अध्याय
30
बल-प्रयोग
से बचें!
जो
ताओ के अनुसार
राजा को
मंत्रणा देता
है,
वह
शस्त्र-बल से
विजय का विरोध
करेगा।
क्योंकि
ऐसी विजय
विजयी के लिए
भी
बहुत
दुष्परिणाम
लाती है।
जहां
सेनाएं होती
हैं, वहां
कांटों
की झाड़ियां
लग जाती हैं।
और
जब सेनाएं खड़ी
की जाती हैं,
उसके
अगले वर्ष में
ही अकाल
की
कालिमा छा
जाती है।
इसलिए
एक अच्छा
सेनापति अपना
प्रयोजन
पूरा कर रुक
जाता है।
वह
शस्त्र-बल का
भरोसा कदापि
नहीं करता है।
वह
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
पर
उस पर गर्व
नहीं करता है।
वह
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
पर
शेखी नहीं
बघारता।
वह
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
पर
उसके लिए घमंड
नहीं करता है।
वह
एक खेदपूर्ण
आवश्यकता के
रूप में युद्ध
करता है।
वह
युद्ध करता है, लेकिन
हिंसा से
प्रेम नहीं
करता।
क्योंकि, चीजें
अपना शिखर
छूकर फिर
गिरावट
को उपलब्ध हो
जाती हैं।
हिंसा
ताओ के विपरीत
है।
और
जो ताओ के
विपरीत है, वह
शीघ्र नष्ट हो
जाता है।
लाओत्से
समस्त
बल-प्रयोग के
विरोध में है।
जो भी निसर्ग
के पक्ष में
होगा, वह बल का
विरोधी भी
होगा।
जबरदस्ती, किसी
भी भांति की, निसर्ग के विपरीत
है। इस बात को
ठीक से समझ
लें तो फिर इस सूत्र
को समझना आसान
हो जाएगा।
निसर्ग
को देखें, आदमी
को छोड़ कर।
वृक्ष बड़े हो
रहे हैं, नदियां
बह रही हैं, चांदत्तारे घूम रहे हैं;
इतना विराट
आयोजन चल रहा
है। पर कहीं
भी कोई जबरदस्ती
नहीं मालूम
पड़ती, जैसे
सब सहज हो रहा
है, जैसे
इस सब होने
में कोई बल का
प्रयोग नहीं
है, कोई
धक्का नहीं दे
रहा। नदी अपने
से ही बही जा रही
है, वृक्ष
अपने से बड़े
हो रहे हैं, तारे अपने
से घूम रहे
हैं।
आदमी न
हो,
तो जगत बहुत
मौन है। आदमी
न हो, तो
जगत में कोई
द्वंद्व नहीं
है, कोई
संघर्ष नहीं है।
एक सहजता, एक
स्पांटेनिटी
है।
लाओत्से
मानता है, जब
तक आदमी भी
अपने भीतर और
अपने बाहर
इतना ही सहज न
हो जाए, तब
तक धर्म को
उपलब्ध नहीं
होता।
क्योंकि धर्म
का एक ही अर्थ
हो सकता है:
सहजता। और जब
कोई सहज होगा,
तभी आनंद को
भी उपलब्ध
होगा। जहां
संघर्ष है, जहां
द्वंद्व है।
जहां
जबरदस्ती है,
जोर है, बल
है, वहां
दुख होगा।
इसके
कई आयाम हैं।
पहला: जैसे ही
हम जबरदस्ती शुरू
करते हैं, वैसे
ही हमने अपनी
मान्यता को
जगत पर आरोपित
करना शुरू कर
दिया। जैसे ही
मैं जबरदस्ती
शुरू करता हूं,
मैंने यह
कहना शुरू कर
दिया कि इस
जगत के विपरीत
हूं मैं। और
जिस पर मैं
जबरदस्ती करता
हूं, मैंने
उसकी आत्मा की
हत्या शुरू कर
दी। मैं उसकी
स्वतंत्रता
छीन रहा हूं, मैं उसका
निसर्ग छीन
रहा हूं। उसे
मैं अपने अनुसार
नहीं चलने दे
रहा, मेरे
अनुसार चलाने
की कोशिश कर
रहा हूं। चाहे
फिर वह पिता
हो, चाहे मां,
चाहे गुरु,
चाहे राजा,
वह कोई भी
हो, जो
किसी दूसरे को
अपनी मर्जी के
अनुसार चलाने के
लिए बल का
प्रयोग कर रहा
है, वह
हिंसा कर रहा
है। क्योंकि
हिंसा का एक
ही अर्थ होगा
कि हम किसी
मनुष्य का
साधन की तरह
उपयोग कर रहे
हैं, साध्य
की तरह नहीं।
जर्मन
चिंतक इमेनुअल
कांट ने नीति
की परिभाषा
में इस सूत्र
को जोड़ा है।
कांट ने कहा
है कि एक ही
नीति मैं
जानता हूं कि
किसी मनुष्य
के साथ उसे
साधन मान कर
व्यवहार मत
करना।
प्रत्येक
मनुष्य साध्य
है। कोई
मनुष्य किसी
का साधन नहीं
है। क्योंकि
जब हम किसी
मनुष्य का
साधन की तरह
उपयोग करते
हैं,
तभी हमने उस
मनुष्य को
वस्तु बना
दिया। वह मनुष्य
नहीं रहा।
हमने उसकी
आत्मा को
इनकार कर दिया।
पुरुष
न मालूम कितनी
सदियों से
स्त्री को अपनी
संपत्ति
मानते रहे
हैं। वह अनीति
है। क्योंकि
कोई आत्मा
किसी की
संपत्ति नहीं
हो सकती। संपत्ति
मानते रहे हैं, इसीलिए
युधिष्ठिर
द्रौपदी को
दांव पर लगा
सके। संपत्ति
ही दांव पर
लगाई जा सकती
है, कोई
मनुष्य दांव
पर नहीं लगाया
जा सकता। किसी
मनुष्य को
वस्तु मानना
ही पाप है। और
जब हम जबरदस्ती
करते हैं, तब
हमने वस्तु
माननी शुरू कर
दी।
दूसरी
बात: जैसे ही
मैं जबरदस्ती
करता हूं, बल
का प्रयोग
करता हूं, मैं
अपनी शक्ति खो
रहा हूं, मैं
दीन हो रहा
हूं, मैं
कमजोर हो रहा
हूं। और मेरी
दीनता के कारण
कोई दूसरा भी
समृद्ध नहीं
हो रहा।
क्योंकि मेरी
जबरदस्ती
दूसरे को भी
पीड़ा में
डालती है, उसे
भी जबरदस्ती
करने को मजबूर
करती है। वह
भी अपनी शक्ति
को व्यर्थ
व्यय करेगा।
जितनी ज्यादा
हिंसा होगी, उतना जीवन
का अवसर खोता
है व्यर्थ।
जितनी कम हिंसा
होगी, उतनी
जीवन की शक्ति
बचती है। और
बची हुई शक्ति
ही
अंतर्यात्रा
के काम में आ
सकती है।
ध्यान
रहे,
हिंसक
व्यक्ति सदा
बाहर की तरफ
यात्रा करता है।
क्योंकि हिंसक
को तो सदा
दूसरे का ही
ध्यान रखना
पड़ता है। और
जो हिंसा करता
है, वह
हिंसा से
भयभीत भी
होगा। और जो
हिंसा करने को
तत्पर है, वह
दूसरे की
हिंसा से
डरेगा भी। वह
सदा ही दूसरे
में उलझा
रहेगा। वह
हारे या जीते,
लेकिन नजर
उसकी दूसरे पर
रहेगी। और जिन
सीढ़ियों से हम
यात्रा करते
हैं, उन्हीं
सीढ़ियों से
दूसरे भी
यात्रा करते
हैं। और जब
मैं हिंसा
करके किसी की
छाती पर बैठ
जाता हूं, तो
फिर मुझे
भयभीत रहना
पड़ेगा। यह तो
हो भी सकता है
कि जिसकी छाती
पर मैं बैठा
हूं, वह
विश्राम को
उपलब्ध हो जाए;
लेकिन यह
नहीं हो सकता
कि मैं विश्राम
को उपलब्ध हो
जाऊं। मुझे तो
भयभीत रहना ही
पड़ेगा कि जिन
उपायों से
मैंने उसे
नीचे दबा रखा
है, वे ही
उपाय किसी भी
क्षण मेरे
खिलाफ काम लाए
जा सकते हैं।
और शिथिलता का
कोई भी क्षण, और मैं नीचे
हो सकता हूं
और दुश्मन ऊपर
हो सकता है।
जो हिंसक है, वह दूसरे पर
ही उसका ध्यान
अटका रहेगा।
और जो हिंसक
है, वह कभी
अभय को उपलब्ध
नहीं हो सकता।
भीतर की कोई
यात्रा संभव
नहीं है, जिसका
मन दूसरे में
उलझा हो।
शक्ति
का अपव्यय है; दूसरे
में उलझाव है।
अपने जीवन के
अवसर का अपव्यय
है। व्यर्थ ही,
उससे कुछ
सृजन नहीं
होगा। सिर्फ
मैं खोऊंगा, रिक्त और
समाप्त हो जाऊंगा।
जो दूसरे को
समाप्त करने
की कोशिश करता
है, वह
स्वयं भी
समाप्त हो रहा
है उस कोशिश
में। दूसरा
समाप्त हो
पाएगा या नहीं,
नहीं कहा जा
सकता, लेकिन
दूसरे को
समाप्त करने
में मैं
समाप्त हो रहा
हूं, यह
सुनिश्चित
है।
फिर
तीसरी बात और
खयाल में ले
लें कि हिंसक
की दृष्टि
विध्वंस की
होती है, मिटाने
की होती है।
हिंसा का मतलब
ही है मिटाने
की आतुरता। और
जो मिटाने में
बहुत उत्सुक
हो जाता है, वह बनाने की
कला भूल जाता
है। उसका
सृजनात्मक व्यक्तित्व
पंगु हो जाता
है; विध्वंसात्मक
व्यक्तित्व
ही रह जाता
है। यह बड़ी
हैरानी की बात
है कि इस
दुनिया में जो
लोग बहुत
हिंसात्मक
हैं, वे
बहुत
सृजनात्मक हो
सकते थे, इसीलिए
हिंसात्मक
हैं। इस
दुनिया में जो
बहुत बड़े
अहिंसक लोग
पैदा हुए हैं,
वे भी बहुत
बड़े हिंसक हो
सकते थे, इसीलिए
अहिंसक हैं।
मनसविद
हिटलर के जीवन
का गहन अध्ययन
किए हैं।
जरूरी भी है
अध्ययन; क्योंकि
हिटलर जैसे
लोग जमीन पर
होते रहें तो आदमी
का होना
ज्यादा देर तक
संभव नहीं
रहेगा। हिटलर
एक चित्रकार
बनना चाहता था;
नहीं बन
पाया।
मूर्तियां गढ़ना
चाहता था, सुंदर
चित्र बनाना
चाहता था; नहीं
बना पाया। और मनसविद
कहते हैं कि
उसकी यह सृजन
की आकांक्षा
विध्वंस बन गई।
फिर आदमी को
तोड़ने, मिटाने
और नष्ट करने
में उसकी सारी
शक्ति लग गई।
शक्ति एक ही
है, चाहे
उससे मिटाएं,
और चाहे
उससे बनाएं।
जो नहीं बना
पाएगा, वह
मिटाने में लग
जाएगा। जो
मिटाने में लग
जाएगा, उसे
बनाने का खयाल
ही नहीं आएगा।
साथ ही
यह भी खयाल
रखें कि जब
कोई दूसरे को
मिटाने में
लगता है, तो वह
अपने को भी
मिटा रहा है।
समय खो रहा है,
शक्ति खो
रही है, जीवन
चुक रहा है।
और जो दूसरे
के मिटाने में
संलग्न है, वह मिटाना
ही सीख जाता
है। वह अपने
लिए भी आत्मघाती
हो जाता है।
हिटलर
ने इतने लोगों
की हत्या की
और अंत में अपनी
आत्महत्या
की। वह बिलकुल
तार्किक है
घटना; ठीक यही
अंत होगा।
क्योंकि
मिटाने वाले
को एक ही तर्क
आता है, मिटाने
का। जब तक वह
दूसरे के
खिलाफ है, दूसरे
को मिटा रहा
है। जिस दिन
वह पाएगा
दूसरा मिटाने
को नहीं
बचा--वह एक ही
बात जानता है,
मिटाना--वह
अपने को मिटाएगा।
इसलिए हिंसक
अंततः
आत्मघाती हो
जाता है।
सृजन
दूसरी ही
यात्रा है।
लाओत्से
परम अहिंसा
में भरोसा
करता है। लेकिन
उसकी अहिंसा
के कारण बड़े
अलग हैं। वह
यह नहीं कहता
कि दूसरे को
मत सताओ, क्योंकि
दूसरे को दुख
होगा। वह यह
नहीं कहता। वह
कहता है, दूसरे
को मिटाने में
तुम मिट रहे
हो, दूसरे
को समाप्त
करने में तुम
समाप्त हो रहे
हो। और जिस
जीवन में फूल
खिल सकते थे
आनंद के, वह
तुम्हारा
जीवन सिर्फ
कांटों से भरा
रह जाएगा।
इसमें
थोड़ी सी
विचारणीय है
एक बात। आमतौर
से
अहिंसावादी
यही कहते हैं
कि दूसरे को
दुख मत दो, क्योंकि
दूसरे को दुख
देना बुरा है।
लाओत्से यह
नहीं कहता।
लाओत्से कहता
है, दूसरे
को दुख मत दो, क्योंकि इस
तरह तुम अपने
सुख का, अपने
आनंद का अवसर
खो रहे हो।
लाओत्से
बिलकुल स्वार्थी
मालूम पड़ेगा।
लेकिन
ध्यान रहे, लाओत्से
कहता है कि
अगर कोई
व्यक्ति
ठीक-ठीक स्वार्थी
हो जाए तो
उससे कोई बुरा
काम हो ही नहीं
सकता। यह बड़ी
उलटी बात
मालूम पड़ेगी।
हम तो सिखाते
हैं लोगों को परार्थी
होने के लिए, परोपकार के
लिए। छोड़ो
स्वार्थ को और
परार्थ को
पकड़ो। लेकिन
लाओत्से कहता
है, जिसे
स्वार्थ का ही
पता नहीं, उसे
परार्थ का तो
कोई पता नहीं
होगा। और जो
अभी अपने
स्वयं का हित
भी साधने में
समर्थ नहीं है,
वह दूसरे का
हित साध सकेगा,
इस पागलपन
में मत पड़ना।
सच तो यह है कि
जो अपना हित
साध लेता है, उस साधने
में ही दूसरे
का हित सध
जाता है। क्योंकि
जो अपने आनंद
को पकड़ लेता
है, वह
किसी को दुख
देने में
इसलिए असमर्थ
हो जाता है कि
उससे स्वयं का
आनंद नष्ट
होता है।
धर्म
परम स्वार्थ
है;
लेकिन उससे
परम परार्थ
घटित होता है।
नीति परार्थ
की बातें करती
है, कुछ
घटित नहीं
होता। न
परार्थ घटित
होता है, न
स्वार्थ घटित
होता है।
लाओत्से
कहता है कि
अगर व्यक्ति
अपने निज का पूरा
खयाल रख ले तो
उससे इस जगत
में बुरा होगा
ही नहीं कुछ।
उस खयाल में
ही जीवन के
प्रति उसका सदभाव और
करुणा गहन हो
जाएगी। असल
में,
दूसरे पर
दया वही करता
है, जिसे
अपने पर दया
करना आ गया
है। और दूसरे
पर दया करना
जो नहीं जानता,
उसका मतलब
ही यह है कि
उसे अभी अपने
पर दया करने
का कोई भी पता
नहीं है।
बुद्ध
को किसी ने
पत्थर फेंक कर
मार दिया है। आनंद, उनका
शिष्य, क्रोधित
हो गया है। और
उसने कहा कि
मुझे आज्ञा
दें तो इस
आदमी को मैं
रास्ते पर
लगाऊं। बुद्ध
ने कहा, भूल
उसने की है, सजा तू अपने
को देगा? आनंद
से बुद्ध ने
कहा, बहुत
समय पहले यह
सूत्र मेरी
समझ में आ गया
कि हम दूसरे
की नासमझियों
के लिए अपने
को दंड देते
हैं। यह पत्थर
उसने फेंका है,
यह उसका काम
हुआ। अगर इस
पत्थर के
सिलसिले में
हम भी कुछ
करने जाते हैं,
तो वह आदमी
जीत गया और
उसने हमें एक
वर्तुल में
फंसा लिया। वह
हमारा मालिक
हो गया। उसने
पत्थर मारा और
हमारे भीतर
उसने क्रिया
को जन्म दे
दिया; वह
हमारा मालिक
हो गया। वह
जीत गया, हम
हार गए। और अब
अगर मैं
क्रोधित होता
हूं, तो
उसका पत्थर
मारना सफल हो
गया। नहीं, बुद्ध ने
कहा कि मैं
परम स्वार्थी
हूं, मैं
अपने सुख को
बचाता हूं। वह
पत्थर मारे तो
भी मेरे सुख
को मैं नहीं
टूटने देता; मैं अपने
आनंद को बचाता
हूं।
और एक
बार कोई आदमी
अपने आनंद को
बचाना सीख जाए
तो इस दुनिया
में उस आदमी
से कुछ भी
बुरा दूसरे के
लिए नहीं हो
सकेगा।
क्योंकि दूसरे
के लिए बुरा
करना गहरे में
अपने लिए ही गङ्ढा
खोदना सिद्ध
होता है। किसी
नीति-शास्त्र
के वचन के
अनुसार नहीं, निरंतर
मनुष्य के
अपने ही अनुभव
के अनुसार। व्यक्ति
के लिए भी और
समाज के लिए
भी लाओत्से की
यही दृष्टि
है। यह सूत्र
समाज की तरफ
इशारा है।
लाओत्से
कहता है, "जो
ताओ के अनुसार
राजा को
मंत्रणा देता
है, वह
शस्त्र-बल से
विजय का विरोध
करेगा।'
ताओ के
अनुसार जो
राजा को
मंत्रणा देता
है,
वह
शस्त्र-बल का
विरोध करेगा।
वस्तुतः वह बल
का ही विरोध
करेगा। वह
चाहेगा कि काम
बिना बल के हो
जाए। और जितना
कुशल होगा
व्यक्ति, उतने
बिना बल के
काम करा लेता
है। अकुशल
अपनी अकुशलता
की पूर्ति बल
से करता है।
कभी आप
किसी कुशल
व्यक्ति को
देखें--किसी
भी काम में--आप
पाएंगे, वह
बल-प्रयोग न
के बराबर करता
है। एक कुशल
व्यक्ति को
कार चलाते
देखें, तो
आप पाएंगे, वह बल का
बिलकुल
प्रयोग नहीं
कर रहा, वह
ताकत लगा ही
नहीं रहा। एक सिक्खड़ को
कार चलाते
देखें; उसकी
सारी शक्ति
व्यय हुई जा
रही है, पसीना-पसीना
हुआ जा रहा
है। क्या फर्क
है दोनों में?
कार कोई बल
से नहीं चलती,
कुशलता से
चलती है।
लेकिन कुशलता
की कमी हो तो
आदमी बल से
उसे पूरी करना
चाहता है। बल
हम लगाते ही
हैं वहां, जहां
हमारी कुशलता
क्षीण पड़ती है,
कम पड़ती है।
आप
खयाल करना, इसलिए
नया काम करने
में आप थक
जाते हैं और
पुराना काम
करने में आप
नहीं थकते।
पुराना काम कुशल
हो गया है।
नया काम, आप
ताकत लगाते
हैं। छोटे
बच्चों को
लिखते देखें,
तो उनका
पूरा शरीर
अकड़ा हुआ है
कलम पकड़ने
में। अभी वे
कुशल नहीं हैं,
अभी सारी
ताकत लगा कर
वे कुशलता
पूरी कर रहे हैं।
बच्चे कागज को
फाड़ देते
हैं, इतना
ताकत लगा कर
लिखते हैं।
ताकत लगाने की
कोई जरूरत
नहीं है। कई
तो बूढ़े भी
ऐसे लिखते हैं,
पूरी ताकत
लगा देते हैं।
ताकत का लिखने
से कोई
लेना-देना
नहीं है। लेकिन
भीतर कुशलता
की कमी है।
एक झेन
फकीर हुआ, लिंची।
वह अपने
शिष्यों को
चित्रकला
सिखाता था। वह
कहता था कि
अगर तुम्हें
जरा भी श्रम
मालूम पड़े, तो समझना कि
अभी तुम
कलाकार नहीं
हुए। अगर तुम्हें
जरा भी श्रम
मालूम पड़े कुछ
बनाते वक्त, तो समझना
अभी कमी है।
और जब श्रम
बिलकुल ही न पड़े,
जब तुम्हें
लगे ही नहीं, कि जैसे
तुमने कुछ भी
नहीं किया, ऐसे ही
तुमने कैनवस
पर पेंटिंग
बना दी, तो
ही जानना कि
तुम कुशल हुए
हो।
कुशलता
बल नहीं
मांगती, जीवन
का कोई आयाम
हो। अकुशलता
बल मांगती है।
ताओ के अनुसार
सलाह देने
वाला
शस्त्र-बल का
विरोध करेगा।
क्योंकि वह
बताता है
कुशलता की कमी
है।
"क्योंकि
ऐसी विजय, विजयी
के लिए भी
दुष्परिणाम
लाती है।'
और फिर
विजय, जो
हारता है, उसके
लिए तो
दुष्परिणाम
लाती ही है; जो जीतता है,
उसके लिए भी
दुष्परिणाम
लाती है।
नेपोलियन
ने अनेक
युद्धों के
अनुभव के बाद
एक पत्र में
लिखा है कि जो
हारता है वह
तो रोता ही है, लेकिन
जो जीतता है
वह भी रोता
है। क्योंकि
चारों तरफ
विध्वंस फैल
जाता है और
हाथ कुछ भी
नहीं लगता। सब
टूट जाता है, विकृत हो
जाता है, और
हाथ कुछ भी
नहीं लगता।
और
जिसे हरा कर
हम जीत जाते
हैं,
ध्यान रहे,
जिंदगी बड़ी
जटिलता है। आप
जब तक उसे हराए
नहीं थे, तब
तक आपका
दुश्मन भी
आपको बल देता
था। यह थोड़ा
कठिन है, लेकिन
समझने की
कोशिश करें।
जिस दिन आप
दुश्मन को हरा
देते हैं, उस
दिन दुश्मन
आपको बल नहीं
देता, आप
भी टूट गए
होते हैं।
खयाल
करें, आपका एक
दुश्मन आज मर
जाए, तो
आपकी जिंदगी
में उतनी ही
कमी हो जाएगी,
जितनी किसी
मित्र के मरने
से होती।
इसलिए समझदारों
ने तो कहा है
कि अच्छा
दुश्मन चुन
लेना, अच्छा
दुश्मन पा
जाना बड़ा
सौभाग्य है।
क्योंकि
अच्छे दुश्मन
से जो आपका
तनाव बना रहता
है, सेतु
बना रहता है, जो खिंचाव
बना रहता है।
वह सृजनात्मक
हो सकता है।
दुश्मन के
टूटते ही...।
इसको
ऐसा समझें कि
आज अमरीका हार
जाए;
तो आप सोचते
हैं, रूस
की गति का
क्या होगा? रूस के
विकास का क्या
होगा? सब
शून्य हो
जाएगा। या आज
रूस हार जाए
तो अमरीका के
सारे विकास का
क्या होगा? शून्य हो
जाएगा। वह
सारा विकास एक
सतत द्वंद्व
के बीच तनाव
में है। और आज
मैं समझता हूं
कि रूस और
अमरीका इस बात
को भलीभांति
समझते हैं कि
लड़ना उनके हित
में नहीं है, लड़ने का पोज
बनाए रखना
उनके हित में
है। लड़ना जरा
भी हित में
नहीं है, लेकिन
एक लड़ने की
मुद्रा बनाए
रखना हित में
है। उसकी
शिथिलता
खतरनाक हो
सकती है।
दुश्मन
को मिटा कर आप
भी मिट जाते
हैं;
क्योंकि उस
दुश्मन के साथ
स्पर्धा में
जो-जो निर्मित
हुआ था, वह
सब गिर जाता
है और क्षीण
हो जाता है।
हारा हुआ तो
हारता है, दुख
पाता है; जीते
हुए को भी
दुष्परिणाम
हाथ लगते हैं।
"जहां
सेनाएं होती
हैं, वहां
कांटों की झाड़ियां
लग जाती हैं।
और जब सेनाएं
खड़ी की जाती
हैं, तो
उसके अगले
वर्ष ही अकाल
की कालिमा छा
जाती है।
इसलिए एक
अच्छा
सेनापति अपना
प्रयोजन पूरा
कर रुक जाता
है।'
लाओत्से
यह कह रहा है
कि मजबूरी हो
सकती है कभी
राज्य के लिए, समाज
के लिए; व्यक्ति
के लिए कभी भी
नहीं। इसे भी
थोड़ा खयाल में
ले लें।
व्यक्ति के
लिए मजबूरी
कभी भी नहीं
है; लेकिन
समाज और
राष्ट्र के
लिए मजबूरी हो
सकती है।
क्योंकि एक
व्यक्ति का
सवाल नहीं है,
करोड़ों
लोगों का सवाल
है। तो
राष्ट्र को
कभी लड़ने पर
भी उतरना पड़
सकता है। तो
पहले तो ताओ को
मानने वाला
युद्ध की सलाह
नहीं देगा, सैन्य-शक्ति
की सलाह नहीं
देगा। और अगर
मजबूरी ही हो,
तो भी
सेनापति अगर
होशियार है तो
धमकी देकर रुक
जाएगा। युद्ध
में उतर जाना
नासमझ सेनापतियों
का काम है।
समझदार उस
सीमा तक रुक
जाएगा, जहां
सिर्फ बल का
दिखावा होता
है, लेकिन
बल का संघर्ष
नहीं होता।
कल मैं
आपसे कह रहा
था,
पशुओं में
सिर्फ बल का
दिखावा होता
है, संघर्ष
नहीं होता।
ज्यादा
होशियार
मालूम पड़ते
हैं। निसर्ग
शायद उन्हें
ज्यादा एक
अंतर्दृष्टि
दिए हुए है।
बल का प्रयोग
काफी होता है
दिखावे के लिए,
लेकिन कभी
उसका ठीक
प्रयोग नहीं
होता। इसके पहले
कि खतरा हो, पशु रुक
जाते हैं।
जैसे ही साफ
हो गई बात कि
कौन कमजोर है,
कौन ताकतवर
है, रुकावट
आ जाती है।
"सेनापति
अपना प्रयोजन
पूरा कर रुक
जाता है। वह
शस्त्र-बल का
भरोसा कदापि
नहीं करता।'
आमतौर
से हम सोचते
हैं कि
सेनापति
शस्त्र-बल का
भरोसा करता है; राज्य
तो शस्त्र-बल
के भरोसे पर
ही निर्भर होता
है। लेकिन
लाओत्से की
सलाह, ताओ
के अनुसार अगर
कभी कोई समाज
चलता हो, तो
उसके लिए यह
है कि भरोसा
शस्त्र-बल पर
नहीं होना
चाहिए। वह
अंतिम मजबूरी
है, एक
आवश्यक बुराई
है। न टाली जा
सके, ऐसी
बीमारी हो
सकती है, लेकिन
उसका भरोसा
नहीं होना
चाहिए। जिसका
उसे भरोसा है,
वह पहले ही
मौके पर उसका
उपयोग कर
लेगा। और जो समझदार
नहीं है, वह
जरूरत जब पूरी
हो जाएगी तब
भी नहीं
रुकेगा।
पिछले
महायुद्ध में
ऐसा हुआ।
जापान पर एटम
बम गिराने की
कोई भी जरूरत
न थी। जर्मनी
घुटने टेक रहा
था;
जापान के
पैर टूटे जा
रहे थे।
दो-चार दिन, सात दिन
ज्यादा से
ज्यादा, और
जापान विलीन
हो जाता।
लेकिन अमरीका
को शस्त्र-बल
का भरोसा था।
एटम हाथ में आ
गया था पहली दफा
आदमी के, वे
उसका उपयोग
करना चाहते
थे। जरूरत बिलकुल
भी न थी। कोई
हिरोशिमा-नागासाकी
में एक-एक लाख
लोगों के मर
जाने की जरा
भी जरूरत न थी।
लेकिन हाथ में
ताकत हो तो
नासमझ उसका
उपयोग करना
चाहेगा।
इसलिए
अमरीका का
अपराध क्षमा
नहीं किया जा
सकता। युद्ध
की कोई जरूरत
न रह गई थी।
जापान हार ही
रहा था। और
हारते हुए के
ऊपर एटम का
फेंकना
मजबूरी नहीं
थी,
विलास था।
अनावश्यक था।
अमरीका के
सेनापति भी
कहते हैं कि
सात दिन से
ज्यादा युद्ध
आगे जा नहीं
सकता था; बात
खतम हो गई थी।
हां, इससे
उलटी हालत हो
सकती थी कि
जापान जीत रहा
होता और
न्यूयार्क
में अमरीकी फौजें
घुटने टेक रही
होतीं और
उन्हें एटम बम
फेंकना पड़ता।
वह मजबूरी
होती, शस्त्र
का भरोसा न
होता। लेकिन
अमरीका जरा भी
खतरे में न
था। अमरीकी फौजें
जापान की छाती
में प्रवेश कर
गई थीं। जापान
टूट चुका था, उजड़
चुका था।
लेकिन इतनी
बड़ी ताकत उजड़ने
में भी एक
सप्ताह का
वक्त लेती है।
इतनी जल्दी
कोई भी आवश्यक
नहीं थी। एटम
बिलकुल अनावश्यक
था।
और
इसीलिए जो
बुद्धिमान
आदमी हैं, वे
इस पाप को गहन
पाप मानते
हैं। क्योंकि
यह उस शत्रु
की छाती में
छुरा भोंकने
जैसा था, जो
जमीन पर गिर
चुका था और जो
हाथ जोड़े पड़ा
था और माफी
मांग रहा था।
उसकी छाती में
छुरा भोंकने
जैसा था। यह
क्षम्य नहीं
है। लेकिन यह
हुआ क्यों?
यह हो
जाने का कारण
है। कारण
अमरीका की कोई
सभ्यता, कोई
संस्कृति
पुरानी नहीं
है, केवल
तीन सौ वर्ष!
नए से नया, कोई
समाज अगर
बचकाना हो
सकता है, तो
वह अमरीका है।
तीन सौ वर्ष
कोई उम्र होती
है जातियों के
लिए? जिनका
इतिहास तीन सौ
वर्ष का हो, उनकी समझ
बहुत गहरी
नहीं हो सकती।
जानकारी बहुत
हो सकती है, समझ बहुत
नहीं हो सकती।
विज़डम की
कमी होगी। तो
आज अमरीका के
पास जानकारी
तो बहुत है, इसीलिए तो
एटम भी बन
सका। लेकिन
समझ नहीं है। समझ
न होने के
कारण उसका
उपयोग हो गया।
लाओत्से
कहता है, सेनापति,
जो ताओ का
भरोसा करता है,
जो धार्मिक
है, जो
राज्य
धार्मिक है, वह
शस्त्र-बल का
भरोसा कदापि
नहीं करता।
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
उस पर गर्व
नहीं करता।
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
उसकी शेखी
नहीं बघारता।
अपना कर्तव्य
भर निभाता है,
उसके लिए
घमंड नहीं
करता। वह एक खेदपूर्ण
आवश्यकता के
रूप में युद्ध
करता है। इफेक्ट्स
हिज परपज
एज ए रिग्रेटेबल
नेसेसिटी।
एक खेदपूर्ण
आवश्यकता की
भांति--एक
मजबूरी, एक
बुराई, जो
करनी पड़ेगी, जिससे बचना
मुश्किल है।
लेकिन हिंसा
से प्रेम नहीं
करता।
"चीजें
अपना शिखर छूकर
फिर गिरावट को
उपलब्ध हो
जाती हैं।'
हिंसा
से प्रेम एक
बात है, और
हिंसा मजबूरी
में, बिलकुल
दूसरी बात है।
और इस भेद को
जो नहीं जानते,
वे बड़ी
मुश्किलों
में समाजों को
उलझा देते हैं।
इस पर हम थोड़ा
ध्यान दे लें।
एक तरफ वे लोग
हैं, जो
हिंसा के लिए
दीवाने हैं, मौके की
तलाश में हैं।
मौका मिल जाए,
वे हिंसा
करेंगे। फिर
वे यह न
देखेंगे कि
कहां तक जाना
जरूरी था। फिर
वे वहां तक
जाएंगे, जहां
तक जा सकते
थे। जरूरत का
कोई सवाल नहीं
है। हिंसा
उन्हें खेल हो
जाएगी, हिंसा
उनके लिए
शिकार हो
जाएगी। दूसरे
वे लोग हैं, जो दूसरी अति
पर चले जाएंगे,
जो अहिंसा
के लिए पागल
हो जाएंगे, और जो हिंसा खेदपूर्ण
आवश्यकता है,
उसको भी
करने में
शिथिल हो
जाएंगे।
ऐसा
हमने इस मुल्क
में किया।
हमने दूसरी
अति छुई। हमने
जो खेदपूर्ण
हिंसा थी, उसको
भी नहीं
करेंगे, ऐसा
दूसरी अति पर
चले गए। लेकिन
जब आप खेदपूर्ण
हिंसा नहीं
करेंगे, तो
दूसरा भी नहीं
करेगा, इसको
मानने का कोई
भी कारण नहीं
है। सच तो यह है
कि आपका न
करना दूसरे के
लिए निमंत्रण
बन जाएगा करने
का।
इसलिए
जैनों और
बौद्धों के
प्रभाव के बाद
भारत का पतन
शुरू हो गया।
क्योंकि
अहिंसा की
अति--कि किसी
भी स्थिति में
हिंसा नहीं
करेंगे--स्वभावतः
चारों तरफ से निमंत्रण
बन गई
हमलावरों के
लिए। कि जो
लोग भी हमला
करना चाहें, उनके
लिए भारत से
ज्यादा
सुविधापूर्ण
कोई जगह न
रही। इसलिए
बहुत क्षुद्र
शक्तियों ने
भारत को
पराजित किया।
भारत की कहानी
बड़ी अनूठी है।
असल में, अध्यात्म
के अतिशयपूर्ण
प्रयोग की
कहानी है।
भारत की कहानी
अनूठी है।
अनूठी कई
लिहाज से है।
पहला
तो यह कि इतना
बड़ा
देश--गौरव-सभ्यता
के शिखर पर!
विज्ञान के
संबंध में उस
समय पृथ्वी पर
कोई भी इतना
विकसित नहीं, जितना
भारत! आज जो
विज्ञान के
संबंध में
बहुत विकसित
हैं, वे उस समय
बिलकुल जंगली,
जिनके पास
कुछ समझ नहीं।
गणित की, ज्योतिष
की, धर्म
की ऊंचाइयां
स्पर्श कीं।
संगीत की, कला
की साहित्य की
ऊंचाइयां
स्पर्श कीं।
एक शिखर
स्वर्ण का! और
अचानक भूमिसात
हो गया। और
जिन्होंने
हराया, वे
बहुत क्षुद्र
थे। उनका कोई
नाम जानने
वाला भी न था।
भारत को नहीं
जीता था
उन्होंने तो
इतिहास में
उनका कभी कोई
उल्लेख न
होता। क्या
हुआ? अतिशय
कभी-कभी बड़े
खतरे हो जाते
हैं। भारत एकदम
दूसरी अति पर
उतर गया।
एक अति
है: जहां
जरूरी न हो
वहां हिंसा
करना, हिंसा
को खेल समझ
लेना, रक्तपात
को रस बना
लेना। एक
दूसरी अति है:
इतने भयभीत हो
जाना, इतने
डर जाना कि
जहां जरूरत हो
जाए, वहां
से भी हट
जाना।
ध्यान
रहे,
भारत ने
सर्जरी की
सबसे पहली खोज
की। सुश्रुत ने,
जो आज की
नवीनतम
सर्जरी है
उसके सूत्र
स्पष्ट लिखे
हैं।
प्लास्टिक
सर्जरी के
बाबत भी। लेकिन
फिर क्या हुआ?
बौद्धों और
जैनों के
प्रभाव में
सर्जरी भी
हिंसा मालूम
पड़ी। वह भी
नहीं करनी
चाहिए। किसी
की हड्डी काटनी,
हाथ काटना,
पेट काटना,
यह नहीं
किया जा सकता।
और फिर आदमी
को काटना हो, उसकी शरीर
की रचना, उसका
अस्थिपंजर, वह सब जानना
हो, तो
मुर्दे भी
काटना
पड़ेंगे। फिर
कुछ पशुओं को भी
काट कर
जानकारी लेनी
पड़ेगी। वह सब
नहीं हो सकता।
तो बीमारी सही
जा सकती है, भयंकर
बीमारियां
सही जा सकती
हैं, लेकिन
सर्जरी नहीं
की जा सकती।
सुश्रुत ने जो
खोजा था, अगर
सुश्रुत के
बाद तीन हजार
साल हम उस
सूत्र पर चलते,
तो पश्चिम
की सर्जरी आज
बचकानी होती।
लेकिन चलने का
कोई उपाय न
रहा; क्योंकि
सर्जरी में, शल्य-क्रिया
में हिंसा
मालूम पड़ने
लगी। वह नहीं
की जा सकती।
जैनों
ने तो अति कर
दी,
उन्होंने
खेती-बाड़ी बंद
कर दी।
क्योंकि उसमें
हिंसा! इसलिए
कोई जैन
खेती-बाड़ी
नहीं करता। क्योंकि
वृक्ष उखाड़ने
पड़ेंगे, पौधे
उखाड़ने
पड़ेंगे, काटने
पड़ेंगे। तो
पौधे में
प्राण हैं।
इसे
थोड़ा समझ लें।
पौधे को काटना
खेदपूर्ण
हिंसा है। कोई
चाहता नहीं।
अगर हम जी
सकें बिना
पौधे को काटे, तो
कोई काटने की
जरूरत नहीं
है। और फिर
अगर मैं न भी काटूं, तो
कोई दूसरा
मेरे लिए
काटेगा। फर्क
कहां पड़ता है?
जैन गेहूं
तो खाएंगे ही।
कोई और बनाएगा,
कोई और
काटेगा। तो
इतना ही हुआ
कि हिंसा हम
दूसरे से करवा
रहे हैं, अपने
दलालों से
करवा रहे हैं।
बाकी जब मैं
भोजन ले रहा
हूं, जब तक
मैं भोजन ले
रहा हूं, तो
भोजन लेने में
जो भी हिंसा
होगी, उसका
जिम्मा तो
मेरा होगा।
तो
जैनों ने बंद
कर दी। जैन हट
गए। जैन
इसीलिए सब
दुकानदार हो
गए,
क्योंकि
कोई उपाय न
रहा।
क्षत्रिय थे
मूलतः वे; क्योंकि
महावीर और
जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर क्षत्रिय
थे। तलवार
उनके हाथ में
ही थी, ऐसे
वे पैदा हुए
थे। निश्चित
ही जब उनके
चौबीस
तीर्थंकर
क्षत्रिय थे,
तो उनके मानने
वाले अधिक लोग
क्षत्रिय
होंगे। क्षत्रिय
रहने का कोई
उपाय न रहा, क्योंकि
हिंसा तो की
नहीं जा सकती।
ब्राह्मण होने
का कोई दरवाजा
नहीं था; क्योंकि
जन्म से कोई
ब्राह्मण
होता है। शूद्र
कोई होना नहीं
चाहता था।
इसलिए वणिक
होने के सिवाय
कोई उपाय नहीं
रह गया। खेती-बाड़ी
की जा नहीं
सकती, शूद्र
कोई हो नहीं
सकता; तो
सिर्फ दुकान
चलाने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं रह
गया।
यह जो
अति पैदा हो
जाती है, यह
अति खतरे में
ले जाती है--एक
से दूसरे खतरे
में। कुएं से
बचते हैं, खाई
में गिर जाते
हैं। तो एक
शिखर छूकर
भारत एकदम
नीचे गिर गया।
इसलिए भारत के
मन में अभी भी
हरा है वह घाव।
और हमारे मन
में ऐसा लगता
है कि कोई एक
स्वर्ण-शिखर
था अतीत में, जिसे हम
छूकर हट गए।
इसलिए हमारा
मन बार-बार पीछे
लौट जाता है।
उसमें थोड़ी
सचाई है। एक
शिखर हमने छुआ
था। लेकिन
होता खतरा तभी
है, जब कोई
शिखर छू लेता है।
उदाहरण दूं तो
खयाल में आ
जाए।
जब हम
सभ्यता के
इतने शिखर पर
थे और विलास
की सुविधा थी, इस
विलास की भी
कि हम चाहें
तो अहिंसा की
अति में चले
जाएं। यह भी
सिर्फ तभी
संभव हो सकता
है, जब लोग
बहुत खुशहाल
हों। तब इतना
सोच सकें, इतनी
बारीक, सूक्ष्म
अहिंसा की बात
सोच सकें। तो
हम हट गए।
आज
अमरीका भी ठीक
वैसी हालत में
है। आज अमरीका
समृद्ध है, संपन्न
है। आज उसके
बच्चे युद्ध
से हटना चाहते
हैं। आज
अमरीका में
जितना, वियतनाम
में युद्ध न
हो, इसका
विरोध है, ऐसा
कभी किसी
मुल्क में
नहीं हुआ कि
उसका मुल्क लड़
रहा हो और
मुल्क के भीतर
इतना भयंकर
विरोध हो।
आप
थोड़ा सोचें
भारत में कि
भारत
पाकिस्तान से लड़
रहा हो और
भारत के सारे
युनिवर्सिटी
और कालेजों
में और सारे
युवा-समाज में
इसका विरोध
हो--कि नहीं, यह
लड़ाई गलत है।
ऐसा कभी
दुनिया में
हुआ नहीं; क्योंकि
जब मुल्क लड़ता
है, तो
पूरा मुल्क
दीवाना और
पागल हो जाता
है। और जो
दीवाना और पागल
नहीं होगा, वह गद्दार
और देशद्रोही
मालूम पड़ेगा।
अमरीका
में यह पहली
दफा हो रहा
है। होने का
कारण है। अति
संपन्नता में
ही दूसरी अति
पर जाने की
सुविधा होती
है। यह भारत
में हुआ।
बुद्ध और
महावीर के
वक्त हम एक
शिखर पर
पहुंचे। एक
ऊंचाई थी। और
तब हमने कहा
कि हम नहीं
लड़ेंगे--मिट
जाएंगे, लड़ेंगे
नहीं। तब
दूसरे को मौका
मिल गया। अगर
आज अमरीका
अपने लड़कों की
बात मान ले, तो अमरीका
वैसा ही
गिरेगा, जैसा
भारत कभी
गिरा। और हो
सकता है लड़के
मनवा दें।
क्योंकि आज
नहीं कल ताकत
उनके हाथ में
आएगी; आज
नहीं कल वे
सत्ता में
होंगे। और एक
अति से दूसरी
अति पर मन का
जाना बहुत
आसान है।
लाओत्से
दूसरी अति पर
जाने को नहीं
कह रहा है।
लाओत्से कहता
है,
एक खेदपूर्ण
आवश्यकता के
रूप में युद्ध
करता है एक
सच्चा सेनापति।
युद्ध करता है,
लेकिन
हिंसा से
प्रेम नहीं
करता।
बड़ा
कठिन है, युद्ध
करना और हिंसा
से प्रेम नहीं
करना। लेकिन
ताओ को मानने
वाले लोगों ने
चीन में और
जापान में इस
तरह का सैनिक
निर्मित करने
का महान प्रयोग
किया, जो
युद्ध करता है,
लेकिन
हिंसा से
प्रेम नहीं
करता। अगर
आपने समुराई
नाम सुना हो, तो जापान में
समुराइयों
की एक बड़ी
जमात पैदा हुई,
यह एक खास
तरह के सैनिक
का नाम समुराई
है। उस सैनिक
का नाम समुराई
है, जो
युद्ध तो करता
है, लेकिन
हिंसा से
प्रेम नहीं
करता। तब इस
समुराई की
सारी
शिक्षा-पद्धति
बड़ी अनूठी है।
इसे तलवार
सिखाने के
पहले ध्यान
सिखाया जाता
है। और इसे
युद्ध पर
भेजने के पहले
स्वयं के भीतर
जाना होता है।
और यह दूसरे
को काटने जाए,
उसके पहले
इसे उस अनुभव
से गुजरना
होता है, जहां
यह जानता है
कि आत्मा काटी
नहीं जा सकती।
यह बड़ी
कठिन बात है।
क्योंकि
संन्यासी
होना एक बात
है,
आसान है।
सैनिक होना भी
आसान है।
लेकिन
संन्यासी और
सैनिक एक साथ
होना बहुत कठिन
है। समुराई
संन्यासी और
सैनिक एक साथ
है।
कृष्ण
ने भी अर्जुन
को समुराई
बनाने की
कोशिश गीता
में की है। वह
समुराई बनाने
की कोशिश है--सैनिक
और संन्यासी
एक साथ। वे
कहते हैं, तू
लड़! क्योंकि
अगर न लड़े, वह
अति होगी। वे
यह भी नहीं
कहते कि लड़ने
को तू जीवन का
कोई अंत समझे;
वह भी अति
होगी। अर्जुन
को आसान था, कृष्ण कह
देते, काट!
कोई आत्मा
नहीं है, कोई
परमात्मा
नहीं है, आदमी
सिर्फ शरीर
है। गीता में
आगे जाने की
जरूरत न थी।
अर्जुन को
इतना पक्का हो
जाता कि आदमी
सिर्फ शरीर है,
काटने-पीटने
में कोई हर्ज
नहीं है, वह
लोगों को
वृक्षों की
पंक्ति की
भांति काट डालता।
अगर उसे कोई
भरोसा दिला
देता
भौतिकवाद का,
तो कोई अड़चन
न थी, वह
सैनिक हो
जाता। शुद्ध
सैनिक वह था।
या अगर कोई
उसे भरोसा
दिला देता कि
हर स्थिति में
हिंसा पाप है,
तू भाग जा, तो वह
बिलकुल तैयार
था भाग जाने
को। वह
संन्यासी हो
जाता।
उसे एक
बहुत ही अजीब
आदमी से
मुलाकात हो
गई। वह जो
सारथी बना कर
बैठा था, उससे
ज्यादा अजीब
आदमी खोजना
मुश्किल है।
उसने दोनों
बातें कहीं।
वह बातें तो
महावीर जैसी
करने लगा
सारथी; आत्मा
अमर है, और
जीवन का परम
लक्ष्य
परमात्मा को
पाना है, और
मुक्ति--यह
बात करने लगा।
वह
माक्र्स जैसी
बात करते
कृष्ण, अर्जुन
की समझ में आ
जाती; अर्जुन
काट देता वैसे
ही मजे से, जैसे
स्टैलिन ने एक
करोड़ लोग
काट डाले। कोई
अड़चन ही न
रही। यह बात
अगर पक्की
खयाल में आ
जाए कि दूसरी
तरफ कोई आत्मा
है ही नहीं, सिर्फ शरीर,
एक यंत्र है,
तो यंत्र को
तोड़ने में
क्या अड़चन आती
है? कोई
अंतर-ग्लानि
भी नहीं होती,
कोई
अंतःकरण को
पीड़ा भी नहीं
होती। अगर
माक्र्स मिल
जाता तो भी
अर्जुन को
शांति मिल
जाती, वह
युद्ध में उतर
जाता। या
महावीर मिल
जाते तो वह
तलवार छोड़ कर
जंगल चला
जाता।
मगर यह
जो आदमी मिल
गया कृष्ण, इसने
दिक्कत में
डाल दिया।
इसने कहा, व्यवहार
तो तू ऐसे कर, जैसे दुनिया
में कोई आत्मा
नहीं है--काट!
और भलीभांति
जान कि जिसे
तू काट रहा है,
उसे काटा
नहीं जा सकता।
यह दो अतियों
के बीच में जो
बात थी, बीच
में खड़ा हो जा
संतुलित, यह
अर्जुन को
मुश्किल पड़ी।
और पता नहीं
अर्जुन कैसे
इस मुसीबत के
बीच अपने
संतुलन को
उपलब्ध कर
पाया।
भारत
तो अभी तक
नहीं कर पाया।
यह कृष्ण की
बात बहुत चलती
है,
गीता इतने
लोग पढ़ते हैं;
लेकिन भारत
से गीता का
कोई भी संबंध
नहीं है। भारत
में या तो अति
वाले लोग हैं
जो अहिंसा को
मानते हैं, और या दूसरी
अति वाले लोग
हैं जो हिंसा
को मानते हैं।
लेकिन भारत
में अर्जुन
जैसा व्यक्तित्व
पैदा नहीं हो
सका। गीता
बिलकुल ही
भारत के सिर
पर से चली गई
है। उसने कभी
हृदय को भारत
के छुआ नहीं।
हालांकि यह
बात उलटी
मालूम पड़ेगी;
क्योंकि
घर-घर गीता
पढ़ी जाती है।
गीता जितनी पढ़ी
जाती है, और
कुछ पढ़ा नहीं
जाता। गीता
लोगों को
कंठस्थ है, लेकिन छू
नहीं सकी। छू
नहीं सकती, क्योंकि
बहुत कठिन बात
है। सैनिक और
संन्यासी एक
साथ, इससे
ज्यादा कोई
कठिन बात
दुनिया में
संभव नहीं है।
यह सर्वाधिक
नाजुक मार्ग
है।
लाओत्से
भी ठीक कृष्ण
से सहमत है।
लाओत्से कहता
है,
"वह युद्ध
करता है, लेकिन
हिंसा से
प्रेम नहीं
करता।'
और फिर
एक बात कहता
है,
जो बड़े मतलब
की है, "चीजें
अपना शिखर
छूकर फिर
गिरावट को
उपलब्ध हो
जाती हैं।'
लाओत्से
कहता है, विजय
अगर तुमने पा
ली, तो जल्दी
ही तुम
हारोगे।
इसलिए विजय
पाना मत, विजय
को शिखर तक मत
ले जाना। किसी
चीज को इतना मत
खींचना कि ऊपर
जाने का फिर
उपाय ही न रह
जाए। फिर नीचे
ही गिरना रह
जाता है।
लाओत्से कहता
है, सदा
बीच में रुक
जाना।
अतिवादी
कभी बीच में
नहीं रुकता, खींचता
जाता है। और
एक जगह आती है,
जहां से फिर
नीचे उतरने के
सिवाय कोई
रास्ता नहीं
रह जाता। आखिर
हर शिखर से
उतराव होगा
ही। लेकिन
लाओत्से की
बात किसी ने
भी नहीं सुनी
है कभी। सभी
सभ्यताएं अति
कर जाती हैं; एक शिखर पा
लेती हैं, और
गिर जाती हैं।
कितनी
सभ्यताएं
शिखर छूकर गिर
चुकी हैं! फिर
भी वह दौड़
नहीं रुकती। बेबीलोन, असीरिया,
मिस्र अब
कहां हैं? एक
बड़ा शिखर छुआ,
फिर नीचे
गिर गए।
अभी भी
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
इजिप्त के जो पिरामिड्स
हैं,
उतने बड़े
पत्थर किस
भांति चढ़ाए
गए, यह अभी
भी नहीं समझा
जा सकता। कुछ
पत्थर गिजेह
के पिरामिड
में इतने बड़े
हैं कि हमारे
पास जो बड़ी से
बड़ी क्रेन है,
वह भी
उन्हें उठा कर
ऊपर नहीं चढ़ा
सकती। बड़ी हैरानी
की बात मालूम
पड़ती है! तो
फिर इजिप्त उनको
आज से कोई छह
हजार साल पहले,
सात हजार
साल पहले, कैसे
चढ़ा सका? अब
तक यही समझा
जाता था कि
आदमियों के
सहारे। लेकिन
उस पत्थर को चढ़ाने के
लिए तेईस हजार
आदमियों की एक
साथ जरूरत पड़ेगी।
तो उनके हाथ
ही नहीं पहुंच
सकते पत्थर तक।
तेईस हजार
आदमी एक पत्थर
को उठाएंगे
कैसे? क्या
राज रहा होगा?
वे पत्थर
कैसे चढ़ाए
गए?
इजिप्त
की पुरानी
किताबें कहती
हैं कि इजिप्त
ने ध्वनि की
कीमिया खोज ली
थी। और एक
विशेष ध्वनि
करते ही पत्थर
ग्रेविटेशन
खो देते थे; उनका
जो वजन है, वह
खो जाता था।
आज कहना
मुश्किल है कि
यह कहां तक
सही है। लेकिन
और कोई उपाय
भी नहीं है
सिवाय यह
मानने के कि
उन्होंने कुछ
मंत्र का, कुछ
ध्वनि का उपाय
खोज लिया था।
चारों तरफ एक विशेष
ध्वनि करने से
एंटी-ग्रेविटेशन,
जो
गुरुत्वाकर्षण
है, उसकी
विपरीत
स्थिति पैदा
हो जाती थी, और पत्थर
उठाया जा सकता
था।
यहां
पूना के पास, कोई
पचास मील दूर,
सिरपुर में एक
पत्थर है। एक
मस्जिद के पास
पड़ा हुआ है।
जिस दरवेश की,
जिस फकीर की
वह मजार है, नौ आदमी, ग्यारह
आदमी अपनी छिगलियां
उस पत्थर में
लगा दें और
फकीर का नाम
लें जोर से, तो
अंगुलियों के
सहारे वह बड़ा
पत्थर उठ आता
है सिर के ऊपर
तक। बिना नाम
लिए ग्यारह
आदमी कितनी ही
कोशिश करें, वह पत्थर
हिलता भी
नहीं। पर एक
क्षण को वह
पत्थर ग्रेविटेशन
खो देता है।
वैज्ञानिक
उसका अध्ययन
करते रहे, लेकिन
अब तक उसकी
कोई बात साफ
नहीं हो सकी
कि मामला क्या
है। उस फकीर
के नाम में
कोई ध्वनि, आस-पास
पत्थर के, निर्मित
हो जाती है और
पत्थर उठ जाता
है।
पर
जिन्होंने
ध्वनि के
सहारे इतने
बड़े पत्थर पिरामिड
पर चढ़ाए
होंगे, वे आज
कहां हैं? वे
खो गए। एक शिखर
छुआ। आज
पिरामिड खड़े
रह गए हैं, लेकिन
उनको बनाने
वालों का कुछ
भी पता नहीं
रहा। असीरिया,
बेबीलोन,
सब खो गए, जहां सभ्यता
जनमी।
प्लेटो ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि इजिप्त से यात्रा
करके लौटे हुए
एक व्यक्ति ने
बताया कि इजिप्त
के मंदिर के
बड़े पुजारी ने, सोलन
ने, उसे
बताया है कि
कभी एक
महाद्वीप परम
सभ्यता को
उपलब्ध हो गया
था। अटलांटिस
उस महाद्वीप
का नाम था; फिर
वह पूरी
सभ्यता के साथ
समुद्र में खो
गया। क्यों खो
गया, इसका
कोई कारण आज
तक नहीं खोजा
जा सका। लेकिन
जो भी मनुष्य
जान सकता है, वह अटलांटिस
की सभ्यता ने
जान लिया था।
खो जाने का
क्या कारण
होगा, इस
पर लोग चिंतन
करते हैं।
हजारों
किताबें लिखी
गई हैं अटलांटिस
पर। और अधिक
लोगों का यही
निष्कर्ष है
कि अटलांटिस
ने इतनी
विज्ञान की
क्षमता पा ली
कि अपने ही विज्ञान
के शिखर से
गिरने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं रह
गया। वह अपनी
ही जानकारी के
भार से डूब
गया। या तो
कोई विस्फोट
उसने कर लिया
अपनी ही
जानकारी से, जैसा आज हम
कर सकते हैं।
आज कोई
पचास हजार
उदजन बम
अमरीका और रूस
के तहखानों
में इकट्ठे
हैं। अगर जरा
सी भी भूल हो
जाए और इनका
विस्फोट हो
जाए,
तो अटलांटिस
नहीं, पूरी
पृथ्वी बिखर
जाएगी। इसलिए
आज जहां-जहां
एटम बम इकट्ठे
हैं, उनकी तीनत्तीन
चाबियां--क्योंकि
एक आदमी का
दिमाग जरा
खराब हो जाए, गुस्सा आ
जाए, किसी
का पत्नी से झगड़ा हो
जाए और वह
सोचे कि खतम
करो इस दुनिया
को--तो तीनत्तीन
चाबियां रखी
हुई हैं कि जब
तक तीन आदमी
राजी न हों, तब तक कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। लेकिन
तीन आदमी भी
राजी हो सकते
हैं। तीन आदमी
राजी हो सकते
हैं, सारी
पृथ्वी मिटाई
जा सकती है।
अटलांटिस
पूरा डूब गया
शिखर को पाकर।
खयाल यह है कि
उसका ज्ञान ही
उसकी मृत्यु
का कारण बना।
अभी इस
तरह के पत्थर
मिलने शुरू
हुए हैं सारी
दुनिया में।
अब तक उन
पत्थरों पर
खुदी हुई तस्वीरों
का कुछ अंदाज
नहीं लगता था।
लेकिन अब लगता
है। अभी आपके
जो चांद से
यात्री आकर
लौटे हैं, वे
जिस तरह का
नकाब पहनते
हैं और जिस
तरह के वस्त्र
पहनते हैं, उस तरह के
वस्त्र और
नकाब पहने हुए
दुनिया के कोने-कोने
में पत्थरों
पर मूर्तियां
हैं और चित्र
हैं।
अब तक
हम जानते भी
नहीं थे कि ये
क्या हैं। लेकिन
अब बड़ी कठिनाई
है। जिन लोगों
ने ये चित्र खोदे
हैं पत्थरों
पर,
उन्होंने
अगर अंतरिक्ष
यात्री न देखे
हों, तो ये
चित्र खोदे
नहीं जा सकते।
और अगर ये दस-दस
हजार साल
पुराने चित्र
पत्थरों पर जो
खुदे हैं,
अगर
इन्होंने भी
अंतरिक्ष
यात्री देखे
हैं, तो
सभ्यताएं
हमसे भी पहले
काफी
यात्राएं कर चुकी
हैं, शिखर
छू चुकी हैं।
मैक्सिको
में कोई बीस
मील के बड़े
पहाड़ पर चित्र
खुदे हुए
हैं। वे चित्र
ऐसे हैं कि
नीचे से तो
देखे ही नहीं
जा सकते; क्योंकि
उनका विस्तार
बहुत बड़ा है।
बीस मील की
सीमा में वे
चित्र खुदे
हुए हैं, और
एक-एक चित्र
मीलों तक फैला
है। तो नीचे
से तो उनको
देखने का ही
उपाय नहीं है;
उनको देखने
के लिए सिवाय
हवाई जहाज के
कोई उपाय नहीं
है। और वे
चित्र कोई
पंद्रह हजार
वर्ष पुराने
हैं।
तो अब
बड़ी कठिनाई है
यह कि या तो
जिन्होंने चित्र
खोदे थे, उन्होंने
हवाई जहाज के
यात्रियों को
देखने के लिए
खोदे थे। और
अगर हवाई जहाज
नहीं था पंद्रह
हजार साल पहले,
तो इन
चित्रों को
खोदना भी
मुश्किल है।
इनके खोदने का
कोई प्रयोजन
भी नहीं है।
क्योंकि इनको
कोई देख ही
नहीं सकेगा
जमीन पर। इतनी
दूरी से ही वे
चित्र दिखाई
पड़ सकते हैं!
तो वैज्ञानिक
कठिनाई में
हैं कि अगर हम
यह मानें कि
पंद्रह हजार
साल पहले हवाई
जहाज था, तो
हमें यह
भ्रांति छोड़
देनी पड़ेगी कि
हमने ही पहली
दफा हवाई जहाज
निर्मित कर
लिया है। अगर पंद्रह
हजार साल पहले
हवाई जहाज था,
तो
सभ्यताएं
हमसे पहले भी
शिखर पा चुकी
हैं।
वे
सभ्यताएं
कहां हैं आज? आज
उनका कोई
नामलेवा भी
नहीं है। आज
उनका कुछ निशान
भी नहीं छूट
गया है। ये भी
अनुमान हैं हमारे।
इनके बाबत भी
कुछ निश्चित
नहीं कहा जा सकता।
लाओत्से
कहता है, सभी
चीजें शिखर पर
जाकर नीचे गिर
जाती हैं। सभी
चीजें! विजय
भी शिखर पर
जाकर गिर जाती
है। सफलता भी
शिखर पर जाकर
गिर जाती है।
यश भी शिखर पर
जाकर गिर जाता
है।
लाओत्से
कहता है, इसलिए
बुद्धिमान
आदमी कभी किसी
चीज को शिखर तक
नहीं खींचता।
वह गिरने का
उपाय है। वह
अपने हाथ नीचे
उतर आने की
व्यवस्था है।
"हिंसा
ताओ के विपरीत
है। और जो ताओ
के विपरीत है,
वह शीघ्र
नष्ट हो जाता
है।'
हिंसा
अति है; विध्वंसात्मक
अति है। और जो
अति पर जाएगा,
वह नष्ट हो
जाएगा। लेकिन
लाओत्से यह
कहता है कि
ताओ के विपरीत
है हिंसा, प्रकृति
के विपरीत है
हिंसा। इसे हम
समझने की
कोशिश करें।
अगर
कोई आपकी
हिंसा करे तो
अच्छा नहीं
लगता। किसको
अच्छा नहीं
लगता? आपके
निसर्ग को, आपकी
प्रकृति को।
जब आप किसी के
साथ हिंसा करते
हैं, उसे
भी अच्छा नहीं
लगता। किसको
अच्छा नहीं लगता?
उसकी
प्रकृति को, उसके निसर्ग
को। इस दुनिया
में हिंसा
किसी को भी
प्रिय नहीं
है। कोई की भी
प्रकृति नहीं
चाहती कि
हिंसा हो। फिर
भी हम हिंसा करते
हैं। जो हम
दूसरे के साथ
कर रहे हैं, वह हम अपने
साथ नहीं
चाहते कि कोई
करे। दूसरा भी
नहीं चाहता।
और जब सभी के
भीतर का
निसर्ग नहीं
चाहता कि
हिंसा हो, तो
एक बात तय है कि
हिंसा
प्रकृति के
प्रतिकूल है।
और जो प्रकृति
के प्रतिकूल
है, लाओत्से
कहता है, वह
नष्ट हो जाता
है।
हो ही
जाएगा।
क्योंकि
प्रकृति के
प्रतिकूल होने
का कोई उपाय
नहीं है। हम
चेष्टा कर
सकते हैं, लेकिन
प्रकृति के
प्रतिकूल हम
हो नहीं सकते।
होने में हम टूटेंगे
और नष्ट हो
जाएंगे।
क्यों? क्योंकि
हमारा होना
प्रकृति का
अंग है। यह मेरा
हाथ है, यह
मेरे खिलाफ
कैसे हो सकता
है? अगर यह
मेरा अंग है, तो यह मेरे
खिलाफ कैसे हो
सकता है? एक
ही रास्ता है
इसके खिलाफ
होने का कि
इसको लकवा लग
जाए, रुग्ण
हो जाए। मैं
कहूं कि उठो, और यह न उठ
सके। यह बीमार
हो जाए इतना
तो ही मेरे
खिलाफ जा सकता
है। यह स्वस्थ
हो तो मेरे
खिलाफ नहीं जा
सकता। लेकिन
बीमार होकर यह
मेरे खिलाफ ही
नहीं जा रहा
है, यह
अपना भी विनाश
कर रहा है।
इसलिए
जब भी कोई
आदमी स्वस्थ
होता है तो
प्रकृति के
प्रतिकूल
नहीं होता। हो
नहीं सकता। और
जब कोई आदमी
रुग्ण होता है
तो प्रकृति के
प्रतिकूल
होता है। हम
इसे उलटा भी
कह सकते हैं
कि प्रकृति के
प्रतिकूल जो
होता है, वह
रुग्ण हो जाता
है। इसलिए जब
कोई प्रकृति
के प्रतिकूल
चलता है तो
अपने हाथ से
क्षीण होता है,
टूटता है, नष्ट होता
है। किसी भी
दिशा में
प्रकृति के
प्रतिकूल
होने का कोई
उपाय नहीं है।
अनुकूल होकर
ही स्वास्थ्य
और जीवन है, और अनुकूल
होकर ही आनंद
और शांति है।
और जो परम
अनुकूल हो
जाता है, वह
मोक्ष को
उपलब्ध हो
जाता है। परम
अनुकूलता का
अर्थ हम समझ
लें तो
प्रतिकूलता
भी खयाल में आ
जाए।
परम अनुकूलता
का अर्थ है कि
जिसको यह खयाल
ही नहीं रहता
कि मैं हूं।
प्रकृति ही
है। जब तक
मुझे खयाल है
कि मैं हूं, तब
तक थोड़ा-बहुत
विरोध रहेगा।
मैं का भाव
बिना विरोध के
हो नहीं सकता;
थोड़ा-बहुत
विरोध रहेगा।
तब तक मैं कुछ
न कुछ करता
रहूंगा।
लेकिन जब मैं
हूं ही नहीं, प्रकृति ही
है मेरे भीतर
और बाहर, तो
सब विरोध शांत
हो गया।
बुद्ध
के संबंध में
कहा जाता है:
वे ऐसे आते हैं
जैसे हवा आए, वे
ऐसे चले जाते
हैं जैसे हवा
चली जाए; न
दिखाई पड़ता
उनका आना, न
दिखाई पड़ता
उनका जाना।
इसलिए बुद्ध
का एक नाम है
तथागत। जो आया
और गया, लेकिन
जिसके
आने-जाने की
कोई चोट नहीं
पड़ती। तथागत का
मतलब होता है:
जो ऐसे आए कि
पता भी न चले, जो ऐसे चला
जाए कि पता भी
न चले। बुद्ध
के प्यारे से
प्यारे नाम
में तथागत है।
हजारों नाम बुद्ध
को दिए गए हैं,
लेकिन
तथागत की खूबी
ही और है। आया,
गया, और
हमें पता भी न
चले।
जब कोई
इतना एक हो
जाता है
प्रकृति के
साथ कि जैसे
प्रकृति ही
उसमें उठती है
और प्रकृति ही
बैठती है और
प्रकृति ही
सोती है और
प्रकृति ही चलती
है,
तब परम
मुक्ति।
इसलिए अहंकार
का इतना विरोध
है; क्योंकि
अहंकार ही
आपकी मुक्ति
में बाधा है। जितना
आपको लगता है
मैं हूं, उतना
ही आपका आनंद
दूर है। और
जितना आपको
लगे मैं नहीं
हूं, उतना
ही आनंद निकट
है। जिस दिन
लगे मैं हूं
ही नहीं...।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
जो बुझ जाता
है, जैसे
दीया बुझ जाए,
ऐसा जिसका
अहंकार बुझ
जाता है, जो
मिट जाता है, जैसे बूंद
सागर में खो
जाए, ऐसा
जो खो जाता है,
वही मुक्त
है।
इसलिए
बुद्ध से कभी
लोग जाकर
पूछते हैं कि
मेरी मुक्ति
कैसे होगी? तो
बुद्ध कहते
हैं, तुम्हारी
मुक्ति का कोई
उपाय नहीं है।
तुमसे मुक्ति
हो सकती है, तुम्हारी
मुक्ति नहीं
हो सकती।
कीमती बात है।
बुद्ध कहते
हैं, तुमसे
मुक्ति हो
सकती है, तुम्हारी
मुक्ति नहीं
हो सकती। तो
यह मत पूछो कि
मैं कैसे
मुक्त हो जाऊं,
यह पूछो कि
मैं मुझसे
कैसे मुक्त हो
जाऊं।
सारा
उपद्रव मेरे
मैं का है; क्योंकि
मेरा मैं मुझे
अलग करता है।
अगर मैं अनुकूल
हूं तो मेरी
कोई हिंसा
नहीं रह जाती।
फिर जो भी
होता है, मैं
राजी हूं।
महावीर
के कान में
कोई खूंटियां
ठोंक गया है, लहूलुहान
उनका कान हो
रहा है। बड़ी
मीठी कहानी है।
इंद्र ने
महावीर को आकर
प्रार्थना की
है कि मैं
आपकी रक्षा का
इंतजाम करूं?
यह तो बहुत
अशोभन है, और
हमें पीड़ा
होती है कि
कोई आपके कान
में खीलियां
ठोंक जाए। तो
महावीर ने कहा
कि मैं राजी
हूं; जो हो
जाए, उसके
लिए राजी हूं।
क्योंकि अगर
मैं राजी नहीं
हूं, तो
मैं हिंसा
करूं या न
करूं, मन
में हिंसा हो
ही जाएगी। अगर
मैं राजी नहीं
हूं तो हिंसा
हो गई; न
राजी होना ही
हिंसा है। तो
मैं राजी हूं।
और जो मेरे
कानों में खीलियां
ठोंक गया है, उसकी बड़ी
कृपा है।
क्योंकि उसने
मुझे एक मौका दिया,
जिसका मुझे
पहले कोई
अनुभव नहीं
था। उसने मुझे
एक मौका दिया
कि जब मेरे
कानों में कोई
खीलियां
ठोंक रहा हो, तब भी मैं
राजी होता हूं
या नहीं होता
हूं। तब भी
मैं राजी था।
और उसने मुझे
मुक्ति का एक
अदभुत स्वाद
दे दिया, कानों
में खीलियां
ठोंक कर। अब
कोई मेरे
कानों में खीलियां
ठोंक कर भी
मुझे दुखी
नहीं कर सकता,
इस सत्य को
मैं जान गया
हूं। अब मुझे
कोई दुखी ही
नहीं कर सकता,
इस सत्य को
मैं जान गया
हूं। अब मेरी
कोई हत्या भी
कर दे तो मुझे
दुखी नहीं कर
सकता। मैं मुक्त
हो गया हूं, मैं दूसरों
से मुक्त हो
गया हूं।
लेकिन
दूसरों से कोई
तभी मुक्त
होता है, जब
अपने से मुक्त
हो जाए। वह जो
अपने से बंधा
है, दूसरों
से बंधा
रहेगा। असल
में, दूसरों
से हम इसीलिए
बंधे हैं कि
अपने से बंधे
हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
कैसे
मुक्ति होगी!
पत्नी है, बच्चा
है, घर है, दुकान है।
वे यह कह रहे
हैं कि जब तक
इसको छोड़ कर न
भाग
जाएं--पत्नी
को, बच्चों
को, दुकान
को--तब तक
मुक्ति नहीं
हो सकती। वे
ऐसा बता रहे
हैं कि जैसे
ये सब उन्हें
बांधे हुए हैं।
कौन
किसको बांधे
हुए है? जब
कोई मेरे पास ऐसा
आता है, तो
मैं उससे
पूछता हूं, मानो तुम
अभी मर गए तो
ये लोग
तुम्हें रोक
पाएंगे? नहीं,
फिर नहीं
रोक पाएंगे।
तो मैंने कहा,
जब ये फिर
नहीं रोक
पाएंगे, जब
ये मृत्यु में
नहीं रोक
पाएंगे, तो
मुक्ति में
कैसे रोक पा
सकते हैं? इनका
बल कितना है?
इनका
कोई बल नहीं
है। तुम्हीं
बहाने कर रहे
हो,
तुम्हीं कह
रहे हो कि यह
पत्नी की वजह
से मैं अटका
हुआ हूं। और
पत्नी सोच रही
है कि पति की
वजह से अटकी
हुई है। दोनों
किसी की वजह
से नहीं अटके
हुए हैं, अपनी
वजह से अटके
हुए हैं। यह
आदमी पत्नी के
बिना नहीं रह
सकता, इसलिए
अटका हुआ है।
लेकिन यह कह
रहा है कि
पत्नी मुझे अटकाए हुए
है। और यह सच
है कि यह आदमी
अगर भाग कर
कहीं और चला
जाए तो कहीं
और पत्नी खोज
लेगा; बच
नहीं सकता। और
तब यह फिर
कहेगा कि फिर
जाल खड़ा हो
गया।
वह जाल
कोई खड़ा नहीं
कर रहा है, वह
जाल इसके भीतर
है। वह जाल
मैं के साथ होता
ही है। तो यह
अगर आज दुकान
छोड़ दे तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता; कल
एक मंदिर का
पुजारी हो
जाएगा, या
एक आश्रम का
मालिक हो
जाएगा, तब
वही जाल शुरू
हो जाएगा।
एक
मित्र को मैं
जानता हूं; उनको
दो हालत में
मैंने देखा।
एक बार उनके
गांव गया था
तो वे अपना
मकान बना रहे
थे। संयोग की
बात थी, उनके
घर के सामने
से निकल गया
तो मैं रुक
गया। वे छाता
लगाए हुए, धूप
थी तेज, मकान
बनवा रहे थे।
कहने लगे, बड़ी
मुसीबत है; लेकिन क्या
करें, बच्चे
हैं, उनके
लिए करना पड़
रहा है। और बन
जाए एक दफा
मकान तो मैं
इस झंझट से
छूट जाऊं। ये
बच्चे-पत्नी इसमें
रहें, और
मेरा मन तो
त्याग की तरफ
झुकता जा रहा
है। सुना
मैंने; क्योंकि
कुछ कहने की
बात भी नहीं
थी।
दस
वर्ष बाद
उन्होंने घर
छोड़ दिया; वे
संन्यासी हो
गए। फिर मैं
उस गांव से
निकला, जहां
वे आश्रम बना
रहे थे। वही
आदमी छाता लिए
खड़ा था; आश्रम
बन रहा था। वे कहने
लगे, क्या
करूं--उन्हें
खयाल भी नहीं
रहा कि दस साल पहले
यही बात
उन्होंने
मुझसे तब भी
कही थी--क्या
करूं, अब
ये शिष्य, और
यह सब समूह
इकट्ठा हो गया
है; इनके
पीछे यह
उपद्रव करना
पड़ रहा है। यह
आश्रम बन जाए
तो छुटकारा हो
जाए।
मैंने
उनसे कहा कि
दस साल पहले
घर बना रहे थे, तब
सोचते थे यह
बन जाए तो
छुटकारा हो
जाए; अब
आश्रम बना रहे,
हो सोचते हो
यह बन जाए तो
छुटकारा हो
जाए। आगे क्या
बनाने का
इरादा है? बनाओगे
तुम जरूर, और
यही छाता लिए
तुम खड़े रहोगे
धूप में। और
फर्क क्या पड़
गया कि मकान
बन रहा था
बच्चों के लिए,
और आश्रम बन
रहा है
शिष्यों के
लिए; फर्क
क्या पड़ गया? और मुक्त
होना था तो
मकान बना कर
भी हो सकते थे।
और मुक्त नहीं
होना है तो
आश्रम बना कर
भी नहीं हो
सकते।
आदमी
सोचता है
दूसरे बांधे
हुए हैं, कोई
और पकड़े
हुए है। नहीं,
कोई और पकड़े
हुए नहीं है।
हम ही अपने को पकड़े हुए
हैं। और अपने
को बचाने के
लिए औरों को पकड़े हुए
हैं। क्योंकि
उनकी कतार
हमारे चारों
तरफ हो, तो
हम सुरक्षित
मालूम होते
हैं। लगता है
कि कोई भय
नहीं है; कोई
साथी है, संगी
है, मित्र
हैं, प्रियजन
हैं। लेकिन
आदमी बचा अपने
को रहा है।
"हिंसा
ताओ के विपरीत
है।'
लेकिन
हिंसा पैदा ही
क्यों होती है?
मैं
अपने को बचाने
की कोशिश करता
हूं,
उसी में
हिंसा पैदा
होती है। जिस
दिन कोई आदमी
अपने को बचाने
का खयाल ही
छोड़ देता है।
कौन छोड़ सकता
है अपने को
बचाने का खयाल?
सिर्फ वही
छोड़ सकता है, जिसे यह पता
चल जाए कि मैं
बचा ही हुआ
हूं; मुझे
कोई काट भी
डालेगा तो
मुझे नहीं काट
पाएगा; मुझे
कोई मिटा भी
देगा तो नहीं
मिटा पाएगा; मुझे कोई
जला देगा तो
अग्नि मुझे
नहीं जला पाएगी।
शस्त्र मुझे
नहीं छेद
सकेंगे, कृष्ण
कहते हैं, आग
मुझे नहीं जला
पाएगी। ऐसी
जिसकी
प्रतीति सघन
हो जाए, फिर
वह भयरहित हो
गया। जो
भयरहित हो
जाता है, वह
हिंसारहित
हो जाता है।
जो भयभीत है, वह हिंसारहित
नहीं हो सकता।
इसीलिए
मैंने कहा, व्यक्ति
अहिंसक हो
सकता है
पूर्णरूपेण, समाज और
राष्ट्र
पूर्णरूपेण
अहिंसक नहीं
हो सकते।
क्योंकि
राष्ट्र का
मतलब ही
संपत्ति है, राष्ट्र का
मतलब ही सुरक्षा
का उपाय है, राष्ट्र का
मतलब ही सीमा
है, पहरा
है। व्यक्ति
मुक्त हो सकता
है, राष्ट्र
नहीं हो सकते;
तब तक, जब
तक कि इतने
व्यक्ति
मुक्त न हो
जाएं कि राष्ट्रों
की कोई जरूरत
न रह जाए।
राज्य तो
हिंसक होगा
ही। इसलिए जो
लोग सोचते हैं
हम राज्य को अहिंसक
बना लेंगे, वे गलत
सोचते हैं।
व्यक्ति
अहिंसक हो
सकता है।
राज्य हिंसा
को मजबूरी
मानने लगे, इतना काफी
है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
राज्य हिंसा
से प्रेम न
करे,
मजबूरी
मानने लगे, इतना काफी
है। लेकिन बड़ा
मुश्किल है।
अभी हमने
बंगला देश में
अपनी फौजें
भेजीं; फिर लौट कर
हम पद्म-श्री
और पद्म-भूषण
और
महावीर-चक्र बांट
रहे हैं।
जिन्होंने
जितनी ज्यादा
हिंसा की है, उनके ऊपर
उतने बड़े तगमे
लगा रहे हैं।
यह सिर्फ
मजबूरी नहीं
मालूम होती; इसमें रस
मालूम होता
है।
यह
मजबूरी होती
तो हम कहते कि
चलो,
जिन्होंने
जितनी ज्यादा
हिंसा की है, वे
तीर्थयात्रा
करके अपने पाप
का प्रक्षालन कर
आएं। अगर
मजबूरी होती
तो हम कहते कि
अब तुम जाओ, काशीवास करो कुछ दिन,
ध्यान करो,
और अपना जो
पाप हो गया, उसके लिए
परमात्मा से
प्रार्थना
करो कि मजबूरी
में हुआ, हमारा
कोई रस न था।
तो माणेक
शा को हमें
छुट्टी दे
देनी थी कुछ
दिन के लिए, तीर्थ जाने
के लिए; केदार,
बद्री,
कहीं जाकर
बैठ जाओ, और
जो हो गई है
बात, मजबूरी
थी, करनी
पड़ी है, उसका
प्रायश्चित्त
कर लो। लेकिन
हम चक्र और पदवियां
बांट रहे हैं।
इसमें रस
मालूम पड़ता
है। यह हिंसा
मजबूरी नहीं
मालूम पड़ती, यह आवश्यक
बुराई नहीं
मालूम पड़ती; इसमें कुछ
गौरव मालूम
पड़ता है।
राज्य
इतना ही कर ले
कि हिंसा को
मजबूरी मान ले
तो बड़ी बात
है। व्यक्ति
अहिंसक हो
सकता है, राज्य
हिंसक रहेगा।
लेकिन मजबूरी
में हिंसक हो
जाए, तो
लाओत्से कहता
है, वह
राज्य
धार्मिक हो
गया।
ध्यान
रहे,
बड़ी चर्चा
चलती है कि
राज्य को
धार्मिक होने
का क्या अर्थ।
कोई राज्य
मुसलमान है, तो वह सोचता
है धार्मिक है;
कोई राज्य
ईसाई है, तो
वह सोचता है
ईसाई है।
हमारा जैसा
मुल्क का राज्य
है, जो
सोचता है सेक्यूलर
है, धर्म-निरपेक्ष
है, तो वह
सोचता है धर्म
से हमारा कोई
लेना-देना नहीं।
न तो ईसाई, न
हिंदू, न
मुसलमान
राज्य
धार्मिक होते
हैं। धार्मिक राज्य
का एक ही अर्थ
है: हिंसा जिस
राज्य के लिए
मजबूरी है।
फिर वह चाहे
हिंदू हो, चाहे
मुसलमान, चाहे
ईसाई, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
लेकिन
जिस राज्य के
लिए हिंसा में
मजा है और जो
प्रतीक्षा कर
रहा है हिंसा करने
की,
मौका मिले
तो हिंसा
करेगा--आक्रमण
के नाम से, सुरक्षा
के नाम से। और
इतिहास बड़ा
अनूठा है। दुनिया
में जब भी दो
लोग लड़ते हैं,
दोनों ही
मानते हैं कि
वे सुरक्षा कर
रहे हैं।
आक्रमण मानने
को कोई कभी
राजी होता
नहीं। अब तक
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
किसी ने यह
नहीं कहा कि
हमने आक्रमण
किया है।
इसलिए सभी
मुल्कों का जो
सुरक्षा
मंत्रालय है,
वह डिफेंस
कहलाता है।
बड़े मजे की
बात है, किसी
मुल्क में कोई
सेना है ही
नहीं। सभी
डिफेंस डिपार्टमेंट
हैं, वे सब
सुरक्षा ही
करते हैं। तो
फिर आक्रमण
कौन करता है? कोई आक्रमण
करता ही नहीं,
सभी
सुरक्षा करते
हैं। युद्ध
कैसे होता है?
हालत उलटी
मालूम पड़ती
है। मालूम
पड़ता है कि दोनों
आक्रमण करते
हैं। और कहीं
दुनिया में
किसी राज्य के
पास सुरक्षा
का मंत्रालय
नहीं है, सभी
के पास आक्रमण
के मंत्रालय
हैं। लेकिन बेईमानी
है। और
बेईमानी अपने
को छिपाती है।
लाओत्से
के हिसाब से, अगर
राज्य हिंसा
को मजबूरी
समझता हो, गौरव
न लेता हो; निंदा
मानता हो, ग्लानि
अनुभव करता हो,
पश्चात्ताप
करता हो; करना
पड़े, मजबूरी
हो जाए, कोई
रास्ता न
निकले, तो
जाता हो; लेकिन
वहीं रुक जाता
हो जहां
प्रयोजन पूरा
हो जाए; और
प्रयोजन भी
पूरा हो जाए
तो भी अनुभव
करता हो कि एक
बुरा काम करना
पड़ा, ऐसी
प्रतीति होती
हो, तो वह
राज्य
धार्मिक है।
अन्यथा सभी
राज्य अधार्मिक
हैं।
"और जो
ताओ के विपरीत
है, वह
शीघ्र नष्ट हो
जाता है।'
विनाश
का अर्थ ही, असल
में, धर्म
के विपरीत
होना है। जो
धर्म के
विपरीत है, वह विनष्ट
हो जाता है।
लेकिन कैसे? आपको खयाल
में भी नहीं
आएगा। हालतें
तो उलटी दिखती
हैं। जो धर्म
के विपरीत हैं,
वे काफी
विकसित होते
मालूम पड़ते
हैं। जो धर्म के
विपरीत है, वह काफी
फलता-फूलता
मालूम पड़ता
है। और धार्मिक
को देखें तो
दीन-हीन, पिटा-कुटा
मालूम पड़ता
है। लाओत्से
और सारे
शास्त्र कहते
हैं दुनिया के
कि जो धर्म के
विपरीत है वह
नष्ट हो जाता
है, और जो
धर्म के
अनुकूल है वह
बढ़ता चला जाता
है। पर दिखाई
तो उलटा पड़ता
है।
लोग
रोज मुझे कभी
न कभी आकर कह
जाते हैं कि
फलां आदमी
बेईमान, झूठ, सब तरह से
भ्रष्ट, और
सफल हो रहा
है। और वे यह
भी कह जाते
हैं कि मैं
ईमानदारी से
चल रहा हूं, सचाई से चल
रहा हूं, और
असफल हो रहा
हूं। कहां है
न्याय?
समझाने
वाले भी हैं
उनको। वे कहते
हैं कि परमात्मा
के राज्य में
देर है, अंधेर
नहीं है; जरा
रुको।
कब तक रुकें वे? और
पक्का अंधेर
दिखाई पड़ता
है। और देर है
अगर तो इतनी
लंबी है कि इस
जन्म में तो
कोई रास्ता
नहीं दिखाई
पड़ता। अगले जन्म
का कोई पक्का
नहीं है। और
जब अभी जो चल
रहा है, वह
पहले भी चल
रहा था, और
भी पहले चल
रहा था।
क्योंकि यह
शिकायत पुरानी
है।
हजारों-हजारों
साल से यह
शिकायत है आदमी
की कि जो बुरा
आदमी है वह
सफल हो रहा है,
नष्ट हो रहा
है भला आदमी।
और ये सब
लाओत्से और कृष्ण
और महावीर और
बुद्ध कहते
हैं कि वह जो धार्मिक
है वह नष्ट
नहीं होता, वह जो
अधार्मिक है
वह नष्ट होता
है। तब जरा सोचना
पड़े। या तो ये
गलत कहते हैं,
या हमारे
विश्लेषण में
कहीं भूल है।
हम
जिसको
धार्मिक कहते
हैं,
वह भी
धार्मिक नहीं
है--एक बात। और
वह जो कहता है
कि मैं सच बोल
रहा हूं, ईमानदार
हूं, वह भी
ईमानदार नहीं
है और सच नहीं
बोल रहा है। हो
सकता है, बोल
रहा हो। जहां
तक तथ्य की
बात है, हो
सकता है आप सच
बोल रहे हों।
लेकिन सच बोलने
के कारण और
अभिप्राय पर
सब निर्भर
करता है। इसलिए
आप सच बोल रहे
हों कि आप
इतने भयभीत
आदमी हैं कि
झूठ बोले तो फंसने का
डर है। अगर डर
न हो तो आप झूठ
बोलें। अगर
आपको पक्का
आश्वासन दिला
दिया जाए कि
कोई अदालत आपको
पकड़ेगी
नहीं, कोई
कानून आपको
सजा नहीं देगा,
परमात्मा
की अदालत में
भी आपका बड़ा
स्वागत-सत्कार
होगा, आप
झूठ बोल सकते
हैं। फिर आप
सच बोलेंगे?
फिर भी
जो आदमी सच
बोलेगा, वही
सच बोल रहा
है। और अगर यह
भी कहा जाए कि
सच बोलने वाला
नरक में सड़ेगा
और आग में
जलाया जाएगा,
और जहां भी
सच बोलोगे, कष्ट पाओगे,
फिर भी जो
आदमी सच बोल
रहा है, वही
सच बोल रहा
है। जो
प्रयोजन से
बोल रहा है, ये जो आदमी
आते हैं जो
कहते हैं कि
मैं सच बोल रहा
हूं और अभी तक
सफलता नहीं
मिली, इनको
रस सफलता में
है, सत्य
में बिलकुल
नहीं है।
इसीलिए ये
परेशान हैं, ये देखते
हैं कि आदमी
झूठ बोल रहा
है और सफल हो
रहा है! सफलता
में इनका भी
रस है, लेकिन
डरपोक हैं, भयभीत हैं, झूठ बोल भी
नहीं सकते; और सफलता भी
वैसी चाहते
हैं, जैसा
झूठ बोलने
वाला पा रहा
है।
लेकिन
झूठ बोलने
वाला क्यों
सफलता पा रहा
है?
समझ लें यह
भी कि जो आदमी
सच बोल रहा है,
उसकी सचाई
में ईमानदारी
नहीं है। मान
लें कि उसका
जो ह्रास हो
रहा है, वह
उसके ही कारण
हो रहा है। यह
झूठ बोलने
वाला आदमी
क्यों सफल हो
रहा है?
चीजें
जटिल हैं। और
कोई चीज एक
कारण से नहीं
होती, अनेक
कारण से होती
है। जो आदमी
झूठ बोल कर
सफल हो रहा है,
उसमें और भी
कुछ
होगा--साहस
होगा। साहस गुण
है। झूठ
दुर्गुण है, लेकिन साहस
गुण है। और
साहस इतना बड़ा
गुण है कि झूठ
भी हो तो भी
साहस सफल हो
जाता है। और
साहसहीनता
इतना बड़ा
दुर्गुण है कि
सच भी हो तो
उसको भी डुबा
लेता है। अगर
हम गौर से
आदमी का
विश्लेषण करें,
तो जो आदमी
भी सफल होता
दिखाई पड़ रहा
हो, कुछ न
कुछ पता चलेगा
कि गुण है, जो
उसे सहारा दे
रहा है। और जो
आदमी असफल
होता दिखाई पड़
रहा है, कितना
ही ईमानदार
दिखाई पड़े, कुछ न कुछ
दुर्गुण
मिलेगा, जो
उसे डुबा
रहा है।
धर्म
समस्त
सदगुणों का
जोड़ है। अधर्म
समस्त दुर्गुणों
का जोड़ है।
मात्रा पर
निर्भर करता
है। लेकिन एक
बात तय है कि
अधर्म हारता
है,
टूटता है, बिखरता है; क्योंकि वह
प्रकृति के
प्रतिकूल है।
कई बार
बुरा आदमी
हंसते हुए मिल
जाता है और अच्छा
आदमी रोता हुआ
ही मिलता है।
ऐसी अच्छाई भी
क्या अच्छाई
है जिसमें से
रोना ही
निकलता है! और
ऐसी बुराई में
भी कुछ खूबी
है जिसमें से
हंसना तो निकल
आता है! जब
अच्छा आदमी हंसता
हुआ
मिले--चाहे
हार गया हो, तो
हार में भी
आनंदित
हो--तभी जानना
कि कोई धार्मिक
आदमी है।
धार्मिक आदमी
हारना जानता
ही नहीं; क्योंकि
हार में भी
जीत ही उसे
दिखाई पड़ती
है। धार्मिक
आदमी असफलता
को पहचानता ही
नहीं; क्योंकि
सभी असफलताएं
उसके द्वार
आते-आते
सफलताएं
दिखाई पड़ने
लगती हैं।
धार्मिक आदमी
असंतोष से
परिचित ही
नहीं है; क्योंकि
उसके पास वह
कला है कि जो
भी चीज उसे छुएगी,
वह संतोष बन
जाती है।
और
इससे विपरीत
अधार्मिक
आदमी है। वह
कितना ही सफल
हो,
जिस दिन
सफलता उसके घर
आती है, असफलता
हो जाती है।
जिस दिन वह पा
लेता है झूठ से,
बेईमानी से
कुछ, उसी
दिन व्यर्थ हो
जाता है। वह
कितना ही बड़ा
महल बना ले, वह उस महल
में सो नहीं
पाता। वह
कितना ही बड़ा
महल बना ले, वह महल उसका
नहीं होता।
जिस महल में
सो न पाता हो
आदमी, वह
उसका अपना है?
और कितना ही
धन इकट्ठा कर
ले, उसके
भीतर की
निर्धनता में
कोई कमी नहीं
आती। वह मांगे
ही चला जाता
है, वह
चोरी किए ही
चला जाता है, वह दुख उठाए
ही चला जाता
है।
मेरे
हिसाब में
धार्मिक आदमी
सफल होता है; क्योंकि
असफलता उसके
पास आते ही
सफलता हो जाती
है। उसके
देखने के ढंग
में, उसके
जीने के ढंग
में, वह
कीमिया, वह
कला है कि वह
जो भी छूता है
वह स्वर्ण हो
जाता है।
अधार्मिक
आदमी के जीने
के ढंग में ही
वह भूल है कि
वह सोने को भी
इकट्ठा कर
लेता है तो मिट्टी
हो जाती है।
उसकी सब
सफलताएं भी, आखिर में
उसे मालूम
पड़ती हैं, उसे
कुछ भी नहीं
दे गईं। वह
रिक्त ही जीता
है और रिक्त ही
मरता है। तो
इसका मतलब यह
हुआ कि आप जरा
और ढंग से
सोचें। अगर आप
शांत हों, आनंदित
हों, और
आपको लगता हो
कि जीवन एक
प्रफुल्लता
है, तो
समझना कि आप
धार्मिक आदमी
हैं। अगर इसके
विपरीत हों, तो समझना कि
धर्म के नाम
पर आप अपने को
धोखा दे रहे
हैं। अगर आप
दुखी हों, परेशान
हों, पीड़ित
हों, उदास
हों, जीवन
एक संताप हो, तो समझना कि
आप अधार्मिक
आदमी हैं। भला
आप मंदिर
नियमित जाते
हों, गीता
रोज पढ़ते हों,
कुरान पर
सिर टेकते हों,
तो भी आप
अधार्मिक
आदमी हैं। हम
उलटा लें तो आसानी
हो जाएगी।
मैं एक
गुरुकुल में
गया। तो
गुरुकुल के
सारे अध्यापक
इकट्ठे हुए और
उन्होंने
मुझसे कहा कि आप
हमें कुछ
समझाएं; अनुशासन
टूटता जा रहा
है, और
गुरुओं को कोई
सम्मान नहीं
देता, अब
क्या किया जाए?
तो मैंने
उनसे कहा कि
मेरी परिभाषा
पहले आप समझ
लें। मैं उसे
गुरु कहता हूं,
जिसे लोग
सम्मान देते
ही हैं। और
अगर किसी गुरु
को सम्मान
नहीं देते तो
उसे समझ लेना
चाहिए वह गुरु
नहीं है। और
जो सम्मान
पाने की
चेष्टा करता
है वह तो गुरु
है ही नहीं; क्योंकि
गुरुता उसे ही
उपलब्ध होती
है जिसे सम्मान
से कोई संबंध
नहीं रह जाता।
तो उन्होंने
कहा, लेकिन
शास्त्रों
में तो कहा है
कि गुरु को
सम्मान देना
चाहिए। मैंने
कहा, आपने
शास्त्र ठीक
से नहीं पढ़े।
शास्त्र कहते
हैं, सम्मान
जिसको दिया
जाता है वही
गुरु है।
तो
धार्मिक आदमी
नष्ट नहीं
होता। इसको आप
थोड़ा उलटा
करके समझेंगे
तो बहुत आसानी
हो जाएगी। जो
नष्ट नहीं
होता, वह
धार्मिक आदमी
है। और जो
नष्ट हो रहा
है, होता
रहता है, वह
अधार्मिक है।
अगर आप नष्ट
हो रहे हैं, तो आप समझना
कि अधार्मिक
हैं। अगर नहीं
हो रहे हैं और
आपको लगता है
कुछ नष्ट नहीं
हो रहा है, सृजन
हो रहा है, निर्मित
हो रहा है, जन्म
रहा है, विकसित
हो रहा है
मेरे भीतर, तो समझना कि
आप धार्मिक
आदमी हैं।
इस तरह
अगर सोचेंगे
तो बड़ी आसानी
हो जाएगी, और
अपनी जिंदगी
की परख और
कसौटी हाथ में
आ जाएगी। और
एक बार निकष
हाथ में आ जाए
जिंदगी को जांचने
का तो बहुत
शीघ्र आदमी को
पता चल जाता
है कि जहां
मैं निसर्ग के
प्रतिकूल
जाता हूं, वहीं
दुख में पड़ता
हूं; और
जहां निसर्ग
के अनुकूल
जाता हूं, वहीं
मेरा आनंद
फलित हो जाता
है।
निसर्ग
के साथ होना
आनंद है, और
निसर्ग के
विपरीत होना
दुख है।
निसर्ग में डूब
जाना स्वर्ग
है, और
निसर्ग की तरफ
पीठ करके भाग
खड़े होना नरक
है।
आज
इतना ही।
कीर्तन करें, फिर
जाएं।
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