जिन सूत्र--(भाग--2)
सारसूत्र::
सारसूत्र::
जे
इंदियाणं
विसया मणुण्णा,
न तेसु भावं निसिरे
कयाई।
न
याउमणुण्णेसु
मणं पि
कुज्जा,समाहिकामें समणे तवस्सी।।
123।।
सुविदियजगस्सभावो,
निस्संगो
निब्भओ निराओ य।
वेरग्गभाविणमणो,
झााणंमिसुनिच्चलो
होई।। 124।।
देहविवितं पेच्छइ,
अप्पपाणं
तह य बव्वसंजोगे।
देहोवहिवोसग्गं निस्संगो
सव्वहा कुणइ।। 125।।
णाहं होमि परेसिं
ण में परे संति
णाणमहमेक्को।
णातीतमट्ठं ण
य आगमिस्सं,
अट्ठं नियच्छंति
तहागया उ।
विधूतकप्पे एयाणुपस्सी,
णिज्झोसइत्ता
खवगे महेसो।।
127।।
मा
चिट्ठह,
मा जंपह, मा चिंतह
किं वि जेण
होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि
रओ, इणमेव
परं हवे झाणं।। 128।।
न
कसायमुत्थेहि
वहिज्जइ
माणसेहिं
दुक्खेहिं।
ईसा—विसाय सोगा
इएहिं,
झाणो वगयचियो।।
129।।
चालिज्जइ बिभेइ य धीरो
न परीसहोवसग्गेहिं।
सुहुमेसु
न संमुच्छइ,भावेसु न देवमायासु।।
130।।
पहला
सूत्र:
"समाधि
की भावना वाला
तपस्वी
इंद्रियों के
अनुकूल
विषयों में
कभी राग-भाव न
करे और
प्रतिकूल
विषयों में भी
मन में द्वेष
न लाए।'
मनुष्य
के मन के आधार
ही चुनाव में
हैं। मनुष्य
के मन की
बुनियाद
चुनने में है।
चुना, कि मन
आया। न चुनो, मन नहीं है।
इसलिए
कृष्णमूर्ति
बहुत जोर देकर
कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस--चुनावरहित
सजगता।
चुनावरहित
सजगता में मन
का निर्माण
नहीं होता। न
रहेगा बांस, न बजेगी
बांसुरी।
मन को
तो बहुत लोग
मिटाना चाहते
हैं। ऐसा आदमी
खोजना कठिन है, जो मन से
परेशान न हो।
मन से बहुत
पीड़ा मिलती है,
बेचैनी
मिलती है। मन
का कोई मार्ग
शांति तक, आनंद
तक जाता नहीं;
कांटे ही
चुभते हैं। मन
आशा देता है
फूलों की, भरोसा
बंधाता
है फूलों का; हाथ आते-आते
तक सभी फूल
कांटे हो जाते
हैं। ऊपर लिखा
होता है--सुख।
भीतर खोजने पर
दुख मिलता है।
जहां-जहां
स्वर्ग की
धारणा बनती है,
वहीं-वहीं
नर्क की
उपलब्धि होती
है।
तो
स्वाभाविक है
कि मनुष्य मन
से छूटना चाहे; लेकिन चाह
काफी नहीं है।
यह भी हो सकता
है कि मन से
छूटने की चाह
भी मन को ही
बनाए।
क्योंकि सभी
चाह मन को
बनाती हैं।
चाह मात्र मन
की निर्मात्री
है।
तो
बुनियाद को
खोजना जरूरी
है, मन बनता
कैसे है? यह
पूछना ठीक
नहीं कि मन
मिटे कैसे? इतना ही
जानना काफी है
कि मन बनता
कैसे है! और हम
न बनाएं
तो मन नहीं
बनता। हमारे
बनाए बनता है।
हम मालिक हैं।
लेकिन
ऐसा हो गया है
कि बुनियाद
में हम झांकते
नहीं, जड़ों
को हम देखते
नहीं, पत्ते
काटते रहते
हैं। पत्ते
काटने से कुछ
हल नहीं होता।
महावीर
का यह पहला
सूत्र, निर्विकल्प
भावदशा
के लिए पहला
कदम है।
महावीर कहते
हैं, न तो
राग में, न
द्वेष में। ये
दो ही तो मन के
विकल्प हैं।
इन्हीं में तो
मन डोलता है, घड़ी के पेंडुलम
की तरह। कभी
मित्रता
बनाता, कभी
शत्रुता
बनाता। कभी
कहता अपना, कभी कहता
पराया।
जैसे
ही तुमने राग
बनाया, तुमने
द्वेष के भी
आधार रख दिए।
खयाल किया? किसी को भी
मित्र बनाए
बिना शत्रु
बनाना संभव नहीं।
शत्रु बनाना
हो तो पहले
मित्र बनाना
ही पड़े। तो
मित्र बनाया
कि शत्रुता की
शुरुआत हो गई।
तुमने कहा
किसी से "मेरा
है', संयोग-मिलन
को
पकड़ा--बिछोह
के बीज बो
दिए। जिसे
तुमने जोर से
पकड़ा, वही
तुमसे छीन
लिया जाएगा।
तो यह
भी संभव हो
जाता है कि
आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं,
वही मुझसे
छूट जाता है।
तो छोड़ने को पकड़ने
लगता है, कि
सिर्फ छोड़ने
को पकड़ लूं।
यही तो तुम्हारे
त्यागी और विरागियों
की पूरी कथा
है।
धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख
मिला, तो
अब धन को नहीं पकड़ते।
लेकिन "नहीं पकड़ने' पर
उतना ही आग्रह
है। पहले धन
के लिए दीवाने
थे, अब धन
पास आ जाए तो
घबड़ा जाते हैं,
जैसे
सांप-बिच्छू
आया हो; जैसे
जहर आया हो।
मन तो
फिर कंप गया।
पहले धन के
लिए कंपता था, अब धन के
विरोध में कंप
गया। पहले
खोजते थे सुंदर
देह, सुंदर
स्त्री, सुंदर
पुरुष; अब
अपने को समझा
लिया कि दुख
ही दुख पाया।
तो तुम
जाओ त्यागी-वैरागियों
के पास, तुम
उन्हें वहां
शरीर की निंदा
करते हुए पाओगे।
और तुम यह भी
देख पाओगे कि
निंदा में बड़ा
रस है। शरीर
के भीतर मांस-मज्जा
है, कफ-पित्त
है, दुर्गंध
है, मल-मूत्र
है, इसकी
चर्चा करते
हुए तुम
त्यागियों को
पाओगे। जैसे
भोगी चर्चा
करता है सुंदर
आंखों की, स्वर्ण
जैसी काया की,
स्वर्गीय
सुगंध की, वैसे
ही त्यागी भी
चर्चा करता
है। त्यागी
चर्चा करता है
शरीर में भरे
मल-मूत्र की!
यह तो गंदगी
का टोकरा है।
यह तो चमड़ी ही
ऊपर ठीक है, बाकी सब
भीतर गंदा भरा
है। चमड़ी के
धोखे में मत
आओ।
लेकिन
दोनों का राग
शरीर से है।
जिसको हम विराग
कहते हैं, वह भी सिर के
बल खड़ा हो गया
राग है; शीर्षासन
करता हुआ राग
है। शरीर से
छुटकारा नहीं
हुआ। बंधे
शरीर से ही
हैं। जो अभी
कह रहा है कि
शरीर मल-मूत्र
की टोकरी है, अभी शरीर से
उसका लगाव बना
है। वह इसी
लगाव को तोड़ने
के लिए तो
अपने को समझा
रहा है कि
शरीर मल-मूत्र
की टोकरी है।
कहां जाता है
पागल! शरीर में
कुछ भी नहीं
है। वह तुम्हें
नहीं समझा रहा
है, वह
अपने को ही
समझा रहा है
तुम्हारे
बहाने। वह
शरीर की निंदा
करके अपने
भीतर जो छिपी
वासना है, उस
पर नियंत्रण
करने की कोशिश
कर रहा है।
निंदा
हम उसी की
करते हैं, जिससे हम
डरते हैं। दमन
भी हम उसी का
करते हैं, जिससे
हम भयभीत हैं
। लेकिन भयभीत
हम उसी से
होते हैं, जिसमें
हमारा राग है।
इस
सारी
व्यवस्था को
समझना जरूरी
है। इसलिए महावीर
कहते हैं, "न तो अनुकूल
विषयों में
राग-भाव करे, न प्रतिकूल
विषयों में
द्वेष-भाव
करे।'
न तो
कहो कि शरीर
स्वर्ण की
काया है, न
कहो कि
मल-मूत्र की
टोकरी है।
चुनो ही मत--इधर
या उधर। डोलो
ही मत। शरीर
जो है, है।
तुम इसके
संबंध में कोई
धारणा मत बनाओ
और कोई
व्याख्या मत
करो। तथ्य को
तथ्य की भांति
देखो। न तो
इसके प्रशंसा
के गीत गाओ, न तो स्तुति
में ऋचाएं
रचो, और
न निंदा में
गालियां निकालो।
न तो शरीर
गाली के योग्य
है, और न स्तुति
के योग्य है।
शरीर बस, शरीर
है। जैसा है, उतने पर ठहर
जाओ।
यह तो
उदाहरण हुआ।
ऐसा ही जीवन
की हर चीज में
है। धन तो धन
है। न तो कहो
कि यही मेरा
सर्वस्व है; और न कहो, यह
क्या है! यह तो
मिट्टी ही है।
कहो ही मत
कुछ। कहा, कि
मन बना। तुमने
इधर निर्णय
लिया कि मन की
ईंट रखी। तुम
सिर्फ देखते
रहो; द्रष्टा
बनो। चुनाव मत
करो। बीच में
खड़े रहो; न
इधर जाओ, न
उधर।
देखा! पेंडुलम
घड़ी का रुक
जाए तो घड़ी
रुक जाती है।
बायें जाए, दायें जाए, तो घड़ी चलती
रहती है। पेंडुलम
के चलने से
घड़ी चलती है।
मन के गतिमान
होने से मन
निर्मित होता
है। मन डोलता
नहीं, अडोल
हो जाता है।
वहीं ध्यान का
जन्म होता है।
"जो
संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित हैं;
निस्संग, निर्भय और आशारहित
हैं, तथा
जिनका मन
वैराग्य से
युक्त है, वही
ध्यान में
सुनिश्चल
भलीभांति
स्थित होता है'।
इसलिए
एक बात खयाल
में ले
लेना--"जो
संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित
है...।'
महावीर
कहते हैं, संसार से
वही मुक्त हो
सकता है, जिसने
जल्दबाजी
नहीं की; जो
संसार के
स्वभाव से
सुपरिचित है।
कच्चे-कच्चे
भागे, बिना
पके वृक्ष से
छूट गए--पीड़ा
रह जाएगी। किसी
की सुनकर
संसार छोड़
दिया; अपने
जानने, अपने
अनुभव से नहीं
छोड़ा, किसी
के प्रभाव में
छोड़ दिया, तो
ऊपर-ऊपर छूटेगा,
भीतर-भीतर
संसार खींचता
रहेगा।
इसलिए
महावीर का यह
सूत्र अति
मूल्यवान है, "जो संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित हैं,
वे ही केवल वीतरागता
को उपलब्ध हो
सकते हैं।'
वस्तुतः
जो संसार से
परिचित हो गया, वह वीतराग न होगा
तो और करेगा
क्या? फिर
कोई उपाय
नहीं।
वीतराग-भाव
तुम्हारा निर्णय
नहीं है, तुम्हारे
जीवन-अनुभव का
निचोड़
है।
वीतराग-भाव
राग के विपरीत
तुम्हारा
संकल्प नहीं
है; राग, द्वेष सब के
अनुभव से
तुमने पाया, कुछ सार
नहीं है; इस
अनुभव का नाम
ही वीतरागता
है।
इस पर
मेरा भी बहुत
जोर है। जहां
रस हो वहां से
भागना मत। रस
का पूरा अनुभव
कर लेना।
दूसरे क्या
कहते हैं, इसकी चिंता
मत करना
क्योंकि
दूसरों का
अनुभव तुम्हारा
अनुभव नहीं
बनेगा। अगर
तुम्हें अभी
भोजन में रस
हो तो रस ले
लेना। रस इतना
ले लेना कि
भीतर कोई भी
आकांक्षा शेष
न रह जाए।
कहीं
कोने-कातर में
मन के, किसी
रस को दबा मत
रहने देना, उभाड़ लेना; पूरा
उभाड़
लेना। हां, इतना ही
खयाल रखना कि
रस बोधपूर्वक
लेना, जागे
लेना।
रस तो
बहुत लोग लेते
हैं। जो
सोए-सोए लेते
हैं, वे रस से
कोई
निष्पत्ति
नहीं निकाल
पाते। उनके
जीवन में
अनुभवों का
ढेर तो लग
जाता है, निचोड़
नहीं होता।
अनुभव में दब
जाते हैं, अनुभव
में खो जाते
हैं, लेकिन
अनुभव से कुछ
जीवन-सत्य के
मणि-माणिक्य नहीं
खोजकर ला
पाते।
अनुभव
अगर सोए-सोए
किया गया तो
किया ही नहीं
गया। उससे कुछ
सार न होगा।
अगर जागकर
किया गया तो
अनुभव
तुम्हारे लिए
शिक्षण दे
जाएगा, कुछ
पाठ सिखा
जाएगा। वही
पाठ जीवन की
संपदा है। वही
पाठ वेद है, वही कुरान
है, वही
धम्मपद है।
जिन्होंने
जीवन के अनुभव
को जाग-जागकर
देखा, जाग-जागकर
भोगा, उनके
हाथ में कोई
ज्योति आ गई।
जो व्यर्थ था,
वह व्यर्थ
दिखाई पड़ गया,
जो सार्थक
था, वह सार्थक
दिखाई पड़ गया।
जैसे
प्रकाश पैदा
हो जाए तो
कमरे में क्या
है, सब साफ हो
जाता है। कहां
कचरा पड़ा है
कोने में, वह
भी पता चल
जाता है। कहां
तिजोड़ी
है, हीरे-जवाहरात
रखे हैं, वह
भी पता चल
जाता है। अगर
तुम कमरे में
सोए हो अंधेरे,
तो भी तिजोड़ी
है, कचरा
भी पड़ा है, लेकिन
तुम्हें कुछ
पता नहीं
चलता।
और जब
तक तुम्हें तिजोड़ी न
दिखाई पड़े, तब तक कचरा
कचरा है, यह
भी पता नहीं
चल सकता। जीवन
में सार्थकता
की थोड़ी
प्रतीति हो तो
क्या-क्या
निस्सार है, वह अपने आप
साफ हो जाता
है। कांटों का
बोध हो जाए तो
फूलों का बोध
हो जाता है।
फूलों का बोध
हो जाए तो
कांटों का बोध
हो जाता है।
जागकर
जीवन के सारे
अनुभव जिसने
लिए, अधैर्य न
किया, जल्दबाजी
न की, लोभ न
किया, यह न
कहा कि चलो, ऋषि-महर्षि
तो कहते हैं, कि छोड़ो
संसार!
ऋषि-महर्षि
ठीक ही कहते
हैं लेकिन वे
अपने अनुभव से
कहते हैं।
उन्होंने
संसार का दुख
भोगा, उन्होंने
संसार की पीड़ा
झेली। उनकी
पीड़ा को जब तक
तुम न झेलोगे,
तब तक उनकी निष्पत्तियां
तुम्हारी निष्पत्तियां
नहीं हो
सकतीं।
हम तो
लोभ से भर
जाते हैं। जब
बुद्ध या
महावीर जैसा
कोई व्यक्ति
हमारे पास से
गुजरता है, तो उसकी दमक,
उसकी प्रभा,
उसकी शांति
का वायुमंडल
हमें लोभ से
भर देता है।
हम कहते हैं, काश, ऐसा
आनंद हमारा
होता! ऐसा
आनंद कैसे
हमारा हो जाए?
कैसे डुबकी
लगे इसी सागर
में, जिसमें
तुम डूबे?
तो हम
महावीर और
बुद्ध के
वचनों को पकड़ने
लगते हैं।
हमने उनका गीत
तो सुना, लेकिन
किस पीड़ा से
वे इस गीत को
उपलब्ध हुए, उसकी हमें
कोई खबर नहीं
है।
अश्कों
में जो पाया
है वो गीतों
में दिया है
इस
पर भी सुना है
कि जमाने को
गिला है
जो
तार से निकली
वो धुन सबने
सुनी है
जो
साज पे गुजरी
है वो किसको
पता है
जो
साज पे गुजरी
है वो किसको
पता है
जो
तार से निकली
है वो धुन
सबने सुनी है
जब तुम
महावीर या
बुद्ध या
कृष्ण या
क्राइस्ट के
पास होते हो
तो जो धुन
निकल रही है
वह तो सुनाई
पड़ती है, जो
गीत पैदा हो
रहा है वह तो
सुनाई पड़ता है,
लेकिन किन पीड़ाओं से
इस गीत का
निखार हुआ है,
किन
पर्वत-खंडों
को तोड़कर
यह झरना बहा
है; किन
आंसुओं ने इन
गीतों में धुन
भरी है; किस
कंटकाकीर्ण
मार्ग पर
गुजरकर मंदिर
के ये स्वर्ण-कलश
दिखाई पड़े हैं,
उसका तो
हमें कुछ भी
पता नहीं
चलता। गीत से
हम लोभित हो
जाते हैं। धुन
हमें बांध
लेती है। हम
पूछने लगते
हैं, हम
क्या करें? कैसे
तुम्हें हुआ,
कैसे हमें
भी हो जाए?
तो अगर
हम महावीर का
अनुकरण करने
लगे, बड़े धोखे
में पड़
जाएंगे। हम
महावीर जैसा
वेष रख सकते
हैं। अगर वे
निर्ग्रंथ
हैं, नग्न
हैं, तो हम
नग्न हो सकते
हैं, दिगंबर
हैं, दिगंबर
हो सकते हैं।
कैसे उठते हैं,
कैसे बैठते
हैं, कैसे
चलते हैं, हम
भी ठीक वैसा
ही अभ्यास कर
सकते हैं।
लेकिन
तुम पाओगे कि
जो धुन उनके
भीतर पैदा हुई
थी वह
तुम्हारे
भीतर पैदा न
हुई। क्योंकि
मौलिक चीज खो
रही है; जड़
नहीं है।
तुम्हारे
जीवन के अनुभव
का निचोड़
नहीं है।
महावीर को
तुमने ऊपर से
ओढ़ लिया। वे तुम्हारे
प्राण में
विकसित हुए
फूल नहीं हैं।
यही तो
दुर्भाग्य है
जैन मुनियों
का। यही
दुर्भाग्य है
बौद्ध भिक्षुओं
का। यही
दुर्भाग्य है
ईसाई
साधु-संतों
का। जिससे वे
प्रभावित हुए
थे, ठीक ही
प्रभावित हुए
थे। आश्चर्य
नहीं है कि जीसस
की हवा
तुम्हें
पुकार बन जाए,
आह्वान बन
जाए! कि
महावीर की आंख
तुम्हारी आंख
से मिले और
तुम्हारी अतल
गहराइयां
कंपित हो उठें,
तुम्हारे
प्राणों में
कोई नाद बजने
लगे--स्वाभाविक
है।
लेकिन
तुम यह भी तो
पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस
तपश्चर्या से?
महावीर का
शब्द सुनकर
तुम्हारे
भीतर मधुर वातास
फैल जाए; महावीर
का शब्द-शब्द
तुम्हारे
भीतर मधु घोलने
लगे--ठीक! लेकिन
यह भी तो पूछो
कि ये शब्द
किस मौन से आए
हैं? किस
ध्यान में
इनका जन्म हुआ
है? किस
साधना में
गर्भित हुए
हैं? कहां
से पैदा हुए
हैं।
शब्द
को ही पकड़कर
तुम याद कर लो
तो मुर्दा
शब्द
तुम्हारे
मस्तिष्क में
अटका रह जाएगा, शोरगुल भी
करेगा; लेकिन
तुम्हारे
भीतर वैसी शांति
पैदा न हो
सकेगी, जो
महावीर के
भीतर है।
क्योंकि शब्द
के कारण शांति
पैदा नहीं हुई,
शांति के
कारण शब्द
पैदा हुआ है।
महावीर
की वीतरागता
ऐसे ही आकश
से नहीं टपक
पड़ी है, छप्पर
नहीं टूट गया
है। महावीर की
वीतरागता
इंच-इंच सम्हाली
गई है, साधी
गई है। और
जीवन के अनुभव
में उसकी जड़ें
हैं। अनुभव
पृथ्वी है।
तुम
किसी पौधे से
प्रभावित हो
गए, काट लाए
पौधा ऊपर से
और जड़ें वहीं
छोड़ आए, तो
थोड़ी-बहुत देर
पौधा हरा रह
जाए, लेकिन
कुम्हलाने
लगेगा; ज्यादा
देर जीवंत
नहीं रह सकता।
और अगर तुम जड़ें
ले आओ, पौधा
छोड़ भी आओ तो
भी चलेगा। क्योंकि
जड़ें आरोपित
करते ही
तुम्हारे घर
में भी पौधा
अंकुरित होने
लगेगा।
"जो
संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित
हैं...।'
परिचित
भी नहीं कहते; महावीर कहते
हैं--"सुपरिचित।'
परिचित तो
हम सभी हैं
थोड़े-बहुत, लेकिन
नींद-नींद में
हैं। कुछ हो
भी रहा है, कुछ
पता भी चल रहा है,
लेकिन सब
धुंधला-धुंधला
है। न तो
आंखें प्रगाढ़
हैं, न
ज्योति जली है,
न एक-एक
अनुभव को पकड़कर
निचोड़
लेने की कला
सीखी है। तो
रोज हम वही
किए जाते हैं।
तुमने
कभी खयाल किया? नया क्या
करते हो? जो
कल किया था, वही फिर
दोहरा लेते
हो। कैसे आदमी
हो तुम? यह
तो यंत्र जैसा
हुआ। कल क्रोध
किया था, आज
भी कर लिया।
और कल पछताए
थे क्रोध करके,
आज भी पछता
लिए। कल भूल
हो गई थी, रो
लिए थे, क्षमा
मांग ली थी।
आज फिर भूल हो
गई, फिर रो
लिए, फिर
क्षमा मांग
ली। ऐसे
वर्तुलाकार
तुम कब तक भटकते
रहोगे?
इसको
ही पूरब में
हमने संसार
कहा है--संसार-चक्र।
गोल-गोल घूमता
रहता है, कोल्हू
की बैल की तरह
घूमता रहता
है। बैल को शायद
लगता हो कि
गति हो रही है,
विकास हो
रहा है। कहीं
जा रहा हूं, कहीं पहुंच
रहा हूं।
लेकिन जरा
देखो, कहां
पहुंच रहा है!
चलता जरूर है,
मगर बंधा है
एक ही केंद्र
से। उसी के
आसपास चक्कर
काटता रहता
है।
तुम
जरा गौर से
देखो, तुम्हारे
जीवन में
विकास है? उत्क्रांति है? तुम
कहीं जा रहे? कुछ हो रहा? कि सिर्फ
उसी-उसी को
पुनरुक्त कर
रहे हो? वही
राहें, वही
लीक! जैसे कल
सुबह उठे थे, वैसे आज
सुबह उठ आए।
जैसे कल रात
सो गए थे, आज
रात भी सो
जाओगे। कितनी
बार सूरज ऊगा
है; और
तुम्हें वहीं
का वहीं पाता
है!
तो
सुपरिचित
नहीं हो; परिचित
तो हो।
सुपरिचित का
अर्थ है कि जो
अनुभव
तुम्हारे
जीवन में
गुजरा उसके
गुजरने के कारण
ही अब तुम और
हो गए। तुमने
उससे कुछ सीखा,
कुछ
संपत्ति
जुटाई। अगर
तुमने आज
क्रोध किया तो
तुमने उस
क्रोध से कुछ
सीखा। कल अगर
क्रोध करना भी
पड़ा तो ठीक आज
जैसा नहीं
करोगे। उसमें
कुछ फर्क होगा,
भेद होगा, सुधार होगा,
तरमीम होगी,
संशोधन
होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे।
तो ठीक
है, विकास हो
रहा है। अगर
ऐसे ही क्रोध
से सीखते गए...सीखते
गए...सीखते गए
तो एक दिन तुम
पाओगे कि
क्रोध अपने आप,
जैसे-जैसे
तुम सुपरिचित
हुए, विदा
हो गया है।
जीवन का ज्ञान
क्रांति है।
"जो
संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित
है...।'
इसलिए
खयाल रखना, किसी के
प्रभाव में
कुछ कसम मत ले
लेना। किसी के
प्रभाव में
कुछ छोड़ मत
देना।
अकसर
ऐसा होता है, जाते हो तुम
सुनने, सत्संग
में बैठते हो,
बातें
प्रभावित कर
देती हैं! कोई
कसम खा लेता है
ब्रह्मचर्य
की, लेकिन
ब्रह्मचर्य
की कसम मंदिर
में थोड़े ही खानी
होती है! अगर
तुम मुझसे
पूछो तो
ब्रह्मचर्य
की कसम
वेश्यालय में
किसी ने खायी
हो तो शायद
टिक भी जाए, मंदिर में
खायी नहीं टिक
सकेगी। अगर कामभोग के
अनुभव से ही
आयी हो तो टिक
जाएगी। मंदिर
में प्रवचन
सुनकर, शास्त्र
पढ़कर, एक भावाविष्ट
अवस्था में
तुमने ले ली
हो, टिकेगी नहीं, टूटेगी।
तुमने
तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना
सुना दिया
किस
दिल से आह तर्केत्तमन्ना
करे कोई!
संत तो
कहे चले जाते
हैं, छोड़ो यह इश्क का
जाल! छोड़ो
यह प्रेम की
झंझट! छोड़ो
यह भोग!
तुमने
तो हुक्मेत्तर्केत्तमन्ना
सुना दिया
तुमने
तो कह दिया, दे दिया
आदेश कि छोड़
दो प्रेम!
किस
दिल से आह तर्केत्तमन्ना
करे कोई!
लेकिन
जिसे जीवन का
अभी कोई अनुभव
नहीं है, वह
कैसे प्रेम को
छोड़ दे?
जिसे
जाना ही नहीं, उसे छोड़ोगे
कैसे? जिसे
पाया ही नहीं,
उसे छोड़ोगे
कैसे? एक
बात को खयाल
रखना, जो
पाया हो वही
छोड़ा जा सकता
है। जो
तुम्हारी मुट्ठी
में हो उसी को
गिराया जा
सकता है। जो तुम्हारे
पास हो उसे ही
फेंका जा सकता
है।
लेकिन
अकसर ऐसा होता
है कि बूढ़े बच्चों
को सिखाते
हैं। इससे बड़ी
झंझट पैदा होती
है। बूढ़े
बच्चों को
शिक्षा दे रहे
हैं। और बूढ़े
भी कुछ जानकर
दे रहे हैं, ऐसा नहीं
है। जैसे
जवानी में नशा
होता है राग का,
वैसे
बुढ़ापे में
नशा होता है
वैराग्य का। न
तो जवानी के
राग में कोई
समझ है, न
बुढ़ापे के
वैराग्य में
कोई समझ है।
जैसे जवानी
में आदमी अंधा
होता है, वैसे
बुढ़ापे में भी
अंधा होता है।
बुढ़ापे का अंधापन
बुढ़ापे का है,
जवानी का
अंधापन जवानी
का है।
बूढ़े
जवानों की
निंदा किए चले
जाते हैं। कभी
उन्होंने मन
में सोचा, कि जब तुम
जवान थे, तुम्हारे
बूढ़ों ने भी
ऐसा ही किया
था; तुमने
सुना था? अगर
तुम इतना भी न
समझ पाए कि
तुम्हारे
बूढ़ों की
तुमने नहीं
सुनी, तुम्हारे
जवान बेटे
तुम्हारी
कैसे सुन लेंगे,
तो तुम कुछ
भी नहीं समझ
पाए। तो तुम
बूढ़े...धूप में
बाल पक गए
होंगे
तुम्हारे, सुपरिचित
नहीं हो।
जो
बूढ़ा
सुपरिचित है, वह युवकों
से कहेगा, ठीक
से भोगना; जागकर
भोगना; होश
से भोगना। वह
यह नहीं कहेगा
कि भोग छोड़ना।
वह कहेगा, जब
भोगने के दिन
हैं तो खूब
होश से भोग
लेना। कहीं
ऐसा न हो कि
भोगने के दिन
निकल जाएं और
भोग की
आकांक्षा
भीतर शेष रह
जाए तो बड़ी
झंझट पैदा
होती है।
पैरों में
चलने की
सामर्थ्य
नहीं रह जाती
और मन में दूर
पहाड़ चढ़ने
की कल्पना और
सपने रह जाते
हैं। तब बड़ी
दुविधा पैदा
होती है। इसी
दुविधा के
कारण बूढ़े
निंदा करते
हैं। उनकी
निंदा में अगर
गौर करो, तोर्
ईष्या पाओगे।
बूढ़ा जब निंदा
करता है जवान
की, तो वह सिर्फर्
ईष्या कर रहा
है।
डी. एच. लारेन्स
ने कहीं लिखा
है कि जब मैं
छोटे बच्चों
को वृक्षों पर
चढ़ा देखता हूं
तो तत्क्षण
मेरे मन में
होता है, उतरो!
गिर पड़ोगे!
लेकिन तब
मैंने बार-बार
यह कहकर सोचा
कि मामला क्या
है? मैं
अपने भीतर
खोजूं तो! तो
मुझे पता चला
कि छोटे
बच्चों को
वृक्ष पर चढ़ते
देखकर मुझेर्
ईष्या होती
है। मैं नहीं
चढ़ पाता अब।
उम्र न रही।
अब हाथ-पैर
में वैसी लोच
न रही, न
वैसा साहस रहा;
न खतरा मोले
लेने का वैसा
निर्बोध
चित्त रहा। तो
कहता तो हूं
कि "उतरो, गिर
पड़ोगे,' लेकिन
भीतर कहीं कोईर्
ईष्या पंख फड़फड़ाती
है, कि मैं
नहीं चढ़ पाता
अब। जब मैं
नहीं चढ़ पाता
तो कोई भी न
चढ़े।
बूढ़ों
की निंदा में
तुम अकसर
पाओगे, जो
वे नहीं कर
पाते हैं, कोई
भी न करे।
इन्हीं से
बच्चे
शिक्षित होते
हैं। और बच्चे
उन चीजों को
छोड़ने का
विचार करने
लगते हैं, जिनका
अभी अनुभव ही
नहीं हुआ है।
गैर-अनुभव से छोड़ी गई
कोई भी बात
लौट-लौटकर आ
जाएगी; फिर-फिर
तुम्हें पकड़ेगी;
फिर-फिर
तुम्हें
सताएगी।
महावीर
के इस सूत्र
को खूब हृदय
में हीरे की तरह
सम्हालकर रख
लेना--
"जो
संसार के
स्वरूप से
सुपरिचित हैं,
निस्संग, निर्भय और आशारहित
हैं...।'
जो ठीक
से परिचित हुआ
संसार से, जिसने सब कडुवे-मीठे
अनुभव लिए, जो डरा नहीं,
जो
निस्संकोच
उतर गया अंधेरों
में, जो गङ्ढों
में भी गिरा
और भयभीत न
हुआ, जिसने
सारे जीवन के
अनुभव लेने की
ठानी कि परिचित
तो हो लूं! इस
जीवन में आया
हूं, ठीक
से जान तो लूं,
कि क्या है?
जिसने उधार
वचन न सीखे,
और उधार
सिद्धांतों
का बोझ न ढोया;
और
शास्त्रों से
न जीया, जीवन
के शास्त्र को
ही शिक्षा
देने का जिसने
मौका और अवसर
दिया, वह
अपने आप
निस्संग हो
जाएगा।
निस्संगता
का अर्थ है, जीवन को ठीक
से पहचानोगे
तो तुम पाओगे,
तुम अकेले
हो। साथ होना
धोखा है। हम
सब अकेले हैं।
अकेले के कारण
डर लगता, भय
होता, असुरक्षा
मालूम होती; तो हमने
संग-साथ बना
लिया है।
लेकिन संग-साथ
मान्यता भर
है। तुम मरोगे,
अकेले
जाओगे। तुम आए
अकेले, जाओगे
अकेले। थोड़ी
देर को
अपरिचित
लोगों से...और
ध्यान रखना, जब मैं
अपरिचित कह
रहा हूं तो
मेरा मतलब यह
नहीं है जिसे
तुम नहीं जानते।
जिसे तुम
सोचते हो कि
तुम जानते हो,
वह भी तो
अपरिचित है।
तुम्हारी
पत्नी परिचित
है? एक दिन एक
अपरिचित
स्त्री के साथ
सात चक्कर लगा
लिए थे, परिचय
हो गया? तुम्हारा
बेटा तुमसे
परिचित है? एक दिन एक
अनजान आत्मा
तुम्हारे घर
में पैदा हो
गई थी। सिर्फ
तुम्हारे गर्भ
से पैदा हुआ, तो परिचित
है? तुमने
उसके अवतरण
में थोड़ा
साथ-सहयोग
दिया, तो
परिचित है?
खलील
जिब्रान ने
कहा है, तुम्हारे
बच्चे
तुम्हारे
नहीं हैं।
तुमसे आते हैं
जरूर। तुम
माध्यम हो।
लेकिन दावा मत
करना कि हमारे
बच्चे हमारे
हैं। तुम
उन्हें प्रेम
तो देना, ज्ञान
मत देना।
क्योंकि वे कल
में जीयेंगे।
वे भविष्य में
जीयेंगे। उस
भविष्य का
तुम्हें सपना
भी नहीं आ
सकता।
तुम्हारा
ज्ञान अतीत का
है। वे भविष्य
में जीयेंगे।
तुम अपना
प्रेम देना, अपना ज्ञान
मत देना। और
दावा मत करना
कि बच्चे
हमारे हैं।
एक
आदिम जाति है--होपी।
अकेली होपी
भाषा ऐसी भाषा
है, जो इस
संबंध में सच
के करीब
पहुंचती है।
तुम अपने बेटे
को लेकर कहीं
जाते हो, कोई
पूछता है "कौन
है?' तुम
कहते हो, "मेरा
बेटा,' या
"मेरी बेटी।' होपी भाषा में
ऐसा कोई शब्द
नहीं है, अगर
होपी बाप
अपने बेटे को
लेकर कहीं जा
रहा है और कोई
पूछता है, यह
कौन है, तो
वह कहता है, यह लड़का है, जिसके साथ
हम रहते हैं।
यह लड़का है, जो हमारे घर
पैदा हुआ है।
पता नहीं कौन
है!
यह बात
ज्यादा समझ
में आने जैसी
लगती है--यह लड़का
हमारे साथ
रहता है, हम
इस लड़के के
साथ रहते हैं।
संयोग है। यह
हमारे घर में
पैदा हुआ है; वैसे हम
जानते नहीं
कौन है!
कौन
जानता है? कभी अपने
छोटे बच्चे की
आंखों में झांककर
देखा--जानते
हो? इससे
ज्यादा अजनबी
आंखें और कहां
पाओगे? कोई
उपाय नहीं है।
अपने को नहीं
जानते, दूसरे
को हम जानेंगे
कैसे?
और एक
बात तय है कि
अकेले हम आते
हैं, अकेले हम
जाते हैं, और
बीच में यह जो
दो दिन का
मेला है, इसमें
हम बड़े संबंध
बना लेते हैं।
राह पर चलते
लोगों के हाथ
में हाथ डाल
लेते हैं। कोई
पत्नी हो जाती
है, कोई
पति हो जाता
है। कोई मित्र
हो जाता है, कोई शत्रु
हो जाता है।
हम जल्दी से
संबंध जोड़ लेते
हैं, ताकि
अकेलापन छिप
जाए। हम संबंध
की चादर फैला
देते हैं ताकि
अकेलापन भीतर
छिप जाए। हम
अकेले होने से
डरे हैं, भयभीत
हैं। कोई तो
अपना हो इस
अजनबी दुनिया
में! दो-चार को
अपना बनाकर
थोड़ा भरोसा
आता है। कोई
फिक्र नहीं, कोई तो अपना
है! किसी से तो
नाता है!
जिस
व्यक्ति ने भी
जीवन को गौर
से देखा, वह
यह पाएगा कि
हम निस्संग
हैं। और जब
निस्संग हैं
तो
नाते-रिश्तों
के धोखे में
पड़ने का कोई कारण
नहीं।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि तुम सब
नाते-रिश्ते तोड़कर आज
भाग जाओ।
भागने का तो
खयाल उसी को
आता है, जिसको
समझ नहीं आई।
मां मां रहेगी,
पिता पिता
रहेगा, बेटा
बेटा रहेगा; लेकिन भीतर
अब तुम जानते
हो, जागकर जानते हो कि
कोई, कोई
का नहीं। कोई
अपना नहीं।
खेल के नियम
हैं।
जैसे
ताश खेलते हैं, तो ताश के
पत्तों में
रानी होती है,
राजा होता
है, गुलाम
होता और सब
कुछ होता है; लेकिन कोई
हम मानते थोड़े
ही, कि
राजा-रानी हैं!
जानते हैं कि
ताश का पत्ता
है, खेल
है। अगर कोई
आदमी ताश के
पत्तों में
एकदम उठकर खड़ा
हो जाए और कहे,
कि यह सब
धोखा है, मैं
तो त्याग करता
हूं यह राजा-रानियों
का। तुम्हें
हंसी आएगी।
क्योंकि
त्याग करने का
खयाल तो तभी
सार्थक हो
सकता है, जब
राजा-रानी
सच्चे हों।
तुम कहोगे
पागल हुए हो? है ही कौन, जिसको तुम
त्याग कर रहे
हो? ये
राजा-रानी तो
कागज पर बने
चिह्न हैं। यह
तो हमारी
मान्यता है।
त्याग तो तब
हो सकता है, जब हो।
तो जब
कोई आदमी कहता
है, मैं
पत्नी को
छोड़कर जंगल जा
रहा हूं, तो
चूक गया।
पत्नी को
छोड़कर जंगल
जाने की क्या
जरूरत थी? पत्नी
जब तुम्हारे
बिलकुल पास
बैठी है, हाथ
में हाथ डाले
बैठी है, तब
भी तुम अकेले
हो, यह
जानना है।
पत्नी अकेली
है, यह
जानना है।
बेटा जब
तुम्हारी गोद
में खेल रहा
है, तब भी
जानना है कि
तुम अकेले हो,
बेटा अकेला
है।
संबंध
ताश के पत्तों
का खेल है; संयोग मात्र
है। नदी-नाव
संयोग! थोड़ी
देर को मिलना
हो गया है। इन
थोड़े क्षणों
में इस तरह जीओ
कि तुम्हारे
कारण किसी को
व्यर्थ दुख न
पहुंचे; बस
काफी है। थोड़ी
देर राह पर
साथ हो लिए
हैं, गीत
गुनगुना लो, ठीक! कुछ
देते बने, दे
दो; ठीक!
लेकिन इस
भ्रांति में
मत पड़ना
कि यह सदा
संबंध
रहनेवाला
है--निस्संग!
और
जिसको यह पता
चला कि मैं
निस्संग हूं, वह निर्भय
हो जाता है।
मूल भित्ति है,
जीवन से जो
सुपरिचित
होता है, वह
निस्संग हो
जाता है। जीवन
को देखोगे
तो दिखाई ही
पड़ जाएगा
अकेला हूं; बिलकुल
अकेला हूं।
जन्मों-जन्मों
से अनंत की
यात्रा पर
अकेला हूं।
और जब
अकेला हूं, और साथ-संगी
होने का कोई
उपाय ही नहीं
है तो भय कैसा?
जब अकेला ही
हूं और अकेला
ही रहा हूं और
अकेला ही
रहूंगा तो अब
भय भी क्या
करना! जब कोई
आदमी तथ्यों
को देख लेता
है, तथ्य
स्वीकार हो
जाते हैं।
अकसर
ऐसा होता है
कि युद्ध के
मैदान पर जब
सैनिक जाते
हैं, तो बहुत
डरे रहते
हैं--जाने के
पहले डरे रहते
हैं; बड़े घबड़ाए
रहते हैं, मौत
की तरफ जा रहे
हैं। पता नहीं
लौटेंगे, नहीं
लौटेंगे!
लेकिन जैसे ही
युद्ध के
मैदान पर
पहुंच जाते
हैं, भय
समाप्त हो
जाता है। फिर
गोलियां चलती
रहती हैं और बम
गिरते हैं और
वे ताश भी
खेलते रहते
हैं, गपशप
भी करते हैं, हंसते भी
हैं, गुनगुनाते
भी हैं, भोजन
भी करते
हैं--सब चलता
है।
एक दफा
युद्ध के
मैदान पर
पहुंच गए, एक बात
स्वीकृत हो
जाती है कि
ठीक है, मौत
है। जो है, है।
उससे बचने का
क्या है? भागने
का कहां है?
जैसे
ही हम तथ्यों
के साथ आंख
मिलाना सीख
जाते हैं, एक अभय पैदा
होता है कि जो
है, है।
मौत है तो है, करोगे क्या?
जाओगे कहां?
भागोगे
कहां? फिर
युद्ध के
क्षेत्र से तो
भागना संभव भी
है। युद्ध के
क्षेत्र में
तो बचने का
कोई उपाय हो भी
सकता है, लेकिन
जीवन के
क्षेत्र में
कहां भागोगे?
यहां
तो मौत
सुनिश्चित ही
है। कहीं भी
जाओ, कैसे भी
बचो, कहीं
भी छिपो, मौत तुम्हें
खोज ही लेगी।
तो जब होना ही
है तो स्वीकार
हो जाता है।
"निस्संग,
निर्भय और आशारहित...।'
यह आशारहित
शब्द को बहुत
खयाल से समझने
की जरूरत है।
जीवन में हम
कामना से भी
ज्यादा आशा से
बंधे हैं।
साधु-संत
तुम्हें कहते
हैं, वासना छोड़ो, यह
नहीं कहते कि
आशा छोड़ो।
क्योंकि अगर
आशा छोड़ो
तो साधु-संत
भी आशा ही के
सहारे जी रहे
हैं--स्वर्ग
की आशा, मोक्ष
की आशा, इस
संसार में
नहीं मिला तो
परलोक में
मिलेगा सुख, इसकी आशा।
महावीर
की बात कुछ और
है। महावीर कह
रहे हैं, आशा
जानी चाहिए। आशारहितता
जब तक न हो जाए,
तब तक
मुक्ति नहीं
है।
आशा
वासना का
सूक्ष्मतम
रूप है। आशा
का अर्थ है, जो आज नहीं
हुआ, कल
होगा। जो आज
नहीं हो पाया,
कल कर
लेंगे। आज चूक
गए, कल न भूलेंगे,
कल न चूकेंगे।
आशा का अर्थ
है, जीवन
को कल पर
टालने की
सुविधा।
रोज-रोज
हारते हैं, लेकिन कल की
आशा बचाए रखते
हैं!
बहुत
घुटन है, कोई
सूरते-बयां
निकले,
अगर
सदा न उठे, कम से कम फुगां
निकले!
फकीरे-सहर
के तन पर
लिबास बाकी है,
अमीरे-सहर
के अरमां
अभी कहां
निकले!
हकीकतें
हैं सलामत तो
ख्वाब
बहुतेरे
मलाल
क्यों हो जो
कुछ ख्वाब रायगां
निकले!
--कुछ सपने
अगर झूठे निकल
गए तो इतना
दुखी होने की
क्या जरूरत?
हकीकतें
हैं सलामत तो
ख्वाब
बहुतेरे
और अभी
संसार तो बना
है; तो और
सपने बना
लेंगे
मलाल
क्यों हो जो
कुछ ख्वाब रायगां
निकले!
--कुछ ख्वाब
झूठे निकल गए,
कुछ सपने सच
न सिद्ध हुए
तो इसमें दुखी
होने की क्या बात
है?
आदमी
हारता है एक
में, तो लोग
उसे आश्वासन
देते हैं, क्या
घबड़ाते
हो? एक बार
आदमी हार जाता
है, दूसरी
बार जीत जाता
है। दूसरी बार
हार जाता है, तीसरी बार
जीत जाता है।
चले चलो! जीतोगे।
हालांकि
इस संसार में
कोई अब तक
जीता नहीं।
यहां सभी हारे
हैं। जीत यहां
संभव नहीं है।
हार यहां
स्वभाव है।
लेकिन आशा कहे
चली जाती है, आज हार गए, ठीक से
संघर्ष न कर
पाए, विधि-विधान
न जुटा पाए, अब समझदार
भी हो गए
ज्यादा, अनुभव
भी हो गया, कल
जीत लेंगे।
ऐसे जो
कभी नहीं घटता, कभी नहीं
घटेगा, उसकी
आशा में हम जीये
चले जाते हैं।
और हाथ से
रोज-रोज जीवन
चुकता जाता
है। इधर जीवन
राख हुआ जा
रहा है, उधर
आशा सुलगती
रहती है, सुलगाए
रखती है। हम
दौड़े रहते
हैं।
वासना
से भी ज्यादा
खतरनाक पकड़ है
आशा की। क्योंकि
ऐसा तो दिखाई
पड़ता है कि
बहुत से लोग
वासना से ऊब
जाते हैं, मगर आशा से
नहीं ऊबते।
इधर वासना से
ऊबते हैं, तो
भागते हैं
संसार छोड़कर;
लेकिन
संन्यास में
भी आशा को तो जलाए ही
रखते हैं कि
जो संसार में
नहीं मिला, वह संन्यास
में मिल
जाएगा।
महावीर
की दृष्टि में
संन्यास घटता
है, जब तुम आशारहित
हो गए। जब
तुमने यह
स्वीकार कर
लिया कि कुछ
होता ही नहीं,
होनेवाला
नहीं है। सब
आशाएं व्यर्थ
हैं, धोखा
हैं, प्रवंचना
हैं, मृग-मरीचिका
हैं।
तुम तो
घबड़ाओगे।
तुम कहोगे, अगर ऐसा
आदमी आशारहित
हो जाए, हताश
हो जाए, निराश
हो जाए तो
जीयेगा कैसे?
चलेगा कैसे?
उठेगा कैसे?
सुबह
बिस्तर से बाहर
कैसे निकलेगा?
अगर कुछ भी
नहीं होना है
तो बिस्तर से
बाहर निकलने
का भी क्या
प्रयोजन?
हम
डरते हैं। हम
डरते हैं कि
ऐसा आदमी अगर
निराश हो गया
तो फिर जीना
असंभव है; श्वास लेना
असंभव है।
लेकिन हमें
पता नहीं है।
निराश भी हम
तभी तक होते
हैं, जब तक
आशा है। जब आशा
बिलकुल विदा
हो जाती है तो
निराश भी होने
को कुछ नहीं
बचता। इसे
समझना।
निराशा
आशा की असफलता
है।
निराशा
आशा का अभाव
नहीं है, निराशा
आशा की असफलता
है। जिस आदमी
ने आशा छोड़ दी,
उसी के साथ
निराशा भी छूट
गई। अब निराश
होने को भी
कुछ न बचा। जब
आशा ही न बची
तो निराश होने
का क्या बचा? जब जीत का
कोई खयाल ही न
रहा तो हारोगे
कैसे?
इसलिए
लाओत्से कहता
है, मुझे कोई
हरा नहीं
सकता।
क्योंकि मैं
जानता हूं, जीत होती ही
नहीं। और मैं
जीत की कोई
आकांक्षा
नहीं करता
हूं। मुझे कोई
हरा नहीं
सकता।
कैसे हराओगे उस
आदमी को, जो
जीतने के लिए
आतुर ही नहीं
है? जिसने
जीतने की
व्यर्थता को
समझ लिया, उसे
तुम कैसे हराओगे?
हार
और जीत एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
आशा-निराशा
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
सुख-दुख
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
स्वर्ग-नर्क
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
तुम
दुख से बचना
चाहते हो, सुख पाना
चाहते हो; मिलता
तो दुख ही है।
तुम निराशा से
बचना चाहते हो,
आशा को उकसाए
रखते हो; मिलती
तो निराशा ही
है।
महावीर
कहते हैं, आशारहित हो जाओ; आशा
से शुद्ध हो
जाओ। आशा को
छोड़ दो। आशा
के छोड़ते ही
एक क्रांति
घटती है। वह
क्रांति है, भविष्य का
विसर्जित हो
जाना। वह
क्रांति है, भविष्य का
समाप्त हो
जाना। निराशा
नहीं आती, भविष्य
विदा हो जाता
है। और भविष्य
के विदा होते
ही तुम्हारी
ऊर्जा यहीं और
अभी ठहर जाती
है।
वही
ध्यान का पहला
चरण है--ऊर्जा
यहां, अभी
ठहर जाए। कल
में न भटकती
फिरे, कल
में तलाश न
करे। आज और
यहीं और इसी
क्षण
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व संगठित
हो जाए।
अभी
तुम
बिखरे-बिखरे
हो। कुछ अतीत
में पड़ा है, जो अब रहा
नहीं; कुछ
वहां उलझा
है...कुछ क्या, काफी उलझा
है। नब्बे
प्रतिशत आदमी
अतीत में उलझा
है। किसी ने
गाली दी थी
बीस साल पहले,
अभी भी वहां
उलझाव बना है।
तीस साल पहले
कोई मित्र चल
बसा था दुनिया
से, अभी भी
एक घाव बना
है। पंद्रह
साल पहले कोई
हार हो गई थी, अभी तक उसकी
तिक्तता जीभ
पर बनी है।
अभी तक छूटती
नहीं है। अभी
तक बार-बार
याद आ जाती
है।
नब्बे
प्रतिशत आदमी
वहां उलझा है, जो है नहीं; और जो दस
प्रतिशत है वह
वहां उलझा है,
जो अभी आया
नहीं। ऐसे हम
शून्य में
जीते हैं।
यही
ठीक अर्थ है
माया में जीने
का। माया का
अर्थ है, उसमें
जीना, जो
नहीं है--अतीत;
और उसमें
जीना, जो
अभी आया नहीं
है--भविष्य।
और
ब्रह्म में
जीने का अर्थ
है अभी जीना, यहीं जीना, सौ प्रतिशत
इसी क्षण में
इकट्ठे हो
जाना। सारी
प्राण-ऊर्जा
इसी क्षण में
आकर इकट्ठी हो
जाए, केंद्रित
हो जाए, संगठित
हो जाए, एकाग्र
हो जाए। तो उस
ऊर्जा की
एकाग्रता में
ही हमारा पहला
संबंध, पहला
साक्षात्कार
सत्य से होता
है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, आशारहितता।
हम
अपने को धोखा
दिए चले जाते
हैं। हम कहते
हैं, कल अच्छा
हो सकेगा।
मनुष्य की बड़ी
से बड़ी जो भ्रांति
की कला है, वह
यह है कि कल
थोड़ा सुधार हो
जाएगा। आज
दुकान ठीक
नहीं चल रही
है, कल
चलेगी। आज
ग्राहक नहीं
आए, कल
आएंगे। आज
सम्मान नहीं
मिला, कोई
कारण नहीं है,
कल क्यों न
मिलेगा। थोड़ी
और कोशिश
करें।
प्रत्येक
नया दिन नई
नाव ले आता है,
लेकिन
समुद्र है वही, सिंधु का
तीर वही
प्रत्येक
नया दिन नया
घाव दे जाता
है,
लेकिन
पीड़ा है वही, नैन का नीर
वही
कुछ
बदलता नहीं।
पीछे लौटकर
देखो!
रेगिस्तान की
तरह...रिक्त है
जीवन। अपने अतीत
को देखो, वहां
कुछ भी नहीं
है। न होने का
कारण ही जो-जो
तुम अतीत में
चूक गए हो, वह
तुम भविष्य
में रख लिए
हो। जो
तुम्हें पीछे
नहीं मिल सका,
उसे तुमने
आगे सरका लिया
है। जो तुम
सत्य में नहीं
पा सके, उसका
सपना देख रहे
हो।
जब
महावीर कहते
हैं, कि "आशारहितता',
तो उनका
अर्थ यह है:
सत्य यहां है,
इस क्षण!
तुम इस क्षण
से और कहीं न भटको। तुम
इस क्षण में
लौट आओ। इस
क्षण में होगा
मिलन। इस क्षण
में घटेगी वह
क्रांति, जिसको
समाधि कहें, सम्यक ज्ञान
कहें या कोई
और नाम देना
हो तो और नाम
दें।
इस
क्षण से द्वार
खुलता है
अस्तित्व
में। यह क्षण
द्वार है।
केवल वर्तमान
सच है, शेष
सब झूठ है। जो
बीत गया, बीत
गया, अब
नहीं है। जो
नहीं आया, अभी
नहीं आया है।
जो बीत गया वह
कभी सच था, जब
वह वर्तमान
था। और जो
नहीं आया है, वह कभी सच
होगा लेकिन
तभी जब
वर्तमान
बनेगा।
तो एक
बात तय है कि
केवल वर्तमान
के अतिरिक्त
और कुछ भी सच
नहीं होता। तो
तुम वर्तमान
में होने की
कला सीख जाओ, तो सत्य के
साथ हो जाओगे।
सत्य से
सत्संग जुड़ेगा।
और
वह पल जो गया, सो गया ही
जो
नया आए, रहे
वह नया ही
यह
नहीं होगा, नया भी
जाएगा
और
हर क्षण नया
ही क्षण आएगा
फिर
क्षणिक क्या? खंड क्या है,
छिन्न क्या?
आज, कल अत्यंत
और अभिन्न
क्या?
सब
सनातन, सिद्ध
और समग्र है
सब
अचिंत्य, अनादि
और अव्यग्र है
और
वह पल जो गया
सो गया ही
जो
नया आए, रहे
वह नया ही
इसे
थोड़ा सोचना।
तुम्हारी
आशा के कारण
नया भी नया
नहीं हो पाता।
तुम जो-जो
योजना बना
लेते हो, उसके
कारण नए को भी
जूठा कर देते
हो, पुराना
कर देते हो, आने के पहले
ही खराब कर
देते हो।
तुम्हारी अपेक्षा
नए पर पहले से
ही छाया डाल
देती है।
तुम
कुछ मानकर चल
रहे हो, यह
होगा; अगर
हुआ तो भी मजा
नहीं आता।
क्योंकि इसको
तो तुम बहुत
बार सपने में
देख चुके थे; बहुत बार
सोच चुके थे, वही हुआ।
होने के पहले
ही पुराना पड़
गया।
अगर न
हुआ तो दुखी
होओगे कि नहीं
हुआ; अगर हुआ
तो सुखी न
होओगे। आदमी
का गणित बड़ा
अजीब है।
तुमने
खयाल किया, जिससे
अपेक्षा हो
उससे सुख नहीं
मिलता। राह तुम
चल रहे हो, तुम्हारा
रूमाल गिर जाए
और एक अजनबी आदमी
उठाकर रूमाल
दे दे तो तुम
धन्यवाद देते
हो; क्योंकि
अपेक्षा नहीं
थी। तुम
प्रसन्न होते हो
कि भला आदमी
है। लेकिन
तुम्हारी
पत्नी ही रूमाल
उठाकर दे दे, तो तुम
धन्यवाद भी
नहीं देते!
हां, अगर
उठाकर न दे तो
नाराज होओगे
कि तुमने
उठाकर दिया
क्यों नहीं? उठाकर दे, तो प्रसन्न
नहीं होते; न धन्यवाद, न अनुग्रह।
न दे तो नाराज
होते हो।
जिससे
अपेक्षा होती
है, उससे हम
दुख पाते हैं,
सुख नहीं
पाते। अगर
पूरा हो जाए
तो होना ही चाहिए
था; इसलिए
सुख का कोई
कारण नहीं है।
पत्नी ने रूमाल
उठाकर
दिया--देना ही
चाहिए था; उसका
कर्तव्य ही
था। इसमें बात
क्या हो गई
धन्यवाद की? अगर न दिया
तो कर्तव्य का
पालन नहीं
हुआ।
अगर
बेटा बाप को
सम्मान दे तो
कोई सुख नहीं
मिलता; न
दे सम्मान तो
दुख मिलता है।
यह बड़ी हैरानी
की बात है।
फिर तुम कहते
हो, हम
दुखी क्यों
हैं?
अगर
तुमने धंधा
किया और दस
हजार रुपये मिलने
की आशा थी, मिल गए तो
कोई खास सुख
नहीं
होता--मिलने
ही थे। निश्चित
ही था। मिलने
के पहले ही
तुम योजना बना
चुके थे कि
मिलेंगे।
इतना ही नहीं,
मिलने के
बाद क्या-क्या
करोगे उस सबकी
भी योजना बना
चुके थे। तो
जब मिलते हैं,
तब चौंकाते
नहीं
तुम्हें।
विस्मय से
नहीं भरते, आनंद-विभोर
नहीं करते।
अगर न मिले तो
तुम दुखी जरूर
हो जाते हो।
कलकत्ते
में मेरे एक
मित्र हैं, उनके घर मैं
कभी-कभी रुकता
था। एक बार
मुझे लेकर
एअरपोर्ट से
वे घर जा रहे
थे, उदास
थे; तो
मैंने पूछा कि
क्या मामला है?
वे बोले कि
बड़ा नुकसान लग
गया, कोई
पांच लाख का
नुकसान लग
गया। उनकी
पत्नी भी पीछे
थी कार में, वह हंसने
लगी। उसने
मुझसे कहा, आप इनकी
बातों में मत पड़ना।
मैंने कहा, वे उदास हैं
और तू हंस रही
है; बात
क्या है?
तो
उसने कहा, मामला ऐसा
है कि नुकसान
हुआ नहीं, पांच
लाख का लाभ
हुआ है। लेकिन
दस लाख का
होना चाहिए था,
इसलिए ये
दुखी हैं।
इनको मैं लाख
समझा रही हूं
कि तुम्हें
पांच लाख का
लाभ हुआ। मगर
ये कहते हैं, वह कोई सवाल
ही नहीं है, दस का होना
निश्चित ही
था। पांच का
नुकसान हो गया।
अब
जिसको दस लाख
का लाभ होना
है, उसे पांच
लाख का भी लाभ
हो तो
प्रसन्नता
कैसे हो? क्योंकि
प्रसन्नता तो
तुम्हारी
अपेक्षा पर निर्भर
होती है।
तुम
खयाल करना, अगर तुम अपेक्षाशून्य
हो जाओ तो
तुम्हारे
जीवन में आनंद
की वर्षा हो
जाएगी। अगर
तुम्हारी कोई
आशा न रह जाए
तो तुम पाओगे,
प्रतिपल
स्वर्ग के फूल
खिलने
लगे। जिसकी
कोई आशा नहीं
है उसे तो
सांस चलना भी
बड़े आनंद की
घटना मालूम
पड़ती है। जिंदा
हूं, यह भी
बहुत है । यह
भी कोई जरूरी
तो नहीं है कि
होना चाहिए।
इसकी भी कोई
ऐसी
अनिवार्यता
तो नहीं है।
यह जगत मुझे जिलाए ही
रखे, इसकी
क्या
अनिवार्यता
है? मेरे
दीये को बुझा
दे तो शिकायत
कहां करूंगा?
अपील की कोई
कोर्ट भी तो
नहीं है। मेरा
दीया जल रहा
है, यह भी धन्यभाग
है।
जिस
व्यक्ति के
जीवन में आशा
नहीं है, होना
मात्र भी परम
आनंद है।
छोटी-छोटी
चीजें आनंद की
हो जाती हैं।
हवाओं का
वृक्षों से
गुनगुनाते
हुए गुजर
जाना! वृक्षों
में नई कोपलों
का फूट आना!
सुबह
पक्षियों की चहचहाहट!
रात आकाश का
तारों से भर
जाना! राह पर किसी
आदमी का
नमस्कार कर
लेना, किसी
बच्चे का
मुस्कुरा
देना, किसी
का प्रेम से
हाथ हाथ में
ले लेना--सभी
कुछ अपूर्व
है।
लेकिन आशारहित
व्यक्ति हो तो
प्रतिक्षण
सोने का है; प्रतिक्षण
में सुगंध है,
प्रतिक्षण
में स्वर्ग
है।
महावीर
कहते हैं, "संसार से जो
सुपरिचित, निस्संग,
निर्भय और आशारहित
है, उसी का
मन वीतरागता
को उपलब्ध
होता है; और
वही ध्यान में
सुनिश्चल, भलीभांति
स्थित होता
है।'
ध्यान
की स्थिरता का
अर्थ है, वर्तमान
के क्षण से
यहां-वहां न
जाना; जरा
भी डांवांडोल
न होना। जो है,
उसके साथ
पूरी समरसता
से जीना। जो
है, उससे
अन्यथा की न
मांग है, न
चाह है, न
आशा है। जो है,
वैसा ही
होना चाहिए।
ऐसा ही भाव
है। जो है, वह
वैसा है ही
जैसा होना
चाहिए था। न
कोई विरोध है,
न कोई निंदा
है, न कोई
आलोचना है।
तथ्य
की इस
स्वीकृति का
नाम तथाता है।
और जो ऐसी
तथाता को
उपलब्ध हुआ, उसको महावीर
और बुद्ध
दोनों ने
तथागत कहा है।
तथागत बुद्ध
और महावीर का
विशिष्ट शब्द
है। उसका अर्थ
होता है, तथाता
को उपलब्ध; तथ्य की
स्वीकृति को
पूर्णता से
उपलब्ध है। जो
है, है; जो
नहीं है, नहीं
है। और इसमें
मेरा कोई
चुनाव नहीं
है। मैं राजी
हूं। जो है, उसके होने
से राजी हूं।
जो नहीं है, उसके नहीं
होने से राजी
हूं। अन्यथा
की कोई चाह
नहीं है। तथ्य
का पूरा
स्वागत है।
ऐसा व्यक्ति
ही ध्यान को
स्थित होता
है।
आमतौर
से तो हम रोते
ही रहते हैं।
लोगों की आंखें
देखो, तुम
उन्हें सदा
आंसुओं से भरी
पाओगे। हजार
शिकायतें
हैं। शिकायतें
ही शिकायतें
हैं। सारा
अतीत व्यर्थ
गया, वर्तमान
व्यर्थ जा रहा
है, भविष्य
की आशा पर
टंगे हैं। बड़ा
पतला धागा है,
जिससे
तलवार लटकी
है। वह भी
होगा इसका
पक्का भरोसा
थोड़े ही है!
सिर्फ आशा है,
भरोसा नहीं
है।
भरोसा
हो भी कैसे
सकता है? आशा
तो पहले भी की
थी, हर बार
टूट गई।
आशा-आशा करके
तो अब तक
गंवाया; मिला
कुछ भी नहीं।
लेकिन बिना
आशा के जीयें
भी कैसे? तो
फिर आगे के
लिए सरका लेते
हैं। पीछे के
लिए रोते रहते
हैं, आगे
के लिए रोते
रहते हैं। और
बीच के क्षण
में परमात्मा
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक देता
रहता है।
परमात्मा
कहता है, यहां,
इसी क्षण! खोलो
आंखें! देखो, मैं मौजूद
हूं!
लेकिन
हमें फुर्सत
कहां? वर्तमान
का छोटा-सा
क्षण, बड़ा
छोटा
है--आणविक, हमारी
चिंताओं में
अतीत और
भविष्य की, कहीं खो
जाता है।
कभी
सोचना बैठकर--
आओ
कि आज गौर
करें इस सवाल
पर
देखे
थे हमने जो वह
हंसी ख्वाब, क्या हुए?
पहले
भी तुम ख्वाब
देखते रहे थे; उनका क्या
हुआ? अब
फिर ख्वाब देख
रहे हो। जो
उनका हुआ, वही
इनका भी होगा।
मरते वक्त
रोओगे कि
ख्वाब में ही
गंवाया। आशा
में ही
बंधे-बंधे
नष्ट हुए।
ख्वाब छोड़ो। ये स्वप्नीली
आंखों पर थोड़ा
पानी छिड़को
होश का। थोड़ा झकझोरो
अपने को, जगाओ।
और इस क्षण
में लौट आओ।
पकड़-पकड़कर...।
पहले
तो बड़ी कठिनाई
होगी।
क्योंकि मन की
पुरानी आदतें
हैं, वह
खिसक-खिसक
जाता है।
तुमने इधर से
पकड़ा, वह
दूसरी गली से
निकल गया।
पीछे गया, आगे
गया, यहीं
भर नहीं आता।
लेकिन तुम
कोशिश करते
रहो, कोशिश
करते रहो, कभी
अगर क्षणभर
को भी यहां
रुक जाएगा, तो स्वाद की
शुरुआत हो
जाएगी--सत्य
का स्वाद! फिर
स्वाद पकड़
लेता है। फिर
उस स्वाद के
कारण मन
ज्यादा-ज्यादा
रुकने लगता
है।
"ध्यानऱ्योगी अपने आत्मा
को शरीर तथा
समस्त बाह्य
संयोगों से
भिन्न देखता
है। अर्थात
देह तथा उपाधि
का सर्वथा त्याग
करके निस्संग
हो जाता है।'
जिसने
यह जाना कि
कोई मेरा नहीं
है, कोई
मित्र नहीं, कोई प्रियजन
नहीं; जिसने
यह समझा कि
मैं अकेला हूं,
उसे जल्दी
ही एक और नई
समझ आएगी। और
वह समझ होगी
कि मैं शरीर
नहीं हूं।
क्योंकि दूसरों
के साथ हम जो
संबंध जोड़े
हैं, वह
शरीर से जोड़े
हैं। जब
दूसरों से
संबंध टूट जाता
है तो शरीर से
संबंध शिथिल
होने लगता है।
जो आदमी दौड़ता
है, उसके
पैर मजबूत
रहते हैं। जब
वह घर बैठ
जाता है, दौड़ना
बंद कर देता
है, पैर
अपने आप कमजोर
हो जाते हैं।
अगर वह वर्षों
तक बैठा ही
रहे तो फिर चल
ही न पाएगा।
जब
तुम्हारा मन
शरीर के
माध्यम से
दूसरों से बहुत
संबंध बनाता
है, हजार तरह
के नाते जोड़ता
है तो शरीर
मजबूत रहता
है। शरीर की
पकड़ गहरी रहती
है, आसक्ति
भारी रहती है।
क्योंकि उसी
के द्वारा...वही
तो सेतु है
दूसरे तक
पहुंचने का।
लेकिन
जब दूसरों से
संबंध
धीरे-धीरे छोड़
देते हो, भीतर
जान लेते हो, जाग जाते हो
कि कोई अपना
नहीं, तो
यह शरीर की
दौड़ बंद हो
जाती है। इस
दौड़ के बंद
होते ही
धीरे-धीरे
शरीर के साथ
तुम्हारी जो आंतरिक
आसक्ति है, वह क्षीण हो
जाती है। जब
कोई अपना नहीं
है तो एक दिन पता
चलता है कि
शरीर भी अपना
नहीं है। मैं
शरीर नहीं हूं,
यह बोध गहन
होता है।
और जब
यह बोध गहन
होता है, तब
एक और नई
क्रांति घटती
है कि मैं मन
भी नहीं हूं।
जैसे शरीर
जोड़ता है
दूसरों से, ऐसा मन
जोड़ता है शरीर
से। जैसे-जैसे
तुम पीछे हटते
जाते हो, सेतु
टूटते जाते हैं।
शरीर
जोड़ता है
संसार से, पर से। पर से
संबंध गिरा, शरीर का
संबंध शिथिल
हुआ। शरीर का
पता चला कि शरीर
मुझसे अलग है,
मैं देह
नहीं, तो
मन जोड़ता है
शरीर से। अब
मन के भी जोड़ने
का कोई कारण न
रहा। मैं शरीर
नहीं हूं तो
मन का जोड़ भी उखड़ा।
और
जैसे ही जोड़ उखड़ा कि आखिरी
क्रांति घटती
है। पता चलता
है कि मैं मन भी
नहीं हूं; उसके पार जो
शेष है, वही
हूं। वही हूं।
उससे
संबंध कभी
नहीं छूटता।
वही है शाश्वत
आत्मा। वही है
तुम्हारे
भीतर सनातन।
वही है नित्य।
वही है अमृतधर्मा।
शरीर
मरता है; इसलिए
शरीर के साथ
जुड़े तो भय
रहेगा। मन बदलता
है; मन के
साथ जुड़े तो
जीवन में कभी
थिरता न होगी।
शरीर
और मन के पार
जो छिपा
है--साक्षी, चैतन्य--उससे
जुड़े तो फिर
सब शाश्वत है,
सब थिर है।
फिर कोई
परिवर्तन की
लहर नहीं आती।
फिर तुम उस
अनंत गृह में
पहुंचे, जहां
से निकलने का
कोई कारण
नहीं। जहां तुम
सदा के लिए
विश्राम कर
सकते हो। जहां
विराम
है--चिंताओं
से, विचारों
से, अशांतियों से, तनावों
से। तुम अपने
घर वापिस आए।
"ध्यानऱ्योगी अपने शरीर
को तथा समस्त
बाह्य
संयोगों को
भिन्न देखता
है। देह तथा
उपाधि का
सर्वथा त्याग
करके निस्संग
हो जाता है।'
"वही
श्रमण आत्मा
का ध्याता है,
जो ध्यान
में चिंतवन
करता है कि
मैं न पर का
हूं, न पर
पदार्थ या भाव
मेरे हैं। मैं
तो एक शुद्ध-बुद्ध
ज्ञानमय
चैतन्य हूं।'
"चिंतवन'--जैनों का
अपना शब्द है।
इसे तुम चिंतन
से एक मत समझ
लेना। चिंतन
से भिन्न करने
के लिए ही इस शब्द
को गढ़ा
गया है--चिंतवन।
चिंतन का अर्थ
होता है, सोचना,
और चिंतवन
का अर्थ होता
है देखना।
तुम
ऐसा बैठकर सोच
सकते हो कि
मैं
शुद्ध-बुद्ध
परमात्मा हूं; इससे कुछ
लाभ न होगा।
यह तो मन में
ही उठी तरंग है।
यह तो मन ही
दोहरा रहा है।
नहीं, ऐसा
सोचना नहीं है,
ऐसा देखना
है। ऐसा विचार
में नहीं, भीतर
दोहराना है।
ऐसा भीतर
अनुभव में
लाना है। ऐसा
स्पष्ट दिखाई
पड़े कि मैं
शुद्ध-बुद्ध
परमात्मा
हूं। इसमें
जरा भी शंका
और शल्य न
रहे। इसमें
जरा भी संदेह
की छाया न
पड़े। यह
श्रद्धा
परिपूर्ण हो।
यह हो जाती
है।
जो आशारहित, निस्संग भाव
से जीता है, स्वभावतः
धीरे-धीरे उसे
यह दृष्टि
उपलब्ध होती है।
यह सम्यकत्व
उपलब्ध होता
है। वह देखने
लगता है अपने
भीतर। उसे साफ
दिखाई पड़ने
लगता है कि
मैं
देखनेवाला
हूं। जो भी
दिखाई पड़ता है,
वह मैं नहीं
हूं। हो भी
कैसे सकता हूं?
जो मुझे
दिखाई पड़ता है,
उससे मैं
अलग हो गया।
मैं तो वह हूं,
जिसे दिखाई
पड़ता है।
इसलिए
धीरे-धीरे
समस्त
दृश्यों से
अपने को मुक्त
करके शुद्ध
द्रष्टा में
लीन हो जाने
का नाम चिंतवन
है।
"वही
श्रमण आत्मा
का ध्याता
है...।'
और
महावीर कहते
हैं, वही
ध्यान को
उपलब्ध हुआ, जो चिंतवन
करता है, जो
देखता है, जिसके
अनुभव में आता
है, जिसकी
प्रतीति में
उतरता है कि
मैं न पर का हूं,
न पर मेरे
हैं। मैं एक
शुद्ध-बुद्ध
ज्ञानमय चैतन्य
हूं।
"तथागत
अतीत और
भविष्य के
अर्थ को नहीं
देखते...।'
"तथागत
अतीत और
भविष्य के
अर्थ को नहीं
देखते। कल्पनामुक्त
महर्षि
वर्तमान का अनुपश्यी
हो, कर्म-शरीर
का शोषण कर
उसे क्षीण कर
डालता है।'
"तथागत
अतीत और
भविष्य में
नहीं देखते'--वही तथागत
की परिभाषा है;
जो न पीछे
देखता है, न
आगे। जो बस
यहीं है; इस
क्षण में
पर्याप्त है।
जो इस क्षण से
बाहर नहीं
जाता।
जैसे
दीये की लौ
हवा के झोंके
में कंपती
इधर-उधर, फिर
हवा के झोंके
बंद हो गए और
दीये की लौ
अकंप जलती है।
जब तुम अकंप
होते हो, तुम
यहां होते हो।
जरा कंपे
कि या तो अतीत
में गए, या
भविष्य में
गए। दो ही
दिशाएं हैं
कंपने की।
अकंप
होने की दिशा
है वर्तमान।
"तथागत
अतीत और
भविष्य के
अर्थ को नहीं
देखते।'
न तो
अतीत में कोई
सार्थकता है, और न भविष्य
में कोई
सार्थकता है।
तथागत तथ्य में
देखते हैं।
तथ्य में
देखने से ही, तथ्य के साथ जुड़ने से
ही, जो है
उसमें उतरने
से ही, सत्य
का अनुभव
उपलब्ध होता
है।
तथ्य
द्वार है सत्य
का।
"...कल्पनामुक्त महर्षि
वर्तमान का अनुपश्यी
हो।'
अनुपश्यी
वर्तमान का!
वर्तमान की
प्रतीति में, वर्तमान के
अनुभव में, वर्तमान के
साक्षात्कार
की जो दशा है, जो इस समय
गुजर रहा है
सामने से, उसको
ही देखता है।
उसका ही अनुपश्यी
होता है।
अवेयरनेस, जागरूकता बस
इस क्षण की
होती है। इसे
थोड़ा करने की
कोशिश करो।
कठिन है, अति
कठिन है।
लेकिन जब सधता
है तो सभी
कठिनाइयां
सहने योग्य
थीं, ऐसा
पता चलेगा। तब
बहुमूल्य
हीरा, अमूल्य
हीरा हाथ लगता
है।
थोड़ी
कोशिश करो। जो
भी तुम कर रहे
हो...रास्ते पर
चल रहे हो, तो बस चलने
का ही अनुपश्यन,
चलने की ही
जागरूकता
रहे। भोजन कर
रहे हो तो भोजन
करने की ही
जागरूकता
रहे।
झेन
फकीर बोकोजू
से किसी ने
पूछा कि
तुम्हारी साधना
क्या है? उसने
कहा, जब
भोजन करता हूं
तो सिर्फ भोजन
करता हूं और जब
कुएं से पानी
भरता हूं तो
सिर्फ कुएं से
पानी भरता
हूं। और जब सो
जाता हूं तो
सिर्फ सो जाता
हूं।
उस
आदमी ने कहा, यह भी कोई
साधना हुई? यह तो सभी
करते हैं।
बोकोजू
ने कहा, काश!
सभी यह करते
होते तो
पृथ्वी पर
बुद्ध ही बुद्ध
होते। सब
तथागत होते।
तुम जब भोजन
करते हो तब
तुम हजार काम
और भी करते
हो। भोजन तो
शायद ही करते
हो, और ही
काम ज्यादा
करते हो।
आदमी
भोजन पर बैठा
है, वह
यंत्रवत भोजन
को फेंके जाता
है शरीर में।
मन हजारों
दिशाओं में
भटकता है। न
मालूम
कहां-कहां की
यात्राएं करता
है। न मालूम
कितनी
योजनाएं
बनाता है।
तुम
रास्ते पर
चलते हो, जब
चलते हो तो
सिर्फ चलते हो?
चलने का तो
खयाल ही नहीं
रखते। जो
वर्तमान में
हो रहा है
उसको तो देखते
ही नहीं। उससे
तो तुम चूकते
ही चले जाते
हो। और
वर्तमान बड़ा
छोटा-सा क्षण
है। जरा चूके
कि गया। चूके
नहीं कि गया!
एक शब्द भी
उठा मन में कि
वर्तमान गया।
तुमने अगर
इतना भी कहा
कि "अरे!
वर्तमान को देखूं,' वर्तमान
गया। तुमने
इतना भी कहा
मन में कि मुझे
वर्तमान में
जागरूक रहना
है, तो तुम
जब यह कह रहे
थे तब वर्तमान
जा रहा था।
जो है, वह तो शब्द
मात्र से भी
चूक जाता है।
इसलिए भीतर
शब्द न उठे, निशब्द रहे
तो ही वर्तमान
पकड़ में आता
है। निशब्द
रहे और जो
क्रिया तुम कर
रहे हो, उसमें
ही पूरी
तल्लीनता
रहे। जैसे यही
परम कृत्य है।
इसीलिए
कबीर ने कहा
है कि जो
खाता-पीता हूं, वही तेरी
सेवा है
प्रभु! जो
उठता-बैठता
हूं, वही
तेरी
परिक्रमा है
प्रभु! "खाऊं
पिऊं सो
सेवा।'
बड़ी
अदभुत बात
कबीर ने कही
कि मैं जो
खाता-पीता हूं, वही तुझे
मैंने भोग लगा
दिया प्रभु!
और भोग कहां
लगाऊं? उठता-बैठता
हूं, यही
तेरे मंदिर की
परिक्रमा है;
अब और
परिक्रमा
करने कहा जाऊं?
इसका अर्थ
हुआ कि अगर
क्षण को कोई
पूरी तरह जीये
तो सब हो गया।
क्षण से चूके
कि सब चूके।
क्षण में जागे
कि सब पाया।
"हे
ध्याता, तू
न तो शरीर से
कोई चेष्टा कर,
न वाणी से
कुछ बोल और न
मन से कुछ
चिंतन कर। इस
प्रकार योग का
निरोध करने से
तू स्थिर हो
जाएगा, तेरी
आत्मा आत्मरत
हो जाएगी। यही
परम ध्यान है।'
यह परम
ध्यान का परम
सूत्र!
"हे
ध्याता, तू
न तो शरीर से
कोई चेष्टा
कर...।' ध्यान
के लिए शरीर
की चेष्टा का
कोई प्रयोजन नहीं
है।
"...न
वाणी से कुछ
बोल।' न
भीतर शब्द को
निर्मित कर।
क्योंकि
ध्यान से उसका
भी कोई संबंध
नहीं है।
"...और
न मन से कुछ
चिंतन कर। इस
प्रकार योग का
निरोध करने से
तू स्थिर हो
जाएगा।'
एक
निशब्द शून्य
भीतर घेर ले।
उस निशब्द
शून्य में
जागरण का दीया
भर जलता रहे, बस! शून्य हो
और जागृति हो।
शून्य
+ जागृति--कि
ध्यान हुआ।
ध्यान
का यही परम
सूत्र है।
"...तेरी
आत्मा आत्मरत
हो जाएगी।'
मा चिट्ठह, मा जंपह,
मा चिंतह
किं वि जेण
होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।
यही
परम ध्यान है।
इसे
थोड़ा खयाल में
ले लें। कभी
बैठे हैं तो
बैठे रह जाएं; तो बैठने
में ही लीन हो
जाएं। भीतर से
शब्दों को
विदा कर दें, नमस्कार कर
लें। कुछ
चिंतन भी न
करें। आत्मा का
भी चिंतन न
करें। यह भी
मत सोचें कि
मैं आत्मा हूं,
शुद्ध-बुद्ध
हूं। क्योंकि
वह सब चूकना
है।
न
चिंतन करें, न शरीर की
कोई क्रिया
में संलग्न
हों, बैठे
हैं तो बैठने
में डूब जाएं
और भीतर सिर्फ
जागे रहें, बस एक खयाल
रखें कि होश
बना रहे, नींद
न आ जाए।
अगर
ध्यान का किसी
चीज से विरोध
है तो नींद से; और किसी चीज
से विरोध नहीं
है। संसार
छोड़कर मत भागो।
घर-गृहस्थी
छोड़कर मत भागो।
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है।
सिर्फ नींद को
गिरा दो।
जब मैं
कह रहा हूं, नींद को
गिरा दो तो
मेरा मतलब यह
नहीं है कि रात
तुम सोओ मत।
जब जागो
तो
परिपूर्णता
से जागो।
आहिस्ता-आहिस्ता
चलो, उठो, बैठो एक बात
खयाल रखो कि
भीतर होश को
सम्हाले रखना
है।
अभी
नाजुक है। अभी
बार-बार खो
जाएगा।
सम्हालते-सम्हालते
आने लगेगा।
फिर धीरे-धीरे
तुम पाओगे, जब दिन की
जागृति में
जागरण सध गया,
तो नींद में
भी शरीर तो सो
जाएगा, तुम
जागे रहोगे।
शरीर तो
विश्राम
करेगा, लेकिन
तुम्हारे
भीतर एक
प्रहरी जागा
रहेगा।
जिस
दिन चौबीस
घंटे जागरण सध
जाता, उसी
दिन व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाता।
तो
जागने में तो
जागना पहले
साधो, फिर
नींद की फिक्र
कर लेंगे।
पहले तो जागने
से नींद को हटाओ।
तुम्हें भी कई
दफे लगा होगा
कि तुम्हारे
भीतर जागरण की
कई मात्राएं
होती हैं।
जैसे
समझो कि तुम
रास्ते पर जा
रहे हो और
अचानक एक सांप
रास्ते से
निकल जाए तो
तुम चौंक पड़ते
हो। सांप नहीं
निकला था तब
तुम किस
अवस्था में थे? थोड़ी तंद्रा
थी। चले जा
रहे थे
डूबे-डूबे, सोये-सोये; थोड़े-थोड़े
जागे, थोड़े-थोड़े
सोये। सांप
सामने आया, मौत सामने आ
गई, एक
धक्का लगा, एकदम जाग
गये। एक क्षण
को तुम उस
अवस्था में आए
जिसको महावीर
कहते हैं, प्रत्येक
क्षण की बनाना
है।
तुम
कार चला रहे
थे, गीत
गुनगुना रहे
थे, कि
सिगरेट पी रहे
थे, कि
रेडियो सुन
रहे थे। चले
जा रहे थे
अपनी धुन में।
अचानक दूसरी
कार तेजी से
सामने आ गई, मौत का खतरा
आया।
दुर्घटना होनेऱ्होने
को थी, बाल-बाल
बचे। उस क्षण
एक जोर
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा का
उठेगा। तुम
जाग जाओगे। एक
क्षण को लगेगा,
सब नींद टूट
गई। खतरा इतना
था कि नींद रह
नहीं सकती थी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं खतरे
में रस ही
इसीलिए है कि
उससे कभी-कभी
जागने की
झलकें आती
हैं। लोग पहाड़
पर चढ़ने
जाते हैं, गौरीशंकर चढ़ते
हैं, खतरनाक
है, जान-जोखिम
में डालना है।
लेकिन जब
जोखिम होती है
तो भीतर जागरण
होता है। जब
जोखिम बहुत
होती है तो
भीतर बहुत
जागरण होता
है। पहाड़ पर चढ़नेवाले
को शायद पता
भी न हो, कि
वह क्यों पहाड़
पर चढ़ने
के लिए पागल
हुआ जा रहा है!
लेकिन मनस्विद
कहते हैं, और
सदा से
ज्ञानियों को
इस बात का
खयाल रहा है कि
खतरे में
लोगों को
इसीलिए रस आता
है कि खतरे में
थोड़ी-सी नींद
टूटती है और
जागरण का
स्वाद मिलता
है।
लेकिन
पहाड़ पर अगर
रोज-रोज चढ़ते
रहे...जो पहाड़
पर चढ़ने
जाता है उसको
तो थोड़ा रस
आता है, लेकिन
नेपाल में जो
आदमी दूसरों
को पहाड़ पर चढ़ाने
का काम करते
हैं जिंदगी से,
उनको कुछ
नहीं होता।
वह
अभ्यस्त हो
गया, यह
यांत्रिक हो
गया।
बाहर
तो हर चीज
यांत्रिक हो
जाती है, जब
तक कि भीतर का
जागरण ही
सीधा-सीधा न
खोजा जाए...जैसे
तुम कभी आग
जलाते हो, अंगारों
पर राख जम
जाती है, ऐसी
चित्त पर नींद
जमी है। इसे
थोड़ा झकझोरना
है। इसे झकझोरते
रहना है।
अंगारा जलता
रहे।
"हे
ध्याता, न
तो तू शरीर से
कोई चेष्टा कर,
न वाणी से
कुछ बोल और न
मन से कुछ
चिंतन कर। इस
प्रकार निरोध
करने से तू
स्थिर हो
जाएगा। तेरी आत्मा
आत्मरत
हो जाएगी। यही
परम ध्यान है।'
"जिसका
चित्त इस
प्रकार के
ध्यान में लीन
है, वह आत्मध्यानी
पुरुष कषाय से
उत्पन्नर्
ईष्या, विषाद,
शोक आदि
मानसिक दुखों
से बाधित, ग्रस्त
या पीड़ित नहीं
होता।'
"वह
धीर पुरुष न
तो परीषह,
न उपसर्ग
आदि से विचलित
होता है, न
ही सूक्ष्म
भावों, से
भयभीत होता है,
और
देव-निर्मित
मायाजाल से
मुक्त होता
है।'
ध्यान, धर्म का
मौलिक आधार
है।
जैसे
किसी को
दर्शनशास्त्र
में जाना हो
तो विचार, तर्क मौलिक
आधार है। वैसे
ही किसी को
स्वयं में
जाना हो, स्वभाव
में जाना हो
तो ध्यान
मौलिक आधार
है।
तुम और
सब साध लो और
ध्यान न सधे, तो तुमने जो
साधा है, वह
धर्म नहीं है।
तुम तप साधो, योग साधो, और हजार तरह
के क्रियाकांड
और विधियां
करो; यज्ञ
करो, हवन
करो, पूजा-प्रार्थना
करो, लेकिन
तुम्हारे
भीतर अगर
ध्यान नहीं
सधा तो यह सब
साधना
बाहर-बाहर है;
भीतर तुम न
आ पाओगे।
और इस
भीतर आने के
लिए कुछ करने
जैसा नहीं है।
इस भीतर आने
की प्रक्रिया
को तुम्हारी
सारी क्रियाओं
में से साधा
जा सकता है।
तुम दुकान पर
बैठे बाजार
में काम कर
रहे हो, ध्यान-पूर्वक
करो--सोओ मत।
मजदूर हो, कि
अध्यापक हो, कि दफ्तर
में क्लर्क हो,
कि स्कूल
में चपरासी हो,
कुछ भी हो; गरीब हो, कि
अमीर हो; सैनिक
हो कि
दुकानदार हो;
कोई भी
कृत्य हो जीवन
का, वहीं
एक बात साधी
जा सकती है कि
जो भी तुम करो,
उसे
होशपूर्वक
करते रहो।
पृथ्वी
यह परिस्थिति
यह,
स्थान
और पुरजन
ये दलदल है,
एरावत बन
हम फंसते
हैं
मदांध
हो समझते हैं
कमलवन
हमारा है, हमारा है
यहां
कुछ भी हमारा
नहीं। यहां जो
भी हमारा मालूम
पड़ता है, वह
सब दलदल है।
लेकिन इस
हमारे के दलदल
में कुछ है, जो हमारा
स्वभाव है।
मेरा तो कुछ
भी नहीं है, लेकिन मैं
हूं।
यह मैं
क्या है? इस
मैं को हम
कैसे पकड़ें?
इस मैं की
तरफ हम किन
यात्राओं, किन
यात्रापथों
से चलें? इस
मैं का सुराग
कैसे मिले?
महावीर
के इन सूत्रों
का अर्थ हुआ
कि इस मैं को
जानना हो तो
पहले तो
जिस-जिस को
तुमने मेरा
माना है, उससे
अपना संबंध
शिथिल कर लो।
क्योंकि
"मेरे' के
दलदल में, "मैं'
फंसा है। तो
पहले तो दलदल
से बाहर कर
लो। एक बार
दलदल से बाहर
हो जाए, मेरे
का जाल छूट
जाए तो फिर
दूसरा काम
करने का है, और वह यह है
कि मैं सोया न
रहे।
बाहर
का दलदल मिटे, फिर भीतर का
दलदल मिटाओ।
बाहर का दलदल
है संबंधों का
जाल, और
भीतर का दलदल
है एक तरह की
सुप्ति, एक
तरह की निद्रा,
एक तरह की
तंद्रा।
हम ऐसे
चल रहे हैं
जैसे कोई
शराबी चल रहा
हो। चल भी रहे
हैं, साफ भी
नहीं
है--अंधेरे
में टटोलते से,
खोये-खोये
से, सोये-सोये
से।
तो झकझोरो!
पुकारो!
खींचो इस भीतर
के दलदल से
अपने को बाहर।
महावीर
कहते हैं, इसके लिए न
तो कोई योगासन
करने जरूरी
हैं। शरीर की
कोई क्रिया
अपेक्षित
नहीं है। न
कोई बहुत बड़ा
विचारक होना
जरूरी है। कोई
बड़े विश्वविद्यालयों
से बड़ी उपाधियां
लेकर आना
जरूरी नहीं
है। न
शास्त्रों का
पठन-पाठन
आवश्यक है।
क्योंकि
चिंतन यहां काम
आता ही नहीं।
यहां तो सिर्फ
एक चीज काम
आती है, और
वह जागरण है।
तो तुम
जो भी करते हो, अपने
छोटे-छोटे
कृत्यों
में...बुहारी
लगा रहे हो घर
में, बस जागकर
लगाओ।
एक झेन
फकीर हुआ; सम्राट उसके
पास आया था
सीखने ध्यान।
तो उस फकीर ने
कहा कि रुको, जब ठीक समय
आएगा, मैं
शुरू करूंगा।
उस सम्राट ने
कहा, मैं
ज्यादा देर
नहीं रुक सकता,
मेरे पिता
वृद्ध हैं
उनकी मृत्यु
कभी भी हो सकती
है। उन्होंने
ही मुझे भेजा
है कि उनके
जीते-जी मैं
ध्यान को उपलब्ध
हो जाऊं। तो
जल्दी करें।
उस
फकीर ने कहा, अगर जल्दी
की तो देर हो
जाएगी। जल्दी
करने में बड़ी
देर हो जाती
है। यह तो काम
धीरज का है।
तुमने अगर समय
की मांग की तो
फिर न हो
सकेगा। तो तुम
पहले तय कर
लो। मैं तो
तुम्हें
स्वीकार ही तब
करूंगा शिष्य
की तरह, जब
तुम मुझ पर
छोड़ दो। जब
समय परिपक्व
होगा, जब
मौसम आएगा और
जब मैं
समझूंगा, कि
अब शुरू करना
पाठ, शुरू
कर दूंगा।
कोई और
उपाय न देखकर
सम्राट ने
स्वीकार कर
लिया। तीन साल, कहते हैं
बीत गए और
फकीर ने ध्यान
की बात ही न की।
लेकिन एक दिन
फकीर आया और
सम्राट
बुहारी लगा
रहा था आश्रम
में, वही
उसका काम था, और फकीर ने
आकर पीछे से
उस पर हमला
किया एक लकड़ी
के डंडे से।
सम्राट
तो बहुत चौंका, उसने कहा, यह आप क्या
करते हैं?
फकीर
ने कहा, ध्यान
की शुरुआत आज
हुई। अब तुम
खयाल रखना। तुम
कुछ भी कर रहे
हो...तुम्हारा
काम है लकड़ी
काटकर लाना, बुहारी
लगाना, भोजन
पकाना, तुम
सब करना, लेकिन
एक ध्यान रखना
कि मैं कभी भी
पीछे से हमला
करूंगा, इसका
होश रखना।
उसने
कहा, यह किस
तरह का ध्यान
हुआ? फकीर
ने कहा, वह
तुम फिक्र मत
करो। तुम बस
इतना होश रखो।
कहते
हैं ऐसा एक
वर्ष बीता। और
वह फकीर
अनेक-अनेक
रूपों से पीछे
से हमला करता।
धीरे-धीरे होश
सम्हलने
लगा। क्योंकि
जब कोई चौबीस
घंटे हमले के
बीच में पड़ा
हो तो कैसे
रहेगा बेहोशी
में? वह
बार-बार चौंककर
इधर-उधर देख
लेता। जरा-सी
पीछे से आवाज
आती कि वह सजग
हो जाता। हमले
से बचना जरूरी
था। बिल्ली भी
चलती, कोई
हवा का झोंका
आता तो भी वह
सजग हो जाता।
एक
वर्ष होतेऱ्होते
ऐसी हालत हो
गई कि जब भी
फकीर हमला
करता--इसके पहले
कि फकीर हमला
करता, उसका
हाथ लकड़ी को
पकड़ लेता।
हमला करना
मुश्किल हो
गया। फकीर बड़ा
प्रसन्न हुआ
और उसने कहा, तुमने पहला
पाठ सीख लिया।
अब दूसरा
पाठ--कि अब रात
जरा सम्हलकर
सोना, क्योंकि
मैं सोते में
हमला करूंगा।
लेकिन
अब सम्राट को
भी खयाल में आ
गया था कि एक बड़ी
गहरी शांति, अकारण--भीतर
भरी थी। एक
बड़ा प्रसाद, बड़ी
प्रसन्नता!
कुछ सीधा
संबंध भी नहीं
दिखाई पड़ता था
कि आदमी किसी
के पीछे से
हमला करे तो प्रसाद
का क्या संबंध?
इतने आनंद
का क्या कारण?
लेकिन आनंद
ही आनंद था।
जरूर इसमें भी
कुछ राज होगा।
रात
कुछ दिन तो
चोटें खायीं, फिर
धीरे-धीरे
नींद में भी
सम्हलकर सोने
लगा। नींद में
भी, कमरे
में फकीर
प्रवेश करता
तो वह आंख
खोलकर बैठ
जाता। गहरी
नींद सोया
होता, घुर्राटे लेता होता, लेकिन जरा
आवाज होती कि
वह चौंक जाता।
तुमने
देखा किसी मां
को? तूफान हो,
आंधी हो, नींद नहीं
खुलती। बच्चा
जरा रो दे, नींद
खुल जाती है।
जिस तरफ ध्यान
होता है, उस
तरफ संबंध हो
जाता है।
तुम
यहां सारे लोग
सो जाओ आज रात, फिर मैं आकर पुकारूं,
"राम', तो
किसी को सुनाई
न पड़ेगा, लेकिन
जिसका नाम राम
है उसे सुनाई
पड़ जाएगा। क्योंकि
राम से उसका
एक सेतु बंधा
है, एक
संबंध बंधा
है।
एक साल
बीतते-बीतते
ऐसा हो गया कि
फकीर नींद में
भी हमला न कर
पाता। हमला
करता कि इसके
पहले ही हमला
रोकने का
इंतजाम हो
जाता।
एक दिन
सुबह की बात
है, सर्दी के
दिन! फकीर, बूढ़ा
फकीर वृक्ष के
नीचे धूप में
बैठा कुछ पढ़ रहा
था, और वह
युवक
संन्यासी--सम्राट--बुहारी
लगा रहा था।
बुहारी लगाते-
लगाते उसे
खयाल आया कि
दो साल से यह
आदमी सब तरह
से मुझ पर चोट
कर रहा है, लाभ
भी बहुत हुए, लेकिन मैंने
कभी यह नहीं
सोचा कि मैं
भी इस पर कभी
हमला करके देखूं,
इस बूढ़े पर,
यह भी जागा
हुआ है या
नहीं?
ऐसा
खयाल भर आया, कि उस बूढ़े
ने अपनी किताब
पर से आंख
उठाई और कहा, नासमझ! ऐसा
मत करना, मैं
बूढ़ा आदमी
हूं।
वह
बहुत घबड़ा
गया। उसने कहा, "हुआ क्या? मैंने तो
सिर्फ सोचा।'
उसने कहा, "जब जागरूकता
बहुत सघन होती
है तो जैसे
अभी तू पैर की
आवाज को पकड़ने
लगा, ऐसे
विचार की आवाज
भी पकड़ में
आने लगती है।
विचार की भी
तो आवाज है।
विचार की भी
तो तरंग है। विचार
से भी तो घटना
घटती है। जैसे
तू अभी नींद
में भी जाग
जाता है, मेरा
पैर नहीं पड़ता
तेरे कमरे के
पास कि तू बैठ
जाता है तैयार
होकर। मैं
इतने सम्हलकर
चलता हूं, कोई
उपाय नहीं।
जरा-सी आवाज
तुझे चौंका
देती है। एक
दिन तेरे जीवन
में भी ऐसी
घड़ी आएगी--अगर
जागता ही
गया--कि विचार
की तरंग भी
पर्याप्त होगी।'
ध्यान
का अर्थ है:
जागरण।
जैसे-जैसे
तुम जागते
जाते हो, वैसे-वैसे
जीवन की सूक्ष्मतम
तरंगों का बोध
होता है।
परमात्मा जीवन
की आत्यंतिक
तरंग है, आखिरी
सूक्ष्म तरंग
है। तुम्हारी
जब जागरण की
आखिरी गहराई
आती है, तब
परमात्मा का
शिखर
तुम्हारे
सामने प्रगट होता
है।
उस घड़ी
में न तो तुम
बचते, न
परमात्मा
बचता। उस घड़ी
में तो एक
आह्लाद बचता
है--असीम!
अपरिभाषित!
आज
मिलन-त्यौहार मनाये कौन
वहां?
बरस
रही रसधार कि
गाये कौन वहां?
वीणा
को स्वरकार
बजाये कौन
वहां?
बरस
रही रसधार कि
गाये कौन वहां?
अमृत
बरसता है।
इतना कहने को
भी कोई नहीं
बचता कि अमृत
बरस रहा है--कि
गाये कौन वहां? बरस रही
रसधार।
वीणा
बजती है, बजानेवाला
भी नहीं रह
जाता।
वीणा
को स्वरकार
बजाये कौन
वहां?
इसको
हिंदुओं ने
अनाहत नाद कहा
है--अपने से हो रहा
नाद: ओंकार।
इसको
महावीर ने
स्वभाव कहा
है--अपने से जो
हो रहा। आनंद
हमारा स्वभाव
है। हम
सच्चिदानंद-रूप
हैं। लेकिन इस
रूप को जानने
के लिए जो आंख
चाहिए ध्यान
की, वह हमारे
पास नहीं है।
या है भी, तो
बंद पड़ी है।
सौ-सौ
बार चिताओं
ने मरघट पर
मेरी सेज
बिछाई
सौ-सौ
बार धूल ने
मेरे गीतों की
आवाज चुराई
लाखों
बार कफन ने
रोकर मेरा तन
शृंगार किया
पर
एक बार
भी अब तक मेरी
जग में मौत
नहीं हो पाई
मैं
जीवन हूं, मैं यौवन
हूं
जन्म-मरण
है मेरी क्रीड़ा
इधर
विरह-सा बिछुड़
रहा हूं
उधर
मिलन-सा आ
मिलता हूं।
जिसे
तुमने अब तक
समझा है तुम
हो, वे तो
केवल सतह पर
उठी तरंगें
हैं। और जो
तुम हो उसका
तुम्हें पता
नहीं है। उसका
न तो कभी जन्म
हुआ और न कभी
मृत्यु हुई।
उस
शाश्वत को
जगाओ।
उस
शाश्वत में जागो।
उस
शाश्वत को
बिना पाए विदा
मत हो जाना।
जीवन उसको
पाने का अवसर
है। जिसने
ध्यान का धन
पा लिया, उसने
जीवन में कुछ
कमा लिया। और
जो और सब कमाने
में लगा रहा
और ध्यान के
धन को न कमा
पाया, उसने
जीवन व्यर्थ
गंवा दिया।
इस
अवसर से चूकना
मत। पहले बहुत
बार चूके हो, इसलिए चूकने
की संभावना
बहुत है।
क्योंकि चूकने
की आदत बन गई
है। लेकिन
कितने ही बार
चूके होओ, पा
लेना संभव है।
क्योंकि जिसे
पाना है, वह
तुम्हारा
स्वभाव है। वह
तुम्हारे
भीतर मौजूद ही
है। जरा पर्दे
हटाना। जरा
घूंघट हटाना।
घूंघट
के पट खोल!
घूंघट
बहुत तलों पर
है। संबंधों
का घूंघट, फिर शरीर का
घूंघट, फिर
मन का घूंघट।
इन तीन पर्तों
को तुम तोड़ दो तो
तुम्हारी
अपने से पहचान
हो जाए।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।
आत्मा
आत्मा में रम
जाती है फिर।
यही परम ध्यान
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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