दिनांक
13 नवंबर 1976
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
कायकृत्यासह:
पूर्व ततो
वाग्विस्तरासह।
अद्य
चितासह
स्तस्मादेवमेवाहमास्थित:।।
107।।
प्रीत्यभावेन
शब्दादेरद्वश्यत्वेन
चात्यनः।
विक्षेयैकाग्रहदय
श्वमेवाहमास्थित।।
108।।
समाध्यासादिविक्षिप्तौ
व्यवहार: समाधये।
एवं
विलोक्य
नियमेवमेवाहमास्थित:।।
109।।
हेयोयादेयविरहादेव
हर्षविषादयो:।
अभावादद्य
हे
ब्रह्माब्रेबमेवाहमास्थित!।
110।।
आश्रमानाश्रमं
ध्यानं
चित्तस्वीकृतवर्जनम्।
विकल्प
मम
वीक्यैतैरवमेवाहमास्थित:।।
111।।
कर्माऽनुष्ठानमज्ञामाछथैवोयरमस्तथा।
बुद्धवा
सम्यगिदं
तत्त्वमेवमेवाहमास्थित।।112।।
अचिंत्य
चिंत्यमानोउयि
चिंतारूपं
भजत्यसौ।
त्यक्ला
तद्भावनं
तस्मादेवमेवाहमास्थित।।
113।।
एवमेव
कृतं येन स
कृतार्थो
भवेदसौ।
श्वमेव
स्वभावो य: स
कृताथों
भवेदसौ।। 114।।
हर
जगह जीवन विकल
है।
तृषित
मरुथल की
कहानी
हो
चुकी जग में
पुरानी
किंतु
वारिधि के
हृदय की
प्यास
उतनी ही अटल
है।
हर
जगह जीवन विकल
है।
रो
रहा विरही
अकेला
देख
तन का मिलन
मेला
पर
जगत में दो
हृदय की
मिलन—आशा
विफल है।
हर
जगह जीवन विकल
है।
अनुभवी
इसको बताएं
व्यर्थ
मत मुझसे
छिपाएं
प्रेयसी
के अद्यर—मधु
में भी
मिला
कितना गरल है।
हर
जगह जीवन विकल
है।
मनुष्य
को गौर से
देखें तो
मरुस्थल ही मरुस्थल
मिलेगा। जीवन
में किसी के
भीतर झांकें
तो प्यास ही
प्यास, अतृप्ति
ही अतृप्ति
मिलेगी।
ऊपर
से देख कर
मनुष्य को, धोखे
में मत पड़
जाना। ऊपर तो
हंसी है, मुस्कुराहट
है, फूल
सजा लिए हैं—भीतर
जीवन बहुत
विकल है।
वस्तुत: भीतर
विकलता है, इसीलिए बाहर
फूल सजा लिए
हैं; भीतर आंसू
हैं,? इसलिए
बाहर
मुस्कुराहटों
का आयोजन कर
लिया है।
फ्रेडरिक
नीत्शे ने कहा
है : मैं हंसता
हूं;
लोग सोचते
हैं मैं खुश
हूं। मैं
हंसता हूं
इसलिए कि कहीं
रोने न लग।
अगर न हंसा तो
रोने लगता।
हंस—हंस कर
छिपा लेता हूं
आते हुए आंसुओ
को।
हम
बाहर तो कुछ
और दिखाते हैं, भीतर
हम कुछ और हैं।
इसलिए बड़ा
धोखा पैदा
होता है। काश,
हर व्यक्ति
अपने जीवन की
कथा को खोल कर
रख दे, तो
तुम बहुत
हैरान हो
जाओगे : इतना
दुख है, दुख
ही दुख है; सुख
की तो बस आशा
है! आशा है कि
मिलेगा कभी!
आशा है—आज
नहीं तो कल, कल नहीं तो
परसों; इस
जन्म में नहीं
तो अगले जन्म
में, पृथ्वी
पर नहीं तो
स्वर्ग में—बस,
आशा है! हाथ
में तो राख है।
प्राणों में
तो बुझापन है।
इस सत्य से जो जागा,
उसके जीवन
में ही क्रांति
घटित होती है।
होता
ऐसा है कि हम
दूसरे को धोखा
देते —देते
अपने को भी
धोखा दे लेते
हैं। हंसते
हैं ताकि
दूसरे को पता
न चले आंसुओ
का। दूसरा
हमें हंसते
देखता है, भरोसा
कर लेता है कि
हम प्रसन्न
हैं; उसके
भरोसे पर धीरे—
धीरे हम भरोसा
कर लेते हैं
कि हम जरूर
प्रसन्न
होंगे, तभी
तो लोग भरोसा
करते हैं। ऐसा
धोखा बड़ा गहरा
है।
जिस
आदमी ने
अमरीका में
पहला बैंक
खोला, उससे
किसी ने पूछा
जब वह बड़ा सफल
हो गया, कि
तुमने बैंक
खोला कैसे?
उसने
कहा : मैंने
किताबों में
पढ़ा,
यूरोप में
बैंक हैं —उनके
संबंध में।
मैंने भी अपने
द्वार पर एक
तख्ती लगा दी—बैंक।
घंटे भर बाद
एक आदमी आया
और दो सौ डालर
जमा करवा गया।
सांझ दूसरा
आदमी आया और
डेढ़ सौ डालर
जमा करवा गया।
तीसरे दिन तक
तो मेरी
हिम्मत इतनी
बढ़ गई कि मेरे
भी पास जो बीस
डालर थे, वे
भी मैंने अपने
बैंक में जमा
कराए।
ऐसे
भरोसा पैदा हो
जाता है।
तुम
अपनी छवि को
दूसरे की आंख
में ही देखते
हो;
और तो उपाय
भी नहीं है।
तुम अपने को
पहचानते भी
दूसरे के
माध्यम से हो;
और तो कोई
उपाय भी नहीं
है। दूसरे की आंखें
दर्पण का काम
करती हैं। अब
अगर दर्पण के
सामने तुम
मुस्कुराते
हुए खड़े हो गए
तो दर्पण क्या
करे? दर्पण
बता देता है
कि
मुस्कुराहट
है ओंठों पर।
दर्पण में
मुस्कुराहट
देख कर
तुम्हें
भरोसा आ जाता
है कि जरूर
मैं खुश
होऊंगा। ऐसा
बार—बार करने
से, दोहराने
से असत्य भी
सत्य मालूम
होने लगते हैं।
फिर हम डरते
हैं कि कहीं
सत्य का पता न
चल जाए, तो
हम अपने भीतर
देखना बंद कर
देते हैं; हम
फिर बाहर ही
देखते हैं।
लोगों
से पूछो, तुम
कौन हो? तो
वे जो उत्तर
देंगे, वे
उत्तर
उन्होंने
बाहर से सीखे
हैं। यह भी
गजब हुआ, यह
भी अजब हुआ.
अपना पता
दूसरे से
पूछते हो! मैं
कौन हूं यह
दूसरे से
पूछते हो!
दूसरे को खुद
का पता नहीं
है, तुम्हें
कैसे बता
सकेगा 2:
अपना
पता अपने से
पूछना होगा—आंख
बंद करके
देखना होगा।
लेकिन लोग आंख
बंद नहीं करते
हैं;
आंख बंद की
कि सो जाते
हैं। इसलिए तो
कभी—कभी जब
तुम आंख बंद
करते हो, नींद
नहीं आती, तो
बड़ी तकलीफ
होती है। वह
तकलीफ नींद न
आने के कारण
नहीं है। वह
तकलीफ इसलिए
है कि आंख
खुली रहे तो
दूसरे दिखाई
पड़ते रहते हैं;
आंख बंद हो
जाए और नींद न
आए, तो
अपने भीतर का
उपद्रव दिखाई
पड़ने लगता है—कूड़ा—कर्कट,
नर्क, पर्त—पर्त
खुलने लगती है; उससे
घबड़ाहट होती
है।
नींद
न आने के कारण
घबड़ाहट नहीं
है। घड़ी भर को
नींद न आई तो
क्या बिगड़
जाएगा? लेकिन
हम दो ही उपाय
जानते हैं—आंख
खुली हो तो
कहीं उलझे
रहें, आंख
बंद हो तो
नींद में डूब
जाएं। आंख बंद
करके जागे
रहना कठिन है।
क्योंकि आंख
बंद करके फिर
हमें अपनी
असली तस्वीर दिखाई
पड़ने लगती है।
और वह असली
तस्वीर बहुत
सुंदर नहीं है।
आत्मज्ञानी
कुछ भी कहें, हमें उनकी
बात पर भरोसा
नहीं आता। वे
तो कहते हैं, परम
परमात्मा
विराजमान है।
हम तो जब भी
भीतर देखते
हैं तो अंधेरा,
नर्क, दुख,
पीड़ा, अतीत
के सब टूटे
हुए सपने, खंडहर,
हाथ तो कुछ लगा
नहीं कभी, अतृप्ति—अतृप्ति
की कतार पर
कतारें—वही
हाथ लगती हैं।
ज्ञानी
कहते हैं भीतर
बड़ा प्रकाश
है! हम तो जब भीतर
जाते हैं तो
अंधेरे ही
अंधेरे से
मिलना होता है, बड़ी
घबड़ाहट होने
लगती है; अमावस
की रात मालूम
होती है।
पूर्णिमा तो
दूर, छोटा—मोटा
चांद भी नहीं होता,
दूज का चांद
भी नहीं होता,
रोशनी का
कोई पता नहीं
चलता। एक
अंधेरे की
गर्त में
डूबने लगते
हैं। घबड़ाहट
होती है।
दूसरे
से पूछ—पूछ कर
हमने झूठा
आत्म—परिचय
बना लिया है।
ज्ञानी ठीक
कहते हैं कि
भीतर
परमात्मा है
और प्रकाश है; लेकिन
इस अंधेरी
घाटी से
गुजरना होगा।
अंधेरी घाटी
से गुजरना
कीमत चुकाना
है। नहीं तो
जीवन विकल
रहेगा।
मैं
तो बहुत दिनों
पर चेता।
जम
कर ऊबा
श्रम
कर डूबा
सागर
को खेना था
मुझको
रहा
शिखर को खेता
मैं
तो बहुत दिनों
पर चेता।
थी
मति मारी
था
भ्रम भारी
ऊपर
अंबर गर्दीला
था
नीचे
भंवर लपेटा
मैं
तो बहुत दिनों
पर चेता।
यह
किसका स्वर
भीतर
बाहर
कौन
निराशा, कुंठित
घड़ियों में
मेरी
सुधि लेता
मैं
तो बहुत दिनों
पर चेता।
मत
पछता रे
खेता
जा रे
अंतिम
क्षण में चेत
जाए जो
वह
भी शतवर चेता
मैं
तो बहुत दिनों
पर चेता।
मगर
लोग हैं जो
अंत तक नहीं
चेतते। अंतिम
क्षण में भी
चेतना आ जाए, होश
आ जाए, अपने
जीवन को परखने
की क्षमता और
साहस आ जाए—तो
भी चेत गए।
अंतिम
क्षण में चेत
जाए जो
वह
भी शतवर चेता।
वह
भी प्रबुद्ध
हो गया।
लेकिन
कठिन है, जब
जीवन भर हम
धोखा देते हैं
तो अंतिम क्षण
में चेतना
कठिन है।
क्योंकि
चेतना कुछ
आकाश से नहीं
उतरती—हमारे
जीवन भर का
निचोड़ है।
बहुत
लोग यह आशा भी
रखते हैं कि
अभी तो जवान
हैं,
आएगा
बुढ़ापा—कर
लेंगे ध्यान,
कर लेंगे
धर्म। मेरे
पास आ जाते
हैं, कहते
हैं, अभी
तो हम जवान
हैं। के भी
मेरे पास आते
हैं, उनको
भी अभी पक्का
नहीं हुआ कि
बूढ़े हो गए
हैं। वे भी
कहते हैं: अभी
तो बहुत
उलझनें हैं!
और अभी कोई
मरे थोड़े ही
जाते हैं! अभी
तो समय पड़ा है—कर
लेंगे!' टालते
चले जाते हैं।
मरते—मरते, जब कि श्वास
छूटने लगती, दूसरे राम—राम
जपते
तुम्हारे कान
में, दूसरे
गंगाजल
पिलाते
तुम्हें..। जब
जवान थे, ऊर्जा
थी—तब ली होती
डुबकी गंगा
में, तब
तैरे होते, तब बहे होते
गंगा में, तो
सागर तक पहुंच
गए होते। अब
मरते—मरते, गले में
उतरता नहीं.।
मैं
एक घर में
मेहमान था, एक
आदमी मर रहा
था। उसके बेटे
उसको गंगाजल
पिला रहे हैं,
वह जा नहीं
रहा गले में।
वह मर ही चुका
है। किसको
धोखा दे रहे!
पंडित
मंत्रपाठ कर
रहा है। उसको
होश नहीं है, वह आदमी
बेहोश पड़ा है,
उसकी आखिरी
सांस लथड़ रही
है; पानी
गटकने तक की
क्षमता नहीं
रह गई है—अब
राम को गटकना
बहुत मुश्किल
हो जाएगा।
ऐसी
प्रतीक्षा मत
करते बैठे
रहना। चेतना
हो तो अभी
चेतना। जो अभी
चेता—वही चेता।
जिसने कहा कल—वह
सोया और उसने
खोया। कल की
बात ही मत
उठाना। कल का
कोई भरोसा
नहीं है। कल
है मौत, जीवन
है आज। जीवन
तो बस अभी है, अभी या कभी
नहीं।
जिसको
इतनी
प्रगाढ़ता से
जीवन की
स्थिति का स्मरण
आएगा, वही
शायद दाव लगा
सकेगा। और
धर्म तो जुए
का दाव है।
मुफ्त नहीं है;
पूरा
चुकाओगे तो ही
पा सकोगे। सब
खोओगे, तो
ही मिलेगा।
सस्ता धर्म मत
खोजना। सस्ता
धर्म होता ही
नहीं। धर्म
महंगी बात है।
इसीलिए तो कुछ
सौभाग्यशाली
उस संपदा को
उपलब्ध कर
पाते हैं।
सस्ता होता, मुफ्त बटता
होता, धर्मादय
में मिलता
होता, तो
सभी को मिल
गया होता।. अद्यक
श्रम और अद्यक
प्रयास का
परिणाम है।
यद्यपि जब आता
है तब
प्रसादरूप
आता है; लेकिन
पहले प्रयास
जो करता है, वही प्रसाद
का हकदार होता
है। आज के
सूत्र अत्यंत क्रांतिकारी
सूत्र हैं।
खूब साक्षी—
भाव रखकर
समझोगे तो ही
समझ में आएंगे,
अन्यथा चूक जाओगे।
शायद ऐसे
सूत्र कभी
तुमने सुने भी
न होंगे। इससे
ज्यादा और क्रांतिकारी
सूत्र हो भी
नहीं सकते।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
अष्टावक्र की
गीता पर सुधार
करना संभव
नहीं है।
आखिरी बात और
आखिरी ढंग से
कह दी है। हो
गए पांच हजार
साल,
लेकिन पांच
हजार सालों
में फिर इससे
और कीमती
वक्तव्य नहीं
दिया जा सका।
कभी—कभी ऐसा
होता है, कोई—कोई
वक्तव्य
आखिरी हो जाता
हैं,'। फिर
उसमें सुधार
संभव नहीं
होता। वह
पूर्ण होता है।
उसमें सुधार
का उपाय नहीं
होता। उसको
सजाया भी नहीं
जा सकता।
तुमने
कभी देखा? अगर
कुरूप स्त्री
आभूषण पहन ले,
सुंदर
वस्त्र पहन ले
तो अच्छी लगने
लगती है; लेकिन
अति सुंदर
स्त्री अगर
आभूषण पहनने
लगे तो भद्दी
हो जाती है।
सौंदर्य का
अर्थ ही यह है
कि अब कोई
आभूषण सौंदर्य
को बढ़ा न
सकेंगे, कम
कर देंगे।
इसलिए जब भी
कोई समाज
सुंदर होने
लगता है तो वहां
से आभूषण विदा
होने लगते हैं।
जितना कुरूप
समाज होता है—उतना
आभूषण, उतने
वस्त्र, उतना
रंग—रोगन, उतने
झूठ। जब कोई
सुंदर होता है
तो सौंदर्य
काफी होता है।
आभूषण भी
सौंदर्य को
विकृत कर देते
हैं।
ये
सीधे—सीधे वचन
हैं,
मगर ये
सुंदरतम हैं।
ये तुम्हारे
हृदय में
पहुंच जाएं तो
सौभाग्य।
जनक
ने कहा: पहले
मैं शारीरिक
कर्म का न
सहारने वाला
हुआ,
फिर वाणी के
विस्तृत कर्म
का न सहारने
वाला हुआ और
उसके बाद
विचार का न
सहारने वाला
हुआ। इस
प्रकार मैं
स्थित हूं।’ जनक
कह रहे हैं :
कायकृत्यासह
पूर्वं ततो
वाग्विस्तरासह:।
अद्य
चितासह
स्तस्मादेवमेवाहमास्थित:।।
इस
सूत्र का अर्थ
है कि देह
चलती है—अपने
कारण, मन चलता
है—अपने कारण;
वाणी चलती
है—अपने कारण।
तुम नाहक उससे
अपने को जोड़
लेते हो।
जोड्ने के
कारण भ्रांति
हो जाती है।
मैंने सुना है
कि एक सम्राट
अपने घोड़े पर
बैठ कर यात्रा
को जाता था।
राह पर लोग
झुक—झुक कर
प्रणाम करने
लगे। घोड़ा
बिलकुल अकड़
गया। घोड़ा तो
खड़ा हो गया।
घोड़े ने तो
चलने से इंकार
कर दिया।
पुराने जमाने
की कथा है जब
घोड़े बोला
करते थे।
सम्राट ने कहा
: यह तुझे क्या
हुआ? पागल
हो गया? रुकता
क्यों है? ठिठकता
क्यों है?
उसने
कहा उतरो
नीचे! मुझे अब
तक पता ही
नहीं था कि
मैं कौन हूं!
इतने लोग
नमस्कार कर
रहे हैं!
नमस्कार
हो रहा है
सम्राट को; घोड़े
ने समझा, मुझे
हो रहा है!
मैंने
सुना है, एक
महल में एक
छिपकली वास
करती थी। महल
की छिपकली थी,
कोई साधारण
छिपकली तो थी
नहीं! तो कुछ
गाव में अगर छिपकलियों
का कोई आयोजन
इत्यादि हो, तो जैसा
बुलाते हैं
राष्ट्रपति
को, प्रधानमंत्री
को, ऐसा
उसे उदघाटन
इत्यादि के
लिए बुलाते थे।
लेकिन वह जाती
नहीं थी; अपने
सहयोगियों को
भेज देती थी—उपराष्ट्रपति
को भेज दिया!
छिपकलियों ने
पूछा कि देवी
तुम क्यों
नहीं आती हो? उसने कहा :
मैं आ जाऊं तो
यह महल गिर
जाए। छप्पर को
सम्हाले कौन?
छिपकली
छप्पर को
सम्हाले हुए
है! हंसो मत!
छिपकली को ऐसी
भांति हो तो
आश्चर्य नहीं;
मनुष्य ऐसी
भ्रांति में
जीता है!
शरीर
अपने से चल
रहा है, लेकिन
तुम एक
भ्रांति में
पड़ जाते हो कि
मैं चला रहा
हूं। मन अपने
से चल रहा है, लेकिन तुम
भांति में पड़
जाते हो कि
मैं चला रहा
हूं।
यह
पहला सूत्र यह
कह रहा है कि
सबसे पहले तो
मैंने यह जाना
कि शरीर को
मेरे सहारने
की कोई
आवश्यकता
नहीं है; शरीर
अपने ही सहारे
चल रहा है। तो
सबसे पहले मैं
शारीरिक कर्म
का न सहारने वाला
हुआ, मैंने
यह भ्रांति
छोड़ दी कि मैं
चला रहा हूं।
रात
तुम सोते हो
तब भी तो शरीर
चलता रहता है, भोजन
पचता रहता है;
तुम्हारी
जरूरत तो रहती
नहीं।
तुमने
कभी किसी को
कोमा में पड़े
देखा हो, महीनों
से बेहोश पड़ा
है, तो भी
खून बहता रहता,
हृदय धड़कता
रहता, श्वास
चलती रहती; तुम्हारी
कोई जरूरत तो
नहीं है।
तुम्हारे
बिना भी तो सब
मजे से चलता
रहता है। सच
तो यह है कि
चिकित्सक
कहते हैं कि
तुम्हारे
कारण बाधा
पड़ती है।
इसलिए अगर कोई
मरीज सो न सके
तो बीमारी ठीक
होनी मुश्किल
हो जाती है, क्योंकि वह
बाधा डालता है।
सो जाता है तो
बाधा बंद हो
जाती है, शरीर
अपने को
रास्ते पर ले
आता है; बीच
का उपद्रव हट
जाता है, यह
हस्तक्षेप हट
जाता है।
इसलिए
नींद हजारों
दवाओं की दवा
है। क्योंकि
नींद में तुम
तो खो गये; शरीर
को जो करना है
वह
स्वतंत्रता
से कर लेता है,
तुम बीच—बीच
में नहीं आते।
जनक
कह रहे हैं. शरीर
तो अपने से
चलता है, अब तक
मेरी भ्रांति
थी कि मैं
चलाता हूं।
जरा
इस बात को
समझो। अगर यह
तुम्हें खयाल
आ जाए कि शरीर
अपने से चलता
है,
तो तुम शरीर
में रहते हुए
इस शरीर से
मुक्त हो गए।
शरीर ने तुमको
नहीं बांधा है;
यह भांति
तुम्हें
बांधे हुए है
कि तुम शरीर को
चलाते हो।
शरीर का कृत्य
प्राकृतिक है
और वैसा ही
कृत्य मन का
है, वैसा
ही कृत्य शब्द
का है।
बुद्ध
ने कहा है
अपने
भिक्षुओं को
कि तुम मन के
चलते विचारों
को ऐसे ही
देखो, जैसे
कोई राह के
किनारे बैठ कर
रास्ते को
देखता है—लोग
आते—जाते, राह
चलती रहती है।
ऐसे ही तुम
अपने मन में
चलते विचारों
को देखो। इन
विचारों को
तुम यह मत
समझो कि तुम
चला रहे हो, या कि तुम
इन्हें रोक
सकते हो।
जिसको यह
भ्रांति है कि
मैं विचारों
को चला रहा
हूं उसको एक न
एक दिन दूसरी
भ्रांति भी
होगी कि मैं
चाहूं तो रोक
सकता हूं। तुम
कोशिश करके
देख लो।
तिब्बत
में कथा है कि
एक युवक धर्म
की खोज में था।
वह एक गुरु के
पास गया। गुरु
के बहुत पैर
दबाए, सेवा की
वर्षों तक—और
एक ही बात
पूछता था कि
कोई महामंत्र
दे दो कि
सिद्धि हो जाए,
शक्ति मिल
जाए। आखिर
गुरु उससे थक
गया। गुरु ने
कहा. तो फिर ले!
इसमें एक
कठिनाई है, वह मुझे
कहनी पड़ेगी।
उसी के कारण
मैं भी सिद्ध
नहीं कर पाया।
मेरे गुरु ने
भी मुझे
बामुश्किल
दिया था। मैं
तो तीस साल
सेवा किया, तब दिया था; मैं तुझे
तीन साल में
दे रहा हूं।
तू धन्यभागी!
मगर सफल मैं
भी नहीं हुआ, क्योंकि
इसमें एक बड़ी
बेढंगी शर्त
है।
उस
युवक ने कहा.
तुम कहो तो!
मैं सब कर
लूंगा। सारा
जीवन लगा
दूंगा।
गुरु
ने कहा यह
मंत्र है, छोटा—सा
मंत्र है। इस
मंत्र को तू
दोहराना, बस,
पांच बार
दोहराना, कोई
ज्यादा मेहनत
नहीं। लेकिन
जितनी देर यह
दोहराए, उतनी
देर बंदर का
स्मरण न आए।
उसने
कहा. हद हो गई!
कभी बंदर का
स्मरण आया ही
नहीं जीवन में, अब
क्यों आएगा!
जल्दी से
मंत्र दो!
मंत्र
तो
तिब्बतियों
का बड़ा सीधा—सादा
है। दे दिया।
मंत्र लेकर वह
उतरा सीढ़ी
मंदिर की, लेकिन
बडा
घबड़ाया। अभी
सीढ़ियां भी
नहीं उतर पाया
कि बंदर उसके
मन में झांकने
लगे। इस तरफ, उस
तरफ बंदर
चेहरा बनाने
लगे। वह बहुत
घबड़ाया कि यह
मामला क्या है?
यह मंत्र
कैसा? घर
पहुंचा नहीं
कि बंदरों की
भीड़ उसके साथ
पहुंची—मन में
ही सब! नहा— धो
कर बैठा, लेकिन
बड़ी मुश्किल!
नहा — धो रहा है
कि बंदर हैं
कि खिलखिला
रहे हैं, जीभ
बता रहे हैं, मुंह बिचका
रहे हैं। उसने
सोचा, यह
भी अजीब मंत्र
है; मगर
मालूम होता है
शक्तिशाली है,
क्योंकि
बाधा तो दिखाई
पड़ने लगी है।
रात भर बैठा, बहुत बार
बैठा, फिर—फिर
बैठा, उठ—उठ
आए—क्योंकि
पांच दफे कहना
है कुल; एक—
आध दफे ऐसा लग
जाए योग कि
पांच दफे कह
ले और बंदर न
दिखाई पड़े, मगर यह न हो
सका। हर मंत्र
के शब्द के
बीच बंदर खड़ा।
सुबह
थका—मादा आया, गुरु
को कहा यह
मंत्र
सम्हालो! न
तुमसे सधा, न मुझसे
सधेगा, न
यह किसी से सध
सकता है।
क्योंकि यह
बंदर इसमें
बडी बाधा है।
अगर यही शर्त
थी तो
महापुरुष! कही
क्यों? कहते
भर नहीं।
दुनिया का कोई
जानवर नहीं
याद आया रात
भर। साधारणत:
मन में वासना
उठती है, स्त्रियां
दिखाई पड़ती
हैं; मगर
इस रात स्त्री
भी नहीं दिखाई
पड़ी—बस, यह
बंदर ही बंदर।
कहते न, तो
शायद मंत्र सध
जाता।
गुरु
ने कहा : मैं भी
क्या करूं? वह
शर्त तो बतानी
जरूरी है।
तुम
मन के साथ
प्रयोग करके
देखो। जिसे
तुम भुलाना
चाहोगे, उसकी
और याद आ
जाएगी। जिसे
तुम हटाना
चाहोगे, वह
और जिद बांध
कर खड़ा हो
जाएगा। फिर भी
तुम्हें खयाल
नहीं आता कि
मन के चलाने वाले
तुम नहीं हो।
चलाने की
चेष्टा ही
भ्रांत है।
'तो पहले
मैंने शरीर को
देखा और समझा—पाया
कि मैं इसका न
सहारने वाला
हूं।’
पूर्व
कायकृत्यासह......।
पहले
मैंने यह जाना
कि मेरा सहयोग
आवश्यक नहीं
है। मैं नाहक
सहयोग कर रहा
हूं। कोई
जरूरत ही नहीं
शरीर को मेरे
सहयोग की।
पहले मैं
सहयोग करता
हूं;
और फिर जब
परेशान होता
हूं तो असहयोग
करता हूं।
लेकिन दोनों
में भ्रांति
एक ही है।
मुझसे कुछ
लेना—देना
नहीं है—न
सहयोग, न
असहयोग। मैं
सिर्फ साक्षी
हो जाऊं।
तत
वाग्विस्तरासह:।
और
तब जाना कि यह
जो वाणी का
विस्तार है, शब्द
का विस्तार है,
ये जो शब्द
की तरंगें है—इन
पर भी मेरा
कोई वश नहीं
है। मैं इनके
भी पार हूं।
अद्य
चितासह......।
और
तब जाना कि
चिंतन—मनन, ये
भी मेरे नहीं
हैं। मैं इनसे
भी पार हूं।
तस्मात्
एवं अहं
आस्थित:।
और
तब से मैं
अपने में
स्थित हो गया
हूं।
स्वयं
में स्थित
होने के लिए
कुछ और करना
नहीं—इतना ही
जानना
पर्याप्त है
कि कर्ता मैं
नहीं हूं; कर्तापन
खो जाए।
नदी
रुकती नहीं है
लाख
चाहे उसे
बांधो,
ओढ़
कर शैवाल
वह
चलती रहेगी।
धूप
की हलकी छुअन
भी
तोड़
देने को बहुत
है
लहरियों
का
हिमाच्छादित
मौन
सोन
की बालू नहीं
यह
शुद्ध
जल है
तलहटी
पर रोकने वाला
इसे
है कौन?
हवा
मरती नहीं है
लाख
चाहे तुम
उसे
तोड़ो—मरोड़ो
खुशबुओं
के साथ
वह
बहती रहेगी।
आंधियों
का आचरण
या
घना कोहरा
जलजला का
काटता
कब हरेपन का
शीश
खेत
बेहड़ या कि आंगन
जहां
होगी उगी
तुलसी
सिर्फ
देगी मुक्ति
का आशीष
शिखा
मिटती नहीं है
लाख
अंधे पंख से
उसको
बुझाओ
अंचलों
की ओट वह
जलती
रहेगी।
नदी
रुकती नहीं है
लाख
चाहे उसे
बांधो
ओढ़
कर शैवाल
वह
चलती रहेगी।
जीवन
की धारा बही
जाती है—तुम्हें
न रोकना है, न
सहारा देना है।
तुमने इसे
रोकने की
कोशिश की तो
तुम उलझे।
तुमने इसे
सहारा देने की
कोशिश की, तो
तुम उलझे। तुम
तट पर बैठ जाओ,
तटस्थ हो
जाओ।
संस्कृत
में दो शब्द
हैं—तटस्थ और
कूटस्थ।
दोनों शब्द
बड़े अदभुत
हैं! तटस्थ
प्रक्रिया है
कूटस्थ होने
की। पहले
किनारे बैठ
जाओ,
तट पर बैठ
जाओ। बहने दो
नदी की धार; तुम इसमें राग—रंग
न रखो, पक्ष—विपक्ष
न रखो। राग तो
छोड़ो ही, विराग
भी छोड़ो, क्योंकि
तुमसे इसका
कुछ लेना—देना
नहीं। तुम
नहीं थे, तब
भी जीवन बहुत
था; तब भी
फूल खिलते थे,
कोयल
कुहुकती थी, तब भी संसार
में विचार की
तरंगें भरी
थीं, तब भी
सागर की छाती
पर लहरें
उठतीं, तूफान,
आंधिया आते
थे। तुम एक
दिन नहीं
रहोगे, तब
भी सब ऐसे ही
चलता रहेगा।
तुम तट पर बैठ
जाओ, तटस्थ
हो जाओ।
तटस्थ
होना साधन है।
अगर तुम तट पर
बैठ गए, और
नदी की धार को
बहने दिया और
तुमने कोई भी
पक्षपात न रखा;
तुमने कोई
निर्णय भी न
रखा मन में कि
यह नदी अच्छी
है या बुरी...
तुम्हारा
लेना—देना
क्या?
जिसकी हो, वह
जाने। यह जीवन
कैसा है—शुभ
है कि अशुभ, पाप कि
पुण्य— ऐसा
तुमने कुछ भी
विचार न किया।
तुम्हारा
लेना—देना
क्या? आए
तुम अभी, कल
तुम चले जाओगे,
घड़ी भर का
बसेरा है। रात
रुक गए हो
सराय में, अब
सराय अच्छी कि
बुरी, तुम्हें
क्या प्रयोजन
है? सुबह
डेरा उठा लोगे,
जिसकी हो
सराय वह फिक्र
करे। तुम अगर
तट पर ऐसे बैठ
गए, तटस्थ
हो गए तो
जल्दी ही एक
दूसरी घटना
घटेगी, तुम
कूटस्थ हो
जाओगे।
कूटस्थ
का ही अर्थ है.’ आस्थित:’! यह
शब्द समझना, क्योंकि जनक
इसे बार—बार
दोहराएंगे।’मैं
अपने में
स्थित हो गया
हूं! अब मेरे
भीतर कोई हलन—चलन
नहीं! अब बाहर
चलता रहे
तूफान, मेरे
भीतर कोई तरंग
नहीं आती।’
तरंग
आती थी तभी तक, जब
तक तुम बाहर
से संबंध जोड़े
बैठे थे—सहयोग
या असहयोग, मित्र या
शत्रु, राग
या विराग—कोई
नाता तुमने
बना लिया था।
सब नाते छोड़
दिए...।
तीन
शब्द हैं
हमारे पास :
राग,
विराग, वीतराग।
ये सूत्र
वीतरागता के
हैं। रागी एक
तरह का संबंध
बनाता है; विरागी
भी संबंध
बनाता है
दूसरे तरह के।
किसी
व्यक्ति से
तुम्हें
प्रेम है तो
तुम्हारा एक
संबंध होता है।
फिर किसी
व्यक्ति से
तुम्हारी
घृणा है तो भी तुम्हारा
एक तरह का
संबंध होता है।
मित्र से ही
थोड़े संबंध
होता है, शत्रु
से भी संबंध
होता है। किसी
से आकर्षण से
बंधे हो, किसी
से विकर्षण से
बंधे हो—बंधे
तो निश्चित ही
हो। तुम्हारा
मित्र मर जाए,
तो भी कुछ
खोला, तुम्हारा
शत्रु मर जाए
तो भी कुछ
खोएगा।
तुम्हारे
शत्रु के बिना
भी तुम अकेले
और अधूरे हो
जाओगे।
कहते
हैं,
महात्मा
गांधी के मर
जाने के बाद
मुहम्मद अली
जिन्ना उदास
रहे। जिस दिन
महात्मा
गांधी की मौत
हुई, जिन्ना
अपने बाहर
बगीचे में लान
पर बैठा था।
और तब तक
जिन्ना ने जिद
की थी, यद्यपि
वे गवर्नर
जनरल थे
पाकिस्तान के,
तब तक जिद
की थी कि मेरे
पास कोई
सुरक्षा का इंतजाम
नहीं होना
चाहिए।’मुसलमानों
का देश, उनके
लिए मैं जीया,
उनके लिए
मैंने सब
क्रिया—उनमें
से कोई मुझे
मारना चाहेगा,
यह बात ही
फिजूल है।’ इसलिए
तब तक बहुत
आग्रह किए
जाने पर भी
उन्होंने कोई
सुरक्षा की
व्यवस्था
नहीं की थी।
लेकिन जैसे ही
उनके
सेक्रेटरी ने
आ कर खबर दी कि
गांधी को गोली
मार दी गई, जिन्ना
एकदम उठ कर
बगीचे से भीतर
चला गया। और
दूसरी बात जो
जिन्ना ने कही
अपने
सेक्रेटरी को,
कि सुरक्षा
का इंतजाम कर
लो। जब हिंदू
गांधी को मार
सकते हैं, तो
अब कुछ भरोसा
नहीं। अब किसी
का भरोसा नहीं
किया जा सकता।
तो मुसलमान
जिन्ना को भी
मार सकते हैं।
उसके बाद
जिन्ना के
चेहरे पर वह
प्रसन्नता कभी
नहीं रही जो
सदा थी।
दुश्मन मर गया।
गांधी के मरते
ही जिन्ना भी
मर गए। कुछ खो
गया।
तुम्हारा
दुश्मन भी
तुम्हारा
संबंध है।
मित्र से तो
खोला ही कुछ, शत्रु
से भी खो जाता
है।
तो
एक तो राग का
संबंध है
संसार से, फिर
एक विराग का
संबंध है। कोई
धन के लिए
दीवाना है, कोई धन से
डरा हुआ है और
भागा हुआ है।
किसी के मन
में बस चांदी
के सिक्के ही
तैरते हैं, और कोई इतना
डरा है कि अगर
रुपया उसे
दिखा दो तो वह
कंपने लगता है।
संन्यासी हैं
जो रुपये को
नहीं छूते।
मैं
एक संन्यासी
के पास मेहमान
हुआ,
वे रुपये को
नहीं छूते।
मैंने उनसे
पूछा कि रुपये
को नहीं छूते?
वे बोले, मिट्टी है!
मैंने कहा, मिट्टी को
तो तुम छूते
हो। अगर सच
में ही मिट्टी
है तो रुपये
को छूते क्यों
नहीं? मिट्टी
के साथ तो
तुम्हें कोई
एतराज मैंने
देखा नहीं!
वे
जरा बेचैन हुए।
उनके शिष्य भी
बैठे थे। वे
जरा बड़ी
परेशानी में
पड़े कि अब
क्या कहें? क्योंकि
मिट्टी को छुए
बिना तो चलेगा
नहीं। मैंने
कहा, बोलो!
अगर सच में
मिट्टी है..
.लेकिन मुझे
शक है कि अभी
रुपया मिट्टी
हुआ नहीं। अभी
रुपये में राग
की जगह विराग
आ गया। संबंध
पहले मित्र का
था, अब
शत्रु का हो
गया। तो तुम
शीर्षासन
करने लगे, उल्टे
खड़े हो गए—लेकिन
तुम आदमी वही
के वही हो।
एक
और संन्यासी
के पास एक बार
मैं मेहमान
हुआ। वे एक
बड़े मंच पर
बैठे थे। उनके
पास ही एक
छोटा मंच था, उस
पर एक दूसरे
संन्यासी
बैठे थे। वे
मुझसे कहने
लगे क्या आप
जानते हैं इस
छोटे मंच पर
कौन बैठा है?
मैंने
कहा,
मैं तो नहीं
जानता। मैं
पहली दफे यहां
आपके
निमंत्रण पर
आया हूं।
कहने
लगे कि
इलाहाबाद
हाईकोर्ट के
चीफ जस्टिस थे।
मगर बड़े
विनम्र आदमी
हैं! देखो
मेरे साथ तख्त
पर भी नहीं
बैठते। छोटा
तख्त बनवाया
है।
मैंने
उनसे कहा कि
आपको यह याद
रखने की
आवश्यकता
क्या है कि
हाईकोर्ट के
चीफ जस्टिस थे? और
जहां तक मैं
देख रहा हूं
इन सज्जन को, ये
प्रतीक्षा कर
रहे हैं कि कब
आप लुढूको और
ये चढ़ बैठें।
माना कि आपसे
इन्होंने
छोटा तख्त
बनाया लेकिन
इनसे भी नीचे
दूसरे बैठे
हैं; उनसे
तो इन्होंने
थोड़ा ऊंचा
बनाया ही। और
जिस ढंग से ये
बैठे हैं, उससे
साफ जाहिर हो
रहा है कि
रास्ता देख
रहे हैं। सीढ़ी
बना ली है
इन्होंने।
आधे में आ गए
हैं, बाकी
सब पीछे हैं
आपके शिष्य।
आपके लुढ़कते
ही ये ऊपर
बैठेंगे। फिर
आपको भी यह
खयाल है कि ये
चीफ जस्टिस थे?
चीफ जस्टिस
का क्या मूल्य
है? राग तो
छूट गया, लेकिन
ऐसे ही नहीं
छूट जाता; सूक्ष्म,
धूमिल
रेखाएं छोड़
जाता है। कहते
हो विनम्र हैं,
लेकिन अगर
विनम्र ही हैं
तो यह छोटा
तख्त भी क्यों?
और अगर तख्त
से ही
विनम्रता का
पता चलता है, तो इनसे कहो
कि गड्डा खोद
लें, उसमें
बैठें।
यह
विनम्रता
अहंकार का ही
एक रूप है। यह
थोथी है और
झूठी है; और
कहती कुछ है, है कुछ और।
रागी, विरागी
हो जाता है, विपरीत भाषा
बोलने लगता है।
अगर
तुम मंदिरों
में जाओ, साधु —संन्यासियों
के सत्संग में
जाओ—संन्यासी
जिनको मैं ’सत्यानाशी'
कहता हूं —उनकी
बात सुनो, तो
तुम एक बात
निश्चित
पाओगे. उन्हीं—उन्हीं
चीजों की वे
निंदा कर रहे
हैं जिनमें तुम्हें
रस है। अगर
तुम्हें धन
में रस है तो
वे धन की
निंदा कर रहे
हैं। तुम्हें अगर
कामवासना में
रस है तो वे
कामवासना की
निंदा कर रहे
हैं। तुम्हें
अगर स्त्री
में रस है तो
वे स्त्री का
जैसा वीभत्स
चित्र खींच
सकें वैसा
खींचने की
चेष्टा कर रहे
हैं। लेकिन यह
सारी चेष्टा
एक ही बात
बताती है. रस विपरीत
तो हुआ, बदला
नहीं। राग
विराग तो बना,
गया नहीं।
वीतराग
का अर्थ है.
जहां राग और
विराग दोनों
गए। वीतराग का
अर्थ है : जहां
तुमने इतना ही
जाना कि न
मेरी किसी से
शत्रुता है, और
न मेरी किसी
से मित्रता है—मैं
अकेला हूं
असंग, अछूता,
कुंआरा!
तस्मात्
एवं अहं
आस्थित:।
'और इस कारण
मैं स्वयं में
हूं और इस
प्रकार मैं
स्थित हुआ हूं।’
यह
जनक और
अष्टावक्र के
बीच जो चर्चा
है,
यह अदभुत
संवाद है।
अष्टावक्र ने
कुछ बहुमूल्य
बातें कहीं।
जनक उन्हीं बातो
की
प्रतिध्वनि
करते हैं। जनक
कहते हैं कि
ठीक कहा, बिलकुल
ठीक कहा, ऐसा
ही मैं भी
अनुभव कर रहा
हूं; मैं
अपने अनुभव की
अभिव्यक्ति
देता हूं।
इसमें कुछ
प्रश्न—उत्तर
नहीं है। एक
ही बात को
गुरु और शिष्य
दोनों कह रहे
हैं। एक ही
बात को अपने—
अपने ढंग से
दोनों ने
गुनगुनाया है।
दोनों के बीच
एक गहरा संवाद
है। यह संवाद
है, यह
विवाद नहीं है।
कृष्ण और
अर्जुन के बीच
विवाद है।
अर्जुन को
संदेह है। वह
नई—नई शंकाएं
उठाता है।
चाहे प्रगट
रूप से कहता
भी न हो कि तुम
गलत कह रहे हो,
लेकिन
अप्रगट रूप से
कहे चला जाता
है कि अभी मेरा
संशय .नहीं
मिटा। वह एक
ही बात है। वह
कहने का
सज्जनोचित
ढंग है कि अभी
मेरा संशय
नहीं मिटा, अभी मेरी
शंका जिंदा है;
तुमने जो
कहा वह जंचा
नहीं।
तो
अगर कोई
उपद्रवी हो तो
सीधा कहता है, तुम
गलत। अगर कोई
सज्जन सुशील
हो, कुलीन
हो, तो
कहता है अभी
मुझे जंचा
नहीं। बस, इतना
ही फर्क है, लेकिन विवाद
तो है।
यह
गीता जनक और
अष्टावक्र के
बीच जरा भी
विवाद नहीं है।
जैसे दो दर्पण
एक—दूसरे के
सामने रखे हों
और एक—दूसरे
के दर्पण में
एक—दूसरे
दर्पण की छवि
बन रही है।
एक
महिला एक
दूकान पर गई।
उसके दो
जुड़वां बेटे
थे;
दोनों के
लिए कपड़े
खरीदती थी।
क्रिसमस का
त्यौहार करीब
था। दोनों ने
कपड़े पहने। एक—से
कपड़े दोनों के
लिए खरीदे।
दोनों बड़े
सुंदर लग रहे
थे। दूकानदार
ने कहा कि तुम
दोनों जा कर, पीछे दर्पण
लगा है, वहां
खड़े हो कर देख
लो। उस महिला
ने कहा, जरूरत
नहीं। ये एक—दूसरे
को देख लेते
हैं और समझ
लेते हैं कि
बात हो गई।
दर्पण की क्या
जरूरत? दोनों
जुड़वां हैं; एक जैसे
लगते हैं; एक
जैसे कपड़े
पहनते हैं। ये
दर्पण कभी
देखते ही नहीं।
ये एक—दूसरे
को देख लेते
हैं, बात
हो जाती है।
कुछ
ऐसा जनक और
अष्टावक्र के
बीच घट रहा है—दर्पण
दर्पण के
सामने खड़ा है।
जैसे दो
जुड़वां, एक ही
अंडे से पैदा
हुए बच्चे हैं।
दोनों का
स्रोत समझ का
साक्षी है।
दोनों की समझ
बिलकुल एक है।
भाषा चाहे
थोड़ी अलग—अलग
हो, लेकिन
दोनों का बोध
बिलकुल एक है।
दोनों अलग—
अलग छंद में, अलग— अलग राग
में एक ही गीत
को गुनगुना
रहे हैं।
इसलिए मैंने
इसे महागीता
कहा है। इसमें
विवाद जरा भी
नहीं है।
कृष्ण
को तो अर्जुन
को समझाना पड़ा, बार—बार
समझाना पड़ा, खींच—खींच
कर, बामुश्किल
राजी कर पाए। यहां
कोई प्रयास
नहीं है।
अष्टावक्र को
कुछ समझाना
नहीं पड़ रहा
है।
अष्टावक्र
कहते
हैं
और उधर जनक का
सिर हिलने
लगता है सहमति
में। दोनों के
बीच बड़ा गहरा
अंतरंग संबंध
है,
बड़ी गहरी
मैत्री है।
इधर गुरु बोला
नहीं कि शिष्य
समझ गया।
'शब्द आदि
ऐंद्रिक
विषयों के
प्रति राग के
अभाव से और
आत्मा की
अदृश्यता से
जिसका मन
विक्षेपों से
मुक्त होकर
एकाग्र हो गया—ऐसा
ही मैं स्थित
हूं।’
प्रीत्यभावेन
शब्दादेरदृश्यत्वेन
चात्यन:
विक्षेपैकाग्रहृदय
एवमेवाहमास्थित।।
शब्दादे
प्रीत्यभावेन.।
'शब्द आदि के
प्रति जो
प्रेम है, भाव
है, उससे
मैं मुक्त हो
गया हूं।’
शब्द
में बड़ा रस है।
शब्द का अपना
संगीत है।
शब्द का अपना
सौंदर्य है।
शब्द के
सौंदर्य से ही
तो काव्य का
जन्म होता है।
शब्द में जो
बहता हुआ रस
है,
उसको ही एक
श्रृंखला में
बांध लेने का
नाम ही तो
कविता है।
शब्द को अगर
तुम गुनगुनाओ—तो
मीठे शब्द हैं,
कड़वे शब्द
हैं, सुंदर
शब्द हैं, असुंदर
शब्द हैं। कोई
तुम्हें गाली
दे जाता है, वह भी उसी
वर्णमाला से
बने अक्षरों
का उपयोग कर
रहा है। कोई
तुमसे कह जाता
है, मुझे
तुमसे बड़ा
प्रेम है, कोई
धन्यवाद दे
जाता है। इन
सभी में एक ही
वर्णमाला है—कोई
गाली दे कि
कोई तुम्हारी
प्रशंसा करे।
लेकिन कुछ
शब्द हृदय पर
अमृत की वर्षा
कर देते हैं, कुछ शब्द
काटे चुभा
जाते हैं, कुछ
घाव बना जाते
हैं।
शब्द
की बड़ी पकड़ है, बड़ी
जकड़ है आदमी
के मन पर। हम
शब्द से ही
जीते हैं।
तुम
अगर गौर करो, किसी
ने कहा,’मुझे
तुमसे बड़ा
प्रेम है' —तुम
कैसे
प्रफुल्लित
हो जाते हो! और
किसी ने हिकारत
से कुछ बात
कही, अपमान
किया—तो तुम
कैसे दुखी हो
जाते हो!
शब्द
सिर्फ तरंग है; इतना
महत्वपूर्ण
होना नहीं
चाहिए, लेकिन
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। किसी ने
गाली दी हो
बीस साल पहले,
लेकिन
भूलती नहीं; चोट कर गई है,
बैठ गई है भीतर,
बदला लेने
के लिए अभी भी
आतुर हो। और
किसी ने पचास
साल पहले
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
की प्रशंसा की
हो, अब भी
तुम
सर्टिफिकेट
रखे बैठे हो।
जिसने
तुम्हें
बुद्धिमान
कहा हो, वह
बुद्धिमान
खुद भी चाहे न
रहा हो, मगर
उसकी कौन
चिंता करता
है! हम शब्द
बटोरते हैं, हम शब्द से
जीते हैं!
जनक
ने कहा.
शब्दादे:
प्रीत्यभावेन—शब्द
के प्रति वह
जो मेरा राग
है,
वह मेरा गया।
क्योंकि
मैंने देख
लिया. मैं
शब्दातीत हूं!
मैं शब्द के
पीछे खड़ा हूं।
शब्द तो ऐसे
ही हैं जैसे
हवा के झकोरे
पानी में
लहरें उठा
जाते हैं।
शब्द तो तरंग
मात्र हैं, न अच्छे हैं
न बुरे हैं।
इसलिए
अगर कोई दूसरा
व्यक्ति किसी
दूसरी भाषा
में तुम्हें
कुछ कहे, तो
कुछ परिणाम
नहीं होता—चाहे
वह गालियां ही
दे रहा हो।
खलील
जिब्रान की एक
कहानी है। एक
आदमी परदेस
गया। वह एक
बड़े होटल के
सामने खड़ा है।
लोग भीतर आ
रहे हैं, जा
रहे हैं, बैरे
लोगों का
स्वागत कर रहे
हैं—उसने समझा
कि कोई राज—भोज
है। वह भी चला
गया। उसका भी
स्वागत किया
गया। उसको भी
बिठाया गया।
थाली लगाई गई,
उसने भोजन
किया।
उसने
कहा,
अदभुत नगर
है! इतना
अतिथि—सत्कार!
फिर बैरा
तश्तरी में रख
कर उसका बिल ले
आया। लेकिन वह
समझा कि बड़े
अदभुत लोग हैं,
लिख कर
धन्यवाद भी दे
रहे हैं कि
आपने
बड़ी
कृपा की कि आप
आए! वह झुक—झुक
कर नमस्कार
करने लगा। वह
बोला कि बड़ा
खुश हूं। मगर
वह बैरे को
कुछ समझ में न
आया कि मामला
क्या है, यह
झुक किसलिए
रहा है, नमस्कार
किसलिए कर रहा
है! कुछ समझा
नहीं, तो
मैनेजर को
बुला लाया।
उस
आदमी ने समझा
कि हद हो गई, अब
खुद मालिक आ
रहा है महल का!
वह झुक—झुक कर
नमस्कार करने
लगा और बड़ी
प्रशंसा करने लगा,
लेकिन एक—दूसरे
की बात किसी
को समझ में न
आए। मैनेजर ने
समझा, या
तो पागल है या
हद दर्जे का
धूर्त है।
उसको पुलिस के
हवाले कर दिया।
वह समझा कि अब
शायद सम्राट
के पास ले जा
रहे हैं। वह
ले जाया गया
अदालत में, मजिस्ट्रेट
बैठा था, वह
समझा कि
सम्राट...।
मजिस्ट्रेट
ने सारी बात
समझने की
कोशिश की, लेकिन
समझने का वहां
कोई उपाय न था।
वहां भाषा एक—दूसरे
की कोई जानता
न था। आखिर
उसने दंड दिया
कि कुछ भी हो, इसको गधे पर
बिठा कर, तख्ती
लगा कर इसके
गले में कि यह
धूर्त है, दगाबाज
है और दूसरे
लोग सावधान
रहें ताकि यह
गांव में किसी
और को धोखा न
दे सके, इसकी
फेरी लगवाई
जाए। जब उसको
गधे पर बिठाया
जाने लगा, तब
तो उसकी आंख
से आंसू बहने
लगे आनंद के।
उसने कहा, हद
हो गई, अब
जुलूस निकाला
जा रहा है! मैं
सीधा—सादा
आदमी, मैं
कोई नेता
वगैरह नहीं
हूं मगर मेरा
जुलूस निकाला
जा रहा है।
मैं तो बिलकुल
गरीब आदमी हूं, यह तो
नेताओं को
शोभा देता है,
यह आप क्या
कर रहे हैं!
मगर
कोई उसकी सुने
नहीं। जब वह
गधे पर बैठ कर
गांव में
घूमने लगा तो
स्वभावत: भीड़
भी पीछे चली।
बच्चे चले
शोरगुल मचाते।
उसकी
प्रसन्नता का
ठिकाना नहीं
है। जीवन में
ऐसा कभी अवसर
मिला नहीं था।
एक ही बात मन
में चुभने लगी
कि आज कोई
अपने देश का
होता और देख
लेता। जा कर
कहूंगा तो कोई
मानेगा भी
नहीं।
वह
बडी गौर से
देख रहा है
भीड़ को। जब
बीच चौरस्ते
पर उसका जुलूस
पहुंचा—शोभा—यात्रा
—और काफी भीड़
इकट्ठी हो गई, तो
उसे भीड़ में
एक आदमी दिखाई
पड़ा। वह आदमी
उसके देश का
था। वह
चिल्लाया कि
अरे, मेरे
भाई, देखो
क्या हो रहा
है! लेकिन वह
दूसरा आदमी तो
इस देश की
भाषा समझने
लगा था, यहां
कई साल रह
चुका था। ऐसा
सिर झुका कर
वह भीड़ में से
निकल गया कि
कोई दूसरा यह
न देख ले कि
हमारा इनसे
संबंध है।
लेकिन गधे पर
बैठे हुए नेता
ने समझा कि हद
हो गई, ईर्ष्या
की भी एक सीमा
होती है!
भाषा
समझ में न आए
तो फिर मनगढ़ंत
है सब हिसाब।
जब तक समझ में
आता है, तब तक
अच्छा शब्द, बुरा शब्द; जब समझ में
नहीं आता तो
सभी शब्द
बराबर हैं, कोई अर्थ
नहीं है।
अर्थ
नहीं है
शब्दों में—अर्थ
माना हुआ है।
शब्द तो केवल
ध्वनियां हैं—अर्थहीन।
जिस दिन यह
समझ में आ
जाता है कि
शब्द तो केवल
ध्वनियां हैं
अर्थहीन, उस
दिन— जीवन में
एक बड़ी
अभूतपूर्व
घटना घटती है।
तुम शब्द से
मुक्त होते हो,
तो तुम समाज
से भी मुक्त
हो जाते हो।
क्योंकि समाज
यानी शब्द।
बिना शब्द के
कोई समाज नहीं
है।
इसलिए
तो जानवरों का
कोई समाज नहीं
होता, आदमियों
का समाज होता
है। समाज के
लिए भाषा
चाहिए। दो को
जोड्ने के लिए
भाषा चाहिए।
अगर दो के बीच
भाषा न हो तो
जोड़ नहीं पैदा
होता। तो भाषा
समाज को बनाती
है। भाषा आधार
है।
अब
जिस व्यक्ति
को सच में ही
संन्यासी
होना हो, उसे
समाज से भागने
की कोई जरूरत
नहीं; सिर्फ
भाषा का जो
राग—विराग है,
उससे मुक्त
हो जाना काफी
है। बस इतना
जान ले कि
शब्द तो मात्र
ध्वनियां है—अर्थहीन,
मूल्यहीन, न अच्छे हैं,
न बुरे हैं।
ऐसा जानते ही,
तुम अचानक
पाओगे तुम
मुक्त हो गए
समाज से। अब
तुम्हें कोई न
तो गाली दे कर
दुखी कर सकता
है, न
खुशामद करके
तुम्हें
प्रसन्न कर
सकता है। जिस
दिन तुम लोगों
के दुख देने
और सुख देने
की क्षमता के
पार हो गए, उस
दिन तुम पार
हो गए।
'शब्द आदि
ऐंद्रिक
विषयों के
प्रति राग के
अभाव से और
आत्मा की
अदृश्यता से
जिसका मन
विक्षेपों से
मुक्त हो कर
एकाग्र हो गया—ऐसा
ही मैं स्थित
हूं।’
आत्मा
अदृश्य है। और
सब दृश्य है, आत्मा
अदृश्य है—होनी
ही चाहिए। अगर
आत्मा भी
दृश्य हो तो
किसके लिए
दृश्य होगी? आत्मा
द्रष्टा है।
तुम सब कुछ
देखते हो
आत्मा से—आत्मा
को नहीं देखते।
इसलिए तो लोग
आत्मा को
विस्मरण कर
बैठे हैं। आंख
से सब दिखाई
पड़ता है, बस
आंख दिखाई
नहीं पड़ती।
हाथ से तुम सब
पकड़ सकते हो, लेकिन इसी
हाथ को इसी
हाथ से नहीं
पकड़ सकते।
आत्मा
तो द्रष्टा है।
चाहे बाहर लगे
इन हरे
वृक्षों को
देखो, चाहे
बैठे जनसमूह
को देखो, चाहे
अपनी देह को
देखो, चाहे
आंख बंद करके
अपने विचारों
को देखो, और
गहरे उतरो, भावों की
सूक्ष्म
तरंगों को
देखो—लेकिन
तुम तो सदा
देखने वाले हो।
तुम कभी भी
दृश्य नहीं
बनते।
आत्मा
अदृश्य है।
आत्मा कभी
विषय नहीं
बनती—अविषय है।
हटती जाती
पीछे, हटती
जाती पीछे।
तुम जो भी
देखते जाओ, समझ लेना कि
वही तुम नहीं
हो। तुम तो
सिर्फ देखने
वाले हो।
इसलिए
आत्म—दर्शन
शब्द झूठा है।
आत्मा का कभी
दर्शन नहीं
होता, किसको
होगा? उपयोग
के लिए ठीक है,
कामचलाऊ है,
लेकिन बहुत
अर्थपूर्ण
नहीं है।
दर्शन तो
आत्मा का कभी
नहीं होता।
आत्मा की
अनुभूति होती
है। जब सभी
दृश्य समाप्त
हो जाते हैं और
देखने को कुछ
भी नहीं बचता,
सिर्फ
देखने वाला
अकेला बचता है,
तब ऐसा नहीं
होता है कि
तुम देखते हो
आत्मा को, क्योंकि
देखने में फिर
खंड हो जाएगा।
फिर आधी आत्मा
हो जाएगी, जो
देख रही, और
जो दिखाई पड़
रही, वह
अनात्मा हो
जाएगी।
अनात्मा का
अर्थ ही यह है
कि जिसे हम
देख लेते हैं,
वह पराया, वह विषय हो
गया। और जिसे
हम कभी नहीं
देख पाते, जिसे
दृश्य बनाने
का कोई उपाय
नहीं—वही
आत्मा है।
यह
सूत्र ध्यान
की पराकाष्ठा
का सूत्र है।
आत्मा अदृश्य
है। तो फिर
आत्मा को
देखने के
जितने उपाय
हैं,
सब व्यर्थ
हैं। जप करो, तप करो—सब
व्यर्थ है। यह
बात जिसकी समझ
में आ गई कि
आत्मा को तो
देखा नहीं जा
सकता क्योंकि
आत्मा तो सदा
देखनेवाली है,
उसके लिए
फिर अब कोई
साधन न रहे।
आत्मन्
अदृश्यत्वेन...।
आत्मा
अदृश्य है, ऐसी
प्रतीति और
अनुभूति के हो
जाने से—
विक्षेपैकाग्रहृदय......।
—हृदय से
सारे विक्षेप
विसर्जित हो
गए।
अब
कोई तनाव नहीं
है। अब कोई
खोज नहीं है।
आत्मा की खोज
करने की भी
खोज नहीं है।
अब इतनी भी
वासना नहीं
बची कि आत्मा
को जानें, क्योंकि
आत्मा को जाना
नहीं जा सकता।
आत्मा तो
जानने का
स्रोत है।
एवं
अहं आस्थित:।
और
इसलिए मैं
अपने में
स्थित हो गया हूं
क्योंकि अब
करने को कुछ
बचा ही नहीं।
संसार
अपने से चल
रहा है। मन की
धारा अपने से
बह रही है, वहां
कुछ करने को
नहीं है। शायद
कोई कहे कि’चलो,
संसार अपने
से बह रहा है, मन की धारा
अपने से बह
रही, कुछ
करने को नहीं,
परमात्मा
इनका कर्ता है—लेकिन
तुम अपने को
तो खोजो!' तो
उस खोज से फिर
नया तनाव पैदा
होगा, फिर
नई वासना, नई
इच्छा! फिर
नया संसार।
जनक
कहते हैं, वह
भी अब सवाल
नहीं है, खोजना
किसको है? मैं
तो खोजने वाला
हूं तो खोजना
किसको है? मैं
शुद्ध—बुद्ध,
चिन्मात्र—ऐसा
जान कर स्थित
हो गया हूं।
ऐसा जानने में
ही स्थिति आ
गई है। ऐसा
जानने के कारण
ही सब अथिरता
चली गई, थिरता
बन गई है।
अंधेरों
पली है यह
धरती कि
जिसमें
दिवस
पर भी छाई हुई
यामिनी है
मेरा
शरीर धरती
निवासी है तो
क्या?
मेरी
आत्मा तो गगन—गामिनी
है!
शरीर
होगा धरती पर, आत्मा
तो गगन—गामिनी
है। आत्मा तो
गगन है, आत्मा
तो आकाश जैसी
है —असीम!
जनक
कहते हैं. मैं
इस बोध में ही
स्थित हो गया
हूं।
चाहे
सारा जीवन
गुजरे
जहरीलों के
संग
नेकों
पर तो चढ़ न
सकेगा सोहबते—बद
का रंग
जहर
सरायत हो न
सका महफूज रहा
यह पेडू
गो
चंदन के गिर्द
हमेशा लिपटे
रहे भुजंग।
चंदन
के वृक्ष पर
सर्प लिपटे हैं, तो
भी चंदन
विषाक्त नहीं
हो गया है।
गो
चंदन के गिर्द
हमेशा लिपटे
रहे भुजंग।
कोई
फर्क नहीं
पड़ता। आत्मा
अदृश्य है, शरीर
दृश्य है, मन
भी दृश्य है।
दृश्य अदृश्य
को छू भी नहीं
सकता। लिपटे
रहे भुजंग!
आत्मा इनसे
कलुषित नहीं
होती है।
आत्मा कलुषित
हो ही नहीं
सकती है।
आत्मा का होना
ही शुद्ध—बुद्धता
है। लाख तुमने
पाप किए हों, तुम्हारी
भांति इसमें
है कि तुमने
किए। और पाप
के कारण तुम
पापी नहीं हो
गए हो। कितने
ही पाप किए
हों, तुम
पापी हो नहीं
सकते, क्योंकि
पापी होने की
संभावना ही
नहीं है। तुम्हारा
अंतस्तम, तुम्हारा
आंतरिक स्तल
सदा शुद्ध है।
जैसे
कि दर्पण के
सामने कोई
हत्यारे को ले
आए,
तो दर्पण
हत्यारा नहीं
हो जाता।
दर्पण के
सामने ही
हत्या की जाए,
तो भी दर्पण
हत्यारा नहीं
हो जाता।
दर्पण के
सामने ही खून
गिरे, तो
भी दर्पण पर
हत्या का
जुर्म नहीं है।
जो भी हुआ है, शरीर और मन
में हुआ है।
इन दोनों के
पार तुम्हारा
होना अतीत है,
अतिक्रमण
करता है। न
वहा कोई तरंग
कभी पहुंची है
न पहुंच सकती
है।
'ऐसा जान कर
मैं स्थित
हूं!'
हम
तो जो दृश्य
है,
उससे उलझ गए
हैं और
द्रष्टा को
भूल गए हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक रात
जूते खरीदने
बाजार गया। एक
साहब जूता
खरीद रहे थे, वह
भी उनके पास
ही बैठ गया।
अनेक जूते लाए
गए। वे साहब
जूता खरीद कर
चले गए; दूसरे
साहब आए, वे
भी जूता खरीद
कर चले गए; तीसरे
आए...। लेकिन
मुल्ला ने
पचासों
जोड़ियां
देखीं लेकिन
कोई जोड़ी उसके
पैर आई नहीं।
दूकानदार भी
थक गया और
दूकान बंद
होने का वक्त
भी आ गया।
लेकिन कोई
जूता फिट ही
नहीं बैठ रहा
था। इतने में
बिजली चली गई।
पूना है, जानते
ही हैं आप, बिजली
चली जाती है!
इतने में
बिजली चली गई।
और तभी मुल्ला
बड़े जोर से
चिल्लाया :
अरे आ गया, आ
गया, फिट आ
गया! दूकानदार
भी बड़ा खुश
हुआ कि चलो, आशा नहीं थी
कि यह आदमी
कुछ खरीदेगा,
कि खरीद
पाएगा। लेकिन
जब रोशनी
वापिस आई तो
देखा कि
मुल्ला पैर एक
जूते के डब्बे
में रखे बैठा
है।
जब
रोशनी आएगी, तब
तुम पाओगे कि
कहां तुम पैर
रखे बैठे हो!
शरीर में
अदृश्य दृश्य
के साथ बंधा
बैठा है। मन में
निस्तरंग
तरंगों के साथ
बंधा बैठा है।
जब रोशनी आएगी,
तब जागोगे
और जानोगे।
रोशनी
कैसे आएगी? ये
सूत्र रोशनी
के लिए ही हैं।
'अध्यास आदि
के कारण
विक्षेप होने
पर समाधि का व्यवहार
होता है। ऐसे
नियम को देख
कर समाधि—रहित
मैं स्थित हूं।’
इसलिए
मैंने कहा, ये
बड़े क्रांतिकारी
सूत्र हैं।
जनक
कहते हैं :’समाधि—रहित
मैं स्थित
हूं!'
जनक
यह कह रहे हैं
कि जैसे
बीमारी होती
है तो औषधि की
जरूरत होती है।
चित्त में
विक्षेप है तो
ध्यान की
जरूरत है।
अंग्रेजी
में जो शब्द
है ध्यान के
लिए,
मेडीटेशन, वह उसी धातु
से आता है, जिससे
अंग्रेजी का
शब्द है
मेडीसन।
दोनों का मतलब
औषधि होता है।
मेडीसन शरीर
के लिए औषधि
है; और
मेडीटेशन, आत्मा
के लिए।
लेकिन
जनक कहते हैं :
आत्मा तो कभी
रुग्ण हुई नहीं, तो
वहां तो औषधि
की कोई जरूरत
नहीं है। मन
तक औषधि काम
कर सकती है।
लेकिन तुम अगर
समझो कि मैं
मन के साथ एक
हूं तो मन के
साथ एकता
तोड्ने के लिए
औषधि की जरूरत
है।
अगर
तुम जाग कर
इतना समझ लो
कि मैं मन के
साथ अलग हूं
ही,
कभी जुड़ा ही
नहीं—तो बात
खतम हो गई, फिर
औषधि की कोई
जरूरत न रही।
आत्मा
को ध्यान करने
के कारण भी
बंधन शेष रहता
है,
क्योंकि
क्रिया जारी
रहती है। तुम
कहते हो, हम
ध्यान कर रहे
है—तो कुछ
करना जारी है।
ध्यान तो
अवस्था है न
करने की। तुम
कहते हो, हम
समाधिस्थ हो
गए—तो जनक
कहेंगे कि
क्या कभी ऐसा
भी था कि तुम
समाधिस्थ
नहीं थे? समाधि
तो स्वभाव है।
तो जो समाधि
तुम बाहर से
लगा लेते हो, किसी तरह
आयोजन करके
जुटा लेते हो,
वह मन में
ही रहेगी, मन
के पार न
जाएगी।
तो
बहुत बार ऐसा
होता है कि मन शांत
होता है, हवाएं
रुक जाती हैं
और पानी पर
लहरें नहीं
होतीं —तब
तुम्हें लगता
है समाधि हो
गई, बड़ा
आनंद आ रहा है!
मगर फिर लहरें
आएंगी, फिर
हवा आएगी —हवा
पर तुम्हारा
बस क्या है? फिर तरंगें
उठेंगी, फिर
सब शांति खो
जाएगी।
जनक
कहते हैं :
समाधि तो तभी
है जब समाधि
के भी तुम पार
चले जाओ। फिर
तुम्हें कोई
भी चीज
अस्तव्यस्त न
कर पाएगी।
समाध्यासादिविक्षिप्तौ
व्यवहार:
समाधये।
—समाधि तो
व्यवहार है।
अगर मन
विक्षिप्त है
तो समाधि की
जरूरत है।
एवं
विलोक्य
नियमेवमेवाहमास्थित
—इस नियम को
जान कर मैं तो
अपने में
स्थित हो गया,
समाधि के
पार स्थित हो
गया।
ये
सूत्र ज्ञान
के चरम सूत्र
हैं,
इनमें
क्रिया की कोई
भी जगह नहीं
है। इनमें योग
का कोई भी
उपाय नहीं।
कुछ करना नहीं
है—यह सूत्र
है आधारभूत।
सिर्फ, जो तुम
हो, उसे
जाग कर देख
लेना है; कुछ
करना नहीं है।
'अध्यास आदि
के कारण
विक्षेप होने
पर समाधि का व्यवहार
होता है। ऐसे
नियम को देख
कर समाधि—रहित
मैं स्थित हो
गया हूं!'
समाधि—रहित!
'हे प्रभु, हेय और
उपादेय के
वियोग से, वैसे
ही हर्ष और
विषाद के अभाव
से, अब मैं
जैसा हूं वैसा
ही स्थित हूं।’
ये
शब्द सुनना।
ये शब्द गुनना।
ये शब्द खूब
भीतर
तुम्हारे पड़
जाएं बीज की
तरह।
'अब मैं जैसा
हूं वैसा ही
स्थित हूं!'
मेरी
भी सारी
शिक्षा यही है
कि तुम जैसे
हो वैसे ही
परमात्मा को
स्वीकार हो।
तुम नाहक दौड़—
धूप मत करो।
तुम यह मत कहो
कि पहले हम
पुण्यात्मा
और महात्मा
बनेंगे, तब
फिर परमात्मा
हमें स्वीकार
करेगा। तुम
जैसे हो वैसे
ही ठहर जाओ!
तुम स्वीकृत
हो।
तुम्हारा
मन आपाधापी का
आदी हो गया है।
पहले धन के
पीछे दौड़ता है; फिर
धन से ऊब गए तो
ध्यान के पीछे
दौड़ता है—लेकिन
दौड़ता है जरूर।
और जब तक तुम
दौड़ते, तब
तक तुम उपलब्ध
न हो सकोगे।
आस्थित हो
जाओ! रुक जाओ!
ऐसा
कहो. इस संसार
में बिना दौड़े
कुछ भी नहीं मिलता।
यहां तो
दौड़ोगे तो कुछ
मिलेगा। तो
संसार का यह
सूत्र हुआ कि यहां
दौड़ने से
मिलता है। और
परमात्मा के
जगत में अगर
दौड़े तो खो
दोगे। वहां न
दौड़ने से
मिलता है। तो
स्वाभाविक, जगत
और परमात्मा
का गणित बिलकु_ल भिन्न—भिन्न
है। यहां न
दौड़े तो
गवाओगे, यहां
तो दौड़े तो ही
कमाओगे। वहां
अगर दौड़े तो
गंवाया। वहां
तो अगर ठहर गए,
बैठ गए, रुक
गए, आस्थित:,
तटस्थ, कूटस्थ
हो गए—मिल गया!
दौड़ने के कारण
ही खो रहे हो।
दौड़ने के कारण
ही, दौड़ने
के ज्वर के
कारण ही
तुम्हें उसका
पता नहीं चल
पाता जो
तुम्हारे
भीतर है।
हेयोपादेयविरहादेव
हर्षविषाद्यो:।
अभावादद्य
हे
ब्रह्मान्नेवमेवाहमास्थित:।
हे
ब्रह्मन्! जनक
अपने गुरु को
कहते हैं. हे
ब्रह्मन्! हे
भगवान!
हेयोपादेयविरहात्.......।
अब
तो क्या ठीक, क्या
गलत—दोनों ही
गए! क्या करना,
क्या न करना—दोनों
ही गए, क्योंकि
कर्ता गया।
क्या शुभ, क्या
अशुभ—ऐसी
चिंता अब न
रही, क्योंकि
करने को ही अब
कुछ नहीं रहा।
मैं तो अकर्ता
हूं!
हर्षविषाद्यो
अभावत्.......।
—और ऐसा होने
के कारण हर्ष
और विषाद का
अभाव हो गया
है।
हे
ब्रह्मन्
अद्य अहं एवं
एव आस्थित:।
—इसलिए अब तो
मैं जैसा हूं, वैसा का
वैसा ही स्थित
हो गया हूं।
मैं
कुछ नया नहीं
हो गया। मैं
कुछ महात्मा
नहीं हो गया।
मैंने कुछ पा
नहीं लिया। अब
तो मैं जैसा
हूं वैसा ही
स्थित हो गया
हूं। और
स्वभाव का
अर्थ इतना ही
होता है कि
जैसे हो, वैसे
ही स्थित हो
जाओ।
यह
अपूर्व उपदेश
है। इससे अधिक
ऊंचाई कभी
किसी उपदेश ने
नहीं ली। यह
आखिरी देशना
है। इससे
श्रेष्ठ कोई
देशना हो नहीं
सकती, क्योंकि
यह परम
स्वीकार की
बात है। तुम
जैसे हो वैसे
ही, इसी
क्षण! इसे
थोड़ा जाग कर
अनुभव करो।
इसी
क्षण! अगर तुम शांत
हो,
मुझे सुनते
समय, अगर
तुम अपने में
स्थित बैठे हो,
कोई भाग—दौड़
नहीं, कोई
हलन—चलन नही—तो
क्या पाने को
है? क्या
इसी क्षण
तुम्हें
स्वाद नहीं
मिलता इस बात
का कि पाने को
क्या है? पा
लिया, पाए
ही हुए हैं!
जब
बुद्ध को शान
हुआ,
किसी ने
पूछा कि क्या
मिला? तो
बुद्ध ने कहा,
मिला कुछ भी
नहीं; जो
पाया ही हुआ
था, उसका
पता चला। अपने
ही घर में
संपदा थी; न
मालूम कहा—कहा
खोजते—फिरते
थे!
यहूदियों
की बड़ी मीठी
कथा है कि एक
यहूदी धर्मगुरु
ने सपना देखा
कि राजधानी
में,
पुल के बाएं
किनारे, राजमहल
के सामने बड़ा
धन गड़ा है। एक
दिन देखा, तो
उसने सोचा
सपने तो सपने
हैं, लेकिन
दूसरे दिन फिर
देखा। और इतना
स्पष्ट देखा,
बराबर जगह
भी दिखाई पड़ी
कि एक पुलिस
वाला वहां खड़े
हो कर पहरा
देता है पुल
के ऊपर। ठीक
उसके नीचे, जहां पुलिस
वाला खड़ा है।
मगर दूसरे दिन
थोड़ा मन में
गुदगुदी तो आई
कि धन उखाड़ ले
जा कर, लेकिन
सोचा कि सपनों
से कहीं ऐसे
धन मिले! फिर लेकिन
तीसरे दिन
सपना आया और
आवाज आई, कि
क्या पड़ा—पड़ा
कर रहा है! जा
खोज ले, अब
यह मौका फिर न
मिलेगा! पीढ़ी—दर—पीढ़ी
के लिए तेरी
रोग—दीनता सब
दूर हो जाएगी।
तो
बेचारा यहूदी
गया। पहुंचा
चल कर कई
दिनों के बाद
राजधानी।
भरोसा तो नहीं
आता था, कई
दफे संदेह
होने लगता था
मन में कि
सपने के पीछे
जा रहा हूं
मूरख हूं!
कहां का पुल, कहां का
राजमहल—हो या
न हो! पर अब आधा
आ गया, तो
चलो देख ही
आएं। और
राजधानी भी
नहीं देखी, तो राजधानी
भी देख लेंगे।
जा कर तो चकित
हो गया, पुल
है—वही पुल!
महल है सामने—
वही महल जो
सपने में देखा,
रत्ती—रत्ती
वही है और
पुलिस वाला
खड़ा है और
शक्ल भी पहचानी।
वह
तीन दिन जो
सपने में देखा, वही
आदमी खड़ा है।
बड़ा हैरान, लेकिन अब
खोदे कैसे!
वहा पहरा लगा
रहता है चौबीस
घंटा।
मगर
वह घूमने लगा
वहीं—वहीं।
पुल के आसपास
चक्कर लगाए, इधर
जाए, उधर
जाए।
पुलिस
वाला भी देख
कर सोचने लगा
कि मामला क्या
है! वह उसके
लिए खड़ा किया
गया है पुलिस
वाला कि कोई
पुल पर से कूद—काद
कर मर न जाए।
आत्महत्या
करने वालों के
लिए जगह थी वह।
कुछ आत्महत्या
तो नहीं करनी
है?
बात क्या है?
लेकिन आदमी
सीधा—सादा, भोला— भाला
मालूम पड़ता है।
दो
—चार दिन तो
उसने देखा, फिर
नहीं रहा गया।
उसने कहा कि
सुन भाई, तू
क्यों यहां
भटकता है? किसी
की प्रतीक्षा
है? कुछ
खोज रहा, कुछ
गंवा बैठा, कोई दुख, कोई
पीड़ा—क्या
मामला है? तो
उसने कहा, अब
आप से क्या
छिपाना। एक
बड़ी हैरानी की
बात है.’सपना
देखा, तीन
दिन तक देखा।
यही जगह, जहां
आप खड़े हैं, इसके नीचे
धन गड़ा है।’ वह
पुलिस वाला तो
जोर से हंसने
लगा। उसने कहा,
हद हो गई, सपना तो
मैंने भी देखा
है कि फलां —फलां
गांव में—और
वह उसी के
गांव का नाम
लिया जहां से
यहूदी आया है—फला—फला
यहूदी के घर
में—वह तो इसी
का नाम है, यहूदी
का—उसकी खाट
के नीचे जहां
वह रोज रात
सोता है, सपने
देखता है, धन
गड़ा है। अब हम
कोई ऐसे पागल
हैं कि सपनों
में उलझ जाएं! और
कहां खोजें? उस गांव में
इस नाम के पचासों
यहूदी होंगे,
आधा गांव इस
नाम का होगा।
कोई के घर में
घुस कर
खोदेंगे कैसे?
तू भी खूब
पागल है, मूरख!
लेकिन
यह सुन कर
यहूदी तो बोला
: नमस्कार, धन्यवाद!
वह भाग।। जा
कर खाट के
नीचे खोदा, धन वहां था।
जिसे
हम खोजते फिर
रहे हैं कहीं
और,
वह हमारे
भीतर है। हम
उसे लेकर ही
आए हैं। वह
हमारा स्वभाव
है।
तुम
जैसे हो, वैसे
ही, इसी
क्षण, एक
क्षण बिना
गंवाए, निर्वाण
को उपलब्ध हो
सकते हो! कुछ
करने की बात
होती तो समय
लगता, तो
चेष्टा करनी
पड़ती।
महात्मा बनना
हो तो समय
लगेगा, परमात्मा
बनना हो तो
समय लगने की
जरा भी जरूरत नहीं।
इसे
मुझे फिर से
दोहराने दो :
महात्मा बनना
हो तो बहुत
समय लगेगा, जन्म—जन्म
लगेंगे; क्योंकि
महात्मा का
अर्थ है :
बुराई को
काटना है, भलाई
को सम्हालना
है, अच्छा
करना है, बुरा
छोड़ना है। यह
छोड़ना वह
पकड़ना, बड़ा
समय लगेगा। और
फिर भी तुम
महात्मा हो
पाओगे, इसमें
संदेह है।
क्योंकि कोई
महात्मा हो ही
नहीं सकता जब
तक उसे भीतर
का परमात्मा न
दिखाई पड़ जाए।
तब तक सब थोथा
है, धोखा
है, ऊपर—ऊपर
है, आवरण
है।
असली
क्रांति
महात्मा होने
की नहीं है।
असली क्रांति
तो इस उदघोषणा
की है कि मैं
परमात्मा हूं!
अहं ब्रह्मास्मि!
और यह इस क्षण
हो सकता है।
अगर न हो, तो
केवल इतना ही
है कि तुम समझ
नहीं पाए
स्थिति को।
देह तुम नहीं
हो, मन तुम
नहीं हो—इतनी
बात तुम्हारे
स्मरण में
गहरी हो जाए!
तुम द्रष्टा
हो!
'अब मैं जैसा
हूं वैसा ही
स्थित हूं।’
अद्य
अहं एवं एक
आस्थित:।
इसे
खूब
गुनगुनाना।
इस बात को
जितना पी जाओ, उतना
शुभ है। कभी—कभी
बैठे—बैठे शांत
इस बात का
स्मरण करना कि
मैं जैसा हूं
वैसा ही अपने
में स्थित, प्रभु में
स्थित हूं।
कभी अंधेरी
रात में उठ कर
बिस्तर पर बैठ
जाना और इसी
एक बात का गहन
स्मरण करना कि
मैं जैसा हूं
वैसा ही.! और
मैं तुमसे
कहता हूं. अभी
और यहीं तुम
जैसे हो ऐसे
ही.! बस फर्क
इतना ही है कि
कर्ता से
चेतना हट जाए
और साक्षी हो
जाए। जरा—सा
फर्क है; जैसे
कोई गेयर
बदलता कार में,
बस ऐसा गेयर
बदलना—कर्ता
से साक्षी।
इस
गेयर बदलने के
लिए कई बातें
सहयोगी हो
सकती हैं, लेकिन
इस गेयर बदलने
को कोई भी बात
जरूरी नहीं।
ध्यान सहयोगी
हो सकता है, लेकिन
ध्यानी मत बन
जाना।
संन्यास
सहयोगी हो
सकता है, लेकिन
संन्यास की
अकड़ मत ले
लेना—संन्यासी
मत बन जाना, नहीं तो चूक
गए! पूजा
प्रार्थना
सहयोगी हो
सकती है, लेकिन
पुजारी मत बन
जाना। ये सब
चीजें सहयोगी
हो सकती हैं—
कारण नहीं।
कारण की तो
जरूरत ही नहीं
है।
परमात्मा
तो तुम हो ही, अन्यथा
होने का उपाय
नहीं है।
लेकिन
जब मैं यह कह
रहा हूं तब भी
तुम सुनोगे—यह
संदिग्ध है; क्योंकि
सुन लो तो तुम
अभी हो जाओ।
तुम सुनना
नहीं चाहते।
तुम्हें
कर्ता होने
में अभी रस है।
तुम कहते हो, कर्ता नहीं...
तो मैं ही
कर्ता— भर्ता
हूं अपने
परिवार का!
तुम पत्नी के
सामने कैसे
अकड़ कर खड़े हो
जाते हो कि
पति स्वामी, छू चरण! और वह
कहती है, मैं
तुम्हारी
दासी! और तुम
बेटे से कहते
हो कि देख, मैं
तुझे पाल कर
बड़ा कर रहा
हूं भूल मत
जाना! और जब
तुम धन कमा
लेते हो, तो
तुम चाहते हो
हर कोई कहे कि
ही, हो
साहसी, हो
संघर्षशील! और
जब तुम चुनाव
जीत जाओ और
किसी पद पर
पहुंच जाओ—तो
तुम यह कहने
में मजा न
पाओगे कि मैं
साक्षी हूं!
फिर मजा क्या
रहा? हराया,
जीते किसी
को गिराया—इसमें
सब रस है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
कुछ वर्षों
लंदन में रहता
था। दिल्ली
में रहने वाले
उसके छोटे भाई
ने एक दिन
उससे फोन पर
बातचीत की।
हाल—चाल पूछने
के बाद छोटे
भाई ने कहा
भैया, मां
कह रही हैं कि
पांच सौ रुपये
भेज दो।
मुल्ला
ने कहा. क्या
कहा?
कुछ सुनाई
नहीं दे रहा।
अब
तक सब सुनाई
दे रहा था।
अचानक बोला :
कुछ सुनाई
नहीं दे रहा।
छोटे ने फिर
भी चिल्ला कर
कहा,
मां कह रही
हैं पांच सौ
रुपए भेज दो।
मुल्ला ने फिर
भी वही उत्तर
दिया। छोटे ने
और भी चिल्ला
कर कहा, पर
बड़े ने, मुल्ला
ने, फिर भी
वही जवाब दिया।
इतने में
आपरेटर, जो
दोनों की
बातें सुन रहा
था, बोला
अरे भाई, आपको
सुनाई कैसे
नहीं दे रहा? आपकी मां कह
रही हैं कि
पांच सौ रुपए
भेज दो!
मुल्ला
ने कहा. तुझे
अगर सुनाई दे
रहा है तो तू ही
क्यों नहीं
भेज देता?
सुनाई
तो सभी को दे
रहा है, लेकिन
वह पांच सौ
रुपए भेजना!
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
धनपति था—बडा
कंजूस!
बामुश्किल
दान देता था।
और बाद— बाद
में वह बहरा
भी हो गया।
लोगों को तो
शक था कि वह
बहरा इसीलिए
हो गया कि लोग
दान
मांगने
आएं तो वह कान
पर हाथ रख ले, वह
कहे कि कुछ
सुनाई ही नहीं
दे रहा। पर एक
आदमी आया। वह
भी खूब चिल्ला—चिल्ला
कर कह रहा था।
उसने
कहा कि भई
बाएं तरफ से
कह,
मुझे दाएं
कान में तो
कुछ सुनाई
पड़ता नहीं।
उसने बाएं कान
में कहा, बड़ी
हिम्मत करके
कहा कि सौ
रुपए। दे तो
वह लाख सकता
था; लेकिन
कंजूस है, कृपण
है। सौ रुपए
सुन कर उसने
कहा कि नहीं
भई, बाएं
कान में ठीक
सुनाई नहीं पड़
रहा, तू
दाएं में कह।
दाएं तक आते
हुए उसने सोचा
कि अब इसको
सुनाई ही नहीं
पड़ रहा, न
सौ सुनाई पड़
रहे हैं, तो
क्यों न बदल
लूं—उसने कहा,
दो सौ रुपए।
उसने कहा, फिर
बाएं वाली बात
ही ठीक है।
फिर जो बाएं
से सुनाई पड़ा,
वह ही ठीक
है।
सुनाई
तो सब पड़ रहा
है,
बहरे बने
बैठे हो!
क्योंकि सुनो
तो जीवन में एक
क्रांति
घटेगी। और तुम
इस बात के लिए
भी राजी हो।
अगर कोई तुमसे
कहे कि ठीक, कुछ करना है—तो
तुम कहते हो, करने को हम
राजी हैं, क्योंकि
करने में तत्क्षण
तो क्रांति
होने वाली
नहीं। करेंगे,
अभी कोई
जल्दी तो है
नहीं। आज तो
होने वाला
नहीं है, कल
करेंगे, परसों
करेंगे।
लेकिन
जनक की बात
सुनने की
हिम्मत नहीं
है। क्योंकि
जनक कहते हैं.
अभी हो सकता
है। तुम्हें
बचने का जरा
भी तो अवसर
नहीं देते।
तुम्हें
भागने का जरा
भी तो उपाय
नहीं देते।
तुम स्थगित कर
सको,
इतनी
बेईमानी की
गुंजाइश नहीं
छोड़ते।
इसलिए
अष्टावक्र की
गीता प्रभावी
नहीं हो सकी।
मुझसे लोग
पूछते हैं कि
इतना
महाग्रंथ..
कृष्ण की गीता
तो इतनी
प्रभावी हुई, अष्टावक्र
की गीता
प्रभावी
क्यों न हो
सकी? कारण
साफ है। कारण
यह है कि
अष्टावक्र
कहते हैं. अभी
हो सकता है।
और इतना दाव
लगाने की
हिम्मत बड़ी
बिरली हिम्मत,
कभी होती है
किसी में!
इसलिए ऐसी बात
को लोग सुनते
ही नहीं, पढ़ते
ही नहीं। लोग
तो ऐसी बात
पढ़ते—सुनते
हैं जिसमें
उनको सुविधा
रहे।
'आश्रम है, अनाश्रम है,
ध्यान है, और चित्त का
स्वीकार और
वर्जन है। उन
सबसे उत्पन्न
हुए अपने
विकल्प को देख
कर, मैं इन
तीनों से
मुक्त हुआ
स्थित हूं।’
'आश्रम
है.......।’
हिंदू
चार आश्रम में
बांटते जीवन
को,
वर्णों में
बांटते। चार
वर्ण, चार
आश्रम। लेकिन
जनक कहते हैं :
आश्रम है, अनाश्रम
है—वह भी जाल
है, वह भी
उपद्रव है। सब
विभाजन
उपद्रव हैं।
अविभाज्य की
खोज करनी है
तो विभाजन से
काम न आएगा। न
ब्राह्मण
ब्राह्मण है,
न शूद्र
शूद्र है—वे
सब चालबाजिया
हैं। वे
राजनीतिज्ञों
की शोषण की
व्यवस्थाएं
हैं। और मैं
बंटने को राजी
नहीं हूं
क्योंकि
चैतन्य न तो
शूद्र है और न
ब्राह्मण है।
चैतन्य तो बस
चैतन्य है। वह
साक्षी तो
सिर्फ साक्षी
है। इसलिए कभी—कभी
ऐसा होता है, बड़े—बड़े
ज्ञानी भी
क्षुद्र बातो
में पड़े रह
जाते हैं।
कहते हैं, शंकराचार्य
काशी में
स्नान करके
लौटते थे कि एक
शूद्र ने उनको
छू लिया—तो वे
चिल्लाए कि हट
शूद्र! लेकिन
शूद्र भी फकीर
संत था। उसने
कहा कि मैंने
सुना कि आप
अद्वैत का
प्रचार करते
हैं और आप
कहते हैं, एक
ही है! और इस एक
ही में ये
शूद्र और
ब्राह्मण कहां
से आ गए? और
मैं यह पूछना
चाहता हूं
महानुभाव, कि
जब मैंने आपको
छुआ तो आपके
शरीर को छुआ
कि आपकी आत्मा
को छुआ? अगर
शरीर को छुआ
है, तो शरीर
तो सभी के
शूद्र हैं, सभी गंदे
हैं; और
शरीर से शरीर
को छुआ तो आप
क्यों परेशान
हो रहे हैं? और अगर
मैंने आपकी
आत्मा को छू
लिया, तो
आत्मा तो न
शूद्र है न
ब्राह्मण है।
ऐसा आप ही
उपदेश करते
हैं।
कहते
हैं,
शंकराचार्य,
जो बड़े—बड़े
पंडितो को हरा
चुके थे, बड़े
दिग्गजों को
हरा चुके थे, इस फकीर के
सामने झुक गए
और नत हो गए।
उन्होंने कहा
: क्षमा करना, ऐसा बोध
मुझे कभी किसी
ने दिया नहीं।
फिर बहुत
शंकराचार्य
ने कोशिश की
कि खोजें, यह
कौन आदमी था!
सुबह के
अंधेरे में यह
बात हो गई थी, ब्रह्ममुहूर्त
में—पता नहीं
चल सका, कौन
आदमी था!
लेकिन जो भी
रहा हो, उसका
अनुभव बड़ा
गहरा था।
'आश्रम
है, अनाश्रम
है......।’
इस
जाल में पड़ने
के लिए जनक
कहते हैं, मैं
तैयार नहीं; इसलिए अपने
में स्थित हो
गया हूं।’ ध्यान
है और चित्त
का स्वीकार और
वर्जन है...।’
यह
पकड़ो, यह छोड़ो!
मैं दोनों छोड़
कर अपने में
स्थित हो गया
हूं।
कण—कण
करके दुनिया
जोड़ी
कितनी
भुक्खड़ चाह
निगोड़ी
सब
के प्रति मन
में कमजोरी
किससे
नाता तोडूं
रे!
अंगड—खंगड
मोह सभी से
क्या
बांधू? क्या
छोडूं रे!
क्या
लादूं क्या
छोडूं रे!
झोपड़ियां
कुछ पीठ लिए
हैं
कुछ
महलों को पीठ
दिए हैं
भोगी
त्यागी, त्यागी
भोगी
दो
में किससे
होडू रे!
अंगड—खंगड
मोह सभी से,
क्या
बीजू क्या
छोडूं रे!
क्या
लादूं क्या
छोडूं रे!
तिनका
साथ नहीं चलता
है
बोझा
फिर भी सिर
खलता है
तन की आंखें
मोड़ी, कैसे
मन की आंखें
मोडूं रे!
अंगड—खंगड
मोह सभी से,
क्या
बांधू क्या
छोडूं रे!
क्या
लादूं क्या
छोडूं रे!
अपना
कह कर हाथ
लगाऊ,
कैसा
रखवारा
कहलाऊं!
जिसका
सारा माल—मत्ता
है
उससे
नाता जोडू रे!
अंगड—खंगड
मोह सभी से
क्या
बांधू क्या
छोडूं रे!
क्या
लादूं क्या
छोडूं रे!
कुछ
लोग हैं, जो
इसी चितना में
जीवन बिताते
हैं : क्या
छोड़े? क्या
पकड़े?
जनक
कहते हैं : न
पकड़ो, न छोड़ो।
क्योंकि
दोनों में ही
पकड़ है। जब
तुम कुछ छोड़ते
हो, तब भी
तुम कुछ पकड़ने
के लिए ही
छोड़ते हो। कोई
कहता है, धन
छोड़ेंगे, तो
स्वर्ग
मिलेगा। यह तो
छोड़ना एक तरफ
है, पकड़ना
दूसरी तरफ हो
गया। यह तो
लोभ का ही
फैलाव हुआ। यह
तो गणित
पुराना ही रहा;
इसमें कुछ
नवीन नहीं है।
क्या छोड़े, क्या पकड़े!
जनक
कहते हैं: न
छोड़ो, न पकड़ो—जागो!
अचुनाव!
कृष्णमूर्ति
जिसे कहते हैं
: च्चायसलेस
अवेयरनेस!
निर्विकल्प
बोध! न यह पकड़ता
हूं, न यह
छोड़ता हूं।
छोड़ता—पकड़ता
ही नहीं।
'चित्त का
स्वीकार और
वर्जन है।’
दोनों
व्यर्थ!
'उन सबसे
उत्पन्न हुए
अपने विकल्प
को देख कर, मैं
इन सबसे मुक्त
हुआ, अपने
में स्थित हूं।’
छोड़ने —पकड़ने
में बड़ी
चालबाजी है।
सुना
है मैंने, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
शराब के अड्डे
पर रोज शराब
पीने जाता था,
और दो गिलास
आर्डर देता।
शराब आने पर
वह दोनों
हाथों में
गिलास ले कर
चीयर्स करता
और एक के बाद
दूसरे गिलास
से घूंट भर— भर
कर पीता। एक
दिन बैरे ने
एक राज पूछा
कि मामला क्या
है? आप सदा
दो ही गिलास
क्यों
बुलवाते हैं?
तो
उसने बताया.
एक गिलास मेरा
है और एक मेरे
दोस्त का।
दोस्त की याद
में पीता हूं एक
गिलास और एक
गिलास खुद
पीता हूं।
लेकिन
एक दिन जब
उसने एक ही
गिलास का
आर्डर दिया, तो
बैरे ने फिर
पूछा कि
नसरुद्दीन, मामला क्या
है? आज आप
एक ही गिलास
ले कर पी रहे
हैं? दोस्त
की याददाश्त
भूल गई?
नसरुद्दीन
ने कहा : कभी
नहीं, दोस्त
को कैसे भूल
सकता हूं!
मैंने शराब
पीना छोड़ दी
है, यह तो
दोस्त की ही
याद में पी
रहा हूं।
छोड़ो, पकड़ो—बहुत
फर्क पड़ता
नहीं; तुम
आदमी वही के
वही रहते हो!
अब खुद शराब
पीनी छोड़ दी
तो दोस्त की
याद में पी
रहे हैं!
आदमी
बहुत चालबाज
है। और गहरी
से गहरी
चालबाजी यह है
कि तुम कहते
हो : धन छोड़ दें, इससे
परम धन मिलेगा?
तुम कहते हो
: पद छोड़ दें, इससे परम पद
मिलेगा? तुम
कहते हो : सब
छोड़ दें इस
संसार का, लेकिन
मोक्ष मिलेगा?
स्वर्ग
मिलेगा?
देखो, मिलने
की बात तो
कायम ही है।
तुम सौदा कर
रहे हो, छोड़
कुछ भी नहीं
रहे हो। यह
कोई
छोड़ना हुआ? अगर
यह छोड़ना है, तो तुम
फिल्म देखने
जाते हो, दस
रुपए की टिकट
खरीदते हो, तो तुमने दस
रुपए का त्याग
कर दिया; लेकिन
तुम उसको
त्याग नहीं
कहते, क्योंकि
तुम कहते हो :’दस
रुपए का छोड़ा,
छोड़ा क्या?
फिल्म देखी!'
तुमने
संसार छोड़ा और
स्वर्ग देखने
की कामना रखी
तो तुम कुछ
भिन्न बात
नहीं कर रहे, सौदा
है यह, यह
त्याग नहीं है।
त्याग तो तभी
संभव है, जब
तुम छोड़ने —पकड़ने
दोनों को छोड़
कर अपने में
स्थित हो गए।
तुमने
कहा. मैं तो बस ’मैं' हूं
न कुछ पकडूगा,
न कुछ
छोडूंगा; जो
होगा, होने
दूंगा; मैं
जैसा हूं,
प्रसन्न, मैं
जैसा हूं
प्रमुदित, मैं
जैसा हूं
तटस्थ, कूटस्थ।
'जैसे कर्म
का अनुष्ठान
अज्ञान से है,
वैसे ही
कर्म का त्याग
भी अज्ञान से
है।’
सुनो
इस सूत्र को!
'जैसे कर्म
का अनुष्ठान
अज्ञान से है,
वैसे ही
त्याग का
अनुष्ठान भी
अज्ञान से है।
इस तत्व को
भलीभांति जान
कर मैं कर्म—अकर्म
से मुक्त हुआ
अपने में स्थित
हूं!'
न
कुछ करता, न
कुछ छोड़ता।
परमात्मा जो
कर रहा है, करे।
मैं तो सिर्फ
द्रष्टा हूं
देखता हूं!
यथा
कर्माऽनुष्ठानं
अज्ञानात्....,
—जैसे अज्ञान
से खयाल होता
है बुरे करने
का।
तथा
उपरम:।
—ऐसे ही
त्याग करने का
भाव भी अज्ञान
से ही उठता है।
करने
का भाव ही अज्ञान
से उठता है।
कर्ता का भाव
ही अज्ञान से
उठता है।
इदं
सम्यक्
बुद्धवा......।
—ऐसा सम्यक
रूप से जाग कर
मैंने देखा।
इदं
सम्यक्
बुद्धवा....।
—ऐसा मैं
जागा और मैंने
देखा।
अहं
एवं आस्थित:।
—इसलिए उसी
क्षण से अपने
में स्थित हो
गया हूं।
अब
न मुझे कुछ
करणीय है, न
कुछ अकरणीय है;
न कुछ
कर्तव्य है, न कुछ
अकर्तव्य है।
अगर ऐसा न हुआ,
तो
तुम्हारी जो
भ्रांति भोग
में थी, पकड़
में थी, संसार
में थी, उसी
भांति का नए—नए
रूपों में, नए—नए ढंग
में तुम फिर—फिर
आविष्कार
करते रहोगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
आदमी तो झक्की
है। कोई न कोई
बीमारी लेकर
अस्पताल
पहुंच जाता है।
अस्पताल के
डॉक्टर भी
उससे परेशान
हैं। एक बार
उसकी छाती में
दर्द हुआ, जांच
के लिए
अस्पताल गया।
डॉक्टरों ने
भली प्रकार
खोजबीन की, फिर भी
मुल्ला को
तसल्ली न हुई।
विशेषज्ञ ने
उन्हें आराम
करने के लिए
कहा तो वह
चिल्लाया :
पहले मेरा
एक्स—रे लिया
जाए। एक्स—रे
की रिपोर्ट भी
बिलकुल ठीक थी।
खून वगैरह की
जांच भी उसने
करवाई। सभी
प्रकार की
जांच हो जाने
पर भी मुल्ला शांत
न हुआ। डॉक्टर
ने कहा : अब
क्या विचार है?
अब और क्या
करें?
उसने
कहा. अब मेरा
पोस्ट—मार्टम
किया जाए।
सुन
रखा था कि
पोस्ट—मार्टम
भी होता है।
तो सोचा कि एक
जांच बाकी रह
गई। आदमी की
मूढ़ता अगर है
तो सब तरफ से
प्रगट होगी, जगह—जगह
से प्रगट होगी।
अगर बोध है तो
संसार में भी
प्रगट होगा, और अगर
अज्ञान है तो
त्याग में भी
प्रगट होगा।
इसलिए
तुम छोड़—छाड़
कर भागने की
बात मत सोचना।
जहां हो, जैसे
हो, उसी
स्थिति में
कर्ता— भाव को
विसर्जित करो!
कर्ता — भाव को
समाप्त हो
जाने दो। धीरे—
धीरे अकर्ता—
भाव से करते
रहो जो कर रहे
थे। कल भी
किया था, आज
भी करो वही।
बस इतना—सा
फर्क पीछे से
खिसका लो कि
करने वाले तुम
न रह जाओ। कल
भी दूकान गए थे,
आज भी जाना
है। कल भी
ग्राहक को
बेचा था, आज
भी बेचना है।
बस, इतना
फर्क कर लेना
है कि कर्ता—
भाव सरका लेना
है। कल मालिक
की तरह दूकान
पर गए थे, आज
ऐसे जाना कि
मालिक
परमात्मा है,
तुम तो केवल
नौकर—चाकर। और
तुम अचानक
फर्क पाओगे—चिंता
गई, झंझट
गई! ग्राहक ले
ले तो ठीक, न
ले ले तो ठीक।
मालकियत क्या
गई कि सारा
पागलपन गया।
इतना
ही हो जाए, तो
तुम धीरे —
धीरे पाओगे—जहां
थे वहीं, जैसे
थे वहीं, धीरे
— धीरे
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर जाग गया,
उतर गई
रोशनी, अवतरण
हुआ!
'अचिंत्य का
चिंतन करता
हुआ भी यह
पुरुष चिंता को
ही भजता है।
इसलिए उस
भावना को
त्याग कर मैं
भावना मुक्त हुआ
स्थित हूं।’
जनक
कहते हैं, बड़ी
अदभुत घटनाएं
दुनिया में
घटती हैं।
अचिंत्य का भी
लोग चिंतन
करते हैं।
पूछो
महात्माओं से—कहेंगे,
परमात्मा
अचिंत्य है—और
फिर समझाएंगे
कि परमात्मा
की याद करो, स्मरण करो।
अचिंत्य
का चिंतन!
क्या कहते हो? अचिंत्य
का तो अर्थ ही
यह हुआ कि
चिंतन नहीं हो
सकता।
अचिंत्य का तो
कोई चिंतन
नहीं हो सकता।
ही, सब
चिंतन तुमसे
छूट जाएं, तुम
चिंतन पर पकड़
न रखो, तो
अचिंत्य
तुम्हें
उपलब्ध हो जाए।
तो
परमात्मा की
कोई चितना
थोड़े ही करनी
होती है; नहीं
तो नई चिंता
सवार हुई। ऐसे
ही चिंताएं
क्या कुछ कम
हैं तुम पर? ऐसे ही बोझ
से दबे जाते
हो। ऊंट
तुम्हारा
वैसे ही तो
गिरा जाता है;
अब इस पर और
परमात्मा को
बिठाने की
कोशिश कर रहे
हो! आखिरी
तिनका साबित
होगा, बुरी
तरह गिरोगे।’
अधार्मिक
आदमी चिंतित
होता है, धार्मिक
आदमी और बुरी
तरह चिंतित हो
जाता है।
अधार्मिक
आदमी को संसार
की ही चिंता
है, धार्मिक
को परलोक की
भी चिंता लगी
है। यहां भी
धन कमाना, वहा
भी धन कमाना।
यहां भी कुछ
करके दिखाना
है, वहा भी
पुण्य का
अर्जन कर लेना
है। तुम तो
यहीं बैंक—बैलेंस
रखते हो, वह
वहा भी रखता
है। वह वहा के
लिए भी
हुंडिया
लिखवाता है।
उसकी चिंता और
भी भारी हो
जाती है।
अचिंत्यं
चित्यमानोउपि
चितारूप
भजत्यसौ।
हद
हो गई—जनक
कहते हैं—लोग
अचिंत्य का
चिंतन कर रहे
हैं! तो, मैंने
तो सब चिंतन
के साथ हाथ
हटा लिए। अब
तो मैं खाली
हो गया हूं।
अब तो मैं
भगवान का भी
चिंतन नहीं
करता, क्योंकि
भगवान का
चिंतन हो कैसे
सकता है?
त्यक्ला
तद्भावन
तस्मादेवमेवाहमास्थित:!
—और सब छोड़ कर
अपने में बैठ
गया हूं।
'जिसने
साधनों से
क्रिया—रहित
स्वरूप
अर्जित किया
है, वह
पुरुष
कृतकृत्य है।
और जो ऐसा ही, अर्थात स्वभाव
से स्वभाव
वाला है, वह
तो कृतकृत्य
है ही, इसमें
कहना ही क्या!'
इस
सूत्र का अर्थ
है : जिसने
साधनों से
क्रिया—रहित
स्वरूप
अर्जित किया
है,
जिसने तप से,
जप से, ध्यान
से, मनन—चिंतन
से, निदिध्यासन
से स्वभाव को
पाया—वह पुरुष
तो कृतकृत्य
है ही। ठीक है।
लेकिन जिसने
ऐसा कुछ भी
नहीं किया, और जो ऐसा ही
बिना कुछ किए,’स्वभाव वाला
हूं’, ऐसा
जान कर शांत
हो गया है, उसकी
तो बात ही
क्या कहनी!
उसकी
कृतकृत्यता
तो अवक्तव्य
है। तो जिसने
कुछ कोशिश
करके
परमात्मा को
पा लिया, वह
कोई चमत्कार
नहीं है।
जिसने बिना
कुछ किए, बैठे—बैठे,
बिना हिले—डुले,
सिर्फ बोध—मात्र
से परमात्मा
को उपलब्ध कर
लिया, उसकी
कृतकृत्यता
तो कही नहीं
जा सकती; उसे
तो शब्दों में
बांधने का कोई
उपाय नहीं है।
एवमेव
कृतं येन स
कृतार्थो
भवेदसौ।
—ही, जिसने
साधन से पाया,
ठीक है, धन्यभागी!
एवमेव
स्वभावो यः स कृतार्थो
भवेदसौ।
—लेकिन कैसे
करें उसका गुण—वर्णन,
कैसे करें
उसकी प्रशंसा,
जिसने बिना
कुछ किए पा
लिया! जनक
कहते हैं : मैंने
तो बिना कुछ
किए पा लिया।
न कहीं गया, न कहीं आया; अपनी ही जगह
बैठ कर पा
लिया है।
इन
सूत्रों पर
खूब मनन करना—बार—बार; जैसे
कोई जुगाली करता
है! फिर—फिर, क्योंकि
इनमें बहुत रस
है। जितना तुम
चबाओगे, उतना
ही अमृत झरेगा।
ये कुछ सूत्र
ऐसे नहीं हैं
कि जैसे
उपन्यास, एक
दफे पढ़ लिया, समझ गए, बात
खतम हो गई, फिर
कचरे में
फेंका। यह कोई
एक बार पढ़
लेनी वाली बात
नहीं है—यह तो
सतत पाठ की
बात है। यह तो
किसी
शुभमुहूर्त
में, किसी शांत
क्षण में, किसी
आनंद की अहो —दशा
में, तुम
इनका अर्थ पकड़
पाओगे। यह तो
रोज—रोज, घड़ी
भर बैठ कर, इन
परम सूत्रों
को फिर से पढ़
लेने की जरूरत
है। पाठ का
यही अर्थ है।
पढ़ना और पाठ
करने में यही
फर्क है। पढ़ने
का मतलब एक
दफे पढ़ लिया, बात खतम हो
गई।
पश्चिम
में पाठ जैसी
कोई चीज नहीं
है। जब वे
सुनते हैं पाठ, तो
उनको समझ में
नहीं आता कि
पाठ क्या
करना! उनको
भरोसा नहीं
आता कि एक ही
शास्त्र को
रोज—रोज लोग
जीवन भर पढ़ते
हैं। यह बात
क्या हुई? जब
एक दफा पढ़
लिया, पढ़
लिया।
पश्चिम
में तो किताब
ही पेपर—बैक छापते
हैं अब वे। एक
दफे पढ़ लिया
और फेंक दी, क्योंकि
उसको रखने की
क्या जरूरत!
सस्ती से सस्ती
छाप ली, लोग
पढ़ लेते हैं
और ट्रेन में
छोड़ जाते हैं।
पढ़ ली और बस
में छोड दी।
अब उसको
करेंगे क्या?
लेकिन
ये किताबें,’किताबें'
नहीं है—ये
जीवन के
शास्त्र हैं।
शास्त्र और
किताब का यही
फर्क है।
किताब एक दफा
पढ़ लेने से
व्यर्थ हो
जाती है।
शास्त्र अनेक
बार पढ़ने से
भी व्यर्थ
नहीं होता।
शास्त्र तो तब
तक व्यर्थ
नहीं होता, जब तक तुम
शास्त्र न बन
जाओ। तब तक
उसे पढ़ते ही
जाना; तब
तक उसे फिर—फिर
पढ़ना। कौन
जाने किस
मुहूर्त में......!
तुम्हारा
मन सदा एक—सी
अवस्था में
नहीं होता।
कभी तुम उदास
हो,
तब शायद ये
वचन समझ में आ
जाएं। या हो
सकता है, कभी
तुम बड़े
प्रफुल्लित
हो, तब ये
समझ में आ
जाएं। तुम कभी
बड़े तरंगित हो,
बड़े संगीत
से भरे हो, मदमस्ती
है—तब समझ में
आ जाएं! या हो
सकता है, कभी
तुम बिलकुल
शांत बैठे हो,
कोई हलन—चलन
नहीं, बड़े
स्थिर हो—तब
समझ में आ
जाएं! कोई कह
नहीं सकता, भविष्यवाणी
हो नहीं सकती।
लेकिन
एक बात तय है
कि इन सूत्रों
से जीवन का द्वार
खुल सकता है।
तुम पंख फैला
सकते हो। जा
सकते हो उस
अनंत के मार्ग
पर,
उस परम नीड़
को खोज सकते
हो—जिसे बिना
खोजे कोई
कभी
तृप्त नहीं
हुआ है!
उड़
जा इस बस्ती
से पंछी
उड़
जा भोले पंछी।
घर—घर
है दुखों का
डेरा
सूना
है यह रैन—बसेरा
छाया
है घनघोर
अंधेरा
दूर
अभी है सुख का
सवेरा
उड़
जा इस बस्ती
से पंछी उड़ जा
भोले पंछी!
इस
बस्ती के रहने
वाले
फुरकत
का गम सहने
वाले
दुख—सागर
में बहने वाले
राम—कहानी
कहने वाले
उड़ जा
इस बस्ती से
पंछी उड़ जा
भोले पंछी!
जीवन
गुजरा रोते —
धोते,
आहें
भरते, जगते —सोते,
हाल
हुआ है होते —होते
फूट
रहे हैं खून
के सोते
उड़
जा इस बस्ती
से पंछी उड़
जा भोले पंछी।
ये
सूत्र पंख बन
सकते हैं। इन
सूत्रों के
सहारे तुम उड़
सकते हों—अनंत
की दूरी पार
कर सकते हो! ये
सूत्र अनूठे हैं, बहुमूल्य
हैं। इनसे
मूल्यवान कभी
भी कहा नहीं
गया है। इनका
खूब पाठ करना!
ये धीरे— धीरे
तुम्हारे खून
में मिल जाएं!
ये तुम्हारी
मांस—मज्जा बन
जाएं। ये
तुम्हारे
हृदय की
धड़कनों
में
समा जाएं।
जाने— अनजाने, जागते
—सोते इनकी
छाया
तुम्हारे
पीछे बनी रहे—तो,
तो ही, उस
महाक्रांति
की घटना घट
सकती है। और
उसके बिना घटे
तुम चैन नहीं
पा सकोगे।
उसके बिना घटे, कभी किसी ने
चैन नहीं पाया
है।
हरि
ओंम तत्सत्!
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