युग्जन्नेवं सदात्मानं
योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां
मत्संस्थामधिगच्छति।।
15।।
इस
प्रकार आत्मा
को निरंतर
परमेश्वर के
स्वरूप में
लगाता हुआ, स्वाधीन मन
वाला योगी
मेरे में स्थितरूप
परमानंद
पराकाष्ठा
वाली शांति को
प्राप्त होता
है।
निरंतर
परमात्मा में
चेतना को
लगाता हुआ
योगी!
सुबह
जिन सूत्रों
पर हमने बात
की है, उन्हीं
सूत्रों की
निष्पत्ति के
रूप में यह सूत्र
है। समझने
जैसी बात
इसमें निरंतर
है। निरंतर
शब्द को समझ
लेने जैसा है।
निरंतर का अर्थ
है, एक भी
क्षण व्यवधान
न हो।
निरंतर
का अर्थ है, एक भी क्षण
विस्मरण न हो।
जागते ही नहीं,
निद्रा में
भी भीतर एक
अंतर-धारा
प्रभु की ओर बहती
ही रहे--सतत, कंटिन्यूड,
जरा भी
व्यवधान न
हो--तो निरंतर
ध्यान हुआ, तो निरंतर
स्मरण हुआ।
जैसे
श्वास चलती
है। चाहे काम
करते हों, तो चलती है; चाहे
विश्राम करते
हों, तो
चलती है। याद
रखें, तो
चलती है; न
याद रखें, तो
भी चलती है।
जागते रहें, तो चलती है; सो जाएं, तो
भी चलती रहती
है। श्वास की
भांति ही जब
प्रभु की ओर
स्मरण, प्रभु
की प्यास, प्रभु
की लगन भीतर
चलने लगे, तो
अर्थ होगा
पूरा निरंतर
का; तो
निरंतर का
अर्थ खयाल में
आएगा।
लेकिन
हमें तो एक
क्षण भी प्रभु
को स्मरण करना
कठिन है।
निरंतर तो
असंभव मालूम
होगा। एक क्षण
भी जब स्मरण
करते हैं, तब भी
प्राणों की
कोई अकुलाहट
भीतर नहीं
होती। एक क्षण
भी जब स्मरण
करते हैं, तब
भी प्राणों की
परिपूर्णता
उसमें संलग्न
नहीं होती। एक
क्षण भी जब
पुकारते हैं,
तो ऐसे ही
ऊपर से, सतह
से पुकारते
हैं। वह
प्राणों की
अंतर-गहराइयों
तक उसका कोई
प्रभाव, कोई
संस्पर्श
नहीं होता।
और
कृष्ण तो कहते
हैं कि ऐसा
निरंतर प्रभु
की ओर बहता
हुआ व्यक्ति
ही मुझे
उपलब्ध होता
है, प्रभु को
उपलब्ध होता है,
प्रभु में
प्रतिष्ठा
पाता है। तो
इसका तो यह अर्थ
हुआ कि शेष सब
जन निराश हो
जाएं। एक क्षण
भी नहीं हो
पाती है पुकार,
तो निरंतर
तो कैसे हो
पाएगी! साफ है,
सीधी बात है
कि सब निराश
हो जाएं। और
जो भी निरंतर
के इस अर्थ को
समझेंगे, प्राथमिक
रूप से निराशा
अनुभव होगी, कि फिर
हमारे लिए कोई
द्वार नहीं, मार्ग नहीं।
नहीं; लेकिन निराश
होने का कोई
भी कारण नहीं
है। इससे केवल
इतना ही सिद्ध
होता है कि
हमें स्मरण की
प्रक्रिया ही
ज्ञात नहीं
है। इससे कुछ
और सिद्ध नहीं
होता। और यह
आपसे कहूं कि
जो व्यक्ति एक
क्षण भी ठीक
से स्मरण कर
ले, उसकी
निरंतर की
स्मरण-व्यवस्था
अपने आप नियत और
निश्चित हो
जाती है।
क्यों? क्योंकि
हमारे हाथ में
एक क्षण से
ज्यादा कभी भी
होता नहीं।
कोई उपाय नहीं
कि दो क्षण
हमारे हाथ में
एक साथ हो
जाएं। एक ही
क्षण होता है
हमारे हाथ
में। जब भी
होता है, एक
ही क्षण होता
है। एक जब
रिक्त हो जाता
है, तब
दूसरा हाथ में
आता है। एक जब
जा चुका होता
है, तब
दूसरे का आगमन
होता है।
लेकिन हमारे
हाथ में जब भी
होता है, एक
ही क्षण होता
है। इससे
ज्यादा क्षण
हमारे पास
नहीं होते।
इसलिए
अगर एक क्षण
में भी
प्रभु-स्मरण
की प्रक्रिया
में प्रवेश हो
जाए, तो
निरंतर में
प्रवेश होने
में कोई भी
बाधा नहीं है।
क्योंकि एक
क्षण में जो
प्रवेश को जान
गया, वह हर
क्षण में उस
प्रवेश को
उपलब्ध हो
सकेगा। और एक
ही क्षण हमारे
पास होता है।
इसलिए बहुत अड़चन
नहीं है।
कुंजी पास
नहीं है, यही
अड़चन है।
निरंतर
स्मरण करने का
एक ही अर्थ है
कि जिसे क्षण
में भी स्मरण
करने की
क्षमता आ गई, वह निरंतर
स्मरण करने की
पात्रता पा ही
जाता है।
लेकिन क्षण
में भी स्मरण
की पात्रता
नहीं है।
और
ईश्वर को हम
अक्सर उधार
लेकर जीते
हैं। यह शब्द
भी हमने किसी
से सुन लिया
होता है। यह
प्रतिमा भी हमने
किसी से सीख
ली होती है।
यह परमात्मा
का रूप, लक्षण
भी हमने किसी
से सीख लिया
होता है। सब उधार
है। यह हमारे
प्राणों का आथेंटिक, प्रामाणिक
कोई अनुभव
नहीं होता है
पीछे। यह कहीं
हमारे
प्राणों की
अपनी प्रतीति
और साक्षात
नहीं होता है।
इसीलिए क्षण
में भी पूरा
नहीं हो पाता,
सतत और
निरंतर तो
पूरे होने का
कोई सवाल नहीं
है।
इसलिए
पहले सूत्र
में कृष्ण ने
कहा है कि जो अंतर-गुफा
में प्रवेश कर
जाए, एकांत को
उपलब्ध हो
जाए। और उसमें
एक शब्द छूट
गया, मुझे
अभी याद
दिलाया कि जो
अपरिग्रह
चित्त का हो।
उसकी मैं कल
बात नहीं कर
पाया, उसकी
भी थोड़ी आपसे
बात कर लूं।
एकांत
का मैंने अर्थ
आपको कहा।
जिसके भीतर भीड़
न रह जाए।
जिसके भीतर
दूसरे के
प्रतिबिंबों का
आकर्षण न रह
जाए। जिसके
भीतर दूसरों
के प्रतिबिंब
जैसे आईने से
हमने धूल साफ
कर दी हो, ऐसे
साफ कर दिए गए
हों। ऐसा
एकांत जिसके
मन में हो, वह
अंतर-गुहा में
प्रवेश कर
जाता है।
एक
शब्द और कृष्ण
ने कहा है, अपरिग्रही
चित्त वाला, अपरिग्रही
चित्त।
क्या
अर्थ होता है
अपरिग्रह का? सीधा-सादा
अर्थ शब्दकोश
में जो लिखा
होता है, वह
यह है कि जो
वस्तुओं का
संग्रह न करे।
लेकिन कृष्ण
का यह अर्थ
नहीं हो सकता।
नहीं हो सकता
इसलिए कि
कृष्ण, व्यक्ति
जीवन और संसार
को छोड़ जाए, इसके पक्ष
में नहीं हैं।
अगर सारी
वस्तुओं को छोड़
दे, तो
संसार और जीवन
छूट ही जाता
है। कृष्ण इस
पक्ष में भी
नहीं हैं कि
कर्म को छोड़कर
चला जाए। अगर
सारी वस्तुओं
को कोई छोड़कर
चला जाए, तो
कर्म भी अपने
आप छूट जाता
है। तो कृष्ण
का अर्थ अपरिग्रह
से कुछ और
होगा।
कृष्ण
का अर्थ है
अपरिग्रही
चित्त से, ऐसा चित्त
जो वस्तुओं का
उपयोग तो करता
है, लेकिन
वस्तुओं को
अपनी मालकियत
नहीं दे देता है।
जो वस्तुओं का
उपयोग तो करता
है, लेकिन
वस्तुओं का
मालिक ही बना
रहता है। कोई
वस्तु उसकी
मालिक नहीं हो
जाती। वस्तुओं
का उपयोग करता
है, लेकिन
वस्तुओं के
साथ कोई राग
का, कोई
आसक्ति का
संबंध
निर्मित नहीं
करता।
ऐसा
समझें कि जैसे
आपका नौकर
आपके घर में
वस्तुओं का
उपयोग करता
है। सम्हालकर
रखता है चीजों
को, सम्हालकर
उठाता है।
उनका उपयोग भी
करता है, काम
में भी लाता
है। लेकिन
आपकी कोई
बहुमूल्य चीज
खो जाए, तो
उसे कोई पीड़ा
नहीं होती।
यद्यपि आपसे
ज्यादा उस
वस्तु के
संपर्क में
नौकर को आने
का मौका मिला
था। शायद आपको
इतना मौका भी
न मिला हो। आपसे
ज्यादा उसने
उपयोग किया
था। लेकिन खो
जाए, टूट
जाए, नष्ट
हो जाए, चोरी
चली जाए, तो
नौकर को जरा
भी चिंता पैदा
नहीं होती। वह
रात शांति से
घर जाकर सो
जाता है। क्या,
बात क्या है?
वस्तु
का उपयोग तो
कर रहा था, लेकिन वस्तु
से किसी तरह
का रागात्मक
कोई संबंध न
था। लेकिन अगर
चीज टूट गई
हो--समझें कि
एक घड़ी फूट गई
हो, जिसे
वह रोज साफ
करता था और
चाबी देता था,
वह आज गिरकर
टूट गई हो।
नौकर को कुछ
भी भीतर नहीं
टूटेगा, क्योंकि
घड़ी ने भीतर
कोई स्थान
नहीं बनाया था।
लेकिन
टूटी हुई घड़ी
के बाद अगर आप
नौकर से कहें
कि यह तो बहुत
बुरा हो गया।
आज तो मैं सोच
रहा था कि
संध्या जाते
समय घड़ी
तुम्हें भेंट
कर दूंगा। तो
उस दिन उसकी
नींद हराम हो
जाएगी। घड़ी से
एक रागात्मक
संबंध
निर्मित हुआ।
नहीं थी घड़ी, उससे हो गया!
इतने दिन तक
घड़ी थी, घड़ी
का उपयोग किया
था, कोई
रागात्मक
संबंध न था।
आज घड़ी टूटकर
चूर-चूर हो गई
है। लेकिन
मालिक ने कहा
कि दुख, दुर्भाग्य
तुम्हारा, क्योंकि
सोचता था मैं
कि आज संध्या
यह घड़ी तुम्हें
भेंट कर
दूंगा। अब घड़ी
है नहीं, जो
भेंट की जा
सके। लेकिन
नौकर अब
चिंतित और दुखी
और पीड़ित होने
वाला है। होगा
इसलिए पीड़ित और
दुखी कि अब जो
घड़ी नहीं है, उससे भी एक
रागात्मक
संबंध
स्थापित हुआ।
वह मिल सकती
थी, मेरी
हो सकती थी।
अब भीतर उसने
जगह बनाई। अब
तक वह बाहर
दीवाल पर लटकी
थी, अब वह
हृदय के किसी
कोने में लटकी
है।
जब
वस्तुएं बाहर
होती हैं और
भीतर नहीं, जब उनका
उपयोग चलता हो,
लेकिन
आसक्ति
निर्मित न
होती हो, तब
कृष्ण का
अपरिग्रह
फलित होता है।
जीवन को जीना
है उसकी
समग्रता में,
लेकिन ऐसे,
जैसे कि
जीवन छू न
पाए। गुजरना
है वस्तुओं के
बीच से, व्यक्तियों
के बीच से, लेकिन
अस्पर्शित।
इसलिए
और जो
अपरिग्रह की
व्याख्याएं
हैं, वे सरल
हैं। कृष्ण की
व्याख्या
कठिन है। और
जो
व्याख्याएं
हैं, साधारण
हैं। ठीक है, जिन वस्तुओं
से मोह
निर्मित हो
जाता है, उनको
छोड़कर चले जाओ,
थोड़े दिन
में मन भूल
जाता है। बड़ी
से बड़ी चीज को
मन भूल जाता
है। छोड़ दो, हट जाओ, तो
मन की स्मृति
कमजोर है, कितने
दिन तक याद
रखेगा! भूल
जाएगा, विस्मरण
हो जाएगा। नए
राग बना लेगा,
पुराने राग
विस्मृत हो
जाएंगे।
आदमी
मर भी जाए
जिसे हमने
बहुत प्रेम
किया था, तो
कितने दिन, कितने दिन
स्मरण रह जाता
है? रोते
हैं, दुखी-पीड़ित
होते हैं। फिर
सब विस्मरण हो
जाता है, फिर
सब घाव भर
जाते हैं। फिर
नए राग, नए
संबंध
निर्मित हो
जाते हैं।
यात्रा पुनः शुरू
हो जाती है।
किसके मरने
से यात्रा
रुकती है! किस
चीज के खोने
से यात्रा
रुकती है! कुछ
रुकता नहीं; सब फिर चलने
लगता है पुनः।
जैसे थोड़ा-सा
बीच में भटकाव
आ जाता है; रास्ते
से जैसे गाड़ी
का चाक उतर
गया; फिर
उठाते हैं चाक
को, वापस
रख लेते हैं; गाड़ी फिर
चलने लगती है।
तो अगर
कोई वस्तुओं
को छोड़कर भाग
जाए, तो थोड़े
दिन में
उन्हें भूल
जाता है।
लेकिन भूल
जाना, मुक्त
हो जाना नहीं
है। भाग जाना,
मुक्त हो
जाना नहीं है।
सच तो यह है, भागता वही
है, जो
जानता है कि
मैं साथ रहकर
मुक्त न हो
सकूंगा।
अन्यथा भागने
का कोई
प्रयोजन नहीं
है। भागता वही
है, जो
अपने को कमजोर
पाता है।
हीरे-जवाहरात
का ढेर लगा
हो। मैं आंख
बंद कर लेता
हूं, इसलिए कि
अगर दिखाई
पड़ेगा, तो
बहुत मुश्किल
है कि मैं
अपने पर काबू
रख पाऊं।
आंख बंद करके
मैं यह नहीं
बताता हूं कि
मैं हीरे-जवाहरात
के प्रति
अनासक्त हूं;
केवल इतना
ही बताता हूं
कि बहुत दीन
हूं, बहुत
कमजोर हूं।
आंख खुली कि
आसक्ति
निर्मित हो
जानी
सुनिश्चित
है। इसलिए आंख
बंद करके बैठा
हूं। लेकिन
आंख बंद करने
से आसक्तियां
अगर मिटती
होतीं, तो
हम सब अपनी
आंखें फोड़
डालते और
मुक्त हो
जाते। तब तो
अंधे परम गति
को उपलब्ध हो
जाते!
इतना
सरल नहीं है।
ऐसे अपने को
धोखा तो दिया
जा सकता है, लेकिन
मुक्ति का
क्षण करीब
नहीं आता है।
भाग जाऊं
छोड़कर; यहां
हीरे-जवाहरात
रखे हैं; दूर
निकल जाऊं।
ठीक है, दूर
निकल जाऊंगा।
मौजूद नहीं
होगी चीज, मन
कहीं और उलझ
जाएगा। किसी
वृक्ष के नीचे
बैठकर किसी
अरण्य में कंकड़-पत्थर
बीनने लगूंगा,
उन्हीं का
ढेर सम्हालकर
रख लूंगा।
लेकिन इससे
छुटकारा नहीं
है।
कृष्ण
का अपरिग्रह
एक डीपर मीनिंग, एक गहरे
अर्थ को सूचित
करता है। वह
अर्थ है, वस्तुएं
जहां हैं, वहीं
रहने दो; तुम
जहां हो, वहीं
रहो; दोनों
के बीच सेतु
निर्मित मत
होने दो।
दोनों के बीच
कोई सेतु न बन
जाए, दोनों
के बीच आवागमन
न हो। तुम तुम
रहो; वस्तुओं
को वस्तुएं
रहने दो। न
तुम वस्तुओं के
हो जाओ, न
वस्तुओं को
समझो कि वे
तुम्हारी हो
गई हैं।
और ये
दोनों एक ही
चीज के दो
पहलू हैं। जिस
दिन आपने समझा, वस्तु मेरी
हो गई; आप
वस्तु के हो
गए। जिस दिन
आपने कहा कि
यह वस्तु मेरी
है, उस दिन
आप पक्का
जानना कि आप
भी वस्तु के
हो गए।
मालकियत
म्यूचुअल
होती है, पारस्परिक
होती है। आप
किसी को गुलाम
नहीं बना सकते
बिना उसके
गुलाम बने। यह
असंभव है। जब भी
आप किसी को
गुलाम बनाते
हैं, तो
आपको पता हो, न पता हो, आप
उसके गुलाम बन
जाते हैं।
गुलामी
पारस्परिक है।
हां, यह दूसरी
बात है कि एक
गुलाम कुर्सी
पर ऊपर बैठा
है, दूसरा
गुलाम कुर्सी
के नीचे बैठा
है। इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। कई बार
तो नीचे बैठा
हुआ ज्यादा
मुक्त होता है,
ऊपर बैठे
हुए से।
क्योंकि वह जो
नीचे बैठा है,
उसका काम
शायद कुर्सी
पर ऊपर बैठने
वाले आदमी के बिना
भी चल जाए।
लेकिन वह जो
कुर्सी के ऊपर
बैठा है, उसका
काम नीचे बैठे
वाले के बिना
नहीं चलने वाला
है। उसकी डिपेंडेंस
गहरी है, उसकी
पराधीनता
भारी है।
अगर हम
एक सम्राट के
सब गुलामों को
मुक्त कर दें, तो गुलाम
सम्राट की कोई
खास याद न
करेंगे।
कहेंगे, बहुत
अच्छा हुआ।
लेकिन सम्राट!
सम्राट दिन-रात
बेचैन और
चिंतित होगा;
क्योंकि
गुलामों के
बिना वह
ना-कुछ हो
जाता है। कुछ
भी नहीं है! और
गुलाम तो
सम्राट के
बिना कुछ
ज्यादा हो
जाएंगे; लेकिन
सम्राट
गुलामों के
बिना बहुत कम
हो जाएगा।
उसकी गुलामी
भारी है।
दिखाई नहीं
पड़ती। दिखाई न
पड़ने का उसने
इंतजाम कर रखा
है। वह गुलामों
की गर्दन दबाए
हुए है ऊपर से,
बिना इस बात
को समझे हुए
कि उसकी गर्दन
भी गुलामों के
हाथ में है।
सब
गुलामियां
पारस्परिक
होती हैं। सब
बंधन पारस्परिक
होते हैं।
देखा
है, रास्ते
से एक सिपाही
एक आदमी को हथकड़ियां
डालकर ले जा
रहा है। तो
दिखाई तो ऐसा
ही पड़ता है कि
सिपाही मालिक
है, हथकड़ियों में बंधा
हुआ गुलाम
गुलाम है, कैदी
है। लेकिन अगर
सिपाही उस
कैदी को छोड़कर
भाग खड़ा हो, तो कैदी
उसका पीछा
नहीं करेगा।
लेकिन अगर कैदी
भाग खड़ा हो, तो सिपाही
उसका पीछा
करेगा; जान
की आ जाएगी
उसके ऊपर। हथकड़ी
तो पड़ी थी
कैदी के हाथ
में, लेकिन
साथ ही वह
सिपाही के हाथ
में भी पड़ी
थी। महंगा पड़
जाएगा कैदी का
भागना। दोनों
बंधे हैं
पारस्परिक।
हां, एक
जरा कुर्सी पर
बैठा है, एक
जरा कुर्सी के
नीचे बैठा है।
दोनों बंधे
हैं।
जिस
चीज से भी हम
संबंध
निर्मित करते
हैं, सेतु बन
जाता है, और
सेतु बनाने के
लिए दो की
जरूरत पड़ती
है। जैसे नदी
पर हम सेतु
बनाते हैं, ब्रिज बनाते
हैं। एक
किनारे पर
पाया रखकर ब्रिज
न बनेगा।
दूसरे किनारे
पर भी रखना ही
होगा। दोनों
किनारों पर
पाए रखे जाएंगे,
तो सेतु
बनेगा। तो जब
भी हम किसी
वस्तु या किसी
व्यक्ति से
संबंध
निर्मित करते
हैं, तो एक
सेतु निर्मित
होता है। एक
किनारा हम होते
हैं, एक
किनारा वह
होता है।
कृष्ण
ने एक सेतु
तोड़ने के लिए
एकांत का
प्रयोग किया, वह सेतु है
व्यक्ति और
व्यक्ति के
बीच। दूसरा
सेतु तोड़ने के
लिए वह
अपरिग्रह का
प्रयोग करते
हैं, वह
सेतु है
व्यक्ति और
वस्तु के बीच।
और
ध्यान रहे, व्यक्ति और
व्यक्ति के
बीच सेतु
रोज-रोज कम होते
चले जाते हैं।
अपने आप ही कम
होते चले जाते
हैं। और
व्यक्ति और
वस्तु के बीच
सेतु बढ़ते चले
जाते हैं।
उसका कुछ कारण
है, वह मैं
आपको खयाल
दिला दूं।
यह बात
थोड़ी-सी अजीब
लगेगी, लेकिन
ऐसा हुआ है; ऐसा हो रहा
है। उसके होने
के बुनियादी
कारण हैं।
व्यक्ति और
व्यक्ति के
बीच सेतु रोज
कम होते चले
जाते हैं, क्योंकि
व्यक्तियों
के साथ सेतु
बनाने में बड़ी
झंझटें
और कांप्लेक्सिटीज
हैं, बड़ा
उपद्रव है।
सबसे
बड़ा उपद्रव तो
यही है कि
दूसरा भी
जीवित व्यक्ति
है। जब आप
उसको गुलाम
बनाने की
कोशिश करते
हैं, तब वह भी
बैठा नहीं
रहता। वह भी
जोर से अपना
जाल फेंकता
है। पति अपने
को कितना ही
कहता हो कि मैं
स्वामी हूं, मालिक हूं, बहुत गहरे
में जानता है कि
जिस दिन मालिक
बना है किसी
स्त्री का, उसी दिन वह
स्त्री मालिक
बन गई है, या
उसी दिन से
चेष्टा में
लगी है। सतत
संघर्ष चल रहा
है मालकियत की
घोषणा का कि
कौन मालिक है!
वह लड़ाई जिंदगीभर
जारी रहेगी।
व्यक्तियों
के साथ संघर्ष
स्वाभाविक है, क्योंकि सभी
स्वाधीन होना
चाहते हैं।
लेकिन नासमझी
के कारण किसी
को पराधीन
करके स्वाधीन
होना चाहते
हैं, जो कि
कभी नहीं हो
सकता। जिसने
दूसरे को
पराधीन किया,
वह स्वयं भी
पराधीन हो
जाएगा।
स्वाधीन तो
केवल वही हो
सकता है, जिसने
किसी को
पराधीन करने
की योजना ही
नहीं बनाई।
व्यक्ति
के साथ जटिलताएं
बढ़ती चली जाती
हैं, वस्तु के
साथ जटिल
मामला नहीं
है। आपने एक
कुर्सी घर में
लाकर रख दी है
एक कोने में, तो वहीं रखी
रहेगी। आप
ताला लगाकर
वर्षों बाद भी
लौटें, तो
कुर्सी वहीं
मिलेगी। बहुत
आज्ञाकारी है!
लेकिन एक
पत्नी को उस
तरह बिठा
जाएंगे, या
पति को या
बेटे को या
बेटी को, तो
यह असंभव है।
जब तक आप
लौटेंगे, तब
तक सब दुनिया
बदल चुकी
होगी। वहीं तो
नहीं मिलने
वाला है कोई
भी।
जीवित
व्यक्तित्व
की अपनी
आंतरिक
स्वतंत्रता
है, वह काम
करेगी। चेतना
है, वह काम
करेगी। वस्तु
से हम अपेक्षा
कर सकते हैं; व्यक्ति से
अपेक्षा करनी
बहुत कठिन है।
क्योंकि कल
व्यक्ति क्या
करेगा, नहीं
कहा जा सकता।
व्यक्ति अनप्रेडिक्टेबल
है। वस्तुओं
की
भविष्यवाणी
हो सकती है; व्यक्तियों
की
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
इसलिए
जितना मरा हुआ
आदमी होता है, उतना
ज्योतिषी
उसके बाबत सफल
हो जाता है
बताने में। जिंदा
आदमी हो, तो
बहुत मुश्किल
होती है। और
मुर्दों के
सिवाय
ज्योतिषियों
के पास कोई
जाता हुआ
दिखाई भी नहीं
पड़ता है!
जिंदा आदमी अनप्रेडिक्टेबल
है। कल क्या
होगा, नहीं
कहा जा सकता।
जिंदा आदमी एक
स्वतंत्रता है।
तो
व्यक्तियों
के साथ तो बड़ी
कठिनाई हो
जाती है, इसलिए
आदमी
धीरे-धीरे
व्यक्तियों
की मालकियत छोड़कर
वस्तुओं की
मालकियत पर
हटता चला जाता
है। तिजोड़ी
में एक करोड़
रुपया बंद है,
तो उनकी
मालकियत
ज्यादा
सुरक्षित
मालूम होती
है। और आप एक करोड़
लोगों का वोट
लेकर प्रधान
मंत्री बन गए
हैं, तो
पक्का मत
समझना कि अगले
इलेक्शन
में वे साथ
देने वाले
हैं! अनप्रेडिक्टेबल
हैं। वह एक करोड़
लोगों की
मालकियत
भरोसे की नहीं
है। वह एक करोड़
रुपए जो तिजोड़ी
में बंद हैं, भरोसे के
हैं। इस अर्थ
में भरोसे के
हैं कि मुर्दा
जड़ चीज है; मालकियत
आपकी है।
व्यक्तियों
के ऊपर
मालकियत खतरे
का सौदा है। इसलिए
जैसे-जैसे
आदमी के पास
समझ बढ़ती जाती
है--नासमझी से
भरी
समझ--वैसे-वैसे
वह
व्यक्तियों
से संबंध कम
और वस्तुओं से
संबंध बढ़ाए
चला जाता है।
इसलिए
बड़े परिवार
टूट गए।
क्योंकि बड़े
परिवारों में
बड़े
व्यक्तियों
का जाल था।
लोगों ने कहा, इतने बड़े
परिवार में
नहीं चलेगा।
व्यक्तिगत
परिवार
निर्मित हुए।
पति-पत्नी, एक-दो
बच्चे--पर्याप्त।
लेकिन अब वे
भी बिखर रहे
हैं। वे भी बच
नहीं सकते।
क्योंकि पति
और पत्नी के
बीच भी संबंध
बहुत जटिल
होता चला जाता
है। आने वाले
भविष्य में
शादी बचेगी, यह कहना
बहुत मुश्किल
है। सिर्फ वे
ही लोग कह सकते
हैं, जिन्हें
भविष्य का कोई
भी बोध नहीं
होता। बच नहीं
सकती है। खतरे
भारी पैदा हो
गए हैं। डर यही
है कि वह बिखर
जाएगी।
लेकिन
इसकी जगह
वस्तुओं का
परिग्रह बढ़ता
चला जाता है।
एक आदमी दो
मकान बना लेता
है, दस गाड़ियां
रख लेता है, हजार
रंग-ढंग के
कपड़े पहन लेता
है। घर में
समा लेता है।
चीजें इकट्ठी
करता चला जाता
है। चीजों पर
मालकियत सुगम
मालूम पड़ती है।
कोई झगड़ा
नहीं, कोई
झंझट नहीं।
चीजें जैसी
हैं, वैसी
रहती हैं। जो
कहो, वैसा
मानती हैं।
तो
धीरे-धीरे
आदमी चीजों की
मालकियत पर
ज्यादा उतरता
चला जाता है।
जितनी पुरानी
दुनिया में
जाएंगे, उतना
ही
व्यक्तियों
के संबंध
ज्यादा मालूम
पड़ेंगे।
जितनी आज की
दुनिया में
आएंगे, उतने
व्यक्तियों
के संबंध कम, और
व्यक्तियों
और वस्तुओं के
संबंध ज्यादा
हो जाएंगे।
इसलिए भविष्य
के लिए
अपरिग्रह का सूत्र
बहुत सोचने
जैसा है।
भविष्य में
परिग्रह भारी
होता जाएगा, होता जा रहा
है, रोज
बढ़ता जा रहा
है।
आज
योरोप में तो
लोग, आम
प्रचलित
कहावत हो गई
है कि
पति-पत्नी एक
बच्चे को पैदा
करें या न
करें, तो
सोचते हैं कि
एक बच्चा पैदा
करें कि एक
फ्रिज खरीद
लें? एक
बच्चा पैदा
करें कि एक और
नया माडल कार
का निकला है, वह खरीद लें?
एक बच्चा
पैदा करें कि टी.वी. का
एक सेट खरीद
लें? यह
विकल्प है!
क्योंकि एक
बच्चा इतना
खर्चा लाएगा,
उससे तो कार
का नया माडल
खरीदा जा सकता
है। और कार
ज्यादा भरोसे
की है। ज्यादा
भरोसे की है। जहां
चाहो, वहां
खड़ा करो; जहां
चाहो, मत
खड़ा करो। जो
व्यवहार करना
चाहो, करो।
रिटेलिएट
नहीं करती, उत्तर भी
नहीं देती, झंझट भी
नहीं करती।
गुस्सा आ आए, गाली दो, लात
मार दो; चुपचाप
सह लेती है।
तो
वस्तुओं पर
हमारा आग्रह
बढ़ता चला जाता
है। आदमी अपने
चारों तरफ
वस्तुओं का एक
जाल इकट्ठा
करके सम्राट
होकर बैठ जाता
है बीच में कि
मैं मालिक
हूं।
व्यक्तियों
को इकट्ठा करके
ऐसी मालकियत
बड़ी कठिन है!
प्रौढ़
व्यक्तियों को
इकट्ठा करके, तो बहुत
कठिन है।
प्राइमरी
स्कूल के
शिक्षक से
पूछो कि तीस
छोटे-से बच्चे
इकट्ठे हो
जाते हैं
चारों तरफ, तो कैसी
मुसीबत पैदा
हो जाती है।
जरा-जरा से बच्चे,
लेकिन
शिक्षक की जान
ऐसी अटकी रहती
है कि वह घंटे
की राह देखता
रहता है कि कब
घंटा बजे और
वह भागे!
क्योंकि तीस
जीवित बच्चे!
जरा सिर मोड़कर
तख्ते पर कुछ
लिखना शुरू
करता है कि
यहां बगावत
फैल जाती है।
वैसे
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
तख्ते को इसीलिए
ऐसा बनाया है
कि शिक्षक
बीच-बीच में
पीठ कर पाए।
क्योंकि अगर
छः-सात घंटे
वह पीठ ही न
करे, तो
बच्चों को
इतना सप्रेस
करना पड़े अपने
आपको कि वे
बीमार पड़
जाएं। तो
रिलीफ के लिए
मौका मिल जाता
है। पीठ करके
तख्ते पर
लिखता है, तब
तक कोई मजाक
में कुछ कह
देता है, कोई
पत्थर उछाल
देता है, कोई
चोट कर देता
है, कोई
आंख मिचका
देता है, बच्चे
रिलैक्स हो
जाते हैं। तब
तक शिक्षक वापस
लौटता है; फिर
पढ़ाई शुरू हो
जाती है। वह
बच्चों के लिए
बड़ा सहयोगी है
तख्ता, जिसकी
वजह से शिक्षक
को बीच-बीच
में मुड़ना
पड़ता है।
लेकिन ये
जिंदा बच्चे
हैं, इन पर
मालकियत!
छोटे-से
बच्चे पर भी
मालकियत करनी
बहुत मुश्किल
बात है।
मां-बाप भी
छोटे-छोटे
बच्चों को
फुसलाते हैं
और रिश्वत
खिलाते हैं।
हां, रिश्वत
बच्चों जैसी
होती है, चाकलेट
है, टाफी है। बाप घर
लौटता है, तो
सोच लेता है
कि आज क्या
रिश्वत ले
चलनी है। क्योंकि
बच्चा दरवाजे
पर खड़ा होगा।
छोटा-सा बच्चा,
जिसकी अभी
जीवन की कोई
ताकत नहीं, कुछ नहीं।
उससे भी बाप
डरता है घर
लौटते वक्त।
छोटे-छोटे
बच्चों से भी
बाप और मां को
झूठ बोलना
पड़ता है।
पिक्चर देखने
जाते हैं, तो
कहते हैं, गीता
ज्ञान सत्र
में जा रहे
हैं!
व्यक्ति
के साथ संबंध
बनाना जटिल
बात है।
छोटा-सा जीवित
व्यक्ति और जटिलताएं
शुरू हो जाती
हैं। तो हम
फिर
व्यक्तियों
को हटाना शुरू
कर देते हैं।
हटा दो
व्यक्ति को, वस्तुओं से
संबंध बना लो।
घर में जाओ, जहां भी नजर डालो, आप
ही मालिक हो। कुर्सियां
रखी हैं, फर्नीचर
रखा है, फ्रिज
रखा है, कार
रखी है, रेडिओ रखे हैं। आप
बिलकुल मालिक
की तरह हैं।
जहां भी नजर डालो, मालिक
हैं। तो
वस्तुएं बढ़ती
जाती हैं, व्यक्ति
से संबंध
क्षीण होते
चले जाते हैं।
सभ्यता जब
विकसित होती
है, तो
वस्तुओं से
संबंध रह जाते
हैं आदमियों
के और आदमियों
से खो जाते
हैं।
इसलिए
दूसरे सूत्र
को जानकर
मैंने फिर से
कह देना चाहा, वह छूट गया
था, कि
अपरिग्रह।
अपरिग्रही
चित्त वह है, जो वस्तुओं
की मालकियत
में किसी तरह
का रस नहीं
लेता।
उपयोगिता अलग
बात है, रस
अलग बात है।
वस्तुओं में
जो रस नहीं
लेता, वस्तुओं
के साथ जो
किसी तरह की
गुलामी के
संबंध निर्मित
नहीं करता, वस्तुओं के
साथ जिसका कोई
इनफैचुएशन,
वस्तुओं के
साथ जिसका कोई
रोमांस नहीं
चलता।
रोमांस
चलता है
वस्तुओं के
साथ। जब आप
कभी नई कार
खरीदने का
सोचते हैं, तो बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। स्थिति
करीब-करीब वैसे
हो जाती है, जैसे कोई
नया व्यक्ति
किसी नई लड़की
के प्रेम में
पड़ जाता है और
रात सपने
देखता है। कार
उसी तरह सपनों
में आने लगती
है! वस्तुओं
का भी इनफैचुएशन
है। उनके साथ
भी रोमांस चल
पड़ता है। यह
वस्तुओं में
रस न हो, वस्तुओं
का उपयोग हो।
और
ध्यान रहे, वस्तुओं में
जितना ज्यादा
रस होगा, आप
उतना ही कम
उपयोग कर
पाएंगे।
जितना कम रस
होगा वस्तु का,
उतना पूरा
उपयोग कर
पाएंगे।
क्योंकि
उपयोग के लिए
एक डिटैचमेंट,
एक अनासक्त
दूरी जरूरी
है।
मैं एक
मित्र को
जानता हूं। दस
साल से मैं
उनके बरांडे
में एक स्कूटर
को रखा हुआ
देखता हूं।
दो-चार बार
पहले पहल
मैंने पूछा कि
क्या स्कूटर
बिगड़ गया है? उन्होंने
कहा, ऐसा
दुश्मन का न बिगड़े!
स्कूटर बिगड़ा
नहीं है। फिर
मैं चुप रह
गया। कई बार
उनको देखा कि
बरांडे में ही
खड़े स्कूटर को
स्टार्ट करके,
फिर बंद
करके, भीतर
चले जाते हैं!
मैंने पूछा कि
बात क्या है? कभी निकालते
नहीं!
इनफैचुएशन
है भारी उनका।
स्कूटर क्या
है, उनकी
प्रेयसी है।
उसको ऐसा
सम्हालकर, पोंछत्तांछकर रख देते हैं,
निकालते
नहीं। निकलते
तो अपनी फटी
साइकिल पर ही
हैं। जब
निकलते हैं, उसी पर!
मैंने कई दफा
देखा। मैंने
कहा, यह
स्कूटर किसलिए
है? वे
बोले कि कभी
समय-बेसमय!
लेकिन आज तो
वर्षा हो रही
है, तो
नाहक रंग खराब
हो जाएगा। कभी
धूप तेजी होती
है, तो
नाहक रंग खराब
हो जाएगा।
मैंने उनका
स्कूटर
निकलते नहीं
देखा है।
सभी के
पास ऐसी
स्कूटर जैसी
थोड़ी-बहुत
चीजें होंगी।
सभी के पास।
वह आप रखे हुए
हैं सम्हालकर।
स्त्रियों के
पास बहुत हैं।
उसका कारण है।
क्योंकि
पुरुष तो बाहर
के जगत में
व्यक्तियों
से बहुत तरह
के संबंध बना
लेते हैं।
स्त्रियों के
हमने पुरुषों
से सब तरह के
संबंध तुड़वा
दिए हैं। उनको
घर के भीतर
बंद कर दिया
है।
तो
पुरुषों के
जगत में तो
बहुत तरह के
संबंध हो पाते
हैं--दल है, क्लब है, पार्टी
है, संघ है,
मित्र है, फलां हैं, ढिकां हैं, हजार उपाय
हैं। और पुरुष
बाहर की
दुनिया में घूमकर
बहुत तरह के
संबंध
निर्मित करता
रहता है।
लेकिन स्त्री
को हमने घर
में बंद कर
दिया। तो उसके
हम किसी तरह
के बाहर जगत
से संबंध निर्मित
नहीं होने
देते। तो उसकी
जो संबंध
बनाने की जो
प्यास है, अतृप्ति
है, वह
वस्तुओं पर
निकलती है।
इसलिए
स्त्रियां वस्तुओं
के लिए बिलकुल
इनफैचुएटेड
हो जाती हैं।
मेरे
पास कई
स्त्रियां
आती हैं, वे
कहती हैं, संन्यास
हमें लेना है,
लेकिन
दिक्कत सिर्फ
एक है कि तीन
सौ साड़ियां!
और कोई दिक्कत
नहीं है; और
हमें कोई कष्ट
ही नहीं है
संन्यास में।
सिर्फ कठिनाई यह
है कि इन तीन
सौ साड़ियों
का क्या होगा!
एक का मामला
नहीं है, न
मालूम कितनी
स्त्रियों ने
मुझे आकर कहा
कि संन्यास की
बात बिलकुल
जमती है मन को,
सब ठीक है, लेकिन...! तब
उनका कमजोर
हिस्सा आ जाता
है, साफ्ट-कार्नर,
वे साड़ियां!
वह इनफैचुएशन
है।
उसका
कारण है कि
पुरुषों ने जो
जगत बनाया है, उसमें
स्त्रियों को
व्यक्तियों
से संबंध बनाने
के सब दरवाजे
बंद कर दिए, तो उसने
वस्तुओं से
अपना संबंध
बना लिया। वह
वस्तुओं के
लिए दीवानी
है। पति को
सजा हो जाए, उनको हीरे
की अंगूठी
चाहिए। चलेगा,
पति तो सालभर
बाद वापस आ
जाएगा; ऐसी
क्या अड़चन है!
लेकिन हीरे की
अंगूठी! वस्तुओं
से इतना गहरा
संबंध, उसका
कारण भी वही
है।
व्यक्तियों
से संबंध बनाने
का उपाय न
होने से सारी
की सारी चेतना
वस्तुओं से
संबंध
निर्मित करने
में लग गई है।
अपरिग्रह
का अर्थ है, वस्तुओं में
रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं है।
वस्तुएं हैं,
उनका उपयोग
ठीक है। हीरे
की अंगूठी है,
तो पहन लें;
और नहीं है,
तो नहीं।
हीरे की
अंगूठी है, तो ठीक; नहीं
है, तो न
होना ठीक। जिस
दिन ये दोनों
बातें एक-सी हो
जाएं और खिलवाड़
हो जाए कि
हीरे की
अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, तो
घास की अंगूठी
भी बनाकर पहनी
जा सकती है; और बिलकुल न
हो, तो
नंगी अंगुली
का अपना
सौंदर्य है।
इतनी सरलता से
चित्त चलता हो
वस्तुओं के
बीच में, तो
अपरिग्रही
चित्त है।
भागा हुआ नहीं,
वस्तुओं के
बीच जीता हुआ।
लेकिन रसमुक्त।
उपयोग करता है,
लेकिन
आसक्त नहीं, विक्षिप्त
नहीं, पागल
नहीं है।
और वही
व्यक्ति
उपयोग कर पाता
है, जो
विक्षिप्त
नहीं है। जो
विक्षिप्त है,
वह तो उपयोग
कर ही नहीं
पाता। उसका
उपयोग तो वस्तु
कर लेती है।
वस्तु को
सम्हालकर
रखता है, सेवा
करता है, झाड़ता-पोंछता
है। और सपने
देखता रहता है
कि कभी
पहनूंगा, कभी
पहनूंगा। वह
कभी कभी नहीं
आता। और वह
वस्तु हंसती
होगी, अगर
हंस सकती
होगी।
अपरिग्रही
चित्त, एकांत
में जीने वाला
चित्त ही
प्रभु के सतत
स्मरण में उतर
सकता है। और
सतत स्मरण में
उतरने का अर्थ
है, एक
क्षण भी अगर
पूर्ण स्मरण
में उतर जाए, तो सतत
स्मरण बन जाता
है। भूला नहीं
जा सकता; भूलने
का उपाय नहीं
है।
प्रभु
की एक झलक मिल
जाए, तो भूलने
का उपाय नहीं
है। एक क्षण
भी द्वार खुल
जाए और हम देख
लें कि वह है, फिर कोई
हर्ज नहीं है।
हम कभी न देख
पाएं, तो
भी भीतर उसकी
धुन बजती ही
रहेगी।
श्वास-श्वास
जानती ही
रहेगी, रोआं-रोआं
पहचानता ही
रहेगा कि वही
है, वही है,
वही है।
पूरे जीवन की
यह धुन बन
जाएगी कि वही
है। लेकिन एक
क्षण भी!
कृष्ण
कहते हैं, सतत, प्रतिक्षण,
निरंतर, व्यवधान
न हो जरा भी, तब मुझमें
प्रतिष्ठा
है।
एक
क्षण भी हो
जाए, तो
निरंतर हो
जाएगा। एक
क्षण कैसे हो
जाए? कहां
जाएं हम उस
क्षण को पाने
के लिए? वह
मोमेंट, वह
क्षण कहां
मिले कि एक
बार दरस-परस
हो जाए, एक
बार आंख के
सामने आ जाए
उसकी छवि? एक
बार हम स्वाद
ले लें उसके
आलिंगन का, एक क्षण के
लिए--कहां
जाएं? कहां
खोजें?
स्वयं
के ही अंदर।
उसके
अतिरिक्त
कहीं कोई और
उससे मिलन न
होगा। अपने ही
भीतर। और अपने
भीतर जाना हो, तो जो-जो
बाहर है, उसके
इलीमिनेशन के
अतिरिक्त और
कोई विधि नहीं
है। जो-जो
बाहर है, यह
मैं नहीं हूं,
यह मैं नहीं
हूं, इस
बोध के
अतिरिक्त
भीतर जाने का
कोई उपाय नहीं
है।
सुनी
है मैंने एक
छोटी-सी कहानी, वह मैं आपसे
कहूं, फिर
मैं दूसरा
सूत्र लूं।
एक झेन
फकीर हुआ।
उसके पास, उसके मंदिर
में जहां वह
ठहरता है, उसके
वृक्ष के नीचे
जहां वह
विश्राम करता
है, दूर-दूर
से साधक आते
हैं। दूर-दूर
से साधक आते हैं,
उससे पूछते
हैं, ध्यान
की कोई विधि।
वह उन्हें
ध्यान की विधियां
बताता है। वह
उन्हें कोई
सूत्र देता है
कि जाकर इस पर
ध्यान करो।
एक
छोटा-सा बच्चा
भी कभी-कभी उस
वृक्ष के नीचे
आकर बैठ जाता
है। कभी उसके
मंदिर में आ
जाता है। बारह
साल उसकी उम्र
होगी। वह भी
सुनता है बड़े
ध्यान से
बैठकर। बड़ी
बातें! उसकी
समझ में नहीं
भी पड़ती हैं, पड़ती भी
हैं। क्योंकि
कुछ नहीं कहा
जा सकता।
कई बार
जिनको लगता है
कि समझ में पड़
रहा है, उन्हें
कुछ भी समझ
नहीं पड़ता। और
कई बार जिन्हें
लगता है कि
कुछ समझ में
नहीं पड़ रहा
है, उन्हें
भी कुछ समझ
में पड़ जाता
है। बहुत बार
ऐसा ही होता
है कि जिसे
लगता है, कुछ
समझ में नहीं
पड़ रहा
है--इतना भी
समझ में पड़
जाना कोई छोटी
समझ नहीं है।
वह
छोटा बच्चा
आकर बैठता है।
कोई साधक, कोई
संन्यासी, कोई
योगी आकर झेन
फकीर से ध्यान
के लिए कोई विषय,
कोई आब्जेक्ट
मांगता है। वह
देखता रहता
है। उसने देखा
कि जब भी कोई
साधक आता है, तो मंदिर का
घंटा बजाता है,
झुककर तीन
बार नमस्कार
करता है, झुककर
विनम्र भाव से
बैठता है; आदर
से प्रश्न
पूछता है, मंत्र
लेता है, विदा
होता है। फिर
साधना करके, वापस लौटकर
खबर देता है।
एक दिन
सुबह वह बच्चा
भी उठा, स्नान
किया, फूल
लिए हाथ में, आकर जोर से
मंदिर का घंटा
बजाया। झेन
फकीर ने ऊपर
आंख उठाकर
देखा कि शायद
कोई साधक आया।
लेकिन देखा, वह छोटा
बच्चा है, जो
कभी-कभी आ
जाता है। आकर
तीन बार झुककर
नमस्कार
किया। फूल
चरणों में
रखे। हाथ जोड़कर
कहा कि मुझे
भी वह मार्ग
बताएं, जिससे
मैं ध्यान को
उपलब्ध हो
सकूं।
उस
गुरु ने बहुत
बड़े-बड़े
साधकों को
मार्ग बताया
था, इस छोटे
बच्चे को क्या
मार्ग बताए!
लेकिन विधि
उसने पूरी कर
दी थी, इनकार
किया नहीं जा
सकता था। ठीक
व्यवस्था से घंटा
बजाया था। हाथ
जोड़कर
नमस्कार किया
था। चरणों में
फूल रखे थे।
विनम्र भाव से
बैठकर
प्रार्थना की थी
कि आज्ञा दें,
मैं क्या
करूं कि ध्यान
को उपलब्ध हो
जाऊं, प्रभु
का स्मरण आ
जाए। उस
छोटे-से बच्चे
के लिए कौन-सी
विधि बताई
जाए!
उस
गुरु ने कहा, तू एक काम कर,
दोनों हाथ
जोर से बजा।
लड़के ने दोनों
हाथ की ताली बजाई।
गुरु ने कहा
कि ठीक। आवाज
बिलकुल ठीक
बजी। ताली तू
बजा लेता है।
अब एक हाथ
नीचे रख ले।
अब एक ही हाथ
से ताली बजा।
उस बच्चे ने
कहा, बहुत
कठिन मालूम
पड़ता है। एक
हाथ से ताली
कैसे बजाऊं? तो उस गुरु
ने कहा, यही
तेरे लिए
मंत्र हुआ। अब
इस पर तू
ध्यान कर। और
जब तुझे पता
चल जाए कि एक
हाथ से ताली
कैसे बजेगी, तब तू आकर
मुझे बता
देना।
बच्चा
गया। उस दिन
उसने खाना भी
नहीं खाया। वह
वृक्ष के नीचे
बैठकर सोचने
लगा, एक हाथ की
ताली कैसे
बजेगी? बहुत
सोचा, बहुत
सोचा।
आप
कहेंगे, कहां
के पागलपन के
सवाल को उसे
दे दिया। सभी
सवाल पागलपन
के हैं। कोई
भी सवाल कभी
सोचा होगा, इससे कम पागलपन
का नहीं रहा
होगा।
कोई
सोच रहा है, जगत को
किसने बनाया?
क्या एक हाथ
से ताली बजाने
वाले सवाल से
कोई बहुत
बेहतर सवाल
है! कोई सोच
रहा है कि
आत्मा कहां से
आई? एक हाथ
से ताली बजाने
के सवाल से
कोई ज्यादा अर्थपूर्ण
सवाल है!
लेकिन
उस बच्चे ने
बड़े सदभाव
से सोचा। सोचा, रात उसे
खयाल आया कि
ठीक। मेंढक
आवाज करते थे।
उसने भी मेंढक
की आवाज मुंह
से की। और
उसने कहा कि
ठीक। यही आवाज
होनी चाहिए एक
हाथ की।
आकर
सुबह घंटा
बजाया।
विनम्र भाव से
बैठकर उसने
आवाज की मुंह
से, जैसे
मेंढक
टर्राते हों।
और गुरु से
कहा, देखिए,
यही है न
आवाज, जिसकी
आप बात करते
थे? गुरु
ने कहा कि
नहीं, यह
तो पागल मेंढक
की आवाज है।
एक हाथ की
ताली की आवाज!
दूसरे
दिन फिर सोचकर
आया; तीसरे
दिन फिर सोचकर
आया। कुछ-कुछ
लाया, रोज-रोज
लाया। यह है
आवाज, यह
है आवाज। गुरु
रोज कहता गया,
यह भी नहीं,
यह भी नहीं,
यह भी नहीं।
वर्ष बीतने को
पूरा हो गया।
वह रोज खोजकर
लाता रहा। कभी
कहता कि
झींगुर की
आवाज, कभी
कहता कि
वृक्षों के
बीच से गुजरती
हुई हवा की
आवाज। कभी
कहता कि
वृक्षों से
गिरते हुए पत्तों
की आवाज। कभी
कहता कि वर्षा
में पानी की
आवाज छप्पर
पर। बहुत
आवाजें लाया,
लेकिन सब
आवाजें गुरु
इनकार करता
गया। कहा कि
नहीं, यह
भी नहीं, यह
भी नहीं।
फिर
उसने आना बंद
कर दिया। फिर
बहुत दिन गए
वापस लौटा।
घंटा बजाया।
पैरों में फिर
फूल रखे। हाथ जोड़कर
चुपचाप पास
बैठ गया। गुरु
ने कहा, लाए
कोई उत्तर? आवाज खोजी
कोई? उसने
सिर्फ आंखें
उठाकर गुरु की
तरफ देखा--मौन,
चुप। गुरु
ने कहा, ठीक
है। यही है
आवाज--मौन, चुप।
गुरु ने कहा, यही है
आवाज। तुझे
पता चल गया, एक हाथ की
आवाज कैसी
होती है। अब
तुझे और भी कुछ
आगे खोज करना
है?
उसने
कहा, लेकिन अब
आगे खोज करने
को कुछ भी न
बचा। एक-एक आवाज
को, खोज को,
आप इनकार
करते गए, इनकार
करते गए, इनकार
करते गए। सब
आवाजें गिरती
गईं। फिर सिवाय
मौन के कुछ भी
न बचा। पिछले महीनेभर
से मैं बिलकुल
मौन ही बैठा
हूं। कोई आवाज
ही नहीं सूझती;
कोई शब्द ही
नहीं आता; मौन
ही मौन! और अब
मुझे कुछ भी
नहीं चाहिए।
एक हाथ की
आवाज जान पाया,
नहीं जान
पाया, मुझे
पता नहीं।
लेकिन इस मौन
में मैंने जो
देखा, जो
जाना, शायद
लोग उसी को
परमात्मा
कहते हैं।
एक-एक
चीज को इनकार
करते चले जाना
पड़ेगा। किसी
से भी शुरू
करें। शरीर से
शुरू करें, तो जानना
पड़ेगा कि शरीर
नहीं है। भीतर
जाएं, श्वास
मिलेगी।
जानना पड़ेगा,
श्वास भी वह
नहीं है। और
भीतर जाएं, विचार
मिलेंगे।
जानना पड़ेगा,
विचार भी वह
नहीं है। और
भीतर जाएं, वृत्तियां
मिलेंगी।
जानना पड़ेगा,
वृत्तियां
भी वह नहीं
है। और उतरते
जाएं, और
उतरते जाएं।
भाव मिलेंगे,
जानें कि
भाव भी वह
नहीं है।
उतरते जाएं
गहरे-गहरे
कुएं में!
एक घड़ी
ऐसी आ जाएगी
कि इनकार करने
को कुछ भी न
बचेगा, सन्नाटा
और शून्य रह
जाएगा। आ गई
अंतर-गुफा, जहां अब यह
भी कहने को
नहीं बचा कि
यह भी नहीं है।
वहीं, उसी
क्षण, उसी
क्षण वह
विस्फोट हो
जाता है, जिसमें
प्रभु का
अनुभव होता
है। बस, वह
अनुभव एक क्षण
को हो जाए, फिर
निरंतर
श्वास-श्वास,
रोएं-रोएं,
उठते-बैठते,
सोते-जागते
वह गूंजने
लगता है। तब
है स्मरण निरंतर।
और
कृष्ण कहते
हैं, ऐसे
निरंतर स्मरण
को उपलब्ध
व्यक्ति ही
मुझमें
प्रतिष्ठित
होता है, प्रभु
में
प्रतिष्ठित
होता है। या
उलटा कहें तो
भी ठीक कि ऐसे
व्यक्ति में,
ऐसे निराकार,
शून्य हो गए
व्यक्ति में,
ऐसे सतत
सुरति से भर
गए व्यक्ति
में प्रभु प्रतिष्ठित
हो जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, पिछले
दो श्लोकों
में एक
छोटी-सी पर
विशेष बात रह
गई है। उसमें
कहा गया है
ध्यान के साधक
के लिए--विशेष
आसन, शुद्ध
भूमि, सीधा
शरीर, और नासिकाग्र
दृष्टि और
ब्रह्मचर्य
व्रत। उसके
बाद कहा गया
है, भयरहित
और अच्छी
प्रकार शांत
अंतःकरण
वाला। भयरहित
का साधक के
लिए क्या अर्थ
होगा, कृपया
इसे स्पष्ट
करें।
भयरहित
और अच्छी
प्रकार शांत
चित्त वाला!
महत्वपूर्ण
है यह, काफी
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
भय जिसे है, वह परमात्मा
में प्रवेश न
कर पाएगा।
क्यों? तो
भय को थोड़ा
समझ लेना
पड़ेगा। भय है
क्या? वस्तुतः
भय का मूल
आधार क्या है?
भयभीत
क्यों हैं हम?
क्या है मूल
कारण जिससे
सारे भय का
जन्म होता है?
बीमारी
का भय है।
दिवालिया हो
जाने का भय
है। इज्जत मिट
जाने का भय
है। हजार-हजार
भय हैं। लेकिन
भय तो गहरे
में एक ही है, वह मृत्यु
का भय है।
बीमारी भी
भयभीत करती है,
क्योंकि
बीमारी में
मृत्यु का
आंशिक दर्शन शुरू
हो जाता है।
गरीबी भयभीत
करती है, क्योंकि
गरीबी में भी
मृत्यु का
आंशिक दर्शन शुरू
हो जाता है।
अप्रतिष्ठा
भयभीत करती है,
क्योंकि
अप्रतिष्ठा
में भी मृत्यु
का आंशिक अंश
दिखाई पड़ने
लगता है।
जहां-जहां
भय है, वहां-वहां
मृत्यु का कोई
अंश दिखाई
पड़ता है। प्रत्यक्ष
न भी दिखाई
पड़े, थोड़ा
खोज करेंगे, तो दिखाई पड़
जाएगा कि मैं
भयभीत क्यों
हूं। कहीं न
कहीं कुछ
मुझमें मरता
है, तो मैं
भयभीत होता
हूं। चाहे
मेरा धन छूटता
हो, तो धन
के कारण जो
सुरक्षा थी
भविष्य में कि
कल भी भोजन
मिलेगा, मकान
मिलेगा, मर
नहीं जाऊंगा।
धन छिनता है, तो कल खतरा
खड़ा हो जाता
है कि कल अगर
भोजन न मिला
तो? प्रतिष्ठा
है; धन न हो
पास में, तो
भी आशा कर
सकता हूं कि
कल कोई साथ देगा,
कल कोई
सहयोग देगा।
लेकिन
प्रतिष्ठा भी
खो जाए, तो
डर लगता है कि
कल इस बड़े जगत
में कोई
साथी-संगी न
होगा, तो
क्या होगा?
जहां
भी भय है, वहां
थोड़ी-सी भी
खोज करेंगे, थोड़ा-सा
खोजेंगे, तो
स्किन डीप कुछ
और कारण भला
हो, लेकिन
जरा-सी खरोंच
के बाद गहरे
में मृत्यु
खड़ी हुई दिखाई
पड़ेगी।
मृत्यु ही भय
है। और सब भय
उसके ही हलके डोज हैं।
उसकी ही हलकी
मात्राएं
हैं। मृत्यु
का भय एकमात्र
भय है।
कृष्ण
कहते हैं कि
अभय को उपलब्ध
हो कोई, भयरहित
हो कोई, तो
ही ध्यान में
गति है, तो
ही समाधि में
चरण पड़ेंगे।
तो क्या बात
है? यहां
समाधि और
ध्यान में भय
को लाने की
क्या जरूरत? यहां मौत का
सवाल कहां है?
यहां
है। मौत का
सवाल है, महामृत्यु का सवाल है।
क्योंकि
साधारण
मृत्यु में तो
सिर्फ शरीर
मिटता है, आप
नहीं मिटते।
सिर्फ वस्त्र
बदलते हैं, आप नहीं
बदलते। आप तो
फिर, पुनः,
पुनः-पुनः
नए शरीर, नए
वस्त्र धारण
करते चले जाते
हैं।
तो
साधारण
मृत्यु, जो
जानते हैं, उनकी दृष्टि
में मृत्यु
नहीं, केवल
शरीर का
परिवर्तन है।
गृह परिवर्तन
है, नए घर
में प्रवेश है,
पुराने घर
का त्याग है।
लेकिन ध्यान
में महामृत्यु
घटित होती है।
आप भी मरते
हैं, शरीर
ही नहीं मरता।
आप भी मरते
हैं, मैं
भी मरता है।
वह अहंकार और
ईगो भी मरती
है, मन
मरता है।
स्वभावतः, जब शरीर के
ही मरने में
इतना भय लगता
है, तो मन
के मरने में
कितना भय न
लगता होगा! और
इसलिए अभय हुए
बिना कोई
ध्यान में
प्रवेश न कर
सकेगा।
जैसा
कृष्ण ने कहा
भयरहित, ऐसा
ही महावीर ने
अभय को पहला
सूत्र कहा है।
अभय हुए बिना
कोई ध्यान में
न जा सकेगा।
क्योंकि थोड़ी
ही देर, थोड़ी
ही भीतर गति
होगी और पता
चलेगा, यह
तो मृत्यु
घटने लगी।
ध्यान
के अनुभव में
मृत्यु का
अनुभव आता ही
है, अनिवार्य
है। उससे कोई
बचकर नहीं
निकल सकता। जब
आप ध्यान में
गहरे उतरेंगे,
तो वह घड़ी आ
जाएगी जहां
लगेगा, कहीं
ऐसा तो न होगा
कि मैं मर
जाऊं। लौट
चलूं वापस, यह किस
उपद्रव में पड़
गया! वापस लौटो।
ध्यान
से न मालूम
कितने लोग
वापस लौट आते
हैं। सिर्फ
भीतर वह जो
मृत्यु का भय पकड़ता है, उसकी वजह से
वापस लौट आते
हैं। और मजा
यह है कि वही
क्षण है पार
होने का। उसी
क्षण में अगर
आप निर्भय
प्रवेश कर गए,
तो आप समाधि
में पहुंच
जाएंगे। और
अगर उससे आप
वापस लौट आए, तो जहां आप
थे, वहीं आ
जाएंगे। और एक
खतरा और ले
आएंगे। वह यह कि
अब ध्यान में
जाने की
हिम्मत भी न
कर सकेंगे, क्योंकि वह
मृत्यु का डर
अब और गहरा और
साफ हो जाएगा।
जब
ध्यान में
मृत्यु की
प्रतीति होती
है, तब आप
अमृत के द्वार
पर खड़े हैं।
अगर भयभीत हो गए,
तो द्वार से
वापस लौट आए।
और अगर प्रवेश
कर गए, तो
अमृत में
प्रवेश कर गए।
फिर कोई
मृत्यु नहीं
है।
मृत्यु
में प्रवेश
करके ही अमृत
का अनुभव होता
है। मिटकर
ही जानना पड़ता
है उसे, जो
है। स्वयं को
खोकर ही पाना
पड़ता है उसे, जो सर्व है।
इसलिए
ठीक है कृष्ण
अगर कहें कि
भयरहित चित्त से
ही प्रवेश
संभव है।
इधर
मेरा रोज का
अनुभव है। सैकड़ों
व्यक्ति
कितनी आतुरता
और कितनी
प्यास से ध्यान
में प्रवेश
करते हैं, लेकिन शीघ्र
ही...। जो
ज्यादा श्रम
नहीं करते, उनको तो
अड़चन नहीं आती,
क्योंकि वे
उस बिंदु तक
भी नहीं
पहुंचते, जहां
मृत्यु का
अनुभव हो।
लेकिन जो जरा
ज्यादा श्रम
करते हैं, वे
उस बिंदु पर
पहुंच जाते
हैं, जहां
मृत्यु दिखाई
पड़ने लगती है
कि मैं मरा, मैं गया। अब
अगर एक कदम
आगे बढ़ता हूं
भीतर, तो
अब मैं नहीं
बचूंगा। सब
टूट-फूटकर
बिखर जाएगा।
फिर लौट नहीं
सकूंगा। यह
प्रतीति इतनी प्रगाढ़
होती है, यह
पूरे प्राणों
को इस भांति
पकड़ लेती है
कि साधक भागकर
बाहर आ जाता
है। यह रोज
घटता है।
इसलिए
ध्यान में
जाने वाले
साधक को, जो
उसे ध्यान में
जाने का
मार्ग-निर्देश
कर रहा है, उचित
है कि कहता
रहे कि भय को
छोड़ देना; मृत्यु
घटित होगी। वह
क्षण आएगा, जब भय पकड़ेगा।
वह क्षण आएगा,
जब सब भीतर
ऐसा लगेगा कि
खो गया; सब
खो रहा है।
डूब रहा हूं
सागर में, अतल
गहराई में; लौटने का अब
शायद कोई उपाय
न होगा।
वह
क्षण आएगा ही।
यह अगर
पूर्व-सूचना
दे दी गई हो, तो साधक जब
पहुंचता है उस
क्षण में, तो
निर्भय हो, साहस बांध, छलांग लगा
पता है। अगर
यह
पूर्व-सूचना न
दी गई हो, तो
बहुत संभावना
यही है कि
साधक वापस लौट
आए, घबड़ा
जाए।
लौट आए
साधक को बड़ी
तकलीफ हो जाती
है। तकलीफ तो
यह हो जाती है
बड़ी कि अब वह
ध्यान की तरफ
जाने की
हिम्मत अब न
जुटा पाएगा।
अब यह स्मरण
उसका सदा पीछा
करेगा। अब वह
ध्यान की बात
न सोच पाएगा।
और भी
एक खतरा है, वह भी मैं
आपसे कह दूं, कि जो साधक
इस भांति
मृत्यु से
भयभीत होकर
लौट आता है, बहुत संभावना
है, सौ में
कम से कम तीस
प्रतिशत
लोगों को, कि
वे थोड़े-से
विक्षिप्त हो
जाएं।
क्योंकि जो उन्होंने
देखा है, मिटने
का जो अनुभव
उनके निकट आया,
वह उनके
सारे
स्नायुओं को
कंपा जाता है;
उनके
हाथ-पैर कंपने
लगेंगे, उनका
चित्त भय से
सदा घबड़ाया
हुआ रहने
लगेगा। वे नींद
लेने तक में
डरने लगेंगे।
उनका डर बढ़
जाएगा।
इसलिए
ध्यान में कोई
भी जाए, तो
यह जानकर जाए,
ठीक से
परिचित होकर
जाए कि मृत्यु
की प्रतीति होगी।
भय कुछ भी
नहीं है।
क्योंकि वह
मृत्यु की
प्रतीति
सौभाग्य है।
वह उसको ही
होती है, जो
ध्यान के
बिलकुल मंदिर
के द्वार पर चढ़कर
पहुंच जाता
है--उसको ही, उसके पहले
नहीं होती। वह
आखिरी
प्रतीति है मन
की।
मन
मरने के पहले
आखिरी बार
आपको घबड़ाता
है कि मर
जाओगे, लौट
चलो। अगर आप न घबड़ाए, तो
मन मर जाता है,
आप बच जाते
हैं। आपके
मरने का कोई
उपाय नहीं है।
आप नहीं मर
सकते।
लेकिन
अभी तक आपने
समझा है कि
मैं मन हूं।
इसलिए जब मन
कहता है, मर जाऊंगा! तो
आप समझते हैं,
मैं मर जाऊंगा।
वह आपकी
भ्रांति
स्वाभाविक
है।
स्वाभाविक, लेकिन सही
नहीं।
स्वाभाविक, लेकिन सत्य
नहीं। इसलिए
जो भी ध्यान
का निर्देश
करेगा, जैसा
कृष्ण अर्जुन
को निर्देश कर
रहे हैं, तो
वे उन सारी
बातों का
निर्देश
करेंगे ही, जिन-जिन की
जरूरत पड़ेगी।
तो एक, निर्भय। और
ठीक रूप से
शांत हुए मन
वाला। ठीक रूप
से शांत हुए
मन वाले का
क्या अर्थ है?
इस ठीक से
शांत मन वाला,
इस शब्द से,
इन शब्दों
के समूह से
बहुत-सी गलत
व्याख्याएं प्रचलित
हुई हैं।
एक तो, जब कृष्ण
कहते हैं, ठीक
से शांत हुए
मन वाला, तो
इसके दो मतलब
साफ हो गए कि
ऐसी शांति भी
हो सकती है, जो ठीक से
शांति न हो।
गलत किस्म की
शांति भी हो
सकती है। इसका
मतलब साफ है।
अशांति तो गलत
होती ही है; ऐसी शांतियां
भी हैं, जो
गलत होती हैं।
इसलिए तो ठीक
से शांत, इस
शर्त को लगाना
पड़ा है।
इसलिए
आप सब तरह के
शांत हुए लोग
ध्यान में प्रवेश
कर जाएंगे, इस भ्रांति
में मत पड़ना।
गलत ढंग से
शांत हुए लोग
भी हो सकते
हैं। कौन से
ढंग से आदमी
गलत रूप से
शांत हो जाता
है?
ऐसी
बहुत-सी
विधियां
प्रचलित हैं, जिनसे आपको
शांति का भ्रम
पैदा हो सकता
है। वह गलत
रूप की शांति
है। जैसे इस
तरह की
हिप्नोटिज्म,
सम्मोहन की
विधियां हैं,
जिनसे आपको
प्रतीति हो
सकती है कि आप
शांत हैं।
अगर आप
कुवे से पूछें, एमाइल कुवे से। वे
पश्चिम के एक
बड़े हिप्नोटिस्ट
विचारक हैं।
तो वे कहते
हैं, शांत
होने के लिए
और कुछ करना
जरूरी नहीं
है। सिर्फ
अपने मन में यह
दोहराते रहें
कि मैं शांत
हो रहा हूं, मैं शांत हो
रहा हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं। इसे
दोहराते
रहें। गो आन रिपीटिंग
इट। रात सोते
वक्त दोहराते
रहें, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं, शांत
हो रहा हूं।
दोहराते-दोहराते
सो जाएं। कब
नींद आ जाए, पता न चले; आप दोहराते
रहें, मैं
शांत हो रहा
हूं। आप मत रुकें।
नींद आ जाए, रोक दे, बात
अलग। आप
दोहराते चले
जाएं।
अगर
रात सोते वक्त
आप दोहराते
रहें, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं, तो
नींद का क्षण
जब आएगा, तो
आपका चेतन मन
तो सो जाएगा, वह जो दोहरा
रहा था, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं। लेकिन
मैं शांत हो
रहा हूं, इसकी
प्रतिध्वनि
अचेतन में गूंजती
रह जाएगी। वह
रातभर आपके
भीतर गूंजती
रहेगी--मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं।
कुवे
कहते हैं, सुबह जब
नींद खुले, तो पहली बात
मन में
दोहराना, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं, मैं
शांत हो रहा
हूं। जब भी
स्मरण आ जाए, दोहराना, मैं शांत हो
रहा हूं।
इस
भांति अगर आप
दोहराते रहें, तो आप अपने
को आटो-हिप्नोटाइज
कर लेंगे।
आपको अशांति
रहेगी, लेकिन
पता नहीं
चलेगी। आपको
लगेगा, मैं
शांत हो गया
हूं। यह स्वयं
को दिया गया
धोखा है। यह
शांति झूठी
है। यह शांति
केवल भ्रम है।
लेकिन
यह हो जाता
है। मन की यह
क्षमता है कि
मन अपने को
धोखा दे सकता
है। मन की बड़ी
क्षमता सेल्फ
डिसेप्शन है।
खुद को धोखा
देना मन की बड़ी
क्षमता है।
अगर आप दोहराए
चले जाएं, तो यह हो
जाता है।
अब तो
मनोवैज्ञानिक
इसको बहुत ठीक
से स्वीकार
करते हैं कि
यह हो जाता
है। जिन
बच्चों को स्कूल
का शिक्षक
कहता चला जाता
है, तुम गधे
हो, तुम
गधे हो। और एक
शिक्षक ने कहा,
तो दूसरा
शिक्षक दूसरी
क्लास में फिर
धारा को पकड़
लेता है कि
तुम गधे हो।
और एक बच्चा
सुनता है। वह
भी मन में
दोहराता है, मैं गधा
हूं। दूसरे
लड़के भी उसकी
तरफ देखते हैं
कि तुम गधे
हो। घर जाता
है, बाप भी
कहता है कि
तुम गधे हो।
जहां जाता है,
वहां पता
चलता है कि
सिर्फ कान की
कमी है, बाकी
मैं गधा हूं!
और जब इतने सब
लोग कहते हैं,
तो इन सबको
गलत करना भी
ठीक नहीं
मालूम पड़ता। मन
फिर इनको सही
करने के उपाय
खोजने लगता है
कि सब लोग सही
ही कहते
होंगे। इतने
लोग जब कहते हैं,
तो इनको गलत
कहना भी तो
ठीक नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
आज दुनिया में
जितने अप्रौढ़
चित्त दिखाई
पड़ते हैं, उनका
जिम्मेवार
शिक्षक, शिक्षा
की व्यवस्था
है, जहां
इनको हिप्नोटाइज
किया जा रहा
है कि तुम ऐसे
हो, तुम
ऐसे हो, तुम
ऐसे हो। कहा
जा रहा है; सर्टिफिकेट
दिए जा रहे
हैं; अखबारों
में नाम दिए
जा रहे हैं; सिद्ध हो
जाता है कि वह
आदमी ऐसा है।
आपने
कभी खयाल किया
है, बीमार
पड़े हों
बिस्तर
पर--सभी कभी न
कभी पड़ते हैं--आपने
कभी खयाल किया
है कि बीमार
पड़े हों, बड़ी
तकलीफ मालूम
पड़ती है, बड़ी
बेचैनी है, बड़ी भारी
बीमारी है।
डाक्टर आया।
डाक्टर के बूट
बजे, उसकी
शक्ल दिखाई
दी। उसका स्टेथस्कोप!
थोड़ी बीमारी
एकदम उसको
देखकर कम हो
गई! अभी उसने
दवा नहीं दी
है। डाक्टर ने
थोड़ा ठकठकाया,
इधर-उधर ठोंका-पीटा।
उसने अपना स्पेशलाइजेशन
दिखाया कि
हां! फिर उसने
कहा कि कोई
बात नहीं, बहुत
साधारण है, कुछ खास
नहीं है। दो
दिन की दवा
में ठीक हो
जाएंगे। फिर
उसने जितनी
बड़ी फीस ली, उतना ही
अर्थ मालूम
पड़ा कि यह बात
ठीक होगी ही।
आपने
खयाल किया है, डाक्टर की
दवा और उसका प्रिस्क्रिप्शन
आने में तो
थोड़ी देर लगती
है, लेकिन
मरीज ठीक होना
शुरू हो जाता
है। मन ने अपने
को सुझाव दिया
कि जब इतना
बड़ा डाक्टर
कहता है, तो
ठीक हैं ही।
अगर आप बीमार
पड़े हैं और
आपको पता चला
कि डाक्टर ने
ऐसा कहा है कि
बिलकुल ठीक
हैं, कोई
खास बीमारी
नहीं है, तो
तत्काल आपके
भीतर बीमारी
क्षीण होने का
अनुभव आपको
हुआ
होगा--तत्काल!
एक ताजगी आ गई
है। बुखार कम
हो गया है।
बीमारी ठीक
होती मालूम
पड़ती है। अभी
कोई दवा नहीं
दी गई है, तो
यह परिणाम
कैसे हुआ है?
पश्चिम
में डाक्टर एक
नई दवा पर काम
करते हैं, उस दवा को
कहते हैं, धोखे
की दवा, प्लेसबो। बड़े हैरान
हुए हैं। दस
मरीज हैं, दसों
एक बीमारी के
मरीज हैं।
पांच को दवा
दी है और पांच
को सिर्फ पानी
दिया है। बड़ी
मुश्किल है।
दवा वाले भी
तीन ठीक हो गए,
पानी वाले
भी तीन ठीक हो
गए! अब दवा को
क्या कहें? यह दवा थी
नहीं; यह
सिर्फ पानी
था। लेकिन दवा
वाले भी, पांच
में से तीन
ठीक हो गए हैं
और ये भी पांच
में से तीन
ठीक हो गए हैं,
पानी वाले!
अब क्या कहें?
मनोविज्ञान
तो कहता है कि
अब तक की
जितनी दवाएं
हैं दुनिया में, वे सिर्फ सजेशन
का काम करती
हैं। असली
परिणाम सजेशन
का है, सुझाव
का है। असली
परिणाम दवा के
तत्व का नहीं
है। इसीलिए तो
इतनी पैथी
चलती हैं।
इतनी पैथी चल
सकती हैं? पागलपन
की बात है।
बीमारी अगर
होगी, तो
इतनी पैथी चल
सकती हैं
वैज्ञानिक
अर्थों में?
होम्योपैथी
भी चलती है! और
होम्योपैथी
के नाम पर
करीब-करीब
शक्कर की
गोलियां चलती
हैं। कम से कम
हिंदुस्तान
में बनी तो
बिलकुल शक्कर
की गोली ही
होती हैं।
शक्कर भी
शुद्ध होगी, इसमें संदेह
है।
बायो-केमिस्ट्री
चलती है। आठ
तरह की दवाओं
से सब
बीमारियां
ठीक हो जाती हैं!
नेचरोपैथी
चलती है; दवा
वगैरह की कोई
जरूरत नहीं
है! पेट पर
पानी की पट्टी
या मिट्टी की
पट्टी से भी
बीमार ठीक होते
हैं! जंत्र, मंत्र, तंत्र--सब
चलता है।
जादू-टोना
चलता है। सब
चलता है। क्या,
मामला क्या
है? और
आदमी सबसे ठीक
होता है!
आदमी
के ठीक होने
के ढंग बड़े
अजीब हैं। शक
इस बात का है
कि आदमी की
अधिक
बीमारियां भी
उसके सुझाव
होती हैं, कि उसने
माना है कि वह
बीमार हुआ है।
और आदमी का
अधिकतर
स्वास्थ्य भी
उसका सुझाव
होता है कि उसने
माना है कि वह
ठीक हुआ है।
बीमारियां भी बहुत
मायनों में
झूठी होती हैं,
मन का खेल।
और उसके स्वास्थ्य
के परिणाम भी
झूठे होते हैं,
मन का खेल।
लेकिन मन
आटो-सजेस्टिबल
है, अपने
को सुझाव दे
सकता है।
उस तरह
की शांति झूठी
है, जो कुवे
की पद्धति से
आती है। जो
कहती है कि तुम
शांत हो रहे
हो। इसको माने
चले जाओ, कहे
चले जाओ, दोहराए
चले जाओ--शांत
हो जाओगे।
जरूर
शांत हो
जाएंगे।
लेकिन वैसी
शांति सिर्फ
सतह पर दिया
गया धोखा है।
वह शांति वैसी
है, जैसे
नाली के ऊपर
हमने फूलों को
बिछा दिया हो,
तो क्षणभर
को धोखा हो
जाए। हां, किसी
नेता की पालकी
निकलती हो सड़क
से, तो
काफी है।
चलेगा। क्षणभर
को धोखा हो
जाए, कोई
नाली नहीं है,
फूल बिछे
हैं। लेकिन घड़ीभर बाद
फूल कुम्हला
जाएंगे, नाली
की दुर्गंध
फूलों के पार
आकर फैलने
लगेगी। थोड़ी
देर में नाली
फूलों को डुबा
लेगी।
झूठी
शांति हो सकती
है--सुझाव से, सम्मोहन से।
और सम्मोहन की
हजार तरह की
विधियां
दुनिया में
प्रचलित हैं,
जिनसे आदमी
अपने को मान
ले सकता है कि
मैं शांत हूं।
और भी रास्ते
हैं। और भी
रास्ते हैं, जिनसे आदमी
अपने को शांत
करने के खयाल
में डाल सकता
है। लेकिन उन
रास्तों से
शांत हुआ आदमी
भीतर नहीं जा
सकेगा।
जबर्दस्ती भी
अपने को शांत
कर सकते हैं।
जबर्दस्ती भी
अपने को शांत
कर सकते हैं!
अगर अपने से
लड़े ही चले
जाएं, और
जबर्दस्ती
अपने ऊपर किए
चले जाएं सब
तरह की, तो
अपने को शांत
कर सकते हैं।
लेकिन
वह शांति होगी
बस, जबर्दस्ती
की शांति।
भीतर उबलता
हुआ तूफान होगा।
भीतर जलती हुई
आग होगी। ठीक
ज्वालामुखी भीतर
उबलता रहेगा
और ऊपर सब
शांत मालूम
पड़ेगा।
ऐसे
शांत बहुत लोग
हैं, जो ऊपर से
शांत दिखाई
पड़ते हैं।
लेकिन इनके भीतर
बहुत
ज्वालामुखी
है, उबलते
रहते हैं। हां,
ऊपर से
उन्होंने एक
व्यवस्था कर
ली है। जबर्दस्ती
की एक
डिसिप्लिन, एक आउटर
डिसिप्लिन, एक बाह्य
अनुशासन अपने
ऊपर थोप लिया
है। ठीक समय
पर सोकर
उठते हैं। ठीक
भोजन लेते
हैं। ठीक बात
जो बोलनी
चाहिए, बोलते
हैं। ठीक शब्द
जो पढ़ने चाहिए,
पढ़ते हैं।
ठीक समय सो
जाते हैं।
यंत्रवत घूमते
हैं। गलत का
प्रभाव न पड़
जाए, उससे
बचते हैं। जिस
प्रभाव में
उनको जीना है,
शांति में
जीना है, उसका
धुआं अपने
चारों तरफ
पैदा रखते हैं।
तो फिर एक-एक
सतह ऊपर की
पर्त शांत
दिखाई पड़ने
लगती है और
भीतर सब अशांत
बना रहता है।
कृष्ण
कहते हैं
सशर्त बात, ठीक रूप से
हो गया है मन
शांत जिसका।
किसका
होता है ठीक
रूप से फिर
शांत मन? ठीक
रूप से शांत
उसका होता है,
जो शांति की
चेष्टा ही
नहीं करता, वरन ठीक इसके
विपरीत
अशांति को
समझने की
चेष्टा करता है।
इसको फर्क समझ
लें आप। झूठे
ढंग से शांत होता
है वह मन, जो
अशांति के
कारणों की तो
फिक्र ही नहीं
करता कि मैं
अशांत क्यों
हूं, शांत
करने की फिक्र
करता चला जाता
है। भीतर अशांति
के कारण बने
रहते हैं
पूर्ववत, भीतर
अशांति का सब
कुछ जाल, व्यवस्था
मौजूद रहती है
पूर्ववत, और
वह ऊपर से
शांत करने का
इंतजाम करता
चला जाता है।
जो
व्यक्ति अपने
भीतर की
अशांति के ऊपर
शांति को
आरोपित करता
है, वह गलत
ढंग की शांति
को उपलब्ध
होता है। वह
ध्यान में
नहीं ले जाने
वाली है। फिर
ठीक ढंग की शांति
का अर्थ हुआ, जो व्यक्ति
अपने भीतर के
अशांति के
कारणों को समझता
है।
ध्यान
रहे, ठीक ढंग
की शांति
शांति लाने से
आती ही नहीं। ठीक
ढंग की शांति
अशांति के
कारणों को
समझकर, अशांति
को निमंत्रण
देने के हमने
जो इंतजाम किए
हैं, उनको
समझकर आती है।
आप
अशांत क्यों
हैं, इसे
समझें। यही
बुनियादी बात
है। शांत कैसे
हों, इसे
मत समझें। यह
बुनियादी बात
नहीं है। अशांत
क्यों हैं?
अशांति
के कारण दिखाई
पड़ेंगे; हैं
ही। हम ही
अपने को अशांत
करते हैं।
कारण हैं भीतर
हमारे।
अशांति के
कारणों को
समझें। और जब
अशांति के
कारण बहुत
स्पष्ट दिखाई
पड़ेंगे, तो
आपके हाथ में
है। अब आप
अशांत होना
चाहें, तो
मजे से हों, कुशलता से
हों, ढंग
से हों, पूरी
व्यवस्था से
हों; न
होना चाहें, तो कोई
दूसरा आपको कह
नहीं रहा है
कि आप अशांत हों।
अशांति
के कारण हैं।
लेकिन हम ऐसे
लोग हैं कि एक
तरफ शांत होने
की व्यवस्था
करते हैं, दूसरी तरफ
अशांति के
बीजों को पानी
डालते चले जाते
हैं!
अब एक
आदमी कहता है
कि मुझे शांत
होना है, लेकिन
अहंकार का
पोषण किए चला
जाता है। अब
उसको कोई कहे
कि वह शांत
होगा कैसे! एक
तरफ कहता है, शांत होना
है, दूसरी
तरफ परिग्रह
के लिए पागल
हुआ चला जाता
है कि एक चीज
और बढ़ जाए घर
में तो स्वर्ग
उतर आएगा! अब
वह एक तरफ
शांत होना
चाहता है!
शायद वह इसीलिए
शांत होना
चाहता है कि
जो फर्नीचर
अभी नहीं
उपलब्ध कर
पाता है, शायद
शांत होकर
उपलब्ध कर ले।
जो दुकान अभी
ठीक से नहीं
चलती, शायद
शांत होने से
ठीक चलने लगे।
शांत भी वह
इसीलिए शायद
होना चाहता है
कि अशांति का
जो इंतजाम कर
रहा है, उसमें
जरा और कुशलता
और व्यवस्था आ
जाए।
अभी एक
युवक मेरे पास
आया। उसने कहा
कि मन बहुत
अशांत है, परीक्षा पास
है। मेडिकल
कालेज का
विद्यार्थी
है। परीक्षा
पास है, मन
बहुत अशांत
है। कोई
रास्ता बताएं
कि मेरा मन
शांत हो जाए।
मैंने कहा, शांत करना किसलिए
चाहते हो? करोगे
क्या शांत
करके? उसने
कहा, करना किसलिए
चाहता हूं? आप भी क्या
बात पूछते
हैं! मुझे
गोल्ड मेडल
लाना है
परीक्षा में।
तो शांत हुए
बिना बहुत मुश्किल
है।
मैंने
कहा कि तू
मुझे माफ कर, नहीं पीछे
मुझे बदनाम
करेगा कि
मुझसे पूछा, मैंने
रास्ता बताया
और तू शांत
नहीं हो पाया! क्योंकि
गोल्ड मेडल
जिसे लाना है,
वह अशांति
का तो सब
आरोपण किए चला
जा रहा है; अशांति
का कारण थोपता
चला जा रहा
है। मेरा अहंकार
दूसरों के
अहंकार के
सामने
स्वर्ण-मंडित दिखाई
पड़े। मैं सबके
आगे खड़ा हो
जाऊं। यही तो
अशांति की जड़
है। और तू
शांत होना
चाहता है
इसीलिए, ताकि
सबके पहले खड़ा
हो जाए! तू
उलटी बातें कर
रहा है। अगर
तुझे शांत
होना है, तो
पहले तो तू यह
समझ, अशांत
तू कब से हुआ
है!
उसने
कहा कि आप ठीक
ही कहते हैं, जब से यह
गोल्ड मेडल
मेरे दिमाग
में चढ़ा है, तभी से मैं
अशांत हूं।
पहले मैं ऐसा
अशांत नहीं
था। पिछले
वर्ष बड़ी
मुश्किल हो गई
कि मैं फर्स्ट
क्लास आ गया।
उसके पहले तो
मैं कभी फर्स्ट
क्लास आया
नहीं था।
गोल्ड मेडल
कभी मेरे सिर
ने न पकड़ा था।
पिछले साल
गड़बड़ हो गई।
तब से मैं
बिलकुल अशांत
हूं। न नींद
है, न चैन
है। गोल्ड मेडल
दिखाई पड़ता
है। वह नहीं
आया, तो
क्या होगा!
कोई शांति की
तरकीब बता दें
कि मैं शांत
हो जाऊं, तो
यह गोल्ड मेडल--कम
से कम इस सालभर
शांत रह जाऊं,
बस!
अब यह
आदमी जो पूछ
रहा है, यह
हम सब का यही
पूछना है। हम
शांत इसीलिए
होना चाहते
हैं, ताकि
अशांति की
बगिया को ठीक
से पल्लवित कर
सकें। बहुत
मजेदार है
आदमी का मन।
तो फिर शांति झूठी
ही होगी। फिर
ऊपर से छिड़कने
वाली शांति
होगी। भीतर तो
कुछ होने वाला
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण जब कहते
हैं, ठीक रूप
से शांत हो
गया मन जिसका,
तो वे कहते
हैं कि जिसने
अशांत होने के
कारण छोड़ दिए
हैं।
और
अशांत होने के
कारण आपने
छोड़े कि मन
ऐसे ही शांत
हो जाता है, जैसे कोई
वृक्ष की शाखा
को खींचकर खड़ा
हो जाए हाथ से,
और रास्ते
से आप गुजरें
और आपसे पूछे
कि मुझे इस
वृक्ष की शाखा
को इसकी जगह
वापस
पहुंचाना है,
क्या करूं?
तो आप कहें
कि कृपा करके
वृक्ष की शाखा
को उसकी जगह पहुंचाने
का आप कोई
इंतजाम न करें,
सिर्फ इसे पकड़कर मत
खड़े रहें, इसे
छोड़ दें। यह
अपने से अपनी
जगह पहुंच
जाएगी। वृक्ष
काफी समर्थ
है। आप कृपा
करके इसे छोड़ें।
आप पहुंचाने
का कोई उपाय न
करें। वृक्ष
को आपकी
सहायता की कोई
भी जरूरत नहीं
है। आप सिर्फ
छोड़ें। लेकिन
वह आदमी कहे
कि अगर मैं
छोड़ दूं और यह
अपनी जगह न पहुंच
पाए, तो
बड़ी कठिनाई
होगी। मैं
इसीलिए पकड़े
खड़ा हूं कि जब
मुझे ठीक विधि
मिल जाए, तो
इसकी जगह इसको
पहुंचाकर
अपने घर जाऊं!
वह
आदमी ठीक कहता
मालूम पड़ता
है। वह कहता
है कि मैं
इसीलिए पकड़े
खड़ा हूं कि
कहीं शाखा भटक
न जाए
इधर-उधर। तो
जब मुझे कोई
ठीक विधि
बताने वाला
आदमी मिल
जाएगा, कोई
सदगुरु, तो मैं इसे
इसकी जगह पहुंचाकर
अपने घर चला जाऊंगा!
कृपा
करें, उससे
कहें कि तू
हाथ छोड़ दे इस
शाखा का, यह
अपनी जगह
पहुंच जाएगी।
यह तेरी वजह
से परेशानी
में है और
अटकी है। तू
छोड़! यह अपने
आप चली जाएगी।
आपने
कभी देखा है, शाखा जब छोड़
दें आप हाथ से,
तो एकदम
अपनी जगह पर
नहीं चली
जाती। कई बार
डोलती है।
पहले लंबा डोल
लेती है, फिर
छोटा, फिर
और छोटा, फिर
और छोटा, फिर
और छोटा। फिर
कंपती रहती
है। फिर कंपते-कंपते
शांत हो जाती
है। क्यों? क्योंकि
आपने खींचकर
उसके साथ जो
कशमकश की, और
आपने जो इतनी
शक्ति खींचकर
लगाई, उसको
उसे फेंकना
पड़ता है, थ्रोइंग आउट। उस
शक्ति को वह
बाहर फेंकती
है, छिड़कती है। नहीं तो
वह अपनी जगह
नहीं पहुंच
पाएगी, जब
तक आपके हाथ
से दी गई शक्ति
को फेंक न दे।
उसे फेंकने के
लिए वह कंपती
है, डोलती
है, उसे
बाहर निकालती
है, फिर
अपनी जगह वापस
पहुंच जाती
है।
ठीक
ऐसे ही चित्त
अशांति के
कारणों से
अटका है। आप
कहते हैं, शांत कैसे
हो जाएं? तो
गलत पूछते
हैं। आप इतना
ही पूछें कि
अशांत कैसे हो
गए? और
कृपा करके
जहां-जहां
अशांति दिखाई
पड़े, उस-उस
कारण को छोड़
दें। चित्त
अपने आप थोड़ा कंपेगा, डोलेगा। कम डोलेगा,
कम डोलेगा,
वापस अपनी
जगह शांत हो
जाएगा। और जब
चित्त सब अशांति
के कारणों से छूटकर
अपनी जगह
पहुंच जाता है,
तो अपनी जगह
पहुंच गए
चित्त का नाम
ही शांति है।
स्व-स्थान पर
पहुंच गया
चित्त शांति
है।
कहां-कहां
आपने अटकाया
है चित्त को, वहां-वहां
से हटा दें।
हटा दें, अर्थात
न अटकाएं,
बस। हटाने
के लिए कुछ और
आपको अलग से
करने की जरूरत
नहीं है, सिर्फ
न अटकाएं।
व्यक्तियों
से अटकाया
है, वस्तुओं
से अटकाया
है, अहंकार
से बांधा है, यश, सम्मान--किससे
बांधा है? कहां
से अशांति पकड़
रही है? उसे
वहां से हट
जाने दें।
चित्त शांत हो
जाएगा। और तब
कृष्ण जो कहते
हैं, वह
समझ में
आएगा--ठीक रूप
से शांत हुआ
चित्त।
ठीक
रूप से शांत
हुआ चित्त वह
है, जिसके
भीतर अशांति
के कोई कारण न
रहे--तब। अन्यथा
आप जो भी
करेंगे, वह
सब गैर-ठीक
रूप से हुई
शांति होगी।
और उस शांति
से कोई द्वार
समाधि का नहीं
खुलता। वह अंतर-गुहा
के द्वार ठीक
शांति से ही
गुजरते हैं।
ये दो
बातें खयाल
में रखेंगे, तो
अंतर-गुहा के
पास पहुंचने
में निरंतर
आसानी होती
चली जाती है।
एक
पांच मिनट और रुकेंगे।
संन्यासी
कीर्तन
करेंगे, उसमें
साथ दें। शब्द
सुने, बुद्धि
की थोड़ी बात
की। अब थोड़ी
अबुद्धि की, बुद्धिहीन
थोड़ी बात कर
लें।
आज इतना
ही।
thank you guruji
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