दिनांक
14 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
एक
ओर आप साधकों
को ध्यान —साधना
के लिए
प्रेरित करते
हैं और दूसरी
ओर कहते हैं
कि सब ध्यान—साधनाएं
गोरखधंधा हैं।
इससे साधक
दुविधा में
फंस जाता है।
वह कैसे
निर्णय करे कि
उसके लिए क्या
उचित है?
जब तक
दुविधा हो तब
तक गोरख धंधे
में रहना पड़े।
जब तक दुविधा हो
तब तक ध्यान
करना पड़े।
दुविधा को मिटाने
का ही उपाय है
ध्यान।
दुविधा का
अर्थ है: मन दो
हिस्सों में
बंटा है। मन
के दो हिस्सों
को करीब लाने
की विधि है
ध्यान। जहां
मन एक हुआ, वहीं
मन समाप्त हुआ।
अष्टावक्र
को सुनते समय
यह बात ध्यान
में रखना कि
अष्टावक्र
ध्यान के
पक्षपाती
नहीं हैं, न
समाधि के, न
योग के—विधि
मात्र के
विरोधी हैं।
दुनिया
में दो ही तरह
के
आध्यात्मिक
मार्ग हैं—एक
विधि का और एक
बिना विधि का।
अष्टावक्र
विधि—शून्य
मार्ग के
प्रस्तोता
हैं। तो
उन्हें समझते
वक्त खयाल
रखना कि उनकी
बात तो केवल
उन्हीं के लिए
है जो दुविधा—शून्य
हो कर समझ
सकेंगे, जिनकी
समझ ही इतनी
गहरी हो जाए
कि फिर किसी
ध्यान की कोई
जरूरत न रहे; जिनकी समझ
ही समाधि बन
जाए।
अष्टावक्र
का आग्रह
मात्र जागरण, साक्षी—
भाव पर है, लेकिन
अगर यह न हो
सके तो
अष्टावक्र को
पकड़ कर मत बैठ
जाना। न हो
सके तो पतंजलि
उपाय हैं। न
हो सके तो
बुद्ध, महावीर
उपाय हैं।
कृष्णमूर्ति
यही कह रहे
हैं वर्षों से, जो
अष्टावक्र ने
कहा है। चालीस
वर्षों से
निरंतर जो लोग
उन्हें सुन रहे
हैं वे इसी
दुविधा में पड़
गए हैं। समझ
में आया भी
नहीं, समझ
तो जगी नही—और
ध्यान भी छोड़
दिया। तो धोबी
के गधे हो गए, न घर के न घाट
के। अटक गए
बीच में।
त्रिशंकु हो
गए। मझधार में
पड़ गए, न इस
किनारे के न
उस किनारे के।
मेरे पास आते
हैं, कहते
हैं: ’मन में शांति
नहीं है।’ अगर
मैं उनको कहता
हूं ध्यान करो,
वे कहते हैं:’
ध्यान से क्या
होगा? कृष्णमूर्ति
तो कहते हैं, ध्यान से
कुछ न होगा।’ अगर
कृष्णमूर्ति
समझ में आ गए
तो मन में अशांति
कैसे बची? आए
हो पूछने कि
मन में अशांति
है, क्या
करें? अगर
कृष्णमूर्ति
समझ में आ गए
तो अशांति
बचनी नहीं
चाहिए।
क्योंकि
कृष्णमूर्ति
के पास तो समझ
के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं है; या
तो समझ गये या
नहीं समझे।
समझ गए तो शांत
हो गए; नहीं
समझे तो बकवास
में मत पड़ो।
फिर कुछ और
करो जो
नासमझों के
लिए है; फिर
ध्यान करो।
अहंकार
बड़ा अदभुत है!
अहंकार यह भी
मानने को तैयार
नहीं कि मैं
नासमझ! ध्यान
तो नासमझों के
लिए है। मैं
कोई नासमझ तो
हूं नहीं जो
ध्यान करूं।
और इतने
समझदार भी तुम
नहीं हो कि
बिना ध्यान
किए पहुंच जाओ।
तब तुम अड़चन
में पड़ोगे। तब
तुम्हारी
बेचैनी बड़ी
गहरी हो जाएगी।
तुम टूटोगे।
तुम खंड—खंड
हो जाओगे।
अष्टावक्र
कहते हैं : सब
ध्यान, सब
विधियां
व्यर्थ हैं, क्योंकि
कर्म —मात्र
वहा नहीं
पहुंचा सकता;
वहा तो केवल
होश पहुंचाता
है। ध्यान भी
करोगे तो
कृत्य होगा।
ध्यान भी
करोगे तो
कर्ता बन
जाओगे। तो
भोजन पकाओ कि
बुहारी लगाओ
कि दूकान चलाओ
कि ध्यान करो,
फर्क नहीं
पड़ता—कुछ करते
हो।
अष्टावक्र यह
कह रहे हैं कि
तुम्हारा जो
स्वभाव है, वहां कर्म
नहीं पहुंचता;
वहा तो
सत्ता मात्र
है। वह जो
बुहारी लगाना
हो रहा है, उसमें
तुम नहीं हो; वह जो
बुहारी लगाने
को देख रहा है,
वही तुम हो।
भोजन पकाते हो,
भोजन पकाने
में तुम नहीं
हो; वह जो
भोजन को पकते
देख रहा है और
देख रहा है कि तुम
भोजन पका रहे
हो, वही
तुम हो। यही
बात ध्यान में
है। ध्यान में
तुम नहीं हो; वह जो देख
रहा है कि
ध्यान कर रहे
हो, वह जो
देख रहा है कि
ध्यान से शांति
आ रही, वह
जो साक्षी है—वही
तुम हो।
'गोरखधंधा' शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है—गोरखनाथ से
जुड़ा है। जब
भी कोई आदमी
ज्यादा विधि—विधान
में पड़ जाता
है तो हम कहते
हैं, गोरखधंधे
में मत पड़ो।
गोरख ने सबसे
ज्यादा
विधियां खोजी
ध्यान की।
पतंजलि के बाद
गोरख का नाम
अविस्मरणीय
है। उन्होंने
ध्यान के बड़े
प्रयोग खोजे।
निश्चित ही
ध्यान के
प्रयोग से लोग
पहुंचे हैं; लेकिन ध्यान
का प्रयोग
उनके लिए है, जिनके पास
समझ अकेली
पर्याप्त
नहीं है, परिपूरक
है, जो कमी
समझ में रह
गयी है, वह
ध्यान पूरी कर
देता है।
ध्यान से कोई
आत्मा को नहीं
जानता; लेकिन
ध्यान से तुम
इतने शांत हो
जाते हो कि उस शांति
में साक्षी
बनना सुगम हो
जाएगा।
जानोगे तो
अष्टावक्र के
मार्ग से ही।
जैसे
समझो कि कोई
आदमी बुखार से
ग्रस्त है, बीमार
पड़ा है, सन्निपात
चढ़ा है और वह
कहता है,’मैं
समाधि को कैसे
उपलब्ध होऊं?
तो हम क्या
करेंगे पू उसे
समाधि की कोई
विधि—विधान
बताएंगे? हम
कहेंगे, पहले
बुखार ठीक हो
जाने दो। वह
पूछे कि क्या
बुखार ठीक हो
जाने से मुझे
समाधि लग
जाएगी? तो
हम उसे समझाने
को कहेंगे कि
ही, बुखार
ठीक हो जाने
से समाधि लगने
में सहायता
मिलेगी।
क्योंकि
सन्निपात में
कभी किसी की
समाधि लगी हो,
ऐसा सुना
नहीं; यद्यपि
सन्निपात में
जो नहीं हैं, उनको समाधि
लग गयी हो, ऐसा
भी नहीं है।
क्योंकि इतने
लोग हैं जो
सन्निपात में
नहीं हैं; इनकी
कोई समाधि
नहीं लग गयी
है। लेकिन एक बात
पक्की है कि
सन्निपात
वाले को तो
कभी नहीं लगी
है। जिसको भी
लगी है, एक
बात निश्चित
है कि वह
सन्निपात में
नहीं था।
तो
औषधि दे कर हम
बुखार से भरे
आदमी का
सन्निपात
नीचे उतारते
हैं। जब
सन्निपात
नीचे उतर जाता
है,
तब उसे
ध्यान की विधि
देंगे। जब
ध्यान की विधि
उसके चित्त को
शांत कर देगी,
तो साक्षी
सुगम हो जाएगा।
अंतिम घटना तो
साक्षी की ही
है। अंतिम समय
में तो
अष्टावक्र ही
सही हैं।
लेकिन तुम
एकदम उस अंतिम
घड़ी को पहुंच
पाओगे रूम
पहुंच जाओ तो
शुभ; न
पहुंच पाओ तो
ध्यान करना ही
होगा।
पूछा
है:’एक ओर
साधकों को
ध्यान—पद्धति
के लिए कहते
हैं और दूसरी
ओर सब ध्यान—
पद्धतियां
गोरखधंधा हैं, ऐसा
कहते हैं।
इससे साधक
दुविधा में
फंस जाता है।
वह कैसे
निर्णय करे
कि
उसके लिए क्या
उचित है?'
जब
तक दुविधा रहे
तब तक ध्यान
उचित है। जब
दुविधा मिट
जाए और समझ, प्रज्ञा
का प्रकाश
फैले और एक
क्षण में घटना
घट जाए, फिर
तुम पूछोगे ही
नहीं। फिर बात
ही नहीं उठती
पूछने की।
घटना ही घट
गयी, तुम
समाधि को
उपलब्ध ही हो
गए, तो फिर
तुम पूछने
थोड़े ही आओगे
कि अब ध्यान
करूं कि न
करूं? जब
तक पूछने आते
हो तब तक तो
ध्यान करना।
अभी
तुम जहां खड़े
हो,
वहां से
छलांग तुम न
लगा सकोगे।
शायद ध्यान कर—करके
मन थोड़ा शांत
हो, सन्निपात
थोड़ा कम हो, तो फिर
छलांग लग सके।
छलांग तो
लगानी ही होगी
कर्ता से
साक्षी पर, इतना
निश्चित है।
आत्यंतिक
अर्थों में
अष्टावक्र का
वक्तव्य पूर्ण
सत्य है; लेकिन
तुम जिस जगह
खड़े हो, वहा
सत्य है या
नहीं, यह
कहना कठिन है।
छोटे
बच्चे को
स्कूल भेजते
हैं तो सिखाते
हैं ’ग' गणेश का
या ’ग' गधे
का। ’ग' से न
तो गधे का कोई
संबंध है न
गणेश का कोई
संबंध है। और
अगर बच्चा
बहुत सीख ले
कि ’ग' गधे
का,’ग' गधे
का—फिर जब भी ’ग'
को पढ़े, तब
यह मन में
उसको दोहराए
कि ’ग' गधे
का, तो वह
कभी पढ़ नहीं
पाएगा। वह गधा
बीच—बीच में
आएगा। वह तो
सिर्फ सहारा
था, बच्चे
को समझाने का
उपाय था।
बच्चा गधे को
जानता है,’ग'
को नहीं
जानता। गधा
देखा है।
इसलिए बच्चों
की किताब में
बड़े—बड़े चित्र
बनाने पड़ते
हैं, क्योंकि
चित्र बच्चा
पहचान लेता है।
बड़ा आम लटका है,
वह पहचान
लेता है। गधा
खड़ा है, वह
पहचान लेता है।
गधे को
पहचानने से ’ग'
को पहचानने
में सुविधा बन
जाती है।
लेकिन एक दिन
फिर भूल जाएगा
’ग' गधे का। ’ग'
अपना;’ग'
क्यों गधे
का हो, क्यों
गणेश का हो!
ध्यान
तो उनके लिए
है जिनके लिए
अभी वह आत्यंतिक
बात समझ में न आ
सकेगी। यह
प्राथमिक है।
अभी तो ध्यान
भी समझ में आ
जाए तो बहुत।
अभी तो बहुत
ऐसे हैं
जिन्हें
ध्यान भी समझ
में नहीं आ
सकेगा। अभी
उनको
प्राइमरी
स्कूल में भी
भरती करना उचित
नहीं है, अभी
तो
किंडरगार्डन
में कहीं
डालना पड़े।
अभी तो ध्यान
भी समझ में
नहीं आएगा।
जिसको ध्यान
समझ में न आए
उसे हम कहते
हैं: पढ़ो, स्वाध्याय
करो, मनन
करो। जिसको
मनन होने लगे,
स्वाध्याय
होने लगे, उसे
कहते हैं :
ध्यान करो।
जिसको ध्यान आ
जाए, फिर
उसको कहते हैं
कि अब छलांग
लगा लो; अब
कर्ता से
साक्षी पर कूद
जाओ। तब हम
उससे कहते हैं:
करने से कुछ
भी न होगा।
तो
जिसको
अष्टावक्र
समझ में आ
जाएं, वह तो यह
प्रश्न
पूछेगा नहीं।
जिसको अभी
प्रश्न बाकी
है, वह
अष्टावक्र को
भूल जाए; उनसे
अभी तुम्हारी
दोस्ती न
बनेगी। अभी
तुम्हें
ध्यान करना ही
होगा।
मैं
सबके लिए बोल
रहा हूं। यहां
कई क्लास के
व्यक्ति
उपस्थित हैं।
कोई
किंडरगार्डन
में है, कोई
प्राइमरी में
है, कोई
मिडल स्कूल, कोई
हाईस्कूल, कोई
विश्वविद्यालय
में चला गया
है, कोई
विश्वविद्यालय
के बाहर
निकलने की
तैयारी में है।
इन सबके लिए
बोल रहा हूं।
तो मैं जो बोल
रहा हूं,
उसके अलग—अलग
अर्थ होंगे।
लेकिन यह
बोलना जरूरी
है, क्योंकि
कभी तुम भी
विश्वविद्यालय
में पहुंचोगे,
कभी तुम भी
विश्वविद्यालय
के बाहर जाने
की स्थिति में
आ जाओगे।
सुन
लो,
हो सके आज
तो ठीक, अन्यथा
सम्हाल कर रख
लो। गांठ बांध
लो। आज समझ
नहीं आता, शायद
कभी काम पड़े।
पाथेय हो
जाएगा।
यात्रा में
काम पड़ेगा।
बहुत—सी बातें
हैं जो आज समझ
में नहीं भी
आएंगी। जो आज
समझ में आता
हो, उसे आज
कर लो। जो आज
समझ में न आता
हो, जल्दी
उसके लिए
परेशान मत
होना, उसे
गांठ बांध कर
रख लेना। कभी
समझ तुम्हारी
बढ़ेगी, वह
भी समझ में
आएगा।
पहाड़
नहीं कांपता, न
पेडू, न
तराई
कापती
है ढाल पर के
घर से
नीचे
झील पर झरी
दीये की लौ की
नन्हीं
परछाईं।
पहाड़
नहीं कांपता, न
पेड़, न
तराई
कापती
है ढाल पर के
घर से
नीचे
झील पर झरी
दीये की ली की
नन्हीं
परछाईं।
तुम
नहीं कंपते—तुम
तो पहाड़ हो
अचल।
तुम्हारे
केंद्र पर कोई
कंपन नहीं है।
कंपती है केवल
परछाईं। मन
कंपता है। यह
समझ में आ जाए
तो इसी क्षण क्रांति
हो सकती है।
यह समझ में न
आए तो ध्यान
की
प्रक्रियाओं
से गुजरो, ताकि
ऐसा क्षण आ
जाए, जिस
क्षण
तुम्हारी समझ
में आ सके।
दूसरा
प्रश्न :
पूर्व
में आप अपने
प्रवचन के अंत
में कहते थे,’ मैं
आपके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं। मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें!'
अब आप वैसा
नहीं कहते।
क्या अब आपको
हमारे भीतर की
झलक नहीं
दिखायी पड़ती?
या कि आपने
वैसा कहना
इसलिए बंद कर
दिया कि लोग
आपको भगवान
कहने लगे?
प्रश्नकर्ता
ने नाम नहीं
लिखा है, वह कायरता
का सबूत है।
मैं साधारणत:
उन प्रश्नों के
उत्तर नहीं
देता जिन पर
आपने अपना नाम
न लिखा हो।
क्योंकि
जिसकी इतनी हिम्मत
नहीं है कि
सूचना दे सके
कि यह मेरा प्रश्न
है, किसका
प्रश्न है, उसका प्रश्न
इस योग्य नहीं
कि उसका उत्तर
दिया जाए।
लेकिन
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है और बहुतों
के मन में
उठता होगा, इसलिए
उत्तर देता
हूं।
'पूर्व में
आप अपने
प्रवचन के अंत
में कहते थे, मैं आपके
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हू
मैंने
पूर्व में
क्या कहा है, उसका
मैं हिसाब
नहीं रखता, तुम भी मत
रखना। मैं तो
उतनी ही बात का
जुम्मा लेता
हूं जो मैं
अभी कह रहा
हूं। घड़ी भर
पहले जो कहा था,
उसका भी
मेरा कोई
जुम्मा नहीं।
इस बात को ठीक
से याद रख
लेना, अन्यथा
तुम बड़े जाल
में पड़ जाओगे।
मैं तो इस
क्षण हूं और
जो मेरा
वक्तव्य इस
क्षण है, वही
मेरा है; बाकी
जो बीता सो
बीता, जो
गया सो गया।
उसका हिसाब
नहीं रखता हूं।
अन्यथा तुम
मेरे
वक्तव्यों
में बड़े
विरोधाभास
पाओगे; एक
वक्तव्य
दूसरे का खंडन
करता हुआ
मालूम पड़ेगा।
अगर तुमने
हिसाब लगाने
की कोशिश की
तो विमुक्त
होना तो दूर, तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे।
इसलिए
इस सूत्र को
खूब सम्हाल कर
रख लो कि जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं इस क्षण, वही:।
घड़ी भर बाद
इसे भी भूल
जाना। गुलाब
का पौधा है, फूल लगा है
आज। तुम उससे
जा कर नहीं
कहते कि कल तो
बड़ा फूल लगा था
या छोटा फूल
लगा था, आज
ऐसा क्यों? गुलाब का
पौधा अगर बोल
सकता तो कहता,’आज ऐसा है, कल वैसा था।’ तुम
आकाश से नहीं
कहते कि’कल तो
सूरज निकला था,
आज बादल
घिरे हैं, बात
क्या है? ऐसा
विरोधाभास
क्यों?' आकाश
अगर कह सकता
तो कहता :’कल
वैसा था, आज
ऐसा है।’
विन्सेंट
वानगाग, एक
बड़ा डच
चित्रकार हुआ।
चित्र बना रहा
था, किसी
ने पूछा कि
तुम्हारा
सबसे
श्रेष्ठतम चित्र
कौन—सा है? उसने
कहा,’यही
जो मैं अभी
बना रहा हूं।’ दूसरे
दिन वह दूसरा
चित्र बना रहा
था। वही आदमी
फिर आया। उसने
कहा कि कल जो
चित्र तुमने
बताया था और
कहा था
श्रेष्ठतम है,
उसे मैं
खरीदने आया
हूं। उसने कहा,
अब वह
श्रेष्ठतम
नहीं रहा। अब
तो मैं जो बना
रहा हूं:। वही
श्रेष्ठतम है
जिसमें मैं
मौजूद हूं।
बाकी तो पिटी
लकीर हैं।
सांप निकल गया,
रेत पर
निशान छूट गया
है।
पूर्व
में मैंने
क्या कहा है, मैं
ही हिसाब नहीं
रखता, तुम
क्यों रखोगे?
छोड़ो! कहीं
ऐसा न हो कि आज
जो मैं कह रहा
हूं उसे आज न
सुन पाओ और
परसों फिर
मुझसे पूछने
आओ। जिस मित्र
ने यह पूछा है,
जब मैं ऐसा
कह रहा था तब
उसने सुना
नहीं होगा।
अगर सुन लेता
तो जीवन में
क्रांति हो गई
होती। अगर समझ
लेता तो यह
प्रश्न न उठता।
उस दिन चूके
अब भी मत चूक
जाना। चूकने
की आदत मत बना
लेना। कुछ लोग
चूकने की आदत
बना लेते हैं,
वे पीछे का
हिसाब रखते
हैं—मृत का; मुर्दों की
गणना करते
रहते हैं।
जो
वक्तव्य मैं
अभी दे रहा हूं
वही जीवित है।
ताजा—ताजा और
गर्म—गर्म उसे
अपने हृदय में
ले लो। जब
ठंडा और बासा
हो जाए, तब
तुम उसे पचा न
पाओगे; जब
ताजे और गर्म
को न पचा पाए
तो ठंडे और
बासे को कैसे
पचाओगे? भूल
कर भी उसे
खाना मत, अन्यथा
बोझ बनेगा, पाचन को
खराब करेगा, जीवन को
विषाक्त कर सकता
है।
तो
पहली तो बात, पूर्व
में मैंने
क्या कहा, पागल
उसका हिसाब
रखें; या
जिनको पागल
होना हो, वे
उसका हिसाब
रखें। मैं तो
अपने वक्तव्य
के साथ अभी
हूं क्षण भर बाद
न रहूंगा। यह
भी जो मैं कह
रहा हूं हो
सकता है कल
इसका खंडन कर
दूं। क्योंकि
मैं कोई
विचारक नहीं हूं।
मैंने कोई
विचार—सरणी तय
नहीं कर रखी
है कि बस इस
सरणी के अनुसार
जीऊंगा।
मैंने जीवन को
पूरा का पूरा
सरणी—विहीन
छोड़ा है। मेरे
जीवन में कोई
अनुशासन नहीं
है—मात्र
स्वतंत्रता
है। इसलिए तुम
मुझे बांध न
सकोगे। तुम
मुझसे यह न कह
सकोगे :’कल कहा
था, आज
उससे विपरीत
क्यों कह रहे
हैं?' मैं
कहूंगा:’कल भी
मैंने अपनी
स्वतंत्रता
से कहा था, आज
भी अपनी
स्वतंत्रता
से कह रहा हूं।
कल वैसा गीत
गाने का मन था,
आज ऐसा गीत
गाने का मन है।
और वही—वही
रोज—रोज
दोहराना उचित
र्भा? तो
नहीं है—उबाएगा।
तो, मैं
तो पानी की
धार जैसा हूं।
हेराक्लतु
ने कहा है : एक
ही नदी में
दुबारा नहीं
उतर सकते।
मुझसे भी
तुम्हारा
दुबारा मिलना
नहीं हो सकता।
आज तुम जहां
मुझे मिल रहे
हो,
कल मैं वहां
न रहूंगा। और
जिन्हें मेरे
साथ चलना है
उन्हें
प्रवाह सीखना
पड़ेगा। नहीं
तो तुम
घिसटोगे। मैं
भागा जाता हूं—नदी
की धार की तरह
सागर की तरफ, तुम घसिटते
रहोगे। तुम
पीछे का हिसाब
करते रहोगे।
मेरा
कोई इतिहास
नहीं है और
इतिहास में
मुझे कोई रुचि
नहीं है।
प्रतिपल जीवन
जो कहला दे, कहता
हूं। या अगर
परमात्मा में
भरोसा हो तो
प्रतिपल परमात्मा
जो कहला दे, सो कहता हूं।
यह प्रतिपल
होने वाला
संवेदन है। यह
झरने जैसा है।
यह किसी
दार्शनिक की
प्रणाली नहीं
है।
दार्शनिक
जीता है एक
ढांचे से, एक
ढांचा तय कर
लेता है; उसके
विपरीत फिर
कभी नहीं कहता,
चाहे जीवन
विपरीत हो जाए;
वह आंख बंद
रखता है। सब
बदल जाए, लेकिन
वह अपनी
दोहराए चला
जाता है। वह
अपने खिड़की—दरवाजे
बंद रखता है—कोई
नई हवा, सूरज
की नई किरण
कहीं बदलने को
मजबूर न कर दे।
वह आंख नहीं
खोलता।
दार्शनिक
अंधे होते हैं, तो
ही संगत हो
पाते हैं। अगर
आंख है
तुम्हारे पास
और
संवेदनशीलता
जीवंत है तो प्रतिपल
तुम्हारा
उत्तर भिन्न—भिन्न
होगा, क्योंकि
प्रतिपल सब बदला
जा रहा है।
मैं
इस बदलती हुई
जीवनधारा के
साथ हूं। मुझे
मेरे अतीत से
कुछ लेना—देना
नहीं।
वर्तमान ही सब
कुछ है। इसलिए
इस बहाने
तुमसे यह कह
दूं कि पूर्व
में और भी
बहुत बातें
मैंने कही हैं, तुम
उसकी चिंता मत
करना।
'आप कहते थे
कि मैं आपके
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता हूं, मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
अब आप वैसा
नहीं कहते।’
न
तो तब वैसा
मैंने
तुम्हारी मान
कर कहा था और न
अब तुम्हारी
मान कर कहूंगा।
तब मैंने अपनी
मौज से कहा था, अब
अपनी मौज से
बंद कर दिया।
तुम मेरे
मालिक नहीं हो।
इस तरह के
प्रश्नों में
कहीं भीतर
छिपी एक
आकांक्षा
होती है जैसे
तुम मेरे मालिक
हो। मैं वही
कहता हूं जो
मैं कहना
चाहता हूं; तुम्हारी
रत्ती भर
चिंता नहीं है।
तुम हो कौन? तुम्हें
प्रीतिकर लगे,
मेरा गीत
सुन लेना, तुम्हें
प्रीतिकर न
लगे, तुम्हारे
पास पैर हैं, तुम अपनी
राह पकड़ लेना।
मैं
तुम्हारी
आकांक्षाएं, अभीप्साएं
तृप्त करने के
लिए यहां नहीं
हूं—मैं
तुम्हारा
गुलाम नहीं
हूं। साधारणत:
तुम जिनको
महात्मा कहते
हो, वे
तुम्हारे
गुलाम होते
हैं। वही तो
अड़चन है मेरे
साथ। तुम जैसा
कहलवाते हो, कहते हैं।
तुम जैसा
चलवाते हो, चलते हैं।
तुम जैसा
बताते हो, बस......:।
ऊपर से दिखता
है कि तुम
महात्मा के
पीछे चल रहे
हो; गौर
करो तो
महात्मा
तुम्हारे
पीछे चल रहा
है। इनको तुम
महात्मा कहते
हो जो
तुम्हारे
पीछे चलते हैं?
किस धोखे
में पड़े हो? जो तुम्हारे
पीछे चलता है,
वह तो इसी
कारण अयोग्य
हो गया, उसके
पीछे तो चलना
ही मत। लेकिन
तुम्हारा
परिचय इसी तरह
के महात्माओं से
है, इसी
तरह के नेताओं
से है। मैं न
तो कोई
महात्मा न कोई
नेता हूं।
नेता
हमेशा अपने
अनुयायी का
अनुयायी होता
है। इसलिए
कुशल नेता वही
है जो देख
लेता है कि
अनुयायी किस
तरफ जाते हैं, उसी
तरफ चलने लगता
है। कुशल
राजनीतिज्ञ
वही है जो
पहचान लेता है
हवा का रुख और
देख लेता है
कि अब अनुयायी
पूरब की तरफ
जा रहे हैं तो
वह पहले से ही
पूरब की तरफ
चलने लगता है।
अनुयायी कहते
हैं समाजवाद,
वह और जोर
से चिल्लाता
है समाजवाद; अनुयायी अगर
समाजवाद के
विरोध में हैं
तो वह विरोध
में हो जाता है।
या वह इस ढंग
के वक्तव्य
देता है कि उन
वक्तव्यों
में तुम साफ
नहीं कर सकते
कि वह पक्ष
में है कि
विपक्ष में, ताकि उसे
सुविधा बनी
रहती कि वह
कभी भी उन वक्तव्यों
को बदल ले।
मैंने
सुना है, पटवारी
ने रिश्वत ली।
पकड़ा गया।
मुकदमा चला।
पटवारी के
विरुद्ध गांव
में तीन
व्यक्ति
साक्षी देने
आए, जिनमें
ताऊ शिवधन भी
थे। पहला गवाह
पेश हुआ। पटवारी
के वकील ने एक
ही प्रश्न
पूछा: ’पटवारी
ने जब पचास
रुपए लिए, उस
समय वह बैठा
था या खड़ा था?' पहला गवाह
बोला :’बैठा था।’
अब दूसरा गवाह
पेश हुआ। वकील
ने वही प्रश्न
उससे भी पूछा।
उसने कह दिया : ’खड़ा
था।’ अब बारी
आयी ताऊ शिवधन
की। वे भांप
गये कि मामला
गड़बड़ है। वकील
ने उनसे भी
वही प्रश्न
किया तो ताऊ
बोले:’बस
बाबूजी, कै
बूझोगे?'
'मेरे सवाल
का सीधा जवाब
दो। बूझोगे कि
नहीं बूझोगे,
यह बात मत
करो। यह क्या
उत्तर हुआ कि
बस बाबूजी, कै बूझोगे।
मेरे सवाल का
सीधा जवाब दो,'
वकील ने
धमकी दी।
ताऊ
हंस कर बोले :’ अरे
वकील साहिब, पटवारी
ने तो कमाल कर
दिया! पचास
रुपये जेब में
पड़ गये ते
माचा—माचा
फिरै। कदै उठे,
कदै बैठे!
कदै कुरसी पै
बैठे, कदै
मुढ़े पै और
कदै खड़ा होवै।’
यह
राजनीतिज्ञ
का जवाब है।
राजनीतिज्ञ चिंता
करता है कि
तुम कहां जा
रहे,
क्योंकि
सदा तुम्हारे
आगे होना
चाहता है। तुम
जहां जा रहे, वहीं भाग कर
आगे हो जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन बाजार में
अपने गधे पर
बैठा जा रहा
है—तेजी से
भागा। किसी ने
पूछा :’नसरुद्दीन, कहां
जा रहे हो?' उसने
कहा: ’मुझसे मत
पूछो, गधे
से पूछ लो।’ लोगों
ने कहा :’मतलब?' नसरुद्दीन
ने कहा :’गधा ही
है! पहले मैं
इसके साथ बड़ी
झंझट में पड़ जाता
था। बीच बाजार
में मैं इसे
कहीं ले जाना
चाहता हूं,
यह कहीं जाना
चाहता है।
फजीहत मेरी
होती, यह
तो गधा है! लोग
हंसते कि अरे,
अपने गधे को
भी काबू में
नहीं रख पाते।
तब से मैंने
तरकीब सीख ली।
बाजार में तो
मैं इससे झंझट
करता ही नहीं—यह
जहां जाता है:!
कम से कम
बाजार में यह
साख तो रहती
है कि मालिक मैं
हूं। जहां
जाता है, मैं
वहीं चला जाता
हूं। भीड़— भाड़
में मैं इसको
रोकता ही नहीं,
क्योंकि
गधा गधा है, भीड़— भाड़ में
और अकड़ जाता
है।’
तो
नेता तो
अनुयायी के
पीछे चलता है।
तुम्हारा
महात्मा
तुम्हारी
अपेक्षाओं की
शइrत करता है।
मैं न महात्मा
हूं न नेता।
मुझे तुमसे
कुछ भी
अपेक्षा नहीं
है और न मैं कोई
तुम्हारी
अपेक्षा पूरी
करने को हूं।
मुझसे तो
तुम्हारा कोई
संबंध अगर है
तो
स्वतंत्रता
का है। इसलिए
तुम अगर पूछो
कि क्यों? तुम
इसके हकदार
नहीं। मैं
उत्तरदायी
नहीं। मैंने
तुमसे पूछ कर
थोड़े ही कहा
था, जो मैं
तुमसे पूछ कर
बंद करूं! और
मैं यह भी नहीं
कह रहा हूं कि
मैं किसी ?? फिर
न शुरू करूंगा।
कौन जाने!
'क्या अब आप
हमारे भीतर
परमात्मा की
झलक नहीं
देखते?'
परमात्मा
की झलक एक बार
दिखायी पड जाए
तो फिर समाप्त
नहीं होती। जो
झलक दिखायी
पड़
जाए और फिर
दिखायी न पड़े, वह
परमात्मा की
नहीं।
परमात्मा कोई
सपना थोड़े ही
है—अभी था, अभी
खो गया!
परमात्मा
शाश्वतता है।
एक बार दिख
गया तो दिख
गया। नहीं, परमात्मा की
झलक दिखायी
पड़नी बंद नहीं
हो गयी है; लेकिन
कुछ और झलक
दिखायी पड़ी और
वह झलक यह थी कि
तुम्हें
मैंने देखा कि
तुम बड़े मस्त
हो जाते थे, जब मैं कहता
था, तुम्हारे
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं। तुम
समझते थे कि
तुम्हें
प्रणाम कर रहा
हूं। तुम भूल करते
थे। मैं कहता
था, तुम्हारे
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं। तुम
समझते थे, तुम्हें
प्रणाम कर रहा
हूं। तुम गदगद
हो जाते थे।
मेरे
पास लोग आते
थे,
वे कहते थे
कि जब आप यह
कहते हैं कि
तुम्हारे भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता हूं, तो बड़ा आनंद
होता है! आनंद
अहंकार की
तृप्ति से
होता होगा।
क्योंकि तुम
भलीभांति
जानते हो कि
तुम परमात्मा
नहीं हो। अगर
तुम जानते ही
होते कि तुम
परमात्मा हो
तो तुम यहां
आते किसलिए? मैं जानता
हूं कि तुम
परमात्मा हो,
तुम नहीं
जानते कि तुम
परमात्मा हो।
मेरी तरफ से
प्रणाम सच्चा
था, तुम्हारी
तरफ जा कर गलत
हो जाता था; तुम कुछ का
कुछ समझ लेते
थे। मैं तो
परमात्मा को
प्रणाम करता
था, तुम
समझते थे, तुम्हारे
चरणों में
प्रणाम
अर्पित है।
तुम्हारे
अहंकार को बड़ी
तृप्ति मिलती
थी।
जिसने
पूछा है, उसकी
भी अड़चन यही
है, अब
उसके अहंकार
को तृप्ति
नहीं मिल रही
होगी। आदमी
अपने ही हिसाब
से समझता है।
शहर
में नौकरी कर
रहे अपने लड़के
का हाल—चाल
देखने चौधरी
गांव से आए।
बड़े सवेरे
पुत्रवधू ने
पक्के गाने का
अभ्यास शुरू
किया। अत्यंत
करुण स्वर में
वह गा रही थी: ’पनियां
भरन कैसे जाऊं? पनियां
भरन कैसे जाऊं?'
शास्त्रीय संगीत
तो शास्त्रीय
संगीत है; उसमें
तो एक ही
पंक्ति
दोहराए चले
जाओ: पनियां
भरन कैसे जाऊं।
आधे घंटे तक
यही सुनते
रहने के बाद
बगल के कमरे
से चौधरी उबल
पड़े और
चिल्लाए :’क्यों
रे बचुआ, क्यों
सता रहा है
बहू को? यहां
शहर में पानी
भरना क्या
शोभा देगा उसे?
जा, आज ही
कहारिन का
इंतजाम कर।’
शास्त्रीय
संगीत—'पनियां
भरन कैसे जाऊं'
—लेकिन
चौधरी की
बुद्धि तो
शास्त्रीय
नहीं है। समझे
कि बचुआ, उनका
लड़का, बहू
को सता रहा है—कह
रहा है, चल
पानी भरने। वह
बेचारी आधे
घंटे से कह
रही है, पनियां
भरन कैसे
जाऊं! और बंबई
जैसा शहर, यहां
जाएगी भी कहां
पानी भरने!
गांव की बात
और।
समझ
तो अपनी— अपनी
है। मैं अपनी
समझ से कहता
था,
तुम अपनी
समझ से समझते
थे। फिर
वर्षों तक
कहने के बाद
मैंने देखा कि
मेरे कहने से
कुछ अंतर नहीं
पड़ता। वे
प्रणाम
व्यर्थ चले
जाते हैं, तुम
तक पहुंचते
नहीं। तुम अभी
सोए हो। मैं
तो फूल चढ़ा
आता हूं,
लेकिन
तुम्हारी
नींद में कहीं
खो जाते हैं।
तुम करवट भी
नहीं लेते।
उल्टे, मेरे
फूल तुम्हारी
नींद के लिए
और शामक दवा
बन जाते हैं।
मैं कह देता
हूं तुम
परमात्मा हो,
तुम बड़े
प्रफुल्लित
होते हो।
जागते नहीं।
अगर
तुम समझदार
होते तो
तुम्हें चोट पडती, तुम
रोते—जब मैंने
कहा था कि मैं
तुम्हारे
भीतर बैठे परमात्मा
को प्रणाम
करता हूं। तो
तुम्हारी आंखों
में आंसू झरते,
तुम रोते!
तुम कहते कि
नहीं, ऐसा
मत कहो, मैं
पापी हूं।
लेकिन तुम में
से एक ने भी यह
न कहा। मैं
वर्षों तक
कहता रहा। गाव—गांव
घूम कर कहता
रहा। किसी ने
मुझसे आ कर न
कहा कि ’नहीं, आप ऐसा न
कहें, मैं
पापी हूं!
मुझे
परमात्मा न
कहें।’ कोई
रोया नहीं।
लौग मुझसे बार—बार
कहते थे कि
हृदय गदगद हो
जाता है जब आप
ऐसा कहते हैं।
यह
चोट,
मेरी तरफ से
तो चोट थी, तुम
समझे कि
तुम्हारी पीठ
सहला रहा हूं!
मेरी तरफ से
तो चोट थी कि
तुम थोड़े जागो
कि परमात्मा
होकर और तुम
क्या हो गए हो?
क्या कर रहे
हो? कहां
भटके हो? लेकिन
उस चोट का तो
कोई परिणाम
नहीं होता था।
तुम गदगद होते
थे, उल्टा
तुम्हारा
अहंकार भरता
था। परमात्मा
की झलक तो अब
भी वैसी ही है।
उसके खोने का
कोई उपाय नहीं।
लेकिन देखा, औषधि तुम पर
काम नहीं करती,
जहर बन जाती
है; रोक दी।
'या कि आपने
वैसा कहना
इसलिए बंद कर
दिया कि लोग
आपको भगवान
कहने लगे?'
किसी
ने मुझे भगवान
कहा नहीं, मैंने
ही घोषणा की।
तुम कहोगे भी
कैसे? तुम्हें
अपने भीतर का
भगवान नहीं
दिखता, मेरे
भीतर का कैसे
दिखेगा? यह
भ्रांति भी
छोड़ दो कि तुम
मुझे भगवान
कहते हो। जिसे
अपने भीतर का
नहीं दिखा उसे
दूसरे के भीतर
का कैसे
दिखेगा? भगवान
की तो मैंने
ही घोषणा की
है। और यह
खयाल रखना, तुम्हें कभी
किसी में नहीं
दिखा। कृष्ण
ने खुद घोषणा
की, बुद्ध
ने खुद घोषणा
की। तुम्हारे
कहने से थोड़े
ही बुद्ध
भगवान हैं।
तुम्हारे
कहने से थोड़े
ही कृष्ण
भगवान हैं।
दूसरे के कहने
से तो कोई
भगवान हो भी
कैसे सकता है?
यह कोई
दूसरों का
निर्णय थोड़े
ही है। यह तो
स्वात रूप से
निज—घोषणा है।
ऐसा मेरा
अनुभव है।
इसमें
तुम्हारी
गवाही की
जरूरत नहीं।
तुम्हारे वोट
की जरूरत नहीं
कि तुम वोट दो
कि यह आदमी भगवान
है या नहीं।
उसके लिए
राष्ट्रपति
और
प्रधानमंत्रियों
को तुम तय करो।
भगवान
तो एक स्व—स्फुरण
है,
एक
आत्मप्रतीति
है। तुम्हें
भी जब होगी तब
तुम्हें ही
होगी। किसी के
कहने से थोड़े
ही तुम भगवान
हो जाओगे।
अंधे, जिनको
अपना ही पता
नहीं है, वे
अगर तुम्हें
भगवान भी कहें
तो इससे थोड़े
ही तुम भगवान
हो जाओगे।
उनकी समझ उतनी
ही होगी जितनी
उनकी समझ है।
एक
दिन पत्नी
मुल्ला
नसरुद्दीन पर
बहुत नाराज हो
गई। नाराज
होकर उसके ऊपर
झपटी, तो
मुल्ला भाग कर
खाट के नीचे
घुस गया।
पत्नी चीख कर बोली:
’कायर निकल
बाहर!'
मुल्ला
ने कहा: ’क्यों
निकलूं बाहर? मैं
इस घर का
स्वामी हूं
मेरी जहां
मर्जी होगी
वहीं बैठूंगा।’
यह किस भांति
का स्वामित्व
हुआ! खाट के
नीचे छिपे
बैठे हैं और
कह रहे हैं: ’जहां
मर्जी होगी
वहां बैठेंगे!
घर का स्वामी
कौन है?'
तुम्हें
अपने ही
स्वामित्व का
पता नहीं है, तुम
मेरा निर्णय
करोगे? तुम
अपना ही कर लो,
उतना ही
काफी है।
नहीं, तुम्हारे
कहने से भगवान
नहीं हूं न हो
सकता हूं। यह
मेरी उदघोषणा
है। इसे
दुनिया में
कोई भी
स्वीकार न करे,
कोई फर्क
नहीं पड़ता, मेरी
उदघोषणा फिर
भी खड़ी रहेगी।
क्योंकि यह
किसी के सहारे
पर नहीं खड़ी
है। मैं अकेला
ही कहूं एक भी
व्यक्ति साथ
देने को न हो, तो भी यह
उदघोषणा खड़ी
रहेगी। तुमसे
सहारा मांगता
नहीं, क्योंकि
तुमसे सहारा
मांगा तो
तुमसे डरूंगा।
कल तुम सहारा
खींच लो तो
फिर? नहीं,
तुम मेरी
बैसाखी नहीं
हो। मैं अपने
पैरों पर खड़ा
हूं। यह मेरा
निजी वक्तव्य
है। सही हो, गलत हो—वक्तव्य
मेरा है और एकांतरूपेण
निजी है।
अब
यह बड़े मजे की
बात है: जब मैं
तुमसे कहता था, तुम्हारे
भीतर बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं तो तुममें
से एक ने भी
आकर मुझसे न
पूछा कि हम
परमात्मा
नहीं हैं और
प्रणाम करते
हैं परमात्मा
को? नहीं, तुमने
बिलकुल
स्वीकार किया।
जब मैंने
घोषणा की कि
मैं परमात्मा हूं, तब बहुत
पत्र मेरे पास
आने लगे, बहुत
लोग आने लगे
कि यह आप कैसे
कहते हैं? ये
वे ही लोग थे।
इनके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
था तब
इन्होंने कभी
संदेह न उठाया
और जब मैंने
अपने भीतर
बैठे
परमात्मा की
घोषणा की, तो
इन्होंने
संदेह उठाना
शुरू कर दिया।
तुम
अपने अहंकार
के जाल को
देखोगे? तुम्हारा
अहंकार
तुम्हें किस
भांति ग्रसे हुए
है!
मेरी
यह घोषणा कि
मैं भगवान हूं
वस्तुत: तुम्हारे
लिए भी द्वार
है कि तुम भी
हिम्मत जुटाओ, तुम
भी छलांग लो।
यह तुम्हारे
लिए अनुस्मरण
है। यह
तुम्हारे लिए
स्मृति का एक
उपाय है कि
हड्डी—मांस—मज्जा
में कोई
व्यक्ति अगर
परमात्मा हो
सकता है तो
तुम भी हो
सकते हो।
बुद्ध
तो गये, बहुत
समय हुआ, आज
भरोसा आता
नहीं कि रहे
होंगे न रहे
होंगे। कहानी
तो कहानी हो
गई। जीसस गए, महावीर गए।
आज कोई चाहिए,
जो ठीक तुम
जैसा है सब
तरह से— हड्डी—मांस—मज्जा
है, देह है,
जवानी, बुढ़ापा,
बीमारी, मौत
है, ठीक
तुम जैसा है
सब तरह से—फिर
भी किसी
अलौकिक लोक
में जीता है, किसी विभा
से भरा है। एक
अर्थ में ठीक
तुम जैसा है
और एक अर्थ
में कहीं से
पार हो गया है।
तुम्हारी
आकांक्षा यह
होती है कि
भगवान अगर कोई
व्यक्ति
घोषणा करे तो
वह बिलकुल तुम
जैसा नहीं
होना चाहिए।
तो तुमने
किताबें भी
लिखी हैं, वे
झूठी हैं।
जैन
कहते हैं कि
महावीर के
पसीने में
बदबू नहीं आती
थी—झूठ।
क्योंकि
महावीर का
शरीर भी मनुष्य
का शरीर है।
मनुष्य के
शरीर की
ग्रंथियां
जैसा काम करती
हैं,
महावीर का
शरीर भी करेगा
काम। जैन कहते
हैं, महावीर
को सांप ने
काटा तो खून
नहीं निकला, दूध निकला।
या तो मवाद
रही होगी, सफेद
दिखाई पड़ गई
होगी तो समझा
कि दूध है। अब
पैर में से
अगर दूध निकले
तो आदमी सड़
जाए। खून
चाहिए, दूध
से काम नहीं
चलता। और शरीर
में अगर दूध
चल रहा हो तो
आदमी कभी का मर
जाए। एकाध जैन
जा कर अस्पताल
में कोशिश
करवा ले, निकलवा
दे खून बाहर
और दूध चढ़वा
दे। कितनी देर
जीता है, देख
ले! या कोई जैन
मुनि कर दे।
जैन
कहते हैं, महावीर
पाखाना
इत्यादि
मलमूत्र नहीं
करते। ये सारी
चेष्टाएं हैं
यह सिद्ध करने
की कि वे हमारे
जैसे नहीं हैं।
हमारे जैसे
नहीं हैं तो
फिर हम मान
सकते हैं कि
भगवान हैं।
अगर हमारे
जैसे हैं तो
फिर हम कैसे
मानें कि भगवान
हैं पू
मेरी
सारी चेष्टा
यही है कि मैं
बिलकुल तुम जैसा
हूं और फिर भी
तुम जैसा नहीं
हूं। अगर मैं
बिलकुल तुम
जैसा नहीं तो
मुझसे तुम्हारे
लिए कोई लाभ
नहीं है। क्या
करोगे तुम? अगर
महावीर को
संबोधि मिल
गयी तो मिल
गयी होगी—उनके
शरीर में खून
नहीं, दूध
बहता था।
तुम्हारे
शरीर में तो
नहीं बहता दूध,
तुमको कैसे
मिलेगी? तो
महावीर बने ही
इस ढंग से थे, पसीने में
बदबू नहीं, खुशबू आती
थी। तुम्हारे
पसीने में तो
बदबू आती है, खुशबू नहीं
आती। कितने ही
डियोडरेंट
साबुन का
उपयोग करो, पाउडर छिडको,
फिर भी बदबू
आती है। तो
तुम कैसे
समाधिस्थ
होओगे, तुम
कैसे कैवल्य
को उपलब्ध
होओगे?
वही
कथाएं बुद्ध
और जीसस के
बाबत और हरेक
के बाबत गढ़ी
गयी हैं—सिर्फ
एक बात सिद्ध
करने के लिए
कि वे मनुष्य नहीं
हैं,
परमात्मा
हैं।
वे
ठीक तुम जैसे
मनुष्य थे।
जैन तो कहते
हैं,
महावीर
मलमूत्र नहीं
करते, महावीर
की मौत ही
पेचिश की
बीमारी से हुई।
छह महीने तक
दस्त लगे, उससे,
बीमारी से
मौत हुई।
बुद्ध का
प्राणांत
विषाक्त भोजन
करने से हुआ।
कृष्ण पैर में
तीर लगने से
मरे। ये सारी
घटनाएं लीपी—पोती
जाती हैं और
चेष्टा की
जाती है इस
तरह बताने की......:
लेकिन इस
चेष्टा के
कारण ही
मनुष्य और
परमात्मा का
संबंध टूट
जाता है।
संबंध तो तभी
हो सकता है जब
परमात्मा कुछ
तुम जैसा हो
और कुछ तुम
जैसा नहीं, तो संबंध
जुड़ सकता है, तो सेतु बन
सकता है।
एक
हाथ से मैं
तुम्हारा हाथ
पकड़ सकता हूं
वह तुम्हारे
जैसा है और
दूसरे हाथ से
तुम्हें एक यात्रा
पर ले जा सकता हूं,
वह हाथ
परमात्मा का
है। एक हाथ
मैं तुम्हारे
हाथ में दे
सकता हूं और
एक परमात्मा
के हाथ में
दिया है। यही
सदगुरु का
अर्थ है। अगर
सदगुरु
बिलकुल
परमात्मा
जैसा हो तो
संबंध टूट
जाएगा; अगर
बिलकुल
मनुष्य जैसा
हो तो किसी
काम का नहीं
है।
सदगुरु
सेतु होना
चाहिए—स्व
हिस्सा पुल का
इस किनारे पर
टिका हो और एक हिस्सा
पुल का उस
किनारे पर
टिका हो, तो ही
सदगुरु
तुम्हें पार
ले जा सकेगा।
मेरी
यह घोषणा कि
मैं भगवान हूं
तुम्हारे लिए सिर्फ
जागने का एक
मौका है।
तुम्हें
भगवान कहा था
जगाने के लिए।
वह काम न आयी
तरकीब। अब
अपने को भगवान
कह रहा हूं वह
भी तुम्हें जगाने
के लिए। काम आ
गई तो ठीक, अन्यथा
कोई और तरकीब
करेंगे।
तीसरा
प्रश्न :
आप
तो जनक के
गवाह हैं। क्या
सच ही
आत्मोपलब्धि
पर यह भाव होता
है :’ अहा अहं
नमो मह्मं!
मेरा मुझको नमस्कार!
अहो!' क्या
ऐसा भाव होता
है सम्यक
समाधि में?
ऐसा
भाव होता नहीं, क्योंकि
वहां तो ? सारे
भाव खो जाते
हैं, सब
विचार खो जाते
हैं। लेकिन जब
समाधि से
उतरती है
चेतना वापस
जगत में, तब
ऐसा भाव होता
है।
इसको
ठीक से समझ
लेना। ठीक
निर्विकल्प
समाधि में तो
कोई भाव नहीं
होता—वही तो
निर्विकल्प
होने का अर्थ
है। सब भाव
शून्य हो जाते
हैं। लेकिन जब
चेतना वापस
उतरती है उस
महालोक
से,
फिर लौटती
है इस जगत में,
मन में, देह
में, संसार
में; और जब
चेतना चेष्टा
करती है
अभिव्यक्त
करने का कि
क्या हुआ:, उस
महालोक में
क्या घटा, कौन—सी
प्रतीति हुई,
कौन—सा
स्वाद मिला—तब
ऐसा भाव जरूर
होता है:’ अहो
अहं नमो
मह्यं!' तब
ऐसा भाव होता
है कि धन्य
हूं मैं! मेरे
ही भीतर
परमात्मा
विराजमान है!
मैं अपने ही
चरण लगू ऐसा
भाव होता है।
यह
वचन बहुत
अनूठा है! जनक
का यह वचन
अदभुत है।
सिर्फ एक
उल्लेख मिलता
है रामकृष्ण
के जीवन में
कि उनका चित्र
किसी ने लिया
और जब
चित्रकार
चित्र ले कर
आया तो
रामकृष्ण
अपने ही चित्र
के सामने झुक
कर उसके चरण
छूने लगे।
शिष्य तो समझे
कि दिमाग इनका
खराब हुआ। अब
यह हद हो गयी!
यह भी पागलपन
की हद है! किसी
ने कहा भी कि ’परमहंसदेव, आप
यह क्या कर
रहे हैं? अपने
ही चित्र का
पूजन कर रहे
हैं? नमन
कर रहे हैं
अपने ही चित्र
को?' रामकृष्ण
ने कहा:’ भली
याद दिलाई।
मैं तो भूल ही
गया। यह तो
समाधि का
चित्र है। यह
तो किसी भाव—दशा
का चित्र है, मुझसे क्या
लेना—देना? यह तो मैं
अपनी समाधि को
नमस्कार कर
रहा हूं और
समाधि मेरी—तेरी
थोड़े ही होती
है, अपनी—तुम्हारी
थोड़े ही होती
है। समाधि तो
समाधि है।
समाधि को तो
नमन करना होता
है।’
तो
जब सिद्ध
उतरता है वापस
जगत में और
खबर देता है, तब
ऐसे भाव पैदा
होते हैं। ये
भाव समाधि में
पैदा नहीं
होते, लेकिन
समाधि को
बांटना पड़ता
है। समाधि अगर
बंटे न तो
समाधि नहीं।
महावीर
बारह वर्ष तक
मौन में रहे; फिर
जिस दिन घटी
घटना, भागे
नगर की तरफ! जो
छोड़ आए थे, वहीं
भागे। भागे
भीड़ की तरफ!
जिससे पीठ मोड़
ली थी, उसी
तरफ गए। जहां
से विमुख हो
गए थे, फिर
वहां लौटे। अब
घटना घट गयी
थी, अब
बांटना था।
फूल खिल गए थे,
अब सुगंध
फैलनी थी।
सोचता
था मैंने जो
नहीं कहा
वह
मेरा अपना रहा, रहस्य
रहा
अपनी
इस निधि, अपने
संयम पर
मैंने
बार—बार
अभिमान किया
पर
हार की तक्षण
धार है साल
रही
मेरा
रहस्य उतना ही
रक्षित है
उतना
भर मेरा रहा
जितना
किसी अरक्षित
क्षण में
तुमने
मुझसे कहला
लिया
जो
औचक कहा गया, वह
बचा रहा
जो
जतन संजोया, चला
गया।
यह
क्या, मैं
तुमसे या जीवन
से
या
अपने से छला
गया!
जो
औचक कहा गया, वह
बचा रहा
जो
जतन संजोया, चला
गया!
इस
जीवन में जो
तुम बचाओगे वह
खो जाएगा। जो
तुम बांट दोगे,
वह बच जाएगा।
ऐसा अनूठा
नियम है। जो
दोगे, वही
तुम्हारा
रहेगा। जो
सम्हाल कर रख
लोगे, छिपा
लोगे—सड़
जाएगा, कभी
तुम्हारा न
रहेगा।
इसलिए
समाधि तो परम
ध्यान है। जब
फलता है तो
बांटना पड़ता
है। समाधि वही
जो बंटे, न
बंटे तो झूठ; कहीं कुछ
भूल हो गई; कहीं
कुछ नासमझी हो
गई, कहीं
कुछ का कुछ
समझ बैठे। जब
बादल जल से
भरा हो तो
बरसेगा, तो
तृप्त कंठ
पृथ्वी का
होगा उसकी
वर्षा से। जब
दीया जलेगा तो
रोशनी बिखरेगी।
जब
भी समाधि लगती
है किसी के
जीवन में, फूल
खिलता है तो
बटता है। सारे
शास्त्र ऐसे
ही जन्मे।
शास्त्र का
जन्म समाधि के
बंटने के कारण
होता है।
शास्त्र और
किताब का यही
फर्क है।
किताब आदमी
लिखता है, चेष्टा
करता है।
शास्त्र
समाधि से सहज
निकसित होता
है, कोई चेष्टा
नहीं है, कोई
प्रयास नहीं
है। समाधि
अपने— आप
शास्त्र बन
जाती है।
समाधि से
निकले उपनिषद,
निकले वेद,
निकला
कुरान, निकली
बाइबिल, निकला
धम्मपद। ये
समाधि के क्षण
से बंटे हैं।
समाधि
का अर्थ है:
तुमने पा
लिया!
समाधि
बंटना चाहती
है,
बंटती है।
फिर भी जो
कहना है, अनकहा
रह जाता है।
फिर भी जो
बांटना था, बंट नहीं
पाता।
क्योंकि जो
मिलता है
निःशब्द में,
उसे शब्द
में लाना कठिन।
जिसका अनुभव
होता है
निराकार में,
उसे आकार
देना कठिन।
जिसे मौन में
साक्षात्कार
किया, उसे
अभिव्यक्ति
बनानी अत्यंत
कठिन हो जाती
है।
कन्हाई
ने प्यार किया
कितनी
गोपियों को
कितनी बार
पर
उड़ेलते रहे
अपना सारा
दुलार
उस
एक रूप पर
जिसे कभी पाया
नहीं,
जो
कभी हाथ आया
नहीं
कभी
किसी प्रेयसी
में उसी को पा
लिया होता
तो
दुबारा किसी
को प्यार
क्यों किया
होता?
कवि
ने गीत लिखे
नये —नये बार—बार
पर
उसी एक विषय
को देता रहा
विस्तार
जिसे
कभी पूरा पकड़
पाया नहीं
जो
कभी किसी गीत
में समाया
नहीं
किसी
एक गीत मैं वह
अट गया दिखता
तो
कवि दूसरा गीत
ही क्यों
लिखता?
बुद्ध
चालीस—व्यालीस
वर्षों तक
बोलते रहे—प्रतिदिन, सुबह—सांझ।
महावीर चालीस
वर्षों तक
समझाते रहे, घूमते रहे।
कुछ था, जो
कहना था। कहने
की कोशिश की
भरसक, अद्यक
कोशिश की, फिर
भी पाया कि
पूरा अट नहीं
पाता है, कुछ
छूट जाता है, कुछ पीछे रह
जाता है।
रवींद्रनाथ
ने मरते वक्त
कहा कि ’हे
प्रभु, तू
समय के पहले
उठा ले रहा है।
अभी तो मैं
अपना
साज
बिठा पाया था, अभी
गीत गया कहां
था?' छ: हजार
गीत वे गा
चुके थे।’ अभी
केवल साज
बिठाया था।
अभी तो यह
तबला ठोंक—ठाक
कर ठीक किया
था, वीणा
के तार कसे थे —और
तूने उठा लिया,
उठाने लगा?
अभी असली
गीत तो अनगाया
रह गया है।’
मैंने
सुना है, एक
वाइसराय लखनऊ
के एक नबाब के
घर मेहमान था।
नवाब ने
शास्त्रीय
संगीत का आयोजन
किया।
संगीतज्ञ आए।
जैसे
शास्त्रीय
संगीतज्ञों
की आदत होती
है, तबला
ठोंकने लगे, वीणा कसने
लगे। जब तक वे
इंतजाम कर रहे
थे, साज —सामान
बिठा रहे थे, नवाब ने
वाइसराय से
पूछा:’ आपको
कैसा संगीत
प्रिय है?' वाइसराय
ने
सौजन्यतावश
सोच कर कि यही
संगीत हो रहा
है, अब
इसमें...... उसने
कहा, यही
संगीत प्रिय
है। उसे कुछ
पता भी नहीं
था कि संगीत
में अब उत्तर क्या
दे भू: उसने
कहा कि यही
संगीत प्रिय
है। नवाब ने
कहा:’तो फिर
यही चलने दो।’ तीन
घंटे तक यही
चला। तबला कसा
जा रहा, वीणा
कसी जा रही और
वाइसराय
सौजन्यतावश
सुन रहा है। और
नवाब अपना सिर
ठोक रहा है कि
अब क्या करो।
इसको यही पसंद
है तो यही
चलने दो।
रवींद्रनाथ
ने कहा’ अभी तो
मैं अपना साज—सामान
बिठा पाया था
और तू मुझे
वापस बुलाने
लगा! गीत गाने
की कोशिश की
थी,
अभी गीत गया
कहां!'
कोई
महाकवि कभी
नहीं गा पाया।
कोई महापुरुष
कभी नहीं कह
पाया, जो कहना
था। कुछ न कुछ
छूट जाता है।
कुछ न कुछ बात
अधूरी रह जाती
है। कारण है।
कारण ऐसा है
कि जो मिलता
है वह तो
मिलता है आत्मा
के लोक में; फिर उसे मन
में लाना बड़ा
कठिन हो जाता
है। मन बड़ा
छोटा है।
आत्मा है आकाश
जैसी। मन है
तुम्हारे घर
के आंगन जैसा।
इसमें इस
विराट आकाश को
भर लेना कठिन
है, असंभव
है। फिर जो मन
में भी जो
थोड़ा —बहुत आ
जाता है, उसको
शरीर से बोलना
है—फिर और
अड़चन आ गई।
फिर और
क्षुद्र में
प्रवेश करना
है। नहीं, यह
हो नहीं पाता।
थोड़ी—बहुत
बूंदें आ जाती
हों, बरस
जाती हों तुम
पर तो बहुत; सागर तो घुमड़ता
रह जाता है।
लेकिन थोड़ी —सी
बूंदें भी
काफी हैं —सागर
का स्मरण
दिलाने को।
थोड़ी—सी
बूंदें भी
पर्याप्त हैं
बोध के लिए; इशारा तो
मिल जाता है।
सूरज की एक
किरण तुम पकड़
लो तो सूरज की
राह तो मिल
जाती है; उसी
किरण के सहारे
तुम सूरज तक
पहुंच सकते हो।
भाव
तो तभी उठते
हैं जब उन्हें
प्रगट करने का
सवाल आता है।
अनुभूति के
क्षण में न
कोई विचार है
न कोई भाव है।
चौथा
प्रश्न :
हम
बहुत पुराने
हो गये हैं।
जब कभी नये के
प्रादुर्भाव
का क्षण आता
है,
हमारे गात
शिथिल हो जाते
हैं, हाथ
में से गांडीव
गिरने लगता है
और हम भय से कांपने
लगते हैं। हम
चाहते तो हैं
कि नये का
जन्म हो, लेकिन
भय का अंधकार
हमें घेर लेता
है और हम किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाते हैं।
कृपा पूर्वक
समझाए कि नये
के स्वागत के
लिए कैसी चित्त—दशा
चाहिए और कैसी
दृष्टि?
पहली तो
बात,
पुराने से
तुम अभी ऊबे
नहीं हो; कहीं
कुछ रस लगाव
बाकी रह गया
है, कहीं
कुछ गठबंधन
बाकी रह गया
है। तो पहली
तो बात यह है
कि पुराने को
ठीक से देख लो,
ताकि
पुराने से
संबंध छूट जाए।
तुम पुराने को
पकड़े—पकड़े नये
का स्वागत
करना चाहोगे,
नहीं हो
पाएगा।
पुराना
तुम्हें
डराका; क्योंकि
पुराने का
न्यस्त
स्वार्थ है कि
नये को न आने
दिया जाए, अन्यथा
पुराना निकाल
दिया जाएगा।
तो पुराना तो
नये के विरोध
में है। और
अगर तुम
पुराने से अभी
भी ऊब नहीं
गये हो, थक
नहीं गये हो, अगर —तुमने
पुराने की
निस्सारता
नहीं देख ली
है तो वह
तुम्हें नये
को स्वीकार न
करने देगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि हमें
ध्यान सीखना
है,
ध्यान करना
है; वैसे
हम बीस वर्ष
से ध्यान कर
रहे हैं। मैं
उनसे पूछता हूं, बीस वर्ष से
ध्यान कर रहे
हो, कुछ
मिला? वे
कहते हैं, ही
काफी शांति
मिली, काफी
सुख मिला। मैं
उनके चेहरे को
देखता हूं,
वहा न कोई सुख
है न कोई शांति
है। उनके भीतर
देखता हूं,
वहा मरुस्थल
है। कहीं
हरियाली नहीं
है, कोई
मरूद्यान
नहीं है। कोई
अर बजते हुए
नहीं सुनाई
पड़ते। फिर भी
मैं उनसे कहता
हूं कि ’फिर से
सोच कर कहें।
जो करते रहे
हैं, अगर
उससे शांति और
आनंद मिल रहा
है तो मेरे
पास क्यों आए?
उसे जारी
रखें। मैं
तुम्हारे शांति,
आनंद को
नहीं तोडूगा,
विध्न
नहीं डालूंगा।
मैं तुम्हारा
दुश्मन थोड़े
ही हूं।’
तब
वे कहते हैं
कि ’नहीं, ऐसा
कुछ खास नहीं
मिल रहा है।
बस ऐसा ही है, मतलब ज्यादा
अशांति नहीं
है।’ अब वे यह
नहीं कहते कि शांति
है, अब वे
कहते हैं, ज्यादा
अशांति नहीं
है। मैं उनसे
कहता हूं,’तब
भी कुछ हो तो
रहा है। और यह
तो लंबी
प्रक्रिया है।
बीस वर्ष कुछ
बहुत वक्त
नहीं, बीस
जन्मों में भी
हो जाए तो
बहुत। आप ठीक
रास्ते पर चल
पड़े हैं, अब
क्यों मुझे और
परेशान करते
हैं! चलते
रहें!'
तब
उनको लगता है
कि अगर
उन्होंने स्पष्ट
बात नहीं कही
तो मुझसे
संबंध न बनेगा।
वे कहते हैं
कि अब आप जोर
ही डालते हैं
तो साफ ही बात
कह देते हैं
कि कुछ नहीं
हुआ।
'तो इतनी देर
क्यों खराब की?'
मनुष्य
का मन यह भी
मानने को राजी
नहीं होता कि
जो काम मैं
बीस वर्ष से
कर रहा था, उससे
कुछ नहीं हुआ।
इससे अहंकार
को चोट लगती
है: ’तो इसका
मतलब कि बीस
साल मैं मूरख,
बीस साल मैं
नासमझ था?' यह
तो मानना
पड़ेगा न! तो
अहंकार यह
मानने को कभी
राजी नहीं
होता कि मैंने
जो किया वह
व्यर्थ गया।
वह कहता है कि
नहीं, कुछ—कुछ
तो हो रहा है।
हो भी नहीं
रहा है, अगर
हो रहा होता
तो फिर नये की
कोई जरूरत
नहीं। अगर
पुराने में
सार है तो नये
की जरूरत क्या
है? कोई
नये को लेकर
क्या करोगे? सार असली
बात है।
तो
पहली बात तो
यह देख लेना
जरूरी है कि
पुराने में
सार है? अहंकार
को बीच में मत
आने देना। साफ—साफ
देख लेना। तुम
हिंदू हो, हिंदू
होने से कुछ
मिला? मुसलमान
हो, मुसलमान
होने से कुछ
मिला? जैन
हो, जैन
होने से कुछ
मिला?
अभी
चार दिन पहले
एक महिला ने
आकर कहा......
यूरोप से आयी
है और कहा कि
मैं तो जीसस
की अनुयायी
हूं और जीसस
के अतिरिक्त
मेरा कोई और
गुरु हो नहीं
सकता। मैंने
कहा: ’बिलकुल
ठीक बात है। जरूरत
भी क्या है? एक
गुरु काफी है।
एक गुरु ही
मोक्ष पहुंचा
देता है, दो
की जरूरत क्या
है?' तू यहां
आई क्यों, मैंने
उससे पूछा।
वृद्ध महिला
है। आने की
कोई जरूरत ही
न थी। गुरु
तुझे मिल गए।
वह
जरा हैरान हुई, क्योंकि
वह आई तो
इसीलिए है। अब
मजा यह है कि
वह सीखना भी
मुझसे चाहती
है, लेकिन
अपने पुराने
ढांचे को
छोड़ना भी नहीं
चाहती। तो
मैंने कहा कि
मेरे द्वार
बंद। जब जीसस
के द्वार तेरे
लिए खुले हैं
तो पर्याप्त
है, जहां
हम ले जाएंगे,
वहीं जीसस
तुझे ले
जाएंगे। तू
उसी रास्ते से
चल।
उसने
कहा :’ अब जीसस
को तो मरे दो
हजार साल हो
गए। अब उनसे
तो मैं पूछने
जाऊं कहां?' तो
फिर मैंने कहा:
’मुझसे पूछना
हो तो उनको
छोड़ो। फिर
इतनी हिम्मत
करो। मुर्दा
को छोड़ो!'
आदमी
अहंकार के
कारण बड़े
उपद्रव में
पड़ा है। वह
बोली कि यह तो
कैसे हो सकता
है?
मैं
कैथोलिक ईसाई
हूं और बचपन
से ही ईसाई
धर्म को मैंने
माना है।
मैंने
कहा: मानो! मैं
अभी भी मना
नहीं करता।
मैं किसी धर्म
के विपरीत हूं
ही नहीं। अगर
तुम्हें कुछ
हो रहा है, तुम्हारे
जीवन में फूल
खिल रहे हैं, मेरा
आशीर्वाद! खूब
फूल खिले। मैं
कहता नहीं कुछ,
लेकिन
तुम्हीं अपने—आप
आयी हो और खबर
दे रही हो कि
फूल नहीं खिले
हैं, अब तक
की ईसाइयत काम
नहीं आयी है।
मैं यह भी
नहीं कहता कि
ईसाइयत गलत है।
मैं इतना ही
कह रहा हूं कि
तुम्हारे काम
नहीं आई है, तुमसे मेल
नहीं बैठा है।
इस सत्य को तो
देखो! इस सत्य
को देखे बिना
कैसे नये का
अंगीकार होगा?
पुराने से
साफ—साफ
निपटारा, कर
लेना चाहिए।
नये
के स्वागत के
पूर्व पुराने
को विदा करो।
पुराना घर में
बैठा रहे और
नये का तुम
स्वागत करने
जाओगे, पुराना
उसे अंदर न
आने देगा।
क्योंकि
पुराना बीस
साल, तीस
साल, चालीस
साल, पचास
साल रह चुका
है। इतनी
असानी से कोई
अपना स्थान
नहीं छोड़ता।
बड़ी जद्दोजहद
होगी। तुम
पहले पुराने
को अलविदा कहो।
एक
ही बात खयाल
रखो कि हुआ है
पुराने से कुछ? तो
कोई जरूरत
नहीं नये के
साथ जाने की
क्योंकि नये —पुराने
से क्या लेना—देना?
सत्य कोई
नया होता कि
पुराना होता?
सत्य तो बस
सत्य है। अगर
तुम्हारे
जीवन में सार
की वर्षा हुई
है, अमृत
का झरना बहा
है तो कितने
ही प्राचीन के
कारण हुआ हो, हो गया! तुम
धन्यभागी हो,
नाचो, उत्सव
मनाओ! नहीं
हुआ तो हिम्मत
जुटाओ, पुराने
को विदा करो।
पुराने की
विदा प्रथम
चरण है नये के
स्वागत के लिए।
लेकिन
तुम हो चालाक।
तुम हो हिसाब
लगाने वाले।
तुम सोचते हो ’पुराना
भी बना रहे, नये
में भी कुछ
सार हो तो
इसको भी हथिया
लो।’ यह नहीं
होता। इससे
तुम्हारी
दुविधा बढ़ेगी।
दो नाव
पर
कभी सवार मत
होना, अन्यथा
टूटोगे और
मरोगे। दो
घोड़ों पर सवार
मत हो जाना, अन्यथा
प्राण गवाओगे।
पुराने और नये
का साथ—साथ
हिसाब मत
बांधना।
मंत्र
धुंधवाए हवन
के
दर्द
अकुराए चमन के
बोल
सांसों को मलय
वातास
दूं लाकर कहां
से?
देख
चारों ओर फैले
सर्प
क्षितिजों पर
विषैले
बोल
पंखों को खुला
आकाश
दू लाकर कहा से?
नाम
लहरों ने
मिटाए
सब
घरौंदे खुद
ढहाए
बोल
सपनों को नए
रनिवास
दूं लाकर कहां
से?
पुराने
को गौर से तो
देखो! कुछ भी
नहीं है वहा—राख
है। सपने ही
हैं—और वे भी
खंडित।
पुराने का
सत्य ठीक—ठीक
स्पष्ट हो जाए
कि वहां
कारागृह है, आकाश
नहीं है, तुम
बंधे हो, मुक्त
नहीं हुए; तुम्हारे
जीवन में
जंजीरें पड गई
हैं, स्वातंत्र्य
नहीं आया। अगर
यह तुम्हें
साफ हो जाए, पुराना
तुम्हें अगर
कारागृह की
तरह दिखाई पड़ने
लगे—और ध्यान
रखना, जिससे
भी जीवन में
सार नहीं आए, वही कारागृह
बन जाता है—तो
फिर नए के
स्वागत की
तैयारी हो
सकती है। नए
के स्वागत की
तैयारी तभी हो
सकती है जब
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगे कि अब तक
जिन मार्गों
को मान कर चला,
उनसे
पहुंचा नहीं,
सिर्फ भटका।
कोल्हू
के बैल की तरह
लोग हो गए हैं।
मैंने
सुना है, एक
तर्कशास्त्री
एक तेली के घर
तेल लेने गया।
वह बड़ा हैरान
हुआ—तर्कशास्त्री
था! उसने देखा
कि तेली तेल
बेच रहा है और
उसकी ठीक पीठ
के पीछे कोल्हू
चल रहा है; कोई
चला नहीं रहा,
बैल खुद ही
चल रहा है। वह
बहुत हैरान
हुआ। उसने कहा
कि तेली भाई, यह मुझे बड़े
विस्मय में
डालती है बात,
क्योंकि
बैल तो मारे —मारे
नहीं चलते, यह तुम
धार्मिक बैल
कहां से पा गए?
ये तो सतयुग
में हुआ करती
थीं बातें, यह कलियुग
चल रहा है। और
यह सतयुगी बैल
तुम्हें कहां
से मिल गया? यह अपने— आप
चल रहा है; न
कोई कोड़ा
फटकारता है, न कोई पीछे
मारता है! उस
तेली ने कहा
कि यह अपने— आप
नहीं चल रहा
है, चलाया
जा रहा है।
उसके पीछे
तरकीब है।
आदमी की
बुद्धि क्या
नहीं कर सकती!
उस
तर्कशास्त्री
ने कहा कि मैं
जरा तर्क का
विद्यार्थी
हूं मुझे तुम
समझाओ कि क्या
मामला है? तो
उसने कहा ’देखते
हैं बैल के
गले में घंटी
बांध दी है!
बैल चलता रहता
है, घंटी
बजती रहती है।
तो मुझे घंटी
सुनाई पड़ती
रहती है। जब
तक बैल चलता
है, घंटी
बजती रहती है।
जैसे ही घंटी
रुकी कि मैं
उठा और मैंने
बैल को लगाई
चोट। तो बैल
को यह कभी पता
ही नहीं चलता
कि पीछे मालिक
नहीं है।
इसमें देर
नहीं होती; घंटी रुकी
कि मैंने कोड़ा
मारा। तो बैल
चलता रहता है,
घंटी बजती
रहती है। आंख
पर पट्टियां
बांध दी हैं।
तो बैल को कुछ
दिखाई तो पड़ता
नहीं कि मालिक
कहां है।’
तर्कशास्त्री
तर्कशास्त्री
था। उसने कहा :’ और
ऐसा भी तो हो
सकता है कि
बैल खड़ा हो
जाए और सिर
हिला कर घंटी
बजाए।’
उस
तेली ने कहा: ’महाराज, जोर
से मत बोलो, बैल न सुन ले!
तो और यह कहां
की झंझट आप आ
गए! अभी तक बैल
ने ऐसा किया
नहीं। धीरे
बोलो! और
दुबारा इस तरफ
इस तरह की बात
मत करना।’
जिनके
तुम बैल हो—कोई
हिंदू कोई
मुसलमान, कोई
ईसाई, कोई
जैन, कोई
बौद्ध; जिन
पंडित—पुरोहितो
के तुम बैल हो,
जिन्होंने
तुम्हारे गले
में घंटी
बांधी है—वे
तुम्हें
सुनने न देंगे
नए की बात। वे
अटकाव
डालेंगे।
उन्होंने
तुम्हारी आंख
पर पट्टिया
बांधी हैं।
उन्होंने सब
भांति इस तरह
इंतजाम किया
है कि तुम
अंधे की तरह
जीयो और अंधे
की तरह मर जाओ।
अगर तुम्हें
यह सत्य दिखाई
पड़ गया, तो
ही नए का
स्वागत संभव
है।
सत्य
नये और पुराने
का कोई संघर्ष
नहीं है—सत्य
और असत्य का
संघर्ष है।
असत्य अगर
तुम्हारे
जीवन में साफ—साफ
दिखाई पड़ गया
कि असत्य है, फिर
तुम सत्य के
लिए द्वार खोल
कर, बाहें
फैला कर
आलिंगन करने
को तत्पर हो
जाओगे।
हां, बहुत
दिन हो गए घर
छोड़े
अच्छा
था मन का
अवसन्न रहना
भीतर—
भीतर जलना, किसी
से न कहना
पर
अब बहुत ठुकरा
लिए पराई
गलियों के
अनजान रोड़े
नहीं
जानता कब कौन
संयोग
ये
डगमग भटकते पग
फिर
इधर मोडे या न
मोडे
पर
हां,
मानता हूं
कि जब तक
पहचानता हूं
कि
बहुत दिन हो
गए घर छोड़े।
अगर
तुम्हें इतनी
स्मृति आने
लगे कि घर
छोड़े बहुत दिन
हो गए, भटक लिए
बहुत, चल
लिए बहुत, घर
मिलता नही—तो
शायद नए स्वर,
सत्य का नया
रूपांतरण
तुम्हारे लिए
आकर्षण बन जाए।
स्वभावत:
पुराने के साथ
सुविधा है, क्योंकि
पुराने के साथ
भीड़ है। नए के
साथ सुविधा
नहीं है, क्योंकि
नए के साथ भीड़
कभी नहीं होती।
जब बुद्ध थे
तो भीड़ उनके
साथ न थी; अब
भीड़ उनके साथ
है। अभी मैं
हूं तो भीड़
मेरे साथ नहीं
है। दो हजार
साल बाद तुम
आना और देखना,
भीड़ तुम
मेरे साथ
पाओगे; लेकिन
तब वह बेकार
होगी, तब
मैं पुराना हो
चुका होऊंगा।
तब दो हजार
साल में मेरी
बातों पर खूब
धूल जम चुकी
होगी और पंडित—पुजारियों
ने उसके सब
अर्थ विकृत कर
दिए होंगे। तब
तुम भीड़ को
पाओगे। लेकिन
तब किसी अर्थ
की न रह जाएगी।
सत्य
को बार—बार
नया —नया आना
पड़ता है, क्योंकि
पंडित—पुजारी
उसको सदा
व्यर्थ कर
देते हैं, खराब
कर देते हैं।
सत्य जब भी
आता है तो कुछ
लोग उसके
दावेदार हो जाते
हैं और उस
दावे का लाभ
उठाने लगते
हैं। यह
स्वाभाविक है।
यह होता रहा
है। ऐसा होता
रहेगा। इसे
बदलने का कोई
उपाय नहीं।
तुम ही समझ लो,
बस इतना
काफी है।
पुराने
के साथ भीड़ है, पुराने
के साथ साख है।
अब मेरी बात
तो नई है। अगर
तुम वेद की
बात मानोगे तो
पांच हजार साल
पुरानी है। और
अगर तुम वेद
के पंडित से
पूछो तो वह
कहता है, नब्बे
हजार साल
पुरानी है।
इसलिए सभी
धर्मगुरु
अपने धर्म को
बहुत पुराना
सिद्ध करने की
कोशिश करते
हैं, क्योंकि
जितनी पुरानी
दूकान, उतनी
ही पुरानी साख।
और जब इतने
दिन तक दूकान
चलती रही तो
कुछ होगा, मालमत्ता
कुछ होगा, नहीं
तो कैसे चलती?
कोई ऐसे
कोरे दूकान
चलती है, बिना
बेचे कहीं कुछ
इतने दिन तक
चल सकती है? कहीं कुछ
होगा सत्व!
इसलिए
हर धर्म सिद्ध
करता है कि
हमारी दूकान पुरानी
है। जैन कहते
हैं कि हमारा
धर्म हिंदुओं
से भी ज्यादा
पुराना है। वे
भी प्रमाण
जुटाते हैं कि
ऋग्वेद में
उनके प्रथम
तीर्थंकर का
नाम है, आदिनाथ
का, ऋषभदेव
का नाम है।
निश्चित है कि
ऋग्वेद
ऋषभदेव से
पुराना नहीं।
एक बात तो
पक्की हो गई।
और नाम बड़े
आदर से लिया
गया है। तो
जैन कहते हैं
कि इतना आदर
समसामयिक
व्यक्ति के
प्रति होता ही
नहीं। इतने
आदर से तो नाम
तभी लिया जाता
है जब ऋषभदेव
को हजार दो
हजार साल बीत
गए हों। आदमी
ऐसे मरे —मराए
हैं कि मरों
को ही पूजते
हैं। तो दो
हजार साल, तीन
हजार साल
पुराना नाम
होना चाहिए
ऋग्वेद से।
ऋग्वेद में
उल्लेख है तो
ऋषभदेव का नाम
तीन हजार साल
पुराना कम से
कम होना चाहिए।
तब कहीं इतना
आदर लोग कर
पाते हैं।
जिंदा का कहीं
कोई आदर करता
है? जिंदा
से तो लोग
डरते हैं।
जिंदा से लोग
बचते हैं। आदर
की बात दूर, निंदा करते
हैं, विरोध
करते हैं। ही,
समय बीत
जाता है, तब
पूजा शुरू हो
जाती है।
तो
जैन सिद्ध
करते हैं, उनका
धर्म पुराना
है। हिंदू
सिद्ध करते
हैं, उनका
धर्म पुराना
है। सब अपनी—
अपनी तरकीब
खोजते हैं कि
दूकान हमारी
बड़ी पुरानी है,
इतने लंबे
दिनों से चली
आई है! क्यों? क्योंकि
पुराने के साथ
प्रतिष्ठा हो
जाती है।
जितनी लंबी
परंपरा उतनी
प्रतिष्ठित
हो जाती है।
फिर यह सवाल
उठने लगता है
कि जब इतने
करोड़—करोड़
लोगों ने इतने
हजारों—हजारों
वर्ष तक माना
है कुछ, तो
सच होगा ही।
भीड़......
भीड़ दो तरह से
जुटाई जाती है।
एक तो भीड़
राजनीतिज्ञ
जुटाता है।
राजनीतिज्ञ
भीड़ जुटाता है
समसामयिक, कटेम्परेरी;
जैसे अभी
कार्टर जीत
गया, फोर्ड
हार गए, तो
कार्टर ने
सिद्ध कर दिया
कि भीड़ मेरे
साथ है, मौजूदा
भीड़ मेरे साथ
है, फोर्ड
के साथ नहीं।
यह समसामयिक
हिसाब है
राजनीति का।
धर्म भी भीड़
जुटाते हैं, —लेकिन दूसरे
ढंग से—वे
जुटाते हैं
पीछे की तरफ:
पांच हजार साल
से भीड़ हमारे
साथ है; जोड़ो,
कितने लोग!
पचास हजार साल
से भीड़ हमारे
साथ है; जोड़ो,
कितने लोग!
अरबों —खरबों
लोग हमारे साथ
रहे हैं, गलत
हो सकते हैं? नहीं, कैसे
गलत हो सकते
हैं? इतने
लोग धोखा खा
सकते हैं? एकाध
को धोखा दे लो,
दो —चार को
धोखा दे लो, अरबों—खरबों
को धोखा दे
पाओगे?
बात
कुछ और ही है।
भीड़ के पास
सत्य कभी नहीं
होता। सत्य तो
कभी विरलों के
पास होता
है।
भीड़ तो सदा
असत्य से जीती
है। भीड़ सत्य
चाहती ही नहीं।
भीड़ के लिए
असत्य बड़ा शुभ
है,
सुंदर है।
असत्य भीड़ को
बदलने से
बचाता है, सुरक्षा
करता है, तुम
जैसे हो, ठीक
हो। सत्य तो
तिलमिलाता है।
सत्य तो जलाता
है, तोड़ता
है, काटता
है, खंड—खंड
कर देगा। तुम
जैसे हो, इसमें
क्रांति
उमगेगी। तो
सत्य तो भीड़
कभी मानती
नहीं। सत्य तो
कभी विरले
लोगों के पास
होता है, कभी
एकाध......। लेकिन
तब वह नया
होता है—नए
होने के कारण
समादृत नहीं
होता। जब तक
पुराना होगा,
तब तक असत्य
हो जाएगा। समय
की धार सत्य
को असत्य कर
जाती है।
तो
पहले तो तुम
ठीक से समझ
लेना कि
पुराने को तुम
पकड़े क्यों हो? पुराने
का ठीक
विश्लेषण कर
लेना। जैसे—जैसे
विश्लेषण
स्पष्ट होने
लगेगा, अपने—
आप पुराना
गिरेगा। तुम
तैयार हो
जाओगे नए के
स्वागत को।
क्योंकि नया
जीवन है, नया
परमात्मा है।
नया होना ही
सत्य का ढंग
है। सत्य
चिरनवीन है।
पुराने
शब्द होते हैं, सत्य
नहीं। पुराने
शास्त्र हो
जाते हैं; सत्य
का अनुभव नहीं,
समाधि नहीं।
और जो सत्य के
साथ होना चाहे
उसे थोड़ी
हिम्मत तो
चाहिए, साहस
तो चाहिए। उसे
भीड़ से अन्यथा
चलना होगा।
लोग हंसेंगे।
लोग आलोचना
करेंगे। लोग
मजाक उड़ाके।
लोग मजाक
उड़ाते ही
इसीलिए हैं, ताकि
तुम्हारी
हिम्मत भी न
हो नए के साथ
जाने की। और
लोग मजाक
इसलिए भी उड़ाते
हैं, आलोचना
इसलिए भी करते
हैं; क्योंकि
वे खुद भी डरे
हुए हैं कि
अगर इस तरह सुविधा
दी लोगों को
जाने की तो
उनका पुराना
ढांचा बिखर
जाएगा।
पुराने ढांचे
के साथ बड़े
न्यस्त
स्वार्थ जुड़ गए
हैं। नए के
साथ तुम अकेले
हो जाओगे, अकेले
होकर डर लगेगा,
तुम कंपोगे।
अब
कोई व्यक्ति
मेरा
संन्यासी हो
जाता है तो वह खतरा
ले रहा है।
सिर्फ
हिम्मतवर लोग, दुस्साहसी
लोग ही खतरा
ले सकते हैं।
क्योंकि सब
तरह की अड़चन
उसे आएगी; जहां
जाएगा, मुश्किल
में पड़ेगा।
एक
मित्र ने
संन्यास लिया।
उनकी पत्नी
मेरे पास आई।
उसने कहा कि
इनको अगर
संन्यासी ही
होना है तो
पुराने ढब के
हो जाएं, कम से
कम आदर—प्रतिष्ठा
तो रहेगी। वह
घर से छोड़ने
को राजी है
पति को, मगर
कहती है कि ’कम
से कम पुराने
ढंग के हो
जाएं, चले
जाएं छोड़ कर, मैं बच्चों
को सम्हाल
लूंगी। मगर यह
आपका संन्यास
तो बड़ा खतरनाक
है।’
मेरे
संन्यास में पति
घर छोड़ कर
नहीं जा रहा
है;
पत्नी की
फिक्र रखेगा,
नौकरी जारी
रखेगा, बच्चों
की चिंता
करेगा। तो भी
पत्नी कहती है
:’नहीं! कि यह
नहीं चलेगा।
ये पुराने ढंग
के हो जाएं, जाएं
हिमालय! उससे
हम राजी हैं, कम से कम लोग
यह तो कहेंगे
कि संन्यास
लिया, समादर
तो मिलेगा। अभी
तो लोग कहते
हैं, ये
भ्रष्ट हो गए।’
पति
को छोड़ने को
राजी है, पति
के बिना जीने
को राजी है!
अहंकार का
कैसा मजा है!
लेकिन भ्रष्ट
हो गए, इससे
चोट लगती है।
कहने लगी कि
अगर ढंग से
संन्यास लेते—वें
जैन है—तो
शोभायात्रा
निकलती; दूर—दूर
से लोग
रिश्तेदार
इकट्ठे होते,
पूजा—प्रतिष्ठा
होती।
वह
सोच रही है कि
वह बड़ी गहरी
बातें कह रही
है। वह इतना
ही कह रही है
कि अहंकार पर
कुछ और फूलमालाएं
चढ़ जातीं। सह
लेते दुख इनको
छोड़ने का, मगर
प्रतिष्ठा तो
बनी रहती। मगर
यह तो बड़ा
उपद्रव कर
लिया। अब जहां
जाओ, वहीं
मुसीबत है।
मेरा
संन्यास तो
अड़चन में
डालेगा। और
संन्यास ही
क्या जो अड़चन
में न डाले!
क्योंकि उसी
अड़चन से, चुनौती
से तो
तुम्हारे
जीवन का विकास
होगा। उसी
चुनौती पर तो
धार रखी जाएगी।
उसी पर तो
तुम्हारी
तलवार में धार
आएगी। लोग
हंसेंगे, विरोध
करेंगे। लोग
कहेंगे: यह भी
कोई संन्यास
है! हजार
आलोचना
करेंगे, विवाद
करेंगे। और
फिर भी तुम
डटे रहे तो
तुम्हारे
जीवन में कुछ
बल पैदा होगा।
पुराने
ढंग का
संन्यास तो अब
कूड़ा—कचरा है!
अहंकार की
पूजा उससे हो
जाएगी, लेकिन
सत्य का कोई
अनुभव न होगा।
क्योंकि
अहंकार से बड़ी
और कोई बाधा
नहीं है सत्य
के अनुभव में।
आखिरी
प्रश्न :
आपने
कहा कि कर्म
करते हुए कर्ता—
भाव नहीं रखना
है और जो होता
है उसे होने
देना है। इस
हालत में
कृपया बताएं
कि मनष्य फिर
कर्तव्य और
अकर्तव्य का
निर्णय कैसे
करे?
जो हो
सहज,
वही
कर्तव्य है।
जो करना पड़े
जबर्दस्ती, वही
अकर्तव्य है।
तुम चौंकोगे,
क्योंकि
तुम्हारी
परिभाषा ठीक
उल्टी है। तुम
तो कर्तव्य
उसी को कहते
हो जो मजबूरी
में करना पड़ता
है। बाप बीमार
है, पैर
दबा रहे हैं—तुम
कहते हो, कर्तव्य
कर रहे हैं।
कर्तव्य कर
रहे हैं—मतलब
कि ’मरो भी! या
ठीक हो जाओ, कर्तव्य तो
न करवाओ। अब
यह किन पापों
का फल भोग रहे
हैं, कि
अभी फिल्म
देखने गए होते,
कि क्लब में
नाच हो रहा है,
कि रोटरी
क्लब की बैठक
हो रही है, और
अब यह बाप के
पांव दबाने पड़
रहे हैं!
किसने तुमसे
कहा था कि
हमको जन्म दो?'
ये सब विचार
उठ रहे हैं।
कर्तव्य
का मतलब तुम
समझते हो? कर्तव्य
का मतलब है: जिसे
तुम करना नहीं
चाहते और करना
पड़ता है। तुम
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ जाते हो, तब तुम यह तो
नहीं कहते कि
यह कर्तव्य है।
तब तुम कहते
हो : प्रेम!
लेकिन जब तुम
मां को देखने
जाते हो तो
कहते हो, कर्तव्य
है। तुम अपनी
प्रेयसी से
मिलने जाते हो,
तब तुम नहीं
कहते कि
कर्तव्य, यद्यपि
जब तुम घर
लौटते हो
पत्नी से
मिलने, तब
कहते हो, कर्तव्य
है। जो करना
पड़े।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन घर आया और
उसने देखा कि
उसका मित्र
उसकी पत्नी को
चूम रहा है।
वह एकदम सिर
ठोक कर खड़ा हो
गया। उसने कहा:
’मुझे तो करना
पड़ता है, तू
क्यों कर रहा है?'
उसे भरोसा
ही न आया।
कर्तव्य
का अर्थ ही है:
नहीं करना था, फिर
भी करना पड़ा।
मन से नहीं
किया, हृदय
से नहीं किया—यह
कोई कर्तव्य
हुआ? तुम्हारा
’कर्तव्य' तो
गंदा शब्द है।
तो मैं तो
तुमसे कहता
हूं: वही करना,
जो सहज हो।
धोखा मत देना।
अगर पैर न
दबाने हों
पिता के तो
क्षमा माग
लेना, कहना
कि भाव नहीं
उठता, झूठ
न करूंगा। ही,
सहज उठता हो
भाव, तो ही
दाबना। मैं
मानता हूं कि
तुम्हारे
पिता भी
प्रसन्न होंगे,
क्योंकि
मेरा यह अनुभव
है कि अगर तुम
जबर्दस्ती
पिता के पैर
दाब रहे हो तो
पिता प्रसन्न
नहीं होते।
जबर्दस्ती से
कोई प्रसन्नता
कहीं नहीं
फलती। जब
तुम्हीं
प्रसन्न नहीं
हो तो
तुम्हारे हाथ की
ऊर्जा और
गर्मी और
तुम्हारे हाथ
की तरंग—तरंग
कहेगी कि तुम
जबर्दस्ती कर
रहे हो, कर
रहे हो, ठीक
है! करना पड़
रहा है। उधर
पिता भी पड़े
देख रहे हैं
कि ठीक है!
मजबूरी है तो
कर रहे हो। न
तुम प्रसन्न
हो, न पिता
प्रसन्न हैं।
न तुम आनंदित
हो, न तुम
उन्हें
आनंदित कर
पाते हो।
जो
आनंद से पैदा
नहीं होता, वह
आनंद पैदा कर
भी नहीं पाता।
आनंद से बहेगी
जो धार, उसी
से आनंद फलता
है। तो तुम कह
देना साफ, भीतर
कुछ, बाहर
कुछ मत करना।
बाहर पैर दाब
रहे हैं और
बड़े आज्ञाकारी
पुत्र बने
बैठे हैं और
भीतर कुछ और सोच
रहे हैं, विपरीत
सोच रहे हैं, क्रोधित हो
रहे हैं। सोच
रहे हैं, समय
खराब हुआ, विश्राम
कर लेते, वह
गया। लेकिन
तुम अपने साथ
झूठ हो रहे हो
और तुम पिता के
सामने भी सच
नहीं हो। मैं
नहीं कहता, ऐसा कर्तव्य
करो। मैं कहता
हूं तुम क्षमा
मांग लेना।
कहना कि क्षमा
करें।
ऐसा
बचपन में मेरे
होता था। मेरे
दादा थे, उनको
पैर दबवाने का
बहुत शौक था।
वे हर किसी को
पकड़ लेते कि
चलो, पैर
दाबो। कभी—कभी
मैं भी उनकी
पकड़ में आ
जाता। तो कभी
मैं दाबता, जब मेरी मौज
में होता; और
कभी मैं उनसे
कह देता, क्षमा
करें, अभी
तो भीतर मैं
गालियां
दूंगा।
दबवाना हो
दबवा लें, लेकिन
मैं दाबूंगा
नहीं। यह
कर्तव्य होगा।
अभी तो मैं
खेलने जा रहा
हूं।
धीरे
— धीरे वे समझे।
एक दिन मैंने
सुना, वे मेरे
पिता से कह
रहे थे कि जब
यह मेरे पैर
दाबता है तो
जैसा मुझे
आनंद मिलता है,
कभी नहीं
मिलता।
हालांकि यह
सदा नहीं
दाबता। मगर जब
यह दाबता है
तो इस पर
भरोसा किया जा
सकता है कि यह
दाब रहा है और
इसे रस है।
कभी—कभी तो यह
बीच दाबते —दाबते
रुक जाता है
और कहता है, बस क्षमा:।
'क्यों भाई, क्या हो गया,
अभी तो तू
ठीक दाब रहा
था।’
'बस, अब बात
खतम हो गयी, अब मेरा
इससे आगे मन
नहीं है।’
वे
जितने
प्रसन्न
मुझसे थे, कभी
परिवार में
किसी से भी
नहीं रहे।
हालांकि उनके
बेटे तो उनके
पैर दाबते थे,
मगर वे उनसे
प्रसन्न नहीं
थे। मैं तो
छोटा था, ज्यादा
उनके पैर दाब
भी नहीं सकता
था। फिर तो
धीरे — धीरे वे
मुझसे पूछने
लगे कि आज मन
है? उन्होंने
यह कहना बंद
कर दिया कि
चलो, पैर
दाबों। फिर तो
धीरे— धीरे
मैं खुद भी जब
कभी मुझे मन
होता, मैं
उनसे जा कर
कहता:’ आपका मन
है? आज मैं
राजी हूं।’
जीवन
को जितने दूर
तक बन सके, छोटे
से छोटे काम
से ले कर, सहज
करना उचित है,
क्योंकि सहज
ही धीरे — धीरे
समाधि बन जाता
है। वही करना
जो तुम्हारे
आनंद से हो
रहा हो। और
तुम लंबे
अर्से में
पछताओगे नहीं।
हो सकता है, तत्क्षण
अड़चन मालूम
पड़े। लेकिन
झूठ झूठ है और तत्क्षण
कितना
ही
सुविधापूर्ण
मालूम पड़े, अंततः
तुम्हें जाल
में उलझा
जाएगा। तुम
साफ—साफ होना।
इसको मैं
प्रामाणिक
होना कहता हूं।
पूछा
है तुमने: ’मनुष्य
फिर कैसे तय
करे—क्या
कर्तव्य, क्या
अकर्तव्य?'
तय
करने की बात
ही नहीं है।
जो सुखद, जो
प्रीतिकर—वही
कर्तव्य। जो
प्रीतिकर
नहीं, जो
सुखद नहीं—वही
अकर्तव्य।
तुम्हें
उल्टा सिखाया
गया है, इसलिए
उलझन पैदा हो
रही है।
तुम्हें
सिखाया गया है
प्रीतिकर—अप्रीतिकर
का कोई सवाल
नहीं है, सहज—असहज
का कोई सवाल
नहीं है—अरे
जैसा चाहते
हैं, वैसा
करो तो
कर्तव्य; तुम
जैसा चाहते हो,
वैसा करो तो
अकर्तव्य हो
गया। तो हर
व्यक्ति
दूसरे के
हिसाब से जी
रहा है। इसलिए
तो कम लोग जी
रहे हैं, अधिक
लोग तो मरे—मराए
हैं, जी ही
नहीं रहे हैं।
यह कोई जीने
का ढंग है? दूसरों
की अपेक्षाएं
पूरी करने में
जीवन बिता रहे
हो, फिर
कैसे सुगंध
होगी, फिर
कैसे संगीत
जन्मेगा, फिर
तुम कैसे
नाचोगे? सदा
दूसरे की आकांक्षा
पूरी कर रहे
हो।
एक
मां अपने बेटे
को कह रही थी
कि बेटा, सदा
दूसरों की
सेवा करनी
चाहिए। उसने
पूछा: ’क्यों?' उसकी मां ने
कहा: ’क्यों!
शास्त्र ऐसा
कहते हैं।
भगवान ने
इसीलिए तो
बनाया हमें कि
हम दूसरों की
सेवा करें।’ उस
बेटे ने कहा’ और
दूसरों को
किसलिए बनाया
है? इसका
भी तो कुछ
उत्तर होना
चाहिए। हम उनकी
सेवा करें, इसलिए बनाया
है, और
हमको इसीलिए
बनाया है कि
वे हमारी सेवा
करें। तो सब
अपनी— अपनी
सेवा न कर लें
भू: यह इतना
जाल क्यों
फैलाना?’
तुम
अपेक्षा
दूसरे की पूरी
करो,
दूसरे
तुम्हारी
अपेक्षाएं
पूरी कर रहे
हैं। न वे
प्रसन्न हैं,
न तुम
प्रसन्न हो।
जगत बिलकुल
उदास हो गया
है।
नहीं, यही
मेरी मौलिक क्रांति
है जो मैं
तुम्हें देना
चाहता हूं।
तुम वही करो
जो तुम्हारा
आनंद है, चाहे
कुछ भी कीमत
हो। तुम कभी
वह मत करो जो
तुम्हारा
आनंद नहीं है।
चाहे उसके लिए
तुम्हें
कितना ही
चुकाना पड़े, तुम आखिर
में पाओगे कि
तुम जीते, हारे
नहीं। और मैं
तुमसे यह भी
कहता हूं कि
चाहे शुरू—शुरू
में लोग तुमसे
परेशान हों; क्योंकि
उनकी आदतें
खराब कर ली
हैं तुमने इसलिए,
समाज विकृत
हो गया है
इसलिए, लेकिन
धीरे— धीरे
तुम्हारी
प्रामाणिकता
समझेंगे। तुम
पर भरोसा किया
जा सकता है, ऐसा मानेंगे,
क्योंकि
तुम
प्रामाणिक हो।
सत्य
अंततः किसी को
भी नुकसान
नहीं
पहुंचाता।
शुरू—शुरू में
कई दफे लगता
है कि नुकसान
पहुंचाता है।
असत्य मत होओ
और भावों को
तो कभी झुठलाओ
मत। अगर इस
प्रक्रिया
में तुम पड़ गए
झुठलाने की तो
तुम धीरे —
धीरे झूठ का
एक संग्रह हो
जाओगे, जिसमें
से जीवन की आग
बिलकुल खो
जाएगी, राख
ही राख रह
जाएगी। और अगर
तुम सहज बनने
लगो तो तुम
अचानक पाओगे परमात्मा
को खोजने के
लिए कुछ भी
नहीं करना पड़ता;
तुम्हारी
सहजता के ही
झरोखे से किसी
दिन परमात्मा
भीतर उतर आता
है। क्योंकि
परमात्मा
यानी सहजता।
ज्ञात
नहीं जाने किस
द्वार से
कौन
से प्रकार से
मेरे गृह—कक्ष
में
दुस्तर
तिमिर दुर्ग
दुर्गम
विपक्ष में
उज्ज्वल
प्रभामयी
एकाएक
कोमल किरण एक
आ गयी
बीच
से अंधेरे के
हुए दो टूक
विस्मय—विमुग्ध
मेरा मन पा
गया अनंत धन!
तुम्हें
पता भी न
चलेगा कि कब
किस अज्ञात
क्षण में, बिना
कोई खबर दिये अतिथि
की भांति
परमात्मा
द्वार पर
दस्तक दे देता
है।
धर्म
के इतने जाल
की जरूरत नहीं
है,
अगर तुम सहज
हो। क्योंकि
सहज होना यानी
स्वाभाविक
होना, स्वाभाविक
होना यानी
धार्मिक होना।
महावीर ने तो
धर्म की
परिभाषा ही
स्वभाव की है
बत्यु सहावो
धम्मो! जो
वस्तु का
स्वभाव है, वही धर्म है।
जैसे आग का
धर्म है जलाना,
पानी का
धर्म है नीचे
की तरफ कहना—ऐसा
अगर मनुष्य भी
अपने स्वभाव
में जीने लगे
तो बस हो गयी
बात। कुछ करना
नहीं है। सहज
हो गये कि सब
हो गया।
राम
जी,
भले आए
ऐसे
ही आधी की ओट
में चले आए!
बिन
बुलाए!
आए, पधारी!
सिर
आंखों पर
बंदना सकासे!
ऐसे
ही एक दिन
डोलता हुआ आ
धमकूगा मैं
तुम्हारे
दरबार में
औचक
क्या ले सकोगे
अपनी करुणा के
पसार में?
राम
जी,
भले आए!
ऐसे
ही आधी की ओट
में चले आए!
बिन
बुलाए!
आए, पधारो!
सिर
आंखों पर
बंदना सकासे!
परमात्मा
ऐसे ही आता है, चुपचाप,
पगध्वनि भी
सुनायी नहीं
पड़ती। कोई
शोरगुल नहीं
होता। योग, तप—जप, कोई
जरूरत नहीं
पड़ती—अगर तुम
सहज हो जाओ; अगर तुम शांत,
आनंदमग्न
जीने लगो। और
आनंदमग्न
जीने का एक ही
उपाय है:
अपेक्षाएं
पूरी करने मत
लग जाना।
जिनकी तुम
अपेक्षाएं
पूरी करोगे, उन्हें तुम
कभी प्रसन्न न
कर पाओगे, यह
और एक मजा है।
तुम अपने को
विकृत कर लोगे
और वे कभी
प्रसन्न न
होंगे।
क्योंकि
तुम्हारे
प्रसन्न हुए
बिना वे कैसे प्रसन्न
हो सकते हैं?
तुमने
देखा, तुम्हारी
पत्नी तुमसे
प्रसन्न है? हालांकि तुम
सिर धुनते
रहते हो कि
तेरे लिए ही
मरा जाता हूं
पिसा जाता हूं, सिर तोड़ता
दिन—रात—और तू
प्रसन्न नहीं
है! तुम्हारे
बच्चे तुमसे प्रसन्न
हैं? हालाकि
तुम छाती पीट—पीट
कर यही कहते
रहते हो कि
तुम्हारे लिए ही
जी रहा हूं
अन्यथा जीने
में और क्या
है? तुम पढ़—लिख
जाओ, तुम
बड़े हो जाओ, सुख—संपन्नता
को उपलब्ध हो
जाओ—इसीलिए सब
कुछ लुटाए जा
रहा हूं।
तुम्हारे लिए
सब कुछ दाव पर
लगाया है और
तुम अनुगृहीत
भी नहीं हो!
तुम
अपेक्षाएं
पूरी कर रहे
हो तो तुम
प्रसन्न तो हो
ही नहीं सकते।
जब तुम
प्रसन्न नहीं
हो तो
तुम्हारे बच्चे
प्रसन्न नहीं
हो सकते। वे
जानते हैं, जबर्दस्ती
तुम कर रहे हो।
तुम्हारे ढंग
से पता चलता
है। बाप कहते
हैं बच्चों के
सामने कि
तुम्हारे लिए
घसिट रहे हैं,
मर रहे हैं,
खप रहे हैं!
यह कोई बात
हुई? यह
कोई प्रेम हुआ?
यह
तुम्हारा
आनंद हुआ? यह
तो आलोचना हुई।
यह तो शिकायत
हुई। यह तो
तुम यह कह रहे
हो कि न हुए
होते पैदा तो
अच्छा था, तुम्हारी
वजह से यह सब
झंझट हो रही
है कि अब कर ली
है शादी तो अब ठीक
है। लेकिन
इससे
तुम्हारी
पत्नी
प्रसन्न होगी?
और ये बच्चे
तुमसे यह सीख
रहे हैं। ये
अपने बच्चों
के साथ यही
करेंगे। ऐसे
भूलें दोहराई
जाती हैं पीढ़ी—दर—पीढ़ी।
तुम प्रसन्न
हो जाओ!
तुम
अगर काम कर
रहे हो तो एक
बात ईमानदारी
से समझ लो कि
तुम अपने आनंद
के लिए कर रहे
हो। बच्चों का
उससे हित हो
जाएगा, यह
गौण है, यह
लक्ष्य नहीं
है। तुम्हारी
पत्नी को
वस्त्र और
भोजन मिल
जाएगा, यह
गौण है, यह
लक्ष्य नहीं
है। काम तुम
अपने आनंद से
कर रहे हो, यह
तुम्हारा
जीवन है। तुम
आनंदित हो इसे
करने में। और
यह तुम्हारी
पत्नी है, तुमने
इसे चाहा है
और प्रेम किया
है, इसलिए
तुम......:। यह कोई
सवाल ही नहीं
है कहने का कि
मैं खपा जा रहा
हूं मैं मरा
जा रहा हूं।
यह कोई भाषा
है? यह तुम
बच्चों से कह
रहे हो, उनके
मन में जहर
डाल रहे हो।
इन्होंने
तुम्हारी कभी
प्रसन्न
मुद्रा नहीं
देखी।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दफा फोटो
निकलवाने गया, तो
बहुत तरह से
कैमरा जमाया
फोटोग्राफर
ने, लेकिन
उनकी शक्ल ठीक
बने ही न। तो
उसने कहा कि
बड़े मियां, एक क्षण को
मुस्कुरा दो,
फिर आप अपनी
स्वाभाविक
मुद्रा में आ
जाना!
मुस्कुराना
लोग भूल गए
हैं,
हंसना भूल
गए हैं! हंसना
पाप जैसा
मालूम पड़ता है।
लोग रोती
सूरतें बना
लिए हैं।
इन्हीं रोती
सूरतो को लेकर
परमात्मा के
पास जाओगे? उस पर कुछ तो
दया करो! और
इशारा समझ में
आ जाए तो छोटा—सा
इशारा काफी है।
राह
में एक सितारा
भी बहुत होता
है
आंखवाले
को इशारा भी
बहुत होता है
बीच
मझधार में
जाने की जरूरत
क्या है
डूबना
हो तो किनारा
भी बहुत होता
है
सहजता
सूत्र है।
जागना हो तो
सहजता के
सूत्र को पकड़
लो। और सब खो
जाए,
सहजता का
धागा न खोए!
तुम्हारे
जीवन की सारी
मणियां सहजता
के धागे में
पिरो जाएं!
तुम गजरे बन
जाओगे
उसके
गले के योग्य!
निहारिका
से द्वंद्व कर
रविकर—निकर
विजयी बने
प्रत्यूष
के पीयूष—कण
पहुंचा रहे
तुम तक घने
कोमल
मलय के स्पर्श
—सौरभ से
हिमानी से सने
दुलरा
तुम्हें जाते, जगाते,
कूजते तरु
के तने
भोले
कुसुम, भूले
कुसुम, जो
आज भी जागे न
तुम
तो
और जागोगे भला
किस जागरण—
क्षण में
कुसुम?
यह
स्वप्न
टूटेगा न क्या, भोले
कुसुम, भूले
कुसुम!
लो
तितलियां
मचली चलीं
सतरंग
चीनांशुक पहन
छवि
की पुतलियों—सी
मचलती, मदभरे
जिनके नयन
हर
एक कलि के कान
में कहती हुई :’जागो
बहन!'
जागो
बहन,
दिन चढ़ गया,
खोलो नयन, धो लो बदन,
अनमोल
रे यह क्षण, न
खोने का शयन
बनमय कुसुम,
कब
और जागोगे भला, भोले
कुसुम, भूले
कुसुम!
सब
मौजूद है और
तुम सोये हो!
हवा चल उठी, सूरज
निकल आया, तितलियां
गंजने लगीं, मलय बहार
बहने लगी और
कहने लगी जागो
कुसुम, भूले
कुसुम! सब
तैयार है, सुबह
हो गई, तुम
सोए पड़े! तुम
बेहोश पड़े!
परमात्मा
प्रतिपल
तैयार है, लेकिन
तुम ऐसे
अंधेरे में और
ऐसी उदासी में
और ऐसे नर्क
में घिरे हो!
और नर्क
तुम्हारा
अपना बनाया
हुआ है। तुम
उसके कारण हो।
हजारों
लोगों के जीवन
में देख कर
मैं यह पाता हूं
कि तुम अपने
नर्क के कारण
हो। और मैं यह
नहीं कहता कि
अतीत जन्मों
में तुमने कोई
पाप किए थे, इसलिए
तुम नर्क में
हो। मैं तुमसे
कहता हूं : अभी
तुम
भ्रांतियां
कर रहे हो, इसलिए
तुम नर्क में
हो। क्योंकि
अतीत जन्मों
में किए पापों
को ठीक करने
का कोई उपाय
नहीं। अब तो
पीछे जाने की
कोई जगह नहीं।
वह तो धोखा है।
मैं तो तुमसे
कहता हूं : अभी
भी तुम वही कर
रहे हो। उनमें
एक बुनियादी
बात है: सहजता
को मत छोड़ना।
कबीर
ने कहा है :
साधो सहज
समाधि भली!
तुम
सहज और सत्य
और सरल...... फिर जो
भी कीमत हो, चुका
देना। यही
संन्यास है।
कीमत चुकाना
तपश्चर्या है।
तुम झूठ मत
लादना। तुम
झूठे मुखौटे
मत पहनना।
झेन
फकीर कहते हैं
: खोज लो अपना
असली चेहरा, ओरिजिनल
फेस। सहजता
असली चेहरा है।
जीसस ने कहा :
हो जाओ फिर
छोटे बच्चों
की भाति! सहजता
छोटे बच्चों
की भांति हो
जाना है। और
वही
अष्टावक्र का
संदेश है, देशना
है, कि
जैसे हो वैसे
ही, इसी
क्षण घटना घट
सकती है; सिर्फ
एक बात छोड़ दो,
अपने को कुछ
और— और बताना
छोड़ दो। जो हो,
बस वैसे......।
शुरू
में निश्चित
कठिनाई होगी, लेकिन
धीरे— धीरे
तुम पाओगे, हर कठिनाई
तुम्हें नए—नए
द्वारों पर ले
आई और हर
कठिनाई
तुम्हारे जीवन
को और मधुर कर
गई और हर
कठिनाई ने
तुम्हें सम्हाला
और हर कठिनाई
ने तुम्हें
मजबूत किया, तुम्हारे
भीतर बल को
जगाया! धीरे—
धीरे कदम—कदम
चल कर एक दिन
आदमी
परिपूर्ण सहज
हो जाता है।
तब उसके जीवन
में कोई दुराव
नहीं रह जाता,
कोई कपट
नहीं रह जाता।
इस जीवन को ही
मैं धार्मिक
जीवन कहता हूं।
हरि ओंम
तत्सत्!
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