धर्म का सबसे बुनियादी प्रश्न ईश्वर नहीं है। धर्म का सबसे ज्यादा प्रश्न स्वयं का होना है।
सत्य की यात्रा बाहर की तरफ नहीं है। सत्य की यात्रा भीतर की तरफ है। बाहर जो यात्रा चल रही है, खोज चल रही है, उससे सत्य कभी भी उपलब्ध नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा काम-चलाऊ बातें ज्ञात हो सकती है।
हम जहां खड़े है। जहां हमारा अस्तित्व है, जो हमारा होना है, वहीं खजानें गड़े है सत्य के। और हम शास्त्रों में खोजें गे, गुरूओं के चरणों को पकड़ेगे, शब्दों में खोजें गे, सिद्धान्तों में खोजें गे, और वहां कभी नहीं जहां हम है। कोई भीतर न खोजने सत्य को। कोई कुरान में, कोई बाईबिल में, कोई महावीर के पास कोई बुद्ध के पास। लेकिन कभी कोई वहां फिकर नहीं करेगा, जहां वह है, जहां वह खुद है।
और सत्य जब भी मिलता है, तब वहीं मिलता है, जहां हम हे। चाहे बुद्ध को मिले—चाहे किसी और के पास नहीं मिलता, अपने भीतर मिलता है। और चाहे महावीर को मिले---तो किसी के पास नहीं मिलता। अपने भीतर मिलता है। और चाहे क्राइस्ट को मिले—तो किसी के पास नहीं मिलता, आपने पास मिलता है।
सत्य जब भी मिला है, अपने भीतर मिला है और जिन्हें भी कभी मिलेगा, अपने भी ही मिलेगा। और हम सब बहार ही खोजते-खोजते समाप्त हो जाते है।
मैं क्यों बोलता हूं?
मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे है। एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं कि सत्य शब्दों में नहीं मिल सकता है। शास्त्रों से नहीं मिल सकता है, गुरूओं से नहीं मिल सकता है, तो फिर मैं क्यों बोलता हूं?
मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिल सकेगा। मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिलेगा। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। किसी के भी बोलने से सत्य नहीं मिल सकता है। एक कांटा पैर में लग गया हो तो दूसरे कांटे से लगे हुए कांटे को निकाला जा सकता है। लेकिन कांटे के निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते है। और फेंक देने के योग्य हो जाते है।
मैं जो बोल रहा हूं, उससे सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन जो शब्द आपने पकड़ रखे है। और समझ लिया है कि वह सत्य है, इन कांटों को मेरे बोलने के कांटों से निकाला जा सकता है। निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ और फेंक देने योग्य हो जाते है।
मेरे शब्दों से सत्य नहीं मिलेगा—
मेरे शब्दों से सत्य नहीं मिलेगा। क्योंकि किसी के शब्दों से सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन शब्द, शब्दों को छीन सकते है। और शब्द छिन जाए, और मन खाली हो जाये और मन के ऊपर शब्दों की कोई पकड़ न रह जाये। कोई क्लिंगिंग न रह जाये तो मन स्वयं ही सत्य को उपल्बध हो जाता है।
सत्य कहीं बाहर नहीं है। प्रत्येक के पास है, निकट है, स्वयं में है। कठिन नहीं है। और जब तक कोई गुरूओं की तरफ देखता है, तब तक बहार देखता है। जब तक कोई शास्त्रों की तरफ देखता है, तब तक बहार देखता है। जब तक किन्हीं दूसरों के शब्दों को कोई पकड़कर बैठता है, तब तक उसे वह उपलब्ध नहीं हो सकता, जो निशब्द में और मौन में ही मिलता है। जिन्होंने सत्य को जाना है, उन्होंने बहुत प्रकार की चेष्टाए की हैं कि वह सत्य आप तक प्रकट हो जाये, लेकिन आज तक यह संभव नहीं हो सका।
ओशो
नेति-नेति, 23 फरवरी, 1969
बहुत आभार!!
जवाब देंहटाएंdhanyavad in vicharon ko ham tak pahunchane ke liye
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