मंगलवार, 26 जून 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—33 (ओशो)

देखने के संबंध में चौथी विधि:
‘’बादलों के पार नीलाकाश को देखने से शांति को सौम्‍यता को उपलब्‍ध होओ।‘’    मैंने इतनी बातें इसलिए बताई कि ये विधियां बहुत सरल है। और उन्‍हें प्रयोग करके भी तुम्‍हें कुछ नहीं मिलेगा। और तब तुम कहोगे, ये किस ढंग की विधियां है। तुम कहोगे कि इन विधियों को तो हम अपने आप ही कर सकते है। केवल आकाश को, बादलों के पर नीलाकाश को देखते-देखते कोई शांत हो जाए, आप्‍तकाम हो जाए।
       बादलों के पार नीलाकाश को तुम देखते रह सकते हो, और कुछ भी घटित नहीं होगा। तब तुम कहोगे कि ये कैसी विधियां है। तुम कहोगे कि शिव के मन में जो भी आता है वे बोल देते है; उसमे कोई तर्क या बुद्धि नहीं है। यह कैसी विधि कि बादलों के पार नीलाकाश को देखते-देखते शांति को उपलब्‍ध हो जाओ।

       लेकिन यदि तुम्‍हें मृत्‍यु, अर्थवत्‍ता और सिखावन के तीन सूत्र याद रहें तो यह विधि तुम्‍हें तुरंत भीतर की तरफ मुड़ने में सहायता देगी।
       ‘’बादलों के पार नीलाकाश को देखने मात्र से........।‘’
       इस सूत्र से विचारना नहीं, देखना बुनियादी है। आकाश असीम है; उसका कहीं अंत नहीं है। उसे महज देखो। वहां कोई विषय वस्‍तु नहीं है। यही कारण है कि आकाश चुना गया है। आकाश कोई विषय नहीं है। भाषागत रूप से वह विषय है; लेकिन अस्‍तित्‍व में वि कोई विषय नहीं है। विषय वह है जिसका आरंभ और अंत हो। तुम किसी विषय के चारों और घूम सकते हो; लेकिन आकाश की परिक्रमा नहीं कर सकते। तुम आकाश में ही हो, लेकिन, लेकिन तुम आकाश के चारों और घूम नहीं सकते। तुम आकाश के विषय बन सकते हो। लेकिन आकाश तुम्‍हारा विषय नहीं बन सकता। आकाश में तो तुम झांक सकते हो; उसका कोई अंत नहीं है।
       तो नीले आकाश को देखो। और देखते ही रहो। उसका अंत नहीं है; उसकी कोई सीमा नहीं है। और उसके संबंध में सोच-विचार मत करो। मत कहो कि यह कितना सुंदर है। मत को कि यह कितना मोहक है। उसके रंगों की प्रशंसा मत करो। उससे सोचना शुरू हो जाएगा। और सोचना शुरू करते ही देखना बंद हो जाता है; अब तुम्‍हारी आंखें अनंत आकाश में गति नहीं कर रहीं। इसलिए सिर्फ देखो। अनंत आकाश में गति करो। विचार मत करो। शब्‍द मत बनाओ। शब्‍द बाधा बन जाते है। इसलिए सिर्फ देखो। अनंत आकाश में गति करो। विचार मत करो। शब्‍द मत बनाओ। शब्‍द बाधा बन जाते है। इतना भी मत करो कि यह नीलाकाश है। इसे शब्‍द ही नहीं दो। इसे नीलाकाश का महज दर्शन रहने दो—निर्दोष दर्शन।
        आकाश का कहीं अंत नहीं है। इसलिए तुम्‍हारे देखने का भी अंत नहीं आ सकता। तुम देखते जाओगे। देखते ही जाओगे। और क्‍योंकि वहां कोई विषय नहीं है। मात्र शून्‍य है, इसलिए अचानक तुम अपने प्रति जाग जाओगे। क्‍यो?
       क्‍योंकि शून्‍य में इंद्रियाँ व्‍यर्थ हो जाती है। यदि कोई विषय हो तो इंद्रियाँ की सार्थकता है। अगर तुम किसी फूल को देख रहे हो तो वह किसी विषय को देखना हुआ। फूल है; लेकिन आकाश नहीं है।
       हम किसे आकाश कहते है। उसे जो है नहीं। आकाश का अर्थ जगह या स्‍थान होता है। सभी चीजें आकाश में है। लेकिन आकाश स्‍वयं कोई चीज नहीं है। विषय नहीं है। आकाश शून्‍य है। रिक्‍तता है। खाली स्‍थान है। जिसमें विषय हो सकता है। आकाश स्‍वयं शुद्ध खालीपन है। इस शुद्ध खालीपन को देखो; इस शुद्ध रिक्‍तता को देखो।
       इसलिए सूत्र कहता है कि बादलों के पार नीलाकाश को देखो। बादल आकाश नहीं है; वे आकाश में तैरते हुए विषय है। तुम बादलों को भी देख सकते हो; लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। बादलों को नहीं, चाँद-तारों को भी नहीं , वरन विषय-शून्‍यता को देखना है, विराट रिक्‍तता को देखना है। उसे ही देखो। उससे होगा क्‍या?
       शून्‍य में इंद्रियों के पकड़ने के लिए कोई विषय नहीं है। और जब पकड़ने को, चिपकने को कोई विषय न हो, तो इंद्रियाँ बेकार हो जाती है। और अगर तुम नीलाकाश को बिना सोचे-विचारे देखते ही चले जाओ तो अचानक किसी क्षण तुम्‍हें लगेगा कि सब कुछ विलीन हो गया है। सिर्फ शुन्‍य बचा है। और इस विलीनता में , इस शून्‍य में तुम्‍हें अपना बोध होगा। तुम अपने प्रति जाग जाओगे। रिक्‍तता को देखते-देखते तुम भी रिक्‍त हो जाओगे। क्‍यों? क्‍योंकि तुम्‍हारी आंखें दर्पण की भांति है। उनके सामने जो कुछ भी प्रकट होता है। दर्पण उसे प्रतिबिंबित कर देता है।
       मैं तुम्‍हें देखता हूं; तुम दुःखी हो। और तब सहसा वह दुःख मुझे में  प्रविष्‍ट हो जाता है। अगर कोई दुःखी आदमी तुम्‍हारे कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी दुःखी हो जाते हो। क्‍या हो जाता है? क्‍योंकि तुम्‍हारी आंखें दर्पण की भांति है। इस लिए वि दुःख तुममें प्रतिबिंबित हो जाता है। कोई व्‍यक्‍ति दिल खोलकर हंसता है और अचानक तुम भी हंसी से भर जाते हो।
       लेकिन हुआ क्‍या? तुम दर्पण की तरह हो; तुम चीजों को प्रतिबिंबित करते हो। तुम कोई सुंदर चीज देखते हो; वह चीज तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम कोई कुरूप चीज देखते हो; वह चीज भी तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम जो कुछ भी देखते हो वह तुम्‍हारे भीतर गहरे रूप से प्रविष्‍ट हो जाता है; वह तुम्‍हारी चेतना का हिस्‍सा बन जाता है।
       अगर तुम रिक्‍तता को, शून्‍य को देख रहे हो तो कुछ भी प्रतिबिंबित होने जैसा नहीं है। या है तो सिर्फ अनंत नीलाकाश है। और अगर यह असीम नीलाकाश तुममें प्रतिबिंबित हो जाए, अगर तुम अपने अंतस में उस आकाश को अनुभव कर सको। तो तुम शांत हो जाओगे। सौम्‍य हो जाओगे। आकाश शांत और सौम्‍य है। और अगर तुम शून्‍य को अनुभव कर सको—जहां नीलिमा। आकाश सब कुछ विलीन हो जाता है। तो तुम्‍हारे अंतस में भी वह शून्‍य प्रतिबिंबित होगा। और शून्‍य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? तनावग्रस्‍त कैसे हो सकते हो? शून्‍य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? शून्‍य में मन ठहर जाता है। और मन के विदा होते ही—मन जो तनाव और चिंता है, संगत-असंगत विचारों से भरा है—उसके विदा होते ही तुम शांति को उपलब्‍ध हो जाते हो।
       एक बात और। शून्‍य जब अंतस में प्रतिबिंबित होता है, तो निर्वासना बन जाता है। अचाह बन जाता है। चाह ही तनाव है। चाह करते ही तुम चिंताग्रस्‍त हो जाते हो। तुम्‍हें एक सुंदर स्‍त्री दिखाई पड़ती है। और अचानक कामवासना पैदा हो जाती है। तुम्‍हें एक सुंदर मकान दिखाई पड़ता है और तुम उसे पाना चाहते हो। तुम्‍हारे पास से एक सुंदर कार निकलती है और तुम्‍हें इच्‍छा पकड़ती है कि मैं भी इस कार में बैठकर चलू। बस वासना पैदा हो गई। और वासना के साथ ही मन चिंतित हो उठता है। कि उसे कैसे पाया जाए, क्‍या किया जाए। मन आशावान हो उठता है या निराशा; लेकिन दोनों हालातों में वह सपने देख रहा है। कई बातें हो सकती है।
       जब चाह पैदा होती है तो तुम उपद्रव में पड़ते हो। मन अनेक खंडों में टूट जाता है और अनेक योजनाएं, सपने और प्रक्षेपण शुरू हो जाते है। बस पागलपन शुरू हुआ। चाह पागलपन का बीज है।
       लेकिन शून्‍य कोई विषय नहीं है। वह बस शून्‍य है। तुम शून्‍य को देखते हो तो कोई चाह नहीं पैदा होती। हो नहीं सकती है। तुम शून्‍य पर अधिकार करना नहीं चाहते; न तुम शून्‍य को प्रेम करना चाहते हो। शून्‍य में मन की सब गति रूक जाती है। कोई कामना नहीं उठती। और जहां चाह नहीं है वहीं शांति है। तुम सौम्‍य और शांत हो जाते हो। तुम्‍हारे भीतर सहसा शांति का विस्‍फोट होता है। तुम आकाश वत हो गए।
       दूसरी बात कि तुम जिस चीज का भी मनन चिंतन करते हो, तुम उसके जैसे ही हो जाते हो। तुम वहीं हो जाते हो। क्‍योंकि मन अनंत रूप धारण कर सकता है। तुम जो भी चाहते हो, मन उसके ही रूप ले लेता है; तुम वही बन जाते हो। जो आदमी धन-दौलत के पीछे भागता है, उसका मन धन-दौलत ही बन जाता है। उसे हिलाओ तुम उसके भीतर रुपयों की झनझनाहट सुनोंगे। और कुछ नहीं सुनोंगे। तुम जो भी चाहते हो तुम वहीं हो जाते हो। इसलिए अपनी चाह के प्रति सावधान रहो; क्‍योंकि तुम वही हो जाते हो।
       आकाश सर्वथा रिक्‍त है, खाली है। उससे ज्‍यादा रिक्‍त और क्‍या हो सकता है। और वह दूसरे तुम्‍हारे बिलकुल निकट है। उसके लिए कुछ खर्चा करना की भी जरूरत नहीं है। और उसे पाने के लिए तुम्‍हें हिमालय या तिब्‍बत या कहीं भी नहीं जाना है। विज्ञान ने, टेक्नोलॉजी ने सब कुछ नष्‍ट कर दिया है। लेकिन आकाश बचा हुआ है। तुम उसका उपयोग कर सकते हो। इसके पहले कि वे उसे नष्‍ट कर दें। तुम उसका उपयोग कर लो। किसी भी दिन वे उसे नष्‍ट कर देंगे।
       उसे देखो, उसमे प्रवेश करो। उसमें गहरे डुबो। लेकिन याद रहे, यह देखना निर्विचार देखना हो। तब तुम अपने अंतस में उसी आकाश को अनुभव करोगे। उसी आयाम को अनुभव करोगे। तब वह विराट, वहीं नीलिमा, वही शून्‍य तुम्हारे भीतर होगा।
       यही कारण है कि शिव कहते है: ‘’बादलों के पार नीलाकाश को देखने मात्र से शांति को, सौम्‍यता को उपलब्‍ध होओ।‘’
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—23

1 टिप्पणी: