देखने के संबंध में दूसरी विधि:
‘’किसी
कटोरे को उसके
पार्श्व-भाग
या पदार्थ को
देखे बिना
देखो। थोड़े
ही क्षणों में
बोध का उपलब्ध
हो जाओ।‘’
किसी
भी चीज को
देखो। एक
कटोरा या कोई
भी चीज काम
देगी। लेकिन
देखने की
गुणवत्ता
भिन्न हो।
‘’किसी
कटोरे को उसके
पार्श्व-भाग
या पदार्थ को
देखे बिना
देखो।‘’
किसी
विषय को पूरा
का पूरा देखो,
उसे टुकड़ो में
मत बांटो। क्यो? इसलिए
कि जब तुम
किसी चीज को
हिस्सों में
बांटते हो तो
आंखों को हिस्सों
में देखने का
मौका मिलता
है। चीज को
उसकी समग्रता
में देखो। तुम
यह कह सकते
हो।
मैं
तुम सभी को दो
ढंग से देख
सकता हूं। मैं
एक तरफ से
देखता हुआ आगे
बढ़ सकता हूं।
पहले अ को देखू,
तब ब को तब स को,
और इस तरह आगे
बढूं। लेकिन जब
मैं अ, और ब या स
को देखता हूं
तो मैं उपस्थित
नहीं रहता
हूं। यदि उपस्थित
भी रहूँ तो
किनारे पर,
परिधि पर उपस्थित
रहता हूं। और
उस हालत में
मेरी दृष्टि
एकाग्र और
समग्र नहीं
रहती है। क्योंकि
जब मैं ब को
देखता हूं तो
अ से हट जाता
हूं। और जब से
को देखता हूं
तो आ पूरी तरह
खो जाता है।
मेरी निगाह से
बाहर चला जाता
है। इस समूह को
देखने का एक
ढंग यह है। लेकिन
मैं इस पूरे
समूह को व्यक्तियों
में, इकाइयों
में बांटे
बगैर भी पूरे
का पूरा देख
सकता हूं।
इसका
प्रयोग करो।
पले किसी चीज
को अंश-अंश
में देखो। एक
अंश के बाद
दूसरे अंश को।
और तब अचानक
उसे पूरे का
पूरा देखो।
उसे
टुकड़ो-टुकड़ो
में मत बांटो।
जब तुम किसी चीज
को पूरे का
पूरा देखते
हो, तो आंखों
को गति करने
की जरूरत नहीं
रहती। आंखों
को गति करने
का मौका न
मिले, इस
उदेश्य से ही
ये शर्तें रखी
गई है।
पदार्थ
कटोरे का
भौतिक भाग है।
और रूप उसका
अभौतिक भाग
है। और तुम
पदार्थ से
अपदार्थ की और
गति करते हो।
यह सहयोगी होगा;
प्रयोग करो।
किसी व्यक्ति
के साथ भी
प्रयोग कर
सकते हो। कोई पुरूष
या किसी स्त्री
खड़ी है, उसे
देखो। उस स्त्री
या पुरूष को
पूरे का पूरा समग्ररतः:
अपनी दृष्टि
में समेटो।
शुरू-शुरू
में यह कुछ
अजीब सा
लगेगा। क्योंकि
तुम इसके आदी
नहीं हो।
लेकिन अंत में
यह बहुत सुंदर
अनुभव होगा।
और तब यह मत
सोचो कि शरीर
सुंदर है या
असुंदर, गोरा
है या काला, मर्द
है या औरत।
सोचो मत; रूप
को देखो,
सिर्फ रूप को,
पदार्थ को भूल
जाओ।
‘’थोड़े
ही क्षणों में
बोध को उपलब्ध
हो जाओ।‘’
तुम
एकाएक स्वयं
के प्रति,
अपने प्रति
बोध कसे भर
जाओगे। किसी
चीज को देखते
हुए तुम अपने
को जान लोगे।
क्यों? क्योंकि
आंखों को बाहर
गति करने की
गुंजाइश नहीं
है। रूप को
समग्रता में
लिया गया है।
इसलिए तुम
उसके अंशों
में नहीं जा
सकते। पदार्थ
को छोड़ दिया
गया है; शुद्ध
रूप को लिया
गया है। अब
तुम उसके पदार्थ
सोना, चाँदी,
लकड़ी वगैरह
के सबंध में
नहीं सोच सकते
। रूप शुद्ध
है; उसके
संबंध में
सोचना संभव
नहीं है। रूप
बस रूप है;
उसके संबंध
में क्या
सोचोगे।
स्वय
के प्रति
जागना जीवन का
सर्वाधिक
आनंदपूर्ण
क्षण है। यही
समाधि है। जब
पहली बार तुम
स्वयं के बोध
से भरते हो तो
उसके जो
सौंदर्य, जो
आनंद होता है,
उसकी तुलना
तुम किसी भी
जानी हुई चीज
से नहीं कर सकते
हो। सच तो यह
है कि पहली
बार तुम स्वयं
होते हो, आत्म
वान होते हो।
पहली बार तुम
जानते हो कि
मैं हूं। तुम्हारा
होना बिजली की
कौंध की तरह
पहल बार प्रकट
होता है। लेकिन
यह क्यों
होता है।
तुम
ने देखा होगा,
खासकर बच्चों
की किताबों
में या किसी
मनोविज्ञान
की किताब में—मुझे
आशा है कि
हरेक ने कहीं
न कही देखा
होगा—एक बूढ़ी
स्त्री का
चित्र। इस
चित्र में,
जिन रेखाओं से
वह चित्र बना
है, उसके भीतर
ही एक सुंदर
युवती का
चित्र भी छिपा
है। चित्र एक
ही है। रेखाएं
भी वही है।
लेकिन
आकृतियां दो
है—एक बूढी स्त्री
की और दूसरी
युवती की।
उस चित्र
की देखो तो एक
साथ दोनों
चित्रों को नहीं
देख पाओगे। एक
बार में उनमें
से एक का ही बोध
तुम्हें हो
सकता है। अगर
बूढी स्त्री
दिखाई देगी तो
वह जवान स्त्री
नहीं दिखाई
देगी, वह छिपी
रहेगी। तुम
उसे ढूंढना भी
चाहोगे तो
कठिन होगा;
प्रयास ही बाधा
बन जाएगा।
कारण कि तुम
बूढी स्त्री
के प्रति
बोधपूर्ण हो
गए हो, तुम उसे
न ढूंढ सकोगे।
तो इसके लिए
तुम्हें एक
तरकीब करनी होगी।
बूढी स्त्री
को एकटक देखो;
युवती को
बिलकुल भूल
जाओ। बूढी स्त्री
विदा हो जाएगी
और उसके पीछे
छिपी युवती को
तुम देख लोगे।
क्यों? अगर तुमने
उसको ढूंढने
की कोशिश की
तो तुम चूक
जाओगे।
तुम्हारी
आंखें किसी एक
बिंदू पर रुकी
नहीं रह सकती
है। अगर तुम
बूढ़ी स्त्री
के चित्र पर
टकटकी लगाओगे,
तो तुम्हारी
आंखें थक
जायेगी। तब वे
अकस्मात उस
चित्र से हटने
लगेंगी। और इस
हटने के क्रम
में ही तुम
दूसरे चित्र
को देख लोगे।
जो उस बूढी स्त्री
के चित्र के बाजू
में छिपा था।
उन्हीं
रेखाओं में
छिपा था।
लेकिन
चमत्कार यह
है कि अब तुम्हें
युवा स्त्री
का बोध होगा
तो बूढ़ी स्त्री तुम्हारी
आंखों से ओझल
हो जाएगी। पर
अब तुम्हें
पता है कि
दोनों वहां
है। शुरू में
तो चाहे तुम
को विश्वास
नहीं होता कि वहां
एक युवती छिपी
है। लेकिन अब
तो तुम जानते
हो कि बूढी स्त्री
छिपी है। क्योंकि
तुम उसे पहले
देख चुके हो।
अब तुम जानते
हो कि बूढ़ी
स्त्री वहां
है। लेकिन जब
तक युवती को
देखते रहोगे,
तुम साथ-साथ
बूढ़ी स्त्री
को नहीं देख
सकोगे। और जब
बूढ़ी स्त्री
को देखोगें तो
युवती गायब हो
जाएगी। दोनों
चित्र युगपत नहीं
देखे जा सकते।
एक बार में एक
ही देखा जा
सकता है।
बाहर और भीतर
को देखने के
संबंध में भी
यही बात घटित
होती है, तुम
दोनों को एक
साथ नहीं देख
सकते। जब तुम
कटोरे या किसी
चीज को देखते
हो तो तुम
बाहर देखते
हो। चेतना
बाहर गति करती
है। नदी बाहर
बह रही है।
तुम्हारा ध्यान
कटोरे पर है;
उसे एकटक
देखते रहो। यह
टकटकी ही भीतर
जाने की
सुविधा बना
देगी। तुम्हारी
आंखें थक
जाएंगी। वे
गति करना
चाहेंगी। बाहर
जाने का कोई
उपाय न देखकर
नदी अचानक
पीछे मुड़
जाएगी।
वही एकमात्र
संभावना बची
है। तुम ने
अपनी चेतना को
पीछे लौटने के
लिए मजबूर कर
दिया। और जब
तुम अपने
प्रति जागरूक
होगे तो कटोरा
विदा हो
जाएगा। कटोरा
वहां नहीं
होगा।
यही वजह है
कि शंकर या
नागार्जुन
कहते है कि सारा
जगत माया है।
उन्होंने
ऐसा ही जाना।
जब हम अपने को
जानते है तो जगत
नहीं रहता।
हकीकत में जगत
माया नहीं है;
वह है। लेकिन
समस्या यह है
कि तुम दोनों जागतों
को एक साथ
नहीं सकते हो।
जब शंकर अपने
में प्रवेश
करते है, अपनी
आत्मा को जान
लेते है, जब वे
साक्षी हो
जाते है। तो संसार
नहीं रहता है।
वे भी सही है।
वे कहते है वह
माया है; यह
भासता है, है
नहीं।
तो तथ्य
के प्रति जागों।
जब तुम संसार
को जानते हो
तो तुम नहीं
हो। तुम हो,
लेकिन प्रच्छन्न
हो; और तुम
विश्वास
नहीं
कर सकते कि मैं
प्रच्छन्न
हूं। तुम्हारे
लिए संसार
अतिशय मौजूद
है। और अगर
तुम अपने को
सीधे देखने की
कोशिश करोगे
तो यह कठिन होगा।
प्रयत्न ही
बाधा बन जा
सकता है।
इस लिए
तंत्र कहता है
कि अपनी दृष्टि
को कहीं भी
संसार में,
किसी भी विषय
पर स्थित
करो। और वहां
से मत हटो।
वहां टिके
रहो। टिके
रहने का यह
प्रयत्न ही
सह संभावना
पैदा कर देगा
कि चेतना
प्रतिक्रमण
करने लगे।
पीछे लौटने
लगे। पीछे
लौटने लगे। तब
तुम स्वयं के
प्रति बोध से भरोंगे।
लेकिन जब
तुम स्वयं के
प्रति जागोगे
तो कटोरा नहीं
रहेगा। कटोरा
तो है लेकिन
वह तुम्हारे
लिए नहीं
रहेगा। इस लिए
शंकर कहते है
कि संसार माया
है। जब तुम स्वयं
को जान लेते
हो तो जगत
नहीं रहता है।
स्वप्नवत
विलीन हो जाता
है।
लेकिन
चार्वाक,
ऐपिकुरस और
मार्क्स, वे
भी सही है। वे
कहते है कि
जगत सत्य है।
और आत्मा
मिथ्या है।
वह कहीं मिलती
नहीं है। वे
कहते है विज्ञान
सही है।
विज्ञान कहता
है कि केवल
पदार्थ है,
केवल विषय है;
विषयी नहीं
है। वे भी सही
है। क्योंकि
उनकी आंखे अभी
विषय पर टिकी
है। वैज्ञानिक
का ध्यान
निरंतर
विषयों से
बंधा होता है।
वह आत्मा को
बिलकुल भूल
बैठता है।
शंकर और
मार्क्स
दोनों एक अर्थ
में सही है।
और एक अर्थ
में गलत है।
अगर तुम संसार
से बंधे हो,
अगर तुम्हारी
दृष्टि
संसार पर टीकी
है। तो आत्मा
माया मालूम
होगी। स्वप्न
वत लगेगी। और
अगर तुम भीतर
देख रहे हो तो
संसार स्वप्नवत
हो जाएगा।
संसार और आत्मा
दोनों सत्य
है। लेकिन
दोनों के
प्रति युगपत
सजग नहीं हुआ
जा सकता। यही
समस्या है,
और इसमे कुछ
भी नहीं किया
जा सकता। या
तो तुम बूढी
स्त्री से मिलोंगे
या युवती से। उनमें
से एक सदा
माया रहेगी।
यह विधि
सरलता से
उपयोग की जा
सकती है। और
यह थोड़ा समय
लेगी। लेकिन
यह कठिन नहीं
है। एक बार
तुम चेतना की
प्रतिगति को,
पीछे लौटने की
प्रक्रिया को
ठीक से समझ लो,
तो इस विधि का
प्रयोग कहीं
भी कर सकते
हो। किसी बस
या रेलगाड़ी
से यात्रा
करते हुए भी
यह संभव है।
कही भी संभव
है। और कटोरा
या किसी खास
विषय की जरूरत
नहीं है। किसी
भी चीज से काम
चलेगा। किसी
भी चीज को
एकटक देखते
रहो। देखते ही
रहो। और अचानक
तुम भीतर मुड़
जाओगे और
रेलगाड़ी या
बस खो जाएगी।
निश्चित
ही तब तुम
अपनी आंतरिक
यात्रा से
लौटोगे तो
तुम्हारी बाहरी
यात्रा भी
काफी हो
चुकेगी।
लेकिन रेलगाड़ी खो
जायेगी। तुम
एक स्टेशन से
दूसरे स्टेशन
पहुंच जाओगे।
और उनके बीच
रेलगाड़ी नहीं,
अंतराल
रहेगा।
रेलगाड़ी तो
थी; अन्यथा
तुम दूसरे स्टेशन
पर कैसे
पहुंचते।
लेकिन वह तुम्हारे
लिए नहीं थी।
जो लोग इस
विधि का प्रयोग
कर सकते है वह
इस संसार में
सरला से रहा सकते
है। याद रहे,
वे किसी भी
क्षण किसी भी
चीज को गायब
करा सकते है।
तुम अपनी पत्नी
या अपने पति
से तंग आ गए हो,
तुम उसे विलीन
करा सकते हो।
तुम्हारी
पत्नी तुम्हारे
बाजू में ही
बैठी है, और वह
नहीं है। यह
माया हो गई
है। प्रच्छन्न
हो गई है।
सिर्फ टकटकी
बांधकर और
अपनी चेतना को
भीतर ले जाकर
उसे तुम अपने
लिए अनुपस्थित
कर सकते हो।
और ऐसा कई बार
हुआ है।
मुझ
सुकरात की याद
आती है, उसकी
पत्नी
जेनथिप्पे
उसके लिए बहुत
चिंतित रहा
करती थी। और
कोई भी पत्नी
उसकी जगह वैसे
ही परेशान
रहती। सुकरात
को पति के रूप
में बर्दाश्त
कना महा कठिन
काम है।
सुकरात
शिक्षक के रूप
में ठीक है;
लेकिन पति के
रूप में नहीं।
एक दिन की
बात है, और इस
घटना के चलते
सुकरात की पत्नी
दो हजार
वर्षों से
निरंतर
निंदित रही
है। लेकिन
मेरे विचार
में यह निंदा
उचित नहीं है।
उसने कोई भूल
नहीं की थी।
सुकरात बैठा
था और उसने इस
विधि जैसा ही
कुछ किया
होगा। इसका
उल्लेख नहीं
है; यह मरा
अनुमान है।
उसकी पत्नी
उसके लिए ट्रे
में चाय लेकिर
आई। उसने देखा
सुकरात वहां
नहीं है। और
इसलिए, कहा
जाता है कि,
उसने सुकरात
के चेहरे पर
चाय उड़ेल दी।
और अचानक वह
वापस आ गया।
आजीवन उसके
चेहरे पर जलने
के दाग पड़े
रहे।
इस घटना के
कारण सुकरात
की पत्नी
बहुत निंदित
हुई। लेकिन
कोई नहीं जानता
है कि सुकरात
उस क्या कर
रहा था। क्योंकि
कोई पत्नी
अचानक ऐसा नहीं
कर सकती। उसकी
कोई जरूरत नहीं
है। उसने अवश्य
कुछ किया
होगा। कोई ऐसी
बात अवश्य
हुई होगी। जिस
वजह से
जेनथिप्पे
को उस पर चाय
उड़ेल देनी
पड़ी। वह जरूर
किसी आंतरिक
समाधि में चला
गया होगा। और गरम
चाय की जलन के कारण
समाधि से वापस
लोटा होगा। इस
जली के कारण
ही उसकी चेतना
लौटी होगी।
ऐसा हुआ होगा,
यह मेरा
अनुमान है। क्योंकि
सुकरात के
संबंध में ऐसी
ही अनेक
घटनाओं का उल्लेख
मिलता है।
एक बार ऐसा
हुआ कि सुकरात
अड़तालीस
घंटे तक लापता
रहा। सब जगह
उसकी खोजबीन
की गई। सारा
एथेंस सुकरात
को तलाशता
रहा। लेकिन वह
कहीं नहीं
मिला। और जब
मिला तो वह
नगर से बहुत
दूर किसी
वृक्ष के नीचे
खड़ा था। उसका
आधा शरीर बर्फ
से ढक गया था।
बर्फ गिर रही
थी और वह बर्फ
हो गया था। वह
खड़ा था और उसकी
आंखें खुली
थी। लेकिन वे
आंखें किसी भी
चीज को देख नहीं
रही थी।
जब लोग
उसके चारों और
जमा हो गए और उन्होंने
उसकी आंखों
में झाँका तो
उन्हें लगा
कि वह मर गया
है। उसकी
आंखें पत्थर
जैसी हो गई
थी। वे देख
रही थी पर
किसी खास चीज
को नहीं देख
रही थी। वे स्थिर
थी, अचल थी।
फिर लोगों ने
उसकी छाती पर
हाथ रखा और तब
उन्हें
भरोसा हुआ कि
वह जीवित है।
उसकी छाती
हौले-हौले
धड़क रही थी।
तब उन्होंने
उसे
हिलाया-डुलाया
और उसकी चेतना
वापस लौटी।
होश में
आने पर उससे पूछताछ
की गई। पता
चला कि
अड़तालीस
घंटों से वह
यहां था और उसे
इन घंटों का
पता ही नी
चला। मानो ये
घंटे उसके लिए
घटित नहीं हुए।
इतनी देर वह
देश काल से इस
जगत में नहीं था।
तो लोगों ने
पूछा कि तुम
इतनी देर से
क्या कर रहे
थे। हम तो
समझे कि तुम
मर गए।
अड़तालीस
घंटे।
सुकरात ने
कहा: ‘’मैं
तारों को एकटक
देख रहा था और तब
अचानक ऐसा हुआ
कि तारे खो
गए। और तब, मैं नहीं
कह सकता, सारा
संसार ही
विलीन हो गया।
लेकिन शीतल,
शांत और आनंदपूर्ण
अवस्था में रहा
कि अगर उसे
मृत्यु कहा
जाए तो वह
मृत्यु
हजारों
जिंदगी के
बराबर है। अगर
यह मृत्यु है
तो मैं
बार-बार मृत्यु
में जाना पसंद
करूंगा।
संभव है, यह
बात उसकी
जानकारी के
बिना घटित हुई
हो; क्योंकि
सुकरात ने
योगी था न
तांत्रिक।
सचेतन रूप से
वह किसी आध्यात्मिक
साधना से
संबंधित नहीं
था। लेकिन वह
बड़ा चिंतक
था। और हो
सकता है यह
बात आकस्मिक
घटित हुई हो
कि रात में वि
तारों को देख
रहा हो और अचानक
उसकी निगाह अंतर्मुखी
हो गई हो।
तुम भी यह
प्रयोग कर
सकते हो। तारे
अद्भुत है और सुंदर
है। जमीन पर
लेट जाओ,
अंधेरे आसमान
को देखो और तब
अपनी दृष्टि
को किसी एक
तारे पर स्थिर
करो। उस पर
अपने को
एकाग्र करो।
उस पर टकटकी बाँध
दो। अपनी
चेतना को
समेटकर एक ही
तारे को साथ
जोड़ दो; शेष
तारों को भूल
जाओ। धीरे-धीरे
अपनी दृष्टि
को समेटो,
एकाग्र करो।
दूसरे
सितारे दूर हो
जाएंगे। और धीरे-धीरे
विलीन हो
जायेगे। और सिर्फ
एक तारा बच
रहेगा। उसे
एकटक देखते
जाओ। देखते
जाओ। एक क्षण
आएगा जब वह
तारा भी विलीन
हो जाएगा। और जब
वह तारा विलीन
होगा तब तुम्हारा
स्वरूप तुम्हारे
सामने प्रकट
हो जाएगा।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—2
प्रवचन—21
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