पउडी-6
तीरथि नावा जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।
तीरथि नावा जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।
जेती सिरठि उपाई
वेखा, विणु करमा कि मिलै लई।
मति
बिच रतन जवाहर
माणिक, जे
इक गुरु की
सिख सुणी।
गुरा
इक देहि
बुझाई--
सभना जीआ का इकु
दाता, सो
मैं बिसरि
न जाई।।
पउड़ी: 7
जे
जुग चारे आरजा।
होर दसूणी
होई।।
नवा
खंडा विचि
जाणीऐ। नालि चलै
सभु
कोई।।
चंगा
नाउ रखाइकै।
जसु कीरति
जगि
लेइ।।
जे
तिसु नदर
न आवई। त
बात न पुछै
केइ।।
कीटा अंदरि कीटु
करि। दोसी दोसु
धरे।।
'नानक'
निरगुणि गुणु
करे। गुणुवंतिआ
गुणु
दे।।
तेहा
कोई न सुझई।
जि तिसु गुणु कोई
करे।।
एक
रात नानक
अचानक घर
छोड़कर चले गए।
किसी को पता
नहीं, कहां
हैं। खोजा गया
साधुओं की
संगत में, मंदिरों
में--जहां
संभावना
थी--पर कहीं भी
वे मिले नहीं।
और तब किसी ने
कहा, मरघट
की तरफ जाते
देखा है।
भरोसा किसी को
न आया। मरघट
अपनी मर्जी से
कोई जाता ही
कैसे है? मरघट
ले जाने के
लिए तो चार
आदमियों की
जरूरत पड़ती
है।
बामुश्किल
कोई जाता है।
मरा हुआ आदमी
भी जाना नहीं
चाहता, तो
जिंदा आदमी के
तो जाने का
कोई सवाल
नहीं। लेकिन
जब नानक को
कहीं नहीं
पाया, तो
लोग मरघट
पहुंचे।
मरघट
में उन्होंने
धूनी जमा रखी
थी। बैठे थे
ध्यान में। घर
के लोगों ने
कहा, पागल हो
गए हो? घर-द्वार
छोड़ कर, बच्चे-पत्नी
छोड़ कर यहां
क्या कर रहे
हो? यह
मरघट है, यह
पता है?
नानक
ने कहा, यहां
जो आ गया वह
फिर कभी मरता
नहीं। और जिसे
तुम घर कहते
हो, वहां
जो भी है वह आज
नहीं कल
मरेगा। फिर मरघट
कौन सी जगह है?
जहां लोग
मरते हैं वह
मरघट? या
जहां लोग कभी
नहीं मरते वह
मरघट? और
फिर जब एक दिन
यहां आ ही
जाना है, तो
चार आदमियों
के कंधे पर चढ़
कर क्या आना? शोभा नहीं
देता। मैं खुद
ही चला आया
हूं।
यह
घटना बड़ी
महत्वपूर्ण
है। जो होना
ही है, उससे
नानक का संघर्ष
नहीं है। जो
होना ही है
उसका स्वीकार
है। मृत्यु भी
होनी है, उसका
भी स्वीकार
है। और क्या
कष्ट देना
दूसरों को
वहां तक ले
जाने के लिए? खुद उठकर ही
चले जाना
बेहतर है।
जो
होगा, उससे
हमारा विरोध
बना रहता है।
हमारी अपनी चाह
है, ऐसा न
हो। नानक की
अपनी कोई चाह
नहीं। जो उसकी
चाह है; अगर
मृत्यु भी
उसकी चाह है, तो वह भी
नानक को
स्वीकार है।
उस रात
नानक को लोग
समझा-बुझा कर
घर ले आए। लेकिन
नानक फिर वैसे
ही आदमी न रहे
जैसे थे। कुछ
उनके भीतर मर
ही गया। और
किसी नए का
जन्म हो गया।
जब कोई मरता
है भीतर पूरी
तरह, तभी नए का
जन्म होता है।
जन्म की वही
प्रक्रिया
है। मरघट से
गुजरना ही
होगा। और जो
जान कर गुजर
जाए, होश
से गुजर जाए, उसे नया
जन्म मिलता
है। वह नया
जन्म नया शरीर
का जन्म नहीं।
वह नया जन्म
नयी चेतना का
आविर्भाव है।
तुम
डरे हो। और
जहां भय है
वहां भगवान से
कोई संबंध न
हो सकेगा। तुम
जितने
पूजा-पाठ कर
रहे हो, वे
भय के कारण
हैं, भगवान
के प्रेम में
नहीं। तुम
तीर्थ जा रहे
हो, स्नान
कर रहे हो, धूप-दीप
जला रहे हो, वे सब भय के
कारण हैं, भगवान
के प्रेम में
नहीं।
तुम्हारा
धर्म तुम्हारे
भय की औषधि है,
तुम्हारे
आनंद का उत्सव
नहीं। तुम
करते हो सब
सुरक्षा के
लिए, तुम
इंतजाम सब
जुटाते हो; जैसे तुम धन
जुटाते हो, मकान बनाते
हो, बैंक
बैलेंस बनाते
हो, बीमा
करवाते हो, ऐसा ही
भगवान भी
तुम्हारा
बीमा है।
तुम्हारे तीर्थ,
तुम्हारे
स्नान, तुम्हारे
पूजा-पाठ, सब
तुम्हारी सुरक्षाएं
हैं भय की।
और भय
से कभी कोई उस
तक पहुंचा? भय कोई
पहुंचने का
ढंग है? भय
तो टूटने का
ढंग है। प्रेम
जुड़ने का
ढंग है। भय से
तो दूरी होती
है, प्रेम
से निकटता
होती है। और
प्रेम और भय
कहीं भी नहीं
मिलते। जब भय
पूरा छूट जाता
है तब प्रेम
का उदय होता
है। जब तक भय
बना रहता है
तब तक तुम घृणा
कर सकते हो, घृणा को
साज-संवार
सकते हो, लेकिन
प्रेम नहीं कर
सकते।
कैसे
तुम प्रेम
करोगे जिससे
तुम भयभीत हो? जिससे भय है
उससे तुम
संघर्ष करोगे;
समर्पण
कैसे करोगे।
और अगर समर्पण
भी करोगे, तो
वह भी संघर्ष
की ही एक नयी
तरकीब होगी, कि चलो, शायद
इससे ही भय से
छुटकारा हो
जाए।
लोग
तीर्थ जा रहे
हैं, स्नान कर
रहे हैं, इस
स्नान में कोई
उत्सव नहीं
है। केवल
पापों से
छुटकारे की
आकांक्षा है।
जो बुरा किया
है, सोचते
हैं, गंगा
में स्नान से
बह जाएगा।
लेकिन बुरा
तुमने किया है,
और गंगा में
स्नान से कैसे
बह जाएगा? गंगा
का दोष क्या
है तुम्हारी
बुराई में? बुरा तुम
करोगे, गंगा
किस लिए धोने
को बहती रहेगी?
और बुराई
तुमने जो की
है, वह
शरीर की तो
नहीं है, चेतना
की है। गंगा
का पानी उस
चेतना को छू
भी कैसे पाएगा?
हां, तुम
गंदे हो, गंगा
में स्नान से
स्वच्छ हो
जाओगे। धूल
लगी है शरीर
पर, गंगा
धो देगी।
लेकिन धूल लगी
है तुम में, वह शरीर पर
लगी नहीं है, तो गंगा
क्या करेगी?
शरीर
को धोने के
लिए तो गंगा
ठीक, आत्मा को
धोने का वह
उपाय नहीं।
कोई और गंगा खोजनी
पड़ेगी।
पुरानी कथा है
कि एक गंगा तो
जमीन पर बहती
है और एक गंगा
स्वर्ग में।
तुम्हें स्वर्ग
की गंगा खोजनी
पड़ेगी।
क्योंकि
पृथ्वी की
गंगा शरीर को छुएगी, पृथ्वी
की है, शरीर
तक उसकी पहुंच
है। स्वर्ग की
गंगा तुम्हें छुएगी, तुम्हें
धो देगी।
लेकिन स्वर्ग
की गंगा तुम कैसे
खोजोगे? कहां खोजोगे?
ये सूत्र
स्वर्ग की
गंगा की खोज
के लिए कहे गए हैं।
'यदि
मैं उसको भा
गया, तो
मैंने
तीर्थों में
स्नान कर
लिया।'
उसको
भा जाना
स्वर्ग की
गंगा को खोज
लेना है। उसको
भा जाना बड़ा
गहरा सूत्र
है। इसे समझने
की थोड़ी कोशिश
करो।
एक तो
तुम उसे भाओगे
तभी, जब तुम
उसके विरोध
में नहीं खड़े
हो। तुम उसे भाओगे तभी,
जब तुमने सब
भांति अपने को
उसमें लीन कर
दिया है। तुम
उसे भाओगे
तभी, जब
तुम्हारा
कर्ता-भाव मिट
गया है।
परमात्मा कर्ता
है, तुम
निमित्त हो।
बस! तुम भा
जाओगे।
लेकिन
अभी तो
तुम्हारे
भीतर धुन बजती
है कि मैं
कर्ता हूं।
पूजा भी करते
हो तो भी
कर्ता तुम ही
रहते हो।
तीर्थों में
स्नान करते हो
तो भी कर्ता
तुम ही रहते
हो। दान करते
हो तो भी कर्ता
तुम ही रहते
हो। सब व्यर्थ
हुआ। स्नान भी
व्यर्थ गया, दान भी
व्यर्थ गया, पूजा बेकार
हुई। क्योंकि
कर्ता का भाव!
अभी तुम सोचते
हो, मेरा
है।
धार्मिक
व्यक्ति में
और अधार्मिक
व्यक्ति में
एक ही अंतर
है। धार्मिक
व्यक्ति के
लिए कर्ता
परमात्मा है, अधार्मिक
व्यक्ति के
लिए कर्ता वह
स्वयं है। मेरे
किए कुछ हो
सकता है, यह
भाव ही अधर्म
है। उसके किए
ही सब हो रहा
है, यह भाव
धर्म है। तुम
उसे प्यारे हो
जाओगे।
तुम
अपने ही हाथ
से उसकी तरफ
पीठ किए खड़े
हो। तुम्हारा
कर्तापन ही
तुम पीठ किए
हो। जैसे ही
तुम कर्तापन छोड़ोगे, सन्मुख हो
जाओगे।
विमुखता मिट
जाएगी।
तुमने
किया क्या है? न जन्म
तुम्हारा, न
जीवन
तुम्हारा, न
मृत्यु
तुम्हारी; सब
वही कर रहा
है। लेकिन बीच
के अंतराल में
तुम अपने
कर्ता होने का
भाव जुटा लेते
हो। और वह जो
कर्ता का भाव
है फिर वह पाप
करे तो भी पाप,
पुण्य करे
तो भी पाप।
इसे खयाल में
ले लेना।
तुम
सोचते हो पाप
करना पाप है
और पुण्य करना
पुण्य है। तुम
गलती में हो।
कर्ता होना
पाप है, अकर्ता
होना पुण्य
है। अगर पुण्य
करते वक्त भी
तुम कहते हो, मैंने
किया--मंदिर
बनाए, पूजा
की, इतने
व्रत-उपवास
किए, इतनी
बार तीर्थ गया,
काशी गया, हज गया, हाजी
हुआ--यह तुम
जितना कहोगे,
मैंने किया,
सब पाप हो
गया। इसलिए
पाप का संबंध
कर्म से नहीं,
भाव से है।
तुम अगर
अकर्ता-भाव से
कर सको तो इस जगत
में कोई भी
पाप नहीं है।
अगर तुम
कर्ता-भाव से
करो तो इस जगत
में सभी कुछ
पाप है।
कृष्ण
अर्जुन को
गीता में यही
कह रहे हैं कि
तू कर्ता-भाव
छोड़ दे और वह
जो करवा रहा
है, वही कर।
उसकी जो मर्जी
वह होने दे।
तू बीच में मत
आ। तू अपनी
तरफ से चुनाव
मत कर। तू
विचार मत कर
कि क्या ठीक
है और क्या
गलत है। तू
जानेगा भी
कैसे कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है? तेरे देखने
की सीमा कितनी?
तेरी समझ
कितनी? तेरा
अनुभव कितना?
तेरा होश
कितना? तू
इस छोटे से
दीए से देखने
की कोशिश मत
कर, इसकी
रोशनी चार फीट
से ज्यादा दूर
नहीं पड़ती। और
जीवन का
विस्तार अनंत
है। वह तुझसे
जो करवा रहा
है तू कर। तू
बीच में मत खड़ा
हो। तू सिर्फ
माध्यम बन जा।
जैसे बांसुरी
से कोई गीत
गाए और
बांसुरी केवल
राह दे, ऐसी
तू राह दे।
निमित्त हो
जा।
जो
निमित्त हो
गया वह उसका
प्यारा हो
गया। जो कर्ता
बना रहा वह
दुश्मन बना
रहा। उसका
प्रेम तो फिर
भी बरसता
रहेगा, क्योंकि
उसका प्रेम
बेशर्त है।
तुम क्या हो, इससे कोई
संबंध नहीं।
लेकिन तुम ही
उसे पाने में
असमर्थ हो
जाओगे। जैसे
घड़ा सीधा रखा
हो और वर्षा
हो रही हो तो
भर जाएगा।
वर्षा तो होती
ही रहेगी, घड़ा
उलटा रखा है
तो खाली रह
जाएगा। वर्षा
तो उलटे घड़े
पर भी होती
रहेगी, क्योंकि
वर्षा तो
बेशर्त है।
उसका प्रेम
किसी शर्त से
बंधा नहीं है
कि तुम ऐसे हो
जाओ तो मैं
प्रेम
करूंगा।
इसे भी
समझ लेना।
नानक का यह
वचन सुनकर कई
लोगों को
लगेगा कि मैं
ऐसा हो जाऊं
तो वह मुझे
प्रेम करेगा।
नहीं, उसका
प्रेम तो बरस
ही रहा है।
अगर उसके
प्रेम में भी
शर्त हो तो
मनुष्य और
परमात्मा के
प्रेम में कोई
अंतर न रह
जाए। यही तो
मनुष्य के
प्रेम की पीड़ा
है कि हम कहते
हैं, तुम
ऐसा करोगे तो
मैं प्रेम
करूंगा, तुम
ऐसे होओगे तो
मैं प्रेम
करूंगा। मेरी
शर्तें पूरी
करोगे तो मैं
प्रेम करूंगा,
अन्यथा मैं
प्रेम खींच
लूंगा। बाप
बेटे से यही
कह रहा है, पत्नी
पति से यही कह
रही है, मित्र
मित्र से यही
कह रहा है कि
तुम ऐसा करो। अगर
तुम ऐसा किए
तो मुझे जंचोगे।
इस
कारण, इस
प्रेम के
अनुभव के कारण,
तुम यह मत
सोच लेना कि
नानक यह कह
रहे हैं कि परमात्मा
तुम्हें तब
प्रेम करेगा
जब तुम कुछ शर्तें
पूरी करोगे।
नहीं, उसका
प्रेम तो बरस
रहा है।
शर्तें पूरी
करोगे तो तुम
सीधे घड़े
की भांति हो
जाओगे। उसकी
वर्षा हो रही
है, भर
जाएगी। तुम
लबालब हो
जाओगे। तुम
बहने लगोगे भर
कर। न केवल
उसका प्रेम
तुम्हें
मिलेगा, तुमसे
औरों को भी
मिलने लगेगा।
गुरु
हम उसी को
कहते हैं कि
जिसका घड़ा
इतना भर गया
परमात्मा के
प्रेम से कि
अब समाता
नहीं। वही औरों
के घड़ों
पर भी बहने
लगा। गुरु का
मतलब ही इतना
है कि जिसकी
अपनी जरूरत
पूरी हो गई।
जिसकी चाह बुझ
गई। जिसकी
तृष्णा शांत
हो गई। जिसका
घड़ा इतना भर गया
कि अब वह देने
में समर्थ है।
अब वह न दे तो क्या
करे? जैसे
बादल जब भर
जाए पानी से
तो बरसेगा, हलका होगा।
जब फूल भर जाए
गंध से तो गंध बिखरेगी।
ऐसे ही
जब तुम्हारा
घड़ा भर जाएगा
उसके प्रेम से, तुम्हारे
चारों तरफ बंटने
लगेगा, बहेगा।
और उसकी वर्षा
का तो कोई अंत
नहीं। एक बार
तुम्हें पता
चल जाए कि
सीधे होने से
भरना शुरू हो
जाता है, वह
वर्षा तो होती
ही रहती है, तुम कितना
ही उलीचो।
हजार हाथ से
उलीचो तो भी उलीच
न पाओगे। तो
यह खयाल रखना
कि नानक जब यह
कह रहे हैं, तो उनका
प्रयोजन
तुमसे है।
'यदि
मैं उसको भा
गया, तो
मैंने
तीर्थों में
स्नान कर
लिया।'
उसको
तो तुम भाए
ही हुए हो, अन्यथा तुम
होते कैसे? अगर वह एक
क्षण को भी न
चाहता
तुम्हारा
होना, तो
तुम तिरोहित
हो जाते।
तुम्हारी
श्वास-श्वास
में वही है।
तुम्हारी हर
धड़कन में वही
है। अस्तित्व
ने तुम्हें
चाहा है।
अस्तित्व ने तुम्हें
प्यार किया
है। अस्तित्व
ने तुम्हें बनाया
है। तुम कैसे
हो, इसकी
फिक्र नहीं है,
अस्तित्व
तुम्हें अभी
भी जीवन दे
रहा है। उसे तुम
तो भाए ही
हुए हो। लेकिन
तुम उलटे खड़े
हो। तुम पीठ
किए हो। तुम
उसके प्रेम से
भी डरे हो।
तुम उससे भागे
हुए हो। वह
तुम्हें भरना
चाहता है, तुम
बचना चाहते
हो।
इसलिए
जब नानक कहते
हैं, यदि मैं
उसको भा गया, तो अर्थ
है--जब मैं
सीधा हुआ, सन्मुख
हुआ। जब मैंने
भय छोड़ा।
भय के
कारण ही तुम
अपने घड़े
को उलटा किए
बैठे हो कि
कहीं कुछ गलत
न भर जाए। भय
के कारण ही
तुमने दरवाजे
बंद कर रखे
हैं। कि कहीं
कोई चोर, दुश्मन
भीतर न आ जाए।
भय के कारण ही
तुमने अपने
हृदय को सब
तरफ से बंद कर
लिया है।
लेकिन जब तुम
दरवाजे बंद कर
लेते हो और
चोर-डाकू नहीं
आ सकता, तो
प्रेमी भी
नहीं आ सकता।
क्योंकि
द्वार तो वही
है, जहां
से चोर आता है
वहीं से
प्रेमी आता
है। तो यह हो
सकता है कि
तुमने इंतजाम
कर लिया हो
चोर के न आने
का, लेकिन
ध्यान रखना, तुमने
प्रेमी के आने
का द्वार भी
बंद कर रखा
है। और वह
जिंदगी किस
काम की जिसमें
प्रेमी न आया?
न आया चोर, तो भी किस
काम की?
तुम
इतने भयभीत हो, इसलिए तुम
अपने को उलटा
किए हो, कुछ
प्रवेश न कर
जाए। फिर तुम
खाली हो। फिर
तुम रोते हो
कि मैं खाली
हूं, कि
मेरे द्वार
कोई अतिथि
नहीं आता, कि
कोई मेरे
द्वार पर
दस्तक नहीं
देता। तुम्हारे
भय ने तुम्हें
परमात्मा से
विमुख कर रखा
है।
और मजा
यह है कि
तुम्हारा
सारा धर्म
तुम्हारे भय
का विस्तार
है। तुम्हारे
सब तथाकथित
भगवान
तुम्हारे भय
की ही धारणाएं
हैं। तुम भय
के कारण
उन्हें
स्वीकार किए
हो। तुम डरते
हो। तुम संदेह
करने में भी
डरते हो, इसीलिए
संदेह नहीं कर
रहे हो। आस्था
तुम में पैदा
नहीं हुई है।
संदेह करने के
डर के कारण अगर
तुम आस्थावान
बने हुए हो, तो तुम्हारी
आस्था थोथी
है। थोथे से
सत्य का क्या
संबंध होगा? तुम्हारी
आस्था ऊपर-ऊपर
है। उस गहनतम
से तुम्हारा
कैसे मिलन
होगा? और
आस्था ऊपर हो
तो भीतर तो
संदेह छिपा ही
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक चुनाव में
खड़ा हुआ। उसे
कुल तीन ही
वोट मिले। एक
उसका खुद का
अपना, एक
उसकी पत्नी का,
और एक किसी
अज्ञात
व्यक्ति का।
तो पत्नी बोली,
हूं! संदेह
सच निकला, जल्दी
बताओ यह दूसरी
औरत कौन है?
भीतर
तुम्हारे जो
पड़ा है, वह
कहीं भी बहाना
खोज लेगा। तुम
भीतर अगर संदेह
से भरे हो, तो
ऊपर की आस्था,
ऊपर का
प्रेम कहीं भी
टूट जाएगा।
कितनी देर लगेगी?
जरा सी कोई
घटना, और
तुम्हारा
ईश्वर पर
संदेह उठ जाता
है। तुम्हारे
पैर में कांटा
लग जाए, संदेह
उठ जाता है।
सिर में दर्द
हो जाए, संदेह
उठ जाता है।
नौकरी छूट जाए,
संदेह उठ
जाता है।
संदेह
छिपा ही पड़ा
है। फूट आता
है मवाद की
तरह। जरा सी
चोट और मवाद
बाहर आ जाती
है। इस मवाद को
तुम कितना ही छिपाओ
आस्था की मलहम
से, कुछ हल न
होगा। किसे
तुम धोखा दे
रहे हो? कौन
तुम्हारे
धोखे में आ
रहा है? तुम
खुद भी अपने
धोखे में नहीं
आ रहे हो तो
दूसरा तो कोई
क्या आएगा? तुम भी
भलीभांति
जानते हो कि
तुम्हारी
आस्था भय के
कारण है। और
भीतर संदेह
भरा है।
तो तुम
जाओ, तीर्थों
में करो
स्नान। जाओ
मंदिरों में,
गुरुद्वारों में, गिरजों
में, करो
पूजा-प्रार्थना,
सब व्यर्थ
है। क्योंकि
जब तक
तुम्हारे
हृदय से आस्था
का स्वर न उठे,
तब तक तुमने
उसे पुकारा ही
नहीं। और जब
तुम भय से
जाओगे तो तुम
जरूर कुछ
मांगोगे।
क्योंकि भय
हमेशा मांगता
है। और जो
मांगता है वह
मिल जाए, तो
आश्वस्त होता
है। न मिले तो
संदेह गहन
होता है। तुम
सदा मांगते
हो। आस्था
सिर्फ
धन्यवाद देने
जाती है।
आस्थावान भी
मंदिर जाएगा
तो धन्यवाद
देने कि तूने
पहले ही काफी
दिया है। तूने
योग्यता से
ज्यादा पहले
ही दिया है।
तेरी कृपा है।
तेरी अनुकंपा
है। आस्थावान
सदा अनुग्रह
से भरा रहेगा।
और जहां
अनुग्रह है, वहां संदेह
नष्ट हो जाता
है। जहां मांग
है, वहां
संदेह मौका
खोज रहा है।
तुम मांगते हो;
पूरा हो जाए
तो संदेह को
छिपाए रखोगे,
न पूरा हो
तो संदेह बाहर
आ जाएगा। मांग
शायद परीक्षा
है।
जीसस
के जीवन में
उल्लेख है कि
जब वे चालीस
दिन की अपनी
गहन साधना में
गए, तो शैतान
उनके पास आया।
और उसने कहा
कि शास्त्रों
में लिखा है
कि जब
तीर्थंकर, पैगंबर
पैदा होता है,
तो
परमात्मा
उसकी रक्षा
करता है। तो
तुम कूद जाओ
इस पहाड़ से।
अगर तुम सच
में ही पैगंबर
हो, तो
उसके देवदूत
तुम्हें हाथ
फैलाए नीचे
सम्हालने को
मिलेंगे।
जीसस
ने कहा, वह
तो ठीक है।
लेकिन
शास्त्रों
में यह भी
लिखा है कि
उसकी परीक्षा
केवल वे ही
लेते हैं जो
संदेह से भरे
हैं। मुझे कोई
संदेह नहीं
है। देवदूत
निश्चित नीचे
खड़े मिलेंगे।
लेकिन मैं उसकी
परीक्षा कैसे
लूं? क्योंकि
परीक्षा तो
संदेह से भरे
हुए लोग ही लेते
हैं। तुम ठीक
कहते हो।
देवदूत
निश्चित खड़े
हैं। लेकिन
परीक्षा लेने
का मतलब ही
क्या होता है?
कि मुझे कुछ
संदेह था, कि
पता नहीं खड़े
हैं या नहीं।
और पता नहीं
कि वह बचाता
भी है या
नहीं। और पता
नहीं कि मैं
उसका पैगंबर
भी हूं या
नहीं।
जहां
संदेह है, वहां
परीक्षा है।
जहां संदेह है,
वहां जांच
है। जहां
संदेह है, वहां
तुम मांग खड़ी
करते हो। मांग
तुम्हारी परीक्षा
का उपाय है कि
कर दो यह पूरा,
अगर तुम हो।
अगर पूरा हो
जाए, तो
तुम हो। अगर
पूरा न हो, तो
तुम नहीं हो।
आस्थावान
व्यक्ति
परमात्मा की
कोई परीक्षा नहीं
लेता।
आस्थावान तो
अनुगृहीत है, वह मांग
नहीं करता। और
जिस दिन तुम
मांग बंद कर
दोगे, तुम्हारा
भय समाप्त
होने लगेगा।
जैसे-जैसे तुम
अनुग्रह से भरोगे, मांग
हटेगी, वैसे-वैसे
तुम पाओगे कि
तुम्हारा मुख
परमात्मा की
तरफ होने लगा।
घड़ा सीधा हो
गया। और जैसे-जैसे
तुम सीधे
होओगे, थोड़ी-थोड़ी
उसके अमृत की
वर्षा की
बूंदें तुम
में पड़ेंगी, तुम्हारा भय
मिट जाएगा। तब
तुम पाओगे कि
वही बरस रहा
है, मैं
नाहक ही भयभीत
था। तब तुम
द्वार खुले
छोड़ दोगे।
क्योंकि वही
आता है, मैं
नाहक भयभीत
था। चोर में
भी वही आता है,
बेईमान में
भी वही आता
है। और जब तक
तुम सभी में
उसको देख न
लोगे तब तक
तुम उसे देख
ही न पाओगे।
नानक
कहते हैं, 'यदि मैं
उसको भा गया, तो मैंने
तीर्थों में
स्नान कर
लिया।'
तीरथि नावा जे तिसु भावा, विणु भाणे कि
नाइ करी।
'और
यदि नहीं भाया
उसे, तो
नहा-धोकर क्या
करूंगा?'
नहीं
भाया उसे, तो नहा-धोकर
तैयारी भी किस
के लिए करनी
है? नहीं
भाया उसे, तो
मेरा
नहाना-धोना भी
मेरा अहंकार
मजबूत करेगा।
तीर्थयात्री
को देखो! जब हज
से कोई हाजी
होकर लौटता है
तब उसे देखो!
तब एक अकड़
लेकर लौटता है।
विनम्र होकर
लौटना चाहिए
था। हज अगर सच
में हुआ, अगर
तीर्थयात्रा
हो गई, तो
आदमी बदल कर
लौटेगा, अहंकार
वहीं छोड़कर
लौट आएगा।
लेकिन वहां से
वह अकड़ कर आता
है।
तीर्थयात्री
जब लौटता है, तो आशा रखता
है
स्वागत-समारंभ
की। लोग पैर
छुएंगे और
कहेंगे कि गजब
किया! कि
तीर्थ हो आए? बड़ा पुण्य
किया।
पुण्य
से भी तुम
अहंकार को ही
भरना चाहते
हो। तुम उपवास
भी करते हो तो
शोभायात्रा
की अपेक्षा
रखते हो।
बैंड-बाजे लोग
बजाएं, गांव-गांव
खबर हो जाए कि
तुमने कितने
उपवास किए।
वहां भी तुम
अहंकार को ही
खोज रहे हो।
और जितना
अहंकार मजबूत
होता है, उतने
ही तुम विमुख
हो जाओगे। तुम
जितने ज्यादा,
उतने
विमुख। इस
गणित को ठीक से
खयाल में रख
लेना। तुम
जितने कम, उतने
सन्मुख। तुम
बिलकुल नहीं,
वही
तुम्हारे
द्वार पर खड़ा
है। तब चोर भी
आए, तो वही
आता है। तब भय
किसी का भी
नहीं रह जाता,
क्योंकि
वही है।
'यदि
मैं उसको भा
गया तो मैंने
तीर्थों में
स्नान कर
लिया। और यदि
नहीं भाया तो
नहा-धोकर क्या
करूंगा? उसने
जितनी सृष्टि
की और जो
दृश्य है, उसमें
कर्म के बिना
किसको क्या
मिला?'
इस
सृष्टि में तो
जो भी मिलता
है वह कर्म से
मिलता है। और
इसी से एक बड़ी
भ्रांति हो
जाती है। भ्रांति
यह हो जाती है
कि जैसे इस
सृष्टि में सब
कुछ कर्म से
मिलता है, ऐसे ही परमात्मा
को भी पाना हो
तो कुछ कर्म
करना होगा, तब मिलेगा।
इसे
थोड़ा समझें।
जगत में सभी
चीजें कर्म से
मिलती हैं; प्रेम कर्म
से नहीं मिलता,
प्रार्थना
कर्म से नहीं
मिलती, आराधना
कर्म से नहीं
मिलती, आस्था
कर्म से नहीं
मिलती, परमात्मा
का सान्निध्य
कर्म से नहीं
मिलता। क्यों?
क्योंकि
कर्म से तो
कर्ता ही
मजबूत होता
है। धन कमाना
हो तो
बैठे-बैठे
नहीं मिलेगा।
धन कमाना हो
तो कर्म करना
पड़ेगा। यश
कमाना हो तो
बैठे-बैठे न
मिलेगा। कर्म
करना होगा, दौड़-धूप
करनी होगी, आपाधापी
करनी होगी, चिंतित, परेशान
होना होगा। इस
संसार में कुछ
भी पाना हो तो
श्रम ही मार्ग
है। तो इससे
हमें खयाल
उठता है, जब
क्षुद्र को
पाने में इतना
श्रम करना
पड़ता है, तो
विराट को पाने
में और कई
गुना ज्यादा
श्रम करना
पड़ेगा। वहीं
हमारा गणित
गलत हो जाता
है।
इस जगत
में जो नियम
हैं, उस जगत
में ठीक उसके
विपरीत
यात्रा है। इस
जगत में कुछ
भी पाना है तो
परमात्मा की
तरफ पीठ करनी
पड़ती है, इसलिए
श्रम करना
पड़ता है।
इसे
थोड़ा समझें।
जितना उसका
सहारा हम
छोड़ते हैं, उतनी ही
हमें मेहनत
उठानी पड़ती
है। क्योंकि हम
ही को करना
पड़ता है जो वह
कर देता। तो
उसके श्रम की
पूर्ति फिर
हमको अपने ही
श्रम और पसीने
से करनी पड़ती
है। इस संसार
में जाने का
अर्थ है, उसकी
तरफ पीठ। उसका
सहारा कम।
उसके अमृत की
धारा नहीं
बहती। बहती
रहती है, हम
नहीं उसको
उपलब्ध करते।
हमारे द्वार
बंद होते हैं।
हम अपने ही
तईं जीना
चाहते हैं। हम
स्वावलंबी
होना चाहते
हैं।
इसलिए
तो नानक कहते
हैं बार-बार
कि वह साहब है
और मैं दास।
स्वावलंबी
होने की
चेष्टा ही
अहंकार की
चेष्टा है। तो
जितना हम
स्वावलंबी
होना चाहते
हैं, जितना हम
चाहते हैं कि
मैं कर लूंगा,
उतना ही
उसकी शक्ति का
सहारा हम नहीं
ले रहे हैं।
ऐसे समझो, जैसे
कि कोई आदमी
हवा के रुख से
विपरीत
चप्पुओं से
नाव चला रहा
है। नानक ने
उसका ही गुर
दिया है कि
जरूरत नहीं है
चप्पुओं को चलाने
की और विपरीत
हवा में जाने
की। जिस तरफ उसकी
हवाएं ले
जाएं, अपनी
नाव के पाल
उन्हीं हवाओं
के सहारे छोड़
दो।
रामकृष्ण
कहते थे कि
तुम चलाते ही
क्यों हो चप्पू? तुम हवा के
रुख के साथ
क्यों नहीं
बहते? खोल
दो पाल और
विश्राम करो। हवाएं खुद
लिए जा रही
हैं। हवाएं
खुद लिए जा
रही हैं उस
किनारे की
तरफ। ठीक समय और
ठीक हवाओं के
रुख का ध्यान
रखना जरूरी है,
बस! कोई और
श्रम करने की
जरूरत नहीं
है। जब हवाएं
दूसरे किनारे
की तरफ जा रही
हों तब नाव को
छोड़ दो। जब हवाएं
इस तरफ आ रही
हों तो फिर
नाव को छोड़
दो। तुम व्यर्थ
बीच में श्रम
क्यों करते हो?
हवाओं
के विपरीत
जाओगे तो श्रम
करना पड़ेगा। नदी
से उलटे बहोगे
तो मेहनत करनी
पड़ेगी, फिर
भी कहीं
पहुंचोगे न, थकोगे। सिर्फ थकोगे।
संसार की पूरी
दौड़ के बाद
आदमी के चेहरे
को देखो, सिवाय
थकान के तुम
वहां कुछ भी न
पाओगे। मरने के
पहले ही लोग
मर गए होते
हैं। बिलकुल
थक गए होते
हैं। विश्राम
की तलाश होती
है कि किसी
तरह विश्राम
कर लें। क्यों
इतने थक जाते
हो!
आदमी
बूढ़ा होता है, कुरूप हो
जाता है।
तुमने जंगल के
जानवरों को
देखा? बूढ़े
होते हैं, लेकिन
कुरूप नहीं
होते। बुढ़ापे
में भी वही सौंदर्य
होता है।
तुमने बूढ़े
वृक्षों को
देखा है? हजार
साल पुराना
वृक्ष! मृत्यु
करीब आ रही है,
लेकिन
सौंदर्य में
रत्तीभर कमी
नहीं होती। और
बढ़ गया होता
है। उसके नीचे
अब हजारों लोग
छाया में बैठ
सकते हैं।
सौंदर्य में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। सौंदर्य
और गहन हो गया
होता है। बूढ़े
वृक्ष के पास
बैठने का मजा
ही और है। वह
जवान वृक्ष के
पास बैठने से
नहीं मिलेगा।
अभी जवान को
कोई अनुभव
नहीं है। बूढ़े
वृक्ष ने न
मालूम कितने
मौसम देखे।
कितनी वर्षाएं,
कितनी सर्दियां,
कितनी धूप,
कितने लोग
ठहरे और गए, कितना संसार
बहा, कितनी
हवाएं गुजरीं, कितने बादल
गुजरे, कितने
सूरज आए और गए,
कितने चांदों
से मिलन हुआ, कितनी
अंधेरी
रातें--वह सब
लिखा है। वह
सब उसमें भरा
है। बूढ़े
वृक्ष के पास
बैठना इतिहास
के पास बैठना
है। बड़ी गहरी
परंपरा उसमें
से बही है।
बौद्धों
ने, जिस
वृक्ष के नीचे
बुद्ध को
ज्ञान हुआ, उसे बचाने
की अब तक
कोशिश की है।
वह इसीलिए कि उसके
नीचे एक परम
घटना घटी है।
वह वृक्ष उस
अनुभव से अभी
आपूरित है। वह
वृक्ष अभी भी
उस स्पंदन से
स्पंदित है।
वह जो महोत्सव
उसके नीचे हुआ
था, वह जो बुद्ध
परम ज्ञान को
उपलब्ध हुए थे,
वह जो
प्रकाश बुद्ध
में जला था, उस प्रकाश
की कुछ किरणें
अभी भी उसे
याद हैं। और
अगर तुम
बोधिवृक्ष के
पास शांत होकर
बैठ जाओ, तो
तुम अचानक
पाओगे ऐसी
शांति, जो
तुम्हें कहीं
भी न मिली थी।
क्योंकि तुम
अकेले ही शांत
नहीं हो रहे
हो। उस वृक्ष
ने एक अपरिसीम
शांति जानी
है। वह अपने
अनुभव में
तुम्हें
भागीदार
बनाएगा।
बूढ़े
वृक्ष सुंदर
हो जाते हैं।
बूढ़े सिंह में
और ही सौंदर्य
होता है, जो
जवान में नहीं
होता। जवान
में एक
उत्तेजना होती
है, जल्दबाजी
होती है, अधैर्य
होता है, वासना
होती है। बूढ़े
में सब शांत
हो गया होता
है। लेकिन
आदमी कुरूप हो
जाता है।
क्योंकि आदमी
थक जाता है।
वृक्ष परमात्मा
के खिलाफ नहीं
लड़ रहे हैं।
उन्होंने पाल
खोल रखे हैं।
जहां उसकी हवा
ले जाए, वे
वहीं जाने को
राजी हैं। तुम
उसके खिलाफ लड़
रहे हो। आदमी
अकेला उसके
खिलाफ लड़ता
है। इसलिए
थकता है, टूटता
है, जराजीर्ण
होता है। अगर
जीवन एक
संघर्ष है तो
यह होगा ही।
इस
संसार में जो
भी पाना है, उसके लिए
कर्म करना
पड़ता है।
लेकिन
परमात्मा को
पाने के लिए
किसी कर्म की
कोई जरूरत
नहीं। पूजा
नहीं, प्रार्थना
नहीं, योग
नहीं, तप
नहीं, जप
नहीं। कर्म से
उसे पाया ही
नहीं जा सकता।
उसे प्रेम से
पाया जाता है।
प्रेम और कर्म
की दिशा
अलग-अलग है।
प्रेम
एक भाव है। और
जब तुम प्रेम
करते हो, तो
ध्यान रखना, दुनिया में
एक ही चीज है
जो थकती
नहीं--वह प्रेम।
बाकी सब चीजें
थक जाती हैं।
क्योंकि
प्रेम कोई
श्रम नहीं है।
तुम जितना
प्रेम करो, उतना ही
प्रेम करने
में कुशल हो
जाते हो। प्रेम
की जितनी
तुम्हारी
अनुभूति बढ़े,
उतना ही तुम
पाओगे, तुम
प्रेम करने
में समर्थ हो
गए हो। प्रेम
बढ़ता ही जाता
है। प्रेम के
ज्वार में
भाटा कभी आता
ही नहीं। वह
हमेशा चढ़ता
है, उतार
नहीं है।
लेकिन
प्रेम एक
प्रसाद है। वह
तुम्हारा
श्रम नहीं है।
ठीक से समझो
तो प्रेम
तुम्हारा
विश्राम है।
इसीलिए तो जब
तुम प्रेम में
होते हो, तुम
अपने को ताजा
पाते हो, विश्राम
में पाते हो।
साधारण प्रेम
में भी! अगर एक
व्यक्ति से
तुम्हारा
प्रेम है, वह
तुम्हारे पास
बैठ जाता है, तो तुम पाते
हो, सब
थकान मिट गई।
तुम हलके हो
गए। ताजे हो
गए। प्रफुल्लित
हो गए। श्रम
की सारी धूल
झड़ गयी। तो
परमात्मा के
प्रेम की तो
तुम कल्पना कर
सकते हो।
जिस
दिन उस प्रेम
का जन्म होगा
उस दिन कैसा
श्रम! कैसी
थकान!
परमात्मा को
प्रयास से
नहीं पाया
जाता, प्रसाद
से पाया जाता
है। इसलिए
नानक कहते हैं,
गुरु
प्रसाद।
परमात्मा से
तुम्हारा
सीधा संबंध आज
नहीं हो सकता।
आंखें उसके
लिए तैयार नहीं
हैं।
अगर
तुम्हें सूरज
को देखने के
लिए आंखों को
तैयार करना हो
तो दीए से
शुरुआत करनी
पड़ती है। दीए
की ज्योति पर
त्राटक, फिर
और बड़ी ज्योति
पर त्राटक, फिर और बड़ी
ज्योति पर
त्राटक। फिर
धीरे-धीरे सूरज
की तरफ।
अन्यथा तुम
जैसे हो, अभी
तो सूरज
तुम्हारी
आंखों को अंधा
कर देगा।
अगर घड़े को भी
सीधा करना हो, तो पहले
गुरु की तरफ...।
गुरु तैयारी
है। और जब तुम
उससे भरने को
राजी हो जाओगे
और भर कर
पुलकित और
आनंदित होओगे,
और
तुम्हारे सब
भय विसर्जित
हो जाएंगे, तब तुम
परमात्मा की
तरफ खुल
पाओगे। एकदम
परमात्मा की
तरफ खुलना
खतरनाक भी हो
सकता है। तुम शायद
झेल ही न पाओ
उतने बड़े दान
को। आकाश से
गंगा उतारनी
हो तो भगीरथ
चाहिए। गंगा
को तुम झेल न
पाओगे। हर कोई
न झेल पाएगा।
तुम तो छोटे
से डबरे
में डूब
जाओगे।
इसलिए
नानक गुरु पर
बड़ा जोर देते
हैं। जोर इसलिए
है कि गुरु
तुम्हें
तैयार करेगा।
तैयार करेगा
गुरु, उससे
जो बह रहा है
अगर तुम उसे
झेलने में
धीरे-धीरे
समर्थ हो गए, तो तुम
भगीरथ हो
जाओगे। फिर
स्वर्ग की
गंगा को भी
झेल सकोगे।
परमात्मा
पाया जाता है, कृत्य से
नहीं। इस
सृष्टि में
सभी कुछ कर्म
से पाया जाता
है। परमात्मा
कैसे पाया
जाता है?
'जो
गुरु की एक
सिखावन सुन
लेता है।'
गुरु
की एक सिखावन
सुन लेने से
परमात्मा मिल
सकता है, तुम्हारे
कुछ करने से
नहीं।
'उसकी
मति, जो
गुरु की एक
सिखावन सुन
लेता है, रत्न
और जवाहर और
माणिक जैसी हो
जाती है। बहुमूल्य
हो जाती है।'
लेकिन
गुरु की एक
सिखावन सुनना
भी मुश्किल है।
क्योंकि गुरु
की एक सिखावन
सुनने के लिए
भी तुम्हें
अपना पूरा
जीवन
रूपांतरित
करना होगा।
तुम जैसे हो, वहां तो
तुम्हें कुछ
भी सुनाई न
पड़ेगा। गुरु
की सिखावन के
लिए तुम्हें
गुरु की तरफ
उन्मुख होना
पड़ेगा।
तुम्हें उसके
पास चुप और शांत
बैठने की कला सीखनी
पड़ेगी। तुम जब
उसके पास आओ
तो तुम्हें
सिर अपना घर
ही छोड़ कर आना
पड़ेगा। अगर
तुम सिर अपने
साथ ले आए तो
तुम सुन न
सकोगे।
सिखावन भी दी
जाएगी तो अर्थ
तुम अपने
निकाल लोगे।
तुम्हारा सिर
बीच में सब
रूपांतरित कर
देगा, बदल
देगा। कुछ कहा
जाएगा, कुछ
तुम सुनोगे।
और तुम खाली
हाथ आए थे, खाली
हाथ वापस लौट
जाओगे।
क्योंकि
गुरु की
सिखावन
मस्तिष्क से
नहीं सुनी
जाती। सिर से
उसका कोई
लेना-देना
नहीं है। गुरु
की सिखावन तो
हृदय से सुनी
जाती है। तुम
गुरु की
सिखावन सुनते
वक्त विचार
नहीं करते कि
वह ठीक कह रहा
है या गलत कह
रहा है। इसलिए
तो आस्था से
सुनी जाती है।
गुरु कह रहा
है इसलिए ठीक।
तुम सोचने वाले
नहीं हो।
निर्णायक
नहीं हो कि वह
ठीक कह रहा है
कि गलत कह रहा
है। अगर तुम
अभी भी सोचने
वाले हो, तो
तुम शिक्षक के
पास हो, गुरु
के पास नहीं
हो। तब तुम
विद्यालय में
हो, साध-संगत
में नहीं।
वहां तुम सोचो
कि क्या ठीक
है, क्या
गलत। लेकिन
निर्णायक तुम
ही हो।
गुरु
के पास आने का
अर्थ है कि
मैं निर्णय
कर-कर के थक
गया। निर्णय
मुझसे नहीं
होता। गुरु के
पास आने का
अर्थ है कि
मैं सोच-सोच
कर थक गया, मैं कुछ भी
सोच नहीं
पाता। गुरु के
पास आने का अर्थ
है कि मैं
अपने से
परेशान हो
गया। और मैं अपने
को छोड़ने आया
हूं। इसको
संक्षिप्त
में कहें तो
श्रद्धा है।
गुरु
के पास तुम
तभी आ सकते हो
जब तुम अपने
से भलीभांति
परेशान हो गए
हो। अगर तुम
अभी भी समझते
हो कि तुम
समझदार हो, तो गुरु के
पास आने का
कोई अर्थ
नहीं। अभी तुम
ही अपने गुरु
हो। अभी कुछ
दिन और भटको।
अभी कुछ और
तकलीफ झेलो।
अभी संदेह
कर-कर के कुछ
और पीड़ा
इकट्ठी करो।
अभी और संताप
जरूरी है
तुम्हें
पकाने को।
लेकिन जिस दिन
तुम अपने से
ऊब जाओ, उसी
दिन गुरु के
पास आना।
कच्चे आने से
कोई सार नहीं
है।
इसलिए
बड़ी कठिनाई
होती है। लोग
गुरु के पास
चले आते हैं
और तैयार नहीं
होते। तैयारी
का मतलब है कि
अभी वे अपने
पर भरोसा करते
हैं। तो गुरु जो
कहेगा उसमें
सोचेंगे, क्या
सही, क्या
गलत! उसमें से चुनेंगे।
जो जंचेगा वह
मानेंगे, जो
नहीं जंचेगा
वह नहीं
मानेंगे। तो
तुम अपनी ही
मान रहे हो।
इसको
श्रद्धा मत
कहना। इसको
समर्पण भी मत
समझना। तुमने
कुछ भी छोड़ा
नहीं है। गुरु
के पास जाने
का तो एक ही
राज है कि तुम
अपने को छोड़
कर जाना। फिर
वह जो कह रहा
है, सही है।
फिर तुम्हें
निर्णय करने
को कुछ बचा नहीं।
और तब तुम
उसकी सिखावन
सुन पाओगे।
क्योंकि ऐसे
समग्र हृदय से
ही सिखावन
सुनी जा सकती है।
और तभी तुम
सिक्ख हो
पाओगे। जिसने
सिखावन सुनी
वह सिक्ख हुआ।
सिक्ख
शब्द बड़ा
प्यारा है। वह
संस्कृत के
शिष्य से बना
है। जो सीखने
को तैयार है
वह सिक्ख। जो
सिखावन सुनने
को तैयार है
वह सिक्ख। जो
अभी अपनी ही
अकड़ से जी रहा
है, जो अभी
सीखने को
तैयार नहीं, वह सिक्ख
नहीं है। तुम
वस्त्र पहन
सकते हो सिक्ख
के, उससे
कुछ हल नहीं
होता। तुम ढंग
बना सकते हो सिक्ख
का, उससे
कुछ हल नहीं
होता।
क्योंकि
सिक्ख होना एक
हार्दिक घटना है।
कहते
हैं नानक--
मति
बिच रतन जवाहर
माणिक, जे
इक गुरु की
सिख सुणी।
और
हजार बातें
सुनने से भी
कुछ नहीं
होगा। एक ही
सुन लेने से
सब हो जाता
है। और तुम
कितना सुन
चुके हो, फिर
भी कुछ नहीं
होता। कितना
पढ़ चुके हो, फिर भी कुछ
नहीं होता।
कारण साफ है।
तुमने सुना ही
नहीं, जहां
से सुनना
चाहिए था।
दो
रास्ते हैं
सुनने के। एक
रास्ता है
बुद्धि का। जब
बुद्धि सुनती
है, तो
बुद्धि हमेशा
द्वैत से
सुनती है।
सोचती है, ठीक
या गलत। सही, या न सही।
मानूं, न
मानूं।
बुद्धि कभी
अहंकार के पार
नहीं जाती।
बुद्धि हृदय
को तो पागल
मानती है। बुद्धि
हृदय का भरोसा
नहीं करती।
इसलिए
तो तुम सब ने
हृदय को मार
डाला है। क्योंकि
हृदय का भरोसा
नहीं, कब
कौन सा काम
करवा दे, जो
कि पीछे महंगा
पड़े।
रास्ते
से निकलते हो, भूखे को
देखकर हृदय
कहता है, दे
दो। बुद्धि
कहती है, रुको।
पहले पक्का
पता लगा लो कि
यह आदमी धोखा तो
नहीं दे रहा
है! यह कोई
व्यवसायी
भिखारी तो नहीं!
और यह भी तो
देखो कि यह
भला-चंगा है, कमाता क्यों
नहीं? बुद्धि
हजार बातें
कहेगी। हृदय
में एक भाव उठा
था, बुद्धि
उसे दबा देगी।
प्रेम
उठेगा, बुद्धि
कहेगी, खतरनाक
रास्ता है।
प्रेम अंधा
है। कहां जाते
हो? आंख से
चलो, होश
सम्हाल कर
चलो। प्रेम ने
कई को बरबाद
किया है।
बुद्धि का
रास्ता राजपथ
की तरह
साफ-सुथरा है,
प्रेम का
रास्ता
पगडंडी की तरह
है। जंगलों में
भटक जाती है।
कहां जा रहे
हो? रास्ते
से मत उतरो।
जहां भीड़ चल
रही है, वहीं
चलो। सब जहां
हैं, वहीं
ठीक है, अकेले
कहां जाते हो?
प्रेम
अकेले का
रास्ता है।
इसलिए तो
प्रेम प्राइवेसी
चाहता है, एकांत चाहता
है। प्रेम
कहेगा, दे डालो।
बुद्धि कहेगी,
पहले सोचो,
विचारो,
सब पता लगा
लो, फिर
देना। तब तुम
कभी न दे
पाओगे। प्रेम
कहता है, समर्पण
कर दो, किसी
के चरणों में
सिर रख दो और
छोड़ दो अपने
को। बुद्धि
कहेगी, ऐसा
कहीं चलेगा!
दुनिया में
बड़ी धोखा-धड़ी
है। श्रद्धा
के नाम पर न
मालूम कितने
लोग लूट रहे
हैं।
मगर
तुम्हारे पास
है क्या जो
लुट जाएगा? तुम्हारे
पास है क्या
जो तुम दे
दोगे और चुक जाएगा?
सिवाय
दीन-दरिद्रता
के भीतर कुछ
भी नहीं, लेकिन
उसको भी बचाए
रखते हो। और
बुद्धि की तुम
सुन कर जीयोगे
तो धीरे-धीरे
हृदय सिकुड़ता
जाता है। हृदय
धीरे-धीरे टूट
ही जाता है।
इतना फासला हो
जाता है कि
हृदय की खबर
ही तुम तक नहीं
आ पाती।
बुद्धि इतने
बीच में द्वार
लगा देती है।
फिर तुम प्रेम
भी करते हो तो
बुद्धि से ही
करते हो।
तुमने
कभी खयाल किया? कि तुम्हारा
प्रेम भी
खोपड़ी से आता
है, हृदय
से नहीं। तुम
भला कहो कि
मैं बड़े हृदय
से प्रेम करता
हूं। लेकिन ये
शब्द भी
बुद्धि से ही
आते हैं। तुम
अपने हृदय में
जांच-पड़ताल
करोगे, वहां
कुछ होता नहीं
मालूम पड़ता।
वहां न कोई
पुलक है, न
कोई नृत्य है,
न कोई संगीत
है। वहां कोई
कंपन भी नहीं
है।
गुरु
की सिखावन तो
हृदय से सुनी
जा सकती है। कबीर
ने कहा है, जो सिर को
काट कर जमीन
पर धर दे, चले
हमारे साथ।
किस सिर की
बात कर रहे
हैं? इस
सिर को काटने से
कुछ नहीं
होगा।
बोधिधर्म
एक बौद्ध फकीर
हुआ। वह चीन
गया। वह बड़ा
अनूठा आदमी
था। वह दीवाल
की तरफ मुंह
कर के बैठता
था, लोगों की
तरफ पीठ। वह
कहता था, जब
कोई शिष्य
आएगा तो उस
तरफ मुंह कर
लूंगा। तुमसे
क्या बात करनी?
और तुमसे
बात करनी या
दीवाल से बात
करनी बराबर है।
फिर एक
आदमी आया, हुईनेंग। वह पीछे
खड़ा रहा चौबीस
घंटे तक। और
उसने कहा कि
बोधिधर्म! इस
तरफ सिर करो।
बोधिधर्म चुप
रहा। तो उसने
अपना हाथ काट
कर बोधिधर्म
को भेंट किया।
और उसने कहा
कि अगर देर की
तो सिर काट दूंगा।
बोधिधर्म ने
कहा, इस
सिर को काटने
से कुछ भी न होगा।
अगर उस सिर को
काटने की
तैयारी हो...। हुईनेंग
ने कहा कि सब
तैयारी करके
आया हूं। जो
कहो, वह
करने की
तैयारी है।
नौ साल
में पहली दफा
बोधिधर्म ने
किसी व्यक्ति
की तरफ चेहरा
किया। हुईनेंग
उसका
उत्तराधिकारी
हुआ। लेकिन
उसने पहले पूछा
कि इस सिर को
काटने से कुछ
भी न होगा, उस सिर को...!
कौन सा
वह सिर है? वह जो भीतर
अस्मिता है, अहंकार है।
मैं हूं और
मैं निर्णायक
हूं--तो तुम
शिष्य न हो
सकोगे, तो
तुम सिखावन न
सीख सकोगे।
'और
गुरु की जो एक
सिखावन सुन
लेता है, उसकी
मति माणिक
जैसी हो जाती
है।'
उसकी
चेतना एक
स्वच्छता को, पारदर्शिता
को उपलब्ध हो
जाती है। वह
आर-पार देखने
लगता है।
विचार वहां हट
जाते हैं, क्योंकि
हृदय में कोई
विचार नहीं
है। बुद्धि वहां
से बहुत दूर
पड़ जाती है।
सब धुआं
बुद्धि का
वहां से हट
जाता है। एक
स्वच्छता, एक
ताजगी! और वही
ताजगी स्नान
है गंगा का।
नानक
ठीक कहते हैं, 'यदि मैं
उसको भा गया, तो मैंने
तीर्थों में
स्नान कर लिया
है। और यदि
मैं उसे न
भाया, तो
नहा-धोकर क्या
करूंगा?'
वह है
एक भीतर का
स्नान, जहां
जीवन स्वच्छ,
चेतना
स्वच्छ हो
जाती है। जहां
तुम सोचते नहीं,
जहां तुम
सिर को उतार
कर रख देते
हो। सिर है भी उधार।
हृदय तो तुम
लेकर आए थे
संसार में, सिर संसार
ने दिया है।
जब तुम पैदा
हुए थे तो तुम
हृदय थे। तब
तुम्हारे पास
सिर बिलकुल न
था। भीतर कोई
विचार न थे।
आकाश खाली और
कोरा था, निर्दोष
था। फिर एक-एक
करके शब्द और
विचार तुम्हें
दिए गए। फिर
समाज ने
तुम्हें
सिखाया। फिर
समाज ने
तुम्हें
संस्कारित
किया, कंडीशंड
किया। फिर
संस्कार
डाल-डाल कर
तुम्हारी
बुद्धि को
तैयार किया।
जिन-जिन चीजों
की संसार में
जरूरत है, उनके
लिए तैयार
किया। और
जिन-जिन चीजों
से संसार में
खतरा है, उनको
दबाया।
तुम्हारे
भीतर एक द्वैत
निर्मित हुआ।
हृदय और
बुद्धि
अलग-अलग टूट
गई।
बुद्धि
का अर्थ है, जो समाज ने
सिखाया, जो
तुम लेकर न आए
थे। बुद्धि
उधार है, सिर
दिया हुआ है।
हृदय
तुम्हारा
अपना है। और यही
दुविधा है कि
जो अपना है, वह अपना
नहीं रहा। और
जो पराया है, वह अपना हो
गया। जो
ऊपर-ऊपर से
थोपा गया है, वह तुम्हारा
केंद्र बन गया
है, और
तुम्हारा
केंद्र
तुम्हें
बिलकुल ही
विस्मृत हो
गया है।
इसे
हटा दो, तो
ही तुम सिखावन
सुन सकोगे।
सिखावन सुनते
ही तुम...एक
सिखावन काफी
है। कोई हजार
की जरूरत नहीं।
एक बात भी, एक
गुर भी काफी
है। और वह गुर
क्या है?
नानक
कहते हैं, 'एक गुर से सब
हल हो जाता है,
कि सभी
प्राणियों का
दाता एक है, उसे मैं न भूलूं।'
सभना जीआ का इकु
दाता, सो
मैं बिसरि
न जाई।
बस
उसका मुझे
विस्मरण न हो, इतनी सिखावन
काफी है। इसे
थोड़ा समझें।
स्मरण और
विस्मरण दो
शब्द गौर से
समझ लें।
स्मरण का अर्थ
है कि जिसकी
सतत प्रतीति भीतर
बनी रहे। तुम
कुछ भी करो, चलो, फिरो,
उठो, बैठो,
उसकी सतत
प्रतीति बनी
रहे।
जैसे
एक गर्भिणी
स्त्री होती
है। काम करती
है, खाना
बनाती है, बिस्तर
लगाती है, लेकिन
पूरे वक्त
गर्भ का स्मरण
बना रहता है।
एक नया हृदय
उसके शरीर में
धड़कना
शुरू हुआ है।
एक नए जीवन का
अंकुर फूटा है,
उसकी
प्रतीति बनी
रहती है।
गर्भिणी
स्त्री चलती
और ढंग से है।
तुम स्त्री को
चलते देख कर कह
सकते हो कि वह
गर्भिणी है।
वह बात भी
करती रहेगी
चलते वक्त, तो भी एक
स्मरण भीतर
बना हुआ है।
एक सतत धार भीतर
बह रही है कि
एक जीवन को
सम्हालना है।
स्मरण
का अर्थ है कि
वह कोई अलग
चेष्टा नहीं
है। क्योंकि
अगर अलग
चेष्टा हो तो
भूल-भूल
जाएगा। खाना बनाओगे, भूल जाएगा।
बाजार में
दूकान पर
बेचने जाओगे सामान,
भूल जाएगा।
किसी से बात
करोगे, भूल
जाएगा। तो अगर
तुम ऐसा
राम-राम, राम-राम,
राम-राम
जपते हो, वह
स्मरण नहीं
है। क्योंकि
उसको तुम कब
तक जपोगे?
सोओगे, भूल
जाएगा।
साइकिल
चलाओगे, भूल
जाएगा। और अगर
उसे न भूले, सड़क पर भी
याद रखने की
कोशिश की, तो
टक्कर खाओगे।
किसी का भोंपू
बजेगा और तुम्हें
सुनाई न
पड़ेगा। जो
स्मरण तुम
चेष्टा से करोगे,
जो
तुम्हारी
बुद्धि में गूंजेगा, वह स्मरण नहीं
है।
जो
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
समा जाए--उसको
नानक अजपा जाप
कहते हैं।
जिसको जपना भी
न पड़े। क्योंकि
जपना तो ऊपर
ही ऊपर होगा।
जो तुम्हारे
रोएं-रोएं में
समा जाए; तुम
उठो, बैठो,
चलो, फिरो,
कुछ भी करो,
जिसकी याद
बनी रहे, उस
याद का नाम, स्मरण। उसको
नानक, कबीर
सुरति कहते
हैं। इसलिए
उनका योग
सुरति योग कहलाता
है। सुरति का
अर्थ
है--स्मरण, स्मृति।
और एक
दशा है
विस्मरण की, विस्मृति
की। कि
तुम्हें और सब
तो याद है, एक
बात तुम्हें
बिलकुल भूल गई
कि तुम कौन हो!
और जिसे यह ही
भूल गया है कि
मैं कौन हूं, उसे कैसे
याद आ सकता है
कि यह
अस्तित्व
क्या है!
गुरजिएफ
ने पश्चिम में
इस सदी में
सेल्फ रिमेंबरिंग, सुरति पर
बड़ी मेहनत की।
गुरजिएफ की
पूरी विधि यह
थी कि तुम
चौबीस घंटे
स्मरण रखो कि
मैं हूं।
सिर्फ यह
स्मरण कि मैं
हूं। अगर यह
स्मरण सघन
होता जाए, तो
तुम्हारे
भीतर एक
केंद्र
निर्मित होता
है। एक
क्रिस्टलाइजेशन
होता है। तुम्हारे
भीतर कोई चीज
सघन हो जाती
है। मजबूत हो
जाती है। सतत
चोट से
तुम्हारे
भीतर एक
संघटित तत्व
का उदय होता
है।
लेकिन
गुरजिएफ की
विधि में एक
खतरा है, जो
खतरा महावीर
की विधि में
भी है। जो
खतरा पतंजलि
के योग में भी
है। और वह
खतरा यह है कि
कहीं तुम इस
संगृहीत हुए
तत्व को
अहंकार के साथ
न जोड़ बैठो।
क्योंकि वे बहुत
करीब-करीब
हैं। जिसको
गुरजिएफ क्रिस्टलाइज्ड
सेल्फ कहता है,
यह जो नया
गठन तुम्हारे
भीतर हुआ है, कहीं इस पर
अहंकार हावी न
हो जाए। कहीं
तुम इससे अकड़
न जाओ। कहीं
तुम यह न कहने
लगो कि मैं ही
हूं। यह डर है,
कहीं तुम
परमात्मा को
इनकार न कर
दो। तो तुम पहुंच-पहुंच
कर भी चूक गए।
तुम बिलकुल
किनारे गए और
लौट आए। तुम
आखिरी जगह
पहुंच गए थे
और वापस हो
गए।
यह
खतरा महावीर
की विधि में
है। क्योंकि
महावीर की
विधि में भी आत्मभाव
को गहन करना
है। परमात्मा
की कोई जगह
नहीं है।
महावीर कहते
हैं, जब आत्मभाव
परिपूर्ण हो
जाएगा, तो
वहीं से
परमात्मा
प्रगट होगा।
वही परमात्मा
हो जाएगा। यह
ठीक है।
महावीर को ऐसा
हुआ। लेकिन
महावीर के
पीछे चलने
वालों को ऐसा
हुआ दिखाई
नहीं पड़ता।
इसलिए तो
महावीर की
धारा सिकुड़
गई। उसमें
खतरा है। और
खतरा यह है कि
आत्मा के नाम
पर कहीं
अहंकार उदघोषणा
न करने लगे।
इसलिए
जैन मुनि को
तुम जितना
अहंकारी
पाओगे, किसी
दूसरे मुनि को
उतना अहंकारी
न पाओगे। जैन
मुनि हाथ जोड़
कर झुक भी
नहीं सकता, नमस्कार भी
नहीं कर सकता।
किसको
नमस्कार करे?
तुम
नमस्कार करो
तो वह नमस्कार
का उत्तर भी
नहीं दे सकता।
वह सिर्फ
आशीर्वाद दे
सकता है। उसके
हाथ जुड़ते ही
नहीं। विधि
बिलकुल सही है,
लेकिन बड़ी
सुगमता से
खतरा है। हर
विधि का खतरा
है, वह याद
रखना जरूरी
है।
नानक
की विधि में
वह खतरा नहीं
है। क्योंकि
नानक खुद को
स्मरण करने को
नहीं कहते। वे
कहते हैं कि
सभी प्राणियों
का एक दाता है, उसे मैं न भूलूं।
सब के भीतर एक
का ही वास है।
अनेक के भीतर
एक छिपा है--एक
ओंकार सतनाम।
पत्ते-पत्ते
में वही कंपता
है। हवा के
झोंके में वही
बहता है। बादल
में, आकाश
में, चांदत्तारों में, कण-कण
में, मिट्टी
में, सबमें
वही है। उसे
मैं न भूलूं।
वह मुझे याद
रहे। उसकी
याददाश्त घनी
होती जाए।
उसकी
याददाश्त
मेरे भीतर क्रिस्टलाइज्ड
हो जाए। वह
मेरे भीतर एक
सघन तत्व बन
जाए।
तो
इसमें अहंकार
का कोई खतरा
नहीं है।
इसमें तुम कभी
अहंकारी न हो
सकोगे। इसलिए
नानक से विनम्र
ज्ञानी खोजना
कठिन है।
क्योंकि अगर
वही है, तो
तुम सभी को
हाथ जोड़ सकते
हो। तुम सभी
के पैर छू
सकते हो, क्योंकि
सभी में वही
है। और जिसके
तुम पैर छू रहे
हो चाहे उसे
पता न हो, लेकिन
तुम्हें तो
पता है।
यह
खतरा नानक की
विधि में नहीं
है, लेकिन एक
दूसरा खतरा है।
और वह खतरा यह
है कि सभी में
वही है, उसकी
स्मृति कहीं
ऐसा न हो कि
आत्मविस्मृति
बन जाए। कहीं
ऐसा न हो कि वह
सबमें है, इसलिए
तुम भूल ही
जाओ कि मैं भी
हूं। तो एक
गहरी नींद लग
जाएगी। योगत्तंद्रा
हो जाएगी। तब
तुम
बेहोश-बेहोश
से जीने
लगोगे। तुम
उसे सब जगह देखोगे,
सिर्फ अपने
में न देख
पाओगे। वह
चारों तरफ दिखाई
पड़ेगा। दसों
दिशाएं उससे
भर जाएंगी, लेकिन
ग्यारहवीं
तुम्हारी
दिशा अछूती रह
जाएगी। तो तुम
उसका गुण-गान
करोगे, तुम
उसकी महिमा
गाओगे, लेकिन
तुम खुद उस
महिमा से
वंचित रह
जाओगे। यह
खतरा है।
लेकिन
यह खतरा पहले
खतरे से छोटा
खतरा है।
क्योंकि जो
सोया है उसे जगाया
जा सकता है।
लेकिन जो
अहंकार से भर
गया है उसकी
नींद भयंकर
है। वह कोमा
में है। उसे
जगाना बहुत
मुश्किल है।
वह कोई साधारण
नींद में नहीं
है। उसको तुम
हिलाओ-डुलाओ, कोई फर्क न
पड़ेगा।
तंद्रा तोड़ी
जा सकती है।
इसलिए योगियों
ने उसे अलग से
नाम दिया है, योगत्तंद्रा। उसको
निद्रा भी
नहीं कहा।
क्योंकि
निद्रा को
तोड़ने में
थोड़ी तकलीफ
है। तंद्रा को
तोड़ने में जरा
भी तकलीफ नहीं
है। तुम
तंद्रा में हो
और कोई ताली
बजा दे तो टूट
जाएगी।
नानक
का मार्ग
महावीर के
मार्ग से सुगम
है। पर खतरे
को हमेशा याद
रखना चाहिए।
हर मार्ग का
खतरा तो होगा
ही। क्योंकि
हर मार्ग पर
भटकने की संभावना
है, हर मार्ग
से च्युत हो
जाने की
संभावना है।
और तुम ऐसे हो
कि अगर
तुम्हें खतरा
न बताया जाए, तो पूरी
संभावना है कि
तुम भटक
जाओगे।
महावीर का
मार्ग त्याग
में भटक गया।
नानक का मार्ग
भोग में भटक
गया।
क्योंकि
महावीर ने कहा
कि संसार को
बिलकुल छोड़
दो। भोग का कणमात्र
न बचने दो।
तुम परम
संन्यस्त हो
जाओ। उसका परिणाम
यह हुआ कि
महावीर के
त्यागी संसार
के दुश्मन हो
कर जीए। और जब
तुम किसी के
दुश्मन हो कर जीते
हो तो जिसके
तुम दुश्मन हो, उससे तुम
बंधे रह जाते
हो। जिससे
तुम्हारी शत्रुता
है उसे तुम
भूल नहीं
पाते। उसका
स्मरण बना
रहता है। तो
महावीर का जो
त्यागी है वह
चौबीस घंटे
संसार से लड़
रहा है। लड़ने
की वजह से संसार
का स्मरण कर
रहा है। आत्मा
वगैरह का
स्मरण तो एक
तरफ रह गया है,
भोजन, कपड़ा, उठना,
बैठना, कहां
सोना, नहीं
सोना, उस
सब में उसकी
झंझट लगी हुई
है। वह भटक
गया त्याग
में।
नानक
ने ठीक दूसरी
बात कही कि सब
कुछ वही है। सब
कुछ उसी का
है। संसार को
छोड़ कर कहीं
जाने की कोई
जरूरत नहीं।
संसार में ही
वह मौजूद है।
तो नानक का
मानने वाला
संसार में भटक
गया। नानक ने
कहा कि संसार
को छोड़कर कहीं
जाने की जरूरत
नहीं; इसका
मतलब यह नहीं
कि संसार काफी
है। संसार में
ही उसको खोजना
है।
इसलिए
तुम देखो, पंजाबी हैं,
सिक्ख हैं,
सिंधी हैं,
नानक को
मानने वाला जो
वर्ग है इस
मुल्क में उसको
तुम देखो।
खाने में, पीने
में, कपड़े
पहनने में
सारा जीवन
उसका लगा हुआ
है। वह सोच
रहा है कि
संसार से बाहर
तो कुछ है ही
नहीं, बस
यही सब कुछ
है।
संसार
में रह कर उसे
पाना है।
संसार सब कुछ
नहीं है।
संसार छोड़ कर
जाने की कोई
जरूरत नहीं। लेकिन
तब खतरा है।
तब संसार ही
सब कुछ बन
जाए। इसलिए
नानक के पीछे
चलने वाला
वर्ग संसारी
हो कर रह गया है।
उसके
देखने-सोचने
का सब ढंग
संसारी है।
ये बड़े
खतरे हैं। हर
मार्ग के साथ
खतरा है। और अगर
तुम खतरे से
सचेत नहीं हो, तो सौ में
निन्यान्नबे
मौके पर तुम
खतरे में ही
जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारी
बुद्धि जैसी
है, वह ठीक
तो चल ही नहीं
सकती। वह
तिरछी चलती
है।
तुमने
कभी गधे को
चलते देखा? वह कभी बीच
रास्ते पर
नहीं चलता। वह
हमेशा दीवाल,
इस तरफ या
उस तरफ, अति
पर चलता है।
बुद्धि को गधा
कहना उचित है।
तुम बुद्धुओं
को गधा कहते
हो, लेकिन
बुद्धिमानी
ही गधापन है।
क्योंकि बुद्धि
चलती ही किनारे
से, एक अति पकड़ती या
दूसरी अति। और
बुद्धिमान का
लक्षण है, मध्य
में होना। और
वहां खतरा है।
इसलिए
नानक की परम
गुह्य बातें
खो गईं। सिक्ख
तो हैं, नानक
का सिक्ख कहां?
जिसने
सिखावन सुनी
हो, जिसने
अपने सिर को
छोड़ा हो, जो
श्रद्धा और
हृदय से भरा
हो। और जिसने
एक बात स्मरण
रखी हो, 'एक
गुर से सब हल
हो जाता है, कि सभी
प्राणियों का
एक है दाता, उसे मैं कभी
न भूलूं।'
वह
स्मरण बना
रहे। उसकी सतत
प्रतीति बनी
रहे। उठते-बैठते
वह मुझमें समा
जाए। मैं जो
भी करूं, वह
उसके स्मरण के
साथ ही हो। तो
तुम संसार में
रहते हुए
संसार के पार
हो जाओगे।
यहां रहते हुए
वहां पहुंच
जाओगे। मंदिर
जाने की जरूरत
नहीं, घर
ही मंदिर हो
जाएगा।
साधारण
कामकाज उसकी
विशिष्ट
गरिमा से भर
जाएगा।
तुम्हारा कोई
काम साधारण न
रहेगा, असाधारण
हो जाएगा।
जहां भी तुम नहाओगे
वहीं गंगा
होगी।
लेकिन
डर है कि तुम
सोच लो, फिर
कुछ करने को
नहीं बचा। फिर
हम जहां नहा
रहे हैं वहीं
ठीक है। गंगा
का सवाल नहीं
है, तुम्हारा
सवाल है। तुम
जब भिन्न होते
हो तो गांव की
साधारण सी नदी
गंगा हो जाती
है। और तुम जब
भिन्न नहीं
होते, तुम
गंगा को भी
साधारण नदी
बना लेते हो।
तुम्हारे
साधारण और
असाधारण होने
का सवाल है।
क्या
है साधारणपन? साधारणपन है बिना
स्मरण के
जीना। और असाधारणपन
है उसके स्मरण
से जीना। और
उसका स्मरण
मूल्यवान है।
उसके लिए कुछ
भी खोना पड़े
तो तुम तैयार रहोगे,
लेकिन उसके
स्मरण को खोने
को तैयार न
रहोगे।
इसलिए
नानक कहते हैं, 'सिखावन जो
सुन लेता, उसकी
बुद्धि रत्न,
जवाहर और
माणिक जैसी हो
जाती है।'
क्यों
माणिक, रत्न
और जवाहर की
वे बात कर रहे
हैं? वे
इसलिए कर रहे
हैं कि अगर
जरूरत पड़ेगी
तो तुम कुछ और
छोड़ दोगे, लेकिन
माणिक को न छोड़ोगे।
तुम्हारे
खीसे में रुपए
का नोट है और
माणिक पड़ा है;
जरूरत पड़ी
तो तुम रुपए
का नोट छोड़
दोगे। जरूरत
पड़ी तो तुम पूरा
घर छोड़ दोगे, लेकिन माणिक
को न छोड़ोगे।
क्योंकि तुम
जानते हो, वह
सबसे
मूल्यवान है।
जीवन से सब
छूट जाए लेकिन
स्मरण न छूटेगा।
क्योंकि तुम
जानते हो, सब
जीवन दो कौड़ी
का है। वह
स्मरण माणिक
की भांति है।
वह सर्वाधिक
बहुमूल्य है।
'अगर
किसी की आयु
चारों युगों
के बराबर हो
जाए, उससे
भी दस गुनी हो
जाए, अगर नवों खंड
के लोग उसे
जानते हों और
उसके साथ चलते
हों, जिसको
सुनाम
प्राप्त हो, और जिसकी
कीर्ति सारे
जगत में फैली
हो, वह भी अगर
उसकी दृष्टि
में नहीं जंचता
है, तो कोई
भी मूल्य नहीं
है। उसके पूछ
का कोई भी अर्थ
नहीं है, उसे
कोई भी नहीं
पूछता।'
जे जुग
चारे आरजा।
होर दसूणी
होई।।
नवा
खंडा विचि
जाणीऐ। नालि चलै
सभु
कोई।।
चंगा नाउ रखाइकै।
जसु कीरति
जगि
लेइ।।
जे तिसु
नदर न आवई।
त बात न पुछै
केइ।।
नानक
कहते हैं कि
तुम्हारे पास
चारों युगों की
उम्र हो, सतयुग
से लेकर
कलियुग तक; जितनी इस
सृष्टि की
उम्र है, उतनी
तुम्हारी
उम्र हो, उससे
भी दस गुनी हो
जाए, नवों खंडों के
लोग, सारे
सृष्टि के लोग
तुम्हें
जानते हों, तुम्हारे
साथ चलते हों,
बड़ा
तुम्हारा सुनाम
हो, सारे
जगत में
तुम्हारी
कीर्ति हो, फिर भी अगर
उसकी दृष्टि
में तुम न जंचे,
तो कुछ भी
सार नहीं है।
इसे
थोड़ा सोचें।
और हमारी यही
तलाश है, सारी
दुनिया हमें
जान ले, सारी
दुनिया का
साम्राज्य
हमारा हो, उम्र
हो, धन हो, सुयश हो, सुनाम
हो, यही
हमारी खोज है।
और नानक कहते
हैं, तुम
सब पा लो, तुम
पूरी सृष्टि
के मालिक हो
जाओ, लेकिन
उसे न जंचो,
तो कुछ भी
सार नहीं है।
क्या
बात है? क्या
कारण है?
सब पा
कर भी तुमने
कभी किसी को
तृप्त होते
देखा? पूछो
अरबपतियों से,
पूछो
सिकंदरों से,
हिटलरों
से। तुमने कभी
उन्हें तृप्त
देखा? कभी
तुमने उनके
आसपास ऐसा भाव,
ऐसी हवा
देखी, जो
खबर देती हो
कि सब मिल गया?
उलटी
ही हालत है।
जितना तुम ऐसे
लोगों के करीब
जाओगे, उतना
ही पाओगे, उनकी
दरिद्रता बड़ी
है। उनका भिक्षापात्र
बड़ा हो गया है,
वे और मांग
रहे हैं।
नवखंड काफी
नहीं हैं। चारों
युगों की उम्र
पर्याप्त
नहीं है। उनकी
मांग, जो
भी मिल जाए, उससे बड़ी
है। उनका अभाव
अनंत है। वह
भरा नहीं जा
सकता। उसे
भरने का कोई
उपाय नहीं।
उनकी तृष्णा दुष्पूर
है, उनकी
चाह की कोई
सीमा नहीं है।
वह जो भी मिल
जाता है, चाह
आगे चली जाती
है।
चाह
आगे ही चलती
जाती है। चाह
तुमसे मीलों
आगे चलती है।
तुम जहां जाते
हो, वह तुमसे
पहले पहुंच
जाती है। और
जितना ज्यादा
तुम्हारे पास
होता है, उतना
ही तुम्हें
एहसास होने
लगता है कि
तुम किसी गलत
मार्ग पर चल
रहे हो।
क्योंकि
तृप्ति तो
मिलती ही
नहीं। लौट भी
नहीं सकते।
क्योंकि अहंकार
कहता है, कहां
लौटकर जाते हो?
दो भिखमंगे
एक झाड़ के
नीचे विश्राम
कर रहे थे। और
एक भिखमंगा रो
रहा था, शिकायतें
कर रहा था। जब
सम्राट रोते
हैं और शिकायतें
करते हैं, तो
बिचारा
भिखमंगा! वह
कह रहा था, यह
भी कोई जीवन
है। आज इस
गांव, कल
उस गांव। बिना
टिकट सफर करो।
कहीं भी उतार
दिए जाओ। जो
देखो वही
उपदेश दे; मांगो
रोटी, मिले
उपदेश। जो
देखो वही कहे,
भले-चंगे
हो, जाओ
काम करो। हर
जगह अपमान, हर जगह
निंदा, यह
भी कोई जीवन
है? और खदेड़े
जाते हैं हर
जगह से। पुलिस
वाले सदा पीछे
खड़े हैं। जहां
सोओ वहीं से
उठाए जाओ, रात
पूरी नींद भी
एक जगह नहीं
ले सकते।
तो
दूसरे ने कहा, तो फिर तुम
यह काम छोड़ ही
क्यों नहीं
देते? उसने
कहा, क्या?
क्या मैं
स्वीकार कर
लूं कि मैं
असफल हो गया?
भिखमंगा
भी स्वीकार कर
नहीं सकता कि
वह असफल हो
गया है। तो करोड़पति
तो कैसे
स्वीकार करे? तो
राजनीतिज्ञ
तो कैसे
स्वीकार करे
कि असफल हो
गया है?
नहीं, वह कहता है, सिद्ध कर के
रहूंगा।
हालांकि आज तक
कोई भी सिद्ध
न कर पाया।
नहीं तो
महावीर, बुद्ध,
नानक सब मूढ़
हैं। कोई भी
सिद्ध नहीं कर
पाया कि मिलने
से कुछ मिलता
है। लेकिन
अहंकार पीछे
नहीं लौटना चाहता।
अहंकार कहता
है, और आगे बढ़ो। शायद
थोड़ी ही दूर
हो मंजिल। कौन
जानता है? दो
कदम और। आशा
का जाल फैलता
चला जाता है।
और अहंकार
पीछे नहीं
लौटने देता, आशा आगे की
तरफ खींचती
है। आशा
भविष्य का
रास्ता बनाती
जाती है।
अहंकार कहता
है, इतने
चल आए, और
अब तक कभी
स्वीकार न की
कमजोरी कि हम
गलत मार्ग पर
हैं, अब कैसे
स्वीकार करो?
ढांक लो, छिपा
लो, किसी
तरह चलते जाओ।
कभी सफलता
मिलेगी ही
निश्चित।
तुम्हारे
सब सफल लोगों
के भीतर
असफलता के आंसू
छिपे हैं। वे
प्रकट नहीं
करते। इसलिए
उनके पब्लिक फेसेस और
उनके
प्राइवेट फेसेस
अलग हैं। उनका
जो चेहरा वे
दिखाते हैं
जनता में, वह अलग है।
उनका चेहरा जो
वे अपने
बाथरूम में आईने
में देखते हैं,
वह बिलकुल
अलग है। तुम
उन्हें रोते
पाओगे। जब जनता
में देखोगे,
तब तुम
उन्हें
मुस्कुराते
पाओगे। उनकी
मुस्कुराहट
झूठी है। उस
मुस्कुराहट
के भीतर कुछ भी
नहीं है, सिर्फ
आंसू छिपे
हैं।
नानक
कहते हैं कि सब
मिल जाए तो भी
तृप्ति नहीं
मिलती।
तृप्ति तो तभी
मिलती है, यदि तुम उसे
भा जाओ। और तब
नंगे फकीर को
भी मिल जाती
है। जिसके पास
कुछ नहीं है, उसे भी हमने
आनंदित देखा
है। और जिनके
पास सब है
उन्हें भी
दुखी।
तो
जरूर तृप्ति
का सूत्र कहीं
और है। वह
तुम्हारे पास
क्या है, इससे
उसका कोई
संबंध नहीं।
तुम्हारा
परम-सत्ता से
क्या संबंध है,
उससे उसका
संबंध है।
तुम्हारे पास
क्या है, इससे
निर्णय नहीं
होता कि तुम
तृप्त हो। तुम
और परमात्मा
के बीच क्या
नाता है, उस
दिशा में
तुमने कैसे
सूत्र बांधे
हैं, उससे
पता चलता है
कि तुम तृप्त
हो या अतृप्त
हो। अगर उससे
नाता बन गया, अगर तुम
उसकी तरफ
सन्मुख हो
गए...और वही है
अर्थ इस बात
का कि अगर तुम
उसे जंच गए।
तुम तो
उसे जंचे
ही हुए हो, नहीं तो वह
तुम्हें पैदा
क्यों करे? तुम उसे जंचे
ही हुए हो, अन्यथा
वह तुम्हें
इतना अवसर
क्यों दे? तुम
उसे जंचे
ही हुए हो।
लेकिन तुम पीठ
किए खड़े हो।
जंच जाने का
अर्थ है, जब
तुम उन्मुख हो
जाते हो। और
तुम जब उसकी
सूरत को सब
सूरतों में
देखते हो, और
तुम हर जगह
उसी का वास
पाते हो, पत्थर
भी तुम्हें
धोखा नहीं दे
सकता। तुम पत्थर
में भी उसी को धड़कते
पाते हो। जब
तुम सब तरफ उसी
को पाते हो, तब तुम जंच
गए।
नानक
कहते हैं, यदि मैं
उसको भा गया, तो मैंने
तीर्थों में
स्नान कर
लिया। उतरी स्वर्ग
की गंगा
तुम्हारे
ऊपर। यह गंगा
जो हिमालय से
बहती है
प्रयाग और
काशी छूती हुई,
इस गंगा में
नहाने से कुछ
भी न होगा।
उसकी गंगा उतरनी
चाहिए। उसको
जंच जाना
चाहिए। भा गए
तुम उसे!
स्वीकार हो
गए!
'वह
भी अगर उसकी
दृष्टि में
नहीं जंचता,
तो कोई उसे
नहीं पूछता।'
कितना
तुम पा लो, व्यर्थ है।
तुम्हारा सब
पाना गहरे
अर्थों में
गंवाना है।
तुम्हारी सब
संपदा सिवाय
विपदा के और
कुछ भी नहीं।
एक ही संपदा
है--उसको जंच
जाना। वही जब
तुम्हारी खोज
बन जाती है, तो तुम
संसार में
संन्यासी हो
गए। करते तुम
सब हो, ध्यान
उसका रखते हो।
घूमते तुम सब
तरफ हो, नजर
उस पर रखते
हो। क्षुद्र,
बड़े छोटे
काम में लगे
रहते हो, लेकिन
विस्मरण उसका
नहीं होने
देते। वह तुम्हारे
भीतर है।
यह जो
सुमिरन है, यह जो सुरति
है, यह जो
अजपा जाप
है--धीरे-धीरे-धीरे
तुम जंच जाओगे।
तुम उसे भा
जाओगे। और जिस
दिन तुम उसे
भा जाते हो, उस दिन
तुम्हारे
जीवन में
नृत्य उतरता
है, उत्सव
उतरता है। उस
दिन तुम्हारे
पास कुछ भी नहीं
होता। और सब
कुछ होता है।
'वह
कीटों में भी
कीट बना दिया
जाता है, और
दोषी भी उस पर
दोष मढ़ने
लगते हैं।'
वह जो
परमात्मा से
वंचित है, सब पा ले, तो
भी कीटों में
कीट बना दिया
जाता है, और
दोषी भी उस पर
दोष मढ़ने
लगते हैं।
'नानक
कहते हैं कि
वह गुणहीनों
को गुणी बना
देता है, और
गुणवानों को
और गुण देता
है। प्रभु के
सिवाय और कोई
नहीं है जो
गुण प्रदान कर
सके।'
प्रभु
के सिवाय और
कोई नहीं है
जो तुम्हें
गुण प्रदान कर
सके। तुम उसे
अगर चूक गए तो
सब चूक गए।
वही निशाना
है। याद रखो
प्रतिपल, वही
निशाना है।
अगर तुम्हारे
जीवन का तीर
उस तक न
पहुंचा, तो
कहीं भी पहुंच
जाए, वह
असफलता है। एक
ही सफलता है, वह परमात्मा
को पा लेना
है। और सब असफलताएं
हैं। एक ही
उपलब्धि है, उसे जंच
जाना।
तुम
कभी सोचो। तुम
किसी को प्रेम
करते हो और तुम
जंच जाते हो, प्रेमी
तुम्हें
स्वीकार कर
लेता है, प्रेमी
तुम्हें हृदय
से लगा लेता
है, तब
तुम्हारे
जीवन में कैसी
पुलक आती है!
तब तुम्हारे
पैर जमीन पर
नहीं पड़ते। तब
तुम हवा में
उड़ते हो। जैसे
तुम्हें पंख लग
जाते हैं। और
कुछ अज्ञात
घूंघर
तुम्हारे जीवन
में बजने लगते
हैं, जो
तुमने कभी न
सुने।
तुम्हारे
चेहरे की रौनक
बदल जाती है, रंग बदल
जाता है।
तुम्हारी
आंखें किसी और
ही बात की खबर
देने लगती
हैं।
प्रेम
को छिपाना
इसीलिए तो
मुश्किल है।
तुम सब छिपा
लो, प्रेम को
तुम नहीं छिपा
सकते। अगर
तुम्हें किसी
से प्रेम हो
गया, तो वह
प्रगट होगा
ही। उसको
बचाने का कोई
भी उपाय नहीं।
क्योंकि तुम
चलोगे और ढंग
से, उठोगे
और ढंग से, तुम्हारी
आंखें उसकी
खबर देंगी।
तुम्हारा
रोआं-रोआं
उसकी खबर देगा।
क्योंकि
प्रेम एक
स्मरण है।
साधारण जीवन
में भी अगर
तुम्हारा
प्रेमी
तुम्हें स्वीकार
कर ले तो तुम
इतनी पुलक से
भर जाते हो; तुम जरा
हिसाब लगाओ, पूरा
अस्तित्व
तुम्हें
स्वीकार कर ले
तब तुम्हारी
पुलक कैसी
होगी? पूरा
अस्तित्व
तुम्हें
प्रेम करे, हृदय से लगा
ले, आलिंगन
घटित हो, तुम
पूरे
अस्तित्व के
साथ प्रेम में
बंध जाओ...।
यही तो
मीरा कह रही
है कि कब
कृष्ण तुम
मेरी शय्या पर
आओगे? ये
प्रतीक
प्रेमी के
हैं। मीरा कह
रही है, मैंने
सेज-शय्या को
संवार कर रखा
है। फूलों से
तुम्हारी सेज
बनाई है। कब
तुम आओगे? कब
तुम मुझे
स्वीकार
करोगे?
भक्त
भगवान के लिए
ऐसा ही प्यासा
है, प्रेयसी
जैसे प्रेमी
के लिए, जैसे
चकोर स्वाति
की बूंद के
लिए। प्यासा
है, पुकार
रहा है, फिर
एक बूंद भी
तृप्ति बन
जाती है। एक
बूंद भी मोती
बन जाती है।
और जब उतनी पुकार
और प्यास से
कोई जीता है, तो साधारण
पानी मोती हो
जाता है।
अगर
उतनी ही पुकार
और प्यास हो, तो गुरु की
एक सिखावन
माणिक बन
जाएगी। एक
बूंद काफी है।
एक बूंद सागर
हो जाएगी। और
जिसने गुरु की
सिखावन समझ
ली...सिखावन ही
क्या है? छोटा
सा सूत्र है।
समझ लो तो
बहुत छोटा है।
न समझो, तो
अनंत जन्म बीत
जाते हैं।
छोटा सा सूत्र
है, नानक
कहते हैं, गुरा इक
देहि
बुझाई, सारी
प्यास बुझा
देता है एक
गुर।
सभना जीआ का इकु
दाता, सो
मैं बिसरि
न जाई।।
बस, उसको भर मैं
विस्मरण न
करूं। एक छोटा
सा गुर सारी
प्यास बुझा
देता है। सारी
तृष्णा मिटा
देता है। सारी
चाह खो जाती
है।
नानक
कहते हैं, 'वह गुणहीनों
को गुणवान बना
देता है। गुणी
बना देता है।'
उसकी
तरफ चेहरा हुआ
कि तुम पात्र
हुए। पात्र तुम
सदा ही थे, खाली थे।
उसकी तरफ
चेहरा हुआ, भर गए। उसकी
महिमा ने
तुम्हें आकर
आंदोलित कर दिया।
वीणा तो तुम्हारी
सदा से तैयार
थी। तुमने
उसके हाथों
में सौंप दी, उसकी
अंगुलियों ने
छुआ, संगीत
का जन्म हो
गया। संगीत
सोया था, अंगुलियों
की प्रतीक्षा
थी। लेकिन तुम
सौंपो
अपनी वीणा को
उसे तब!
उस
सौंपने का नाम
ही श्रद्धा
है। सौंपने का
नाम ही
शिष्यत्व है, सिक्ख हो
जाना है। सौंपने
का नाम ही
समर्पण। उस
सौंपने का नाम
ही संन्यास।
कि तुम अपनी
वीणा उसके
हाथों में दे
दो और तुम कहो,
जो तेरी
मर्जी। तेरी
मर्जी अब मेरा
जीवन होगी।
मैं तुझे
स्मरण रखूं
इतना मेरा, शेष सब
तेरा। तू मुझे
कभी न भूले
इतनी मेरी मांग।
और सारी मांग
समाप्त। एक
छोटा सा गुर!
नानक
कहते हैं, 'वह गुणहीनों
को गुणी बना
देता है। और
गुणवानों को
और गुण देता
है।'
एक ही
तो गुण है
जीवन में कि
तुम्हारे
पात्र में वह
समा जाए, भर
जाए, कि
तुम अकेले न
रहो, उसका
संग-साथ हो
जाए, कि
तुम अकेले न भटको।
अन्यथा तुम
उसे खोजोगे
कई जगह, पाओगे
न।
कोई
उसे धन में
खोजता है कि
शायद कोई
संगी-साथी मिल
जाए। कोई
पत्नी में
खोजता है, कोई पति में
खोजता है।
लेकिन वह सब
खोज अधूरी है।
तुम जब तक
उसको सीधा न खोजोगे, तुम उसे न पा
सकोगे। उसको
पाते ही सब
दुर्गुण बिसर
जाते हैं।
इसलिए
नानक तुमसे न
कहेंगे कि
एक-एक दुर्गुण
को मिटाओ।
क्योंकि वे तो
अनंत हैं।
चोरी छोड़ो, बेईमानी छोड़ो,
हत्या छोड़ो,
क्रोध छोड़ो,
काम, लोभ,
मोह, मत्सर,
क्या-क्या छोड़ोगे? वे तो अनंत
हैं। नानक
तुमसे नहीं
कहते कि तुम उनको
छोड़ने में लग
जाओ एक-एक को।
नानक
तो कहते हैं
कि तुम उन्मुख
हो जाओ परमात्मा
की तरफ। उसको
स्मरण करो। और
जैसे ही वह
तुम्हारी तरफ
देखेगा, उसकी
नजर तुम पर
पड़ेगी कि सब
बदल जाएगा।
तुम स्वीकार
हो गए। तुम
जंच गए। क्रोध
अपने से तिरोहित
हो जाएगा। लोभ
अपने से गिर
जाएगा।
जिसने
उसे पा लिया, उसको कैसा
लोभ! अब क्या
पाने को बचा? जिसने उसे
पा लिया, अब
कैसा क्रोध!
अब कौन क्रोध
करने को बचा
है? जिसने
उसे पा लिया, अब कैसा काम!
अब कैसी
वासना! परम
संभोग घटित हो
गया।
अस्तित्व के
साथ मिलन हो
गया। आखिरी
विवाह हो गया।
अब किस प्रेमी
की तलाश? कबीर
कहते हैं, मैं
राम की दुलहनिया!
मैं उसकी
दुलहन हूं। और
जब राम से लगाव
हो गया और जब
राम की दुलहन
बन गए, अब
कैसी
कामवासना?
कामवासना
में हम उसी को
खोजते थे।
गंदे नदी-नालों
में हम उसी की
गंगा को खोजते
थे। तृप्त नहीं
होते थे, क्योंकि
उस गंदगी से
हम तृप्त न हो
सकेंगे। ऐसे
ही, जैसे
हंस को हम
पानी पिला रहे
हों नदी-नाले
का, गंदा, नालियों का,
और हंस
तृप्त न होता
हो! उसे
मानसरोवर
चाहिए। तुम्हारा
हंस भी
मानसरोवर
मांगता है।
स्फटिक जैसा
स्वच्छ जल
मांगता है।
परमात्मा से
कम तुम्हारी
प्यास को कोई
भी बुझा न
सकेगा। और जैसे
ही तुम उसकी
तरफ मुड़े,
सब दुर्गुण
गिर जाते हैं।
तुम गुणों से
भर जाते हो।
'गुणियों को और गुण दे
देता है। कहते
हैं नानक, प्रभु
के सिवाय और
नहीं है कोई
जो गुण प्रदान
कर सके।'
नानक निरगुणि गुणु करे। गुणुवंतिआ
गुणु
दे।।
तेहा
कोई न सुझई।
जि तिसु गुणु कोई
करे।।
उसके
अतिरिक्त तुम
कहीं भी भटको, तृप्त न हो
सकोगे। उसके
अतिरिक्त तुम
भटक ही रहे हो
जन्मों-जन्मों
से और अभी तक
तुम्हें होश
नहीं आया। आशा
अभी भी बंधी
है कि शायद उसके
बिना पहुंच
जाएंगे। और
अहंकार पीछा
कर रहा है कि
इतने-इतने दिन
किया, अब
उसको ऐसे ही
गंवा दें?
तुम उस
तरह के आदमी
हो कि एक आदमी
मकान बनाए, और मकान
जीर्ण-जर्जर
हो, उसकी
नींव ठिकाने
की न हो, रेत
पर रखी हो। और
अचानक जब मकान
बनने के करीब आए,
तब कोई कहे
कि इस मकान के
भीतर मत जाना,
यह मकान गिर
जाएगा, इसमें
तुम मरोगे। तो
तुम्हारा मन
कहेगा कि इतना
खर्च किया, इतनी मेहनत
की, इतनी
मुश्किल से
बनाया। क्या
वर्षों की
मेहनत को ऐसे
ही जाने दें? और तुम्हारे
मन में आशा
उठेगी कि कौन
जाने गिरे न
गिरे! कौन
जाने यह
विशेषज्ञ गलत
हो! और अब तक तो
खड़ा ही रहा है,
तो क्या
कठिनाई है कि
आगे भी खड़ा
रहे? बस, यही
तुम्हारी
हालत है।
जैसे
कोई आदमी
रास्ते पर भटक
जाए और हम
उससे कहें कि
तू रास्ता
पीछे छोड़ आया है।
मैं पढ़
रहा था...एक कवि
अपने संस्मरण
लिख रहा है।
उसने अपने
संस्मरण मुझे
देखने भेजे।
उसमें एक
संस्मरण मुझे
सच में पसंद
आया।
उसने
लिखा है कि वह
भटक गया।
हिमालय के एक
तराई में
यात्रा को गया, रास्ता भटक
गया। तो एक झोपड़े
के सामने उसने
अपनी कार खड़ी
की। एक स्त्री
ने दरवाजा
खोला। और उसने
पूछा उससे कि
मैं ठीक रास्ते
पर तो हूं? मैं
मनाली
पहुंचना
चाहता हूं, पहुंच जाऊंगा
न? उस
स्त्री ने गौर
से देखा और
उसने कहा कि
मुझे अभी यह
ही पता नहीं
कि तुम किस
तरफ जा रहे हो?
तुम जा किस
तरफ रहे हो? कवि ने सोचा
कि पहाड़ी
स्त्री है, समझदार
ज्यादा नहीं
दिखाई पड़ती।
तो उसने कहा कि
तू इतना ही
मुझे बता दे
कि मेरी गाड़ी
का प्रकाश जो
है, वह ठीक
मनाली के
रास्ते की तरफ
पड़ रहा है? उसने
कहा, एक
प्रकाश पड़ रहा
है--लाल वाला!
जब कोई
तुम से
कहे--पचास मील
चल कर तुम आ गए, या हजार मील
चलकर आ गए; और
तुम कितने मील
चल चुके हो, कुछ गिनती
नहीं--अचानक
कहे कि
तुम्हारा लाल
प्रकाश तो
गंतव्य की तरफ
पड़ रहा है, तो
तुम्हें धक से
सदमा
पहुंचेगा।
इसका मतलब है,
पीछे लौटना
पड़ेगा।
तुम्हारा
अहंकार कहेगा
कि थोड़ी और
कोशिश कर लो।
कौन जाने यह
स्त्री सही हो
या न हो! पागल
हो, झूठ
बोलती हो, कोई
प्रयोजन हो
इसका, कोई
लक्ष्य हो, भटकाना
चाहती हो, क्या
भरोसा?
पीछे
लौटने में
अहंकार को चोट
लगती है कि
क्या मैं इतनी
देर तक गलत था? इसलिए
बच्चों को
सिखाना आसान,
बूढ़ों को
सिखाना
मुश्किल हो
जाता है।
क्योंकि उनका
मतलब है कि वे
चल चुके साठ
साल, सत्तर
साल। क्या
सत्तर साल तक
वे गलत थे? इसलिए
बच्चे को तो
सिखाना आसान
है, क्योंकि
वह चला ही
नहीं। कोई
अहंकार नहीं।
तुम जहां चलाओ
वह चलने को
राजी है। बूढ़ा,
जहां चलाओ
वहां चलने को
राजी नहीं, उसके रास्ते
पक्के हैं। वह
कहता है, मेरा
रास्ता ठीक।
क्योंकि
उन्हीं
रास्तों पर
उसका अहंकार
निर्भर है।
और तुम
सब बूढ़े हो। न
मालूम कितने
जन्मों से चल
रहे हो। वही
तो अड़चन है।
इसलिए छोड़ने
की हिम्मत भी
नहीं होती।
क्योंकि
इतने-इतने
जन्मों की
चेष्टा
व्यर्थ गई? इतने-इतने
जन्मों तक मैं
अज्ञानी था? इसलिए तो
ज्ञानी के पास
जाने में तुम
डरते हो।
पहुंच भी जाओ,
तो अपने को
बचाते हो।
पच्चीस
दलीलें और
तरकीबें
खोज-खोज कर
बचाते हो।
कहीं उसकी
वर्षा तुम पर
हो ही न जाए!
कहीं ऐसा न हो
कि तुम्हारे
ज्ञान का और
अनुभव का चोगा
गिर जाए।
और
ध्यान रखो, तुम्हें
पीछे लौटना
पड़े। क्योंकि
रास्ता तो तुम
बहुत पीछे छोड़
आए हो। इसलिए
तो जीसस कहते
हैं कि फिर से
बच्चे की
भांति हो जाओ।
वह लौटने के
लिए कह रहे
हैं। कि कृपा
करो, लौटो,
रास्ता
पीछे छूट गया
है। फिर से
बच्चे की तरह हो
जाओ। बुद्धि
को हटा दो। और
बहुत गुणों की
वर्षा होगी।
वह सदा हुई
है।
नानक
कुछ बहुत पढ़े-लिखे
नहीं हैं। न
कोई बड़े अमीर
हैं। साधारण घर
में पैदा हुए
हैं। न कोई
बड़ी शिक्षा
हुई है। पहले
दिन ही पाठ
चला और बंद हो
गया। फिर भी
वर्षा हो गई।
जब
नानक पर हो गई, जब कबीर पर
हो गई वर्षा, तुम पर
क्यों न होगी?
बस, कहीं
एक ही बात चूक
रही है। वह यह
कि तुम विमुख
खड़े हो। पीठ
किए खड़े हो।
'एक
ही गुर से सब
हल हो जाता है,
कि सभी
प्राणियों का
एक दाता है, उसे मैं न भूलूं।'
गुरा
इक देहि
बुझाई--
सभना जीआ का इकु
दाता, सो
मैं बिसरि
न जाई।।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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