देखने
के संबंध में
पांचवी विधि:
‘’जब
परम रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो, उसे
श्रवण करो। अविचल,
अपलक आंखों
से; अविलंब
परम मुक्ति
को उपलब्ध
होओ।‘’
‘’जब परम
रहस्यम उपदेश
दिया जा रहा
हो। उसे श्रवण
करो।‘’
यह
एक गुह्म विधि
है। इस गुह्म
तंत्र में
गुरु तुम्हें
अपना उपदेश या
मंत्र गुप्त
ढंग से देता
है। जब शिष्य
तैयार होता है
तब गुरु उसे
उसकी निजता
में वक परम
रहस्य या
मंत्र
संप्रेषित
करता है। वह
उसके कान में
चुपचाप कह
दिया जाएगा।
फुसफुसा दिया
जाएगा। यह
विधि उस
फुसफुसाहट से
संबंध रखती
है।
‘’जब
परम रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो, उसे
श्रवण करो।‘’
जब
गुरु निर्णय
करे कि तुम
तैयार हो और
उसके अनुभव का
गुह्म रहस्य
तुम्हें
बताया जा सकता
है। जब वह
समझो कि वह
क्षण आ गया है
कि तुम्हें
वह कहा जा
सकता है। जो
अकथनीय है। तब
इस विधि का
उपयोग होता
है।
‘’अविचल,
अपलक आंखों
से; अविलंब
परम मुक्ति
को उपलब्ध
होओ।‘’
जब
गुरु अपना
गुह्म ज्ञान
या मंत्र तुम्हारे
कान में कहे
तो तुम्हारी
आंखों को
बिलकुल स्थिर
रहना चाहिए।
उनमें किसी
तरह की भी गति
नहीं
होनी चाहिए।
इसका
मतलब है कि मन
निर्विचार हो,
शांत हो। पलक
भी नहीं हीले;
क्योंकि पलक
का हिलना
आंतरिक
अशांति का
लक्षण है। जरा
सी गति भी न
हो। केवल कान
बन जाओ। भीतर
कोई भी हलचल न
रहे। और तुम्हारी
चेतना निष्क्रिय,
खुली ग्राहक
की अवस्था
में रहे—गर्भ
धारण करने की
अवस्था में।
जब ऐसा होगा,
जब वह क्षण
आएगा जिसमें तुम
समग्रता: रिक्त
होते हो,
निर्विचार
होते हो,
प्रतीक्षा
में होते हो—किसी
चीज की
प्रतीक्षा
में नहीं। क्योंकि
वह विचार कहना
होगा, बस
प्रतीक्षा
में—जब यह अचल
क्षण, ठहरा
हुआ क्षण घटित
होगा, जब सब कुछ
ठहर जाता है,
समय का प्रवाह
बंद हो जाता
है, और चित समग्ररतः:
रिक्त है, तब
अ-मन का जन्म
होता है। और
अ-मन में ही
गुरु उपदेश
प्रेषित करता
है।
और
गुरु कोई लंबा
प्रवचन नहीं
देगा। वह बस
दो या तीन शब्द
ही कहेगा। उस
मौन में उसके
वे एक या दो या
तीन शब्द
तुम्हारे
अंतर्तम में
उतर जाएंगे।
केंद्र में प्रविष्ट
हो जायेंगे।
और वे वहां
बीज बनकर
रहेंगे।
इस
निष्क्रिय
जागरूकता में,
इस मौन में
‘’अविलंब परम मुक्ति
को उपलब्ध
होओ।‘’
मन
से मुक्त
होकर ही कोई
मुक्त हो
सकता है। मन
से मुक्ति ही
एकमात्र मुक्ति
है; और कोई
मुक्ति नहीं
है, मन ही बंधन
है, दासता है,
गुलामी है।
इसलिए
शिष्य को
गुरु के पास
उस सम्यक
क्षण की
प्रतीक्षा
में रहना होगा
जब गुरु उसे
बुलाएगा और
उपदेश देगा।
उसे पूछना भी
नहीं है। क्योंकि
पूछने का मतलब
चाह है, वासना
है। उसे अपेक्षा
भी नहीं करना
है; क्योंकि
अपेक्षा का
अर्थ शर्त है।
वासना है, मन है।
उसे सिर्फ
अनंत
प्रतीक्षा
में रहना है।
और जब वह
तैयार होगा।
जब उसकी
प्रतीक्षा
समग्र हो
जाएगी तो गुरु
कुछ करेगा। कभी-कभी
तो गुरु छोटी
सी चीज करेगा
और बात घट जाएगी।
और
सामान्यत:
यदि शिव एक सौ
बारह विधियां
भी समझा दें
तो कुछ नहीं
होगा। कुछ भी
नहीं होगा। क्योंकि
तैयारी नहीं
है। तुम पत्थर
पर बीज बोओ तो
क्या होगा।
उसमें बीज का
दोष भी नहीं
है। ऋतु के
बाहर बीज बोने
से कुछ नहीं होता
है। उसमे बीज
का दोष नहीं
है। सम्यक
मौसम चाहिए,
सम्यक घड़ी
चाहिए, सम्यक
भूमि चाहिए।
तो ही बीज
जीवित हो
उठेगा, रूपांतरित
होगा।
तो
कभी-कभी छोटी
सी चीज काम कर
जाती है।
उदाहरण
के लिए,
लिंची ज्ञान
को प्राप्त
हुआ जब वह
अपने गुरु के
दालान में
बैठा था। गुरु
आया और हंसा।
गुरु ने लिंची
की आंखों में
देखा और ठहाका
मारकर हंस
पडा। लिंची भी
हंसा। गुरु के
चरणों में सिर
रखा और वहां से
विदा हो गया।
लेकिन
वह छह वर्षों
से मौन
प्रतीक्षा
में था। वह
दालान छह
वर्षों तक
उसका घर बना
था। गुरु रोज
आता था और
लिंची को आँख
उठाकर भी नहीं
देखता था। और
वह वहीं रहता
था। दो वर्षों
के बाद उसने
पहली बार उसे
देखा। जब और
दो वर्ष बीते
तो उसने उसकी
पीठ थपथपाई।
और लिंची
प्रतीक्षा
करता रहा,
प्रतीक्षा
करता रहा। छह
वर्ष पूरे
होने पर गुरु
आया और उसकी
आँख में आँख
डालकर जोर से
हंसा।
अवश्य
ही लिंची ने
इस विधि का
अभ्यास किया
होगा।
‘’जब
परम रहस्यमय
उपदेश दिया जा
रहा हो। उसे
श्रवण करो।
अविचल, अपलक
आंखों से;
अविलंब परम
मुक्ति को
उपलब्ध
होओ।‘’
गुरु
ने देखा और
हंसी को अपना
माध्यम
बनाया। वह
महान सदगुरू
था। सच तो यह
है कि शब्द
जरूरी नहीं
थे। मात्र
हंसी से काम
हो गया। अचानक
वह हंसी फूटी
और लिंची के
भीतर कुछ घटित
हो गया। उसने
सिर झुकाया,
वह भी हंसा और
विदा हो गया।
उसने लोगो को
बताया कि मैं
अब नहीं हूं,
कि मैं मुक्त
हो गया।
वह
अब नहीं था,
यही मुक्ति
का अर्थ है।
तुम मुक्त
नहीं होते,
तुम अपने से
मुक्त होते
हो। और लिंची
ने बताया की
यह कैसे हुआ।
वह
छह वर्षों तक
प्रतीक्षा
में रहा। यह
लंबी प्रतीक्षा
थी, धैर्य
पूर्ण
प्रतीक्षा
थी। वह दालान
में बैठा रहता
था। गुरु रोज
ही आता था। और
वह ठीक घड़ी
की प्रतीक्षा करता कि
जब लिंची
तैयार हो तो
वह कुछ करे।
और छह वर्षों तक
प्रतीक्षा
करते-करते तुम
ध्यान में
उतर ही जाओगे।
और क्या
करोगे। लिंची
ने कुछ दिनों
तक पुरानी
बातों को सोचा
विचारा होगा।
लेकिन वह कब
तक चलेगा।
अगर
तुम मन को
रोज-रोज भोजन
न दो तो
धीरे-धीरे मन
ठहर जाता है।
एक ही चीज को
तुम कितने
दिनों तक
बार-बार चबाते
रहोगे। वह
बीती बातों पर
विचार करता रहा।
फिर धीरे-धीरे
नया ईंधन न
मिलने के कारण
उसका मन ठहर
गया। उसे न
पढ़ने की
इजाजत थी, न गपशप
करने की। उसे
घूमने-फिरने
और किसी से
मिलने की भी
मनाही थी। उसे
अपनी शारीरिक
जरूरतों को
पूरा करके
चुपचाप
इंतजार करना
था। दिन आए और
गए; रातें आई
और गई। गर्मी
आई और गई; जाड़ा
आया और गया;
वर्षा आई और
गई। धीरे-धीरे
वह समय की
गिनती भूल
गया। उसे पता
नहीं था कि वह
कहां कितने
दिनों से टिका
था।
और
तब एक दिन
सहसा गुरु आया
और उसने लिंची
की आंखों में झाँका।
लिंची की
आंखें भी सहसा
ठहर गई होगी।
अचल हो गई
होगी। यही
क्षण था। छह
वर्षों की
तपस्या के फल
का। छह वर्ष
लगे इसमें।
उसकी आंखों में
जरा भ गति
नहीं थी। गति
होती तो वह
चूक जाता। सब
कुछ मौन हो
चुका था। और
तब अचानक अट्टहास।
गुरु पागल की
तरह हंसने
लगा। और वह
हंसी लिंची के
अंतर्तम से
सुनी गई होगी।
वहां तक पहुंच
गई होगी।
तो
जब लिंची से
लोगो ने पूछा
कि तुम्हें
क्या हुआ तो
उसने कहा: ‘’जब मेरे
गुरु हंसे सहसा
मुझे प्रतीति
हुई कि सारी
संसार एक मजाक
है। उनकी हंसी
में से संदेश
था: सारा
संसार महज एक
मजाक है, नाटक
है। उस
प्रतीति के
साथ गंभीरता
विदा हो गई।
अगर संसार एक
मजाक है तो फिर
कौन बंधन में
है। और किसे
मुक्त
चाहिए।‘’ लिंची
ने कहा कि, अब
बंधन नहीं रहा।
मैं सोचता था
कि मैं बंधन
में हूं। और इसलिए
मैं बंधन-मुक्त
होने की चेष्टा
करता था गुरु की
हंसी के साथ
बंधन गिर गया।‘’
कभी-कभी
इतनी
छोटी-छोटी
बातों से घटना
घट गई है कि
उसकी तुम कल्पना
भी नहीं कर
सकते। ऐसी अनेक
झेन कहानियां है।
एक झेन गुरु मंदिर
के घंटे की
आवाज सुनकर
संबोधि को
प्राप्त हो
गया। घंटे की
आवाज सुनते-सुनते
उसके भीतर कुछ
चकनाचूर हो गया।
एक झेन साध्वी
पानी की बहँगी
ढो रही थी। और ज्ञान
को प्राप्त
हो गई। एकाएक
बांस टूट गया।
और घड़े फूट
गये। उसकी
आवाज, घड़ों
का फूटना पानी
का बहना, और साध्वी
आत्मोपलब्ध
हो गई। क्या
हुआ।
तुम
बहुत से घड़े
फोड़ दे सकते
हो, और कुछ
नहीं होगा।
लेकिन साध्वी
के लिए ठीक
क्षण आ गया
था। वह पानी
भरकर लौट रही
थी। उसके गुरु
ने कहा था, आज
रात मैं तुम्हें
गुह्म मंत्र
देने वाला
हूं। इसलिए
जाकर स्नान
कर ले और मेरे
लिए दो घड़े
पानी ले आ।
मैं भी स्नान
कर लुंगा। और तब
तुम्हें वह मंत्र
बताऊंगा जिसके
लिए तुम
इंतजार कर रही
थी।‘’ साध्वी
जरूर
आह्लादित हो
उठी होगी कि
सौभाग्य का
क्षण आ गया।
उसने स्नान
किया, घड़े
भरे और उन्हें
लेकिन वापस
चली।
पूर्णिमा
की रात थी। और जब
वह नदी से
आश्रम को जा
रही थी कि राह में
ही बांस टूट
गया। और जब वह
पहुंची तो गुरु
उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा था। गुरु ने
उसे देखा और कहा
कि अब जरूरत न
रही; घटना घट
गई। अब मुझे
कुछ नहीं कहना।
तुमने पा
लिया।
वह
बूढी साध्वी
कहा करती थी
कि बांस के
टूटने के साथ
ही मेरे भीतर
कुछ टूट गया,
मेरे भीतर भी
कुछ मिट गया।
ये दो घड़े क्या
फूटे मेरा
शरीर ही टूट
गिरा। मैने
आकाश में चाँद
को देखा और पाया
कि मेरे भीतर
सब कुछ शांत
हो गया। और तब
से मैं नहीं हूं।
मुक्त या
मोक्ष का यही
अर्थ है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—2
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