(अध्याय - 30)
मेरी मुक्ति के दिन
दिसम्बर की शरदऋतु
के दिन थे ठंडी हवा अंदर तक शरीर को कंपा दे रही थी। तभी अचानक घर में कुछ अजीब सी
हरकत शुरू हो गई। जब भी कुछ इस तरह की हरकत घर में होती तो मैं भयभीत हो जाता था।
जरूर कही कुछ गलत होने वाला है। उस एकांत से बहुत डर जाता था जो मुझे जीना होता था।
मन भी कैसा है उस जैसे तरह से जीने के लिए छोड़ दिया जाये वह उसी में जीना शुरू कर
देती है। आपने दिखा मेरा शक एक दम से सही निकला। कितने दिन पहले से लगातार रोज छत
पर ब्रेड सुखाई जा रही थी। उसी सब से मेरा माथा ठनका था, की
जरूर कुछ गलत होने वाला है। उन सुखी हुई ब्रेड को एक बड़े से ड्रम में भर कर रखा
जा रहा था। इस सहजता से इत्मीनान से ऐसा काम पहले भी अगर कभी था तो वह बहुत छोटे
पैमाने पर। या फिर गीदड़ों के लिए जंगल में ले जाते थे। मेरे मन में कहीं चोर था,
अचेतन में एक भय की आहट होने लेगी....कि जरूर कोई आपातकालीन स्थिति
आने वाली है। वैसे मुझे सुखी हुई कुरमुरी ब्रेड खाने में मजा बहुत आता है।
लेकिन बात कुछ और ही चल रही थी। घर के अंदर सब समान जमाया जा रहा था। बड़े—बड़े सूट केस खुले रखे थे। मेरे मन को एकदम से धक्का लगा हो न हो ये कहीं जाने की तैयारी चल रही है। पिछली बार तो भैया और दीदी मेरे साथ रह गई थी। इस बार तो ये लोग भी बहुत खुश धूम रहे थे। मैंने लाख पास जाकर सूँघने की कोशिश की....परंतु मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। शायद भय के कारण मैं घबरा गया था। मेरे सूँघने की इंद्री भी ठीक तरह से काम नहीं कर रही थी। क्योंकि में साफ देख रहा था मन पर एक तनाव बह रहा है।
क्योंकि इतना तो
मैं भी जानता था ये लोग अगर इतना सामान ले कर जा रहे है। अगर कहीं दूर जायेंगे
यहां पास ही घूमने जाते थे,
तब तो श्याम तक आ ही जाते थे। वह दिन भी मेरे लिए बहुत भारी हो
जाता था। इतने बड़े घर में कहीं भी मेरा मन नहीं लगता था। कितना तो मैं सो लेता था,
परंतु कितना लेकिन अब तो बात ही अलग थी। तब अचानक मेरे मन में एक भय
समा गया। फिर मेरा मन उदास हो गया। अब मैं अपनी बात किसी को कह भी नहीं सकता। ज्यादा
से ज्यादा पापा जी के पास जाकर उनकी गोद में अपना सर रख कर लेट जाता वह मेरे सर
और गर्दन पर हाथ फेरते और समझ जाते। उनका यू छूना मुझे अंदर तक तृप्त कर जाता था।
और मेरी आंखें बंद हो जाती थी। पापा जी मेरी आंखों का दर्द देख कर या मेरे शरीर को
छू कर मेरे अंदर के भय को तुरंत महसूस कर लेते थे। मैं जितना ज्यादा से ज्यादा
मम्मी और पापा के पास ही रहने की कौशिक करता था। ताकि उनके संग—साथ को ज्यादा—से
ज्यादा अपने अंदर समेट लूं।
लेकिन जो होना था
वही हुआ ठीक अगली सुबह सब लोग चले दिए। जाने से पहले मुझे मिठाई खिलाई गई। परंतु न
तो दूध अच्छा लगा रहा था। और न ही मिठाई हालांकि और किसी दिन में लाख मिन्नत कर
के भी मिठाई के कुछ ही टुकड़े इकट्ठे कर पाता था। परंतु आज बिन मांगे मिल रही है
फिर भी हलक से नीचे नहीं जा रही थी। मैंने मिठाई की तरफ से मुख फेर लिया, पापा
मम्मी मेरे पास आये और कहने लगे हम जल्दी ही आ जायेंगे। मैं गर्दन नीची करके एक
आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुनता रहा। परंतु मैं जानता था ये शब्द मेरे लिए एक
हथोड़े का काम कर रहे है। एक पीड़ एक उत्ताप्त एक दंश, एक
तड़प, एक दर्द, जो मुझे मेरे अंदर तक
चीरे जा रहा था। मन में बार—बार ख्याल आ रहा था, इस मनुष्य
के पास आकर जितना पीड़ा या दूख महसूस कर रहा हूं ये मेरा सौभाग्य है या दुर्भाग्य।
मां से बिछड़ने का दूख जरूर हुआ था....परंतु मनुष्य के साथ रह कर तो यह नित्य
नये-नये दूख देखने पड रहे है। सबसे बड़ा दूख तो अनमेल जाति का है। हम कहां और
मनुष्य कहां। परंतु जिसके संग साथ हम रहते है उसके आचार व्यवहार से ही तो अपने को
तोलते रहते है। एक आदत या उसे मजबूरी कह ली जीये लेकिन यह सच्चाई है। जिसे हमें हर
हालत में सहन करना है।
मम्मी पापा ने घर
का दरवाजा खोल कर हाथ हिला कर बाई....बाई करते हुए चल गये। और फिर दरवाजा बंद हो
गया...मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा....लगा की मेरी सांसे बद हो जायेगी।
कुछ देर के लिए तो दिल इतनी जोर से धड़का और लगा अब सब शांत हो जायेगा। मुझे लगा
अब ठीक है....इसका बंद ही हो जाना ठीक
है....इसके धड़कने से ही बेचैनी और पीड़ा आती है। परंतु ये मेरे बस की बात नहीं
थी। मैं ठगा सा एक पत्थर की तरह बैठा रह गया था। पहले तो मैं छत पर जाकर दूर तक
मम्मी पापा को जाते हुए देखता था परंतु आज तो हिम्मत ही नहीं हो रहा थी। उस
दृश्य को कैसे देखूंगा। जैसे मेरे पैरो ने जवाब दे दिया हो। शरीर को जैसे लकवा मार
गया था। कितनी ही देर इसी तरह बैठा रहा....या सो गया मुझे इस का जरा भी भान नहीं
रहा।
पूरा दिन इंतजार
करता रहा की हो सकता है श्याम रहते सब लोट आये। परंतु ऐसा न होना था और न ही हुआ।
अब रह गये हम दो प्राणी दादा और मैं। वैसे तो दादाजी दूर जो बैठक है उस में रहते
थे। जहां हमारी दुकान थी। वह केवल खाना खाने या बच्चों के साथ टीवी देखने के लिए
ही घर आते थे। और जब भी आते थे। मेरे मजे आ जाते थे। क्योंकि एक दादाजी ही ऐसे थे
जो मुझे घर आते ही मुक्त कर देते थे। घर का दरवाजा जो सारा दिन बंध रहता था। क्योंकि
काफी कीमती सामान अंगन में रखा रह था। परंतु दादा जी घर में आते ही जोर से आवाज
देते की मनवा....मणि दीदी को वह मनवा के नाम से पुकारते थे। और ये सब मेरे लिए एक सिगनल
का काम करता था। मैं तो तैयार ही था, पल में बहार भाग जाता था।
जब बहार जाकर किसी कुत्ते के साथ लड़ाई करता या मुझे भी कुछ चोट लग जाती तब दादा
जी कहते बहुत बेकार है। दरवाजा खोलते ही बहार निकल जाता है।
एक दिन ऐसा हुआ की
दादा जी ने मुझे बहार निकाल दिया और जैसे ही मैं बहार निकला गली के कोने में एक
सुंदर सी कुतिया मेरा इंतजार कर रही थी। मैं कई बार उसे छत से गली मैं अपने घर की
और निहारते हुए देखता था। मुझे इस तरह से गली में देख कर वह मेरे पास आई और मेरे
साथ खेलना शुरू कर दिया। खेलते-खेलते हम दूर निकल गए। पार्क में, वहाँ
पर तीन कुत्ते जैसे मेरा इंतजार ही कर रहे थे। शायद मेरी दोस्त कुतिया के कारण वह
मुझसे और चिड़ गए। तीनों एक साथ मेरे उपर झपटे। मैं इस के लिए तैयार नहीं था।
क्योंकि मैं तो मोज मस्ती और प्रेम से तरल हो गया था। लड़ने या बचाव के लिए आपको
थोड़ा अकड़ना ही होगा।
एक ने मेरी गर्दन
पकड़ ली और दूसरे ने मुझे पीठ से पकड़ लिया और तीसरा मेरे उपर चढ़ कर मुझे गिराने
लगा। मैंने सोचा की ये सब क्या है....तब जाकर मेरी चेतना तैयार हुई। और सोचने
समझने लगा की ये तो ऐसे मुझे मार देंगे। नीचे लेटे हुए ही मैंने उपर वाले कुत्ते
के पेट में दाँत गड़ा दिया,
वह दर्द से छटपटा गया। फिर दूसरे कुत्ते के कान कुछ बड़े थे वह कान
पकड़ कर चबा गया वह भी दर्द से कराह उठा और तीसरे को तो मैंने भगा-भगा कर मारा।
परंतु मैं ये देख कर अचरज कर रहा था कि मेरे दोस्त कुतिया मुझे बचाने क्यों नहीं
आई। जो की पास ही झाडियों से ये सब देख रही थी। जब मैंने तीनों को भगा दिया तो वह
मेरे सामने आकर मेरा मुख चाटने लगी और मुझे रिझाने लगी ये मेरे लिए प्रेम का पहला
अवसर था। हम कुछ देर खेलने के बाद एक दूसरे के प्यार में डूब गए। एक झाड़ी के पीछे
हम काफी देर तक उसी अवस्था में रहे। पिटने वाले कुत्ते दूर से ये सब नजारा देख रहे
थे पास आने की किसी की हिम्मत नहीं थी। इस पहले मिलने के बाद शरीर में एक अजीब सी
गुदगुदाहट हो रही थी। पहला प्यार का एहसास अलग ही होता है। कितना सुंदर होता है
मिलन, कुदरत ने भी इसके अंदर कैसा अद्भुत आकर्षण छुपा रखा
है। प्रकृति भी गजब है आप न चाहते हुए भी इस और खिंचे चले जाते हो।
कुछ देर बाद जब हम
अलग हो गए तो मैं अपने घर की और चला। वह दूर तक खड़ी मुझे निहारती रही। फिर तो कई
दिन और रातें हमने एक साथ गुज़ारी थी। अब मुझे घर से बाहर निकलने का मिला ये अवसर
अनमोल था। जिस की मुझे न चाह थी, और न इस विषय को में जानता था। प्रकृति
ने किस तरह से अनमोल भेट मुझे दी इस विषय पर मैंने कभी सोचा नहीं था। और सच मैं इस
से अनभिग था। परंतु आजादी मुझे इस तरह से पूर्णता की और ले जायेगी मैंने सोचा नहीं
था। मुझे दादा जी की तरफ से पूरी आजादी थी कहीं भी जा सकता हूं। ये पहला प्रेम
मुझे एक नये ही आयाम में ले गया। जिसके बारे में मुझे जारा भी पता नहीं था परंतु
प्रकृति तो सब जानती है।
अब मैं कहीं भी
स्वछन्द हो कर आ जा सकता था। अब मैं दादा जी के साथ भी जंगल में जाने लगा था। इस
तरह से गांव के मेरे दुश्मन कुत्ते समझ गए थे कि मैं अब अकेला हूं। परंतु वह यह
नहीं जानते थे कि मेरे साथ दादा जी भी है। जिनके पास हमेशा एक बड़ा लट्ठ हाथ में
रहता था। जिसके सहारे वह चलते थे। यही सब समझ कर एक दिन एक गली के उस दादा कुत्ते
ने अपने साथी कुत्तों के साथ मुझ पर हमला कर दिया। वह एक झाड़ी की औट में छुप कर
मेरा इंतजार कर रहे थे। कुछ ही देर में आवाज सून कर दादा जी आ गए। बस फिर क्या था
दादा जी ने आव देखा ने ताव ताबड़ तोड़ लट्ठ मारने शुरू कर दिया। अब कितने मुझे लग
रहे है और कितने दूसरे कुत्तों के लग रहे है। इस की उन्हें जरा भी चिंता नहीं
थी। परंतु वह कुत्ता जिसने मेरी गर्दन पकड़ रखी थी। मुझे जान से ही मारना चाहता
था। मेरी सांस बंद हो रही थी। उसके दाँत मेरी गर्दन में घंसा रखे थे। कुछ देर में
वह दोनों कुत्ते तो दादा जी का लट्ठ खा कर प्याऊ...प्याऊ कर के भाग गये। अब मैं
समझ रहा था ये कुत्तों बड़ा ही का झगड़ालू है मुझे पहचान गया है और बड़ा ही पाजी
भी है। दादाजी बूढ़े जरूर थे शायद उस समय भी उनकी उम्र 90 वर्ष रही होगी। क्योंकि
दादा जी जब मरे तो उनकी उम्र 95 साल थी। जब वह मरे तब भी रोज घूमने जाते थे। गिरने
के कारण उनके कुल्ले हड्डी टूट गई नहीं तो दादा जी 100 का आंकड़ा जरूर पार कर
जाते।
अब बाहर निकलने से
पहले चारों और नजर डाल लेता था। फिर उसके बाद उस गर्दन पकड़ने वाले कुत्ते को एक
दिन मैंने इतना मारा की शायद वह मर ही जाता। वह तो दादाजी आ गये और मुझे मार -मार
कर उसे छूड़ा दिया वरना तो मैं उसे जान से मार देता। उस दिन के बाद वह कुत्ता फिर
कभी मुझसे लड़ने नहीं आया। एक तो दादा जी का लट्ठ लगा और दूसरा मैंने एक दिन उसकी
खूब चटनी बनाई। फिर भी मैं आगे के लिए तैयार हो गया था। क्योंकि आदमी को कभी भी
अपने दुश्मन को कमजोर नहीं समझना चाहिए। और उस दिन की लड़ाई से मैंने यही सबक
सिखा।
दिन पर दिन बीत रहे
थे। परंतु परिवार का कोई सदस्य नहीं आ रहा था। लेकिन एक बात थी परिवार के जाते ही
खाने के भी लाले पड़ गये। दूध दही की तो बात ही मत करो। दादा जी एक दिन दूध लाये
थे उस दिन एक कटोरी में मुझे दिया। शायद घर पर ही रखा हो उस दिन मेरा मन नहीं कर रहा
था क्योंकि उसी दिन सब परिवार के लोग गये थे। फिर तो जितने दिन मैं दादा जी के
साथ रहा था कभी दूध के दर्शन नहीं हुए। भूख किस चिड़ियां का नाम इन दिनों मैंने
जाना। वरना तो भूख लगने से पहले ही खाने को मिल जाता। मैं सोच रहा था इतनी ब्रेड
जो सुखा कर रखी थी वह भी दादा जी मुझे क्यों नहीं देते और न ही खूद खाते है। खूद
तो खा ही नहीं सकते थे। क्योंकि उनके तो दाँत पूरी तरह से घिस गये थे। और कुछ
निकलवा लिए थे। तो फिर वो वहां क्यों रखी हुई है, क्या उसका अचार
बनाना है। मैं उस ब्रेड वाले बर्तन के पास जाकर खड़ा भी होता उस सेल्फ पर चढ़ने की
कोशिश भी करता। क्योंकि मुझे भूख लगी थी और इतना खाने का सामान घर पर रखे हो और
कोई आपको खाने के लिए नहीं दे। तब आपको कैसा लगेगा। पता नहीं किस तरह के आदमी थे
दादा जी भी। तब आपको चोरी चकोरी का या मार का भी डर नहीं होता।
प्रेम और पेट की आग
का अनुभव एक ही साथ हुआ। या यूं कह ले की हर पशु-पक्षी का ऋतु का एक मौसम होता है।
कुदरत उसके लिए उसके अंदर से एक खिंचाव जो उर्जा या गंध के साथ फैलना शुरू कर देती
है। इसी बीच जंगल में भी एक काली और सफेद कुतिया से मेरा प्रेम हुआ और पीछे किसी
की पालतू मोटा तगड़ी मेरे ही रंगी एक कुतिया थी जो मुझे देख कर अपने मालिक के
सामने ही भाग आती थी। उसके साथ भी प्रेम हुआ। परंतु जंगल की वो काली सफेद कुतिया
बहुत प्रेम पूर्ण थी। उसके लिए तो कई बार रात भर उसके साथ रहा। हम साथ जंगल में
दूर तक घूमने के लिए जाते थे। मैं उसे नाले के पास भी ले जाता था। जो उसने इससे
पहले नहीं देखा था। परंतु एक दिन वह गायब हो गई फिर मुझे नहीं मिली। कुदरत का नियम
एक समय के बाद अचानक ये बंद हो गया। न ही मेरे अंदर कोई तरंग उठती न ही उन मादाओं
के शरीर से निमंत्रण की पुकार फिर आई।
सच इन दिनों भूख भी
बहुत लगती थी,
कारण कुछ भी हो पेट की आग बहुत बुरी होती है। अब तो बहार निकल कर
घूमने का भी मजा नहीं आता था। क्योंकि आपका पेट खाली हो तो मस्ती करने का मन
कहां करेगा? सच इन दिनों मैं अपने अंदर बहुत ही कमजोर महसूस
कर रहा था। इस समय मुझे दूध पनीर चाहिए था। परंतु पापा-मम्मी के अलावा कौन दे सकता
था मुझे? परंतु घर में कुछ भी नहीं बदला था, वही घर, वही सब कुछ, परंतु
इंसान के बदलते ही सब बदल गया था। नहीं तो क्या दादा जी मेरे लिए दूध खरीद कर नहीं
ला सकते थे। अपने पीने के लिए भी तो लाते होंगे। क्योंकि दादा जी इन दिनों अपनी
चाय अब अपने कमरे में बनते थे। दुकान के पास जाकर खड़ा हो जाता वहां कुछ सब्जी
बेचने वाले खड़े होते थे। जो मुझे जानते थे, कि में किसका
कुत्ता हूं, वे लोग पहले भी मुझे खाने को गाजर देते थे।
गाजर मुझे बहुत ही पसंद आती थी। एक दो गाजर ले कर बड़े चाव से मैं खाता था। परंतु
कुछ नमकीन भी तो चाहिए। कुछ दूध भी चाहिए। अब ऐसी हालत हो गई कूड़े घर में जाकर
सुखी रोटियां ढूंढ—ढूंढ कर में अपना पेट भरता।
बहार निकलने का अब
एक ही मतलब था। अपना खाना ढूँढना। और यही कुछ दिन पहले एक आवारगी, एक
तफरीह एक मौज मस्ती....होती थी। समय—समय का फेर था समय हमेशा एक नहीं होता वह
बदलता ही रहता है। जो आज तुम्हारे पास वह सदा के लिए नहीं है। उसे तुम जितना
उपयोग कर सकते हो करो... नहीं तो वह हाथ से छिटक ही जायेगा। अब तो घर में मुझे
रोकने वाला भी कोई नहीं था। एक मात्र दादाजी ही थे जो मेरे मुक्ति दाता थे। लेकिन
जीवन में कितना परिवर्तन आ गया था। हम जिन्हें लोगों के साथ रहते है ये उस पर
निर्भर करता है हमारा जीवन क्या होगा। बहार तो निकलना ही था पूरा—पूरा दिन में
आवारा कुत्तों की भांति में गांव भर में घूमता रहता था। उस समय मन और शरीर भी अलग
स्थिति में बदल गये थे। शरीर में एक हिम्मत थी....अपना बचाव भी करना था...डरना भी
था और डराना भी था। दोनों कामों का तालमेल मैंने इस बीच सीखा था। पहले तो केवल
डराना ही जानता था आप डरने में भी अपना बचाव करना है। क्योंकि चार कुत्तों के
बीच आप डरा कर ही नहीं बच सकते....आपको उसके साथ डरना भी होगा और उनके हमले कि लिए
तैयार रहना होगा। जो हमारे लिए बड़ा कारगर हथियार है।
सबसे ज्यादा याद तो
रात के समय आती थी। पूरा घर कैसे खाने को दौड़ता था। इस बीच में अपने दर्द की
हुंकार भी करता था की मेरी ये पुकार कहीं से पापा जी सून ले तो आ जाये। लगता था अब
पूरे जीवन यूं ही जीना और मरना पड़ेगा। इतना प्रेम पाकर आज इस दर्द को सहना अति
कठिन था। दादाजी के इस ड्राई लव को मैंने पहले भी जाना था। परंतु इस बार तो हद ही
हो गई ये सब खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मानो दिन नहीं युग बीत रहे है आप
पर। कई—कई बार तो पूरा दिन कुछ खाने को नहीं मिलता था। हमारे साथी कुत्तों की तो
यही गति होती है पूरे जीवन भर। मैं कुछ ही दिनों में उनकी उस हालत को समझ गया। मैं
ये समझने की कोशिश कर रहा था कि पापा जी जब आयेंगे क्या मुझे जीवित पायेंगे। मन
बार-बार रोने का होता था,
काश कही से मम्मी-पापा आ जाते। तो आप ये मानो कि मुझे भगवान ही मिल
गए। दिन रात मैं बस यही माला जपता रहता था। उनके आने की राह तकता था। मेरी हर
स्वांस उनको पुकारती रहती थी। राम जाने दादा की माया तो अजीब थी। पता नहीं दादा जी
भी कुछ खाते है या नहीं....। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा था। आप सोचते होंगे
की अब मैं केवल खाने की बात कर रहा हूं। हां भाई जब पेट खाली हो तो और कुछ नहीं
सूझता। ये तो बड़े दार्शनिक ही कह गये है भूखे भजन न होए गोपाल।
पहली बार भूख का
अहसास इस जीवन में मुझे अब हुआ था। नहीं तो सामने दूध भरा होता और अंदर से तबीयत
खराब होती तो सब कितनी मिन्नत करते की आज पोनी ने कुछ नहीं खाया। सब लोग मेरी
मिन्नत करते मेरी फिक्र करते थे। लेकिन अंदर कुछ जाना ही नहीं चाहता तो क्या किया
जा सकता है। और एक या दो दिन भूखा रहने पर भी पेट जब तक पूरा खाली न कर दिया जाये, चित
बड़ा परेशान रहता था। पेट को उमेठ कर किस तरह से सब बहार निकालने को मन होता था।
और निकालने के बाद कैसा अंदर एक खालीपन सा लगता था कितना सुखद एहसास होता था। लगता
अब इस पेट में कुछ न डाला जाये, लेकिन घर के सब लोग परेशान
हो जाते दीदी, मम्मी, वरूण....पापा सब
कितनी बार आकर कहते कुछ खा ले। लेकिन नहीं गर्दन मोड़ कर ठोड़ी को टेक कर वही
चिर—परिचित सा पोज़ बना कर में लेटा रहता। कितनी ही बार जब दूध खराब होने को होता
तो उसे गली के कुत्तों का पीला दिया जाता था। आज ये हालत है कि दूध की कैसी उढ़क
उठती है। मत पूछो, एक नशेड़ी की तरह, काश
कहीं से ठंडा दूध आ जाये.....जीवन धन्य हो जाये। परंतु एक बात अंजाने में सही हो
रही थी। ज्यादा खाना खाने से जो मैं बीमार होता था। सो अब भूखे पेट शरीर स्वस्थ हो
रहा था। हर प्राणी को महीने में कुछ दिनों के लिए खाली पेट रहना ही चाहिए केवल
पानी पीकर। ये सब अंजाने तोर पर हो रहा था। मेरे शरीर के उपर जो अभी छोटी-छोटी
गांठे बची थी वह खत्म हो रही थी। मेरे बालों में एक चमक आ रही थी। और मेरा बदन
बहुत छरहरा और बलिष्ठ होता जा रहा था।
वहीं घर है, वही
दीवारें है लेकिन आदमी के बदलते सब बदल जाता है। परंतु इन दीवारों पर वह प्यार
पुता या चिपका हुआ थोड़े ही है। वह तो आदमीयों के ह्रदय में समाया होता है। उनके
स्पर्श में बसा होता है। दादा जी जब खाना खाने आते तो मैं आदत के अनुसार उनके
सामने अपनी दोनों टांगों को एक दूसरे पर रखकर बैठा जाता था। कैसे एक प्यारा सा दुलारा
सा चेहरा बना कर डूपी—डूपी आंखों से निहार कर दादा जी को देखता और दादा जी मुझे एक
टुकड़ा अवश्य देते थे। तब दादा जी मुझे बड़े ही दया के सागर दिखाई देते थे। मेरा
पेट भरा भी हो तो मुझे बुला कर कहते पौनी आ ले खा ले और लाड़ में लड़ कर कितने प्यार
से उनके हाथ से रोटी का टुकड़ा पाकर जैसे मैं अपने को धन्य ही समझता था। मानों वो
कोई इनायत मुझे सौंप रहे है। मेरी तो समझ के बाहर यह बात थी कि की दादा जी मुझे
खाने को क्यों नहीं दे रहे थे। धीरे—धीरे बहार घूमने का आनंद खत्म होता जा रहा
था। कौन घूमे बहार....कुछ खाने को मिलता तो नहीं.....ऊपर से कितने कुत्तों से
अपनी रक्षा नाहक करनी पड़ती थी। कई बार तो अपने अहंकार को दबा कर मुझे अपनी प्यारी
और मोटी पूछ अंदर करनी होती थी। जो मेरे स्वाभिमान पर एक बहुत बड़ा धक्का थी। फिर
भूख के कारण में धीरे—धीरे कमजोर भी होने लगा था। ये मैं जान गया था कि अब अगर
मुझसे दो से अधिक कुत्ते भीड़ गये तो मुझमें बचने की ताकत नहीं रही। तब में ज्यादा
से ज्यादा देर घर के एक अंधेरे कोने में दुबककर सोता रहता था।
हम हर मनुष्य के
आचरण को अपने नज़रिये से जानते है। परंतु वह सत्य नहीं होता, वह
तो सत्य की मात्र छाया होती है। स्थान और परिस्थिति ही उसे हमारे सामने सत्य के
रूप में जब लाकर खड़ा करेगी तब हम हतप्रभ भी हो सकते है। कि देखो सत्य यह है। उसका
पता तो हमें समय की गहराई से ही चलता है। वहीं पांचु...जो हमारे घर में मजदूरी
करता था, जो मुझे फूटी आंखों नहीं सुहाता था। इसी तरह से
अचानक एक दिन मैं एक अंजान सकी नई गली की और निकल गया। सामने ही वह आँगन में बैठ
कर खाना बना रहा था। उसने मुझे देखा उसकी तो बाछे खिल उठी वह सच ही मुझे देख कर
बहुत खुश हुआ था। फिर कितनी बार उसके घर जाकर मैंने अपना पेट भरा। मेरे को अपने
पास आते देख वह कितना खुश होता था। उसके हाथ की बनी मोटी-मोटी रोटी बड़ी स्वाद
लगती थी। उस पर वह प्रेम से घी भी लगता और साथ में थोड़ा सा दूध भी देता था।
कभी-कभी गुड़ भी खाने को देता था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था की पांचू भी मुझे
खाने को देगा। परंतु उसने वो सब किया जो समझे के बाहर था। मैंने न जाने कितनी बार
उस पर हमला बोला उसे गिराया था। परंतु उसने उन सब बातों को भूल कर मुझे खाना दिया,
जब की वह कुछ महीनों से हमारे घर पर मजदूरी भी नहीं करने आता था।
मैं वो सब भूल जाना चाहता हूं, याद करना चाहता हूं उस घर से
मिला प्यार और दुलार और इस बीच मम्मी–पापा की कितनी याद आती थी। वो मैं आपको बता
नहीं सकता था। लगता था पंख लग जाये और मैं उड़ कर वहां चला जांऊ जहां मम्मी—पापा
गये थे। परंतु न जाने कहा चले गये है परिवार के ये सब लोग। मुझे तो ज्यादा इस
दुनिया का पता भी नहीं है। मेरी दुनिया तो बस चार पाँच मील के दायरे तक सीमित रह
गयी थी। मैं सोचता था ये संसार कितना बड़ा है। एक चींटी के लिए तो चार मील का
दायरा भी अनंत ही है। वह उस जंगल में कैसे जा सकती है जहां में कुछ ही मिनट में
दौड़ कर चला जाता हूं......परंतु एक पक्षी तो मुझसे भी दूर..दराज कितने संसार को
जानते होगा....सब पशु पक्षियों का अपना—अपना संसार होता है, सब
की समय और गति अलग—अलग जरूर होती होगी।
पांचू के अलावा
हमारी दुकान के पास जो सब्जी की रहड़ी लगते है....वह भी मुझे गाजर खाने को दे देते
थे....परंतु अब क्या किया जा सकता है......अगर ये लोग मेरी मदद न करते खाने को
नहीं देते तो। तब शायद में बहुत कमजोर या फिर मर भी सकता था। और मैं इस तरह से
मरना नहीं चाहता मैं मरना चाहता हूं पापा—मम्मी मेरे समाने हो और मैं अपने मन की
बात उन्हें कह रहा हूं.....और मेरी आंखें बंद हो जाये। इस तरह बिना—मम्मी—पापा
को मिले मरना एक अतृप्त दायी एक गांठ मेरे मन में रह जायेंगे। एक प्यास एक
तड़प....जो बात मुझे बहुत सालती थी। वो मौत एक अपूर्ण मौत होगी मेरे लिए। और सच
पूछो तो मैं अपूर्ण मौत अब मरना नहीं चाहता। जीना चाहता हूं पूर्णता के साथ और
मरना भी पूर्णता के साथ ही चाहता हूं।
जब मम्मी—पापा जी
आकर ब्रेड से भरा इस बर्तन देखेंगे तो वह क्या सोचेंगे? उन्हें
आश्चर्य नहीं होगा? वह हतप्रभ नहीं रह जायेंगे। कि पोनी को
खाने को ब्रेड क्यों नहीं देते थे? परंतु अचानक मुझे कुछ-कुछ
अच्छा लगने लगा। मन के गहरे में कही एक शांति की लहर उठ रही थी। किसी अनंत प्रेम
की पुकार मुझे बुला रही थी। लगता था कोई अभी आया की तभी आया। मैंने मन ही मन
प्रार्थना कि अब तो भगवान मेरी सून लो। अब तो बहुत हो गया। अब तो मेरे मम्मी पापा
को भेज दो। इसी सब उधेड़बुन में मैं रात को सो भी नहीं पाया था। रात भी जंगल पहाड़
नदी, कुत्तों के सपने देखता रहा बार-बार मेरी नींद खुल जाती
की कोई आया है। कई बार तो ऐसा लगा की घर की घंटी बजी है। मैं उठ कर दरवाजे तक
देखने भी गया परंतु वहां कोई नहीं था। लेकिन मन मानने को तैयार नहीं था कि मैंने
तो घंटी सूनी थी। स्वप्न और जागरण के बीच इस तरह की घटना अकसर घट जाती है जब हम सो
रहे होते है और घंटी की आवाज सून कर जाग जाते है। तब आपको ऐसा लगेगा की घंटी बजी
जो थी स्वप्न की।
इस सब उधेड़ बुन के
बीच उठ कर मैं आँगन में जाकर बैठ गया। की कोई आने वाला है। दूर सामने वाले पेड़ पर
कौवा बोल रहा था। मैंने कहा अगर आज तेरा बोलना सत्य हुआ तो मैं तुझे कल अपने
हिस्से की रोटी जरूर दूंगा। और ऐसा ही हुआ घर का दरवाजा खुला और मेरा पूरा संसार
सामने खड़ा था। अब किस को पहले प्यार करूं और किस को पीछे मेरी समझ में कुछ नहीं आ
रहा था केवल रो रहा था और खुशी के मारे दौड़ रहा था। आँगन में और कभी-कभी सब के
बैग को पंजों से मार रहा था। और एक गहरे में जाकर मैं उस सब का आनंद ले रहा था। मम्मी
ने जोर से पकड़ कर भी मुझे सीने से लगा कर प्यार से कितनी ही बार चूमा था। ये प्यार
और दुलार तो मम्मी वरूण दीदी और हिमांशु को देती थी, उसकी
वर्ष आज मुझ पर भी हो रही थी। मैं अपने जीवन को धन्य समझ रहा था। और सोच रहा था
इतने कष्ट के बाद इतना लाड़ प्यार मिले तो ये कोई अधिक कीमत नहीं दी है मैंने।
मैं इसे बार-बार देना चाहूंगा। इससे तो हजार गुना कष्ट उठाया जा सकता था और सब
दुख दर्द को पल ही में भूल गया। फिर घर में प्यार की रिमझिम बरसात होने लगी अब तो
उसे मूसलाधार वर्षा कहना चाहिए।
मेरा कोई नहीं है
ये सोचने में भी कितना अजीब लग रहा था मुझे। क्या मेरी मां मुझे इतना प्यार कर
सकती थी। उसकी भी एक सीमा थी। जब तक थनों में दूध रहता, जो
एक कुदरत की देन ही थी, वह मुझे प्यार दुलार देती रहती और
एक दिन तो मुझे अपने खाने में से भी एक टुकड़ा देने के लिये मार सकती थी। या मैं
खुद अपने खाने में एक भी टुकड़ा अपनी मां को खाने के लिए नहीं देता शायद। परंतु
मनुष्य का प्यार एक अलग ही आयाम में जीता है। वह शरीर या पेट पर नहीं मन के पार
ह्रदय के उस छोर पर जीता है। इस सब के कारण तो वह महान है। उसका प्यार अनमोल है।
उस दिन मैंने जाना की मैं भी इस घर का एक प्राणी हूं। उन जैसा तो नहीं क्योंकि ये
शायद उनकी मजबूरी थी...जब परमात्मा ने मुझे चौपाया बना दिया तो अब दो टांगों पर
कैसे खड़ा किया जा सकता है। या मैं हाथों को उनकी तरह से कैसे इस्तेमाल कर सकता
हूं.....परंतु ये तो शरीर का भेद है...ह्रदय का इन सब को नहीं मानता और मैं पहली
बार अपने कुत्ता होने पर गर्व महसूस किया था। क्योंकि इन मनुष्यों में मात्र मैं
ही एक कुत्ता हूं। मेरे जैसा भाग्य सब कुत्तों का नहीं हो सकता। ये मैं जानता
हूं...फिर भी इस पर इतराता नहीं चाहिए। इसे एक कर्मों के सिद्धांत का फिर मानता
हूं....सबका अपने कर्म है अपना भाग्य है।
उसे नकार नहीं जा
सकता.....ये सब मैंने चारों और इन दिनों घटते देख लिया था। ये
पशु...पक्षियों....कीड़े मकोड़ों...या प्रत्येक प्राणी पर लागू होता था। चाहे वो
जल में हो थल में या नभ में हो.....चारों और आंखें खोल कर इस कुदरत के अपूर्व
करिश्मों को अपने तन मन पर घटते हुए देख सकते है।
उसे समझने की कोशिश भी कर सकते है उस में डूब भी सकते है। परंतु मनुष्य की
महानता के आगे कुछ भी नहीं वह अपूर्व है अनमोल है उसका प्रेम।
भू..... भू.....
भू.....
आज इतना ही।

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