जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1—कुछ
दिन ध्यान में
जी लगता है,
कुछ दिन भजन में; लेकिन एकाग्रता
कहीं नहीं होती।
2—आकस्मिक
रूप से भगवान से
मिलना हुआ और संन्यास
भी ले लिया,
क्या यह ध्यान
कायम रहेगा?
3—भगवान
श्री कृष्ण के
सिर र्दद के
लिए ज्ञानियों
ने पैर की धूल देने
से इंकार कर दिया
लेकिन गोपियों
ने दे दी—इसका रहस्य
क्या है?
पहला
प्रश्न:
कुछ
दिन ध्यान में
जी लगता है, फिर कुछ दिन
पूजा और भजन
चलता है, लेकिन
एकाग्रता
कहीं भी नहीं
होती। अपनी इस
स्थिति से
परेशान हूं।
कृपा कर मुझे साधें।
मन
का स्वभाव
ऐसा। न यहां
लगता, न
वहां लगता। मन
का स्वभाव है
द्वंद्व। जो
करोगे वहीं से
उचटा हुआ
लगेगा। जहां
हो वहां से
भागा हुआ
रहेगा। जहां
नहीं हो वहां
का रस जन्मेगा।
जो मिला, व्यर्थ
हो जाता है।
जो नहीं मिला,
वे दूर के
ढोल बड़े
सुहावने लगते
हैं।
मन के
इस स्वभाव को
समझो। न तो
ध्यान काम आता, न भजन काम
आता; मन के
स्वभाव को
समझना काम आता
है।
मन की
यह प्रक्रिया
है। पद मिल
जाए तो
असंतुष्ट, पद न मिले तो
असंतुष्ट। पद
न मिले तो
पीड़ा, पद
मिल जाए तो
व्यर्थता का
बोध। गरीब
रोता, अमीर
नहीं है। अमीर
रोता कि अमीर
हो गया, अब
क्या करूं?
जो भी
तुम्हारे पास
है, वह पास
होने के कारण
ही दो कौड़ी
का हो जाता
है। और जो
तुमसे बहुत
दूर है, दूर
होने के कारण
ही उसका
बुलावा मालूम
होता है।
मन के
इस आधारभूत
जाल को समझो।
इसे पहचानो।
यह ध्यान और
भजन का ही
सवाल नहीं है।
भोजन करो तो मन
में उपवास का
रस उमगता है
कि पता नहीं, उपवास
करनेवाले न
मालूम किस गहन
शांति और आनंद
को उपलब्ध हो
रहे हों।
उपवास करो तो
भोजन की याद
आती है।
जीवन
के प्रत्येक
पल तुम ऐसा ही
पाओगे।
बाग
में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता
है जी
अब
कहां ले जाके
बैठें
ऐसे दीवाने को
हम
बगीचे
में बिठाओ
तो लगता नहीं।
मरुस्थल में
ले जाओ तो घबड़ाता
है।
बाग
में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता
है जी
अब
कहां ले जाके
बैठें
ऐसे दीवाने को
हम
मन एक
तरह का पागलपन
है, एक तरह की
विक्षिप्तता
है। मन से
मुक्त होना ही
मुक्ति है। मन
के पार होना
ही स्वस्थ
होना है। तो
पहली तो बात, मन के इस
स्वभाव को
समझने की
कोशिश करो।
अक्सर लोग
समझने की कम
कोशिश करते
हैं, छुटकारा
पाने की
ज्यादा कोशिश
करते हैं। और
छुटकारा बिना
समझे कभी नहीं
है। तो
तुम्हारी
आकांक्षा यह होती
है, कैसे
झंझट मिटे।
लेकिन बिना
समझे झंझट
मिटी ही नहीं।
नासमझी में
झंझट है।
तो तुम
चाहते हो, कैसे इस मन
से छुटकारा हो?
लेकिन पहले
इस पहचानो तो।
इससे दोस्ती
तो साधो। इससे
परिचय तो
बनाओ। इसके
कोने-कांतर
तो खोजो। दीया
तो जलाओ कि
इसके सारे
स्वभाव को तुम
ठीक से देख
लो। उस देखने
में, उस
दर्शन में, उस साक्षीभाव
में ही तुम
पाओगे विजय की
यात्रा पूरी
होने लगी।
जिस
दिन कोई मन को
पूरा समझ लेता
है, उसी दिन
मन विसर्जित
हो जाता है। जैसे
सूरज के ऊगने
पर ओसकण
तिरोहित हो
जाते हैं, ऐसे
ही बोध के
जगने पर मन
तिरोहित हो
जाता है। जैसे
दीये के जलने
पर अंधेरा
नहीं पाया
जाता, ऐसे
समझ के, प्रज्ञा
के दीये के
जलने पर मन
नहीं पाया
जाता।
तो मन
से लड़ो
मत--पहली बात।
लड़ने का अर्थ
ही नासमझी है।
लड़कर कभी
कोई जीता? तुमने यही
सुना है कि जो
लड़े वे जीते।
मैं तुमसे
कहता हूं, लड़कर
कोई कभी जीता?
समझकर जीत
होती है। लड़नेवाले
तो नासमझ हैं।
लड़ोगे
किससे! छायाओं
से लड़ रहे हो।
जैसे
कोई अपनी छाया
से लड़ने लगे, खींच ले
तलवार, करने
लगे हमला।
परिणाम क्या
होगा? छाया
कटेगी? परिणाम यही
होगा, खुद
ही थकेगा।
और डर है कि
छाया से लड़ने
में कहीं अपने
हाथ-पैर न काट
ले। क्रोध में,
उबाल में, पागल न हो
उठे। कहीं ऐसी
घड़ी न आ जाए कि
विक्षिप्तता
में अपने को
ही काट ले।
अक्सर
मन के साथ लड़नेवाले
ऐसी ही स्थिति
में पड़ जाते
हैं। मन
तुम्हारा है; तुम्हारी
छाया। है नहीं,
बस छाया
जैसा है।
रोशनी
बढ़ाओ।
थोड़े
जागकर मन
को समझो।
जब
ध्यान करो और
मन कहे, भजन
में, तो
जरा जागकर
देखो, एक
तरफ खड़े होकर
देखो कि मन
क्या कह रहा
है। जब भजन
करो और मन कहे,
ध्यान लगाओ,
तब जागकर
देखो कि मन
क्या कह रहा
है। इसकी चालबाजियां
पहचानो। इसकी
कूटनीति
पहचानो। मन
बड़ा राजनीतिज्ञ
है। यह
तुम्हें
भटकाए रहता
है। यह तुम्हें
चलाए रहता है।
और
तुमने ध्यान
करके भी देख
लिया, वहां
भी नहीं लगा।
और तुमने भजन
करके भी देख लिया,
वहां भी
नहीं लगा। तो
अब यह तो समझो
कि मन कहीं लगेगा
ही नहीं। मन
का लगना धर्म
नहीं। न लगना
मन की आदत है।
कहीं लगता नहीं।
जो नहीं लगता
वही मन है।
तो अब
जब मन तुमसे
कहे कि ध्यान
करो, क्या भजन
में पड़े हो? तो जागकर
देखना कि यह
फिर वही मन, जो कहीं
नहीं लगता, भजन में भी
नहीं लगा था; तब इसने कहा
था, ध्यान
करो। अब कहता
है भजन करो।
पहले कहा, संसार
में उलझे रहो।
फिर कहा, संन्यास
ले लो। अब
संन्यास में
भी नहीं लगता;
कहता है
संसार में लौट
चलो।
इस मन
को जरा देखना।
कुछ करने की
बात नहीं है, सिर्फ शांत
भाव से देखना।
तुम्हारे
देखने में ही
तुम पाओगे मन
गिरने लगा।
तुम पर उसकी
पकड़ जाने लगी।
तुम पर पकड़
छूट जाए। तुम
थोड़े शिथिल हो
जाओ मन के पास
से। तुम थोड़े
बाहर सरकने
लगो।
न तो
ध्यान से घटती
है बात, न
भजन से; घटती
है समझ से।
इसलिए समस्त
धर्मों का सार
है जागरूकता।
प्रश्नकर्ता
पूछता है, एकाग्रता
नहीं बनती।
एकाग्रता की
खोज ही गलत है।
जागरूकता
खोजो।
एकाग्रता की
खोज तो फिर मन
के ही सिक्कों
में फंसे। यह
मन ही है, जो
कहता है
एकाग्र बनो।
यह तुम्हें
असंभव चीजें
करने को देता
है। फिर वे
नहीं होतीं तो
तुम हारे-थके
परेशान हो
जाते हो।
एकाग्रता
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
थोड़ा जीवन की
गणित की
व्यवस्था के
सूत्र समझने
चाहिए।
पहला
सूत्र: जब भी
मन नहीं होता, तब तुम
एकाग्र होते
हो।
कभी
अपने काम में
पूरे संलग्न।
चाहे बुहारी लगा
रहे हो घर में, लेकिन पूरे
संलग्न।
अचानक तुम
पाते हो, मन
नहीं है।
संगीत सुनते
संलग्न, मन
नहीं है।
चित्र
बनाते...किसी
भी घड़ी जब तुम
पाते हो कि मन
नहीं है, तुम
ही हो, तो
एकाग्रता
अपने आप घटती
है।
एकाग्रता
घटाई नहीं जा
सकती।
एकाग्रता मन
की तन्मयता का
परिणाम है। जब
मन डूबा होता
है तब तुम
एकाग्र होते
हो। जब मन उभर
आता है तब तुम
अनेकाग्र हो
जाते हो। मन
तुम्हें अनेक
में बांट देता
है; खंड-खंड
कर देता है।
अब तुम
चेष्टा कर रहे
हो एकाग्र
होने की।
एकाग्र होने
की चेष्टा और
झंझट लाएगी
क्योंकि
करोगे किससे चेष्टा
तुम एकाग्र
होने की? मन
से ही करोगे।
सब चेष्टा
मात्र मन से
होती है।
अब तुम
एक ऐसे काम
में लगे हो, जैसे कोई
आदमी अपने
जूते के बंद
खींच-खींचकर खुद
को उठाने की
कोशिश करे।
खुद को कैसे
उठाओगे जूते
के बंद खींचकर?
थोड़े-बहुत
उछल-कूद लो, फिर बार-बार
जमीन पर पड़
जाओगे। यह
असंभव चेष्टा
है।
मन कभी
एकाग्र नहीं
होता। जब
एकाग्रता
होती है तो मन
नहीं होता। तो
तुम मन के
द्वारा एकाग्र
होने की
चेष्टा ही छोड़ो।
तुम तो
छोटे-छोटे
कामों में रस
लो। रस का
परिणाम है
एकाग्रता।
बुहारी लगाओ तो
ऐसे लगाओ, जैसे भगवान
के मंदिर में
लगा रहे हो।
चाहे घर तुम्हारा
ही हो; है
तो भगवान का
ही मंदिर।
भोजन
करो तो ऐसे ही
करो जैसे
भगवान को ही
भोग लगा रहे
हो। भोजन तो
तुम ही कर रहे
हो लेकिन अंततः
तो भगवान को
ही लग रहा है
भोग। वही तो
तुम्हारे
भीतर आकर भूख
बना। उसी ने
तो तुम्हारी
भूख जगाई। वही
तो तुम्हारे भीतर
भूखा है। उसके
लिए ही तो तुम
भोजन दे रहे हो।
रस जगाओ।
एकाग्रता की
बात मत उठाओ।
रस का सहज
परिणाम
एकाग्रता है।
जो करते हो
उसे रसपूर्ण
ढंग से करो।
उसमें डुबकी
लो। छोटे और
बड़े काम नहीं
हैं दुनिया
में। जिस काम
में तुम डुबकी
ले लो, वही
बड़ा हो जाता
है। बुहारी
लगाने में डूब
जाओ, वही
बड़ा हो जाता
है।
कबीर
कहते हैं: "खाऊं-पिऊं
सो सेवा, उठूं-बैठूं
सो परिक्रमा।'
मेरा उठना
बैठना ही उस
परमात्मा की
परिक्रमा है।
और जो मैं
खाता-पीता हूं,
यही उसकी
सेवा है। रस!
मेरे
देखे अधिक
लोगों के जीवन
का कष्ट यही
है कि वे जीवन
में कहीं भी
रस नहीं ले
रहे हैं। जो भी
कर रहे हैं, बेमन से कर
रहे हैं। कर
रहे हैं
क्योंकि करना है।
खींच रहे हैं।
जैसे बैलगाड़ी
में जुते
बैल; ऐसा
जीवन को खींच
रहे हैं।
नाचते हुए, उमंग से भरे
हुए नहीं।
अगर
तुम कोई ऐसे
काम में लगे
हो, जिसमें
तुम रस ले ही
नहीं सकते तो बदलो वह
काम। कोई काम
जीवन से
ज्यादा
मूल्यवान नहीं
है। अक्सर ऐसा
हुआ है, हो
रहा है कि लोग
ऐसे काम में
उलझे हैं जो
उनमें रस नहीं
जगाता। किसी
को कवि होना
था, वह
जूते बेच रहा
है, बाटा की दुकान पर
बैठा है। और
जिसको बाटा
की दुकान पर
बैठना था, वह
कविता कर रहा
है। तो उसकी
कविता में
जूते की पालिश
की गंध आती।
आएगी ही।
लोग
वहां हैं, जहां उन्हें
नहीं होना था।
और यह विकृति
के कारण है।
क्योंकि
तुमने कभी
अपने सहज भाव
को तो खोजा
नहीं। किसी के
पिता ने कहा
कि दुकान करो।
इसमें ज्यादा
लाभ है। किसी
के पिता ने
कहा, डाक्टर
बन जाओ। किसी
की मां को
खयाल था, बेटा
इंजीनियर
बने। परिवार
को धुन थी कि
बेटा नेता
बने।
तो सब
धक्का दे रहे
हैं एक-दूसरे
को कि यह बन जाओ, वह बन जाओ।
कोई यह नहीं
पूछता कि यह
बेटा क्या
बनने को पैदा
हुआ है? इससे
भी तो पूछो।
थोड़े इसके
हृदय को भी तो टटोलो। तो
फिर लोग गलत
जगहों पर
पहुंच जाते
हैं।
एक
बहुत बड़ा
सर्जन, जिसकी
सारी जगत में
ख्याति थी, जब साठ वर्ष
का हुआ और
उसकी साठवीं
वर्षगांठ
मनाई गई तो
सारी दुनिया
से उसके मित्र
इकट्ठे हुए, उसके मरीज
इकट्ठे हुए और
उन्होंने
उसका बड़ा स्वागत
किया। लेकिन
वह बड़ा उदास
था। उसके
स्वागत में एक
नृत्य का
आयोजन किया
गया था। तो जब
लोग नृत्य
करने लगे और
वह सर्जन
देखता रहा तो
उसकी आंख से
आंसू टपकने
लगे।
उसके
पास बैठे उसके
मित्र ने पूछा, क्या मामला
है? हम सब तुम्हारी
वर्षगांठ पर
इकट्ठे हुए
प्रसन्नता
से। यह नृत्य
तुम्हारे
स्वागत में
होता है, तुम
रोते क्यों हो?
तुम्हारी
आंख में आंसू
क्यों हैं? तुम किस
पीड़ा से भीग
गए हो?
उसने
आंसू पोंछ
लिए। उसने कहा
कि नहीं, वह
कोई बात नहीं
है। पर मित्र
ने जिद्द
की। कहा कि
क्या तुम्हें
कोई जीवन में
विफलता मिली?
तुम जैसा
सफल आदमी नहीं
है। तुमने जो
आपरेशन किया,
सफल हुआ।
तुम्हारे
जैसा कुशल
सर्जन दुनिया
में नहीं। फिर
क्या?
लेकिन
उसने कहा, मैं कभी
सर्जन होना ही
नहीं चाहता
था। मेरा दिल
तो एक नर्तक
होने का था।
आज नाच को
देखकर मैं रो
उठा। मैं
छोटा-मोटा
नर्तक होता, कोई मुझे न
जानता तो भी
मेरी तृप्ति
होती। आज मैं
दुनिया का
सबसे बड़ा
सर्जन हूं, लेकिन मेरी
कोई तृप्ति
नहीं है। मेरी
नियति ही मुझे
न मिली। तो आज
भी जब मैं
किसी को नाचते
देखता हूं तो
बस, मुझे
याद हो आती
है।
तुम
अपनी जिंदगी
को गौर से देखो।
पहली तो
बात--जो कर रहे
हो उसमें रस
लेने की कोशिश
करो। हो सकता
है तुमने रस
का अभ्यास नहीं
किया।
तुम्हें किसी
ने सिखाया ही
नहीं कि रस का
अभ्यास कैसे
करना।
रस के
अभ्यास का
पहला
सिद्धांत है
कि जो भी कर रहे
हो, इसका
परिणाम
मूल्यवान
नहीं है।
तुम्हें यही सिखाया
गया है कि
परिणाम
मूल्यवान है।
तुम करते हो, इससे दस
रुपये
मिलेंगे कि
हजार रुपये
मिलेंगे कि
लाख रुपये
मिलेंगे। लाख
रुपये में
मूल्य है, परिणाम
में मूल्य है।
रस का
सिद्धांत है, जो तुम कर
रहे हो, वह
अपने आप में
मूल्य है।
अंतर्निहित
है मूल्य।
हजार मिलेंगे,
दस हजार
मिलेंगे, वह
बात गौण है।
करने में जो
डुबकी लगेगी
वही बात
महत्वपूर्ण
है। अगर डूब
गए तो मिल गए
करोड़ों। अगर न
डूबे और
करोड़ों भी
मिले तो कुछ
भी न मिला। वह
समय व्यर्थ
गया, जो
बिना डूबे
गया। वे दिन
व्यर्थ ही
बीते, जो
बिना डूबे
बीते। जब
रसधार न बही
तो तुम जीए न
जीए बराबर।
रस-विमुग्धता
में ही जीवन
है। तो पहली
तो बात जो कर
रहे हो...।
तुमसे
नहीं कहता कि
जल्दी बदलने
में लग जाना। क्योंकि
हो सकता है, तुम अपना
काम भी बदल लो
और रस न आए।
क्योंकि रस आने
की तुम्हारी
आदत ही न रही
हो। तुमने रस
बनाने की बात
ही न बनाई हो।
तो
पहले तो जो कर
रहे हो उसमें
रस लेने की
कोशिश करना।
सौ में पचास
मौके तो ऐसे
हैं कि तुम उसी
में रस ले
पाओगे। रस
लेते ही
एकाग्रता हो
जाएगी।
देखा, स्कूल में
छोटे बच्चे
पढ़ते हैं; बाहर
चिड़िया
गुनगुनाने
लगी गीत, बच्चा
एकटक होकर
सुनने लगता
है। शिक्षक
डंडा पीटता है
टेबल पर, कि
यहां ध्यान
दो। एकाग्रता
करो।
एकाग्रता बच्चा
कर ही रहा है।
मगर शिक्षक पर
नहीं कर रहा, यह बात सच
है। यह ब्लैकबोर्ड
पर नहीं कर
रहा। ब्लैकबोर्ड
पर लिखे
अक्षरों पर
नहीं कर रहा।
लड़का तो एकाग्रता
कर ही रहा है।
एकाग्रता तो
हो ही रही है।
वह जो चिड़िया
गीत गा रही है
वह उसे सुन
रहा है।
शिक्षक कहता
है, एकाग्रता
करो। मन को
ऐसा विचलित मत
करो।
बात
बिलकुल गलत कह
रहा है
शिक्षक।
शिक्षक उसके
मन को विचलित
करने की कोशिश
कर रहा है। वह
एकाग्र है।
अगर कोई बाधा
न दे, तो यह
सारा संसार
थोड़ी देर के
लिए मिट
जाएगा। वह चिड़िया
की गुनगुनाहट
होगी, उसका
गीत होगा, इस
बच्चे की भावदशा
होगी। और यह
एक बात सीख
लेगा--रस की।
रस
चूंकि उसे
चिड़िया के गीत
में आ रहा है, इसलिए
एकाग्र हो गया
है। उसी कक्षा
में ऐसे बच्चे
भी होंगे, जिन्हें
रस गणित के
सवाल में आ
रहा है। वे
वहां एकाग्र
हो गए होंगे।
हमें
लोगों को
एकाग्रता
नहीं सिखानी
चाहिए। उनका
रस देखकर
उन्हें दिशा
देनी चाहिए।
जो बच्चा गणित
को सुनकर
एकाग्र हो गया
है, बाहर भौंकते
कुत्ते, लड़ती
बिल्लियां, गीत गाती
चिड़ियां, रास्ते
पर बैठे मदारी
की बीन--कुछ
नहीं सुनाई पड़ती।
यह बच्चा
आइंस्टीन
होने को पैदा
हुआ है। इसकी
एकाग्रता ही
खबर देती है।
अब इस
बच्चे से तुम
कहो, कि
चिड़ियां गीत
गा रही हैं, उन पर
एकाग्रता करो,
यह न कर
पाएगा। यह
संभव नहीं
होगा।
हमें
देखना चाहिए
कि कहां हमारी
एकाग्रता है।
वहीं हमारा
जीवन है। मगर
आज अचानक जीवन
बदलने का
तुम्हारे हाथ
में उपाय
नहीं। आज तो
पहचानने का भी
उपाय नहीं कि
कहां
तुम्हारी
एकाग्रता
होती है। तुम
तो भूल ही गए।
तुम्हारे
जीवन की सारी
व्यवस्था
उल्टी-सीधी हो
गई है। दूसरों
ने तुम्हें
चला दिया। दूसरों
ने तुम्हें
मार्ग दे
दिया। दूसरों
ने तुम्हें
दिशा और आदर्श
दे दिए।
तुम्हें पूरी
तरह भरमा दिया
है।
पहले
तो जो काम कर
रहे हो उसमें
रस लेने की
आकांक्षा
जगाओ। जो काम
कर रहे हो उसे
इतने भाव से करो, इतनी मगनता
से करो कि
उससे
अतिरिक्त
ऊर्जा बचे ही
नहीं विघ्न-बाधा
डालने को।
एकाग्रता
का और क्या
अर्थ होता है? एकाग्रता
कोई
जबर्दस्ती
थोड़े ही है।
एकाग्रता बड़ी
स्वाभाविक
घटना है।
अब तुम
यहां मुझे सुन
रहे हो। जिनको
मेरी बात में
रस आ रहा है, वे एकाग्र
हैं।
एकाग्रता कर
थोड़े ही रहे
हो, एकाग्रता
हो रही है।
इसे समझने की
कोशिश करो। तुम्हारे
करने की थोड़े
ही बात है।
तुम थोड़े ही
बैठे हो सब
मांस-पेशियों
को खींचकर, आंखें मुझ
पर गड़ाकर
और चेष्टा कर
रहे हो कि
एकाग्रता! ऐसे
एकाग्रता
करोगे तो तुम
सुन ही न
पाओगे, जो
मैं कह रहा
हूं।
एकाग्रता सहज
है। तुम्हें रस
आ रहा है। उसी
रस के कारण
तुम चले आए
हो। उसी रस के
कारण तुम रोज
चलते आए हो।
वही रस तुम्हें
लाता रहा है।
रस है
तो एकाग्रता
है।
तो तुम
रस को जगाओ, एकाग्रता की
बात ही छोड़
दो। अगर रस जगे
ही न तो फिर
समझो, फिर
हिम्मत करो, साहस करो। बदलो उस
व्यवस्था को,
जिसमें रस
नहीं जगता। हो
सकता है वह
व्यवस्था तुम्हारे
लिए नहीं है।
तो
दरिद्र हो
जाना बेहतर है
समृद्ध होने
की बजाय। सड़क
का भिखारी हो
जाना बेहतर है
सम्राट होने
की बजाय--अगर
रस आ जाए।
क्योंकि रस ही
सम्राट बनाता
है।
तो
कभी-कभी तुम
किसी भिखारी
के चेहरे पर
ऐसी आभा देखोगे, जो सम्राटों
के चेहरों पर
नहीं दिखती। रसविमुग्ध
है वह। अपने
काम में लीन
है।
रथचाइल्ड
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि एक
भिखारी आया, पांच बजे
सुबह उसका
दरवाजा
खटखटाने लगा।
वह बड़ा नाखुश
हुआ। पांच बजे
सुबह नींद से
भरे उसको
उठाया। वह बड़ा
झल्लाता हुआ
बाहर आया। ऐसे
वह देना पसंद
करता था। दान
उसका रस था।
लेकिन यह कोई
वक्त है?
तो
उसने भिखारी
को कहा कि
सुनो जी! यह
कोई समय है? भिखारी ने
कहा कि आप भी
सुनो। आप
बैंकिंग का धंधा
करते हैं, मैं
कोई सलाह तो
देता नहीं। यह
हमारा धंधा
है। इसमें हम
सलाह किसी की
मानते नहीं।
रथचाइल्ड
ने प्रकाश
जलाया कि इस
आदमी को देखना
चाहिए, जो
दुनिया के बड़े
से बड़े करोड़पति
को कह सकता है
कि सुनो, तुम
बैंकिंग का
धंधा करते हो,
हम तुम्हें
कभी सलाह देते
नहीं। हमारी
सलाह का कोई
मतलब भी नहीं,
क्योंकि
हमें कोई
अनुभव भी
नहीं। तुम
हमें सलाह मत
दो। हम
जन्मजात
भिखारी हैं।
उस
आदमी के चेहरे
को देखा, वह
बड़ा प्रसन्न
आदमी था।
रथचाइल्ड ने
लिखा, मैं
मंत्रमुग्ध
हो गया। यह
हिम्मत
भिखारी की
नहीं, सम्राट
की होती है।
रथचाइल्ड को
ऐसा कहना, जिसके
पास भीख
मांगने आए कि
चुप! सलाह मत
देना। मेरे
धंधे को मैं
भलीभांति
जानता हूं।
रथचाइल्ड
ने उसे खूब
दिया; और
कहा, मैं
खुश हुआ इस
बात से कि कोई
आदमी अपने भिखमंगेपन
की भी इतनी
प्रतिष्ठा
रखता है।
कभी
तुम्हें राह
का भिखारी भी
प्रसन्न मिल
सकता है।
प्रसन्नता का
कोई संबंध
इससे नहीं कि
तुम्हारे पास
क्या है। जो
भी तुम्हारे
पास है, उसमें
अगर रस है तो
प्रसन्नता
है। तुम अगर
हाथ के भिक्षापात्र
को भी गीत
गुनगुनाते
हुए ढो रहे हो
तो आनंद है।
और तुम्हारे
पीछे स्वर्णरथ
चल रहे हैं और
तुम मुर्दा, बुझे, तो
कुछ अर्थ नहीं
है।
एकाग्रता
मत पूछो।
यद्यपि
तुम्हें यही
सिखाया गया है
स्कूल से लेकर
विश्वविद्यालय
तक। और
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मगुरु भी
तुम्हें यही
सिखाते हैं
कि--एकाग्रता।
मैं तुमसे
कहता हूं, रसमग्नता। वह शब्द
हटा दो।
क्योंकि वह
शब्द सीधा काम
का ही नहीं
है।
एकाग्रता
जरूर आती है, मगर परिणाम
की तरह आती
है। एकाग्रता
साधन नहीं है;
जहां रस
लोगे वहीं घट
आती है। रस के
पीछे बंधी चली
जाती है। रस
की छाया है।
तो तुम
कहीं भी रस
लो। अगर मंदिर
में रस न आता हो, फिक्र छोड़ो।
फिर मंदिर में
परमात्मा
तुम्हारे लिए
नहीं घटेगा।
जहां रस ही
नहीं है, वहां
एकाग्रता
नहीं होगी।
एकाग्रता
नहीं होगी, परमात्मा
कहां
होनेवाला है!
अगर
तुम्हें
बांसुरी के
गीत में रस
आता है तो वहीं
तुम्हारा
परमात्मा
तुम्हें
मिलेगा। अगर
नर्तक की
पायलों में
तुम्हें रस
आता है तो
तुम्हारा
परमात्मा
वहीं नाचेगा।
तुम्हारे
परमात्मा की
खोज तुम्हारे
रस से ही तय
होगी। रसो
वै सः। उस
परमात्मा का
स्वभाव रस है।
किसी शास्त्र ने
नहीं कहा कि
परमात्मा का
स्वभाव
एकाग्रता है।
सच्चिदानंद!
वह रस की बात
है। तुम्हें
जहां आ जाए रस, जहां आ जाए
आनंद, जहां
उमंग उठे, जहां
तुम खिल उठो।
फिर वह कुछ भी
हो। चाहे खेल हो,
तो
प्रार्थना बन
गई। और ऐसे
तुम बैठे-बैठे
प्रार्थना
करते रहो, भजन
करते रहो, ध्यान
करते रहो; रस
उमगे
नहीं, मेघमल्हार बजे नहीं, हृदय
गुनगुनाए
नहीं--ऐसे तुम
करते चले जाओ
जबर्दस्ती, यंत्रवत, करनी चाहिए,
कर्तव्यवश,
लोग कहते
हैं इससे रस
मिलेगा इसलिए
कर रहे हैं।
नहीं, जहां रस
मिलता है वहीं
परमात्मा आता
है।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं कि
मेरे पास
तुम्हें देने
के लिए कोई
अनुशासन नहीं
है। क्योंकि अनुशासन
कोई भी होगा, पराया होगा,
दूसरे का
होगा।
तुम्हें अपना
अनुशासन
खोजना पड़ेगा।
प्रत्येक
व्यक्ति को अपना
मार्ग खोजना
पड़ेगा। मैं
इशारे देता
हूं। उन
इशारों से तुम
अपना मार्ग
समझने की
कोशिश करो।
कबीर
ज्ञान को भी
उपलब्ध हो गए
तो भी कपड़ा
बुनते रहे। जुलाहापन
उन्होंने
छोड़ा नहीं।
किसी ने पूछा
कि अब तो आप
बंद करें। कभी
सुना नहीं कि
कोई बुद्धपुरुष
और कपड़े बुनता
रहा और जुलाहा
बना रहा और
बाजार में
कपड़े बेचने
जाता रहा। अब
तो छोड़ो।
लेकिन
कहते हैं, कबीर ने कहा,
इसी कपड़े के
बुनने ने तो
मुझे
परमात्मा से
मिलाया। इसे
कैसे छोड़ दूं?
यह मेरी
प्रार्थना।
यह मेरी पूजा।
यह मेरी अर्चना।
"झीनी झीनी बीनी रे
चदरिया।'
वह
जुलाहे का गीत
है। कोई और
दूसरा तो गा
भी नहीं सकता।
बुद्ध कैसे गाएंगे? बुद्ध ने
कभी चदरिया बीनी
नहीं। उन्हें
कुछ पता भी
नहीं। महावीर
कैसे गाएंगे?
चदरिया थी,
वह भी छोड़
दी! उनसे तो
पूछो कैसी छोड़ी
रे चदरिया, तो बता सकते
हैं।
लेकिन
कबीर ने
बुन-बुनकर
पाया। वे
ताने-बाने
चादर के बुनते-बुनते
उनका ध्यान
फला। वहीं रसविमुग्ध
हुए। पर कैसे
पाया
उन्होंने? क्योंकि
हमें बुद्ध की
बात समझ में आ
जाती है कि
दूर
बोधिवृक्ष के
नीचे ध्यान
में बैठे हुए हैं।
कि महावीर
वनों में, पर्वतों
में, एकांत
में, बारह
वर्ष मौन में
खड़े हुए।
कबीर...कबीर कपड़ा
बुन-बुनकर पा
लिए।
रस से
बुना होगा।
कबीर कहते थे, राम के लिए
बुन रहा हूं।
सभी ग्राहकों
में राम देखते
थे। जब अपना कपड़ा
बुनकर और काशी
के बाजार में
बेचने जाते, कोई मिल
जाता रास्ते
में और कहता, कहां जा रहे
हो? तो वे
कहते, राम
आए होंगे।
उनको जरूरत है,
कपड़ा बुनकर लाया
हूं। बड़ा
बढ़िया बुना
है। राम को देने
जा रहा हूं।
जब कोई
ग्राहक उनसे कपड़ा
खरीदता तो वे
कहते, सम्हालकर
रखना राम। बड़ी
मेहनत से बुना
है। बड़े रस से
बुना है। कपड़ा
ही नहीं है, पीढ़ी दर पीढ़ी
चले ऐसी
मजबूती से
बुना है। अपने
प्राण उंडेले
हैं।
तो
जिसको ग्राहक
में राम दिखाई
पड़े, अब उसे
किसी
बोधिवृक्ष के
नीचे जाने की
जरूरत न रही।
सभी लोग
बोधिवृक्ष के
नीचे जा भी
नहीं सकते। और
अच्छा है कि
जाते नहीं; नहीं तो बड़ी
झंझट खड़ी हो
जाए। एकाध
बुद्ध बोधिवृक्ष
के नीचे बैठता
है, चलता
है। एकाध महावीर
मौन खड़ा हो
जाता है, चलता
है। लेकिन सभी
ऐसे खड़े हो
जाएं तो जीवन
बड़ा विरस हो
जाएगा।
अधिक
को तो कबीर
जैसा होना
पड़ेगा। अधिक
को तो गोरा
जैसा होना
पड़ेगा। गोरा
कुम्हार बस घड़े बनाता
रहा। और घड़े
बनाते-बनाते
खुद को भी बना
लिया। रैदास
जूते सीते-सीते, जूते बनाते-बनाते
पहुंच गए।
तो तुम
जो कर रहे हो, उसमें रस डालो।
उंडेलो
रस। वही
तुम्हारा भजन,
वही
तुम्हारा
ध्यान।
अगर
तुम्हारी
सारी चेष्टाएं
असफल हो जाएं
तो फिर साहस
करो। तो फिर
तुम गलत जगह
हो। तुम कुछ
ऐसी जगह बहने
की कोशिश कर
रहे हो, जो चढ़ाव पर
है। तो नदी चढ़ाव
पर तो नहीं
बहती, ढाल
पर ही बह सकती
है। रसधार भी
ढाल पर ही उतरकर,
बहकर मिलता
है।
तो फिर
बदलो।
इसीलिए साहस
की जरूरत है।
पहले सारी
चेष्टा कर लो।
और फिर
तुम्हें लगे
कि नहीं, इस
ढंग से मेरे
लिए परमात्मा
से मिलन नहीं
हो सकेगा तो बदलो। उस
बदलाहट को मैं
संन्यास कहता
हूं। बदलने की
हिम्मत रखो।
एक
आदमी चालीस
साल तक लंदन
के बाजार में
दलाल का काम
करता रहा। बड़ा
सफल आदमी था।
खूब कमाई थी।
सब तरह का सुख
था। किसी ने
कभी सोचा भी न
था, एक रात वह
घर से नदारद
हो गया। पत्नी
भी भरोसा न कर
सकी, बेटे
भी भरोसा न कर
सके, मित्र
भी भरोसा न कर
सके, काम
धंधे में जो
लोगों से
संबंध था वे
भी भरोसा न कर
सके। क्योंकि
न तो वह आदमी
कभी किसी और स्त्री
के संग में
देखा गया था, कि पत्नी
सोच भी सके कि
वह किसी
स्त्री के साथ
भाग गया। न
उसके कोई
धार्मिक
रुझान थे कि
वह कोई जाकर
किसी आश्रम
में संन्यासी
हो गया होगा।
न कोई दुख था
कि आत्महत्या
कर ली होगी। सब
भांति
सुखी-संपन्न
आदमी था; जिसको
हम
सुखी-संपन्न
कहते हैं, वैसा
आदमी था। सब
ठीक-ठाक था।
कोई
तीन साल बाद
उस आदमी का
पता चला कि वह
पेरिस में
चित्रकला सीख
रहा है। भिखमंगे
की हालत हो गई
है। भागे उसके
मित्र। उससे
कहा, तुमने यह
क्या किया? तुम्हारे
पास सब था, सब
ठीक था। उसने
कहा, वही
अड़चन थी। सब
ठीक था, कहीं
कुछ गड़बड़ न
थी। लेकिन कोई
प्रफुल्लता न
थी। कहीं कोई
उमंग न थी। सब
ठीक चल रहा था
और सब ठीक मैं
चला रहा था, लेकिन कोई
रसधार न बह
रही थी।
मेरे
जीवन में सदा
से आकांक्षा थी
कि चित्रकार
बनूं। दलाल
बनना मैंने
कभी चाहा न
था। वह सफलता
सांयोगिक थी।
अब मैं खुश हूं।
मेरे पास अब
कुछ भी नहीं
है। चित्र
बनाता हूं, बिक जाते
हैं तो भोजन
के लायक, कपड़े
के लायक
इंतजाम कर
पाता हूं।
अपने पास रहने
का छप्पर भी
नहीं है। एक
मित्र के कमरे
में बना हूं, रह रहा हूं।
लेकिन वापस
मुझे जाना
नहीं है। मैं
प्रसन्न हूं।
और जो मित्र
गए थे
उन्होंने देखा
कि वह आदमी एक
अदभुत ऊर्जा
से, एक
अदभुत आभा से
भरा था। सूख
गया था शरीर
उसका, लेकिन
एक रोशनी थी।
उसने कहा, मैं
किसी से नाराज
नहीं हूं।
मेरी पत्नी को
कहना, मैं
किसी से नाराज
नहीं हूं। सब
ठीक था। मैं
बिलकुल, जैसा
जिसको हम
सुखी-संपन्न
कहते हैं, वैसा
आदमी था। मेरे
बच्चे ठीक हैं,
मेरे बेटे
ठीक हैं, मेरी
पत्नी ठीक है।
सब ठीक था।
लेकिन
सब ठीक से
कहीं कुछ होता? ठीक से कुछ
ज्यादा
चाहिए। ठीक से
क्या होगा? ऐसे तो
ठीक-ठीक-ठीक, और मर
जाएंगे।
सुविधापूर्वक
जी लिए और मर
गए। नाच तो
पैदा ही न
हुआ। जीवन में
फूल तो खिले
ही नहीं।
लौटा
नहीं वापस।
बड़ा चित्रकार
बन गया।
इसे
मैं संन्यास
कहता हूं। न
उसने गैरिक
वस्त्र पहने, न वह किसी
आश्रम में गया
लेकिन इसे मैं
संन्यास कहता
हूं। संन्यास
का अर्थ हुआ, साहस इस बात
का कि अगर
दिखाई पड़े कि
मेरा जीवन मरुस्थल
में खोया जा
रहा है तो
अपनी राह बदल
लेने की। चाहे
कोई भी कीमत
चुकानी पड़े।
आदमी
कमजोर है। वह
सुविधा से
जीता है। चाहे
कुछ न मिले, लेकिन
सुविधा तो है,
सुरक्षा तो
है। कुछ न
मिले!
इसलिए
ये सारे
प्रश्न उठते
हैं कि
एकाग्रता
कैसे सधे? तो पहले तो
कोशिश करना।
सध जाए तो
शुभ। चेष्टा
करने से पचास
प्रतिशत मौके
हैं, सध
जाएगी। न सधे
तो हिम्मत
करना। देर मत
लगाना, क्योंकि
जिंदगी रोज
हाथ से सरकी
जाती है।
जिंदगी
उन्हीं की है,
जो हिम्मत
से जिंदगी को
बदलने के लिए
तैयार होते
हैं। नहीं तो
जिंदगी बह
जाती है।
चिकने घड़े
के ऊपर जैसे
वर्षा का जल
बह जाता है, कुछ
भरता-करता
नहीं। या
उल्टे घड़े
पर जैसे वर्षा
गिरती रहती
है--टप-टप।
बहुत आवाज, शोरगुल मचता
है लेकिन घड़ा
खाली का खाली
रहता है।
उल्टा रखा है।
तो जरा
गौर से देखना।
तुम्हारा घड़ा
अगर भरता न हो
तो कहीं उल्टा
तो नहीं रखा
है?
तो न
तो मौलिक सवाल
ध्यान का है, न भजन का है; मौलिक सवाल
समझ का है। मन
के स्वभाव को
समझो।
एकाग्रता
की बात ही मत
उठाओ, रसमयता की बात
उठाओ। रसमयता
के पीछे-पीछे
तुम पाओगो,
एकाग्रता
घूंघर बजाती
हुई चली आती
है।
दूसरा
प्रश्न:
बिना
किसी
उद्देश्य के
मैं अपने पति
के साथ यहां आ
गई। इरादा था
कि यहां से
दक्षिण भारत
घूमने
जाऊंगी।
किंतु आपके
प्रवचन सुनकर
कुछ ऐसी पागल
हुई कि
संन्यास भी ले
लिया। और अब
ऐसा लगने लगा
कि जैसा पहले
कभी नहीं लगा
था। जिस किनारे
पर अब तक खड़ी
थी वह किनारा
ओझल हो गया है
आंख से; और
अब तो आप ही
मेरे कृष्ण बन
गए हैं, जिनकी
मैं आराधना
करती थी। और
यह विश्वास
लेकर जाती हूं
कि जो ध्यान
मिला यहां, वह कायम
रहेगा। और
पुकारने पर आप
सदा आते रहेंगे।
"मेरे
तो रजनीश ही दूसरो न
कोई।'
पूछा
है त्रिवेणी
ने। नई-नई
महिला, नया-नया
उसका आना हुआ
है। लेकिन
जैसे बहुत दिन
का प्यासा जल
के पास आ जाए, दिल खोलकर
पी ले, ऐसा
उसने पीया
है।
तो
कभी-कभी ऐसा
होता है, जो
मुझे बहुत
सुनते रहे, वे खाली हाथ
रह जाते हैं।
और ऐसा भी
होता है, कभी-कभी
कोई नया
व्यक्ति एकदम
भरपूर हो उठता
है। प्यास पर
निर्भर है।
त्रिवेणी
कोई पढ़ी-लिखी
महिला नहीं है, ग्रामीण है;
गैर-पढ़ी
लिखी है। पर
हृदय उसका बड़ा
पढ़ा-लिखा मालूम
होता है--"ढाई
आखर प्रेम के।'
बुद्धि का
कोई शिक्षण
नहीं हुआ है
लेकिन हृदय जीवंत
है।
तो
घटना बड़ी
सरलता से घट
गई है।
पति-पत्नी दोनों
यहां हैं।
लक्ष्मी मुझे
कहती थी कि
दोनों दिनभर
रसविमुग्ध
बैठे रहते
हैं। जाते ही
नहीं आश्रम
से। खोए-खोए!
जैसे कुछ मिल
गया है--कोई
खजाना। भरोसा
भी नहीं हो
रहा है कि मिल
गया है। इतने
अचानक मिला है।
विश्वास भी
नहीं आता कि
मिल गया है।
हटते भी नहीं।
कहीं जाते भी
नहीं।
ठगे-ठगे!
त्रिवेणी
मुझे मिलने
आयी थी। कुछ
कहा नहीं
उसने। कुछ
कहने को उसके
पास है भी
नहीं। यह
प्रश्न भी किसी
दूसरे से
लिखवाया
होगा। यह
प्रश्न भी किसी
और ने तैयार
किया होगा।
लेकिन वह
मौजूद रही, बैठी रही।
और बैठे-बैठे
उसने जो कहना
था, कह
दिया--बिना
कहे। उसकी
मौजूदगी से
उसने अपने भाव
अर्पित कर
दिए। अपना
भाव-सुमन चढ़ा दिया।
लोग
आते हैं, बहुत
बात कर जाते
हैं और बिना
कुछ कहे भी
चले जाते हैं।
आए, बकवास
कर जाते हैं।
त्रिवेणी आयी,
बैठी रही
चुपचाप एक
तरफ। न कुछ
बोली, न
पास पैर छूने
आयी। मगर उसने
छू लिए पैर।
गहन भाव की
बात है।
यह प्रश्न
कई तरह से
सोचने जैसा
है। पहली बात:
"बिना किसी
उद्देश्य के
मैं अपने पति
के साथ यहां आ गई।'
ऊपर से
जिसे हम
उद्देश्य
कहते हैं, ऊपर से जिसे
हम चेष्टापूर्वक
खोज कहते हैं,
वह बड़ी उथली
है। भीतर एक
निरुद्देश्य
खोज चल रही
है। वह
जन्मों-जन्मों
से चल रही है।
हमें कभी पता
भी नहीं होता
कि कहां किस
द्वार पर हमारे
लिए द्वार खुल
जाएंगे! हमें
पता भी नहीं होता
कि कहां किस
घड़ी में जीवन
को शरण मिल
जाएगी। शायद
हम चेष्टा
करके उसकी खोज
भी नहीं कर रहे
थे। अकस्मात
घटता है।
अक्सर चेष्टा
करनेवाले लोग
वंचित रह जाते
हैं। क्योंकि
चेष्टा में
अहंकार है।
मेरे
पास दो तरह के
लोग आते हैं।
एक, जो
जान-बूझकर
धर्म की खोज
में निकले
हैं। उनके साथ
बड़ी अड़चन है।
वे सब आश्रमों
में हो आए हैं।
सब गुरुओं के
पास हो आए हैं,
सब शास्त्र
पढ़ लिए हैं।
कहीं कुछ नहीं
होता।
जब ऐसा
व्यक्ति मेरे
पास आता है तो
मैं जानता हूं, होना बहुत
मुश्किल है।
उसकी
सचेष्ट-आकांक्षा
ही बाधा बन
रही है। उसकी
आकांक्षा के
कारण ही वह
बंद है।
दूसरे
तरह के लोग
हैं, जो कभी
निरुद्देश्य
आ जाते हैं।
अकारण! वे ज्यादा
खुले होते
हैं। कुछ पाने
की खोज नहीं
होती। कुछ
पाने की
अपेक्षा नहीं
होती। मन ज्यादा
खुला होता है।
सरलता से
चीजें घट जाती
हैं।
तुम
इसे समझने की
कोशिश करना।
जो-जो तुमने
उद्देश्यपूर्वक
खोजा है, उसे
तुम कभी न पा
सकोगे। जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
उद्देश्यपूर्वक
खोज से नहीं
मिलता। आनंद,
सत्य, प्रभु,
कोई भी सीधी
खोज से नहीं
मिलते। आकस्मिक
घटते हैं।
अनायास घटते
हैं। प्रसादरूप
मिलते हैं।
कोई
मित्र तुमसे
कहता है कि
मैं तैरने
जाता हूं नदी
में, बड़ा आनंद
आता है। तुम
कहते हो, तो
हम भी आएंगे।
आनंद की तो हम
भी तलाश कर
रहे हैं। बस, गड़बड़ हो गई।
तुम्हें न
मिलेगा!
क्योंकि तुम तैरोगे ही
नहीं। एक हाथ
मारोगे और
सोचोगे, आनंद
अभी तक नहीं
मिला। कब
मिलेगा अब? आधी नदी पार
भी हो गई, अभी
तक आनंद नहीं
मिला? अब
तुम उदास होने
लगोगे।
क्योंकि
आनंद मिलता है
तब, जब तुम
तैरने में
परिपूर्ण लीन
हो जाते हो।
तुम भूल ही
जाते हो। आनंद
इत्यादि की
बकवास भूल जाते
हो। अचानक तुम
पाते हो, मिला।
क्योंकि
तुम्हारे
खोने में ही
आनंद है। और
तो कोई आनंद
नहीं है। तुम
नदी भी पार कर
लेते हो, तैर
भी जाते हो।
मित्र से कहते
हो, हमें
तो कुछ मिला
नहीं। तुम
कहते थे, बड़ा
आनंद मिलता
है।
ऐसे
कभी-कभी तुम
किसी को यहां
मेरे पास ले
आते हो, कहते
हो चलो, सुनने
में बड़ा आनंद
आता है। बस, तुम गड़बड़
में उसको डाल
रहे हो। यह तो
भूलकर कहना ही
मत कि सुनने
में बड़ा आनंद
आता है। क्योंकि
आनंद का लोभ
सभी को है। वह
भी सोचेगा कि
चलो, आनंद
की तो खोज हम
भी कर रहे
हैं। अगर
सुनने से ही
आनंद मिलता है,
इतना सस्ता
मिलता है, चले
चलते हैं।
क्या बिगड़ता
है? सुन ही
लें।
मगर वह
पूरे समय बैठा
है, देख रहा
है किनारे से।
जैसे तुमने
देखा हो, बिल्ली
बैठी रहती है,
चूहे की राह
देखती रहती
है। ऐसे लगती
है बिलकुल
शांत बैठी है,
ध्यान कर
रही है। ऊपर
से देखो तो
ऐसा लगता है, बड़ी महावीर
बनी बैठी है, ध्यान-मग्न;
लेकिन उसकी
नजर लगी है
चूहे की पोल
पर कि कब निकले!
अभी तक नहीं
निकला, अब
निकले। बड़ी
देर हुई जा
रही है, भूख
बढ़ती जा रही
है।
तो वह
जो आदमी आ गया
है सुनने, इसलिए कि
आनंद मिलेगा,
वह आनंद के
चूहे पर लगाए
नजर बैठा है।
और ध्यान रखना,
बिल्ली की
नजर से चूहा
डरता है।
निकलता ही
नहीं। वह भी
अंदर से देख
लेता है कि
कहीं कोई
ध्यानमग्न तो
नहीं बैठा है!
अगर बैठा है
तो खतरा है।
चूहे भी
बिल्ली के पास
नहीं आते।
कितना ही
ध्यान करो!
क्योंकि चूहे
कहते हैं, सौ-सौ
चूहे खाए हज
को चली। इतने
चूहे खा चुकी
है, इसका
भरोसा चूहों
को नहीं आता
कि यह ध्यान
में बैठी
होगी।
आनंद
बड़ी नाजुक
घटना है। तुम
जब बिलकुल
बेखबर होते हो, मस्त होते
हो, तब
तुममें
प्रवेश कर
जाता है।
सामने के
द्वार से आता
ही नहीं, पीछे
के द्वार से
आता है। ऐसा
ढोल इत्यादि
बजाकर आता ही
नहीं। चुपचाप,
पगध्वनि भी
नहीं होती ऐसे
चला आता है।
तो
अक्सर जो
आकस्मिक रूप
से आ गए हैं...।
तुमको
मैं कहता हूं, अपने
मित्रों को
कभी मत कहना
कि बड़ा आनंद
मिलता है, चलो।
नहीं तो तुम
उसके कारण
बाधा बन
जाओगे। तुम ही
बाधा बन
जाओगे। वे
आएंगे और आनंद
नहीं मिलेगा
तो वे कहेंगे,
तुमने धोखा
दिया। और तुम्हें
भी क्या खाक
मिलता होगा, जब हमको
नहीं मिला।
सुना तो हमने
भी वही, सुना
तुमने भी वही।
हमें तो कुछ
भी न मिला। तो तुम
नाहक की बातें
करते हो।
नहीं, त्रिवेणी को
हो गया होगा।
वह यहां आने
के लिए आयी ही
न थी। जाते थे
पति-पत्नी
दक्षिण की यात्रा
को, पूना
बीच में पड़
गया। सोचा
होगा चलो, यहां
भी देखते चलो।
मगर कोई खोज
नहीं थी। ऐसी कोई
चेष्टा नहीं
थी। ऐसी कोई
अपेक्षा भी
नहीं थी कि
आनंद मिलेगा
कि रसधार
बहेगी कि बादल
उमड़ेंगे-घुमड़ेंगे
कि बिजली चमकेगी।
ऐसा कुछ खयाल
ही न था। इतनी
सरलता से कोई
आ जाता है तो
घटना घट जाती
है।
सरलता
से आना
मुश्किल है।
क्योंकि जो
सरल हैं, वे
आएं क्यों? जो जटिल हैं
वे आते हैं।
जटिल को मिलना
मुश्किल। जो
खोज रहा है वह
आता है। जो
खोज नहीं रहा
वह आता नहीं।
जो खोज रहा है
उसको मिलता
नहीं।
तो
कभी-कभी जब न खोजनेवाला
आ जाता है
सत्संग में, तो घटना घट
जाती है।
"बिना
किसी
उद्देश्य के
मैं अपने पति
को साथ आ गई।'
इसीलिए
कुछ हो गया।
अपेक्षा न हो
तो जीवन में बड़ी
घटनाएं घटती
हैं। जो-जो
तुमने
अपेक्षा बांधी, वही-वही
नहीं घटेगा।
अपेक्षा के
कारण ही घटना बंद
हो जाता है।
तुमने
देखा! किसी से
प्रेम हो जाता
है, खूब रस
बहता है।
लेकिन यह थोड़े
दिन ही चलता
है। यह हनीमून
भी पूरा होतेऱ्होते
चल जाएगा, संदिग्ध
है। यह
सुहागरात पर
ही समाप्त हो
जाता है। उसी
स्त्री से, उसी पुरुष
से बड़ा रस
मिला था। फिर
क्या हो जाता
है?
अपेक्षा
नहीं थी, जब
मिला था। तब
तुमने सोचा न
था कि मिलेगा।
तब तुम सचेत
रूप से खोज
नहीं रहे थे, मांग नहीं
रहे थे; मिला
था। फिर सचेत
रूप से मांगने
लगे। अब तुम कहते
हो रोज-रोज
मिलना चाहिए।
अब तुम कहते
हो, आज
नहीं मिला, बात क्या है?
कोई धोखा चल
रहा है?
अब तुम
मांग करते हो।
अब तुम
दावेदार बन
गए। अब तुम
मुकदमा लड़ने
को तैयार हो।
अब तुम कलह
करते हो पत्नी
से कि आज सुख
नहीं दिया। या
फिर तुम्हें
संदेह होता है
कि क्या पत्नी
अब धोखा देने
लगी? या
कभी-कभी यह भी
संदेह होता है
क्या पहले-पहल
धोखा दिया था?
क्या मैं
कोई सपने में
खो गया था?
कुछ भी
नहीं हुआ है।
एक जीवन की
छोटी-सी घटना
तुम नहीं समझ
पा रहे हो। जब
पहली दफा किसी
स्त्री या किसी
पुरुष से मिले
थे तो मिलने
में कोई भी
अपेक्षा न
थी--निरपेक्ष।
घटना आकस्मिक
घट गई थी। लेकिन
अब अपेक्षा
है।
ऐसा हर
तरफ होता है।
पहली दफा
ध्यान में
लोगों को
कभी-कभी ऐसी
अनुभूति आती
है। फिर कठिन
हो जाता है।
क्योंकि फिर
दूसरे दिन
ध्यान नहीं
करते। फिर तो
वे थोड़ा
हिलते-डुलते
हैं, और भीतर
तैयार रहते
हैं कि अब
हो...अब हो...अब
हो। नहीं
होता।
क्योंकि जब
पहली दफा हुआ
था तो "अब हो, अब हो' ऐसी
कोई आवाज भीतर
नहीं थी। अब
तुमने एक नई
चीज जोड़ दी, जो बाधा बन
रही है।
इधर
मेरे हजारों
लोगों पर
ध्यान-प्रयोग
करने के जो
नतीजे हैं, उनमें एक
नतीजा यह है
कि पहली दफा
जैसी झलक मिलती
है, फिर
बड़ी कठिन हो
जाती है। फिर
जब तक वह पहली
झलक भूल नहीं
जाती, दूसरी
झलक नहीं
मिलती। कभी
महीनों लग
जाते हैं
भूलने में। जब
बिलकुल हारऱ्हारकर
आदमी सोचता है,
कि अरे! वह
भी मिली न
होगी। कल्पना
कर ली होगी। जब
पहली झलक भूल
जाती है तब
दूसरी झलक
मिलती है।
दूसरी, तीसरी,
चौथी झलक के
बाद यह समझ
में आना शुरू
होता है कि
मैं जो मांग
रहा था, वह
बाधा बन रही
थी।
निरुद्देश्य
आने से ही कुछ
हुआ। अब ऐसी निरुद्देश्यता
को कायम रखना।
अब खतरा है।
त्रिवेणी
पूछती है कि
घर जाकर यह
ध्यान कायम
रहेगा न? अब
खतरा है। जो
हुआ है, बिना
मांगे हुआ है।
अब भी क्यों
मांगना? जब
अभी बिना
मांगे हो गया
है तो फिर भी
बिना मांगे
होता रहेगा।
अब
खतरा है। अब
खतरा यह है कि
जो रस उसे
मालूम हुआ है, अब वह
चाहेगी कि वह
घर पर कायम
रहे।
लौट-लौटकर
उसको फिर पाना
चाहेगी। इस
चाह से ही मर
जाएगा। अब
निरुद्देश्य
न रही
त्रिवेणी। अब
त्रिवेणी को
उद्देश्य मिल
गया। अब
दुबारा अगर वह
पूना आएगी तो
भी खतरा है।
जरूर आएगी।
आना पड़ेगा
उसे। क्योंकि
वह जो रस मिला,
अब उसकी
वासना जगेगी।
अब वह बार-बार
आएगी। अब मैं
भी उससे डरा
हूं। क्योंकि
जब वह बार-बार
आएगी और न
पाएगी तो मुझ
पर नाराज
होगी।
इसलिए
अभी से सावधान
कर देता हूं।
बात ही छोड़ो।
जैसी आयी थी
निरुद्देश्य, ऐसी ही घर
वापस लौट जाओ।
जैसे
निरुद्देश्य
मन से मुझे
यहां चाहा, मुझे प्रेम
किया, ऐसे ही
घर पर भी
करना। आनंद मत
मांगना, ध्यान
मत मांगना।
मांगना ही मत
कुछ। घटेगा। खूब-खूब
घटेगा। जितना
घटा है वह तो
सिर्फ शुरुआत
है। यह तो अभी
एक झाला आया
है। अभी तो
मूसलाधार
वर्षा होगी।
मगर मांगना
मत। यह तो
सिर्फ शुरुआत
है। और जब
दुबारा यहां
आओ तो अपेक्षा
लेकर मत आना।
फिर ऐसे ही आ
जाना। कठिन
होगा। क्योंकि
इस बार तो
निरुद्देश्य
आना
स्वाभाविक
हुआ था। अब
दूसरी बार बड़ा
कठिन होगा।
लेकिन अगर समझा
कि पहली दफा
निरुद्देश्य
जाने से घट
गया था तो अब
उद्देश्य
लेकर क्यों
जाएं?
चले
आना, जब आने की
सुविधा बने।
यह सोचकर मत
आना कि वहां
जाकर खूब आनंद
होगा; कि
वहां खूब
ध्यानमग्नता
आएगी; कि डूबेंगे।
यह सोचकर ही
मत आना। फिर
ऐसे आना जैसे
अजनबी हो। फिर
घटेगा। जितना
घटा उससे बहुत
ज्यादा घटेगा।
और इस सूत्र
को अगर समझ
लिया तो घटता
ही रहेगा।
परमात्मा
शुरू होता है, अंत कभी भी
नहीं होता।
हमारे पात्र
भर जाते हैं, फिर भी
बरसता रहता
है। पात्र ऊपर
से बहने लगते
हैं, फिर
भी बरसता रहता
है। बाढ़ आ
जाती है, बरसता
ही रहता है।
लेकिन अड़चन
खड़ी होती है
कि जैसे ही
हमने अपेक्षा
की कि हम सिकुड़े।
हमारा पात्र
बंद हुआ। हम
अपात्र हुए।
"बिना
किसी
उद्देश्य के
यहां आ गई।
इरादा कुछ और
था--दक्षिण
भारत घूमने
जाऊंगी।
किंतु आपके
प्रवचन सुनकर
कुछ ऐसी पागल
हुई कि
संन्यास भी ले
लिया...।'
ठीक
कहती है।
संन्यास एक
तरह का पागलपन
है। संन्यास
एक तरह की
मस्ती है।
हिसाब-किताब
की दुनिया के
बाहर है।
तर्क-वितर्क
की दुनिया के
बाहर है। सोच आदि
को जो एक
किनारे हटाकर
रख देता है
वही संन्यस्त
होने का
अधिकारी है।
जो कहता है, लोक-लाज
खोई। जो कहता
है, अब
फिक्र नहीं कि
लोग क्या
कहेंगे। जो
कहता है, दूसरों
के मत का अब
कोई प्रभाव
नहीं। अब हम
अपने ढंग से
जीएंगे। जीवन
हमारा है, हम
अपने ढंग से
जीएंगे, अपने
ढंग से
नाचेंगे। न हम
किसी को
जोर-जबर्दस्ती
करते कि वह
हमारे ढंग का
हो। न हम किसी
को जोर-जबर्दस्ती
करने देंगे कि
हम उसके ढंग
के हों। न हम
किसी को
दबाएंगे, न
हम दबेंगे।
संन्यास
बड़ी गहरी उदघोषणा
है। वह इस बात
की उदघोषणा
है कि अब न तो
मैं किसी पर
आग्रह थोपूंगा
अपना कि वह
मेरे जैसा हो, और न मैं
चाहूंगा कि
कोई चेष्टा
करे मुझे अपने
जैसा बनाने
की। तो न तो
मैं किसी का
मालिक बनूंगा,
और न किसी
को मालिक बनने
दूंगा। न मैं
किसी की स्वतंत्रता
छीनूंगा,
और न किसी
को मेरी
स्वतंत्रता
छीनने दूंगा।
दोहरी उदघोषणा
है संन्यास। अब
जो मेरी मौज
है, वैसे ही जीऊंगा।
यद्यपि इसका
यह अर्थ नहीं
कि तुम अपनी
मौज में किसी
को कष्ट दो।
क्योंकि कष्ट
देने का तो अर्थ
हुआ, उदघोषणा इकहरी हो
गई। तुम दूसरे
पर अपने को
थोपने लगे।
जीवन
के परम
रहस्यों में
एक है कि न तो
दूसरे के जीवन
में बाधा देना
और न किसी को
अवसर देना कि
तुम्हारे
जीवन में बाधा
दे। बड़ा कठित
है। आसान है
बात, या तो
दूसरे के जीवन
पर हावी हो
जाओ, दूसरे
की छाती पर
बैठ जाओ, मूंग दलो; यह
आसान है। या
दूसरे को अपनी
छाती पर बैठ
जाने दो, वह
मूंग दले,
यह भी आसान
है। और यही
अक्सर घटता
है। या तो तुम
किसी की छाती
पर मूंग दलोगे, या
कोई तुम्हारी
छाती पर मूंग
दलेगा।
इसलिए
मैक्यावेली
ने कहा है, इसके
पहले कि दूसरा
तुम्हारी
छाती पर मूंग
दले, देर
मत करो; उचको,
झपटो, बैठ जाओ
दूसरे की छाती
पर, तुम मूंग
दलना शुरू
करो। नहीं तो
कोई न कोई
तुम्हारी छाती
पर दल देगा।
मैक्यावेली
कहता है, रक्षा
का एकमात्र
उपाय आक्रमण
है। इसके पहले
कि कोई हमला
करे, तुम
हमला कर दो।
राह मत देखो
कि वह करेगा, फिर रक्षा
कर लेंगे।
क्योंकि
जिसने राह
देखी वह तो पिछड़
गया।
तो
दुनिया में
ऐसा ही हो रहा
है। बड़ी मछली
छोटी मछली को
खा जाती है।
तो या तो बड़ी
मछली बनो या
छोटी मछली बनोगे।
और क्या करोगे?
साधारण
हैं दोनों
बातें। यही हो
रहा है। यही कलह
है, यही
संघर्ष
है--देशों में,
जातियों
में, व्यक्तियों
में, सारे
संबंधों में।
पति पत्नी पर
हावी होना चाहता
है कि वह मेरे
ढंग से चले।
एक
पत्नी मेरे
पास आती है।
वह कहती है
पति को बस, किसी तरह
शराब रुकवा
दें। और कुछ
भी करे, मगर
शराब न पीये।
मैंने पूछा
उसको कि सच
में तू शराब
के इतने
विपरीत है या
अपनी चलाने का
आग्रह है? क्योंकि
तेरे पति को
मैं जानता
हूं। भला
आदमी!
और
शराबी अक्सर
भले आदमी होते
हैं। खतरा तो
उनसे है, जो
माला इत्यादि
लिए बैठे हैं।
उनमें भले
आदमी खोजना बहुत
मुश्किल है।
वे अक्सर
दुष्ट
प्रकृति के लोग
होते हैं।
शराबी तो
अक्सर भले
आदमी होते हैं।
तेरे
पति को मैं
जानता हूं, भला आदमी
है। ऐसे किसी
को कुछ गड़बड़
भी नहीं करता।
वह कहती है, ऐसे तो कुछ
गड़बड़ नहीं
करते, पीकर
ऐसा कुछ खराब
भी नहीं करते।
सिर्फ आपका
प्रवचन देते
हैं
पीकर--दो-दो तीनत्तीन
घंटे! ऐसी कोई
बुरी बात भी
नहीं कहते।
ज्ञान की
बातें करते
हैं। तो मैंने
कहा, हर्जा
क्या है? वे
मेरा ही
प्रवचन देते
हैं। बात तो
यही कहते हैं।
बात भी बिलकुल
दोहराते हैं।
जब वे पी जाते
हैं तो शब्द
शब्द दोहराते
हैं, भाव-भंगिमा
दोहराते हैं।
तो फिर मैंने
कहा, हर्ज
क्या है? तू
समझना कि टेप
रिकार्ड
लगाया है। सुन
लिया कर।
नहीं, मगर वह कहती
है, यह ठीक
नहीं है।
मैंने कहा, एक काम कर।
तीन
महीने...कितने
दिन से तेरे
पति पीते हैं?
वह कहने लगी,
कोई बीस साल
से। मैंने कहा,
बीस साल की
आदत है, छूटते-छूटते
छूटेगी।
मगर तू एक काम
कर। तू तीन
महीने कहना
छोड़ दे। तू तो
कोई शराब नहीं
पीती, सिर्फ
कहती है कि मत पीयो। और
बीस साल का
अनुभव है कि
वे सुनते
नहीं। कहने
में कुछ सार
भी नहीं है।
तीन महीने के
लिए तू कहना
छोड़ दे।
उसने
पांच-सात दिन
के बाद आकर
कहा कि असंभव।
मेरी भी बीस
साल की आदत
है। यह नहीं
हो सकता। इससे
मुझे बड़ी
बेचैनी होती
है, इसलिए
नहीं कह सकती।
इसकी तो आप
मुझे छुट्टी दे
दें।
तो
मैंने कहा, अब तू सोच।
तेरे पति की
तो शराब की
आदत है बीस साल
की। कैसे छूटेगी?
तुझे सिर्फ
कहना रोकना है,
वह भी नहीं
छूटता। वह भी
तेरी शराब हो
गई।
और मजा
तुझे अंदाज
में नहीं है, अगर मैं
तेरे पति को
राजी कर लूं
और वे शराब न पीयें तो
तू दुखी हो
जाएगी।
क्योंकि तेरा
सारा रस यही
है। पति को
तूने दीनऱ्हीन
कर दिया है।
तेरी मालकियत
कायम हो गई
शराब पीने के
कारण। ऐसे पति
सब तरह से ठीक
हैं। अगर शराब
छोड़ दें तो
तेरी मालकियत
खतम हो जाएगी।
तू ऊंची हो गई
है, पति को
नीचा बना लिया
है। पति तुझसे
डरते हैं, तू
डराती है। अगर
तेरे पति ने
शराब छोड़ी
तो वे तुझे डराएंगे।
इसकी तू
तैयारी कर ले।
जीवन
में हम या तो
डरते हैं या डराए जाते
हैं। हम
अच्छे-अच्छे
बहाने खोज
लेते हैं
डराने के। और
हम अगर डराए
जाते हैं तो
भी हम
अच्छे-अच्छे
तर्क ले लेते
हैं कि हम
क्यों डर रहे
हैं। हम कहते
हैं कि वह बात
ठीक ही है, इसलिए हम डर
रहे हैं।
संन्यास का
अर्थ इन दोनों
स्थितियों के
पार जाना है।
संन्यास का
अर्थ है, न
तो हम डराएंगे
किसी को; क्योंकि
हम कौन हैं? और न हम किसी
से डरेंगे।
न तो हम किसी
को उसके मार्ग
से विचलित
करेंगे, न
हम अपने मार्ग
से विचलित
होंगे।
इसका
अर्थ हुआ, संसार से
संबंध छोड़ा।
क्योंकि
संसार में दो
ही तरह के
संबंध हैं--या
तो डराए जाओ,
या डराओ।
अगर तुम मेरी
बात समझो तो
पत्नी को
छोड़कर नहीं
जाना, दुकान
छोड़कर नहीं
जाना, घर
छोड़कर नहीं
जाना। संसार
से संबंध
छोड़ने का यह
सार है कि मत
डरना किसी से
और मत डराना
किसी को। तुम
संसार के बाहर
हो गए।
क्योंकि इन
दोनों में ही
संसार बंटा
है। तब तुम न
बड़ी मछली रहे,
न छोटी मछली
रहे। तुम मछली
ही न रहे। तुम
संसारी न रहे।
बड़ी
हिम्मत
चाहिए।
रास्ता कठिन
होगा क्योंकि
तुम अचानक
अकेले पड़
जाओगे। और
तुम्हारी सारी
प्रतिष्ठा
दांव पर लग
जाएगी।
क्योंकि जिनने
प्रतिष्ठा दी
थी, वे
प्रतिष्ठा
खींच लेंगे
वापस।
उन्होंने कुछ
शर्तों से
प्रतिष्ठा दी
थी। वे कहते
थे, तुम
बड़े
बुद्धिमान हो,
अब न
कहेंगे। वे
कहते थे, तुम
बड़े होशियार
हो, अब न
कहेंगे। अब तो
वे कहेंगे, तुम पागल हो
गए, सम्मोहित
हो गए। किसके
जाल में पड़ गए!
तुमने अपनी
बुद्धि गंवा
दी। अब तो वे
तुम पर संदेह
करेंगे।
तो
तुम्हारी सारी
प्रतिष्ठा
कठिनाई में पड़
जाएगी। संन्यास
महंगा सौदा
है। पागल ही
कर सकते हैं।
त्रिवेणी
ठीक कहती है
कि "यहां आकर
संन्यास ले
लिया। ऐसी
पागल हो गई कि
संन्यास ले
लिया। और अब
आप ही मेरे
कृष्ण बन गए
हैं।'
जहां
प्रेम हो गया
वहीं कृष्ण का
आविर्भाव हो जाता
है। कृष्ण से
थोड़े ही प्रेम
होता है! जहां
प्रेम होता है, वहीं कृष्ण
का आविर्भाव
हो जाता है।
यही कठिन बात
है।
अगर
तुम किसी
दूसरे को
सिद्ध करोगे
कि मुझे कृष्ण
के दर्शन हो
गए तो वह
हंसेगा। उसका
हंसना भी ठीक
है। वह कहेगा, हमें तो कोई
कृष्ण के
दर्शन होते
नहीं; तुम्हें
कैसे हो गए? कुछ भ्रांति
हो गई होगी।
वह भी
ठीक है।
क्योंकि
कृष्ण के
दर्शन तो प्रेम
में होते हैं; प्रेम की
आंख हो तो
होते हैं। और
प्रेम की आंख हो
तो कुछ और ही
होने लगता है,
जो इस जगत
में होता ही
नहीं।
मोहब्बत
में कदम रखते
ही गुम होना
पड़ा मुझको
निकल आयीं हजारों
मंजिलें
एक-एक मंजिल
से
अगर
प्रेम की आंख
खुली, कि एक
दूसरा ही लोक
खुला। हजारों मंजिलें
खुल जाती हैं।
इधर प्रेम की
आंख बंद हुई
कि सब बंद हो
जाता है।
कृष्ण
दिखाई पड़ सकते
हैं, जहां
तुम्हारा
प्रेम जग जाए।
प्रेम कृष्ण
को निर्मित
करता है।
प्रेम कृष्ण
का आविष्कार
करता है।
तो
तुम्हारा
प्रेम जगा, इसे स्मरण
रखना। और इस
प्रेम को मुझ
पर ही मत रोक
लेना। इसे और
बढ़ाना, कि
धीरे-धीरे
कृष्ण सब जगह
दिखाई पड़ने
लगें। जो घटना
तुमने मुझ पर
घटा ली है, वह
तुम्हारी
प्रेम की आंख
के कारण घटी
है। इसी आंख
से वृक्ष को
देखना। तो तुम
पाओगे, कृष्ण
खड़े हैं
हरे-भरे। इसी
आंख से पहाड़
को देखना तो
तुम पाओगे, कृष्ण खड़े
हैं। कैसे
आकाश को छूते
शिखर। हिमाच्छादित!
कृष्ण खड़े
हैं।
तुम
इसी प्रेम की
आंख से देखते
चले जाना, तो हर जगह
कृष्ण दिखाई
पड़ेंगे। यह
प्रेम की आंख
जो पैदा हुई
है, यह
बढ़ती जाए, यह
मुझ पर रुके
न। क्योंकि
रुक जाए तो
खतरा हो जाता है।
रुकने से
संप्रदाय बन
जाता है। बढ़ने
से धर्म, रुकने
से संप्रदाय।
तुमने
अगर यह जिद्द
की कि यही
आदमी कृष्ण है, और कोई
कृष्ण
नहीं--तो बस, जल्दी ही यह
प्रेम मर
जाएगा।
क्योंकि
प्रेम फैलता
रहे तो जीता
है। प्रेम
बढ़ता रहे तो
जीता है।
प्रेम सिकुड़
जाए तो मरने
लगता है।
तुमने गर्दन
पर फांसी लगा
दी। जैसे किसी
की गर्दन दबा
दो और कोई मर
जाए, ऐसा
प्रेम को सिकोड़ना
मत, अन्यथा
मर जाएगा। फिर
एक दिन तुम
पाओगे कि मुझमें
भी दिखाई नहीं
पड़ेंगे
कृष्ण।
इसलिए
यह जो मौका
मिला, यह जो
पलक थोड़ी खुली,
इसको और
खोलते ही चले
जाना।
"...अब
यह विश्वास
लेकर जाती हूं
कि जो ध्यान
यहां मिला है,
वह कायम
रहेगा।'
यह बात
छोड़कर जाओ। यह
साथ लेकर मत
जाओ। यह रहेगा
कायम, लेकिन
तुम यह बात
यहीं छोड़ जाओ।
तुम यह बात ही मत
उठाओ। यह
विश्वास
खतरनाक है। यह
विश्वास तो इस
बात की सूचना
है कि
अविश्वास आना
शुरू ही हो गया।
डर लगने लगा
मन में कि अब
घर वापस जाना
है। पता नहीं
जो यहां हो
रहा था, वह
वहां होगा या
नहीं होगा।
तुम्हारा घर
परमात्मा के
उतने ही निकट
है जितना
यहां। सभी घर
उसके हैं। सभी
जगह वही है।
तुम यह
विश्वास ही
उठाने का मतलब
हुआ कि कहीं
गहरे में
अविश्वास आने
लगा कि अब
जाती हूं घर, अब पता नहीं
जो हुआ है, वह
साथ जाएगा या
नहीं? फिक्र
छोड़ो।
विश्वास की
कोई जरूरत
नहीं है।
तुम
आनंदमग्न, नाचती, गीत
गुनगुनाती
वापस जाओ।
तुम्हारे
गीतों में
बंधा हुआ, जो
यहां घटा है
वह तुम्हारे
साथ चला आएगा।
अपेक्षाशून्य!
जैसे
निरुद्देश्य
आना यहां हुआ
था, ऐसे ही
निरुद्देश्य
वापस चली जाओ।
दूर न जा पाओगी।
याद आगाजे-मोहब्बत
की दिलों से न
गई
काफिले
घर से बहुत
दूर न होने
पाए
कभी
नहीं हो पाते
दूर। प्रेम की
झलक मिल जाए...।
याद आगाजे-मोहब्बत
की दिलों से न
गई।
फिर
दिल कभी भूलता
ही नहीं। दिल
में घट जाए, एक दफा दिल
में झंकार हो
जाए, फिर
दिल कभी भूलता
ही नहीं।
याद आगाजे-मोहब्बत
की दिलों से न
गई
काफिले
घर से बहुत
दूर न होने
पाए
फिर
तुम जाओ कितने
ही
दूर--पृथ्वी
के किसी दूर के
कोने पर भी, तो भी घर से
दूर न हो
पाओगे। वह घर
परमात्मा है,
जिससे हम
कभी दूर नहीं
हो पाते।
एक दफा
पुलक आ जाए, झलक आ जाए।
वह झलक आयी
है। इसलिए
विश्वास इत्यादि
की बात मत
उठाओ।
विश्वास तो
थोथी चीज है। विश्वास
तो अविश्वास
को ढांकने का
उपाय है। विश्वास
तो शंका को
छिपाने की
व्यवस्था है।
विश्वास तो
संदेह को
लीपापोती
करना है।
तुम
जैसी
निरुद्देश्य
यहां आयी थीं, बिना किसी
भाव के; कुछ
पता न था क्या
घटेगा, ऐसे
ही वापस जाओ
बिना कुछ पता
लिए कि क्या
घटेगा। बहुत
कुछ घटने को
है। मैं तुमसे
पहले तुम्हारे
घर पहुंच गया
हूं।
"...जो
ध्यान यहां
मिला वह कायम
रहेगा और पुकारने
पर आप सदा आते
रहेंगे?'
तुम
फिक्र ही न
करो। कभी-कभी
बिना पुकारने
पर भी आऊंगा।
द्वार पर
दस्तक दूं तो घबड़ाना
मत। कभी अचानक
सामने खड़ा हो
जाऊं तो घबड़ाना
मत।
प्रेम
न तो समय
जानता, न
स्थान जानता।
क्षेत्र और
काल दोनों के
पार है।
दिन-रात
खुली रहती हैं
राहें दिल की
तकती
हैं किसे रोज
निगाहें दिल
की
ये
किसका
तसव्वुर है, ये किसका है
खयाल
रोके
जो रुकती नहीं
आहें दिल की
दिन-रात
खुली रहती हैं
राहें दिल
की--वे प्रेम के
रास्ते सदा ही
खुले हुए हैं।
अपेक्षा से बंद
हो जाते हैं।
द्वार बंद हो
जाता, भिड़ जाता।
अपेक्षा भर मत
ले जाओ।
प्रफुल्लता
से, मग्न-भाव
से जाओ।
दिन-रात
खुली रहती है
राहें दिल की
तकती
हैं किसे रोज
निगाहें दिल
की
दिल की
निगाह के लिए
कोई भौतिक
उपस्थिति
जरूरी नहीं
है। दिल की
आंख दूर से
देख लेती है।
और दिल की आंख
न हो तो पास से
भी नहीं देख
पाती। दिल की
आंख न हो तो
आदमी अंधे की
तरह आता, अंधे
की तरह चला
जाता।
ये
किसका
तसव्वुर है, ये किसका है
खयाल
आता
हूं तुम्हारे
साथ। लेकिन
तुम्हारी
अपेक्षा रही
तो न आ
पाऊंगा।
अपेक्षा छोड़
दो। अपेक्षा
का त्याग कर
दो। आता हूं
तुम्हारे साथ
एक तसव्वुर की
तरह, एक भाव की
तरह, एक
भक्ति की तरह।
ये
किसका
तसव्वुर है, ये किसका है
खयाल
रोके
जो रुकती नहीं
आहें दिल की
रोना!
अपेक्षा मत ले
जाओ।
हंसना!
अपेक्षा मत ले
जाओ।
गाना, नाचना, चुप
होकर बैठ
जाना।
अपेक्षा मत ले
जाओ। सहज होना;
सहजस्फूर्त।
और फिर संबंध
नहीं टूटता
है।
तू
सोज-ए-हकीकी
है मैं परवाना
हूं
तू
वादा-ए-गुलरंग
है मैं पैमाना
हूं
तू रूह
है मैं जिस्म
हूं
तू
अस्ल है मैं नक्ल
जिसमें
है बयां
तेरा, वह
अफसाना हूं
भक्त
कहता है:
तू
सोज-ए-हकीकी
है, मैं
परवाना हूं
तू है
सत्य का दीया, मैं हूं
पतिंगा, परवाना।
तुझ पर जलने
को आता हूं।
तू
वादा-ए-गुलरंग
है मैं पैमाना
हूं
--तू
फूलों के रंग
जैसी शराब है,
मैं तेरा
पात्र हूं।
तू
वादा-ए-गुलरंग
है मैं पैमाना
हूं
तू रूह
है मैं जिस्म
--तू
है आत्मा, मैं
शरीर।
तू
अस्ल है मैं नक्ल
भक्त
अपने को पोंछ
देता है, मिटा
देता है।
अपेक्षा
रखोगे तो तुम
रहोगे। क्योंकि
अपेक्षा
तुम्हारी है;
तुम्हारे
अहंकार की, अस्मिता की
है।
अपेक्षाएं
हटा दो।
अपेक्षाओं के
गिरते ही
तुम्हारा
अहंकार गिर
जाएगा।
तू रूह, मैं जिस्म
तू
अस्ल, मैं नक्ल
तब
भक्त नक्ल
हो जाता है, नकल हो जाता
है। वह कहता
है तेरी छाया,
प्रतिबिंब;
दर्पण में
बनी तेरी प्रतिछवि।
तू
अस्ल, मैं नक्ल
जिसमें
है बयां
तेरा, वह
अफसाना हूं
ज्यादा
से ज्यादा वह
कहानी हूं, वह गीत हूं, जिसमें तेरा
बयान है। अपने
को पोंछो।
अपने को हटाओ।
उसी ढंग से
परमात्मा के
लिए जगह बनती
है।
तो मैं
कहता हूं, त्रिवेणी, घर जाओ--खाली,
शून्यवत। कोई
अपेक्षा नहीं,
कोई अतीत
अनुभव की
स्मृति नहीं।
जो हुआ है वह
फिर-फिर हो, ऐसी वासना
नहीं--शून्य!
उस शून्य में
ही उसका दीया
उतर आएगा; उसकी
रोशनी भरेगी।
तू
वादा-ए-गुलरंग
मैं पैमाना
हूं
यह
शून्यता ही
तुम्हें
पात्र बना
देगी। फूलों
के रंगों जैसी
शराब, परमात्मा
की मस्ती
उसमें उतरेगी
और भरेगी। तुम
मिटोगे तो
परमात्मा हो
सकता है।
तीसरा
प्रश्न:
कथा
कहती है कि
श्री कृष्ण
भगवान ने जब
सिरदर्द
मिटाने के लिए
भक्तों से
उनकी चरणधूलि
मांगी, तब
सबने इंकार कर
दिया, लेकिन
गोपियों
ने चरणधूलि
दी। प्रभु, इस प्रसंग
का रहस्य
बताने की कृपा
करें।
रहस्य
बिलकुल साफ
है। बताने की
कोई जरूरत
नहीं है।
सीधा-सीधा है।
दूसरे डरे
होंगे।
दूसरों की
अस्मिता रही होगी, अहंकार रहा
होगा।
अब यह
बड़े मजे की
बात है।
अहंकार को
विनम्र होने
का पागलपन
होता है।
अहंकार को ही
विनम्र होने
का खयाल होता
है। तो जो
दूसरे रहे
होंगे, उन्होंने
कहा, पैर
की धूल भगवान
के लिए? कभी
नहीं। कहां
भगवान, कहां
हम! हम तो
क्षुद्र हैं,
तुम विराट
हो। हम तो
ना-कुछ हैं, तुम सब कुछ
हो। लेकिन इस
ना-कुछ में भी
घोषणा हो रही
है कि हम हैं, छोटे हैं।
हमारे पैर की
धूल तुम्हारे
सिर पर? पाप
लगेगा, नर्क
में पड़ेंगे।
लेकिन गोपियां जो
सच में ही
ना-कुछ हैं, उन्होंने
कहा हमारे पैर
कहां? हम
कहां? हमारे
पैर की धूल भी
तुम्हारे ही
पैर की धूल है।
और यह धूल भी
कहां? तुम
ही हो। और फिर
तुम्हारी
आज्ञा हो गई
तो हम बीच में
बाधा
देनेवाले कौन?
हम कौन हैं
जो कहें नहीं?
प्रेम
की विनम्रता
बड़ी अलग है। ज्ञान
की विनम्रता
थोथी है, धोखे
से भरी है।
ज्ञानी जब
तुमसे कहता है,
हम तो आपके
पैर की धूल
हैं, तुम
मान मत लेना।
जरा उसकी आंख
में देखना। वह
कह रहा है, समझे
कि नहीं, कि
हम महाविनम्र
हैं!
तुम यह
मत कहना कि
ठीक कहते हैं
आप; बिलकुल
सही कहते हैं
आप। तो वह
नाराज हो
जाएगा और फिर
कभी तुम्हारी
तरफ देखेगा भी
नहीं। वह
सुनना चाहता
है कि तुम कहो,
कि अरे! आप
और पैर की धूल?
नहीं-नहीं।
आप तो
पूज्यपाद! आप
तो महान, आपकी
विनम्रता
महान। वह यह
सुनना चाहता
है कि तुम कहो
कि आप महान।
दूसरों
ने इंकार कर
दिया होगा।
कृष्ण के सिर
में दर्द है, इससे उन्हें
थोड़े ही मतलब
है! उन्हें
अपने नर्क की
पड़ी है, कि
पैर की धूल दे
दें और फंस
जाएं। यह भी
खूब आदमी
फंसाने के
उपाय कर रहा
है! अभी पैर की
धूल दे दें, फिर फंसें
खुद।
तुम्हारा तो
सिरदर्द ठीक
हो, हम
नर्क में सड़ें।
नहीं, यह
पाप हमसे न हो
सकेगा। इनको
अपनी फिक्र
है। गोपियों
को अपना पता
ही नहीं है।
इसलिए
उन्होंने कहा,
पैर की धूल
तो पैर की
धूल। इसे थोड़ा
समझ लेना।
प्रेम
के अतिरिक्त
और कोई
विनम्रता
नहीं है। गोपियां
तो समझती हैं
सब लीला उसकी
है। यह
सिरदर्द उसकी
लीला, यह
पैर, यह
पैर की धूल
उसकी लीला।
वही मांगता
है। उसकी ही
चीज देने में
हमें क्या अड़चन
है?
तखलीके-कायनात
के दिलचस्प
जुर्म पर
हंसता
तो होगा आप भी यजदां
कभी-कभी
यह
भगवान, जिसने
दुनिया बनाई
हो--यजदां,
स्रष्टा; कभी-कभी
हंसता तो होगा;
कैसा
दिलचस्प
जुर्म किया!
यह दुनिया
बनाकर कैसा
मजेदार पाप
किया!
तखलीके-कायनात
के दिलचस्प
जुर्म पर
हंसता
तो होगा आप भी यजदां
कभी-कभी
भक्त
कहते
हैं--हंसी
उसको भी तो
आती होगी कि
खूब मजाक रहा!
कृष्ण
खूब हंसे
होंगे, जब
ज्ञानियों ने
धूल न दी और गोपियों
ने धूल दे दी।
खूब हंसे
होंगे।
छोटी-सी मजाक
भी न समझ पाए।
ज्ञानियों
से ज्यादा बुद्धू
खोजना
मुश्किल है।
शास्त्र समझ
गए, शास्त्र
का सागर समझ
गए, और
जरा-सी मजाक न
समझ पाए, जरा-सी
बात न समझ
पाए।
परमात्मा के
लिए इतना भी न
कर पाए। गोपियां
तो खूब खुश
हुई होंगी।
उन्होंने तो
सोचा होगा, चलो अपराध
तुम्हीं करवा
रहे हो तो
करेंगे। दिलचस्प
हो गया अपराध,
तुम्हारी
आज्ञा से हो
रहा है।
खताओं पे
जो मुझको माइल
करे फिर
सजा
और ऐसी सजा
चाहता हूं
उन्होंने
तो सोचा होगा, चलो अच्छा।
अब ऐसी सजा
देना कि हम और खताएं
करें। अब ऐसा
दंड देना कि
हम और खताएं
करें ताकि तुम
और दंड दो। यह
संबंध बना
रहे। यह
दोस्ती बनी
रहे। यह
गठबंधन बना
रहे।
खताओं पे
जो मुझको माइल
करे फिर
सजा
और ऐसी सजा
चाहता हूं
गोपियां
तो प्रसन्नता
से नर्क चली
जाएंगी, अगर
उनके नर्क के
जाने से कृष्ण
का सिरदर्द ठीक
होता हो।
उन्हें तो क्षणभर
भी खयाल न आया
होगा कि यह
कोई पाप हो
रहा है।
प्रेम
शिष्टाचार के
नियम मानता ही
नहीं। जहां
शिष्टाचार के
नियम हैं, वहां कहीं
छुपे में गहरा
अहंकार है। सब
शिष्टाचार के
नियम अहंकार
के नियम हैं।
प्रेम कोई नियम
नहीं मानता।
प्रेम महानियम
है। सब नियम
समर्पित हो
जाते हैं।
प्रेम पर्याप्त
है; किसी
और नियम की
कोई जरूरत
नहीं है।
ज्ञानी
और भक्त में
बड़े फर्क हैं।
वे दृष्टियां
ही अलग हैं।
वे दो अलग
संसार हैं। वे
देखने के
बिलकुल अलग
आयाम हैं।
जिसको हम
ज्ञानी कहते
हैं, वह
रत्ती-रत्ती
हिसाब लगाता
है। कर्म, कर्मफल,
क्या करूं,
क्या न करूं,
किसको करने
से पाप लगेगा,
किसको करने
से पुण्य
लगेगा।
भक्त तो
उन्माद में
जीता। वह कहता
जो तुम कराते, करेंगे। पाप
तो तुम्हारा,
पुण्य तो
तुम्हारा।
भक्त तो सब
कुछ परमात्मा के
चरणों में रख
देता है। वह
कहता है अगर
तुम्हारी
मर्जी पाप
कराने की है
तो हम
प्रसन्नता से
पाप ही
करेंगे। भक्त
का समर्पण
आमूल है। मदहोशी!
बेहोशी! परमात्मा
के हाथ में
अपना हाथ पूरी
तरह दे देना--बेशर्त।
वाइजो-शेख
ने सर जोड़कर
बदनाम किया
वरना
बदनाम न होती
मय-ए-गुलफाम
अभी
धर्म-उपदेशकों
ने, तथाकथित
ज्ञानियों ने,
धर्मगुरुओं ने--सर जोड़कर
बदनाम
किया--खूब सिर
मारा और बदनाम
किया, तब
कहीं बेहोशी
को, मदहोशी
को, फूलों
के रंग जैसी
शराब को वे
बदनाम करने
में सफल हो
पाए; अन्यथा
कभी बदनाम न
होती।
वाइजो-शेख
ने सर जोड़कर
बदनाम किया
वरना
बदनाम न होती
मय-ए-गुलफाम
अभी
भक्त
तो शराबी जैसा
है। ज्ञानी
हिसाबी-किताबी
है। दोनों के
गणित अलग-अलग
हैं। भक्त तो
जानता ही नहीं
क्या बुरा है, क्या भला
है। भक्त तो
कहता है, जो
भगवान करे वही
भला। जो मैं
करना चाहूं वह
बुरा, और
जो भगवान करे
वह भला।
तो गोपियों
ने सोचा होगा, भगवान कहते
हैं अपनी
चरण-रज दे दो, उन्होंने
जल्दी से दे
दी होगी।
भगवान कराता है
तो भला ही
कराता होगा।
उनका समर्पण
समग्र है।
आखिरी
प्रश्न:
ध्यान
की मृत्यु और
प्रेम की
मृत्यु क्या
भिन्न हैं? क्या उनकी
प्रक्रियाएं
भी भिन्न हैं?
मृत्यु
तो एक ही है; ध्यान की हो
कि प्रेम की।
लेकिन
प्रक्रियाएं,
उस मृत्यु
तक पहुंचने के
मार्ग, विधियां
भिन्न-भिन्न
हैं। ध्यान से
भी यही घटता
है कि तुम मिट
जाते हो।
प्रेम से भी
यही घटता है
कि तुम मिट
जाते हो।
मिटना तो
दोनों हालत
में होता है, लेकिन दोनों
के मार्ग बड़े
अलग-अलग हैं।
ध्यान
के पहले चरण
पर तुम नहीं
मिटते। ध्यान
के पहले चरण
पर तो तुममें
जो गलत है
उसको मिटाया
जाता है, सही
को बचाया जाता
है। अशुभ को
मिटाया जाता
है, शुभ को
बचाया जाता
है। अशुद्धि
जलाई जाती है,
शुद्धि
बचाई जाती है।
तो
ज्ञान के
मार्ग पर या
ध्यान के
मार्ग पर व्यक्ति
शुद्ध होने
लगता है।
मिटता नहीं, परिशुद्ध
होता है, लेकिन
बचता है।
आखिरी छलांग
में
परिशुद्धि ऐसी
जगह आ जाती है,
जहां कि शुद्धता
भी अशुद्धि
मालूम होने
लगती है। जहां
होना मात्र
अशुद्धि
मालूम होती है,
वहां आखिरी
छलांग में
ध्यानी अपने
को बुझा देता
है। भक्त पहले
कदम पर बुझाता
है। वह इसका हिसाब
नहीं
करता--अच्छा
और बुरा।
तो
भक्ति छलांग
है और ध्यान
क्रमिक विकास
है। ध्यान
एक-एक कदम, धीरे-धीरे
चलता है; आहिस्ता-आहिस्ता।
भक्ति बिलकुल
पागलपन है। वह
एकदम छलांग
लगा लेती है।
ध्यानी ऐसे है,
जैसे
सीढ़ियों से
उतरता है छत
से--एक-एक कदम, सम्हल-सम्हलकर।
सम्हलना
ध्यान का
सूत्र है--सावधानी।
भक्त
ऐसा है, छत
से छलांग लगा
देता है।
फिक्र ही
छोड़ता है हाथ-पैर
टूटेंगे,
बचेंगे, मरेंगे,
क्या होगा।
वह छलांग लगा
देता है। उसकी
श्रद्धा
आत्यंतिक है।
वह कहता है, उसे बचाना
है तो वह बचा
ही लेगा। जाको
राखे साइयां।
उसे नहीं
बचाना है तो
तुम सीढ़ियों
पर भी सम्हल-सम्हलकर
चलो तो भी मर
जाओगे, तो
भी मिट जाओगे।
तो
भक्त तो छलांग
लगाता है--एक
ही कदम। फिर
एक कदम के बाद
उसे कुछ करना
नहीं पड़ता।
फिर तो जमीन
का
गुरुत्वाकर्षण
खींच लेता है।
ऐसा थोड़े ही
कि तुमने एक
कदम छलांग
लगाई, फिर
तुम पूछते हो
अब हम क्या
करें छलांग
लगाकर? पूछने
का मौका ही
नहीं है। गए!
एक कदम तुमने
उठाया कि जमीन
खींचने लगती
है। एक कदम
तुम न उठाते
तो जमीन की
कशिश के लिए
तुम उपलब्ध न
थे। एक कदम
उठाया कि जमीन
की कशिश काम
करने लगी।
तो
भक्ति का
शास्त्र कहता
है कि तुम
छलांग लो, फिर
परमात्मा की
कशिश बाकी काम
कर देती है।
तुम छोड़ो,
वही कर
लेगा।
ध्यानी
कहता है, हम
छोड़ न पाएंगे
ऐसे। हम तो जो
गलत है उसे छोड़ेंगे।
पता नहीं
परमात्मा है
भी या नहीं?
तो
तुम्हें
सोचना है अपने
भीतर कि
तुम्हें कौन-सी
बात ठीक लगती
है। अगर पागल
होने की हिम्मत
है तो भक्ति।
अगर तर्क बहुत
प्रगाढ़
है, सोच-विचार
काफी निखरा
हुआ है, बुद्धि
बलशाली है तो
भक्ति
तुम्हारे काम
की नहीं।
घबड़ाहाट
कोई भी नहीं
है। पहुंचोगे
तो वहीं। जब
तुम सीढ़ियां
उतर रहे हो तब
भी कशिश ही
तुम्हें खींच
रही है। तुम
धीरे-धीरे उतर
रहे हो, बस
इतनी ही बात
है। भक्त तेजी
से जा रहा है, तीर की तरह
जा रहा है।
तुम
आहिस्ता-आहिस्ता
जा रहे हो, एक-एक
कदम जा रहे हो।
जब तुम एक कदम
उतरते हो सीढ़ी
से तब भी कशिश ही
तुम्हें
खींचती है।
लेकिन तुम एक
कदम उतरते हो,
फिर दूसरा
कदम उतरते हो।
तुम पर निर्भर
है।
और
जल्दबाजी में
ऐसा मत करना, यह मत सोचना
कि चलो यह
सीधा मार्ग है
भक्ति का; छलांग
लगा जाओ। अगर
तुम्हारे मन
में यह न जंचे
तो छलांग
लगेगी ही
नहीं।
तो
अपने मन को
पहचानना।
तुम्हें जो
ठीक लगे वही
तुम्हारे लिए
ठीक है। और
सदा ध्यान
रखना जो तुम्हारे
लिए ठीक है, वह जरूरी
नहीं कि सभी
के लिए ठीक
हो। जो दूसरे के
लिए ठीक है वह
तुम्हारे लिए
गैर-ठीक हो
सकता है। जो
दूसरे के लिए
अमृत है, तुम्हारे
लिए जहर हो
सकता है।
मृत्यु
तो एक ही है। मृत्युएं
दो नहीं हैं।
अंतिम परिणाम
तो एक ही है, लेकिन चलनेवाले
दो ढंग के
हैं। कुछ हैं,
जो
होशियारी से
चलते हैं, सम्हल-सम्हलकर
चलते हैं।
रास्ते पर
देखा, कोई
आदमी सम्हलकर
चलता है। और
शराबी को देखा,
डांवांडोल
चलता है।
भक्त
तो शराबी जैसा
है। उसने तो
भक्ति की सुरा
पी ली। अब वह
डांवाडोल
चलता है। अब
गिर जाए, तो
उसे फिकर
नहीं। न पहुंच
पाए तो उसे
फिकर नहीं।
तुमने
कभी एक मजे की
घटना देखी है? शराबी गिर
जाता है
रास्ते पर, हाथ-पैर
नहीं टूटते।
तुम जरा गिरो!
एक बैलगाड़ी
में दो आदमी
बैठे थे--एक
शराबी शराब
पीए और एक
आदमी पूरे होश
में। बैलगाड़ी
उलट गई। जो
होश में था, उसके
हाथ-पैर टूट
गए। जो शराबी
था उसको पता
ही नहीं चला।
जब उसने सुबह
आंख खोली तो
उसने कहा, अरे!
बैलगाड़ी
का क्या हुआ?
तुमने
देखा, कभी-कभी
छोटे बच्चे
गिर पड़ते हैं
छत से, चोट
नहीं खाते।
बड़ा आदमी गिरे
तो जरूर चोट
खाता है। क्या
कारण होगा? शराबी जब
गिरता है तो
उसे पता ही
नहीं चलता कि गिर
रहे हैं।
गिरने का पता
चले तो आदमी
रोकता है।
रोके तो विरोध
खड़ा होता है, प्रतिरोध
होता है। जब होशवाला
आदमी गिरता है
तो वह सब तरह
से अपने को रोकता
है कि गिर न
जाऊं। जमीन
खींच रही है
नीचे, वह
खींच रहा है, सम्हाल रहा
है अपने को
जमीन के
विपरीत। तो
दोहरी
शक्तियों में
विरोध होता
है। उसी में
हड्डियां टूट
जाती हैं।
शराबियों
को गिरते
देखकर और चोट
लगते न देखकर चीन
और जापान में
एक विशेष कला
विकसित हुई, उसका नाम है ज्युदो, जुजुत्सु। यह देखकर
कि शराबी
गिरता है रोज।
पड़े हैं नाली
में। फिर सुबह
उठकर घर जाते
हैं, फिर नहा-धोकर
फिर चले
दफ्तर। न उनकी
हड्डी-पसली
टूटी, न
कहीं कुछ है।
तुम सुबह
पहचान भी नहीं
सकते कि ये
रातभर सड़क पर
पड़े रहे हैं।
सुबह बिलकुल ठीक
मालूम पड़ते
हैं। तुम तो
गिरो इतना!
बच्चा रोज
गिरता है, दिनभर
गिरता है घर
में। मां-बाप
तो गिरें;
फौरन
हड्डी-पसली
टूट जाएगी।
अभी
अमरीका में
उन्होंने एक
प्रयोग किया
हार्वर्ड
युनिवर्सिटी
में कि एक बड़े
पहलवान को, बड़े
शक्तिशाली
आदमी को एक
छोटे बच्चे की
नकल करने को
कहा। आठ घंटे
बच्चा जो करे
वह तुम करो।
वह आदमी सोचता
था, मैं
शक्तिशाली
आदमी हूं, गुजर
जाऊंगा।
काफी, हजारों
डालर मिलनेवाले
थे। चार घंटे
में चारों
खाने चित्त हो
गया। क्योंकि
वह बच्चा कभी
गिरे तो अब
उसको गिरना पड़े।
यह बड़ी झंझट
की बात।
वह
बच्चा...बच्चे
को आनंद आ
गया। उसने कहा
कि यह मेरी
नकल कर रहा
है। तो वह और
जोर-जोर से
करने लगा। चार
घंटे में वह
जो पहलवान था, उसने कहा
माफी करो। वे
हजारों डालर
रखो अपने। यह
तो हमारी जान
ले लेगा। आठ
घंटे में हम
मर ही जाएंगे।
क्योंकि
उचकता, कूदता,
चिल्लाता, चीखता। और
जो वह करे, वही
उसे करना है।
मनोवैज्ञानिक
प्रयोग करके
देख रहे थे कि
छोटे बच्चे
में कितनी
ऊर्जा है, फिर भी थकता
नहीं। कारण
क्या होगा? छोटा बच्चा
अभी अपने को
सम्हालता
नहीं। अभी जो
घटता है, उसके
साथ हो लेता
है। अगर बच्चा
गिरता है, तो
वह गिरने में
सहयोग करता
है। तुम गिरते
हो तो विरोध
करते हो।
तुम्हारे
विरोध के कारण
हड्डी टूट
जाती है।
हड्डी गिरने
के कारण नहीं
टूटती। हड्डी
तुम्हारे
विरोध के कारण
टूटती है।
अगर
तुम गिरने में
साथ हो जाओ, अगर जब तुम
गिरने लगो तो
गिरने से
तुम्हारे बचने
की कोई
आकांक्षा न हो,
तुम गिरने
के साथ सहयोग
कर लो, तुम
गिरने से एक
कदम आगे गिर
जाओ, तुम
कहो, लो
राजी; तो
चोट न खाओगे।
तो तुम ऐसे
गिर
जाओगे...बिना
किसी
प्रतिरोध के।
तुम पृथ्वी की
गोद में गिर
जाओगे। चोट न
खाओगे।
शराबी
चोट नहीं
खाता। ऐसे ही
भक्त भी चोट
नहीं खाता। वह
गिरता है; बड़ी ऊंची
छलांग है
उसकी। मगर वह
शराबी है।
उसने प्रेमरस पीया है।
उसने प्रेम की
सुरा पी ली।
मगर
तुम अगर नहीं
हो शराबी और
तुम्हारा
स्वभाव वैसा
नहीं है तो
करना मत। तुम
अपनी सीढ़ियां
उतरना।
छोटी-छोटी सीढ़ियां-सीढ़ियां
बनाकर उतरना।
कोई जल्दी भी
नहीं है
क्योंकि दोनों
तरह से लोग
पहुंच जाते
हैं।
तो मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम इसमें से
एक को अपनी स्वभाव
की, प्रकृति
की अनुकूलता
बिना देखे चुन
लो। इसलिए मैं
भक्ति की भी
बात करता हूं,
ध्यान की भी
बात करता हूं।
मैं दोनों की
बात करता हूं
क्योंकि
तुममें दोनों
तरह के लोग
हैं। अंतिम
घटना तो एक है,
लेकिन उस तक
पहुंचने के
रास्ते बड़े
भिन्न हैं।
अगर
तुम्हें
विचार की बड?ी
पकड़ है तो तुम
ध्यान से चलो।
अगर तुम्हारा
हृदय खुला है,
तुम छोटे
बच्चे हो सकते
हो, या कि
तुम स्त्रैण
हो सकते हो, तुम प्रेम
बहा सकते हो
और प्रेम में
बह सकते हो
बिना शर्त
लगाए, तो
फिर प्रेम के
मार्ग से उतरो।
मिटोगे
तो दोनों हालत
में क्योंकि
जब तक तुम न
मिटोगे, तब
तक परमात्मा न
हो सकेगा। और
जिस दिन तुम
मिटोगे उस दिन
तुम्हें चाहे
पता न भी चले
कि तुम मिट गए
हो, सारी
दुनिया को पता
चल जाएगा कि
तुम मिट गए हो।
जिनके पास भी
आंखें हैं
उन्हें पता चल
जाएगा कि तुम
मिट गए हो।
तुम्हारा
शून्य बड़ा
मुखर होता है!
शून्य
बड़ा संगीतपूर्ण
होता है।
शून्य का
सन्नाटा
सुनाई पड़ने
लगता है। जो
लोग भी मिट गए
हैं, उनके पास
लोग भागे चले
आते हैं, खिंचे
चले आते हैं।
समझ में भी
नहीं आता कि
क्या आकर्षण
है। आकर्षण
इतना ही है कि
जहां कोई मिट
गया वहां
शून्य पैदा हो
गया।
वैज्ञानिकों
से पूछो, हवा
चलती है, क्यों
चलती है? यह
हवा अभी चल
रही है, यह
गुलमोहर का
वृक्ष कंप रहा
है। यह हवा
क्यों चल रही
है? तो
वैज्ञानिक
कहते हैं, हवा
के चलने का एक
कारण है, एक
ही कारण है।
जब कहीं जोर
की गर्मी पड़ती
है तो वहां की
हवा विरल हो
जाती है। वहां
शून्य पैदा हो
जाता है। उस
शून्य को भरने
के लिए आसपास
की हवा दौड़ने
लगती है।
क्योंकि
शून्य को
प्रकृति बर्दाश्त
नहीं करती।
उसको भरना
पड़ता है।
आसपास की हवा
उस शून्य को
भरने के लिए
दौड़ती है, इसलिए
हवा चलती है।
इसलिए गर्मी
में बवंडर उठते
हैं, तूफान
उठते हैं।
क्योंकि
शून्य पैदा हो
जाता है। सूरज
की गर्मी के
कारण हवा विरल
हो जाती है, फैल जाती
है। जगह खाली
हो जाती है।
उसे भरने हवा
आती है।
ठीक
ऐसा ही
परमात्मा के
आत्यंतिक लोक
में भी घटता
है। जब कोई
व्यक्ति मिट
जाता है, खाली
हो जाता, तो
प्रकृति या
परमात्मा
शून्य को
बर्दाश्त
नहीं करता। उस
शून्य को भरने
के लिए चेतना
की लहरें चल पड़ती
हैं।
तुम
चेतना की
लहरों की तरह
यहां आ गए हो।
जहां कहीं कोई
व्यक्ति मिटा
कि चेतनाएं उस
तरफ सरकने
लगती हैं। ऐसा
व्यक्ति
हिमालय पर
बैठा हो तो
लोग वहां
रास्ता खोजते
हुए, पगडंडियां
बनाते हुए
पहुंच जाते
हैं। जाना ही
पड़ेगा। शून्य
को परमात्मा
बर्दाश्त
नहीं करता।
उसे भरना ही
पड़ेगा।
जहां
गुरु पैदा
होगा वहां
शिष्य आते चले
जाते हैं।
गुरु के होने
का एक ही अर्थ
है, जहां
शून्य पैदा
हुआ।
मोहब्बत
इस तरह मालूम
हो जाती है
दुनिया को
कि यह
मालूम होता है
नहीं मालूम
होती है
प्रेम
तुम्हारे
जीवन में
घटेगा, पता
भी नहीं चलेगा
तुम्हें; किसी
और को भी शायद
पता न चले, फिर
भी सबको पता
चल जाएगा। और
ऐसा भी पता
चलता रहता है
कि मालूम नहीं
हो रहा है।
किसी को मालूम
नहीं हो रहा
है। लेकिन चुपचुप,
गुपचुप, हृदय
से हृदय तक
खबर पहुंच
जाती है।
मोहब्बत
इस तरह मालूम
हो जाती है
दुनिया को
कि
यह मालूम होता
है नहीं मालूम
होती है
और
मृत्यु तो
मोहब्बत की
आखिरी घड़ी है।
वह तो चरमोत्कर्ष, वह तो आखिरी
उत्कर्ष, वह
तो चरम स्थिति
है। जहां कोई
व्यक्ति
बिलकुल शून्य
हो जाता है, सब तरफ से
परमात्मा दौड़
पड़ता है
अनेक-अनेक
रूपों में उसे
भरने को।
इसी को
हिंदू अवतरण
कहते हैं। यह
परमात्मा का दौड़कर
किसी को भर
देना अवरतण
है--उतर आना।
कोई खाली हो
गया, परमात्मा
दौड़ा उसे
भरने को।
ध्यानी को भी
भरता है, प्रेमी
को भी भरता
है। लेकिन
भरता तभी है, जब तुम
मिटते हो।
अपने
को बचाना मत।
कोई भी मार्ग
खोजो। अपने को
मिटाने का
मार्ग खोजो।
संसार है अपने
को बचाने की
चेष्टा; धर्म
है अपने को
मिटाने का
साहस।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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