जिन सूत्र (भाग--2)
प्रश्न
सार:
1—राग
और द्वेष के दो
पहिये से संसार
निर्मित होता
है। क्या मोक्ष
के भी ऐसे ही दो
पहिये होते है?
2—गुरु
मृत्यु है या
ब्रह्म है,
या एक साथ दोनों
है?
3—सूली
ऊपर सेज पिया की,
किस विद्य मिलना
होय?
4—आपका
स्मरण मुझे प्रगाढ़
रसमयता और
आनंद से भर देता
है। मेरी चाल में
आपकी धुन के धूंधर बजते
है, तो अब मैं
ध्यान को कहां
रखूं?
5—वहां
तक आया हूं,
जहां लगता है कि
अब कुछ हो सकता
है।
पहला
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
राग और द्वेष
के दो पहियों
से संसार
निर्मित होता
है। क्या इनके
ठीक विपरीत कोई
दो पहिये और
हैं, जिनसे
मोक्ष
निर्मित होता
है? कृपा
करके समझाएं।
पहली
बात: जहां दो
हैं, वहां
संसार है।
जहां एक बचा, वहां मोक्ष
प्रारंभ हुआ।
द्वैत
संसार है, अद्वैत
मोक्ष है।
इसलिए
संसार के तो
दो पहिये हैं, मोक्ष के
नहीं।
दूसरी
बात: संसार
गति है, प्रवाह
है, खोज है,
तलाश है, मार्ग है, इसलिए दो
पहियों की
जरूरत है। दो
पहियों के बिना
यह गाड़ी चलेगी
नहीं।
मोक्ष, कहीं जाना
नहीं है, मोक्ष
तो पहुंच गए।
मोक्ष तो वहां
है, जहां
सब जाना
समाप्त हुआ।
गाड़ी चलती रहे
तो मोक्ष नहीं
है। जहां रुक
गया सब, ठहर
गया सब, परम
विश्राम आ गया,
जिसके पार
कोई लक्ष्य न
बचा, वहीं
मोक्ष है।
वासना
जहां शून्य
होती है, कामना
जहां विराम
लेती है, लक्ष्य
जहां संपूर्ण
हो गए। सिद्धि
जहां श्वास-श्वास
में है--फूल
खिल गया। अब
और खिलने
को कुछ बचा
नहीं।
पूर्णता
उतरी। अब कुछ
और उतरने को
बचा नहीं।
इसलिए
दो पहियों का
तो सवाल ही
नहीं है, एक
पहिये की भी
जरूरत नहीं
है--पहिये की
जरूरत नहीं
है।
तो
पहली तो बात; जहां तक दो
हैं, वहां
तक संसार है।
जहां एक है, वहां मोक्ष
है।
दूसरी
बात: जहां तक
यात्रा है, वहां तक
संसार है।
जहां यात्रा
समाप्त हुई, वहीं मोक्ष
है।
तो दो
पहियों की तो
जरूरत है ही
नहीं, एक
पहिये की भी
जरूरत नहीं
है। और एक
पहिया हो भी, तो व्यर्थ
होगा।
तीसरी
बात: पूछा, "राग-द्वेष
के दो पहियों
से संसार
निर्मित होता
है।'--सच
है। क्योंकि
राग एक तरफ
झुकाता, द्वेष
दूसरी तरफ
झुकाता।
राग-द्वेष के
झंझावात में
हमारा चित्त
कंपता है।
आसक्ति और
विरक्ति, राग
और द्वेष, शत्रु
और मित्र, अपना
और पराया, हितकर
और अहितकर, इन दोनों के
बीच हम कंपते
हैं। जब दोनों
के बीच हम थिर
हो जाते हैं
और कंपन
समाप्त हो
जाता है, न
राग बुलाता, न द्वेष
बुलाता; जहां
हम
निर्द्वंद्व
होकर, निष्कंप
होकर बीच में
समाधिस्थ हो
जाते हैं; जहां
मध्य-बिंदु
मिल जाता है, वहां मोक्ष
है।
राग और
द्वेष के
विपरीत मोक्ष
में कुछ भी
नहीं है। राग
और द्वेष से
मुक्ति, मोक्ष
है। मोक्ष
संसार का
विरोध नहीं है,
मोक्ष
संसार का अभाव
है। संसार
नहीं बचता, इतना ही कहो,
बस काफी है।
फिर जो शेष रह
जाता है, वही
मोक्ष है।
जैसे
एक आदमी बीमार
है; जब
बीमारियां
हटा लेते हैं
हम, तो जो
शेष रह जाता
है, वही
स्वास्थ्य
है।
स्वास्थ्य
बीमारियों के
विपरीत नहीं
है कुछ, बीमारियों
का समाप्त हो
जाना है। जहां
कोई बीमारी
नहीं बची, वहां
स्वास्थ्य
सहज रूप से
मुखरित होता
है।
संसार
बाधा की तरह
है, पत्थर है:
झरने को रोके
हुए। पत्थर हट
गया, झरना
बहा। झरना तो
मौजूद ही है।
मोक्ष तो मौजूद
ही है
तुम्हारे
भीतर। संसार से
तुम्हारी पकड़
छूटी कि जो
सदा से मिला
हुआ था, उसका
पता चलता है।
जो मिला ही
हुआ था, उसकी
प्रत्यभिज्ञा
होती है, उसकी
पहचान होती
है।
मोक्ष
कुछ ऐसा नहीं
है, जिसे
तुमने खो दिया
हो। मोक्ष
स्वभाव है।
खोने का कोई
उपाय ही नहीं।
कहीं भूलकर, चूककर रख आये हो, ऐसा कोई
उपाय नहीं है।
तुम हो मोक्ष।
इसलिए
इनके विपरीत
कोई दो पहिये
और हैं? ऐसा
पूछना ही ठीक
नहीं है।
संसार मोक्ष
के विपरीत
नहीं है, इसलिए
संन्यासी
संसार का
विरोधी नहीं
है। जो संन्यासी
संसार का
विरोधी है, वह अभी
संसार में है।
उसने राग को
द्वेष से बदल
लिया। कुछ लोग
धन को राग
करते थे, वह
द्वेष करने
लगा। कुछ लोग
देह को राग
करते थे, वह
द्वेष करने
लगा।
सांसारिक
जिनको वह कहता
है, जो-जो
करते थे, उससे
उलटा करने
लगा।
संन्यासी
अगर संसार का
विरोधी है तो
मैं तुमसे
कहता हूं, संसार में
है। सिर के बल
खड़ा होगा, मगर
खड़ा बाजार में
है। हिमालय पर
बैठा हो, लेकिन
खड़ा बाजार में
है। भाग जाए
सब छोड़कर, लेकिन
जिससे भाग रहा
है, उससे
छुटकारा नहीं
हुआ है। भीतर
मन में उसकी आकांक्षा
शेष है। उसी
आकांक्षा को
दबाने के लिए
तो विपरीत कर
रहा है।
संन्यासी
उसे कहता हूं
मैं, जो संसार
का विरोधी
नहीं है, जो
संसार में
जागा; जिसने
संसार को
भर-नजर देखा।
महावीर
कहते हैं, जो सुपरिचित
हुआ; जिसने
संसार की
व्यर्थता
समझी।
संसार
के विपरीत
किसी चीज को पकड़ने का
सवाल ही नहीं
है, संसार की
व्यर्थता
स्पष्ट हो जाए
तो जो शेष रह
जाता है--इस कूड़े-कर्कट
के बह जाने के
बाद, जो
जलधार भीतर
शेष रह जाती
है, वही
मोक्ष है।
अगर
मोक्ष कहीं
संसार से अलग
है तो फिर
भागना पड़े
गुफाओं में, कंदराओं में
खोजना पड़े, तपश्चर्या
में आंखें बंद
करके कहीं दूर,
जहां कोई न
हो, वहां
जाना पड़े।
लेकिन मोक्ष
यहीं है।
मोक्ष तुम्हारा
स्वभाव है।
समझ आ
गई तो मुक्ति
आ गई। नासमझी
रही तो बंधन
रहा। नासमझी
अर्थात बंधन।
समझदारी
अर्थात
मोक्ष।
ज्ञान
मुक्ति है।
तो
संसार को
छोड़ना नहीं, न संसार के
विपरीत
सोचना। वह
विपरीत की
भाषा ही भूल
जाओ। विरोध की
भाषा ही भूल
जाओ। शत्रुता
का रोग ही छोड़ो।
सिर्फ भर आंख
देख लेना है, ठीक से
पहचान लेना
है। जहां हो, वहीं जागकर
देख लेना है।
उस
जागरण में जो
भी व्यर्थ है, वह अपने से
छूट जाता है, गिर जाता
है। एक अंधेरे
कमरे में तुम
बैठे हो, हीरे
भी पड़े हैं और कूड़ा-कर्कट
भी पड़ा है, फिर
कोई दीया लेकर
भीतर आ गया।
जब तक दीया न
था तब तक पता न
था, कूड़ा-कर्कट क्या
है, हीरे
क्या हैं? हो
सकता है, अंधेरे
में तुमने कूड़े-कर्कट
की तो गठरी
बांध ली हो और
हीरों का खयाल
ही न आया हो।
फिर कोई दीया
लेकर आ गया, आंख मिली, दृष्टि खुली,
दर्शन हुआ।
तुम हंसोगे, अगर तुमने
अपनी गठरी में
कूड़ा-कर्कट
बांध रखा था।
जल्दी
गांठ खोलोगे।
जल्दी
गठरी खाली कर
लोगे। जल्दी से हीरे
भर लोगे।
इसमें कुछ
त्याग थोड़े ही
होगा!
इसमें
कुछ अभ्यास
थोड़े ही होगा!
इसमें कोई श्रमसाध्य
प्रक्रिया
थोड़े ही होगी!
बस
दीये का आना, आंख का
खुलना, दिखाई
पड़ जाना सार
का असार से
भिन्न--पर्याप्त
है। मोक्ष है
बोध।
"कहते
हैं आप, राग
और द्वेष के
दो पहियों से
संसार
निर्मित होता
है...।' निश्चित
ही। संसार दो
के बिना
निर्मित नहीं
होता। संसार
एक से निर्मित
ही नहीं हो
सकता। एक
पहिये से कहीं
कोई गाड़ी चली
है?
यह
गाड़ी शब्द बड़ा
अदभुत है। इस
पर तुमने शायद
कभी सोचा न
हो। गाड़ी का
मतलब होता है, जो गड़ी
है। मगर हम
चलती हुई चीज
को गाड़ी कहते
हैं। गाड़ी तो
चल ही नहीं
सकती। जो गड़ी
है, वह
चलेगी कैसे? वृक्ष चलते
हैं? गड़े
हैं। चलती चीज
को हम गाड़ी
क्यों कहते
हैं? बड़ा
मधुर व्यंग्य
है उस शब्द
में।
संसार
चलता तो है, पहुंचता
कहीं नहीं।
लगता है चलता
है; ऐसे गड़ा
है। ऐसे सपने
में ही चलना
होता है, यथार्थ
में कोई चलना
नहीं होता।
भाग-दौड़, आपाधापी!
जब आंख खुलती
है, तुम
पाते हो वहीं
के वहीं खड़े
हो, अपनी
खाट पर पड़े
हो। सब सपने
में दौड़-धूप
की। बड़े आकाश
छान डाले। जब
सुबह आंख खुली
तो पाया, अपने
बिस्तर में
पड़े हैं।
तो संसार
गाड़ी है। ऐसे
तो गड़ा
है। यथार्थ
में तो गड़ा
है, स्वप्न
में चल रहा है,
कल्पना में
चल रहा है, कामना
में चल रहा है,
विचार में
चल रहा है, मन
में चल रहा
है--ऐसे गड़ा
है। गाड़ी बस
चलती मालूम
पड़ती है।
कभी
छोटे-छोटे
बच्चे, जो
साइकिल चलाना
नहीं जानते, साइकिल पर
सवार हो जाते
हैं--खड़ी
साइकिल पर, स्टैंड पर
खड़ी साइकिल
पर। जोर से
पैडल मारते हैं
और बड़े
प्रफुल्लित
होते हैं
क्योंकि जब चाक
चलने लगता
है--वह गाड़ी
है। गड़ी
है, मगर
बच्चा बड़ा
प्रसन्न हो
रहा है। जितने
जोर से पैडल
मारता है, जितने
जोर से चाक
घूमता
है--उसकी
किलकारी सुनो!
ऐसी ही
किलकारी दे
रहे हैं
राजनेता, धनिक,
पद-प्रतिष्ठा
को प्राप्त
लोग। साइकिल
पर चढ़े हैं।
साइकिल
स्टैंड पर खड़ी
है। स्टैंड
यानी गड़ी
है। मगर चाक
जोर से चल रहा
है। पैडल काफी
मार रहे हैं, पसीना-पसीना
हुए जा रहे
हैं। एक-दूसरे
से प्रतिस्पर्धा
भी कर रहे हैं,
कि किसकी
गाड़ी तेज चल
रही है। कौन
आगे जा रहा है! किसको
पीछे छोड़ दिया
है!
ये सब किलकारियां
एक दिन व्यर्थ
सिद्ध होती
हैं, जब होश
आता है कि हम
जिसको चला रहे
हैं वह गड़ा
है।
संसार
चलता हुआ
मालूम पड़ता है
और चलता नहीं।
यहां कोई
विकास नहीं
है। गति तो
बहुत है, प्रगति
बिलकुल नहीं
है। चलना तो
बहुत है, पहुंचना
बिलकुल नहीं
है। यहां तो
आश्चर्य है कि
तुम बहुत चलकर
अगर अपनी जगह
पर भी खड़े रह
जाओ तो भी
बहुत चमत्कार
है। डर तो यह
है कि तुम जहां
अपने को पाये
थे, उससे
भी पिछड़
जाओगे। दौड़-दौड़कर
अपनी जगह पर
भी बने रहे तो
काफी है।
संसार
के लिए तो दो
चाक चाहिए।
झूठी ही सही
गाड़ी, माया
की ही सही, लेकिन
है तो गाड़ी।
दो चाक चाहिए।
इसलिए जीवन में
हम हर जगह जरा
खोजबीन
करेंगे तो हम
पाएंगे, हर
चाक के पीछे
दूसरा चाक
छिपा है।
सफलता के पीछे
विफलता छिपी
है। सुख के
पीछे दुख छिपा
है। दिन के
पीछे रात छिपी
है। पुण्य के
पीछे पाप छिपा
है। हंसी के पीछे
रुदन छिपा है।
यहां तुम एक
चीज तो पाओगे
ही नहीं। यहां
सब चीजें जोड़ी
से हैं।
संसार
जोड़ी से जीता
है। मोक्ष का
अर्थ है, यह
दो का विभाजन
गया। यह दो
में खंडित
होने की प्रक्रिया
समाप्त हुई।
यह जो लौ
बायें कंपती थी,
दायें
कंपती थी, अब
कंपती नहीं, अब मध्य में
खड़ी हो गई। अब
इसने कंपन
छोड़ा, चिंतन
छोड़ा। विचार
की तरंगें अब
नहीं आतीं।
अब
निर्विचार।
निर्विचार
का आकाश मोक्ष
है।
संसार
के विरोध में
नहीं है मोक्ष, संसार का
अभाव है
मोक्ष। इसे
तुम जितने
गहरे में
बांधकर रख सको,
रख लेना। इस
पर गांठ बांध
लेना।
क्योंकि अगर
यह तुम्हें
खयाल न रहा तो
बहुत डर है कि
तुम्हारा
संन्यास भी
संसार का
विरोध बन जाए।
विरोध
में उतर जाना
बड़ा आसान है।
मन की सारी राजनीति
द्वंद्व की
है। इसलिए
विरोध तो
बिलकुल सुगम
है, सरल है, ढलान है।
जैसे पहाड़ से
कोई नीचे की
तरफ उतर रहा
है, धीमे
भी चलना चाहे
तो चल नहीं
सकता; दौड़ना
पड़ता है। ढलान
है। कोई शक्ति
नहीं लगती।
अगर कार पहाड़
के नीचे उतार
रहे हो तो
पेट्रोल की भी
जरूरत नहीं
पड़ती। बंद कर
दो इंजन, गाड़ी
अपने आप
ढलकती-ढलकती
चली आती है।
मन की
वृत्ति
द्वंद्व की है, संघर्ष की
है। पहले लड़
रहे थे धन के
लिए, फिर
लड़ने लगे
ध्यान के लिए।
मगर लड़ाई जारी
रही। पहले
लड़ते थे जीवन
के लिए, फिर
लड़ने लगे
मोक्ष के लिए।
लड़ाई जारी
रही। रोग अपनी
जगह रहा। नाम
बदला, लेबल
बदला, लेकिन
भीतर की
विषय-वस्तु
वही की वही
रही।
तो इसे
स्मरण रखना।
कम से कम मेरे
संन्यासी--ठीक
से स्मरण रखना
कि संसार का
विरोध नहीं है
संन्यास, संसार
की समझ है
संन्यास। और
समझ के लिए
भागना उचित
नहीं है।
क्योंकि
जिससे भागोगे
उसे समझोगे
कैसे? जिसे
समझना हो, वहीं
खड़े रहना।
जिसे समझना हो,
उसका ठीक से
अवलोकन करना।
ठीक से
निरीक्षण करना,
ठीक से
साक्षी बनना।
एक-एक पर्दा
उठाकर देख लेना।
सब घूंघट
उघाड़-उघाड़कर
देख लेना। कुछ
भी छुपा न रह
जाए। उसी समझ
में मोक्ष का
आविर्भाव
होगा।
जैसे-जैसे
प्रज्ञा बढ़ेगी, समझ बढ़ेगी
वैसे-वैसे तुम
पाओगे, तुम
मुक्त होने
लगे।
आखिरी
बात: मोक्ष
परलोक में
नहीं है। वह
भी द्वंद्व
है--इस लोक का, उस लोक का; पृथ्वी का, आकाश का।
मोक्ष परलोक
में नहीं है।
मोक्ष का लोकों
से कोई संबंध
नहीं है।
मोक्ष
है तुम्हारी
आत्मा की दशा।
मोक्ष का स्थान-समय
से कोई संबंध
नहीं है।
मोक्ष का
संबंध है, तुम्हारा
अपने में लीन
हो जाना। अपने
में डूब जाना।
अपने से भरपूर
होकर अपने रस
में मग्न हो
जाना।
यह अभी
घट सकता है।
और अगर अभी
नहीं घट सकता
तो कभी नहीं
घट सकता। और
जब भी घटेगा, अभी घटेगा, वर्तमान के
क्षण में
घटेगा। इसलिए
महावीर कहते
हैं, जो
महर्षि हैं, जो मनीषी
हैं, वे
बीत गए अतीत
की चिंता नहीं
करते। अनागत--न
आए हुए भविष्य
का विचार नहीं
करते। वे शुद्ध
वर्तमान में
जीते हैं। वे
वर्तमान को
देखते हैं, वर्तमान का पश्ययन
करते हैं, वर्तमान
का दर्शन करते
हैं।
एक
पहिया है
संसार का अतीत
में, एक पहिया
है भविष्य
में। यह संसार
की गाड़ी बड़ी
अदभुत है, बड़ी
विचित्र है।
एक पहिया है
वहां, जो
अब है नहीं।
और एक पहिया
है वहां, जो
अभी हुआ नहीं।
ऐसे दो शून्यों
में संसार चल
रहा है। और जो
है, वह अभी
इन दोनों के
बीच है; वह
मध्य में है।
बुद्ध
ने तो अपने
मार्ग को मज्झिम
निकाय कहा।
सिर्फ इसीलिए
कहा कि जो
अतियों से बच
गया और मध्य
में खड़ा हो
गया, वही
उपलब्ध हो
जाता है।
दूसरा
प्रश्न:
कभी
आप कहते हैं, गुरु
साक्षात
ब्रह्म है, और कभी कहते
हैं, गुरु
साक्षात
मृत्यु है।
क्या वह एक
साथ, एक
समय में दोनों
है? कृपा
करके कहें।
गुरु
मृत्यु है, इसीलिए गुरु
ब्रह्म है।
उसमें मृत्यु
घट सकती है, इसीलिए महाजीवन
का सूत्रपात
हो सकता है।
पुराने
हिंदू
शास्त्र कहते
हैं, "आचार्यो मृत्युः।' आचार्य
मृत्यु है।
गुरु मृत्यु
है। क्या अर्थ
है उनका? क्या
प्रयोजन है?
शिष्य
जब गुरु के
पास आता है तो
जैसा है, वैसा
तो उसे मरना
होगा। और जैसा
होना चाहिए, वैसा होना
होगा। जब
शिष्य गुरु के
पास आता है तो
बीमारियों का
जोड़ है, उपाधियों
का जोड़ है।
गुरु की औषधि
बीमारियों को
तो मिटा देगी।
लेकिन जैसा
शिष्य आता है
अहंकार से
भरपूर, वह
अहंकार तो
सिर्फ
बीमारियों का
बंडल है। जब बीमारियां
हटती हैं, वह
अहंकार भी मर
जाता है। वह
उनके बिना जी
भी नहीं सकता।
फिर जो
शेष बचता है, वह तो कुछ
ऐसा है, जिसका
शिष्य को पता
ही नहीं था।
वह तो मरने के बाद
ही पता चलता
है। अहंकार की
मृत्यु के बाद
ही आत्मा का
बोध होता है।
शायद
शिष्य आता है
अपने प्रयोजन
से। वह शायद महाजीवन
की तलाश में
आता है। वह
शायद सोचकर
आता भी नहीं
कि गुरु के
पास मरना होगा, मिटना होगा।
धीरे-धीरे, इंच-इंच
गलना होगा, बिखरना
होगा। वह तो
किसी लोभ से
आया था। वह तो शायद
संसार की
वासना को ही
और थोड़ी गति
मिल जाए, और
थोड़ी शक्ति
मिल जाए, कामना
के जगत में और
थोड़ा बलशाली
हो जाऊं, जीवन
के संघर्ष में
और थोड़ा संकल्प
मिल जाए इसलिए
आया था।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, संकल्प-शक्ति
की कमी
है--विल-पावर।
आप कृपा करें,
संकल्प-शक्ति
दे दें।
मैं
पूछता हूं, संकल्प-शक्ति
का करोगे क्या?
संकल्प-शक्ति
का उपयोग
संघर्ष में है,
संसार में
है; मोक्ष
में तो कोई भी
नहीं। अशांत होना
हो तो
संकल्प-शक्ति
की जरूरत है।
शांत होना हो
तो विसर्जित
करो। जो
थोड़ी-बहुत है,
वह भी
विसर्जित
करो। उसे भी
डाल आओ गंगा
में। उससे भी
छुटकारा लो।
संकल्प तो
बाधा बनेगा, समर्पण
मार्ग है।
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे कहते
हैं, कुछ
आशीर्वाद
दें। जीवन में
बड़ी निराशा
है। आशा का
दीया जला दें।
मैं उनसे कहता
हूं, तुम
गलत जगह आ गए।
यहां तो आशा
के दीये बुझाए
जाते हैं।
सुना
कल महावीर का
सूत्र!--आशारहितता
को जो उपलब्ध
हो जाए...।
तुम
आते हो शायद
निराशा
मिटाने। तुम
आते हो यहां, कि थोड़ा बल
मिल जाए और
संसार में
जाकर फिर तुम जूझ
पड़ो।
शायद अभी हार
गए थे। शायद
अभी जीत नहीं
पाते थे। शायद
अभी बलशाली
लोगों से
संघर्ष हो रहा
था। तुम कमजोर
पड़ते थे। और
बल लेकर, और
शक्ति लेकर, और ऊर्जा
लेकर उतर जाओ
जीवन के युद्ध
में।
लेकिन
तब तुम गलत
जगह आ गए। अगर
तुम गुरु के
पास गए तो गलत
जगह गए। इसके
लिए तो
तुम्हें कोई
झूठा गुरु
चाहिए। इसलिए
झूठे गुरु
चलते हैं।
झूठे सिक्के
इसीलिए चलते
हैं क्योंकि
तुम जो चाहते
हो, उसे वे
पूरा करने का
आश्वासन देते
हैं। वह कभी
पूरा होता है
या नहीं, यह
सवाल नहीं है।
आश्वासन काफी
है; उसमें
ही तुम लुटते
हो।
इसे
ध्यान रखना, यह सदगुरु
की पहचान
है--जो तुमसे
आशा छीन ले; जो तुमसे
संकल्प छीन
ले। यह सदगुरु
की पहचान
है--जो
तुम्हें मिटा
दे। तुम भला
किसी कारण से
उसके पास आए
हो, वह
तुम्हारी
चिंता ही न
करे। उसके लिए
तो आत्यंतिक
बात ही
महत्वपूर्ण
है। वह तो
तुम्हारे भीतर
मोक्ष को लाना
चाहता है।
और
स्वभावतः तुम
कैसे मोक्ष की
कामना कर सकते
हो? संसार को
ही तुमने जाना
है। वहां भी
सफलता नहीं
जानी। किसने
जानी! सिकंदर
भी असफल होता
है। संसार में
असफलता ही हाथ
लगती है।
तो तुम
वही सफलता
पाने के लिए आ
गए हो अगर, तो केवल असदगुरु
से ही
तुम्हारा मेल
हो पाएगा, जहां
गंडात्ताबीज
मिलता हो, मदारीगिरी से भभूत बांटी
जाती हो, जहां
तुम्हें इस
बात का भरोसा
मिलता हो कि
ठीक, यहां
कुछ चमत्कार
हो सकता है; जहां
तुम्हारा
मरता-बुझता
अहंकार
प्रज्वलित हो
उठे; जहां
थोड़ा कोई
तुम्हारी
बुझती ज्योति
को उकसा दे।
मगर वह
ज्योति संसार
की है। वही तो
नर्क की
ज्योति है।
वही तो अंधकार
है। उसी ने तो
तुम्हें पीड़ा
दी है, सताया
है। उसी से
बिंधे तो तुम
पड़े हो। वही
तो तुम्हारी
छाती में लगा
विषाक्त तीर
है। सदगुरु
उसे खींचेगा।
उसके खींचने
में ही तुम
मरोगे। सदगुरु
तो मृत्यु है
तुम्हारी; जैसे
तुम हो।
यद्यपि उसी
मृत्यु के बाद
तुम्हें पहली
दफा उसका
दर्शन होता है,
जो वस्तुतः
तुम हो।
धोखा
मरता है, सत्य
तो कभी मरता
नहीं। असत्य
मरता है, सत्य
की तो कोई
मृत्यु नहीं।
आग में
हम सोने को
डाल देते हैं, कूड़ा-कर्कट जल
जाता है, सोना
कुंदन होकर
बाहर आ जाता
है।
गुरु तो
आग है, अग्नि
है। और इसीलिए
गुरु ब्रह्म
है। क्योंकि
वहीं से तुम
मिटते हो। और
जहां तुमने
मिटना सीख
लिया, वहीं
तुमने ब्रह्म
होना सीख
लिया।
गुरु
सूली है।
लेकिन उसी
सूली पर लटककर
तुम्हें पहली
दफा पता चलता
है कि जो सूली
पर मर गया वह
मैं नहीं था।
इधर सूली लगी, उधर सिंहासन
मिला। इस तरफ
सूली है, उस
तरफ सिंहासन
है। तुम्हें
सूली भर दिखाई
पड़ती है।
तुमने
जीसस के चित्र
देखे होंगे; सूली को
अपने कंधे पर
ढोते हुए, गोलगोथा की पहाड़ी पर
वे जा रहे
हैं। सूली
ठोंक दी गई जमीन
में, उन्हें
सूली पर लटका
दिया गया है।
लेकिन ये अधूरे
चित्र हैं। ये
चित्र जीसस की
नजर से नहीं
बनाए गए। ये
जिन लोगों ने
देखा होगा गोलगोथा
की सड़क पर
जीसस को सूली
ले जाते, उनकी
स्मृतियां
हैं। यह
चित्रकार ने
बाहर से देखकर
बनाया है।
जीसस से तो
पूछो! जीसस
सूली ढो रहे
हैं? नहीं,
जीसस तो
अपने सिंहासन
की तैयारी कर
रहे हैं। यह
सूली तो
सिंहासन की
सीढ़ी बनेगी।
इस तरफ
सूली है, उस
तरफ सिंहासन
है। दृश्य में
सूली है, अदृश्य
में सिंहासन
है। रूप में
सूली है, अरूप
में सिंहासन
है। आकार में
सूली है, आकार
की सूली है, निराकार में
सिंहासन है, निराकार का
सिंहासन है।
तो
जिन्होंने
जीसस को केवल
सूली ढोते
देखा वे जीसस
को देख ही
नहीं पाए। जिस
दिन तुम्हें
जीसस की सूली
में सिंहासन
दिखाई पड़ जाए
उस दिन तुम
अर्थ समझोगे।
उस दिन
तुम्हें पहली
दफा सूली सूली
न लगेगी। सूली
परम कृतज्ञता
का कारण बन
जाएगी।
गुरु
के चरणों में
धन्यवाद सदा
के लिए रहता
है क्योंकि
यही है, जिसने
मिटने का बोध
दिया। न मिटते,
न हो सकते।
यही है, जिसने
मिटाया।
मिटाया तो
बनने की
शुरुआत हुई।
झाड़ी धूल, तो
दर्पण निखरा।
लेकिन
तुम जिसे
जिंदगी कहते
हो, गुरु उसे
जिंदगी नहीं
कहता। और तुम
जिसे मृत्यु
कहते हो, गुरु
उसे मृत्यु
नहीं कहता।
अलग भाषाएं
हैं, अलग
आयाम हैं। दो
लोक बड़े
भिन्न-भिन्न
हैं। गुरु कुछ
और भाषा बोलता
है। वह
तुम्हारे लिए
अटपटी है।
मध्ययुग
में भारत में
उस भाषा का
नाम ही अलग हो
गया--सधुक्कड़ी; उलट
बांसुरी।
साधुओं की
भाषा। उल्टी
भाषा। जहां
मृत्यु जीवन
का पर्याय है।
और जहां सूली
सिंहासन का
पर्याय है।
तुम्हारे भाषाकोश
में कुछ और
लिखा है। गुरु
के पास आकर
तुम्हें नई
भाषा सीखनी
होगी। कष्टपूर्ण
है। क्योंकि
तुमने अपनी
भाषा को खूब
कंठस्थ कर
लिया है। वह
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
समा गई है।
तुम जब
मुझे सुनते हो, तब तुम मुझे
थोड़े ही सुनते
हो। तुम तत्क्षण
उसका भाषांतर
करते हो। तुम
उसका अनुवाद करते
हो। इधर मैं
कुछ कहता हूं,
तुम
तत्क्षण अपनी
भाषा में उसका
अनुवाद कर लेते
हो, भाषांतर
कर लेते हो।
जब तुम यह छोड़ोगे,
तभी तुम
मेरे पास
आओगे।
तुम्हारी
भाषा मेरे और
तुम्हारे बीच
बाधा है।
कल
मैं एक गीत
पढ़ता था:
जिंदगी
से उन्स
है, हुस्न से
लगाव है
धड़कनों
में आज भी
इश्क का अलाव
है
दिल
अभी बुझा नहीं
--इसे
लोग दिल का न
बुझना कहते
हैं।
जिंदगी
से उन्स
है
--राग
है जीवन से।
हुस्न
से लगाव है
--सौंदर्य
के लिए अभी तड़फ
है, आकांक्षा
है।
धड़कनों
में आज भी
इश्क का अलाव
है।
और अभी
भी धड़कनों
में राग की, आसक्ति की
आंच है।
दिल
अभी बुझा नहीं
अगर
तुम मुझसे
पूछो तो
इन्हीं
कारणों से
तुम्हारा दिल
जल नहीं पा
रहा है। बुझने
की तो बात ही
दूर है, जला
ही नहीं।
इन्हीं के
कारण तो दिल
पर राख पड़ गई
है।
रंग
भर रहा हूं
मैं
खाक-ए-हयात
में
आज
भी हूं मुनहमिक
फिक्रे-कायनात
में
गम
अभी लुटा नहीं
हर्फे-हक
अजीज है, जुल्म
नागवार है
अहदे-नौ
से आज भी अहद अस्तवार
है
मैं
अभी मरा नहीं
तुम
जिसे जिंदगी
कहते हो...तुम
जब कहते हो, "मैं अभी मरा
नहीं', तो
तुम बड़ी अजीब
बातें कह रहे
हो। अगर
तुम्हारे
स्वप्न में
अभी भी प्राण
अटके हैं तो
तुम कहते हो,
"मैं अभी
मरा नहीं। दिल
अभी बुझा
नहीं।'
अगर
कामना अभी भी
तुम्हें तड़फाती
है और वासना
के दूर के
सुहावने ढोल
तुम्हें अभी
भी बुलाते हैं
तो तुम कहते
हो, दिल अभी
बुझा नहीं।
जहां
कुछ भी नहीं
है, वहां तुम
चित्त से रंग
भरते हो। जहां
कुछ भी नहीं
है, जहां
कोरा पर्दा है,
वहां तुम
कल्पनाओं, वासनाओं,
तृष्णाओं
के बड़े रंगीले
इंद्रधनुष
बनाते हो। और
कहते हो:
मैं
अभी मरा नहीं
हर्फे-हक
अजीज है, जुल्म
नागवार है
अहदे-नौ
से आज भी अहद अस्तवार
है
मैं
अभी मरा नहीं
इसी
कारण तुम
मुर्दा हो।
तुम
जिसे जीवन
कहते हो, उसे
समझो मृत्यु।
तब मैं जिसे
मृत्यु कहता
हूं, तुम
तत्क्षण समझ
जाओगे उसका
अर्थ। तुम
जिसे जीवन
कहते हो, यह
बड़ी क्रमिक
मृत्यु है।
आहिस्ता-आहिस्ता
आत्मघात है।
यह रोज-रोज, धीमे-धीमे
मरते जाना है।
जिस
दिन तुम यह
समझोगे कि यह
मृत्यु है, उस दिन पहली
बार तुम्हें
किसी और जीवन
की पुकार
सुनाई
पड़ेगी--कोई और
आह्वान! उस
दिन तुम
धार्मिक हुए।
उस दिन
तुम्हारी आंखें
अदृश्य की तरफ
उठने लगीं। उस
दिन तुम्हारे
हाथ में
थोड़ा-सा सही, छोटा सही, पतला सही, धागा आया, जिसके सहारे
तुम सूरज तक
पहुंच सकोगे।
तो मैं
कहता हूं, गुरु मृत्यु
है, गुरु
ब्रह्म है; इन दोनों
में कोई विरोध
नहीं है।
गुरु
इसीलिए
ब्रह्म है
क्योंकि वह
मृत्यु है।
गुरु सूली है
क्योंकि वह
सिंहासन है।
एक द्वार से
मिटाता है, दूसरे द्वार
से बनाता है।
एक हाथ से
मिटाता चलता
है, दूसरे
से बनाता चलता
है। जो मिटने
को राजी हैं, उन्हें बनने
का सौभाग्य
मिल जाता है।
जो मिटने से
कतराते हैं, वे बनने से
वंचित रह जाते
हैं।
तीसरा
प्रश्न:
हे
भगवान!
सूली
ऊपर सेज पिया
की
किस
विध मिलना होय?
प्रीतम
आन मिलो,
नैना
नीर झरे, हृदय पीर
करे
प्रीतम
आन मिलो।
सूली
ऊपर सेज पिया
की--सदा से ऐसा
ही है। लेकिन
सूली हमें
दिखाई पड़ती है
क्योंकि हम
नासमझ हैं। क्योंकि
हमने अभी पिया
की भाषा नहीं
समझी; अभी
पिया के
प्रतीक हमारे
सामने खुले
नहीं। अभी
हमने अपनी ही
भाषा से पिया
को भी समझना
चाहा है।
इसलिए लगता
है--सूली ऊपर
सेज पिया की।
घबड़ाहट
होती है। कौन
नहीं घबड़ाएगा
मरने से? गुरु
के पास आकर डर
लगता है, बेचैनी
होती है।
एक
युवती परसों
सांझ मेरे पास
आयी। कैलिफोर्निया
से यात्रा
करके आयी है।
और आकर बोली
कि मैं तत्क्षण
वापिस लौट
जाना चाहती
हूं। क्योंकि
पहली तो बात
यही मेरी समझ
में नहीं आती
कि मैं आयी
क्यों? और
अब आ गई हूं तो
मुझे डर लगता
है कि जिंदा
अब मैं लौट न
पाऊंगी। वह
रोने लगी।
उसने कहा कि
मेरा बच्चा है,
मेरा पति
है। मुझे जाने
दें।
उसे
सूली दिखाई
पड़ी है। लेकिन
उस सूली में
सिंहासन की
थोड़ी-सी झलक
भी है, इसीलिए
खिंची चली आयी
है--अपने
बावजूद। उससे
मैंने कहा, अब लौटना
मुश्किल है।
अब तो कठिन
है। अब तो एक
ही उपाय है, मरकर ही
लौट। वह बहुत
घबड़ा गई।
क्योंकि अभी
नई है और उसे
मेरी भाषा से
अभी ठीक-ठीक
पहचान नहीं।
उसने कहा, मरकर
लौट? क्या
मतलब आपका? मैंने कहा, नई होकर
लौट। तब वह
थोड़ी आश्वस्त
हुई।
"सूली ऊपर
सेज पिया की!'
सूली
दिखाई पड़ती है; है तो सेज
ही। है तो
पिया का
आमंत्रण ही।
लेकिन जो मरने
को राजी हैं, वही उसके
मिलने के
हकदार हो पाते
हैं। इसलिए सूली
ऊपर सेज पिया
की।
अब डरो
मत। हिम्मत
करो। ऐसे भी
मिटोगे। मरना
तो होगा ही।
एक ही बात
सुनिश्चित है
इस जगत में, वह मृत्यु।
और सब तो
अनिश्चित है।
हो न हो; संयोग
की बात है। एक
बात
सुनिश्चित
है--मृत्यु।
बड़ा अदभुत
जीवन है। जीवन
ऐसा जिसमें
सिर्फ एक बात
निश्चित है, वह मरना।
बाकी सब
अनिश्चित है।
जो होगा ही, उसे
स्वेच्छा से
वरण करो। बस, इतना ही
फर्क है समाधि
में और मृत्यु
में। जो जबर्दस्ती
मारा जाता है,
तब मृत्यु।
मृत्यु हमारी
समाधि की
व्याख्या है
क्योंकि हम
राजी न थे
मरने को। उसी
व्याख्या के कारण
हम चूक गए एक
अभूतपूर्व
घटना से।
बहुत
बार तुम मरे
हो। लेकिन हर
बार झिझकते, लड़ते, झगड़ते,
संघर्ष
करते, मजबूरी
में, विवश,
असहाय मरे
हो। इसीलिए तो
हम कहते हैं, यमदूत आते हैं
और खींचते
हैं। कोई
यमदूत नहीं
आते। तुम इतने
जोर से पकड़ते
हो कि मौत
लगती है, खींच
रही है।
भैंसों पर
बैठकर आते हैं
यमदूत। बड़ी
डरावनी सूरत!
खींचते हैं, जबर्दस्ती
करते हैं।
बड़ी
गलत कहानियां
हैं। कोई
जबर्दस्ती
नहीं करता।
तुम जिंदगी को
जबर्दस्ती पकड़ते हो।
इसलिए जब
जिंदगी हाथ से
छूटने लगती है, तुम्हें
लगता है
जबर्दस्ती हो
रही है। तुम
अपने से छोड़कर
तो देखो। तुम
पाओगे, यमदूत
विदा हो गए।
तुम पाओगे, न कोई भैंसे
हैं, न
काली सूरतोंवाले
यमदूत हैं; तुम अचानक
पाओगे, परमात्मा
हाथ फैलाए खड़ा
है।
वही
परमात्मा
तुम्हारी
जिंदगी की
अतिशय पकड़ के
कारण यमदूत
मालूम होता
है। तुम अगर
राजी हो, तुम
अगर उसके साथ
चल पड़ने को
तत्पर हो, तुम
तैयार हो, इधर
मौत आयी और
तुम उठ खड़े
हुए; और
तुमने कहा, मैं तैयार
हूं। कहां
चलूं? किस
तरफ चलूं? कौन-सी
दिशा में
यात्रा करनी
है? मैं
तेरी
प्रतीक्षा ही
करता था।
तुम
अचानक पाओगे, यमदूत विदा
हो गए। वे
यमदूत
तुम्हारी
व्याख्या के
कारण थे।
तुमने एक
दुश्मनी बांध
रखी थी। जीवन
से लगाव बनाया
था और मृत्यु
से द्वेष किया
था। तुमने
द्वेष गिराया
मृत्यु से, जीवन से
लगाव छोड़ा, तत्क्षण तुम
पाओगे, जो
अंधेरे की तरह
आया था वह ज्योतिर्मय
हो उठा है। तब
तुम्हें
यमदूत न दिखाई
पड़ेंगे, शायद
कृष्ण की
बांसुरी
सुनाई पड़े, या बुद्ध की
परम शांत
प्रतिमा का
आविर्भाव हो,
या महावीर
का मौन
तुम्हें घेर
ले, या
नाचती हुई
गौरांग की
प्रतिमा उठे।
लेकिन एक बात
तय है, कुछ
घटेगा जो
अनूठा है, अदभुत
है, आश्चर्यजनक
है, अवाक
कर देनेवाला
है। कुछ दुखद
नहीं घटेगा, कुछ घटेगा
जो महासुख
जैसा है, स्वर्गीय
है। पर देखने
के, सोचने
के, व्याख्या
के ढंग बदलो।
"सूली
ऊपर सेज पिया
की, किस
विध मिलना
होय।'
और जब
एक दफा सूली
दिखाई पड़ती है
तो फिर सवाल उठता
है, किस विध
मिलना होय? क्योंकि वह
सूली अटकाती
मालूम पड़ती
है। सूली को
कैसे पार करें?
तुम
बिना मरे
परमात्मा में
लीन होना
चाहते हो। यह
नहीं हो सकता।
यह तो ऐसा हुआ
कि गंगा कहे, मैं बिना
उतरे सागर में
लीन होना
चाहती हूं। बूंद
कहे, मैं
बिना उतरे
सागर में, सागर
होना चाहती
हूं। यह तो नहीं
हो सकता। यह
तो जीवन के
गणित के
विपरीत है।
बूंद
को खोना होगा।
गंगा को उतरना
होगा।
सागर
मिलेगा, बेशर्त
मिलेगा, पूरा
मिलेगा, लेकिन
उतरे बिना कभी
नहीं मिला है,
कभी नहीं
मिलेगा।
सूली
को देखना बंद
करो तो दूसरा
सवाल उठना बंद
हो जाए--किस
विधि मिलना
होय?
मरना
ही विधि है।
सूली विधि है।
और सूली के
कारण तुम घबड़ाते
हो। तुम कहते
हो, किस विधि
मिलना होय? कोई रास्ता
बताएं कि सूली
से बचकर निकल
जाएं, कि
इधर-उधर से
निकल जाएं।
सूली यहां रही,
रही आए, हम
जरा पीछे के
दरवाजे से
निकल जाएं।
सूली
विधि है। अगर
तुम मुझसे
पूछो, मरना
विधि है।
"किस विध
मिलना होय?'
मरो! मिटो! खो
जाने को राजी
हो जाओ।
"प्रीतम
आन मिलो'--तुम
मिटे कि
प्रीतम मिले।
ऐसे
चीखने-पुकारने
से कुछ भी न
होगा। सूली से
डरते रहे और
कहते रहे, "प्रीतम आन
मिलो', तो
कुछ भी न
होगा।
"नैना
नीर झरे, हृदय पीर
करे
प्रीतम
आन मिलो।'
नहीं, इतना काफी
नहीं है। तुम
तुम ही हो। और
तुम तुम ही
रहकर आंसू भी
गिरा रहे हो।
वे आंसू भी
तुम्हारे
हैं। उन
आंसुओं में भी
तुम्हारी
भाषा है। उन
आंसुओं में भी
तुम्हारे
संस्कार हैं।
उन आंसुओं में
भी तुम्हारी
दृष्टि है।
तुम्हारी आंख
के आंसू हैं, तुम्हारी
दृष्टि से भरे
हैं। उन
आंसुओं में भी
तुम गौर से देखोगे
तो सूली ही
झलक रही है।
जैसी
तुम्हारी आंख
में झलक रही
है, तुम्हारे
आंसुओं में भी
सूली झलक रही
है। वे तुम्हारी
घबड़ाहट
के आंसू हैं।
वे तुम्हारी
बेचैनी के
आंसू हैं।
सूली
को स्वीकार
करो। तब एक
अभिनव अनुभव
होगा। आंसू
फिर भी शायद बहें, लेकिन
अब आनंद के
होंगे। और
आंसुओं में
सिंहासन की
झलक होगी। और
तब तुम्हें
कहना न पड़ेगा,
प्रीतम आन
मिलो। उस घड़ी
में मिलन हो
ही जाता है।
अन्यथा कभी
हुआ नहीं, अन्यथा
हो नहीं सकता।
इधर तुम मिटे
कि मिलन हुआ।
तुम ही बाधा
थे। और तो कुछ
रोक नहीं रहा
था। तुम ही
रोके हो।
"नैना
नीर झरे, हृदय पीर
करे'--अभी
तुम्हारी पीर
में भी, पीड़ा
में भी तुम
हो। तुम रोते
भी हो तो
तुम्हारे
आंसू कुंआरे
नहीं हैं। तुम
पीर से भी
भरते हो तो
तुम्हारी पीड़ा
में भी शिकायत
है। तुम्हारी
पीड़ा में भी दंश
है। तुम्हारी पीड?ा में
तुम्हारा
सारा संसार
छिपा है।
मंदिरों
में जाकर
देखो। लोग
प्रार्थनाएं
कर रहे हैं, मांगते क्या
हैं? आंसू
झर रहे हैं, मांगते क्या
हैं? मांगते
संसार की
चीजें हैं।
हाथ फैलाए हैं
परमात्मा की
तरफ, लेकिन
परमात्मा को
नहीं मांगते।
परमात्मा से
भी दो कौड़ी
की चीजें मांगकर
आ जाते हैं; कि दुकान
ठीक चले, कि
मुकदमा जीत
जाएं, कि
किसी स्त्री
से विवाह हो
जाए, कि
लड़के को नौकरी
लग जाए, कि
बीमारी दूर हो
जाए। तुम
मांगते क्या
हो?
तो
तुम्हारे
आंसू बड़े झूठे
थे। अब जो
आदमी मांग रहा
है कि मुझे
बीमारी है, वह दूर हो
जाए--वह रो रहा
है, लेकिन
उसके रोने में
परमात्मा की
प्रार्थना तो
नहीं है। उसके
आंसुओं में
बीमारी की, असहाय
अवस्था की
घोषणा तो है, लेकिन जीवन
का धन्यभाव
नहीं है, अहोभाव
नहीं है।
जरा
गौर करना, तुम्हारे
आंसू
तुम्हारे
हैं। तुम गलत
हो तो तुम्हारे
आंसू भी गलत
हैं। और
तुम्हारा
हृदय तुम्हारा
है। तुम गलत
हो तो
तुम्हारे
हृदय की पीर भी
गलत है।
जिसे
तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल
कहता है ऐ नादां
वही
शौक-ए-वफा की
इब्तदा मालूम
होती है
जिसे
तुम समझते हो
कि यह दिल के
दर्द की चरम
सीमा है, यह
केवल प्रेम की
शुरुआत है, चरम सीमा
नहीं।
जिसे
तू इंतहा-ए-दर्दे-दिल
कहता है ऐ नादां
ऐ
नासमझ! जिसे
तू कहता है कि
यह दिल के
दर्द की आखिरी
घड़ी आ गई--नैना
नीर झरे, हृदय पीर
करे--वही
शौक-ए-वफा की
इब्तदा मालूम
होती है। यह
केवल शुरुआत
है। यह प्रेम
की यात्रा का
पहला कदम है।
और परमात्मा
से मिलन तो
अंतिम कदम पर
होगा, पहले
कदम पर नहीं।
और
पहले कदम और
अंतिम कदम के
बीच यात्रा
क्या है?--तुम्हारे
मिटने की
यात्रा है।
तुम धीरे-धीरे
अपने को छोड़ते
जाओ। छलांग
में छोड़ सको
तो सौभाग्य।
कंजूस हो तो
धीरे-धीरे छोड़ो,
क्रमशः छोड़ो।
कृपण हो तो
इंच-इंच छोड़ो,
रत्ती-रत्ती
त्याग करो।
साहसी हो, एक
क्षण में छलांग
हो सकती है।
कह दो एक क्षण
में कि अब मैं
नहीं। उसी
क्षण में तुम
पाओगे, परमात्मा
उतर आया। इधर
तुमने जगह
खाली की, कि
वह आया।
तुम
भीतर के
सिंहासन पर अकड़कर
बैठे हो। वहीं
से तुम पूछताछ
कर रहे हो।
वहां से जगह
खाली नहीं
करते, बातें
करते हो।
अच्छी-अच्छी
बातें सीख ली
हैं--"प्रीतम
आन मिलो। नैना
नीर झरे, हृदय पीर
करे।'
काव्य
से कुछ भी न
होगा। कविता
काफी नहीं है।
सुंदरतम
कविताएं करो, लेकिन केवल
जीवन से
प्रमाण दोगे
तो ही कुछ होगा।
मिटने की
तैयारी
दिखाना शुरू
करो।
चौबीस
घंटे स्मरण
रखो कि
कैसे-कैसे ढंग
से तुम अपने
को भरते हो और
अहंकार को
सख्त करते हो, मजबूत करते
हो। जरा-जरा
सी बात में
अहंकार मजबूत
होता है।
जरा-जरा सी
बात में
अहंकार चोट खाता
है। चोट खाए
सांप की तरह
फुफकारता है।
इसे जागकर
देखो। इस सांप
से छुटकारा
पाओ। ऐसे जीयो, जैसे तुम
नहीं हो। ऐसे जीयो, जैसे
परमात्मा है
और तुम नहीं
हो। कोई गाली
दे तो समझो, उसी को दी
गई। तुम
परेशान मत
होओ। कोई
सम्मान करे तो
समझो, उसी
का किया गया।
तुम
गौरवान्वित
मत होओ। तुम अहंकार
से मत भरो।
कांटा चुभे
तो जानो, उसी
को चुभा।
फूल बरसें
तो जानो उसी
पर बरसे। तुम
अपने को हटा
ही लो। भूख हो
तो उसकी, प्यास
हो तो उसकी।
प्रसन्नता हो
तो उसकी, तृप्ति
हो तो उसकी।
तुम अपने को
हटा ही लो।
तब--केवल
तब ही उस महत
का पदार्पण
होता है।
चौथा
प्रश्न:
मिठास
की याद भी
मुंह को स्वाद
से भर देती
है। प्रकाश का
स्मरण अंतस को
आलोक और ऊष्मा
से भर देता
है। मैंने
सुना था कि "ध्यानमूलं
गुरुमूर्ति।' और मुझे
आपका स्मरण एक
प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और
तन्मयता से भर
जाता है। जब
मेरी चाल में
हर क्षण घूंघर
की तरह आपकी
धुन बजती है, जब मेरे
रोम-रोम में ध्यानमूर्ति,
प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति
आप बसते हैं
तो अब मैं
ध्यान को कहां
रखूं?
प्रेम
जग जाए तो
ध्यान की
चिंता छोड़ो।
प्रेम के
पीछे-पीछे
छाया की तरह
चला आएगा ध्यान।
छाया को रखने
के लिए कोई
स्थान तो नहीं
बनाना पड़ता।
तुम घर में
आते हो, तुम्हारे
लिए जगह
चाहिए।
तुम्हारी
छाया के लिए
तो कोई अलग से
जगह नहीं चाहनी
होती। छाया तो
कोई जगह घेरती
नहीं।
अगर
प्रेम आ गया
तो ध्यान छाया
की तरह आता है; उसके लिए
कोई अलग से
जगह बनाने की
जरूरत नहीं है।
अगर ध्यान आ
गया तो प्रेम
छाया की तरह
आता है। फिर
प्रेम को अलग
से बसाने की
कोई जरूरत नहीं।
एक साधै
सब सधै।
जिसने
पूछा है, उसके
लिए प्रेम ही
अनुकूल
पड़ेगा। ध्यान
का शास्त्र
बाधा बनेगा।
तुम
प्रार्थना की
चर्चा करो, पूजा की, अर्चना
की चर्चा करो,
धूप-दीये
जलाओ, नाचो,
गुनगुनाओ,
आह्लादित
होओ।
प्रार्थना
में उतरो।
तुम्हारा
मंदिर
प्रार्थना की
यात्रा से
आएगा।
जिसने
पूछा है, वह
इसे ठीक से
याद रखे।
ध्यान की
चिंता में मत पड़ो।
अक्सर ऐसा
होता है। मन
बड़ा लोभी है।
प्रेम सधता है
तो मन में यह
होता है कि
अरे! ध्यान
नहीं सध रहा है।
कहीं ऐसा तो न
होगा कि आखिर
में मैं चूक
जाऊं!
उधर वह
पीछे मंजु
बैठी है। उसको
भी फिकर लगी रहती
है कि ध्यान
नहीं सध रहा
भगवान! प्रेम
सध रहा है। तो घबड़ाहट
लगी रहती है
कि कहीं ऐसा
तो न होगा कि
ध्यान चूक जाए
तो कुछ चूक
जाए!
प्रेम
मिल गया तो
मिल गया।
ध्यान भी अपने
आप चला आएगा।
फूल खिल गए, सुगंध अपने
आप फैलेगी।
लेकिन इस
चिंता के कारण
बाधा पड़ सकती
है।
तो
अपनी वृत्ति
को ठीक से
पहचान लेना।
अगर प्रेम में
तन्मयता आती
हो, छोड़ दो
ध्यान। शब्द
ही भूल जाओ।
यह शब्द
तुम्हारे लिए
औषधि नहीं है।
यह औषधि किसी
और के लिए
होगी।
तुम्हारे रोग
की औषधि
तुम्हें मिल
गई, रामबाण
औषधि मिल गई।
अब तुम फिक्र छोड़ो।
तुमने
देखा! केमिस्ट
की दुकान पर
लाखों
औषधियां रखी
हैं। तुम अपना
प्रिस्क्रिप्शन
लेकर गए, तुम्हें
अपनी औषधि मिल
गई। डाली अपनी
झोली में, चल
पड़े। तुम इसकी
फिक्र नहीं
करते कि इन सब
औषधियों में
से और तो कुछ
ले लें। इतनी
दुकान पर औषधियां
रखी हैं, एक
ही लेकर चले? इतने से
कहीं काम हल
होगा!
तुम्हारी
बीमारी की
औषधि मिल गई, बात पूरी हो
गई।
तो अगर
प्रेम से रस
झर रहा हो तो
तुम भाषा
प्रेम की
सीखो। कंठ को
भरो उमंग से।
ध्यानी तो खोज
रहा है, इसलिए
ध्यानी थोड़ा
रूखा-सूखा
होगा ही। भक्त
ने तो पा ही
लिया। ध्यानी
अंत में कहेगा,
रसधार बही।
भक्त पहले दिन
से कहता है कि
रसधार बही।
भक्त के लिए
पहला दिन
आखिरी दिन
जैसा है। महावीर
भी कहते हैं, अतिशय हो
जाता रस का, अतिरेक हो
जाता रस का, लेकिन आखिरी
घड़ी में होगा
ध्यानी के
लिए। भक्त
पहले कदम से
ही नाचने लगता
है। उसका
भरोसा ऐसा है।
उसकी श्रद्धा
ऐसी है। जो
ज्ञानी को सोच-सोचकर,
चिंतन
कर-करके, मनन
कर-करके, निदिध्यास्न कर-करके
मिलता है, भक्त
श्रद्धा से पा
लेता है।
अब
तू चाहे आंख
दिखाए, अब
तू चाहे कसम खिलाए
जब
तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा
भक्त
तो भगवान से
भी मनुहार
लेने लगता है।
वह तो रूठ भी
जाता है भगवान
से, कि अगर तू
नहीं गाएगा
साथ, तो हम
भी न गाएंगे।
अब
तू चाहे आंख
दिखाए, अब
तू चाहे कसम खिलाए
जब
तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा
आंसू
के द्वारे कटी
सुबह, दुख
के घर बीती
दोपहरी
अब
जाने डोला
कहां रुके, अब जाने शाम
कहां पर हो
बरसात
भिगोकर पलक गई, तन झुलसाकर
पतझर लौटा
खंडहर
घर को कर जेठ
चला, पनघट
मरघट बनकर
लौटा
पी
डाली उम्र
सितारों ने, चुन डाले
गीत बहारों ने
लौटा
तो गेह
मुसाफिर यह, खाली ही हाथ
अगर लौटा
दिन
एक मिला था
सिर्फ मुझे, मिट्टी के बंदीखाने
में
आधा
जंजीरों
में गुजरा, आधा जंजीर तुड़ाने
में
प्राणों
को पकड़े
खड़ी देह, पांवों
को जकड़े
पड़ा गेह
अब
जाने इतने
पर्दों में
बेपर्दा
श्याम कहां पर
हो?
अब
तू चाहे आंख
दिखाए, अब
तू चाहे कसम खिलाए
जब
तक साथ न तू गाएगा, मैं भी गीत न गाऊंगा
पर्दे
बहुत हैं।
भक्त कहता है, अब मैं कहां
खोजता फिरूं?
किन-किन
पर्दों को उठाऊं?
अब तू ही
मुझे खोज ले।
और दुख मैंने
बहुत उठाए।
सारी जिंदगी
दुख उठाने में
बीती। सारी
जिंदगी सुख की
आशा करने में,
दुख को
काटने में
गुजारी। अब
बहुत हो गया।
अब मैं दुख को
काटने की फिकर
नहीं करता, और न सुख की
तलाश करता हूं;
अब मैं सुखी
होता हूं।
इस बात
को खयाल में
लेना। भक्त
कहता है, अब
मैं सुख की
खोज नहीं करता,
अब मैं सुखी
होता हूं। अब
इस क्षण से
खोज बंद हुई।
अब मैं नाचूंगा।
अब मैं आनंदित
हूं। अब मैंने
तय कर लिया कि
खोजने से नहीं
मिलता, खो
जाने से मिलता
है।
भक्त
की श्रद्धा
बड़ी अनूठी है।
अगर श्रद्धा का
सूत्र हाथ में
हो तो तुम
ध्यान की
चिंता छोड़ दो।
अगर तुम
श्रद्धा कर
सकते हो तो धन्यभागी
हो। अगर संदेहशून्य
मन से, जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं उसकी
मिठास
तुम्हें अनुभव
होती है, अगर
मुझे सुनकर
तुम्हारे
अंतस में आलोक
प्रगाढ़
होता है, ऊष्मा
भरती है तो
फिर तुम ध्यान
के लिए अलग से जगह
बनाने की सोचो
ही मत।
तुम्हारा
ध्यान तुम्हें
मिल गया।
प्रेम
तुम्हारा
ध्यान है।
अब
इसमें
व्याघात मत डालो, व्यवधान
मत डालो।
यह जो पूछ रहा
है, यह मन
है। यह मन कह
रहा है, ध्यान
का क्या? यह
तो प्रेम है, ठीक; यह
तो भक्ति है, ठीक; लेकिन
ध्यान का क्या?
मन एक
बिबूचन पैदा
कर रहा है।
तुम
ध्यान की
चिंता में पड़
गए कि भक्ति
खो जाएगी। और
ध्यान तो
मिलेगा कि
नहीं पक्का
नहीं है, भक्ति
खो जाएगी यह
पक्का है।
और जिस
मन ने अभी
बाधा खड़ी की
है, कल अगर
कभी तुम्हारा
ध्यान भी जमने
लगे, सधने लगे, तो
यही मन कहेगा,
ठीक है, ध्यान
तो ठीक है; लेकिन
प्रेम का क्या?
भक्ति का
क्या? यह
ध्यान तो
सूखा-सूखा है,
मरुस्थल
है। इसमें
रसधार कहां
बहेगी? इसमें
नाचोगे
कैसे? इससे
शांति तो मिल
जाएगी लेकिन
आनंद? नाचता
हुआ आनंद, नर्तन
करती हुई
दिव्यता कहां
मिलेगी?
ऐसे मन
तुम्हें
डांवांडोल
करेगा। मन की
आदत यही है।
तुम जहां हो, वह तुम्हें
कहीं और के
सपने दिखाता
है। वह कहता
है, कहीं
और होना
चाहिए। वह
तुमसे कहता है,
इससे बेहतर
जगह है। और
इसलिए तुम
जहां हो, वहां
से चुका देता
है।
और अगर
तुम इस अभ्यास
में बहुत
ज्यादा कुशल
हो गए--चूकने
के अभ्यास
में--तो तुम हर
जगह चूकते चले
जाओगे। तुम
स्वर्ग में भी
होओगे तो भी
मन तुमसे
कहेगा, पता
नहीं नर्क में
क्या हो रहा
है! हो सकता है,
लोग वहां
ज्यादा मजा
उठा रहे हों।
मैंने
तो सुना है, एक फकीर मरा
और स्वर्ग
पहुंचा। तो वह
बड़ा चकित हुआ
स्वर्ग में
प्रवेश करके।
क्योंकि उसने
देखा, कई
लोग जंजीरों
से बंधे हैं।
उसने
जो देवदूत उसे
अंदर ले जा
रहा था, उससे
पूछा कि मेरी
यह समझ के
बाहर है।
मैंने तो सुना
था, स्वर्ग
मुक्ति है। और
यहां भी
जंजीरें बंधी
हैं? इसे
देखकर तो मेरी
घबड़ाहट
बढ़ती है। यह
मामला क्या है?
ये लोग बंधे
क्यों हैं?
उसने
कहा कि ये लोग
नर्क जाना
चाहते हैं
इसलिए
जंजीरें
डालना पड़ीं।
ये लोग एकदम
उतावले हो रहे
हैं। ये कहते
हैं, स्वर्ग
तो देख लिया, अब नर्क
देखना है। ये
कहते हैं, यहां
तो ऊब आने
लगी। देख लिया,
जो देखना
था। पता नहीं
नर्क में कहीं
ज्यादा मजा
हो!
मन ऐसा
है। स्वर्ग भी
पहुंच जाओगे
तो भी चैन से न
बैठने देगा।
अब जिसने पूछा
है, "मिठास
की याद भी
मुंह को स्वाद
से भर देती
है।' जब
याद इतने
स्वाद से भर
रही है तो चल पड़ो।
स्मरण
तुम्हारा
मार्ग है, सुरति
तुम्हारी
विधि है। अब
इस मिठास में डूबो।
मिठास हो जाओ।
"प्रकाश
का स्मरण अंतस
को आलोक से, ऊष्मा से भर
देता है।
मैंने सुना था
कि ध्यानमूलं
गुरुमूर्ति।
और मुझे आपका
स्मरण एक प्रगाढ़
रसमयता, आनंद और
तन्मयता से भर
देता है...।'
तो फिर
अब बैठे-बैठे
क्या कर रहे
हो? तो फिर
रुके क्यों हो?
जहां से रस
बहे, जानना
वहीं सत्य है।
रस सत्य की
खबर लाता है। रसो वै सः।
उस परमात्मा
का स्वभाव रस
है। जहां से
रस बहे, समझना
परमात्मा
छिपा है।
पत्थर से बहे,
तो प्रतिमा
हो गई वह
परमात्मा की।
भोजन से बहे, तो अन्न
ब्रह्म हो
गया। संगीत से
आए तो संगीत अनाहत
का नाद हो
गया। जिस
व्यक्ति की
उपस्थिति में
लगने लगे वह
रस, तो
उपस्थिति
उसकी भगवतस्वरूप
हो गई। वह
व्यक्ति
भगवान हो गया।
जहां
से रस मिल जाए, चल पड़ना
उस तरफ अंधे
की भांति। फिर
आंखों को रख
देना। इन
आंखों का काम
तो तभी तक था, जब तक रस का
पता न हो। यह
आंखों से
टटोल-टटोलकर
चलना तभी तक
ठीक था, जब
तक रस का पता न
हो। जब रस की
झलक मिलने लगी,
तो अब सब छोड़ो
समझदारी। अब
हो जाओ नासमझ।
अब हो जाओ
पागल। अब हो
जाओ उन्मत्त।
दौड़ पड़ो।
अब चलने से
काम न चलेगा।
आंधी-अंधड़ की
तरह चल पड़ो
परमात्मा की
तरफ।
"जब मेरी चाल
में हर क्षण
घूंघर की तरह
आपकी धुन बजती
है, जब
मेरे रोम-रोम
में ध्यानमूर्ति,
प्रेममूर्ति और गुरुमूर्ति
आप बसते हैं
तो अब मैं
ध्यान को कहां
रखूं?'
अब
ध्यान को रखकर
करोगे क्या? अब ध्यान की
जरूरत कहां
रही? यह तो
ऐसा हुआ कि
किसी अंधे को
आंखें मिल गईं
और अब वह
पूछता है कि
यह मेरी लकड़ी,
जिससे मैं
टटोल-टटोलकर
चलता था जब
मैं अंधा था, तो अब इस
लकड़ी का क्या
करूं? और
कहां रखूं? मैं इसको
छोड़ तो सकता
नहीं, क्योंकि
इसने कितना साथ
दिया है! अंधा
था तो इसी से
टटोल-टटोलकर
चलता था।
आंखें तो आज
मिलीं, अंधा
तो जन्मों से
था। लकड़ी ने
जन्मों साथ
दिया, इसे
कैसे छोड़ दूं?
प्रेम
मिल गया तो
ध्यान की कोई
जरूरत नहीं।
ध्यान मिल गया
तो प्रेम की
कोई चिंता
नहीं। दो में
से एक सध जाए।
और दोनों के
बीच अपने मन
को डांवांडोल
मत करना, अन्यथा
तुम त्रिशंकु
हो जाओगे।
और जब
मैं कह रहा
हूं, एक सध जाए
तो मेरा मतलब
यही है कि एक
के सधते दूसरा
अनायास अपने
आप सध जाता
है।
उजाड़ से
लगा चुका
उम्मीद मैं
बहार की
निदाघ
से उम्मीद की, वसंत की
बयार की
मरुस्थली
मरीचिका सुधामयी
मुझे लगी
अंगार
से लगा चुका
उम्मीद मैं
तुषार की
कहां
मनुष्य है
जिसे न भूल
शूल सी गड़ी
इसीलिए
खड़ा रहा कि
भूल तुम सुधार
लो
इसीलिए
खड़ा रहा कि
तुम मुझे
पुकार लो
पुकार
कर दुलार लो, दुलार कर
सुधार लो
ध्यानी
कहता है, मैं
अपने को सुधारूंगा।
ध्यानी का
अर्थ है: सारा
दायित्व मेरे
ऊपर है।
प्रेमी
का अर्थ है:
इसीलिए खड़ा
रहा कि भूल
तुम सुधार लो।
कि तुम मुझे
पुकार लो, कि पुकार कर
दुलार लो, कि
दुलार कर
सुधार लो।
प्रेमी
का अर्थ है, कि वह कहता
है, कि
मैंने छोड़
दिया
तुम्हारे
हाथों में। अब
तुम सुधार लो।
मेरे किए न
होगा। मेरे किए
होगा भी कैसे?
मैं गलत हूं,
मैं जो
करूंगा वह और
गलती को बढ़ाएगा।
मैं नासमझ
हूं। मैं जो
करूंगा उससे
नासमझी और उलझ
जाएगी। मैं
वैसे ही उलझा
हूं।
तुमने
कभी देखा, कोई चीज
उलझी हो, सुलझाने
जाओ तो और उलझ
जाती है। मैं
वैसे ही भ्रम
में हूं। अब
इसमें और
उपद्रव करूंगा
तो और कीचड़ मच
जाएगी।
प्रेमी
की दृष्टि और
है। वह कहता
है, कि मैंने
तुम्हारे
हाथों में
छोड़ा अपने को।
तुम मुझे बना
सके तो तुम
मुझे सुधार न
सकोगे? तुम
मुझे जीवन दे
सके तो तुम
मुझे ज्योति न
दे सकोगे? तुमने
बिन मांगे
जीवन दिया, तुमने बिन
मांगे
अहोभाग्य
बरसाया, तो
मांगता हूं
तुमसे, ज्योति
न दे सकोगे? बिन मांगे
जीवन देते हो,
मांगे
ज्योति न दोगे?
प्रेमी
परमात्मा पर
छोड़ रहा है।
और इसी छोड़ने में
क्रांति घटनी
शुरू हो जाती
है। क्योंकि जैसे
ही तुमने उस
पर छोड़ा, तुम्हारा
अहंकार मिटना
शुरू हुआ। और
अहंकार मूल है
सारे उपद्रव
का, सारी
भूलों का, सारे
पाप का, सारी
नासमझियों
का। अहंकार
द्वार है नर्क
का।
तो
जिसने पूछा
है--कृष्ण
गौतम का
प्रश्न है--उससे
मैं कहता हूं:
आगाज़ जो
अच्छा है, अंजाम बुरा
क्यों हो?
नादां है
जो कहता है, अंजाम खुदा
जाने!
जब
प्रारंभ
अच्छा है, अंत भी
अच्छा होगा।
तुम फिक्र छोड़ो।
नासमझ है, जो
कहता है कि
शुरुआत तो बड़ी
अच्छी हो रही
है, परिणाम
परमात्मा
जाने! जब
शुरुआत अच्छी
है तो परिणाम
भी अच्छा
होगा। जब बीज
मिठास के और
रस के हैं तो
फल भी रस के और
मिठास के
होंगे।
तुम चल
पड़ो। अब
तुम बैठे-बैठे
विचार मत करो।
चिंतन अक्सर
आलस्य बन जाता
है। बहुत
सोच-विचार
करनेवाले लोग
चलने की बात
भूल ही जाते
हैं। इसलिए
दार्शनिक कुछ
भी नहीं कर
पाते।
सोचते-सोचते
जीवन गंवा
देते हैं।
करने के लिए
मौका ही नहीं
बचता, समय
नहीं बचता, शक्ति नहीं
बचती।
मैंने
सुना है, पहले
महायुद्ध में
एक दार्शनिक
भर्ती हुआ।
युद्ध में
जरूरत थी, सभी
भर्ती किए जा
रहे थे, वह
भी भर्ती कर
लिया गया।
लेकिन बड़ी
कठिनाई हुई।
क्योंकि जो
इसे शिक्षण दे
रहा था वह बड़ी
परेशानी में
पड़ गया। वह
कहे, "बायें
घूम।' सारी
दुनिया घूम
जाए, वह
वहीं खड़ा है।
तुम खड़े क्यों
हो? वह
कहता, जब
तक मैं सोच न
लूं कि बायें घूमूं
क्यों? आखिर
बायें घूमने
से फायदा क्या
है? और फिर
दायें घूमना
पड़ेगा, तो
यहीं क्यों न
खड़े रहो?
आखिर
वह जो शिक्षण
देनेवाला था, परेशान हो
गया। उसने कहा
कि तुम किसी
काम के नहीं
हो। अगर तुम
इतना
सोच-विचार
करोगे तो युद्ध
के मैदान पर
क्या होगा? इतना
सोच-विचार
सैनिक के लिए
नहीं है। मगर
अब तुम भर्ती
हो ही गए हो तो
कोई तो काम
देना।
तो उसे
मेस में
भेज
दिया--भोजनालय
में--कि वहां
तुम कुछ काम
करो। पहले ही
दिन उसको मटर
के दाने दिए, कि बड़े-बड़े
एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे
एक तरफ कर दो।
घंटेभर
बाद जब उसका
शिक्षक आया तो
दाने वैसे के
वैसे रखे थे
और वह माथे से
हाथ
लगाए--जैसे रोडेन
की प्रतिमा है
न!
विचारक--वैसे
बैठा था।
"तुम क्या कर
रहे हो? कुछ
किया नहीं?'
उसने
कहा, "मैं यही
तो सोच-विचार
में पड़ा हूं।
बड़े एक तरफ कर
दूं, छोटे
एक तरफ कर दूं,
कुछ मझोल
हैं; इनको
कहां करना? और जब तक सब
बात साफ न हो
जाए तब तक कोई
भी कृत्य करना
खतरे से खाली
नहीं है। मैं
सोच-विचारवाला
आदमी हूं।'
गौतम!
दार्शनिक
होने की कोई
जरूरत नहीं।
अब ध्यान की
चिंता छोड़ो।
तुम्हें
जिससे संगति
बैठ सकती है, वह स्वर बजा
है। अब चल पड़ो।
अब श्रद्धा से
भरपूर, भरोसे
से। सोच-विचार
एक तरफ रखकर, अब दौड़ो।
पांचवां
प्रश्न:
वहां
तक आया हूं, जहां लगता
है कि कुछ हो
सकता है। अब
कोई भय नहीं
मालूम देता।
प्रभु, प्रणाम!
प्रणाम!!
प्रणाम!!!
शुभ है
ऐसी घड़ी, जब
ऐसा भाव सघन
होने लगे कि
अब कुछ हो
सकता है। मनुष्य
के जीवन में
सर्वाधिक
महत्व की घड़ी
यही घड़ी है, जब भरोसा
आता है कि अब
कुछ हो सकता
है।
अन्यथा
साधारणतः तो
भरोसा आता ही
नहीं कि कुछ, और मुझे हो
सकेगा? और
उस गैर-भरोसे
का भी कारण
है।
जन्मों-जन्मों
से कुछ न हुआ, आज अचानक
कैसे हो सकेगा?
अनंत काल
में न हुआ, आज
कैसे हो सकेगा?
इसलिए
इस जगत में
सबसे बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना, जहां
से और
महत्वपूर्ण
घटनाओं की
शुरुआत होती
है, वह इस
क्षण का आ
जाना है, जब
तुम्हें यह
लगे कि हां, मुझे कुछ हो
सकता है।
इसीलिए
तो लोग बुद्ध
पर, महावीर
पर, कृष्ण
पर, क्राइस्ट
पर भरोसा नहीं
करते।
क्योंकि उनको लगता
है, जब
हमें नहीं हो
सकता तो किसी
को कैसे हुआ
होगा? आखिर
हम भी मनुष्य
जैसे मनुष्य
हैं--हड्डी, मांस, मज्जा
के बने। जैसे
तुम
थे--महावीर हो,
कि बुद्ध हो,
कि कृष्ण हो,
कि
क्राइस्ट हो।
हम भी जन्मे, तुम भी
जन्मे। हम भी
मरण की तरफ जा
रहे हैं, तुम
भी मरे। हमें
भी भूख लगती
है, तुम्हें
भी लगती है।
हमारा भी शरीर
जीर्ण-शीर्ण
होता है, वृद्ध
होता है, तुम्हारा
भी हुआ। हमारी
भी कमर झुक गई,
तुम्हारी
भी झुक जाएगी,
तुम्हारी
भी झुक गई थी।
तो
अंतर कहां है? हमारे जैसे
मनुष्य! हमें
नहीं हुआ, हमें
नहीं घटा वह
अघट, हमारे
जीवन में नहीं
उतरा आकाश।
हमारा आंगन तो
सिकुड़ता
ही गया। आकाश
के तो दर्शन
ही नहीं हुए।
हमारे तो
झरोखे बंद ही
होते गए। कभी
कोई खुला
प्रकाश, सूरज
का दर्शन न
हुआ, तो
तुम्हें कैसे
हुआ होगा? या
तो तुम धोखा
दे रहे हो, या
तुम भ्रम में
पड़े हो, या
तो तुम सिर्फ
बातचीत कर रहे
हो और या फिर
तुम कोई सपना
देख रहे हो।
ध्यान
रहे, जिस दिन
तुम्हें
भरोसा आता है
कि मुझे हो
सकता है, उसी
दिन पहली दफे
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, क्राइस्ट
पौराणिक नहीं
रह जाते, ऐतिहासिक
हो जाते हैं।
उसी क्षण सारा
इतिहास नया हो
जाता है, जैसे
तुम्हारे लिए
फिर से लिखा
गया। पहली दफा
ऐसे
व्यक्तियों
पर, जिनके
जीवन में
परमात्मा की
झलक आयी, प्रतिबिंब
उतरा, जिनमें
किसी तरह
परमात्मा की
प्रभा प्रगट
हुई, तुम्हें
भरोसा आता है।
जिस दिन
तुम्हें अपने पर
भरोसा आता है
उसी दिन
तुम्हें
कृष्ण, महावीर,
बुद्ध पर
भरोसा आता है।
लोग
ईश्वर पर
भरोसा नहीं
करते क्योंकि
उनका अपने पर
भरोसा नहीं
है। नास्तिक
की असली
नास्तिकता
आत्म-अविश्वास
है। वह कहता
है, कोई
ईश्वर नहीं
है। क्योंकि
भीतर जब ईश्वर
का पता नहीं
चलता, किरण
भी नहीं पता
चलती, झलक
भी नहीं पता
चलती, सपने
में भी कोई
तरंग नहीं
लहराती तो
ईश्वर हो कैसे
सकता है?
ईश्वर
होता है उस
क्षण, जब
तुम्हारे
भीतर तुम होने
लगते हो।
शुभ
घड़ी है। लेकिन
ध्यान रखना, यह घड़ी कई
बार आएगी और
जाएगी। इसलिए
जब चली जाए तो
घबड़ा मत जाना,
उदास मत हो
जाना।
क्योंकि यह
बड़ी दूर की
झलक है। जैसे
आकाश में क्षणभर
को बिजली कौंध
गई हो और
तुम्हें दूर
हिमालय का
शिखर दिखाई पड़
गया हो। पर
बिजली गई, फिर
घना अंधेरा
है। और ध्यान
रखना, जब
बिजली के बाद
अंधेरा होता
है तो बिजली
के पहले के
अंधेरे से
ज्यादा घना हो
जाता है।
तो
जिनके जीवन
में यह
सौभाग्य का
क्षण आता है, उन्हें लगता
है, अब कुछ
हो सकता है, वे बड़ी खतरे
की स्थिति में
भी हैं।
उन्हें सचेत
कर देना जरूरी
है। क्योंकि
यह बिजली की
कौंध है; यह
खो जाएगी। यह
बहुत बार पकड़
में आएगी, बहुत
बार छूट
जाएगी। और जब छूटेगी तब
तुम ऐसे अतल
अंधेरे में
गिरोगे, जैसे
कि तुम कभी भी
नहीं थे।
लेकिन
अगर सावधान
रहे और स्मरण
रखा कि ऐसा
होता है, तो
तुम उन अंधेरी
रातों को भी
पार कर जाओगे।
और जो अभी
बिजली की कौंध
की तरह घटा है,
वह एक दिन
सुबह के सूरज
की तरह घटेगा।
पहले झलक आती
है, फिर
झलक साफ होती
है; फिर
झलक झलक नहीं
रह जाती, तुम्हारा
सुनिश्चित
अनुभव हो जाता
है। फिर अनुभव
नहीं रह जाता
है, परमात्मा
फिर अनुभव
जैसा नहीं
मालूम होता, तुम्हारा
स्वत्व हो
जाता है, तुम्हारा
स्वभाव हो
जाता है।
मधुर
निर्यात और
आयात, साधते
हो दोनों के
खेल
छनक
में निकल चले
थे दूर, पलक
में पल-पल
बढ़ता मेल
तुम्हारे
खो जाने में
दुख, तुम्हारे
पा जाने में
आज
भूमि
का मिल जाता
है छोर, गगन
का मिल जाता
है राज
पर
खयाल रखना--
मधुर
निर्यात और
आयात साधते हो
दोनों के खेल।
छनक
में निकल चले
थे दूर, पलक
में पल-पल
बढ़ता मेल
एक
क्षण तो लगता
है, इतने
करीब; और
एक क्षण लगता
है, इतने
दूर। एक क्षण
लगता है, हाथ
की पहुंच के
भीतर; और एक
क्षण लगता है,
असंभव!
बिलकुल असंभव!
ऐसा बहुत बार
होगा।
तुम्हारे
खो जाने में
दुख, तुम्हारे
पा जाने में
आज
भूमि
का मिल जाता
है छोर, गगन
का मिल जाता
है राज
तो
डरना मत। यह
झलक सौभाग्य
है।
लेकिन
जिनके जीवन
में सौभाग्य
आता है, उसके
साथ-साथ उतने
ही खतरे भी
आते हैं। जब
तुम्हारे पास
कुछ नहीं होता
तो खोने को भी
कुछ नहीं
होता। जब कुछ
होता है तो
खोने को भी
कुछ होता है।
जितना ज्यादा
तुम्हारे पास होगा,
उतने ही तुम
खतरे में भी
हो; क्योंकि
उतना ही खोने
को भी
तुम्हारे पास
है।
एक
युवक छह महीने
पहले आया। आने
के महीनेभर
बाद उसने
संन्यास लिया
और मुझसे पूछा
कि क्या मैं
वापस जा सकता
हूं अपने घर? मैंने कहा, जा सकते हो।
लेकिन वह गया
नहीं। महीनेभर
और रुका। फिर
उसने पूछा कि
क्या मैं जा
सकता हूं? मैंने
कहा कि अब
जाना ठीक
नहीं।
वह
थोड़ा चौंका।
उसने कहा कि महीनेभर
पहले आपने कहा
कि जा सकते
हो। अब आप
कहते हो, जाना
ठीक नहीं, मामला
क्या है? क्योंकि
मैं तो सोचता
था, महीनेभर में मैं और
तैयार हो जाऊंगा
तो जाने के
योग्य हो जाऊंगा।
मैंने
कहा, महीनेभर पहले जब
तुमने पूछा था,
तुम्हारे
पास खोने को
कुछ भी नहीं
था। तो मैंने
कहा, जाओ।
कोई फर्क नहीं
पड़ता था। अब
तुम्हारे पास
कुछ खोने को
है। थोड़ा-सा
अंकुर फूटा
है। अब मैं
कहता हूं, मत
जाओ। अभी
रुको। अब
तुम्हारे पास
कुछ है, जो
खो सकता है
अभी जाने से।
अब थोड़ी देर
रुक जाओ। जरा
इसे मजबूत
होने दो। जरा
इसकी जड़ें
गहरी होने दो।
अन्यथा तुम
इतने दुख में
पड़ जाओगे, जितने
दुख में तुम
पहले भी न थे।
तुम्हें
पता है? एक
गरीब आदमी है,
गरीबी उसको
भी है। फिर एक
अमीर आदमी है,
जिसका
दिवाला निकल
गया; वह भी
गरीब है।
दोनों के पास
कुछ भी नहीं
है। लेकिन
जिसका दिवाला
निकल गया है
उसकी गरीबी का
कोई अंदाज तुम
गरीब आदमी की
गरीबी से नहीं
लगा सकते।
गरीब आदमी
क्या खाक गरीब
है! जो अमीर ही
कभी नहीं रहा,
उसे गरीबी
का कोई पता ही
नहीं हो सकता।
जो अमीर रह
चुका है, उसकी
गरीबी की पीड़ा
बड़ी गहरी है।
जिसने वैभव के
दिन जाने, वही
जानता है, दुर्दिन
क्या है।
जिसने वैभव के
दिन ही नहीं जाने,
वह तो
दुर्दिन में भी
मस्त चादर ओढ़कर
सोता है। कोई
दुर्दिन जैसी
कोई बात ही
नहीं। सहज
सामान्य जीवन
है।
ऐसा ही
आंतरिक संपदा
के संबंध में
भी सच है।
जिन
मित्र ने पूछा
है, उनके
जीवन में बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना घटने के
करीब आ रही है,
घट रही है।
पहली किरण
उतरी है।
सावधान!
क्योंकि इस
पहली किरण के
साथ ही जब
अंधेरा फिर से
आएगा तो बहुत
गहरा होगा।
तुम बहुत तड़फोगे
फिर।
तुम्हारे
खो जाने में
दुख, तुम्हारे
पा जाने में
आज
भूमि
का मिल जाता
है छोर, गगन
का मिल जाता
है राज
मधुर
निर्यात और
आयात, साधते
हो दोनों के
खेल
छनक
में निकल चले
थे दूर, पलक
में पल-पल
बढ़ता मेल
परमात्मा
ऐसी बहुत
धूप-छांव
तुम्हें
देगा। परमात्मा
बहुत बार करीब
और बहुत बार
दूर निकल जाएगा।
यह छिया-छी का
खेल है। ऐसे
ही तुम्हें वह
मजबूत करता है, बलशाली करता
है। ऐसे ही
तुम्हें जीवन
देता है। ऐसे
ही तुम्हारी
परिपक्वता
आती है। ऐसे
ही मिलकर-खोकर,
खोकर-मिलकर,
बार-बार
धूप-छांव से गुजारकर
तुम्हें
पकाता है; परिपक्व
करता है।
तुम्हें प्रौढ़ता
देता है।
तुम्हारे
जीवन में एकता
आती है।
और एक
ऐसी घड़ी आती
है कि वह मिले
तो ठीक, न
मिले तो ठीक; हर हालत में
तुम प्रसन्न
होते हो।
अंधेरी रात भी
उसी की, जगमगाते
सूरज का दिन
भी उसी का। जब
तुम्हें कुछ
भी उसका पता नहीं
चलता, तब
भी तुम जानते
हो, वह है।
और जब उसका
पता चलता है, तब भी तुम
जानते हो, वह
है। उस घड़ी
धूप-छांव का
खेल बंद होता
है।
अभी
तो खतरा आएगा।
पूर्व-सावधान
कर देना उचित है।
आरजुओं
में हरारत है, न उम्मीदों
में जोश
सर्द
अब हर गर्मिये-बाजार
है तेरे बगैर
जिंदगी
एक मुश्तकिल
आजार है
तेरे बगैर
सांस
एक चलती हुई
तलवार है तेरे
बगैर
अभी
तो जब खोओगे
तो लगेगा--
सांस
एक चलती हुई
तलवार है तेरे
बगैर
जिंदगी
एक मुश्तकिल
आजार है
तेरे बगैर
बड़ी
कठिनाई होगी, जैसी कभी न
हुई थी। लेकिन
यह केवल
सौभाग्यशालियों
को होती है
कठिनाई। ऐसा
दुर्दिन केवल
उन्हें मिलता
है, जिन्हें
प्रभु की
थोड़ी-सी झलक
मिलनी शुरू
हुई।
तुम्हारे
पैर ठीक जमीन
पर पड़ रहे
हैं। मगर अभी भटकोगे।
इतनी जल्दी
कुछ भी नहीं
होता। और पाकर
जब भटकोगे
तो बहुत
रोओगे। उन
आंसुओं में
याद रखना। उन
आंसुओं में
भरोसे को कायम
रखना।
अभी तो
भरोसा आसान
है। जब कुछ
ठीक हो रहा
होता है तब तो
भरोसा बिलकुल
आसान है। जब
सब गलत जाने
लगता है, तब
भरोसा कठिन
होता है।
लेकिन
उसी कठिनाई की
चुनौती को जो
मान लेता है
उसके जीवन में
विकास होता
है।
तेरा-मेरा
संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित
हृदय
तू
अगम सिंधु की
रास लिये
मैं
मरु असीम की
प्यास लिये
मैं
चिर-विचलित
संदेहों से
तू
शांत अटल
विश्वास लिये
तेरी
मुझको
आवश्यकता, आवश्यकता
तुझको मेरी
मैं
जीवन का
उच्छवास लिये
तू
जीवन का उल्हास
लिये
तुझसे
मिल पूर्ण चला
बनने, बस
इतना ही मेरा
परिचय
तेरा-मेरा
संबंध यही, तू मधुमय औ' मैं तृषित
हृदय
हम
प्यासे हैं।
हम भूखे हैं।
हम अतृप्त
हैं--तृषित
हृदय। और
परमात्मा में
छिपी है वह
सुधा, वह
अमृत, जो
हमें तृप्त
करेगी।
परमात्मा और
हमारे बीच जो
संबंध है, वह
प्यासे और जल
के बीच का
संबंध है।
अभी
तुम्हें
सरोवर दिखाई
पड़ा है, पर
दूर से दिखाई
पड़ा है। अभी
बहुत संभावना
है कि फिर तुम
वृक्षों की ओट
में हो जाओगे।
शायद सरोवर की
तरफ चलने में
ही बहुत बार
वृक्ष ओट में
आ जाएंगे और
सरोवर खो
जाएगा। चलोगे
भी सरोवर की
तरफ, तो भी
अनेक बार
सरोवर दिखाई
पड़ेगा, अनेक
बार खो जाएगा।
जब खो
जाए, तब भूलना
मत कि है।
क्योंकि जब
दिखाई पड़ता है
तब बिलकुल
आसान मानना, कि है। जब खो
जाता है तब
बहुत दुर्गम
मानना, कि
है। तब उदास
हो, हताश
हो, थककर बैठ मत
जाना।
जो इस
क्षण में हुआ
है, इसे तुम
सदा के लिए
अपनी एक
चिर-संचित
निधि बना लो।
यह जो भरोसा
जगा है कि अब
कुछ हो सकता
है, इसे
भूलना मत। कुछ
भी हो, कैसी
भी परिस्थिति
हो, इसे
फिर-फिर जगा
लेना। इसे याद
रखना। यह
तुम्हारी
स्मृति से उतर
न जाए।
तो जो
अभी झलक की
तरह मिला है, वह तुम्हारी
स्थायी संपदा
बन जाता है।
आखिरी
प्रश्न:
मन
जब एकदम शांत
रहने लगेगा तब
सांसारिक
कार्य कैसे
होंगे?
अशांत
रहकर भी चल
रहे हैं, तो
शांत रहकर और
भले तरह से
चलेंगे। आखिर
शांति किसी
काम में बाधा
तो नहीं है।
अशांत रहकर भी
कर लेते हो तो
शांत रहकर तो
और कुशलता से
कर सकोगे। यह
तो सीधा-सा
गणित है।
एक
आदमी अशांत है
और कोई काम कर
रहा है, तो
अर्थ हुआ कि
अशांति बड़ी
शक्ति ले रही
है। मन का
तनाव बड़ी
शक्ति पी रहा
है। फिर भी
काम कर रहा है,
किसी तरह
खींच रहा है।
तब भी कर लेता
है। तो थोड़ा
सोचो, जब
तुम शांत हो
जाओगे और सारी
शक्ति काम में
ही
पड़ेगी--क्योंकि
मन कोई शक्ति
रोकेगा नहीं;
अशांति
नहीं, तनाव
नहीं, कोई
चिंता
नहीं--जब तुम
पूरे-पूरे काम
में उंडलोगे
तो काम की गति
तो बढ़ेगी,
कुशलता बढ़ेगी,
गुणवत्ता बढ़ेगी।
यह
प्रश्न ही
क्यों उठता है? यह प्रश्न
इसलिए उठता है
कि तुम्हें अब
तक यही समझाया
गया है कि जो
शांत हो जाते
हैं, वे
संसार से भाग
जाते हैं।
इसीलिए संन्यास
से एक भय हो
गया है। शांति
से भय हो गया है।
यह भय बिलकुल
निर्मूल है।
मैं
तुमसे कहता
हूं, अशांत
भला भाग जाते
हों संसार से,
शांत क्यों
भागने लगे? शांत को
भागने के लिए
जरूरत ही क्या
रही? शांत
को तो आनंद
आएगा चारों
तरफ की अशांति
के बीच खड़े
होने में।
क्योंकि यहां
कसौटी होगी।
यहां
प्रतिपल
भरोसा गहरा
होगा कि
अशांति कितनी
ही हो बाहर, अब मेरे
भीतर प्रवेश
नहीं करती।
मैं अभेद्य दुर्ग
में विराजमान
हो गया हूं।
मेरी शांति अटूट
है। अब कोई
चीज इसे
विशृंखल नहीं
करती। मेरी
शांति अब
कमजोर नहीं है
कि टूट जाए; कि कोई भी चीज
मेरे मन को
डांवांडोल
करे। अब सब
परीक्षाओं से
गुजर रहा हूं
और मेरी शांति
और गहरी और मजबूत
होती चली जाती
है।
नहीं, मैं तुमसे
कहता हूं, शांत
आदमी जो भी
करेगा उसमें
उसकी कुशलता
बढ़ जाएगी।
लेकिन
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
मैं कह रहा
हूं, शांत
आदमी वे सब
काम करेगा ही,
जो तुम कर
रहे हो।
क्योंकि कुछ
काम हैं, जो
केवल अशांत
आदमी ही कर
सकता है, क्योंकि
उनका मूल
अशांति में
है।
जैसे
एक आदमी चोरी
कर रहा है, तो मैं
तुमसे यह नहीं
कह सकता कि
शांत आदमी चोरी
कर सकेगा। कर
सके तो कुशलता
से करेगा; मगर
कर सकता नहीं।
क्योंकि चोरी
के लिए बड़ा
सोया चित्त
चाहिए। बड़ा
दीन-दुर्बल चित्त
चाहिए। चोरी
के लिए बड़ा
अशांत, विक्षिप्त
चित्त चाहिए।
शांत
आदमी क्रोध न
कर सकेगा। कर
सके तो बड़ी कुशलता
से करेगा, मगर कर न
सकेगा।
क्योंकि
क्रोध का मूल
अशांति में
है। लेकिन
जीवन के सहज
काम तो और
कुशल हो जाएंगे।
शांत
आदमी ज्यादा
बेहतर पति
होगा, ज्यादा
बेहतर पत्नी
होगी, ज्यादा
बेहतर बेटा
होगा, ज्यादा
बेहतर बाप
होगा, ज्यादा
बेहतर मित्र
होगा। शांत
आदमी के जीवन में,
जो भी शांति
के साथ बच
सकता है, वह
सभी बेहतर, स्वर्णमयी होकर, सुगंधमयी होकर होगा।
उसके सोने में
सुगंध आ
जाएगी।
तो मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि
तुम्हारी सभी
चीजें बचेंगी।
लेकिन मैं यह
कहता हूं, जो बचाने
योग्य हैं वे बचेंगी।
जो बचाने
योग्य ही नहीं
हैं, जिनको
तुम भी बचाना
नहीं चाहते हो,
वे ही केवल
खो जाएंगी।
महंगा सौदा
नहीं है।
महंगा
सौदा तो तुम
अभी कर रहे हो
अशांति को
चुनकर।
"मन जब एकदम
शांत रहने
लगेगा तब
सांसारिक
कार्य कैसे
होंगे?' मन
बहाने खोज रहा
है। मन कह रहा
है, शांत
मत हो जाना।
यह क्या कर
रहे हो? ध्यान
में लगे हो? अपनी जड़ें
खोद रहे हो? सब गड़बड़ हो
जाएगा।
मन का
तो सब गड़बड़ हो
जाएगा, यह
सच है। मन ठीक
ही कह रहा है।
क्योंकि मन है
तुम्हारा रोग,
बीमारी।
अगर
तुम
महत्वाकांक्षी
हो तो
महत्वाकांक्षा
चली जाएगी।
अगर तुम पागल
की तरह
स्पर्धा में
लगे हो, स्पर्धा
चली जाएगी।
अगर तुम
व्यर्थ चीजों
को जोड़ने-बटोरने
में लगे हो तो
वह पागलपन उतर
जाएगा।
तो मन
तो ठीक कह रहा
है। मन को संसार
की फिक्र नहीं
है, मन को
अपनी फिक्र
है। मन यह कह
रहा है, कि
मेरा क्या
होगा? तुम
तो शांत होने
लगे, कुछ
मेरी तो सोचो!
कितने दिन
तुम्हारे साथ
रहा!
यह तो
ऐसे ही हुआ, कि तुमने
दवा लेनी शुरू
की, बीमारी
तुमसे कहे, कि जरा यह भी
तो सोचो, मेरा
क्या होगा? तुम तो दवा
लेने लगे। और
मैं कितने दिन
से साथ रही!
जन्मों-जन्मों
का, जुग-जुग
का
संग-साथ--तुम
दवा लेने लगे?
धोखेबाज
कहीं के!
दगाबाज कहीं
के! दवा लेने
लगे? यह
तुम क्या कर
रहे हो? सब
खराब हो
जाएगा।
लेकिन
तुम बीमारी की
नहीं सुनते।
मन को तुमने अब
तक बीमारी
नहीं जाना। तुम
सोचते हो, मन तुम हो।
यहीं भूल हो
रही है। तुम
मन नहीं हो।
तुम मन के पार
साक्षी हो। उस
साक्षी का परम
आनंद घटेगा
शांति में।
शांति में मन
चला जाएगा, तुम बचोगे।
मन के बहुत-से
व्यापार, जो
रुग्ण हैं, जिन्होंने
सिवाय दुख के
और कुछ भी
नहीं दिया, वे भी चले
जाएंगे।
लेकिन उनका
चला जाना
हितकर है।
मन सदा
ध्यान में
बाधा डालता
है। क्योंकि
ध्यान मन की
मृत्यु है। मन
समझाता है:
बहुत
खोया, और
खोने दो मुझे
और
भी गुमराह
होने दो मुझे
आज
पलकों की
छबीली छांह
में लग गई है
आंख
सोने
दो मुझे
बहुत
खोया, और
खोने दो मुझे
आज
पलकों की छबीली
छांह में
लग गई है आंख
सोने
दो मुझे
लेकिन
जिसे तुम
पलकों की
छबीली छांह
समझ रहे हो, वहीं से
तुम्हारे
जीवन का सारा
ज्वर, सारा
उत्ताप पैदा
हुआ है। जिसे
तुम सौंदर्य समझ
रहे हो उसी ने
तुम्हारे
जीवन को कुरूप
किया है। और
जिसे तुम
सोचते हो
तुम्हारा बल,
वही तुम्हारी
नपुंसकता है,
वही
तुम्हारी
निर्बलता है।
इसे ठीक से
देखो।
और अगर
तुम्हें यह
चिंता हो कि
तुम अगर शांत
हो गए तो
संसार का क्या
होगा, तो यह
चिंता तुम
बिलकुल मत
करो। बहुत
अशांत लोग
हैं।
तुम्हारे
जाने से यहां
कुछ बाधा न
पड़ेगी। यहां
काफी पागल
हैं। तुम इस
चिंता में मत पड़ो कि मैं
अगर ठीक हो
गया, तो
पागलखाने का
क्या होगा? यह चलता ही
रहा है। यह
चलता ही
रहेगा।
ये
रंगे-बहारे-आलम
है
क्यों
फिक्र है
तुझको ऐ साकी!
महफिल
तो तेरी सूनी
न हुई,
कुछ
उठ भी गए कुछ आ
भी गए
--यह महफिल
भरी ही रहती
है।
महफिल
तो तेरी सूनी
न हुई,
कुछ
उठ भी गए कुछ आ
भी गए
तुम
उठने में
संकोच मत करो।
कुछ बाहर खड़े
हैं, जोर से
चिल्ला रहे
हैं, जगह
दो। क्यू में
खड़े हैं। तुम
हटो, वे
बड़े प्रसन्न
होंगे।
तुम्हें वे
धन्यवाद देंगे।
इसीलिए तो लोग
संन्यासी का
स्वागत करते
हैं! चलो एक
जगह खाली हुई।
इसीलिए तो लोग
त्यागी की
महिमा गाते
हैं, चरण
छूते हैं कि
धन्य प्रभु!
कम से कम आपने
तो जगह खाली
की!
तुम
अक्सर पाओगे
त्यागियों के
पास भोगियों को
स्तुति करते।
जैन मंदिरों
में देखो! जो
छोड़कर बैठ गए
हैं संसार, जो संसार को
जोर से पकड़े
हैं, वे
उनके चरण छू
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, बड़ी कृपा
आपकी।
शायद
उन्हें भी साफ
न हो। मगर
मामला क्या है? मामला यह है
कि ये भी
प्रतियोगी
थे। ये हट गए मैदान
से। जितने
प्रतियोगी कम
हुए उतना ही
अच्छा है।
संसारी
सदा
संन्यासियों
की प्रशंसा
करता रहा है।
लेकिन
प्रशंसा
निश्चित ही
झूठ होगी, बेमन से
होगी; असली
नहीं होगी।
असली होती तो
खुद ही
संन्यासी हो
जाता। यह बड़े
आश्चर्य की
बात है। भोगी
त्यागी के चरण
छूता है। अगर
यह श्रद्धा सच
होती तो खुद
ही त्यागी हो
गया होता। यह
श्रद्धा झूठी
है। वह कह रहा
है, आपने
बड़ी कृपा की।
आपने बड़ा ही
अच्छा किया जो
छोड़ दी झंझट।
जब एक
राजनीतिज्ञ
विदा होता है
दिल्ली से तो
बाकी
राजनीतिज्ञ
उसका विदाई
समारोह करते
हैं। कहते हैं
कि गिरि साहब, आप चले
बंगलोर! बड़ी
कृपा! फिर न
आना। आप
बंगलोर में ही
बसना। आबोहवा
भी अच्छी है।
और दिल्ली में
रखा क्या है?
चलो, क्यू में एक
आदमी कम हुआ।
थोड़े हम आगे सरके। ऐसी
आशा से तो
आदमी जी रहा
है।
तुम
इसकी फिक्र मत
करना कि संसार
का क्या होगा? संसार
तुम्हारे
बिना बड़े मजे
से चल रहा था, तुम्हारे
बिना बड़े मजे
से चलता
रहेगा।
ये
रंगे-बहारे-आलम
है
क्यों
फिक्र है
तुझको ऐ साकी!
महफिल
तो तेरी सूनी
न हुई,
कुछ
उठ भी गए, कुछ
आ भी गए
तुम सिर्फ
अपनी चिंता कर
लो। और इतना
मैं तुमसे कह सकता
हूं आश्वासन
के साथ, कि
जो भी शुभ है, वह बचेगा।
जो भी
श्रेयस्कर है,
वह बचेगा।
जो भी अशुभ है,
वह छूट
जाएगा। मेरे
मन में तो पाप
और पुण्य की परिभाषा
यही है: शांत
मन जिसे न कर
सके, वही
पाप। जिसे
करने के लिए
अशांत मन
अनिवार्य
शर्त है, वही
पाप। शांत मन
ही जिसे कर
सके, वही
पुण्य। शांत
मन जिसके होने
के लिए अनिवार्य
भूमिका है, वह पुण्य
है।
पुण्य
बचेगा। पुण्य
की कुशलता
बचेगी। पाप खोते
चले जाएंगे।
नर्क छूटेगा, स्वर्ग शेष
रहेगा। बंधन गिरेंगे, मुक्ति
उपलब्ध होगी।
मोक्ष बचेगा।
उसमें
तुम्हारी
कुशलता बढ़ेगी।
तुम
पछताओगे न।
तुम कभी लौटकर
ऐसा न सोचोगे
कि बड़ी गलती
कर ली, जो
शांत हो गए।
अब तक
किसी ने ऐसा
नहीं कहा। जो
भी शांत हुए
हैं
सदियों-सदियों
में--अनंत लोग
हुए हैं। यह
शृंखला छोटी
नहीं है। बहुत
लोग हुए
सदियों-सदियों
में, उनमें से
किसी एक ने भी
नहीं कहा कि
शांत होकर
पछतावा हुआ।
और इन
सदियों में
उनसे हजारों गुने लोग
अशांत रहे, उन सबने सदा
यह कहा कि चूक
गए कुछ। कुछ
भूल हो गई।
कहीं जीवन का
तार टूट गया।
वीणा बजी
नहीं। बांसुरी
पर धुन उतरी
नहीं। आए तो
जरूर, खाली
आए, खाली
जा रहे हैं।
निरपवाद
रूप से जो लोग
अशांत रहे हैं, वे पछताए
हैं।
निरपवाद
रूप से जो लोग
शांत हुए हैं
उन्होंने धन्यभाग, सौभाग्य
माना है।
आज
इतना ही।
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