केंद्रित
होने की
बारहवीं विधि:
‘’जब
किसी व्यक्ति
के पक्ष या
विपक्ष में
कोई भाव उठे
तो उसे उस व्यक्ति
पर मत आरोपित
करे।‘’
अगर
हमें किसी के
विरूद्ध घृणा
अनुभव हो या
किसी के लिए
प्रेम अनुभव
हो तो हम क्या
करते है? हम उस
घृणा या प्रेम
को उस व्यक्ति
पर आरोपित कर
देते है। अगर
तुम मेरे
प्रति घृणा
अनुभव करते हो
तो उस घृणा के
ही कारण तुम अपने
को बिलकुल भूल
जाते हो। और
मैं तुम्हारा
एक मात्र
लक्ष्य या
विषय बन जाता
हूं। वैसे ही
जब तुम मुझे
प्रेम करते हो
तो भी तुम
अपने को
बिलकुल ही भूल
जाते हो। और
मुझे अपना एक
मात्र विषय
बना लेते हो।
तुम अपनी घृणा
को प्रेम को
या जो भी भाव
हो, उसे मुझे
पर
प्रक्षेपित
कर देते हो।
उस दशा में
तुम आंतरिक
केंद्र को भूल
जाते हो। और
दूसरे को अपना
केंद्र बना
लेते हो।
यह
सूत्र कहता
है। कि जब
किसी के प्रति
घृणा, प्रेम
या कोई
और भाव पक्ष
या विपक्ष में
पैदा हो तो
उसको, उस भाव
को उस व्यक्ति
पर आरोपित मत
करो। बल्कि
स्मरण रखो कि
उस भाव का स्त्रोत
तुम स्वयं
हो।
मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं। इसमें
सामान्य भाव
यह है कि तुम
मेरे प्रेम के
स्त्रोत हो।
लेकिन यह
हकीकत नहीं
है। मैं ही स्त्रोत
हूं, तुम तो
महज वह पर्दा
हो जिस पर मैं
अपने प्रेम को
प्रक्षेपित
करता हूं। तुम
मात्र पर्दा
हो। मैं अपना
प्रेम तुम पर
प्रक्षेपित
करता हूं। और
मैं कहता हूं
कि तुम मेरे
प्रेम के स्त्रोत
हो। लेकिन यह
तथ्य नहीं
है। यह झूठ
है। यह मेरी ही
प्रेम की
ऊर्जा है जिसे
मैं तुम पर
प्रक्षेपित
कर रहा हूं।
इस
प्रेम की
ऊर्जा की
प्रभा में पड़
कर तुम सुंदर
हो जाते हो।
हो सकता है।
किसी के लिए
तुम सुंदर न
होओ। हो सकता
है कि किसी के
लिए तुम
बिलकुल कुरूप
और विकर्षण से
भरे होओ। ऐसा
क्यों? अगर
तुम ही प्रेम
के स्त्रोत
हो तो प्रत्येक
व्यक्ति को
तुम्हारे
प्रति
प्रेमपूर्ण
होना चाहिए।
लेकिन
तुम स्त्रोत
नहीं हो। मैं
तुम पर प्रेम
आरोपित करता
हूं तो तुम
सुंदर हो जाते
हो। कोई दूसरा
व्यक्ति
तुम पर घृणा
आरोपित करता
है और तुम
कुरूप हो जाते
हो। और हो
सकता है कोई
तीसरा व्यक्ति
तुम्हारे
प्रति बिलकुल
उदासीन हो,
तटस्थ हो।
उसने तुम्हें
देखा तक न हो।
आखिर हो क्या
रहा है? हम अपने-अपने
भाव दूसरों पर
फैला रहे है।
यही
कारण है कि
सुहागरात में
चंद्रमा तुम्हें
सुंदर, चमत्कारपूर्ण
और अपूर्व
दिखाई देता
है। उस समय
सारा संसार
तुम्हें
अपूर्व मालूम
देता है। और हो
सकता है उसी
रात तुम्हारे
पड़ोसी के लिए
अद्भुत रात्रि
अस्तित्व में
न हो। और अगर
उसका बच्चा
मर गया हो। तो
वही चाँद उसके
लिए उदास, दुःखी
और असहनीय
मालूम
पड़ेगा। और वही
चाँद तुम्हारे
लिए इतना मोहक
है, मादक है और तुम्हें
पागल किए दे
रहा है। क्यों? क्या
चंद्रमा स्त्रोत
है, आधार है? यह
चंद्रमा केवल
पर्दा है जिस
पर तुम अपने
को फैला रहे
हो। प्रक्षेपित
कर रहे हो।
यह
सूत्र कहता
है: ‘’जब किसी व्यक्ति
के पक्ष या
विपक्ष में कोई
भाव उठे तो
उसे उस व्यक्ति
पर मत आरोपित
करो, बल्कि
केंद्रित
रहो।‘’
यहां
व्यक्ति की
जगह कोई वस्तु
भी हो सकती
है। विषय के
रूप में कुछ
भी काम देगा।
तुम सदा
केंद्रित
रहो। याद रहे
कि तुम स्त्रोत
हो और विषय की और
गति करने की बजाएं
स्त्रोत की और
गति करो। जब
घृणा का भाव
उठे तो घृणा
के विषय पर
जाने की बजाएं
उस बिंदु पर
जाना बेहतर है
जहां पर घृणा
आ रही है। उस
व्यक्ति को
मत खोजों जो
इस घृणा का
विषय है।
लक्ष्य है;
उस केंद्र को खोजों
जहां से घृणा
उठ रही है।
केंद्र की तरफ
चलो, भीतर जाओ
अपनी घृणा या
प्रेम या जो
भी भाव हो उसे
केंद्र की और स्त्रोत
की और, उदगम की और
यात्रा का
साधन बनाओ।
उदगम पर जाओ, और
वहां
केंद्रित
रहो।
इसे
प्रयोग करो।
यह बहुत ही
मनोवैज्ञानिक
विधि है। किसी
ने
तुम्हारा
अपमान किया और
तुम क्रोधित
हो गए, ज्वरग्रस्त
हो गए। अभी तुम्हारा
यह क्रोध को
उस आदमी
प्रवाहित हो
रहा है। जिसने
तुम्हें
अपमानित किया।
तुम अपने पूरे
क्रोध को उस
आदमी पर
प्रक्षेपित हो
रहा है। जिसने
तुम्हें
अपमानित किया,
अगर उसने तुम्हें
अपमानित किया
तो सच में क्या
किया? उसने केवल
तुम्हें थोड़ा
कुरेदा। उसने
तुम्हारे
क्रोध को
उभरने में थोड़ा
सहायता कर दी।
लेकिन यह
क्रोध तुम्हारा
है।
वह
व्यक्ति
बुद्ध के पास
जाए और उन्हें
अपमानित करे
तो वह उनमें
कोई क्रोध
पैदा नहीं कर
सकेगा। वह अगर
जीसस के पास
जाए तो जीसस
उसे अपना दूसर
गाल भी हाजिर
कर देंगे। और बोधिधर्म
के पाए जाए तो
वह अट्टहास कर
उठेंगे। यह व्यक्ति
पर निर्भर है।
इसलिए
दूसरा व्यक्ति
स्त्रोत नहीं
है। स्त्रोत सदा
तुम्हारे
भीतर है।
दूसरा सिर्फ
स्त्रोत पर
चोट कर रहा
है। लेकिन अगर
तुम्हारे
भीतर क्रोध नहीं
है तो क्रोध
बाहर नहीं आएगा।
यदि तुम बुद्ध
को चोट करो तो
करूणा आएगी।
क्योंकि
वहां क्रोध नहीं
है।
एक
सूखे कुएं में
बाल्टी डालों
तो कुछ भी हाथ नहीं
आता। पानी
वाले कुएं में
बाल्टी
डालों और वह
पानी से भरकर
बाहर आती है।
लेकिन पानी
कुएं में है।
कुआं स्त्रोत
है। बाल्टी
तो पानी को
बाहर लाने का
निमित मात्र
है।
जो
आदमी तुम्हें
अपमानित करता
है वह बाल्टी
का काम करता
है। वह तुम्हारे
भीतर से तुम्हारे
क्रोध, घृणा
या किसी भी आग
को बाहर ले
आता है। तो स्मरण
रहे। तुम स्त्रोत
हो।
इस
विधि के लिए
विशेष रूप से
इस बात को ध्यान
में रख लो कि
दूसरों पर तुम
जो भी भाव
प्रक्षेपित करते
हो उसका स्त्रोत
सदा तुम्हारे
भीतर है। इसलिए
जब भी कोई भाव
पक्ष या
विपक्ष में उठे
तो तुरंत भीतर
प्रवेश करो और
उस स्त्रोत
के पास पहु्ंचो
जहां से यह
भाव उठ रहा है।
स्त्रोत पर
केंद्रित रहो,
विषय की चिंता
ही छोड़ दो।
किसी ने तुम्हें
तुम्हारे
क्रोध को जानने
का मोका दिया
है। इसके लिए
उसे तुरंत धन्यवाद
दो और उसे भूल
जाओ। फिर
आंखें बंद कर
लो और अपने
भीतर सरक जाओ।
और उस स्त्रोत
पर ध्यान दो
जहां से यह
प्रेम या
क्रोध का भाव
उठ रहा है।
भीतर
गति करने पर
तुम्हें वह
स्त्रोत मिल
जाएगा। क्योंकि
ये भाव उसी स्त्रोत
से आते है।
घृणा हो या
प्रेम, सब
तुम्हारे स्त्रोत
से आते है। इस
स्त्रोत के
पास उस समय
पहुंचना आसान
है जब तुम क्रोध
या प्रेम या
घृणा सक्रिय
रूप से अनुभव
करते हो। इस
क्षण में भीतर
प्रवेश करना
आसान होता है।
जब तार गर्म
है तो उसे
पकड़कर भीतर
जाना आसान
होता है। और भीतर
जाकर जब तुम
एक शीतल बिंदू
पर पहुंचोगे
तो अचानक एक
भिन्न आयाम,
एक दूसरा ही
संसार सामने
खुलने लगता
है।
इसलिए
क्रोध, घृणा
या प्रेम जो
भी हो उसका
उपयोग
अंतर्यात्रा
के लिए करो।
हम सदा दूसरों
की तरफ गति
करने में इन
भावों का
उपयोग करते
हे। और जब
अपने भाव
आरोपित करने
के लिए हमें
कोई नहीं मिलता
तो बड़ी
निराशा लगती
है। तब हम
अपने भावों को
निर्जीव वस्तुओं
पर भी आरोपित
करने लगते है।
मैंने लोग
देखे है जो अपने
जूतों पर
क्रोध करते
है। और क्रोध
से उन्हें फेंकते
है। वे क्या
कर रहे है? मैंने
लोगों को देखा
है जो घर के
दरवाजे पर क्रोध
करते है,
क्रोध में उसे
खोलते है, उसे
गालियां तक
देते है। वे क्या
कर रहे है?
इस
प्रसंग में मैं
एक झेन
अंतदृष्टि
की चर्चा से
अपनी बात
समाप्त
करूं। एक बहुत
बड़े झेन
सदगुरू लिंची
कहा करते थे:
मैं
जब युवा था तो
मुझे नौका-विहार
का बहुत शौक
था। मेरे पास
एक छोटी सी
नाव थी और उसे
लेकर में अक्सर
अकेला झील की
सैर करता था।
मैं घंटों झील
में रहता था।
एक
दिन ऐसा हुआ
कि मैं अपनी
नाव में आँख बंद
कर सुंदर रात
पर ध्यान कर
रहा था। तभी
एक खाली नाव
उलटी दिशा में
आई और मेरी
नाव से टकरा
गई। मेरी आंखे
बंद थी। इसलिए
मैंने मन में सोचा
कि किसी व्यक्ति
ने अपनी नाव
मेरी नाव से
टकरा दी है। और
मुझे क्रोध आ
गया।
मैंने
आंखें खोली और
मैं उस व्यक्ति
को क्रोध में कुछ
कहने ही जा
रहा था कि
मैंने देखा कि
दूसरी नाव
खाली है। अब
मुझे कुछ करने
का कोई उपाय न
रहा। किस पर
यह क्रोध
प्रकट करूं? नाव तो
खाली है। और वह
नाव धार के
साथ बहकर आई
थी। और मेरी
नाव से टकरा
गई थी। अब
मेरे लिए कुछ भी
करने को न था।
एक खाली नाव
पर क्रोध
उतारने की कोई
संभावना न थी।
तब फिर एक ही
उपाय बाकी रहा।
मैंने आंखें
बंद कर ली। और अपने
क्रोध को पकड़
कर उलटी दिशा में
बहने लगा। और में
पहूंच गया
अपने केंद्र
पर। वह खाली
नाव में आत्म
ज्ञान का कारण
बन गई। उस मौन
रात में मैं
आपने भीतर सरक
गया। और क्रोध
मेरी सवारी बन
गया। और खाली
नाव मेरी गुरु
हो गई।
और
फिर लिंची ने
कहा, अब जब कोई
आदमी मेरा
अपमान करता है
तो मैं हंसता
हूं और कहता
हूं कि यह नाव
भी खाली है।
मैं आंखें बंद
करता हूं और अपने
भीतर चला जाता
हूं।
इस
विधि को
प्रयोग करो।
यह तुम्हारे
लिए चमत्कार
कर सकती है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-15
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।आभार।
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