केंद्रित
होने की ग्यारहवीं
विधि:
‘’अपने
सामने किसी
विषय को अनुभव
करो। इस एक को छोड़कर
अन्य सभी
विषयों की
अनुपस्थिति
को अनुभव करो।
फिर विषय-भाव
और अनुपस्थिति
भाव को भी
छोड़कर आत्मोपलब्ध
होओ।‘’
‘’अपने
सामने किसी
विषय को अनुभव
करो।‘’
कोई भी
विषय, उदाहरण
के लिए एक
गुलाब का फूल
है—कोई भी चीज
चलेगी।
‘’अपने
सामने किसी
विषय को अनुभव
करो....’’
देखने
से काम नहीं
चलेगा, अनुभव
करना है। तुम गुलाब
के फूल को
देखते हो,
लेकिन उससे
तुम्हारा
ह्रदय
आंदोलित नहीं
होता है। तब
तुम गुलाब को
अनुभव नहीं
करते हो। अन्यथा
तुम रोते और
चीखते, अन्यथा
तुम हंसते और
नाचते। तुम
गुलाब को महसूस
नहीं कर रहे
हो, तुम सिर्फ
गुलाब को देख
रहे हो।
और
तुम्हारा
देखना भी पूरा
नहीं है।
अधूरा है। तुम
कभी किसी चीज
को पूरा नहीं
देखते अतीत
हमेशा बीच में
आता है। गुलाब
को देखते ही
अतीत-स्मृति
कहती है कि यह
गुलाब है। और
यह कहकर तुम
आगे बढ़ जाते
हो। लेकिन तब
तुमने सच में
गुलाब को नहीं
देखा। जब मन
कहता है कि यह
गुलाब है तो
उसका अर्थ हुआ
कि तुम इसके
बारे में सब
कुछ जानते हो,
क्योंकि
तुमने बहुत
गुलाब देखे
है। मन कहता
है कि अब और क्या
जानना है। आगे
बढ़ो। और आगे
बढ़ जाते हो।
यह
देखना अधूरा
है। यह
देखना-देखना
नहीं है। गुलाब
के फूल के साथ
रहो। उसे देखो
और फिर उसे
महसूस करो।
उसे अनुभव
करो। अनुभव
करने के लिए
क्या करना है? उसे स्पर्श
करो, उसे सूंघो;
उसे गहरा
शारीरिक
अनुभव बनने
दो। पहले अपनी
आंखों को बंद
करो और गुलाब
को अपने पूरे
चेहरे को छूने
दो। इस स्पर्श
को महसूस करो।
फिर गुलाब को
आँख से स्पर्श
करो। फिर
गुलाब को नाक
से सूंधो।
फिर गुलाब के
पास ह्रदय को
ले जाओ और
उसके साथ मौन
हो जाओ। गुलाब
को अपना भाव
अर्पित करो। सब
कुछ भूल जाओ।
सारी दूनिया
को भूल जाओ।
गुलाब के साथ समग्रत:
रहो।
‘’अपने
सामने किसी
विषय को अनुभव
करो। इस एक को छोड़कर
अन्य सभी
विषयों की
अनुपस्थिति
को अनुभव करो।
यदि
तुम्हारा मन
अन्य चीजों
के संबंध में
सोच रहा है तो
गुलाब का अनुभव
गहरा नहीं
जाएगा। सभी
अन्य
गुलाबों को
भूल जाओ। सभी
अन्य लोगों
को भूल जाओ।
सब कुछ को भूल
जाओ। केवल इस
गुलाब को रहने
दो। यही गुलाब
हो, यही
गुलाब। सब कुछ
को भूल जाओ।
केवल इस गुलाब
को रहने दो।
यही गुलाब, को
तुम्हें आच्छादित
कर लेने दो।
समझो कि तुम
इस गुलाब में
डूब गये हो।
यह
कठिन होगा, क्योंकि
हम इतने
संवेदनशील
नहीं है।
लेकिन स्त्रियों
के लिए यह
उतना कठिन
नहीं होगा। क्योंकि
वे किसी चीज
को आसानी से
महसूस करती
है। पुरूषों
के लिए यह ज्यादा
कठिन होगा।
हां, अगर उनका
सौंदर्य बोध
विकसित हो,
कवि, चित्रकार
या संगीतकार
का सौंदर्य
बोध विकसित
होता है। तो
बात और है। तब
वे भी अनुभव
कर सकते है।
लेकिन इसका
प्रयोग करो।
बच्चे
यह प्रयोग
बहुत सरलता से
कर सकते है।
मैं अपने एक
मित्र के बेटे
को यह प्रयोग
सिखाता था। यह
किसी चीज को
आसानी से
अनुभव करता
था। फिर मैंने
उसे गुलाब का
फल दिया और
उससे यह सब
कहा जो तुम्हें
अब कह रहा
हूं। उसने
यह किया और
कहा कि मैं
गुलाब का फूल
बन गया हूं।
मेरा भाव यही
है कि मैं ही
गुलाब का फूल
हूं।
बच्चे
इस विधि को
बहुत आसानी से
कर सकते है।
लेकिन हम उन्हें
इसमें
प्रशिक्षित
नहीं करते।
प्रशिक्षित
किया जाए तो
बच्चे
सर्वश्रेष्ठ
ध्यानी हो
सकते है।
‘’अपने
सामने किसी
विषय को अनुभव
करो। इस एक को
छोड़कर अन्य
सभी विषयों की
अनुपस्थिति
को अनुभव
करो।‘’
प्रेम
में यही घटित
होता है। अगर
तुम किसी के प्रेम
में हो तो तुम
सारे संसार को
भूल जाते हो।
और अगर अभी भी
संसार तुम्हें
याद है तो भली
भांति समझो कि
यह प्रेम नहीं
है। प्रेम में
तुम संसार को
भूल जाते हो,
सिर्फ
प्रेमिका या
प्रेमी याद
रहता है।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
प्रेम ध्यान
है। तुम इस
विधि को
प्रेम-विधि के
रूप में भी
उपयोग कर सकते
हो। अब अन्य
सब कुछ भूल
जाओ।
कुछ
दिन हुए एक
मित्र अपनी
पत्नी के साथ
मेरे पास आए।
पत्नी को पति
से कोई शिकायत
थी। इसलिए पत्नी
आई थी। मित्र
ने कहा कि मैं
एक वर्ष से ध्यान
कर रहा हूं।
और लगती है।
यह आवाज मेरे
ध्यान में
सहयोगी है।
लेकिन अब एक
आश्चर्य की
घटना घटती है।
जब मैं अपनी
पत्नी के साथ
संभोग करता
हूं, और संभोग
शिखर छूने लगता
है तब भी मेरे
मुंह से रजनीश-रजनीश
की आवाज
निकलने लगती
है। और इस
कारण मेरी पत्नी
को बहुत अड़चन
होती है। वह
अक्सर पूछती
है कि तुम
प्रेम करते हो
या ध्यान
करते हो या क्या
करते हो? और ये
रजनीश बीच में
कैसे आ जाते
है।
उस
मित्र ने कहा
कि मुश्किल
यह है कि अगर
मैं
रजनीश-रजनीश न
चिल्लाउं
तो संभोग का
शिखर चूक जाता
है। और चिल्लाउं
तो पत्नी
पीडित होती
है। सह रोने
चिल्लाने
लगती है। और
मुसीबत खड़ी
कर देती है।
तो उन्होंने
मेरी सलाह
पूछी और कहां
कि पत्नी को
साथ लाने का
यही कारण है।
उनकी
पत्नी की
शिकायत दुरूस्त
है। क्योंकि
वह कैसे मान
सकती है कि
कोई दूसरा व्यक्ति
उनके बीच में
आये। यही कारण
है कि प्रेम
के लिए एकांत
जरूरी है।
बहुत जरूरी
है। सब कुछ को
भूलने के लिए
एकांत
अर्थपूर्ण
है।
अभी
यूरोप और
अमेरिका में
वे समूह संभोग
का प्रयोग कर
रहे है—एक
कमरे में अनेक
जोड़े संभोग
में उतरते है।
यह मूढ़ता है।
अत्यंतिक
मूढ़ता है। क्योंकि
समूह में
संभोग की
गहराई नहीं
छुई जा सकती
है। वह सिर्फ
काम क्रीड़ा
बन कर रह
जाएगी। दूसरों
की उपस्थिति
बाधा बन जाती
है। तब इस
संभोग को ध्यान
भी नहीं बनाया
जा सकता है।
अगर
तुम शेष संसार
को भूल सको तो
ही तुम किसी विषय
के प्रेम में
हो सकते हो।
चाहे वह गुलाब
का फूल हो या
पत्थर हो या
कोई भी चीज हो,
शर्त यही है
कि उस चीज की उपस्थिति
महसूस करो और
अन्य चीजों
की अनुपस्थिति
महसूस करो।
केवल वही विषय
वस्तु तुम्हारी
चेतना में अस्तित्वगत
रूप से रहे।
अच्छा
हो कि इस विधि
के प्रयोग के
लिए कोई ऐसी
चीज चुनो जो
तुम्हें
प्रीतिकर हो।
अपने सामने एक
चट्टान रखकर शेष
संसार को
भूलना कठिन
होगा। यह कठिन
होगा, लेकिन
झेन सदगुओं
ने यह भी किया
है। उन्होंने
ध्यान के लिए
रॉक गार्डन
बना रखा है।
वहां
पेड़-पौधे या
फूल नहीं
होते। पत्थर
और बालू होते
है। और वे पत्थर
पर ध्यान
करते है।
वे
कहते है कि
अगर किसी पत्थर
के प्रति तुम्हारा
गहन प्रेम हो
तो कोई भी
आदमी तुम्हारे
लिए बाधा नहीं
हो सकता। और
मनुष्य चट्टान
जैसे ही तो
है। अगर तुम
चट्टान को प्रेम
कर सकते हो तो
मनुष्य को
प्रेम करने
में क्या
कठिनाई। तब
कोई अड़चन
नहीं है।
मनुष्य चट्टान
जैसे है। उससे
भी ज्यादा पथरीले।
उन्हें
तोड़ना उनमें
प्रवेश करना
अति कठिन है।
लेकिन
अच्छा हो कि
कोई ऐसी चीज
चुनो जिसके
प्रति तुम्हारा
सहज प्रेम हो।
और तब शेष
संसार को भूल
जाओ। उसकी
उपस्थिति का
मजा लो, उसका
स्वाद लो
आनंद लो। उस
वस्तु में
गहरे उतरो और
उस वस्तु को
अपने में गहरा
उतरने दो।
‘’फिर
विषय भाव को
छोड़कर.......।‘’
अब
इस विधि का
कठिन अंश आता
है। तुमने
पहले ही सब
विषय छोड़ दिए
है। सिर्फ यह
एक विषय तुम्हारे
लिए रहा है।
सबको भूलकर एक
इसे तुमने याद
रखा था। अब
‘’विषय भाव को
छोड़कर....।‘’ अब
उस भाव को भी
छोड़कर। अब तो
दो ही चींजे
बची है, एक
विषय की उपस्थिति
है और शेष
चीजों की
अनुपस्थिति
है। अब उस
अनुपस्थिति
को भी छोड़
दो। केवल यह गु लाब या
केवल यह चेहरा।
यह केवल यह स्त्री
या केवल यह
पुरूष या यह
चट्टान की
उपस्थिति
बची है। उसे
भी छोड़ दो।
और उसके प्रति
जो भाव है, उसे
भी तुम अचानक
एक आत्यंतिक
शून्य में
गिर जाते हो।
जहां कुछ भी
नहीं बचता।
और
शिव कहते है: ’’आत्मोपल्बध होओ।‘’ इस
शून्य को, इस
ना-कुछ को
उपलब्ध हो,
यही तुम्हारा
स्वभाव है,
यही शुद्ध
होना है।
शून्य
को सीधे
पहुंचना कठिन
होगा—कठिन और
श्रम-साध्य।
इसलिए किसी
विषय को माध्यम
बनाकर वहां
अच्छा है।
पहले किसी
विषय को अपने
मन में ले लो
और उसे इस
समग्रता से
अनुभव करो। कि
किसी अन्य
चीज को याद
रखने की जरूरत
न रहे। तुम्हारी
समस्त चेतना
इस एक चीज से
भर जाए। और तब
इस विषय को भी
छोड़ दो, इसे
भी भूल जाओ।
तब तुम किसी
अगाध अतल में
प्रविष्ट हो
जाते हो। जहां
कुछ भी नहीं है।
वहां केवल
तुम्हारी
आत्मा है।
शुद्ध और निष्कलुष।
यह शुद्ध अस्तित्व
यह शुद्ध
चैतन्य ही
तुम्हारा स्वभाव
है।
लेकिन
इस विधि को कई
चरणों में बांटकर
प्रयोग करो।
पूरी विधि को
एकबारगी काम
में मत लाओ।
पहल एक विषय
का भाव
निर्मित करो।
कुछ दिन तक
सिर्फ इस हिस्से
का प्रयोग
करो। पूरी
विधि का
प्रयोग मत करो।
पहले कुछ
दिनों तक या
कुछ हफ्तों तक
इस एक हिस्से
की, पहले हिस्से
की साधना करो।
विषय-भाव पैदा
करो। पहले विषय
को महसूस करो।
और एक ही विषय
चुनो, उसे
बार-बार बदलों
मत। क्योंकि
हर बदलते विषय
के साथ तुम्हें
फिर-फिर उतना
ही श्रम करना
होगा।
अगर
तुमने विषय के
रूप में गुलाब
का फूल चुना
है तो रोज-रोज
गुलाब के फूल
का ही उपयोग
करो। उस गुलाब
के फूल से तुम
भर जाओ। भरपूर
हो जाओ। ऐसे
भर जाओ कि एक
दिन कह सको की
मैं फूल ही
हूं। तब विधि
का पहला हिस्सा
सध गया, पूरा हूआ।
जब
फूल ही रह जाए
और शेष सब कुछ
भूल जाए, तब इस
भाव का कुछ
दिनों तक आनंद
लो। यह भाव
अपने आप में
सुंदर है।
बहुत-बहुत
सुंदर है। यह
अपने आप में बहुत
प्राणवान है,
शक्तिशाली
है। कुछ दिनों
तक यही अनुभव
करते रहो। और
जब तुम उसके
साथ रच-पच
जाओगे, लयवद्ध
हो जाओगे, तो
फिर वह सरल हो
जाएगा। फिर
उसके लिए संघर्ष
नहीं करना
होगा। तब फूल
अचानक प्रकट
होता है। और
समस्त संसार
भूल जाता है।
केवल फूल रहता
है।
इसके
बाद विधि के
दूसरे भाग पर
प्रयोग करो।
अपनी आँख बंद
कर लो और फूल
को भी भूल
जाओ। याद रहे, अगर
तुमने पहल भाग
को ठीक-ठीक
साधा है तो
दूसरा भाग
कठिन नहीं
होगा। लेकिन
यदि पूरी विधि
पर एक साथ
प्रयोग करोगे
तो दूसरा भाग
कठिन ही नहीं
असंभव होगा। पहले
भाग में अगर
तुमने एक फूल
के लिए सारी
दुनियां को
भूला दिया तो
दूसरे भाग में
शून्य के लिए
फूल को भूलाना
आसानी से हो
सकेगा। दूसरा
भाग आएगा।
लेकिन उसके
लिए पहल भाग
पहले करना
जरूरी है।
लेकिन
मन बहुत चालाक
है। मन सदा
कहेगा। कि
पूरी विधि को
एक साथ प्रयोग
करो। लेकिन
उसमे तुम सफल
नहीं हो सकते
हो। और तब मन
कहेगा कि यह
विधि काम की
नहीं है। या
यह तुम्हारे
लिए नही है।
इसलिए
अगर सफल होना
चाहते हो तो
विधि को क्रम में
प्रयोग करो।
पहले-पहले भाग
को पूरा करो
और तब दूसरे भाग
को हाथ में
लो। और तब
विषय भी विलीन
हो जाता है।
और मात्र तुम्हारी
चेतना रहती
है। शुद्ध
प्रकाश, शुद्ध
ज्योति-शिखा।
कल्पना
करो कि
तुम्हारे
पास दीया है,
और दिए की
रोशनी अनेक
चीजों पर पड़
रही है। मन की
आंखों से देखो
कि तुम्हारे
अंधेरे कमरे
में अनेक-अनेक
चीजें है। और
तुम एक दिया
वहां लाते हो
और सब चीजें
प्रकाशित हो
जाती है। दीया
उन सब चीजों
को प्रकाशित
करता है। जिन्हें
तुम वहां
देखते हो।
लेकिन
अब तुम उनमें
से एक विषय
चून लो, और उसी
विषय के साथ
रहो। दीया
वहीं है, लेकिन
अब उसकी रोशनी
एक ही विषय पर
पड़ती है। फिर
उस एक विषय को
भी हटा दो। और
तब दीए के लिए
कोई विषय नहीं
बचा।
वही
बात तुम्हारी
चेतना के लिए
सही है। तुम
प्रकाश हो, ज्योति
शिखा हो। और
सारा संसार
तुम्हारा
विषय है। तुम
सारे संसार को
छोड़ देते हो।
और एक विषय पर
अपने को
एकाग्र करते
हो। तुम्हारी
ज्योति शिखा
वही रहती है।
लेकिन अब वह
अनेक विषयों
में व्यस्त नहीं
है। वह एक ही
विषय में व्यस्त
है। और फिर उस
एक विषय को भी
छोड़ दो।
अचानक तब
सिर्फ प्रकाश
बचता है।
चेतना बचती
है। वह प्रकाश
किसी विषय को
नहीं
प्रकाशित कर
रहा है।
इसी
को बुद्ध ने
निर्वाण कहा
है। इसी को
महावीर ने
कैवल्य कहा
है। परम एकांत
कहा है। उपनिषादो
ने इसे ही
ब्रह्मज्ञान
या आत्मज्ञान
कहा है। शिव
कहते है कि
अगर तुम इस
विधि को साध
लो तो तुम
ब्रह्मज्ञान
को उपल्बध हो
जाओगे।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-15
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