मंगलवार, 3 जून 2014

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन--10

आगे बढ़—प्रवचन—दसवां


ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; 14 फरवरी, 1973


अब तू उस खाई को पार कर चुका है, जो मानवीय वासनाओं के द्वार को घेर कर खड़ी है। अब तू "काम' और उसकी दुदात सेना पर विजय पा चुका है।
तूने अपने हृदय से अशुद्धियों को निकाल दिया है और कलुषपूर्ण वासनाओं से अब वह मुक्त है। लेकिन ओ गौरवशाली योद्धा, तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ओ शिष्य (लानू) पवित्र-द्वीप को घेरने वाली दीवार को ऊंचा उठा। यही वह बांध होगा जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है।
अहंकार का भाव काम को बिगाड़ कर धर देगा, अतः मजबूत बांध बना, नहीं तो कहीं लड़ाकू लहरों की भयानक बाढ़ जो महा संसार के माया के समुद्र से आकर इसके किनारों पर चढ़ाई और चोट करती है, यात्री और उसके द्वीप को ही न निगल जाए। हां यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो।

तेरा द्वीप हिरण है और तेरे विचार कुत्ते हैं, जो जीवन की ओर उसकी यात्रा का पीछा कर उसकी प्रगति को अवरुद्ध करते हैं। उस हिरण के लिए शोक है, जिसे भूंकते कुत्ते उसके ध्यानमार्ग नाम की शरणस्थली पर पहुंचने के पहले ही पराजित कर देते हैं।
हे सुख-दुख के विजेता, इसके पहले कि तू ध्यान-मार्ग में स्थित हो और उसे अपना कहे, तेरी आत्मा को पके आम के जैसा होना है। दूसरे के दुखों के लिए उसके चमकदार व सुनहरे गूदे की तरह और अपनी पीड़ा व शोक के लिए उसकी पथरीली गुठली की तरह।
अहंकार के नागपाश से बचने के लिए अपनी आत्मा को कठोर बना, उसे वज्र आत्मा नाम पाने के योग्य बना।
क्योंकि जिस प्रकार धरती के धड़कते हृदय की गहराई में गड़ा हीरा धरती के प्रकाशों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है, उसी प्रकार का तेरा मन और आत्मा है, ध्यान-मार्ग में डूब कर उसे भी माया के जगत की भ्रांति-भरी शून्यता को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।

सारी वासनाओं के मूल में काम-वासना है।
वासना का रूप कोई भी हो, गहरे में खोजेंगे तो काम को ही पाएंगे।
हिंदुओं ने तो जगत के सृजन में ही काम को मूल माना है; सारी सृष्टि कामवासना का ही फैलाव है। चाहे कोई धन चाहता हो, चाहे कोई पद चाहता हो, चाह मात्र अपने मौलिक रूप में कामना है, काम-वासना है। धन भी इसलिए चाहा जाता है, पद भी इसलिए चाहा जाता है। ए प्रकारांतर से अलग-अलग द्वारों से एक ही वासना की तरफ ले जाते हैं। तो जिसने काम-वासना पर विजय पा ली, उसने सभी वासनाओं पर विजय पा ली।
काम-वासना क्या है?
अगर हम वैज्ञानिकों से पूछें तो वे कहते हैं, आदमी के जीवन में दो बातें बहुत आधारभूत हैं। एक तो जीवन बचना चाहता है, सरवाइव करना चाहता है, जीवन नष्ट नहीं होना चाहता है, जीवेषणा है। मैं जीऊं अकारण, इसका कोई कारण नहीं है। अगर कोई आपसे पूछे, आप क्यों जीना चाहते हैं, तो आप कोई कारण नहीं बता सकेंगे। जीना चाहते हैं, यह अकारण है, बस ऐसा है। यह वैसे ही अकारण है जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम हो कर भाप बन जाता है। अगर हम पूछें कि क्यों सौ डिग्री पर पानी भाप बन जाता है, नब्बे डिग्री पर बनने में क्या अड़चन थी, या एक सौ दस डिग्री पर बनता, तो क्या हर्जा हो जाता? अगर हम वैज्ञानिक से पूछें कि हाईड्रोजन आक्सीजन से मिल कर ही पानी क्यों बनता है? कोई उत्तर नहीं है। बनता है, क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ठीक ऐसे ही जीवन जीना चाहता है, क्यों का कोई सवाल नहीं है। जो भी है वह मिटना नहीं चाहता है। होने में ही बने रहने की कामना छिपी है।
इस कामना के दो रूप हो जाते हैं। आप भी होना चाहते हैं, रहना चाहते हैं, बचना चाहते हैं, अमरत्व की आकांक्षा है। न मिटें, ऐसा गहरे में छिपा है, इसलिए आदमी सब तरह से अपनी सुरक्षा करता है। लेकिन व्यक्ति की मृत्यु तो होगी। कितना ही उपाय हो, कितनी ही सुरक्षा हो, व्यक्ति मरेगा। क्योंकि व्यक्ति का जन्म होता है।
लेकिन व्यक्ति के भीतर जो जीवन है, वह बच सकता है। आपकी लहर मरेगी, लेकिन आपके भीतर जो सागर है जीवन का, वह बच सकता है। काम-वासना उसी जीवन की बचने की चेष्टा है। आप मिट जाएंगे, लेकिन आपके भीतर से जीवन निकल कर नए रूप ले लेगा। और इसके पहले कि आप मिटें, आपके भीतर जो जीवन की धारा छिपी है, वह नए शरीर खोज लेगी। आप खो जाएंगे, लेकिन आपका कुछ मौलिक अस्तित्व का हिस्सा, आपकी जीवन-धारा का कोई अंश आपके बच्चों में, बच्चों के बच्चों में यात्रा करता रहेगा।
काम-वासना जीवन को हर हालत में बचाने की आकांक्षा का हिस्सा है।
ऐसा मनुष्य में ही है, ऐसा नहीं है, समस्त जीवन में है। वृक्ष भी अपने बीजों को सुरक्षित भूमि तक पहुंचाने की कोशिश करता है। अगर आप वृक्षों का अध्ययन करें, तो चकित हो जाएंगे। बड़े वृक्ष अपने बीजों को अपने से दूर पहुंचाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि अगर बीज वृक्ष के नीचे ही गिर जाएं, तो बड़े वृक्ष के नीचे उनके अंकुरित होने का उपाय नहीं, उसकी छाया में ही मर जाएंगे।
आपने सेमर का फूल देखा है? आपने कभी सोचा न होगा कि बीज में सेमर की रूई क्यों चिपकी होती है? उस वृक्ष की कोशिश है कि रूई के कारण हवा के झोंके में बीज दूर चला जाए। नीचे गिरेगा, तो नष्ट हो जाएगा। बीज को दूर पहुंचाने की कोशिश है, वह जो सेमर की रूई है। बीज खुद न उड़ सकेगा, रूई के सहारे उड़ जाएगा, दूर गिरेगा कहीं जा कर, जहां अंकुरित हो सकेगा। और इसलिए एक वृक्ष करोड़ों बीज पैदा करता है कि एक व्यर्थ चला जाएगा, दो व्यर्थ चले जाएंगे, लेकिन करोड़ों बीजों में से अगर एक भी अंकुरित हो गया, तो जीवन पल्लवित होता रहेगा।
मैं एक मछली की जाति के संबंध में अभी पढ़ रहा था, उस मछली का जीवन बहुत थोड़ा है, लेकिन अपने जीवन में वह मछली दस करोड़ अंडे देती है। दस करोड़ अंडे! और मछली के अंडों का जीवन बड़ा संकटपूर्ण है। दस करोड़ अंडों में से दो ही मछलियां पैदा हो पाती हैं।
आदमी के भीतर भी इतने ही बीज पैदा होते हैं। एक पुरुष चार-पांच अरब बच्चों को जन्म दे सकता है। एक संभोग में लाखों जीवाणु उपयोग में आते हैं, जो सभी जीवन बन सकते थे। लेकिन जीवन में आपके दस-पांच बच्चे ज्यादा से ज्यादा पैदा हो जाएंगे।
जीवशास्त्री कहते हैं कि जीवन बचने की आकांक्षा के कारण कोई भी अवसर खोना नहीं चाहता है। और इतने विपुलता से अपने को फैलाता है कि अगर हजारों-लाखों मिल कर भी व्यर्थ चले जाएं, तो भी जीवन बचा रहे। जीवन की बचने की यह आकांक्षा ही आपको काम-वासना जैसी मालूम पड़ती है। यह गहरी से गहरी है, इससे ही आप जन्मे हैं, इससे ही जीवन आपसे जन्मने के लिए आतुर भी है। काम-वासना के द्वार से जीवन में आपने प्रवेश किया है। और इसके पहले कि आपकी देह व्यर्थ हो जाए, वह जीवन जो आपने आवास बनाया था, नए आवास बनाने की कोशिश करता है। इसलिए काम-वासना उद्दाम है। कितना ही उपाय करें, वह मन को पकड़ लेती है। वह आपसे बड़ी मालूम पड़ती है; आपके सब संकल्प, ब्रह्मचर्य के नियम, आपकी सब कसमें, सब प्रतिज्ञाएं पड़ी रह जाती हैं। और काम-वासना जब वेग पकड़ती है, तो आप पाते हैं कि आविष्ट हो गए, कोई बड़ी धारा आपको खींचे लिए जा रही है, और आप बहे जाते हैं। इतनी मौलिक है काम-वासना।
और समस्त अध्यात्म की खोज इस काम-वासना के रूपांतरण में है, क्योंकि यह जो जीवन की धारा अगर बाहर की तरफ बहती रहे तो नई देह, नए शरीर पैदा होते रहेंगे। यही जीवन की धारा अगर अपने पर लौट आए, तो आपका परम जीवन उपलब्ध हो जाएगा। इस जीवन-धारा के दो उपयोग हैं, जैविक बायोलाजी के अर्थों में संतति, अध्यात्म के अर्थों में आत्मा। इससे शरीर भी पैदा हो सकते हैं, अगर यह बाहर जाए। और इससे आपकी आत्मा की किरण भी निखरकर प्रकट हो सकती है, अगर यह भीतर आए। यही धारा बाहर जाकर नए शरीरों का जन्म बनती है; यह धारा भीतर जाकर आपका नया जन्म बनती है।
जिस व्यक्ति की काम-वासना ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, अंतर्मुखी हो जाती है, वह द्विज हो जाता है; उसका नया जन्म हो गया। एक जन्म तो मिलता है मां-बाप से, वह शरीर का जन्म है। और एक जन्म आपको स्वयं अपने को देना पड़ता है, वह आत्मा का जन्म है। इसलिए समस्त धर्म काम-वासना के प्रति उत्सुक हैं। क्योंकि वही मूल शक्ति है, जिसका उपयोग किया जाना चाहिए। अगर आप संतति के निर्माण में ही लगे रहें, तो जिस शक्ति से आपका पुनर्जन्म हो सकता था, नव-जन्म हो सकता था और जिससे आप उसका
अनुभव कर सकते थे, जो अमृत है, उससे आप वंचित हो जाएंगे। अनेक-अनेक जन्मों में आप भटकते रह सकते हैं। जिस दिन यह धारा भीतर मुड़ जाएगी, उसी दिन देह में भटकना बंद हो जाएगा। इसको हमने आवागमन से मुक्ति कहा है। और जब तक यह धारा बाहर चलती रहती है, तब तक आपको बाहर भटकना ही पड़ेगा।
अति कठिन है इस धारा को भीतर की तरफ मोड़ना, लेकिन असंभव नहीं है। और कठिनाई भी नासमझी की वजह से है। समझपूर्वक इस धारा को भीतर ले जाया जा सकता है। जीवन की सभी शक्तियां समझपूर्वक काम में आ जाती हैं।
आज से पहले, इस सदी के पूर्व भी आकाश में बिजली चमकती थी, लेकिन आदमी के लिए सिर्फ भय का कारण था, डर पैदा होता था। उसकी कड़क, उसकी चमक, गरमाहट, छाती को डांवांडोल कर जाती थी। आदमी सोचता था कि परमात्मा नाराज है, और हमसे कोई पाप, कोई भूल हुई है; इसलिए वह बिजली कड़का कर हमें डरा रहा है। इंद्र का व्रज, इंद्र का शस्त्र समझी जाती थी। फिर हम बिजली को समझ पाए कि वह क्या है। हमने उस शक्ति के राज को समझ लिया। आज उसी बिजली से कोई भय नहीं रहा। आज वही बिजली बंधी हुई घर घर में प्रकाश दे रही है; आज वही बिजली बंधी हुई हजारों यंत्र चला रही है। आज वही बिजली जीवन की सहयोगी हो गई है।
ज्ञान विजय है, अज्ञान पराजय है।
अज्ञान में शक्ति से डर लगता है; ज्ञान में वही शक्ति सहयोगी और सेवक हो जाती है। जैसे आकाश में कौंधती बिजली कभी हमें डराती थी, वैसे ही कौंधती काम-वासना की शक्ति भी हमें डराती है, भयभीत करती है। क्योंकि हम अभी भी उस संबंध में अज्ञानी हैं। उस भीतर की विद्युत के संबंध में हम अभी भी अज्ञानी हैं। ऐसा नहीं है कि उसके सूत्र नहीं जान लिए गए हैं, और ऐसा भी नहीं है कि लोगों ने उस भीतर की विद्युत को नहीं बांध लिया और ऐसा भी नहीं है कि उस विद्युत को बांध कर लोगों ने उस विद्युत से भीतर के जगत में सेवा नहीं ले ली। और जैसे बाहर की विद्युत बांधकर हमने बाहर प्रकाश कर लिया, वैसे ही उस भीतर की विद्युत को बांध कर भी भीतर प्रकाश कर लिया गया है।
लेकिन एक कठिनाई है। बाहर का विज्ञान सामूहिक संपत्ति बन जाता है; एक बार जान लिया गया कि बिजली को कैसे पैदा किया जाए, जान लिया गया कि बिजली से कैसे उपयोग लिया
जाए, तो फिर हर आदमी को खोजना नहीं पड़ता। सूत्र जाहिर हो गए; उनकी शिक्षा दी जा सकती है। तो हर आदमी को एडीसन होने की जरूरत नहीं है। फिर एक साधारण-सा इंजीनियर भी सभी काम कर देता है। वह कोई एडीसन नहीं है, उसने कुछ खोजा नहीं है, उसका कोई बड़ा ज्ञान भी नहीं है, लेकिन जानकारी है। फिर एक टेक्नीशियन जो कि इंजीनियर भी नहीं है, वह बिजली का काम कर देता है। उसे कुछ भी पता नहीं कि बिजली क्या है, पर उसे इतना पता है कि उसका कैसे उपयोग किया जाए।
लेकिन भीतर के विज्ञान के साथ एक कठिनाई है। नियम खोज लिए जाएं, तो भी सार्वजनिक नहीं हो पाते। हो नहीं सकते। उनका स्वभाव ऐसा है। बुद्ध को पता है, कृष्ण को पता है, महावीर को पता है कि भीतर की यह जो विद्युत-धारा है--काम-ऊर्जा, सेक्स-एनर्जी--वह कैसे बांधी जाए, कैसे इसकी धारा बदली जाए, कैसे इसे बहाया जाए अपने अनुकूल, कैसे इससे भीतर प्रकाश पैदा किया जाए; कैसे भीतर की शुद्धि में इसका उपयोग किया जाए, कैसे भीतर के जीवन को पाने के लिए यह मार्ग बन जाए। सब इन्हें पता है, और वे कहते हैं, लेकिन फिर भी आप इंजीनियर या टेक्नीशियन की तरह उसका उपयोग नहीं कर पाते।
भीतर के विज्ञान के संबंध में एक मौलिक बात है कि फिर उसमें आपको एडीसन बनना पड़ेगा, बुद्ध बनना पड़ेगा, क्राइस्ट बनना पड़ेगा। उसके पहले आप उसका उपयोग न कर सकेंगे, क्योंकि वह आपके भीतर की घटना है, मात्र सूचना और जानकारी से कुछ भी न होगा। अनुभव ही वहां मार्ग बनेगा।
संसार के संबंध में सूचना काफी है; अध्यात्म के संबंध में अनुभव जरूरी है।
संसार के संबंध में जो भी हम जानते हैं, उसकी प्रयोगशालाएं बाहर हो सकती हैं। अध्यात्म के संबंध में आप ही प्रयोगशाला हैं।
और भी जटिलता है--आप ही हैं प्रयोग करनेवाले, आप ही हैं प्रयोगशाला। आप ही हैं उपकरण प्रयोग के, आप ही हैं शक्ति जिस पर प्रयोग होना है। और आप ही हैं जो अंततः इस प्रयोग से रूपांतरित होंगे। वहां आपके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए जटिलता बढ़ जाती है।
जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता हो, तो पत्थर अलग होता है, जिस पर मूर्ति बनानी है; छेनी अलग होती है, जिससे मूर्ति बनानी है; मूर्तिकार अलग होता है, जिसको मूर्ति बनानी है; खरीददार अलग होता है, जो मूर्ति खरीदेगा। अध्यात्म की इस मूर्तिकला में आप ही सब कुछ हैं। आप ही हैं पत्थर, जिसकी मूर्ति बननी है; आप ही हैं छेनी, जिससे मूर्ति बनाई जानी है; आप ही हैं कलाकार, जिसको मूर्ति बनानी है, और आप ही हैं ग्राहक, खरीददार। वहां सब कुछ आप हैं। इसलिए जटिलता बढ़ जाती है, उलझन गहरी हो जाती है।
लेकिन क्योंकि मूर्तियां बन गई हैं, तो ही हमने बुद्धों को देखा और जाना है। और जो एक में हो सकता है, वह सभी में हो सकता है। इस सूत्र को इस दृष्टि से समझने की कोशिश करें। और खयाल रखें कि काम-ऊर्जा की समझ ही उसकी विजय है, लड़ने से नहीं जीतेंगे, जानने से जीतेंगे। लड़ते नासमझ हैं, समझदार लड़ते नहीं हैं, वे समझने की कोशिश करते हैं। जितना जान लेते हैं वे, उतने ही मालिक हो जाते हैं।
बेकन ने कहा है, ज्ञान शक्ति है। विज्ञान के लिए उसने यह कहा था। लेकिन अध्यात्म के लिए भी यह सत्य है। ज्ञान शक्ति है। जिस शक्ति को आप जानते नहीं, उससे आप परेशान होंगे। और अनजान में जो भी करेंगे, उससे और जटिलताएं बढ़ जाएंगी। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो काम-ऊर्जा के संबंध में कुछ-न-कुछ न करता हो। बिलकुल मुश्किल है। बुरे से बुरा आदमी भी, अनैतिक आदमी भी, कामुक आदमी भी काम-वासना के संबंध में कुछ-न-कुछ करता रहता है। रोकने की कोशिश करता है, संभालने की कोशिश करता है। इस सारी कोशिश में वासना विकृत हो जाती है। सुधरती नहीं, बदलती नहीं, और कुरूप हो जाती है।
सारी दुनिया कुरूप काम-वासना से भरी है। हजारों रूपों में काम-वासना विकृत रोगों का रूप लेती है। यह नासमझों द्वारा किए गए काम हैं। ऐसा है, जैसा बिजली के संबंध में कुछ भी न जानता हो, वह बिजली के किसी उपकरण को सुधारने में लग जाए। उससे आशा है कि और बिगाड़ देगा। अच्छा हो छुओ ही मत, जब तक समझ न लो। ठीक समझ के ही भीतर चलना, अन्यथा जिस शक्ति से आत्मा का जन्म हो सकता था, उससे आत्मघात भी हो सकता है। और बहुत लोग आत्मघाती हो जाते हैं। अगर हम लोगों की मानसिक विकृतियों का अध्ययन करें, तो हम पाएंगे उनके मूल में काम-वासना के साथ किया गया अज्ञानपूर्ण कार्य है।
फ्रायड के गहरे अध्ययन ने यह बात जाहिर कर दी है कि आदमी की मन की बीमारियों में सौ बीमारियों में निन्यानबे बीमारियों के मामले में काम-वासना की विकृति है। उस ऊर्जा के साथ कभी भूल हो जाती है, और तब तक सब नष्ट हो जाता है। हजार तरह के पागलपन हैं, हजार तरह के मानसिक रोग हैं, हजार तरह की मानसिक चिंताएं हैं। उनके रूप कुछ भी हों, उनके गहरे में काम-वासना होगी। और काम-वासना इसलिए उनके गहरे में होती है कि आपने कुछ करने की कोशिश की है उस यंत्र के संबंध में, जिसका आपको कोई भी पता नहीं। और काम-वासना जीवन का आधार है, इसलिए बहुत गहरी होनी चाहिए उसकी जानकारी, उसकी समझ, उसका अनुभव।
तीन बातें स्मरण रखें, फिर हम इस सूत्र में प्रवेश करें।
पहली, स्वाभाविक काम-वासना को अस्वाभाविक मत होने देना। जो स्वाभाविक है, उसे स्वीकार करना। अस्वीकार करने से, वह अस्वाभाविक हो जाएगी। अस्वाभाविक करने से उसके विकृत परवर्टेड रूप पैदा हो जाएंगे। स्वाभाविक काम-वासना को बदलना आसान है, अस्वाभाविक को बदलना बहुत कठिन है।
समझें इसे ऐसा कि एक पुरुष एक स्त्री में आकर्षित होता है, यह स्वाभाविक है। इस काम-वासना को बदलना आसान है। लेकिन सारी दुनिया में होमो-सेक्सुअलिटी है कि एक पुरुष एक पुरुष में उत्सुक हो जाता है या एक स्त्री एक स्त्री में उत्सुक हो जाती है! इस काम-वासना को बदलना कठिन है। यह विकृत है, यह अस्वाभाविक है, इसकी बदलाहट बहुत मुश्किल है। हेट्रो-सेक्सुअलिटी को बदलना आसान है; क्योंकि स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। होमो-सेक्सुअलिटी को बदलना अति कठिन है; क्योंकि अप्राकृतिक है। इस तरह के हजार-हजार रूप आदमी को पकड़े हुए हैं।
एक आदमी जिसे प्रेम करता है, उसको पास लेना चाहता है, निकट लेना चाहता है; स्वाभाविक है। इस स्वाभाविक वासना को बदलना आसान है। लेकिन एक आदमी किसी को प्रेम नहीं करता, किसी को निकट नहीं लेना चाहता, लेकिन भीड़-भड़क्के में अगर स्त्री मिल जाए, तो धक्का मार कर नदारत हो जाता है; इस आदमी की काम-वासना को बदलना बहुत मुश्किल है। यह विकृत है, यह स्वाभाविक नहीं है। जिससे प्रेम है, उसे निकट लेना स्वाभाविक है। लेकिन जिससे प्रेम नहीं है, उसको धक्का मारकर भीड़ में चले जाना रोग है। इसकी बदलाहट जरा मुश्किल पड़ेगी। और इसकी बदलाहट के लिए अड़चनें हो जाएंगी। लेकिन एक आदमी क्यों किसी स्त्री को भीड़ में धक्का मारने में उत्सुक हो जाता है? शायद किसी स्त्री को पास लेने का जो मन था, वह उसने दबा लिया है, रोक लिया; वह दबा हुआ झरना कहीं से भी फूट कर बह रहा है। तो पहली बात तो यह खयाल रखना कि स्वाभाविक काम-वासना ठीक है, उससे आगे की यात्रा सीधी है; अस्वाभाविक काम-वासना खतरनाक है, उससे सावधान रहना, उससे बचना।
दूसरी बात खयाल रखना कि स्वाभाविक काम-वासना को सिर्फ भोगना ही मत, भोग के साथ-साथ उस पर ध्यान भी करना। क्योंकि वासना में दंश नहीं है; मूर्छित वासना में दंश है। अगर आपको लगता है कि मन को काम पकड़ता है, तो भोग में उतरना; लेकिन होशपूर्वक उतरना। ध्यान रखना
क्या हो रहा है, ध्यान रखना क्या मिल रहा है, ध्यान रखना कि कौन से सुख की, कौन से आनंद की, कौन सी शांति की उपलब्धि हो रही है। ध्यानपूर्वक भोग में उतरना, ताकि भोग के गहरे रहस्य आपके ध्यान में समाविष्ट हो जाएं। वही आपकी समझ बनेगी।
और तीसरी बात--इस बात की खोज जारी रखना जो सुख या शांति की झलक मिलती है, वह वस्तुतः काम-वासना के कारण मिलती है या कारण कोई और है?
स्वाभाविक वासना हो, ध्यानपूर्वक वासना हो, तो यह तीसरी बात भी समझने में आपको ज्यादा देर नहीं लगेगी, और पता चल जाएगी कि काम-वासना के कारण सुख और आनंद की प्रतीति नहीं होती। इसको जो जानते हैं, उन्होंने काकतालीय न्याय कहा है। काकतालीय न्याय का मतलब होता है कि आप एक वृक्ष के नीच बैठे हैं और एक कौवे ने आवाज दी, कौवे की आवाज के साथ संयोग की बात वृक्ष से एक फल टपक कर आपके पास गिर गया, तो आपने समझा कि कौवे की आवाज के कारण फल गिरा। यह काकतालीय न्याय है। कोई कौवे की आवाज से फल नहीं गिरा। कौवे की आवाज से फल के गिरने का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। लेकिन जटिलता और बढ़ जाएगी कि जब भी आप कौवे की आवाज सुनें, तभी अगर फल गिरे। तब बहुत मुश्किल हो जाएगी।
आपने सुनी होगी उस बुढ़िया औरत की कहानी, जिसके मुर्गे के बांग देने से रोज सुबह सूरज उगता था। एक दिन की बात हो, तो संयोग भी मान लें; वर्षों का अनुभव है कि जब भी मुर्गा बांग देता है, सूरज उगता है। स्वभावतः उस बूढ़ी औरत ने मान रखा था कि मेरा मुर्गा जिस दिन बांग न देगा, उस दिन सूरज न उगेगा। गांव से झगड़ा हो गया, तो उसने कहा कि अच्छा ठहरो, तुम्हें मैं मजा चखाती हूं। मैं अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली जाती हूं; तब तुम्हें पता चलेगा, जब अंधेरे में भटकोगे और तड़पोगे, और जब सूरज नहीं उगेगा। तो वह बूढ़ी औरत अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव में चली गई। और जब मुर्गे ने दूसरे गांव में बांग दी, सूरज उगा, तो उसने कहा अब समझेंगे नासमझ लोग। उस गांव की क्या हालत रही होगी? सूरज तो यहां उग गया। जहां मेरा मुर्गा, वहां सूरज का उगना होगा। यह काकतालीय न्याय है।
काम-वासना के संबंध में यह हो रहा है। काम-वासना से जो सुख मिलता है उससे इतना ही संबंध है, जितना मुर्गे की बांग में और सूरज के उगने में है। काम-वासना से सुख नहीं मिलता है, न मुर्गे की आवाज से सूरज उगता है। लेकिन कोई और गहरे कारण से सुख की प्रतीति होती है। उसका आपको पता हो जाए, तो फिर यह भ्रांति टूट जाएगी कि मुर्गे की आवाज से सूरज उग रहा है। और फिर सूरज उगाने के लिए मुर्गे की आवाज पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। फिर सूरज आपका मुर्गे की आवाज के बिना भी उग सकता है।
काम की तृप्ति में जो सुख मिलता है, उसका मौलिक कारण काम नहीं है; उसका मौलिक कारण ध्यान है, समाधि है। काम-वासना के शिखर पर एक क्षण को मन शून्य हो जाता है। इस शून्य होने के कारण आपको सुख की झलक मिलती है। शून्य हो जाता है? आप काम-वासना में इतने तल्लीन हो जाते हैं; काम-कृत्य में और क्रीड़ा में इतने तल्लीन हो जाते हैं, जितने आप किसी में तल्लीन नहीं होते। उस तल्लीनता के कारण मन शांत हो जाता है। मन के शांत होने के कारण सुख की झलक मिल जाती है। अगर आप किसी और काम में भी इतने ही तल्लीन हो जाएं, तो आप पर काम-वासना की पकड़ छूट जाएगी। इसलिए जो लोग स्रष्टा हैं जो कुछ सृजन कर सकते हैं, उनको काम-वासना ज्यादा नहीं पकड़ती। इसलिए स्रष्टा पुरुषों के साथ स्त्रियां कभी प्रसन्न नहीं होतीं।
सुकरात है, तो उसकी स्त्री सुकरात से प्रसन्न नहीं होती है। हो नहीं सकती क्योंकि सुकरात इतना लीन हो जाता है दर्शन के चिंतन में कि काम-वासना उसकी क्षीण हो गई है। उसी लीनता से उसे वह सुख मिल जाता है, जो काम-वासना से उसे मिलता है।
एक चित्रकार अपने चित्र बनाने में अगर लीन हो जाए, तो उसके मन को कामवासना नहीं पकड़ती। एक मूर्तिकार अपनी मूर्ति को बनाने में लीन हो जाए, तो उसकी काम-वासना क्षीण हो जाती है। इस क्षीण होने का कारण यह नहीं कि वह कोई ब्रह्मचर्य साध रहा है। इसका कारण यह है कि उसका सूरज पुराने मुर्गे की बांग के बिना उगने लगा। वह जो क्षण आता था मौन का, काम के द्वारा, अब वह मूर्ति में ही निर्माण करने में आने लगा।
अगर आप अपने गीत में डूब जाएं, अपने नृत्य में डूब जाएं, अपने ध्यान में डूब जाएं, तो आपको पता चल गया कि सूरज के उगने का मुर्गे की बांग से कोई संबंध नहीं है। यह सूरज और तरह से भी उग सकता है।
ये तीन बातें खयाल रखें--स्वाभाविक हो काम, ध्यानपूर्वक हो काम, और सतत यह खोज बनी रहे कि जो गहरे में शांति की प्रतीति होती है, वह काम-वासना के कारण होती है या कारण कोई और है, जिसका हमें पता नहीं? जिस दिन आपको वह कारण साफ हो जाएगा, उस कारण का सीधा ही उपयोग किया जा सकता है। ध्यान, समाधि, योग सब उसी कारण पर खड़े हैं। योग ने उस कारण को खोज लिया है सीधा।
इसलिए लोग कहते हैं कि जब तक आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होंगे, तब तक योगी न बन सकेंगे। और मैं कहता हूं कि जब तक आप योग को उपलब्ध न होंगे, ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं होगा। इसलिए मैं ब्रह्मचर्य को योग की शर्त नहीं बनाता; ब्रह्मचर्य को मैं योग का परिणाम कहता हूं। इसलिए मैं आपसे नहीं कहता हूं कि ध्यान अगर आपको करना है, तो पहले ब्रह्मचर्य साधो। जो कहते हैं, उन्हें पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। मैं आपसे कहता हूं कि आप ध्यान साधो, ब्रह्मचर्य की चिंता मत करो।
जिस दिन ध्यान में आपको काम-वासना से मिले सुख से गहन सुख का अनुभव होने लगेगा, उस दिन दुनिया की कोई भी ताकत आपको काम-वासना में ले जाने की सामर्थ्य नहीं रखेगी। दुनिया में महत्तर सुख के लिए छोटे सुख छोड़े जा सकते हैं, बड़े आनंद के लिए छोटे आनंद छोड़े जा सकते हैं। लेकिन बड़े आनंद का कोई अनुभव होना चाहिए। आपके हाथ में कंकड़-पत्थर हैं। मैं आपसे कहूं कि छोड़ दो। कुछ तो है हाथ में, कंकड़-पत्थर ही सही। हाथ भरा है, तो ही तो अच्छा लगता है, खाली हाथ में बेचैनी होगी। आप छोड़ने को राजी न होंगे, और कंकड़-पत्थर रंगीन हैं और हीरों का खयाल देते हैं। लेकिन अगर मैं एक हीरा आपके हाथ में रख दूं, तो आपको पता भी नहीं चलेगा कब आपके हाथ के कंकड़-पत्थर छूट गए, और कब आपने हीरे पर मुट्ठी बांध ली। और क्या फिर आप लोगों से कहते फिरेंगे कि मैं महात्यागी हूं, मैंने कंकड़-पत्थर छोड़ दिए? पता ही नहीं रहेगा आपको कि आपने कंकड़-पत्थर छोड़े, वे छूट गए। ध्यान आपको उस हीरे को शुद्धता में दे देता है, जो काम-वासना में--बड़ी मुश्किल से जिसकी झलक और बड़ी अशुद्ध झलक कभी-कभी मिलती है। वह शुद्धतम हीरा जब हाथ में हो जाता है, अशुद्धि की खोज बंद हो जाती है।
"अब तू उस खाई को पार कर चुका है, जो मानवीय वासनाओं के द्वार को घेर कर खड़ी है। अब तू "काम' और उसकी दुर्दान्त सेना पर विजय पा चुका है'
"तूने अपने हृदय से अशुद्धियों को निकाल दिया है और कलुषपूर्ण वासनाओं से अब वह मुक्त है। लेकिन ओ गौरवशाली योद्धा, तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ है। ओ शिष्य, पवित्र-द्वीप को घेरनेवाली दीवाल को और ऊंचा उठा। यही वह बांध होगा, जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है'
काम पर विजय पाना अति कठिन है। इसलिए जो विजय पा लेते हैं, वे बड़े मद से भर जाते हैं। ब्रह्मचर्य का एक मद है। काम-वासना का मद है। यह तो आपने सुना होगा कि काम-वासना
से भरा हुआ आदमी मूर्छित होता है, मदमस्त होता है। लेकिन क्या कभी आपने सुना कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है, तो काम-वासना से भी बड़ा मद आदमी के मस्तिष्क को घेर लेता है। स्वभावतः इतनी कठिन है यह विजय कि जब मिलती है, तो आदमी नाच उठता है, झूम उठता है। एक बड़ी गहन, सूम अहंकार की भावना जगती है कि मैंने ब्रह्मचर्य पा लिया, कि मैंने काम-वासना जीत ली, कि अब मैं विजेता हूं। और यह युद्ध सबसे बड़ा है।
महावीर ने कहा है, सारी पृथ्वी को जीत लेना आसान है, लेकिन इस भीतर की काम-वासना को जीतना कठिन है। तो सिकंदर अगर अकड़ जाता हो दुनिया को जीत कर, जो कि इतना कठिन नहीं, तो ब्रह्मचारी को अकड़ नहीं आती होगी, जो सिकंदर से भी ज्यादा कठिन काम कर चुका है? दुनिया को जीतना तो रूपों को जीतना है। काम-वासना को जीतना तो दुनिया के रूप जिस वासना से पैदा होते हैं, उस मूलस्रोत को जीत लेना है, दुनिया जिससे निर्मित होती है, उस शक्ति को जीत लेना है। निश्चित ही एक गहरा मद पकड़ लेता है।
और यह सूत्र कहता है कि काम-वासना को तूने जीत लिया, लेकिन ध्यान रखना तेरा काम अभी पूरा नहीं हुआ। अब तू एक खतरे के द्वार पर फिर खड़ा हो गया है, जहां यह विजय तेरा मद बन सकती है। अब तू इस द्वीप के आसपास, यह जो महासागर में छोटा-सा एक द्वीप निर्मित हो गया
है तेरे ब्रह्मचर्य का--जगत तो काम-वासना का सागर है, इसमें तूने एक छोटा सा द्वीप कर लिया, आइलैंड। लेकिन यह चारों तरफ जो सागर है, वह तेरे द्वीप को किसी भी क्षण डुबा दे सकता है। अगर तू मद से भर गया, तो यह सागर तेरे द्वीप को डुबा दे सकता है वापिस। इस पवित्र द्वीप को घेरने वाली दीवाल को उठाने में लग। अभी काम बाकी है।
"यही वह बांध होगा, जो तेरे मन की उस मद और संतुष्टि से रक्षा करेगा, जो बड़ी उपलब्धि के विचार से उत्पन्न होती है'
मद और संतुष्टि--दो खतरे हैं। एक तो इस बात का मद कि पा लिया, जो पाना अति कठिन था। वह मिल गया, जिसकी खोज थी जन्मों-जन्मों से। जिसको हजारों बार कोशिश करके भी नहीं पा सके थे, वह पा लिया गया है। यह एक मद, अहंकार, अस्मिता हुई। और उससे भी खतरनाक एक और बात है--एक गहरी संतुष्टि, एक कंटेन्टमेंट कि अब ठीक पहुंच गए, मंजिल आ गई, अब कुछ करने को न रहा। यह संतुष्टि भी खतरा है; क्योंकि तब विकास बंद हो जाता है। जहां संतोष है वहां विकास समाप्त है। इसलिए जहां आगे विकास हो ही न, वहीं संतुष्ट होना; उसके पहले संतुष्ट मत हो जाना।
परमात्मा हो जाने के पहले सब संतोष खतरनाक है; क्योंकि इसका मतलब है कि जहां आप संतुष्ट हुए,वहां बैठ गए। परमात्मा होकर ही संतुष्ट होना। क्योंकि फिर बैठने में कोई हर्जा नहीं; क्योंकि चलने को कोई जगह नहीं बची। लेकिन इसके पहले चलने को जगह बाकी है। जहां-जहां संतोष, वहां-वहां खतरा है। अ-संतोष को जगाए रखना है। यह ब्रह्मचर्य जब उपलब्ध होता है, तब बड़ी गहरी तृप्ति मिलती है। रोआं-रोआं जैसे तृप्त हो जाए। कुछ पाने को न बचा, ऐसा लगने लगता है। यह भ्रम है; अभी पाने को बचा है, अभी पाने को बहुत बचा है। यह तो जो पाया है, यह केवल शक्ति है, जिसका उपयोग करना है--अब जो असली पाने को है, उसके लिए।
यह तो ऐसे है कि एक आदमी ने धन कमा लिया और तृप्त होकर बैठ गया तिजोरी के पास। धन का मूल्य ही नहीं है कोई, अगर इसका उपयोग नहीं किया जा सके। धन का तो मूल्य ही यही है कि जो खरीदना था, वह खरीदा जा सकता है, शक्ति पास है। लेकिन आप देखते हैं, अधिक लोग धन कमाकर तिजोरी के रक्षक हो जाते हैं। यह मूढ़ता है, क्योंकि धन कमाया ही इसलिए था कि कुछ वासनाएं तृप्त करनी थीं, इस धन के बिना नहीं तृप्त हो सकती थीं। इस धन से अब तृप्त हो सकती हैं। लेकिन धन कमाते-कमाते भूल ही जाता है आदमी कि धन किसलिए कमाया है। आखिर में ऐसा लगने लगता है कि धन धन के लिए कमाया है। और तब धन की तिजोरी के पास संभलकर बैठ जाता है, फिर रक्षक हो जाता है! धनपति अक्सर पहरेदार से ज्यादा नहीं होते।
और यह बड़ी मूढ़ता है; यह तो सारा जीवन व्यर्थ गया। यह हम भूल ही गए कि किसलिए! यह तो साधन साध्य हो गया। तो आपकी तिजोरी में सोने की इट रखी है कि मिट्टी की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आपको पहरा देना है। अगर किसी धनपति की तिजोरी में से रातों-रात उसकी सब सोने की ईंटें निकालकर मिट्टी की रख दी जाएं, तो भी--कोई उसको पता भर नहीं चलना चाहिए--वह अपनी तिजोरी पर पहरा देता रहेगा और उतना ही आनंदित रहेगा। क्योंकि सोने और मिट्टी में फर्क तो तब है, जब उपयोग करना हो। अन्यथा क्या फर्क है?
यह जो ब्रह्मचर्य की अवस्था उपलब्ध होगी, तो धनपति जैसी कृपणता आ सकती है, अगर आप तृप्त हो जाएं।
ब्रह्मचर्य शक्ति है--साधन है; साध्य नहीं है।
साध्य तो ब्रह्म है।
इस ब्रह्मचर्य से मिली शक्ति का उपयोग हो सकता है अब। अब आपके पास वह ताकत है, वह गति है, वह यान है, वह नाव अब आपके पास है, जिसमें बैठकर दूसरे किनारे जा सकते हैं। इस नाव की पूजा मत करने लगना बैठकर इस किनारे पर। इस नाव को सजाकर और उत्सव मत मनाने लगना। तृप्त मत हो जाना कि नाव मिल गई। क्योंकि नाव मिलने से क्या होता है? नाव में यात्रा करने से कुछ होता है। ब्रह्मचर्य नाव है। इसलिए यह सूत्र कहता है कि मद और संतुष्टि से रक्षा करने की जरूरत है।
"अहंकार का भाव काम को बिगाड़ कर धर देगा, अतः मजबूत बांध बना, नहीं तो कहीं लड़ाकू लहरों की भयानक बाढ़ जो महा संसार के माया के समुद्र से आकर इसके किनारों पर चढ़ाई और चोट करती है, यात्री और उसके द्वीप को ही न निगल जाए। हां, यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो'
यह तब भी घटित हो सकता है, जब विजय उपलब्ध हो गई हो। जरा-सी गफलत और विजय भी पराजय में परिवर्तित हो सकती है। जरा सी चूक, जरा सी भूल और ठेठ आखिरी क्षण में भी वापिस लौटना हो सकता है। जब तक साध्य ही न मिल जाए, तब तक लौटना होता रह सकता है। जब तक साधन ही हाथ में है, तब तक साध्य खोया जा सकता है। और कई बार तो इसी खयाल से कि सब मिल गया, जो मिला था, वह खो जाता है।
तो एक खयाल तो साधक को निरंतर ही मन में बनाए रखना चाहिए कि कहीं भी तृप्त नहीं होना है। अतृप्ति की एक जलती लहर भीतर बनी ही रहे, एक लपट कि और, और, और रास्ता अभी बाकी है। एक दिन जरूर ऐसा आता है कि रास्ते सब समाप्त हो जाते हैं। उस दिन फिर अतृप्ति का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन ध्यान रखना कि इस जगह की पहचान क्या है? थोड़ी जटिल है बात। कैसे पहचानेंगे कि वह जगह आ गई, जहां अब अतृप्ति का कोई कारण नहीं?
जिस दिन तृप्ति का भी कोई कारण न रह जाए, उस दिन समझ लेना अब अतृप्ति का भी कोई कारण नहीं है। इसलिए जटिल है बात। जहां मन में न तृप्ति रह जाए, न अतृप्ति, समझना
कि मंजिल आ गई। अगर तृप्ति भी मालूम पड़ रही हो, तो समझना कि अभी मंजिल नहीं आई है।
कोई आता है मेरे पास और कहता है कि ध्यान में बड़ी शांति आ रही है, तो उससे मैं कहता हूं, अभी अशांति कायम है, नहीं तो शांति का अनुभव कैसे होगा? शांति का अनुभव तो अशांति की पृष्ठभूमि में ही होता है। जैसे कि काली लकीर खींचनी हो, तो सफेद कपड़े पर खींचो; सफेद लकीर खींचनी हो, तो काले ब्लैकबोर्ड पर खींचो। सफेद दीवाल पर सफेद लकीर दिखाई पड़ेगी? नहीं दिखाई पड़ेगी। सफेद लकीर काली दीवाल पर दिखाई पड़ सकती है।
अगर आपको लगता है कि बड़ी शांति आ रही है, तो भीतर अशांति की दीवाल अभी मौजूद है। नहीं तो शांति दिखाई नहीं पड़ सकती। उसका पता ही नहीं चलेगा। शांति का पता चलना भी, अशांत आदमी का ही हिस्सा है। यह थोड़ा जटिल है मामला। क्योंकि हमको लगता है अशांत आदमी को अशांति का पता चलता है। लेकिन यह भी उसे इसलिए चलता है कि उसे भी शांति का थोड़ा अनुभव है, नहीं तो उसको भी अशांति का पता नहीं चल सकता है। अगर आपको लगता है कि आप बहुत अशांत हैं, तो इसलिए लगता है कि कभी किन्हीं क्षणों में शांति भी आपको मिलती है; नहीं तो तोलेंगे कैसे?
आपको लगता है कि आप बीमार हैं; क्योंकि आपको स्वास्थ्य का अनुभव है, थोड़ा सा ही सही। और किसी आदमी को अगर पता चलने लगे कि मैं बिलकुल स्वस्थ हूं, मैं बिलकुल स्वस्थ हूं, तो समझना कि बीमारी कायम है। क्योंकि यह पता कैसे चलेगा? परम स्वास्थ्य तो उस दिन घटित होता है, जिस दिन बीमारी का तो पता चलता ही नहीं, स्वास्थ्य का भी नहीं चलता; क्योंकि स्वास्थ्य के पता चलने में भी दंश है।
पूर्ण शांति उस दिन घटित होती है, जिस दिन शांति का भी पता नहीं चलता है।
अगर आप बुद्ध से पूछेंगे, तो वे यह नहीं कहेंगे कि मैं शांत हूं। वे कहेंगे कि कुछ पता ही नहीं चलता कि शांत हूं कि अशांत हूं; कि शांति क्या अशांति क्या। यह भी पता नहीं चलता
कि मैं हूं, कि नहीं हूं। कि मेरा होना क्या और न-होना क्या, कुछ भी पता नहीं।
जब तक यह तृप्ति है, तब तक समझना कि अभी अतृप्ति कायम है। और अभी बैठ मत जाना, अभी यात्रा जारी रखना। जिस दिन तृप्ति भी मालूम न पड़े, उस दिन अतृप्ति को छोड़ा जा सकता है। छूट ही गई। उस दिन फिर कहीं जाने को न बचा। आप पहुंच गए वहां, जहां पहुंचना आपकी नियति थी। हो गया वह घटित। जो बीज आपमें छिपा था, वह फूल बन गया। खुल गए, फैल गए, विस्तीर्ण हो गए, ब्रह्म हो गए।
"तेरा द्वीप हिरण की भांति है और तेरे विचार कुत्ते हैं जो जीवन की नदी की ओर उसकी यात्रा का पीछा कर उसकी प्रगति को अवरुद्ध करते हैं। उस हिरण के लिए शोक है, जिसे भौंकते कुत्ते उसके ध्यान-मार्ग नाम की शरणस्थली पर पहुंचने के पहले ही पराजित कर देते हैं'
जैसे कोई शिकारी या शिकारी कुत्ते एक हिरण का पीछा कर रहे हों, तो वे दौड़-दौड़ कर उसके मार्ग को अवरुद्ध करते हैं, चारों तरफ से घेर कर उसे नष्ट कर देने की तैयारी करते हैं। यह सूत्र उदाहरण के लिए कहता है कि तेरा ध्यान तो तेरा हिरण है, और तेरे विचार हैं शिकारी कुत्ते, जो तेरे ध्यान को सब तरफ से अवरुद्ध करते हैं। अगर ध्यान को उपलब्ध होना हो, तो इन शिकारी कुत्तों से छुटकारा चाहिए। लेकिन हम ध्यान की भी खोज करते हैं और इन विचारों को भी अपना मानते हैं। इसलिए यह बड़े उपद्रव की बात है। जिसे ध्यान चाहिए, उसे विचारों से तादात्मय तोड़ना है। उसे धीरे-धीरे कहना बंद करना चाहिए कि ये विचार मेरे हैं।
ध्यान के अतिरिक्त आपका कुछ भी नहीं है। एक भी विचार आपका अपना है नहीं। सब विचार उधार हैं, मिले हैं, किसी ने दिए हैं। शिक्षा से, संस्कार से, समाज से, शास्त्र से, कहीं से इकट्ठे हुए हैं। धूल की तरह आप पर जम गए हैं, जमाए गए हैं। कोई बच्चा विचार लेकर पैदा नहीं होता, लेकिन ध्यान लेकर पैदा होता है।
विचार तो हम उसे देते हैं, जरूरी है, उपयोगी है। विचार हम उसे देते हैं, उसके ध्यान की क्षमता तो भीतर होती है। विचार की पर्त चारों तरफ से जम जाती है। बड़ा होकर वह यह भूल ही जाता है कि उसके भीतर ध्यान का भी कोई केंद्र है। इस विचार की परिधि से ही वह अपने को एक कर लेता है। कहता है, मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, जैन हूं, ईसाई हूं, सोशलिस्ट हूं, कम्युनिस्ट हूं। कुछ विचारों की पर्त से अपने को जोड़ लेता है कि यह मैं हूं! अड़चन खड़ी हो जाती है।
विचार की पर्त बाहर से आई है, इसे स्मरण रखे ध्यान का खोजी। कोई विचार आपका नहीं है। चेतना आपकी है, चैतन्य आपका है, ध्यान आपका है। लेकिन विचार पराए हैं, बारोड, उधार हैं। उनसे अपना संबंध मत जोड़ना। क्योंकि उनसे संबंध जोड़ लिया, तो फिर ध्यान से संबंध न जुड़ सकेगा। ध्यान की तरफ चलनेवाले व्यक्ति को विचार से अपना संबंध तोड़ लेना चाहिए। और उसे तो एक ही बात खयाल रखनी चाहिए कि जन्म के साथ मेरे भीतर था, वह था मात्र चैतन्य। क्योंकि अगर चेतना न होती, तो दूसरे विचार दे भी नहीं सकते थे आपको।
एक पत्थर को विचार देकर देखें, एक जानवर को विचार देकर देखें, तो जानवर थोड़े से विचार ले लेगा, जितनी उसमें चेतना है। पत्थर बिलकुल ही नहीं लेगा; क्योंकि उतनी भी चेतना उसमें नहीं है। आदमी विचार ले लेता है, क्योंकि चेतना उसके पास है। दर्पण लेकर पैदा होता है, इसलिए धूल दर्पण पर इकट्ठी हो जाती है। ये विचार इकट्ठे हो जाते हैं। लेकिन आपका ध्यान नष्ट नहीं होता है, वह आपमें छिपा है। जिस दिन भी इस पर्त से आप अपने को अलग तोड़ लेते हैं और प्रतीति कर लेते हैं कि विचार मेरे नहीं हैं।
आप में से बहुत से लोग सोचते हैं कि यह शरीर मेरा नहीं, यह शरीर मेरा नहीं, यह शरीर मेरा नहीं; मैं आत्मा हूं। उससे ज्यादा फायदा नहीं होगा। ज्यादा गहरा फायदा इससे होगा कि कोई विचार मेरा नहीं। यह विचार भी कि शरीर मेरा नहीं, यह भी आपका नहीं है; यह भी आपने सीखा है, सुना है। विचार मात्र से अपना संबंध विच्छिन्न कर लें, और सिर्फ उस चैतन्य में ठहरने लगें, जो विचार के पूर्व है और विचार के बाद है। तो आप हिरण हो रहे हैं, शिकारी कुत्तों से बच रहे हैं।
यह प्रतीति निरंतर भीतर बनी रहे कि कोई विचार मेरा नहीं, विचार मात्र पराए हैं और बाहर से आए हैं। जो मेरे भीतर से आ रहा है, वही मेरा है। जो मैं जन्म के पूर्व था, और मृत्यु के बाद भी रहूंगा, वही मेरा है। उस गहरे केंद्र के साथ अपने तादात्मय को स्थापित करते जाएं, तो आपके आसपास वह बांध खड़ा हो जाएगा, जिस बांध से भीतर के इस कोमल द्वीप की रक्षा हो सकेगी। अन्यथा सागर इसे कभी भी डुबा ले सकता है। और चारों तरफ विचार का सागर है।
इसलिए सदगुरु मैं उसे कहता हूं, जो आपके विचार छीन ले, आपको रिक्त कर दे, खाली कर दे। सदगुरु उसे नहीं कहता, जो आपको और नए विचार दे दे, उससे आपका बोझ और बढ़ जाएगा, वैसे ही आप काफी पीड़ित और परेशान हैं, ये विचार और आपको मुसीबत देंगे।
बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा और उसने कहा कि मुझे कुछ सवाल पूछने हैं, तो बुद्ध ने कहा कि सवाल के जवाब अगर मैं दूंगा, तो तेरे बोझ को और बढ़ा दूंगा। अगर तू बोझ ही बढ़ाने आया हो, तो बात और है। अगर तू बोझ हल्का करना चाहता है, तो न तो पूछ और न उत्तर मांग। मेरे पास चुपचाप रह; साल भर रुक, साल भर मौन हो, साल भर ध्यान कर। साल भर सवाल-जवाब नहीं, साल भर वाणी का उपयोग नहीं, साल भर शब्द का संबंध ही तोड़ दे। फिर साल भर बाद मुझ से पूछना, फिर मैं तुझे उत्तर दूंगा।
जब यह बात बुद्ध ने कही इस युवक को, उसका नाथ था मौलुंकपुत्त। तो सारिपुत्त एक दूसरा संन्यासी बुद्ध का, एक वृक्ष के नीचे बैठा था पास में, वह खिलखिला कर हंसने लगा। और उसने मौलुंकपुत्त से कहा, सावधान! तो मौलुंकपुत्त बोला, समझ नहीं पड़ता मामला क्या है! हंसते क्यों हो? सारिपुत्त ने कहा, फंस मत जाना। अगर पूछना हो, तो अभी पूछ लेना! हम भी ऐसे फंस गए। आए थे पूछने, इस आदमी की बात माल ली; चुप होकर बैठ गए। साल बीत गया, प्रश्न भी खो गए; वे भी अशांति के हिस्से थे। फिर यह आदमी कहता है पूछो। पूछने को ही न बचा कुछ। पूछना हो, तो अभी पूछ लेना, साल भर का आश्वासन तो झूठा है। बुद्ध ने कहा, मैं आश्वासन देता हूं, मैं मजबूत रहूंगा आश्वासन पर। अब तुम्हीं न पूछो, बात और है।
साल बीता, मौलुंकपुत्त चुप रहा, ध्यान किया, मौन रहा, विचार से संबंध तोड़ा, चैतन्य से संबंध जोड़ा, जाना कि मैं वही हूं, सिर्फ होना मात्र हूं; बाकी सब जो खयाल हैं, शब्द हैं, प्रत्यय हैं, धारणाएं हैं, वह मेरे चारों तरफ धूल की तरह जम गई हैं। वह वस्त्र से ज्यादा नहीं हैं, जैसे वस्त्र के भीतर नग्न देह है, ऐसे विचारों के भीतर नग्न चेतना है। साल बीता, वह भूल ही गया कि पूछने का दिन करीब आ गया।
लेकिन बुद्ध न भूले। ठीक साल भर बीतने पर ठीक उसी दिन, उसी मुहूर्त में बुद्ध ने कहा, कि मौलुंकपुत्त साल बीत गया, अब तू खड़ा हो जा और पूछ ले क्या पूछना है। मौलुंकपुत्त हंसने लगा, उसने कहा, वह सारिपुत्त क्यों हंसा था, अब मैं भी जानता हूं। पूछने को कुछ भी नहीं बचा है। और उत्तरों की अब कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि उत्तर बाहर के हैं; और धूल जम जाएगी।
चैतन्य से संबंध, विचार से संबंध-विच्छेद--यही बांध बनेगा आपके चारों तरफ।
"हे सुख-दुख के विजेता, इसके पहले कि तू ध्यान-मार्ग में स्थित हो और उसे अपना कहे, तेरी आत्मा को पके आम जैसा होना है--दूसरे के दुखों के लिए उसके चमकदार व सुनहले गूदे की तरह और अपनी पीड़ा और शोक के लिए उसकी पथरीली गुठली की तरह'
जीवन का एक सामान्य प्राकृतिक नियम और वृत्ति है कि हमें अपने दुख से पीड़ा होती है और दूसरे के सुख से दुख। सहज ऐसा है, आप कितने ही बताते हों दूसरों के सुख में सुख, झूठा होता है; गहरे में पीड़ा होती है। अगर यह सच है कि दूसरे के सुख में पीड़ा होती है--जब आपके पड़ोस में किसी का मकान बड़ा हो जाता है, तो भला आपका मित्र हो और आप कहते हों कि बड़ी खुशी हुई कि अच्छा
मकान बना लिया; लेकिन अपने भीतर खोजना, वहां कोई कांटा चुभता है, कहीं कोई दुख मन को पकड़ता है। दूसरे के सुख में दुख होता है। इसको ठीक से समझें, तो अच्छा है; इसे झुठलाने में कोई सार भी नहीं है। और अगर यह सच है, तो फिर दूसरे के दुख में आपको सुख होता होगा।
कभी देखें, किसी के मकान में आग लग गई, आप कहेंगे, यह बात जरा जंचती नहीं है, दूसरे के सुख में हो सकता हैर् ईष्या है, पीड़ा है, लेकिन दूसरे के दुख में सुख नहीं होता
है, मकान में आग लगने से हम भी दुखी होते हैं। लेकिन जब किसी के मकान में आग लगती है और आप सांत्वना प्रकट करने जाते हैं, तब थोड़ा अध्ययन करना अपना, सांत्वना में कितना मजा आता है। आएगा ही। लोग सहानुभूति प्रकट करने में बड़ा मजा लेते हैं। मजा कई तरह का है। एक तो हम सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं और तुम उस हालत में आ गए जिस पर सहानुभूति प्रकट की जा रही है; तुम नीचे, हम ऊपर हैं। आपने कभी खयाल किया है कि जब कोई बहुत सहानुभूति आपके प्रति प्रकट करने लगता है, तो आपको थोड़ी पीड़ा होती है कि ठीक कोई बात नहीं, कभी भगवान हमको भी मौका देगा; ठहरो थोड़े दिन जल्दी वह वक्त आएगा, जब हम भी सहानुभूति प्रकट करेंगे। ऐसा भी क्या है, इतने खुश मत हो जाओ।
अगर आप किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहे हों, और वह कहे, क्यों फिजूल की बातें कर रहे हो, तो आपको बहुत पीड़ा होती है। एक अवसर छीन लिया। इसे थोड़ा गहरे में खोजना, क्योंकि अचेतन है। जब आप सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो मन में रस आता है, अच्छा लगता है। चाहे चेतन रूप से आपको पता भी न हो, दूसरे के सुख में अगर पीड़ा होती है, तो दूसरे के दुख में पीड़ा नहीं हो सकती है। कैसे होगी? अपने दुख में पीड़ा होती है, अपने सुख में सुख होता है। यह सहज आदमी जैसा है।
यह सूत्र कहता है, इस आदमी को उल्टा कर लेना, तो ही आगे गति होगी। एक सीमा पर अगर आदमी अपनी इस वृत्ति को बदल न ले, तो संसार के बाहर नहीं जाता है। यह संसार का नियम है। इस नियम को बदलते ही आप संसार के बाहर होने शुरू हो जाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अपने को दुख झेलना सीखना। सिर्फ झेलना ही कहना ठीक नहीं, शुरू में झेलना सीखना, फिर जैसे-जैसे झेलने की क्षमता बढ़ जाए, तो अपने दुख में एक तरह का सुख भी लेना सीखना। वह जरा कठिन है। लेकिन हो सकता है। दूसरे के सुख में दुख लेना बंद करना। और जैसे-जैसे क्षमता बढ़ती जाए, दूसरे के सुख में सुख लेना शुरू करना। दूसरे के दुख में पीड़ित होना। दूसरे के दुख के लिए बहुत नाजुक हो जाना, संवेदनशील हो जाना, सेंसिटिव हो जाना और अपने दुख के लिए बहुत कठोर, मजबूत हो जाना।
यह सूत्र कहता है, दूसरे के दुखों के लिए ऐसे बन जाना, जैसे आम का पका हुआ फल, दूसरों के दुखों के लिए आम का रस, आम का गूदा और अपने दुखों और पीड़ा के लिए गुठली की तरह मजबूत बनना, आम की गुठली की तरह, अपनी पीड़ा को झेलना, और अपनी पीड़ा को धीरे-धीरे स्वीकार करना और अपनी पीड़ा को सुखद अनुभव करना।
कठिन है बहुत, और मन को समझ में नहीं आता। मन को समझ में आएगा भी नहीं। क्योंकि मन उस नियम को मानता है, जिसमें अपनी पीड़ा पीड़ा और दूसरे की पीड़ा पीड़ा नहीं है। जिसमें अपना सुख सुख और दूसरे का सुख सुख नहीं है। इसलिए मन की समझ में नहीं आएगा। लेकिन साधक अगर थोड़ी सी चेष्टाएं करे तो इसके अनुभव होने शुरू हो जाएंगे और बड़े अनूठे अनुभव होंगे।
अगर दूसरे के सुख में आप सुख अनुभव करने लगें, तो आपका दुख पहले तो हजार गुना एकदम कम हो जाएगा। क्योंकि हमारे ज्यादा दुख अपने दुख नहीं हैं, दूसरों के सुखों के कारण हैं। आपका झोपड़ा छोटा है, ऐसा झोपड़े के कारण नहीं है; पास में जो बड़े मकान खड़े हैं, उनके कारण है। और आपकी पत्नी सुंदर नहीं है, ऐसा आपकी पत्नी के साथ नहीं है, वह जो औरों की पत्नियां सुंदर हैं, उसके कारण है। तुलना। दूसरों का सुख चारों तरफ घेरे हुए है, और सब सुखी मालूम पड़ रहे हैं, सिर्फ आपको छोड़ कर। दूसरे भी यही मानते हैं। सभी की दृष्टि यही है कि मेरे सिवाय सारा जगत सुखी है। "हे परमात्मा, मुझ पर ही क्यों इतना नाराज है! मैंने ऐसा क्या बिगाड़ा है? सब सुखी दिखाई पड़ रहे हैं। ' यही सब कह रहे हैं।
दूसरों का सुख दिखाई पड़ता है, अपना दुख दिखाई पड़ता है।
अपना सुख दिखाई नहीं पड़ता, दूसरे का दुख दिखाई ही नहीं पड़ता! मन के जिस नियम में हम रहते हैं, वहां यही होगा। अपना सुख हम स्वीकार कर लेते हैं कि उसमें क्या सुख है? है ही क्या उसमें? अगर आपके पास दस हजार रुपए हैं, तो उसमें क्या सुख है? दस हजार भी कोई रुपए हैं? वह तो जिसके पास दस रुपए हों, उसको दिखाई पड़ रहा है कि मजा ले रहे हो दस हजार का। और आप दस हजार का दुख ले रहे हैं! क्योंकि आप दस वाले से कभी नहीं तौलते अपने को, आप दस लाख वाले से तौल रहे हैं।
जहां जाना है, वहीं से आदमी तौलता है। तो दस रुपए वाले की दुनिया
में तो जाना नहीं है, जाना है दस लाख की दुनिया में, तो तोल है! दस रुपए वाला दुखी है, दस हजार वाले के कारण; दस के कारण नहीं। दस हजार वाला दुखी है, दस लाख वाले के कारण। दस लाख वाला दुखी है, दस करोड़ वाले के कारण।
सब दुखी हैं--अपने दुख के कारण नहीं, दूसरे के सुख के कारण।
और जब तक आपकी यह वृत्ति है, तब तक आप कैसे सुखी हो सकते हैं? दस लाख हों, तो भी दुखी होंगे! दस करोड़ हों तो भी दुखी होंगे। कहीं भी हों, जिस मन को आप लेकर चल रहे हैं, वह दुख पैदा करेगा।
सुखी होने का उपाय कुछ और है। दूसरे का दुख अगर आपको दिखाई पड़ने लगे, तो आप सुखी होना शुरू हो गए। तब आपके चारों तरफ सुख का सागर दिखाई पड़ेगा।
मैंने सुना है, एक फकीर था जुन्नून। कोई भी आदमी उसके पास मिलने आता, तो वह हंसता खिलखिला कर और नाचने लगता। लोग उससे पूछते कि बात क्या है? वह कहता एक तरकीब मैंने सीख ली है सुखी होने की। मैं हर आदमी में से वह कारण खोज लेता हूं, जिससे मैं सुखी हो जाऊं। एक आदमी आया, उसके पास एक आंख थी, जुन्नून नाचने लगा। यह क्या मामला है? उसने कहा कि तुमने मुझे बड़ा सुखी कर दिया; मेरे पास दो आंखें हैं, हे प्रभु इसमें तेरा धन्यवाद! एक लंगड़े आदमी को देखकर वह सड़क पर ही नाचने लगा। उसने कहा कि गजब--अपनी कोई पात्रता न थी, दो पैर दिए हैं! एक मुद की लाश--मुद को लोग मरघट ले जा रहे थे। जुन्नून ने कहा, हम अभी जिंदा हैं, और पात्रता कोई भी नहीं है। और कोई कारण नहीं है, अगर हम मर गए होते इस आदमी की जगह, तो कोई शिकायत भी करने का उपाय नहीं था। उसकी बड़ी कृपा है।
जुन्नून दुखी नहीं था, कभी दुखी नहीं हो सका। क्योंकि उसने दूसरे का दुख देखना शुरू कर दिया। और जब कोई दूसरे का दुख देखता है, तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना सुख दिखाई पड़ता है। और जब कोई दूसरे का सुख देखता है तो उसकी पृष्ठभूमि में अपना दुख दिखाई पड़ता है।
सुना है मैंने कि एक यहूदी फकीर हुआ, हसीद फकीर बालसेन। एक ईसाई पादरी बालसेन के ज्ञान से प्रभावित था। यहूदी और ईसाईयों में तो बड़ी दुश्मनी थी; लेकिन बालसेन आदमी काम का था। तो कभी-कभी एकांत में उस यहूदी के पास ईसाई पादरी मिलने जाता था। एक दिन ईसाई पादरी ने पूछा कि तुम यहूदियों का तर्क कैसा है? तुम सोचते किस ढंग से हो? क्योंकि तुम्हारे सोचने के मुकाबले कोई तर्क नहीं दिखाई पड़ता। तुम जिस काम में लगते हो, सफल हो जाते हो, तुम जहां हाथ उठाते हो, वहीं सफलता पाते हो। मिट्टी छूते हो, सोना हो जाती है। तुम्हारा क्या तर्क है? व्यवस्था क्या है तुम्हारी सोचने की?
तो उस बालसेन ने कहा कि एक कहानी तुमसे कहता हूं।
दो आदमी एक मकान की चिमनी से भीतर प्रवेश किए। दोनों शुभ्र कपड़े पहने हुए थे। चिमनी धुएं से काली थी। एक आदमी बिलकुल साफ-सुथरा चिमनी के बाहर आया, जरा भी दाग नहीं। दूसरा आदमी कालिख से पुता हुआ बाहर निकला, एक भी जगह साफ न बची थी। तो मैं तुमसे पूछता हूं कि इन दोनों में से कौन स्नान करेगा? तो पादरी ने कहा, यह भी कोई पूछने की बात है? क्या तुमने मुझे इतना मूढ़ समझ रखा है? जो काला हो गया, कालिख से भर गया है, वह स्नान करेगा। बालसेन ने कहा, यही यहूदी तर्क में फर्क है। जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है, वह स्नान करेगा। उसने कहा, हद हो गई! क्या मतलब--समझाओ? तो बालसेन ने कहा, जो आदमी सफेद कपड़े पहने हुए है, वह अपने मित्र की हालत देखेगा। और जिसके कपड़े काले हो गए हैं, वह अपने मित्र की हालत देखेगा। क्योंकि दुनिया में हर आदमी दूसरे की हालत देख रहा है। इसलिए मैं कहता हूं, जिसके कपड़े सफेद हैं, वह स्नान करेगा; क्योंकि वह समझेगा कि कैसी गंदी हालत हो रही है, चिमनी से निकलने पर। क्योंकि लोग दूसरे को देख रहे हैं। और वह जो आदमी काले कपड़े पहने हुए है, वह मजे से घर चला जाएगा। क्योंकि वह देखेगा कि अरे, गजब की चिमनी है, इतनी कालिख, लेकिन निशान एक नहीं आया है! क्योंकि हर आदमी दूसरे को देख रहा है।
ठीक कहा बालसेन ने। हर आदमी दूसरे को देख रहा है, और उसी आधार पर निर्णय ले रहा है। आप देख रहे हैं दूसरे का सुख, दुखी हो रहे हैं; उसके आधार पर निर्णय ले रहे हैं। देखें दूसरे का सुख और आप सुखी होना शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब आपको अपना दुख नहीं दिखाई पड़ेगा। और न केवल देखें दूसरे का सुख, दूसरे के सुख में उत्सव मनाएं
यह थोड़ा और आगे बढ़ना है। और जो आदमी दूसरे के सुख में उत्सव मना सकता है, उसके सुख के अवसर की कमी न रहेगी। उसे प्रतिपल सुख का अवसर मिल जाएगा। और उत्सव मनाया जा सकता है। क्योंकि तब हजार करोड़, अरब लोगों के सुख, तब आपकी संपत्ति, सभी के सुख आपकी संपत्ति हो गए। और ऐसी मनोदशा हो, तो अपने दुख को स्वीकार करने में अड़चन न आएगी। सच तो यह है, वह तिरोहित हो जाएगा। और कभी-कभी अगर आएगा भी, तो स्वाद परिवर्तन का काम करेगा, उसमें भी रस आएगा।
कभी-कभी दुख बुरा नहीं होता, उससे थोड़ा स्वाद बदलता है।
जैसे कोई मिठाई ही मिठाई खाए, तो तकलीफ हो जाती है। थोड़ा नमकीन अच्छा होता है। वैसे-वैसे सुख के बीच थोड़ा सा दुख एक नई ताजगी दे जाता है, और सुख को अनुभव करने को जीभ फिर तैयार हो जाती है।
"अपने दुख के प्रति कठोर, दूसरे के सुख के प्रति बहुत संवेदनशील, ऐसा जो साध लेता है, वह इस जगत के बाहर होना शुरू हो गया। यह जगत फिर आपको न पकड़ पाएगा'
"अहंकार के नागपाश से बचने के लिए अपनी आत्मा को कठोर बना, उसे वज्र आत्मा नाम पाने के योग्य बना'
"क्योंकि जिस प्रकार धरती के धड़कते हृदय की गहराई में गड़ा हीरा धरती के प्रकाशों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है, उसी प्रकार तेरा
मन और आत्मा है। ध्यान-मार्ग में डूब कर उसे भी माया के जगत की भ्रांति-भरी शून्यता को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।'
इस जगत के सभी नियम भ्रांति-भरे हैं। और जैसे कोई हीरा जमीन में गड़ा हो, उस जमीन में गड़े हुए हीरे में फिर सूरज का कोई प्रतिबिंब नहीं बनता है, ऐसे ही तू भी ध्यान में अपने को गड़ा ले, ताकि इस जगत के कोई प्रतिबिंब तुझमें न बनें और जगत की कोई छाया तुझे न पकड़े और जगत के नियम तुझे आंदोलित न करें। तू अपने ही ध्यान के नियमों में जी और उनमें ही डूब। और ध्यान के नियम जगत के नियम से बिलकुल विपरीत हैं।
जब तू विराग की उस अवस्था को प्राप्त कर चुकेगा, तब वे द्वार, जिन्हें तुझे मार्ग पर चल कर जीतना है, तुझे अपने भीतर लेने के लिए अपना हृदय पूरे-का-पूरा खोल देंगे। प्रकृति की बड़ी से बड़ी शक्तियां भी तब गति को नहीं रोक सकेंगी। तब तू सप्तवर्णी मार्ग का स्वामी हो जाएगा; लेकिन, ओ परीक्षा के प्रत्याशी! उसके पहले यह संभव नहीं है।
तब तक एक बहुत कठिन काम तुझे करना है: तुझे अपने को एक साथ सर्व-विचार भी अनुभव करना है और अपनी आत्मा से सर्व-विचारों को निष्कासित भी करना है।
तुझे मन की उस स्थिरता को उपलब्ध होना है, जिसमें तेज से तेज हवा भी किसी पार्थिव विचार को उसके भीतर प्रविष्ट न करा सके। इस तरह परिशुद्ध होकर मंदिर को सभी सांसारिक कर्म, शब्द व पार्थिव रोशनी से रिक्त हो जाना है। जिस प्रकार पाला की मारी तितली देहली पर ही गिर कर ढेर हो जाती है, उसी प्रकार सभी पार्थिव विचारों को मंदिर के सामने ढेर हो जाना चाहिए।
यह जो लिखित है, इसे पढ़:
""इसके पहले कि स्वर्ण-ज्योतिशिखा स्थिर प्रकाश के साथ जले, दीप को वायुरहित स्थान में सुरक्षित रखना जरूरी है। बदलती हवाओं के सामने होकर प्रकाश की धारा हिलने लगेगी और उस हिलती शिखा से आत्मा के उज्जवल मंदिर पर भ्रामक काली और सदा बदलने वाली छाया पड़ जाएगी।''
आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें