जिन सूत्र (भाग--2)
सूत्र:
जह चिरसंचयमिंधण—मनलो पवणसहिओ
दुयं दहइ।
तह
कम्मेंधममियं,
खणेण झाणानलो
डहइ।। 131।।
झाणोवरमेउवि मुणी,
णिच्वमणिच्चइभावणापरमो।
होइ
सुभावियचित्तो,
धम्मझाणेण
जो पुव्विं।।
132।।
अद्धुवमसरणमेगत्त मन्नत्तसंसारलोयमसुइत्तं।
पहला
सूत्र:
"जैसे
चिर-संचित
ईंधन को वायु
से उद्दीप्त
आग तत्काल जला
डालती है, वैसे
ही ध्यान रूपी
अग्नि
अपरिमित
कर्म-ईंधन को क्षणभर
में भस्म कर
डालती है।'
मनुष्य
अति प्राचीन
है; कहें कि
सनातन है, सदा
से है।
अनंत
जन्मों में
अनंत कर्म हुए
हैं--पुण्य
हुए हैं, पाप
हुए हैं। यदि
उन सब पुण्य
और पापों के
लिए एक-एक का
हिसाब चुकाना
पड़े तो मुक्ति
असंभव है। एक
तो इतना लंबा
काल! उस लंबे
काल में इतने
कर्मों की
शृंखला! उसे छांटते-छांटते
अनंत काल
व्यतीत होगा।
और यह
जो अनंत काल
व्यतीत होगा
पुराने
कर्मों को
तोड़ने में, इस बीच भी नए
कर्म निर्मित
होंगे। तोड़ना
भी कर्म है।
किसी कर्म से
छूटने की
चेष्टा नया
कर्म और नए
कर्म की
शुरुआत है। तब
तो जाल दुष्टचक्र
जैसा है। इसके
बाहर होना
मुश्किल है।
कुछ तो
करोगे! अधर्म
न करोगे, धर्म
करोगे। पाप न
करोगे, पुण्य
करोगे। लेकिन
महावीर कहते
हैं, पुण्य
भी वैसे ही
बांध लेता है,
जैसे पाप।
बुरा
करनेवाले का
भी अहंकार
होता है, भला
करनेवाले का
भी अहंकार
होता है; और
कभी-कभी तो
बुरा
करनेवाले से
ज्यादा सघन होता
है। बुरा
करनेवाले को
तो थोड़ी पीड़ा
भी होती है, दीनता भी
होती है, अपराध
भाव भी होता
है। भला करने
का अहंकार तो स्वर्णमंडित
हो जाता है।
उसमें
हीरे-जवाहरात
टक जाते हैं।
भला करनेवाले
का अहंकार तो
पुण्य से
शोभायमान हो
जाता है, प्रदीप्त
हो जाता है।
ठीक भी
करें तो भी
करनेवाले की
मजबूती बढ़ती
है, कर्ता का
भाव बढ़ता है।
मंदिर बनाओ, दान दो, उपवास
करो, तप
करो तो भी हर
कृत्य से
कर्ता मजबूत
होता है। और
कर्ता का मजबूत
होना ही संसार
है। कर्ता का
मजबूत होना ही
संसार में
वापस लौट आने
की सीढ़ी है।
कर्ता
क्षीण होना
चाहिए।
कर्ता
क्षीण होगा तो
कर्म क्षीण
होंगे।
धीरे-धीरे
यह भाव ही मिट
जाना चाहिए कि
मेरे भीतर कोई
कर्ता है।
सिर्फ साक्षी
शेष रहे।
सिर्फ
द्रष्टा शेष
रहे।
तो
कर्म को कर्म
से काटा नहीं
जा सकता। न
पाप को पुण्य
से काटा जा
सकता है।
क्योंकि यह हो
सकता है, पाप
की जगह पुण्य
रख लो, लेकिन
बंधन बदलेंगे
नहीं; रूपांतरित
भला हो जाएं।
पहले से सुंदर
हो जाएं; ज्यादा
सजे-बजे
हो जाएं; पहले
से ज्यादा
शृंगार हो जाए
उनका। हथकड़ियों
पर सोना मढ़ा
जा सकता है, लेकिन हथकड़ियों
को इस तरह
तोड़ने का कोई
उपाय नहीं है।
कर्म से कर्म
नहीं टूटता।
तो फिर
कर्म कैसे
टूटेगा?
अगर
कर्म से कर्म
नहीं टूटता तो
क्या आदमी के लिए
कोई भी आशा
नहीं है? अगर
हर कृत्य नए
जाल को बना
जाएगा तो फिर
हम इस जाल के
कभी बाहर हो सकेंगे
या न हो
सकेंगे?
महावीर
कहते हैं, बाहर हुआ जा
सकता है, लेकिन
कर्म द्वार
नहीं है बाहर
होने का। कर्म
ही तो संसार
में आने की
व्यवस्था है।
अकर्म द्वार
है।
ध्यान
का अर्थ है:
अकर्म की दशा।
ध्यान
का अर्थ है:
साक्षी की
दशा।
ध्यान
का अर्थ है:
ऐसी जागरूक
चेतना, जो
कृत्य के साथ
अपना
तादात्म्य
नहीं करती।
राह
चलते हो तुम, लेकिन भीतर
कोई जागकर
देखता रहता है
कि मैं नहीं
चल रहा हूं, शरीर चल रहा
है। मैं तो
देख रहा हूं
कि शरीर चल रहा
है।
भूख
लगती है, भीतर
कोई देखता
रहता है, भूख
मुझे नहीं लगी
है, शरीर
को लगी है।
भोजन किया
जाता है, शरीर
में भोजन डाला
जा रहा है, कोई
भीतर जागकर
देखता रहता
है। तृप्ति हो
जाती है, भूख
मिट जाती है, कोई भीतर
साक्षी की तरह
अवलोकन करता
रहता है कि अब
भूख मिट गई, शरीर तृप्त
है। लेकिन
किसी भी
स्थिति में अपने
को जोड़ता नहीं
कृत्य से।
कृत्य
से तोड़ लेने
का नाम ध्यान
है।
चौबीस
घंटे कृत्य हो
रहे हैं। कुछ
न भी करो, खाली
बैठे रहो तो
भी श्वास चलती
है; तो भी
कृत्य हो रहा
है। तुम कहते
हो कि मैं श्वास
ले रहा हूं।
हालांकि
तुमने कभी
सोचा नहीं कि
इससे ज्यादा
झूठी बात क्या
होगी, कि
तुम कहते हो, मैं श्वास
ले रहा हूं।
जब श्वास न
आएगी तब ले सकोगे?
जब रुक
जाएगी तब तुम
कहोगे, कोई
फिक्र नहीं, मैं तो लेना
जारी रखूंगा?
जो श्वास
बाहर गई और न
लौटी तो तुम
लौटा सकोगे?
उस
वक्त पता
चलेगा कि
श्वास भी मैं
नहीं ले रहा
था, श्वास चल
रही थी। और
चलने की
क्रिया के साथ
मैंने नाहक ही
अपने को कर्ता
की तरह जोड़
लिया था। भूख
तुम्हें लगी है?
भूख तुमने
लगाई है? लग
रही है, सच
है; लेकिन
तुम नाहक बीच
में जुड़ जाते
हो। तुम दूर खड़े
देख सकते हो।
भूख शरीर में घटनेवाली
घटना है।
महावीर
ने इसीलिए
उपवास पर बड़ा
जोर दिया। वह
उपवास
आत्मदमन के
लिए नहीं था; जैसा जैन
मुनि करते
रहे। महावीर
का उपवास शरीर
को पीड़ा देने
के लिए नहीं
था। महावीर का
उपवास तो
सिर्फ एक भीतर
अवकाश पैदा
करने के लिए था
कि चेतना जागकर
देखती रहे।
जैसे-जैसे भूख
सघन होती जाए,
वैसे-वैसे
संभावना बढ़ती
है कि तादात्म्य
पैदा हो जाए।
जब भूख बहुत
जोर से हो तो
तुम भूल ही
जाओ कि मैं
साक्षी हूं।
भूख थोड़ी-थोड़ी
लगी हो, भोजन
पास में हो, फ्रिज के
पास ही बैठे
हो, चौके
से सुगंध आ
रही है, तब
शायद तुम
ध्यान की
बातों का मजा
भी ले लो। तुम
कहो, कहां
भूख! मैं तो
साक्षी हूं।
भूख इतनी नहीं
है। साक्षी
होने में कुछ
खर्च नहीं हो
रहा है। लेकिन
जब भूख पीड़ा
की तरह चुभे,
छाती में
गहरी उतरती
जाए, रोआं-रोआं
चीखने-चिल्लाने
लगे, तब
ध्यान रखना
कठिन होता चला
जाएगा।
महावीर
ने उपवास को
सिर्फ ध्यान
की प्रक्रिया
समझा। ऐसी घड़ी
आती है, जहां
भूख अपने प्रचंड
वेग में खड़ी
होती है कि
आदमी पागल हो
जाए; कि
आदमी कुछ भी
खा ले; कि
चोरी कर ले, कि हत्या कर
दे।
रेगिस्तान
में चलनेवाले
लोगों का
अनुभव है कि
कभी प्यास ऐसी
लग आती है कि
आदमी अपनी
पेशाब पी जाता
है, पानी न
मिले तो। ऊंट
की पेशाब पी
जाता है, अगर
पानी न मिले तो।
ऐसी प्यास लग
सकती है
रेगिस्तान
में कि आदमी
को होश ही न रह
जाए, साक्षी
की तो बात और।
यह भी खयाल न
रहे, मैं
क्या पी रहा
हूं।
ये तो
सब सुविधा की
बातें हैं कि
तुम कहते हो, जल शुद्ध है
या नहीं? छना है
या नहीं? ये
तो सुविधा की
बातें हैं कि
तुम कहते हो
कि प्राशुक
है? उबाला
गया है, या
किसी गंदी
नाली से भर
लाए हो? ये
सुविधा की
बातें हैं।
रेगिस्तान
में जब प्यास पकड़ी हो, सामने नाली
भी पड़ जाए
गंदगी से बहती,
तो भी आदमी
पी लेगा।
महावीर ने
इसको
महत्वपूर्ण
प्रयोग
बनाया।
क्योंकि भूख
बड़ी गहरी बात
है; सबसे
गहरी बात है।
आदमी
के जीवन में
दो बातें
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण हैं:
एक है
कामवासना और
एक है भूखवासना।
कामवासना से
समाज जीता है।
कामवासना
समाज का भोजन
है। अगर तुम
कामवासना को
रोक लो तो तुमने
समाज की एक
शाखा को तोड़
दिया। अब आगे
कोई संतति
पैदा न होगी।
तुम्हारी
कामवासना से
तुम्हारे
बच्चे जीते
हैं।
तुम्हारी
कामवासना से
जीवन जीता है, संसार चलता
है।
तो
कामवासना
संसार के लिए
भोजन है। उसके
बिना संसार
मरेगा। अगर
सभी लोग
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाएं तो संसार
तत्क्षण रुक
जाएगा।
इसलिए
पश्चिम के एक
बहुत बड़े
विचारक
इमेन्युएल
कांट ने
ब्रह्मचर्य
को पाप कहा।
उसकी बात में
बल है। वह
कहता है, ब्रह्मचर्य
तो एक तरह की
हिंसा है। तुम
किसी को पैदा
होने से रोक
रहे हो। तो
किसी को जिंदा
रहकर मारो या
पैदा होने से
रोको, बात
तो बराबर है।
किसी की गर्दन
काटो, या
किसी को पैदा
न होने दो।
पैदा न होने
देने का मतलब हुआ
कि तुमने
गर्दन बनने के
पहले ही काट
दी।
फिर
इमेन्युएल
कांट ने कहा
कि
नीतिशास्त्र
का आधारभूत
नियम है कि
जिस सूत्र को
मानकर हम चलें
उसके मानने से
ऐसी घटना नहीं
घटनी चाहिए कि
उस सूत्र को
मानना ही
असंभव हो जाए।
नहीं तो वह
आत्मघाती
सूत्र हुआ।
जैसे
समझो, इमेन्युएल
कांट कहता है,
झूठ बोलना
पाप है, अनैतिक
है। क्योंकि
अगर सभी लोग
झूठ बोलने लगे
तो झूठ बोलना
संभव न रह
जाएगा। झूठ तो
चलता इसीलिए
है कि कुछ लोग
अभी भी सच में
भरोसा करते हैं।
झूठ झूठ के
कारण नहीं
चलता, सच
पर भरोसा
करनेवालों के
कारण चलता है।
झूठ के अपने
पैर नहीं हैं।
सच की बैसाखी
को लेकर चलता
है। इसीलिए तो
झूठ बोलनेवाला
बड़ा दावा करता
है कि मैं सच
बोल रहा हूं।
जब तक वह
तुम्हें
भरोसा न दिला
दे कि मैं सच
बोल रहा हूं, तब तक झूठ
बोलने का अवसर
नहीं, उपाय
नहीं।
एक
अदालत में
मुल्ला नसरुद्दीन
पर मुकदमा था।
एक बहुत सीधे-सादे, साधु पुरुष
को उसने धोखा
दे दिया। उसकी
जेब काट ली।
पुरानी
मित्रता थी और
साधु पुरुष था;
इस पर भरोसा
करता था। गांव
भर को पता था
कि वह आदमी
अत्यंत साधु
है।
मजिस्ट्रेट
को भी पता था।
मजिस्ट्रेट
ने कहा, "नसरुद्दीन! किसी और को
धोखा देते। यह
तुम्हारा
पुराना मित्र,
बचपन का
साथी। गांव
में साधु की
तरह पूजा जाता,
इसकी तुमने
जेब काटी? तुम्हें
संकोच न हुआ? जो इतना
भरोसा करता है
तुम पर, उसकी
जेब काटी?'
नसरुद्दीन
ने कहा, "तो
और किसकी काटूं?
वह जो भरोसा
करता है, उसी
की काटी जा
सकती है। जो
भरोसा नहीं
करता उसकी तो काटनी
मुश्किल है।'
साधु
को ही धोखा
दिया जा सकता
है; धोखेबाज
को कैसे दोगे?
ईमानदार के
साथ ही
बेईमानी की जा
सकती है; बेईमान
के साथ कैसे
करोगे?
इमेन्युएल
कांट ने कहा, कि जिस
सूत्र को
मानने से उस
सूत्र को
मानना असंभव
हो जाए, वह
अनैतिक है। तो
झूठ अगर सभी
लोग मान लें, अगर झूठ
सार्वलौकिक
हो जाए, युनिवर्सल हो जाए तो
झूठ असंभव हो
जाएगा। अगर यह
घोषणा कर दी
जाए कि सभी
लोग झूठ बोलते
हैं और सभी
लोगों को झूठ
बोलना ही धर्म
है तो उसी दिन
झूठ मुश्किल
में पड़ जाएगा।
क्योंकि कौन
तुम्हारा भरोसा
करेगा? तुम
सच भी कहो तो
लोग समझेंगे,
झूठ बोल रहे
हो।
अगर
चोरी नियम हो
तो चोरी असंभव
हो जाएगी। अगर
सभी लोग चोरी
कर रहे हों तो
चोरी का अर्थ
क्या है? एक
घर से दूसरे
घर चीजें
उठाकर रखने
में फायदा
क्या है? सार
क्या है? जहां
सभी चोर
हों...इसलिए
तुमने देखा
होगा, कि
चोरों के जो
मंडल होते हैं,
वे आपस में
चोरी नहीं
करते।
क्योंकि वहां
तो नियम मानकर
चलना चाहिए कि
चोरी नहीं।
नहीं तो जीवन
ही मुश्किल हो
जाएगा।
इमेन्युएल
कांट ने कहा
है, ऐसा ही
ब्रह्मचर्य
भी है। अगर
सभी लोग
ब्रह्मचारी
हो जाएं तो इस
जगत में
ब्रह्मचर्य
को पालन करने
के लिए भी कोई
न बचेगा। इसका
अर्थ हुआ कि
अगर दुनिया
में
ब्रह्मचारी
चाहिए तो कुछ
कामी चाहिए ही
होंगे; नहीं
तो
ब्रह्मचारी न
बचेंगे।
तो
ब्रह्मचर्य
का नियम
सार्वलौकिक
नहीं हो सकता।
इसके मानने के
लिए भी, इसके
माननेवालों
के होने के
लिए भी, इसको
तोड़नेवालों
की जरूरत है।
महावीर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकते हैं
क्योंकि
महावीर के
माता-पिता
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
नहीं थे। अगर
महावीर के
माता-पिता ने
ही
ब्रह्मचर्य
साधा होता तो
महावीर के
होने की
संभावना ही न
थी। तो महावीर
के होने के
लिए महावीर के
माता-पिता की
कामवासना को
धन्यवाद तो
देना ही होगा।
बुद्ध को, या कृष्ण को,
या
क्राइस्ट को
होने के लिए
भी कामवासना
का सहारा ही
लेकर आना
पड़ेगा।
इसे
समझने की
जरूरत है।
ब्रह्मचर्य
जीवन का
समाप्त--अंतिम
अध्याय होगा; अंतिम
पटाक्षेप हो
जाएगा। मैं यह
नहीं कह रहा हूं
कि
ब्रह्मचर्य
पालन मत करना।
क्योंकि सभी
ब्रह्मचर्य
पालन कर सकें,
यह असंभव
है। एक भी
पालन कर पाए, यह भी बड़ा
कठिन है, तो
सभी कर पाएंगे
यह तो असंभव
है।
इमेन्युएल
कांट ने असंभव
की बात को
संभव मानकर
गलत सिद्ध
करने की
चेष्टा की है।
यह होनेवाला
नहीं है।
लाखों वर्षों
से आदमी
ब्रह्मचर्य की
चर्चा करता है, शास्त्र
लिखता है। कभी
कोई एकाध
व्यक्ति
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
पाता है। यह
बात कठिन है।
मैं यह
कह रहा हूं कि
कामवासना
दूसरों का
भोजन है, भविष्य
का भोजन है, आनेवाली
पीढ़ियों का
भोजन है।
इसीलिए
कामवासना का
इतना प्रबल
प्रभाव है।
तुम्हारे
बच्चे तुमसे
आने को तड़फ
रहे हैं। इसलिए
तुम लाख
चेष्टा करो
ब्रह्मचर्य
साधने की, उनके
प्राण संकट
में पड़े हैं।
वे धक्के
मारेंगे। वे
तुम्हारे
नियम तोड़ेंगे,
तुम्हारी
प्रतिज्ञा का
खंडन करेंगे
और जन्म लेने
की आतुरता
प्रगट
करेंगे।
जब
तुम्हारे
भीतर
कामवासना
उठती है तो वह
भी तुम्हारी
नहीं है। वह
भी आनेवाले
जन्मों का, आनेवाले
जीवनों का
आकर्षण है, खिंचाव है।
तुमसे
आनेवाले जीवन
कह रहे हैं कि अपना
काम पूरा करो।
इसके पहले कि
तुम विदा हो जाओ,
तुम माध्यम
बनो। जीवन की
शृंखला जारी
रहे।
तो एक
तो कामवासना
का आदमी पर
बड़ा प्रभाव
है। लेकिन वह
इतना बड़ा
प्रभाव नहीं
है कि आदमी
ब्रह्मचर्य
से न रह सके।
क्योंकि दूसरे
का जीवन संकट
में पड़ता है, तुम्हारा तो
पड़ता नहीं।
तुम तो हो।
तुम्हारा तो
पड़ता--तुम्हारे
मां बाप, उनके
मां बाप अगर
ब्रह्मचर्य
का नियम लेते।
तुम तो हो गए।
तुम तो हो।
तुम्हारा तो
अब कोई संकट
में पड़ने का
कोई कारण नहीं
है।
दूसरी
महत्वपूर्ण
वासना है भोजन
की। वह कामवासना
से ज्यादा
गहरी है, क्योंकि
उससे
तुम्हारा ही
जीवन संकट में
पड़ता है।
कामवासना से
कोई होनेवाले
लोग, जिनका
हमें कोई पता
नहीं है, न
होंगे। क्या
लेना-देना है?
लेकिन भोजन
छोड़ने से तुम
नहीं हो
जाओगे।
तो
महावीर ने
उपवास को बड़ा
गहरा प्रयोग
बनाया।
जैसे-जैसे भूख
बढ़ती जाती है, तुम्हारा
जीवन संकट में
पड़ता है, वैसे-वैसे
तुम्हारे
भीतर होश की
क्षमता क्षीण
होती जाती है।
भूखा क्या न
करता?
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, भूख सब
पापों की जड़
है। शायद सच
कहते हैं। जब
तक भूख न मिटे,
दुनिया से
शायद पाप मिट
भी न सकेंगे।
भूखा कुछ भी कर
सकता है। और
भूखा कुछ करे
तो क्षम्य भी
मालूम पड़ता
है।
महावीर
ने गहरे उपवास
किए। सिर्फ एक
बात जानने के
लिए कि क्या
ऐसी भी कोई
सीमा है भूख
की, जहां
मेरा होश खो
जाता हो? क्या
ऐसी भी कोई
सीमा आती है, जहां कि मैं
भूल जाऊं कि
मैं साक्षी
हूं और कर्ता
हो जाऊं?
इस
गहरे परीक्षण
के लिए उपवास।
उपवास आत्मदमन
नहीं है
महावीर का, ध्यान का एक
गहन प्रयोग
है। उपवास
शब्द में भी
वह बात छिपी
है। इसलिए
महावीर ने
उपवास को अनशन
नहीं कहा, भूखा
रहना नहीं कहा,
उपवास कहा।
उपवास का अर्थ
होता है: अपने
निकट होना।
अपने निकट
वास। उपवास का
अर्थ होता है:
आत्मा के पास
होना। उपवास
का अर्थ होता
है, कर्ता
से हटना, साक्षी
की तरफ
धीरे-धीरे
सरकना।
तो तुम
कुछ भी करो, उस करने में
अगर साक्षीभाव
बना रहे तो
धीरे-धीरे
कर्ता से
मुक्ति हो जाती
है। और कर्ता
से मुक्ति
होते ही सारे
कर्मों का जाल,
अनंत
जन्मों का, एक क्षण में
भस्मीभूत हो
जाता है।
यह
महावीर की बड़ी
अनूठी उदघोषणा
है। इस उदघोषणा
में ही मनुष्य
की संभावना
है।
अगर
ऐसा नहीं होता
तो फिर मोक्ष
की कोई संभावना
मानी नहीं जा
सकती। अगर हम
कर्म से ही छूटकर
मुक्त हो सकेंगे
तो फिर हम
कर्म से कभी
छूट नहीं
सकते। कर्ता
से छूटने से
अगर मुक्ति
होती हो तो
मुक्ति संभव
है।
इसे
खयाल में रख
लेना। यही
गीता का भी
आत्यंतिक
संदेश है कि
अर्जुन, तू
कर्ता न रह
जा। बड़े दूसरे
मार्ग से
कृष्ण इसी
निष्पत्ति पर
पहुंचते हैं
कि अर्जुन, तू कर्ता न
रह जा। तू
कर्म की फिक्र
छोड़। कर्म तो
होता रहा, होता
रहेगा। तू ऐसा
भाव छोड़ दे कि
मैं कर रहा हूं।
महावीर
की और गीता की
भाषा बड़ी
विपरीत है।
इसलिए यह
समझना भी
जरूरी है कि
कभी-कभी
विपरीत भाषाओं
से भी एक ही
सत्य की उदघोषणा
होती है। भाषा
में मत उलझ
जाना। जैन गीता
को पढ़ते भी
नहीं। जैनों
के लिए गीता
में कुछ सार
भी नहीं मालूम
होता। सार तो
दूर, खतरनाक
मालूम होती है,
हिंसात्मक
मालूम होती इ।
हिंदुओं
ने महावीर का
उल्लेख ही
नहीं किया अपने
शास्त्रों
में। इतना
जीवंत
व्यक्ति इस भूमि
पर चला, हिंदू
शास्त्रों
में उल्लेख भी
नहीं है। इससे
गहरी और निंदा
और विरोध क्या
हो सकता था? जैनों ने तो
फिर भी कम से
कम थोड़ी
भलमनसाहत की।
कृष्ण का
उल्लेख तो
किया। माना कि
नर्क में डाला,
माना कि
कृष्ण मरकर
सातवें नर्क
गए, मगर
फिर भी इतना
सम्मान तो
दिया कि
उल्लेख किया--निंदा
के लिए सही!
भूले तो नहीं,
बिसराया तो नहीं।
लेकिन
हिंदुओं ने तो
हद्द कर दी।
उन्होंने
महावीर को
नर्क में
डालने योग्य
भी न माना।
महावीर का
उल्लेख ही न
किया। अगर
बौद्ध शास्त्र
न हों तो
महावीर का
उल्लेख सिर्फ
जैन शास्त्रों
में रह जाएगा।
और अगर बौद्ध
शास्त्र न हों
तो जैनों के
पास प्रमाण
जुटाना भी
मुश्किल हो
जाएगा कि
महावीर कभी
हुए।
इसीलिए
जब पहली दफा
हिंदू
शास्त्रों का
पश्चिम में
अनुवाद हुआ तो
पश्चिम के
विचारकों ने यही
समझा कि
महावीर बुद्ध
का ही एक नाम
है। मूर्ति एक
जैसी लगती भी
है। उपदेश भी
अहिंसा का कुछ
एक जैसा मालूम
पड़ता है। यह
बुद्ध का ही
एक रूप है।
महावीर को
स्वीकार ही नहीं
किया था।
क्योंकि
हिंदू
शास्त्रों
में कहीं
उल्लेख ही
नहीं।
कारण
क्या रहा होगा?
भाषा
बड़ी भिन्न है।
भिन्न ही कहनी
ठीक नहीं, ठीक विपरीत है। एक
अगर रात कहता
तो दूसरा दिन
कहता; ऐसा
फासला है।
जमीन और
पृथ्वी का फसला
है। लेकिन मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं कि
दोनों एक ही
बात कहना चाह
रहे हैं।
कृष्ण ईश्वर
की धारणा का
उपयोग करते
हैं उस बात को
कहने के लिए।
वे कहते हैं, ईश्वर कर्ता
है, तू
निमित्त। तू साक्षीभाव
से जो हो रहा
है, होने
दे। इतना भर
खयाल छोड़ दे
कि मैं कर रहा
हूं। फिर जो
करवाए
परमात्मा, कर।
महावीर
परमात्मा की
धारणा का
उपयोग नहीं
करते। उनकी
भाषा में
परमात्मा का
कोई प्रत्यय, कोई प्रतीक
नहीं है। वे
इतना ही कहते
हैं, तू साक्षीभाव
से कर। ध्यान
की आत्यंतिक
गहराई में, साक्षीभाव की परमदशा
में अचानक तू जागकर
देखेगा कि
तुझसे अब तक
जो हुआ था वह
तुझसे हुआ ही
नहीं था।
यही
अर्थ है कि
सारे कर्म
भस्मीभूत हो
जाते हैं। वह
तूने स्वप्न
में किया था।
वह कभी हुआ ही नहीं।
सपने के खयाल
थे। सपने में
बुदबुदाया था।
सपने में कुछ
सोचा था कि कर
रहा हूं, कुछ
हो रहा है।
सुबह जागकर
पाया है कि सब
सपने व्यर्थ
हैं। सुबह जागकर
तू हंसा है कि
रात जो देखा, कितना सत्य
मालूम पड़ता
था! कितना
यथार्थ मालूम
पड़ता था।
जागते ही सब
खो जाता है।
कभी एक
प्रयोग करो
छोटा। सपने
में जागने की
चेष्टा करो।
कठिन है, लेकिन
हो जाता है।
अगर रोज-रोज
इसी धारणा को
लेकर रात सोओ
कि सपने में
चेष्टा
करूंगा कि जाग
जाऊं; कि
सपने को जान
लूं कि सपना
है। ऐसा अगर
रोज रात को
सोते वक्त यही
धारणा, यही
भावना
करते-करते सोओ
तो तीन और नौ
महीने के बीच
किसी न किसी
दिन ऐसी घटना
घटेगी कि अचानक
तुम सपना देख
रहे होओगे और
भीतर स्मरण आ
जाएगा कि अरे!
यह तो सपना
है। और एक तब
अनूठा मीठा
अनुभव होता
है। बड़ा अदभुत,
बड़ा अनुपम,
अपूर्व।
क्योंकि जैसे
ही तुम्हें
याद आता है कि
अरे! यह तो
सपना है कि
सपना तत्क्षण
खो जाता है।
और उस सपने के
खोने में पहली
दफे तुम्हें पता
चलता है कि
होश में आना
और सपने का
टूट जाना एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
ऐसा ही
जीवन भी एक
बड़ा सपना है।
महावीर
माया शब्द का
भी उपयोग नहीं
करते। क्योंकि
माया शब्द के
उपयोग के लिए
भी परमात्मा का
होना जरूरी
है। वह
परमात्मा की
शक्ति हो तो माया।
कोई मायावी हो
तो माया। कोई
जादूगर हो तो
जादू। कोई
जादूगर तो है
नहीं महावीर
की भाषा में, इसलिए कोई
माया भी नहीं
है।
लेकिन
यह सूत्र
घोषणा कर रहा
है कि जो कर्म
केवल ध्यान
में उतरने से
समाप्त हो
जाते हैं, वे वस्तुतः
न रहे होंगे।
अगर रहते तो
ध्यान में
उतरने से क्या
होता था? ध्यान
में उतरने से
सत्य थोड़े ही
बदलता है। ध्यान
में उतरने से
केवल माया ही
बदल सकती है।
तुम
कमरे में बैठे
हो, आंखें
झपकी हैं, सपना
ले रहे हो।
अगर जाग जाओगे
तो सपना टूट
जाएगा, लेकिन
तुम्हारे
जागने से कमरे
की कुर्सी, फर्निचर,
दीवालें
थोड़े ही
समाप्त हो
जाएंगी! जो है,
वह तो
तुम्हारे
ध्यान में
जाने से नष्ट
नहीं होगा।
वस्तुतः तुम
जैसे ध्यान
में जाओगे, प्रगट होगा,
पूरे रूप
में प्रगट
होगा, जो
है। जो नहीं
है, वहीं
खो जाएगा।
इस
सूत्र का मैं
यह अर्थ करता
हूं कि महावीर
यह कह रहे हैं
कि तुमने अब
तक जो किया है, हुआ, वह
सब सपने में
हुआ है। जागते
ही एक क्षण
में मिट
जाएगा।
जह चिरसंचयमिंधण-मनलो
पवणसहिओ दुयं दहइ।
"जैसे
चिर-संचित
ईंधन को वायु
से प्रदीप्त
आग तत्काल जला
डालती है...।'
तह
कम्मेंधणममियं, खणेण झाणानलो
डहइ।।
"...वैसे
ही ध्यान रूपी
अग्नि
अपरिमित
कर्म-ईंधन को क्षणभर
में भस्म कर
डालती है।'
"मोक्षार्थी मुनि
सर्वप्रथम
धर्म-ध्यान
द्वारा अपने
चित्त को सुभावित
करे। बाद में
धर्म-ध्यान से
उपरत होने पर
भी सदा अनित्य,
अशरण आदि
भावनाओं के चिंतवन
में लीन रहे।'
यह भी
खयाल में रखना
कि महावीर
अकेले चिंतक
हैं, जिन्होंने
ध्यान को धर्म
और अधर्म, दो
खंडों में
बांटा। अकेले!
पूरे
मनुष्य-जाति के
इतिहास में।
पतंजलि ने
वैसा नहीं
किया, बुद्ध
ने वैसा नहीं
किया, कृष्ण
ने वैसा नहीं
किया। अकेले
महावीर ने ध्यान
को धर्म और
अधर्म, दो
में बांटा। और
इसमें बड़ी
वैज्ञानिक
सूझ है। यह
उनका अनुपम
दान है।
मनुष्य-जाति
को सभी जाग्रत
पुरुषों ने
कुछ दिया है, जो विशिष्ट
है। कुछ है, जो सामान्य
है; जो सभी
ने दिया है।
कुछ है, जो
एक-एक ने दिया
है और विशिष्ट
है। यह महावीर
की विशिष्ट
देन है ध्यान
के शास्त्र और
विज्ञान को।
महावीर कहते
हैं, अधर्म
ध्यान और धर्म
ध्यान।
थोड़े
तुम चौंकोगे।
अधर्म ध्यान? ध्यान से तो
हम संबंध ही
धर्म का जोड़ते
हैं। लेकिन
महावीर की
पहुंच गहरी
है। महावीर
कहते हैं, कुछ
ऐसी घड़ियां
हैं, जो
अधर्म की होती
हैं, लेकिन
ध्यान बंध
जाता है।
जैसे
जुआरी जुआ खेल
रहा है; जब
वह पांसे हाथ
में लेकर चल
रहा है तो
उसके चित्त
में बड़ी
एकाग्रता
होती है। ऐसा
भी हो सकता है
कि मंदिर में
जो माला जप
रहा है, उससे
ज्यादा
एकाग्रता
जुआरी जब
पांसे हाथ में
लेकर चलता हो,
तब हो।
कोई
हत्यारा किसी
को मारने जा
रहा है, तब
बड़ा एकाग्र
होता है। कोई
विचार नहीं
उठते। इधर-उधर
सोच भी नहीं
जाता। तीर की
तरह एक ही बात,
एक ही भाव, एक हवा, उसे
घेरे रखती है।
तुमने
भी कभी देखा
हो, शायद जुआ
न खेला हो, हत्या
भी न की हो, लेकिन
कभी क्रोध में
थोड़ी-बहुत झलक
आयी होगी। हो
सकता है क्रोध
का मजा भी यही
हो कि ध्यान
बंध जाता है।
क्रोधी आदमी
क्रोध के क्षण
में सब भूल
जाता है।
इसीलिए तो
अक्सर क्रोध
के बाद तुम
कहते हो, मेरे
बावजूद हो
गया। मैं करना
नहीं चाहता था
और हो गया।
तुम्हारे
बावजूद? तुम्हारा
मतलब क्या? किया तो
तुम्हीं ने।
हुआ तो
तुम्हीं से।
साथ तुम्हारा
था।
लेकिन
तुम कहते हो, सब मैं भूल
ही गया। बेहोश
था। कुछ याद
ही न रहा। न
नियम याद रहे,
न
शिष्टाचार
याद रहा। और
खुद की खायी
कसमें भी याद
न रहीं। कितनी
बार तय किया
कि नहीं
करूंगा क्रोध,
फिर हो गया।
लेकिन
जब क्रोध पकड़ता
है तो आदमी
एकदम एकाग्र
हो जाता है।
महावीर ने
इसको रौद्र
ध्यान कहा
है--क्रोध
में।
कामवासना
में भी आदमी
ध्यान से भर
जाता है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी को पकड़ा
गया क्योंकि
उसने एक राह
के किनारे
बैठे
दुकानदार की
थैली झपट ली; रुपयों की
थैली झपट ली।
वह दुकानदार
रुपये गिन रहा
था और थैली
में डाल रहा
था।
मजिस्ट्रेट ने
पूछा कि तू भी
खूब चोर है।
चोर हमने बहुत
देखे, भरे
बाजार में, भरी दुपहरी
में इतने आदमी
वहां खड़े थे, यह
पुलिसवाला भी चौरस्ते
पर मौजूद था, यह तेरे को
चोरी करने का
वक्त मिला?
उसने
कहा, उस समय
मुझे सिवाय
थैली और रुपये
के कोई भी दिखाई
नहीं पड़ रहा
था। उस समय बस,
यह थैली और
रुपये दिखाई
पड़ रहे थे। और
सब मेरे ध्यान
से उतर गया
था। मेरा
ध्यान बिलकुल
थैली पर लग
गया था। न
मुझे
पुलिसवाला दिखाई
पड़ा...।
तुमने
देखा, कामातुर
आदमी को कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता! तुलसीदास
की कथा है कि
एक मुर्दे की
लाश का सहारा
लेकर नदी पार
गए। पत्नी से
मिलने जा रहे
थे। गहरा कामांध
भाव रहा होगा।
याद भी न आयी
कि यह लाश है। समझा
कि कोई लकड़ी
का डूंगर
बहा जाता है।
फिर कहते हैं,
पत्नी के घर
पहुंचकर, लटके
सांप को पकड़कर
जीना चढ़
गए--सोचकर कि
रस्सी है।
पत्नी
ने जो कहा, निश्चित ही
कुछ न कुछ
महावीर के
धर्म और अधर्म
ध्यान का पता तुलसीदास
की पत्नी को
रहा होगा।
क्योंकि
पत्नी ने कहा कि
इतना ध्यान
तुम अगर राम
पर लगा देते, जितना तुमने
मुझ पर लगाया
है, तो परम
आनंद और परम
मुक्ति
तुम्हें
उपलब्ध हो जाती।
इतना ध्यान, जो तुमने
काम पर लगाया,
अगर राम पर
लगा देते...।
और वही
घटना तुलसीदास
के जीवन में
क्रांति बनी।
वह एक शब्द
चोट कर गया।
वह एक शब्द
जैसे कुछ छिपे
हुए
जन्मों-जन्मों
की खोज को
स्पष्ट कर गया।
वह एक शब्द
जीवनभर के लिए
क्रांतिकारी
सूत्र हो गया।
समझ में आ गई
बात कि काम के
लिए इतना ध्यान
लगा रहा हूं, इतना राम पर
लग जाए तो सब
मिल जाए। काम
से मिलेगा भी
तो क्या
मिलेगा?
महावीर
दो भाग करते
ध्यान के:
अधर्म-ध्यान
और धर्म-ध्यान।
वे कहते हैं
ध्यान तो दोनों
हैं।
अधर्म-ध्यान
ऐसा ध्यान है, जिसमें
ध्यान तो होता,
मिलता कुछ
भी नहीं।
ध्यान तो होता
है; कष्ट
मिलता है, दुख
मिलता है, पीड़ा
मिलती है।
ध्यान तो है
लेकिन गलत
दिशा में
आरोपित है।
धर्म-ध्यान
का अर्थ है:
वही ध्यान, जो गलत दिशा
में आरोपित था,
ठीक दिशा
में लगा। काम
से मुड़ा, राम की तरफ
लगा। धन से
हटा, धर्म
की तरफ लगा।
क्रोध से हटा,
करुणा पर
बरसा।
"मोक्षार्थी मुनि
सर्वप्रथम
धर्म-ध्यान
द्वारा अपने
चित्त को सुभावित
करे...।'
पहले
अधर्म-ध्यान
से हटे और
धर्म-ध्यान
में लगे। पहले
उन-उन विषयों
से अपने ध्यान
को मुक्त करे, जिनसे
जन्मों-जन्मों
में सिवाय
कांटों के और कुछ
भी न मिला।
फूल का
आश्वासन रहा,
हाथ जब आए, कांटे आए।
दरवाजा दूर से
दिखा, पास
जब आए, सिर
दीवाल से
टकराया। दूर
से सब
स्वर्णिम मालूम
पड़ा, पास
आते-आते सब
मिट्टी हो
गया।
इस
अनुभव के आधार
पर पहले तो
ध्यान की
ऊर्जा को
अधर्म से
मुक्त करना है
क्योंकि यही
ऊर्जा धर्म
में लगेगी।
अगर यह ऊर्जा
अधर्म से
मुक्त नहीं है
तो तुम्हारे
पास धर्म में
लगाने को ऊर्जा
न होगी।
इसलिए
अक्सर होता
है--तुम्हें
भी हुआ होगा, मुझे बहुत
लोग आकर कहते
हैं--कि मंदिर
में जाकर
बैठते हैं, माला जपते
हैं, तब न
मालूम
कहां-कहां के
खयाल आते हैं।
ये वे ही खयाल
हैं, जिन
पर तुमने अब
तक ध्यान किया
है। ये हर
कहीं से नहीं
आ रहे हैं, आकाश
से नहीं आ रहे
हैं। ये
तुम्हारे
पुराने अभ्यास
से आ रहे हैं, और इसीलिए आ
रहे हैं कि अब
तक तुम्हारे
चित्त ने जिस
चीज को ध्यान
जाना, वही
तो आएगा, जब
तुम ध्यान
करने बैठोगे।
पुराना
एसोसिएशन, पुराना
साहचर्य, पुराना
संबंध।
पावलोव
ने बड़े प्रयोग
किये मनुष्य
के संस्कारों
पर। उसका बड़ा
जाहिर, प्रसिद्ध
प्रयोग है कि
एक कुत्ते को
रोटी देता है।
जब उसके सामने
रोटी रखता है
तो कुत्ते के
मुंह से लार
टपकने लगती
है। साथ में
वह घंटी बजाता
है। ऐसा रोज
करता है
पंद्रह दिन
तक। रोटी देता
है, घंटी
बजाता है, लार
टपकती है। फिर
सोलहवें दिन
रोटी नहीं देता,
सिर्फ घंटी
बजाता है, और
लार टपकती है।
अब लार से और
घंटी का कोई
भी संबंध नहीं
है। तुम किसी
कुत्ते के
सामने घंटी बजाओ, वह
लार नहीं टपकाएगा;
लेकिन पावलोव
का कुत्ता
टपकाता है।
पावलोव
ने यह
सिद्धांत
निकाला इससे, कि रोटी और
लार का तो
संबंध था, दोनों
के बीच में
घंटी भी समा
गई। दोनों के
साथ-साथ घंटी
भी जुड़ गई।
इसलिए
अक्सर
तुम्हें भी
हुआ होगा। पावलोव
ने न भी किया
हो प्रयोग, तुम अपने पर
कर सकते हो।
तुम अगर रोज
एक बजे भोजन
करते हो, एकदम
घड़ी में तुमने
देखा, एक
बजा--भूख लगी।
अभी एक क्षण
पहले तक भूख
का पता भी न
था। और हो
सकता है, घड़ी
बिगड़ी हो
और एक अभी बजा
न हो, अभी
ग्यारह ही बजे
हों। लेकिन
देखा, एक
बज गया, एकदम
कौंध की तरह
भीतर कोई भूख
जग
आयी...साहचर्य!
तुमने
अब तक जहां भी
ध्यान किया
है--कभी क्रोध पर
किया, कभी
काम पर किया, कभी धन पर
किया। फिर तुम
मंदिर गए। तुम
कहते हो, ध्यान
करने जा रहे
हैं। तो तुमने
जहां-जहां ध्यान
किया है, वहां-वहां
ध्यान जुड़
गया। घंटी से
लार बंध गई।
एक बजे से भूख
जुड़ गई। अब
तुम मंदिर में
बैठे, एक
बजने लगा, घंटी
बजने लगी। अब
तुम मंदिर में
बैठे, तुम
कहते हो, ध्यान
करना है। माला
फेरने लगे।
तुम कहते हो जैसे
ही कि ध्यान
करना है, मन
में न मालूम
कितने कूड़ा-कर्कट
उठने लगे।
क्योंकि
तुम्हीं उठा
रहे हो उनको।
तुम कहते हो, ध्यान करना
है। और ध्यान
तुमने जिन-जिन
चीजों पर किया
है अब तक, उनका
अभ्यास प्रबल
है।
कोई
सुंदर स्त्री
खड़ी हो गई।
तुम झिड़कते
हो कि हटो भी!
मैं ध्यान कर
रहा हूं। यह
मंदिर है, यह कोई
वेश्यालय
नहीं है। मैं
यहां पूजा-पाठ
करने आया, ध्यान
करने आया, माला
फेर रहा हूं।
हटो भी! लेकिन
तुम जितना
हटाते हो, माला
तो याद नहीं
आती, सुंदर
स्त्री खड़ी होऱ्हो
जाती है। तुम
चकित भी होते
हो कि यह
सुंदर स्त्री,
जब दुकान पर
बैठकर धन कमा
रहा हूं, तब
इतना नहीं
सताती। यह
मंदिर में
क्यों पीछा करती
है?
ऋषि-मुनियों
की कथाएं हैं, अप्सराएं
सता रही हैं
उनको। कोई
किसी को
सताएगा? अप्सराओं को क्या पड़ी
है? ऋषि-मुनियों
से क्या
लेना-देना! और
सताना ही होता
तो कोई ढंग के
आदमी चुनतीं--ऋषि-मुनि!
सूखे, हड्डी-कंकाल!
काफी समय हो
गया तब मर
चुके। न देह
में सौंदर्य
रहा, न देह
में रस रहा।
इनको
अप्सराएं
स्वर्ग से सताने
आ रही हैं!
कहीं
कुछ गड़बड़ है।
ऋषि के मन में
ध्यान के पुराने
साहचर्य, संबंध
बने हैं।
स्त्रियों पर
ध्यान किया
होगा। अब कहते
हैं, चौबीस
घंटे ध्यान
करने वृक्ष के
नीचे गुफा में
आकर बैठ गए
हैं। ध्यान
शब्द ही अधर्म
से जुड़ा रहा
है
जन्मों-जन्मों
तक। तो जब तुम
धर्म के नाम
पर भी ध्यान
करते हो तो
अधर्म तुम पर
हमला करता है।
महावीर
कहते हैं, यह साहचर्य
तोड़ना पड़ेगा।
जो पावलफ ने
ढाई हजार साल
बाद रूस में
कहा, वह
महावीर ने
भारत में
पच्चीस सौ
सदियों पहले कह
दिया था कि
पहले साहचर्य
को तोड़ो। एकदम
मंदिर में मत
भागे जाओ, पहले
बाजार से
मुक्त तो हो
लो। नहीं तो
मंदिर में
बैठोगे, अप्सराएं
आएंगी। और वे
अप्सराएं अगर
तुम गौर से देखोगे,
तुम
भलीभांति
पहचान लोगे, कोई
अप्सराएं
नहीं हैं, यही
जमीन की
स्त्रियां
हैं। यह हो
सकता है कि कई
स्त्रियों ने
मिलकर एक
अप्सरा बना दी
हो। किसी
स्त्री की नाक
पसंद पड़ी, किसी
स्त्री का कान
पसंद पड़ा, किसी
की आंख पसंद
पड़ी, किसी
के ओंठ पसंद
पड़े, किसी
के शरीर की
गंध पसंद पड़ी,
किसी के
शरीर का
अनुपात पसंद
पड़ा; ऐसा
मन चुनता रहा,
ध्यान करता
रहा। इन सबको
इकट्ठा कर
लिया। अब जब
तुम ध्यान
करने बैठे, तुमने
तुम्हारी
कल्पना में एक
स्त्री खड़ी
हुई, जो
अप्सरा मालूम
होती है।
क्योंकि
जितनी स्त्रियां
तुम जानते हो
उनमें से किसी
जैसी नहीं लगती,
परम सुंदर
है।
मगर
गौर से खोजना
तो तुम पाओगे, अरे! यह नाक
कमला की रही, ये कान निर्मला
के रहे; ये
ओंठ विमला के
रहे। अड़चन न
होगी। अगर जरा
गौर से देखोगे,
तो अप्सरा
को तोड़कर देखोगे, विश्लेषण
करोगे तो सब
समझ में आ
जाएगा।
जहां-जहां
ध्यान किया था, वहां-वहां
से खंड इकट्ठे
हो गए हैं। यह
अप्सरा
स्वर्ग से
नहीं आयी और
किसी इंद्र ने
नहीं भेजी, मगर कहानी
बड़ी प्रीतिकर
है। यह अप्सरा
तुम्हारी
इंद्रियों से
आयी, इसलिए
इंद्र ने
भेजी। यह
तुम्हारी ही
इंद्रियों का
सार-निचोड़
है। तुम्हारी
आंखों ने जो
देखा, और
जो सार निचोड़ा,
तुम्हारे
कानों ने जो
सुना और सार निचोड़ा, तुम्हारे
हाथों ने जो
छुआ और सार निचोड़ा।
यह तुम्हारी
सारी
इंद्रियों ने
जो निचोड़ा,
इन सारी
इंद्रियों के
पीछे बैठा हुआ
मन है, इंद्र।
इंद्रियों का
मालिक यानी
इंद्र। उस मन
में जो इकट्ठा
हो गया है।
अधर्म-ध्यान
से जो-जो निष्पत्तियां
वहां इकट्ठी
हो गई हैं
जन्मों-जन्मों
की यात्रा में,
वे ही जब
तुम ध्यान
करने बैठोगे,
तुम्हारे
सामने खड़ी हो
जाएंगी।
निश्चित ही वे
ऐसी कोई भी
स्त्री से
बहुत सुंदर
होंगी, जिनसे
तुम परिचित
हो।
वास्तविक
स्त्रियों से
कल्पना की
स्त्रियां
निश्चित ही
सुंदर होती
हैं। इसीलिए
कवि किसी भी
स्त्री से
तृप्त नहीं हो
पाते।
क्योंकि कल्पना
की स्त्री
उनकी बड़ी
सुंदर होती
है। सभी स्त्रियां
ओछी पड़ जाती
हैं। जो लोग
साधारण
स्त्रियों से
तृप्त हो जाते
हैं, एक बात का
सबूत देते हैं
कि उनके पास
कल्पना की
शक्ति नहीं है;
और कुछ सबूत
नहीं देते।
जितना
कल्पना-प्रवण
व्यक्ति होगा,
जितनी प्रगाढ़
क्षमता होगी
कल्पना करने
की, उतना
ही यह संसार
उसे अतृप्त
करेगा।
क्योंकि उसकी
धारणा बड़ी ऊंची
होती है। उसकी
कल्पना की
स्त्रियां
एकदम सुगंध की
प्रतिमाएं
हैं। स्वप्न
से निर्मित, फूलों के
पराग से
निर्मित, चांद
की चांदनी से,
हवाओं की
ताजगी से, ओस
की ताजगी से
निर्मित।
साधारण
स्त्री, साधारण
पुरुष बहुत
स्थूल है, बहुत
पार्थिव है; उसकी कल्पना
बड़ी पारलौकिक
है।
जब
ऋषियों को अप्सराओं
ने घेरा तो
किसी ने नहीं
घेरा। ये किसी
स्वर्ग से
नहीं आयी हैं, ये ऋषियों
की कल्पना से
आयी हैं।
महावीर
कहते हैं, पहले तो
धर्म-ध्यान पर
जाना जरूरी
है। अधर्म से,
अधर्म के
विषयों से
चित्त को
हटाना और धर्म
के विषय देना
जरूरी है। महावीर
बहुत गणितज्ञ,
वैज्ञानिक
की तरह
इंच-इंच बढ़ते
हैं। वे कहते
हैं, जल्दबाजी
में कुछ भी न
होगा। एकदम
तुम आज तय कर
लो कि मंदिर
में चले जाओगे;
कुछ फर्क न
पड़ेगा। मंदिर
में बैठोगे, लेकिन रहोगे
बाजार में।
ऊपर-ऊपर मंदिर
में होओगे, भीतर-भीतर
बाजार में।
बाजार से बड़े
पुराने नाते
हैं।
"मोक्षार्थी मुनि
सर्वप्रथम
धर्म-ध्यान
द्वारा अपने
चित्त को सुभावित
करे...।'
अधर्म
से हटे, धर्म
की तरफ गतिमान
हो। विषयों को
धीरे-धीरे बदले।
और
दूसरी बात
इससे भी
ज्यादा
महत्वपूर्ण
ध्यान में
रखनी जरूरी है
कि
अधर्म-ध्यान
के विषय अधार्मिक
हैं। ध्यान तो
वही है।
धर्म-ध्यान के
विषय बदल गए, ध्यान तो
वही है।
फिर एक
तीसरी अवस्था
है, जिसको
महावीर समाधि
कहते हैं, सम्यकत्व कहते हैं।
वस्तुतः
समाधि, वस्तुतः
निर्विकल्प
चित्त की दशा
है। वहां कोई
भी विषय नहीं
रह जाते। वहां
तो धर्म-ध्यान
से विषयों को छुड़ाना पड़ता
है।
पहले
ध्यान को गलत
विषयों से छुड़ाओ, ठीक विषयों
पर लगाओ। ठीक
विषयों पर
लगाना केवल
संक्रमण की
प्रक्रिया है,
ताकि गलत से
छूटने में
सहारा मिल
जाए। फिर जब गलत
से छुटकारा हो
जाए तो मत
करना ऐसा, कि
अब ठीक पर
बैठकर रह जाओ।
यह तो केवल
उपाय था। जैसे
बीमार को औषधि
देते हैं।
बीमारी चली गई,
अब औषधि का
क्या करना? अब इसे
फेंकना होगा।
इससे भी मुक्त
होना होगा। यह
तो केवल बीच
का सहारा था; संक्रमण की
स्थिति थी।
तो
धर्म-ध्यान भी
वस्तुतः
ध्यान नहीं है, संक्रमण की
स्थिति है; सीढ़ी है।
फिर तो ध्यान
से भी मुक्त
होना है। फिर तो
ये धर्म के
विषय भी छोड़
देने हैं। तभी
परम ध्यान
होगा। जब कोई
भी विषय न रह
जाए, तुम्हारी
चेतना बचे, चेतना की
ज्योति बचे।
लेकिन उस
ज्योति का प्रकाश
किसी चीज पर न
पड़ता हो--न धन
पर, न धर्म
पर; न काम
पर, न अकाम
पर; न
क्रोध पर न
करुणा पर।
करुणा
का उपयोग कर
लेना क्रोध से
बचने के लिए; लेकिन फिर
करुणा से
ग्रसित मत हो
जाना। उससे भी
पार जाना है।
एक ऐसी घड़ी
खोजनी है, जहां
तुम हो। बस
तुम हो। अकेले
तुम हो।
उसको
महावीर कहते
हैं केवल, केवल दशा, कैवल्य, जहां
बस तुम हो।
ऐसा समझो कि
शून्य में कोई
दीया जलता हो।
जहां
प्रकाशित
करने को कुछ
भी नहीं है, बस प्रकाश
है। क्योंकि
जो भी चीज
मौजूद हो, वह
प्रकाश को
थोड़ा-सा धूमिल
और दूषित करती
है। क्योंकि
कोई चीज मौजूद
हो तो उसकी
छाया पड़ती है।
कोई चीज मौजूद
हो तो अंधेरा
पैदा होता है।
निर्विषय
चित्त, निर्विकार
चित्त तभी
संभव है, जब
मात्र ध्यान
रह जाए--शुद्ध,
एकदम
शुद्ध। ध्यान
के लिए कोई
वस्तु न रह
जाए, बस
ध्यान की
ऊर्जा रह जाए।
"मोक्षार्थी मुनि
सर्वप्रथम
धर्म-ध्यान
द्वारा अपने
चित्त को सुभावित
करे। बाद में
धर्म-ध्यान से
उपरत होने पर
भी...।'
फिर एक
घड़ी आती है, जब आदमी
धर्म-ध्यान से
भी उपरत हो
जाता है। उसके
भी पार हो
जाता है, अतिक्रमण
कर जाता है।
फिर भी, महावीर
कहते हैं, इन
थोड़ी-सी बातों
का चिंतवन
करता रहे।
"...सदा
अनित्य, अशरण
आदि भावनाओं
के चिंतवन
में लीन रहे।'
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, कि चित्त
की शक्ति बड़ी
प्रबल है।
कभी-कभी क्षणभर
को तुम पार भी
हो जाते हो; और अगर
शिथिल हो गए
तो चित्त
तुम्हें वापस
खींच ले सकता
है। इसलिए ऐसी
घड़ी भी आ जाए
कि तुम्हें
लगे अब ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं, यह
भी महावीर
सावधानी
बरतने को कहते
हैं कि तुम
अभी जल्दी से
ध्यान छोड़ मत
देना। इतनी
धारणाओं का चिंतवन
करते रहना--
"अनित्य,
अशरण, एकत्व,
अन्यत्व, संसार, लोक,
अशुचि, आस्रव, संवर,
निर्जरा, धर्म और
बोधि--इन बारह
भावनाओं का चिंतवन
जारी रखना।'
इनमें
से एक-एक
भावना समझने
जैसी है। ये
महावीर की मूल
भित्तियां
हैं--ये बारह
भावनाएं।
जिन्होंने इन
बारह भावनाओं
को साध लिया, समाधि अपने आप
फलित हो जाती
है।
"अनित्य'--महावीर कहते
हैं, इस
बात को सदा
स्मरण रखें कि
जो भी है यहां,
सब
क्षणभंगुर
है। इसे क्षणभर
को न भूलें।
क्षणभंगुरता
को क्षणभर
को न बिसारें।
जन्मों-जन्मों
का मन पर यह
प्रभाव है कि
बदलती हुई
चीजें थिर
मालूम होती
हैं।
तुम
देखते हो दीवाल, वृक्ष, सब
थिर मालूम
होते हैं, हालांकि
तुम जानते हो,
सब बदल रहे
हैं। जो फूल
कल नहीं था, आज आ गया। जो
पत्ते कल थे, गिर गए। यह
दीवाल भी जो
बहुत मजबूत है,
यह भी राख
हो जाएगी। यह
भी आज नहीं कल
रेत होकर बह
जाएगी। कितने
महल बने और
बिखर गए। पहाड़
बनते हैं और खो
जाते हैं।
सागर बनते हैं
और मिट जाते
हैं। महाद्वीप
के महाद्वीप
लीन हो जाते
हैं।
लेकिन
फिर भी आंखें
एक भ्रम देती
हैं कि जैसे सब
थिर है। तुम
रोज बूढ़े हो
रहे हो लेकिन
मन ऐसा ही
माने रखता है
कि सब ठीक चल
रहा है। सब
वैसे का वैसा
ही है। रोज
सुबह आईने के
सामने खड़े
होकर तुम अपने
को देख लेते
हो, लगता है,
सब ठीक है।
वैसा का वैसा
है।
प्रक्रिया
इतनी धीमी है
और तुम्हारा
होश इतना कम
है। तो या तो
प्रक्रिया
बहुत तेजी से
हो तो कुछ हो
सकता है। कि
रात तुम सोओ
जवान और सुबह बूढ़े
हो जाओ तो
शायद तुम्हें
अकल आए कि अरे!
सब क्षणभंगुर
है।
मगर
बूढ़ा होना
इतने
धीमे-धीमे
होता है, इतने
आहिस्ता-आहिस्ता
होता है, इतने
रत्ती-रत्ती
होता है, कि
पता ही नहीं
चलता। एक-एक
बूंद रीतता
है सागर। ऊपर
से ऐसा लगता
है, वही का
वही; वैसा
का वैसा है।
तो या
तो जो
क्षणभंगुरता
है, वह बड़ी
तीव्रता से, त्वरा से
घूमने लगे कि
घर के बाहर गए,
लौटकर आए, पत्नी बूढ़ी
हो गई। गए थे
तो जवान छोड़
गए थे। घर के
बाहर गए, लौटकर
आए तो देखा, कि घर राख हो
गया। गए थे तो
बिलकुल अभी
महल की तरह
खड़ा छोड़ गए
थे। लौटकर आए
तो रेत पड़ी है,
रेत का ढेर
लगा है।
या तो
ऐसा हो...ऐसा तो
होता नहीं है।
ऐसा तो स्वभाव
नहीं वस्तुओं
का। तो फिर
दूसरा उपाय है, कि तुम्हारा
बोध गहरा हो, तुम्हारा
होश गहरा हो
कि बहुत धीमे
से, बारीक
से हो रहे
फर्क को भी
तुम पहचान
पाओ। वह भी
आंख से बच न
जाए।
जागकर
देखो तो तुम
हर सुबह चेहरे
में अंतर
पाओगे। लौटकर
घर आओ, तुम
अंतर पाओगे। लेकिन
बड़ी जागरूकता
चाहिए होगी।
क्योंकि अंतर
बड़े आहिस्ता
हो रहे हैं, बड़े
धीमे-धीमे
हैं।
ऐसा
समझो कि बाजार
में कोई
साग-सब्जी तौलता
है तो मोटे
बांट-बटखरों
से तौलता
है। कोई फर्क
नहीं पड़ता, तोला इधर कि
तोला उधर, साग-सब्जी
है। सोना नहीं
तौला जाता
ऐसे। बांट-बटखरे
हर तरह के काम
नहीं दे
देंगे।
रत्ती-रत्ती
का हिसाब रखना
होता है। तो
सुनार भी तौलता
है लेकिन वहां
रत्ती-रत्ती
का हिसाब है।
लेकिन यह भी
तौल बहुत गहरी
तौल नहीं है।
वैज्ञानिक तौलता है, वहां तो
रत्ती का भी हजारवें
हिस्से का
खयाल है। वहां
तो
सेकेंड-सेकेंड
का खयाल है।
सेकेंड के हजारवें
हिस्से का
खयाल है। तो
ही...।
जैसे-जैसे
बहुमूल्य को
पहचानना हो
वैसे-वैसे तुम्हारे
बांट-बटखरे
ज्यादा
सुनिश्चित
होने चाहिए।
और एक ही बटखरा
है, एक ही
बांट है हमारे
पास, वह है
जागरूकता का,
होश का, ध्यान
का। नाम कुछ
भी हो, बांट
एक ही है। यह
बहुत स्पष्ट
होना चाहिए।
इसमें
रत्ती-रत्ती
का पता चलना
चाहिए। यह ऐसा
मोटा, साग-सब्जी
तौलने जैसा
बांट न हो, सोना
तौलने जैसा; या
वैज्ञानिक का
कांटा हो, जहां
रत्ती का लाखवां
हिस्सा भी
पहचाना जा
सकता है--कि कम
हुआ कि ज्यादा
हुआ।
तो
तुम्हारा होश
बढ़े।
पहली
भावना है:
अनित्य। चलते, उठते, बैठते,
सोते, जागते
एक बात
तुम्हारे
भीतर सतत बनी
रहे; एक
स्मरण बना
रहे--सब बदल
रहा है, सब
बदला जा रहा
है।
क्या
होगा इसका
परिणाम? इसका
परिणाम यह
होगा कि तुम
मोहग्रस्त न
होओगे। जो बदल
ही रहा है
उसको पकड़ने
का कोई अर्थ
नहीं है। जो
जा ही रहा है, जाएगा ही, उसके साथ
लगाव और
आसक्ति बनाने
का कोई अर्थ
नहीं है। जो छूटेगा ही,
वह छूट ही
गया।
बुद्धिमान
व्यक्ति को इस
संसार में पकड़ने
को कुछ भी
नहीं, क्योंकि
कुछ पकड़ा ही
नहीं जा सकता।
यहां थिर कुछ
भी नहीं है।
इसलिए
बुद्धिमान
व्यक्ति कोई अपेक्षा
नहीं रखता थिर
होने की।
अगर
तुम महावीर को
जाकर धोखा दे
दो तो महावीर चकित
नहीं होते।
तुम्हारा
मित्र
तुम्हें आकर
धोखा दे दे, तुम चकित
होते हो। क्या
कारण है? तुम
चकित होते हो
क्योंकि तुम
मानते थे, कि
मित्र सदा
मित्र रहेगा।
थिरता की
अपेक्षा कर
रहे थे
क्षणभंगुर
जगत में। यहां
कोई थिर नहीं
है। न शत्रु
थिर है, न
मित्र थिर है।
कल मित्र
शत्रु हो सकता
है, शत्रु
मित्र हो सकता
है। सब चीजें
बदल रही हैं।
सब चीजें
उथल-पुथल में
हैं।
लेकिन
तुम सोचते थे, मित्र सदा
मित्र है। और
जब मित्र धोखा
दे जाता है, तुम एकदम चौंककर
खड़े रह जाते हो।
तुम चकित हो
जाते हो।
तुम
चकित मित्र के
कारण नहीं
होते, न
उसके धोखे के
कारण होते हो।
तुम अपनी थिर
अपेक्षा के
कारण चकित
होते हो।
तुम
महावीर को
जाकर धोखा दे
आओ, कोई अंतर
न पड़ेगा। वे
चकित न होंगे,
क्योंकि
उनकी कोई
अपेक्षा नहीं
है।
शायद
वे अपने भीतर
दोहराएंगे कि
देखा, संसार
कैसा थिर है!
सब अनित्य है।
यहां मित्र भी
अपना नहीं।
यहां शत्रु भी
पराया नहीं।
यहां किसी का
भरोसा, गैर-भरोसा
करने का कोई
कारण नहीं।
एक बड़ी
प्रसिद्ध
सूफी कहानी है, एक सम्राट
ने अपने सारे बुद्धिमानों
को बुलाया। और
उनसे कहा कि
मैं कुछ ऐसा
सूत्र चाहता
हूं--छोटा हो।
बड़े शास्त्र
नहीं चाहिए।
मुझे फुर्सत
भी नहीं बड़े
शास्त्र पढ़ने
की--ऐसा सूत्र
चाहता हूं, एक वचन में
पूरा हो जाए।
और हर घड़ी काम
आए। दुख हो कि
सुख, जीत
हो कि हार, जीवन
हो कि मृत्यु,
सूत्र काम
आए। तो तुम एक
ऐसा सूत्र खोज
लाओ।
उन्होंने
बड़ी मेहनत की, बड़ा विवाद
किया। कुछ
निष्कर्ष
नहीं हो सका।
तो उन्होंने
कहा कि हम बड़ी
मुश्किल में
पड़े हैं। बड़ा
विवाद है, संघर्ष
है। कोई
निष्कर्ष
नहीं हो पाता।
अच्छा हो...कि
हमने सुना है
एक सूफी फकीर
गांव के बाहर
ठहरा है। कहते
हैं बड़ा
प्रज्ञा को
उपलब्ध, संबोधि
को उपलब्ध
व्यक्ति है।
हम उसी के पास
चलें।
उस
सूफी फकीर ने
अपनी अंगूठी
पहन रखी थी
अंगुलि में, वह निकालकर
सम्राट को दे
दी और कहा कि
इसे पहन लो।
इस पत्थर के
नीचे छोटा-सा
कागज रखा है, उसमें सूत्र
लिखा हुआ है।
वह मेरे गुरु
ने मुझे दिया
था। मुझे तो
जरूरत भी न
पड़ी तो मैंने
तो अभी तक
खोलकर देखा भी
नहीं। शर्त उन्होंने
एक ही रखी थी
कि जब कुछ और
उपाय न रह जाए,
सब तरफ से
निरुपाय हो
जाओ, तब
इसे खोलकर पढ़ना।
ऐसी कोई घड़ी न
आयी। उनकी बड़ी
कृपा है।
इसलिए मैं तो
इसे खोलकर पढ़ा
नहीं लेकिन
जरूर इसमें कुछ
राज होगा। आप
रख लो। लेकिन
शर्त याद
रखना--इसका
वचन दे दो कि
जब कोई और
उपाय न रह
जाएगा, सब
तरफ से
निरुपाय, असहाय
हो जाओगे, तभी
अंतिम घड़ी में
इसे खोलना।
क्योंकि यह
सूत्र बड़ा
बहुमूल्य है
और साधारणतः
खोला गया तो अर्थहीन
है। बड़ी प्रखर
वेदना की
स्थिति में इसे
खोलना।
यह
शब्द
वेदना--सुनते
हो, बड़ा
बहुमूल्य है।
यह उसी से बना
है, जिससे
वेद बना।
वेदना के दो
अर्थ होते
हैं। एक तो
अर्थ होता है,
दुख। और एक
अर्थ होता है
ज्ञान। गहरे
दुख के क्षण
में ही ज्ञान
होता है।
तो उस
फकीर ने कहा
कि जब वेदना
का बहुत गहरा
क्षण हो, तब
इसे खोलना। यह
वेद का सूत्र
है। यह वेद
है। इसे हर
घड़ी में खोल
लोगे तो बेकाम
है। क्योंकि
तुम तैयार ही
न होओगे।
तुम्हारा इससे
तालमेल न
बैठेगा। तुम
जब बिलकुल
वेदना में जल
रहे हो, चिता
में बैठे हो
और सब
तुम्हारे
सांसारिक उपाय
व्यर्थ हो
जाएं--क्योंकि
तुम सम्राट हो,
तुम्हारे
पास बहुत उपाय
हैं--तो इसको
मत खोलना। जब
तुम पाओ कि
तुम
दीन-दरिद्र, सम्राट नहीं;
असहाय--लकड़ी
के टुकड़े की
तरह सागर में
पड़े तरंगों के
हाथ में--कहां
ले जाएं, पता
नहीं; तब
इसे खोलना। उस
वेदना के क्षण
में इसका वेद-सूत्र
तुम्हारे काम
आ जाएगा।
सम्राट
ने अंगूठी पहन
रखी। वर्षों
बीत गए। कई
दफे खयाल भी
आया--लेकिन
शर्त पूरी
करनी थी। वचन
दिया था तो
खोला नहीं। कई
दफे जिज्ञासा
भी हुई। फिर
सोचा कि खराब
न हो जाए
कहीं।
फिर
घड़ी भी आ गई।
वर्षों बाद
सम्राट हार
गया। दुश्मन
जीत गया, उसके
राज्य को हड़प
लिया। वह भागा
एक घोड़े पर, अपनी जान
बचाने को।
राज्य तो गया,
संगी-साथी
भी थोड़ी देर
बाद उसे छोड़
दिए। दो-चार
सैनिक, उसके
रक्षक साथ थे;
वे भी
धीरे-धीरे हट
गए क्योंकि अब
कुछ बचा ही न था
तो रक्षा करने
का भी कोई
सवाल न था।
दुश्मन
पीछा कर रहा
है, वह एक
पहाड़ी घाटी से
भागा जा रहा
है अपने घोड़े पर।
पीछे घोड़ों
की आवाजें आ
रहीं हैं, टापें
सुनाई पड़ रहीं
हैं। प्राण
संकट में हैं।
और अचानक उसने
पाया कि
रास्ता
समाप्त हो
गया। आगे तो
भयंकर गङ्ढ
है। लौट भी
नहीं सकता।
पीछे दुश्मन
पास आ रहा है।
आगे जा भी
नहीं सकता। एक
क्षण को किंकर्तव्यविमूढ़,
हतप्रभ खड़ा
रह गया! क्या
करे?
याद
आयी अचानक, खोली अंगूठी,
पत्थर
हटाया, निकाला
कागज, उसमें
एक छोटा-सा
वचन लिखा था:
"दिस टू विल
पास--यह भी बीत
जाएगा।'
सूत्र
को पढ़ते ही
मुस्कुराहट आ
गई उसे। एक
बात खयाल में
आयी, सब तो बीत
गया--सम्राट न
रहा, साम्राज्य
गया। सुख बीत
गया। तो जब
सुख बीत जाता
है तो दुख भी
थिर तो नहीं
हो सकता। शायद
सूत्र ठीक ही
कहता है। अब
करने को भी
कुछ नहीं है।
लेकिन
सूत्र ने जैसे
उसके भीतर कोई
सोया तार छेड़
दिया, कोई
साज छेड़
दिया। "यह भी
बीत जाएगा।' ऐसा बोध आते
ही जैसे एक
सपना टूट गया।
अब वह व्यग्र
नहीं, बेचैन
नहीं, घबड़ाया
हुआ नहीं...कि ठीक
है। वह बैठ
गया।
संयोग
की बात! थोड़ी
दूर तक तो, थोड़ी देर तक
तो घोड़ों
की टापें
सुनाई पड़ती
रहीं, फिर टापें बंद
हो गईं। शायद
सैनिक किसी
दूसरे रास्ते
पर मुड़ गए।
घना जंगल है, बीहड़-पहाड़ हैं, पक्का
उन्हें पता भी
नहीं है, कि
सम्राट किस
तरफ गया है।
धीरे-धीरे घोड़ों
की टापें
दूर हो गईं।
अंगूठी
उसने वापिस
पहन ली।
कुछ
दिनों बाद फिर
दुबारा उसने
अपने मित्रों को
इकट्ठा कर
लिया। हमला
किया, पुनः
जीता, फिर
अपने सिंहासन
पर बैठ गया।
जब सिंहासन पर
बैठा तो बड़ा
आह्लादित हो
रहा था, तभी
उसे पुनः उस
घड़ी की याद
आयी। उसने फिर
अंगूठी खोली,
फिर कागज को
पढ़ा, फिर
मुस्कुराया।
वह सारा
आह्लाद, विजय
का उल्लास, विजय का दंभ,
सब विदा हो
गया।
उसके वजीरों ने
पूछा, "आप
बड़े प्रसन्न
थे, आप
एकदम शांत हो
गए! क्या हुआ?'
सम्राट
ने कहा, यह
सूत्र--"यह भी
बीत जाएगा।' अब सभी बीत
जाएगा। तो न
इस संसार में
दुखी होने को
कुछ है, न
सुखी होने को
कुछ है।
इसको
महावीर कहते
हैं, अनित्य
भावना।
था
जिंदगी में
मर्ग का खटका
लगा हुआ
उड़ने से
पेश्तर भी
मेरा रंग जर्द
था
जिसको
मौत का पता है, वह उड़ने
के पहले भी
जानता है कि
पंख टूटेंगे
और गिरूंगा।
था
जिंदगी में
मर्ग का खटका
लगा हुआ
जिसके
पास बोध है, उसे मौत का
खटका
प्रतिक्षण
लगा है। हृदय
की धक-धक और
कोई खबर नहीं
लाती। धक-धक
मौत का खटका
है।
यह
धक-धक ही बंद
होगी एक दिन।
यह धक-धक ही
पहुंचा देगी
उस जगह, जहां
फिर धक-धक न
होगी।
था
जिंदगी में
मर्ग का खटका
लगा हुआ
उड़ने से
पेश्तर भी
मेरा रंग जर्द
था
बुद्धिमान
उड़ने के
पहले भी जानता
है, पंख टूटेंगे।
वासनाओं के
इंद्रधनुष गिरेंगे।
सपने उजड़ेंगे।
जिंदगी यहां
जिंदगी जैसी
नहीं है। जो
टिकती नहीं, बचती नहीं, सदा नहीं
रहती, उसे
जिंदगी क्या
कहना? पूरब
की परिभाषा
यही है कि वही
है सत्य--जो
सदा है, सनातन
है, शाश्वत
है।
क्षणभंगुर
सत्य नहीं है,
क्षणभंगुर
सपना है।
पूरब
और पश्चिम की
परिभाषाओं
में बड़ा फर्क
है। अगर
पश्चिम में
तुम पूछो, सपना क्या
है? सत्य
क्या है? तो
अलग
व्याख्याएं
हैं। पश्चिम
कहता है, सपना
वह है, जो
नहीं है; और
सत्य वह है, जो है। पूरब
कहता है, हैं
तो दोनों ही।
सपना भी है
अन्यथा होता
कैसे? सत्य
भी है। फर्क
होने और न
होने का नहीं
है, फर्क
शाश्वतता का,
क्षणभंगुरता
का है।
सत्य
वह है, जो है,
था और होगा।
सपना वह है, जो पहले
नहीं था, अभी
है, और अभी
नहीं हो
जाएगा।
पूरब
और पश्चिम की
व्याख्या बड़ी
बुनियादी रूप
से भिन्न हैं।
इसलिए पश्चिम
में जब माया
का अनुवाद
करते हैं वे, तो सदा:
इल्यूजन। वह
गलत है
अनुवाद। माया
का अनुवाद
इल्यूजन नहीं
है, भ्रम
नहीं है।
इल्यूजन
का अर्थ होता
है: जो नहीं है; सिर्फ दिखाई
पड़ा। माया का
अर्थ होता है,
जो है लेकिन
क्षणभंगुर
है। होने में
कोई शक नहीं
है, शाश्वतता
में शक है।
टिकेगा नहीं।
लहर की तरह आया
और गया। यह भी
बीत जाएगा।
तो जो
चीज भी
तुम्हें लगती
हो, बीत
जाएगी, याद
रखना। अगर यह
एक सूत्र भी
पकड़ में आ जाए
तो और क्या
चाहिए? तो
तुम्हारी पकड़
ढीली होने
लगेगी। तुम
धीरे-धीरे उन
सब चीजों से
अपने को दूर
पाने लगोगे, जो चीजें
बीत जाएंगी।
क्या अकड़ना!
कैसा गर्व! किस
बात के लिए
इठलाना! सब
बीत जाएगा। यह
जवानी बीत
जाएगी।
याद
बन-बनके
कहानी लौटी
सांस
होऱ्होके
बिरानी
लौटी
लौटे
सब गम जो दिए
दुनिया ने
मगर
न जाकर जवानी
लौटी
यह सब
बीत जाएगा। यह
जवानी, यह
दो दिन की
इठलाहट, यह
दो दिन के लिए
तितलियों
जैसे पंख। ये
सब बीत
जाएंगे। यह दो
दिन की
चहल-पहल, फिर
गहरा
सन्नाटा। फिर
मरघट की
शांति।
महावीर
कहते हैं, मौत को मत
भूलना।
अनित्य का यही
अर्थ है। अनित्य
भावना का अर्थ
हुआ, मृत्यु
को स्मरण
रखना।
प्रतिपल
मृत्यु को स्मरण
रखना।
मनुष्य
की महिमा यही
है कि उसे
मृत्यु का पता
है। मृत्यु के
पता से ही
धर्म का जन्म
हुआ है। मृत्यु
का जिसको
जितना बोध है, उसके जीवन
में धर्म की
उतनी प्रगाढ़ता
हो जाएगी।
इसीलिए
तो लोग बुढ़ापे
में धार्मिक
होने लगते हैं।
मौत करीब आने
लगती है।
पगध्वनि ज्यादा
साफ सुनाई
पड़ती है।
चीजें दूर
होने लगती हैं।
"यह भी बीत
जाएगा', इसका
स्मरण
ज्यादा-ज्यादा
आने लगता है।
इसीलिए
तो आदमी दुख
में परमात्मा
को स्मरण करता
है। क्योंकि
दुख में पता
चलता है, यहां
पर कुछ भी
नहीं है, खोजूं
परमात्मा को।
सुख में फिर
भूल जाता है। मौत
करीब आती है
तो याद आ जाता
है। लेकिन कोई
अगर तुम्हें
चमत्कार से
जवान बना दे...।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमार था, उसके डाक्टर
ने कहा, बचना
मुश्किल है।
तो उसने अपनी
पत्नी को कहा,
अब डाक्टर
को बुलाने की
कोई जरूरत
नहीं। नाहक फीस
खराब करनी। अब
तो पुरोहित को
बुलाओ।
अब तो मंत्र
सुना दे कान
में। पढ़ दे
कुरान।
पुरोहित आने
लगा।
संयोग
की बात, मुल्ला
मरा नहीं।
डाक्टर के डायग्नोसिस
में, निदान
में कहीं भूल
थी। महीनेभर
जी गया तो
उसने फिर
डाक्टर को
बुलाया। अब वह
स्वस्थ हो गया
था, सब ठीक
था। उसने
डाक्टर से कहा,
डाक्टर ने
जांच की और उसने
कहा, चमत्कार
है। तुम
बिलकुल ठीक हो
गए हो। मैं तो सोचता
था, तुम
बचोगे नहीं
तीन सप्ताह से
ज्यादा। और अब
तो ऐसा लगता
है, तुम कम
से कम दस साल
बचोगे।
उसने
अपनी पत्नी को
कहा, अब
पुरोहित को
बुलाने की कोई
जरूरत नहीं।
और पुरोहित को
जाकर कह दे कि
अब दस साल तो मौत
का कोई कारण
नहीं है।
इसलिए दस साल
इस तरफ कृपा
मत करना।
लेकिन नौ साल
बाद, तीन
सौ चौसठ दिन
बीत जाने के
बाद अगर जीवित
रहो तो आ
जाना। एक दिन
बचे, तब आ
जाना।
आदमी
बिलकुल मरने
के वक्त याद
करता। धर्म को
टालता। लेकिन
इसमें सार की
बात समझ लेने
जैसी है--मौत
याद दिलाती
धर्म की।
लेकिन मौत
क्या इस तरह
थोड़े ही है कि
तुम कहो दस
साल बाद होने
वाली है तो जब
एक दिन बचे, नौ साल तीन
सौ चौसठ दिन
बीत जाएं, तब
तुम आ जाना।
मौत तो किसी
पल आ सकती है।
मौत अभी आ
सकती है। मौत
कल आ सकती है।
हम मौत से
घिरे हैं।
अनित्य
भावना का अर्थ
है: मौत हमें
घेरे हुए है।
हम मौत के हाथ
में पड़े ही
हैं। हम मौत
के जाल में
फंसे ही हैं।
कब जाल सिकोड़
लिया जाएगा और
कब हम हटा लिए
जाएंगे, कुछ
तय नहीं है।
लेकिन इतना तय
है कि यह
होगा।
अगर
तुम थोड़े-से
होशपूर्वक
सोचो तो
जैसे-जैसे मौत
साफ होगी, वैसे-वैसे
धर्म की तरफ
तुम्हारी
दिशा, अपने
आप तुम्हारा
हृदय का कांटा
धर्म की दिशा में
मुड़ने
लगेगा।
"अनित्य,
अशरण'--अशरण
महावीर का
बुनियादी
सूत्र है।
जैसे कृष्ण का
सूत्र है शरणागति।
इसलिए मैं
कहता हूं, बड़ी
विपरीत
भाषाएं हैं और
फिर भी एक ही
तरफ ले जाती
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, परमात्मा की
शरण गहो। मामेकं शरणं व्रज सर्वधर्मान्
परित्यज्य।
आ तू मेरी
शरण। छोड़ सब
धर्म।
महावीर
कहते हैं, अशरण हो
रहो। किसी की
शरण भूलकर मत
जाना। क्योंकि
पर से मुक्त
होना है।
अकेले हो तुम।
कोई दूसरा
सहारा नहीं
है। सब सहारे
धोखे हैं।
सहारों के
कारण ही अब तक
तुम भटके हो।
अब सहारों का
सहारा छोड़ो।
अब तुम बेसहारे
हो, इस
सत्य को समझो।
अपने पैर पर
खड़े हो जाओ।
कोई दूसरा
तुम्हारा
कल्याण न कर
सकेगा। तुमने
ही करना चाहा
तो ही कल्याण
होनेवाला है।
और दूसरे की
शरण पर छोड़कर
कहीं तुम ऐसा
मत करना कि यह
सिर्फ धोखाधड़ी
हो। ऐसा दूसरे
पर टालकर
तुम बच रहे
हो।
अक्सर शरणागति
में जानेवाले
लोग यही करते
हैं। एक मित्र
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं, हम तो
आपकी शरण आ
गए। मैं उनको
कहता हूं, कुछ
ध्यान करो। वे
कहते हैं, अब
हमें क्या
करना? हम
तो आपकी शरण आ
गए। मैं उनसे
पूछा कि जब
तुम दुकान
करते हो, तब
तुम मेरी शरण
नहीं छोड़ते।
तुम यह नहीं
कहते, अब
क्या दुकान
करें! करो बंद
दुकान। जब
मेरी शरण आ गए,
कर दो दुकान
बंद।
उन्होंने कहा,
वह कैसे हो
सकता है!
दुकान
तुम नहीं
छोड़ते, बाजार
तुम नहीं
छोड़ते, धन
तुम नहीं
छोड़ते। सिर्फ
शरण आ गए, ध्यान
छोड़ते हो? और
ध्यान तुमने
कभी किया
नहीं। छोड़ने
को भी
तुम्हारे पास
है नहीं। तो
किसको धोखा दे
रहे हो?
वे
सोचते हैं कि
वे बड़ी ऊंची
बात कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं कि हम
आपकी शरण आ गए; अब और क्या
करना है?
अगर यह
सच हो तो
कृष्ण का
सूत्र काम कर
जाएगा। लेकिन
यह सौ में
निन्यान्नबे मौकों पर
सच होता नहीं।
इसलिए कृष्ण
का सूत्र
तुम्हारे लिए
धोखे का कारण
बन जाता है।
तुम अपने को उस
आड़ में
छिपा लेते हो।
तुम कहते हो, अब कृष्ण के
सहारे हैं। अब
वे जहां ले
जाएंगे, जाएंगे।
मगर
इसमें
बेईमानी है।
अगर यह पूरा
हो तो ठीक।
फिर तुम दीन
हो जाओ, दरिद्र
हो जाओ, सड़क
पर भीख मांगो,
तो भी तुम
प्रसन्न हो।
तुम कहोगे, उनकी शरण
हैं; जहां
ले जाएं। यही
दिया, यही
जरूरी होगा।
गरीबी आवश्यक
रही होगी। तुम
शिकायत न
करोगे। शरणागति
में शिकायत
नहीं है। शरणागति
में सब
स्वीकार है।
लेकिन
आदमी बड़ा
बेईमान है। वह
मतलब की जो
बातें हैं, खुद करता
है। जिन बातों
को वह सोचता
है, गैर-मतलब
हैं, करना
चाहता नहीं, उनको वह
छोड़ता है। वह
कहता है, आपकी
शरण हैं।
मोक्ष अब आप
सम्हालो।
संसार तो हम
सम्हाल रहे
हैं, मोक्ष
आप सम्हालो।
धन तो हम कमाएंगे,
अब ध्यान तो
आपके ही हाथ
में है। बस, आपके चरणों
में सिर रख
दिया।
सिर
में कोई कीमत
है ही नहीं।
कचरा भरा है।
उसको चरणों
में रख दिया, सोचते हैं
कि बहुत बड़ा
काम कर दिया।
कुछ हो तो सिर
में! घास-फूस
भरा है। वे
खेत में झूठे
आदमी देखे? खड़े रहते
हैं। बड़ी
हांडी लगी
रहती है।
कुर्ता भी बड़ा
पहने रहते
हैं।
पशु-पक्षियों
को डराने के
काम आ जाते
हैं। बस वैसा
ही सिर है। उसको
रख देने से भी
क्या होगा?
कृष्ण
ने कहा था, "सर्वधर्मान परित्यज्य
मामेकं शरणं
व्रज।' किससे
कहा था? जिससे
कहा था, उसके
पास था कुछ।
शरण में रखने
को कुछ था।
चरणों में
न्योछावर
करने को कुछ
था। अर्जुन
बड़ा बलशाली
व्यक्ति था।
और ऐसे ही
उसने नहीं रख
दिया जल्दी। कि
कृष्ण ने कहा
और उसने रख
दिया, उसने
कहा, जी
हुजूर! ठीक
कहते हैं। जो
हुकुम! उसने
बड़ी जद्दोजहद
की। सिर था
मूल्यवान।
ऐसे ही रख
देने का न था।
सब जांच-परख
की; इसलिए
गीता का जन्म
हुआ।
लोग आ
जाते हैं, वे कहते हैं,
आपके चरणों
में सिर रख
दिया, अब
आप सम्हालें।
वे
उत्तरदायित्व
से बच रहे
हैं।
महावीर
को यह दिखाई
पड़ा कि हजारों
लोग धर्म के
नाम पर खुद
धोखा खा रहे
हैं, दूसरों
को धोखा दे
रहे हैं। तो
महावीर ने
बहुत जोर
दिया--अशरण
भावना। किसी
की शरण नहीं
जाना है।
महावीर ने कहा,
उत्तरदायित्व
तुम्हारा है।
पाप तुम्हारे,
पुण्य
तुम्हारे, तुम
दूसरे के
चरणों में
कैसे जा सकते
हो? दूसरे
से कुछ सीखना
हो, सीख
लेना। कुछ
पूछना हो, पूछ
लेना। करना तो
तुम्हें
होगा। साधना
तो तुम्हें
होगा।
तो
महावीर कहते
हैं, इसे याद
रखना--अशरण
भावना। बड़ा डर
लगता है आदमी
को अकेले होने
में। बड़ा भय
लगता है, असुरक्षा
मालूम होती
है।
नाजुक
कश्ती, नाजुक
चप्पू और इस
पर तूफान का
जोर
पार
करेगा दरिया
को तू अपनी
जान-ए-चार तो
देख
बड़ा डर
लगता है।
नाजुक
कश्ती--नाजुक
भी कहना ठीक
नहीं, कागज
की कश्ती। अब
डूबी, तब
डूबी। चलाने
के पहले ही
पता है कि डूबेगी।
नाजुक
कश्ती, नाजुक
चप्पू और इस
पर तूफान का
जोर
और
चारों तरफ
अंधड़ जीवन के, मृत्यु के, परिवर्तन के,
क्षणभंगुरता
के।
नाजुक
कश्ती, नाजुक
चप्पू और इस
पर तूफान का
जोर
पार
करेगा दरिया
को तू...
यह
सागर तुझसे
होगा पार?
...अपनी
जान-ए-चार तो
देख?
थोड़ी
अपनी समार्थ्य
तो देख।
इसलिए घबड़ाहट
होती है।
लेकिन महावीर
कहते हैं, कोई और उपाय
ही नहीं है।
छोटी कश्ती है
तो कश्ती को
मजबूत करो।
चप्पू कमजोर
हैं तो नए
चप्पू बनाओ।
तूफान का जोर
है तो तूफान
से लड़ने की हिम्मत
जगाओ।
सागर
बड़ा है माना, लेकिन अगर
तुम होश से
चलो तो
तुम्हारा होश सागरों से
बहुत बड़ा है।
आकाश बड़ा है
माना, लेकिन
जिसके पास
आत्मा है, उसके
लिए आकाश भी
छोटा है। अपने
को जगाओ।
महावीर
का पूरा जोर
आत्मबल पर, स्वयं की
संभावना को
वास्तविकता
बनाने पर है।
"अन्यत्व'--चौथी भावना।
स्मरण रखो कि
तुम कौन हो।
जो बाहर दिखाई
पड़ रहे हैं, भाई है, बहन
है, पत्नी
है, पति है,
मित्र है; वे अन्य
हैं। उनके साथ
अपने मैं को
बहुत ज्यादा
ग्रसित मत कर
लेना। वह धोखा
होगा। परिवार
मत बसा लेना।
यहां हम अकेले
हैं। अकेले आए,
अकेले
जाएंगे। यहां
परिवार तो
सिर्फ हमारी एक
कल्पना है, एक धारणा है।
अकेले
चूंकि रहने
में घबड़ाहट
होती है, एक
परिवार बना
लेते हैं।
रास्ते पर दो
यात्री मिल
जाते हैं, हाथ
में हाथ डाल
लेते हैं।
दोनों
अपरिचित। कहां
से आते हैं, पता नहीं।
कहां को जाते
हैं, पता
नहीं।
दूसरे
बाहर हैं; इनसे मैं
अन्य हूं।
फिर यह
मेरा शरीर भी
मुझसे बाहर
है। मेरी
चेतना इससे भी
अन्य है। फिर
यह मेरा मन भी
मुझसे बाहर
है। ये विचार
भी मुझसे अन्य
हैं। ऐसा
काटते जाना--इलिमिनेशन।
एक-एक को
छोड़ते जाना, जिससे
तुम्हें पता
चल जाए कि यह
मैं नहीं हूं।
ऐसे
हटते-हटते-हटते-हटते...जैसे
कोई प्याज को
छीलता है; एक
छिलका छीला,
दूसरा आया।
उसको भी छीलो,
वह भी छिलका
है। ऐसे
छीलते-छीलते
अखीर में शून्य
हाथ लगता है।
प्याज पूरी
समाप्त हो
जाती है।
छिलके ही
छिलके हैं।
ऐसा ही
अहंकार पूरा
समाप्त हो
जाता है।
छिलके ही
छिलके हैं। और
फिर जो शून्य
हाथ में लगता
है, उसी को
महावीर ने
आत्मा कहा है।
वह जो सबसे
भीतर छिपा हुआ
शून्य साक्षी है,
द्रष्टा
होना जिसका
एकमात्र
गुणधर्म है, वही मैं
हूं। मैं कौन
हूं यह जानने
के लिए पहली
प्रक्रिया है
यह जानना कि
मैं कौन नहीं
हूं। गलत के
साथ संबंध
छोड़ते-छोड़ते
एक दिन पता
चलता है ठीक
का।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, असार
को पहचान लेना,
सार को
पहचान लेने की
पहली
व्यवस्था है।
असत्य को समझ
लेना सत्य की
तरफ पहला कदम
है। क्या गलत
है इसे समझ
लेना क्या ठीक
है, उसकी
तरफ यात्रा बन
जाती है।
पांचवीं
भावना--"संसार।' इस संसार को
भूलना मत।
संसार का अर्थ
है महावीर के
विचारों में:
जन्म-मरण रूप
संसरण; इसीलिए
संसार। यह जो
चाक है
जन्म-मरण
का--घूमता
रहता है, घूमता
रहता है--जन्म,
फिर मृत्यु;
फिर जन्म, फिर मृत्यु।
एक ही चाक।
चाक के आरे
घूमते रहते
हैं। यह जो
जन्म-मरण रूपी
संसरण है, यही
संसार है।
इसे
याद रखना।
यहां हम मरने
से तो बचना
चाहते हैं, लेकिन हमें
यह खयाल नहीं
कि जब तब हम
जन्म से नहीं
बचना चाहते तब
तक मरने से न
बच सकेंगे। यहां
हम मृत्यु से
तो बचना चाहते
हैं और जीवन
को पकड़ना
चाहते हैं।
बड़ी मूढ़ता
का कृत्य है।
जिसने जीवन को
पकड़ा उसने
मृत्यु को भी
पकड़ लिया। ये
दोनों इकट्ठे
हैं। एक ही चके
के दो आरे
हैं।
अगर
मृत्यु से
बचना हो तो
जन्म को भी
छोड़ देना। अगर
मृत्यु से
बचना हो तो
जीवन से भी
दूर खड़े हो
जाना।
जीवेषणा छोड़ोगे
तो यमदूतों का
आना बंद होगा।
जीवेषणा के
पीछे
छिपी-छिपी मौत
आती है। इसलिए
महावीर कहते
हैं, संसार के
चाक को याद
रखना।
"लोक'--छठवीं धारणा।
महावीर कहते
हैं, यह
संसार जो
दिखाई पड़ रहा
है, यह तो
संसार है ही; इसके पीछे
छिपे हुए
संसार भी हैं,
उन सभी
संसारों का
नाम लोक। नर्क
है, स्वर्ग
है, मनुष्य-लोक
है। इन तीनों
का इकट्ठा नाम
लोक।
इससे
तो बचना ही।
लेकिन यह मत
सोचना कि इससे
बचकर और
स्वर्ग में पहुंच
जाएंगे।
कल्पवृक्ष के
नीचे बैठकर
मजा करेंगे।
वह मजा करने
की धारणा इसी
संसार को बचा
लेने का उपाय
है।
मजा
क्या करोगे? कभी सोचा? कल्पवृक्ष
के नीचे बैठ
गए तो करोगे
क्या? कभी
बैठकर शांति
से सोचना कि
बैठ गए
कल्पवृक्ष के
नीचे, अब
क्या करना? तो तुम
पाओगे, सारी
संसार की
वासनाएं उठनी
शुरू हो गईं।
कितना धन
चाहिए--अचानक
तुम कहोगे, हो जाए करोड़
रुपये की
बरसात। आ जाएं
सजी हुई थालियां
भोजन की, कि
नाचने लगें
सुंदर
स्त्रियां
आसपास, कि
मिल जाए
सिंहासन
चक्रवर्ती
का।
तुम
जरा बैठकर
सोचना। अभी
बैठे नहीं हो
कल्पवृक्ष के
नीचे, लेकिन
सिर्फ कल्पना
भी करोगे तो
तुम पाओगे, कल्पवृक्ष
का खयाल आते
ही सारा संसार
फिर आ गया।
तो
महावीर कहते
हैं, संसार से
ही नहीं छूटना,
संसार के
पीछे छिपे
संसारों से भी
छूटना है।
"अशुचि'--सातवीं
धारणा।
महावीर कहते
हैं, जहां-जहां
मिश्रण है
वहां-वहां
अशुद्धि है।
देखा
तुमने!
दूधवाला दूध
में पानी मिला
लाता है, तुम
कहते हो, दूध
अशुद्ध है।
मगर, अगर
दूधवाला कहे
कि शुद्ध पानी
मिलाया है, तो अशुद्ध
कैसे हो जाएगा?
दूध भी
शुद्ध था, पानी
भी शुद्ध था, तो दो चीजें
शुद्ध होकर
मिलती हैं तो
और भी शुद्धि
बढ़ गई होगी, दोहरी हो गई
होगी। दुगुनी
हो गई है। कौन
कहता है
अशुद्ध है?
लेकिन
फिर भी तुम
कहोगे, अशुद्ध
है। असलियत
बात यह है, अशुद्धि
का अर्थ ही
इतना होता है:
विजातीय से मिल
जाना। दूध
पानी नहीं है,
इसलिए पानी
के मिलाने से
अशुद्ध हुआ।
दूसरी बात
तुमने खयाल
नहीं दी
क्योंकि पानी
मुफ्त मिलता
है। नहीं तो
दूसरी बात भी
सच है। पानी भी
अशुद्ध हो गया
दूध के मिलाने
से। क्योंकि पानी
का स्वभाव दूध
नहीं है। पानी
मुफ्त मिलता है
इसलिए कोई
फिक्र नहीं
करता। करो
पानी को अशुद्ध,
कोई चिंता
नहीं करता।
दूध को मत करो
क्योंकि दूध
के दाम लगते
हैं। लेकिन
दोनों अशुद्ध
हो जाते हैं।
दो शुद्ध
चीजें भी मिलती
हैं तो परिणाम
अशुद्धि होता
है।
महवीर
कहते हैं, यहां संसार
में सब मिलावट
है। यहां सब
चीज एक-दूसरे
से मिली है। खिचड़ी हो
गई है। इसलिए
सब अशुद्ध
हैं।
तुम्हारी आत्मा
मन में घुल गई
है। मन शरीर
में घुला है।
शरीर बाहर
संसार में
डूबा है। सब
एक-दूसरे को छेदे हैं।
एक-दूसरे से भिदे पड़े
हैं। एक-दूसरे
में उलझे हैं।
एक-दूसरे से गांठ
बंधी है।
इसलिए
अशुद्धि है।
इस
अशुद्धि को
याद
रखना--अशुचि।
और इसे
याद रखना, कि तुम
शुद्ध तो तभी
हो, जब बस
केवल तुम हो।
जरा कुछ जुड़ा
कि अशुद्धि हुई।
कोई विचार आया,
कोई भाव आया,
कोई कल्पना
उठी, अशुद्धि
हुई। दूध में
पानी पड़ा, या
पानी में दूध
पड़ा।
"आस्रव'--महावीर
का पारिभाषिक
शब्द है। आस्रव
का अर्थ होता
है: द्वार पर
सम्हलकर
बैठना। क्योंकि
प्रतिपल
तुम्हारे मन
में बाहर के
जगत से
संस्कार आ रहे
हैं, वासनाएं
आ रही हैं।
तुम
बैठे हो राह
के किनारे, ध्यान कर
रहे हो, एक
कार निकल गई।
कार के निकलते
ही, कार का
दृश्य आंख में
आते ही
तत्क्षण
तुम्हारे
भीतर कोई सोयी
वासना जग
गई--ऐसी कार
मेरे पास हो।
शायद तुमने
इतने शब्दों
में कहा भी
नहीं। शायद
तुमने फिर आंख
बंद कर ली, फिर
अपनी माला
फेरने लगे।
लेकिन एक झलक
कार की, और
एक वासना का
उठ आना, उमग
आना भीतर घट
गया। यह आस्रव।
आस्रव
का अर्थ है:
बाहर से चीजों
को तुम्हें
अशुद्ध करने
का मौका देते
रहना।
तो
जागे रहना।
कुछ भी बाहर
से निकले, तुम होश
रखना, आस्रव मत होने
देना। कार
निकल जाए, देखते
रहना। कार के
निकलने में
कोई बाधा नहीं
है। सुंदर
स्त्री निकल
जाए, देखते
रहना। सुंदर
पुरुष निकल
जाए, देखते
रहना। सुंदर
पुरुष-स्त्री
के निकलने में
बाधा नहीं है।
जब तक
तुम्हारे
भीतर छाप न पड़े,
जब तक
तुम्हारे
भीतर संस्कार
न हों, जब
तक तुम्हारे
भीतर कोई तरंग
न उठे तक तब
कोई हर्जा
नहीं है।
अगर
तुम भीतर निस्तरंग
रह सको तो
बाजार में भी
हिमालय है।
हिमालय पर भी
बैठकर अगर तुम
निस्तरंग
न रह सको तो
बाजार है।
"संवर'--यह भी
महावीर का
पारिभाषिक
शब्द है।
महावीर कहते
हैं, जो
गलत हो सकता
है, उसे
होने मत देना।
और जो ठीक हो
रहा है, उसे
सम्हालना।
उसका संवरण
करना।
जैसे
तुम ध्यान कर
रहे हो, धर्म-ध्यान
कर रहे हो, कोई
निकला: कार
निकली, स्त्री
निकली, पुरुष
निकला तो आस्रव--इस
छाया को भीतर
मत पहुंचने
देना, दरवाजे
पर रोक
देना--एक। और
भीतर जो ध्यान
की प्रक्रिया
चल रही है, उसे
सम्हालना; उसका
संवरण करना।
तो बाहर से
कुछ भीतर न आए
और भीतर से
कुछ बाहर न
जाए।
"निर्जरा'--और जो भी
छोड़ने योग्य
है, छूटता
हो तो पुरानी
आदत के वश पकड़ना
मत। जैसे
पुराने पत्ते
वृक्ष से
गिरते हैं तो
वृक्ष पकड़ता
नहीं।
आदमी
अदभुत है।
यहां कचरा भी
नहीं छोड़ा
जाता। आदमी उसको
भी सम्हालकर
रख लेता है, पता नहीं कब
काम पड़े। लोग
टूटी-फूटी
चीजें इकट्ठी
करते रहते
हैं। घर को कबाड़
बना लेते हैं
इस आशा में, कि पता नहीं
कब काम पड़
जाए।
एक दिन
मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन
एक ही जूता
पहने चला आ
रहा है। मैंने
पूछा कि दूसरे
का क्या हुआ? उसने कहा, दूसरे का
कुछ नहीं हुआ।
एक रास्ते पर
मिल गया। तो
मैंने कहा, इस एक का
क्या करोगे? उसने कहा, जब एक मिल
सकता है तो
दूसरा भी मिल
सकता है। इसको
तो सम्हालकर
रख लें।
आदमी
कुछ भी इकट्ठा
कर रहा है। यह
बाहर ही नहीं
हो रहा, यह
भीतर भी हो
रहा है। भीतर
भी तुम व्यर्थ
हो गई चीजों
को पकड़े
चले जाते हो।
तो
पुराने पत्ते
वृक्ष से छूट
ही नहीं पाते।
नए पत्तों को
आने की जगह
नहीं, अवकाश
नहीं। तुम नए
नहीं हो पाते,
क्योंकि
तुम पुराने को
जकड़े
रहते हो। अतीत
को पकड़े
रहते हो।
किसी
ने बीस साल
पहले गाली दी
थी, अब उसे किसलिए पकड़े हो? मगर नहीं, उसे तुम पकड़े
बैठे हो। शायद
वह आदमी भी मर
चुका। शायद वह
आदमी हजार दफे
क्षमा भी मांग
चुका, लेकिन
फिर भी वह
गाली पकड़ी
है। वह वहां
बैठी है। उसे
तुम किसलिए
पकड़े हो? उसे जाने
दो।
निर्जरा
का अर्थ है: जो
व्यर्थ हो जाए
और छूटने
लगे--और
व्यर्थ होकर
चीजें अपने आप
छूटती हैं।
स्वभावतः
गिरती हैं।
तुम उनको पकड़
मत लेना, रोक
मत लेना। सूखे
पत्तों को गिर
जाने देना, उड़ जाने
देना।
तो तुम
ऐसे प्रतिपल
नए होते
रहोगे।
फिर
"धर्म'--धर्म
का अर्थ है
स्वभाव।
महावीर का
धर्म का अर्थ रिलीजन या
मजहब नहीं है,
महावीर का
अर्थ है: स्वभाव।
जैसे अग्नि का
धर्म है जलाना;
जैसे पानी
का धर्म है
नीचे बहना; नीचे की तरफ,
गङ्ढे की तरफ
बहना। जैसे
अग्नि का धर्म
है ऊपर लपट की
तरह उठना, आकाश
की तरफ दौड़ना;
ऐसे मनुष्य
का धर्म है
परमात्मा
होना। उसका स्वभाव
है। ऐसा नहीं
कि मनुष्य को
परमात्मा होना
है, मनुष्य
परमात्मा है;
उघाड़ना है।
तो
महावीर कहते
हैं, धर्म को
मत भूलना।
लेकिन
जैनियों से
पूछो, जैन
पंडितों से, जैन मुनियों
से पूछो; वे
धर्म का अर्थ
करेंगे, जैन
धर्म। वे कहते
हैं, जैन
धर्म को याद
रखना। यह बात
गलत हो गई।
महावीर जैन
धर्म की कोई
बात नहीं कह
रहे हैं। यह
मजहब की बात
ही नहीं है।
महावीर जैसे
व्यक्ति मजहब
की बातें करते
ही नहीं। मजहब
जैसे रोग और
महावीर जैसे
चिकित्सक
उनकी बात
करें! असंभव।
महावीर
कहते हैं, धर्म याद
रखना--सिर्फ
धर्म। बुद्ध
और महावीर दोनों
ने धर्म शब्द
का बड़ा अदभुत
प्रयोग किया है।
वह प्रयोग है:
सीधा-सरल
स्वभाव। जो
लाओत्सु की
भाषा में ताओ
का अर्थ है और
जो वेद की
भाषा में ऋत
का अर्थ है, वही महावीर
और बुद्ध की
भाषा में धर्म
का अर्थ है।
धर्म
का अर्थ है: जो
होना
तुम्हारा
स्वभाव है। उस
स्वभाव से
विपरीत मत
होना। उस
स्वभाव से विपरीत
को पकड़ना
मत। उस स्वभाव
से विपरीत को
आने मत देना।
उस स्वभाव के अनुकूल
को सम्हालना
और उस स्वभाव
को सदा स्मरण
रखना कि मैं
कौन हूं। भला
आज साफ-साफ न
भी हो सके कि
मैं परमात्मा
हूं, लेकिन
याद मत
बिसारना, भूलना
मत। याद बनाए
ही रखना। आज
नहीं उघड़ेगा,
कल उघड़ेगा।
कल नहीं परसों
उघड़ेगा।
लेकिन जिसे
याद है, वही
उघाड़ पाएगा।
और जिसे याद
ही नहीं, वह
क्या खाक उघाड़ेगा!
तुम्हें भला
भूल ही गया हो
कि धन कहां गड़ा
है, लेकिन
इतनी याद भी
हो कि गड़ा
है तो तुम
खोजते रहोगे।
इस कोने में खोदोगे, उस कोने में खोदोगे, इस कमरे में,
उस कमरे में,
आंगन में, आंगन के
बाहर--खोदते
रहोगे।
तुम्हें याद
हो कि धन गड़ा
है।
मैंने
सुना है, एक
बाप मरा। उसके
पांच बेटे थे।
पांचों काहिल और
सुस्त थे।
सिर्फ धन में
उनकी लोलुपता
थी, क्योंकि
गुलछर्रे
करें। मरते
बाप से कहा कि
देखो, धन
तो मैं बहुत
छोड़े जा रहा
हूं। वह मैंने
सब खेत में गड़ा
दिया है। बाप
तो मर गया। वे
पांचों बेटे
बाप को मरघट
पर किसी तरह
जल्दी-जल्दी
समाप्त करके भागे
खेत। खोद डाला
पूरा खेत।
वहां कुछ गड़ा
न था। लेकिन
जब पूरा खेत
खुद गया तो
उन्होंने कहा,
अब बीज भी
फेंक ही दो।
फसल आयी। खूब
फसल आयी।
तब
उन्हें समझ
आयी कि धन
वहां सोने-चांदी
की तरह नहीं गड़ा था। उस
खोदने में ही
धन पैदा हुआ।
उस खोदने में
ही खेत उर्वर
हो गया। बीज
फेंक दिए। ऐसे
वे खेती
करनेवाले न
थे। अलाल
थे, काहिल
थे। बाप कहता
कि खेती करना,
जमीन को
खोदना, बखर
लगाना, वह
उनसे
होनेवाला
नहीं था। वे
बाप के मरते
ही चादर तानकर
सो गए होते।
लेकिन धन गड़ा
था, इस आशा
में खोदने चले
गए।
तुम्हारे
भीतर तुम्हें
याद बनी रहे
कि परमात्मा
छिपा है कहीं, तो खोज जारी
रहेगी। अगर
तुमने यह बात
ही विस्मृत कर
दी तो खोदोगे
क्या? खोजोगे क्या?
इसलिए
महावीर कहते
हैं, धर्म को
याद रखना।
और
"बोधि'--बोधि
है अंतिम
नियति, कैवल्य,
समाधि।
तुम्हारा
परमात्मा हो
जाना। तुम हो
सकते हो, इसे
मत भूलना।
तो दो
बातें:
धर्म--कि तुम
हो। लेकिन
उसमें एक खतरा
है। कहीं ऐसा
न हो कि तुम
बिना ही खोदे
और मान लो, कि हो। बिना
ही उघाड़े
भरोसा कर लो
कि ठीक है, जब
महावीर कहते
हैं तो ठीक
कहते होंगे।
इतने
से काम नहीं
चलेगा। इतना
याद रखना कि
तुम हो, लेकिन
अभी जो तुम हो,
उसे भी
उघाड़ना है।
तुम जो हो, अभी
होना है। यह
बड़ा
विरोधाभासी
लगेगा। इसे मैं
फिर से दोहरा
दूं। तुम जो
हो, अभी
होना है। अभी
तुम्हें अपने
स्वरूप को उघाड़ना
है।
इसलिए
धर्म की याद
रखना और बोधि
की याद रखना
कि घटना घटती
है। संबोधि कल्पना
नहीं है, कवियों
का कल्पनाजाल
नहीं है। घटा
है, यथार्थ
है। जीवन का
परम यथार्थ
है। बुद्ध और
महावीर, कृष्ण
और कबीर, नानक
और दादू इनकी
याद का और कोई
अर्थ नहीं है।
इनकी याद का
इतना ही अर्थ
है कि इस
रास्ते पर कुछ
लोग परम
अवस्था को
उपलब्ध हुए
हैं। ताकि तुम्हें
भरोसा बना
रहे। वे गवाहियां
हैं। वे
प्रमाणपत्र
हैं। उनके
कारण तुम इस
संदेह में
पूरी तरह डूब
न जाओगे कि
कहीं ऐसा तो नहीं
है कि ऐसा
होता ही नहीं
है! तो हम अपना
व्यर्थ समय
करें, व्यर्थ
शक्ति करें।
इन
ज्योतिर्मय पुरुषों
के कारण तुम
अपने अंधेरे
को स्वीकार नहीं
कर पाते और
अपने प्रकाश
को तुम
कभी-कभी याद
करते रहते हो।
आ ही जाती है
याद कहीं न
कहीं। इसलिए मस्जिदें
बनीं, मंदिर
बने जगत में, गुरुद्वारे
बने। वे
याददाश्त की
जगह हैं। जा रहे
हो बाजार, रास्ते
में मंदिर
दिखाई पड़ गया;
अगर तुममें
थोड़ी भी
बुद्धि हो तो
मंदिर तुम्हें
याद करा जाएगा
कि बाजार जाओ
भला, लेकिन
आना मंदिर है।
बाजार का
चक्कर लगाकर
आओ, मगर
आना मंदिर है।
आज नहीं आ
सकते भला, लेकिन
कल आना जरूर
है। कि जीवन
की नियति
मंदिर में है,
दुकान में
नहीं है। कि
जीवन का परम
सौभाग्य
राजधानियों
में नहीं है।
कि जीवन का परम
सौभाग्य
ध्यान में है;
महत्वाकांक्षा
में नहीं है, हिंसा में
नहीं है, परिग्रह
में नहीं
है--कि ध्यान, कि धर्म, कि
बोधि।
मगर
क्या ऐसी
चीजें होती
हैं?
अगर
तुम्हें याद
भूल जाए, तुम
अगर यह मान ही
लो कि ऐसी
चीजें होती ही
नहीं तो फिर
तुम उस दिशा
में खोज ही न
करोगे, तड़फोगे ही न। तुम
प्यासे ही न
होओगे। जो
होता ही नहीं,
उस दिशा में
हम जाते ही
नहीं। यह याद
बनी रहे।
इसके
परिणाम देखो।
सोवियत रूस है; राज्य ने
मान लिया कि
कोई परमात्मा
नहीं है, कोई
मोक्ष नहीं।
तो इन पचास
वर्षों में एक
भी व्यक्ति
रूस में समाधि
को उपलब्ध
नहीं हो सका।
यह तो बड़ा
अहित हो गया।
हालांकि मैं यह
नहीं कहता हूं
कि रूस
धार्मिक रहता
तो जरूरी था
कोई समाधि को
उपलब्ध हो
जाता। लेकिन
संभावना थी।
बीस करोड़
लोगों का
मुल्क है। कोई
बहुत हजारों
लोग समाधि को
उपलब्ध हो
जाते, ऐसा
भी नहीं है।
मगर एकाध तो
हो ही सकता
था। वह भी
नहीं हुआ।
अगर
सारी दुनिया
कम्युनिस्ट
हो जाए और
नास्तिक हो
जाए तो बुद्ध, महावीर, कृष्ण,
पागल सिद्ध
हो जाएंगे।
यह तो
बात ही दूर ही
रही कि हम
बुद्धत्व को
पाने की
चेष्टा
करेंगे, जिनत्व को पाने की
चेष्टा
करेंगे; अगर
हम जिन हो भी
जाएंगे घर के
भीतर, तो
हम बाहर खबर न
करेंगे; नहीं
तो लोग
पागलखाने ले
जाएंगे।
रूस
में यह हो रहा
है। जो
व्यक्ति भी
राज्य की धारणाओं
से भिन्न बात
कहता है, वह
करार दे दिया
जाता है कि
इसका दिमाग
खराब है। उसको
तत्क्षण मनोचिकित्सालय
ले जाकर इलेक्ट्रिक
शाक, इन्सुलिन
शाक, दवाइयां
पिलाना शुरू
कर देते हैं।
वह लाख चिल्लाए।
अब तुम
थोड़ा सोचो, कितना बड़ा
अंतर पड़ा है।
अच्छा किया
यहूदियों ने
जीसस को सूली
तो लगा दी। यह
कहा कि यह
आदमी गलत है, खतरनाक है।
अगर जीसस आज
रूस में होते
तो सूली न
मिलती, किसी
पागलखाने में
इलेक्ट्रिक
शाक मिलते, जो कि और भी
दुखांत है।
क्योंकि सूली
तो जीसस को
नहीं मार पाई,
लेकिन
पागलखाना तो
नष्ट कर देता।
जब
महावीर कहते
हैं, बोधि को
स्मरण रखना, भावना करना,
तो इसका
अर्थ है:
बुद्धत्व
उपलब्ध हुआ है,
बुद्ध हुए
हैं, जिन
हुए हैं। आज
भी हो सकते
हैं, कल भी
होते रहेंगे।
यह हमारा
स्वरूप-सिद्ध
अधिकार है। जो
भी हिम्मत
करेगा, जो
भी दावा करेगा,
उसको मिलकर
रहेगा। अगर हम
न पाते हों, हमारी
कमजोरी है।
अगर हमें न
मिलता हो तो
केवल एक खबर
मिलती है:
हमने चेष्टा
नहीं की। हमने
श्रम नहीं
किया। हमने
योग्यता
अर्जित नहीं
की।
लेकिन
बोधि को पाने
जो भी चले, वह स्मरण
रखे, बहुत
कुछ खोना
होगा। जैसे हम
हैं, वैसे
तो हमें मिटना
होगा। जो हम
हैं, वैसे
तो हमें
विसर्जित
होना होगा।
मिलने
को मिलेगा बिलआखिर
ऐ
अर्श सुकूने-साहिल
भी
तूफाने-हवादिस
से लेकिन
बच
जाए सफीना
मुश्किल है
वह
किनारा मिलेगा
शांति का--सुकूने-साहिल
भी। अंततः
मिलेगा।
लेकिन--
तूफाने-हवादिस
से लेकिन
बच
जाए सफीना
मुश्किल है
लेकिन
यह नाव तूफान
में बचेगी, यह मुश्किल
दिखाई पड़ता
है। मुश्किल
ही नहीं है, मैं तो कहता
हूं, यह
निश्चित है, यह नाव तो डूबेगी।
तुम बचोगे, नाव डूबेगी।
नाव यानी
तुम्हारा
शरीर। नाव
यानी
तुम्हारा मन। नाव
यानी
तुम्हारा
अहंकार। यह तो
नहीं बचेगा।
यह तो तूफान
में जाएगा।
इसको बचाने की
कोशिश की तो
तुम उस पार
जाने से भी
वंचित रह
जाओगे। और यह
तो फिर भी
जाएगा। यह तो
फिर भी न
बचेगा। यह तो
बचाकर भी नहीं
बचता। जाना
इसका स्वभाव
है। और जो
बचता है सदा, और जाना
जिसका स्वभाव
नहीं है, उसकी
तुमने याद
नहीं की। उसकी
सुरति नहीं
जगाई।
निराला
की बड़ी
प्रसिद्ध
पंक्तियां
हैं:
स्नेह-निर्झर
बह गया है
स्नेह-निर्झर
बह गया है,
रेत
ज्यों तन रह
गया है
आम
की यह डाल जो
सूखी दिखी
कह
रही है अब यहां
पिक या शिखी
नहीं
आते, पंक्ति
में वह हूं
लिखी
नहीं
जिसका अर्थ
जीवन
ढह गया है
दिए
हैं मैंने जगत
को फूल-फल
किया
है अपनी प्रभा
से चकित चल
पर अनस्वर था
सकल पल्लवित
पल
ठाठ
जीवन का वही, जो ढह गया है
अब
नहीं आती
पुलिन पर
प्रियतमा
श्याम
तृण पर बैठने
को निरुपमा
बह
रही है हृदय
पर केवल अमा
मैं
अलक्षित हूं
यही कवि कह
गया है
स्नेह-निर्झर
बह गया है
रेत
ज्यों तन रह
गया है
यह तन
तो रेत जैसा
ढह ही जाएगा।
यह तो घर है, घास-फूस की
मचिया है। यह
तो मिट्टी का
बना घर है। यह
मिटेगा ही। यह
नाव तो डूबेगी
ही। यह तो हर
हाल डूबेगी।
जो बचाना
चाहते हैं, उनकी भी
डूबती है। जो डुबाने-डूबने
की फिक्र
छोड़कर चल पड़ते
हैं, उनकी
भी डूबती है।
नाव तो डूबती
है, लेकिन
जिसने नाव को
बचाया वह खुद
भी डूब जाता है।
और जिसने नाव
की फिक्र न की,
नाव तो डूब
जाती है, लेकिन
वह उबर जाता
है।
यहां जो
डूबते हैं, वे ही उबरते
हैं। यहां जो
बचने की
चेष्टा करते
हैं, वे
डूबे ही रह
जाते हैं।
हम न औतार थे न
पैगंबर, क्यूं यह अजमत
हमें दिलाई गई
मौत
पाई सलीब पर
हमने उम्र
वनवास में
बिताई गई
ये बड़ी
मीठी
पंक्तियां
हैं। राम को
वनवास मिला
ठीक, वे अवतार
थे। जीसस को
सूली लगी ठीक,
वे मसीहा
थे।
हम न औतार थे न
पैगंबर क्यूं
यह अजमत हमें
दिलाई गई
मौत
पाई सलीब पर
हमने उम्र
वनवास में
बिताई गई
तुम
राम हो या न हो, उम्र तो
वनवास में बीतेगी।
तुम राम हो या
न हो, सीता
तो तुम्हारी
चुराई ही
जाएगी। तुम
जीसस हो या न, सूली तो
लगेगी। वह तो
निश्चित है।
उसका अवतार और
पैगंबर से कुछ
लेना नहीं। वह
तो जन्म का
स्वभाव है कि
मृत्यु होगी।
वह तो पाने का
स्वभाव है कि
खोना पड़ेगा।
वह तो पत्ते के
आने में ही तय
हो गया कि सूखेगा
और गिरेगा।
वसंत पतझड़
की तैयारी है।
यह तो होगा
ही। लेकिन इसे
अगर तुम
स्वेच्छा से
हो जाने दो--वही
फर्क है। वही
फर्क है
तुममें और
जीसस में; तुममें
और राम में।
राम
इसे स्वेच्छा
से हो जाने
देते हैं।
वनवास तो हुआ।
वे तैयार हो
गए। धनुषबाण
लेकर खड़े हो
गए घर के बाहर, कि चला। एक
बार भी ना-नुच
न की। यह नहीं
कहा कि कैसा
अन्याय है! यह
कैसा बलात
व्यवहार! बाप
पर धोखे का शक
भी न किया, शिकायत
भी न की।
वनवास
तो सभी को
होता है। राम
ने स्वीकार
किया इसीलिए
अवतार हो गए।
सूली तो सभी
को लगती है। किसी
को खाट पर
पड़े-पड़े लगती
है, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? खाट
भी वैसी ही
लकड़ी की बनी
है, जैसी
सूली बनती है।
कहां सूली
लगती है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। सूली तो
लगती है। मौत
तो सभी की
होती है। जीसस
ने स्वीकार कर
ली। अंतिम घड़ी
में कहा, हे
प्रभु! तेरी
मर्जी पूरी
हो। उसी क्षण
पैगंबर हो गए।
सभी
यहां पैगंबर
और अवतार होने
को हुए हैं।
इससे कम पर
राजी मत हो
जाना। दुख तो
मिलेगा ही। तो
फिर इस दुख के
साथ थोड़ा
सर्जनात्मक
खेल खेल लो। इसे
स्वीकार कर
लो। इसे आनंद
और अहोभाव से
उठा लो। मरने
को तैयार हो
जाओ। अपनी
सूली अपने कंधे
पर ढोने को
तैयार हो जाओ।
और तुम पाओगे
कि अमृत
उपलब्ध हुआ।
अमृत मिला ही
हुआ है। थोड़ा
मृत्यु से तुम
ऊपर उठो, तो
अमृत के दर्शन
हों। हम ऐसे
हैं, जैसे
कोई आदमी जमीन
पर आंख गड़ाये
चल रहा हो, और
आकाश उपलब्ध
है और आंख
उठाकर देखता न
हो। और कहता
हो, आकाश
कहां है? जमीन
ही जमीन दिखाई
पड़ती है।
मिट्टी ही
मिट्टी दिखाई
पड़ती है।
ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर मिट्टी
भी है, जमीन
भी है, आकाश
भी है। आकाश यानी
तुम्हारी
आत्मा।
मिट्टी, जमीन
यानी
तुम्हारा
शरीर। शरीर से
थोड़ी आंख उठाओ।
शरीर यानी
मृत्यु।
शरीर
से थोड़ी आंख
ऊपर उठाओ।
आत्मा यानी
अमृत, शाश्वत
जीवन।
उस
स्थिति को
महावीर ने
मुक्ति, मोक्ष
कहा है। मोक्ष
को पाए बिना
जाओ तो आना व्यर्थ
हुआ। फिर-फिर
भेजे जाओगे।
वह पाठ सीखे
बिना इस
पाठशाला से
कोई कभी छूटा
नहीं। सीख ही
लो। जो सीख
जाता है, उसे
दुबारा नहीं
भेजा जाता है।
जरूरत ही न
रही।
पुनर्जन्म
के सिद्धांत
का इतना ही
अर्थ है कि बिना
पाठ सीखे
जो गया उसे
वापिस स्कूल
भेज दिया जाता
है--फिर उसी
कक्षा में। सीखकर आना
ही होगा, ज्ञान
की संपदा
जगानी ही
होगी।
तुम्हारे भीतर
का वेद जब तक
गुनगुनाने न
लगे, जब तक
तुम्हारे
भीतर की ऋचाएं
प्रगट न हो उठें,
तब तक
परमात्मा
तुम्हारा
पीछा नहीं छोड़नेवाला
है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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