जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
सरीमाहु
नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति
महेसिणो।।
146।।
धीरेण
वि मरियव्वं, काउरिसेण
वि अवस्समरियव्वं।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु
धीरत्तणे
मरिउं।।
147।।
इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।
तं मरणं
मरियव्वं, जेण मओ
सुम्मओ
होई।। 148।।
इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ
सुपुरिसो
असंभंतो।
खिप्पं
सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं।।
149।।
चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं
पासं इह मन्नमाणो।
लाभंतरे जीवि वूहइत्ता, पच्चा परिण्णाय
मलावधंसी।।
150।।
तस्स
ण कप्पदि
भत्त, पइण्णं
अणुवट्ठिदे
भये पुरदो।
सो मरणं
पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विणो।।
151।।
जीवन
की सबसे बड़ी
पहेली स्वयं
जीवन में नहीं
है,
जीवन की
सबसे बड़ी
पहेली मृत्यु
में है। और
जिसने मृत्यु
को न जाना वह
जीवन से
अपरिचित रह जाता
है। जीवन को
जानने की
कुंजी मृत्यु
में है।
छोटे
बच्चों की
कहानियां
तुमने पढ़ी
होंगी। कोई
राजा है या
रानी है, उसके
जीवन की कुंजी
किसी तोते में
बंद है या किसी
मैना में बंद
है। तोते को मरोड़ दो, राजा मर
जाता है। राजा
को मारने में
लगे रहो, राजा
नहीं मरता।
जीवन
को सुलझाने
में लगे रहो, जीवन
नहीं सुलझता।
जीवन का
सुलझाव
मृत्यु में
है।
इसलिए
जगत में जो
बड़े मनीषी हुए, उन्होंने
मृत्यु को
समझने की
चेष्टा की है।
साधारणजन
मृत्यु से
बचते हैं, भागते
हैं। परिणाम
में जीवन से
वंचित रह जाते
हैं। इस
विरोधाभास को
जितना ठीक से
पहचान लो, उतना
उपयोगी है।
मृत्यु
से भागना मत।
जो मृत्यु से
भागा, वह जीवन
से ही भाग रहा
है। क्योंकि
मृत्यु जीवन
की
पूर्णाहुति
है। मृत्यु है
जीवन का आत्यंतिक
स्वर। जीवन
मृत्यु पर
समाप्त होता,
पूरा होता।
मृत्यु है फल।
जीवन है
यात्रा, मृत्यु
है मंजिल।
थोड़ा
सोचो, मंजिल
से बचने लगो
तो यात्रा
कैसे होगी? और अंतिम से
बचने लगो तो
प्रथम से ही
बचना शुरू हो
जाएगा। मौत से
जो डरा, मौत
से जो भागा, उसके ऊपर
जीवन की वर्षा
नहीं होती। वह
जीवन से अछूता
रह जाता है।
इसलिए कायर से
ज्यादा दयनीय
इस जगत में
कोई और नहीं
है।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
आल्बेर कामू
ने अपनी एक
किताब की
शुरुआत इस वचन
से की है कि
"मेरे देखे
दर्शनशास्त्र
की सबसे बड़ी
समस्या
आत्मघात है।'
महावीर
से पूछो, बुद्ध
से पूछो, तो
वे कहेंगे, मृत्यु।
कामू कहता है
आत्मघात।
करीब पहुंचा,
लेकिन चूक
गया।
मृत्यु
और आत्मघात
में बड़ा फर्क
है। आत्मघात
का अर्थ हुआ, जीवन
ने अतृप्त
किया। जीवन से
जो सुख मांगा
था, न
मिला। जो
मूल्य खोजे
थे, वे न
पाए जा सके।
जो आशा की थी, वह टूटी। जो
इंद्रधनुष
बांधे थे
कल्पनाओं के,
वे सब बिखर
गए। उस हताशा
में आदमी अपने
को मिटा लेता
है।
ऐसी
मिटाने की जो
वृत्ति है, यह
जीवन का अंतिम
शिखर नहीं है।
यह संगीत की आखिरी
ऊंचाई नहीं है,
यह तो वीणा
का टूट जाना
है।
आत्मघात
दूसरा छोर है; जीवन
से भी नीचा।
मृत्यु
आत्मघात के
बिलकुल विपरीत
है--जीवन की
आखिरी ऊंचाई,
जीवन का गौरीशंकर।
मृत्यु
अर्जित करनी
पड़ती है।
मृत्यु के लिए
साधना करनी
पड़ती है।
मृत्यु को
सम्हालना
पड़ता है। जो
अति कुशल है, वही केवल
ठीक-ठीक
मृत्यु को
उपलब्ध हो
पाता है। और
ठीक मृत्यु ही
न मिली तो
जीवन हाथ से
बह गया। फिर
तुम पाठशाला
में तो रहे, लेकिन पाठ न
आया। तुम
विद्यालय से
गए तो लेकिन
उत्तीर्ण न
हुए।
इसलिए
पूरब कहता है, जो
उत्तीर्ण न
होंगे उन्हें
बार-बार भेज
दिया जाएगा।
उचित है। जीवन
से अगर मृत्यु
का पाठ सीख
लिया तो फिर
आना नहीं है।
जो होशपूर्वक,
आनंदपूर्वक,
उल्लासपूर्वक
मरता है उसकी
फिर वापसी
नहीं है। यही
तो पुनर्जन्म
का पूरा
सिद्धांत है।
तुम भी
चाहते हो कि
वापसी न हो।
लेकिन तुम
चाहते हो, वापसी
न हो ताकि
फिर-फिर न
मरना पड़े।
वापसी उसकी
नहीं होती, जो मरना सीख
लेता है। जो
इस भांति मर
जाता है कि
मरने को फिर
कुछ और बचता
ही नहीं, तो
दुबारा मौत
नहीं होती।
तुम भी चाहते
हो कि वापसी न
हो। क्योंकि
वापसी होगी तो
फिर मौत होगी।
तुम मौत से
डरे हो। जो
वस्तुतः
वापसी नहीं चाहता
वह मौत से
डरता नहीं, मौत का
आलिंगन करता
है।
आज के
सूत्र मौत के
संबंध में
हैं। ये चरम
सूत्र हैं। इन
पर एक-एक
सूत्र को बहुत
ध्यानपूर्वक
समझने की
कोशिश करना।
क्योंकि ये
तुम्हारे विपरीत
भी हैं।
तुम
अगर यहां आए तो
जीवन की तलाश
में आए हो।
लोग महावीर के
पास गए तो
जीवन की तलाश
में गए थे।
जीवन में हार
रहे थे तो
तरकीबें
खोजने गए थे, कैसे
जीत जाएं।
लेकिन सदगुरु
तो मृत्यु का
सूत्र देता
है।
उस परम
मृत्यु को
हमने अलग-अलग
नाम दिए हैं।
पतंजलि कहते
हैं,
समाधि।
इसीलिए तो जब
कोई संन्यासी
मरता है तो
उसकी कब्र को
हम समाधि कहते
हैं। अर्थ हुआ
कि उसका ध्यान
और उसकी मृत्यु
एक ही जगह
पहुंच गए।
साधारण आदमी
मरता है तो
उसकी कब्र को
हम समाधि नहीं
कहते, कब्र
ही कहते हैं; मकबरा कहते
हैं। समाधि
नहीं कहते
क्योंकि यह आदमी
अभी फिर-फिर
पैदा होगा।
अभी समाधि
नहीं मिली, अभी आखिरी
मृत्यु नहीं
मिली।
समाधि
का अर्थ है
आत्यंतिक
मृत्यु--आखिरी, चरम।
अब न कोई जन्म
होगा, न
मौत होगी। पाठ
सीख लिया। यह
व्यक्ति
विद्यालय से
वापिस घर की
तरफ लौटने
लगा। यह घर
में स्वीकृत
हो जाएगा।
उत्तीर्ण
हुआ।
प्रमाणपत्र लेकर
जा रहा है।
ये
सूत्र
तुम्हारे
विपरीत
होंगे। इसलिए
और भी गौर से
समझोगे तो ही
समझ पाओगे।
पहला सूत्र:
सरीरमाहु
नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो।।
"शरीर
है नाव। जीव
है नाविक। यह
संसार है
समुद्र, जिसे
महर्षिजन
तर जाते हैं।'
शरीर
तो हमारे पास
भी है लेकिन
शरीर नाव नहीं
है। "शरीर नाव
है'
का अर्थ
होता है, शरीर
शरीर से
श्रेष्ठतर के
लिए साधन बने।
अभी तो शरीर
साध्य है। तुम
भोजन जीने के
लिए थोड़े ही
करते हो। तुम
जीते ही भोजन
करने के लिए
हो। तुम कपड़े
थोड़े ही शरीर
को बचाने के
लिए पहनते हो।
तुम शरीर को
कपड़े पहनने के
लिए बचाए रहते
हो। अभी तो
शरीर ऐसा लगता
है, जैसे
गंतव्य है।
इसके पार कुछ
भी नहीं।
महावीर
कहते हैं, शरीर
है नाव। अर्थ
हुआ, शरीर
से पार जाना
है। शरीर है
नाव। बैठना है,
उतरना भी है,
शरीर
संक्रमण है।
नाव में बैठने
के पहले भी यात्री
था। नाव में
बैठा है तब भी
है। नाव से
उतर जाएगा तब
भी होगा। नाव
ही यात्री
नहीं है। तुम
शरीर में आए उसके
पहले भी थे, अभी भी हो; शरीर से
उतरोगे जिस
दिन मौत में, तब भी
होओगे। मौत तो
दूसरा किनारा
है। जन्म है
यह किनारा, मृत्यु है
वह किनारा; शरीर है
नाव। और संसार
है सागर।
लेकिन
अधिक लोग
संसार को सागर
की तरह नहीं
देख पाते। जब
तक तुम्हारा
शरीर ही नाव
नहीं, तो तुम
संसार को सागर
की तरह न देख
पाओगे। तुम इसी
किनारे पर
अटके रहते हो।
तुम सागर में
उतरते ही
नहीं। सागर
में तो वही
उतरता है जो
मृत्यु की तरफ
स्वयं, स्वेच्छा
से अग्रसर होने
लगा। मृत्यु
यानी वह दूसरा
किनारा। तुम तो
डर के कारण इस
किनारे को पकड़कर
रुके रहते हो।
तुम तो सब
आयोजन करते हो
कि किसी तरह
यह किनारा न
छूट जाए। तुम
तो नाव में
होकर भी
यात्रा नहीं
करते।
इसलिए
संसार कभी-कभी
तो तुम कहते
भी हो, संसारसागर,
भवसागर।
मगर तुम महावीर
और बुद्ध के
वचन उधार ले
रहे हो। बैठे
किनारे पर हो,
बातें सागर
की कर रहे हो।
सागर का
तुम्हें कोई
पता नहीं।
सागर में तो
वही उतरता है,
जीवन उसी के
लिए सागर बनता
है, जिसने
पहले शरीर को
नाव समझा और
जो मौत के किनारे
की तरफ अग्रसर
हुआ।
हमने
एक नाव जो छोड़ी
भी तो
डरते-डरते
इसपे भी
ची ब जबीं
हो गया दरिया
तेरा
कवि ने
कहा है, एक
नाव भी, छोटी-सी
नाव ही हमने
तेरे सागर में
छोड़ी थी
कि तेरा सागर
एकदम नाराज हो
गया। एकदम तूफान
उठने लगे, लहरें
उठने लगीं, आंधियां, बवंडर आ गए।
हमने
एक नाव जो छोड़ी
भी तो
डरते-डरते
कुछ
बड़ा किया भी न
था। जरा-सी एक
नाव छोड़ी
थी।
इसपे भी
ची ब जबीं
हो गया दरिया
तेरा
और
तेरा दरिया
बड़ा नाराज हो
गया।
जो
व्यक्ति नाव
उतारेगा उसी
को दरिये
की नाराजगी
पता चलेगी।
किनारे पर
बैठे-बैठे दरिया
का पता ही
नहीं चलता।
सागर का अनुभव
तो माझी को
होता है।
जिसने अपनी
छोटी-सी डोंगी
को इस विराट
सागर में उतार
दिया...और कितनी
ही बड़ी नाव हो, छोटी
ही है।
क्योंकि सागर
बड़ा विराट है।
जिसने तूफान
और आंधियों
से भरे इस
सागर में अपनी
नाव को उतार
दिया, किसी
ऐसे किनारे की
तलाश में जो
यहां से दिखाई
भी नहीं पड़ता।
इसलिए
नदी नहीं कहते
संसार को, सागर
कहते हैं।
दूसरा किनारा
दिखाई पड़े तो
नदी। दूसरा
किनारा दिखाई
ही नहीं पड़ता।
है तो निश्चित।
इसीलिए तो
हमें मौत
दिखाई नहीं
पड़ती। है तो
निश्चित। इस
जीवन में
मृत्यु के
अतिरिक्त और
कुछ भी
निश्चित नहीं
है। बाकी सब
अनिश्चित है।
एक ही बात
निश्चित है, वह मृत्यु।
किनारा
तो निश्चित
है। क्योंकि
जिसका एक किनारा
है,
उसका दूसरा
किनारा भी
होगा ही।
कितने ही दूर...कितने
ही दूर। एक
किनारे के
होने में ही
दूसरा किनारा
हो गया है। अब
तुम दृढ़तापूर्वक
मान ले सकते
हो कि दूसरा
किनारा होगा
ही। अनुमान की
जरूरत नहीं
है। यह तो
सीधा गणित है।
यह किनारा है
तो वह किनारा
भी होगा। एक
छोर है तो
दूसरा छोर भी
होगा। जन्म हो
गया तो मृत्यु
भी होगी।
हम
अक्सर जीवन को
जन्म से ही
जोड़े रखते
हैं। इसलिए हम
जन्मदिन
मनाते हैं, मृत्युदिन नहीं
मनाते।
हालांकि
जिसको हम
जन्मदिन कहते हैं,
वह एक तरफ
से जन्मदिन है,
दूसरी तरफ
से मृत्युदिन
है। क्योंकि
हर एक वर्ष कम
होता जाता है।
मौत करीब आती
जाती है। अगर
ठीक से पूछो
तो जन्मदिन से
ज्यादा मृत्युदिन
है क्योंकि
जन्म तो दूर
होता जाता, मौत करीब
होती जाती है।
जन्म का
किनारा तो बहुत
दूर पड़ता जाता,
मौत का
किनारा करीब
आता जाता।
लेकिन फिर भी
हम पीछे मुड़कर
देखते रहते
हैं। हम जन्म
के किनारे को
ही देखते रहते
हैं।
दूसरा
किनारा दिखाई
नहीं पड़ता
इसलिए कहते हैं:
भवसागर। होना
निश्चित है, लेकिन
दृष्टि में
नहीं आता।
बहुत दूर है।
"शरीर
को नाव, जीव
को नाविक कहा।
यह संसार
समुद्र है, जिससे महर्षिजन
तर जाते हैं।'
और जो
उस किनारे को
छू लेता है, वही
महर्षि है। जो
जीते-जी मर
जाता है वही
महर्षि है। जो
शरीर की नाव
को खेकर
उस पार पहुंच
जाता है...।
पहुंचते
तो तुम भी हो, बड़े
बेमन से।
पहुंचते तो
तुम भी हो, घसीटे
जाते हो तब।
इसलिए तो
मृत्यु की एक
बड़ी दुखांत
धारणा लोगों
के मन में
है--यमदूत, काले-कलूटे,
भयावने,
भैंसों पर
सवार; घसीटते
हैं।
यह बात
बेहूदी है। यह
तुम्हारे भय
की खबर देती
है। यह मृत्यु
का चित्रण
तुमने अपने भय
के पर्दे से
किया है। तुम
भयभीत हो
इसलिए भैंसे, काले-कलूटे,
यमदूत...।
लेकिन महर्षिजनों
से पूछो।
जिनकी आंख
निर्मल है, उनसे पूछो।
और उनकी बात
ही सच होगी
क्योंकि उनकी
आंख निर्मल
है। वे कहते
हैं, मृत्यु
में उन्होंने
परमात्मा को
पाया। यह छोटा,
क्षुद्र
जीवन गया, विराट
जीवन मिला।
सीमा टूटी, असीम से
मिलन हुआ।
असीम का
आलिंगन है
मृत्यु।
महर्षिजन से
पूछो तो वे
कहेंगे, परमात्मा
बाहें
फैलाए खड़ा है।
संसार छूटता
है निश्चित।
पर संसार में पकड़ने
जैसा भी कुछ
नहीं है।
मिलता है
अपरिसीम, जाता
है क्षुद्र।
मिलता है
विराट, खोता
है क्षुद्र।
खोता है
क्षणभंगुर, मिलता है
शाश्वत।
नहीं, मृत्यु
का देवता
यमदूत
काला-कलूटा, भैंसों पर
सवार नहीं है।
मृत्यु से
ज्यादा सुंदर
कुछ भी नहीं
है क्योंकि
मृत्यु है
विश्राम। इस
जीवन में
निद्रा से
सुंदर तुमने
कुछ जाना? गहरी
निद्रा, जब
कि स्वप्न भी थपेड़े
नहीं देते। सब
वायु-कंप रुक
जाते हैं।
गहरी निद्रा,
जब बाहर का
संसार प्रतिछवि
भी नहीं बनाता,
प्रतिबिंब
भी नहीं
बनाता। जब
बाहर के संसार
से तुम बिलकुल
ही अलग-थलग हो
जाते हो। गहरी
निद्रा, जब
तुम अपने में
होते हो डूबे,
गहरे, तल्लीन--उससे
सुंदर इस जगत
में कुछ जाना
है?
मृत्यु
उसका ही अनंतगुना
रूप है।
मृत्यु से
सुंदर कुछ भी
नहीं। मृत्यु
से ज्यादा
शांत कुछ भी
नहीं। मृत्यु
से ज्यादा शुभ
और सत्य कुछ
भी नहीं।
लेकिन हमारे
भय के कारण
मृत्यु का रूप
हम विकृत कर
लेते हैं।
हमारे भय के
कारण विकृति
पैदा होती है।
महावीर
कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव
बनाकर, जन्म
के किनारे को चेष्टापूर्वक
छोड़ते हुए, मृत्यु के
किनारे को
अपने आप
उपलब्ध हो
जाते हैं। वे
खींचे-घसीटे
नहीं जाते।
उनके साथ
जबर्दस्ती
नहीं की जाती,
वे
स्वेच्छा से
संक्रमण करते
हैं।
इसका
अर्थ हुआ, ऐसे
जीयो कि
तुम्हारा
जीना मृत्यु
के विपरीत न
हो। ऐसे जीयो
कि तुम्हारे
जीवन में भी
मृत्यु का
स्वाद हो। ऐसे
जीयो कि
जीवन का लगाव
ही तुम्हारे
मन को पूरा न
घेर ले, जीवन
का विराग भी
जगा रहे।
विजय
आनंद एक फिल्म
बनाता था।
कहानी में
नायक के मरने
की घड़ी आती।
नायक गिर-गिर
पड़ता है, मरता
है, लेकिन
विजय आनंद का
मन नहीं भरता।
तो आखिर में
वह झल्लाकर,
चिल्लाकर
नायक से कहता
है, अपने
मरने में जरा
और जान डालिए।
मैंने
सुना तो मुझे
लगा,
यह सूत्र तो
महत्वपूर्ण
है। जरा उलटा
कर लो। विजय
आनंद ने कहा, अपने मरने
में जरा और
जान डालिए।
मैं तुमसे कहता
हूं, अपने
जीवन में थोड़ी
और मृत्यु
डालिए।
मृत्यु से घबड़ाइए
मत। मृत्यु को
काट-काट अलग
मत करिए।
रोज-रोज मरिए,
क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण।
जैसे
हम श्वास लेते
हैं और
प्रतिक्षण
श्वास छोड़ते
हैं। भीतर
जाती श्वास
जीवन का
प्रतीक है।
बाहर जाती
श्वास मृत्यु
का प्रतीक है।
जब बच्चा पैदा
होता है, तो
पहली श्वास
भीतर लेता है,
क्योंकि
जीवन का
प्रवेश होता
है। जब आदमी
मरता, तो आखिरी
श्वास बाहर
छोड़ता, क्योंकि
जीवन बाहर
जाता।
भीतर
आती श्वास नाव
में बैठना है, बाहर
जाती श्वास
नाव से उतरना
है। प्रतिपल
घट रहा है। जब
तुम भीतर
श्वास लेते हो
तो जीवन। जब
तुम बाहर
श्वास लेते हो
तो मृत्यु।
ऐसा ही
काश! तुम्हारे
मन के क्षितिज
पर भी उभरता
रहे।
प्रतिक्षण
तुम मरो और जीयो।
और प्रतिक्षण
जन्म और
मृत्यु घटते
रहें, और तुम
किसी को भी
पकड़ो न। और
तुम दोनों में
संतरण करो और
सरलता से बहो,
तो एक दिन
जब विराट
मृत्यु आएगी,
तुम अपने को
तैयार पाओगे।
तो तुम नाव
में रहे। तो
तुमने शरीर का
नाव की तरह
उपयोग कर
लिया।
ध्यान
रहे,
प्रतिपल
कुछ मर रहा
है। ऐसा मत
सोचना, जैसा
लोग सोचते हैं
कि सत्तर साल
के बाद एक दिन
आदमी अचानक मर
जाता है। यह
भी कोई गणित
हुआ? मृत्यु
कोई आकस्मिक
थोड़े ही घटती
है। इंच-इंच आती
है, रत्ती-रत्ती
आती है।
रोज-रोज मरते
हो, तब
सत्तर साल में
मर पाते हो। बूंद-बूंद
मरते हो तब
सत्तर साल में
मर पाते हो।
यह जीवन का
घड़ा बूंद-बूंद
रिक्त होता है,
तब एक दिन
पूरा खाली हो
पाता है। ऐसा
थोड़े ही कि एक
दिन आदमी
अचानक जिंदा
था और एक दिन
अचानक मर गया!
सांझ सोए तो
पूरे जिंदा थे,
सुबह मरे
अपने को पाया;
ऐसा नहीं
होता।
जन्म के
बाद ही मरना
शुरू हो जाता
है। इधर जन्मे, ली
भीतर श्वास कि
बाहर-श्वास
लेने की
तैयारी हो गई।
फिर जन्म से
निरंतर जीवन
और मरण
साथ-साथ चलते
हैं। समझो कि
जैसे दोनों
तुम्हारे दो
पैर हैं; या
पक्षी के दो
पंख हैं। न
पक्षी उड़
सकेगा दो पंखों
के बिना, न
तुम चल सकोगे
दो पैरों के
बिना।
जन्म
और मृत्यु
जीवन के दो
पैर हैं, दो
पंख हैं।
तुम एक
पर ही जोर मत
दो। इसीलिए तो
लंगड़ा
रहे हो। तुमने
जिंदगी को लंगड़ी
दौड़ बना लिया
है। एक पैर को
तुम ऐसा इनकार
किए हो कि
स्वीकार ही
नहीं करते कि
मेरा है। कोई
बताए तो तुम
देखना भी नहीं
चाहते। कोई
तुमसे कहे कि
मरना पड़ेगा तो
तुम नाराज हो
जाते हो। तुम
समझते हो यह
आदमी दुश्मन
है। कोई कहे
कि मृत्यु आ
रही है तो तुम
इस बात को
स्वागत से
स्वीकार नहीं
करते। न भी
कुछ कहो तो भी
इतना तो मान
लेते हो कि यह
आदमी अशिष्ट
है। मौत भी
कोई बात करने
की बात है? मौत
की कोई बात
करता है?
इसलिए
तो हम
कब्रिस्तान
को गांव के
बाहर बनाते
हैं,
ताकि वह
दिखाई न पड़े।
मेरा बस चले
तो गांव के ठीक
बीच में होना
चाहिए। सारे
गांव को पता
चलना चाहिए एक
आदमी मरे तो।
पूरे गांव को
पता चलना चाहिए।
चिता बीच में जलनी
चाहिए ताकि हर
एक के मन पर
चोट पड़ती रहे।
ऐसा क्यों
बाहर छिपाया
हुआ गांव से बिलकुल
दूर? जिनको
जाना ही पड़ता
है मजबूरी में,
वही जाते
हैं। जो भी
जाते हैं, वे
भी चार आदमी
के कंधों पर चढ़कर जाते
हैं, अपने
पैर से नहीं
जाते।
एक झेन
फकीर मर रहा
था। मरते वक्त
एकदम उठकर बैठ
गया और उसने
अपने शिष्यों
से कहा कि
मेरे जूते
कहां हैं? उन्होंने
कहा, क्या
मतलब है? जूते
का क्या करियेगा?
चिकित्सक
तो कहते हैं, आप आखिरी
क्षण में हैं
और आप ने भी
कहा, यह
आखिरी दिन है।
उसने कहा, इसीलिए
तो जूते
मांगता हूं।
मैं चलकर जाऊंगा
मरघट। बहुत हो
गया यह दूसरों
के कंधों पर
जाना।
जबर्दस्ती
मैं न जाऊंगा।
कहते हैं, मनुष्य
जाति का पहला
आदमी! उस आदमी
का नाम था बोकोजू।
यह झेन फकीर
चलकर गया।
कब्र खोदने
में भी उसने
हाथ बंटाया, फिर लेट गया
और मर गया।
यह तो
कुछ बात हुई।
यह इस आदमी ने
जीवन का उपयोग
नाव की तरह कर
लिया। खेकर
गया उस पार।
लेकिन इसके
लिए तो बड़ी
प्राथमिक, प्रथम
से ही तैयारी
करनी होगी।
इसके लिए तो
पूरे जीवन ही
आयोजना करनी
होगी। मृत्यु
से मिलन के
लिए पूरे जीवन
धीरे-धीरे
मरना सीखना
होगा।
जीवन--धर्म
की दृष्टि
में--मरने की
कला को सीखने
का अवसर है।
"निश्चय
ही धैर्यवान
को भी मरना है
और कापुरुष को
भी मरना है।
जब मरण
अवश्यंभावी
है तब फिर धीरतापूर्वक
मरना ही उत्तम
है।'
धीरेण
वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे
मरिउं।।
और जब
मरना ही है, और
जब मरना
सुनिश्चित ही
है, अवश्यंभावी
है, टलने
की कोई सुविधा
नहीं है, कभी
टला नहीं है; हालांकि
आदमी अपने
अज्ञान में
ऐसा मानता है
कि किसी और का
न टला होगा, मैं टाल
लूंगा। आदमी
की मूढ़ता
की कोई सीमा
है।
जो कभी
नहीं हुआ, आदमी
उसको भी मानता
है कि कोई
तरकीब निकल
आएगी, मेरे
लिए हो जाएगा।
आदमी का
अहंकार ऐसा
मदांध है कि
यह बात मान लेता
है कि मैं
अपवाद हूं। और
कोई मरता है, सदा कोई और
मरता है। मैं
तो मरता नहीं।
इसलिए मानने
में सुविधा भी
हो जाती है।
जब भी अर्थी तुमने
देखी, किसी
और की निकलते
देखी है। और
जब भी ताबूत
सजा, किसी
और का सजा।
चिता जली, किसी
और की जली है।
तुम तो सदा देखनेवाले
रहे। इसलिए
लगता भी है कि
शायद कोई
रास्ता निकल
आएगा। मौत
मेरी नहीं।
मुझे नहीं
घटती, औरों
को घटती है।
ये और सब मरणधर्मा
हैं। मैं कुछ
अलग, अछूता,
नियम के
बाहर हूं।
महावीर
कहते हैं
मृत्यु
अवश्यंभावी
है;
निरपवाद
घटेगी। फिर जो
होना ही है, उससे बचने
की आकांक्षा
व्यर्थ है।
फिर जो होना
ही है, उससे
भय भी व्यर्थ
है। धैर्यवान
को भी मरना है,
वीर पुरुष
को भी मरना है,
साहसी को भी
मरना है, कापुरुष
को भी मरना है,
कायर को भी
मरना है। मरण
अवश्यंभावी
है।
तो फिर धीरतापूर्वक
मरना ही उचित
है। तो फिर
शान से मरना
ही उचित है।
जब जो होना ही
है तो उसे प्रसादपूर्वक
करना उचित है।
जो होना ही है
उसे शृंगारपूर्वक
करना उचित है।
जो होना ही है, उसे
समारोहपूर्वक
करना उचित है।
जब मरना ही है
तो फिर रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते
अशोभन ढंग से
क्यों मरना!
आदमी
के हाथ में
इतना ही
है--मरने से
बचना तो नहीं
है--आदमी के
हाथ में इतना
ही है, वह
कापुरुष की
तरह मरे या एक
साहसी
व्यक्ति की
तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे।
चुनाव मृत्यु
और न-मृत्यु
में तो है ही
नहीं। चुनाव
तो इतना ही
हमारे हाथ में
है कि शान से मरें कि
रोते मरें।
आंसुओं से भरे
मरें या
गीतों से भरे मरें।
उठकर मौत को
आलिंगन कर लें
या
चीखें-चिल्लाएं,
भागें;
और मृत्यु
के द्वारा घसीटे
जाएं।
महावीर
कहते हैं, विकल्प
तो यहां
है--मौत को
स्वीकार करके मरें या
अस्वीकार
करते हुए मरें।
कहावत
है,
वीर पुरुष
एक बार मरता
है। कायर अनेक
बार। ठीक है
कहावत।
क्योंकि
जितनी बार भयभीत
होता है, उतनी
बार ही मौत
घटती है। वीर
पुरुष एक बार
मरता। अगर
मुझसे पूछो तो
कहावत बिलकुल
ठीक, पूरी-पूरी
ठीक नहीं है।
वीर पुरुष
मरता ही नहीं।
कापुरुष
बार-बार मरता,
क्योंकि
जिसने मरण को
स्वीकार कर
लिया उसकी मृत्यु
कहां? मृत्यु
तो हमारे
अस्वीकार के
कारण घटती है।
वह तो हमारे
इनकार के कारण
घटती है। वह
तो हम घसीटे
जाते हैं
इसलिए घटती
है।
यह
बोकोजू जो चल
पड़ा जूते
पहनकर मरघट की
तरफ,
यह मरा? इसको
कैसे मारोगे?
इससे मौत
हार गई।
"धैर्यवान
को भी मरना, कापुरुष को
भी। जब मरण
अवश्यंभावी
है...।' महावीर
का तर्क सीधा
है: "...तो फिर धीरतापूर्वक
मरना उचित है।'
धीरतापूर्वक
मरने का क्या
अर्थ होता है? धीरतापूर्वक मरने का
अर्थ होता है,
मृत्यु के
भय लिए जरा भी
अवसर न देना।
मृत्यु कंपाए
न। धीरपुरुष
ऐसा है, जैसे
निष्कंप जल।
झील शांत।
निष्कंप दीये
की ज्योति।
हवा के कोई
झोंके नहीं आते।
धीरपुरुष की
वही परिभाषा
है,
जो गीता के
स्थितप्रज्ञ
की। कृष्ण से
अर्जुन ने
पूछा है, किसको
कहते हैं आप धीरपुरुष?
कौन है स्थितधी?
स्थितधी का ठीक अर्थ धीरपुरुष
है। कौन है
जिसको आप
स्थितप्रज्ञ
कहते हैं? कौन
है जिसकी
प्रज्ञा ठहर
गई? धी
यानी
प्रज्ञा। धी
यानी आत्यंतिक
बोध, अंतर्तम
में जलती हुई
ज्योति।
कौन है स्थितधी?
महावीर
कहते हैं वही, जिसे
मृत्यु
विचलित नहीं
करती। जिसे
अपनी मृत्यु
विचलित नहीं
करती, उसे
फिर किसी की
मृत्यु
विचलित नहीं
करती।
वही तो
कृष्ण भी
अर्जुन से
कहते हैं कि
ये जो तेरे
सामने खड़े हैं, तू
यह मत सोच कि
तेरे मारने से
मारे जाएंगे।
"न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे।' कोई
मरता नहीं।
लोग भय के
कारण मरते
हैं। कोई मारता
नहीं।
तो
मृत्यु असली
मृत्यु नहीं
है। क्योंकि
मृत्यु को
जिसने
स्वीकार किया
वह तो अमृत के
दर्शन को
उपलब्ध होता
है। मृत्यु
तभी मृत्यु
मालूम होती है
जब हमारा
अस्वीकार
होता है।
तुमने
कभी खयाल किया? वही
काम तुम अपनी
मौज से करो और
वही काम किसी
की आज्ञा के
कारण
जबर्दस्ती
करो। तुम कवि
हो, और एक
सिपाही
तुम्हारी पीठ
पर बंदूक लगाए
खड़ा हो, कहता
हो करो कविता।
तुम अचानक
पाओगे, कविता
सूख गई। तुम
अचानक पाओगे,
रसधार बहती
नहीं। तुम
अचानक पाओगे,
शब्द जुड़ते
नहीं। तुम
अचानक पाओगे,
गीत उठता
नहीं। न केवल
यही, तुम्हारे
भीतर क्रोध
उठेगा, बगावत
उठेगी। अगर
हिम्मतवर हुए
तो लड़ने लग जाओगे।
अगर
गैर-हिम्मतवर
हुए तो झुककर
तुकबंदी करने
लगोगे। कविता
पैदा नहीं
होगी। किसी
तरह शब्द जमा
दोगे उधार, मुर्दा, जिनमें
न कोई लय होगी,
न कोई प्राण
होगा, न
कोई आत्मा
होगी।
तुमने
कविता पहले भी
की है लेकिन
तब तुमने अपनी
मौज से की थी। दिनभर के
थके-मांदे घर
आए थे। शरीर
की जरूरत थी
कि सो जाते, लेकिन
आधी रात जगते
रहे।
टिमटिमाते
दीये की रोशनी
में बैठ कागज
काले करते
रहे।
तुम्हारे
हृदय से बहती
थी। उमंग और
थी, उल्लास
और था।
रूस
में कविता मर
गई। उन्नीस सौ
सत्रह के बाद रूस
में कोई ढंग
की कविता नहीं
हुई;
न एक ढंग का
उपन्यास लिखा
गया, न ढंग
की एक पेंटिंग
बनी। सारा
साहित्य मर
गया। और रूस
असाधारण देश
है। क्रांति के
पहले रूस ने
इतने बड़े
साहित्यकार
दिए, जितने
दुनिया के
किसी देश ने
नहीं दिए। तालस्ताय,
चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की,
तुर्जनेव--ऐसे नाम कि
जिनका कोई
मुकाबला नहीं
दुनिया में।
एकबारगी
जिन्होंने
दुनिया को
फीका कर दिया।
अगर उस समय के
दुनिया के दस
बड़े उपन्यास चुने
जाएं तो पांच
रूसी होंगे और
पांच
गैर-रूसी। सारी
दुनिया
आधी-आधी बांट
दी।
फिर
अचानक
क्रांति हुई
और सब मर गया।
हुआ क्या? बंदूक
लग गई पीछे, कविता मर
गई। जो सहज और
स्वतंत्र न
रहा, वह
जीवंत नहीं रह
जाता। तो
कविता लिखी
जाती है, खेत-खलिहान
की प्रशंसा
में, फैक्ट्री इत्यादि की
प्रशंसा में,
लेकिन
उसमें कुछ
प्राण नहीं
है।
जबर्दस्ती लिखी
जाती है, सरकारी
आज्ञा से लिखी
जाती है।
उपन्यास भी लिखे
जाते हैं। सब
चलता है।
किताब भी छपती
हैं, किताब
बिकती भी हैं,
लेकिन कुछ
मूल स्वर खो
गया।
जबर्दस्ती हो
गई।
भूखे
कवियों ने, सर्दी
में ठिठुरते
कवियों ने
बेहतर कविता
लिखी थी। रूस में
आज कवि जितना
संपन्न है
उतना दुनिया
के किसी कोने
में नहीं।
अच्छे से
अच्छा मकान
उसके पास है, अच्छे से
अच्छी कार
उसके पास है, भोजन की
व्यवस्था, अच्छी
से अच्छी
कपड़ों की
व्यवस्था, उसके
बच्चों का
जीवन
सुरक्षित।
दुनिया में
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
कवि, चित्रकार,
मूर्तिकार,
उपन्यासकार,
साहित्यकार
कभी इतने
सम्मानित और
प्रतिष्ठित न
थे। और न कभी
इतने
सुविधा-संपन्न
थे, जितने
रूस में हैं।
लेकिन कविता
मर गई। गरीबी में
न मरी, भूख
में न मरी, दीनता-दुर्बलता
में न मरी, रोग,
मृत्यु में
न मरी, लेकिन
सुविधा में मर
गई। पीछे
बंदूक लगी है।
जबर्दस्ती
में मर गई।
जीवन
का कुछ सूत्र
है कि जो तुम
स्वभाव, सौभाग्य,
सहजता से
करते हो, उसका
आनंद अलग। जो
तुम
जबर्दस्ती
करते हो, जबर्दस्ती
के कारण ही सब
गलत हो जाता
है।
जो लोग स्वीकारपूर्वक
मरे हैं, उनसे
पूछो; महर्षिजनों से पूछो।
मृत्यु
परमात्मा का
रूप है। वह
परमात्मा का
संदेशवाहक है,
डाकिया है।
नहीं, मृत्यु
भैंसों पर
सवार होकर
नहीं आती।
मृत्यु
परियों की तरह
सुंदर है।
पक्षियों की
तरह उड़कर
आती। तुम्हें
आलिंगन में ले
लेती।
तुम्हें गहनतम
विश्राम और
विराम देती।
तुम्हें
समाधि का सुख
देती। लेकिन
उसकी तैयारी
करनी पड़े। उसे
अर्जित करनी
पड़े।
फिर
मरना
अवश्यंभावी
है तो धीरतापूर्वक
मरना उचित।
धीर बनो। इसे
रोज-रोज साधो।
धीरता को
रोज-रोज साधो।
छोटी-छोटी
चीजें अधीर कर
जाती हैं। एक
प्याली गिरकर
टूट जाती है
और तुम अधीर हो
जाते हो। तो
थोड़ा सोचो तो, जब
तुम टूटोगे
तो कैसे न
अधीर होओगे!
एक छोटी-मोटी
दुकान चलाते
थे, डूब
जाती है, तो
अधीर हो जाते
हो। तो जब
तुम्हारे
जीवन का पूरा
व्यवसाय छीन
लिया जाएगा, जीवन का
पूरा व्यापार
बंद होगा, पटाक्षेप
होगा, पर्दा
गिरेगा तो तुम
कैसे बेचैन न
हो जाओगे!
दिवाला निकल
गया, एक
मित्र नाराज
हो गया, और
तुम अधीर हो
जाते हो। किसी
ने गाली दे दी,
अपमान कर
दिया और तुम
अधीर हो जाते
हो।
इस
धीरज को लेकर
तुम मृत्यु का
सामना कर
सकोगे? इसे
साधो। ये सब
अवसर हैं धीरज
को साधने के, धैर्य को
निर्मित करने
के। जीवन एक
गहन
प्रयोगशाला
है। और
प्रतिपल
परमात्मा अनंत
अवसर देता।
कभी
किसी के
द्वारा गाली
दिलवा देता।
कभी किसी के
द्वारा अपमान
करवा देता। वह
कहता है, साधो।
धैर्य साधो। स्थितधी
बनो। धीरज
जगाओ। धीरता
पैदा करो। यह
आदमी जो गाली
दे रहा है, यह
तुम्हारा
हिताकांक्षी
है। इसे पता
हो न हो, यह
तुम्हारा कल्याणमित्र
है।
कबीर
ने तो कहा है, "निंदक
नियरे राखिये
आंगन कुटी छवाय।'
घर के पास
ही बसा लो
उनको। आंगन
कुटी छवा
दो। अतिथि की
तरह उनकी सेवा
करो, पैर
दबाओ। पर
निंदक को दूर
मत जाने दो, पास ही रखो।
क्योंकि वह
बार-बार
तुम्हें धैर्य
को जगाने का
अवसर देगा।
सोचो
थोड़ा इस पर।
जो भी घटता है
उसका
सृजनात्मक
उपयोग कर लो।
दिवाला निकल
जाए तो
सृजनात्मक उपयोग
कर लो। यह
मौका है। इस
वक्त अपने को
कस लो। सफलता
में तो सभी
धैर्यवान
मालूम पड़ते
हैं। वह तो
धोखा है।
असफलता जब घेर
ले,
तभी
परीक्षा है।
और ऐसी
छोटी-छोटी असफलताओं
में
साधते-साधते, छोटी-छोटी
लहरों से
लड़ते-लड़ते तुम
बड़े सागर में
उतरने के
योग्य हो
जाओगे।
किनारे से दूर
बड़े तूफान
हैं। तूफानों
के पार दूसरा
किनारा है।
सफलता
हो तो बहुत हंसो
मत। सफलता में
तो रो लो तो
चलेगा।
विफलता में हंसना
है। जब जीत आ
रही हो, हंसने
की जरूरत
नहीं।
क्योंकि जीत
के साथ हंसने
से किसी को
कोई लाभ कभी
नहीं हुआ। तब
रो लो तो
चलेगा। जब फूलमालाएं
गले में डाली
जा रही हों तो
सिर नीचे झुका
लो तो चलेगा।
तब उदास हो
जाओ तो चलेगा।
मुझे
आज साहिल पर
रोने भी दो
कि
तूफान में मुस्कुराना
भी है!
किनारे
पर रो लो तो
चलेगा
क्योंकि
तूफान में
हंसने की
तैयारी करनी
है। जो तूफान
में हंसा वही
हंसा। साहिल
पर तो कोई भी
हंस लेता है।
किनारे पर
हंसने में
क्या लगता है? हलदी
लगे न फिटकरी,
रंग चोखा हो
जाए। कुछ लगता
ही नहीं
किनारे पर तो।
किनारे पर तो मूढ़ भी हंस
लेते हैं, कायर
भी हंस लेते
हैं। तूफान
में हंसने की
तैयारी करनी
है।
मुझे
आज साहिल पर
रोने भी दो
कि
तूफान में मुस्कुराना
भी है!
सफलता
में ऐसे खड़े
रह जाओ, जैसे
कुछ भी नहीं
हुआ। तभी तुम
विफलता में
ऐसे खड़े रह
सकोगे कि जैसे
कुछ भी नहीं
हुआ।
इसको
कृष्ण ने कहा
है,
"समत्वं योग उच्चते।'
दुख में, सुख में सम
हो जाओ, यही
योग है। यही
धीरता है।
बहुत
कुछ और भी है
इस जहां में
यह
दुनिया महज गम
ही गम नहीं है
लेकिन
वह जो बहुत
कुछ है, उसे
जानने की कला
चाहिए।
साधारणतः तो
आदमी को लगता
है, दुख ही
दुख है।
क्योंकि हम
केवल दुख को चुनने
में कुशल हैं।
हम कांटे
बीनने में बड़े
निष्णात हो गए
हैं। फूल हमें
दिखाई ही नहीं
पड़ते। फूल उसी
को दिखाई पड़ते
हैं, जो
कांटों में भी
फूल देखने के
लिए तैयार हो
जाता है।
फूलों
को कांटों में
खोज लेना है।
दुख में सुख
की तरंग को पकड़ना
है। अशांति
में शांति की
तरंग को पकड़ना
है। विफलता
में सफलता का
स्वर खोजना
है।
ऐसी
खोज जारी रहे
पूरे जीवन, तो
तुम मृत्यु
में महाजीवन
खोज पाओगे। इन
छोटी-छोटी
तरंगों से
जूझते-जूझते
तुम मृत्यु की
महातरंग
से जूझने के
योग्य हो
जाओगे। फिर
तुम्हें वह तरंग
मिटा न पाएगी।
जिसने धीर की
अवस्था पा ली,
उसे फिर कुछ
भी नहीं मिटा
पाता है।
इसे
महावीर एक बड़ा
अनूठा शब्द
देते हैं। वह
उन्हीं ने
दिया है। इसे
वे कहते हैं: पंडितमरण।
यह बड़ा प्यारा
शब्द है।
"एक पंडितमरण--ज्ञानपूर्वक,
बोधपूर्वक
मरण--सैकड़ों
जन्मों का नाश
कर देता है।
अतः इस तरह
मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो
जाए।'
हम तो
जीवन तक को
व्यर्थ कर
लेते हैं।
महावीर कहते
हैं,
मृत्यु को
भी सार्थक
किया जा सकता
है। इस तरह मरो
कि मृत्यु भी,
मरण भी सुमरण
हो जाए। पंडितमरण
इसे उन्होंने
नाम दिया
महावीर
ने जितना
चिंतन मृत्यु
पर किया है
उतना शायद
किसी मनीषी ने
नहीं किया।
इसलिए महावीर
ने कुछ बातें
कहीं हैं, जो
किसी ने भी
नहीं कहीं।
उन्हें हम
धीरे-धीरे
समझें, समझ
पाएंगे। पहली
बात, उन्होंने
मृत्यु में एक
भेद किया: पंडितमरण।
मरते तो सभी
हैं। प्रज्ञापूर्वक
मरना। पंडित
शब्द बनता है
प्रज्ञा
से--जिसकी प्रज्ञा
जाग्रत हुई।
जो देखता है; होशपूर्वक
है। ऐसे ही
सोए-सोए नहीं
मर जाता, जागा-जागा
मरता है। जो
मृत्यु का
स्वागत नींद में
नहीं करता, होश के दीये
जलाकर करता
है।
इक्कं पंडियमरणं
छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।
तं मरणं
मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ
होइ।।
"ऐसे
मरो कि मृत्यु
सुमरण बन
जाए। ऐसे मरो
कि तुम्हारी
मृत्यु पंडितमरण
बन जाए।'
समझें
हम। सीखना
होगा जीवन की
यात्रा में
ही। क्योंकि
मृत्यु तो एक
बार आती है, इसलिए
रिहर्सल का
मौका नहीं है।
तुम ऐसा नहीं कर
सकते कि चलो, मरने का
थोड़ा अभ्यास
कर लें।
क्योंकि
मृत्यु तो
दुबारा नहीं
आती, एक ही
बार आती है।
तो
जीवन में
अभ्यास करना
होगा मृत्यु
का;
और कोई उपाय
नहीं है।
मृत्यु तो जब
आएगी तो बस आ
जाएगी। पहले
से खबर करके
भी नहीं आती।
कोई पूर्वसूचना
नहीं देती।
मृत्यु अतिथि
है। आने की
तिथि नहीं
बताती, इसलिए
अतिथि। खबर
नहीं देती कि
अब आती हूं, तब आती हूं।
बस आ जाती है।
अचानक एक दिन
द्वार पर खड़ी
हो जाती है।
फिर क्षणभर
सोचने का भी
अवसर नहीं
देती। तो अगर
तुम तैयार ही
हो तो ही
तैयार रहोगे,
अन्यथा
विचलित हो
जाओगे।
अनेक
लोग ऐसा सोचते
हैं कि मृत्यु
के क्षण में
सम्हाल
लेंगे--अभी
क्या जल्दी है? अनेक
लोग ऐसा सोचते
हैं कि ले लेंगे
राम का नाम
मरते क्षण
में। मगर तुम
ले न पाओगे।
अगर तुम्हारे
पूरे जीवन पर
राम का नाम नहीं
लिखा है, तो
मृत्यु के
क्षण में भी
तुम ले न
पाओगे। अगर पूरे
जीवन
काम-काम-काम
चलता रहा तो
मरते वक्त राम
नहीं चल
सकेगा।
क्योंकि मरते
वक्त तो सारे
जीवन का जो
सार-निचोड़
है वही गूंजेगा।
अगर जिंदगीभर
धन ही धन
गिनते रहे तो
मरते वक्त तुम
रुपये गिनते
ही मरोगे। मन
में गिनते
मरोगे। सोचते
मरोगे कि क्या
होगा, इतनी
संपत्ति
इकट्ठी कर ली
है। अब क्या
होगा, क्या
नहीं होगा।
एक
आदमी मर रहा
था। उसने अपनी
पत्नी से पूछा
कि मेरा बड़ा
बेटा कहां है? उसने
कहा कि आप घबड़ाएं
मत, वह
आपके पैर के
पास बैठा है।
उसने कहा, और
मंझला? कहा,
वह भी पास
बैठा है, आप
विश्राम
करें। और उसने
कहा, सबसे
छोटा? उसने
कहा कि वह तो
आपके दायें
हाथ पर बैठा
हुआ है। वह
आदमी हाथ के
घुटने टेककर
उठने लगा।
पत्नी ने कहा,
आप यह क्या कर
रहे हैं? कहां
जा रहे हैं
उठकर? उसने
कहा, कहीं
जा नहीं रहा
हूं। मैं यह
पूछता हूं कि
फिर दुकान कौन
चला रहा है? तीनों यहीं
मौजूद हैं।
अब यह
आदमी मर रहा
है। गिर पड़ा
और मर गया
लेकिन दुकान
चलाता रहा। जा
रहा है लेकिन
चिंता दुकान
की बनी है।
जल्दी लौट
आएगा। फिर दुकान
पर बैठ जाएगा।
फिर बेटे
होंगे बड़े, मंझले, छोटे।
फिर दुकान
चलेगी, फिर
मरेगा। फिर
घुटने, कोहनियां
टेककर
पूछेगा, दुकान
कौन चला रहा
है।
ऐसे
घूमता रहता
चाक जीवन का।
हम पुनरुक्त
करते रहते
वही-वही।
लेकिन एक बात
याद रखना, यह
धोखा कभी कोई
नहीं दे पाया।
यद्यपि ऐसी
कथाएं लिखी
हैं। अजामिल
की कथा है, कि
मरते
वक्त--सदा का
पापी--बुलाया,
"नारायण, नारायण!' नारायण
उसके बेटे का
नाम था। पापी
अक्सर ऐसे नाम
रख लेते हैं।
छिपाने के लिए
नाम बड़े काम
देते हैं। और
कहते हैं, ऊपर
के नारायण
धोखे में आ
गए। और जब अजामिल
मरा तो
उन्होंने
समझा कि मेरा
नाम बुलाया
था। तो वह
स्वर्ग में
बैठा है।
यह
जिन्होंने भी
कहानी गढ़ी
है,
धोखेबाज
लोग रहे होंगे,
बेईमान रहे
होंगे। अगर
परमात्मा ऐसा
धोखा खा जाता
है तो फिर
हद्द हो गई।
तुम भी न खाते
धोखा जब वह
"नारायण, नारायण'
बुला रहा था,
तो किसी ने
धोखा नहीं खाया।
उसकी पत्नी ने
धोखा नहीं
खाया, उसके
लड़के ने धोखा
नहीं खाया। और
जब वह नारायण
को बुला रहा
था तो वे सभी
जान रहे होंगे
कि किसलिए
बुला रहा है।
कुछ न कुछ
उपद्रव...।
पुराना पापी था।
मरते वक्त कुछ
और करवा जाना
चाहता हो।
मैंने
सुना है, एक
पापी मर रहा
था। उसने अपने
सब बेटों को
इकट्ठा कर
लिया, और
कहा कि मेरी
आखिरी बात
मानोगे? वे
सब डरे। बड़े
तो बहुत डरे
क्योंकि वे
जानते थे बाप
को, कि वह
आखिरी बात में
कहीं उलझा न
जाए। जिंदगीभर
उलझाया अब
आखिरी बात...और
जाते-जाते कोई
ऐसा दंदफंद न
खड़ा कर जाए।
मगर छोटा बेटा
जरा नया-नया था
और बाप को
जानता नहीं था
तो वह पास आ
गया और उसने
कहा, आप
कहें। उसने
कान में कहा
कि ये सब तो
लुच्चे-लफंगे
हैं।
इन्होंने कभी
मेरी सुनी
नहीं और आज भी
नहीं सुन रहे
हैं। मैं मर
रहा हूं; बाप
मर रहा है।
तुम बेटा कसम
खाते हो कि
करोगे? उसने
कहा, कसम
खाता हूं। आप
बोलिए तो।
उसने
कहा,
तो ऐसा करना;
जब मैं मर
जाऊं तो मेरी
लाश को टुकड़े
करके पड़ोसियों
के घर में डाल
देना और पुलिस
में रिपोर्ट
लिखा देना।
उसने कहा, लेकिन
किसलिए? उसने कहा कि
मेरी आत्मा
बड़ी प्रसन्न
होगी, जब
सब बंधे
जाएंगे। मेरी
आत्मा की
प्रसन्नता के
लिए इतना तो
कर देना। फिर
मैं तो मर ही
गया, तो
काटने में
हर्जा क्या है?
जिंदगीभर से यह एक
आकांक्षा रही
है कि इन सबको
बंधा हुआ देख
लूं। अब मरते
बाप की यह
आकांक्षा--इनकार
मत करना। देख,
तूने कसम भी
खा ली।
तो वह
जो अजामिल
बुला रहा था
बेटे को कि
"नारायण, नारायण',
पता नहीं
कौन-सा उपद्रव
करवाने के लिए
बुला रहा हो।
कोई धोखे में
नहीं था, लेकिन
कथाकार कहते
हैं कि ऊपर का
नारायण धोखे में
आ गया। ये
आदमी की बेईमानियां
हैं। इस धोखे
में मत पड़ना।
तुम इस धोखे
में मत जीना।
मृत्यु
के क्षण में
तुम वही कर
पाओगे, जो
तुमने जीवनभर
किया है। उसी
का सार-निचोड़।
उसी की
निष्पत्ति।
जैसे
हजार-हजार
गुलाब के फूलों
से इत्र निकाल
लिया जाता है।
इत्र तो बूंदभर
होता है; हजार-हजार
फूलों से निचुड़ता
है। ऐसे ही
तुम्हारे
पूरे जीवन के
फूलों से--जो
भी फूल रहे
हों; सुगंध
के कि दुर्गंध
के, उनका
इत्र मरते
क्षण में
तुम्हारे
सामने होगा।
तुमने
यह बात सुनी
होगी। लोग
कहते हैं, मरते
वक्त आदमी के
सामने पूरे
जीवन की
तस्वीर आ जाती
है। उसका मतलब
केवल इतना ही
है कि पूरे जीवन
का सार-निचोड़,
सारे
अनुभवों का
इत्र आदमी के
हाथ होता है।
वही इत्र लेकर
आदमी चलता है,
दूसरी यात्रा
पर निकलता है।
पंडितमरण का
अर्थ है, व्यक्ति
पूरे जीवन
मरने के लिए
तैयारी करता रहा।
जो
अवश्यंभावी
है उसके लिए
तैयार होता रहा।
बुद्ध
के पास जब कोई
संन्यासी
पहली दफा
दीक्षित होते
थे तो वे
उन्हें कहते
थे,
तीन महीने
मरघट पर रहो।
वे थोड़े
चौंकते कि किसलिए?
मरघट पर
क्या सार है? बुद्ध कहते,
पहले
मृत्यु को ठीक
से देखो। बैठे
रहो मरघट पर।
आती रहेंगी
लाशें, जलती
रहेंगी चिताएं,
हड्डियां
टूटती रहेंगी,
सिर फोड़े
जाते रहेंगे,
राख हो
जाएगी। लोग
राख को बीनने
आ जाएंगे। तुम
यह देखते रहो
तीन महीने। बस
बैठे रहो मरघट
पर।
तीन महीने
अगर तुम भी
मरघट पर
बैठोगे, और
कुछ देखने न
मिलेगा तो
मृत्यु
अवश्यंभावी है
यह सत्य
तुम्हारा
अनुभूत सत्य
हो जाएगा।
और
किसी न किसी
दिन तीन
महीनों में, जिस
दिन ध्यान ठीक
से पकड़ लेगा
और चित्त
एकाग्र होगा,
चिता जल रही
होगी...
और रोज-रोज
चिता जलते देखोगे
तो किसी दिन
तुम नहीं
सोचते ऐसा
नहीं होगा कि
तुम देख लोगे,
यह मैं ही
जल रहा हूं! यह
देह मेरी जैसी
देह है। यह
देह ठीक मेरी
जैसी देह है
और राख हुई जा
रही है। मैं
राख हो रहा
हूं, यह
तुम नहीं देख
पाओगे?
यह अगर
प्रतीति सघन
हो जाए कि
मृत्यु
अवश्यंभावी
है तो तुम फिर
तत्क्षण उसकी
तैयारी में लग
जाओगे। अभी तो
हम जीवन की
तैयार में लगे
हैं--जीवन, जो
कि जाएगा।
उसकी तैयारी
कर रहे हैं, जो कि छीना
जाएगा।
मृत्यु जो कि
आएगी ही, उसकी
कोई तैयारी
नहीं है। इधर
हम तैयारी कर
रहे हैं; मकान
बनाते, धन जोड़ते, पद-प्रतिष्ठा--सारा
आयोजन करते
हैं कि जीना
है। मरने का
आयोजन कब
करोगे? और
यह जीना सदा
रहनेवाला
नहीं है।
इंतजाम लोग ऐसा
करते हैं, जैसे
सदा रहना है।
और एक दिन
अचानक इंतजाम
के बीच में
मौत आ धमकती
है। सब ठाठ
पड़ा रह जाएगा।
और किसी भी
घड़ी संदेश आ
जाता है और
बंजारे को अपना
तंबू उखाड़
लेना पड़ता है।
चल पड़ना
पड़ता है।
"पंडितमरण,
ज्ञानपूर्वक
मरण सैकड़ों
जन्मों का नाश
कर देता है, अतः इस तरह
मरना चाहिए
जिससे मरण सुमरण
हो जाए।'
अदभुत सदगुरु
रहे होंगे
महावीर।
सिखाते हैं
मरने की कला।
कहते हैं, ऐसे
मरो कि मरण सुमरण
हो जाए।
कैसे
होगा मरण सुमरण? रोज-रोज
मरो। प्रतिपल
मरो। सुबह मरो,
सांझ मरो।
रात जब सोओ तो
मर जाओ। जो
दिन बीत गया
उसके लिए मर
जाओ। जो-जो
बीतता जाता है
उसके लिए मरते
जाओ, उसको
इकट्ठा मत
करो। उसका बोझ
मत ढोओ।
बोझ की तरह
अतीत को मत
खींचो। जो गया,
गया। उसे
जाने दो।
प्रतिपल नए हो
जाओ। इधर मरे,
उधर जन्म।
इधर पुराने को
छोड़ा, नए
का आविर्भाव।
तो मौत
तुम्हें ऐसी
जगह नहीं
पाएगी, जहां
तुम्हारे पास
कुछ छीनने को
हो। तुम्हारे
पास कुछ होगा
ही नहीं। किसी
क्षण मौत आएगी
तो तुम तो हर
वक्त अतीत के
लिए मरते जाते
हो। अतीत के
संबंध, आसक्तियां,
राग, धन,
पद, प्रतिष्ठा...तुम
तो मरते जाते
हो।
सम्मान-अपमान,
सफलता-विफलता...तुम
तो मरते जाते
हो। सुख-दुख, विषाद...तुम
तो मरते जाते
हो।
मृत्यु
एक दिन आएगी, तुम
कोरे कागज की
तरह पाए
जाओगे।
तुम्हारे पास पकड़ने को
कुछ न होगा।
तुम्हारे पास
बुलाने को कुछ
न होगा, चीखने-चिल्लाने
को कुछ न होगा।
तुम जानोगे, कोई मेरा
नहीं। तुम
जानोगे, कुछ
मेरा नहीं।
तुम खड़े हो
जाओगे। तुम
जूते पहनकर
खड़े हो जाओगे।
तुम मौत के
हाथ में हाथ
डाल लोगे। तुम
कहोगे, मैं
तैयार हूं।
मैं तो सदा से
तैयार था, इतनी
देर क्यों
लगाई? इतनी
देर कहां रही
तू? कबसे हम
प्रतीक्षा
करते। कबसे
हम तैयार बैठे
थे।
बस, ऐसे
आदमी से मौत
हार जाती है।
इसको महावीर सुमरण
कहते हैं।
जीवन
को,
जो कि
क्षणभंगुर है,
उसे शाश्वत
मत समझो। जो
जाएगा वह जा
ही चुका है।
जो मिटेगा वह
मिट ही रहा
है। जो छूटेगा,
वह
तुम्हारे हाथ
से छूट ही रहा
है। व्यर्थ
अटके मत रहो।
व्यर्थ
मुट्ठी मत बांधो,
खोलो मुट्ठी।
लेकिन
हमारी तर्कदृष्टि
और है। हम
कहते हैं, जो
छूटनेवाला
है उसे जोर से
पकड़ लो कि
कहीं और जल्दी
न छूट जाए। हम
कहते हैं, जो
क्षणभंगुर है
उसे भोग लो।
कहीं क्षण बीत
न जाए। हम
कहते हैं, इसके
पहले मौत आए, जीवन को जी
लो, निचोड़ लो रस। कहीं
ऐसा न हो, कि
मौत आ जाए और
तुम रस ही न निचोड़
पाओ।
चांदनी
की डगर पर तुम
साथ हो
प्राण
युगऱ्युग
तक अमर यह रात
हो
कल
हलाहल ही पिला
देना मुझे
आज
मधु की रात
मधु की बात हो
हाथ
में रवि-चंद्र
पग में फूल है
नृत्यमय
अस्तित्व
उन्मद झूल है
रिक्त
भीतर से मगर
यह जिंदगी
बस बगूले-सी
भटकती धूल है
रात
है,
मधु है, समर्पित
गात है
आज
तो यह पाप भी
अवदात है
सघन
श्यामल केश
लहराते रहें
मैं
रहूं भ्रम में
अभी तो रात है
चांदनी
की डगर पर तुम
साथ हो
प्राण
युगऱ्युग
तक अमर यह रात
हो
--जो
होना नहीं है
उसकी हम
आकांक्षा
करते हैं।
प्राण
युगऱ्युग
तक अमर यह रात
हो!
--कोई
रात, कोई
नींद, कोई
सपना युगऱ्युग
तक होने को
नहीं है।
चांदनी
की डगर पर तुम
साथ हो
कौन
किसके साथ है? चांदनी
बड़ा झूठा
सम्मोहन है।
कौन किसके साथ
है? लगते
हैं कि लोग
किसी के साथ
हैं। राह पर
अनजान मिल गए
यात्री हैं।
पलभर को साथ
हो गया।
नदी-नाव संयोग
हैं। अभी नहीं
थे साथ, अभी
साथ हैं, अभी
फिर बिछुड़
जाएंगे।
कल
हलाहल ही पिला
देना मुझे
--कल
मौत आए, ठीक।
कल जहर पिलाओ,
ठीक।
आज
मधु की रात
मधु की बात
हो।
तो
साधारणतः हम
मृत्यु को
टालते हैं कि
कल होगी
मृत्यु। आज तो
जीवन है। आज
क्यों मृत्यु
की बात उठाएं?
ऐसे
विचारक भी हैं
जगत में जो
कहते हैं, मृत्यु
की बात ही
उठानी
रुग्णता है।
उनकी दृष्टि
में महावीर तो
मार्बिड,
रुग्ण
विचारक हैं।
फ्रायड जैसे
विचारक हैं। जो
कहते हैं, मृत्यु
की बात ही
नहीं उठानी
चाहिए।
हालांकि फ्रायड
खुद मृत्यु से
बड़ा भयभीत
होता था। वह
इतना भयभीत हो
जाता था कि
कभी अगर कोई मौत
की ज्यादा बात
करे तो दो दफे
तो वह बेहोश
हो गया था।
किसी ने मौत
की चर्चा छेड़
दी और वह घबड़ाने
लगा। वह फेंट
ही कर गया, गिर
ही गया कुर्सी
से।
उसका
शिष्य जुंग
अपने
संस्मरणों
में लिखता है
कि फ्रायड के
साथ वह अमरीका
जा रहा था
जहाज पर। जुंग
की बड़ी बहुत
दिनों की रुचि
थी,
इजिप्त की ममी--ताबूतों
में, मुर्दा
लाशों में।
उसको क्या पता
कि यह फ्रायड
इतना घबड़ा
जाता है! सोच
भी नहीं सकता
था। दोनों
जहाज के डेक
पर खड़े थे।
कुछ बात चल
पड़ी, संस्मरण
निकल आया, उसने
इजिप्त की ममियों
की बात की।
उसने उनका
वर्णन किया।
वह तो वर्णन
करता रहा, एकदम
फ्रायड कंपने
लगा और वह तो
चारों खाने चित्त
हो गया।
ऐसे
व्यक्तियों
से यह सदी
प्रभावित हुई
है। ऐसे
व्यक्तियों
ने इस सदी के
मानस को रचा
है। फ्रायड का
मनोविज्ञान
इस सदी की
आधारभूत शिला बन
गया है। और
फ्रायड कहता
है,
जो मृत्यु
की बात करते
हैं, वे मार्बिड,
वे रुग्णचित्त।
मगर
थोड़ा सोचो।
अगर फ्रायड और
महावीर में
चुनना हो तो
कौन रुग्णचित्त
मालूम होगा? महावीर
मृत्यु का
इतना चिंतन और
चर्चा और इतना
ध्यान करने के
बाद जैसे महाजीवित
मालूम पड़ते
हैं। इधर
फ्रायड, कहता
है मृत्यु का
चिंतन रुग्ण
है। लेकिन
लगता है यह
रैशनलाइजेशन
है। लगता है, वह इतना
डरता है खुद, कि अपनी
सुरक्षा कर
रहा है। वह
इतना भयभीत है
मृत्यु से कि
जो मृत्यु की
बात करते हैं,
उनको वह
रोकने की
चेष्टा कर रहा
है कि यह बात ही
रुग्ण है। यह
बात ही मत
उठाओ।
महावीर
में जीवन का
फूल खिला है
मृत्यु के
मध्य में।
नहीं, महावीर
रुग्ण नहीं
हैं। महावीर
से स्वस्थ आदमी
और खोजना
मुश्किल
होगा।
लेकिन
हम साधारणतः
महावीर की
बजाय फ्रायड
से राजी हैं।
हम कहें कुछ, चाहे
हम जैन ही
क्यों न हों, और जाकर
मंदिर में
महावीर की
पूजा ही क्यों
न कर आते हों, लेकिन अगर
हम मन में टटोलेंगे
तो हम फ्रायड
के साथ राजी
हैं, महावीर
के साथ नहीं।
अगर कोई
मृत्यु की
चर्चा छेड़
दे तो हम भी
कहते हैं, कहां
की दुखभरी
बातें उठा रहे
हो! छोड़ो
भी।
कल
हलाहल ही पिला
देना मुझे
आज
मधु की रात
मधु की बात
हो।
फिर भी
हम जानते
हैं--क्योंकि
जो है, उसे हम
कैसे झुठला
सकते हैं?
हाथ
में रवि-चंद्र
पग में फूल है
नृत्यमय
अस्तित्व
उन्मद झूल है
रिक्त
भीतर से मगर
यह जिंदगी
बस बगूले-सी
भटकती धूल है।
जानते
तो हैं--
बस बगूले-सी
भटकती धूल है
रिक्त
भीतर से मगर
यह जिंदगी
इस
रिक्तता को, इस
सूनेपन
को भरने के
लिए हम हजार
उपाय करते हैं
जिंदगी में।
महावीर
कहते हैं, इस
सूनेपन
को तुम भर न
पाओगे। तुम
कितना ही ढांक
लो, यह उघड़ेगा।
यह उघड़कर
रहेगा।
मृत्यु
अवश्यंभावी
है। तुम्हें
अपनी इस शून्यता
का
साक्षात्कार
करना ही होगा।
तुम्हें अपने
को मिटते हुए
देखना ही होगा।
इससे तुम बच न
सकोगे। इससे
कोई कभी बच नहीं
पाया। तो बजाय
बचने के, भागने
के, मृत्यु
को हम शुभ घड़ी
में क्यों न
बदल लें?
रात है, मधु
है, समर्पित
गात है
भीतर
से हम जानते
भी हैं, सब जा
रहा, सब
क्षणभंगुर।
पानी का
बबूला--अब
फूटा, तब
फूटा। मगर
दोहराए जाते
हैं ऊपर से--
रात
है,
मधु है, समर्पित
गात है
आज
तो यह पाप भी
अवदात है
सघन
श्यामल केश
लहराते रहें
मैं
रहूं भ्रम में
अभी तो रात है
हम
कितनी-कितनी
भांति भ्रम को
पोसते हैं।
कितनी-कितनी
भांति भ्रम को
उखड़ने
नहीं देते। एक
तरफ से उखड़ता
है तो ठोंक
लेते हैं।
दूसरी तरफ से उखड़ता है, वहां
ठोंक लेते
हैं। इधर
पलस्तर गिरा,
चूना उखड़
गया, पोत
लेते हैं।
टीमटाम करते
रहते हैं। और
यह टीमटाम
करते-करते एक
दिन बीत जाते;
व्यतीत हो
जाते हैं।
इसके
पहले कि ऐसी
घड़ी आए, अपने
को व्यर्थ
समझा-समझाकर,
पानी के
बबूलों से मन
को मत उलझाए
रखना। क्षणभंगुर
को क्षणभंगुर
जानना शाश्वत
को जानने की पहली
शर्त है। असार
को असार की
तरह पहचान
लेना सार का
द्वार खोलना
है।
जी
उठे शायद शलभ
इस आस में
रात
भर रो-रो दीया
जलता रहा
थक
गया जब
प्रार्थना का पुण्यबल
सो
गई जब साधना
होकर विफल
जब
धरा ने भी न
धीरज दिया
व्यंग्य
जब आकाश ने
हंसकर किया
आग
तब पानी बनाने
के लिए
रात
भर रो-रो दीया
जलता रहा
लेकिन
तुम चाहे रोओ, चाहे
चीखो-चिल्लाओ;
जो नहीं
होता, नहीं
होता। आग पानी
नहीं बनती।
आग
तब पानी बनाने
के लिए
रात
भर रो-रो दीया
जलता रहा
रोते
रहो,
आग पानी
नहीं बनती।
और
सब तुम पर
हंसेंगे।
जब
धरा ने भी न
धीरज दिया
व्यंग्य
जब आकाश ने
हंसकर किया
थक
गया जब
प्रार्थना का पुण्यबल
सो
गई जब साधना
होकर विफल
तुम जो
भी कर रहे हो, वह
विफल होना
उसका निश्चित
है। लाख उपाय
करो तो भी तुम
हारोगे। यह
जीवन ही हारने
को है। इस जीवन
का अर्थ ही
विफलता है।
यहां कोई जीत
नहीं पाता।
यहां विजय
होती ही नहीं।
जहां मृत्यु
होनी है, वहां
विजय कैसी? मृत्यु में
ही अगर जीते
तो जीत हो
सकती है।
इसलिए
महावीर ने कहा
है,
जो मृत्यु
को जीत लेता
है वही जयी है,
वही जिन है।
जिन शब्द का
अर्थ होता है,
जीत लिया।
तो दो तरह के
विजेता हैं
जगत में। एक:
नेपोलियन, सिकंदर,
तैमूरलंग,
नादिरशाह--ये सब धोखे
के विजेता
हैं। मौत तो
इनको बिलकुल
भिखारी कर
जाती है।
फिर और
एक दूसरी तरह
के विजेता
हैं: महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, क्राइस्ट।
जीवन में तो
इनकी कोई विजय
की कहानी नहीं
है। इतिहास
में तो इनके
कोई चरण-चिह्न
नहीं हैं। समय
के भीतर तो
इन्होंने कुछ
जीता नहीं है,
इसलिए
इतिहास में
इनका ठीक-ठीक
उल्लेख भी नहीं
है। लेकिन
शाश्वत में इनने विजय
की घोषणा की
है। विजय की
दुंदुभी बजाई
है अमृत में।
अगर
कहीं कोई
शाश्वत का
इतिहास है तो
वहां तुम
नादिर का, तैमूरलंग का और चंगीज
का और हिटलर
का और
नेपोलियन और
सिकंदर का नाम
न पाओगे। वहां
तुम्हें
महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का,
मोहम्मद का,
जरथुस्त्र
का नाम
मिलेगा। एक
दूसरे ढंग की
विजय है।
वास्तविक
विजय है।
"असंभ्रांत,
निर्भय
सत्पुरुष एक पंडितमरण
को प्राप्त
होता है और
शीघ्र ही
अनंत-मरण
का--बार-बार के
मरण का--अंत कर
देता है।'
एक ही
बार मर जाता
है। पूरा-पूरा
मर जाता है। कुछ
रोकता नहीं, कुछ
झिझकता नहीं। समग्ररूप
से समर्पित हो
जाता है
मृत्यु को। तो
पंडितमरण
एक, फिर
होनेवाले
भविष्य के
अनंत जन्म और मृत्युओं
से छुटकारा हो
जाता है।
जागो!
तुम्हारा तो
जीवन भी अभी
पंडित-जीवन
नहीं है।
यात्रा बड़ी
है। मरण को भी पंडितमरण
बनाना है। ऐसी
झूठी बातों
में बहुत मत
उलझे रहो।
अपने मन को
समझाते मत
रहो। ये सांत्वनाएं, जो
तुम दे रहे हो,
बहुत काम न
आएंगी।
खुद को
बहलाना था
आखिर, खुद को
बहलाता रहा
मैं ब-ई-सोजे-दरू
हंसता रहा, गाता
रहा
भीतर
तो आग है।
हृदय तो जल
रहा है। हृदय
में तो कोई
तृप्ति नहीं, मगर
खुद को बहलाना
था तो खुद को
बहलाता रहा।
मैं ब-ई-सोजे-दरू
हंसता रहा
गाता रहा!
आग को
भीतर छिपाए
हो। मौत को
भीतर छिपाए
हो। ऊपर से
हंसते रहते, गाते
रहते। कागज के
फूल चिपकाए
हो।
यह
धोखे की पट्टी
टूटेगी।
यह पर्दा
उठेगा। इसके
पहले कि मौत
उठाए, तुम ही
उठा लो, तो
शोभा है; तो
सम्मान है, तो गरिमा
है।
जो मौत
करे वह तुम ही
कर दो, इसी का
नाम संन्यास
है। जो मौत
करे वह तुम ही
कर दो।
जहां-जहां से
मौत तुम्हें
छीन लेगी, वहां-वहां
तुम ही कह दो
कि मेरा यहां
कुछ भी नहीं
है। मौत पत्नी
से छीन लेगी? तो जान लो मन
में कि पत्नी
कौन किसकी है?
मौत पति से
छीन लेगी? तो
जान लो मन में,
जाग जाओ, कौन किसका
पति है? साथ
हो लिए दो
क्षण को।
अजनबी हैं।
एक-दूसरे की
सेवा कर ली, बहुत।
एक-दूसरे को
दुख न दिया तो
काफी। सुख तो
कौन किसको दे
पाया? एक-दूसरे
के लिए फूल, बिछाए...बिछे
तो नहीं, चेष्टा
की बहुत।
एक-दूसरे के
रास्ते से
थोड़े कांटे
बीन लिए, पर्याप्त।
इतना ही बहुत
है। यह भी
असंभव है। यह
भी हो गया, चमत्कार
है।
लेकिन
कौन किसका है? अजनबी
को अजनबी
जानो। जो
बच्चा तुम्हारे
घर पैदा हुआ, वह भी अजनबी
है। एक अज्ञात
आत्मा न मालूम
कहां से, न
मालूम किन लोकों
से, न
मालूम किन
ग्रह-नक्षत्रों
से, न
मालूम किन पृथ्वियों
से, न
मालूम किन
जीवन-पथों से
होकर
तुम्हारे
द्वार आ गई
है। अपना
मानने की भूल
मत करो।
धन है
तो ठीक, नहीं
है तो ठीक।
आसक्ति को
थोड़ा शिथिल
करो। मुट्ठी खोलो। और
ऐसा मत कहो कि
जब मौत आएगी
तब निपट
लेंगे।
तोड़
लेंगे हरेक शै
से रिश्ता
तोड़
देने की नौबत
तो आए
हम
कयामत के खुद मुंतजिर
हैं
पर
किसी दिन
कयामत तो आए
--आएगी
मौत, तब
निपट लेंगे।
तोड़
लेंगे हरेक शै
से रिश्ता
तोड़
देने की नौबत
तो आए
लेकिन
जब नौबत आएगी
तो एक पल में
घट जाती है। पल
के छोटे-से
खंड में घट
जाती है।
तुम्हें अवसर
न मिलेगा। तुम
जाग भी न
पाओगे और मौत
तुम्हें उठा
ले जाएगी।
नहीं, इस
तरह टालो मत, स्थगित मत
करो। मौत आ
रही है, आ
ही गई है।
नौबत आ ही गई
है। नौबत आती
ही रही है।
कयामत कल नहीं
है, कयामत
आज है, अभी
है, यहीं
है। तुम्हें
जो करना हो, अभी कर लो।
चीजों
को सीधा-सीधा
देखो। आंखों
में भ्रम मत पालो।
तो जीवन भी
पंडित का जीवन
हो जाता है और
मृत्यु भी
पंडित की
मृत्यु हो
जाती है।
"साधक
पग-पग पर
दोषों की
आशंका, संभावनाओं
को ध्यान में
रखकर चले।
छोटे से छोटे
दोष को भी पाप
समझे; उससे
सावधान रहे।
नए-नए लाभ के
लिए जीवन को
सुरक्षित
रखे।'
"जब
जीवन तथा देह
से लाभ होता
दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक
शरीर का त्याग
कर दे।'
यह
महावीर की
अनूठी बात है।
सिर्फ महावीर
ने कही है
सारे मनुष्य-जाति
के इतिहास
में। महावीर
ने भर अपने
संन्यासी को
स्वेच्छा-मरण
की आज्ञा दी
है।
महावीर
कहते हैं, जीवन
तो साधन है; अपने आप में
साध्य नहीं
है। तुमसे कोई
पूछे, किसलिए जीते? तो
तुम कहोगे, जीने के लिए
जीते हैं।
तुमसे कोई
पूछे कि सौ साल
जीना चाहते हो?
तुम कहोगे,
जरूर जीना
चाहते हैं।
क्या
करोगे? सौ
साल नहीं, हजार
साल भी जीकर
करोगे क्या? होगा क्या? तुम कहोगे, होने का
सवाल कहां है?
बस जीना ही
बहुत है। हम
लोगों को
आशीर्वाद देते
हैं, सौ
साल जीयो।
कोई फिक्र ही
नहीं करता कि
सौ साल जीकर
यह बेचारा
करेगा क्या? इसकी भी तो
कुछ सोचो!
तुमने तो
आशीर्वाद दे
दिया। तुम तो
मुफ्त में
देकर मुक्त हो
गए, अब यह
फंस गया। यह
लटका रहेगा
किसी अस्पताल
में। हाथ-पैर
उल्टे-सीधे
बंधे होंगे।
नाक में आक्सीजन
जा रही होगी।
शरीर में
ग्लूकोज का
इंजेक्शन लगा
होगा। इसकी भी
तो सोचो।
तुमने तो दे दिया
आशीर्वाद कि
सौ साल जीयो।
सिर्फ
जीना अपने आप
में मूल्य
थोड़े ही है!
इसलिए महावीर
ने इस बात को
बड़ी हिम्मत से
लिया। महावीर
की बात आज
नहीं कल
दुनिया में
स्वीकार करनी
पड़ेगी।
पश्चिम
में बड़े जोर
से इस पर
आंदोलन चला
है। हालांकि
उनको किसी को
महावीर का पता
नहीं क्योंकि
महावीर
पश्चिम के लिए
बिलकुल
अपरिचित हैं।
पश्चिम में
इसका बड़ा
चिंतन चल रहा
है क्योंकि
पश्चिम अब, सौ
साल के करीब
जीने की
सुविधा उसको
उपलब्ध हो गई
है। यहां तो
हम आशीर्वाद
ही देते रहे।
आशीर्वाद से
ही कोई जीता
है? लेकिन
पश्चिम के
विज्ञान ने
आशीर्वाद को
पूरा कर दिया।
अब लोग
जी रहे हैं।
सौ साल के पार
पहुंच गए हैं कुछ
लोग। अब वे
बड़ी मुश्किल
में हैं। वे
कहते हैं, हमें
मरने का हक
चाहिए।
पश्चिम में
बूढ़ों की जमातें
हैं, जो
आंदोलन चला
रही हैं। जो
कह रही हैं, हमारा
जन्मसिद्ध
अधिकार है कि
हमें मरना चाहिए।
हमें तुम बचा
नहीं सकते।
हमको मरने का
मौका दो।
मगर अब
तक इसकी कोई
दुनिया के
किसी कानून
में व्यवस्था
नहीं है।
आत्महत्या
बड़ा अपराध है।
बड़े मजे की
बात है। अगर
आत्महत्या
करते हुए पकड़
लिए जाओ, तो
सरकार तुमको
मार डाले। यह
भी कोई बात
हुई? तुम
खुद ही मर रहे
थे। अब तुमको
और मारने की क्या
जरूरत है? तुम
तो खुद ही
अपराध भी कर
रहे थे, दंड
भी दे रहे थे।
निपटारा हुआ
जा रहा था।
लेकिन अगर पकड़
लिए गए--मर गए
तो ठीक, अगर
अपराध कर
गुजरे तो फिर
कोई दंड नहीं
है--लेकिन अगर
करते हुए पकड़
लिए गए और
अपराध पूरा न
हो पाया तो
दंड है।
यह अब
तक तो ठीक था।
हमारे नियम और
कानून भी कारण
से होते हैं।
जीवन बड़ा
मुश्किल रहा
है,
बड़ा असंभव
रहा है। सत्तर
साल, अस्सी
साल जीना बड़ा
मुश्किल रहा
है। जितनी खोजें
हुई हैं
दुनिया में
जमीन के नीचे
पड़ी हुई मनुष्य
की हड्डियों
की, तो ऐसा
लगता है पांच
हजार साल पहले
चालीस वर्ष
आखिरी उम्र
थी। क्योंकि
पांच हजार
वर्ष पहले की
कोई भी हड्डी
नहीं मिली है,
जो चालीस
वर्ष से
ज्यादा
पुराने आदमी
की हो।
और
पीछे जाने पर, कोई
सत्तर और
पचहत्तर हजार
साल पुरानी जो
पेकिंग
में हड्डियां
मिली हैं, वे
तो बताती हैं
कि आदमी
मुश्किल से
पच्चीस साल
जीता था। तो
जीवन बड़ा
मुश्किल रहा
है। और पच्चीस
साल भी, एक
घर में अगर एक
दर्जन बेटे
पैदा हों तो
दो बच जाएं, बहुत।
क्योंकि दस
बच्चों में नौ
बच्चे मर जाते
थे।
तो
जीवन की बड़ी
मुश्किल थी।
जीवन बड़ा
न्यून था।
मुश्किल से
मिलता था।
जीवन का बड़ा
अवसर था। सभी
को नहीं मिल
जाता था। तो सौ
साल जीने का
हम आशीर्वाद
देते थे, वह
ठीक है। अब
जीवन बड़ा सुगम
है। कम से कम
पश्चिम में तो
सुगम हो गया
है। लोग सौ
साल तक पहुंच रहे
हैं।
सत्तर-अस्सी
साल औसत उम्र
हो गई है। अस्सी
साल का होना
कोई बहुत बूढ़ा
होना नहीं है।
इसलिए
हम चौंकते हैं, यहां
जब अखबार में कभी
खबर आती है कि
नब्बे साल के
बूढ़े ने विवाह
कर लिया तो हम
बहुत चौंकते
हैं। यह भी
क्या पागलपन
है? नब्बे
साल का बूढ़ा, और विवाह? लेकिन
पश्चिम में
शरीर की उम्र
लंबा रही है।
नब्बे साल का
बूढ़ा भी विवाह
करने की हालत
में है।
तो एक
नया सवाल उठना
शुरू हुआ है
कि आदमी को
मरने का हक
होना चाहिए।
यह जन्मसिद्ध
अधिकार होना
चाहिए सभी
विधानों में।
क्योंकि एक आदमी
अगर एक सौ दस
साल का हो गया
और मरना चाहता
है...क्योंकि
करोगे क्या? रोज
उठना वही, रोज
सोना वही, रोज
खा-पी लेना
वही। फिर सब
अपने संबंधी
जा चुके, मित्र-प्रियजन
जा चुके और एक
आदमी जिंदा
है। उसकी सारी
दुनिया जा चुकी।
वह सौ साल
पहले पैदा हुआ
था, वह
दुनिया जा
चुकी। सब बदल
गया। वह
बिलकुल अजनबी
है। जैसे किसी
और लोक में
जबर्दस्ती
उसको लाकर खड़ा
कर दिया।
बच्चों से कोई
तालमेल नहीं रहा।
बच्चे बिलकुल
दूसरी दुनिया
में जी रहे हैं।
वह करे भी
क्या जीकर? सार भी क्या
है? कष्ट
होता है, शरीर
दुखता है, अर्थराइटिस है, हजार
बीमारियां
हैं। करे क्या
जीकर?
और जी
रहा है
क्योंकि
मेडिकल साइंस
ने जीने की
सुविधा जुटा
दी है। जी
सकता है। अब
हम आदमी को खींच
सकते हैं, दो
सौ साल तक भी।
उसको मरने ही
न दें। उसको
अस्पताल में
रखकर हम जिंदा
रख सकते हैं।
अब अस्पताल
में डाक्टरों
की भी बड़ी
कठिनाई है। क्योंकि
अगर वे
आक्सीजन बंद
करें तो उसका
मतलब है, उन्होंने
इसको मारा।
पुराने नियम
से वे हत्यारे
हैं। उनका
पुराना
शास्त्र कहता
है, किसी
को मारना नहीं,
बचाने की
कोशिश करना।
अगर वे इसको
ग्लूकोज न दें
तो यह मर
जाएगा। लेकिन
तब मारने का
जुम्मा उनके
ऊपर पड़ेगा।
अभी कानून
इसका मौका
नहीं दे रहा
है, लेकिन
कानून को यह
मौका देना
पड़ेगा।
महावीर
की बात समझ
में आने जैसी
है। महावीर कहते
हैं,
जब कोई आदमी
ऐसी जगह आ जाए,
जहां शरीर
से अब कुछ भी
ध्यान में गति
न होती हो, समाधि
की तरफ यात्रा
न होती हो; ध्यान
से, धर्म
से, समाधि
से परमात्मा
का अब कोई
अनुभव में
विकास न होता
हो, कोई
लाभ न होता
हो...यह महावीर
का लाभ ठीक से
समझना। यह
जैनियों का
लाभ नहीं है
कि अब कोई धन
कमाने की
सुविधा न रही,
कि रिटायरमेंट
हो गया, अब
जीकर क्या
करें?
महावीर
जब कहते हैं, नए-नए
लाभ के लिए
जीवन को
सुरक्षित रखे,
तो वे यह
कहते हैं, रोज-रोज
परमात्मा का
अधिकतम अंश
अनुभव में आने
लगे तो तो
जीवन का कोई
सार है। लेकिन
कभी अगर ऐसा
हो जाए कि जब
जीवन तथा देह
से लाभ होता
दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक
शरीर का त्याग
कर दे।
यह
शर्त सोचने
जैसी है: "परिज्ञानपूर्वक।' महावीर
कहते हैं, आत्महत्या
का भी अधिकार
है, लेकिन परिज्ञानपूर्वक।
उस शब्द में
सब कुछ छिपा
है। परिज्ञानपूर्वक
का अर्थ होता
है, जहर
खाकर मत मरना,
पहाड़ से
कूदकर मत मरना
क्योंकि वह तो
क्षण में हो
जाता है, भावावेश
में हो जाता
है। छुरा
मारकर मत मरना,
गोली चलाकर
मत मरना।
परिज्ञानपूर्वक का
अर्थ है उपवास
कर लेना। पानी, भोजन
बंद कर देना।
नब्बे दिन
लगेंगे, अगर
आदमी स्वस्थ
हो तो मरने
में। तीन
महीने तक...तीन
महीने तक सतत
एक ध्यान बना
रहे कि मैं मरने
को तैयार
हूं--परिज्ञान
हुआ। तीन
महीने में
हजार दफा...तीन
महीने बहुत
दूर हैं, तीन
मिनट में
तुम्हारा मन
हजार दफा
बदलेगा कि मरना
कि नहीं मरना?
अरे छोड़ो
भी! कहां के
पागलपन में
पड़े हो? रात
सोए, उठकर
बैठ गए, जल्दी
पहुंच गए
फ्रिज के पास
और भोजन कर
लिया कि यह तो
नहीं चलेगा।
क्या सार है
मरने में? पता
नहीं आगे कुछ
है या नहीं
है।
और तीन
महीने अगर तुम
उपवास किए हुए, जल-अन्न
त्यागे
हुए और एक ही
भाव में बने
रहो, तो यह
धीर की अवस्था
हो गई। यह
हकदार है मरने
का। इसको कोई
अड़चन नहीं।
इसने अर्जित
कर लिया। इसको
महावीर कहते हैं
परिज्ञानपूर्वक
मरना। लेकिन
वे जानते हैं
कि कुछ लोग
अजीब हैं। वे
हर जगह से
अपने लिए धोखा
निकाल लेते
हैं।
इसलिए
दूसरे सूत्र
में उन्होंने
कहा,
"किंतु
जिसके सामने
अपने संयम, तप आदि
साधना का कोई
भय या किसी
तरह की क्षति
की आशंका नहीं
है, उसके
लिए भोजन का
परित्याग
करना उचित
नहीं है।'
अगर
अभी त्याग, तप
और ध्यान बढ़
रहा है और
तुम्हारे
शरीर की कमजोरी
के कारण, बुढ़ापे
के कारण, दौर्बल्य
के कारण
तुम्हारे
तप-ध्यान में
कोई बाधा नहीं
पड़ रही है, कोई
आशंका नहीं है,
तुम्हारा
संयम आगे जा
रहा है तो
उसके लिए भोजन
का परित्याग
करना उचित
नहीं है।
"यदि
वह फिर भी
भोजन का त्याग
कर मरना चाहता
है तो कहना
होगा, वह मुनित्व
से विरक्त हो
गया।'
वह
च्युत हो गया।
क्योंकि
उसमें एक नई
आकांक्षा
पैदा हो गई
मरने की। मरना
आकांक्षा से
नहीं होना
चाहिए। अब कुछ
लाभ नहीं रहा
और हम किसी के
ऊपर बोझ हो गए
हैं तो क्या
सार है? अब
कोई गति नहीं
हो रही है, जीवन
में कुछ नए
साध्य नहीं
खुल रहे हैं, नए फूल नहीं
खिल रहे, सब
असार हो गया, हम किसी पर
बोझ होकर बैठ
गए हैं तो
विदा हो जाना
चाहिए।
जीवन
से जब तक सार निचुड़ता
हो...और सार का
अर्थ है
आत्मा। सार का
अर्थ यह नहीं
कि तुम तिजोड़ी
भरते जा रहे
हो,
लाभ होता जा
रहा है। सार
से महावीर का
अर्थ है, भीतर
की संपदा अभी
उपलब्ध हो रही
है तो जीवन अभी
योग्य है। अभी
इस नाव का
उपयोग करना
है।
लेकिन
कभी ऐसा भी हो
जाता है कि
तुम नाव पर गए
यात्रा करने, और
एक ऐसी घड़ी
आयी कि नाव
में छेद हो गए और
नाव डूबने लगी,
तो महावीर
कहते हैं, छलांग
लगाकर फिर तैर
जाना। फिर नाव
में ही मत बैठे
रहना। फिर यह
मत सोचना कि
नाव को कैसे
छोड़ दें? फिर
छोड़ देना नाव
को क्योंकि
असली सवाल
दूसरा किनारा
है। अगर नाव
दूसरे किनारे
की तरफ अभी भी
ले जाने में
समर्थ हो तो
चलते जाना।
अगर नाव
असमर्थ हो गई
हो, देह
कमजोर हो गई
हो, जराजीर्ण
हो गई हो तो
छलांग लगा
देना। तैरकर
पार हो जाना।
नाव से ही
थोड़े ही दरिया
पार होता है, तैरकर भी होता है, नाव के बिना
भी होता है।
तो
इतना स्मरण
रहे। और नियम
के संबंध में
यह खतरा है कि
नियम का लोग
अक्सर गलत
अर्थ ले लेते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
डाक्टर ने
मुल्ला नसरुद्दीन
को सलाह दी कि
वह प्रतिदिन
पांच
किलोमीटर दौड़ा
करे तो उसका
स्वास्थ्य
सुधर जाएगा।
और फिर घरेलू
जीवन में भी
सुख-शांति
संभव होगी।
हफ्ते भर बाद
मुल्ला ने
डाक्टर को फोन
किया और बताया
कि वह उनके
परामर्श पर
ठीक-ठीक चल
रहा है।
डाक्टर ने
पूछा, और
घरेलू जीवन
कैसा बीत रहा
है? मुल्ला
ने कहा पता
नहीं।
क्योंकि मैं
तो अब घर से
पैंतीस
किलोमीटर दूर
पहुंच गया
हूं।
नियम
को समझकर चलना
जरूरी है। और
नियम से नासमझी
पैदा कर लेना
बहुत आसान है, क्योंकि
नासमझ हम हैं।
हममें नियम
जाते से ही
तिरछा हो जाता
है। और ऐसी भी संभावना
है कि हम नियम
का पालन भी कर
लें और जो हम
कर रहे थे
उसमें कोई
फर्क न पड़े।
ऐसा भी
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
को उसके
डाक्टर ने एक
बार कहा कि अब
यह शराब पीने
की आदत सीमा
के बाहर जा
रही है। इसमें
कुछ सुधार करना
जरूरी है। तो
तुम ऐसा करो
कि योगासन
शुरू करो। तो
उसने डाक्टर
की सलाह मानकर
योगासनों का अभ्यास
आरंभ कर दिया
और सालभर
में वह योग
में दक्ष हो
गया। घंटों
शीर्षासन में
खड़ा रहता। एक
दिन मुल्ला की
पत्नी से डाक्टर
ने पूछा, योग
के कारण नसरुद्दीन
में कोई
परिवर्तन आया?
पत्नी ने
कहा, हां
एक दृष्टि से
तो काफी
परिवर्तन आया
है। अब वे सिर
के बल खड़े
होकर भी मजे
में पूरी बोतल
पी सकते हैं।
होगा!
क्योंकि हम
जैसे हैं, जैसे
ही कोई नियम
हमें मिला, हम उसे अपना
रंगरूप दे
देते हैं। वह
नियम हमारे
जैसा हो जाता
है। बजाय इसके
कि नियम हमें
बदले, हम
नियम को बदल
लेते हैं।
इसलिए
तो दुनिया में
इतने वकील
हैं। उनका कुल
काम इतना है
कि कानून जब
बने तो वे
अपराध के हिसाब
से कानून को
बदलने की
चेष्टा करें।
वे अपराध के
रंग में कानून
को रंगें।
तो जितने
कानून बढ़ते
जाते हैं उतने
वकील बढ़ते
जाते हैं।
क्योंकि
अपराधी अपराध
छोड़ने को राजी
नहीं है। वह कहता
है,
कानून से
तरकीब निकालो।
वह कानून का
ही उपयोग
अपराध करने के
लिए कर लेता
है।
और ऐसा
ही वकील
तुम्हारे
भीतर भी है
जिसको तुम
बुद्धि कहो, तर्क
कहो, मन
कहो। तो नियम
को समझना और
मन की चालबाजी
से सावधान
रहना।
महावीर
कहते हैं, "साधक
को पग-पग पर
दोषों की
आशंका
(संभावना) को ध्यान
में रखकर चलना
चाहिए।'
चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किचिं पासं
इह मन्नमाणो।
छोटे-छोटे
दोष को भी समझपूर्वक
देखना चाहिए।
ऐसा न कहे कि
छोटा-सा दोष
है,
क्या हर्ज
है, चल
जाएगा।
क्योंकि छोटा
बड़ा हो जाता
है। छोटा बीज
बड़ा वृक्ष हो
जाता है। छोटा
कांटा आखिर
में नासूर बन
जाता है।
छोटे
दोष को छोटा न
समझे। सावधान
रहे।
लाभंतरे जीविय वूहइत्ता...
और
जीवन का एक ही
अर्थ है कि
इससे महाजीवन
का लाभ होता
रहे।
पच्चा परिण्णाय मलावंधसी...
और अगर
वह लाभ बंद हो
जाए तो मौत को
स्वेच्छा से
स्वीकार करे।
लेकिन--
तस्स
ण कप्पदि भत्त-पइण्णं
अणुवट्ठिदे
भये पुरदो।
सो मरणं
पत्थितो, होदि हु सामण्णणिव्विण्णो।।
लेकिन
यदि अभी जीवन
में कुछ भी
संभावना
शक्ति की थी, अगर
जीवन में अभी
एक बूंद भी रस
बचा था तो उस
रस को भी
ध्यान में
परिवर्तित
करना है। उस
रस को भी
परमात्मा की
खोज में लगाना
है।
तो
जल्दबाजी न
करे। क्योंकि
बहुत लोग भगोड़े
हैं। अगर
उन्हें मरने
का मौका मिल
जाए तो वे कोई
छोटे-से कारण
से ही मर
जाएंगे। कोई
छोटी-मोटी बात, और
वे मर जाएंगे।
अहंकार को लगी
कोई छोटी-मोटी
चोट और वे मर
जाएंगे।
कल मैं पढ़ता
था कि एक
सर्कस के
शेरों को सिखानेवाले
रिंग मास्टर
ने आत्महत्या
कर ली, क्योंकि
एक शेर ने
उसकी आज्ञा न
मानी। अब शेर...! आदमी
भी होता तो भी
ठीक था! उसने
आज्ञा न मानी
इससे उनका बड़ा
भारी, आत्मसम्मान
की हानि हो
गई। उन्होंने
आत्महत्या कर
ली। भद्द हो
गई होगी क्योंकि
सर्कस का
मामला! वे
चिल्लाते रहे
होंगे, आवाज
देते रहे
होंगे। शेर तो
शेर! वह बैठा
रहा होगा कि
अच्छा चलो, देते रहो
आवाज।
मगर यह
अहंकार को लगी
चोट कोई
आत्महत्या
करने लायक
नहीं थी। हंसकार
टाल जाना था।
आदमी बड़ी
छोटी-छोटी
बातों पर मरने
को तैयार हो
जाता है, यह
खयाल रखना।
तुमने भी कई
दफे सोचा होगा
कि मर ही जाओ।
परीक्षा में
फेल हो गए कि
इंटरव्यू में
न आए, मर ही
जाओ।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसा
आदमी खोजना
कठिन है, जिसने
जीवन में कम
से कम दस बार
आत्महत्या का विचार
न किया हो।
छोटी-छोटी
बात--पति से झगड़ा
हो गया कि बस
पत्नी सोचने
लगती है, कि
क्या करें? केरोसिन डाल
लें, कि
गैस के चूल्हे
में आग लगा
लें, कि
बिल्डिंग से
कूद पड़ें, कि
ट्रेन के नीचे
सो जाएं? जरा-जरा
सी बात!
मैं एक
घर में रहता
था। और मेरे
पड़ोस में ठीक
दीवाल से लगे
हुए एक बंगाली
प्रोफेसर
रहते थे। अभी
नया-नया मैं
आया था और
दीवाल बड़ी
पतली थी, जैसी
आजकल के
मकानों की
होती है। तो
उनकी सब बातें
मुझे सुनाई
पड़ती थीं--न
सुनना चाहूं
तो भी। पहले
दिन...दूसरे
दिन मैं थोड़ा
हैरान हुआ। क्योंकि
वह दूसरे दिन
उन्होंने
एकदम धमकी दी
कि मैं जाकर
मर जाऊंगा।
तो मेरी कोई ज्यादा
पहचान भी नहीं
थी। बस थोड़ा
परिचय हुआ था।
अब वे तो निकल
भी गए घर से
अपना छाता
उठाकर। बंगाली!
बिना छाते के
तो मरने भी
नहीं जा सकते।
मैं थोड़ा
चिंतित हुआ।
मैं गया।
मैंने उनकी पत्नी
से कहा कि
मामला क्या है?
मेरा कोई
इतना परिचय
नहीं है, लेकिन
कोई मरने जा
रहा हो तो
मुझे कुछ करना
चाहिए। उसने
कहा, आप
बिलकुल बेफिकर
रहो। वे अपने
आप आ जाएंगे।
पंद्रह मिनट
से ज्यादा
नहीं लगेगा।
मैंने कहा, गए कहां
हैं।
उन्होंने कहा,
वे कहीं
जाते-वाते
नहीं। यह तो
जिंदगी हो गई
मुझे। ऐसा कोई
सप्ताह नहीं
जाता जब वे
मरने न जाते
हों।
जरा-जरा
सी बात पर
आदमी मरने को
तत्पर है।
इसलिए
महावीर की
सावधानी ठीक
है। कि तुम
ऐसा मत सोच
लेना कि मरना
कोई धर्म है।
मरना तभी सार्थक
हो सकता है, जब
जीवन का कोई
और उपयोग न
रहा। जितने
दूर तक यह नाव
ले जा सकती थी,
ले गई। अब
तैरना पड़ेगा।
अब यह नाव
नहीं काम आती--तो!
अन्यथा
सावधानीपूर्वक
जीना, सावचेत
जीना।
छोटी-छोटी भूल
को छोटी-छोटी
मत मानना। कोई
भूल छोटी नहीं
होती। भूल
छोटी होती ही
नहीं।
क्योंकि एक
दफा छोटी भूल
समझकर जो हृदय
में पड़ जाती
है, वह कल
बड़ी हो जाती
है, फैल
जाती है, विस्तीर्ण
हो जाती है।
सभी लोग
छोटे-छोटे दोष
मानकर दोष
करते हैं और
एक दिन उनमें
ग्रसित हो
जाते हैं और
निकलना
मुश्किल हो
जाता है।
किसी
मित्र ने कहा
कि अरे! पी भी
लो। जरा-सी
शराब थी, तुमने
सोचा इतनी
शराब से क्या बननेवाला,
बिगड़नेवाला?
साढ़े छह फीट लंबा
शरीर है, तीन
सौ पौंड वजन
है, क्या बिगड़नेवाला
है? तुम पी
गए। मगर वह
छोटा-सा दोष
धीरे-धीरे पकड़ेगा।
बुराई बड़े
आहिस्ता आती
है। बुराई जब
आती है तो
जूते उतारकर
आती है। आवाज
ही नहीं होने
देती। पैरों
की भी आवाज
नहीं होती।
इसलिए
महावीर कहते
हैं,
बहुत
सावधान रहना,
बहुत
सावचेत रहना।
जीवन से एक
सत्य साधना
है--जीवन साधन
है, साध्य
नहीं--और वह
सत्य है, महाजीवन। उस महाजीवन
को साधने के
लिए मृत्यु को
सुमरण
बनाना है, पंडित
की मौत मरनी
है, जाननेवाले
की मौत मरनी
है। और
अज्ञानी की
मौत तो हम सब
बहुत बार मर
चुके। उससे
कुछ लाभ नहीं
हुआ। उससे हम
मरे ही नहीं, फिर-फिर लौट
आए।
किससे महरूमिए-किस्मत
की शिकायत कीजे
हमने
चाहा था कि मर
जाएं, सो वह भी
न हुआ
--अब
किससे शिकायत
करो भाग्य की?
किससे महरूमिए-किस्मत
की शिकायत कीजे
हमने
चाहा था कि मर
जाएं, सो वह भी
न हुआ
कितनी
बार तो हम मर
भी चुके, फिर
भी मरे नहीं।
और कितनी बार
हमने चाहा कि
मर जाएं, वह
भी नहीं हुआ।
तुम्हारी
चाह से मौत
नहीं घटेगी।
महावीर कहते
हैं,
जिसको मौत
का अनुभव करना
हो, उसे
अचाह साधनी
पड़ती
है--निष्काम
चाह, वासनाशून्यता। क्योंकि
सब वासना जीवन
से जुड़ी है।
जब तक वासना
है तब तक तुम
जीवन को पकड़े
हो। जैसे ही
वासना छूटती
है, तुम
कुछ भी नहीं
मांगते, तुम
मरने को तैयार
हो गए। पंडितमरण
की तैयारी हो
गई।
और जो
ज्ञानी की तरह
मरता है, मृत्यु
एक बड़े अभिनव,
सुंदर रूप
में प्रगट
होती है।
मृत्यु
परमात्मा की
तरह आती है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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