आदमी जीता है एक गहरे सम्मोहन में। मैं सम्मोहन पर काम करता हूं, क्योंकि सम्मोहन को समझना ही एक मात्र तरीका है व्यक्ति को सम्मोहन के बाहर लाने का। सारी जागरूकता एक तरह की सम्मोहन नाशक है, इसीलिए सम्मोहन की प्रक्रिया को बहुत-बहुत साफ ढंग से समझ लेना है; केवल तभी तुम उसके बहार आ सकते हो। रो को समझ लेना है, उसका निदान कर लेना है; केवल तभी उसका इलाज किया जा सकता है। सम्मोहन आदमी को रोग है। और सम्मोहन विहीनता होगी एक मार्ग।
संसार के एक तिहाई लोग, तैंतीस प्रतिशत, अच्छे माध्यम होते है, और वे लोग बुद्धि विहीन नहीं होते है। वे लोग होते है बहुत-बहुत बुद्धिमान, कल्पनाशील, सृजनात्मक। इसी लिए तैंतीस प्रतिशत होते है, सभी बड़े वैज्ञानिक, सभी बड़े कलाकर, कवि, चित्रकार, संगीतकार। यदि कोई व्यक्ति सम्मोहित हो सकता है, तो यह बात यही बताती है कि वह बहुत संवेदनशील है। इसके ठीक विपरीत बात प्रचलित है: लोग सोचते है कि वह व्यक्ति जो थोड़ा मूर्ख होता है केवल वही सम्माहित हो सकता है। यह बिलकुल गलत बात है। करीब-करीब असंभव ही होता है किसी मूढ़ को सम्मोहित करना, क्योंकि वह सुनेगा ही नहीं, वह समझेगा ही नहीं, और वह कल्पना नहीं कर पायेगा। बड़ी तेज कल्पनाशक्ति की जरूरत होती है।
लोग सोचते है कि केवल कमजोर व्यक्तित्व के लोग सम्मोहित किए जा सकते है। बिलकुल गलत है बात; केवल बड़े शक्तिशाली व्यक्ति सम्मोहित किए जा सकते है। कमजोर आदमी इतना असंगठित होता है; कि उसमें कोई संगठित एकत्व नहीं होता; उसमें अपना कोई केंद्र नहीं होता। और जब तक तुम्हारे पास किसी तरह का कोई केंद्र नहीं होता,सम्मोहन कार्य नहीं करता। क्योंकि कहां से करेगा वह काम, कहां से व्याप्त होगा तुम्हारे अंतस में? और एक कमजोर आदमी इतना अनिश्चित होता है हर चीज के बारे में, इतना निश्चयहीन होता है अपने बारे में कि उसे सम्मोहित नहीं किया जा सकता है। केवल वे ही लोग सम्मोहित किए जा सकते है। जिनके व्यक्तित्व शक्तिशाली होते है।
मैंने बहुत लोगों पर काम किया है और मेरा ऐसा जानना है कि जिस व्यक्ति को सम्मोहित किया जा सकता है उसे ही सम्मोहनरहित किया जा सकता है। और वह व्यक्ति जिसे सम्मोहित नहीं किया जा सकता, वह बहुत कठिन पाता है आध्यात्मिक मार्ग पर बढ़ना, क्योंकि सीढ़ियाँ दोनों तरफ जाती है। यदि तुम आसानी से सम्मोहित किए जा सकते हो तो तुम असम्मोहित भी किए जा सकते हो। सीढ़ी वहीं होती है। चाहे तुम सम्मोहित हो या असम्मोहित हो, तुम सीढ़ी पर होते हो। केवल दिशाएं भेद रखती है।
--ओशो
पतंजलि: योग-सूत्र भाग-2,
प्रवचन—13, श्री रजनीश आश्रम, पूना,
23 अप्रैल,1975
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