धर्म प्रेम की अंतिम पराकाष्ठा है।
धर्म प्रेम के फूल की सुवास है।
काम है बीज, प्रेम है फूल,
धर्म है फूल से उड़ गई सुगंध।
इस लिए धर्म अदृश्य है।
दृश्य तो होता है बुद्ध, नानक कबीर,
कृष्ण, महावीर। ये फूल है।
इनसे आस-पास सुगंध की तरह
जो व्याप्त होता है, वह धर्म है।
जो बुद्धि से सोचने चलते है,
उन्हें वह दिखाई नहीं पड़ता है।
वह दिखाई वाली बात नहीं है,
मुट्ठी में आ जाए ऐसा तथ्य नहीं,
शब्दों में समा जाए ऐसा अनुभव नहीं।
लेकिन जो ह्रदय को खोल देते है--
किसी सदगुरू के समक्ष, किसी सत्संग में--
जो पीने को राज़ी हो जाते है,
जो डुबकी मारने को,
गोता लगाने को राज़ी हो जाते है।
बुद्धि के हिसाब-किताब को तट पर रख कर
जो निकल पड़ते है तूफ़ानों में, अनंत की यात्रा पर--
वे जान पाते है कि धर्म क्या है।
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