देखने
के संबंध में
कुछ विधियां:
‘’आंखें
बंद करके अपने
अंतरस्थ अस्तित्व
को विस्तार
से देखो। इस
प्रकार अपने
सच्चे स्वभाव
को देख लो।‘’
‘’आंखें
बंद करके......।‘’
अपनी
आंखें बंद कर
लो। लेकिन
आंखे बंद करना
ही काफी नहीं
है। समग्र रूप
से बंद करना
है। उसका अर्थ
है कि आँखो को
बंद करते उनकी
गति भी रोक
दो।
अन्यथा
आंखें बाहर की
ही चीजें
देखती रहेगी।
बंद आंखें भी
चीजों को
चीजों के
प्रतिबिंबों
को देखती है।
असली चीजें तो
नहीं रहती।
लेकिन उनके
चित्र, विचार,
संचित यादें
तब भी सामने
तैरती
रहेंगी। ये
चित्र ये
यादें भी बाहर
की है। इसलिए
जब ते वे
तैरती रहेगी
तब तक आंखों
को समग्ररूपेण
बंद मत समझो।
समग्र रूप से
बंद होने का
अर्थ है कि अब
देखने को कुछ
भी नहीं है।
इस
फर्क को ठीक
सक समझ लो।
तुम अपनी
आंखें बद कर
सकते हो; वह
आसान है। हर
कोई हर क्षण
आंखें बंद
करता है। रात
में भी तुम
आंखें बंद
रखते हो।
लेकिन इससे
अंतरस्थ स्वभाव
प्रकट नहीं हो
जाएगा। आंखें
ऐसे बंद करो कि
देखने को कुछ
भी न बचे—न
बाहर का विषय
बचे न भीतर का
विषय बचे।
तुम्हारे
सामने बस खाली
अँधेरा रह
जाए, मानो तुम
अचानक अंधे हो
गए हो—यथार्थ
के प्रति ही
नहीं, स्वप्न–यथार्थ
के प्रति भी।
इसमे
अभ्यास की
जरूरत पड़ेगी—एक
लंबे अभ्यास
की जरूरत
पड़ेगी। यह
अचानक संभव
नहीं है। एक
लंबे
प्रशिक्षण की
जरूरत है।
आंखें बंद कर लो
जब भी तुम्हें
लगे कि यह
आसानी से किया
जा सकता है और
जब भी तुम्हें
समय हो आंखें
बंद कर लो। और
आंखों की सभी
भीतरी हलन-चलन
को भी बंद कर
दो। किसी तरह
की भी गति मत
होने दो।
आंखों की सारी
गतिया बंद हो
जानी चाहिए।
भाव करो कि
आंखें पत्थर
हो गई है। और
तब आंखों की
पथराई अवस्था
में ठहरे रहो।
कुछ भी मत करो;
मात्र स्थित
रहो। तब किसी
दिन अचानक
तुम्हें यह
बोध होगा कि
तुम अपने भीतर
देख रहे हो।
यह
विधि भीतर से
देखने के लिए
बहुत सहयोगी
है। और यह
दर्शन तुम्हारी
समग्र चेतना
को, तुम्हारे
समूचे अस्तित्व
को रूपांतरित
कर देता है।
कारण यह है कि
जब तुम अपने
को भी भीतर से
देखते हो तो
तुम तुरंत
संसार से भिन्न
हो जाते हो। यह झूठा
तादात्म्य
कि मैं शरीर
हूं, इसलिए है
कि हम अपने
शरीर को बाहर
से देखते है।
अगर कोई उसे
भीतर से देख
सके तो द्रष्टा
शरीर से भिन्न
हो जाता है।
और तब तुम
अपनी चेतना को
अंगूठे से सिर
तक अपने शरीर
के भीतर
गतिमान कर
सकते हो; अब
तुम शरीर के
भीतर परिभ्रमण
कर सकते हो।
और
एक बार तुम
शरीर को अंदर
से देखने और
उसमें गति करने
में समर्थ हो
गए तो फिर
बाहर जाना जरा
भी कठिन नहीं
है। एक बार
तुम गति करना
सिख गये, एक
बार तुम ने
जान लिया कि
तुम शरीर से
पृथक हो, तो
तुम एक महा
बंधन से मुक्त
हो गए। अब तुम
पर गुरूत्वाकर्षण
की पकड़ न
रही। अब तुम्हारी
कोई सीमा न
रही। अब तुम
परिपूर्ण स्वतंत्र
हो, अब तुम
शरीर के बाहर
जा सकते हो।
अब बाहर-भीतर
होना आसान है।
अब तुम्हारा
शरीर महज
निवास स्थान
है।
आंखें
बंद करो और
अपने अंतरस्थ
प्राणी को
विस्तार से
देखो। और
भीतर-भीतर
शरीर के अंग-अंग
में परिभ्रमण
करो। सबसे
पहले अंगूठे के
पास जाओ। पूरे
शरीर को भूल
जाओ। और
अंगूठे पर पहु्ंचो।
वहां रुको और
उसका दर्शन
करो। फिर पाँव
से होकर ऊपर
बढ़ो; और ऐसे
प्रत्येक
अंग को देखो।
तब
बहुत सी बातें
घटित होंगी—बहुत
बातें। तब
तुम्हारा
शरीर ऐसा
संवेदनशील
वाहन बन जाएगा
जिसका तुम कल्पना
नहीं कर सकते।
तब अगर तुम
किसी को स्पर्श
करोगे तो तुम
पूरे अपने हाथ
में गति कर
जाओगे और वह
स्पर्श
रूपांतरकारी
होगा। गुरु के
स्पर्श का
यही अर्थ है।
गुरु अपने
किसी अंग में भी
समग्र रूप से
पहुंच सकता
है। और वहां
एकाग्र हो सकता
है।
अगर
तुम समग्र रूप
से अपने किसी
अंग कसे चले जाओ
तो वह अंग
जीवंत हो जाता
है। इतना
जीवंत कि तुम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
कि उसे क्या
हो गया है। तब
तुम अपनी
आंखों में
समग्ररूपेण
समा सकते हो।
इस तरह आँखो
में समाकर अगर
तुम किसी
दूसरे की
आंखों में झांकोगे
तो तुम उसमें
प्रवेश कर
जाओगे उसकी गहनत्म
गहराई को छू
जाओगे।
गुरु
अनेक काम करता
है। उनमें से
एक बुनियादी
काम यह है कि
तुम्हारा
विश्लेषण
करने के लिए
तुम में गहरे
उतरता है। और
वह तुम्हारे
अंधेरे तल घरों
में प्रवेश
करता है। तुम्हें
भी अपने इन तल
घरों का पता
नहीं है। अगर
गुरु कहेगा कि
तुम्हारे भी
तर कुछ चीजें
छीपी पड़ी है।
तो तुम उसका
विश्वास भी
नहीं करोगे।
कैसे विश्वास
करोगे? तुम्हें
उनका पता ही
नहीं है। तुम
अपने मन के एक
ही हिस्से को
जानते हो। और वह
उसका बहुत
छोटा हिस्सा
है। ऊपरी हिस्सा
है। वह उसका पहली
पर्त भर है।
उसके पीछे नौ
पर्तें छिपी
है जिनकी तुम्हें
कोई खबर नहीं
है। लेकिन
आंखों के
द्वारा उनमें
प्रवेश किया
जा सकता है।
‘’आंखें
बंद करके अपने
अंतरस्थ अस्तित्व
को विस्तार
से देखो।‘’
इस
दर्शन का पहल
चरण, बाहरी
चरण अपने शरीर
को भीतर से,
अपने आंतरिक
केंद्र से
देखना है।
केंद्र पर
खड़े हो जाओ
और देखो। तब
तुम शरीर से
पृथक हो
जाओगे। क्योंकि
द्रष्टा कभी
दृश्य नहीं
होता है,
निरीक्षक
अपने विषय से
भिन्न होता
है। अगर तुम
अंदर से अपने
शरीर को देख सको
तो तुम कभी
फिर इस भ्रम
में नहीं
पड़ोगे कि मैं
शरीर हूं। तब
तुम सर्वथा
पृथक रहोगे।
तब तुम शरीर में
रहोगे। लेकिन
शरीर नहीं
रहोगे।
यह
पहला चरण है।
फिर तुम और
गति कर सकते
हो। तब तुम
गति करने के
लिए स्वतंत्र
हो। शरीर से
मुक्त होकर,
तादात्म्य
से मुक्त
होकर तुम गति
करने के लिए
मुक्त हो। अब
तुम अपने मन
में, मन की
गहराइयों में
प्रवेश कर
सकते हो। अब तुम
उन नौ पर्तों
में, जो भीतर
है और अचेतन
है, प्रवेश कर
सकते हो।
यह
मन की अंतरस्थ
गुफा है। और
अगर मन की
गुफा में
प्रवेश करते हो
तो तुम मन से
भी प्रथक हो
जाते हो। तब
तुम देखोगें
कि मन भी एक
विषय है जिसे
देखा जा सकता
है। और
जो मन में
प्रवेश कर रहा
है वह मन से
पृथक और भिन्न
है।
अंतरस्थ
अस्तित्व
को विस्तार
से देखो इसका
यही अर्थ है—मन
में प्रवेश
करो। शरीर और
मन दोनों के
भीतर जाना है।
और भीतर से
उन्हें
देखना है। तब
तुम केवल
साक्षी हो। और
इस साक्षी में
प्रवेश नहीं
हो सकता। इसी
से यह तुम्हारा
अंतरतम है;
यही तुम हो।
जिसमें
प्रवेश किया
जा सकता है।
इसी से यह
तुम्हारा
अंतरतम है;
यही तुम हो।
जिसमें
प्रवेश किया
जा सकता है।
जिसे देखा जा
सकता है। इसी
से यह तुम्हारा
अंतरतम है;
यही तुम हो।
जब तुम वहां आ
गए जिससे आगे
नहीं जाया जा
सकता, जिसमें
प्रवेश नहीं
किया जा सकता,
वह तुम नहीं
हो। जब तुम
वहां आ गए
जिससे आगे
नहीं जाया जा
सकता है। जिस देखा
जा सकता है।
जिसमें
प्रवेश नहीं
किया जा सकता।
तभी तुम समझना
कि तुम अपने
सच्चे स्व
के पास, अपनी
आत्मा के पास
पहुंचे।
तुम
साक्षी के
साक्षी नहीं
हो सकते। यह
स्मरण रह। यह
बात ही बेतुकी
है। अगर कोई
कहता है कि
मैंने अपने
साक्षी को
देखा है तो वह
गलत कहता है।
यह बात ही
अनर्गल है। यह
अनर्गल क्यों
है?
यह
इसलिए है कि
अगर तुम ने
साक्षी आत्मा
को देख लिया
तो वह साक्षी
आत्मा
साक्षी आत्मा
ही नहीं है।
साक्षी वह है
जिसने उसको
देखा है। जिसे
तुम देख सकते
हो वह तुम
नहीं हो।
जिसका तुम
निरीक्षण कर
सकते हो वह
तुम नहीं हो।
जिसका तुम्हें
बोध हो सकता
है वह तुम
नहीं हो।
लेकिन
मन के पार एक
बिंदु आता है।
जहां तुम मात्र
होते हो। बस
हो। अब तुम
अपने अखंड अस्तित्व
को दो में
नहीं बांट
सकते। दृश्य
और द्रष्टा
में नहीं बांट
सकते।
वहां
केवल द्रष्टा
है, मात्र साक्षी
भाव है। इस
बात को बुद्धि
से तर्क से
समझना बहुत कठिन
है। क्योंकि
वहां बुद्धि
की सभी
कोटियां
समाप्त हो
जाती है।
तर्क
की इस कठिनाई
के कारण चार्वाक
ने, जिसने
संसार के एक
अत्यंत
तर्कपूर्ण
दर्शनशास्त्र
की स्थापना
की। कहा कि
तुम आत्मा हो
नहीं जान सकते
हो, कोई आत्म-ज्ञान
नहीं होता। और
क्योंकि आत्म-ज्ञान
नहीं होता है,
इसलिए तुम
कैसे कह सकते हो
कि आत्मा है।
जो भी तुम
जानते हो वह
आत्मा नहीं
है। जो जानता
है वह आत्मा
है। जो जाना
जाता है वह
आत्मा नहीं
हो सकती है।
इसलिए तुम
तर्क के
अनुसार नहीं
कह सकते कि
मैंने अपनी
आत्मा को जान
लिया। वह
बेतुका है,
तर्कहीन है।
तुम अपनी आत्मा
को कैसे जान
सकते हो? क्योंकि
तब कौन जानेगा
और किसको
जानेगा?
ज्ञान
का अर्थ है
द्वैत—विषय और
विषयी के बीच,
ज्ञाता और
ज्ञात के बीच।
इसलिए
चार्वाक कहता
है। कि
जो लोग कहते
है कि हमने
आत्मा को जान
लिया है वे
मूढ़ता की बात
करते है। आत्म
ज्ञान असंभव
है। क्योंकि
आत्मा
निर्विवाद
रूप से जानने
वाला है। उसे
जाना जाने
वाले में बदला
नहीं जा सकता।
और तब चार्वाक
कहता है कि
अगर तुम आत्मा
को नह जान
सकते तो यह
कैसे कह सकते
हो कि आत्मा
है।
चार्वाक
जैसे लोग, जो
आत्मा के अस्तित्व
में विश्वास
नहीं रखते, अनात्म
वादी कहलाते
है। वे कहते
है कि आत्मा
नह है; जिसे
जाना नहीं जा
सकता है।
और
वे तर्क के
अनुसार सही
है। अगर तर्क
ही सब कुछ है
तो वे सही है।
लेकिन जीवन का
यह रहस्य है
कि तर्क सिर्फ
आरंभ है, अंत
नहीं है। एक
क्षण आता है
जब तर्क समाप्त
हो जाता है।
लेकिन तुम
समाप्त नहीं
होते। एक क्षण
आता है जब
तर्क खतम हो
जाता है,
लेकिन तुम तब
भी होते हो।
जीवन अतर्क्य
है। यही कारण
है कि यह
समझना बहुत
कठिन होता है
कि सिर्फ
साक्षी बचता
है।
आकाश
को देखो नीला
दिखाई देता
है। लेकिन
आकाश नीला
नहीं है। वह
कास्मिक
किरणों से भरा
है। क्योंकि
वहां कोई विषय
वस्तु नहीं
है। इसीलिए
आकाश नीला
दिखाई देता
है। वे किरणें
प्रतिबिंबित
नहीं कर सकती,
तुम्हारी
आंखों तक नहीं
आ सकती। अगर
तुम अंतरिक्ष में
जाओ और वहां
कोई वस्तु न
हो तो तुम्हें
वहां अँधेरा
ही अँधेरा
मालूम होगा।
हालाकि तुम्हारे
बगल से किरण
गुजर रही है।
लेकिन तुम्हें
अँधेरा ही
मालूम होगा।
प्रकाश को
जानने के लिए
विषय वस्तु
का होना
अनिवार्य है।
तो
चार्वाक कहता
है कह अगर तुम
भीतर जाते हो
और उस बिंदू
पर पहुंचते हो
जहां सिर्फ
साक्षी बचता
है। और कुछ
देखने को नहीं
बचता। तो तुम
यह बात कैसे जानोंगे? देखने
के लिए कोई
विषय अवश्य
चाहिए। तभी
तुम साक्षित्व
को जान सकते हो।
तर्क
के अनुसार
विज्ञान के
अनुसार यह सही
है। लेकिन यह
अस्तित्वत:
यही नहीं है।
जो लोग सचमुच
भीतर प्रवेश
करते है वे
ऐसे बिंदू पर
पहुंचते है
जहां मात्र चैतन्य
के अतिरिक्त
कोई भी विषय
नहीं रहता है।
तुम हो, लेकिन
देखने को कुछ
भी नहीं है—मात्र
दृष्टा है।
एक मात्र दृष्टा।
अपने आस-पास
किसी विषय के
बिना शुद्ध
विषयी होता
है। जिस क्षण
तुम इस बिंदू
पर पहुंचते
हो। तुम अपने
अस्तित्व
के परम लक्ष्य
पर पहूंच गए।
उसे तुम आदि
कह सकते हो।
उसे तुम अंत
भी कह सकते
हो। वह आदि और
अंत दोनों है।
वह आत्म-ज्ञान
है।
भाषागत
रूप से आत्म
ज्ञान शब्द
गलत है। क्योंकि
भाषा में इसके
संबंध में कुछ
भी नह कहा जा
सकता। जब तुम
अद्वैत के जगत
में प्रवेश
करते हो, तो
भाषा व्यर्थ
हो जाती है।
भाषा तभी तक
सार्थक है जब
तक तुम द्वैत
के जगत में
हो। द्वैत के
जगत में भाषा अर्थ
वान है; क्योंकि
भाषा
द्वैतवादी
जगत की कृति
है। उसका हिस्सा
है। अद्वैत
में प्रवेश
करते ही भाषा
व्यर्थ हो
जाती है।
लाओत्से
ने कहा है कि
जो कहा जा
सकता है वह सच
नहीं हो सकता
और जो सच है वह
कहा नह जा
सकता। वह मौन
रह गया।
जिंदगी के
अंतिम दिनों
तक उसने कुछ
भी लिखने से
इनकार किया।
उसने कहा कि
अगर मैं कुछ
कहूं तो वह असत्य
हो जाएगा। क्योंकि
उस जगत के
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता जहां
एक ही बचता
है।
‘’आंखे
बंद करके अपने
अंतरस्थ अस्तित्व
को विस्तार
से देखो।‘’
शरीर
और मन दोनों
को विस्तार
से देखो।
‘’इस
प्रकार अपने
सच्चे स्वभाव
को देख लो।‘’
तो
इस विधि का
प्रयोग कैसे
करे?
आंखों को
समग्र रूप से
बंद होना
जरूरी है। अगर
तुम इसका
प्रयोग करते
हो तो पहले
आंखें बंद करो
और फिर आंखों
की सारी गति
रोक दो। अपनी
आंखों को पत्थर
की तरह हो
जाने दो, गति
बिलकुल बंद
करो और फिर
आंखों की सारी
गति रोक दो।
इसका अभ्यास करते
हुए किसी दिन
अचानक, हठात
तुम अपने अंदर
देखने में
समर्थ हो
जाओगे। वे आंखें
जो सतत बाहर
देखने की आदी
थी भीतर को मूड
जाएंगी। और तुम्हें
अपने अंतरस्थ
की एक झलक मिल जायेगी।
और तब कोई
कठिनाई नहीं रहेगी।
एक
बार तुम्हें
अंतरस्थ की
झलक मिल गई तो
तुम जानते हो
कि क्या किया
जाए और कैसे
गति की जाए।
पहल झलक ही
कठिन है। उसके
बाद तुम्हें
तरकीब हाथ लग
जायेगी। जब वह
एक खेल, एक
युक्ति की
बात हो जाएगी।
किसी भी क्षण
तुम अपनी आंखे
बंद कर सकते
हो।
बुद्ध
मर रहे थे। यह
उनके जीवन का
अंतिम दिन था।
और उन्होंने
अपने शिष्यों
से कहा कि कुछ
पूछना हो तो
पूछो। शिष्य
रो रहे थे।
आंसू बह रहे
थे। उन्होंने
बुद्ध से कहा
कि आपने हमें
इतना समझाया,
अब पूछने को
क्या बाकी
है। बुद्ध की
आदत थी कि वे
एक बात को तीन
बार पूछते थे।
वे एक बार ही
पूछकर चुप नहीं
रह जाते थे।
उन्होंने एक
बार फिर पूछा।
और फिर तीसरी
बार भी पूछा।
कि कोई प्रश्न
तो नहीं है
तुम्हारा।
कहा
जाता है कि
बुद्ध की इस
आंतरिक
यात्रा के चार
चरण थे। पहले
उन्होंने
आंखें बंद की और
तब उन्होंने
आंखों को स्थिर
कर लिया।
उनमें कोई गति
नहीं थी। उस
समय यदि तुम रैम-रिकार्डिग
कर प्रयोग
करते, तो उसमे
कोई ग्राफ नहीं
बनता। आंखें
स्थिर हो गई,
यह दूसरी बात
है। और तीसरी
बात कि उन्होंने
अपने शरीर का
देखा और अंत में
अपने केंद्र
पर, मुल स्त्रोत
पर पहुंच गए।
यह
वजह है कि
उनकी मृत्यु
नह कहलाती। हम
उसे निर्वाण
कहते है। मृत्यु
नहीं। यह फर्क
है। सामान्यत:
हम मरते है, क्योंकि
हमारी मृत्यु
घटित होती है।
बुद्ध के साथ
यह मृत्यु
घटित नहीं हुई।
मृत्यु के
आने के पहले
वे अपने स्त्रोत
को वापस लौट
गए थे। उनके
मृत शरीर की
ही मृत्यु
हुई। वे वहां
मौजूद नहीं थे।
बौद्ध
परंपरा में कहा
जाता है कि
बुद्ध की कभी
मृत्यु नहीं घटित
हुई; मृत्यु
उन्हें पकड़
ही नहीं पाई।
मृत्यु ने
उनका पीछा
किया। जैसे कि
वह सबका पीछा
करती है।
लेकिन वे उसके
जाल में नहीं आए।
मृत्यु उनके
द्वारा छली
गई। बुद्ध
मृत्यु के
पार खड़े होकर
हंस रहे
होंगे। क्योंकि
मृत्यु मृत
शरीर के पास
खड़ी थी।
यह
वही विधि है
इसके चार चरण
करो और आगे
बढ़ो। और जब
एक झलक मिल
जाएगी तो पूरी
चीज आसान और सरल
हो जाएगी। तब
तुम किसी भी
क्षण अंदर जा
सकते हो। और बाहर
आ सकते हो—वैसे
ही जैसे तुम
अपने घर के
बाहर-भीतर
होते हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—2
प्रवचन—21
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें