त्रिगुप्ति और
मुक्ति—प्रवचन—उनतीसवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
जहा महातलायस्स
सन्निरूद्धे
जलागमे।
उस्सिंचणाए तवणाए,
कमेण सोसणा
भवे।वे।।
एवं
तु संजयस्सावि
पावकम्मनिरासवे।
भवकोडीसंचियं कम्मं,तवसा निज्जारिज्जइ।।
152।।
तवसा चेव ण मोक्खो
संवरहीणस्स
होई जिणवयणे।
ण
हु सोते पविसंते,
किसिणं परिसुस्सदि
तलायं।। 153।।
ज
अन्नाणी
कम्मं खवेइ बहुआहिं
बासकोडिहिं।
तं
नाणी तिहिं
गुत्तो,
खवेइ ऊसासमित्तेणं।।
सेणावइम्मि णिहए,
जहां सेणा
पणस्सई।
एवं
कम्माणि
णस्संति,मोहणिज्जे खयं गए।।
154।।
सव्वे सरा
नियट्टंति,
तक्का जत्थ न विज्जइ।
धर्म
के दो रूप
संभव हैं: एक
विज्ञान जैसा, एक काव्य
जैसा। जीवन को
देखने के दो
ही ढंग हैं, दो ही ढंग हो
सकते हैं--या
तो कवि की आंख
से, या
वैज्ञानिक की
आंख से। दोनों
सही हैं। दोनों
में कोई
ऊंचा-नीचा
नहीं है, पर
दोनों बड़े
विपरीत हैं।
जो
काव्य की
दृष्टि से सही
है, वही
विज्ञान की
दृष्टि से
कल्पना मात्र
मालूम होता
है। जो
विज्ञान की
दृष्टि से सही
है, वही
काव्य की
दृष्टि से
अत्यंत
रूखा-सूखा, गणित और
तर्क मालूम
होता है। जो
विज्ञान की दृष्टि
से सत्य है वह
काव्य की
दृष्टि से
मुर्दा
मालूम होता
है। और जो
काव्य की दृष्टि
से सत्य है वह
विज्ञान की
दृष्टि से
केवल सपना
मालूम होता
है।
इसे
अगर खयाल रखा
तो बड़ी सुगमता
होगी। महावीर का
जीवन को देखने
का ढंग
वैज्ञानिक का
ढंग है। वे
ऐसे देखते हैं, जैसे
वैज्ञानिक
अपनी
प्रयोगशाला
में निरीक्षण
करता है। उनकी
दृष्टि में
काव्य बिलकुल
नहीं है।
इसलिए भक्ति
का कोई उपाय
महावीर के साथ
नहीं है।
प्रार्थना का,
पूजा का कोई
उपाय महावीर
के साथ नहीं
है।
और
जिन्होंने
महावीर के साथ
पूजा और
प्रार्थना
जोड़ ली, उन्होंने
बड़ा अन्याय
किया है।
महावीर के साथ
तो परमात्मा
शब्द का भी
कोई अर्थ नहीं
है। महावीर के
लिए तो
परमात्मा भी
आदमी का कल्पनाजाल
है। आत्मा ही
सब कुछ है।
आत्मा की ही
श्रेष्ठतम
दशा को
उन्होंने
परमात्मा कहा
है। परमात्मा
कहीं है नहीं,
जिसे हमें
खोजना है।
परमात्मा
हमें होना है।
परमात्मा ऐसा
कुछ नहीं है, जो भक्त के
सामने खड़ा हो
जाएगा।
परमात्मा कुछ ऐसा
है, जो
भक्त के भीतर
प्रगट होगा।
भक्त
बीज है भगवान
का।
तो जब
बीज खिलता है, फूलता है तो
ऐसा थोड़े ही
कि बीज अपने
खिले हुए फूलों
को देखता है; बीज तो खो
गया होता है।
खिले फूल होते
हैं। बीज का
और वृक्ष का
कभी मिलना
थोड़े ही होता
है। जब तक बीज
है तब तक
वृक्ष नहीं है,
जब वृक्ष है
तब बीज जा
चुका।
तो
भगवान का
दर्शन, ऐसी
कोई चीज
महावीर के साथ
संभव नहीं है।
भक्त ही अपनी परमशुद्ध
अवस्था में
भगवान हो जाता
है। इसलिए
पूजा किसकी? अर्चना
किसकी? दीये
किसके नाम पर जलें? यज्ञ,
हवन किसका
हो?
महावीर
मनुष्य-जाति
के उन थोड़े-से
प्राथमिक
अग्रणी लोगों
में से हैं, जिन्होंने
धर्म को
विज्ञान की
शक्ल दी; जिन्होंने
धर्म को गणित
का आधार दिया।
जो-जो कल्पना-पूर्ण
था वह अलग कर
लिया।
ध्यान
रखना, जब
मैं कह रहा
हूं
कल्पनापूर्ण,
तो मैं नहीं
कह रहा हूं
असत्य, क्योंकि
मेरे लिए भक्त
भी उतने ही सच
हैं, नारद
भी उतने ही
सत्य हैं और
चैतन्य भी और
मीरा भी। ये
देखने के दो
ढंग हैं।
एक
वैज्ञानिक
वृक्ष के पास
आए तो उसे
सौंदर्य दिखाई
नहीं पड़ता, इसलिए नहीं
कि सौंदर्य
नहीं है।
वृक्ष हरा है,
फूल से भरा
है; सूरज
की रोशनी में
नाचती उसकी
पत्तियां हैं,
हवाओं के
झोंकों में प्रफुल्लित
मग्न खड़ा है।
लेकिन
वैज्ञानिक को कुछ
भी यह दिखाई
नहीं पड़ता।
वैज्ञानिक को
दिखाई पड़ता है
वृक्ष का
विज्ञान--वनस्पति-विज्ञान।
उसे दिखाई
पड़ता है वृक्ष
किन तत्वों से
बना है। उसे
दिखाई पड़ता है
किन-किन खनिज
से मिलकर बना
है। पृथ्वी ने
क्या-क्या
दिया, हवा-पानी
से क्या मिला,
आकाश-सूरज
ने क्या दिया।
वैज्ञानिक को
दिखाई पड़ता है,
यह वृक्ष
कैसे निर्मित
हुआ है। कैसे
इसका सृजन हुआ
है। किन चीजों
के तालमेल से
यह घटना घटी।
कवि भी
उसी वृक्ष के
नीचे आता है।
उसे इस सबकी कुछ
भी याद नहीं
आती। नहीं कि
जो वैज्ञानिक
कहता है वह
गलत है। उसे
खनिज, रसायन,
पदार्थ, जिनसे
बना है वृक्ष,
उनका कोई भी
बोध नहीं
होता। उसे कुछ
और ही बोध होता
है।
उसे
दिखाई पड़ती
हैं सूरज की
किरणें वृक्ष
की पत्तियों
पर नाचतीं।
उसे एक
सौंदर्य का, एक अपूर्व
सौंदर्य का
अनुभव होता
है--ऐसा कि वह
खुद भी नाच
उठे। हवा के
गुजरते हुए
झोंके उसे
किसी और ही
लोक की खबर और
संदेश दे जाते
हैं। वह
गुनगुनाने
लगता है।
वैज्ञानिक
गंभीर हो जाता
है। सोचने
लगता है, विचारने
लगता है, विश्लेषण
करने लगता है।
कवि
गुनगुनाने
लगता है।
गंभीर रहा हो
तो गंभीरता
गिरा देता है,
नाचने लगता
है।
दोनों
सच हैं। सत्य
इतना बड़ा है
कि दोनों सच
हो सकते हैं, साथ-साथ सच
हो सकते हैं।
सत्य के साथ
कंजूसी मत
करना। बहुत
कंजूसी हुई है
इसलिए इसे मैं
कहता हूं।
सत्य के साथ
कंजूसी मत
करना। ऐसा मत
कहना कि मेरी
दृष्टि जहां
पूरी होती है
वहां सत्य
पूरा हो जाता
है। तुम्हारी
दृष्टि की
सीमा है, सत्य
की कोई सीमा
नहीं। सत्य
इतना बड़ा है
कि अपने
विरोधी को भी
समा लेता है।
सत्य इतना
विराट है कि
विरोधाभास भी
संयुक्त हो
जाते हैं, परिपूरक
हो जाते हैं।
अमरीका
के बड़े
महत्वपूर्ण
कवि वाल्ट ह्विटमेन
से किसी ने
कहा, तुम्हारी
कविताओं में
बड़े विरोध हैं,
बड़े
विरोधाभास
हैं, कंट्राडिक्शन हैं। कहीं
तुम एक बात
कहते हो, कहीं
दूसरी बात
कहते हो। कहीं
तुम एक बात
कहते हो, कहीं
ठीक उससे
उल्टी बात
कहते हो। पता
है वाल्ट ह्विटमेन
ने क्या कहा? वाल्ट ह्विटमेन
ने कहा, मैं
बहुत विराट
हूं। मेरे
भीतर सभी
विरोध समा जाते
हैं और
परिपूरक हो
जाते हैं।
यह वचन
तो ऋषि का हो
गया। यह तो
बड़ी सूझ का हो
गया। यह तो
बड़ी
अंतर्दृष्टि
का हो गया।
सत्य
बड़ा विराट है।
उसमें
विज्ञान भी
समा जाता है, उसमें काव्य
भी समा जाता
है। उसमें
सारे तथ्य भी
समा जाते हैं
और सारी
कल्पनाएं भी
समा जाती हैं।
उसमें गणित और
तर्क भी समा
जाता है।
उसमें रस और
भक्ति और
प्रेम भी समा
जाता है।
जब हम
भक्ति की तरह
देखते हैं तो
हम कुछ चुनते हैं।
और जब हम तर्क
की तरह देखते
हैं तब भी हम कुछ
चुनते हैं। जो
भी हम देखते
हैं वह हमारा
चुनाव है।
इसका महावीर
को बोध था।
इसलिए
महावीर ने
अपनी दृष्टि
तो कही, साथ
ही यह भी कहा
कि यह दृष्टि
मात्र है। और
सभी
दृष्टियों से
जो पार हो
जाता है, वही
परम सत्य को
जान पाता है।
जो न
वैज्ञानिक रह
गया, न कवि
रह गया। जिसके
पास अपने
देखने का कोई
पक्षपात नहीं,
कोई चश्मा
नहीं। जिसकी
आंख खुली, खाली,
निर्दोष, कुंआरी है।
जो कुंआरी आंख
से देखता है।
लेकिन
कुंआरी आंख से
देखना बड़ा
कठिन है। क्योंकि
कुंआरी आंख से
देखने का अर्थ
है, हृदय भी
सत्य जैसा
विराट होना
चाहिए।
क्योंकि सारे
विरोध समाहित
करने होंगे।
रात और दिन को
विरोध में खड़ा
न करना होगा।
सुख और दुख को
विरोध में खड़ा
न करना होगा।
जीवन और
मृत्यु को
विरोध में खड़ा
न करना होगा।
दोनों को
साथ-साथ देखना
होगा, विपरीत
की तरह नहीं, एक-दूसरे के
परिपूरक की
तरह।
जैसे
शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड
पर सफेद खड़िया
से लिखता है।
काले ब्लैकबोर्ड
पर ही लिखा जा
सकता है सफेद
खड़िया से।
सफेद दीवाल पर
लिखोगे
तो दिखाई न
पड़ेगा। तो
काला सफेद का
दुश्मन नहीं
है, परिपूरक
है। सफेद को
उभार लाता है,
सफेद को
प्रगट करता है,
सफेद के लिए
अभिव्यक्ति
और
अभिव्यंजना
बनता है।
दुनिया
से जिस दिन
कविता खो
जाएगी, उस
दिन विज्ञान
भी खो जाएगा।
जिस दिन
दुनिया से
विज्ञान खो
जाएगा, उस
दिन कविता भी
खो जाएगी। वे
एक-दूसरे को
उभारते हैं, प्रगट करते
हैं। दुनिया
समृद्ध है
क्योंकि अनंत-अनंत
दृष्टियों का
यहां मेल है।
दुनिया में
इतने धर्म हैं,
वे मनुष्य
को समृद्ध
करते हैं। वे
अलग-अलग देखने
की दृष्टियां
हैं।
तुम्हें
जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो
भा जाए उस पर
चलना। लेकिन
भूलकर भी ऐसा
मत सोचना कि
यही सत्य है, यही मात्र
सत्य है।
जिसने ऐसा
सोचा, यही
सत्य है, उसने
अपने सत्य को
असत्य कर
लिया।
इसलिए
महावीर ने स्यातवाद
को जन्म दिया।
स्यातवाद
का अर्थ होता
है, मैं भी
ठीक, तुम
भी ठीक। मैं
भी ठीक, तुम
भी ठीक, कोई
और भी हो वह भी
ठीक। जो कहा
गया है वह भी
ठीक, और जो
अभी कहा जाएगा
वह भी ठीक। जो
दृष्टियां प्रगट
हो गई हैं वे
तो ठीक हैं ही,
जो
दृष्टियां
भविष्य में
प्रगट होंगी
वे भी ठीक
हैं।
लेकिन
सभी
दृष्टियां
अधूरी हैं।
कोई दृष्टि पूरी
नहीं है। कोई
दृष्टि पूरी
हो नहीं सकती।
दृष्टि मात्र
अधूरी है। जहां
सारी
दृष्टियां
शांत हो जाती
हैं वहां दर्शन
का जन्म होता
है। लेकिन
दृष्टियां तो
तभी समाप्त
होती हैं, जब तुम
बिलकुल
समाप्त हो
जाते हो। जब
तक तुम हो, दृष्टि
बनी रहती है।
तुम्हारे
देखने का ढंग
प्रभावित
करता रहता है।
तुम हिंदू हो,
तुम
मुसलमान हो, तुम जैन हो, तुम ईसाई हो,
तो
तुम्हारे
देखने का ढंग
प्रभावित
करता रहता है।
तुम जो भी
देखते हो, उसे
तुम रंगते
जाते हो। उसे
तुम अपने भाव
का वस्त्र उढ़ाते
जाते हो। तुम
उसे अपनी
वेशभूषा
पहनाते जाते हो।
जब तुम
बिलकुल मिट
जाते हो, जब न
तुम्हारे
भीतर हिंदू है,
न मुसलमान
है, न जैन
है, न ईसाई
है, न
आस्तिक है, न नास्तिक
है; जब तुम
यह भी नहीं
जानते कि मैं
विश्वास करता हूं
कि अविश्वास
करता हूं; जब
तुमने सब धूल
झाड़ दी, जब
तुम बिलकुल
निपट शून्य हो
गए, निराकार
हो गए तो
दर्शन का जन्म
होता है। तब
जो जाना जाता
है, उसे
महावीर कहते
हैं, वही
सत्य है। और
वैसा सत्य ही
मुक्त करता
है।
ये आज
के सूत्र, कैसे हम उस मुक्तिदायी
सत्य तक पहुचें,
कैसे उस
मोक्ष को पा
लें, कैसे
हम सभी
पक्षपातों से,
सभी जालों
से छूट जाएं, कैसे हमारे
ऊपर से सारी
सीमाएं गिर
जाएं और हम असीम
हो जाएं, उसके
सूत्र हैं।
हरेक
दौर का मजहब
नया खुदा लाया
करें
तो हम भी मगर
किस खुदा की
बात करें
इसलिए
महावीर ने
खुदा की बात
ही न की।
हरेक
दौर का मजहब
नया खुदा लाया
जब भी
आदमी बोला, जब भी आदमी
ने सोचा तो एक
नए परमात्मा
को जन्म दिया।
जब भी आदमी ने
विचार किया तो
एक नए
परमात्मा को गढ़ा। एक
मंदिर उठा, मस्जिद उठी,
गुरुद्वारा
उठा। जब भी
आदमी ने जगत
के सत्य की
खोज करनी चाही,
तो उसने
प्रतिमा बनाई
किसी
परमात्मा
की--हिंदुओं
का परमात्मा
है, बौद्धों
का, ईसाइयों
का, मुसलमानों
का, जैनों
का। सबकी
दृष्टि है।
दृष्टि के अनुकूल
उनका
परमात्मा है।
बाइबल
कहती है कि
परमात्मा ने
आदमी को अपनी
ही शकल में
बनाया। हालत
ठीक उल्टी है।
आदमी परमात्मा
को अपनी शकल
में बनाता है।
तुम्हारी जो शकल
है वही
तुम्हारे
परमात्मा की
शकल होती है। उससे
अन्यथा हो भी
नहीं सकती।
तुम्हारी शकल
में ही तो तुम अपने
परमात्मा को गढ़ोगे।
थोड़ा सुंदर, थोड़ा
सजाया-संवारा,
थोड़ा
निखारा, भूल-चूकें
काटीं, लेकिन होगी
तो तुम्हारी
ही शकल। थोड़ी
सुंदर नाक
बनाओगे, थोड़ी
सुंदर आंख
बनाओगे, लेकिन
होगी तो
तुम्हारी ही
शकल। राम हों
कि कृष्ण हों,
तुम्हारी
ही शकल है।
थोड़े
सजे-संवरे! जो
सुंदरतम की
कल्पना हो
सकती थी उस
कल्पना
को...लेकिन वे
कल्पनाएं भी
बदल जाती हैं।
हरेक
दौर का मजहब
नया खुदा लाया
वे
कल्पनाएं भी
बदल जाती हैं।
जब
हमने कृष्ण की
कल्पना की तो
नीलवर्ण
सुंदरतम वर्ण
समझा जाता था, इसलिए कृष्ण
को हमने श्याम
कहा। आज तो
शायद श्याम
कहने को कोई
राजी न होगा, अगर नया
परमात्मा
बनाओ। आज अगर
नया परमात्मा बनाओगे
तो गौरांग
होगा, गोरा
होगा। कविता
की भाषा बदल
गई। उन दिनों
श्याम वर्ण की
बड़ी चर्चा थी,
बड़ी महिमा
थी।
ऐसे
श्याम वर्ण की
खूबियां
हैं। गोरा रंग
उथला-उथला
होता है; उसमें
गहराई नहीं
होती। श्याम
वर्ण में बड़ी
गहराई होती
है। जैसे नदी
बहुत गहरी हो
तो नीली हो
जाती है; उथली
हो तो सफेद
रहती है।
उस दिन
की धारणा थी
तो श्याम
वर्ण। उस दिन
की धारणा थी
तो हमने
मोर-मुकुट
पहनाया। आज
किसी को
मोर-मुकुट पहनाओगे
तो कठिनाई हो
जाएगी।
राम को
हमने धनुषबाण
दिया। आज धनुषबाण
दोगे तो राम
हिंसक मालूम
होंगे। हवा
में अहिंसा
है। बात
अहिंसा की और
शांति की है।
आज तो कबूतर
देना पड़ेगा। उड़ाओ
कबूतर! आज धनुषबाण
लेकर राम
चलेंगे तो बड़ी
अड़चन हो
जाएगी। खुद भी
नहीं चल
पाएंगे। साथ
भी चलने में
लोग झिझकेंगे
कि धनुषबाण
तो रखो
महाराज! इसे
साथ लेकर चलो
तो आदिवासी
मालूम पड़ते
हो। और फिर धनुषबाण
का वक्त गया।
लेकिन
उस दिन शौर्य
की प्रतिष्ठा
थी, बल की
पूजा थी, वीर्य
की पूजा थी तो
हमने धनुषबाण
दिया था। धनुषबाण
के बिना राम जंचते ही न
उस दिन। उस
दिन कबूतर का
किसी को खयाल
ही नहीं था कि
शांति के कपोत
उड़ाओ।
वक्त
बदल जाता है, खुदा की शकल
बदल जाती है।
समय बदल जाता
है, सोचने
के ढंग बदल
जाते हैं, मापदंड
बदल जाते हैं,
धारणाएं
बदल जाती हैं।
तो परमात्मा
का रूप हम बदलते
चले जाते हैं।
यहूदियों
का परमात्मा
बहुत क्रुद्ध
है। जरा-सी
बात पर नाराज
हो जाए, जला
दे, राख कर दे।
ईसाइयों का
परमात्मा अति
दयालु है।
वक्त बदल गया
था। यहूदी
जहां से गुजर
रहे थे, वहां
बड़े सख्त और
कठोर
परमात्मा की
जरूरत थी। जहां
से जीसस ने
परमात्मा की
कहानी को पकड़ा,
वहां सख्त,
कठोर
परमात्मा
बेहूदा मालूम
होने लगा था।
थोड़ा अमानवीय
मालूम होने
लगा था। तो प्रेमपूर्ण
परमात्मा। तो
जीसस ने कहा, परमात्मा
प्रेम है।
ऐसी
शकल बदलती
जाती है।
लेकिन महावीर
ने कहा कि ऐसा
कब तक करते
रहोगे? यह
तुम अपनी ही
शकल को झांककर
देखते रहते
हो। यह बात ही
बंद करो।
इसमें समय मत
गंवाओ।
परमात्मा को
खोजने की फिकर
ही छोड़ो।
क्योंकि वह
खोज में तुम
अपनी ही शकल
को निर्मित
करते हो। बेहतर
हो, तुम
अपनी ही शकल
के भीतर उतरो
और अपने को
खोज लो।
यह
महावीर का
बुनियादी
सूत्र है।
परमात्मा की
खोज आत्मखोज
बननी चाहिए।
क्योंकि तुम
जो परमात्मा
बनाओगे वह
तुम्हारी ही प्रतिछवि
होनेवाली है।
इसलिए इसको
बनाने में व्यर्थ
जाल में मत पड़ो।
यह तुम्हारा
ही खिलौना
होगा। तुम
अपने भीतर जाओ।
उसे खोजो, जिसने सारे
परमात्मा
बनाए। उसे
खोजो, जिसने
सारे मंदिर
निर्मित किए।
उसे खोजो, जिसने
सारी
प्रार्थनाएं गढ़ी और रचीं।
वह जो
तुम्हारा
चैतन्य का
स्रोत है, वह
जो तुम्हारा
मूलाधार है, उस गंगोत्री
की तरफ बहो।
अपने
को जान लो।
अपने को बिना
जाने तुम जो
भी परमात्मा
के संबंध में
सोचोगे, तुम्हारा
अज्ञान ही
प्रतिफलित
होगा।
यह खोज
कैसे हो? और
जब तक यह खोज न
हो जाए तब तक
अज्ञान के
कारण बड़े
उपद्रव होते
हैं।
परमात्मा के
नाम पर लाभ तो
कुछ हुआ दिखाई
पड़ता नहीं, हानि बहुत
हुई मालूम
होती है।
कितने
दंगे-फसाद!
कितना
खून-खराबी!
कितना
रक्तपात! सारा
इतिहास धर्म
के नाम पर
बलात्कारों
से भरा पड़ा
है। मस्जिद-मंदिर
ने लड़वाया
ही ज्यादा।
आदमी काटे।
सुंदर बहाने
दिए गलत कामों
के लिए।
खूबसूरत नारे
दिए वीभत्स
प्रक्रियाओं
को छिपा लेने
के लिए।
अगर
हिंदू को काटो
तो पुण्य हो
रहा है। अगर
तुम मुसलमान
हो तो हिंदुओं
को काटने में
पुण्य है। या
हिंदुओं को
जबर्दस्ती
मुसलमान बना
लेने में
पुण्य है। अगर
तुम हिंदू हो
तो बात बदल जाती
है। अगर तुम
ईसाई हो तो
येन-केन-प्रकारेण
कैसे भी लोगों
को ईसाई बना डालो! खरीद
लो रोटी से, धन से, किसी
भी उपाय से।
अब तक
आदमी ने धर्म
के नाम पर जो
किया है वह
धार्मिक तो
नहीं मालूम
होता। लेकिन
यह स्वाभाविक
है। आदमी जो
भी करेगा
उसमें आदमी की
ही छाया पड़ेगी।
अगर हम हिंसक
हैं तो हमारा
धर्म हिंसक होगा।
अगर हम
मांसाहारी हैं
तो हमारे धर्म
में मांसाहार
के लिए हम कोई उपाय
खोज लेंगे।
अगर लड़ने की,र्
ईष्या की, जलन
की वृत्ति है,
तो हम अपने
धर्म के आधार
बना लेंगे, जिनसे हम
लड़ेंगे, झगड़ेंगे। आदमी बड़ा
चालाक है, बड़ा
कपट से भरा
है। वह जो
करना चाहता है,
उस के लिए
अच्छे बहाने
खोज लेता है।
वह बहानों की आड़ में फिर
सारे बुरे काम
करते चला जाता
है।
ये
मुसलसल आफतें, ये यूरसें,
ये कत्ले-आम
आदमी
कब तक रहे औहामे-बातिल
का गुलाम
ये
निरंतर होते
धर्म के नाम
पर आक्रमण, ये लगातार
होते हुए
अनाचार! आदमी
कब तक मिथ्या
भ्रमों का
शिकार रहे!
अगर आज
दुनिया में नई
पीढ़ियां धर्म
के प्रति
तिरस्कार से
भरी हैं तो
इसका कारण नई
पीढ़ियां नहीं
हैं, अब तक
धर्म के नाम
पर जो हुआ है
उसका बोध।
महावीर को यह
बात ढाई हजार
साल पहले
दिखाई पड़नी
शुरू हुई कि
धर्म के नाम
पर जो भी हो
रहा है, वह
किसी दिन
दुनिया में
अधर्म ही
लाएगा; धर्म
उससे आनेवाला
नहीं है।
इसलिए महावीर
ने कुछ सीधी-सीधी
बातें कहीं, जिनका मंदिर
और मस्जिद, कुरान और
बाइबल से कोई
लेना देना
नहीं। कुछ छोटे-से
सूत्र प्रगट
किए, जो
मनुष्य के
अंतर्जीवन
में जाने का
विज्ञान बन
सकते
हैं--कैसे तुम
अपने भीतर जाओ
और कैसे तुम
अपने को परिशुद्ध
कर लो। फिर
तुम जो भी
करोगे वह
धार्मिक होगा।
इसको खयाल में
लेना।
आमतौर
से कहा जाता
है, तुम
धार्मिक हो
जाओ, फिर
तुम जो भी
करोगे वह शुभ
होगा। महावीर
ने कहा, पहले
तुम शुभ हो
जाओ, फिर
तुम जो करोगे
वह धार्मिक
होगा। इन
बातों में बड़ा
फर्क है।
हम
लोगों को कहते
हैं, पहले
मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना
करो, फिर
तुम धीरे-धीरे
शुभ हो जाओगे।
शुभ होने का मार्ग
ही यही है।
लेकिन वह जो
अशुभ आदमी
मंदिर जाएगा,
वह मंदिर को
अशुभ कर आएगा।
मंदिर उसे शुभ
न कर पाएगा।
मंदिर तो जड़
है; आदमी
को न बदल
सकेगा। आदमी
मंदिर को बदल
देता है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, पहले तुम
शुभ होने लगो,
फिर तुम
जहां जाओगे
वहीं मंदिर
होगा। यह सूत्र
समझना।
"जैसे
किसी बड़े
तालाब का जल, जल के मार्ग
को बंद करने
से, पहले
के जल को
उलीचने से तथा
सूर्य के ताप
से क्रमशः सूख
जाता है, वैसे
ही संयमी का
करोड़ों भवों
में संचित
कर्म, पापकर्म
के
प्रवेश-मार्ग
को रोक देने
पर, तथा तप
से निर्जरा को
प्राप्त होता
है, नष्ट
होता है।'
महावीर
कहते हैं, एक तालाब
भरा है, इसे
हमें सुखा
लेना है। हम
चाहते हैं कि
जमीन वापस मिल
जाए। इस तालाब
को हम समाप्त
करना चाहते
हैं। तो हम
क्या करेंगे?
तीन काम
करने जरूरी
हैं। एक सबसे
बुनियादी, कि इस तालाब
में आने का जो
जलस्रोत है, वह रोक दिया
जाए। अगर इस
तालाब में जल
के झरने पड़ते
ही रहे तो हम
उलीचते भी रहे
तो पागलपन होगा।
तुम उलीचते
रहोगे और नए
जल के झरने
पानी को भरते
रहेंगे।
इसलिए
जो प्राथमिक, वैज्ञानिक
कदम होगा वह
यह कि पहले जल
के आनेवाले
झरनों को रोक
दो।
दूसरा
काम होगा, जो भरा हुआ
जल है, वह
जल के झरने
रोकने से नहीं
समाप्त हो
जाएगा, उसे
उलीचो।
और
उलीचने से भी
पूरा साफ न हो
जाएगा। सूर्य
के ताप
को...सूर्य के
ताप की भी
सहायता लेनी
होगी, ताकि
कहीं भी पड़ा न
रह जाए। जमीन
बिलकुल सूख
जाए। जमीन में
दबा भी न रह जाए।
तो तीन
काम महावीर
कहते हैं।
पहला तो
मूलस्रोत को
रोक दो। दूसरा, जो है उसे
उलीचो। तीसरा,
सूरज की
खुली रोशनी को
मौका दो ताकि
कहीं भी छिपा
हुआ, भूमि
में दबा हुआ
कुछ न रह जाए।
सब सूख जाए।
मनुष्य
तालाब जैसा
है। अनंत-अनंत
जन्मों के
कर्म भरे पड़े
हैं। न मालूम
कितनी बुराइयां
की हैं, न
मालूम कितने
धोखे दिए हैं,
न मालूम
कितने पाप, न मालूम
कितने अशुभ, न मालूम
कितनी
वासनाएं की
हैं, आकांक्षाएं की हैं। लोभ,
काम, क्रोध--वह
सब भरा हुआ
पड़ा है।
अब
इससे छुटकारा
पाना है। इस
हृदय की भूमि
को मुक्त करना
है। तो पहली
बात, स्रोत
रोको।
बहुत
से लोग हैं, जो यह करना
चाहते हैं
लेकिन स्रोत
नहीं रोकते।
तो इधर एक हाथ
से वे कोशिश
भी करते रहते
हैं और दूसरे
हाथ से मिटाते
भी चले जाते
हैं।
तुमने
भी बहुत बार
सोचा होगा कि
जीवन में शुभ का
अवतरण हो, सत्य का
पदार्पण हो, मंगल की
वर्षा हो, हम
भी कुछ
दिव्यता में जीएं। तो
कभी-कभी तुमने
थोड़ी चेष्टा
भी की है। कुछ अच्छा
करें; दान
करें, पुण्य
करें, सेवा
करें; कर्तव्य
को निभाएं।
यह तुमने
थोड़ी-बहुत
कोशिश भी की
है, लेकिन
तुम जल्दी थक
जाते हो।
जल्दी ही पाते
हो, यह हो
नहीं पाता।
क्यों? क्योंकि मूल
वृत्ति तो
टूटती नहीं।
मूल धारा तो
बहती चली जाती
है। वह नदी तो
गिर रही है, वह तो गिरती
ही रहती है।
थोड़ा-बहुत
उलीचते हो।
दान किया तो
थोड़ा उलीचा।
दान यानी थोड़ा
दिया। मगर
इससे क्या
होगा? आदमी
लाख कमाता है
तो हजार का
दान कर देता है।
लाख कमाता तभी
हजार का दान
करता है; नहीं
तो करता ही
नहीं।
दान का
मौलिक अर्थ यह
है कि तुम
परिग्रह मत करो।
लेकिन दान वही
करता है जिसके
पास काफी आ रहा
है। और वह
सोचता है, अब करें भी
क्या? थोड़ा
दान भी कर लें?
एक हाथ से
दान करता है
लेकिन दान भी
ऐसी जगह करता
है, इस ढंग
से करता है कि
आगे और आने का
इंतजाम हो जाए।
तो राजनेताओं
को दान दे
देता है, राजनैतिक
पार्टियों को
दान दे देता
है। दान का
मजा भी ले
लिया और नए
लाइसेंस का
इंतजाम भी कर
लिया।
मूल
स्रोत खुला
रहता है। मूल
धारा गिरती
चली जाती है।
उसमें से
थोड़ा-थोड़ा
बांटता भी है।
तो दानी होने
का मजा भी ले
लेता है, लेकिन
कभी परिग्रह
से मुक्त नहीं
हो पाता।
तो
पहले तो लोभ
की वृत्ति को
ही तोड़ देना
पड़े। दान जिसे
करना है उसे
पहले लोभ छोड़
देना पड़े। दान
जिसे करना है, पहले उसे वह
जो लोभ की
मूर्च्छा है,
वह त्याग
देनी पड़े।
"...वैसे
ही संयमी का
करोड़ों भवों
में संचित
कर्म पापकर्म
के प्रवेशमार्ग
को रोक देने
पर तथा तप से
निर्जरा को
प्राप्त होता
है, नष्ट
होता है।'
तो
पहले तो हमें
अपने पापकर्म
कहां से उदय
होते हैं, इसकी तलाश
करनी चाहिए।
मेरे
पास लोग आते
हैं वे कहते
हैं, कि आपके
सामने हम कसम
लेते हैं कि
हम क्रोध न
करेंगे। मैं
उनसे कहता हूं,
तुम कसम तो
लेते हो, यह
उलीचना तो हुआ,
लेकिन अब तक
तुम क्रोध
करते क्यों
रहे? जब तक
तुम उसका मूल
न खोजोगे,
तुम्हारी
कसम से थोड़े
ही कुछ होगा? यह हो सकता
है कसम से तुम
दबाने लगो, रोकने लगो, क्रोध को
प्रगट न करो।
लेकिन क्रोध
पैदा नहीं
होगा ऐसा कैसे
संभव है? कसम
के न लेने से
थोड़े ही पैदा
हो रहा था, जो
कसम के लेने
से रुक जाएगा।
क्रोध पैदा
होता था किसी
कारण से। उस
कारण को खोजो।
क्यों
क्रोध पैदा
होता है? अहंकार
को चोट लगती
है तो क्रोध
पैदा होता है।
तुम्हारी
प्रतिमा को
कोई नीचे
गिराता है तो
क्रोध पैदा
होता है। तुम
समझते हो अपने
को जैसा, वैसा
कोई नहीं
मानता तो
क्रोध पैदा
होता है। और
जब तक अहंकार
है भीतर, अहंकार
का घाव है
भीतर, तब
तक क्रोध होता
ही रहेगा। तुम
लाख कसमें खाओ।
अब मजे
की बात यह है
कि अक्सर लोग
अहंकार के कारण
ही कसम भी खा
लेते हैं। इस
मनुष्य के जाल
को समझना।
मंदिर में गए, मुनि के पास
गए, साधु
के पास गए, वहां
भीड़ भरी है।
वहां कोई कसम
खा रहा है कि
अब मैं
प्रतिज्ञा
लेता हूं, अणुव्रत लेता हूं कि
अब कभी क्रोध
न करूंगा। लोग
ताली बजा रहे
हैं। लोग कह
रहे हैं, धन्यभागी है। कितना
भव्य जीव!
तुम्हारे
अहंकार को भी
फुरफुरी लगी।
तुमने
कहा, अरे! यह
आदमी भव्य जीव
हुआ जा रहा
है। हम बैठे यहां
क्या कर रहे
हैं? तुम
भी खड़े हो गए।
तुम्हें
पक्का पता भी
नहीं तुम
क्यों खड़े हो
गए हो! लेकिन
लोगों ने और
तालियां
बजाईं कि चलो,
एक भव्य जीव
और पैदा हुआ।
तुमने कसम ले
ली। तुमने
प्रतिज्ञा ले
ली। तुमने कहा
कि मैं अब कभी
क्रोध न करूंगा।
या
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लिया।
लेकिन
यह कोई व्रत
से हल
होनेवाली बात
है? इतना
सस्ता मामला
है? तो तुम
क्रोध के
विज्ञान को
समझ ही नहीं
रहे। जो क्रोध
के विज्ञान का
मौलिक आधार है
वही भर रहा है
इस प्रतिज्ञा
से भी। तुम्हारे
अहंकार को मजा
आ रहा है, रस
आ रहा है।
इसीलिए
तो लोग त्यागीत्तपस्वियों
की खूब
प्रशंसा करते
हैं।
रथयात्रा
निकाल देते
हैं, शोभायात्रा
निकाल देते
हैं। बैंडबाजे
के साथ त्यागी
का स्वागत कर
देते हैं। अब
यह जो त्यागी
है, इसका
अहंकार
फुसलाया जा
रहा है। इसका
प्रभाव बढ़ रहा
है। इसकी
अस्मिता प्रगाढ़
हो रही है। और
अस्मिता ही
सारे रोगों का
कारण है। वह
अहंकार ही
सारे लोगों का
कारण है।
तो जरा
त्यागी का तुम
अपमान करके
देखना, तब
पता चलेगा।
संसारी तो
शायद तुम
धक्का-मुक्का
दे दो, उसके
पैर पर पैर रख
दो तो कहेगा, चलता ही
रहता है।
संसार में यह
होता ही रहता
है। जरा
त्यागी के पैर
पर पैर पड़ जाए,
तब अड़चन हो
जाएगी। तुम
जैसा त्यागी
को क्रोधी पाओगे
वैसा तुम
संसारी को
क्रोधी न
पाओगे। घर में
एक आदमी
धार्मिक होने
लगे तो घर भर
परेशान हो
जाता है।
तुम
सभी को अनुभव
होगा। एकाध घर
में कोई उपद्र्रवी
हुआ और
धार्मिक हो
गया...। अब वे
पूजा कर रहे
हैं तो घर में
कोई आवाज नहीं
कर सकता, बच्चे
खेल नहीं सकते,
रेडियो
नहीं चलाया जा
सकता। उनके
ध्यान में बाधा
पड़ती है। वह
सारे घर का
दमन करने लगता
है। वे भोजन
करने बैठे हैं
तो, वे
चलें-उठें-बैठें
तो।
तुम
कभी किसी
त्यागी के साथ
रहे हो? त्यागी
को दूर से
देखना सुख।
त्यागी के पास
रहो, तुम
भाग खड़े
होओगे।
क्योंकि वहां
हर चीज बंधी-बंधी
मालूम पड़ेगी।
तुम भी बंधे
हुए मालूम पड़ोगे।
त्यागी बड़ा बोझरूप हो
जाएगा। उसका
अहंकार पत्थर
की तरह है। वह
तुम्हारी
छाती पर लटक
जाएगा। होना
तो उल्टा
चाहिए था कि
त्यागी
विनम्र हो
जाता, कि
त्यागी के साथ
रहना आनंद और
सौभाग्य हो
जाता, कि
उसके पास थोड़ी
देर रहने को
मिल जाता तो
तुम्हारे
जीवन में भी
फूल खिलते।
मगर ऐसा होता
नहीं। लोग
त्यागियों को
नमस्कार करके
बच निकलते
हैं। वह
नमस्कार भी बच
निकलने की
तरकीब है कि
महाराज! आप
यहां ठीक, हम
अपनी जगह ठीक।
अब आप मिल गए
तो पैर छूए
लेते हैं। और
करें भी क्या?
मगर आपने
महान त्याग
किया है।
खयाल
रखना, आदमी
को क्रोध आता
है अहंकार पर
चोट लगने से। और
क्रोध त्याग
की भी वह चेष्टा
करता है
अहंकार को ही
भरने के लिए।
तो मूल रोग तो
जारी रहता है।
आदमी को लोभ
है, मद है, मत्सर है
मूर्च्छा के
कारण। उसे होश
नहीं कि मैं
कौन हूं। इसी
बेहोशी में वह
कसमें भी लेता
है, संसार
भी त्याग देता
है। हिमालय
चला जाता है। लेकिन
बेहोशी तो
छूटती नहीं।
बेहोशी अपनी
जगह बनी है।
तो
महावीर कहते
हैं, "यह जिनवचन
है कि संवरविहीन
मुनि को केवल
तप करने से ही
मोक्ष नहीं
मिलता; जैसे
कि पानी के
आने का स्रोत
खुला रहने पर
तालाब का पूरा
पानी नहीं
सूखता।'
"संवरविहीन मुनि...।'
जिसने
मूल स्रोत को
नहीं रोका है।
जिसमें आने का
मार्ग तो खुला
ही हुआ है और
जो थोड़े-बहुत
उलीचने में लग
गया है।
तुम एक
नाव में जा
रहे हो, छेद
हो गए हैं नाव
में, पानी
भरा जा रहा
है। तुम छेद
तो रोकते नहीं,
पानी
उलीचते हो। यह
नाव बहुत
ज्यादा देर
चलेगी नहीं, यह डूबेगी।
पानी उलीचना
जरूरी है, लेकिन
उससे भी
ज्यादा जरूरी
है छेदों का
बंद कर देना।
महावीर
यह नहीं कह
रहे हैं कि
पानी मत
उलीचो। लेकिन
पानी उलीचने
से क्या होगा? अगर छेद नया
पानी लाए चले
जा रहे हैं तो
तुम व्यर्थ की
चेष्टा में
लगे हो। पहले
छेद बंद करो, फिर पानी
उलीच लो तो
कुछ राह
बनेगी। तो नाव
के उस पार
पहुंचने का
उपाय होगा।
छेद
खोजो अपने
जीवन के।
बुराई को
छोड़ने की उतनी
चिंता मत करो।
बुराई कहां से
आती है इसकी
खोज करो। लेकर
प्रकाश, ध्यान
का दीया लेकर
अपने भीतर खोज
करो कहां से
बुराई आती है।
बुद्ध
से कोई पूछता
कि क्रोध कैसे
छोड़ें तो बुद्ध
कहते, पहले
यह तो जानो कि
तुम क्रोध
करते कैसे हो।
छोड़ने की बात
पीछे। नंबर दो
है, दोयम।
प्रथम है, तुम
क्रोध करते
कैसे हो। तो
अब तुम ऐसी
कोशिश करो कि
जब क्रोध हो
तब तुम पूरी
तरह जागकर
देखना कि
क्रोध उठता
कैसे है। यह
सीधी बात है।
बुद्ध
एक दिन
सुबह-सुबह
अपने
भिक्षुओं के
बीच आए, बैठे;
और
उन्होंने एक
रूमाल हाथ में
लिया हुआ था, उसमें एक
गांठ बांधी, दूसरी गांठ
बांधी, पांच
गांठें बांधीं।
भिक्षु देखते
रहे चौंककर
कि मामला क्या
है? ऐसा
उन्होंने कभी
किया न था।
फिर
उन्होंने
पूछा कि भिक्षुओ, इस रूमाल
में पांच गांठें
लग गईं। तुमने
दोनों हालतें
देखीं, जब
इसमें कोई
गांठ न थी और
अब जब कि गांठ
लग गई। क्या
यह रूमाल
दूसरा है या
वही है? गांठ
से शून्य और
गांठ लगे
रूमाल में कोई
फर्क है या यह
वही है?
एक
भिक्षु ने कहा
कि महाराज! आप
झंझट में डालते
हैं। एक अर्थ
में तो यह
रूमाल वही है।
गांठ जरूर लग
गईं लेकिन
रूमाल तो वही
का वही है। और
दूसरे अर्थ
में रूमाल वही
नहीं है
क्योंकि पहले
रूमाल में गांठें
नहीं थीं। वह गांठमुक्त
था, इसमें गांठें
हैं।
बुद्ध
ने कहा, ऐसा
ही आदमी है।
आदमी
परमात्मा ही
है, बस गांठें
लग गई हैं।
फर्क इतना ही
है जितना गांठ
लगे रूमाल में
और गैर-गांठ
लगे रूमाल में
है! दोनों
बिलकुल एक
जैसे हैं।
गांठ में थोड़ी
उलझन बढ़ गई है,
बस। गांठ
खोलनी है।
तो
बुद्ध ने कहा, ठीक है, गांठ
खोलनी है। तो
मैं तुमसे
पूछता हूं, मैं क्या
करूं कि जिससे
गांठ खुल जाएं?
और
उन्होंने
दोनों रूमाल
के कोने पकड़कर
खींचना शुरू किया।
एक भिक्षु ने
खड़े होकर कहा
कि महाराज! इससे
तो गांठें
और छोटी हुई
जा रही हैं।
आप खींच रहे
हैं, इससे
तो गांठों
का खुलना
मुश्किल हो
जाएगा। यह कोई
ढंग न हुआ खोलने
का। इससे तो
और उलझन बढ़
जाएगी।
खींचने से
कहीं गांठें
खुली हैं? गांठें
छोटी होती जा
रही हैं, और
सूक्ष्म होती
जा रही हैं।
इतनी छोटी हो
जाएंगी तो फिर
खोलना
मुश्किल हो
जाएगा।
तो
बुद्ध ने कहा, मैं क्या
करूं? तो
उस भिक्षु ने
कहा, आप
रूमाल मेरे
हाथ में दें।
मैं पहले
देखना चाहता
हूं कि गांठें
किस ढंग से
लगाई गई हैं।
क्योंकि जब तक
यह पता न हो कि
लगाई कैसे गईं
तब तक खोली
नहीं जा
सकतीं। बुद्ध
ने कहा, मेरी
बात तुम्हारी
समझ में आ गई।
इतना ही दिखाने
के लिए मैंने
यह रूमाल, ये
गांठें
और यह प्रयोग
किया था।
जिस
चीज को भी
खोलना हो वह
लगी कैसे? खोलने के
लिए जल्दी मत
करना।
क्योंकि डर यह
है कि कहीं
तुम खींचनेत्तानने
में गांठ को
और छोटा न कर
लो।
और मैं
ऐसा ही देखता
हूं। यही हुआ
है, हो रहा
है। आदमी
क्रोध को
छोड़ना चाहता
है। और इसको
बिना समझे कि
क्रोध की गांठ
लगी कैसे, खींचतान
में पड़ जाता
है। क्रोध की
गांठ और छोटी
हो जाती है।
संसारी में
क्रोध की गांठ
थोड़ी फुसली-फुसली
है, जल्दी
खुल सकती है।
त्यागी में
बहुत मुश्किल
है। गृहस्थ
में इतनी उलझी
नहीं है, जितनी
संन्यासी में
उलझ जाती है।
घर में जो बैठा
है, इसकी
बड़ी मोटी-मोटी
गांठ है। वह
जो मुनि होकर मंदिर
में बैठ गया
है, उसकी
बड़ी सूक्ष्म
गांठ है। उसने
खूब खींच ली हैं।
हां, सूक्ष्म
होने में एक
लाभ मालूम
पड़ता है--लाभ
है नहीं--वह
यही मालूम
पड़ता है कि
गांठ अगर बहुत
सूक्ष्म हो
जाए तो किसी
को दिखाई नहीं
पड़ती। मगर
गांठ से छुटकारा
थोड़े ही होता
है! दिखाई
नहीं पड़ने से
छुटकारा तो
नहीं होता।
तो लोग
गांठों
को सूक्ष्म
करते जाते
हैं। तुम
कामवासना छोड़ना
चाहते हो।
ब्रह्मचर्य
की चर्चा
सदियों तक चली
है।
ब्रह्मचर्य
के बड़े स्तुति
में गीत गाए गए
हैं। तो
तुम्हारे मन
में भी लोभ
जगता कि हम भी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
हों। अच्छा है, शुभ है भाव, लेकिन जब तक
कामवासना को
समझा नहीं, तब तक तुम
मुक्त कैसे हो
सकोगे? जब
तक कामवासना
को जागकर
देखा नहीं कि
यह गांठ लगती
कैसे? इसके
लगने की विधि
क्या है? यह
कैसे जकड़ लेती
है और मन को
घेर लेती है, और मन को डुबा
लेती है? खींच
लेती, अवश
कर देती, असहाय
कर देती। जहां
नहीं जाना
वहां खिंचे
चले जाते हैं।
जो नहीं करना
वह फिर-फिर कर
लेते हैं। इस
गांठ को ठीक
से जानना
जरूरी है।
तो
महावीर कहते
हैं, जो
व्यक्ति संवरविहीन
है...। संवर
महावीर का
पारिभाषिक
शब्द है। संवर
का अर्थ है
आने का मार्ग।
जिसने मूल
उदगम को नहीं
रोका है। कुएं
से पानी उलीच
रहा है और झरना
नया पानी लिए
चला आ रहा है।
झरना भरे जा
रहा है कुएं
को और तुम उलीचे
जा रहे हो।
तुम्हारे
उलीचने से कुछ
लाभ नहीं है।
खतरा तो यह है
कि तुम्हारे
उलीचने से
आनेवाला झरना
और गतिमान हो
जाएगा।
यह
तुमने खयाल
किया होगा।
अगर किसी कुएं
का पानी
वर्षों तक न
भरो तो सूख भी
सकता है।
क्योंकि जब
पानी कोई भरता
ही नहीं कुएं
में तो झरना
धीरे-धीरे
अवरुद्ध हो
जाता है। धूल
जम जाती है। कंकड़-पत्थर
बैठ जाते हैं, मिट्टी बैठ
जाती है। झरना
धीरे-धीरे मुंद
जाता है। झरने
का काम ही
नहीं रह जाता।
तुम एक बाल्टी
पानी निकालते
हो, एक
बाल्टी पानी
झरने को कुएं
में भरना पड़ता
है। तो झरना
चलता रहता है।
जो झरे, वही झरना।
जब झरे ही
न, तो झरना
बंद हो जाता
है।
अगर
वर्षों तक
कुएं से पानी
न भरा जाए तो
संभव है कुआं
सूख जाए।
लेकिन उलीचनेवाला
अगर झरने बंद
न करे, तब तो
कुआं कभी नहीं
सूखेगा।
क्योंकि कुएं
के पीछे सागर
छिपा है, जहां
से झरने भागे
चले आ रहे
हैं। इधर तुम
उलीचते हो, झरनों को और
गति मिल जाती
है। वे और
तेजी से भागे
चले आते हैं।
उनको और काम
मिल जाता है।
इसलिए
जिस व्यक्ति
ने
ब्रह्मचर्य
को थोपने की
कोशिश की और
कामवासना के
झरने को रोका
नहीं, कामवासना
को समझा नहीं,
उसके
विज्ञान को
पहचाना नहीं,
वह और मुश्किल
में पड़ जाएगा।
तुम कोशिश
करके देखो।
जैसे-जैसे तुम
ब्रह्मचर्य
की चेष्टा
करोगे, तुम
पाओगे खोपड़ी
में झरने ही
झरने खुल गए, वासना ही
वासना के।
वही-वही विचार
उठते हैं, वही-वही
स्वप्न आते
हैं। कहीं भी
नजर डालो,
तुम्हें बस
वासना का ही
विस्तार
दिखाई पड़ेगा।
तुम जो भी देखोगे
वहां वासना
दिखाई
पड़ेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने
मनोवैज्ञानिक
के पास गया
था। एक ऊंट
निकल रहा था
रास्ते पर से।
तो उस
मनोवैज्ञानिक
ने पूछा, इस
ऊंट को देखकर
तुम्हें किस
बात की याद
आती है? उसने
कहा, स्त्री
की। जरा
मनोवैज्ञानिक
भी चौंका। उसने
कहा अच्छा कोई
बात नहीं। यह
जो घड़ी लटकी
है इसको देखकर
तुम्हें
किसकी याद आती
है? उसने
कहा, स्त्री
की। उसने कहा,
मुझे देखकर
तुम्हें
किसकी याद आती
है, उसने
कहा, स्त्री
की। उसने कहा,
तुम हद्द
पागल आदमी हो!
उसने कहा, पागल
क्या? मुझे
स्त्री के
सिवाय किसी की
याद ही नहीं
आती। इसमें
ऊंट का कोई
संबंध नहीं है,
न घड़ी का, न तुम्हारा।
मुझे याद ही
स्त्री की आती
है। इससे ऊंट
का कोई संबंध
मत जोड़ना कि
ऊंट को देखकर मुझे
स्त्री की याद
आती है। याद
ही बस एक आती है।
तुम
जरा कोशिश
करके देखो।
जिस चीज से
तुम जबर्दस्ती
छूटना चाहो, उसकी याद
सघन हो जाती
है। एक दिन तय
करके देख लो
कि महीनेभर
ब्रह्मचर्य
का व्रत ले
लो। महीनेभर
का ही लेना, ज्यादा का
मत लेना
क्योंकि
प्रायोगिक
है। उस महीने
में तुम पाओगे
कि सारी
जीवन-ऊर्जा बस
कामवासना में
ही संलग्न हो
गई। दो-चार
दिन उपवास
करके देख लो, बस भोजन ही
भोजन, भोजन
ही भोजन। ऐसे
विचार
तुम्हें भोजन
के पहले कभी
भी न आते थे, वे उपवास
में आते हैं।
तो उल्टी घटना
घट जाती है।
मैं
जैनों के घरों
में ठहरता
रहा। उनके
पर्युषण पर्व
आते, दस-दस दिन
का उपवास कर
लेते। इधर
सोहन बैठी है पीछे;
वह आठ-आठ
दिन के उपवास
करती रही, उससे
पूछो। सालभर
चौके में काम
करती है, भोजन
बनाती है, भोजन
खिलाती है--और
अच्छा भोजन
बनाती
है--भोजन की
याद ही न
आएगी। अक्सर
जो महिलाएं
भोजन बनाती
हैं उनको भोजन
में रस ही खो
जाता है। भोजन
बनानेवाले को
भोजन करने में
उतना मजा नहीं
आता।
लेकिन
उपवास कर लो
तो सब झरने
खुल जाते हैं।
सब तरफ से
रसधार बहने
लगती हैं।
जैसे स्वाद ही
जीवन का
केंद्र बन
जाता है। और
इसलिए जैन
पर्युषण के
बाद जैसे भोजन
पर टूटते हैं...!
तुम जाकर साग-सब्जीवालों
से पूछ सकते
हो कि पर्युषण
के बाद एकदम
दाम बढ़ जाते
हैं। मिठाई के
दुकानदारों
से पूछ सकते
हो कि पर्युषण
के बाद एकदम
बिक्री बढ़
जाती है। आठ
दिन, दस दिन
किसी तरह
सोच-सोचकर
विचार कर-करके
टाले
रखते हैं। और
दस दिन के बाद
पागल होकर टूट
पड़ते हैं।
जिस
चीज को तुम
जबर्दस्ती रोकोगे, उसको महावीर
कहते हैं यह
तपश्चर्या तो
हुई, संवर
न हुआ। अकेली
तपश्चर्या से कोई
मुनि मोक्ष को
उपलब्ध नहीं
होता। संवर पहली
बात है। झरने
को सुखाओ।
झरना
कहां है? सभी
चीजों का
मौलिक झरना
कहां है? वह
मनुष्य की
अचेतना में
है। वह मनुष्य
की मूर्च्छा
में है। हम
बेहोश हैं।
हमें पता ही
नहीं गांठ
कैसे लगती है!
रोज गांठ लगती
है और हम देख नहीं
पाते। क्रोध
रोज उठता है
और हम देख
नहीं पाते कि
यह गांठ हमारे
रूमाल पर लगती
कैसे?
तो अब
जब क्रोध उठे
तो उस मौके को
खोना मत। वह बड़ा
स्वर्ण-अवसर
है। क्रोध
जैसी
महत्वपूर्ण घटना
घट रही है।
इसे तुम फिजूल
की बकवास में
खराब मत कर
देना। जब
क्रोध उठे तो
द्वार-दरवाजे
बंद करके बैठ
जाना। और
क्रोध की गांठ
तुम्हारे मन
पर कैसे लग
रही है उसका
पूरा दर्शन
करना, अवलोकन
करना, निरीक्षण
करना, देखना,
दबाना मत, क्योंकि
दबाने की कोई
जरूरत नहीं
है। किसी पर निकालना
भी मत, क्योंकि
किसी पर
निकालने में
समय खो जाएगा।
वह तो घड़ी
देखने की है, साक्षात्कार
की।
किसी
ने गाली दी, तुम क्रोध
से उबलने
लगे; भागो! बंद करो
अपना
द्वार-दरवाजा।
बैठकर कमरे
में आंख बंद
करके देखो। यह
जो धुआं उठ
रहा है क्रोध
का, कहां
से आ रहा है? कहां है
इसका ईंधन? कहां है
इसकी मूल
चिनगारी?
और यह
तो तभी संभव
है इसको देखना, जब तुम कोई
विरोध न करो।
तुम यह न कहो
कि यह बुरा है,
गंदा है, पाप है।
क्योंकि जैसे
ही तुमने यह
कहा, तुम्हारी
आंखें बंद हो
गईं। दुश्मन
को हम आंख मिलाकर
थोड़े ही देखते
हैं! सिर्फ
गहरे प्रेम में
ही, मैत्री
में ही किसी
की आंख में
आंख डालकर
देखते हैं।
दुश्मन से तो
हम बचकर निकल
जाते हैं।
अगर
क्रोध को
तुमने दुश्मन
समझ लिया तो
फिर तुम कभी
क्रोध का
निरीक्षण न कर
पाओगे।
निरीक्षण न
किया तो गांठ
कैसे लगती है, समझ में न
आएगा। गांठ
कैसे लगती है
समझ में न आया
तो गांठ
खोलोगे कैसे?
कसमें खाने
से थोड़े ही
गांठ खुलती
है!
इसलिए
मैं कहता हूं
महावीर ने
धर्म को
वैज्ञानिक
रूप दिया।
धर्म को
मनोविज्ञान
बनाया। उसको
ठीक जहां से
काम शुरू होना
चाहिए, वहां
से इशारे किए।
पहला
इशारा उनका यह
है कि
मूलस्रोत की
पहचान; मूल
उदगम की
पहचान।
और
तुमने खयाल
किया? अगर
गंगा को पकड़ना
हो, वश में
करना हो तो
गंगोत्री पर
जितना सरल है
फिर आगे कहीं
भी उतना सरल
नहीं है।
गंगोत्री पर
तो ऐसे
छोटा-सा झरना है
गंगा। गौमुख
में से गिरती
है, बहुत
बड़ी हो भी
नहीं सकती।
गंगा को अगर
वश में करना
हो तो
गंगोत्री पर
करना आसान है।
प्रयाग में या
काशी में अगर
वश में करने
गए तो तुम पागल
हो जाओगे। वह
वश में
होनेवाली
नहीं। बहुत
बड़ी हो जाती
है।
सभी
चीजें अपने
मूल उदगम पर
बड़ी छोटी होती
हैं, तुम्हारी
सीमा के भीतर
होती हैं।
तो
क्रोध को वहां
देखो, जहां
से क्रोध उठता
है। काम को
वहां देखो
जहां से काम
उठता है। झगड़े
का सवाल नहीं
है। एक वैज्ञानिक
अवलोकन की बात
है।
"यह जिनवचन है
कि संवरहीन
मुनि को केवल
तप करने से
मोक्ष नहीं
मिलता, जैसे
कि पानी के
आने का स्रोत
खुला रहने पर
तालाब का पूरा
पानी नहीं
सूखता।'
तो
पहली चीज, मूलस्रोत की
पहचान। उस
मूलस्रोत को
एक ही नाम दिया
जा सकता है, वह है
मूर्च्छा।
महावीर का शब्द
है
प्रमाद--सोए-सोए
जीना।
हम जी
तो जरूर रहे
हैं, लेकिन
हमारा जीना
बड़ी तंद्रा से
भरा हुआ है। कुछ
ठीक पक्का पता
नहीं है क्यों
जी रहे हैं। कुछ
पक्का पता
नहीं कौन हैं।
कुछ पक्का पता
नहीं कहां जा
रहे हैं, कहां
से आ रहे हैं। धक्कमधुक्की
है, चले जा
रहे हैं।
कभी
भीड़ में देखा? कोई भीड़ का
रेला आ रहा हो,
लोग चले जा
रहे हों, तुम
भी चले जा रहे
हो। रुकना भी
मुश्किल
क्योंकि भीड़
धक्के दे रही
है। तुम्हें
यह पक्का पता
भी नहीं कहां
जा रहे, कहां
से ले जाए जा
रहे, यह
भीड़ कहां जा
रही है। लेकिन
यह सोचकर कि
सब जा रहे हैं
तो ठीक ही जा
रहे होंगे, आदमी चलता
चला जाता है।
हम पैदा भीड़
में होते हैं,
और भीड़ में
ही मर जाते
हैं। और हमें
पता ही नहीं
चल पाता हमें
जाना कहां था,
होना क्या
था। क्या होने
को हम पैदा
हुए थे। हमारी
नियति क्या
थी। हमारा
स्वभाव क्या
था।
यह
मूर्च्छा
तोड़ना पहली
बात है। कैसे
टूटे यह
मूर्च्छा? जो भी करो, महावीर कहते
हैं; विवेकपूर्वक करो।
जैन
मुनि विवेक का
बड़ा गलत अर्थ
करते हैं। जब तुम
जैन मुनि से
पूछोगे कि
महावीर जब
कहते हैं "जयं
चरे, जयं चिट्ठे'--विवेक से उठें,
विवेक से बैठें, तो
उनका मतलब
क्या है? तो
जैन मुनि
कहेगा, विवेक
से बैठने का
मतलब जमीन झाड़कर
बैठें।
कोई चींटी न
मर जाए। पानी छानकर पीएं
कि कोई हिंसा
न हो जाए। यह
विवेक का
अर्थ!
यह
विवेक का अर्थ
नहीं है।
विवेक का अर्थ
है, बैठने की
क्रिया में
मूर्च्छा न
हो। जब तुम बैठो
तो सिर्फ
बैठो। उस वक्त
तुम्हारा
चैतन्य सिर्फ
बैठने का ही
काम करे, बस।
जब तुम चलो तो
सिर्फ चलने का
ही काम करे, बस। तुम कुछ
और हजार बातें
न सोचो।
रास्ते
पर तुम चल रहे
हो, हजार
बातें सोच रहे
हो। तो चलना
तो मूर्च्छित होगा
ही। मन हजार
जगह एक साथ
थोड़े ही हो
सकता है। एक
ही जगह हो
सकता है। भोजन
तुम कर रहे हो,
उस वक्त
बैठे तुम
दुकान पर
विचार कर रहे
हो। बैठे घर
में, भोजन
कर रहे, विचार
चल रहा बाजार
का।
मैंने
सुना है, एक
आदमी एक साधु
के पास जाता
था। बड़ा
भक्तिभाव में
रस लेता था, भजन-कीर्तन
करता था। और
जो लोग भी
भजन-कीर्तन इत्यादि
करने लगते हैं,
वे चाहते
हैं सभी को करवा
दें। हिंसा का
भाव है वह।
क्योंकि तुम
कौन हो सभी को
करवाने वाले?
वह अपनी
पत्नी को भी
लगाना चाहता
था। दुनिया में
सबसे कठिन काम
वही है। पति
को अगर
भजन-कीर्तन
करना है, पत्नी
निश्चित रूप
से भजन-कीर्तन
नहीं करेगी।
दो में से एक
ही करता है।
दोनों...आकस्मिक
संयोग हो जाए,
बात अलग।
ऐसा होता
नहीं।
तो वह
पत्नी को बड़ी
खींचतान
मचाता था, बड़ा शोरगुल
मचाता था कि
चल, धर्म
कर कुछ। समय
खो रही है।
जीवन जा रहा
है। लेकिन
पत्नी अपनी जिद्द पर
थी। उसने अपने
गुरु को कहा।
गुरु ने कहा, मैं आऊंगा।
मैं तेरी
पत्नी को
समझाऊंगा। कल
सुबह आता हूं
पांच बजे।
तो पति
तो उठ जाता था
चार बजे ही
से। जोर से
शोरगुल मचाता
था। उसको ही
वह भजन-कीर्तन
कहता था।
हालांकि
मोहल्ला भर
उसको गाली
देता था। बच्चे
घर के गाली
देते थे। मगर
धार्मिक आदमी
जब इस तरह के
काम करता है
तो कोई रुकावट
भी नहीं डाल सकता।
वह जब
आया साधु, उसने द्वार
पर दस्तक दी
तो पत्नी
बुहारी लगा रही
थी। उसने
पत्नी से कहा
कि देखो, तुम्हारा
पति कितना
ध्यान में लीन
है! उसकी पत्नी
ने कहा, छोड़ो बकवास! वह इस
समय बाजार गया
हुआ है और एक
जूते की दुकान
पर जूते खरीद
रहा है।
वह पति
तो अंदर बैठा
था। उसने यह
सुना तो वह
बड़ा हैरान
हुआ। उसने कहा
हद्द हो गई!
झूठ की भी एक
सीमा होती है।
पांच बजे रात
न तो दुकानें
खुलीं, और
मैं इधर अपने
ध्यान में लगा
हूं। अब यह
दिखता है कि
यह सोचकर कि
मैं बीच में
उठ नहीं सकता...।
वह निकलकर
बाहर आ गया।
उसने कहा, तूने
समझा क्या है?
मैं इधर घर
में बैठा हूं।
ध्यान कर रहा
हूं, तुझे
पता है। झूठ
बोल रही है
सरासर!
उसकी
पत्नी ने कहा, अब तुम ईमान
से कह दो। कम
से कम
तुम्हारे
गुरु की
मौजूदगी में
ईमान से कह दो,
कि तुम नहीं
चमार की दुकान
पर थे? जूते
नहीं खरीद रहे
थे?
वह
थोड़ा चौंका।
और गुरु सामने
खड़ा था, एकदम
झूठ बोल भी न
सका। गुरु ने
कहा, क्या
मामला क्या है?
उसने
कहा, यह बात तो
ठीक कह रही है
मगर इसको पता
कैसे चला? क्योंकि
जूते फट गए
हैं मेरे, तो
मैं ध्यान तो
कर रहा था, लेकिन
खयाल बाजार का
था। और मैं
जरूर पहुंच गया
था चमार की
दुकान पर। झगड़ा
मच गया था, क्योंकि
दाम वह बहुत
ज्यादा बता
रहा था।
मोल-भाव कर
रहा था। मगर
इसको पता कैसे
चला?
अब यह
तो किसी को भी
पता नहीं कि
स्त्रियों को पता
कैसे चलता है, मगर चल जाता
है। छिपा नहीं
सकते
स्त्रियों से कुछ।
पता चल ही
जाता है।
तो तुम
जब ध्यान कर
रहे हो, तब
ध्यान ही हो।
मगर यह तभी हो
पाएगा जब तुम
और काम भी
ध्यानपूर्वक
ही करने लगो।
चलो तो सिर्फ
चलो। भोजन करो
तो सिर्फ भोजन
करो। बिस्तर
पर लेटो
तो बस फिर लेट
ही जाओ। फिर
मन न दौड़ता
रहे हजार जगह!
नहीं तो लेटने
की क्या जरूरत?
दौड़ते ही
रहो।
लोग
लेट जाते हैं
बिस्तर पर, फिर कहते
हैं नींद नहीं
आती। नींद न
आने का कुल
कारण इतना है
कि तुम लेटते
ही नहीं। शरीर
तो पड़ा है
बिस्तर पर लाश
की भांति; मन
भाग रहा है
दूर-दूर लोकों
में; न
मालूम
कहां-कहां की
योजनाओं में।
जब मन
भागा हुआ है
तो नींद नहीं
घट सकती। विश्राम
तो तभी संभव
है जब मन और
शरीर तालमेल करते
हैं। मन कहीं
जा रहा है, शरीर बिस्तर
पर पड़ा है।
दोनों में
इतना खिंचाव
है, तनाव
है, नींद
संभव नहीं है।
साधु
ही सोता है।
साधु ही सो
सकता है।
क्योंकि साधु
ही जगता है।
जब जगता है तो
बस जगता है।
जब सोता है तो
बस सोता है।
महावीर
का जो वचन है, विवेक, जागरूकता,
अप्रमाद, यतनाचार,
जतनपूर्वक जीना--उसका
अर्थ जैन मुनि
बड़ा क्षुद्र
कर रहे हैं।
हालांकि जो वे
अर्थ कर रहे
हैं वह मेरे अर्थ
में समाविष्ट
हो जाता है, लेकिन उनके
अर्थ में मेरा
अर्थ
समाविष्ट नहीं
होता।
जो
व्यक्ति
जागरूकता से जीएगा वह
स्वभावतः
देखकर चलेगा
कि किसी कीड़े-मकोड़े पर
पैर न पड़ जाए।
इसके लिए
देखकर चलने की
अलग से जरूरत
न रहेगी, जागकर चलना काफी
है। वह तो
नींद में ही, बेहोशी में
ही चलते हो
इसलिए ऐसी भूल
हो जाती है।
जो
आदमी जागकर
जी रहा है
उसके सारे
जीवन की
प्रक्रियाओं
में जागरण का
प्रकाश पड़ने
लगेगा। उसके
जीवन से हिंसा
समाप्त हो
जाएगी। जिसके
भीतर तनाव नहीं, उसके बाहर
हिंसा समाप्त
हो जाती है।
जिसके भीतर
संघर्ष नहीं,
उसके बाहर
संघर्ष
समाप्त हो
जाता है। बाहर
तो हम लड़ते
इसीलिए हैं कि
भीतर लड़ रहे
हैं। बाहर तो
हमारे जीवन
में धुआं
इसीलिए दिखाई
पड़ता है कि
भीतर हम जल रहे
हैं।
बाहर
के बदलने से
कुछ भी न होगा, भीतर की
बदलाहट होगी
तो बाहर की
बदलाहट अपने से
हो जाती है।
अंतस बदला तो
आचरण अपने से
बदल जाता है।
तो
मेरी दृष्टि
में महावीर के
सूत्र का अर्थ
हुआ: अंतस में
दीया जला रहे।
तुम
जरा कोशिश
करो। बहुत
कठिन मामला
है। जैन मुनि जो
कहता है वह
सरल है; इसलिए
दो कौड़ी
का है। वह तो
कोई भी अभ्यास
कर ले सकता
है। उसका कोई
बहुत मतलब
नहीं है।
पानी छानकर पी
लेने का कोई
बहुत मतलब
नहीं है। मैं
यह नहीं कह
रहा कि पानी छानकर मत
पीना। लेकिन
यह मत समझ
लेना कि पानी छानकर पी
लिया तो मोक्ष
कुछ करीब आ गया।
ठीक किया। हाइजनिक
है, स्वास्थ्यवर्धक
है। पानी छानकर
पीया तो
वैज्ञानिक
दृष्टि से ठीक
काम किया।
लेकिन इससे
कुछ मुक्ति
करीब आ रही है
ऐसा मत सोच
लेना। जमीन बुहारकर
बैठे, ठीक
किया। जो करने
योग्य था वह
किया। लेकिन
इससे कुछ अतिमानवीय
रोशनी का जन्म
नहीं हो जाएगा।
इससे कुछ
परमात्मा
तुममें नहीं
उतर आएगा।
इतने
सस्ते में तुम
परमात्मा को
लाना चाहते हो
तो तुम जरा
जरूरत से
ज्यादा मांग
रहे हो। तुम
कहते हो, हम
रोज बुहारी
लगाकर बैठे, रोज पानी छानकर
पीया, मोक्ष
कहां है? लेकिन
तुम मोक्ष की
कीमत कितनी
आंक रहे हो? मोक्ष का मतलब
हुआ: बुहारी
लगाकर बैठे +
पानी छानकर
पीया =
मोक्ष? मोक्ष
दो कौड़ी
का कर दिया
तुमने।
नहीं, मोक्ष बड़ी
घटना है। और
उस बड़ी घटना
की बड़ी तैयारी
जरूरी है।
उस
तैयारी का
पहला कदम तुम
उठाना शुरू
करो। मैं कहता
हूं कठिन है।
क्योंकि अगर
तुम जागकर
चलना चाहोगे
तो तुम पाओगे, क्षणभर भी नहीं चल
पाते। अगर
भोजन तुम होश
से करना चाहोगे
तो एकाध कौर
कर लिया तो
बहुत। फिर
भटके, फिर
भटके। लेकिन
बार-बार
लौटाते रहो!
पकड़-पकड़कर
अपने घर आते
रहो। फिर जब
याद आ जाए कि
अरे! कहां चला
गया? फिर
चबाने लगे
बिना होश के, फिर लौटकर आ
जाओ। फिर हाथ शिथिल
कर लो। फिर से
अपने को जगाकर
बैठ जाओ। फिर
से भोजन शुरू
कर दो।
राह
चलते-चलते एक
कदम चलोगे, होश रहेगा, दूसरे कदम
पर फिर बेहोशी
आ गई, फिर
कोई खयाल उतर
आया, फिर
किसी खयाल में
खो गए। जब याद
आ जाए, फिर
अपने को
सम्हाल लो।
शुरू-शुरू में
तो ऐसा ही
होगा। पकड़ोगे,
खोओगे;
पकड़ोगे,
खोओगे। हाथ लगेगा
धागा, छूटेगा;
छूटेगा हजार बार।
तुम फिकिर मत
करो। हजार बार
छूटे, हजार
बार पकड़ो।
इससे हताश भी
मत होना, क्योंकि
यह बात ही ऐसी
है कि
सधते-सधते
सधती है। यह
बात इतनी
मूल्यवान है
कि यह एक दफा
में सध जाती
तो इसका कोई
मूल्य ही न था।
ये कोई मौसमी
फूल नहीं हैं
कि डाल दिए
बीज और दो-चार
सप्ताह में
फूल आ गए। ये
तो देवदार और
चिनार के बड़े
वृक्ष हैं, जो बहुत समय
लेते हैं। बड़े
होते हैं।
आकाश को छूने
जाते हैं।
मोक्ष
से बड़ी और कोई
घटना इस संसार
में नहीं है, न इस संसार
के बाहर है।
मोक्ष महत्तम घटना
है। इसलिए
उसके लिए
जितना भी श्रम
किया जाए वह
अंततः थोड़ा
है। जब मोक्ष
की उपलब्धि
होती है तो
पता चलता है, जो हमने
किया था वह न
कुछ था। हां, जब तक मिला
नहीं है मोक्ष,
तब तक ऐसा
लगता है कि
कितना कर रहे
हैं, और
कुछ भी नहीं
हो रहा है...कुछ
भी नहीं हो
रहा है।
और बात
खयाल रखना, जैसे सौ
डिग्री गर्मी
पर पानी भाप
बनता है--निन्यानबे
पर भी भाप
नहीं बनता, साढ़े निन्यानबे
पर भी भाप
नहीं बनता, ठीक सौ
डिग्री पर
बनता है। ऐसे
ही तुम्हारे
प्रयत्न की एक
डिग्री है।
तुम्हारी
चेष्टा की एक
डिग्री है, तुम्हारे तप
की एक डिग्री
है। ठीक उस
जगह आकर अचानक
रोशनी हो जाती
है, अंधकार
कट जाता है।
उसके एक क्षण
पहले तक गहन अंधेरी
रात थी।
हताश
मत होना। लौट
मत जाना। यह
मत सोचना कि
क्या फायदा!
हो सकता है, तुम सनतानबे
डिग्री पर थे
कि अनठानबे
डिग्री पर थे
और लौट गए, निराश
हो गए। एक कदम
और--एक कदम और।
लौटना ही मत।
जीवन की एक ही
बात को याद
रखो तो महावीर
का सारा
सार-संचय
तुम्हारे पास
रहेगा। उठो जागकर, बैठो
जागकर, चलो जागकर,
बोलो, सुनो--जो
भी करो--अपने
को झकझोर कर।
भीतर दीया जागने
का जगा रहे।
तुम
मुझे यहां सुन
रहे हो, तुम
इस तरह सुन
सकते हो कि
बैठे हैं, हजार
बातें चल रही
हैं खोपड़ी में,
यह मेरी बात
भी सुनाई पड़
रही है उन्हीं
हजार बातों के
बीच में।
कहीं-कहीं
कुछ-कुछ शब्द
भीतर प्रवेश
कर जाते हैं।
वे हजार बातों
में लिपटकर
उनका अर्थ भी
बदल जाता है।
कुछ का कुछ
सुनाई पड़ जाता
है। कहा कुछ, सुन कुछ
लेते हो। अर्थ
कुछ था, अर्थ
कुछ निकाल
लेते हो। ऐसे
सोए-सोए सुनकर
तुम जो ले
जाते हो, वह
तुम्हारा ही
होगा। उसका
मुझसे कुछ
लेना-देना
नहीं है।
जागकर
सुनो। जागकर
सुनने का अर्थ
है, सुनते
वक्त तुम कान
ही कान हो
जाओ।
तुम्हारा पूरा
शरीर कान की
तरह काम करे
तो जागकर
सुना। भोजन
करते वक्त तुम
स्वाद ही
स्वाद हो जाओ।
तुम्हारा पूरा
शरीर बस भोजन
करे। चलते
वक्त तुम पैर
ही पैर हो
जाओ। बस तुम
चलो। सोचते
वक्त तुम मन
ही मन हो जाओ; फिर सिर्फ
सोचो।
तो मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
सोचने के लिए
समय ही मत दो।
घड़ी दो घड़ी
निकाल लो और
उस समय सिर्फ सोचो।
जरूरत है उसकी
भी। वह भी
तुम्हारे
जीवन का अंग
है। उसे भी
समय चाहिए। सब
समय को ठीक से
बांट दो। मगर
एक खयाल रहे
कि जो भी
कृत्य हो वह
मूर्च्छा में
न हो।
अगर
हाथ में आ-आकर
होश छूट जाता
हो, तो इतना
ही खयाल रखना
कि थोड़ी
चेष्टा और।
मिल
ही जाता दुआ
को बाग-ए-कुबूल
हिम्मत-ए-दिल
ही पस्त है
शायद
--स्वीकार
हो जाती
प्रार्थना।
मिल
ही जाता दुआ
को बाग-ए-कुबूल
हिम्मत-ए-दिल
ही पस्त है
शायद
अगर
नहीं मिलती
प्रार्थना को
स्वीकृति, अगर
प्रार्थना
पूरी नहीं
होती तो इतना
ही जानना कि
अभी दिल की
हिम्मत, दिल
का साहस--अभी
दिल खोलकर
मांगा ही
नहीं। द्वार
पर दिल खोलकर
दस्तक ही न
दी। कुछ कमी
रह गई।
इतना
ही खयाल रखना
कि कुछ कमी रह
गई। फिर चेष्टा
करना। किसी भी
दिन कमी पूरी
हो जाएगी। और
कोई भी नहीं
कह सकता, कब
पूरी हो
जाएगी।
क्योंकि अब तक
कोई थर्मामीटर
नहीं बन सका, जिससे हम
पता लगा सकें
कि आदमी का
होश समाधि के
करीब आ गया या
नहीं। कोई
उपाय नहीं।
जैसे
थर्मामीटर
में हम पता
लगा लेते हैं
कि आदमी का
बुखार ज्यादा
तो नहीं हो
गया? कम तो
नहीं हो गया? अब तक कोई
थर्मामीटर
नहीं बना, कि
पता चल सके कि
आदमी का होश
कितना है? अभी
होश को मापने
का कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए
तुम्हें टटोल-टटोलकर ही
चलना होगा।
मगर एक बात
पक्की
है--जिन्होंने
खोजा, उन्हें
मिला। अगर
तुम्हें न
मिले तो ऐसा
मत सोचना कि
होश मिलता ही
नहीं। अधिक
लोग जल्दी ही ऐसा
सोच लेते हैं
कि न कोई
परमात्मा है,
न कोई आत्मा
है, न कोई
होश है। यह
कुछ होनेवाली
बात नहीं है।
इस तरह पस्ते-हिम्मत
मत हो जाना, हताश मत हो
जाना।
तपश्चर्या
का यही अर्थ
है, जब
महावीर कहते
हैं तप, तो
उनका यही अर्थ
है। तप का
अर्थ है, अपने
को तपाते जाना,
गरमाते जाना। सौ
डिग्री पर भाप
बनोगे, छलांग
लगेगी। देखा!
पानी नीचे की
तरफ बहता है।
फिर जब भाप बन जाता
है तो ऊपर की
तरफ उठने लगता
है। वही पानी,
जो सदा नीचे
की तरफ बहता
था, अब
अचानक ऊपर की
तरफ उठने लगता
है। वही पानी
जो दृश्य था, अब अदृश्य
होने लगता है।
वही पानी जो गङ्ढों की
तलाश करता था,
आकाश की
तलाश में निकल
जाता है। बस
सौ डिग्री का
फर्क है!
ठीक
ऐसे ही मनुष्य
की चेतना
साधारणतः
नीचे की तरफ
बहती है। इस
नीचे की तरफ
बहने को हम
पाप कहें। जब
ऊपर की तरफ
बहने लगती है
तो पुण्य
कहें। और इन
दोनों के बीच
जो जोड़नेवाला
सेतु है, वह
तप है। तप
शब्द बिलकुल
ठीक है। वह
ताप से ही बना
है; गर्मी
से ही बना है।
लेकिन
कुछ नासमझ हैं, वे धूप में
खड़े हो जाते
हैं। वे कहते
हैं, तप कर
रहे हैं। कुछ
नासमझ हैं, अंगीठियां लगाकर बैठ
जाते हैं। वे
कहते हैं तप
कर रहे हैं।
आदमी
के पागलपन की
कोई सीमा
नहीं। अंगीठियां
लगाकर तुम तप
करोगे? शरीर
को जला लोगे, पसीने-पसीने
हो जाओगे।
इससे तप का
कोई संबंध
नहीं है। धूप
में खड़े
रहोगे--सिर से
सूरज को ऊगने-डूबने
दोगे? इससे
तप का कोई
संबंध नहीं
है। तुम नाहक
कष्ट झेलोगे।
तप है
आंतरिक। खयाल
करो, सूरज की
किरणों में
दोनों बातें
हैं: ताप भी है,
और प्रकाश
भी है।
प्रत्येक ताप
के साथ प्रकाश
भी जुड़ा है।
प्रकाश के दो
गुणधर्म हैं:
एक तो चीजों
को प्रकाशित
करना और उत्तप्त
करना।
ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर चैतन्य
का जब प्र्रकाश
जगना शुरू
होता है तो दो
घटनाएं घटती
हैं। एक तो
तुम भीतर
प्रकाशित
होने लगते हो
और तुम्हारी
जीवन-ऊर्जा
उत्तप्त होने
लगती है। तो
एक तरफ तो तुम
सौ डिग्री की
तरफ बढ़ने लगते
हो, जहां
छलांग लगेगी,
सीमा टूटेगी।
दृश्य का बंधन
गिरेगा। नीचे
की तरफ बहने
की पुरानी आदत
से छुटकारा
होगा। और
दूसरी तरफ जैसे-जैसे
ताप सघन होता
जाएगा
वैसे-वैसे तुम
रोशनी से
मंडित होते
जाओगे।
तुम्हारे
भीतर एक प्रभामंडल
जन्मेगा।
अंगीठियां
जलाने की जरूरत
नहीं; तुम्हारे
चेहरे से, तुम्हारी
आंखों से, तुम्हारे
व्यक्तित्व
से, तुम्हारे
उठने-बैठने से,
प्रकाश की
झलक मिलनी
शुरू होगी।
तुम एक दीया बन
जाओगे।
और
धीरे-धीरे
व्यक्ति
पारदर्शी हो
जाता है। तुम
उसके दीये को
बाहर से भी
देख सकते हो।
जिनके पास भी
थोड़ी देखने की
आंख है और
सहानुभूति से
भरी आंख है, वे किसी भी
जीवित-जागते
व्यक्ति के
भीतर रोशनी को
देखने में
समर्थ हो जाते
हैं।
तो
तपश्चर्या का
अर्थ तुम यह
मत ले लेना कि
अपने को
व्यर्थ कष्ट
देने हैं।
तपश्चर्या का
अर्थ है, जो
कष्ट आ जाएं
उन्हें
स्वीकार करना
है, देने
नहीं हैं।
आनेवाले कष्ट
ही काफी हैं, अब और देने
की क्या जरूरत
है? इतने
जन्मों के
कर्मों का जाल
है हमने
बहुत-से कष्ट
तो अर्जित ही
कर लिए हैं; वे आ ही रहे
हैं। बस
उन्हें तुम
सहिष्णुता से,
समभाव से
झेल लेना।
दुखी मत होना।
दुख आए तो, स्वीकार
कर लेना। जो
दुख आए तुम उससे
परेशान और
उद्विग्न मत
होना, राजी
हो जाना। कहना
कि किसी को
कभी दुख दिया
होगा, वह
लौट आया है।
छुटकारा हुआ
जाता है।
बुद्ध
पर एक आदमी
थूक गया तो
बुद्ध बड़े
प्रसन्न हो
गए। उन्होंने
आनंद से कहा, देख आनंद! इस
आदमी पर जरूर
मैंने कभी
थूका होगा।
जन्मों-जन्मों
की यात्रा है।
कभी इसे कुछ
दुख दिया होगा,
कुछ अपमान
किया होगा। आज
छुटकारा हुआ।
अगर यह न थूक
जाता तो अटके
रहते। इसके
साथ उलझे
रहते। यह
छुटकारा होना
ही था। आज
खाता बंद। आज
लेन-देन पूरा
हो गया।
जब
जीवन में दुख
आए तो उसे इस
भांति
स्वीकार कर
लेना कि अपने
किए गए किसी
कर्म का फल है, स्वीकार कर
लिया। इससे
उद्विग्न मत
होना, तो
नया दुख
निर्मित न
होगा और
पुराना दुख
भस्मीभूत हो
जाएगा।
जिंदगी
के गमों को अपनाकर
हमने
दरअसल तुझको
अपनाया।
वे
जिसने जीवन के
दुख स्वीकार
कर लिये, उसने
परमात्मा को
स्वीकार कर
लिया।
और मजे
की बात है...साधारणतः
हम सुख खोजते
हैं और दुख
पाते हैं। और
जब कोई
व्यक्ति दुख
को स्वीकार
करने लगता है
तो जीवन में
सुख की वर्षा
होने लगती है।
यह जीवन का
गणित है। खोजो
सुख, पाओगे
दुख। मिले दुख,
स्वीकार कर
लो और तुम
अचानक पाओगे,
महत सुख
उत्पन्न होने
लगा। दुख के
स्वीकार में
ही सुख की
क्षमता पैदा
हो जाती है।
जरा
करके देखो! जब
कोई दुख आए, उसे स्वीकार
करके देखो।
छोटा-मोटा
दुख! प्रयोग
करो, स्वीकार
कर लो। ऐसा
सोचो ही मत कि
मेरे ऊपर कोई
विपदा आ गई
है। ऐसा सोचो
मत कि
परमात्मा मेरे
साथ अन्याय कर
रहा है। ऐसा
सोचो मत।
शिकायत लाओ ही
मत। गिला, शिकवा
लाओ ही मत।
इतना ही जानो
कि मैंने कुछ
दुख बोए होंगे,
फल काट रहा
हूं, ठीक, चलो निपटारा
हुआ जाता है।
सिरदर्द
आए...छोटा-सा
दुख है, स्वीकार
कर लो।
स्वीकार में
ही तुम अचानक
पाओगे, एक
क्रांति हो
गई। जब तुम
पूरे मन से
स्वीकार करोगे,
तुम पाओगे,
सिरदर्द
उतना दर्द न
रहा, जितना
मालूम होता
था। अस्वीकार
करने से दुख अनंतगुना
मालूम होने
लगता है।
स्वीकार करने
से क्षीण हो
जाता है। अगर
तुमने पूरी
तरह स्वीकार
कर लिया तो
तुम अचानक
पाओगे कि दर्द
तो गया। इतना
फासला हो जाता
है तुममें और
दर्द में।
अगर
दर्द को भी तुमने
मेहमान की तरफ
स्वीकार कर
लिया तो तप।
अलग से दुख
देने की कोई
जरूरत नहीं
है।
यह
महावीर तो कह
ही नहीं सकते
कि अपने को
दुख दो, क्योंकि
महावीर कहते
हैं, किसी
को दुख मत दो; उसमें तुम
भी सम्मिलित
हो। यह तो बात
बड़े पागलपन की
हो जाएगी कि
कहा जाए कि
दूसरे को दुख
मत दो और अपने
को दुख दो। जो
तुम दूसरे के
साथ नहीं करते
वह अपने साथ
क्यों करो? दया दूसरे
के साथ है तो
अपने साथ भी
चाहिए।
सच तो
यह है कि जो
अपने साथ दया
करता है वही
दूसरे के साथ
दया कर सकता
है। और जो
अपने साथ कठोर
है वह किसी के
भी साथ कोमल
नहीं हो सकता।
जो अपने साथ
कोमल नहीं, वह किसके
साथ कोमल होगा?
जो अपने से
प्रेम नहीं कर
सका वह किसी
को प्रेम नहीं
कर सकेगा। जो
व्यक्ति अपने
को प्रेम करता
है वही दूसरों
को प्रेम कर
सकता है। जो
घटना घटती है,
पहले घर में
घटती है, अपने
भीतर घटती है;
फिर उसकी
किरणें
दूसरों तक फैलती
हैं।
इसलिए
महावीर यह तो
कह ही नहीं
सकते कि तुम
अपने को दुख
दो। इतना ही
कहा है कि जो
दुख आए वह तुम्हारे
दूसरों को दिए
हुए दुखों का
परिणाम है।
उसे स्वीकार
कर लो।
"अज्ञानी
व्यक्ति तप के
द्वारा
करोड़ों जन्मों
या करोड़ों
वर्षों में
जितने कर्म का
क्षय करता है,
उतने
कर्मों का नाश
ज्ञानी
व्यक्ति त्रिगुप्ति
के द्वारा एक
सांस में सहज
कर डालता है।'
अब यह
बात सीधी-साफ
है, लेकिन
फिर भी न
मालूम कैसा
दुर्भाग्य कि
महावीर को माननेवाले
लोग त्रिगुप्ति
की तो बात भूल
गए, बस वे
करोड़ों वर्षोंवाली
तपश्चर्या
में लगे हुए
हैं।
ज
अन्नाणी कम्मं खवेइ
बहुआहिं बासकोडीहिं।
हजारों-लाखों
वर्ष तक, लाखों
जन्मों तक, कोटि-कोटि
जन्मों तक कोई
तप करे, तब
कहीं बड़ा अल्प
कर्म का विनाश
होता है।
तं
नाणी
तिहिं गुत्तो...
और
ज्ञानी त्रिगुप्ति
के द्वारा...
खवेइ ऊसासमित्तेणं...
एक
सांस में उतने
कर्मों से मुक्त
हो जाता है।
क्या
है यह त्रिगुप्ति?
महावीर
कहते हैं, "मन, वचन, काया, इनकी
प्रवृत्तियों
में जागरूक
होकर जीना त्रिगुप्ति।'
ये तीन
गुप्त बातें, ये तीन
सीक्रेट, ये
तीन
कुंजियां--मन,
वचन, काया।
शरीर से जो भी
करो, होशपूर्वक
करना। मन से
जो भी करो, होशपूर्वक
करना। वचन से
जो भी करो, होशपूर्वक
करना। ये तीन
कुंजियां--इनको
जो साध लेता
है, वह
करोड़ों
जन्मों में भी
श्रम करके जो
आदमी पाता है,
उसे एक सांस
में बिना श्रम
के पा लेता
है।
अज्ञानी
आदमी कुछ भी
करे तो जो भी
करेगा, उसके
अज्ञान से ही
निकलेगा न! वह
तप भी करे तो भी
अज्ञान से
निकलेगा। और
अज्ञान से जो
भी निकलेगा
उससे नए कर्मबंधों
का जन्म होता
है। वह त्याग
भी करे तो भी
अज्ञान से ही
करेगा।
अज्ञानी
व्यक्ति का
अर्थ है--यह मत
सोचना कि जो
शास्त्र नहीं
जानता--अज्ञानी
से अर्थ है, जो जागा हुआ
नहीं है; जो
ज्ञानपूर्वक
नहीं जी रहा है।
यहीं
सुविधा हो
जाती है चीजों
के अर्थ बदल
लेने में। जब
महावीर कहते
हैं अज्ञानी
व्यक्ति तो
समझ में आ गई
बात, कि
ज्ञानी होना
जरूरी है। पढ़ो
शास्त्र, कंठस्थकरो शास्त्र, बन जाओ तोते,
तो ज्ञानी
हो जाओगे।
शब्द
कितने ही
संगृहीत हो
जाएं, उससे
कोई ज्ञानी
नहीं होता। वह
तो यंत्रवत
है। पढ़ो, बार-बार पढ़ो,
गुनो, याद हो जाते
हैं। याद से
तुम्हारे
जीवन में थोड़े
ही कुछ रोशनी
आएगी!
तुम्हारे
जीवन में कोई दीया
प्रगट हो, तुम्हारे
जीवन में कोई
अनुभव जगे,
तुम्हारा
अनुभव हो तो
ही ज्ञान।
उधार ज्ञान ज्ञान
नहीं।
"मोक्षावस्था का शब्दों
में वर्णन
करना संभव
नहीं, क्योंकि
वहां शब्दों
की प्रवृत्ति
नहीं है। वहां
न तर्क का
प्रवेश है, न वहां
मानस-व्यापार
संभव है। मोक्षावस्था
संकल्प-विकल्पातीत
है; साथ ही
समस्त मल-कलंक
से रहित होने
से वहां ओज भी
नहीं है। रागातीत
होने के कारण
सातवें नर्क
तक की भूमि का
ज्ञान होने पर
भी वहां किसी
प्रकार का खेद
नहीं है।'
पहले
सूत्र में
कहते हैं, अज्ञानी
व्यक्ति
करोड़ों
जन्मों तक
तपश्चर्या
करे तो भी कुछ
खास लाभ नहीं
होता। ज्ञानी
व्यक्ति क्षणभर
में, श्वासभर में होश से
जीए तो बहुत
लाभ होता है।
इस बात
को इंगित करने
के लिए कि
ज्ञानी से
अर्थ शास्त्र
को जाननेवाला
नहीं है, तीसरा
सूत्र बिलकुल
साफ है।
महावीर
कहते हैं, मोक्षावस्था का शब्दों
में वर्णन
करना संभव
नहीं है। इसलिए
शास्त्र काम न
आएंगे।
क्योंकि वहां
शब्दों की
प्रवृत्ति ही
नहीं है। वहां
तो केवल चैतन्य
का प्रवेश है,
शब्दों का
कोई प्रवेश
नहीं है। वहां
तुम तो जा
सकते हो लेकिन
तुम्हारी
बुद्धि और
तर्क नहीं जा
सकता। तर्क और
बुद्धि को
पीछे ही छोड़
जाना पड़ता है।
जैसे
कोई आदमी
हिमालय पर चढ़ता
है, तो
जैसे-जैसे
ऊंचाई बढ़ने
लगती है, बोझ
कम करने लगता
है। पहले सोचा
था सब सामान ले
चलें। फिर जब
पहाड़ चढ़ता
है तो पता
चलता है, इतना
सामान तो ले
जाना संभव न
होगा। तो
जो-जो काम का
नहीं है, छोड़
दो। फिर और
ऊंचे पहाड़ पर चढ़ता है तो
पता चलता है, और भी कुछ
छोड़ना पड़ेगा।
जब तेनसिंग
और हिलेरी
गौरीशंकर
पर पहुंचे तो
बिलकुल सब
सामान छोड़कर
पहुंचे। कुछ
भी न था। उतनी
ऊंचाई पर कुछ
भी ले जाना
संभव नहीं
होता।
मोक्ष
आखिरी ऊंचाई
है चेतना की।
वहां तो विचार
भी ले जाने
संभव नहीं
होते, संकल्प-विकल्प
भी संभव नहीं
होते। इसलिए
महावीर कहते
हैं, उसका
तो वर्णन ही
नहीं हो सकता।
इसलिए
शास्त्र जो भी
कहते हैं, वे सब
प्राथमिक
सूचनाएं हैं,
अंतिम का
कोई दर्शन
नहीं है।
शास्त्र जो भी
कहते हैं, वह
सब क, ख, ग,
है। वह पहली,
प्राथमिक
पाठशाला है।
शास्त्रों
में जीवन का
विश्वविद्यालय
नहीं है, प्राथमिक
शिक्षा है।
शास्त्रों पर
मत रुक जाना।
अनुभव
ही जीवन का
विश्वविद्यालय
है। वहां शब्दों
की कोई प्रवृत्ति
नहीं है।
क्योंकि जो
व्यक्ति भीतर
जाएगा, उसे
पहले तो शरीर
छोड़ना पड़ता
है। क्योंकि
शरीर हमारा
सबसे बाहरी
रूप है। जैसे
कोई आदमी इस भवन
में अंदर आएगा
तो दरवाजा, दरवाजे से
लगी हुई
चारदीवारी
छोड़कर आना
पड़ता है।
तो
पहले तो शरीर
छूट जाता है।
फिर जब और
भीतर प्रवेश
करते हैं तो
मन की
प्रक्रियाएं
छूट जाती हैं।
जब और भीतर
प्रवेश करते
हैं तो हृदय
के भाव छूट
जाते हैं। जब
बिलकुल भीतर
अपने घर में
पहुंच जाते
हैं, ठीक अंतर्गृह
में, तो
वहां शुद्ध
चेतना बचती है,
कोई भी और
नहीं बचता--न
शरीर, न मन,
न भाव। इस
शुद्ध अवस्था
में मुक्ति के
पहले दर्शन
होते हैं।
तो
महावीर कहते
हैं, त्रिगुप्ति के द्वारा
ऐसी मुक्ति की
दशा का अनुभव
तुम्हें होगा,
वही ज्ञान
है। वहां तर्क
का प्रवेश
नहीं, इसलिए
कोई मोक्ष को
सिद्ध नहीं कर
सकता कि है। न
कोई सिद्ध कर
सकता कि नहीं
है। क्योंकि
जो चीज सिद्ध
ही नहीं की जा
सकती तर्क से
कि है, उसको
असिद्ध भी
नहीं किया जा
सकता। सिर्फ
अनुभव से जो
लेगा स्वाद, वही
जानेगा--गूंगे
का गुड़। जो
लेगा स्वाद, वह जानेगा
कि है। लेकिन
वह भी तुम्हें
सिद्ध नहीं कर
पाएगा।
अगर
तुम गूंगे से
पूछो कि तुझे
स्वाद मिला, बोल! तो वह
तुम्हारा हाथ
खींचेगा। उस
तरफ जहां उसको
स्वाद मिला।
तुम भी आ जाओ
और तुम भी चख
लो गुड़।
यही
महावीर-बुद्ध, यही दुनिया
के सारे
सत्पुरुष कर
रहे हैं। खींच
रहे हैं हाथ
तुम्हारा कि
आओ! हम जहां गए,
वहां खूब
पाया। तुम भी
थोड़ा स्वाद
लो।
तुम
कहते हो, पहले
सिद्ध करो, फिर हम
आएंगे। छोड़ो
हाथ। ऐसे हाथ
मत खींचो। हम
ऐसे
बुद्धिहीन
नहीं हैं कि
हर किसी के
साथ हो लें।
तुम पहले सिद्ध
कर दो कि
परमात्मा है,
मोक्ष है, आत्मा है, तो हम आने को
तैयार हैं। हम
तर्कशील
व्यक्ति हैं।
हम सोच-विचार
कर चलते हैं।
हम अंधविश्वासी
नहीं हैं।
तो फिर
तुम कभी भी न जा
सकोगे। तो
तुम्हें पता
नहीं तुमने
किससे अपना
हाथ छुड़ा
लिया। तुमने
उससे अपना हाथ
छुड़ा
लिया जो
तुम्हें तुम
तक पहुंचा
देता। तुमने उससे
अपना हाथ छुड़ा
लिया जो
तुम्हारे लिए
जीवन में
सौभाग्य की किरण
होकर आया था।
और तुमने जिस
बात के नाम पर
हाथ छुड़ा
लिया उस कूड़ा-कर्कट
को तुम मूल्य
दे रहे
हो--तर्क।
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है उसके लिए
कोई तर्क नहीं
है। प्रेम के
लिए कोई सिद्ध
कर सका कि है? प्रेम जैसी
सामान्य जीवन
की अनुभव की
घटना भी सिद्ध
नहीं होती।
सबको अनुभव
होती है तो भी
सिद्ध नहीं
होती। इस जमीन
पर करोड़ों लोग
प्रेम करते
हैं लेकिन फिर
भी सिद्ध नहीं
होता। खैर
महावीर और
बुद्ध तो
कभी-कभी अपवाद
रूप होते हैं।
यह आत्यंतिक
प्रेम, मोक्ष,
परमात्मा
तो कभी-कभी
घटता है, इसलिए
सिद्ध नहीं हो
पाता; चलो।
लेकिन इतने
लोग तो प्रेम
करते
हैं--इतने लैला,
इतने मजनू,
इतने शीरी,
इतने फरिहाद!
फिर भी कुछ कह
नहीं पाता
कोई।
कल मैं
एक गीत पढ़ता
था:
कहना
चाहा तो मगर
बात बताई न गई
दर्द
को शब्द की
पोशाक पहनाई न
गई
और
फिर खत्म हुई
ऐसे कहानी
अपनी
उनसे
सुनते न बनी
हमसे सुनाई न
गई
रही
हरेक जगह सांस
पर रही न गई
बात
ऐसी थी, कही
तो मगर कही न
गई
इस
तरह गुजरी
तेरी याद में
हरेक सुबह
पीर
जो कोई सही तो
हो मगर सही न
गई
प्रेम
नहीं कहते
बनता। प्रेम
को शब्द की
पोशाक पहनाते
नहीं बनती।
कहना
चाहा तो मगर
बात बताई न गई
कौन
प्रेमी नहीं
कहना चाहा है? तुमने कभी
प्रेम किया
किसी को? तब
तुम्हें अड़चन
आती है, कैसे
कहें कि मुझे
प्रेम है? कहो,
शब्द बड़े
छोटे मालूम
पड़ते हैं। जो
है, उसके
मुकाबले
ना-कुछ मालूम
पड़ते हैं। लाख
सिर पटको,
कहो कि मुझे
प्रेम है तो
भी तुम्हें
लगता है, कह
कहां पाए?
कहना
चाहा तो मगर
बात बताई न गई
प्रेमी
कितना सिर
पटकते हैं, कितने उपाय
करते हैं। चलो
फूल का
गुलदस्ता
खरीद लाओ, कि
हीरे-जवाहरात
के हार ले आओ।
मगर
हीरे-जवाहरात
से भी नहीं
कहा जाता। फूल
भी नहीं कह
पाते। कुछ है,
जो प्रगट
नहीं हो पाता।
दर्द
को शब्द की
पोशाक पहनाई न
गई
और
फिर खत्म हुई
ऐसे कहानी
अपनी
सभी
प्रेमियों की
ऐसे ही कहानी
खत्म होती है।
उनसे
सुनते न बनी
हमसे सुनाई न
गई
रही
हरेक जगह सांस
पर रही न गई
बात
ऐसी थी, कही
तो मगर कही न
गई
कह भी
देते हैं तो
भी रह जाती है
बात। कह भी
देते हैं तो
भी लगता है
कहां कही? कह भी देते
हैं तो भी मन तड़फता रह
जाता है, कह
न पाए।
इस
तरह गुजरी
तेरी याद में
हरेक सुबह
पीर
जो कोई सही तो
हो मगर सही न
गई
लगता
है कह भी दिया
और लगता है कह
भी न पाए। लगता
है हो भी गया
और लगता है हो
भी न पाया।
ऐसी विडंबना
साधारण प्रेम
के साथ घट
जाती है।
तो
परमात्मा की
तो हम बात ही
छोड़ दें। वह
तो आत्यंतिक
घटना है, आखिरी
घटना है। उसको
बताने के लिए कोई
शब्द आदमी की
भाषा में नहीं
है। उसको बताने
के लिए कोई
विचार आदमी के
पास नहीं है।
उसकी तरफ
इशारा करने
में हमारी कोई
अंगुली काम
नहीं आती।
हमारी अंगुली
बड़ी स्थूल और
वह बड़ा सूक्ष्म।
स्थूल को
स्थूल से
दिशा-निर्देश
किया जा सकता
है। स्थूल को
स्थूल से कहा
जा सकता है।
सूक्ष्म को
कैसे स्थूल से
कहें? वह
बड़ा जीवंत और
हमारे सब शब्द
मुर्दा।
इसलिए
जिन्होंने
जाना वे मौन
रहे। महावीर
ने तो अपने
संन्यासी को
मुनि नाम
इसीलिए दिया
कि जानोगे--बस
चुप! मुनि कहा
इसीलिए कि मौन
घटेगा। मौन से
ही उसे जानोगे, जानकर मौन
से ही उसे कह
पाओगे।
इसका
यह अर्थ नहीं
है कि महावीर
ने कुछ कहा नहीं।
बहुत कहा, लेकिन उस
सारे कहने से
भी बात कही न
गई। शब्द की
पोशाक पहनाई न
गई। लाख तरह
से उपाय किया
होगा। इधर से
हारे तो उधर
से किया होगा,
उधर से हारे
तो और कहीं से
किया होगा। इस
दरवाजे से
प्रवेश न हो
सका तो दूसरे
दरवाजे पर
खटखटाया
होगा। लेकिन
अंतिम निर्णय
में यह कहा कि
वह मोक्ष कुछ
ऐसा है कि कहा
नहीं जा सकता।
तुम्हें भी
अनुभव हो जाए,
बस ऐसी
शुभाकांक्षा
की जा सकती
है। या तुम
हाथ देने को
राजी हो जाओ
हाथ में तो
तुम्हें भी ले
जाया जा सकता
है।
सदगुरु
का अर्थ यही है--जो
तुम्हें ले
जाए। सत्संग
का अर्थ यही
है, जहां तुम
किसी और के
हाथ में अपना
हाथ देने को तैयार
हो जाओ।
"मोक्षावस्था का शब्दों
में वर्णन
नहीं है...।'
सव्वे
सरा नियट्टंति
तक्का जत्थ न विज्जइ।
और
तर्क से उसे
कहा नहीं जा
सकता...।
तक्का जत्थ न विज्जइ।
मई
तत्थ न गाहिया...।
वहां
मन का कोई
व्यापार ही
नहीं रह जाता।
मन के पार है, मन के अतीत
है।
ओए अप्पइट्ठाणस्स
खेयन्ने।
वह मन
के बहुत पार
है। वह इतने
पार है मन के
कि और सारी
बातें तो छोड़
ही दो, आध्यात्मिक
व्यक्ति में
जो ओज प्रगट
होता है, वह
ओज भी उस जगह
तक नहीं पहुंचता।
वह ओज भी
बाहर-बाहर रह
जाता है। वहां
पहुंचते-पहुंचते
ओज भी खो जाता
है। क्योंकि
ओज के लिए भी
अंधकार का
सहारा चाहिए।
ओज के प्रगट
होने के लिए
अंधकार की
पृष्ठभूमि
चाहिए।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, "साथ ही
समस्त मल-कलंक
से रहित होने
से वहां ओज भी
नहीं है।'
अब यह
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात वे कह रहे
हैं। अत्यंत
असाधारण बात
वे कह रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं, प्रकाश
को देखने के
लिए भी अंधेरे
की पृष्ठभूमि
चाहिए।
जब तुम
दीया जलाते हो
तो तुम्हें
रोशनी दिखाई पड़ती
है। तुम सोचते
हो रोशनी के
कारण, तो
गलती है
तुम्हारा
खयाल। वह जो
चारों तरफ
अंधेरा घिरा
है, उसकी
दीवाल के
कारण। थोड़ा
सोचो कि
दुनिया से अंधेरा
मिट जाए, फिर
तुम्हें
रोशनी दिखाई
पड़ेगी? फिर
कैसे दिखाई
पड़ेगी? फिर
नहीं दिखाई
पड़ेगी।
अभी
मैं बोलता हूं, तुम्हें
सुनाई पड़ता है
क्योंकि
बोलने के आसपास
शून्य भी छाया
हुआ है। अगर
शून्य मिट जाए
तो बोलना संभव
न रहे। अगर
बोलना मिट जाए
तो शून्य का
अनुभव होना
मुश्किल हो
जाए। शोरगुल
के कारण ही
शांति का
अनुभव होता है,
खयाल रखना।
अगर बिलकुल
सन्नाटा हो, कोई आवाज न
होती हो तो
शांति का पता
ही न चलेगा।
पता
चलने के लिए
विपरीत चाहिए, द्वंद्व
चाहिए।
महावीर
कहते हैं, वह इतना
आत्यंतिक एक
है, वहां
कोई दो नहीं
बचते; कि
वहां ओज तक का
पता नहीं
चलता। वहां
इतनी रोशनी है
कि रोशनी का
पता नहीं
चलता। अंधेरा
है ही नहीं।
वहां इतनी
शुद्धता है कि
शुद्धता का भी
पता नहीं
चलता।
क्योंकि
शुद्धता का
पता होने के
लिए कुछ
अशुद्धि, कुछ
मल-कलंक शेष
रह जाना
चाहिए।
तुमने
कभी खयाल किया? जब
स्वास्थ्य
परिपूर्ण
होता है तो
बिलकुल पता
नहीं चलता।
थोड़ी बीमारी
रहे तो ही पता
चलता है। पैर
में दर्द है
तो शरीर का
पता चलता है।
सिर में दर्द
है तो सिर का
पता चलता है।
जिस आदमी ने
सिर का दर्द
नहीं जाना उसे
सिर का पता ही
नहीं चलता।
शरीर में कोई
पीड़ा हो तो
पता चलता है।
बच्चों को
शरीर का पता नहीं
चलता, सिर्फ
बूढ़ों को पता
चलता है। जिस
दिन शरीर का पता
चलने लगे, समझना
बुढ़ापा
करीब आ रहा
है। शरीर के
पता चलने का
अर्थ है कि कुछ
जराजीर्ण
होने लगा।
हमारे
पास एक बड़ा बहुमूल्य
शब्द
है--वेदना।
वेदना शब्द के
दो अर्थ हैं।
एक तो अर्थ
है--ज्ञान।
वेद भी उसी से
बना--विद से।
वेदना का अर्थ
है, ज्ञान।
और दूसरा अर्थ
है, दुख।
बड़ी अजीब-सी
बात है। इस एक
शब्द के दो
अर्थ: ज्ञान
और दुख। मगर
बड़ी सार्थक
बात है। दुख का
ही पता चलता
है। दुख का ही
ज्ञान होता
है। आनंद का
तो पता ही
नहीं चल सकता।
आनंद तो लापता
है। जब आनंद
घटता है तो उसके
विपरीत तो कुछ
भी नहीं बचता
इसलिए पता कैसे
चलेगा?
महावीर
कहते हैं, वहां तो
रोशनी भी नहीं
रह जाती। या
इतनी रोशनी हो
जाती है, रोशनी
ही रोशनी हो
जाती है, कि
उसे किन शब्दों
में कहें? इसलिए
महावीर ने
सच्चिदानंद
शब्द का भी
प्रयोग नहीं
किया। उपनिषद
कहते हैं:
सच्चिदानंद। महावीर
उसका भी
प्रयोग नहीं
करते। वे कहते
हैं, असत रहा नहीं तो
सत किसको कहें?
अचित रहा नहीं तो
चित किसको
कहें? दुख
रहा नहीं तो
आनंद किसको
कहें?
इसलिए
महावीर ने और
एक छलांग
ली--सच्चिदानंद
के पार। कुछ है
नहीं कहने को
वहां, लेकिन
चल सकते हो, पहुंच सकते
हो।
इस
अज्ञात पर
जाने की
जिनमें
हिम्मत है...यह
अज्ञात है।
इसे अगर तुमने
कहा कि पहले
सिद्ध हो जाए
तो हम चलेंगे
जरूर, लेकिन
सिद्ध तो हो
जाए! तो तुम
कभी जा ही न
सकोगे
क्योंकि यह
कुछ बात सिद्ध
होनेवाली
नहीं है। तुम
जाओगे तो
सिद्ध होगी।
तुम्हारे
अनुभव से
सिद्ध होगी।
तो
महावीर कहते
हैं, ज्ञान की
घटना ही...। और
उस ज्ञान की
घटना की तरफ जाना
हो तो त्रिगुप्ति--मन,
वचन, काया--तीनों
के व्यापार
में जागरण को
सम्हालना।
ज्ञान
की अंतिम
आत्यंतिक दशा
का नाम मोक्ष।
जिसको हिंदू
ब्रह्म कहते
हैं, उसको
महावीर मोक्ष
कहते हैं। और
निश्चित महावीर
का शब्द
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि ब्रह्म
से ऐसा लगता
है, कहीं
कोई बाहर।
ईश्वर से ऐसा
लगता है, कहीं
कोई बाहर।
मोक्ष से तो
सिर्फ इतना ही
पता चलता है
कि हम सारे
बंधन से
मुक्त। हमारा
होना सीमा के
पार, मर्यादा
के पार। सारी
जंजीरें छूट
गईं, कारागृह
गिर गया और हम
मुक्त गगन में
उड़ चले। उस
अनंत में खो
चले, विसर्जित
हो चले।
अनंत-अनंत
जन्मों की
अज्ञानपूर्ण
चेष्टा भी वहां
नहीं ले जा
सकती, और
ज्ञानपूर्ण
एक श्वास वहां
ले जा सकती
है। इसलिए
असली सवाल
जागने का, जाग्रत
होने का है।
महावीर
की सारी
चिंतना को एक
शब्द में निचोड़कर
रखा जा सकता
है--उनके सारे
विज्ञान
को--और वह शब्द
है, जागरूकता,
अवेयरनेस, अप्रमत्त हो
जाना।
यह बड़ा
अनूठा धर्म
है। यह सीधा
विज्ञान का
धर्म है। इसमें
मंदिर की
जरूरत नहीं, मूर्ति की
जरूरत नहीं, पूजा-अर्चना
की जरूरत नहीं,
क्रिया-कांड
की जरूरत नहीं,
पंडित-पुरोहित
की जरूरत नहीं,
यज्ञ-हवन की
जरूरत नहीं।
इसमें कोई
साधन-सामग्री
की जरूरत
नहीं। कुछ भी
जरूरत नहीं।
इसमें तुम
काफी हो। बस
तुम ही प्रयोगशाल
हो।
तुम्हारे
भीतर सब मौजूद
है। वह भी
मौजूद है जिसको
जगाना है। बस, थोड़ा अपने
को
हिलाना-डुलाना
है। अभी तुम
गांठ-लगे
रूमाल हो, बस
जरा गांठ को
खोल लेनी है।
जो तुम्हें
होना है वह
तुम हो; थोड़ी-सी
बाधाएं हैं, उनको गिरा
देना है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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