शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

जर्मन राजकुमार विमल कीर्ति का बुद्धत्‍व---


अभी कुछ दिन पहले मेरा जर्मन संन्‍यासी,विमल कीर्ति, संसार से विदा हुआ। उसने अपनी आखिरी कविता जो मेरे लिए लिखी, उसमें कुछ प्‍यारे वचन लिखे थे। विमल कीर्ति यूं तो राज परिवार से था। करीब-करीब यूरोप के सारे राज परिवारों से उसके संबंध थे। उसकी मां है ग्रीस की महारानी की बेटी। उसकी दादी है ग्रीस की महारानी। उसकी मौसी है स्‍पेन की महारानी। उसकी मां के भाई है फिलिप, एलिज़ाबेथ के पति इंग्‍लैंड के। एलिज़ाबेथ, इंग्‍लैंड की महारानी उसकी मामी। प्रिंस वेल्‍स उसके ममेरे भाई। उसकी मां ने यह दूसरी शादी की हनोवर के राजकुमार से, जिनसे विमल कीर्ति का जन्‍म हुआ। उसकी पहली शादी विमल कीर्ति की मां की, हुई थी डेनमार्क के महाराजा से। तो डेनमार्क के महाराजा और डेनमार्क के महाराजा  के जितने संबंधी है, उनसे भी विमल कीर्ति का संबंध है। मुश्किल होगा एक आदमी ऐसा खोजना जिसका यूरोप के सारे राज परिवारों से संबंध है। और निकट संबंध हे। और जर्मन सम्राट का तो यह वंशज है ही। अगर जर्मन साम्राज्‍य बचा रहता तो विमल कीर्ति आज सम्राट होता जर्मनी का। आया था भारत में यूं ही भ्रमण के लिए। सोचा भी न होगा कि मुझसे मिलना हो जाएगा। इधर मुझसे मिलना हो गया तो लौटा ही नहीं। और उसकी समर्पण-समर्पण कहा जा सकता है। वर्षों तक तो यह पता ही नहीं चला किसी को कि वह इतने साम्राज्‍यों से संबंधित हे। किसी को पता ही नहीं चला। किसी को उसने कहां ही नहीं। यहां उसने कोई ऐसा काम जो न किया हो। बागवानी का काम किया बुहारी लगाने का काम किया। जो काम उसको दे दिया किया। समर्पण यह था। कभी एक बार भी पता नहीं चलने दिया कि मैं राजकुमार हूं। और कभी मेरी पीढ़ियों में किसी ने बुहारी नहीं लगाई। बुहारी लगाने की बात ही दूर, बुहारी देखी भी नहीं होगी।
      फिर वह मेरा पहरेदार हो गया। मेरे दरवाजे पर पहरा देता था। तब भी उसने नहीं बताया कि खुद उसके दरवाजे पर पहरेदार हुआ करते थे। मुझसे न तो उसने कभी कोई प्रश्‍न पूछा, न मुझे कभी कोई पत्र ही लिखा। पत्र लिखता भी था तो अपनी डायरी में रखता जाता था। उसके विदा हो जाने के बाद ही उसकी पत्‍नी तुरिया ने मुझे डायरी दिखाई। जिसमें कि वह पत्र रखता जाता था। और मुझे इस लिए नहीं भेजता था क्‍योंकि उसका कहना था कि आज नहीं कल मैं उत्‍तर दे ही दूँगा, तो क्‍यों नाहक भेजना, क्‍यों परेशान करना।  अपना पत्र लिख कर रख लेता था। अपना पत्र लिख कर रख लेता था कि यह मेरा प्रश्‍न है। ताकि मैं न भूल जाऊँ। उत्‍तर तो आ ही जाता है। देर अबेर। जब मेरी जरूरत होती है,उत्‍तर आ जाएगा।
      आखरी पत्र जो उसने लिखा है—वह भी मुझे भेजा नहीं था—उसमें उसने लिखा है कि मैंने कभी सोचा भी न था कि जीवन में इतना आनंद भी हो सकता है। और मेरे सर्वाधिक आनंद के वे क्षण हैं, जब मैं, आप दरवाजे के बाहर निकलते है और आपके परदे के बाहर निकलते है आपके परदे के बाहर पहरा देता हूं और आपके पैरों की आहट सुनता हूं। बस आपके पैरों आहट मेरा सबसे बड़ा आनंद है, मुझे सब मिल जाता है।
      वह परदे के बाहर होता था। तो मैं तो उसे दिखाई पड़ता नहीं था, एक कमरे से मैं दूसरे कमरे में जाऊँ तो मैं उसे दिखाई नहीं पड़ता था। लेकिन मेरे पैरों की आहट उसे सुनाई पड़ती थी। वह कहता था: चौबीस घंटे भी मैं वहां बैठा रह सकता हूं, बस दिन में दो बार आपके पैरों की आहट सुनाई पड़ जाती है, और मैंने सब पा लिया।
      तो विमल कीर्ति विदा भी बुद्ध की तरह हुआ,बुद्धत्‍व को पाकर हुआ। और बुद्धत्‍व पाने की कोई चाह न थी। सोच भी न था, विचार भी न था। सोच-विचार से नहीं होता। लेकिन जन्‍मों-जन्‍मों यहीं खोज चलती है। वह मेरे पास आया और रूप गया। बस एक किरण पहचान में आ गई कि उसने पकड़ लिया सहारा।
      दिल में अब यूं तेरे भूले हुई गम आते है।
      जैसे बिछुड़े  हुए काबे में  सनम आते है।
      शिष्‍य और गुरु के बीच जो प्रेम घटता है, वह अमूच्‍छित प्रेम है, वह जाग्रत प्रेम हे। वह प्रेम का ज्‍वलंत रूप है। वह प्रेम की ऐसी ज्‍योति-शिखा है जिसमें कोई धुंआ नहीं। और तब सिला निश्‍चित है, और सिला कल नहीं मिलता अभी मिलता हे। यहीं मिलता है। इधर सर झुका उधर सिला मिला। साथ-साथ, तत्‍क्षण। और मैं तो दो ही पाठ सिखा रहा हूं—ध्‍यान के और प्रेम के। ध्‍यान तुम्‍हें प्रेम के योग्‍य बनाता है। और प्रेम तुम्‍हें ध्‍यान के योग्‍य बनाता है। वे एक दूसरे के सहारे है। जैसे कबीर कहता है कि गुरु यूं है जैसे कि कुम्‍हार घड़ा बनाता है। एक हाथ से भीतर सहारा देता है। और दूसरे हाथ से बहार थपकी देता है। तब कहीं घड़े की बनावट उभर पाती है। एक हाथ का सहारा और एक हाथ की चोट। ध्‍यान भीतर से सहारा है। और प्रेम बाहर से। और जहां दोनों मिल जाते है, वहां जीवन की गागर निर्मित हो जाती है। और ऐसी गागर, जिसमें की सागर समा जाये। अब कहीं जाने की जरूरत नहीं अब कुछ और करने की जरूरत नहीं।

--ओशो
आपुई गई हिराय,
प्रवचन—5,
ओशो आश्रम, पूना।

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