग संसार में उतरने का संकल्प है, वैराग्य संसार से पार होने का संकल्प है।

आज इतना ही।

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