प्यारे
ओशो,
मैं
तुम्हें
प्राण के तीन कायापलट
के नाम बताता
हूं : कैसे
प्राण ऊंट बनेगा
और ऊंट शेर
बनेगा और शेर
अंतत: एक शिशु।
बहुत
सी भारी
वस्तुएं हैं
प्राण के लिए
मजबूत भारवाही
प्राण के लिए
जिसमें
सम्मान और
विस्मयविमुग्धता
का वास है :
उसकी मजबूती
भारी की अभीप्सा
करती है
सर्वाधिक
भारी की। क्या
है भारी? इस
प्रकार
भारवाही
प्राण पूछता
है इस प्रकार वह
ऊंट की तरह
घुटने टेकता
है और चाहता
है भलीभांति
लदना
भारवाही
प्राण अपने
ऊपर ये
सर्वाधिक
भारी वस्तुएं
ले लेता है :
जैसे कोई लदा
हुआ ऊंट
रेगिस्तान
में जल्दी—
जल्दी चला जा
रहा हो इस
प्रकार वह
अपने रोगिस्तान
में जल्दी—
जल्दी चलता
लेकिन
एकांततम
रेगिस्तान
में दूसरा
कायापलट घटता
है : यहां
प्राण शेर बन
जाता है; वह
स्वतंत्रता
को वश में
करना और अपने
ही रेगिस्तान
में मालिक
बनना चाहता है।
यहां वह अपने
परम मालिक को
खोजता है : यह
उसका और अपने
ईश्वर का
शत्रु होगा यह
विजय के लिए
महा दैत्य से
संघर्ष करेगा।
यह
महा दैत्य
क्या है जिसे
प्राण अब और
आगे मालिक तथा
ईश्वर नहीं
कहना चाहता? यह
महा दैत्य 'तुम्हें
चाहिए' कहलाता
है। लेकिन शेर
का प्राण कहता
है 'मैं
करूंगा'
मेरे
बंधुओ शेर की
जरूरत क्या है
प्राण में? क्यों
लद्द्दू जानवर
प्राप्त
नहीं है,
जो त्याग करता
है और
श्रद्धालु है?
नये
मूल्य
निर्मित करने
के लिए — शेर भी
असमर्थ है उसके
लिऐ: लेकिन नये
निर्माण हेतु
अपने लिए
स्वतंत्रता
निर्मित करने
के लिए — वह शेर
की शक्ति कर
सकता है।
अपने
लिए
स्वतंत्रता
और कर्तव्य के
प्रति भी एक पवित्र
नहीं निर्मित
करने: उसके लिए
शेर की जरूरत
है मेरे
बंधुओ।
नये
मूल्यों का
अधिकार झपट
लेना — वही
भारवाही और
श्रद्धाल
प्राण के लिए
सर्वाधिक
भयानक
कार्रवाई है।....
लेकिन
मुझे बताओ
मेरे बंधुओ
शिशु क्या कर
सकता है जिसे शेर
भी नहीं कर
सकता? शिकारी
शेर को अभी भी
शिशु बनना
क्यों आवश्यक
है? शिशु
निदाषिता है
और भुलक्कड़पन
एक नया प्रारंभ
एक खेल एक
आत्म— चालित
चक्र प्रथम
गति एक पवित्र
हां।
हां
एक पवित्र हां
की जरूरत है
मेरे बंधुओ
निर्माण के
खेल के लिए :
प्राण अब अपने
ही संकल्प का
संकल्प करता
है दुनिया से
पृथक हो चला
प्राण अब अपनी
ही दुनिया की
विजय करता है।
मैने
तुमसे प्राण
के तीन
कायापलट कहे :
कैसे प्राण
ऊंट बना और
ऊंट शेर बना
और शेर अंतत:
एक शिशु।
.......ऐसा
जरथुस्त्र
ने कहा।
जरथुस्त्र
विनम्रता के
शिक्षक नहीं
हैं,
क्योंकि
विनम्रता की
सारी
शिक्षाएं
असफल रही हैं।
वह मनुष्य की
गरिमा की
शिक्षा देते
हैं। वह
मनुष्य के
गौरव की
शिक्षा देते
हैं और वह शक्तिशाली
मानव की
सिखावन देते
हैं, कमजोर,
गरीब और
निरीह मानव की
नहीं। उन
शिक्षाओं ने
मानवता को ऊंट
के स्तर पर
बनाए रखने में
मदद की है।
जरथुस्त्र
चाहते हैं कि
तुम कायापलट
से गुजरो। ऊंट
को एक शेर में
परिवर्तित
होना है, और
उन्होंने
सुंदर प्रतीक
चुने हैं, बहुत
अर्थपूर्ण और
महत्वपूर्ण।
ऊंट
संभवत: पूरे
अस्तित्व में
सर्वाधिक
कुरूप जानवर
है। तुम उसकी
कुरूपता में
कुछ और जोड़
नहीं सकते।
तुम और अधिक
क्या जोड़ सकते
हो?
वह ऐसा टेढ़ा—मेढ़ा
है। ऐसा लगता
है जैसे कि वह
सीधे नर्क से
चला आ रहा है।
निम्नतम
चेतना के रूप
में ऊंट को
चुनना बिलकुल
ठीक है।
मनुष्य में
निम्नतम
चेतना अंग—
भंग है; वह
चाहती है कि
गुलाम बनायी
जाए। वह
स्वतंत्रता
से भयभीत है
क्योंकि वह
उत्तरदायित्व
से भयभीत है।
वह तैयार है
कि उस पर
जितना बोझ
संभव हो लाद
दिया जाए।
लादे जाने में
वह प्रसन्न
होता है; ऐसे
ही निम्नतम
चेतना
प्रसन्न होती
है — उधार
ज्ञान से लादे
जाने में। कोई
भी गरिमाशील
व्यक्ति
स्वयं को उधार
ज्ञान से लादे
जाने की
अनुमति नहीं
देगा। वह उस
नैतिकता से
लदी हुई है जो
मृतकों
द्वारा
जीवितों को
हस्तांतरित
की गयी है; यह
जीवितों पर
मृतकों का
हावी होना है।
कोई भी गरिमा
वाला व्यक्ति
अपने ऊपर
मृतकों को
शासन करने की
इजाजत नहीं
देगा।
मनुष्य
की निम्नतम
चेतना
अज्ञानी और
अचेतन, असजग,
गहन निद्रा
में रही आती
है — क्योंकि
इसे विश्वास
करने का, श्रद्धा
रखने का, कभी
संदेह न करने
का, कभी भी
नहीं न कहने
का जहर लगातार
दिया जा रहा है।
और कोई मनुष्य
जो ना नहीं कह
सकता उसने
अपनी गरिमा खो
दी। और जो
मनुष्य ना
नहीं कह सकता,
उसके हौ का
कोई अर्थ नहीं
है। क्या तुम
इसमें निहित
अर्थ को देखते
हो? हा का
अर्थ केवल
उसके बाद ही
है यदि तुम ना
कहने में
समर्थ हो। यदि
तुम ना कहने
में समर्थ
नहीं हो, तो
तुम्हारा ही
नपुंसक है, उसका कुछ
अर्थ नहीं।
इसीलिए
ऊंट को एक
सुंदर शेर के
रूप में बदलना
ही होता है, जो
मर जाने को
तैयार है
लेकिन गुलाम
बनाए जाने को
नहीं। तुम एक
शेर को लद्दू
जानवर नहीं
बना सकते। शेर
के पास एक
गरिमा होती है
जिसका दावा
कोई भी दूसरा
जानवर नहीं कर
सकता; उसके
पास कोई खजाने
नहीं हैं, कोई
राज्य नहीं है,
उसकी गरिमा
बस उसके होने
के ढंग में है —
निर्भीक, अज्ञात
से निर्भय, मौत की कीमत
पर भी ना कहने
को तैयार।
ना
कहने की यह
तैयारी, यह
विद्रोहीपन
उसे उस समस्त
धूल से स्वच्छ
कर देता है जो
ऊंट छोड़ गया
है — सभी निशान
व पदचिह्न जो
ऊंट छोड़ गया
है।
और
केवल शेर के
बाद ही — महान
ना के बाद ही —
एक बच्चे की
पवित्र ही
संभव है।
बच्चा
हां इसलिए
नहीं कहता है
क्योंकि वह
भयभीत है। वह
हां कहता है
क्योंकि वह
प्रेम करता
है। क्योंकि
वह भरोसा करता
है। हां कहता
है क्योंकि
वि निदो्रष हे;
उसके खायाल
में भी आ सकता कि
उसे धोखा दिया
जा सकता है।
उसकी ही एक
विशाल भरोसा
है। वह भयवश
नहीं है, वह
गहन
निर्दोषता के
कारण है। केवल
यह ही उसे
चेतना के परम
शिखरों पर ले
जा सकती है, जिसे मैं
भगवत्ता कहता
हूं।
बहुत
सी भारी
वस्तुएं हैं
प्राण के लिए
मजबूत, भारवाही
प्राण के लिए
जिसमें
सम्मान और
विस्मयविमुग्धता
का वास है :
उसकी मजबूती
भारी की अभीप्सा
करती है, सर्वाधिक
भारी की।
क्या
है भारी? इस
प्रकार
भारवाही
प्राण पूछता
है इस प्रकार वह
ऊंट की तरह
घुटने टेकता
है और चाहता
है भलीभांति
लदना। ऊंट के
लिए निम्नतम
प्रकार की
चेतना के लिए
एक
अंतर्निहित
कामना है
झुकने की और
जितना ज्यादा
संभव हो उतने
बोझ से लदने
की।
सबसे
भारी चीज क्या
है बहादुरो? इस
प्रकार
भारवाही
प्राण स्यता
है: कि उसे मैं
अपने ऊपर ले
सकूं और अपनी
शक्ति का आनंद
मना सकूं लेकिन
मजबूत मनुष्य
के लिए
तुम्हारे
भीतर के शेर
के लिए सबसे
भारी एक अलग
ही अर्थ और एक
अलग ही आयाम
लेता है — कि
उसे मैं अपने
ऊपर ले सकूं
और अपनी शक्ति
का आनंद मना
सकूं। उसका
एकमात्र आनंद
उसकी शक्ति है।
ऊंट का आनंद
केवल
आज्ञाकारी
होने में, सेवा
करने में, गुलाम
होने में है।
भारवाही
प्राण अपने
ऊपर ये
सर्वाधिक
भारी वस्तुएं
ले लेता है :
जैसे कोई लदा
हुआ ऊंट
रेगिस्तान
में जल्दी—
जल्दी चला जा
रहा हो, इस
प्रकार वह
अपने
रेगिस्तान
में जल्दी—
जल्दी चलता है।
लेकिन
एकांततम
रेगिस्तान
में दूसरा
कायापलट घटता
है : यहां
प्राण शेर बन
जाता है। ऐसे
क्षण होते हैं
— ऐसे लोगों के
जीवन में भी
जो अंधकार और
मूर्च्छा में
टटोल रहे होते
हैं — जब बिजली
की कौंध की
तरह कोई घटना
उन्हें जगा
देती है और
ऊंट ऊंट नहीं
रह जाता है — एक
कायापलट, एक
रूपांतरण घट
जाता है।
ऊंट
बदल चुका है
शेर में।
कायापलट घटित
हो चुका है।
कोई भी चीज
इसका
सूत्रपात कर
सकती है, लेकिन
व्यक्ति के
पास
बुद्धिमत्ता
चाहिए।
यहां
वह अपने परम
मालिक को
खोजता है : यह उसका
और अपने ईश्वर
का शदृ होगा....
अब
उसकी खोज अपनी
परम भवगत्ता
के लिए है।
कोई अन्य
ईश्वर उसके
लिए शत्रु
होगा। वह किसी
अन्य ईश्वर के
सामने झुकने
वाला नहीं है, वह
अपना मालिक आप
होने जा रहा
है।
यही
शेर का प्राण
है — निश्चित
ही परम
स्वतंत्रता
का अर्थ होता
है ईश्वर से
स्वतंत्रता, तथाकथित
ईश्वरीय
आदेशों से
स्वतंत्रता, धर्मशास्त्रों
से
स्वतंत्रता, दूसरों
द्वारा तुम पर
आरोपित किसी
भी प्रकार की
नैतिकता से
स्वतंत्रता।
निश्चित
ही सद्गुण
उत्पन्न होगा, लेकिन
वह कुछ ऐसी
बात होगा जो
तुम्हारी
अपनी ही नीरव,
नन्ही आवाज
से उठ रहा
होगा।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
उत्तरदायित्व
लाएगी, लेकिन
वह
उत्तरदायित्व
किसी अन्य
द्वारा तुम पर
थोपा नहीं गया
होगा।.... यह
विजय के लिए
महा दैत्य से
संघर्ष करेगा
यह
महा दैत्य
क्या है जिसे
प्राण अब और
आगे मालिक तथा
ईश्वर नहीं
कहना चाहता? यह
महा दैत्य 'तुम्हें
चाहिए' कहलाता
है। लेकिन शेर
का प्राण कहता
है 'मैं
करूंगा'!
अब
किसी अन्य
द्वारा उसे
आज्ञा दिये
जाने का सवाल
ही नहीं है।
ईश्वर भी अब
कोई ऐसा न रहा
जिसकी आज्ञा
का उसे पालन
करना है।
जरथुस्त्र
का कहीं एक
महान कथन है : ''ईश्वर
मर चुका है और
मनुष्य पहली
बार स्वतंत्र
है। '' ईश्वर
के रहते, मनुष्य
कभी भी
स्वतंत्र
नहीं हो सकता।
वह राजनैतिक
रूप से
स्वतंत्र हो
सकता है, वह
आर्थिक रूप से
स्वतंत्र हो
सकता है, वह
सामाजिक रूप
से स्वतंत्र
हो सकता है, लेकिन
आध्यात्मिक
रूप से वह
गुलाम ही बना
रहेगा और वह
एक कठपुतली भर
बना रहेगा।
यह
अवधारणा
मात्र कि
ईश्वर ने
मनुष्य को
बनाया
स्वतंत्रता
की सारी
संभावनाओं को
नष्ट कर देती
है। यदि उसने
तुम्हें
बनाया है, वह
तुम्हें मिटा
सकता है। उसने
तुम्हें जोड़ा
है, वह
तुम्हें अलग—अलग
कर सकता है।
यदि वह सर्जक
है, तो
उसके पास
विध्वंसक
होने की समस्त
संभावनाएं व
क्षमताएं हैं।
तुम उसे रोक
नहीं सकते।
तुम उसे
तुम्हें
बनाने से नहीं
रोक सके, कैसे
तुम उसे
तुम्हें नष्ट
करने से रोक
सकोगे? यही
कारण है कि
गौतम बुद्ध, महावीर, जरथुस्त्र,
दुनिया के
इन तीन महान
द्रष्टाओं ने
ईश्वर की सत्ता
से इनकार कर
दिया है।
तुम
चकित होओगे।
ईश्वर को
इनकार करने का
उनका तर्क
अनोखा तर्क है, लेकिन
बड़ा
अर्थपूर्ण।
वे कहते हैं, 'जब तक ईश्वर
है, मनुष्य
के सम्पूर्ण
स्वतंत्र
होने की संभावना
नहीं रह जाती।'
मनुष्य
की
स्वतंत्रता, उसकी
आध्यात्मिक
गरिमा ईश्वर
के न होने पर
निर्भर है।
यदि ईश्वर है,
तो मनुष्य
ऊंट ही बना
रहेगा, मृत
मूर्तियों की
पूजा करता हुआ,
किसी ऐसे की
पूजा करता हुआ
जिसे उसने
जाना नहीं है,
कोई ऐसा
जिसे कभी भी
किसी ने नहीं
जाना है — बस एक
शुद्ध
परिकल्पना।
तुम एक
परिकल्पना की
पूजा कर रहे
हो। तुम्हारे
सारे मंदिर और
गिरजाघर और
सिनागॉग और
कुछ नहीं बस
एक ऐसी
परिकल्पना के
सम्मान में
उठाए गये
स्मारक हैं जो
नितात असिद्ध
है, बिना
किसी प्रमाण
की है।
संसार
को निर्मित
करने वाले एक
व्यक्ति के
रूप में ईश्वर
के लिए कोई
तर्क नहीं है।
जरथुस्त्र
बड़ी कठोर भाषा
का उपयोग करते
हैं। वह कठोर
भाषा वाले
व्यक्ति हैं।
समस्त सच्चे सदा
ही कठोर भाषा
वाले लोग रहे
हैं। ईश्वर को
जरथुस्त्र ''महा
दैत्य (ग्रेट
ड्रैगन ) '' कहते
हैं।
यह
महा दैत्य
क्या है जिसे
प्राण अब और
आगे मालिक तथा
ईश्वर नहीं
कहना चाहता? यह
महा दैत्य 'तुम्हें
चाहिए' कहलाता
है समस्त
धार्मिक ग्रंथ
इन दो शब्दों
में समाए हुए
हैं. 'तुम्हें
चाहिए। ' तुम्हें
यह करना चाहिए
और यह नहीं
करना चाहिए।
तुम यह चुनने
के लिए
स्वतंत्र
नहीं हो कि
सही क्या है।
यह आनेवाले
समस्त भविष्य
के लिए उन
लोगों द्वारा
तय किया जा
चुका है जो
हजारों
वर्षों से मृत
हैं कि सही क्या
है और गलत
क्या है।
व्यक्ति
जिसके पास
विद्रोही
प्राण है — और
विद्रोही
प्राण के बिना
कायापलट नहीं
घट सकता — उसे
कहना ही है :
नहीं, मैं
करूंगा! मैं
वही करूंगा जो
मेरी चेतना
समझती है कि
ठीक है, और
मैं वह न
करूंगा जो
मेरी चेतना को
लगता है कि
गलत है। मेरी
अपनी
अंतरात्मा के
अलावा मेरे
लिए अन्य कोई
पथप्रदर्शक
नहीं है। अपनी
ही आखों के
अलावा मैं
किसी अन्य की
आखों में
विश्वास करने
वाला नहीं हूं।
मैं अंधा नहीं
हूं और मैं
मूर्ख भी नहीं
हूं। मैं देख
सकता है। मैं
सोच सकता हूं।
मैं ध्यान कर
सकता हूं और
मैं यह पता
लगा सकता हूं
कि क्या सही
है और क्या
गलत है। मेरी
नैतिकता बस
मेरे चैतन्य
की छाया होगी।
सारे मूल्य
पहले ही
निर्मित किये
जा चुके है: और
समस्त
निर्मित
मूल्य —
मुझमें हैं।
सच में, आगे
और 'मैं
करूंगा' नहीं
होना चाहिए।
इस प्रकार महा
दैत्य बोलता
है।
समस्त
धर्म, समस्त
धर्म—प्रमुख
महा दैत्य में
सम्मिलित हैं।
वे सब के सब
कहते हैं, समस्त
मूल्य
निर्मित हो
चुके हैं, अब
तुम्हें और तय
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। हर
चीज तुम्हारे
लिए तुमसे
अधिक
बुद्धिमान लोगों
द्वारा तय की
जा चुकी है। 'मैं करूंगा'
की कोई
आवश्यकता
नहीं है।
लेकिन
'मैं करूंगा'
के बगैर
स्वतंत्रता
नहीं है। तुम
एक ऊंट ही रह
जाते हो, और
वही सारे
निहित
स्वार्थ —
धार्मिक, राजनैतिक
और सामाजिक —
चाहते है कि
तुम होओ; बस
ऊंट; कुरूप
गरिमारहित, महिमारहित,
आत्मारहित,
बस सेवा
करने को तैयार,
गुलाम होने
को बहुत तत्पर।
स्वतंत्रता
का खयाल मात्र
उनमें पैदा
नहीं हुआ है।
और ये
दार्शनिक
वक्तव्य नहीं
हैं। ये सत्य
हैं।
क्या
स्वतंत्रता
का खयाल कभी
भी हिंदुओं को, ईसाइयों
को, अथवा
बौद्धों को, अथवा
मुसलमानों को
हुआ है? नहीं।
वे सब के सब एक
स्वर से कहते
हैं : 'सब
कुछ पहले से
ही तय किया जा
चुका है। हमें
तो बस उसका
अनुसरण करना
है। और जो
अनुसरण करते
हैं वे
पुण्यात्मा
हैं, जो
अनुसरण नहीं
करते वे अनंत
काल के लिए
नरकाग्नि में
पड़ेंगे। '
मेरे
बंधुओ शेर की
जरूरत क्या है
प्राण में? क्यों
लद्दू जानवर
पर्याप्त
नहीं है जो
त्याग करता है
और श्रद्धालु
है?
जरथुस्त्र
कह रहे हैं कि
तुम्हारे
तथाकथित संत
कुछ भी नहीं
हैं सिवाय एक
पूर्ण ऊंट के।
वे मृत
परंपराओं को, मृत
धारणाओं को, मृत
धर्मग्रंथों
को, मृत
ईश्वरों को हौ
कह चुके हैं, और क्योंकि
वे पूर्ण ऊंट
हैं, अपूर्ण
ऊंट उनकी पूजा
करते हैं।
स्वभावत:।
नये
मूल्य
निर्मित करने
के लिए — शेर भी
असमर्थ है
उसके लिए; लेकिन
नये निर्माण
हेतु अपने लिए
स्वतंत्रता
निर्मित करने
के लिए — वह शेर
की शक्ति कर
सकती है। शेर
स्वयं नये
मूल्य
निर्मित नहीं
कर सकता लेकिन
वह
स्वतंत्रता
निर्मित कर
सकता है, अवसर,
जिसमें नये
मूल्य निर्मित
किये जा सकते
है।
और, क्या
हैं नये मूल्य?
उदाहरण
के लिए नया
मनुष्य
मनुष्य—मनुष्य
के बीच किसी
भेदभाव में
विश्वास नहीं रख
सकता। वह एक
नया मूल्य
होगा : समस्त
मनुष्य एक हैं, अपने
रंग के बावजूद,
अपनी जाति
के बावजूद, अपने भूगोल
के बावजूद, अपने इतिहास
के बावजूद। बस
मनुष्य होना
भर पर्याप्त
है।
नया
मूल्य होना
चाहिए :
राष्ट्रों की
कतई जरूरत
नहीं है
क्योंकि वे ही
सब युद्धों के
कारण रहे हैं।
संगठित
धर्म नहीं
होने चाहिए
व्योंकि वे
निजी खोज से
वंचित करते
रहे हैं। वे
लोगों को
तैयार का सत्य
दिये ही चले
जाते हैं — और
सत्य खिलौना
नहीं है, तुम
उसे बना—बनाया
नहीं प्राप्त
कर सकते। कोई
कारखाना नहीं
है जहा उसका
उत्पादन किया
जाता हो और
कोई बाजार
नहीं है जहां
वह उपलब्ध हो।
तुम्हें उसको
अपने ही हृदय
की गहनतम
गहराइयों में
खोजना पड़ेगा।
और तुम्हारे
अलावा अन्य
कोई वहा जा
नहीं सकता।
धर्म
निजी घटना है —
यह एक नया
मूल्य है।
राष्ट्र
कुरूपताएं
हैं,
धार्मिक
संगठन
अधार्मिक हैं,
गिरजाघर और
मंदिर और
सिनागॉग और
गुरुद्वारे हास्यास्पद
बातें हैं।
सारा
अस्तित्व
पवित्र है।
सारा
अस्तित्व ही
मंदिर है। और
जहां कहीं भी
तुम
मौनपूर्वक, ध्यानपूर्वक,
प्रेमपूर्वक
बैठते हो वहीं
तुम अपने
आसपास चेतना
का एक मंदिर
निर्मित करते
हो। पूजा करने
के लिए
तुम्हें कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है
क्योंकि
तुम्हारे
चैतन्य से
ऊंचा कोई नहीं
है जिसके
प्रति तुम
किसी पूजा के
आभारी हो।
अपने
लिए
स्वतंत्रता
और कर्तव्य के
प्रति भी एक
पवित्र नहीं
निर्मित करने
: उसके लिए शेर
की जरूरत है
मेरे बंधुओ
तुम्हें
लगातार कहा
गया है कि
कर्तव्य एक
महान मूल्य है।
दरअसल, यह एक
चार अक्षरों
वाला
(अश्लील )
गंदा शब्द है।
यदि तुम अपनी
पत्नी को
प्रेम करते हो
क्योंकि यह
तुम्हारा
कर्तव्य है, तो तुम अपनी
पत्नी को
प्रेम नहीं
करते।
यदि
तुम अपनी मा
को प्रेम नहीं
करते।
कर्तव्य उस
सबको नष्ट कर
देता है जो भी
मनुष्य में
सुंदर है — प्रेम
करुणा, उल्लास।
लोग हंसते तक
इसलिए हैं
क्योंकि यह
उनका कर्तव्य
है।
जरथुस्त्र
सही हैं:
अपने
लिए
स्वतंत्रता
और कर्तव्य के
प्रति भी एक
पवित्र नहीं
निर्मित करने
: उसके लिए शेर
की जरूरत है
मेरे बंधुओ।
नये मूल्यों
का अधिकार झपट
लेना — वही
भारवाही और
श्रद्धालु
प्राण के लिए
सर्वाधिक
भयानक
कार्रवाई है।
कभी
उसने इस 'तुम्हें
चाहिए' को
अपनी
पवित्रतम वस्तु
की तरह प्रेम
किया था : अब
उसे पवित्रतम
में भी भ्रम
और सनक खोजना
है ताकि वह
अपने प्रेम में
से
स्वतंत्रता
चुरा ले : इस
चोरी के लिए
शेर की जरूरत
है।
लेकिन
मुझे बताओ
मेरे बंधुओ
शिशु क्या कर
सकता है जिसे
शेर भी नहीं
कर सकता? शिकारी
शेर को अभी भी
शिशु बनना क्यों
आवश्यक है?
शिशु
निदाषिता है
और भुलक्कड़पन
एक नया प्रारंभ
एक खेल एक
आत्म— चालित
चक्र प्रथम
गति एक पवित्र
हां।
हां:
एक पवित्र हां
की जरूरत है
मेरे बंधुओ निर्माण
के खेल के लिए :
प्राण अब अपने
ही सं कल्प का
संकल्प करता
है दुनिया से
पृथक हो चला
प्राण अब अपनी
ही दुनिया की
विजय करता है।
मैने
तुमसे प्राण
के तीन
कायापलट कहे :
कैसे प्राण
ऊंट बना और
ऊंट शेर बना
और शेर अंतत:
एक शिशु।
जहां
तक चेतना का
संबंध है, शिशु
विकास का
सर्वोच्च
शिखर है।
लेकिन शिशु
केवल एक
प्रतीक है; इसका यह
अर्थ नहीं है
कि बच्चे
अस्तित्व की सर्वोच्च
दशा हैं। शिशु
का उपयोग
प्रतीकात्मक
रूप में किया
गया है
क्योंकि वह
ज्ञानी नहीं
होता। वह
निर्दोष है, और क्योंकि
वह निर्दोष है
इसलिए
विस्मयबोध से
भरा हुआ है, और क्योंकि
उसकी आखें
विस्मयबोध से
भरी हुई हैं
उसकी आत्मा
रहस्यमय की
अभीप्सा करती
है। शिशु एक प्रारंभ
है? एक खेल;
और जीवन सदा
एक प्रारंभ ही
होना चाहिए और
सदा ही एक
खिलवाड़; सदा
ही एक हास्य
और गंभीरता
कभी भी नहीं।
...
प्रथम गति
एक पवित्र हां।
खं एक पवित्र
हां की जरूरत
है.. लेकिन
पवित्र हा
केवल पवित्र
ना के बाद ही आ
सकती है। ऊंट
भी ही कहता है
लेकिन वह एक
गुलाम की हौ
है। वह ना कह
नहीं सकता।
उसकी हा
निरर्थक है।
शेर
ना कहता है, लेकिन
वह हा नहीं कह
सकता। वह उसके
स्वभाव के ही
विपरीत है। वह
उसे ऊंट की
याद दिलाता है।
किसी भाति
उसने स्वयं को
ऊंट से मुक्त
किया है और हौ
कहना स्वभावत:
उसे फिर यह याद
दिलाता है —
ऊंट के हा और
उसकी गुलामी
की। नहीं, ऊंट
में छिपा
जानवर ना कहने
में असमर्थ है, शेर में वह
ना: कहने में
समर्थ है
लेकिन हां
कहने में
असमर्थ।
शिशु
को न कुछ ऊंट
का पता, न कुछ
शेर का पता।
यही कारण है
कि जरथुस्त्र
कहते हैं : ''शिशु
निदाषिता और
भुलक्कड़पन
है... '' उसकी
ही शुद्ध है
और ना कहने की
भी उसकी पूरी
सामर्थ्य है।
यदि वह कहता
नहीं, तो
कारण इतना ही
है कि वह
भरोसा करता है,
नहीं कि वह
भयभीत है; भयवश
नहीं बल्कि
भरोसावश। और
जब ही भरोसे
से निकलती है,
तो वह
महानतम
कायापलट है, महानतम
रूपातरण है
जिसकी कोई
उम्मीद कर
सकता है।
ये
तीनों प्रतीक
सुंदर हैं
स्मरण के लिए।
स्मरण रखो कि
तुम वहीं हो
जहा ऊंट है, और
स्मरण रखो कि
तुम्हें शेर
होने की दिशा
में गति करना
है, और
स्मरण रखो कि
तुम्हें शेर
पर रुक नहीं
जाना है।
तुम्हें और भी
आगे चलना है, एक नये प्रारंभ
तक, निदाषिता
तक और पवित्र
हा तक; एक
शिशु तक।
सच्चा
संत फिर से
शिशु हो जाता
है।
..........ऐसा
जरथुस्त्र ने
कहा
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