दिनांक
1 जनवरी, 1975
श्री
रजनीश आश्रम,पूना।
योगसूत्र:
वितर्कविचारानदास्मितानुगमात्सप्रज्ञातः।।
१७।।
सप्रज्ञातसमाधि
वहसमाधिहैजोवितर्क, विचार,
आनंद और
अस्मिता के
भावसेयुक्तहोतीहै।
विरामप्रत्ययाथ्यासपूर्व:
संस्कारशेषोऽन्य
:।। १८।।
असंप्रज्ञात
समाधि में
सारी मानसिक
क्रिया की
समाप्ति होती
है और मन केवल
अप्रकट
संस्कारों को
धारण किये
रहता है।
भवप्रत्ययो
विदेहप्रकृतिलयानाम्।।
११।।
विदेहियो
और
प्रकृतिलयों
को
असंप्रज्ञात
समाधि उपलब्ध
होती है
क्योंकि अपने
पिछले जम्प
में उन्होंने
अपने शरीरों
के साथ
तादात्थ बनाना
समाप्त कर
दिया था। वे
फिर जन्म लेते
हैं क्योंकि
इच्छा के बीज
बने रहते हैं।
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिपूर्वकइतरेषाम्।।
२०।।
दूसरे
जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते हैंवे
श्रद्धा, वीर्य
(प्रयत्न), स्मृति,
समाधि
(एकापता) और
प्रज्ञा
(विवेक) के
द्वारा उपलब्ध
होते हैं।
पतंजलि
सबसे बड़े
वैज्ञानिक
हैं अंतर्जगत
के। उनकी
पहुंच एक
वैज्ञानिक मन
की है। वे कोई
कवि नहीं है।
और इस ढंग से
वे बहुत बिरले
हैं। क्योंकि
जो लोग
अंतर्जगत में
प्रवेश करते
हैं, प्राय:
सदा कवि ही
होते हैं। जो
बहिर्जगत में
प्रवेश करते
हैं, अक्सर
हमेशा
वैज्ञानिक
होते हैं।
पतंजलि
एक दुर्लभ पुष्प
हैं। उनके पास
वैज्ञानिक
मस्तिष्क है, लेकिन
उनकी यात्रा
भीतरी है।
इसीलिए वे
पहले और अंतिम
वचन बन गये।
वे ही आरंभ
हैं और वे ही
अंत हैं। पांच
हजार वर्षों
में कोई उनसे
ज्यादा उन्नत नहीं
हो सका। लगता
है कि उनसे
ज्यादा उन्नत
हुआ ही नहीं
जा सकता। वे
अंतिम वचन ही
रहेंगे।
क्योंकि यह
जोड़ ही असंभव
है।
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
रखना और आंतरिक
जगत में
प्रवेश करना
करीब—करीब
असंभव
संभावना है।
वे एक गणितज्ञ,
एक
तर्कशास्री
की भांति बात
करते हैं। वे
अरस्तु की
भांति बात
करते हैं और
वे हैं
हेराक्लतु जैसे
रहस्पदर्शी।
उनके
एक—एक शब्द को
समझने की
कोशिश करो। यह
कठिन होगा। यह
कठिन होगा
क्योंकि उनकी
शब्दावली
तर्क की, विवेचन
की है, पर
उनका संकेत
प्रेम की ओर, मस्ती की ओर,
परमात्मा
की ओर है।
उनकी
शब्दावली उस
व्यक्ति की है
जो वैज्ञानिक
प्रयोगशाला
में काम करता
है, लेकिन
उनकी
प्रयोगशाला आंतरिक
अस्तित्व की
है। अत: उनकी
शब्दावली
द्वारा
भ्रमित न होओ,
और यह अनुभूति
बनाये रहो कि
वे परम काव्य
के गणितज्ञ
हैं। वे स्वयं
एक विरोधाभास
हैं, लेकिन
वे
विरोधाभासी
भाषा हरगिज प्रयुक्त
नहीं करते। कर
नहीं सकते। वे
बड़ी मजबूत
तर्कसंगत पृष्ठभूमि
बनाये रहते
हैं। वे
विश्लेषण
करते, विच्छेदन
करते, पर
उनका
उद्देश्य
संश्लेषण है।
वे केवल
संश्लेषण
करने को ही
विश्लेषण
करते हैं।
तो
हमेशा ध्यान
रखना कि ध्येय
तो है परम
सत्य तक
पहुंचना, केवल
मार्ग ही है वैज्ञानिक।
इसलिए मार्ग
द्वारा
दिग्भ्रमित
मत होना।
इसलिए पतंजलि
ने पश्चिमी मन
को बहुत
ज्यादा
प्रभावित
किया है।
पतंजलि सदैव
एक प्रभाव बने
रहे हैं। जहां
कहीं उनका नाम
पहुंचा है, वे प्रभाव
बने रहे
क्योंकि तुम
उन्हें आसानी से
समझ सकते हो।
लेकिन उन्हें
समझना ही
पर्याप्त
नहीं है।
उन्हें समझना
उतना ही आसान
है जितना कि
आइंस्टीन को
समझना। वे
बुद्धि से
बातें करते
हैं, पर
उनका लक्ष्य
हृदय ही है।
इसे तुम्हें
खयाल में लेना
है।
हम
एक खतरनाक
क्षेत्र में
बढ़ रहे होंगे।
अगर तुम भूल
जाते हो कि वे
एक कवि भी हैं, तो
तुम मार्ग से
बहक जाओगे। तब
तुम उनकी
शब्दावली को,
उनकी भाषा
को, उनके
तर्क को बहुत
जड़ता से पकड़
लोगे और तुम
उनके ध्येय को
भूल जाओगे। वे
चाहते हैं कि
तर्क के
द्वारा ही तुम
तर्क के पार
चले जाओ। यह
एक संभावना है।
तुम तर्क को
इतने गहरे तौर
पर खींच सकते हो
कि तुम उसके पार
हो जाओ। तुम तर्क
द्वारा चलते हौ,
तुम उसे टालते
नहीं। तुम तर्क
का उपयोग सीढ्री
की तरह करते हो—तर्क
से पार जाने के
लिए। अब उनके शब्दों
पर ध्यान दो।
हर शब्द को विश्लेषित
करना है।
संप्रज्ञात
समाधि वह
समाधि है जो
वितर्क विचार
आनंद और
अस्मिता के
भाव से युक्त
होती है?
वे
समाधि को, उस
परम सत्य को, दो चरणों
में बांट देते
हैं। परम सत्य
बांटा नहीं जा
सकता। यह तो
अविभाज्य है,
और वस्तुत:
कोई चरण है ही
नहीं। लेकिन
मन को, साधक
को सहायता
देने के लिए
ही वे पहले
इसे दो चरणों
में बांट देते
हैं। पहले चरण
को वे नाम
देते हैं
संप्रज्ञात
समाधि। यह वह
समाधि है, जिसमें
मन अपनी
शुद्धता में
सुरक्षित रहता
है।
इस
पहले चरण में, मन
को परिष्कृत
और शुद्ध होना
पड़ता है।
पतंजलि कहते
हैं, तुम
इसे एकदम से
गिरा नहीं
सकते। इसे
गिराना असंभव
है क्योंकि
अशुद्धियों
की प्रवृत्ति
है चिपकने की।
तुम इसे केवल
तभी गिरा सकते
हो जब मन
बिलकुल शुद्ध
होता है—इतना
शुद्ध, इतना
सूक्ष्म कि
उसकी कोई
प्रवृत्ति
नहीं रहती
चिपकने
वे
मन को ग़ीरा
देने के लिए
नहीं कहते; जैसा
कि झेन गुरु
कहते हैं। वे
तो कहते हैं
यह असंभव है।
और अगर तुम
ऐसा कहते हो
तो तुम नासमझी
की बात कह रहे
हो। तुम सत्य
ही कह रहे हो, पर यह संभव
नहीं है
क्योंकि एक
अशुद्ध मन बोझिल
होता है। किसी
पत्थर की
भांति वह बोझ
झूलता रहता है।
और एक अशुद्ध
मन में
इच्छाएं होती
हैं—लाखों
इच्छाएं जो
अधूरी हैं, जो पूरी
होने को ललकती
रहती हैं, पूरी
होने की मांग
करती हैं।
इसमें लाखों
विचार हैं, जो अपूर्ण
हैं। कैसे
गिरा सकते हो
तुम इसे? अपूर्ण
सदा संपूर्ण
होने की
चेष्टा करता
है।
ध्यान
रखना, पतंजलि
कहते हैं कि
जब कोई चीज
संपूर्ण होती
है केवल तभी
तुम उसे गिरा
सकते हो।
तुमने ध्यान
दिया? अगर
तुम चित्रकार
हो और तुम
चित्र बना रहे
हो, तो जब
तक चित्र पूरा
नहीं हो जाता,
तुम उसे भूल
नहीं सकते; वह बना रहता
है, तुम्हारे
पीछे लगा रहता
है। तुम ठीक
से सो नहीं
सकते; वह
वहीं डटा है।
मन में इसकी
अंतर्धारा है।
यह सक्रिय
रहती है और
संपूर्ण होने
की मांग करती
है। एक बार यह
पूरी हो जाती
है, तो बात
खत्म हो गयी।
तुम इसे भूल
सकते हो।
मन
की वृत्ति है
संपूर्णता की
ओर जाने की। मन
पूर्णतावादी
है,
इसलिए जो
कुछ अपूर्ण
रहता है वह मन
पर एक तनाव हो
जाता है।
पतंजलि कहते
हैं कि तुम
सोचने को नहीं
गिरा सकते जब
तक कि सोचना
इतना संपूर्ण
न हो जाये कि अब
इसके बारे में
करने—सोचने को
कुछ रहे ही
नहीं। तब तुम
इसे सरलता से
गिरा सकते हो
और भूल सकते हो।
यह
झेन से, हेराक्लतु
से पूरी तरह
विपरीत मार्ग
है।
प्रथम
समाधि, जो
केवल
नाममात्र की
समाधि है, वह
है, संप्रज्ञात
समाधि—सूक्ष्म
और शुद्ध हुए
मन वाली समाधि।
द्वितीय
समाधि है
असंप्रशांत
समाधि—अ—मन की
समाधि। किंतु
पतंजलि कहते
हैं कि जब मन
तिरोहित हो जाता
है, जब कोई
विचार नहीं बच
रहते, फिर
भी अतीत के
सूक्ष्म बीज
अचेतन में
संचित रहते
हैं।
चेतन
मन दो में
बंटा हुआ है।
प्रथम :
संप्रज्ञात—शुद्ध
हुई अवस्था का
चित्त बिलकुल
शोधित मक्खन
जैसा। इसका एक
अपना ही
सौदर्य है, लेकिन
यह मन मौजूद
तो है। और
चाहे कितना ही
सुंदर हो, मन
अशुद्ध है, मन कुरूप है।
कितना ही
शुद्ध और शांत
हो जाये मन, लेकिन मन का
होना मात्र
अशुद्धि है।
तुम विष को
शुद्ध नहीं कर
सकते। वह विष
ही बना रहता
है। उल्टे, जितना
ज्यादा तुम
इसे शुद्ध
करते हो, उतना
ज्यादा यह
विषमय बनता
जाता है। हो
सकता है यह
बहुत—बहुत सुंदर
लगता हो। इसके
अपने रंग, अपनी
रंगतें हो
सकती हैं,? लेकिन
यह फिर भी
अशुद्ध ही
होता है।
पहले
तुम इसे शुद्ध
करो;
फिर तुम
गिरा दो।
लेकिन तो भी
यात्रा पूरी
नहीं हुई है
क्योंकि यह सब
चेतन मन में
है। अचेतन का
क्या करोगे
तुम? चेतन
मन की तहों के
एकदम पीछे ही
अचेतन का फैला
हुआ महादेश है।
तुम्हारे
सारे पिछले
जन्मों के बीज
अचेतन में
रहते हैं।
तो
पतंजलि अचेतन
को दो में
बांट देते हैं।
वे सबीज समाधि
को कहते है—वह
समाधि, जिसमें
अचेतन मौजूद
है और चेतन
रूप से मन
गिरा दिया गया
है। यह समाधि
है बीजसहित— 'सबीज'।
जब वे बीज भी
जल चुके हों, तो तुम
उपलब्ध होते
हो संपूर्ण—निर्बीज
समाधि को, बीजरहित
समाधि को।
तो
चेतन दो चरणों
में बंटा है
और फिर अचेतन
दो चरणों में
बंटा है। और
जब निर्बीज
समाधि घटती है—वह
परमानंद—जब
कोई बीज
तुम्हारे
भीतर नहीं
होते अंकुरित होने
के लिए या
विकसित होने
के लिए जो कि
तुम्हें
अस्तित्व में
आगे की यात्राओं
पर ले चलें, तो
तुम तिरोहित
हो जाते हो।
इन
सूत्रों में
वे कहते हैं, 'संप्रज्ञात
समाधि वह
समाधि है जो
वितर्क, विचार,
आनंद और
अस्मिता के
भाव से युक्त
होती है।’
लेकिन
यह पहला चरण
है। और बहुत
लोग भटक जाते
हैं। वे सोचते
हैं कि यही
अंतिम है
क्योंकि यह
इतनी शुद्ध है।
तुम इतना
पुलकित अनुभव
करते हो, इतना
आनंदित, कि
तुम सोचते हो
कि अब पाने को
और कुछ नहीं
है। अगर तुम
पतंजलि से
पूछो, तो
वे कहेंगे कि
झेन की सतोरी
तो पहली समाधि
ही है। वह
अंतिम, परम
नहीं है। परम
सत्य तो अभी
बहुत दूर है।
जो
शब्द वे
प्रयोग करते
हैं उनका ठीक
से अनुवाद
नहीं किया जा
सकता क्योंकि
संस्कृत
सर्वाधिक
संपूर्ण भाषा
है;
कोई भाषा
इसके निकट भी
नहीं आ सकती।
अत: मुझे
तुम्हें
सुस्पष्ट
करना होगा। जो
शब्द प्रयुक्त
हुआ है वह है 'वितर्क' : अंग्रेजी
में तो इसका
अनुवाद
रीजनिंग किया
जाता है। यह
तो एक दरिद्र
अनुवाद हुआ।’वितर्क' को
समझ लेना है।
लाजिक को कहा
जाता है तर्क,
और पतंजलि
कहते हैं तर्क
तीन प्रकार के
होते हैं। एक
को वे कहते
हैं 'कुतर्क'
—ऐसा तर्क, जो निषेध की
ओर उन्मुख हो
जाता है, सदैव
नकारात्मक
ढंग से सोचता
है; जिसमें
कि तुम
अस्वीकार कर
रहे हो, संदेह
कर रहे हो, विनाशवादी
होते हो।
चाहे
तुम कुछ भी
कहो,
वह आदमी जो 'कुतर्क' में
जीता है—निषेधात्मक
तर्क में—सदा
सोचता है, इसे
अस्वीकार
कैसे करें, न कैसे कहें।
वह निषेध को
खोजता है। वह
तो हमेशा
शिकायत कर रहा
है, खीज
रहा है। वह
सदा अनुभव
करता है कि
कहीं कुछ गलत
है—सदा ही।
तुम उसे ठीक
नहीं कर सकते
क्योंकि यही
है उसका देखने
का ढंग। अगर
तुम उसे सूरज
देखने के लिए
कहते हो, तो
वह सूरज को
नहीं देखेगा।
वह देखेगा
सूरज के
धब्बों को; वह हमेशा
चीजों के
ज्यादा
अंधेरे पहलू
को देखगा—यह
है 'कुतर्क',
गलत तर्क।
लेकिन यह तर्क
की भांति जान
पड़ता है।
अंततः
यह नास्तिकता
की ओर ले जाता
है। तब तुम
ईश्वर को
अस्वीकार
करते हो, क्योंकि
अगर तुम शुभ
को देख नहीं
सकते, अगर
तुम जीवन के
अधिक
प्रकाशमय
पक्ष को नहीं
देख सकते, तो
तुम ईश्वर को
कैसे अनुभव कर
सकते हो? तब
तुम केवल
इनकार करते हो।
तब पूरा
अस्तित्व
अंधेरा हो
जाता है। तब
हर चीज गलत
होती है, और
तुम अपने
चारों ओर नरक
निर्मित कर
लेते हो। अगर
हर चीज गलत है
तो तुम
प्रसन्न कैसे
हो सकते हो? और यह
तुम्हारा
निर्माण है, और तुम
हमेशा कुछ गलत
खोज कर सकते
हो, क्योंकि
जीवन द्वैत से
बना होता है।
गुलाब
की झाड़ी में
सुंदर फूल
होते हैं, लेकिन
कांटे भी होते
हैं।’कुतर्क
' वाला
आदमी कांटों
की गिनती
करेगा, और
फिर वह इस समझ
तक आ पहुंचेगा
कि यह गुलाब
तो भ्रामक ही
होगा; यह
हो नहीं सकता।
बहुत सारे
कीटों के बीच,
लाखों
काटों के बीच,
एक गुलाब
कैसे बना रह
सकता है? यह
असंभव है। यह
संभावना ही
त्याज्य हो
जाती है। जरूर
कोई धोखा दे
रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत उदास था।
वह पादरी के
पास गया और
बोला, 'क्या
करूं? मेरी
फसल फिर बरबाद
हो गयी है।
बारिश नहीं
हुई।’ पादरी
बोला, 'इतने
उदास मत होओ, नसरुद्दीन।
जिंदगी के
ज्यादा रोशन
पहलू की ओर
देखो। तुम खुश
हो सकते हो
क्योंकि फिर
भी तुम्हारे पास
बहुत ज्यादा
है। और हमेशा
ईश्वर पर
भरोसा रखो, जो दाता है।
वह आकाश में
उड़ते
पक्षियों के
लिए भी जुटा
देता है, तो
तुम क्यों
चिंतित हो?' नसरुद्दीन
बहुत
कटुतापूर्वक
बोला, 'हां
मेरे अनाज
द्वारा! ईश्वर
आकाश के
पक्षियों का
इंतजाम करता
है मेरे अनाज
द्वारा!' वह
बात नहीं समझ
सकता। उसकी
फसल इन
पक्षियों
द्वारा नष्ट
हुई है, और
ईश्वर उनका
भरण—पोषण कर
रहा है, इसलिए
वह कहता है, 'मेरी फसल
बरबाद हुई है।’
इस प्रकार
का मन हमेशा
कुछ न कुछ खोज
निकालेगा, और
हमेशा
क्षुब्ध
रहेगा। चिंता
छाया की भांति
उसका पीछा
करेगी। इसे
पतंजलि कहते
हैं कुतर्क—निषेधात्मक
तर्क, निषेधात्मक
तर्कणा।
फिर
है तर्क—सीधा
तर्क। सीधा
तर्क कहीं
नहीं ले जाता।
यह एक चक्कर
में घूम रहा
है क्योंकि
इसका कोई ध्येय
नहीं है। तुम
तर्क और तर्क
और तर्क किये
चले जा सकते
हो,
लेकिन तुम
किसी निश्चय
तक नहीं
पहुंचोगे।
क्योंकि तर्क
किसी निश्चय
तक केवल तभी
पहुंचता है, जब बिलकुल
आरंभ से ही
कोई ध्येय हो।
अगर तुम एक
दिशा में बढ़
रहे हो, तब
तुम कहीं
पहुंचते हो।
अगर तुम सब
दिशाओं में बढ़
रहे हो—कभी
दक्षिण में, कभी पूर्व
में, कभी
पश्चिम में, तो तुम
ऊर्जा गंवाते
हो।
बिना
ध्येय का
विचार तर्क
कहलाता है; निषेधात्मक
रुख वाला तर्क
कुतर्क
कहलाता है; विधायक भूमि
वाला तर्क
वितर्क
कहलाता है।
वितर्क का
अर्थ है, विशिष्ट
तर्क।
तो
वितर्क प्रथम
तत्व है
संप्रज्ञात
समाधि का। जो
व्यक्ति आंतरिक
शांति पाना
चाहता है उसे
वितर्क में
प्रशिक्षित
होना होता है—विशिष्ट
तर्क। वह सदा
ज्यादा
प्रकाशमय
पक्ष की ओर, विधायक
की ओर देखता
है। वह फूलों
को महत्व देता
है और कांटों
को भूल जाता
है। ऐसा नहीं
है कि कांटे
नहीं हैं, लेकिन
उसे उनसे कुछ लेना—देना
नहीं। अगर तुम
फूलों से
प्रेम करते हो
और फूलों को गिनते
रहते हो, तो
एक क्षण आता
है जब तुम
कांटों में
विश्वास नहीं
कर सकते।
क्योंकि यह
कैसे संभव है
कि जहां इतने
सुंदर फूल
विद्यमान हों,
वहीं कांटे
बने रहते हों!
कहीं कुछ
भ्रामकता
होगी।
कुतर्क
वाला व्यक्ति
कांटे गिनता
है;
तब फूल
अवास्तविक बन
जाते हैं।
वितर्कयुक्त
व्यक्ति फूल
गिनता है; तब
कांटे
अवास्तविक हो
जाते हैं।
इसलिए पतंजलि
कहते हैं कि
वितर्क प्रथम
तत्व है। इसके
द्वारा आनंद
संभव है।
वितर्क
द्वारा
व्यक्ति को
स्वगोंपलब्धि
होती है।
व्यक्ति अपना
ही स्वर्ग
चारों ओर
निर्मित कर
लेता है।
तुम्हारा
दृष्टिकोण
निर्णायक है।
जो कुछ तुम
चारों ओर पाते
हो,
वह
तुम्हारा
अपना निर्माण
है—रूर्ग या
नरक। और
पतंजलि कहते
हैं कि तुम
तर्क और
बुद्धि के पार
जा सकते हो, केवल विधायक
तर्क के
द्वारा।
निषेधात्मक
तर्क के
द्वारा तुम कभी
पार नहीं जा
सकते, क्योंकि
जितना अधिक
तुम नकारते हो,
उतना
ज्यादा तुम
उदास पाते हो
चीजों को। अगर
तुम 'नहीं '
कहते हो और
त्यागते हो, धीरे— धीरे
तुम भीतर एक
सतत नकार बन
जाते हो, एक
अंधियारी रात।
तो फूल नहीं, केवल कांटे
ही तुममें
विकसित हो
सकते हैं। तुम
एक मरुस्थल
होते हो।
जब
तुम हां कहते
हो,
तब तुम
ज्यादा और
ज्यादा चीजें
पाते हो हां
कहने के लिए।
जब तुम कहते
हो हां, तुम
'ही कहने
वाले' बन
जाते हो। जीवन
का स्वीकार
हुआ। और
तुम्हारी 'हां'
द्वारा तुम
वह सब आत्मसात
कर लेते हो जो
शुभ है, सुंदर
है; वह सब
जो सत्य है।’हां' तुम्हारे
भीतर एक द्वार
बन जाता है
भगवत्ता के
प्रवेश करने
का; 'नहीं' एक बंद
द्वार बनता है।
तुम्हारे बंद
द्वार सहित, तुम एक नरक
होते हो।
तुम्हारे
खुले द्वार
सहित, सारे
खुले द्वार—दरवाजों
सहित, अस्तित्व
तुम्हारे
भीतर बह आता
है। तुम ताजे,
यौवनमय, जीवंत
होते हो, तुम
एक फूल बन
जाते हो।
वितर्क, विचार,
आनंद—पतंजलि
कहते हैं अगर
तुम वितर्क के
साथ मेल बनाते
हो—विधायक
तर्क के साथ, तब तुम एक
विचारक हो
सकते हो; उससे
पहले हरगिज
नहीं। तब
विचारणा उदित
होती है। उनके
लिए विचारणा
का बिलकुल अलग
ही अर्थ है।
तुम भी सोचते
हो कि तुम
विचार करते हो।
पतंजलि सहमत
नहीं होंगे।
वे कहते हैं
तुम्हारे पास
विचार हैं, पर विचारणा
नहीं। इसलिए
मैं कहता हूं
कि कठिन है
उन्हें
अनुवादित
करना।
वे
कहते हैं, तुम्हारे
पास विचार हैं,
भागते—दौड़ते
विचार हैं भीड़
की तरह, लेकिन
कोई विचारणा
नहीं है।
तुम्हारे दो
विचारों के
बीच कोई
अंतर्धारा
नहीं है। वे
उखड़ी हुई
चीजें हैं; कोई
अंतर्व्यवस्था
नहीं है।
तुम्हारा
सोचना एक अस्त—व्यस्तता
है। यह
सुव्यवस्था
नहीं है; इसमें
कोई आंतरिक
अनुशासन नहीं
है।
जैसे
एक माला होती
है,
वहां मनके
हैं, और एक—दूसरे
से बंधे हैं
अदृश्य धागे
द्वारा, जो
उनमें से गुजर
रहा है। विचार
मनके हैं; विचारणा
धागा है।
तुम्हारे पास
मनके हैं बहुत
सारे, वस्तुत:
जितने
तुम्हें
चाहिए उससे
ज्यादा, लेकिन
कोई आंतरिक
धना, कोई
अंतर्सूत्र
उनमें
व्याप्त नहीं
है। उस
अंतर्सूत्र
को पतंजलि
कहते हैं—विचार।
तुम्हारे पास
विचार हैं, पर कोई
विचारणा नहीं।
और अगर ऐसा ही
होता चला जाता
है तो तुम
पागल हो जाओगे।
पागल आदमी वह
आदमी है जिसके
पास लाखों
विचार हैं और
विचारणा नहीं।
और
संप्रज्ञात
समाधि वह
अवस्था है
जिनमें विचार
नहीं होते हैं,
लेकिन
विचारणा
समग्र होती है।
यह भेद समझ
लेना।
पहली
तो बात यह कि
तुम्हारे
विचार
तुम्हारे नहीं
हैं। तुमने
उन्हें
इकट्ठा कर
लिया है। जैसे
अंधेरे कमरे
में,
कभी रोशनी
की किरण छत से
चली आती है और
तुम धूल के
असंख्य कणों
को उस किरण
में तैरते हुए
देख लेते हो।
जब मैं तुममें
झांकता हूं
मैं वही घटना
देखता हूं— धूल
के लाखों कण।
तुम उन्हें
विचार कहते हो।
वे तुम्हारे
बाहर— भीतर चल
रहे हैं। वे
एक सिर से
दूसरे में
प्रवेश करते
हैं, और वे
चलते जाते हैं।
उनकी अपनी
जिंदगी है।
विचार
एक वस्तु है; उसका
अपना स्वयं का
अस्तित्व
होता है। जब
कोई आदमी मरता
है, तो
उसके सारे
पागल विचार
तुरंत निकल
भागते हैं और
वे कहीं न
कहीं शरण
ढूंढना शुरू
कर देते हैं।
फौरन वे उनमें
प्रवेश कर
जाते हैं जो
आस—पास होते
हैं। वे
कीटाणुओं की
भांति होते
हैं; उनका
अपना जीवन है।
तुम जब जीवित
भी होते हो, तब तुम अपने
चारों ओर
विचार
बिखेरते चले
जाते हो। जब
तुम बोलते हो,
तब
निस्संदेह
अपने विचार
तुम दूसरों
में फेंकते हो।
किंतु जब तुम
मौन होते हो, तब भी तुम
चारों ओर
विचार फेंक
रहे होते हो।
वे तुम्हारे
नहीं होते : यह
तो है पहली
बात।
विधायक
तर्क वाला
व्यक्ति उन
सारे विचारों
को निकाल
फेंकेगा, जो
उसके अपने न
हों। वे प्रामाणिक
नहीं होते हैं;
उन्हें
उसने स्वयं
अनुभव द्वारा
नहीं पाया होता।
उसने दूसरों
द्वारा संचित
कर लिया है, वे उधार हैं।
वे मैले हैं।
वे बहुत हाथों
और सिरों में
रहे हैं।
सोचने—विचारने
वाला व्यक्ति
उधार नहीं
जीयेगा। वह
अपने स्वयं के
ताजे विचार
पाना चाहेगा।
और अगर तुम
विधायक हो, और अगर तुम
सौंदर्य को, सत्य को, शुभ
को, फूलों
को देखते हो, अगर तुम
सबसे
अढ़िग्यारी
रात में भी
देखने के योग्य
हो जाते हो कि
सबेरा निकट आ
रहा है, तो
तुम विचारने
के योग्य हो
जाओगे।
तब
तुम स्वयं
अपने विचार
निर्मित कर
सकते हो। और
वह विचार जो तुम्हारे
द्वारा
निर्मित हो
जाता है, वास्तव
में
शक्तिशाली
होता है; उसकी
स्वयं की अपनी
शक्ति होती है।
ये विचार जो
तुमने उधार ले
लिये हैं, करीब—करीब
मुरदा हैं।
क्योंकि वे
यात्रा करते
रहे हैं, लाखों
वर्षों से
यात्रा कर रहे
हैं। उनका
स्रोत खो चुका
है। अपने स्रोत
के साथ वे
सारा संपर्क
खो चुके हैं।
वे तो बस
चारों ओर
तैरते धूलि—कणों
की भांति हैं।
तुम उन्हें
पकड़ लेते हो।
कई बार तुम
उनके प्रति
जाग्रत भी हो
जाते हो, लेकिन
तुम्हारी
जागृति ऐसी है
कि चीजों को
आर—पार देख
नहीं सकती।
कई
बार तुम बैठे
हुए होते हो।
अचानक तुम उदास
हो जाते हो
बिना किसी भी
कारण के। तुम
कारण ढूंढ
नहीं सकते।
तुम चारों ओर
देखते हो, और
कारण कोई होता
नहीं। कुछ
नहीं है वहां,
कुछ घटित
नहीं हुआ। तुम
बिलकुल वैसे
ही हो। अचानक
एक उदासी
तुम्हें जकड़
लेती है। एक
विचार गुजर
रहा है; तुम
तो बस रास्ते
में हो। यह एक
दुर्घटना है।
विचार एक बादल
की भांति गुजर
रहा था—एक
उदास विचार
किसी के
द्वारा छोड़ा
हुआ। यह एक
दुर्घटना है
कि तुम पक्क
में आ गये हो।
कई बार कोई
विचार अड़ा
रहता है। तुम
नहीं जानते कि
तुम क्यों
इसके बारे में
सोचते चले
जाते हो। यह
बेतुका दिखाई
पड़ता है; यह
किसी काम का
नहीं जान पड़ता।
लेकिन तुम कुछ
नहीं कर सकते।
यह द्वार
खटखटाये चला
जाता है। यह
कहता है, 'मुझे
सोचो।’ एक
विचार द्वार
पर प्रतीक्षा
कर रहा है
खटखटाता हुआ।
यह कहता है, 'स्थान दो, मैं भीतर
आना चाहूंगा।’
प्रत्येक
विचार का अपना
स्वयं का जीवन
है। यह चलता
रहता है। और
इसके पास
ज्यादा शक्ति
है। और तुम
बहुत कमजोर हो
क्योंकि तुम
बहुत बेखबर हो;
अत: तुम
विचारों
द्वारा चलाये
जाते हो!
तुम्हारा
सारा जीवन ऐसी
दुर्घटनाओं
से बना है।
तुम लोगों से
मिलते हो, और
तुम्हारी
जिंदगी का
सारा ढांचा—ढर्रा
बदल जाता है।
कुछ
तुममें
प्रवेश करता
है। फिर तुम
वशीभूत हो
जाते हो, और
तुम भूल जाते
हो कि तुम
कहां जा रहे
थे। तुम अपनी
दिशा बदल देते
हो; तुम इस
विचार के पीछे
हो लेते हो।
यह एक
दुर्घटना ही
है। तुम
बच्चों की
भांति हो।
पतंजलि कहते
हैं कि यह
विचारणा नहीं
है। यह
विचारणा की
अनुपस्थिति
वाली अवस्था
है—यह विचारणा
नहीं है। तुम
भीड़ हो।
तुम्हारे पास,
तुम्हारे
भीतर कोई
केंद्र नहीं
है, जो सोच
सके। जब कोई
वितर्क के
अनुशासन में
बढ़ता है—सम्यक
तर्क में, तब
वह धीरे— धीरे
सोचने के
योग्य बनता है।
सोचना एक
क्षमता है, विचार
क्षमता नहीं
है, विचार
दूसरों से
सीखे जा सकते
हैं; विचारणा
कभी नहीं।
विचारणा
तुम्हें
स्वयं ही
सीखनी होती है।
और
यही है भेद
पुराने
भारतीय
विद्यापीठों
और आधुनिक
विश्वविद्यालयों
के बीच। आधुनिक
विश्वविद्यालयों
में तुम
विचारों को
जुटा रहे हो।
प्राचीन
विद्यालयों
में,
शान—विद्यालयों
में, वे
सोचना—विचारना
सिखाते रहे थे,
न कि विचार।
विचारशीलता
तुम्हारे आंतरिक
अस्तित्व की
गुणवत्ता है।
विचारशीलता
का अर्थ क्या
है?
इसका अर्थ
है तुम्हारी
चेतना को
बनाये रखना; समस्या से
साक्षात्कार
करने को, सजग
और जागरूक बने
रहना। समस्या
वहां मौजूद है,
तुम अपनी
समग्र
जागरूकता के
साथ उसका
सामना करो। और
तब एक उत्तर
उठ खड़ा होता
है—एक
प्रत्युत्तर।
यह है विचारणा।
एक
प्रश्न सामने
रखा जाता है
और तुम्हारे
पास एक बना—बनाया
उत्तर होता है।
इससे पहले कि
तुम इसके बारे
में सोचो भी, उत्तर
आ पहुंचता है।
कोई कहता है, 'क्या ईश्वर
है?' उसने
अभी यह कहा भी
न हो और तुम कह
देते हो, 'हां।’
तुम अपना
निर्जीव सिर 'हां' में
हिला देते हो।
तुम कह देते
हो, 'हां
ईश्वर है।’
क्या
यह तुम्हारा
विचार है? क्या
तुमने बिलकुल
अभी समस्या
के बारे में
सोचा है, या
तुम अपनी
स्मृति में
कोई बना—बनाया
उत्तर ढो रहे
हो? किसी ने
तुम्हें इसे
दे दिया है—तुम्हारे
माता—पिता ने,
तुम्हारे
शिक्षकों ने,
तुम्हारे
समाज ने। किसी
ने इसे
तुम्हें दे
दिया है, और
तुम इसे कीमती
खजाने की तरह
लिये चलते हो,
और यह उत्तर
उसी स्मृति से
आता है।
विचारशील
व्यक्ति, हर
बार जब समस्या
होती है तो
अपनी चेतना का
उपयोग करता है।
ताजे रूप से
वह अपनी चेतना
का उपयोग करता
है। वह समस्या
से
साक्षात्कार
करता है, और
फिर उसके भीतर
जो कोई विचार
उदित होता है
वह स्मृति का
हिस्सा नहीं
होता। भेद यही
है। विचारों
से भरा
व्यक्ति
स्मृति का
व्यक्ति है; उसके पास
चिंतन की
क्षमता नहीं है।
अगर तुम वह
प्रश्न पूछते
हो जो नया है, वह हकबकाया
हुआ होगा। वह
उत्तर नहीं दे
सकता। अगर तुम
कोई प्रश्न
पूछते हो
जिसका उत्तर
वह जानता है, वह तुरंत
उत्तर देगा।
यह अंतर है
पंडित और उस
व्यक्ति के
बीच, जो
जानता है; वह
व्यक्ति जो
सोच सकता है।
पतंजलि
कहते हैं कि
वितर्क, सम्यक
तर्क ले जाता
है अनुचितन की
ओर, विचार
की ओर।
अनुचितन, विचार
ले जाता है
आनंद की ओर।
यह पहली झलक
है, और
निस्संदेह यह
एक झलक ही है।
यह आयेगी और
यह खो जायेगी।
तुम इसे बहुत
देर तक पकड़े
नहीं रख सकते।
यह मात्र झलक
ही बनने वाली
थी; जैसे
कि एक क्षण को
बिजली कौंधी,
और तुम
देखते हो, सारा
अंधकार
तिरोहित हो
जाता है।
किंतु फिर
वहां अंधकार आ
बनता है। यह
ऐसा है कि
जैसे कि बादल
तिरोहित हो
गये और तुमने
क्षण भर को
चांद देखा, फिर दोबारा
वहां बादल आ
जाते हैं।
या
किसी उज्जवल
सुबह हिमालय
के निकट, क्षण
भर को तुम्हें
गौरीशंकर की
झलक मिल सकती
है—उच्चतम
शिखर की।
लेकिन फिर
वहां धुंध
होती है। और
फिर वहां बादल
होते हैं, और
शिखर खो जाता
है। यह है
सतोरी।
इसीलिए सतोरी
का अनुवाद
समाधि की
भांति करने की
कोशिश कभी न
करना। सतोरी
एक झलक है। यह
उपलब्ध हो
जाती है तो
बहुत कुछ करना
होता है इसके
बाद। वस्तुत:,
वास्तविक
कार्य शुरू
होता है पहली
सतोरी के बाद,
पहली झलक के
बाद, क्योंकि
तब तुमने
अपरिसीम का
स्वाद पा लिया
होता है। अब
एक वास्तविक,
प्रामाणिक
तलाश शुरू
होती है। इससे
पहले तो, वह
बस ऐसी—वैसी
थी, कुनकुनी;
क्योंकि
तुम वास्तव
में आश्वस्त न
थे, निश्चित
न थे, इस
बात के लिए कि
तुम क्या कर
रहे हो, तुम
कहां जा रहे
हो, क्या
हो रहा है।
इससे
पहले, यह एक
आस्था थी, श्रद्धा
थी। इसके पहले
एक गुरु की
आवश्यकता थी
तुम्हें मार्ग
दर्शाने को, तुम्हें बार—बार
वापस मार्ग पर
लाने को।
लेकिन अब
सतोरी के घटित
होने के बाद
यह कोई आस्था
न रही। यह एक
अनुभव बन चुका
है। अब आस्था
एक प्रयत्न
नहीं है। अब
तुम श्रद्धा
करते हो
क्योंकि
तुम्हारे अपने
अनुभव ने
तुम्हें
दर्शा दिया है।
पहली झलक के
बाद वास्तविक
खोज शुरू होती
है। इससे पहले
तो तुम गोल—गोल
घूम रहे थे।
सम्यक
तर्क ले जाता
है सम्यक
अनुचितन की
तरफ,
सम्यक
अनुचितन ले
जाता है
आनंदमयी
अवस्था की तरफ।
और यह आनंदपूर्ण
अवस्था ले
जाती है
विशुद्ध अंतस
सत्ता की
अवस्था में।
एक
नकारात्मक मन
हमेशा
अहंकारी होता
है,
यह है अंतस
सत्ता की
अशुद्ध
अवस्था। तुम
अनुभव करते हो
'मैं ' को,
लेकिन तुम 'मैं ' का
अनुभव गलत
कारणों से
करते हो। जरा
ध्यान देना, अहंकार 'नहीं
' पर पलता
है। जब कभी
तुम कहते हो ' नहीं ', अहंकार
उठ खडा होता
है। जब कभी
तुम 'हां ' कहते हो, अहंकार
नहीं उठ सकता
क्योंकि
अहंकार
संघर्ष चाहता
है, अहंकार
चाहता है
चुनौती।
अहंकार स्वयं
को किसी के
विरुद्ध रख
देना चाहता है;
किसी चीज के
विरुद्ध। यह
अकेला नहीं
बना रह सकता
है, इसे
द्वैत चाहिए।
एक अहंकारी
हमेशा संघर्ष
की तलाश में
रहता है—किसी
के साथ, किसी
चीज के साथ, किसी
परिस्थिति के
साथ का संघर्ष।
वह हमेशा किसी
चीज को खोज
रहा है न कहने
को, जीतने को,
उसे विजित
करने को।
अहंकार
हिंसक होता है।
और 'नहीं ' एक
सूक्ष्मतम
हिंसा है। जब
तुम साधारण
चीजों के
प्रति भी नहीं
कहते हो, वहां
भी अहंकार उठ
खडा होता है।
एक
छोटा बच्चा
मां से कहता
है,
'क्या मैं
बाहर खेलने जा
सकता हूं?' और
वह कहती है 'नहीं।’ कुछ
बड़ी उलझन न थी,
लेकिन जब
मां कहती है 'नहीं ', तो
वह अनुभव करती
है कि वह कुछ
है।
तुम
रेलवे स्टेशन
पर जाते हो और
तुम टिकट के लिए
पूछते हो।
क्लर्क
तुम्हारी तरफ
बिलकुल नहीं
देखता। वह काम
करता जाता है, चाहे
कोई काम न भी
हो। वह कह रहा
है, 'नहीं।’
'ठहरो।’ वह
अनुभव करता है
कि वह कुछ है, वह कोई है।
इसलिए
दफ्तरों में
हर कहीं, तुम
'नहीं 'सुनोगे।
’हां ' बहुत
कम है, बहुत
दुर्लभ। एक
साधारण
क्लर्क किसी
को 'नहीं ' कह सकता है, तुम कौन हो
इसका महत्व
नहीं। वह
शक्तिशाली
महसूस करता
है।
नहीं
कह देना
तुम्हें ताकत
की अनुभूति
देता है। इसे
याद रखना। जब
तक यह बिलकुल
आवश्यक ही न
हो,
हरगिज नहीं
मत कहना, अगर
यह बिलकुल
आवश्यक भी हो
तो इसे इतने
स्वीकाराअक
ढंग से कहो कि
अहंकार खड़ा न
हो। तुम ऐसा कह
सकते हौ। नहीं
भी इस ढंग से
कहा जा सकता
है कि यह हां
की भांति लगता
है। तुम इस
ढंग से ही कह सकते
हो कि यह 'नहीं
' की भांति
लगता है। यह
बात भाव—
भंगिमा पर
निर्भर करती
है; अभिवृत्ति
पर निर्भर
करती है।
इसे
खयाल में
लेना—खोजियों
को इसे सतत
याद रखना पड़ता
है कि तुम्हें
सतत हां की
सुवास में रहना
होता है।
आस्थावान ऐसा
ही होता है; वह
ही कहता है।
जब नहीं की भी
आवश्यकता हो,
वह कहता है
हां। वह नहीं
देखता कि जीवन
में कोई
प्रतिरोध है।
वह स्वीकार
करता है। वह
अपने शरीर के
प्रति हां
कहता है, वह
मन के प्रति
हां कहता है, प्रत्येक के
प्रति हां
कहता है, वह
संपूर्ण
अस्तित्व के
प्रति हां
कहता है। जब
तुम निरपेक्ष
ही कहते हो
बिना किन्हीं
शर्तों के, तब परम
खिलावट घटित
होती है। तब
अचानक अहंकार गिर
जाता है; वह
खड़ा नहीं रह
सकता। इसे
नकार के सहारे
चाहिए होते
हैं।
नकारात्मक
दृष्टिकोण
अहंकार निर्मित
करता है।
विधायक
दृष्टिकोण के
साथ अहंकार
गिर जाता है, और तब
अस्तित्व
शुद्ध होता
है।
संस्कृत
में दो शब्द
हैं 'मैं ' के
लिए— 'अहंकार'
और ' अस्मिता
'। इनका
अनुवाद करना
कठिन है।
अहंकार 'मैं
' का गलत
बोध है। जो ' नहीं ' कहने
से चला आता
है। 'अस्मिता'
सम्यक बोध
है 'मैं' का, जो 'ही ' कहने
से आता है।
दोनों 'मैं
' हैं। एक
अशुद्ध है। 'नहीं ' अशुद्धता
है। तुम नकारते
हो, नष्ट
करते हो। 'नहीं
' ध्वंसात्मक
है; यह एक
बहुत सूक्ष्म
विध्वंस है।
इसका प्रयोग हरगिज
मत करना।
जितना तुमसे
हो सके इसे
गिरा देना। जब
कभी तुम सजग
होओ इसका
उपयोग मत
करना। आस—पास
का कोई मार्ग
ढूंढने की
कोशिश करो।
अगर तुम्हें
इसे कहना भी
पड़े तो इस ढंग से
कहो कि इसकी
प्रतीति हां
की भांति हो।
धीरे— धीरे
तुम्हारा
ताल—मेल बैठ
जायेगा, और
हां द्वारा
बहुत शुद्धता
तुम्हारी ओर
आती तुम अनुभव
करोगे।
फिर
है '
अस्मिता '। 'अस्मिता'
अहकारविहीन
अहं है। किसी
के विरुद्ध 'मैं ' होने
की अनुभूति
नहीं होती। यह
मात्र अनुभव करना
है स्वयं का, स्वयं को
किसी के
विरुद्ध रखे
बिना। यह तो
तुम्हारे
समग्र
अकेलेपन को
अनुभव करना
है। और समग्र
अकेलापन एक
शुद्धतम
अवस्था है। जब
हम कहते हैं, 'मैं हूं तो 'मैं ' अहंकार
है। ' हूं है
अस्मिता।
वहां बस
अनुभूति है
हूं—पन की। इसके
साथ कोई 'मैं
' नहीं जुड़ा।
मात्र
अस्तित्व को,
होने को
अनुभव करना। 'ही ' सुंदर
है, 'नहीं ' असुंदर है।
असंप्रज्ञात
समाधि में,
सारी मानसिक
क्रिया की
समाप्ति होती
है और मन केवल
अप्रकट
संस्कारों को
धारण किये
रहता है।
संप्रज्ञात
समाधि है पहला
चरण। इसमें
अंतर्निहित
है सम्यक तर्क, सम्यक
विचारणा, आनंद
की अवस्था, आनंद की झलक
और हूं—पन की
अनुभूति—शुद्ध
सरल अस्तित्व,
जिसमें कोई
अहंकार न हो।
यह
संप्रज्ञात
समाधि की ओर
ले जाता है।
पहला चरण है
शुद्धता; दूसरा
है तिरोहित
होना।
शुद्धतम भी
अशुद्ध है
क्योंकि यह
है। 'मैं ' असत है, 'हूं
भी असत है। यह 'मैं' से
बेहतर है, लेकिन
उच्चतर
संभावना वहां
होती है जब 'हूं भी तिरोहित
हो जाता है—केवल
' अहंकार' ही नहीं
लेकिन ' अस्मिता'
भी। तुम
अशुद्ध हो; फिर तुम
शुद्ध बन जाते
हो। लेकिन यदि
तुम अनुभव
करने लगो, 'मैं
शुद्ध हूं तो
शुद्धता
स्वयं
अशुद्धता बन चुकी
होती है। उसे
भी तिरोहित
होना है।
शुद्धता
का तिरोहित
होना
असंप्रज्ञात
समाधि है; अशुद्धता
का तिरोहित
होना
संप्रज्ञात
समाधि है।
शुद्धता का
तिरोहित होना
असंप्रज्ञात
है। शुद्धता
का भी तिरोहित
हो जाना
असंप्रज्ञात समाधि
है। पहली
अवस्था में
विचार
तिरोहित हो
जाते हैं। दूसरी
अवस्था में
विचारणा, विचार
करना भी
तिरोहित हो
जाता है। पहली
अवस्था में
कांटे छंट
जाते हैं।
दूसरी अवस्था
में फूल भी
तिरोहित हो
जाते हैं। जब 'नहीं' मिट
जाता है पहली
अवस्था में तो
'हां' बना
रहता है।
दूसरी अवस्था
में 'हां' भी मिट जाता
है क्योंकि 'हां' भी 'नहीं' के
साथ संबंधित
है।
तुम
'हां' को
कैसे बनाये रख
सकते हो बिना 'नहीं' के?
वे साथ—साथ
हैं; तुम
उन्हें अलग
नहीं कर सकते।
अगर 'नहीं'
तिरोहित हो
जाता है, तो
तुम 'हां' कैसे कह
सकते हो? गहन
तल पर 'हां'
नहीं को 'नहीं' कह
रहा है। यह
निषेध है
निषेध का। एक
सूक्ष्म 'नहीं'
बना रहता है।
जब तुम कहते
हो 'हां', तो क्या कर
रहे हो तुम? तुम नहीं तो
नहीं कह रहे
हो; लेकिन
भीतर नहीं खड़ा
है। तुम इसे
बाहर नहीं ला
रहे; यह
अप्रकट है।
तुम्हारी
'हां' कोई
अर्थ नहीं रख
सकती अगर
तुम्हारे
भीतर कोई 'नहीं'
न हो। क्या
अर्थ होगा
इसका? यह
अर्थहीन होगी।’हां' का
तो अर्थ बनता
है केवल नहीं
के कारण। नहीं
का अर्थ बनता
है हां के
कारण। वे
द्वैत दै।
संप्रज्ञात
समाधि में 'नहीं' गिर
जाता है। वह
सब जो गलत है, गिर जाता है।
असंप्रज्ञात
समाधि में, 'हां' गिर
चुका होता है।
सब जो सम्यक
है, सब जो
शुद्ध है, वह
भी गिर जाता
है।
संप्रज्ञात
समाधि में तुम
गिरा देते हो
शैतान को; असंप्रज्ञात
समाधि में तुम
ईश्वर को भी
छोड़ देते हो।
क्योंकि बिना
शैतान के
भगवान कैसे
अस्तित्व रख
सकता है? वे
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
सारी
क्रिया
समाप्त हो
जाती है।’हां'
भी एक
क्रिया है और
क्रिया एक
तनाव है। कुछ
हुआ जा रहा है।
यह सुंदर भी
हो सकता है, किंतु फिर
भी कुछ हो तो
रहा है। और एक
समय के बाद
सुंदर भी
असुंदर हो
जाता है। एक
समय के बाद
तुम फूलों से
भी ऊब जाते हो।
कुछ समय के
बाद क्रिया, बहुत
सूक्ष्म और
शुद्ध हो तो
भी तुम्हें एक
तनाव देती है;
यह एक चिंता
बन जाती है।
'असंप्रज्ञात
समाधि में
सारी मानसिक
क्रिया की
समाप्ति होती
है और मन केवल
अप्रकट
संस्कारों को
धारण किये
रहता है।’ किंतु
फिर भी, यही
ध्येय नहीं है।
क्योंकि क्या होगा
उन सब
प्रभावों का,
विचारों का
जिन्हें
तुमने अतीत
में इकट्ठा किया
है? अनेक—अनेक
जन्मों को
तुमने जीया है,
अभिनीत
किया है, प्रतिक्रिया
की है। तुमने
बहुत सारी
चीजें की हैं,
बहुत—सी
नहीं की हैं।
क्या होगा
उनका? चेतन
मन शुद्ध हो
चुका है; चेतन
मन ने शुद्धता
की किया को भी
गिरा दिया है।
किंतु अचेतन
बड़ा है और
वहां तुम सारे
बीजों को वहन
करते हो, सारी
रूपरेखाओं को।
वे तुम्हारे
भीतर हैं।
वृक्ष
मिट चुका है; तुम
संपूर्णतया
काट चुके हो
वृक्ष को। पर
बीज जो गिर
चुके हैं, वे
धरती पर पड़े
हुए हैं। वे
फूटेंगे, जब
उनका मौसम
आयेगा।
तुम्हारी एक
और जिंदगी
होगी; तुम
फिर पैदा
होओगे।
निस्संदेह
तुम्हारी
गुणवत्ता अब
भिन्न होगी, किंतु तुम
फिर पैदा
होओगे
क्योंकि वे
बीज अब भी जले
नहीं हैं।
तुमने
उसे काट दिया
है जो व्यक्त
हुआ था। उस
चीज को काट
देना सरल है
जिसकी
अभिव्यक्ति हुई
हो। सारे
वृक्षों को
काट देना आसान
होता है। तुम
बगीचे में जा
सकते हो और
सारे लॉन को, घास
को पूरी तरह
उखाड़ सकते हो;
तुम हर चीज
को नष्ट कर
सकते हो। पर
दो सप्ताह के
भीतर ही घास
फिर से बढ़
जायेगी
क्योंकि
तुमने केवल
उसे उखाड़ा था,
जो प्रकट
हुआ था। जो
बीज मिट्टी
में पड़े हुए
हैं उन्हें
तुमने अब तक
छुआ नहीं है।
यही करना होता
है तीसरी
अवस्था में।
असंप्रज्ञात
समाधि अब भी 'सबीज'
है, बीजों
सहित है। और
विधियां
मौजूद हैं उन
बीजों को
जलाने की, अग्रि
निर्मित करने
की—वह अग्रि
जिसकी चर्चा
हेराक्लतु
करते हैं, कि
अग्रि कैसे
निर्मित करें
और अचेतन
बीजों को जला
दें। जब वे भी
मिट जाते, तब
भूमि नितांत
शुद्ध होती है;
कुछ भी नहीं
उदित हो सकता
इसमें से। फिर
कोई जन्म नहीं,
कोई मृत्यु
नहीं। तब सारा
चक्र
तुम्हारे लिए
थम जाता है; तुम चक्र के
बाहर गिर चुके
होते हो। और
समाज से बाहर
निकल आना
कारगर न होगा,
जब तक कि
तुम भव—चक्र
से ही बाहर न आ
जाओ। तब तुम
एक संपूर्ण
समाप्ति बनते
हो।
बुद्ध
संपूर्ण रूप
से अलग हुए
हैं,
संपूर्ण
समाप्ति हैं।
महावीर, पतंजलि
संपूर्ण
समाप्ति हैं।
वे व्यवस्था
या समाज से
बाहर नहीं हुए
हैं, वे
जीवन और
मृत्यु के
चक्कर से ही
बाहर हो गये हैं।
पर तभी यह
घटता है जब
सारे बीज जल
गये हों।
अंतिम है
निर्बीज
समाधि—बीजरहित।’
असंप्रज्ञात
समाधि में
मानसिक
क्रिया की समाप्ति
होती है और मन
केवल अप्रकट
संस्कारों को
धारण किये
रहता है।’
विदेहियो
और
प्रकृतिलयों
को
असंप्रज्ञात
समाधि उपलब्ध
होती है
क्योंकि अपने
पिछले जन्म
में उन्होने
अपने शरीरों
के साथ तादात्म्य
बनाना समाप्त
कर दिया था।
वे फिर जन्म
लेते हैं
क्योंकि
इच्छा के बीज
बने रहते हैं।
बुद्ध
भी जन्म लेते
हैं। अपने
पिछले जन्म
में वे
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध हो
चुके थे, लेकिन
बीज मौजूद थे।
उन्हें एक बार
और आना ही था।
महावीर भी
जन्म लेते हैं,
बीज उन्हें
ले आते हैं। लेकिन
यह अंतिम जन्म
ही होता है।’असंप्रज्ञात
समाधि के
पश्चात केवल
एक जीवन संभव
है। लेकिन तब
जीवन की
गुणवत्ता
संपूर्णतया
भिन्न होगी
क्योंकि यह
व्यक्ति देह
के साथ तादात्थ
नहीं बनायेगा।
और इस व्यक्ति
को वस्तुत:
कुछ करना
नहीं. होता क्योंकि
मन की क्रिया
समाप्त हो
चुकी है। तो
क्या करेगा वह?
इस जिंदगी
की ही जरूरत
किसलिए है? उसे तो बस उन
बीजों को व्यक्त
होने देना है,
और वह
साक्षी बना
रहेगा। यही है
अग्रि।
एक
व्यक्ति आया
और बुद्ध पर
यूक दिया; वह
क्रोध में था।
बुद्ध ने अपना
चेहरा पोंछा
और पूछा, 'तुम्हें
और क्या कहना
है?' वह
आदमी नहीं समझ
सका। वह सचमुच
क्रोध में था,
लाल—पीला
हुआ जा रहा था।
वह तो समझ ही न
सका कि बुद्ध
क्या कह रहे
थे। और सारी
बात ही इतनी
बेतुकी थी, क्योंकि
बुद्ध ने
प्रतिक्रिया
नहीं की थी।
वह आदमी
बिलकुल
असमंजस में पड़
गया कि क्या
करे, क्या
कहे। वह चला
गया। सारी रात
वह सो नहीं
सका। कैसे सो
सकते हो तुम, जब किसी का
अपमान कर दो
और
प्रतिक्रिया
ही न मिले? तब
तुम्हारा
अपमान
तुम्हारे पास
वापस चला आता
है। तुमने तीर
फेंक दिया है,
पर इसे
प्रवेश नहीं
मिला है। यह
वापस आ जाता
है। कोई आश्रय
न पा यह वापस
स्रोत तक लौट
आता है। उसने
बुद्ध का
अपमान किया, किंतु अपमान
वहां कोई
आश्रय न पा
सकता था तो यह
कहां जायेगा?
यह
वास्तविक
मालिक तक आ
पहुंचता है।
सारी
रात वह
व्यग्रता से
बेचैन रहा था; वह
विश्वास नहीं
कर सकता था उस
पर, जो
घटित हुआ। और
फिर उसने
पछताना शुरू
कर दिया; यह
अनुभव करना कि
वह गलत था; कि
उसने अच्छा
नहीं किया।
अगली सुबह
बहुत जल्दी वह
गया और उसने
क्षमा मांगी।
बुद्ध बोले, 'इसके लिए
चिंता मत करो।
अतीत में जरूर
मैंने
तुम्हारे साथ
कुछ बुरा किया
है। अब हिसाब
पूरा हो गया
है। और मैं
प्रतिक्रिया
करने वाला
नहीं। वरना
यही बार—बार
होता रहेगा।
खअ हुई बात।
मैं
प्रतिक्रियात्मक
नहीं हुआ।
क्योंकि यह
बीज कहीं था, इसे समाप्त
होना ही था।
अब मेरा हिसाब
तुम्हारे साथ
समाप्त हुआ।’
इस
जीवन में, कोई
'विदेह' —जो जान लेता
है कि वह देह
नहीं है, जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध हो
चुका है—संसार
में आता है मात्र
हिसाब—किताब
बंद करने को
ही। उसका सारा
जीवन समाप्त
हो रहे
हिसाबों से
बना होता है।
लाखों जन्म, ढेरों संबंध,
बहुत सारे
उलझाव और वादे—हर
चीज को समाप्त
हो जाने देना
है।
ऐसा
घटित हुआ कि
बुद्ध एक गांव
में आये। सारा
गांव एकत्रित
हुआ;
वे उत्सुक
थे उन्हें
सुनने को। यह
एक दुर्लभ
अवसर था।
राजधानियां
भी सतत बुद्ध
को आमंत्रित
करती रहती थीं,
और वे नहीं
पहुंचते थे।
किंतु वे इस
गांव में आये
जो जरा मार्ग
से हट कर था—और
बिना किसी
निमंत्रण के
आये क्योंकि ग्रामबासी
कभी साहस न
जुटा सकते थे
उनके पास जाने
और उन्हें
गांव में आने
के लिए कहने
का। यह थोड़ी—सी
झोपड़ियों
वाला एक छोटा—सा
गांव था, और
बुद्ध बगैर
किसी
निमंत्रण के
ही आ गये थे।
सारा गांव
उत्तेजना से
प्रज्वलित था,
और वे वृक्ष
के नीचे बैठे
हुए थे और बोल
नहीं रहे थे।
कुछ
लोग कहने लगे, ' आप
अब किसके लिए
प्रतीक्षा कर
रहे हैं? सब
लोग है यहां; सारा गांव
यहां है। आप
आरंभ करें।’ बुद्ध बोले,
'पर मुझे
प्रतीक्षा
करनी है
क्योंकि मैं
किसी के लिए
यहां आया हूं
जो यहां नहीं
है। एक वचन
पूरा करना है,
एक हिसाब
पूरा करना है।
मैं उसी के
लिए
प्रतीक्षा कर
रहा हूं।’ फिर
एक युवती आयी,
तो बुद्ध ने
प्रवचन आरंभ
किया। उनके
बोलने के बाद
लोग पूछने लगे,
'क्या आप
इसी युवती की
प्रतीक्षा कर
रहे
यह
युवती तो अछूत
है,
सबसे नीच
जाति की। कोई
सोच तक न सकता
था कि बुद्ध
उसकी
प्रतीक्षा कर
सकते थे। वे
बोले, 'हां,
मैं उसकी
प्रतीक्षा कर
रहा था। जब
मैं आ रहा था, वह मुझे राह
में मिली और
वह बोली, जरा
प्रतीक्षा
कीजिएगा, मैं
दूसरे शहर
किसी काम से
जा रही हूं।
पर मैं जल्दी
आऊंगी।’ और
पिछले जन्मों
में कहीं
मैंने उसे वचन
दिया था कि जब
मैं संबोधि को
उपलब्ध हो
जाऊं तो मैं आऊंगा
और जो कुछ
मुझे घटा उस
बारे में उसे
बताऊंगा। वह
हिसाब पूरा
करना ही था।
वह वचन मुझ पर
लटक रहा था।
और यदि मैं
इसे पूरा नहीं
कर सकता तो
मुझे फिर आना
होता।’
'विदेह' या
'प्रकृतिलय'
—दोनों शब्द
सुंदर हैं।’विदेह' का
अर्थ है वह, जो
देहविहीनता
में जीता है।
जब तुम असंप्रशांत
समाधि को
उपलब्ध होते
हो तो देह तो
होती है, लेकिन
तुम देहशन्य
होते हो। तुम
अब देह नहीं
रहे। देह
निवासस्थान
बन जाती है।
तुमने तादात्म्य
नहीं बनाया।
ये
दो शब्द सुंदर
हैं— 'विदेह' और
'प्रकृतिलय'।’विदेह'
का अर्थ है—वह,
जो जानता है
कि वह देह
नहीं है।
ध्यान रहे, जो जानता है,
विश्वास ही
नहीं करता है।’प्रकृतिलय'
वह है, जो
जानता है कि
वह शरीर नहीं
है; अब वह
प्रकृति नहीं
रहा।
देह
भौतिक से
संबंध रखती है।
एक बार
तुम्हारा
पदार्थ के साथ, बाह्य
के साथ तादात्म्य
टूट जाता है
तो तुम्हारा
प्रकृति से
संबंध विसर्जित
हो जाता है।
वह व्यक्ति जो
इस अवस्था को
उपलब्ध हो
जाता है जहां
वह अब देह
नहीं रहता; जो उस
अवस्था को
प्राप्त करता
है, जिसमें
अब वह अभिव्यक्त
न रहा, प्रकृति
न रहा, तब
उसका प्रकृति
से नाता
समाप्त हो
जाता है। उसके
लिए अब कोई
संसार नहीं; उसका अब कोई तादात्म्य
नहीं है। वह
इसका साक्षी
बन गया है।
ऐसा व्यक्ति
भी कम से कम एक
बार
पुनर्जन्म
लेता है
क्योंकि उसे
बहुत सारे
हिसाब समाप्त
करने होते हैं।
बहुत वचन पूएर
करने हैं, बहुत
सारे कर्म
गिरा देने हैं।
ऐसा
हुआ कि बुद्ध
का चचेरा भाई
देवदत्त उनके
विरुद्ध था।
उसने उन्हें
मारने का बहुत
तरीकों से
प्रयत्न किया।
बुद्ध ध्यान
करते एक वृक्ष
के नीचे रुके
थे। उसने पहाड़
से एक विशाल
चट्टान नीचे
लुड़का दी।
चट्टान चली आ
रही थी, हर
कोई भाग खड़ा
हुआ। बुद्ध
वहीं बने रहे
वृक्ष के नीचे
बैठे हुए। यह
खतरनाक था, और वह
चट्टान आयी उन
तक, बस
छूकर निकल गयी।
आनंद ने उनसे
पूछा, ' आप
भी क्यों नहीं
भागे, जब हम
सब भाग खड़े
हुए थे? काफी
समय था! '
बुद्ध
बोले, 'तुम्हारे
लिए काफी समय
है। मेरा समय
समाप्त है। और
देवदत्त को यह
करना ही था।
पिछले किसी
समय का, किसी
जीवन का कोई
कर्म था।
मैंने उसे दी
होगी कोई पीड़ा,
कोई व्यथा,
कोई चिंता।
इसे पूरा होना
ही था। यदि
मैं बच निकलूं
यदि मैं कुछ
करूं तो फिर
एक नया जीवन
अनुक्रम शुरू
हो जाये।’
एक
विदेही—स्व
व्यक्ति जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध हो
चुका है, प्रतिक्रिया
नहीं करता। वह
तो सिर्फ
देखता है, साक्षी
है। और यही
साक्षी होने
की अग्रि है
जो अचेतन के सारे
बीजों को जला
देती है। तब एक
क्षण आता है
जब भूमि पूर्णतया
शुद्ध होती है।
अंकुरित होने
की प्रतीक्षा
में कोई बीज
नहीं रहता।
फिर वापस आने
की कोई
आवश्यकता
नहीं रहती।
पहले प्रकृति
विलीन होती है,
और फिर वह
स्वयं को
विसर्जित
करता है
ब्रह्मांड
में।
'विदेही और
प्रकृतिलय
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते
हैं क्योंकि
उन्होंने
अपने पिछले
जन्म में अपने
शरीरों के साथ
तादात्म्य
बनाना बंद कर
दिया था। वे
पुनर्जन्म
लेते हैं
क्योंकि
इच्छा के बीज बचे
हुए थे।’
मैं
यहां कुछ पूरा
करने को हूं; तुम
यहां मेरा
हिसाब पूरा
करने को हो।
तुम यहां
सयोगवशांत
नहीं हो।
संसार में
लाखों
व्यक्ति हैं।
तुम्हीं यहां
क्यों हो, और
दूसरा कोई
क्यों नहीं है?
कुछ पूरा
करना है।
दूसरे जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते
हैं वे श्रद्धा
वीर्य
(प्रयत्न) स्मृति
एकाग्रता और
विवेक द्वारा
उपलब्ध होते
हैं।
तो ये दो
संभावनाएं
हैं। यदि तुम
पिछले जन्म
में
असंप्रज्ञात
समाधि को उपलब्ध
हो चुके हो, तो
इस जन्म में
तुम लगभग
बुद्ध की
भांति जन्मते
हो। कुछ बीज
हैं जिन्हें
पूरा करना है,
जिन्हें
गिराना है, जलाना है।
इसीलिए मैं
कहता हूं तुम
करीब—करीब
बुद्ध की
भांति ही उत्पन्न
होते हो।
तुम्हें कोई
जरूरत नहीं है
कुछ करने की; जो कुछ घटित
हो, तुम्हें
तो बस देखना
है।
इसीलिए
कृष्णमूर्ति
निरंतर जोर
देते है कि कोई
जरूरत नहीं
कुछ करने की।
उनके लिए यह
ठीक है, उनके श्रोताओं
के लिए यह ठीक
नहीं। उनके
श्रोताओं के
लिए बहुत कुछ
है करने को, और वे भटक
जायेंगे इस
कथन द्वारा।
वे स्वयं के
बारे में बोल
रहे हैं। वे
असंप्रज्ञात
बुद्ध ही उत्पन्न
हुए। वे
विदेही उत्पन्न
हुए, वे
प्रकृतिलय उत्पन्न
हुए।
जब
वे केवल पाच
वर्ष के थे, वे
स्थान कर रहे
थे मद्रास में,
अडियार के
निकट भारत में,
और सबसे
महान
थिआसाफिस्ट
लेडबीटर ने
उन्हें देखा।
वे बिलकुल ही
अलग प्रकार के
बच्चे थे। अगर
कोई उन पर
कीचड़ फेंक रहा
होता, तो
वे
प्रतिक्रिया
न करते। बहुत
सारे बच्चे
खेल रहे थे।
अगर कोई
उन्हें नदी
में धकेल देता,
तो वे बस
चले जाते। वे
क्रोधित न
होते। वे लड़ाई
शुरू न करते।
उनकी बिलकुल
अलग गुणवत्ता
थी—असंप्रशांत
बुद्ध की
गुणवत्ता।
लेडबीटर ने
एनी बीसेंट की
बुलाया इस
बच्चे को
देखने के लिए।
वह कोई साधारण
बालक न था, और
सारा थिआसाफी
आंदोलन उसके
चारों ओर
घूमने लगा।
उन्होंने
बड़ी आशा की थी
कि वह अवतार
होगा; कि वह इस
युग का
श्रेष्ठतम
गुरु होगा।
लेकिन समस्या
गहरी थी।
उन्होंने सही
व्यक्ति को
चुन लिया था, किंतु
उन्होंने गलत
ढंग से आशा की
थी। क्योंकि
वह व्यक्ति जो
असंप्रज्ञात
बुद्ध के समान
उत्पन्न
होता है, अवतार
की भांति
सक्रिय नहीं
हो सकता। सारी
क्रिया
समाप्त हो गयी
है। वह मात्र
देख सकता है; वह एक
साक्षी हो
सकता है। उसे
बहुत सक्रिय
नहीं बनाया जा
सकता। वह केवल
एक निष्कियता
हो सकता है।
उन्होंने सही
व्यक्ति चुन
लिया था, पर
फिर भी वह गलत
था।
और
उन्होंने
बहुत ज्यादा
आशा बांध रखी
थी। सारा आंदोलन
कृष्णमूर्ति
के चारों ओर
तेजी से घूमने
लगा। जब वे
इससे बाहर हो
अलग हो गये, तो
वे बोले, 'मैं
कुछ नहीं कर
सकता क्योंकि
किसी चीज की
जरूरत नहीं है।’
सारा आंदोलन
ही विफल हो
गया क्योंकि
उन्होंने इस
आदमी से बड़ी
आशा रखी थी, और फिर सारी
बात ने ही
पूर्णतया अलग
मोड़ ले लिया।
किंतु इसकी
भविष्यवाणी
पहले से ही की
जा सकती थी।
एनी
बीसेंट, लेडबीटर
और दूसरे, वे
बहुत प्यारे
व्यक्ति थे, पर वास्तव
में पूरब की
विधियों के
प्रति सजग न
थे। उन्होंने
पुस्तकों से,
शास्त्रों
से बहुत कुछ
सीख लिया था, किंतु वे
ठीक—ठीक रहस्य
को न जानते थे
जिसे पतंजलि
दर्शा रहे हैं;
कि एक
असंप्रज्ञात
बुद्ध, एक
विदेह जन्म
लेता है, पर
वह सक्रिय
नहीं होता। वह
एक निष्कियता
होता है। उसके
द्वारा बहुत
कुछ हो सकता
है, पर वह
तभी हो सकता
है जब कोई आये
और उसे समर्पण
करे। क्योंकि
वह एक
निक्रियता है।
वह बाध्य नहीं
कर सकता
तुम्हें कुछ
करने को। वह
मौजूद है, लेकिन
वह आक्रामक
नहीं हो सकता।
उसका
निमंत्रण
पूरा है और
सबके लिए है।
यह एक खुला
निमंत्रण है, पर
वह विशेष रूप
से तुम्हें
निमंत्रण
नहीं भेज सकता,
क्योंकि वह
सक्रिय हो
नहीं सकता। वह
एक खुला द्वार
है; अगर
तुम्हें पसंद
हो, तुम
गुजर सकते हो।
आखिरी जीवन एक
परम
निष्कियता
होता है।
मात्र
साक्षित्व।
यह एक मार्ग
है :
असंप्रज्ञात
बुद्ध जन्म ले
सकते हैं पिछले
जन्म की
परिस्थिति के
परिणामवश।
किंतु
इस जन्म में
भी कोई
असंप्रज्ञात
बुद्ध बन सकता
है,
उनके लिए
पतंजलि कहते
हैं : श्रद्धा
वीर्य स्मृति
समाधि
प्रज्ञा।
दूसरे हैं जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते
हैं श्रद्धा प्रयत्न
स्मृति
एकात्रता और
विवेक द्वारा?
इसका
अनुवाद करना
लगभग असंभव है
अत: मैं अनुवाद
करने की
अपेक्षा
व्याख्या
करूंगा, तुम्हें
अनुभूति देने
को ही, क्योंकि
शब्द तुम्हें
भटका देंगे।
श्रद्धा
ठीक—ठीक
विश्वास जैसी
नहीं होती। यह
आस्था की
भांति अधिक है।
आस्था बहुत ही
अलग है
विश्वास से।
विश्वास वह
चीज है जिसमें
तुम जन्मते हो; आस्था
वह है जिसमें
तुम विकसित
होते हो।
हिंदू होना एक
विश्वास है; ईसाई होना
विश्वास है, मुसलमान
होना विश्वास
है। पर यहां
मेरे साथ
शिष्य होना
आस्था है। मैं
किसी विश्वास
की मांग नहीं
कर सकता—स्मरण
रखना। जीसस भी
किसी विश्वास
की मांग न कर
सकते थे क्योंकि
विश्वास वह है,
जिसमें तुम
जन्मते भर हो।
यहूदी
विश्वास से
भरे थे; उनमें
विश्वास था।
और वस्तुत:
इसीलिए
उन्होंने
जीसस को
समाप्त कर
दिया।
क्योंकि
उन्होंने
सोचा कि वे
उन्हें
विश्वास से
बाहर ला रहे
हैं, उनका
विश्वास नष्ट
कर रहे हैं।
जीसस
आस्था के लिए
कह रहे थे।
आस्था एक
व्यक्तिगत
निकटता है, यह
कोई सामाजिक
घटना नहीं।
तुम इसे अपने
प्रत्युत्तर,
रेसपान्स
द्वारा
प्राप्त करते
हो। कोई आस्था
में उलत्र
नहीं हो सकता,
पर विश्वास
में उत्पन्न
हो सकता है।
विश्वास एक मरी
हुई श्रद्धा
है; श्रद्धा
एक जीवंत
विश्वास है।
अत: इस भेद को
समझने की
कोशिश करना।
श्रद्धा
वह है जिसमें
किसी को
विकसित होना
है। और यह
हमेशा
व्यक्तिगत
होती है। जीसस
के पहले शिष्य
श्रद्धा को
प्राप्त हुए।
वे यहूदी थे, जन्मतः
यहूदी। वे
अपने विश्वास
से बाहर सरक
आये थे। यह एक
विद्रोह था।
विश्वास एक
अंधविश्वास
है; श्रद्धा
विद्रोह है।
श्रद्धा पहले
तुम्हें
तुम्हारे
विश्वास से दूर
ले जाती है।
इसे ऐसा होना
ही होता है, क्योंकि अगर
तुम मुरदा
कब्रिस्तान
में रह रहे
होते हो तब
पहले तुम्हें
इससे बाहर आना
होता है। केवल
तभी तुम्हें
फिर जीवन से
परिचित कराया
जा सकता है।
जीसस लोगों को
श्रद्धा की ओर
लाने का
प्रयत्न करते
रहे। दिखायी
हमेशा यह
पड़ेगा कि वे
उनका विश्वास
नष्ट कर रहे
हैं।
अब
जब कोई ईसाई
मेरे पास आता
है,
तब वही
स्थिति फिर से
दोहरायी जाती
है। ईसाइयत एक
विश्वास है, जैसे जीसस
के वक्त में
यहूदी धर्म एक
विश्वास
मात्र ही था।
जब कोई ईसाई
मेरे पास आता
है, मुझे
उसे फिर उसके विश्वास
से बाहर लाना
होता है—उसे
श्रद्धा की ओर
बढ़ने में मदद
देने को। धर्म
विश्वास पर
आधारित होते
हैं, किंतु
धार्मिक होना
श्रद्धा में
होना है। और
धार्मिक होने का
अर्थ ईसाई
होना, हिंदू
होना या
मुसलमान होना
नहीं है, क्योंकि
श्रद्धा का
कोई नाम नहीं
होता; इस
पर लेबल नहीं
लगा होता। यह
प्रेम की
भांति है।
क्या प्रेम
ईसाई, हिंदू
या मुसलमान
होता है? विवाह
ईसाई, हिंदू
या मुसलमान
होता है।
प्रेम? प्रेम
तो जाति को, भेदों को नहीं
जानता। प्रेम
किन्हीं
हिंदुओं या
ईसाइयों को
नहीं जानता।
विवाह
विश्वास की
भांति है; प्रेम
है श्रद्धा की
भांति।
तुम्हें
इसमें विकसित
होना है। यह
एक साहसिक
अभियान है।
विश्वास कोई
साहस नहीं है।
तुम इसी में
पैदा हुए हो; यह
सुविधाजनक है।
अगर तुम आराम
और सुविधा को
खोज रहे हो, तो बेहतर है
विश्वास में
ही बने रहो।
बने रहो हिंदू
या ईसाई।
नियमों पर चलो।
किंतु यह एक
मुरदा बात बनी
रहेगी, जब
तक तुम अपने
हृदय से उतर न
पाओ, जब तक
तुम अपनी
जिम्मेदारी
पर धर्म में
प्रवेश न करो।
और इसलिए नहीं
कि तुम ईसाई
पैदा हुए। तुम
जन्मजात ईसाई
कैसे हो सकते
हो?
धर्म
जन्म के साथ
कैसे संबद्ध
हो सकता है? जन्म
तुम्हें धर्म
नहीं दे सकता।
यह तुम्हें एक
समाज, एक
पंथ, एक
सिद्धात, एक
संप्रदाय दे
सकता है; यह
तुम्हें दे
सकता है
अंधविश्वास।
यह शब्द
अंधविश्वास
यानी सुपरस्टिशन
बहुत
अर्थपूर्ण है।
इसका अर्थ है '
अनावश्यक
विश्वास।’ सुपर
शब्द का अर्थ
है अनावश्यक
अतिरिका, सुपरल्फुस।
विश्वास, जो
अनावश्यक बन
गया है, विश्वास
जो मुरदा बन
गया है। किसी
समय शायद यह
जीवित रहा हो,
पर धर्म को
फिर—फिर जन्म
लेना होता है।
ध्यान
रहे,
तुम धर्म
में पैदा नहीं
होते, धर्म
तुममें बार—बार
पैदा होता है।
तब यह होती है
श्रद्धा। तुम
अपने बच्चों
को तुम्हारा
धर्म नहीं दे
सकते। उन्हें
खोजना होगा और
उन्हें उनका
अपना धर्म
पाना होगा।
प्रत्येक को
अपना धर्म
खोजना है और
पाना है। यह
एक जोखम है, साहस है, सबसे
बड़ा साहस। तुम
अज्ञात में
बढ़ते हो।
पतंजलि
कहते हैं, श्रद्धा
पहली चीज है, अगर तुम
असंप्रशांत
समाधि को
उपलब्ध होना
चाहते हो।
संप्रज्ञात
समाधि के लिए
तुम्हें तर्क
की जरूरत है—सम्यक
तर्क की। भेद
को समझो।
संप्रज्ञात
समाधि के लिए
सम्यक तर्क, सम्यक विचार
आधार है।
असंप्रज्ञात
समाधि के लिए—सम्यक
श्रद्धा—तर्कणा
नहीं।
तर्क
नहीं बल्कि एक
तरह का प्रेम
होता है। और
प्रेम अंधा
होता है। यह
तार्किक
बुद्धि को
अंधा दिखता है
क्योंकि यह एक
छलांग है
अंधेरे में।
तर्कगत
बुद्धि पूछती
है,
'कहां जा
रहे हो तुम? ज्ञात
क्षेत्र में
बने रहो। और
प्रयोजन क्या
है नयी घटना
में जाने का? क्यों न
पुरानी परत
में ही ठहरे
रही? यह
शुइवधापूर्ण
है, आरामदायक
है और जो कुछ
तुम चाहते हो,
यह पहुंचा
सकती है।’ किंतु
प्रत्येक को
उसका अपना
मंदिर खोजना
होता है। केवल
तभी वह .जे ?? होता
है।
तुम
यहां मेरे पास
हो;
यह है
श्रद्धा। जब
मैं यहां नहीं
रहूंगा, तुम्हारे
बच्चे शायद
यहां होंगे।
वह होगा
विश्वास।
श्रद्धा घटित
होती है केवल
जीवित गुरु के
साथ; विश्वास
होता है मृत
गुरुओं के
प्रति, जो
अब नहीं रहे।
पहले शिष्यों
के पास धर्म
होता है।
दूसरी और
तीसरी पीढ़ी
धीरे— धीरे
धर्म खो देती
है। तब यह
संप्रदाय बन
जाता है। तब
तुम आसानी से
उस पर चलते हो
क्योंकि तुम
इसमें उत्पन्न
हुए होते हो।
यह एक कर्तव्य
होता है, प्रेम
नहीं। यह एक
सामाजिक आचार—संहिता
है। यह बात
मदद करती है, लेकिन यह
तुममें गहरे
नहीं उतरी
होती। यह तुम
तक कुछ नहीं
लाती, यह
घटना नहीं है।
यह तुममें
प्रकट हो रही
गहराई नहीं है।
यह मात्र एक
सतह है, एक
आकार। जरा जाओ
और चर्च में
देखो। रविवार
को जाने वाले
लोग! वे जाते
है, वे
प्रार्थना भी
करते हैं। पर
वे प्रतीक्षा
कर रहे होते
है कि कब यह
समाप्त हो!
एक
छोटा बच्चा
चर्च में बैठा
हुआ था। पहली
बार ही वह आया
था,
और वह सिर्फ
चार साल का था।
मां ने उससे
पूछा, 'तुमने
इसे पसंद किया?'
वह बोला, 'संगीत अच्छा
है, लेकिन
कमर्शियल
बहुत लंबा है।’
जब
तुममें कोई
श्रद्धा न हो
तब यह
कमर्शियल ही
होता है।
श्रद्धा
सम्यक आस्था
है,
विश्वास
असम्यक आस्था
है। किसी
दूसरे से मत ग्रहण
करो धर्म। तुम
इसे उधार नहीं
ले सकते। वह
तो धोखा हुआ।
तब तो तुम इसे
पा रहे हो
इसके लिए बिना
कुछ खर्च किये।
और हर चीज की
कीमत चुकानी
होती है।
असंप्रशांत
समाधि को
उपलब्ध होना
सस्ता मामला
नहीं है।
तुम्हें पूरी
कीमत चुकानी
होती है। और
पूरी कीमत है—तुम्हारा
समग्र
अस्तित्व।
ईसाई
होना मात्र एक
लेबल है; धार्मिक
होना लेबल
नहीं है।
तुम्हारा
संपूर्ण
अस्तित्व
संलग्र होता
है। यह एक
प्रतिबद्धता
होती है।
लोग
मेरे पास आते
है और वे कहते
हैं,
'हम आपसे
प्रेम करते
हैं। जो कुछ
भी आप कहते है,
अच्छा है। किंतु
हम संन्यास
नहीं लेना
चाहते
क्योंकि हम
वचनबद्ध नहीं
होना चाहते।’
पर जब तक
तुम वचनबद्ध न
होओ, अंतर्ग्रस्त
न होओ, तुम
विकसित नहीं
हो सकते, क्योंकि
तब कोई संबंध
नहीं होता। तब
तुम्हारे और
मेरे बीच शब्द
होते है, संबंध
नहीं। तब मैं
एक शिक्षक हो
सकता हूं
लेकिन मैं
तुम्हारा
गुरु नहीं
होता। तब तुम
एक
विद्यार्थी
हो सकते हो, पर शिष्य
नहीं।
श्रद्धा
प्रथम द्वार
है,
दूसरा
द्वार है
वीर्य। वह भी
कठिन है। इसे
प्रयत्न की
तरह अनूदत
किया जाता है।
नहीं, प्रयत्न
तो इसका
हिस्सा मात्र
है। वीर्य
शब्द का अर्थ
बहुत सारी
चीजों से है, लेकिन इसका
बहुत गहन अर्थ
है—जैविक ऊर्जा।
अनेक अर्थों
में वीर्य का
एक अर्थ है
शुक्राणु काम—ऊर्जा।
अगर तुम ठीक
से इसका
अनुवाद करना
चाहते हो, तो
वीर्य है
जैविक ऊर्जा,
तुम्हारी
समग्र ऊर्जा,
तुम्हारा
ऊर्जामय रूप।
निस्संदेह, यह ऊर्जा
केवल प्रयास
द्वारा लायी
जा सकती है; इसलिए इसका
एक अर्थ
प्रयास है।
लेकिन यह बड़ा
क्षुद्र अर्थ
हुआ; उतना
विराट नहीं है
जितना कि
वीर्य शब्द।
वीर्य
का अर्थ होता
है कि
तुम्हारी
संपूर्ण ऊर्जा
को इसमें ले
आना। केवल मन
काम न देगा।
तुम मन से हां
कह सकते हो, लेकिन
यह काफी न
होगा। कुछ भी
बचाये बिना
स्वयं को पूरा
का पूरा दांव
पर लगाने की
जरूरत होती है—यही
है वीर्य का
अर्थ। और यह
तभी संभव होता
है, जब
श्रद्धा हो।
अन्यथा तुम
कुछ बचा लोगे
मात्र
सुरक्षित होने
के लिए ही, निरापद
होने के लिए
ही। तुम्हें
लगेगा, 'यह
आदमी शायद
हमें गलत दिशा
में ले जा रहा
हो और हम किसी
भी क्षण पीछे
हटने की सुविधा
बनाये रखना
चाहते हैं। एक
क्षण में हम
कह सकें कि बस,
जितना है
काफी है, अब
और नहीं।’
तुम
तुम्हारा
अपना एक
हिस्सा रोके
रहते हो सिर्फ
सावधानी से
देखने के लिए
ही कि यह आदमी
कहां ले जा
रहा है। मेरे
पास लोग आते
हैं और वे
कहते हैं, 'हम
सतर्कता से
देख रहे हैं। पहले
हमें देखने
दें कि क्या
घट रहा है।’ वे बहुत
चालाक हैं—नासमझ
चालाक—क्योंकि
ये चीजें बाहर
से नहीं देखी
जा सकतीं। जो
घट रही है वह आंतरिक
घटना है। कई
बार तुम देख
भी नहीं सकते
कि किसे यह घट
रही है। बहुत
बार केवल मैं
देख सकता हूं
जो घट रहा है।
तुम बाद में
ही सजग होते
हो उसके प्रति,
जो घटित हुआ
है।
दूसरे
नहीं देख सकते।
बाहर से कोई
संभावना नहीं
देखने की।
कैसे तुम बाहर
से देख सकोगे
गु: शारीरिक
मुद्रा तुम
देख सकते हो।
लोग ध्यान कर
रहे हैं, यह
तुम देख सकते
हो। लेकिन जो
अंदर घटित हो
रहा है वह
ध्यान है। जो
वे बाहर कर
रहे हैं वह
केवल स्थिति
का निर्माण
करना है।
ऐसा
हुआ कि एक
बहुत बड़ा सूफी
गुरु था, जलालुद्दीन।
उसका एक छोटा—सा
विद्यालय था
अनूठे
शिष्यों का।
वे अनूठे थे
क्योंकि वह
बहुत ध्यान से
चुनने वाला
गुरु था। जब
तक कि उसने
उसे चुन ही न
लिया हो, वह
किसी को न आने
देता। उसने
बहुत थोड़े
लोगों पर काम
किया, लेकिन
जो लोग वहां
से गुजरते, कई बार उसे
देखने आ जाते
जो वहां घटित
हो रहा था। एक
बार लोगों की
एक टोली आयी—कुछ
प्रोफेसर थे।
वे हमेशा बड़े
सजग लोग होते
हैं, बड़े
चालाक। और
उन्होंने
देखा। गुरु के
घर में, अहाते
में ही, पचास
लोगों का समूह
बैठा हुआ था, और वे
पागलों जैसी
मुद्राएं बना
रहे थे। कोई
हंस रहा था, कोई रो—चीख
रहा था, कोई
कूद रहा था।
प्रोफेसर
लोग देखते रहे।
वे बोले, 'क्या
हो रहा है? यह
आदमी उन्हें
पागलपन की ओर
ले जा रहा है।
वे पागल ही
हैं और वे
मूर्ख हैं
क्योंकि एक
बार कोई पागल
हो जाता है तो
वापस लौटना
कठिन होता है।
और यह तो
बिलकुल
मूर्खता हो
गयी। हमने इस
तरह की बात
कभी नहीं
सुनी। जब लोग
ध्यान करते
हैं, वे
शांतिपूर्वक
बैठते हैं।'
और
उनके बीच बहुत
विवाद हुआ।
उनके एक वर्ग
ने कहा, 'चूंकि
हम नहीं जानते
क्या घट रहा
है, तो कोई
निर्णय देना
अच्छा नहीं
है। 'फिर
उनमें लोगों
का एक तीसरा
वर्ग था जो
बोला, 'जो
कुछ भी हो, यह
आनंददायक है।
हम देखना
चाहेंगे। यह
सुंदर है। हम
क्यों नहीं
इसका आनंद ले
सकते ' जो
वे कर रहे हैं
उसकी क्यों
फिक्र करें? उन्हें
देखना भर ही
इतना सुंदर
है। '
कुछ
महीनों बाद, फिर
वही टोली
आश्रम में आयी
देखने को। अब
क्या हो रहा
था? हर कोई
मौन था। पचास
व्यक्ति वहां
थे, गुरु
था वहां। वे
शांति से बैठे
हुए थे—इतने मौनपूर्वक,
जैसे कि
वहां कोई था
ही नहीं। वे
मूर्तियों की
भांति थे। फिर
बहस छिड़ी।
उनका एक वर्ग
था जो कहने
लगा, ' अब वे
बेकार हैं।
देखने को है
क्या? कुछ
नहीं। पहली
बार हम आये थे
तो यह सुंदर
था। हमने इसका
मजा लिया।
लेकिन अब वे
सिर्फ ऊबाऊ है।.
दूसरा वर्ग
बोला, 'पर
लगता है कि वे
ध्यान कर रहे
हैं। पहली बार
तो वे पागल—से
ही थे। यह सही
चीज है करने
की, इसी
तरह ध्यान
किया जाता है।
यह शाखों में
लिखा हुआ है।
इसी तरह से
व्याख्या की
गयी है। '
किंतु
फिर भी उनमें
एक तीसरा वर्ग
था जिसने कहा, 'हम
ध्यान के बारे
में कुछ भी
नहीं जानते।
कैसे निर्णय
दे सकते हैं
हम?'
तब, फिर
कुछ महीनों
बाद वह टोली
आयी। अब वहां
कोई न था।
केवल वे
सद्गुरु बैठे
थे और मुसकुरा
रहे थे। सारे
शिष्य गायब हो
गये थे। अत: उन्होंने
पूछा, 'क्या
हो रहा है? पहली
बार हम आये तो
वहा पागल भीड़
थी, और
हमने सोचा कि
यह व्यर्थ था
और आप लोगों
को पागल किये
दे रहे थे।
अगली बार हम
आये तो वत् बहुत
अच्छा था। लोग
ध्यान कर रहे
थे। कहां चले
गये हैं वे सब?'
सद्गुरु
ने कहा, 'काम
हो चुका है, इसलिए शिष्य
यहां नहीं
रहे। और मैं
प्रसन्नतापूर्वक
मुसकुरा रहा
हूं क्योंकि
घटना घट चुकी।
और तुम हो
नासमझ। जानता
हूं मैं।
देखता मैं भी
रहा हूं केवल
तुम्हीं
नहीं। मैं
जानता हूं
तुम्हारे बीच
जो विवाद चल
रहे थे, और
जो तुम पहली
बार और दूसरी
बार सोच रहे
थे, 'जलालुद्दीन
ने कहा, 'वह
कोशिश जो
तुमने तीन बार
यहां आने में
की वह काफी थी
तुम्हारे
ध्यानी बनने
के लिए। और
जिस वादविवाद
में तुम पड़े
थे, उसमें
जो ऊर्जा
तुमने लगायी
उतनी ऊर्जा
काफी थी
तुम्हें शांत
बना देने को।
और उसी अवधि
मे वे शिष्य
जा चुके हैं, और तुम उसी
स्थान पर खडे
हुए हो। भीतर
आओ। बाहर से
मत देखो। ' वे
बोले, 'हां,
इसीलिए तो
हम फिर—फिर आ
रहे हैं देखने
को, कि
क्या घट रहा
है। जब हम
निश्चित हो
जायें तो ठीक
है। अन्यथा हम
प्रतिबद्ध
नहीं होना
चाहते। '
चालाक
लोग कभी
प्रतिबद्ध नहीं
होना चाहते, लेकिन
क्या कोई जीवन
होता है बिना
प्रतिबद्धता
का? लेकिन
चालाक लोग
सोचते है कि
प्रतिबद्धता
बंधन है।
लेकिन क्या
कोई
स्वतंत्रता
होती है बिना
बंधन की? पहले
तुम्हें
संबंध में
उतरना होता है;
केवल तभी
तुम उसके पार
जा सकते हो।
पहले तुम्हें
गहरी प्रतिबद्धता
में उतरना
होता है—गहराई
से गहराई का, हृदय से
हृदय का संबंध,
और केवल तब
तुम इसके पार
हो सकते हो।
दूसरा कोई
मार्ग नहीं है।
अगर तुम बाहर
ही खड़े रहो, और देखते
रहो, तो
तुम कभी मंदिर
में प्रवेश
नहीं कर सकते।
मंदिर
प्रतिबद्धता
है। और फिर
कोई संबंध
नहीं हो सकता।
गुरु
और शिष्य एक
प्रेम संबंध
में होते हैं।
यह उच्चतम
प्रेम है, जो
संभव है। जब
तक कि संबंध न
हो, तुम
विकसित नहीं
हो सकते।
पतंजलि
कहते हैं, 'पहली
बात है
श्रद्धा और
दूसरी ऊर्जा—प्रयास।’
तुम्हारी
सारी ऊर्जा को
ले आना होता
है, एक
हिस्सा काम न
देगा। यह घातक
भी हो सकता है
अगर तुम केवल
आशिक रूप से
भीतर आओ और
आशिक रूप से
बाहर भी बने
रहो। क्योंकि
यह बात
तुम्हारे
भीतर एक दरार
पैदा करेगी।
यह बात
तुम्हारे
भीतर एक तनाव
निर्मित कर
देगी; यह
आनंद की
अपेक्षा एक
चिंता बन
जायेगी।
जहां
तुम तुम्हारी
समग्रता में
होते हो, वहां
आनंद होता है;
जहां तुम
केवल हिस्से
में होते हो, तो वहां
चिंता होती है,
क्योंकि तब
तुम बंट जाते
हो और उससे
तनाव पैदा
होता है। दो
हिस्से अलग
ढंग से चल रहे
हैं। तब तुम
कठिनाई में
होते हो।
दूसरे
जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते हैं
वे श्रद्धा
वीर्य (ऊर्जा), स्मृति
समाधि
(एकाग्रता) और
प्रज्ञा ('विवेक)
के द्वारा
उपलब्ध होते
हैं।
यह
'स्मृति' शब्द
जो है, यह
है स्मरण—जिसे
गुरजिएफ कहते
हैं, आत्मस्मरण।
यह है स्मृति।
तुम
अपने को स्मरण
नहीं करते। हो
सकता है तुम लाखों
चीजों का
स्मरण करो, लेकिन
तुम निरंतर
भूलते चले
जाते हो स्वयं
को, जो तुम
हो। गुरजिएफ
के पास एक
विधि थी। उसने
इसे पाया
पतंजलि से। और
वस्तुत:, सारी
विधियां
पतंजलि से चली
आती हैं। वे
विशेषज्ञ थे
विधियों के।
स्मृति है
स्मरण—जो कुछ
तुम करो उसमें
स्व—स्मरण
बनाये रहना।
तुम चल रहे
हो—गहरे में
स्मरण रखना कि
'मैं चल
रहा हूं कि 'मैं हूं। ' चलने में ही
खो मत जाना।
चलना भी है—वह
गति, वह
क्रिया; और
वह आंतरिक
केंद्र भी है।
गति, क्रिया
और आंतरिक
केंद्र—मात्र
सजग, देखता
हुआ साक्षी।
लेकिन
मन में दोहराओ
मत कि मैं चल
रहा हूं। अगर
तुम दोहराते
हो,
तो वह स्मरण
नहीं है।
तुम्हें
निःशब्द रूप
से जागरूक
होना है कि 'मैं चल रहा
हूं मैं खा
रहा हूं मैं
बोल रहा हूं मैं
सुन रहा हूं।
जो कुछ करते
हो तुम, उस
भीतर के 'मैं'
को भूलना
नहीं चाहिए, यह बना रहना
चाहिए। यह
अहं—बोध नहीं
है। यह आत्म—बोध
है। मैं—बोध
अहंकार है; आत्मा का
बोध है अस्मिता—शुद्धता,
सिर्फ मैं
हूं इसका होश।
साधारणत:
तुम्हारी
चेतना किसी
विषय वस्तु की
ओर लक्षित हुई
रहती है। तुम
मेरी ओर देखते
हो;
तुम्हारी
संपूर्ण
चेतना मेरी ओर
बह रही है एक तीर
की भांति। तो
तुम मेरी ओर
लक्षित हो।
आत्म—स्मरण का
अर्थ है, तुम्हारे
पास
द्विलक्षित
तीर होगा।
इसका एक
हिस्सा मुझे
देख रहा हो, दूसरा
हिस्सा अपने
को देख रहा
हो।
द्वि—लक्षित
—तीर है
स्मृति, आत्म—स्मरण।
यह
बहुत कठिन है, क्योंकि
विषय वस्तु को
स्मरण रखना और
स्वयं को
भूलना आसान
होता है।
विपरीत भी
आसान है—स्वयं
को स्मरण रखना
और विषय को
भूल जाना। दोनों
आसान हैं; इसीलिए
वे जो बाजार
में होते, संसार
में होते, और
वे जो मंदिरों—मठों
में होते, संसार
से बाहर होते,
वे एक ही
हैं। दोनों
एकलक्षित हैं।
बाजार में वे
वस्तुओं को, विषयों को
देख रहे होते
है। मठों में
वे अपने को
देख रहे होते
हैं।
स्मृति
न तो बाजार में
है,
न ही संसार
के बाहर वाले
मठों में।
स्मृति एक
घटना है आत्म—स्मरण
की, जब 'रू'
और 'पर' दोनों एक
साथ चैतन्य
में होते हैं।
यह संसार की
सवर्तधक कठिन
बात है। अगर
तुम इसे क्षण
भर को, एक
आशिक क्षण को
भी प्राप्त कर
सको तो
तुम्हें
तुरंत सतोरी
की झलक
प्राप्त होगी।
तत्काल तुम
शरीर से कहीं
और बाहर जा
चुके होओगे।
इसे
आजमाना।
लेकिन ध्यान
रहे,
अगर तुममें
श्रद्धा नहीं
है तो यह एक
तनाव बन जायेगी।
ये उसकी
समस्याएं हैं।
यह ऐसा तनाव
बन सकती है कि
तुम पागल बन
सकते हो, क्योंकि
यह एक बहुत
तनाव की
स्थिति होती
है। इसलिए 'स्व' और 'पर', भीतरी
और बाहरी
दोनों को याद
रखना कठिन
होता है।
दोनों को याद
रखना बहुत—बहुत
दुःसाध्य है।
अगर श्रद्धा
होती है तो वह
तनाव को कम कर
देगी क्योंकि
श्रद्धा है
प्रेम। यह
तुम्हें शांत
करेगी, यह
तुम्हारे
चारों ओर एक
संतोषदायिनी
शक्ति होगी।
वरना तनाव
इतना ज्यादा
हो सकता है, कि तुम सो न
पाओगे। तुम
किसी क्षण
शांत न हो
पाओगे
क्योंकि यह एक
निरंतर उलझन
बनी रहेगी। और
तुम निरंतर एक
चिंता में ही
रहोगे।
इसीलिए
तुम एक बात कर
सकते हो, ऐसा
आसान होता है
कि तुम एक
एकांत मठ में
जा सकते हो, आंखें बंद
कर सकते हो, स्वयं का
स्मरण कर सकते
हो और संसार
को भूल सकते
हो। लेकिन कर
क्या रहे हो
तुम? तुम
तो बस, सारी
प्रक्रिया को
उल्टा भर रहे
हो, और कुछ
नहीं कर रहे।
कोई परिवर्तन
नहीं। या, तुम
इन
धर्मस्थानों
को भूल सकते
हो और भूल सकते
हो इन मंदिरों
को और इन
गुरुओं को और
बने रह सकते
हो संसार में,
आनंद उठा
सकते हो संसार
का। वह भी
आसान है। कठिन
बात तो है
दोनों के
प्रति सचेत
होना।
और
जब तुम दोनों
के प्रति सचेत
होते हो और
साथ—साथ ऊर्जा
जागरूक होती
है,
संपूर्णतया
ही विपरीत
दिशाओं को
लक्षित होती
हुई, तो
तनाव होता है,
इंद्रियातीत
अनुभव होता है।
तुम मात्र
तीसरे बन जाते
हो। तुम दोनों
के साक्षी हो
जाते हो। और
जब तीसरा
प्रवेश करता
है, पहले
तुम विषय
वस्तु को और
स्वयं को
देखने की कोशिश
करते हो।
लेकिन अगर तुम
दोनों को
देखने की
कोशिश करते हो
तो बाद में, थोड़ी देर
में तुम अनुभव
करते हो
तुम्हारे भीतर
कुछ घट रहा है
क्योंकि तुम 'तीसरे' बन
रहे हो। तुम
दोनों के बीच
में हो— 'पर'
और 'स्व'
के बीच। अब
तुम न तो विषय
हो और न ही
विषयी।
'श्रद्धा, प्रयास, स्मृति,
एकाग्रता
और विवेक
द्वारा
उपलब्ध होते
हैं।’ श्रद्धा
है आस्था।
वीर्य है
समग्र
प्रतिबद्धता,
समग्र
प्रयास।
समग्र ऊर्जा ले
आनी होती है, तुम्हारी
सारी शक्ति
लगानी पड़ती है।
यदि तुम
वास्तव में ही
सत्य के खोजी
हो, तो तुम
कोई दूसरी चीज
नहीं खोज सकते।
इसमें
संपूर्णत:
डूबना होता है।
तुम इसे पार्ट—टाइम
जॉब नहीं बना
सकते और न ही
कह सकते, 'सुबह
किसी समय में
ध्यान करता
हूं और फिर
खत्म।’ नहीं,
ध्यान को
तुम्हारे लिए
चौबीस घंटे का
सातत्य बनना
होता है। जो
कुछ भी तुम
करो, ध्यान
को सतत वहां
पृष्ठभूमि
में होना होता
है। ऊर्जा की
आवश्यकता
होगी, तुम्हारी
समस्त ऊर्जा
की आवश्यकता
होगी।
और
अब कुछ और
बातें समझ
लेनी हैं। अगर
तुम्हारी
सारी ऊर्जा की
आवश्यकता
होती है, तो
कामवासना
अपने आप
तिरोहित हो
जाती है क्योंकि
इस पर नष्ट
करने को
तुम्हारे पास
ऊर्जा नहीं है।
ब्रह्मचर्य
पतंजलि के लिए
कोई अनुशासन
नहीं है। यह
एक परिणाम है।
तुम तुम्हारी
समग्र ऊर्जा
आध्यात्मिक
अभ्यास में
लगा देते हो, तो तुम्हारे
पास कामवासना
के लिए कोई
ऊर्जा नहीं
बची रहती। और
ऐसा साधारण
जीवन में भी
घटता है। किसी
बड़े चित्रकार
को देखो, वह
सी को पूरी
तरह भूल जाता
है। जब वह
चित्र बना रहा
होता है तो
उसके मन में
कामवासना
नहीं होती, क्योंकि
उसकी सारी
ऊर्जा चित्र
में संलग्र रहती
है। कामवासना
के लिए उसके
पास कोई अतिरिका
ऊर्जा नहीं है।
कोई
महान कवि, महान
गायक, नृत्यकार
जो अपनी
प्रतिबद्धता
में पूर्णतया
डूबा होता है
बिना किसी
प्रयास के
ब्रह्मचर्य
पा लेता है।
ब्रह्मचर्य
के लिए उसके
पास कोई
अनुशासन नहीं
है। कामवासना
अतिरिक्त
ऊर्जा है; काम
एक सुरक्षा—साधन
है। जब
तुम्हारे पास
बहुत ऊर्जा
होती है और
तुम इसके साथ
कुछ नहीं कर
सकते, तो
प्रकृति ने
सेफ्टी वॉल्व
बनाया है, एक
सुरक्षा की
व्यवस्था, ताकि
इसे तुम बाहर
फेंक सको, तुम
इसे मुका कर
सको; अन्यथा
तुम पागल हो
जाओगे या फूट
पड़ोगे। तुम
विस्फोटित हो
जाओगे। और अगर
तुम इसे दबाने
की कोशिश करते
हो, तो भी
तुम पागल हो
जाओगे
क्योंकि इसे
दबाना मदद न
देगा। इसे
आवश्यकता है
रूपांतरण की।
और वह
रूपांतरण
समग्र
प्रतिबद्धता
द्वारा आता है।
एक योद्धा, अगर वह
वस्तुत:
योद्धा है—एक
अपराजेय
योद्धा, वह
कामवासना से
परे होगा।
उसकी सारी
ऊर्जा कहीं और
लगी है।
एक
बहुत सुंदर
कहानी है। एक
महान
दार्शनिक था, विचारक,
जिसका नाम
था वाचस्पति।
वह अपने
अध्ययन में
बहुत ज्यादा
अंतर्गस्त था।
एक दिन उसके
पिता ने उससे
कहा, ' अब
मैं बूढ़ा हो
चला और मैं
नहीं जानता कि
कब किस क्षण
मर जाऊं। और
तुम मेरे
इकलौते बेटे हो
और मैं चाहता
हूं तुम
विवाहित होओ।’
वाचस्पति
अध्ययन में
इतना ज्यादा
डूबा हुआ था
कि वह बोला, 'ठीक है', यह
सुने बगैर कि
उसके पिता
क्या कह रहे
है। तो उसका
विवाह हुआ, पर वह
बिलकुल भूला
रहा कि उसकी
पत्नी थी, इतना
डूबा हुआ था
वह अपनी
अध्ययनशीलता
में।
और
यह केवल भारत
में घट सकता
है;
यह कहीं और
नहीं घट सकता।
पत्नी उससे
इतना अधिक
प्रेम करती थी
कि वह उसे
अड़चन न देना
चाहती। तो यह
कहा जाता है
कि बारह वर्ष
गुजर गये। वह
छाया की भांति
उसकी सेवा
करती, हर
बात का ध्यान
रखती, लेकिन
वह जरा भी
शांति भंग न
करती। वह न
कहती, 'मैं
हूं यहां, और
क्या कर रहे
हो तुम?' वाचस्पति
लगातार एक
व्याख्या लिख
रहा था—जितनी
व्याख्याएं
लिखी गयी हैं,
उनमें से एक
महानतम
व्याख्या। वह
बादरायण के
ब्रह्म—सूत्र
पर भाष्य लिख
रहा था और वह
उसमें डूबा हुआ
था इतना
ज्यादा, इतनी
समग्रता से कि
वह केवल अपनी
पत्नी को ही
नहीं भूला, उसे इसका भी
होश न था कि
कौन भोजन लाया,
कौन
थालियां वापस
ले गया, कौन
आया शाम को और
दीया जला गया,
किसने उसकी
शय्या तैयार
की।
बारह
वर्ष गुजर गये, और
वह रात्रि आयी
जब उसकी
व्याख्या
पूरी हो गयी
थी। उसे अंतिम
शब्द भर लिखना
था। और उसने
प्रण किया हुआ
था कि जब
व्याख्या
पूरी होगी, वह संन्यासी
हो जायेगा। तब
वह मन से
संबंधित न
रहेगा, और
सब कुछ समाप्त
हो जायेगा। यह
व्याख्या
उसका एकमात्र
कर्म था, जिसे
परिपूर्ण
करना था।
उस
रात वह थोड़ा
विश्रांत था
क्योंकि उसने
करीब बारह बजे
अंतिम वाक्य
लिख दिया था।
पहली बार वह
अपने वातावरण
के प्रति सजग
हुआ। दीया
धीमा जल रहा
था और अधिक
तेल चाहिए था।
एक सुंदर हाथ उसमें
तेल उड़ेलने
लगा था। उसने
पीछे देखा, यह
देखने को कि
वहां कौन था।
वह नहीं पहचान
सका चेहरे को,
और बोला, 'तुम कौन हो
और यहां क्या
कर रही हो?' पत्नी
बोली, ' अब
जो आपने पूछ
ही लिया है, तो मुझे
कहना है कि
बारह वर्ष
पहले आपने
मुझे अपनी
पत्नी के रूप
में ग्रहण
किया था।
लेकिन आप इतने
डूबे हुए थे
अपने कार्य के
प्रति इतने
प्रतिबद्ध थे,
कि मैं बाधा
डालना या 'शांति
भंग करना न
चाहती थी।’
वाचस्पति
रोने लगा; उसके
अश्रु बहने
लगे। पत्नी ने
पूछा, 'क्या
बात है?' वह
बोला, 'यह
बहुत जटिल बात
है। अब मैं
धर्म—संकट में
पड़ घबरा गया
हूं क्योंकि
व्याख्या पूरी
हो गयी है और
मैं संन्यासी
होने जा रहा
हूं। मैं
गृहस्थ नहीं
हो सकता; मैं
तुम्हारा पति
नहीं हो सकता।
व्याख्या
पूरी हुई और
मैंने
प्रतिज्ञा की
है। अब मेरे
लिए . कोई समय
नहीं। मैं
तुरंत जा रहा
हूं। तुमने
मुझसे पहले
क्यों न कहा? मैं तुम्हें
प्रेम कर सकता
था। तुम्हारी
सेवा, तुम्हारे
प्रेम, तुम्हारी
निष्ठा के लिए
अब मैं क्या
कर सकता हूं?'
ब्रह्म—सूत्र
पर अपने भाष्य
का उसने नाम
दिया ' भामती।’
भामती था
उसकी पत्नी का
नाम। बेतुका
है नाम।
बादरायण के
ब्रह्म—सूत्र
के भाष्य को 'भामती' कहना
बेतुका है, इस नाम का
कोई संबंध
जुडूता नहीं।
लेकिन उसने
कहा, 'अब
कुछ और मैं कर
नहीं सकता। अब
केवल पुस्तक
का नाम लिखना
ही शेष है अत:
मैं इसे भामती
कहूंगा जिससे
कि तुम्हारा
नाम सदैव याद
रहे।’
उसने
घर त्याग दिया।
पत्नी रो रही
थी,
आंसू बहा
रही थी, पर
पीड़ा में नहीं,
आनंद में।
वह बोली, 'यह
पर्याप्त है।
तुम्हारी यह
भावदशा, तुम्हारी
आंखों में भरा
यह प्रेम
पर्याप्त है।
मैंने
पर्याप्त
पाया, अत:
अपराधी अनुभव
न करें। जायें,
मुझे
बिलकुल भूल
जायें। मैं
आपके मन पर
बोझ नहीं बनना
चाहूंगी।
मुझे याद करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं।’
यह
संभव होता है।
अगर तुम किसी
चीज में समपता
से डूबे होते
हो,
तो
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है।
क्योंकि
कामवासना
सुरक्षा का एक
उपाय है। जब
तुम्हारे पास
अप्रयुक्त
ऊर्जा होती है,
तब
कामवासना
तुम्हारे
चारों ओर पीछा
करती एक छाया
बन जाती है।
जब तुम्हारी
समग्र ऊर्जा प्रयुक्त
हो जाती है, कामवासना
तिरोहित हो
जाती है। और
वह है अवस्था
ब्रह्मचर्य
की, वीर्य
की, तुम्हारी
सारी
अंतर्निहित
ऊर्जा के
विकसित होने की।
श्रद्धा, वीर्य
(प्रयास), स्मृति,
समाधि
(एकाग्रता) और
प्रज्ञा
विवेक...।
श्रद्धा।
वीर्य—तुम्हारी
समग्र जीव—ऊर्जा,
तुम्हारी
समग्र
प्रतिबद्धता।
और प्रयत्न।
स्मृति—स्व—स्मरण।
और समाधि। इस
शब्द 'समाधि'
का अर्थ है,
मन की वह
अवस्था जहां
कोई समस्या
अस्तित्व नहीं
रखती। यह शब्द
आया है समाधान
से। यह मन की
वह अवस्था है,
जहां तुम
नितांत
स्वस्थ अनुभव
करते हो, जहां
कोई समस्या
नहीं होती, कोई प्रश्न
नहीं। यह मन
की एक प्रश्नशुन्य
और समस्याशुन्य
अवस्था होती
है। यह कोई
एकाग्रता
नहीं।
एकाग्रता तो
मात्र एक
गुणवत्ता है,
जो उस मन में
चली आती है, जो
समस्यारहित
होता है।
अनुवाद करने
की यही कठिनाई
है।
मन
की इस अवस्था
का हिस्सा है
एकाग्रता। यह
तो बस घटती है।
उस बच्चे को
देखो जो अपने
खेल में निमग्न
है;
उसकी एकाग्रता
प्रयासरहित
है। वह अपने
खेल पर एकाग्र
नहीं हो रहा
है। एकाग्रता
सह—परिणाम है।
वह खेल में
इतना अधिक
तल्लीन है कि
एकाग्रता घटती
है। अगर तुम
किसी चीज पर
जानबूझकर
एकाग्र होते
हो तो प्रयास
होता है। तब
तनाव होता है।
तब तुम थक
जाओगे।
समाधि
स्वत: घटती है, सहजतापूर्वक,
अगर तुम
तन्मय होते हो,
डूबे हुए
होते हो। अगर
तुम मुझे सुन
रहे हो, यह
समाधि है। अगर
तुम मुझे
समग्रतापूर्वक
सुनते हो, तो
किसी दूसरे
ध्यान की
जरूरत नहीं।
यह बात एक
एकाग्रता बन
जाती है। ऐसा
नहीं है कि
तुम एकाग्र
होते हो। यदि
तुम
प्रेमपूर्वक
सुनते हो, एकाग्रता
पीछे चली आती
है।
असंप्रज्ञात
समाधि में, जब
श्रद्धा
संपूर्ण होती
है, जब
प्रयास
संपूर्ण होता
है, जब
स्मरण गहरा
होता है, समाधि
घटती है। जो
कुछ भी तुम
करते हो, तुम
संपूर्ण
एकाग्रता
सहित करते हो—एकाग्र
होने के
प्रयास के
बिना। और यदि
एकाग्रता को
प्रयास की
आवश्यकता
होती है तो यह
असुंदर है। यह
बात तुम्हें
रोग की तरह ग्रस्ती
रहेगी; तुम
इसके द्वारा
नष्ट होओगे।
एकाग्रता को
एक परिणाम की
भांति होना
चाहिए। तुम
किसी व्यक्ति
को प्रेम करते
हो, और
मात्र उसके
साथ होने से
तुम एकाग्र हो
जाते हो।
ध्यान रखना, किसी चीज पर
एकाग्र कभी न
होना। बल्कि
गहराई से
सुनना, समग्रता
से सुनना और
तुम्हारे पास
एकाग्रता
स्वयं चली
आयेगी।
फिर
होता है विवेक—प्रज्ञा।
प्रज्ञा
विवेक नहीं है; विवेक
केवल एक
हिस्सा है प्रज्ञा
का। वस्तुत:
प्रज्ञा का
अर्थ है—एक
बोधपूर्ण जागरूकता।
बुद्ध ने कहा
है कि ध्यान
की लौ ऊंची
प्रज्वलित
होती है, तो
उस अग्रि शिखा
को घेरने वाला
प्रकाश
प्रज्ञा है।
भीतर है समाधि,
और
तुम्हारे
चारों ओर एक
प्रकाश, एक
आभा पीछे आने
लगती है।
तुम्हारे
प्रत्येक
कार्य में तुम
प्रज्ञावान
और
विवेकपूर्ण
होते हो। यह
ऐसा नहीं है
कि तुम
विवेकपूर्ण
होने की कोशिश
कर रहे हो। यह
तो बस घटता है
क्योंकि तुम
इतनी अधिक
समग्रता से
जागरूक होते
हो। जो कुछ
तुम करते हो
विवेकपूर्ण
होता है। ऐसा
नहीं है कि
तुम निरंतर
सोच रहे हो
सही काम करने
की बात।
वह
व्यक्ति जो
लगातार सोच
रहा है सही
काम करने की
बात,
वह तो कुछ
कर ही न
पायेगा। वह
गलत भी न कर
पायेगा
क्योंकि यह
बात इतना तनाव
बन जायेगी
उसके मन पर।
और क्या सही
है और क्या
गलत है? तुम
कैसे निर्णय
ले सकते हो? प्रज्ञावान
व्यक्ति
चुनता नहीं।
वह मात्र
अनुभव करता है।
वह तो अपनी
जागरूकता सब
ओर फेंकता है,
और उसके
प्रकाश में वह
आगे बढ़ता है।
जहां—कहीं वह
बढ़ता है, सही
है।
सही
बात चीजों से
संबंधित नहीं
है;
यह तुमसे
संबंधित है—वह
जो कार्य कर
रहा है, उससे।
ऐसा नहीं है
कि बुद्ध सही
बातें करते थे—नहीं।
जो कुछ वे
करते, वह
सही होता।
विवेक तो
अपर्याप्त
शब्द है।
प्रज्ञावान
व्यक्ति के
पास विवेक
होता ही है।
वह उसके बारे
में सोचता
नहीं है; यह
उसके लिए सहज है।
यदि तुम इस
कमरे से बाहर
जाना चाहते हो,
तो तुम बस
दरवाजे से
बाहर चले जाते
हो। तुम
टटोलते—ढूंढते
नहीं। तुम
पहले दीवार के
पास नहीं चले
जाते रास्ता खोजने
को। तुम तो
बाहर ही चले
जाते हो। तुम
सोचते भी नहीं
कि यह दरवाजा
है।
लेकिन
जब अंधे आदमी
को बाहर जाना
होता है, तो वह
पूछता है, 'कहां
है दरवाजा?' और फिर इसके
बाद वह इसे
छूने की कोशिश
भी करता है।
वह अपनी की
लिये बहुत जगह
दस्तक देगा, वह टटोलेगा,
ढूंढेगा।
और अपने मन
में वह निरंतर
सोचेगा, 'यह
द्वार है या
दीवार? मैं
सही जा रहा
हूं या गलत?' और जब वह
द्वार तक आ
पहुंचेगा, तब
वह सोचेगा, 'हां, अब
यही है द्वार!'
यह
सब घटता है
क्योंकि वह
अंधा है।
तुम्हें
चुनाव करना
होता है
क्योंकि तुम
अंधे होते हो।
तुम्हें
सोचना पड़ता है
क्योंकि तुम
अंधे हो।
तुम्हें
अनुशासन और
नैतिकता में
रहना होता है
क्योंकि तुम
अंधे हो। जब
समझ खिलती
होती है, जब
ज्योति वहां
होती है, तुम
मात्र देखते
हो और हर चीज
स्पष्ट होती
है; जब
तुम्हारे पास आंतरिक
स्पष्टता
होती है, तब
हर चीज स्पष्ट
होती है, तुम
संवेदनशील बन
जाते हो। जो
कुछ तुम करते
हो, सही ही
होता है। ऐसा
नहीं है कि यह
सही है और
इसलिए तुम इसे
करते हो। तुम
इसे समझ सहित
करते हो, और
यह सही
तो
श्रद्धा, वीर्य,
स्मृति, समाधि,
प्रज्ञा।
दूसरे, जो
असंप्रज्ञात
समाधि को
उपलब्ध होते
हैं, इसे
उपलब्ध करते
है श्रद्धा, असीम ऊर्जा,
प्रयास, समग्र
आत्म—स्मरण, समस्याशून्य
मन और विवेक
की अग्रि शिखा
के द्वारा।
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