पउड़ी: 8
सुणिऐ सिध पीर
सुरि नाथ। सुणिऐ
धरति धवल आकास।।
सुणिऐ
दीप लोअ
पाताल। सुणिऐ
पोहि न सकै कालु।।
'नानक'
भगता सदा विगासु। सुणिऐ दुख
पाप का नासु।।
पउड़ी: 9
सुणिऐ
ईसर बरमा
इंदु। सुणिऐ
मुख सालाहणु
मंदु।।
सुणिऐ
जोग जुगति तनि
भेद। सुणिऐ
सासत सिमृति
वेद।।
'नानक'
भगता सदा विगासु। सुणिऐ दुख
पाप का नासु।।
पउड़ी: 10
सुणिऐ सतु संतोखु
गिआनु। सुणिऐ अठसठि
का इस्नानु।।
सुणिऐ पड़ि पड़ि
पावहि मानु। सुणिऐ
लागै सहज धिआनु।।
'नानक'
भगता सदा विगासु। सुणिऐ दुख
पाप का नासु।।
पउड़ी: 11
सुणिऐ
सरा गुणा के
गाह। सुणिऐ
सेख पीर पातिसाह।।
सुणिऐ
अंधे पावहि
राहु। सुणिऐ
हाथ होवै असगाहु।।
महावीर
ने चार घाट
कहे हैं, जिनसे
उस पार जाया
जा सकता है।
दो घाट तो समझ
में आते
हैं--साधु का, साध्वी का; शेष दो घाट
थोड़े कठिन
मालूम होते
हैं--श्रावक का
और श्राविका
का। श्रावक का
अर्थ है, जो
श्रवण में
समर्थ है; जो
सुनने की कला
सीख गया; जिसने
जान लिया कि
सुनना कैसे; जिसने पहचान
लिया कि सुनना
क्या है।
महावीर
ने कहा है कि
कुछ तो साधना
कर-करके उस पार
पहुंचते हैं, कुछ केवल
सुन कर उस पार
पहुंच जाते
हैं। जो सुनने
में समर्थ
नहीं है, उसे
ही साधना की
जरूरत पड़ती
है। अगर तुम
सुन ही लो
पूरी तरह तो
कुछ करने को
बाकी नहीं रह
जाता; सुनने
से ही पार हो
जाओगे।
इसी
श्रवण की
महिमा को
बताने वाले
नानक के ये सूत्र
हैं। ऊपर से
देखने पर अतिशयोक्तिपूर्ण
मालूम पड़ेंगे
कि क्या सुनने
से सब कुछ हो
जाएगा? और
हम तो सुनते
रहे
हैं--जन्मों-जन्मों
से और कुछ भी
नहीं हुआ!
हमारा अनुभव
तो यही कहता
है कि सुन
लो--कितना ही
सुन लो--कुछ भी
नहीं होता; हम वैसे ही
बने रहते हैं।
हमारे चिकने घड़े पर
शब्द का कोई
असर ही नहीं
पड़ता; गिरता
है, ढलक
जाता है; हम
अछूते जैसे थे,
वैसे ही रह
जाते हैं। अगर
हमारा अनुभव
सही है तो
नानक सरासर
अतिशय करते
हुए मालूम
पड़ेंगे। लेकिन
हमारा अनुभव
सही नहीं है; क्योंकि
हमने कभी सुना
ही नहीं है। न
सुनने की
हमारी
तरकीबें हैं,
पहले
उन्हें समझ लें।
पहली
तरकीब तो यह
है कि जो हम
सुनना चाहते
हैं, वही हम
सुनते हैं; जो कहा जाता
है, वह
नहीं। हम बड़े
होशियार हैं।
हम वही सुनते
हैं जो हमें
बदले न। जो
हमें बदलता है,
उसे हम
सुनते ही नहीं;
हम उसके
प्रति बहरे
होते हैं। और
यह कोई संतों
का ही कथन हो, ऐसा नहीं है;
जिन लोगों
ने वैज्ञानिक
ढंग से मनुष्य
की इंद्रियों
पर शोध की है, वे भी कहते
हैं कि हम अट्ठान्नबे
प्रतिशत
सूचनाओं को
भीतर लेते ही
नहीं; सिर्फ
दो प्रतिशत को
लेते हैं। हम
वही देखते हैं,
वही सुनते
हैं, वही
समझते हैं, जो हमसे
तालमेल खाता
है; जो
हमसे तालमेल
नहीं खाता वह
हम तक पहुंचता
ही नहीं। बीच
में बहुत सी
हमने
रुकावटें खड़ी
कर रखी हैं।
और जो
तुमसे तालमेल
खाता है, वह
तुम्हें कैसे
बदलेगा? वह
तो तुम जैसे
हो, उसे और
मजबूत करेगा।
जिससे
तुम्हारी
बुद्धि राजी
होती है, कनविन्स होती है, वह
तुम्हें कैसे
रूपांतरित
करेगा? वह
तो तुम्हें और
आधार दे देगा
जमीन में, और
मजबूत पत्थर
दे देगा, जिन
पर तुम
बुनियाद उठा
कर खड़े हो
जाओगे।
हिंदू
वही सुनता है
जिससे
हिंदू-मन
मजबूत हो। मुसलमान
वही सुनता है
जिससे
मुसलमान-मन
मजबूत हो।
सिक्ख वही
सुनता है
जिससे सिक्ख
की धारणा
मजबूत हो। तुम
अपने को मजबूत
करने के लिए
सुन रहे हो? तुम अपनी
धारणाओं में
और भी गहरे
उतर जाने के लिए
सुन रहे हो? तुम अपने
मकान को और
मजबूत कर लेने
के लिए सुन रहे
हो? तब तुम
सुनने से
वंचित रह
जाओगे।
क्योंकि सत्य
का न तो सिक्ख
से कोई संबंध
है, न
हिंदू से, न
मुसलमान से।
तुम्हारी कंडीशनिंग,
तुम्हारे
चित्त का जो
संस्कार है, उससे सत्य
का कोई भी
संबंध नहीं
है।
जब तुम
अपनी सब
धारणाओं को
हटा कर सुनोगे, तभी तुम समझ
पाओगे कि नानक
का अर्थ क्या
है! और अपनी
धारणाओं को
हटाने से कठिन
काम जगत में
दूसरा नहीं है;
क्योंकि वे
बहुत बारीक
हैं, महीन
हैं, पारदर्शी
हैं। वे दिखाई
भी नहीं पड़तीं;
कांच की
दीवाल है। जब
तक तुम टकरा
ही न जाओ, तब
तक पता ही
नहीं चलता कि
दीवाल है; तब
तक लगता है कि
खुला आकाश तो
दिखाई पड़ रहा
है, चांदत्तारे दिखाई पड़
रहे हैं; लेकिन
बीच में एक
कांच की दीवाल
है।
जब मैं
बोल रहा हूं, तो कभी तुम
भीतर कहते हो,
हां ठीक--जब
तुमसे मेल
खाता है; कभी
तुम भीतर कहते
हो, यह बात जंचती
नहीं--जब
तुमसे मेल
नहीं खाता। तो
तुम, मैं
जो कह रहा हूं,
उसे नहीं
सुन रहे हो; जो तुमसे
मेल खाता है, जो तुम्हें
और सजाता-संवारता
है, शक्तिशाली
करता है, वही
तुम सुन रहे
हो। शेष को
तुम छोड़ ही
दोगे। शेष को
तुम भूल ही
जाओगे। अगर
कोई बात तुमने
सुन भी ली, जो
तुम्हारे
विपरीत पड़ती
है, तो तुम
उसे भीतर
खंडित करोगे;
तर्क जुटाओगे;
हजार उपाय
करोगे कि यह
ठीक नहीं हो
सकता। क्योंकि
एक बात तो तुम
मान कर बैठे
हो कि तुम ठीक
हो। तो जो
तुमसे मेल खाए,
वही सच; जो
तुमसे मेल न
खाए, वह
झूठ।
अगर
तुम सत्य को
ही पा गए हो, तो फिर
सुनने की कोई
जरूरत ही नहीं
है। वह भी तुमने
पाया नहीं है;
सुनने की
जरूरत भी कायम
है; सत्य
को खोजना भी
है; और इस
धारणा से
खोजना है कि
सत्य मुझे
मिला ही हुआ
है! तुम कैसे
खोज सकोगे?
सत्य
के पास तो
नग्न, शून्य,
खाली हो कर
जाना पड़ेगा।
सत्य के पास
तो तुम्हें
अपनी सारी
धारणाओं को
छोड़ देना
पड़ेगा। तुम्हारे
सारे विश्वास,
तुम्हारे
सिद्धांत, तुम्हारे
शास्त्र अगर
बीच में रहे
तो तुम कभी भी
न सुन पाओगे।
और जो तुम सुनोगे
और समझोगे कि
मैंने सुना है,
वह
तुम्हारी
अपनी ही
प्रतिध्वनि
होगी। वह नहीं
जो कहा गया था,
वह जो
तुम्हारे
भीतर
प्रतिध्वनित
हुआ। तुम अपने
ही मन की
कोठरी को
प्रतिध्वनित
होते हुए सुनते
रहोगे। तब
तुम्हें नानक
के वचन बड़े
अतिशयोक्तिपूर्ण
मालूम
पड़ेंगे।
दूसरा
ढंग बचने का
है कि लोग
अक्सर, जब
भी कोई
महत्वपूर्ण
बात कही जाए, तंद्रा में
हो जाते हैं।
वह भी मन का
बचाव है। वह
भी बड़ी गहरी
प्रक्रिया
है। जब भी कोई
चीज तुम्हें
छूने के करीब
हो, तब तुम
सो जाओगे।
मैं एक
बड़े पंडित के
घर मेहमान था।
वे बड़े विद्वान
हैं, शास्त्रों
के ज्ञाता हैं
और रामायणी
तो उन जैसा
दूसरा नहीं।
लाखों लोग
उन्हें सुनते
हैं। रात जब
हम दोनों सोने
गए तो एक ही
कमरे में
बिस्तर थे; प्रकाश बुझा
कर हम अपने
बिस्तरों पर
लेट गए। तभी
मैंने सुना कि
उनकी पत्नी
अंदर आयी और
उनके कान में
कुछ फुसफुसा
कर बोली। वह
मुझे सुनाई पड़
गया। पत्नी ने
कहा, ऐ जी, सुनो!
मुन्ना सो
नहीं रहा है, चल कर उसे
कुछ कह दो। तो
पंडित जी ने
कहा कि मेरे
चल कर कहने से
क्या होगा!
पत्नी ने कहा
कि मैंने
लाखों लोगों
को तुम जब
बोलते
हो--तुमने बोलना
शुरू किया
नहीं कि
उन्होंने
सोना शुरू किया
नहीं--लाखों
लोगों को
तुम्हारी सभा
में सोते देखा
है, तो यह
एक अकेले
मुन्ने का
क्या बस है! चल
कर दो शब्द
इससे कह दो, तो सो जाए।
धर्म
सभा में लोग
नींद पूरी
करने के लिए
ही जाते हैं।
जिनको रात में
नींद नहीं आती, उनको भी
धर्म सभा में
नींद आ जाती
है। क्या होता
है? तुम्हारे
मन का कोई खेल
है, तरकीब
है। तुम जो
नहीं सुनना
चाहते, उसके
प्रति तुम
नींद में अपने
को ढांक
लेते हो; अपने
को बचा लेते
हो। नींद
तुम्हारा
रक्षा-कवच है।
तो तुम ऐसे
लगते हो कि
सुन रहे हो, लेकिन तुम
सजग नहीं
होते। और बिना
सजगता के कैसे
सुना जा
सकेगा।
तुम
बोलते वक्त
सजग होते हो, सुनते वक्त
सजग नहीं
होते। और ऐसा
कोई धर्म सभा
में ही होता
हो, ऐसा
नहीं है; जब
भी कोई दूसरा
तुमसे बोलता
है, तभी
तुम सजग नहीं
होते; क्योंकि
एक इंटरनल डायलाग
है, एक
भीतर चलने
वाला
वार्तालाप है,
जिसमें तुम
दबे हो। दूसरा
बोले जाता है।
तुम ऐसा भाव
भी प्रकट करते
हो कि मैं सुन
रहा हूं; लेकिन
वह भाव-भंगिमा
है, भीतर
तुम बोले जा
रहे हो। और जब
तुम भीतर बोल
रहे हो तो तुम
किसको सुनोगे?
तुम, भीतर
जो बोल रहा है,
उसको ही सुनोगे।
क्योंकि बाहर
के बोलने वाले
की आवाज तो
तुम्हारे तक
पहुंच ही न
पाएगी।
तुम्हारी
अपनी आवाज की
गूंज काफी है।
और इसलिए तो
तुम्हें नींद
मालूम होने
लगती है।
क्योंकि तुम
अपने से ऊबे
हुए हो।
जब तुम
बोलते हो, तब तुम थोड़े
सजग होते हो।
लेकिन जब तुम
सुनते हो, तब
तुम
मूर्च्छित
होने लगते हो;
क्योंकि
तुम अपने से
ऊबे हुए हो।
यह बात तो तुम
कई दफे भीतर
कर चुके हो जो
आज फिर कर रहे
हो। यह तो
पुनरुक्ति
है। उससे ऊब
पैदा होती है।
उससे नींद
मालूम होने लगती
है। वह भी
बचाव है। और
वह इस बात की
खबर है कि भीतर
एक वार्तालाप
चल रहा है।
भीतर
का वार्तालाप
जो तोड़ देगा, वही सुनने
में समर्थ
होता है।
श्रवण की कला
तब उपलब्ध
होती है, जब
भीतर का
वार्तालाप
बंद हो जाता
है। और एक क्षण
को भी भीतर का
वार्तालाप
बंद हो जाए तो
तुम पाओगे
आकाश खुल गया,
अनंत आकाश
खुल गया। और
सब जो अनजाना
था, जाना
हो गया। जिसकी
थाह न थी, उसकी
थाह मिल गयी।
जो अपरिचित था,
उससे परिचय
बना। जिससे
कोई पहचान न
थी--जो अजनबी
था--वह अपना
हुआ। अचानक!
यह जगत
तुम्हारा घर
है। अगर एक
क्षण को भी
तुम्हारा
भीतर का
वार्तालाप
टूट जाए...सारे
सत्संगों का, सारे गुरुओं
का एक ही
लक्ष्य है कि
किस भांति तुम्हारे
भीतर का
वार्तालाप
तोड़ा जाए। वे
उसे ध्यान
कहें, मौन
कहें, योग
कहें, नाम
स्मरण कहें, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। सारी
चेष्टा यह है
कि भीतर
तुम्हारी जो
एक सतत धारा
चल रही है शब्दों
की, उसको
छिन्न-भिन्न
कैसे करना!
उसमें बीच में
खुली जगह कैसे
आ जाए! थोड़ी भी
देर को खुली
जगह आ जाए तो
तुम समझ पाओगे
कि नानक क्या
कह रहे हैं।
नानक
कहते हैं, 'श्रवण से ही
सिद्ध, पीर,
देवता और
इंद्र होते
हैं। श्रवण से
ही धरती और
आकाश स्थित
है। श्रवण से
ही द्वीप, लोक,
पाताल चल
रहे हैं।
श्रवण से ही
मृत्यु
स्पर्श नहीं
करती। नानक
कहते हैं, श्रवण
से ही भक्त
सदा आनंदित
होते हैं और
श्रवण से ही
दुख तथा पाप
का नाश होता
है।'
सुणिऐ सिध पीर
सुरि नाथ। सुणिऐ
धरति धवल आकास।।
सुणिऐ
दीप लोअ
पाताल। सुणिऐ
पोहि न सकै कालु।।
नानक
भगता सदा विगासु।
सुणिऐ
दुख पाप का नासु।।
भरोसा
नहीं आता कि
सुनने से ही
कोई सिद्ध, पीर, देवता
और इंद्र हो
जाता है! और
सुनने से ही
धरती और आकाश
चल रहे हैं! और
सुनने से ही
द्वीप, लोक,
पाताल खड़े
हैं! सुनने से
ही मृत्यु
स्पर्श नहीं
करती!
अतिशयोक्ति
मालूम पड़ती
है।
जरा भी
अतिशयोक्ति
नहीं है।
क्योंकि जैसे
ही तुम्हें
सुनने की कला
आयी, तुम्हें
जीवन से
परिचित होने
की कला आ गयी।
और जैसे ही
तुम्हें
अस्तित्व का
बोध होना शुरू
हुआ, तुम
पाओगे कि जैसा
सन्नाटा
तुम्हारे
भीतर है सुनने
के क्षण में, श्रवण के
क्षण में जैसी
शून्यता
तुम्हारे भीतर
है, वही
शून्यता तो
सारे
अस्तित्व का
आधार है। उससे
ही आकाश टिका
है, उससे
ही पाताल टिका
है। उसी शून्य
पर, उसी
मौन में तो
सारा जगत
परिभ्रमण कर
रहा है। उसी
मौन में बीज
टूटता है और
वृक्ष बनता है।
उसी मौन में
सूरज उगता है।
उसी मौन में चांदत्तारे
बनते हैं और
बिखरते हैं।
जब तुम अपने
भीतर शब्दों
को शून्य कर
देते हो, तब
तुम उस जगह
पहुंच गए जहां
से सृष्टि
पैदा होती है
और जहां
सृष्टि लीन
होती है।
ऐसा
हुआ कि एक
मुसलमान फकीर
नानक के पास
आया और उसने
कहा कि मैंने
सुना है कि
तुम चाहो तो
क्षण में मुझे
राख कर दो और
तुम चाहो तो
क्षण में मुझे
बना दो। यह
चमत्कार है; मुझे भरोसा
नहीं आता। पर
आदमी ईमानदार
था, मुमुक्षु
था; ऐसे ही
कुतूहल से
नहीं आ गया
था। साधक था, जो पूछा था, बड़ी अभीप्सा
से पूछा था।
नानक
ने कहा तो फिर
आंख बंद कर लो
और शांत हो कर बैठ
जाओ, तो जो तुम
चाहते हो, वह
मैं करके ही
दिखा दूं। वह
फकीर आंख बंद
करके शांत हो
कर बैठ गया।
अगर
मुमुक्षु न
होता तो भयभीत
हो जाता।
क्योंकि जो
पूछा था, खतरनाक
पूछा था कि
राख कर दो, मिटा
दो, फिर
बना दो। प्रलय
और सृष्टि
तुम्हारे हाथ
में है, ऐसा
मैंने सुना
है।
सुबह
का वक्त--ऐसी
ही सुबह रही
होगी। एक गांव
के बाहर एक
वृक्ष के नीचे, एक कुएं के
पास नानक बैठे
थे। उनके भक्त
मरदाना और
बाला मौजूद
थे। वे भी
थोड़े हैरान
हुए कि ऐसा तो
नानक ने कभी किसी
से कहा नहीं!
और अब क्या
होगा! वे भी
सजग हो गए। उस
क्षण जैसे
आस-पास वृक्ष
भी सजग हो गए
होंगे। पत्थर
भी सजग हो गए
होंगे।
क्योंकि नानक ने
कहा, बैठ
जाओ, आंख
बंद करो, शांत
हो जाओ। जैसे
ही तुम शांत
हो जाओगे, मैं
चमत्कार दिखा
दूंगा।
वह
फकीर शांत हो
कर बैठ गया।
बड़ी आस्था का
आदमी रहा
होगा। वह भीतर
बिलकुल शून्य
हो गया। नानक
ने उसके सिर
पर हाथ रखा और
ओंकार की
ध्वनि की। और
कहानी कहती है
कि वह आदमी
राख हो गया।
फिर नानक ने
ओंकार की
ध्वनि की। और
कहानी कहती है, वह आदमी फिर
निर्मित हो
गया।
अगर
कहानी को ऊपर
से पकड़ोगे
तो चूक जाओगे।
लेकिन भीतर यह
घटना घटी। जब
वह सब भांति
शांत हो गया
और नानक ने
ओंकार की ध्वनि
की, श्रवण को
उपलब्ध हुआ, भीतर का
वार्तालाप
टूट गया।
सिर्फ ओंकार
की ध्वनि गूंजी।
उस ध्वनि के
गूंजने के बाद
प्रलय की
स्थिति भीतर
अपने आप हो
जाती है। सब
खो गया--सब
संसार, सब
सीमाएं--राख
हो गया, ना-कुछ
हो गया। भीतर
कोई भी न बचा, खोजे से भी कोई न
मिला। कोई था
ही नहीं, घर
सूना था। फिर
नानक ने ओंकार
की ध्वनि की।
वह आदमी वापस
लौटा। उसने
आंखें खोलीं।
उसने चरणों
में, पैरों
में सिर रखा
और कहा कि मैं
तो सोचता था, यह असंभव
है। लेकिन यह
करके दिखा
दिया!
कहानी
को मानने वाले
इसे न समझ
पाएंगे। वे तो
समझते हैं कि
वह आदमी राख
हो गया, फिर
राख से नानक
ने उसको बना
दिया। ये सब
नासमझी की
बातें हैं। तब
तुम समझे नहीं,
चूक गए। पर
भीतर प्रलय और
सृष्टि की
घटना घटती है।
लेकिन
वह फकीर सुनने
में समर्थ था।
जब कोई सुनने
में समर्थ
होता है तो
तुम मुझे ही
थोड़े सुनोगे!
सुनने की कला
आ गयी। मैं तो
बहाना हूं, गुरु तो
बहाना है।
सुनने की कला
आ गयी तो जब वृक्षों
में हवाएं
बहेंगी, तब भी तुम सुनोगे।
और उस सन्नाटे
में तुम्हें
ओंकार का नाद
सुनाई पड़ेगा;
जीवन का जो
मूल स्वर है, वह सुनाई
पड़ेगा। पर्वत
से पानी का
झरना गिरेगा,
उसके नाद को
तुम सुनोगे।
उस नाद में
तुम पाओगे कि
सभी शून्य में
टिका है। नदियां
उसी में बहती
हैं, सागर
उसी में लीन
होते। तुम आंख
बंद कर दोगे तो
तुम अपनी ही
हृदय की धड़कन सुनोगे; खून की गति
की धीमी-धीमी
आवाज सुनोगे।
और तुम पाओगे,
यह मैं नहीं
हूं; मैं
तो सुनने वाला
हूं; मैं
तो साक्षी
हूं। फिर
तुम्हें
मृत्यु स्पर्श
न कर पाएगी।
जिसे सुनने की
कला आ गयी, उसे
कुछ भी जानने
को बाकी न
रहा।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'श्रवण से ही
सिद्ध, पीर,
देवता और
इंद्र होते
हैं। श्रवण से
धरती और आकाश
स्थित हैं।
श्रवण से ही
द्वीप, लोक,
पाताल चल
रहे हैं।'
सारा
अस्तित्व
श्रवण से हो
रहा है। श्रवण
का अर्थ हुआ, सारा
अस्तित्व
शून्य से हो
रहा है। और जब
तुम श्रवण में
होते हो, तब
शून्य की छाप
तुम पर आती है,
तब शून्य
तुम में
गूंजता है।
वही गूंज अस्तित्व
की मौलिक गूंज
है। वही ध्वनि
अस्तित्व की
मूल इकाई है।
'श्रवण
से ही मृत्यु
स्पर्श नहीं
करती।'
और एक
बार तुमने
सुनना जान
लिया, फिर
कैसी मृत्यु!
क्योंकि
सुनने वाले को
साक्षी का बोध
हो जाता है।
अभी तुम
सोच-सोच कर
सुनते हो।
सोचने वाला तो
मरेगा। सोचने
वाला तो मरणधर्मा
है। जिस दिन
तुम बिना सोचे
सुनोगे, सिर्फ सुनोगे,
उस दिन तो
विटनेस, साक्षी
हो जाओगे। इधर
मैं बोलूंगा,
उधर
तुम्हारा
मस्तिष्क
सुनेगा, और
एक तीसरा भी
तुम्हारे
भीतर होगा, जो देखेगा
कि सुना जा
रहा है। उस
दिन एक नए तत्व
का तुम्हारे
भीतर
आविर्भाव होगा।
एक नई
प्रक्रिया
संगठित होगी।
एक नया क्रिस्टलाइजेशन
होगा। वह है
साक्षी का।
साक्षी की कोई
मृत्यु नहीं
है।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'श्रवण से ही
मृत्यु
स्पर्श नहीं
करती। नानक कहते
हैं, श्रवण
से ही भक्त
सदा आनंदित
होते हैं और
श्रवण से ही
दुख तथा पाप
का नाश होता
है।'
कैसे
चुप हो जाओ और
कैसे
तुम्हारे
भीतर का चलने
वाला सतत
वार्तालाप
टूटे; कैसे
क्षण भर को
बादल छटें
और खुला आकाश
दिखायी पड़े; कैसे
सिलसिला भीतर
मिटे--यही
सारी
प्रक्रिया है।
यहां
तुम बैठे हो।
मैं बोल रहा
हूं। साथ ही
साथ तुम्हें
बोलने की कोई
भी तो जरूरत
नहीं है। तुम
चुप हो सकते
हो। बस पुरानी
आदत है, वह
भीतर बोले चली
जा रही है।
आदत की वजह से!
एक
छोटे से बच्चे
से मैं पूछ
रहा था कि
तेरी छोटी बहन
बोलने लगी या
नहीं! उसने
कहा, बोलने तो
लगी, कब का
सीख गई बोलना!
अब सब उसको
मौन होना सिखा
रहे हैं। अब
वह चुप ही
नहीं होती, बोलती ही
रहती है। पहले
बिलकुल चुप थी
तो हम सबने
मिल कर बोलना
सिखाया और अब
सब मिल कर चुप
होना सिखा रहे
हैं, जो कि
ज्यादा कठिन
काम मालूम
होता है।
तुम
बिन बोले आए, क्या
तुम्हारा दिल
बोलते-बोलते
जाने का है? तब तुम जीवन
से भी वंचित
हो जाओगे और
मृत्यु का भी
परम स्पर्श, परम आनंद
तुम्हें न हो
सकेगा। तुम
चुप आए, चुप
ही जाने की
तैयारी करो।
बोलना बीच में
है, संसार
के लिए है, उपयोगी
है। जब तुम
दूसरे से बात
कर रहे हो, तब
बोलने का
उपयोग है। जब
तुम चुप बैठे
हो, तब
बोलना पागलपन
है। बोलना एक
प्रक्रिया है,
जिससे हम
दूसरे से
संबंधित होते
हैं। चुप होना
दूसरी प्रक्रिया
है, जिससे
हम अपने से ही
संबंधित होते
हैं। चुप रहोगे
तो दूसरे से
संबंधित होना
मुश्किल है, बोलोगे तो
अपने से
संबंधित होना
मुश्किल है। बोलना
तो एक सेतु है,
जिसके
माध्यम से हम
दूसरे तक
पहुंचते हैं।
चुप होना एक
सेतु है, जिससे
हम अपने तक
पहुंचते हैं।
कहीं तुम साधन
की भूल कर रहे
हो।
अगर
कोई आदमी
चुपचाप बैठा
रहे, किसी से
बोले ही न, तो
उसका कोई
संबंध
निर्मित न
होगा।
धीरे-धीरे लोग
उसे भूल
जाएंगे।
इसलिए गूंगे
से दीन आदमी दूसरा
नहीं दिखाई
पड़ता; अंधा
भी उतना दीन
नहीं मालूम
पड़ता जितना
गूंगा दीन
मालूम पड़ता
है। तुम कभी
गौर करो।
गूंगे पर सबसे
ज्यादा दया
आएगी। क्योंकि
अंधा देख नहीं
पाता, यह
सच है, लेकिन
फिर भी संबंध
तो बना लेता
है। पति हो सकता
है, पत्नी
बन सकता है, बेटे से बोल
सकता है, मित्र
बना सकता है, समाज का
हिस्सा हो
सकता है।
गूंगा अपने
में बंद! कहीं
जाने का कोई
उपाय नहीं, किसी से
संबंध होने के
लिए कोई
रास्ता नहीं
खुलता। गूंगा
जैसे किसी से
संबंधित न हो
पाएगा। और
उसकी तुम अड़चन
समझो। बाहर
जाना चाहता है,
नहीं जा
सकता। उसके
इशारे गौर से
देखो। कितनी तड़प से
इशारे करता है
और जब तुम
नहीं समझते हो
तो कैसा बेहाल
हो जाता है!
कैसा हेल्पलेस,
कैसा असहाय
अपने को पाता
है! गूंगे से
ज्यादा दयनीय
कोई भी नहीं, क्योंकि
गूंगा समाज का
हिस्सा नहीं
हो पाता। मित्र
नहीं बना
सकता। किसी से
बोल नहीं
सकता। किसी से
अपने प्रेम की
चर्चा नहीं कर
सकता। किसी से
अपने हृदय की
बात नहीं कह
सकता। किसी से
अपना दुख नहीं
कह सकता कि
थोड़ा हल्का हो
जाए।
जैसे
गूंगा असमर्थ
हो जाता है
दूसरे से
संबंध बनाने
में, वैसे ही
तुम असमर्थ हो
गए हो अपने से
संबंध बनाने
में। क्योंकि
वहां तुम बोले
जा रहे हो। वहां
गूंगे होने की
जरूरत है। वहां
बिलकुल चुप हो
जाने की जरूरत
है; क्योंकि
दूसरा वहां है
ही नहीं।
वार्तालाप किससे
कर रहे हो? किससे
बोल रहे हो
भीतर? खुद
ही जवाब दे
रहे हो, खुद
ही प्रश्न उठा
रहे हो--यही तो
विक्षिप्तता
का लक्षण है।
पागल में और
तुममें फर्क
क्या है? पागल
जोर-जोर से
खुद से बात
करता है, तुम
धीरे-धीरे
करते हो, बस
इतना ही फर्क
है। किसी दिन
तुम भी
जोर-जोर से
करने लगोगे।
तब तुम भी
पागल हो
जाओगे। अभी तुम
पागलपन को
जैसे दबा-दबा
कर बैठे हो, वह कभी भी
फूट सकता है।
वह नासूर है; उससे मवाद
कभी भी बह
सकती है।
भीतर
की वार्ता
क्यों चल रही
है? क्या
कारण है? आदत!
पूरे जीवन
तुम्हें
सिर्फ बोलना
सिखाया गया
है। बच्चा घर
में पैदा होता
है तो जो पहली
बात हम सिखाने
की कोशिश करते
हैं, वह यह
कि किसी तरह
बोले। और जो
बच्चा जितनी
जल्दी बोलता
है, वह
उतना उपयोगी
सिद्ध होता है
समाज में।
उसको लोग
प्रतिभाशाली
कहते हैं, वह
जितनी जल्दी
बोलता है।
जितनी देर से
बोलता है, उतना
प्रतिभाहीन
कहते हैं।
बोलने की कला
सामाजिक कला
है। मनुष्य
समाज का
हिस्सा है।
इसलिए हम पहली
चिंता यह करते
हैं कि बच्चा
बोले। और जब
बच्चा बोलता
है तो मां-बाप
कितने
प्रसन्न होते
हैं!
फिर
जीवन की जितनी
भी जरूरतें
हैं, सब बोलने
से पूरी होती
हैं। भूख लगी
तो बोलो, प्यास
लगी तो बोलो, कहो। जीवन
की रक्षा है
बोलने में।
मौन का फायदा
ही क्या है! इस
जिंदगी में
कोई फायदा
नहीं दिखाई
पड़ता। मौन इस
संसार में कोई
भी तो अर्थ नहीं
रखता। मौन से
तुम क्या खरीदोगे?
मौन से क्या
बाजार से
लाओगे? मौन
से कौन सी
जरूरत पूरी
होगी? बोलने
से शरीर की सब
जरूरतें पूरी
होती हैं। और
इसलिए बोलने
के हम अभ्यस्त
होते जाते
हैं। फिर तो
हम रात भी
बोलते हैं, नींद में भी
बोलते हैं।
फिर हम चौबीस
घंटे बोलते ही
रहते हैं। फिर
बोलना हमारे
भीतर आटोनामस,
यंत्रवत हो
जाता है।
हम
बोलते ही रहते
हैं। रिहर्सल
करते हैं। किसी
से बोलने के
पहले भीतर
बोलते हैं कि
क्या कहेंगे।
बोलने के बाद
फिर दुहराते
हैं कि क्या कहा।
फिर धीरे-धीरे
हम यह भूल ही
जाते हैं कि
इस बोलने के
द्वारा हम कुछ
खो रहे हैं।
बाहर तो लाभ
हो रहा है, भीतर विनाश
हो रहा है।
संसार में तो
गति हो रही है,
अपने से
संबंध टूट रहे
हैं। दूसरों
से तो जुड़ रहे
हैं, अपने
से दूर जा रहे
हैं। दूसरों
के तो पास आ रहे
हैं, खुद
की निकटता
खोती जा रही
है। फिर जितने
तुम कुशल हो
जाओगे इसमें,
उतना ही मौन
कठिन हो
जाएगा। आदत!
और आदत को कोई
एक क्षण में
नहीं तोड़
सकता।
तुम
समझ भी लो, तुम्हें
बिलकुल समझ
में भी आ जाए
कि बात सही है,
खुद से
बोलने की क्या
जरूरत है? जब
कोई चलता है
तो पैर चलाता
है, बैठे-बैठे
तो पैर चलाने
की कोई जरूरत
नहीं। क्योंकि
कहीं और जाना
हो तो पैर
चलाने पड़ते
हैं, जब कहीं
जाना ही नहीं
हो, बैठे
हो, तब पैर
क्यों चलाना!
जब भूख लगती
है तब कोई खाना
खाता है, जब
भूख न लगी हो
तब कोई खाना
खाता रहे तो
विक्षिप्त हो
जाएगा। जब
नींद आती हो
तब सो जाना
पड़ता है। जब
नींद न आती हो
तब सोने की
चेष्टा करनी व्यर्थ
परेशान होना
है। लेकिन यह
तुम बोलने के
संबंध में कभी
नहीं सोचते कि
जब जरूरत हो
तब हम इसका
उपयोग करेंगे;
जब जरूरत न
होगी तब बंद
कर देंगे।
ऐसा
लगता है कि
तुम भूल ही गए
हो कि बोलने
की प्रक्रिया
रोकी और जारी
की जा सकती
है। बिलकुल की
जा सकती है।
अन्यथा सारे
धर्म असंभव
हैं। धर्म
संभव होते हैं
मौन से।
इसीलिए श्रवण
की इतनी तारीफ
कर रहे हैं
नानक। इधर
श्रवण की
तारीफ गौर से
समझो तो मौन
की तारीफ है।
वह महिमा मौन
की है कि तुम चुप
हो जाओ, ताकि
तुम सुन सको
कि क्या कहा
जा रहा है।
तुम अपने में
ही डूबे बैठे
हो; तुम
अपनी ही चलाए
जा रहे हो; तुम
अपनी ही बोले
जा रहे हो--यह
समझ में आ जाए
तो भी तुम इसी
क्षण रोक नहीं
सकते।
क्योंकि
आदतें समय
लेती हैं जाने
में। और आदतों
को तोड़ना हो
तो विपरीत आदत
बनाने के
सिवाय और कोई
उपाय नहीं है।
तो मौन
का अभ्यास
करना पड़ेगा।
साधुओं के
सत्संग में
रहने का एक ही
तो अर्थ है कि
तुम मौन का
अभ्यास करो।
गुरु के पास
जाने का एक ही तो
प्रयोजन है कि
वहां तुम्हें
बोलने को क्या
है, सिर्फ
सुनने को है; तुम सुनोगे,
चुप
बैठोगे। गुरु
के पास तुम
वार्तालाप
करने थोड़े ही
जाते हो।
एक
मित्र कुछ दिन
पहले आए।
उन्होंने कहा, आपसे कुछ
चर्चा करनी
है। मैंने कहा,
चर्चा करनी
है तो आप करें,
मैं सुनूंगा;
लेकिन फिर
मैं नहीं
बोलूंगा।
उन्होंने कहा
कि नहीं, विचार
का लेन-देन।
मैंने कहा, आपके पास
विचार हों तो
मुझे कुछ लेना
नहीं, कुछ
देना नहीं।
निर्विचार
हों तो मैं
कुछ दे सकता
हूं। और आपके
पास कुछ देने
को हो तो मैं
लेने को राजी
हूं।
कुछ भी
देने को नहीं
है, लेकिन
विचार का
लेन-देन करना
है! लोग कहते
हैं, ऐक्सचेंज
आफ थाट्स--तुम्हारा
पागलपन तुम
मुझे दो, मेरा
पागलपन मैं
तुम्हें दूं।
वैसे ही दोनों
काफी पागल थे
और लेन-देन की
कोई जरूरत न
थी।
गुरु
के पास हम
वार्तालाप के
लिए नहीं आते, चुप होने
आते हैं। और
जब हम चुप हो
जाते हैं, तभी
वह बोल सकता
है; जब हम
चुप हो जाते
हैं, तभी
हम सुन सकते
हैं। श्रवण की
महिमा को तुम
मौन की महिमा
समझना, क्योंकि
श्रवण संभव ही
तभी होगा जब
तुम चुप हो।
और तुम्हारे
चुप होने के
लिए तुम्हें
थोड़े अभ्यास
करने पड़ेंगे।
क्या
करोगे चुप
होने के लिए? कुछ और
ज्यादा करना
नहीं। कभी दिन
में चौबीस घंटे
में जब सुविधा
हो, घड़ी भर
के लिए शांत
हो कर बैठ
जाओ। भीतर का
वार्तालाप
चलेगा। तुम
उसमें सहयोगी
मत बनो। यह सूत्र
है। चल रही है
चर्चा भीतर, तुम सुनो; जैसे कोई दो
आदमी बात कर
रहे हैं; लेकिन
तुम दूर रहो।
तुम उसमें बीच
में मत पड़ जाओ।
तुम उलझो
मत! तुम सुनते
रहो कि मन का
यह कोना मन के
दूसरे कोने से
बोल रहा है, मैं सुन रहा
हूं। जो आए
आने दो। न तुम
दबाओ, न
तुम हटाओ,
न तुम रोकने
की कोशिश करो;
तुम सिर्फ
साक्षी रहो।
बहुत
कुछ कचरा
निकलेगा, क्योंकि
बहुत कुछ तुम
दबाए बैठे हो।
और मन को कभी
खुली छूट नहीं
मिली है, फुर्सत
नहीं मिली है।
जब फुर्सत
दोगे तो मन घोड़े
की जैसे लगाम
टूट गई हो, ऐसा
भागेगा।
भागने दो। तुम
बैठे देखते
रहो। बस उस
देखने में ही
धीरज है।
क्योंकि
तुम्हारी तबीयत
होगी, घोड़े
पर सवार हो
जाओ; तुम्हारी
तबीयत होगी, लगाम पकड़ लो;
तुम्हारी
तबीयत होगी, घोड़े को
बाएं चलाओ कि
दाएं चलाओ!
पुरानी आदत! उसे
तोड़ने के लिए
तुम्हें थोड़ा
सा धैर्य रखना
पड़ेगा--कि
घोड़े को जाने
दो; मन
जहां जाए जाने
दो; मैं
सिर्फ
देखूंगा। मैं
कोई नियंत्रण
न करूंगा। एक
शब्द दूसरे
शब्द को लाएगा;
क्योंकि सब
चीजें जुड़ी
हैं। एक शब्द
उठेगा; हजार
शब्द उठेंगे;
क्योंकि
कोई भी चीजें
असंबंधित
नहीं हैं।
फ्रायड
ने इस
प्रक्रिया का
बड़ा उपयोग
किया। यह योग
की बड़ी पुरानी
प्रक्रिया
है। फ्रायड को
तो शायद पता
भी नहीं था, लेकिन उसने
पूरे
मनोविश्लेषण
को इसी के ऊपर
आधारित किया।
फ्री
एसोसिएशन आफ थाट--सब
चीजें जुड़ी
हैं। एक विचार
आता है, उसके
कुंदे में
फंसा हुआ
दूसरा आता है,
उसके कुंदे
में फंसा
तीसरा आता
है--एक शृंखला बन
जाती है।
एक
ट्रेन में मैं
सफर कर रहा
था। बड़ी भीड़
थी। और टिकिट
चेकर आया और
एक बूढ़ा आदमी
ठीक मेरी सीट
के नीचे छिपा
हुआ था। उसने
उससे पूछा, ऐ बूढ़े, टिकिट
दिखा! वह बूढ़ा
वहीं गिड़गिड़ाने
लगा, हाथ जोड़ने लगा,
और कहा, क्षमा
कर दें, इस
बार बस माफ कर
दें। न तो टिकिट
है पास और न एक
पाई है जेब
में। लड़की की
शादी करनी है,
उसी सिलसिले
में गांव जा
रहा हूं। बड़ी
कृपा होगी!
दया आ गई उस टिकिट
चेकर को, वह
आगे बढ़ गया।
लेकिन दूसरी
सीट के नीचे
एक जवान आदमी
भी छिपा हुआ
था। उसने
सिर्फ मजाक
में उससे कहा,
क्यों भाई,
तुमको भी
अपनी बेटी की
शादी करनी है
क्या? टिकिट कहां है? उस
आदमी ने कहा, हजूर, टिकिट तो नहीं है।
और बेटी की
शादी नहीं
करने जा रहा हूं।
मैं उस बूढ़े
का होने वाला
जंवाई हूं।
ऐसे ही
चीजें जुड़ी
हैं--कोई
जंवाई है, कोई ससुर है;
दोनों छिपे
हैं। उनको
थोड़ा बाहर
लाने की जरूरत
है। तुम्हारे
भीतर सारी
शृंखला बंधी
है। तुम खुद
ही हैरान
होओगे, चकित
होओगे कि
कैसे-कैसे
विचार से
कैसे-कैसे
विचारों का
संबंध जुड़ा है;
वे कहां से
चले आते हैं!
तुम भयभीत भी
होओगे; क्योंकि
लगेगा कहीं
मैं पागल तो
नहीं हो रहा हूं!
मगर यह
बड़ा अदभुत
प्रयोग है।
तुम जो भी हो
रहा है होने
दो। अगर
सुविधा हो तो
और भी अच्छा
होगा कि तुम
जोर से बोलो, ताकि तुम
सुन भी सको।
क्योंकि मन
में तो महीन होती
हैं बातें, हो सकता है, तुम सचेतन न
रह सको।
तुम्हारे
भीतर जो चल
रहा है, उसे
तुम जोर से
बोलो! सुनो भी
और भीतर सजगता
भी रखो कि मैं
दूर रहूंगा; जो भी हो रहा
है, उसे
बोल दूंगा
निष्पक्ष, तटस्थ
भाव से। गाली आएगी
तो गाली, अपशब्द
आएगा तो
अपशब्द, राम
का नाम आएगा
तो राम का नाम,
ओंकार आएगा
तो ओंकार--जो
भी आएगा, मैं
बोल दूंगा और
सुनता
रहूंगा।
अगर
तुम तीन महीने
सतत एक घंटा
रोज इस
साहचर्य से
गुजर जाओ, तो तुम
धीरे-धीरे तीन
महीने के बाद
अनुभव करना
शुरू करोगे कि
अब विचार कम आ
रहे हैं।
क्योंकि
तुम्हारा
पुराना जो संरक्षित
कोष था, वह
कम होता जा
रहा है। अब
चीजें कम रह
गई हैं। कभी-कभी
एक शब्द आता
है, फिर
उसकी हुक में
बंधा हुआ कोई
शब्द नहीं आता,
वह अकेले ही
आ कर रह जाता
है। थोड़ी देर
टिकता है, खो
जाता है। छह
महीने के बाद
तुम पाओगे कि
कभी-कभी बीच
में अंतराल
आने लगा; एक
पल को कुछ भी
नहीं होता, तुम अकेले
रह जाते हो।
उसी पल में
श्रवण की क्षमता
शुरू होगी।
लेकिन
छह महीने बड़े
धैर्यपूर्वक
मन को उलीचना
जरूरी है, क्योंकि
जिंदगी भर उसे
भरा है। छह
महीने भी अगर
तुम बड़े
धैर्यपूर्वक
करो तो ही यह
हो पाएगा, नहीं
तो छह साल भी
लग सकते हैं, छह जन्म भी
लग सकते हैं।
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है कि
तुम कितनी
त्वरा से, कितनी
समग्रता से इस
प्रयोग को
करते हो।
और कई
बार ऐसा मौका
आएगा कि तुम
भूल ही जाओगे
कि हमें सिर्फ
देखना है। तुम
सवार हो जाओगे
घोड़े पर, यात्रा
पर निकल
जाओगे। तुम
संबंधित हो
जाओगे, तुम
लीन हो जाओगे;
तादात्म्य
हो जाएगा।
किसी विचार के
साथ आइडेंटिटी
हो जाएगी। और
तब तुम चूक गए,
तब प्रयोग
असफल हो गया।
जैसे ही खयाल
आए, फिर
घोड़े से नीचे
उतर जाओ।
शब्दों को
चलने दो, तुम
उन पर मत चढ़ो।
शब्दों को
जहां जाना हो,
जाने दो; तुम उनके
पीछे अनुसरण
भर करो। तुम
सिर्फ देखते
रहो पीछे-पीछे,
क्या हो रहा
है।
तो
धीरे-धीरे मौन, बहुत
धीरे-धीरे मौन
की पदचाप
सुनाई पड़ेगी।
और जिस दिन
तुम्हें मौन
की पदचाप
सुनाई पड़ेगी,
उसी दिन
तुम्हें
श्रवण की कला
का भी अनुभव
होगा। उस दिन
तुम सुन सकोगे।
उस दिन
तुम्हें गुरु
को खोजने न
जाना पड़ेगा।
उस दिन तुम
जहां रहोगे, वहीं गुरु
है। वहां
वृक्ष में हवा
चलेगी, फूल
झरेगा, सूखा पत्ता
गिरेगा, तुम
उसे भी सुन
सकोगे। आकाश
में बादल गरजेंगे,
बिजली चमकेगी,
नदी में बाढ़
आएगी, तुम
उसे भी सुन
सकोगे।
समुद्र के
किनारे तुमुल
नाद होगा, तुम
उसे भी सुन
सकोगे। एक
पक्षी गुनगुनाएगा
गीत, एक
बच्चा रोएगा,
रास्ते पर
कुत्ता भौंकेगा,
तुम वहां भी
सुन सकोगे।
सुनने
की कला आ जाए
तो गुरु चारों
तरफ है। और सुनने
की कला न आए तो
सभी
सिद्ध-पुरुष
तुम्हारे
सामने बैठे
हों, तो भी
गुरु नहीं
हैं। गुरु
होता है उसी
क्षण जब तुम
सुनने में
समर्थ हो गए।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'श्रवण से ही
भक्त आनंदित
होते हैं।
श्रवण से ही
दुख तथा पाप
का नाश होता
है।'
अगर
तुम्हें
सुनने की कला
आ गई तो तुम
परम आनंदित हो
जाओगे, क्योंकि
तुम साक्षी हो
गए। साक्षी ही
तो आनंद है। श्रवण
घटा, मन खो
गया; मन का
खो जाना ही तो
आनंद है। मन
के पार चले
जाना ही तो
आनंद है।
श्रवण हुआ, शब्द की
शृंखला टूट गई;
शब्द की
शृंखला के
अतीत हो जाना
ही तो आनंद है।
वही अतिक्रमण,
ट्रांसेंडेंस है। अब तुम
शब्दों की
घाटी में न
रहे। अब तुम उत्तुंग
शिखर हो गए, जहां शब्द
पहुंचते नहीं;
शब्दों की
धूल नहीं
पहुंचती।
जहां परम मौन
है; जहां
मौन कभी टूटा
ही नहीं; अब
तुम उस शिखर
पर खड़े हो। उस
शांति के शिखर
से आनंद के
सिवाय और कोई
गूंज पैदा
नहीं होती। उस
शांति के शिखर
पर तुम
परम-धन्यता को
उपलब्ध होते
हो।
'श्रवण
से ही दुख तथा
पाप का नाश हो
जाता है।'
जिसने
सुन लिया, जिसने सुनना
जान लिया, फिर
कैसा पाप!
क्योंकि पाप
होता है विचार
के साथ
संबंधित होने
से। इसे थोड़ा
समझो।
मन में
एक विचार उठा।
रास्ते से एक
कार गुजरी। एक
झलक, मन में एक
विचार आ गया
कि यह कार
मेरे पास हो।
अब तुम इसमें
संयुक्त हो
गए। अब यह कार
कैसे
तुम्हारे पास
हो, तुम इस
धुन में लग
गए। ईमानदारी
से मिले तो ईमानदारी
से, बेईमानी
से मिले तो
बेईमानी
से--कार होनी
चाहिए। अगर
कार नहीं है
तो अब तुम सो न
सकोगे। अब तुम्हारी
जिंदगी में एक
कठिनाई आ गई; जब तक हल न हो
जाए तब तक तुम
चैन न पा
सकोगे। रात
सपने में कार,
दिन सोचने
में कार; अब
कार तुम्हें
घेरे हुए है!
हुआ
क्या? कार
निकली थी, एक
विचार उठा।
क्योंकि मन
में तो जो भी
चीज निकलेगी,
उसके साथ
तत्क्षण
प्रतिबिंब
बनेंगे। उस
विचार के साथ
तुम संयुक्त
हो गए; तुम
दूर न रह सके।
एक
सुंदर स्त्री
निकली, तुम्हारे
मन में एक
विचार उठा। मन
में विचार उठे,
यह बिलकुल
ठीक है; क्योंकि
मन तो दर्पण
है। वह तो है
ही इसलिए कि जो
भी आसपास घटे,
उसमें
प्रतिबिंबित
हो। लेकिन तुम
तत्क्षण जुड़
गए। सुंदर
स्त्री का
प्रतिबिंब
बनता और सुंदर
स्त्री चली
जाती, प्रतिबिंब
भी चला जाता; तुम साक्षी
रहते, तो
पाप का कोई
उपाय न होता।
लेकिन अब किसी
भी तरह यह
स्त्री
चाहिए। राह से
मिले, राह
से; बेराह मिले, बेराह;
प्रेम से
मिले, प्रेम
से; हिंसा
से मिले, हिंसा
से; अगर न
हो सके प्रेम
तो बलात्कार,
लेकिन अब यह
स्त्री
चाहिए।
अब एक
विचार ने तुम्हें
ग्रसित कर
लिया। एक छाया
तुम्हारे मन
से गुजरी थी, तुम उसे
गुजरते देख
लेते और तुम
अपने को दूर खड़ा
रखते और देखते
रहते कि छाया
बनी और गयी, तो कोई पाप न
उठता। सब पाप
उठते हैं, क्योंकि
तुम विचार के
साथ एक हो
जाते हो। फिर विचार
तुम्हें इस
बुरी तरह पकड़
लेता है--एक
झंझावात की
तरह, एक
आंधी की
तरह--कि
तुम्हें
झकझोर देता
है। और विचार
के साथ जा कर
भी कुछ मिलता
नहीं। दुख मिलता
है। तुमने
इतना दुख पाया
है, वह
विचार के साथ
जा कर पाया
है। पर इतना
भी तुम्हें
होश नहीं है
कि तुम देख
सको कि सब दुख
विचार के साथ
जा कर पाया
है। और सब
आनंद
निर्विचार
में घटित होता
है।
नानक
कहते हैं, श्रवण से
दुख तथा पाप
का नाश होता
है। क्योंकि
पाप का फल है
दुख। पाप है
बीज, फल है
दुख। इधर पाप
गया, उधर
दुख गया। और
जब न पाप है और
न दुख है, तब
तुम जिस
अवस्था में हो,
वही समाधि
है, वही
आनंद है!
नानक
भगता सदा विगासु।
सुणिऐ
दुख पाप का नासु।।
'सुनने
में जो समर्थ
हो गया, उसके
दुख और पाप
नष्ट हो गए।
और नानक कहते
हैं, वैसा
भक्त आनंद को
उपलब्ध हो
जाता है। और
उसका आनंद
विकसित ही
होता चला जाता
है।'
यह विगासु
शब्द बड़ा
महत्वपूर्ण
है। इसमें
दोनों बातें छिपी
हैं--आनंद और
निरंतर
विकासमान। तो
आनंद तो एक
फूल है जो
खिलता ही चला
जाता है। ऐसी
कोई घड़ी नहीं आती
जब पूरा फूल
खिल जाए; खिलता
ही चला जाता
है। पूरे से
भी ज्यादा; और पूरा, और
पूरा, और
परिपूर्ण
खिलता चला
जाता है। जैसे
सुबह का सूरज
उगता है और
उगता ही चला
जाता है और कोई
अस्त न हो, ऐसा
वह आनंद है।
फूल खिलता है
और मुरझाए
न, कोई
अस्त न हो, ऐसा
वह आनंद है।
हृदय
में जब
शून्यता घनी
होती है, मौन
का जन्म होता
है, तो फिर
आनंद की लहरें
उठती ही चली
जाती हैं। ध्यान
रखना, आनंद
कोई ऐसी घटना
नहीं है कि जो
वस्तुओं की तरह
है, तुमने
एक दफे पा
लिया और खतम
हो गई। वह
बढ़ती ही चली
जाती है। एक
दफा जिसने पा
ली, वह
बढ़ती ही चली
जाती है। उसकी
बढ़ती की कोई
सीमा नहीं है।
इसलिए
तो हम कहते
हैं, परमात्मा
अनंत है। और
इसलिए हम कहते
हैं, परमात्मा
आनंद है।
क्योंकि आनंद
अनंत है। तुम
कभी उसे पूरा
पा न पाओगे।
और हर बार तुम
पाओगे कि और
बढ़ता जा रहा
है। और हर जगह
तुम पाओगे कि
तुम पूरे
तृप्त हो। यह
पहेली है और
बुद्धि से
सोचने पर हल
नहीं होती। क्योंकि
बुद्धि कहती
है, अगर
मिल गया और
तृप्ति हो गई
तो अब और बढ़ने
को क्या बचा!
तृप्ति भी
बढ़ती है; क्योंकि
तृप्ति जीवंत
है, वस्तु
नहीं है।
तृप्ति एक
जीवंत घटना
है।
आनंद
कोई ऐसी वस्तु
नहीं है कि ले
आए खरीद कर एक
सेर, दो सेर, बात खतम हो
गई; अनंत
है। एक बार
तुम उतर गए तो
तुम डूबते ही
चले जाते हो।
और मजे की बात
यह है कि हर
घड़ी लगता है
कि पूरा मिला,
और फिर भी
बढ़ता है।
पूर्ण
भी विकासमान
है। पूर्ण भी
मृत नहीं है; रुक नहीं
गया है; फैलता
चला जा रहा
है। इसलिए तो
हमने इस
अस्तित्व को
ब्रह्म कहा
है। ब्रह्म का
अर्थ होता है,
जो विस्तृत
होता ही चला
जाता है।
ब्रह्म का अर्थ
है, जिसके
विस्तार की
सीमा कभी नहीं
आती; जो
उतना ही नहीं
है, जितना
कल था; जो
उतना ही नहीं
है, जितना
आज है; जो
रोज फैलता चला
जाता है।
जिसका फैलाव
अंतहीन है।
ब्रह्म शब्द
का अर्थ होता
है, अंतहीन
फैलाव।
'श्रवण
से ही विष्णु,
ब्रह्मा और
इंद्र होते
हैं। श्रवण से
ही बुरे मुख
से भी उसकी
प्रशंसा के
गीत निकलने
लगते हैं।
श्रवण से ही
योग की युक्ति
और शरीर के
भेद ज्ञात
होते हैं। श्रवण
से ही शास्त्र,
स्मृति और
वेद का अनुभव
होता है। नानक
कहते हैं कि
श्रवण से ही भक्तगण
सदा आनंदित
होते हैं तथा
दुख और पाप का
नाश होता है।'
सुन
लिया जिसने
सत्य को, गुरुवाणी को; जिसने
जाना है उसकी
सुगंध को; जिसने
जाना है उसके
पास बैठना जो
सीख गया है; जिसे इतनी
कला आ गई कि वह
चुप हो कर
किसी के पास बैठ
जाए जिसे घटना
घटी है; तो
जिसके भीतर
घटी है, उससे
बह कर
तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट
होने लगती है।
ज्ञान
संक्रामक है।
आनंद
संक्रामक है।
तुम्हारे
द्वार खुले
हों तो बस हवा
के झोंके की
तरह आनंद
तुममें आ जाता
है, उस आदमी
के पास से, जिसके
पास था। उसका
कुछ कम नहीं
होता, तुम्हारा
बढ़ जाता है। बंटने से
उसका भी बढ़ता
है, क्योंकि
उतना ही
विस्तीर्ण हो
जाता है। चुप
अगर तुम हो तो
तुम्हारे
भीतर जगह है।
और ध्यान रखना,
अस्तित्व
शून्यता को
पसंद नहीं
करता। तुम इधर
शून्य हुए और
उधर अस्तित्व
ने तुम्हें
भरा।
जैसे
नदी में तुम
पानी भर लो एक घड़े में, तुम भर भी
नहीं पाए कि
चारों तरफ से
पानी दौड़ कर
खाली जगह को
भर देता है।
तुम हवा में
से हवा को
निकाल लो, चारों
तरफ से हवाएं
दौड़ कर उसे भर
देती हैं।
अस्तित्व खाली
जगह को पसंद
नहीं करता।
तुम एक बार
खाली होने को
राजी भर हो
जाओ कि हमेशा
ताजी हवाओं से
भर दिए जाते
हो। तुम इधर
खाली हुए, उधर
भरे। इस कोने
से तुम बाहर
निकले, उधर
से परमात्मा
भीतर आया। तुम
जब तक अपने से ही
भरे हो, तब
तक खाली
रहोगे। जिस
दिन खाली हो
जाओगे, उस
दिन उस परम
ऊर्जा से भर
जाओगे।
नानक
कहते हैं, जिनके जीवन
में पाप है और
जिनके मुख से
कभी सुंदर
शब्द नहीं
निकले, शुभ-वाणी
जिनसे कभी
प्रकट नहीं
हुई, जिनके
ओठों से
सदा अपशब्द
निकले, जिनके
मस्तिष्क में
सदा अभिशाप
रहा, ऐसे
बुरे लोग भी
अगर एक बार
सुन लें, तो
महिमा से भर
जाते हैं।
श्रवण की छोटी
सी झलक भी
तुम्हें ताजा
कर देती है, नहला देती
है।
नानक
पापियों से
पाप छोड़ने को
नहीं कह रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, तुम
सिर्फ सुन लो।
पाप छूट जाएगा
सुनने से। नानक
पापियों को
सुधरने को
नहीं कह रहे
हैं कि तुम
पहले सुधर जाओ
तब तुम सुन
पाओगे। तब तो
असंभव हो
जाएगा, तब
तो तुम कभी भी
न पहुंच
पाओगे। अगर यह
शर्त हो कि
पहले जब तक
तुम शुद्ध न
हो जाओगे तब
तक सुन न
सकोगे, तो
तुम कभी सुन
ही न सकोगे।
तब तो
तुम्हारे जीवन
में कोई आशा
नहीं।
नानक
कह रहे हैं, तुम सुन लो, पाप की
चिंता छोड़ो,
बुराई की
चिंता छोड़ो।
सुनते ही
तुम्हारे
जीवन में एक
नए सूत्र का आविर्भाव
होगा, एक
नई चिनगारी
पड़ेगी, जो
तुम्हारे
सारे पाप को
जला देगी।
तुम्हारा सारा
अतीत राख हो
सकता है, अगर
तुम मौन हो
जाओ।
क्योंकि
है ही क्या
पाप? अतीत में
भी तुमने किया
क्या है? विचार
के साथ संयुक्त
हो गए थे और
फिर विचार को
कृत्य बनाने
में लग गए
थे--यही तो
सारा पाप है।
आज तुम विचार
से अलग हो जाओ,
कृत्य टूट
जाए, कर्ता
खो जाए--अतीत
से भी संबंध
टूट गया। तब
तुम ऐसा पाओगे
कि अतीत भी एक
स्वप्न था, इससे ज्यादा
नहीं। तुमने
जन्मों-जन्मों
में जो किया, वह भी कर्ता
होने की
भ्रांति के
कारण हुआ था।
आज भ्रांति
टूट गई, वे
सब कृत्य
समाप्त हो गए।
नानक
की बात बहुत
लोगों को समझ
में नहीं
पड़ेगी।
क्योंकि लोग
सोचते हैं कि
जो-जो पाप किए
हैं, उन पापों
के
प्रायश्चित
में पुण्य
करने पड़ेंगे।
और जब तक हम
पुण्य न
करेंगे तब तक
पाप कैसे कटेंगे?
जो बुरा
किया है, उसके
ठीक समतौल
में तराजू पर
भला करना
पड़ेगा।
हिसाबी-किताबी
दिमाग के लोग
ठीक ही कहते
हैं कि अगर एक
बुरा कृत्य
किया तो एक
भला कृत्य करो,
तब तो समतौल
होगा। अगर ऐसा
होना है तो
तुम कभी मुक्त
न हो सकोगे।
क्योंकि अनंत
जन्मों से तुम
पाप कर रहे हो,
अनंत जन्म
तुम्हें
लगेंगे पुण्य
करने में। और
इस बीच भी तुम
पाप करने से
बचोगे, इसका
कोई भरोसा है!
तब तो यह
शृंखला टूट ही
नहीं सकती। तब
तो मोक्ष
असंभव है।
अनंत
जन्मों से किए
हुए पाप हैं।
इनके अगर एक-एक
पाप का चुकतारा
करना हो, अगर
परमात्मा कोई
दुकानदार हो
या अदालत का
कोई मैजिस्ट्रेट
हो और अगर
इनका एक-एक
पाप का चुकतारा
करना हो, तो
यह चुकतारा
कब पूरा होगा?
और इस
बीच--तुम अगर
पुण्य ही
पुण्य करते
रहो तो चुकतारा
अनंत काल में
हो
पाएगा--लेकिन
इस बीच तुमसे
आशा है कि तुम
पुण्य ही
पुण्य करते
रहोगे?
नहीं, ज्ञानियों
ने कुछ और ही
बात कही है।
ज्ञानी किसी दूसरे
ही गणित से
चलते हैं। वे
कहते हैं, पाप
का सवाल नहीं
है, पाप के
मूल का सवाल
है।
यह
वृक्ष खड़ा है
सामने, तुम
पचास साल से
पानी दिए हो
इस वृक्ष को; क्या तुम
सोचते हो पचास
साल लगेंगे
पानी वापस निकालने
में, तब यह
वृक्ष मरेगा?
जड़ को आज
काट दो, यह
आज मरना शुरू
हो जाएगा।
पत्ते एक-एक
तोड़ने में
शायद पचास साल
लगें, फिर
भी वृक्ष न
टूटे! क्योंकि
पुराने पत्ते टूटेंगे, नए आ
जाएंगे। और अब
तो वृक्ष इतना
बड़ा हो गया है
कि तुम्हें
पानी देने की
जरूरत भी
नहीं। अब तो
वह जमीन से
अपना पानी ले
लेता है।
नहीं, पत्ते अगर
काटे तो यह
वृक्ष कभी
टूटने वाला नहीं।
सच तो यह है कि
पत्ते तुम एक
काटोगे, दो
आ जाएंगे। वही
तो कलम की
सारी कला है।
इधर काटो उधर
नए आए। अगर
तुम पाप
काटोगे, नए
पाप आ जाएंगे।
जड़ पकड़ो! जड़
क्या है? कर्म
पत्ते हैं; कर्ता का
भाव जड़ है।
अगर तुम
कर्ता-भाव को
काट दो, इसी
वक्त वृक्ष
सूख गया। सारा
स्रोत
तुम्हारे
कर्ता-भाव से
आ रहा था कि
मैं कर रहा
हूं। कर्ता-भाव
को तोड़ने की
कला साक्षी
है। साक्षी
यानी श्रवण।
इसलिए
नानक ऐसी
अनूठी महिमा
गा रहे हैं।
वे कह रहे हैं
कि तुम चुप हो
कर सुन लो।
क्योंकि
सुनने के क्षण
में तुम कर्ता
नहीं रहोगे।
सुनना पैसिव, अकर्ता का
भाव है। सुनने
में तुम्हें
कुछ भी तो
नहीं करना
पड़ता, तुम
सिर्फ बैठे
हो। सुनना कोई
क्रिया थोड़े
ही है!
तुम्हें कुछ
करना थोड़े ही
पड़ता है!
बड़े
मजे की बात
है--देखना हो
तो कम से कम
आंख खोलनी
पड़ती है, कान
खुले ही हुए
हैं। देखना हो
तो कम से कम
आंख खोलने की
क्रिया करनी
पड़ती है, सुनना
हो तो कान
खोलने की
क्रिया भी
नहीं करनी
पड़ती। वे खुले
ही हुए हैं।
इसलिए देखने
में तो थोड़ा
सा कर्ता का
भाव आ भी जाए, सुनने में
कर्ता के भाव
का कोई उपाय
ही नहीं है।
कोई दूसरा बोल
रहा है, तुम
खाली बैठे हो।
तुम बिलकुल
निष्क्रिय
हो। तुम पैसिव
हो। तुम
अक्रिया में
हो। इसलिए
देखने से भी वह
महिमा उपलब्ध
नहीं होती जो
सुनने से
उपलब्ध होती
है।
इसलिए
श्रवण पर इतना
जोर दिया है।
महावीर कहते
हैं, सम्यक
श्रवण। बुद्ध
कहते हैं, सम्यक
श्रवण। नानक
अदभुत महिमा
का वर्णन कर
रहे हैं। सुन
लो; वहां
कोई कर्ता
नहीं है। वहां
कोई है नहीं
सुनने के क्षण
में। अगर तुम
चुप हो तो कौन
है भीतर? सुनने
के क्षण में
सन्नाटा है।
एक आवाज गूंजती
है, गुजर
जाती है। कोई
भी नहीं है
भीतर। विचार
आया कि तुम
आए। जब विचार
नहीं होता, तुम भी नहीं
होते। अहंकार
विचारों के
जोड़ का नाम
है। श्रवण
अर्थात निरअहंकार
दशा।
कहते
हैं नानक, 'श्रवण से ही
योग की युक्ति
और शरीर के
भेद ज्ञात
होते हैं।'
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
सूत्र है।
सुणिऐ
जोग जुगति तनि
भेद। सुणिऐ
सासत सिमृति
वेद।।
नानक
भगता सदा विगासु।
सुणिऐ
दुख पाप का नासु।।
पश्चिम
में
शरीर-शास्त्रियों
को बड़ी पहेली
रही है कि
पूर्वीय
मनीषियों ने
शरीर के
रहस्य-भेद
कैसे जाने!
क्योंकि न तो
पूरब में लाश बचायी
जाती है।
पश्चिम में
सर्जरी
विकसित हो सकी
और शरीर का
ज्ञान हो सका, क्योंकि
ईसाइयत
मुर्दे को
बचाती है।
हिंदू तो
जलाते रहे। तो
यहां तो मरा
हुआ आदमी पाना
डिसेक्शन
के लिए असंभव
था। राख बचती
है; उसमें
क्या खोजिएगा?
इधर आदमी
मरा कि हमने
जलाया। तो
हिंदू तो मरे हुए
आदमी को जलाते
रहे, बचाया
नहीं। पश्चिम
में संभव हो
सका कि कब्रों
से लाशें खोद
ली गईं और
उनकी जांच-पड़ताल
कर ली गई।
उससे आदमी के
शरीर का ज्ञान
हुआ।
पूरब
में कैसे
ज्ञान हुआ? फिर पश्चिम
में भी ज्ञान
अभी हो पाया, वह भी अभी
पूरा नहीं हुआ;
जब कि इतने
वैज्ञानिक
साधन उपलब्ध
हैं, जिनसे
शरीर की
रत्ती-रत्ती
जांच हो सकती
है। लेकिन
पूरब में कैसे
ज्ञान हुआ? और ज्ञान करीब-करीब
ठीक-ठीक हुआ, गणित की तरह
ठीक हुआ। न
साधन थे, न
लाशें उपलब्ध
थीं, न
वैज्ञानिक
विकास था, तकनीक
नहीं थी, टेक्नालाजी नहीं थी, कैसे
यह हुआ? बहुत
विचार इस पर
चलता है। नानक
के इस सूत्र में
उस विचार का
उत्तर है।
'श्रवण
से ही योग की
युक्ति और
शरीर के भेद
ज्ञात होते
हैं।'
जब तुम
शून्य हो कर
भीतर विराज
जाते हो, तब
तुम्हें अपना
ही शरीर भीतर
से दिखाई पड़ने
लगता है। अभी
तुमने अपने
शरीर को भी
बाहर से देखा
है, तो
चमड़ी दिखाई
पड़ती है। जब
तुम अपने शरीर
को भीतर से देखोगे
तो नाड़ियों
का विराट जाल
दिखाई पड़ेगा।
एक अनूठा अनुभव
होता है, जब
पहली दफा शरीर
भीतर से दिखाई
पड़ता है। तुम तो
अभी ऐसे हो
जैसे अपने ही
मकान को चारों
तरफ से देखा
है, भीतर
गए नहीं।
बाहर-बाहर घूम
रहे हो। तो
मकान के बाहर
का पलस्तर
दिखाई पड़ता
है। बस वही
तुम्हारा
अनुभव है।
जब तुम
भीतर जाओगे, जैसे राजमहल
में बैठे हुए
आदमी को महल
भीतर से दिखाई
पड़ता है--भीतर
का साज-शृंगार,
भीतर की
सजावट--वैसे
ही तुम जब
शांत हो कर
अपने भीतर बैठ
जाते हो, जब
मन उलझन खड़ी
नहीं करता...।
क्योंकि मन
सदा बाहर ले
जाता है। जैसे
ही तुम मन के
साथ बंधे कि तुम
बाहर गए। मन
बाहर जाने का
द्वार है। सोचोगे
क्या? जो
भी सोचोगे, बाहर
होगा--धन होगा,
स्त्री
होगी, मकान
होगा, कार
होगी, इज्जत
होगी, पद-प्रतिष्ठा--जो
भी सोचोगे, बाहर होगा।
विचार के सभी आब्जेक्ट,
विषय-वस्तुएं
बाहर हैं। तुम
सोचोगे क्या?
बाहर का ही
कुछ सोचोगे।
जैसे ही तुम
निर्विचार
हुए, बाहर
जाना बंद हुआ।
ऊर्जा भीतर
ठहर गई। तुम
अपने सिंहासन पर
बैठे और पहली
दफे तुम्हें
शरीर भीतर से
दिखाई पड़ना
शुरू हुआ! तब
तुम पाओगे, यह शरीर
छोटा नहीं है,
छोटा दिखाई
पड़ता है।
इसलिए
तो हिंदू कहते
हैं, अंड में
ब्रह्मांड
समाया। इस
छोटे से शरीर
में--मिनिएचर--समस्त
ब्रह्मांड
छिपा हुआ है।
यह छोटा सा
शरीर जैसे
सारे ब्रह्मांड
की छोटी सी
अनुकृति है।
जो कुछ सारे
जगत में है, वह सब इस
छोटे से शरीर
में छोटे
परिमाण
में--एक माडल।
जैसे कोई
ताजमहल का
माडल बनाता है,
सब बिलकुल
ताजमहल जैसा,
पर छोटी
आकृति। ऐसा ही
प्रत्येक
जीवन समस्त अस्तित्व
की छोटी आकृति
है।
नानक
कहते हैं, जो चुप हो
गया, मौन
हो गया, जिसने
श्रवण की कला
सीख ली और जो
अपने ही भीतर अपने
शरीर को भी
सुनने लगा, उसे शरीर के
भेद, योग
की युक्ति, सब ज्ञात हो
जाती है।
पतंजलि
ने जो भी
योग-शास्त्र
में लिखा है, वह किसी
दूसरों के
शरीर की जांच
से नहीं, अपने
ही शरीर के
भीतर के अनुभव
से लिखा है।
और वे वचन अभी
भी शत-प्रतिशत
सही हैं, कोई
अंतर नहीं
पड़ा। योग ने
जितनी
विधियां खोजी
हैं, वे
अपने ही शरीर
के अनुभव से
खोजी हैं।
अगर
तुम शांत हो
कर
बैठोगे--कुछ
उदाहरण के लिए
मैं तुम्हें
कहूं--जैसे ही
तुम शांत हो
कर बैठोगे, तुम पाओगे, तुम्हारे
श्वास की गति
बदल गई
तत्क्षण।
विचार बंद हुए,
श्वास की
गति बदल जाती
है। विचार चले,
श्वास की
गति बदल जाती
है। जब तुम
शांत हो कर बैठोगे,
अगर तुमने
पहचान लिया कि
श्वास की गति
बदली, अब
कैसी गति है
श्वास की! जब
भी तुम शांत होना
चाहो श्वास की
वही गति कर लो,
तुम
तत्क्षण शांत
हो जाओगे।
तुम्हें एक
रहस्य पता चल
गया, तुम्हें
एक कुंजी हाथ
में आ गई।
जब तुम
बिलकुल शांत
हो कर बैठे, तब तुम देखो
कि तुम्हारी
रीढ़ की क्या
स्थिति है। जब
तुम शांत हो
कर बैठोगे, तुम पाओगे, रीढ़ अपने-आप
नब्बे का कोण
बना लेती है
जमीन से।
स्वस्थ आदमी
हो, बूढ़ा न
हो, बीमार
न हो, तो
जैसे ही शांत
होगा, रीढ़
नब्बे का कोण
बना लेगी।
तुम्हें एक
कुंजी हाथ आ
गई। जब भी तुम
शांत होना
चाहो, रीढ़
को नब्बे का
कोण बना दो
जमीन से। ऐसे
धीरे-धीरे
योगी अनुभव
करता है कि
क्या उसके
भीतर हो रहा
है।
जैसे
ही तुम शांत
हो कर बैठोगे, तुम पाओगे
कि जितने तुम
शांत होते हो,
तुम्हारी
रीढ़ से कोई
ऊर्जा ऊपर की
तरफ उठनी शुरू
हो जाती है।
तुम उसे
प्रत्यक्ष देखोगे, अनुभव
करोगे। एक
उष्ण ताप
तुम्हारी रीढ़
में दौड़ने
लगेगा।
तरंगें
विद्युत की
तुम्हारी रीढ़
में उठने लगेंगी,
जिनका
तुमने कभी
अनुभव नहीं
किया था। और
जैसे-जैसे वे
तरंगें ऊपर
जाएंगी, वैसे-वैसे
तुम आह्लादित
पाओगे।
जैसे-जैसे वे तरंगें
ऊपर उठेंगी,
वैसे-वैसे
तुम्हारा दुख,
उदासी कम और
आनंद का भाव
बढ़ने लगेगा।
जैसे-जैसे
ऊंचाई बढ़ेगी
तरंगों की, वैसे-वैसे
तुम पाओगे कि
जीवन की
क्षुद्रता
छूट गई, दूर
घाटी में पड़ी
रह गई, तुम
जैसे किसी
पर्वत पर चले
आए हो। वह
धुआं गांव-बस्ती
का, लोगों
की चर्चा का, बातचीत का, उपद्रव का, सब पीछे छूट
गया। तुम बड़े
दूर निकल आए
हो।
इसलिए
तो हमने रीढ़
को मेरुदंड
कहा है। मेरु
पर्वत का नाम
है, जो स्वर्ग
में है। और जब
कोई व्यक्ति
इस छोटे से
मेरुदंड की
आखिरी ऊंचाई
पर पहुंच जाता
है, तो वह
वही ऊंचाई है
जो मेरु पर्वत
की है स्वर्ग
में। उस ऊंचाई
और इस ऊंचाई
में कोई फर्क
नहीं है। और
जो आखिरी शिखर
है--जहां
हिंदू शिखा रखते
हैं, जो
सातवां द्वार
है, जहां
से ऊर्जा अनंत
में मिलती
है--जब
तुम्हारी
तरंगें वहां से
विकीर्ण होने
लगेंगी, ब्रह्मचर्य
उपलब्ध हो
जाएगा। तब
तुम्हें ब्रह्मचर्य
के लिए कुछ भी
करना नहीं
पड़ेगा। और जब
भी तुम्हें
वासना पकड़े
तो वासना को
दबाने की कोई
जरूरत न रह
जाएगी, तुम
बस रीढ़ को
सीधा करके उन
तरंगों को ऊपर
जाने दो, तो
जो ऊर्जा
वासना से बहती
थी, वही
ऊर्जा
ब्रह्मचर्य
बन जाएगी।
ऊर्जा तो वही
है, एनर्जी
वही है; पहले
द्वार से
निकलती है तो
प्रकृति में
चली जाती है, सातवें
द्वार से
निकलती है तो
परमात्मा में
चली जाती है।
ऐसे जो
व्यक्ति चुप
हो कर बैठने
की कला सीख लेगा, उसे उसका ही
शरीर
हजार-हजार
अनुभव दे
देगा। अपने ही
शरीर से तुम
सारे योग
शास्त्र को
जान सकते हो।
पतंजलि को
पढ़ने की जरूरत
नहीं। सच में तो
पतंजलि के
शास्त्र बाद
में ही पढ़ने
की जरूरत है।
क्योंकि वे
तुम्हें
आश्वस्त कर
देते हैं कि
सब ठीक हो रहा
है। तुम जब भीतर
प्रयोग करना
शुरू करते हो,
तब शास्त्र
का उपयोग इतना
ही है कि तुम
कई बार डरोगे
कि पता नहीं
क्या हो रहा
है। अनजान में
जा रहे हो; क्या
होगा, क्या
नहीं होगा--भय पकड़ेगा।
शास्त्र
तुम्हें
आश्वस्त कर
देगा कि तुम
अनजान में
नहीं जा रहे
हो, जो भी
गए हैं, इसी
रास्ते से गए
हैं।
जिन्होंने भी
पाया, ऐसे
ही पाया है।
ये-ये घटनाएं
उन्हें भी घटी
हैं; और
आगे ये-ये
घटनाएं घटने
की संभावना है;
तुम भयभीत न
होओ, आश्वस्त
रहो। शास्त्र गवाहियां
हैं
ज्ञानियों
की। लेकिन
असली ज्ञान
शास्त्र से
नहीं होता, असली ज्ञान
तो खुद के
भीतर शांत होने
से होता है।
इसलिए
कहते हैं नानक, शास्त्र, स्मृति और
वेद श्रवण से
ज्ञात होते
हैं।
नानक
कहते हैं, 'श्रवण से भक्तगण
सदा आनंदित
होते हैं। और
दुख और पाप का
नाश होता है।
श्रवण से ही
सत्य, संतोष
और ज्ञान
उपलब्ध होता
है। श्रवण से
ही अड़सठ
तीर्थों का
स्नान प्राप्त
होता है।
श्रवण से ही
पढ़-पढ़ कर मान
मिलता है।
श्रवण से ही
सहज ध्यान
लगता है। नानक
कहते हैं, श्रवण
से भक्तगण
आनंदित होते
हैं और दुख
तथा पाप का
नाश होता है।'
सुणिऐ सतु संतोखु
गिआनु। सुणिऐ अठसठि
का इस्नानु।।
सुणिऐ पड़ि पड़ि
पावहि मानु। सुणिऐ
लागै सहज धिआनु।।
नानक
भगता सदा विगासु।
सुणिऐ
दुख पाप का नासु।।
अड़सठ
तीर्थ
हिंदुओं ने
माने हैं, जिनमें
स्नान करने से
परम मुक्ति
मिलती है। लेकिन
वे अड़सठ तीर्थ
तो नक्शे पर
बताए गए तीर्थों
की भांति हैं।
शरीर के भीतर
अड़सठ बिंदु
हैं, जिनसे
गुजर कर पुण्य
की उपलब्धि
होती है।
हिंदुओं
ने बड़ा अदभुत
काम किया है।
पृथ्वी पर
किसी जाति ने
ऐसा अदभुत काम
नहीं किया।
बाहर तो प्रतीक
हैं और उन
प्रतीकों में
जब हम भटक गए
तो हिंदुओं की
सारी
जीवन-चेतना खो
गई। हम कहते
हैं कि गंगा
जल रामेश्वरम
में ले जा कर
चढ़ा रहे हैं।
भीतर शरीर के
बिंदु हैं। एक
बिंदु से
ऊर्जा को लेना
है और दूसरे
बिंदु पर चढ़ाना
है। एक बिंदु
से ऊर्जा को
खींचना है और
दूसरे बिंदु
तक पहुंचाना
है। तब तीर्थ
यात्रा हुई। पर
हम अब पानी ढो
रहे हैं, गंगा
से और रामेश्वरम
तक। हमने पूरी
पृथ्वी को
नक्शे की तरह
बना लिया था, आदमी का
फैलाव। आदमी
के भीतर बड़ा
सूक्ष्म है सब
कुछ। उसको
समझाने के लिए
ये प्रतीक थे।
और इन
प्रतीकों को
हमने सत्य मान
लिया तो हम
भटक गए।
प्रतीक कभी
सत्य नहीं
होते, सत्य
की तरफ इशारे
होते हैं।
नानक
कहते हैं, 'श्रवण से
सत्य मिलता, संतोष मिलता,
ज्ञान
उपलब्ध होता।
श्रवण से अड़सठ
तीर्थों का स्नान
प्राप्त होता
है।'
तुम
अगर चुप हो गए
तो तुम्हें
भीतर के तीर्थ
दिखाई पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। तुम अगर
चुप हो गए तो
तुम्हें
सोचना नहीं
पड़ता कि सत्य
क्या है, तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि सत्य क्या
है। जब तक
सोचना है, तब
तक सत्य होगा
ही नहीं; मत
होगा, धारणा
होगी, कंसेप्ट
होगा, ओपीनियन होगा, सत्य
नहीं होगा।
सत्य तो अनुभव
है। और जब
तुम्हें
दिखाई पड़ता है,
तुम सोचोगे
क्यों!
'संतोष
उपलब्ध होता।'
क्योंकि
जब तक तुम
विचार के साथ
चलोगे, असंतुष्ट
रहोगे।
क्योंकि
विचार हजार
चीजें सुझाता
है--यह करो, यह
करो, यह
करो। कर-कर के तुम
असंतुष्ट हो।
विचार कहे ही
चला जाता है।
नयी वासनाएं
जन्माता है।
संतोष तो तभी
होगा जब तुम
विचार का साथ
छोड़ दोगे।
विचार की
दोस्ती बड़ी
बुरी है। उसी
दोस्ती ने
भटकाया। अगर
कोई कुसंग है
जगत में, तो
विचार का। अगर
किसी का
संग-साथ छोड़
देना है, तो
विचार का।
उपयोग करो
उसका, संग-साथ
की कोई जरूरत
नहीं। उपयोग
करो तो बहुत
शुभ है। उसकी
मान कर चलने
लगे तो सब
उपद्रव है।
विचार शराब की
तरह है, उसकी
मान कर चले कि
भटकाएगा। और
तब तुम्हें जीवन
में कुछ भी सूझे
न सूझेगा
कि अब क्या
करें और क्या
न करें।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात ज्यादा
पी गया। घर
आने की हिम्मत
न रही। जो भी
ज्यादा पी जाए, उसकी घर आने
की हिम्मत कम
हो जाती है।
जवाब देना
पड़ेगा और जवाब
कुछ सूझता
नहीं। पैर लड़खड़ाते
हैं। वह
यहां-वहां
भटकता रहा।
आधी रात एक
कांस्टेबल ने
उसे पकड़ लिया
और कहा कि
क्या कर रहे हो?
जवाब दो! वह
बिलकुल चुप
खड़ा रहा। उस
कांस्टेबल ने
कहा कि जल्दी
जवाब देते हो
कि कोतवाली ले
चलूं! मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, अगर
जवाब ही दे
सकते तो शाम
को अपने घर ही
न चले गए होते!
जवाब ही तो
नहीं है।
विचार
एक नशा है, विचार के
पास कोई जवाब
नहीं है। जवाब
ही होता तो
कभी के तुम
अपने घर चले
गए होते। किसलिए
भटक रहे हो
आधी रात में
रास्तों पर? कोई उत्तर
नहीं है अपने
जीवन को
समझाने का। विचार
के पास उत्तर
है ही नहीं।
निर्विचार
में उत्तर है।
इसलिए
नानक कहते हैं, संतोष, सत्य--श्रवण
से, अड़सठ
तीर्थों का
स्नान--श्रवण
से, श्रवण
से ही सहज
ध्यान लगता
है।
अगर
तुम सुन ही लो, ध्यान हो
गया। ध्यान के
बिना तुम सुन
ही न पाओगे।
ध्यान का मतलब
क्या है? जहां
मन नहीं, वह
अवस्था
ध्यान। जहां
अंतरंग
वार्तालाप नहीं,
वह अवस्था
ध्यान है।
'श्रवण
से श्रेष्ठ
गुणों की थाह
मिलती है। श्रवण
से ही शेख, पीर,
बादशाह
होते। श्रवण
से ही अंधे
राह पाते।
श्रवण से ही
अथाह हाथ आ
जाता। नानक
कहते हैं, श्रवण
से ही भक्तगण
सदा आनंदित
होते हैं, दुख
और पाप का नाश
होता है।'
सुणिऐ
सरा गुणा के
गाह। सुणिऐ
सेख पीर पातिसाह।।
सुणिऐ
अंधे पावहि
राहु। सुणिऐ
हाथ होवै असगाहु।।
नानक
भगता सदा विगासु।
सुणिऐ
दुख पाप का नासु।।
श्रवण
से अंधे को
राह मिल जाती
है। श्रवण से
भिखारी
बादशाह हो
जाता है।
श्रवण से
जिसकी थाह नहीं
मिलती थी, जो अथाह
लगता था, उसकी
थाह मिल जाती
है।
विचार
छोटी चम्मच की
तरह है, जिससे
तुम सागर को
नाप रहे हो।
श्रवण, सागर
में उतर जाना
है। थाह तभी
मिलती है जब
तुम डूबोगे।
चम्मचों से
तौलने से थाह
नहीं मिलती।
अरिस्टोटल
बहुत बड़ा
विचारक हुआ
यूनान का।
गुजर रहा था एक
समुद्र के तट
से, सोच रहा
था, अपने
सोच में खोया
था। एक आदमी
को उसने देखा
कि जो छोटा-सा गङ्ढा खोद
कर चम्मच से
सागर का पानी गङ्ढे में
डाल रहा था।
जिज्ञासा जगी;
पूछा कि भाई
क्या करते हो!
उस आदमी ने
कहा, साफ
है, पूछना
क्या? आंख
हो तो दिखाई पड़ना
चाहिए! सागर
को खाली करने
का इरादा है।
इस गङ्ढे
में भर कर
रहूंगा।
अरिस्टोटल
हंसा और कहा, पागल हो गए
हो? होश
में हो? कहीं
सागरों
को चम्मचों से
तौला गया? चम्मचों
से गङ्ढों
में भरा गया? क्यों अपना
जीवन नष्ट कर
रहे हो? वह
आदमी खिलखिला
कर हंसने लगा
और उसने कहा
कि मैं तो
सोचता था, पागल
तुम हो!
क्योंकि तुम
और भी बड़े
सागर को विचार
की चम्मच में
भरने की कोशिश
में लगे हो। कहते
हैं, अरिस्टोटल ने उस आदमी
को खोजने की बहुत
कोशिश की, लेकिन
पता न चल पाया
कि वह कहां
चला गया।
बात
उसने ठीक ही
कही थी। विचार
कितना छोटा
है! अस्तित्व
कितना बड़ा है!
इस विराट
अस्तित्व को तुम
विचार से तौलत्तौल
कर कहां ले
जाओगे? क्या
करोगे? सिर
तुम्हारा
कितना छोटा
है! यह
ब्रह्मांड कितना
बड़ा है।
तुम्हारे हाथ
कितने छोटे
हैं! तुम्हारी
पहुंच कितनी छोटी
है। यह विराट
कितना विराट
है। तुम व्यर्थ
की चेष्टा में
लगे हो! शायद
वह आदमी कभी
सागर को गङ्ढे
में उतार भी
ले; क्योंकि
एक चम्मच भी
कम होता है तो
सागर कम होता
है, क्योंकि
सागर की भी
सीमा है।
लेकिन तुम कभी
भी उसे न पा
सकोगे विचार
से।
इसलिए
नानक कहते हैं, भिखारी
बादशाह हो
जाता है, जैसे
ही मौन होता
है। अथाह की
थाह मिल जाती
है। अज्ञात से
परिचय बन जाता
है। अनजान
प्रियतम हो
जाता है।
श्रवण से अंधे
राह पाते।
श्रवण से अथाह
हाथ आ जाता।
नानक कहते, श्रवण से भक्तगण
सदा आनंदित
होते हैं और
दुख और पाप का
नाश होता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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