दिनांक
7 जून, 1975, प्रातः,
ओशो
कम्यून
इंटरनेशनल, पूना
सारसूत्र :
अवधू
मेरा मन मतिवारा।
उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै, त्रिभुवन
भया
उजियारा।।
गुड़
करि ग्यान
ध्यान करि
महुआ, व
भाठी करि
भारा।
सुखमन
नारी सहज समानी, पीवै पीवन
हारा।।
दोउ
पुड़ जोड़ि
चिंगाई
भाठी, चुया महारस
भारी।
काम
क्रोध दोइ
किया बलीता, छूटि गई
संसारी।।
सुंनि
मंडल में मंदला
बाजै, तहि
मेरा मन नाचै।
गुरु
प्रसादि
अमृत फल पाया, सहजि सुषमना काछै।।
पूरा
मिल्या
तबै सुख उपज्यौ, तन की तपनि
बुझानी।
कहै
कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी।।
उपनिषदों
में एक वचन है :
"उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान्निबोधत।" उठो, जागो और
जो मिला ही
हुआ है, उसे
पा लो।
--जो
मिला ही हुआ
है। जिसे तुम
खोजते हो, उसे अगर
तुमने खो दिया
होता तो उसे
पाने का कोई
उपाय न था। इस
विराट अस्तित्व
में खोए को
खोज लेने का
कोई उपाय नहीं।
तुम खुद इतने छोटे हो, और तुमने अगर अपना आनंद खो दिया, आत्मा खो दी तो तुम इस विराट अस्तित्व में उसे कहां खोजोगे? असंभव। तुम अपने को खोज ही न पाओगे, अगर खो चुके हो। फिर खोजेगा कौन? अगर तुम खो ही चुके हो, तो खोजने वाला भी तो बचेगा नहीं।
तुम खुद इतने छोटे हो, और तुमने अगर अपना आनंद खो दिया, आत्मा खो दी तो तुम इस विराट अस्तित्व में उसे कहां खोजोगे? असंभव। तुम अपने को खोज ही न पाओगे, अगर खो चुके हो। फिर खोजेगा कौन? अगर तुम खो ही चुके हो, तो खोजने वाला भी तो बचेगा नहीं।
इसलिए
उपनिषद कहते
हैं, उसे पा लो,
जो पाया ही
हुआ है। तुम
सिर्फ भूल गए
हो। विस्मरण
से ज्यादा और
कोई बड़ी
दुर्घटना
नहीं घट गई
है। खोया नहीं
है, स्मृति
खो गई है। है
मौजूद, सो
गए हो। नींद
लग गई है। आंख
झपक गई है।
और तब
तुम जो भी
करोगे इस झपकी
हुई आंख की
दशा में, वह
सब विस्मृति
को घना करेगा।
जितना ही तुम दौड़ोगे, खोजोगे उतना ही
लगेगा कि पाना
मुश्किल है।
उतनी ही यात्रा
असंभव प्रतीत
होगी।
दौड़ने
से नहीं
मिलेगा वह, जो तुम्हारे
भीतर छिपा है।
दौड़ने से तो
उसका मिलना हो
सकता है, जो
तुम्हारे
बाहर है, दूर
है। जो पास ही
है, उसे दौड़कर
कहीं कोई पा
सकेगा? उसे
पाना है, तो
भीतर पाना है।
भीतर
पाने का अर्थ
है रुक जाना, दौड़ना नहीं;
ठहर जाना।
विश्राम के
क्षण में
मिलेगा वह। विराम
के क्षण में
मिलेगा वह।
शांति के क्षण
में मिलेगा।
भाग-दौड़, आपा-धापी
में तो तुम
उसे और खोते
चले जाओगे।और
जितना ही तुम
जाल बुनते हो
खोजने का, आखिर
में पाते हो, वही जाल गले
की फांसी हो
गया। ऐसी है
दशा तुम्हारी,
जैसे मकड़ी ने जाल
बुना हो और
खुद ही फंस गई
हो और अब तड़फती
हो और निकलना
चाहती हो। और
निकल न पाती
हो। और अपना
ही बुना जाल
है।
जन्मों-जन्मों
में तुम जो
खोज रहे हो, उसके कारण
ही तुमने अपने
चारों तरफ एक
जाल बुन लिया
है रास्तों का,
विधियों का,
मार्गों का,
क्रियाकांडों का, धर्मों
का, शास्त्रों
का, सिद्धांतों
का। अब उस जाल
में तुम फंसे
हो। अब उस जाल
से निकलना
मुश्किल
मालूम पड़ता
है।
लेकिन
एक बात स्मरण
आ जाए कि
तुम्हारा ही
बुना हुआ है, कि तुम बाहर
निकल गए। फिर
निकलने को कुछ
करना नहीं
पड़ता। तुम
फंसे थे, वह
भी भ्रांति
थी। इस फंसाव
को ठीक से समझ
लो। क्योंकि
सारे उपद्रव
की जड़ वहां
है। और सारा विज्ञान
भी उसी के
समझने में
छिपा है।
जार्ज
गुरजिएफ अपने शिष्यों
को कहता था, अगर तुम एक
बात समझ लो, तो सब समझ
में आ जाए। उस
बात को वह
कहता था आयडेंटिफिकेशन,
तादात्म्य।
अगर तुम यह
समझ लो कि
कैसे तुम उससे
एक हो गए हो, जो तुम नहीं
हो, तो
तुम्हें
मार्ग मिल जाए
वह होने का, जो तुम हो।
और ऐसा
रोज हो रहा है, ऐसा प्रतिपल
हो रहा है, कि
तुम उसके साथ
अपने को जोड़
लेते हो, जो
तुम नहीं हो।
फिर तुम जो हो,
उससे टूट
जाते मालूम
पड़ते हो। तुम
उसकी याद से
भर गए हो, जो
तुम नहीं हो।
और इसलिए उसकी
विस्मृति हो
गई है, जो
तुम सदा से हो।एक
आदमी को मैं
जानता हूं। वह
रामलीला में
रावण का अभिनय
किया करता था।
हर वर्ष गांव
में रामलीला
होती तो वहां
अभिनय करता।
आसपास के गांव
में होती तो
वहां अभिनय
करता।
धीरे-धीरे उस
आदमी के चेहरे
में रावण का
भाव आ गया था।
जब रामलीला न
भी चलती तब भी
तुम उसे
रास्ते पर
चलते देखते तो
तुम्हें रावण
की याद आ
जाती।
फिर तो
एक बड़ी अजीब
घटना घटी कि
वह धीरे-धीरे
रावण के साथ
इतना एकात्म
हो गया, कि
एक बार
रामलीला में
उसने उपद्रव
खड़ा कर दिया।
रामलीला शुरू
होती है, सब
राजे-महाराजे
स्वयंवर में
इकट्ठे हो गए
हैं खबर आती
है कि रावण की
लंका में आग
लगी है, उसे
जाना चाहिए।
वह चला जाए, तो राम धनुष
को तोड़ लें और
सीता से विवाह
हो जाए।
हर बार
वह चला जाता
था। थोड़ा होश
रहा होगा कि
यह अभिनय है।
लेकिन एक वर्ष
वह भूल ही गया
बिलकुल। उसने
खड़े होकर जोर
से कहा, कि
लगी रहने दो
आग। झपट कर
उठा लिया
धनुष-बाण। धनुष-बाण
कोई रामलीला
का धनुष-बाण
था, बांस
का बना था।
उसने तोड़कर
उसके चार
टुकड़े करके
जनता में फेंक
दिया और कहा
जनक से, निकाल
तेरी सीता। अब
की बार विवाह
करके ही जाएंगे।
उसको
बा-मुश्किल खींचत्तान
कर बाहर
निकाला गया, क्योंकि वह
मजबूत आदमी
था। और रात भर
वह चिल्लाता
रहा, कि
कहां है सीता!
जब मैंने
धनुष-बाण भी तोड़
दिया, तो
फिर मुझसे
विवाह क्यों
नहीं हो रहा
है? यह
अन्याय है।
कोई दो महीने
वह पागल रहा।
तादात्म्य
हो गया। रावण
का पार्ट अदा
करते-करते, करते-करते
वह यह भूल ही
गया कि वह
रावण नहीं है।
और ऐसा
बहुत बार हुआ
है। अमरीका
में एक आदमी लिंकन
का पार्ट करता
रहा। तो वह
ठीक लिंकन
जैसा चलने भी
लगा, क्योंकि
लिंकन थोड़ा-सा
लंगड़ाता
था--जरा-सा। तो
पार्ट करता था,
वह तो ठीक
था, मंच पर लंगड़ाता
था, वह भी
ठीक था, लेकिन
लंगड़ापन
उसमें
प्रविष्ट हो
गया। वह लंगड़ा
था नहीं। वह
रास्ते पर
चलता, तो
भी वह लंगड़ाता।
लिंकन थोड़ा
हकलाता था, जैसे नेहरू
थोड़े हकलाते
थे। मंच पर वह
हकलाता था वह
तो ठीक, लेकिन
साधारण
बातचीत में हकलाने
लगा!
तब घर
के लोगों को
चिंता पैदा
हुई। और फिर
तो ऐसा हुआ, कि वह लिंकन
के ही कपड़े
पहन कर आम
जिंदगी में भी
चलने लगा। वे
ही कपड़े, वही
छड़ी, वही
ढंग चलने का।
वह भूल ही गया
धीरे-धीरे कि
वह कौन है! घर
के लोग
समझा-समझा कर
परेशान हो गए।
मनोचिकित्सक
समझा-समझा कर
परेशान हो गए।
चिकित्सा हुई,
इलाज हुआ, लेकिन वह
अब्राहम
लिंकन ही बना
रहा।
गांव
में लोग कहने
लगे कि जब तक, जैसे
अब्राहम
लिंकन को गोली
लगी और वह मरा,
जब तक इसको
गोली न लगेगी,
यह मारने
वाला नहीं।
फिर एक
यंत्र का
आविष्कार हुआ, लाय-डिटेक्टर;
जिसमें
आदमी झूठ बोले
तो पकड़ में आ
जाता है। अदालतों
में
उपयोग
किया जाता है।
तो किसी ने
सुझाव दिया कि
लाय-डिटेक्टर
का उपयोग करके
देखा जाए, कि यह आदमी
क्या सच में
ही अपने को
लिंकन मानता
है? मशीन पर
आदमी खड़ा कर
दिया जाता है,
उससे पूछा
जाता है।
दो-चार, छः
सवाल पूछे
जाते हैं।
जैसे पूछा
जाता है, इस
समय तुम्हारी
घड़ी में कितना
बजा है? तो
वह अपनी घड़ी
देखता है, कहता
है, आठ बजे
हैं। अब इसमें
तो झूठ बोलने
का कोई कारण
नहीं है। पूछा
जाता है, दीवाल
का रंग कैसा
है? वह
कहता है, सफेद
है।
ऐसे
चार-पांच
प्रश्न पूछे
जाते हैं, जिनमें झूठ
बोलने का कोई
कारण ही नहीं
है। उसका हृदय
एक तरह से धड़कता
है। तुम भी
जानते हो, जब
तुम झूठ बोलते
हो, हृदय
पर एक चोट
लगती है।
क्योंकि भीतर
से तो तुम
जानते हो, जो
सही है। और
ऊपर से तुम
थोपते हो, जो
झूठ है। तुमसे
कोई पूछता है,
तुमने चोरी
की? भीतर
से तो उत्तर
आता है, "हां।"
हृदय तो कहता
है, "हां", क्योंकि
तुमने की है।
लेकिन ऊपर से
तुम कहते हो,
"नहीं"। तो
तुम्हारे
हृदय में एक
कशमकश होती है।
हां और ना का
एक संघर्ष हो
जाता है। क्षणभर
का एक संकट
खड़ा हो जाता
है। वह संकट
का क्षण लाय-डिटेक्टर
पकड़ लेता है
कि भीतर कोई
संकट खड़ा हुआ
है। तो जो
ग्राफ बनाता
है लाय-डिटेक्टर,
झूठ पकड़ने
वाला यंत्र, उस ग्राफ
में संकट पकड़
में आ जाता
है। पहले तो लकीरें
लयबद्ध चल रही
थीं। अब
लकीरों में एक
अचानक छलांग लग
जाती है। सब
गड़बड़ हो जाता
है, अस्त-व्यस्त
हो जाता है।
तो इस
आदमी को लाय-डिटेक्टर
फर खड़ा किया।
दस-पांच सवाल
पूछे, फिर
पूछा कि क्या
तुम अब्राहम
लिंकन हो? अब
तक उसने यह
बात कभी भी न
कही थी। अब तक
वह सदा कहता
था हां, और
कौन हूं? थक
चुका था, वह
अब इस उपद्रव
से। तो उसने लाय-डिटेक्टर
पर खड़ा होकर
कहा, कि
नहीं; मैं
अब्राहम
लिंकन नहीं
हूं।
लेकिन डिटेक्टर
ने बताया, कि यह आदमी
झूठ बोल रहा है!समझे आप
मतलब? उस
आदमी ने कहा, कि नहीं मैं
अब्राहम
लिंकन नहीं
हूं। लेकिन डिटेक्टर
ने बताया कि
यह आदमी है, यह झूठ बोल
रहा है। क्योंकि
उसके हृदय में
बात इतनी गहरी
उतर गई थी, कि
हृदय ने कहा, हो तो तुम
अब्राहम
लिंकन। अब
बचने के
लिए कह रहे हो, तो बात और।
इतना
तादात्म्य हो
गया। वह आदमी
अब्राहम
लिंकन की तरह
ही मरा। वह
भूल ही गया।
तुम्हें
पागलखानों
में बहुत इस
तरह के लोग
मिलेंगे, जिन्होंने
अपने को कुछ
समझ रखा है, मान रखा है।
वे उसी तरह
जीते हैं। वही
मान्यता उनका
जीवन हो गई
है।
लेकिन
पागलखाने को
छोड़ दो, विराट
जगत को विचार
करो, अपने
को विचार करो,
तो भी तुम
पाओगे तुमने
भी न मालूम
कितनी मान्यताएं
मान रखी हैं, जो तुम नहीं
हो। शरीर तुम
नहीं हो लेकिन
तुमने मान रखा
है कि तुम हो।
यह उतना ही झूठ
है, जितना
कि किसी
अभिनेता का
मान लेना, कि
वह अब्राहम
है। यह उतना
ही झूठा है, जितना कि
किसी अभिनेता
का मान लेना
कि वह रावण हो
गया। तुमने
अपने को जवान
मान रखा है, बूढ़ा मान
रखा है, सुंदर
मान रखा है, कुरूप मान रखा
है; ये
मान्यताएं
झूठ हैं। ये
संसार के बड़े
मंच पर खेला
जाता अभिनय
है।
कौन
सुंदर है? क्या है
सौंदर्य की
परिभाषा? अब
तक कोई कर
नहीं पाया
परिभाषा कि
सौंदर्य क्या
है? जितनी
जातियां हैं,
उतनी
परिभाषाएं
हैं। जितने
लोग हैं, उतनी
परिभाषाएं
हैं।
मान्यताएं
हैं तुम्हारी।
नाम तुम्हारे
मां-बाप ने
तुम्हें बचपन
में दे दिया, अब तुम उसको
मानकर बैठ गए
हो कि
तुम्हारा नाम है।
उस नाम में और
लिंकन के नाम
में और रावण
के नाम में
कोई बड़ा फर्क
है? तुम्हें
एक नाम दे
दिया है। नाम
तो कामचलाऊ है।
और तुमने उससे
तादात्म्य कर
लिया है कि
तुम वही हो।
अब अगर उस नाम
को लेकर कोई
गाली दे दे तो
जान लेने-देने
को तुम उतारू
हो जाते हो।
और नाम
में रखा क्या
है? मां-बाप
ने कुछ और नाम
दिया होता तो
तुम ऐसे ही निकल
जाते। यह आदमी
गाली देता
रहता विष्णुप्रसाद
को और
तुम्हारा नाम विष्णुप्रसाद
न होता; तुम्हारा
नाम अल्लाहबख्श
होता तो तुम
निकल जाते।
हालांकि मतलब
दोनों का एक
ही होता है। विष्णुप्रसाद
का भी मतलब
वही होता है, अल्लाहबख्श का भी मतलब
वही होता है।
मगर तुम निकल
जाते। तुमसे
कोई लेना-देना
नहीं था। किसी
हिंदू को गाली
दे रहा है।
तुम मुसलमान
हो। तुम्हारा
नाम अल्लाहबख्श
है।
तुम्हें
नाम तो कोई भी
दिया जा सकता
था, क्योंकि
नाम तुम हो
नहीं। अनाम
पैदा
होते हो, फिर नाम के
जाले में फंस
जाते हो। फिर
जिंदगी भर नाम
और नाम को ही
ढोते रहते हो।
उसी के लिए जीते
हो, उसी के
लिए मरते हो।
लोग समझाते
हैं, नाम
का खयाल रखो।
किस घर में
पैदा हुए हो, किस बाप के
बेटे हो। नाम
को बचाओ। नाम
की प्रतिष्ठा
है। नाम का
गुणगान है।
तो न
तो नाम तुम हो, न रूप तुम
हो। क्योंकि
रूप कितना
बदलता है! रोज
बदलता है। तुम
तो वही रहते
हो, तुम कब
बदले? जब
तुम बच्चे थे
तब भी
तुम्हारे
भीतर का तत्व वही
था, जो अब
है। कल जब तुम
बूढ़े हो जाओगे,
देह
जरा-जीर्ण
होगी, लोग
अरथी बनाने की
तैयारी करने
लगेंगे, तब
भी तुम तो
भीतर वही
रहोगे। मरते
क्षण में भी
तुम वही रहोगे,
जो तुम
जन्मते क्षण
में थे। रत्ती
भर भी भेद न पड़ेगा।
तो
तुम्हारा रूप
भी तुम नहीं
हो। न तो नाम
तुम हो, न
रूप तुम हो।
इसलिए हिंदू
कहते हैं, जो
नाम-रूप के
ऊपर उठ गया, वह ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाता है।
नाम-रूप से जिसका
तादात्म्य
छूट गया, वह
उसे जान लेता
है, जो वह
है।
"उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्यवरान्निबोधत"—
उठो, जागो, उसे पा लो, जो पाया ही
हुआ है।
जाग
जाओ, बस!नींद क्या है?
तादात्म्य
नींद है। वही
तंद्रा है।
सारा
धर्म इस एक
छोटे से शब्द
में समाया जा
सकता
है--तादात्म्य
का तोड़ देना।
तादात्म्य
का बनाना
संसार है।
तादात्म्य
का मिटा देना
मोक्ष है, मुक्ति है।
तादात्म्य
मन है और
तादात्म्य के
ऊपर उठ जाना, उन्मन
अवस्था
है--अमन; जिसको
झेन फकीर
"नो-माइंड"
कहते हैं।
उसको कबीर उन्मनी
अवस्था कहते
हैं।
यह
सूत्र उन्मनी
अवस्था का है।
इसे समझने की
कोशिश करो।
"अवधू
मेरा मन मतिवारा"दो
तरह की मादकताएं
हैं।
दो तरह
की शराबें
हैं।
एक तो
शराब है
तादात्म्य की, मूर्च्छा की,
बेहोशी की,
नींद की। एक
तो शराब है
तुम्हारे
विस्मरण की, जब तुम भूले
हुए हो। जब
तुम्हें अपनी
बिलकुल याद भी
नहीं है।
और एक
शराब है स्मरण
की; जब
तुम्हें अपनी
याद आती है और
अपने घर के
दर्शन होते
हैं, और
अपना
स्वरूप-बोध
होता है।
पहली
शराब शराबखानों
से मिल जाती
है। दूसरी
शराब अगर खोजनी
है, तो किसी शराबखाने
में न मिलेगी।
उसका
शराबखाना तो
सिर्फ परमात्मा
के हाथों में
है। अगर पहले
तरह की शराब
खोजनी है, तो
कोई भी साकी
पिला देगा।
दूसरे तरह की
शराब खोजनी हो,
तो
परमात्मा ही
साकी बनता है।
उमर खैयाम ने
अपनी रुबाइयात
में उसी दूसरी
तरह की शराब की
बात की है।
लेकिन फिट्जराल्ड
गलत समझा। और
फिर सारी
दुनिया गलत
समझी। और लोगों
ने समझा कि
उमर खैयाम
शराबखाने
की बात कर रहा
है, साकी की
बात कर रहा है,
नशे की बात
कर रहा है।
उमर खैयाम
सूफी फकीर है।
वह उसी कोटि
का आदमी है, जिस कोटि के
कबीर।
हां, अगर खैयाम
की और कबीर की
मुलाकात होती
तो वे
एक-दूसरे को
बिलकुल समझ
जाते।
रत्तीभर भी
अड़चन न होती।
बोलने की भी
जरूरत न पड़ती,
एक दूसरे को
देखकर समझ
जाते।
क्योंकि वह भी
दूसरी शराब है,
उसका नशा
आंख में देखा
जा सकता है।
जैसे
पहली शराब का
नशा देखा जा
सकता है। क्या
शराबी को रास्ते
पर देखकर
तुम्हें
पूछना पड़ता है
कि शराब पी है? उनकी चाल
बताती है, उनका
ढंग बताता है,
उनकी
दुर्गंध
बताती है। कुछ
पूछना नहीं
पड़ता।
हालांकि
शराबी छिपाता
है। तो भी कुछ
छिपा नहीं
पाता। हर कोई
जानता है, कि
वे जरा ज्यादा
पी गए हैं।
छिपाने की
कोशिश में भी
उनका
मतवालापन
जाहिर होता
है।
भीतर
की शराब को भी
कोई कभी नहीं
छिपा पाया। जब
बाहर की शराब
नहीं छिपती, तो भीतर की
क्या छिपेगी?
क्षणभंगुर
जो नशा है, वह
नहीं छिपता तो
शाश्वत का नशा
कैसे छिपेगा?
कबीर और उमर
खैयाम
अगर सामने
होते तो दोनों
हाथों में हाथ
डालकर नाचते। दोनों
पहचान लेते कि
दोनों ने एक
ही साकी से पी
है। दोनों एक
मधुशाला के
दीवाने हैं।
मंदिर भी
मधुशाला है।
उमर खैयाम
का बड़ा अदभुत
पद है :
"मंदिर
मसजिद लड़वाते
एक कराती
मधुशाला।"
तुम्हारे
मंदिर मसजिद
तो लड़वाते
हैं। ये मंदिर
मसजिद तो कोई
मंदिर मसजिद
नहीं हैं।
"एक
कराती
मधुशाला।"
लेकिन
अगर कभी तुम
असली मंदिर
में प्रवेश कर
गए तो वह
मधुशाला है।
मधुशाला में
तुमने किसी को
फिक्र करते
देखा है--कि
कोई पूछता है, कि जैन हो, तुम हिंदू
हो, कि
मुसलमान हो, कि? साधारण
मधुशाला में
भी कोई नहीं
पूछता। पीनेवाले
को क्या
फिक्र--कि
कुरान की पूजा
करता है, कि
गीता की? पीनेवाले सब एक हैं।
मधुशाला में
कोई हिसाब
नहीं; न
हिंदू का, न
मुसलमान का।
मधुशाला में
हिंदू-मुसलमान
का दंगा होता
ही नहीं।
तुम्हारे
मंदिर तो
साधारण
मधुशाला से
गए-बीते हैं।
वहां सिवाय
उपद्रव के कुछ
भी नहीं है। जमीन
तुड़वा दी
है उन्होंने।
लेकिन
अगर असली
मंदिर हो, तो ये मधुशालाएं
जो बाहर की
हैं, क्या जोड़ेंगी? जिसने भीतर
की शराब पी ली,
वह सबसे जुड़
गया। क्योंकि
वह अपने से
जुड़ गया। जो
अपने से जुड़
गया, वह
किसी से टूटा
नहीं रह जाता,
क्योंकि
तुम्हारे
भीतर ही तो वह
सुरंग है, जो
उस परमात्मा
की तरफ ले
जाती है।
तुम्हारे
भीतर ही तो वह
झरना है, जो
सबसे जुड़ा है।
अपने को जान
कर तुम अचानक
पाते हो कि
तुम तो खो गए।
बूंद
विसर्जित हो
गई, सागर
ही बचा।
एक
शराब है, जो
तुम अपने को
भुलाने के लिए
पीते हो। एक
और भी शराब है,
जो तभी
उपलब्ध होती
है, जब तुम
जाग जाते हो।
कबीर उसी शराब
की बात कर रहे
हैं। वे कहते
हैं--
"अवधू मेरा मन मतिवारा।"
मैं मतवाला हो
गया हूं।
"उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै,
त्रिभुवन
भया
उजियारा।" --कि
मैं नशे में
डूब गया हूं।
लेकिन इस नशे
में डूबने में
मजा यह है कि होश
बढ़ता है, घटता
नहीं। यह होश
का ही नशा है।
यह होश की ही
शराब है।
"उनमनि
चढ़ा. . ."
साधारण
आदमी जब नशे
में होता है
तो नीचे गिरता
है, चढ़ता नहीं। जीवनधारा
नीचे आती है।
जितना
तुम्हारा
तादात्म्य
होता है, उतने
तुम नीचे आते
हो।
और
तुमने कभी
खयाल किया कि
हर तादात्म्य
से नशा आता है? कभी देखो
किसी आदमी को,
जो पागल है
धन के पीछे।
तुम पाओगे कि
उसे शराब पीने
की जरूरत नहीं
है, धन
काफी शराब है।
उसकी आंखों
में एक दौड़
पाओगे तुम।
उसकी आंखों
में रुपए की
खनक पाओगे
तुम। उसकी
आंखों में
रुपए की धार
पाओगे तुम। वह
न सोएगा, न जागेगा।
वह चौबीस घंटे
धन और धन का
चिंतन और
स्मरण कर रहा
है। वह सब भूल
जाता है। न
परमात्मा की
फिक्र, न
पत्नी की, न
बच्चों की, न प्रेम की।
धन सब कुछ है।
वह धन के साथ
एक हो गया है।
अगर तुम उसका
धन छीन लो, तो
वह पाएगा कि
तुमने उसकी
आत्मा छीन ली।
अगर उसका धन
चला जाए, तो
वह आत्महत्या
कर लेगा। धन
ही सब कुछ था।
वही उसकी
आत्मा थी। वह
चली गई। अब
जीना किसलिए?
अब जीने का
सार क्या है, अर्थ क्या
है?
वह तो
था ही नहीं।
उसके प्राण तो
रुपयों में थे।
उसका
परमात्मा तो
वहीं छिपा था।
वही उसकी पूजा
थी, वही उसकी
अर्चना थी।
वही उसके जीवन
का सार निचोड़
था।
धन से जिसने
एकात्म कर
लिया, तुम
उसमें एक दौड़
पाओगे, एक
नशा पाओगे।
उसे शराब पीने
की जरूरत नहीं
है। वह
शराबियों की
निंदा करेगा।
वह अक्सर
शराब-बंदी के
पक्ष में
होगा।
क्योंकि वह एक
ऐसी शराब पीता
है, जिसको
तुम बंद कर ही
नहीं सकते।
राजनीतिज्ञ
है; पद की दौड़
में लगा है।
एक नशा है।
मोरारजी
देसाई हमेशा
शराब-बंदी के
पक्ष में हैं,
क्योंकि पद
की शराब पी
रहे हैं। वह
नशा बड़ा है।
छोटे-मोटे
शराबी, जो
मधुशाला में
बैठकर एकाध कुल्हड़ पी
लेते हैं उनके
लिए नाराज
हैं! लेकिन पद
की शराब बड़ी
पुरानी है। और
जितनी पुरानी
शराब हो, उतनी
गहरी होती है।
पद का
नशा बहुत बड़ा
है। पद के लिए
आदमी सब छोड़ने
को तैयार होता
है। पद
के लिए
सब कुर्बान
करने को तैयार
होता है। आमरण
अनशन भी करना
पड़े, तो भी
तैयार होता
है। पद की एक
दीवानगी है, एक पागलपन
है।
तो यह
बड़े मजे की
बात है कि जो
पद की दौड़ में
हैं, वे
कहेंगे, कि
बंद करो शराब।
शराब की क्या
जरूरत है? उनके
लिए काफी शराब
उनके पद के
नशे से मिल
रही है।
जो धन
की दौड़ में
हैं, वे भी
कहेंगे, बंद
करो। असल में
तुम शराबखाने
में उन्हीं
लोगों को
पाओगे, जिनको
न धन की दौड़ है,
न पद की दौड़
है, न
मोक्ष की दौड़
है; उन्हीं
को तुम पाओगे।
दौड़ने वालों
को तो शराबखाने
जाने की फुरसत
नहीं। वे अपनी
शराब अपने घर
में ही निचोड़ते
हैं। वे अपनी
शराब खुद ही
बनाते हैं। और
उसका नशा बड़ा
तेज है।शराबखानों
में तुम उन
लोगों को
पाओगे, जो
जीवन में
बिलकुल
दीन-हीन हैं।
जिनकी जीवन की
कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं। जो किसी
तरह अपने को
ढो रहे हैं।
वे दया के
योग्य हैं।
असली
खतरनाक लोग तो
वे हैं, जो
धन, पद, प्रतिष्ठा
के मोह में; धन, पद
प्रतिष्ठा की
शराब में डूबे
हुए हैं। ये
खतरनाक लोग
हैं। हिटलर
शराब नहीं
पीता था। पीने
की जरूरत नहीं
है। हिटलर
इतनी बड़ी शराब
पी रहा था
जितनी दुनिया
में कभी कोई
दो-चार लोग ही
पी सके हैं--कभी
कोई सिकंदर, कोई
नेपोलियन।
हिटलर को शराब
पीने की जरूरत
न थी। क्या
जरूरत? इतने
नशे में डूबा
था वह। उसके
पैर जमीन पर न
पड़ रहे थे।
तुम्हारी
साधारण शराब
की जरूरत न रही
उसे। उसने बड़ी
असाधारण शराब
पी ली है।
एक बात
ख्याल रखो : कि
शराब का अर्थ
होता है, जिससे
तुम अपने को
भूल जाओ। वह
शराब बोतलों
में बंद हो
सकती है। वह
शराब
शास्त्रों
में बंद हो
सकती है। वह
शराब मंदिर के
विधि-विधान
में बंद हो
सकती है। वह
शराब
राजधानियों
में हो सकती
है। वह शराब तिजोड़ियों
में, बैंक
में जमा हो
सकती है। इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
जिस
चीज से भी तुम
अपने को भूल
जाते हो, जिसमें
तुम इतने लग
जाते हो, कि
तुम्हें याद
ही नहीं रहती,
कि अपने को
भी पाना है और
जागना है। जो
भी तुम्हें
अपने से दूर
ले जाती है, वह शराब है।
यह बाहर की
शराब है।
एक और
शराब है, जो
तुम्हें अपने
पास ले आती
है। कबीर उसी
शराब की बात
कर रहे हैं।
वे उसी शराब
को बनाने का
रास्ता बता
रहे हैं।
"अवधू
मेरा मन मतिवारा,
उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै"
और
बाहर की शराब
का लक्षण है, कि वह
तुम्हें नीचे
उतारती है। और
भीतर की शराब
का लक्षण है
कि वह तुम्हें
ऊपर ले जाती
है। भीतर की
शराब सीढ़ियां
हैं परमात्मा
की तरफ।
जैसे-जैसे होश
बढ़ता है, वैसे-वैसे
तुम ऊपर उठते
हो। जैसे-जैसे
होश कम होता
है, वैसे-वैसे
तुम नीचे
गिरते हो। जब
होश बिलकुल नहीं
रह जाता, तब
तुम पत्थर
जैसे निर्जीव
हो। और जब होश
परिपूर्ण हो
जाता है, तब
तुम परमात्मा
जैसे परम
चैतन्य हो, सच्चिदानंद
हो।
"उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै"
और अब
मैं चढ़ गया
हूं उन्मन
में। वहां
पहुंच गया हूं, जहां मन
नहीं है। वहां
चढ़ गया, जहां
मन नहीं।
तुम्हारे
भीतर वह जगह
है, जहां मन
नहीं है। और
वहीं तुम हो।
जहां तक मन है,
वहां तक
संसार है।
जहां तक मन है,
वहां तक
बाहर-बाहर।
जहां मन
समाप्त होता
है, वहीं
भीतर की
शुरुआत है।
वहीं से
अंतर्यात्रा
शुरू होती है।
मन
यानी बाहर, उन्मन यानी
भीतर।
थोड़ा
सोचो, जब तक
तुम्हारे मन
में विचार
चलता है, तब
तक तुम बाहर
ही रहोगे।
क्योंकि सब
विचार बाहर के
हैं। भीतर का
कोई विचार ही
नहीं होता।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हम ध्यान
करते हैं, हम
आत्मा का
विचार करते
हैं। मैं उनसे
कहता हूं, आत्मा
का विचार कैसे
करोगे? आत्मा
का अनुभव होता
है; विचार
कैसे करोगे? अगर विचार
करोगे तो उसका
आत्मा से कोई
संबंध ही न
रहा। शास्त्र
में पढ़ लिया
होगा
सिद्धांत, कि
आत्मा क्या
है। फिर उसका
तुम विचार कर
सकते हो। वह
तो बाहर की
बात हो गई।
शास्त्र बाहर
है, सत्य
भीतर है।
आत्मा
का तुम विचार
कैसे करोगे? परमात्मा का
विचार कैसे
करोगे? ये
कोई विचार की
बातें हैं! जब
तुम
निर्विचार हो
जाते हो तभी
तुम्हारा जोड़
बनता है। तभी सांधा बैठ
जाता है।
"उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै.
. .।"
और
जैसे-जैसे तुम
ऊपर चढ़ते
हो, वैसे-वैसे
गगन का रस
बरसता है।
जैसे-जैसे तुम
नीचे जाते हो,
वैसे जीवन
के साधारण रस,
गगन का रस
नहीं--शरीर के
रस, इंद्रियों
के रस, पदार्थ
का रस--भोजन का,
भोग का--बड़े
क्षुद्र, निम्न,
साधारण।
जिनको
तुम भी सोचोगे
तो पछताओगे।
तुम पछताए
हो। ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जो संभोग के
बाद न पछताता
हो। ऐसी
स्त्री खोजनी
मुश्किल है, जो संभोग के
बाद एक ग्लानि
से न भर जाती
हो और मन में
एक निर्णय न
उठता हो, कि
बस, बहुत हुआ।
अब काफी। फिर
भूल होती है
वह बात दूसरी;
लेकिन
पछतावा तो
होता ही है।
फिर चौबीस
घंटे में, अड़तालीस
घंटे में भूल
जाती है बात।
तुम्हें अपनी
याद ही नहीं
है। तुम कैसे
स्मरण रखोगे
कि पछताए
थे? वह भी
भूल जाता है।
क्रोध
में भी एक तरह
का रस तो है।
नहीं तो लोग क्रोध
क्यों करें? कुछ न कुछ
मिलता ही
होगा। कुछ मजा
आता ही होगा; यद्यपि मजा
जहर से जुड़ा
है। चाहे बूंद
भर मजा हो और
सागर भर जहर
हो, लेकिन
मजा कुछ मिलता
ही होगा तभी
तो लोग जहर को
भी पीने को
तैयार होते
हैं। क्रोध
में जलने को
राजी होते
हैं। पछताते
हैं पीछे, लेकिन
क्रोध के क्षण
में फिर भूल
जाते हैं।
कुछ रस
होगा। वह रस
है अहंकार का
रस। जब तुम क्रोध
से भरे हो, तब तुम
दूसरे को नीचा
दिखाने की
कोशिश कर रहे हो,
अपने को ऊपर
दिखाने की
कोशिश कर रहे
हो।
इसलिए
अहंकारी कभी
क्रोध से
मुक्त नहीं हो
सकता। सिर्फ
निरहंकारी ही
मुक्त हो सकता
है। सिर्फ वही
मुक्त हो सकता
है, जिसने
अपने को पीछे
ही खड़ा कर
लिया है। जो
सबसे पीछे खड़ा
हो गया
हो।
जिसने अपने को
महत्त्वाकांक्षा
से शून्य कर
लिया, फिर
उसे कोई क्रोध
नहीं होगा।
उसे कोई क्रोध
पैदा नहीं
करवा सकता।
अहंकारी
तो जलेगा; क्रोध से
जलता ही रहेगा।
पछताएगा, क्योंकि
जब भी क्रोध
करेगा, तभी
अपना भी हाथ
जलेगा। दूसरे
का जले न जले, अपना तो जल
ही जाता है।
घाव छूट जाते
हैं।
नीचे
के रस हैं; मिश्रित हैं,
उनमें दुख
जुड़ा है।
संसार में सुख
है। नहीं है, ऐसा मैं न
कहूंगा। नहीं
तो इतने लोग
भटकते कैसे? इतने लोग गवाह
हैं।
अरबों-खरबों
लोग गवाह हैं
कि संसार में
रस है। हां, रस बहुत
विरस से जुड़ा
है। एक बूंद
है अमृत की, लेकिन पूरी
प्याली जहर की
है। जब तुम
देखते हो, तो
अमृत की बूंद
दिखाई पड़ती
है। जब तुम
पीते हो, तो
जहर रग-रग
रोएं-रोएं में
फैल जाता है।
तब तुम पछताते
हो, कसम
लेते हो, व्रत
लेते हो छोड़
देने का, लेकिन
ऐसे कभी कुछ
छूटा नहीं है।
तुम अगर नीचे
की तरफ रहोगे
बहते, मूर्च्छा
की तरफ, कुछ
भी छूट न
सकेगा।
तुम
अगर ऊपर की
तरफ जाओगे तो
एक दूसरे ही
महारस का
आविर्भाव
होता है। उसको
कबीर कह रहे
हैं, गगन-रस।
तब आकाश से
कुछ चूना शुरू
होता है।
नीचे
के जो रस हैं
उनका केंद्र
है कामवासना।
ऊपर के
जो रस हैं, उनका केंद्र
है सहस्रार।
ये दो
केंद्र खयाल
में रखने
जरूरी हैं।
मूलाधार--वह
नीचे के रसों
का स्रोत है।
क्रोध भी वहीं
से पैदा होता
है, काम-वासना
से। काम भी
वहीं से पैदा
होता है, लोभ
भी वहीं से
पैदा होता है।
ईष्या, द्वेष,
घृणा, मोह
सब वहीं से
पैदा होते
हैं। वे सब
काम के ही भिन्न-भिन्न
रूप हैं। और
जब तक तुम
वहां जीते हो,
वह निम्नतम
अवस्था है
चेतना की।
उससे नीचे चेतना
बिलकुल खो
जाती है।
ऊपर का, गगन का रस
अगर पीना हो, तो सहस्रार।
वह आखिरी केंद्र
है तुम्हारा।
सात चक्र
हैं; पहला है
मूलाधार, अंतिम
सहस्रार। इसे
सहस्रार कहा
है, क्योंकि
यह सहस्त्र कमलदल
जैसा है। जैसे
कोई कमल का
फूल खिले
जिसमें सहस्त्र
पंखुड़ियां
हों, हजार-हजार
पंखुड़ियां
हों। यह
अपूर्व अनुभव
है आनंद
का। जैसे
तुम्हारी
पूरी जीवन-चेतना
कमल बन जाती
है। तुम खिलते
हो और
तुम्हारे कमल
पर गगन बरसता
है।
लेकिन
इसके लिए
जरूरी है कि
तुम सीढ़ियां
चढ़ो। मन
से उन्मन की
तरफ जाओ। मन
मूलाधार से
बंधा है।
जैसे-जैसे ऊपर
बढ़ोगे, मन कम होने
लगेगा, उन्मन
ज्यादा होने
लगेगा।
हृदय
बिलकुल मध्य
में है। तो
हृदय में मन
करीब-करीब आधा
रह जाता है और
आधा उन्मन हो
जाता है।
इसलिए तो
निरंतर
ज्ञानी कहते
हैं कि अगर
चुनना हो, और मन और
हृदय के बीच
ही चुनना हो, तो हृदय को
चुनना।
क्योंकि हृदय
में कम से कम मध्य
में खड़े हो
सीढ़ी पर। वहां
से ऊपर की
यात्रा भी
खुलती है।
जैसे-जैसे
ऊपर बढ़ते हो
वैसे-वैसे
उन्मन होते
जाते हो। मन
खोता जाता है, विचार खोते
जाते हैं। मन
यानी विचार की
प्रक्रिया।
वह बंद होती
जाती है।
निर्विचार का
जन्म होने
लगता है।
अंतराल आने
लगते हैं।
क्षण भरको
ऐसा लगता है
कोई विचार
नहीं है भीतर
में। और जब
विचार नहीं
होते, तभी
एक छलांग में
चेतना
सहस्रदल कमल
वाले उस
केंद्र पर
पहुंच जाती
है। एक छलांग
में उत्तुंग
शिखर को छू
लेती है।
उसी
क्षण में
तुमसे और गगन
का संबंध जुड़
जाता है।
मूलाधार से
तुम पृथ्वी से
जुड़े हो, सहस्रार
से तुम गगन से
जुड़ते हो।
मनुष्य
एक सीढ़ी है, जिसका एक
पाया नीचे जमीन
से टिका है और
दूसरा पाया
ऊपर आकाश से
टिका है।
"उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै
त्रिभुवन भया
उजियारा।"
और जब
तुम उस गगन के
रस को पीते हो, तभी अंधकार
खो जाता है।
तीनों लोकों
में प्रकाश हो
जाता है। यह
प्रकाश
तुम्हारे भीतर
से आता है। यह
ज्योति
तुम्हारे
भीतर होती है।
यह प्रकाश
बाहर का नहीं
है। यह बाती
और तेल का
प्रकाश नहीं।
यह सूरज का
प्रकाश भी
नहीं है।
क्योंकि वह भी
बाती और तेल
का ही है। कभी
चुक जाएगा।
वैज्ञानिक
कहते हैं, चार
हजार साल में
सूरज चुक
जाएगा। उसका
तेल चुकता जा
रहा है। चार
हजार साल में
बुझ जाएगा। करोड़ों
वर्ष चलता है,
लेकिन फिर
भी सीमा है।
जिस दिन
तुम्हारे
सहस्रार पर
गगन का मिलन
होता है, अनंत
की वर्षा होती
है, मेघ
घिरते हैं
परमात्मा के
तुम्हारे ऊपर,
उस दिन
तुम्हारे
भीतर एक
प्रकाश का
अनुभव होता है,
जिसकी न तो
कोई शुरुआत है,
और न कोई
अंत। जो
शाश्वत है, अनादि अनंत
है, जिसका
कोई जन्म और
मृत्यु नहीं।
तभी
तीनों लोक
तुम्हारे लिए
प्रकाशित हो
जाते हैं।
"उनमनि
चढ़ा गगन-रस पीवै
त्रिभुवन भया
उजियारा।
गुड़
करि ग्यान. . ."
अब यह
भीतर की शराब
बनाने का
शास्त्र।
"गुड़
करि ग्यान
ध्यान करि
महुआ, भव
भाठी करि
मारा।"
ज्ञान
को गुड़ बना
लिया--मिठास।
ध्यान को महुआ
बना लिया--शराब
का असली
स्रोत।
ध्यान
रखना, ज्ञान
को कोई महुआ
नहीं बना
सकता। और जो
बनाने की
कोशिश करता है
वही पंडित है
और ऐसे ही मर
जाता है। गुड़
खाकर कहीं नशा
चढ़ा है? हां,
गुड़ की भी
उपयोगिता हो
सकती है। अगर
नशा तैयार हो,
तो थोड़ी सी
मिठास डाल
देना उपयोगी
होगी। गुड़ का
थोड़ा उपयोग हो
सकता है। गुड़
ना हो, तो
भी चल जाएगा। महुए में
भी अपनी मिठास
है, लेकिन
शायद शराब
थोड़ी तिक्त और
कड़वी
होगी। थोड़ा
गुड़ मिलाना
अच्छा हो
जाएगा।
तो
ज्ञान अगर
थोड़ा पास
हो--लेकिन
उसकी उपयोगिता
द्वितीय है, प्रथम नहीं
है। महुआ पास
न हो तो गुड़
कितना ही हो, क्या करोगे?
उससे तुम
नशे को उपलब्ध
न हो जाओगे।
ध्यान
है महुआ।
ज्ञान के बिना
भी चल सकता है, लेकिन ध्यान
के बिना नहीं
चल सकता। हां,
अगर ध्यान
का महुआ पास
हो और थोड़े
ज्ञान का गुड़
भी पास हो, तो
सोने में
सुगंध आ जाती है।
ऐसे सोना बिना
सुगंध के भी
काफी अच्छा है,
चल सकता
है।
लेकिन सोने
में सुगंध आ
जाती है।
ज्ञान
का इतना ही
उपयोग है कि
वह ध्यान में
सहयोगी हो
जाए। अगर
ज्ञान, ध्यान
में बाधा बनता
हो, तब तो
वह ज्ञान ही
नहीं। वह तो
अज्ञान से
बदतर है। अगर
ज्ञान, ध्यान
में सहयोगी बन
जाता हो तो वह
मिठास है। वह महुए में
थोड़ी मिठास ला
देगा। शराब
थोड़ी मीठी हो
जाएगी, सुस्वादु
हो जाएगी।
मैं
तुमसे बोल रहा
हूं। चाहो, तो तुम इन
शब्दों को
इकट्ठा करके
सिर्फ गुड़ इकट्ठा
कर ले सकते
हो। तब तुम
पंडित हो
जाओगे। लेकिन
अगर साथ-साथ
तुमने ध्यान
के महुए
भी इकट्ठे किए,
तो जो मैं
तुमसे बोल रहा
हूं--जब
तुम्हारी शराब
तैयार होगी, तो तुमसे जो
जो मैंने कहा
है, उसकी
मिठास तुम
उसमें मिला दे
सकोगे।
सुस्वादु हो जाएगी।
"गुड़
करि ग्यान
ध्यान करि
महुआ, भव
भाठी करि
मारा।" और
सारे जीवन को
भट्टी बना दी।
सारे जीवन को
यज्ञ बना
दिया। सारे
जीवन की
तपश्चर्या को
ताप बना दिया,
अग्नि बना
दिया। सारे
जीवन के अनुभव
को भट्टी बना
दिया।
इसलिए
तुमसे कहता
हूं, बिना
अनुभव के तुम
कहीं भी पहुंच
न सकोगे। युवक
आते हैं मेरे
पास। वे कहते
हैं, हम
क्या करें? विवाह करें,
न करें? उनसे
कहता हूं, करो।
नहीं तो
तुम्हारे
जीवन में
अनुभव न होगा।
जाओ, भटको थोड़ा।
भटकाव का भी
प्रयोजन है।
भूल की भी सार्थकता
है।
नहीं
तो महुआ भी
पास होगा, गुड़ भी पास
होगा, और
जीवन के अनुभव
की भट्टी ही न
होगी तो महुआ
खा लेने से
नशा न आएगा।
जीवन की भट्टी
से गुजरना
जरूरी है।
कच्चे-कच्चे
कभी कोई
परमात्मा को
उपलब्ध नहीं
हुआ है, पकना
अत्यंत
आवश्यक है। यह
पृथ्वी
इसीलिए है कि
तुम पको।
यह जीवन का
इतना फैलाव
इसीलिए है कि
तुम अनुभव से गुजरो, परिपक्व
बनो! एक मेच्योरिटी,
एक प्रौढ़ता
तुम्हारे
जीवन में आ
जाए।
जीवन
से बिना गुजरे
कैसे तुम
प्रौढ़ बनोगे? इसलिए अक्सर
यह होता है, कि जिन
लोगों ने जीवन
को बहुविध
रूपों में देखा
है, बुरे
और भले सब
रूपों में
देखा है, उनके
जीवन में एक
परिपक्वता
होती है; जो
कि उन लोगों
के जीवन में
नहीं होती, जिन्होंने
जीवन के सब
रूप नहीं
देखे।
अगर
कोई व्यक्ति
सज्जन रहकर ही
संत हो गया, तो उस संत
में तुम कुछ
कमी पाओगे। वह
थोड़ा सा बेस्वाद
होगा। उसमें
तुम पाओगे कि
जीवन की गरिमा,
प्रगाढ़ता,
गहराई नहीं
है। वह थोड़ा
उथला-उथला
होगा।
अगर
किसी व्यक्ति
ने जीवन का वह
रूप भी देखा, जो शुभ है वह
रूप भी देखा, जो अशुभ है; जिसने शैतान
से भी मुलाकात
की; और जो नरको से भी
गुजरा और
स्वर्गों से
भी; जिसने
अंधेरी रातें
भी देखीं और प्रकाशोज्वल
दिन भी देखे; जिसने पतझड़
भी देखा और
वसंत भी; जो
रोया भी और
हंसा भी; जो
गिरा भी और
उठा भी, उस
आदमी के जीवन
में एक गहराई
होती है। उस
आदमी के जीवन
में एक गहनता
होती है; एक
त्वरा और
तीव्रता होती
है। ऐसा
व्यक्ति जब संतत्व
को उपलब्ध
होता है तो वह
परिपूर्ण पका हुआ
फल है। कच्चे
फल थोड़े ही चढ़ाए
जाते हैं पूजा
में--पके हुए
फल! पक जाना
सबसे महत्वपूर्ण
है।
और
कबीर कहते हैं, "भव भाठी करि
मारा।"
और
जीवन के सारे
अनुभवों को
भट्टी बना
दिया, अग्नि
बना दिया। और
उस अग्नि में
डाल दिया ध्यान
का महुआ। और
ध्यान के महुए
में डाल दिया
ज्ञान का गुड़।
"सुखमन
नारी सहज समानी
पीवै
पीवन हारा।"
अब यह
जरा बहुत
सूक्ष्म बात
है—
"सुखमन
नारी सहज समानी.
. ."
पश्चिम
में कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने इस सदी में एक
बहुत
महत्वपूर्ण
खोज की। और वह
खोज यह थी कि
हर पुरुष के
भीतर एक
स्त्री छिपी
है और हर
स्त्री के
भीतर एक पुरुष
छिपा है। कोई
स्त्री सिर्फ
स्त्री नहीं
है कोई पुरुष
सिर्फ पुरुष
नहीं है।
यह ठीक
भी है। होना
भी ऐसा ही
चाहिए।
क्योंकि प्रत्येक
बच्चा
मां-बाप--दो से
पैदा हुआ है।
और
दोनों उसके
भीतर होंगे।
जब बच्चा पैदा
होता है तो
कुछ पिता है
उसमें, कुछ
मां। दोनों
संयुक्त हैं।
दो धाराएं बह
रही हैं
उसमें। गंगा
जमुना उसमें
मिली हैं। अगर
तुम गौर से
देखो, तो
तुम
गंगा-जमुना की
धाराओं को अलग
देख सकते हो
प्रयाग में।
अगर
किसी व्यक्ति
की जीवन-चेतना
में तुम गौर
से देखने की
कला समझ जाओ, तो तुम देख
सकते हो कि
पिता और
मां--कैसे
अलग-अलग रंगों
की दो धाराएं
बह रही हैं।
स्त्री है उसके
भीतर, पुरुष
है उसके भीतर।
और वह जो भीतर
छिपी स्त्री
हैं पुरुष के
भीतर, वही
तो पुरुष का
आकर्षण है
बाहर की स्त्री
में। भीतर का
तो उसे पता
नहीं है। एक
पुकार है, एक
प्यास है, एक
तड़फन है।
और भीतर का
उसे पता नहीं
है, भीतर
जाने का भी
उसे कुछ पता
नहीं है, भीतर
जैसी कोई चीज
है, इसका
भी उसे पता
नहीं है। वह
अपने घर के
पोर्च के ही
पास खड़ा जी
रहा है। उसे
घर भीतर क्या
है, उसका
पता भी नहीं
है। द्वार
इतने दिन से
बंद हैं, कि
दीवाल जैसा
लगता है।
पोर्च को ही
घर समझ लिया।
वहीं जीता है।
और नजर
उसकी सड़क पर
लगी है।
क्योंकि आंख
बाहर ही देख
रही है। भीतर
देखने को
तुम्हें कुछ
अंदाज ही नहीं
है। वह भीतर
देखना ही तो
ध्यान है। वह
महुआ तुम्हें
अभी मिला
नहीं।
तो
भीतर एक नारी
है पुरुष के; वही आकर्षण
है बाहर की
नारी में। और
भीतर एक पुरुष
है नारी में, वही आकर्षण
है बाहर के
पुरुष में।
इसलिए बड़ी अड़चन
भी है। आकर्षण
भी; अड़चन
भी, उपद्रव
भी।
क्योंकि
जब तक तुम्हें
तुम्हारी
भीतर की नारी
जैसी नारी
बाहर न मिल
जाए, तब तक
तृप्ति न
होगी।
क्योंकि उसे
तुम खोज रहे
हो।
और यह
असंभव है।
करीब-करीब
असंभव है। अगर
कुछ प्रतिशत
भी बाहर की
नारी मिल जाए
तो भी तृप्ति
मालूम होगी, लेकिन पूरा
मिल जाना तो
असंभव है।
इसीलिए सुंदरतम
जोड़े भी, पूर्णतम
जोड़े भी
अपूर्ण रह
जाते हैं। कुछ
कमी रह जाती
है।
जिसकी
खोज है, वह
भीतर छिपी है।
उसे तुम बाहर
खोज रहे हो।
थोड़ा-बहुत
तालमेल बैठ
जाए तो काफी
है। इसलिए सौ में
निन्यानबे
विवाह असफल
होते हैं। वे
सफल हो ही
नहीं सकते।
उनकी बुनियाद
में ही सफलता
संभव नहीं है।
कैसे खोजोगे उस
नारी को?
तुम एक
प्रतिमा लिए
हो भीतर, उसकी
ही तलाश है।
किसी स्त्री
में वह झलक
मिल जाती है
किसी दिन; तुम
प्रेम में पड़
जाते हो।
जिसको तुम
प्रेम में पड़ना
कहते हो वह
कुछ और नहीं
है, तुम्हारी
भीतर की नारी
की झलक तुमने
किसी स्त्री
में देख ली
है। कोई
स्त्री
तुम्हारे लिए
दर्पण बन गई
और तुमने अपनी
भीतर की नारी
का थोड़ा सा
प्रतिबिंब उसमें
पा लिया, थोड़ी
छवि पकड़ ली।
तुम प्रेम में
पड़ गए।
अब तुम
पागल हो गए कि
जब तक यह
स्त्री नहीं
मिलेगी, शांति
नहीं। यह
तुम्हें मिल
भी जाएगी; लेकिन
थोड़े ही दिन
शांति और सुख
रहेगा। क्योंकि
जैसे-जैसे तुम
इसे ज्यादा पहचानोगे,
वैसे-वैसे
पाओगे, तुम्हारी
भीतर की नारी
से मेल खाता
नहीं। फर्क
है। रोज-रोज
फर्क बड़ा होता
जाएगा। जैसी
पहचान बढ़ेगी,
वैसे-वैसे
फर्क बड़ा होता
जाएगा। दूर से
लगता था जो, वह पास से
आकर ठीक नहीं
पाया जाएगा।
जितनी निकटता
होगी, उतनी
दूरी बढ़ जाएगी
और इसलिए स्त्री
और पुरुष के
संबंध बड़े ही
दुखद
हैं--होंगे ही।
कामचलाऊ हो
सकते हैं।
तंत्र
की यह बड़ी
पुरानी खोज
है। जुंग ने
तो इस सदी में
पश्चिम में यह
कहा; लेकिन
तंत्र की यह
सदियों
पुरानी खोज है;
हजारों
वर्ष पुरानी
खोज है। हमने
शिव की मूर्ति
बनाई है
अर्धनारीश्वर।
आधे शिव पुरुष
हैं और आधे
स्त्री हैं।
वह हमारी खोज है।
उस मूर्ति में
हमने कह दिया
मनुष्य का यह सत्य।
और जब
तक तुम्हारे
भीतर की नारी
तुम्हारे भीतर
के पुरुष से
मिल न जाए, आलिंगनबद्ध
न हो जाए--उसको
तंत्र कहता है,
"युगनद्ध"; जब तुम
अपने भीतर
अपने द्वैत को
मिला न लो, भीतर
संभोग घटित न
हो जाए, तब
तक तुम अतृप्त
रहोगे।
"गुड़
करि ज्ञान
ध्यान करी
महुआ, भव
भाठी करि
मारा।
सुखमन
नारी सहज समानी.
. ."
और इस
आनंद की दशा
में भीतर की
जो नारी है, वह सहज ही
भीतर के पुरुष
में समा जाती
है। वे दोनों
एक हो जाते
हैं।
अर्धनारीश्वर
पैदा हो जाता
है।
"पीवै
पीवन हारा". . .
और अब
सिवाय पीने के
कुछ भी नहीं
बचा : संसार
में प्यास ही
प्यास है, परमात्मा
में पीना ही
पीना। संसार
में अतृप्ति
ही अतृप्ति है,
परमात्मा
में तृप्ति ही
तृप्ति। संसार
में सवाल ही
सवाल हैं, परमात्मा
में समाधान ही
समाधान।
"सुखमन
नारी सहज समानी, पीवै पीवन हारा।"
यह
घटना कब घटती
है?
यह
सहस्रार में
घटती है।
मूलाधार में
तो तुम बाहर
की नारी को खोजोगे, या बाहर के
पुरुष को खोजोगे
और भटकोगे।
वही तो संसार
है। बाहर की
नारी की खोज, बाहर के
पुरुष की खोज
संसार है।
जैसे-जैसे
ऊर्जा ऊपर
चलेगी, वैसे-वैसे
तुम्हारा
परिचय होगा, भीतर ही
छिपी है
तुम्हारी
प्रेयसी।
भीतर ही छुपा
है तुम्हारा
प्रियतम। वह
जो मीरा ने
सेज सजाई है, वह बाहर के
प्रियतम के
लिए नहीं। वे
जो फूल बिछाए
हैं, बाहर
के प्रियतम के
लिए नहीं। वह
भीतर के प्रियतम
के लिए तैयारी
है। वह भीतर
के पुरुष से
मिलन हो रहा
है।
सहस्रार--जैसे-जैसे
ऊर्जा, भान,
बोध ऊपर
जाता है
वैसे-वैसे
भीतर के द्वैत
में दूरी कम
होती जाती है।
एक घड़ी आती है,
अनायास एक
दिन तुम पाते
हो--"सुखमन
नारी सहज समानी।"
तुम्हें कुछ
करना नहीं
होता; सिर्फ
जागते जाना
है। सहज समाना
हो जाता है।
"पीवै
पीवन हारा"—
फिर तो
पीना ही पीना
बचा। फिर तो
परमात्मा का साकी
ढाले
जाता है और
तुम पीए जाओ।
और भीतर की
मधुशाला न तो
कभी बंद होती, और भीतर की
मधुशाला न कभी
चुकती। वह
शाश्वत और
सनातन है।
दोउ पुड़ि जोड़ि
चिंगाई
भाठी, चुया महारस
भारी।
"दोउ पुड़ जोड़ि
चिंगाई
भाठी". . .
वे जो
दो पुड़
हैं
तुम्हारे--स्त्री
और पुरुष के
भीतर; वह जो
द्वैत है
तुम्हारे
भीतर, जो डुआलिटी
है, जो दुई
है-- दोउ पुड़
जोड़ि चिंगाई
भाठी; उन
दोनों के मिल
जाने से प्रबल
अग्नि जलती
है। तुम्हारे
भीतर की भट्टी
परिपूर्ण रूप
से जलती है।
फिर उस अग्नि
के लिए किसी
ईंधन की जरूरत
नहीं।
अब यह
थोड़ा, बड़ा
बारीक है
मामला।
विज्ञान कहता
है कि अगर हम
अणु को तोड़ें,
तो महाअग्नि
पैदा होती है।
अणु का
विस्फोट वही
है। हिरोशिमा,
नागासाकी
उसी में जले।
कि अणु को अगर
हम तोड़ दें, दो कर दें, तो महाअग्नि
प्रकट होती
है। यह विज्ञान
की खोज है।
और योग
और तंत्र की
खोज यह है कि
अगर हम दो को
जोड़ दें तो भी महाअग्नि
पैदा होती है।
दो को तोड़ें, एक को तोड़कर
दो कर दें तो महाअग्नि
पैदा होती है;
यह बाहर की
घटना है। और
भीतर जहां दो
हैं, उनको
अगर हम एक कर
दें, तो महाअग्नि
पैदा होती है।
वह भीतर की
घटना है।
और
भीतर और बाहर
के नियम
विपरीत हैं।
बाहर तोड़ने से
अग्नि पैदा
होती है। भीतर
जोड़ने से
अग्नि पैदा
होती है। बाहर
का विज्ञान
विश्लेषण है, भीतर का
विज्ञान
संश्लेषण है।
इसलिए
हमने उसको योग
नाम दिया है।
योग का अर्थ
है
जोड़ना-जोड़ना-- जोड़ते
जाना। उस समय
तक जोड़ते
जाना, जब तक
कि एक ही न बच
जाए।
"दोउ पुड़ि जोड़ि
चिंगाई
भाठी, चुया महारस
भारी।"
और
महारस बरसने लगा।काम
क्रोध दोइ
किया बलीता"—
काम, क्रोध दोनों
पलीते बन
गए अग्नि को
जलाने में।"
. . . छूटि
गई संसारी।"
जब उस
मधुशाला में
प्रवेश होता
है, तभी
संसार छूटता
है। क्योंकि
जब तक
परमात्मा की
शराब न मिल
जाए, तब तक
तुम्हें किसी
न किसी तरह की
शराब संसार में
मांगनी ही
पड़ेगी; अन्यथा
जीयोगे
कैसे?
कुछ तो
सहारा चाहिए, कुछ तो सुख
चाहिए।
बूंद-बूंद ही
सही। सागर न मिले
तो बूंद-बूंद
मिले। कुछ तो
सहारा, कुछ
तो आशा चाहिए।
तो तुम संसार
में भटकोगे।
लेकिन
जैसे ही "चुया
महारस भारी, छूटि गई संसारी।"
फिर
संसार गया।
इसलिए कबीर
जैसे ज्ञानी
तुमसे संसार
छोड़ने को नहीं
कहते। वे कहते
हैं, महारस को
बरसा लो, संसार
छूट ही जाएगा।
सिर्फ
अज्ञानी
तुमसे कहते
हैं, संसार
छोड़ दो।
ज्ञानी तुमसे
कहते हैं, संसार
छोड़कर तुम
जाओगे कहां? तुम जहां
जाओगे वहीं
संसार बना
लोगे। तुम अज्ञानी
हो। अभी छोड़कर
जाने की कोई
भी जरूरत नहीं।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे मुझसे
पूछते हैं, हम सब छोड़
दें? हम
हिमालय चले
जाएं?
हिमालय
तुम क्या
करोगे? हिमालय
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
है? तुम हिमालय
के पीछे क्यों
पड़े हो? तुम
जाओगे
हिमालय--तुम
ही जाओगे न? तो तुम जो
यहां कर रहे
हो, वही
हिमालय में
करोगे। सिर्फ
हिमालय जाने
से तुम भिन्न
कैसे हो जाओगे?
तुम
यहीं रहो।
हिमालय पर
कृपा करो। तुम
अपने को बदलो।
तुम उस बड़े रस
को उपलब्ध हो
जाओ, छोटे रस
अपने से छूट
जाते हैं। तुम
उनकी चिंता ही
मत करो। उनकी
चिंता करना भी
घातक है।
क्योंकि
चिंता करने में
उन पर ध्यान
देना होता है।
तुम ध्यान ही
मत दो उन पर।
जिसको
हीरे मिल
जाएंगे, क्या
वह कंकड़-पत्थर
हाथ में ढोता
फिरेगा? क्या
उसे हमें
समझाना पड़ेगा,
कि कंकड़-पत्थर
छोड़ नासमझ!
हीरे हैं, इनको
उठा। वह हमारी
प्रतीक्षा
करेगा? वह कंकड़-पत्थर
खुद ही छोड़
देगा। उसे पता
भी न चलेगा कब छोड़
दिए कंकड़-पत्थर,
कब भर लिए
हीरे झोली
में।
"चुया
महारस भारी, छूटि गई संसारी
सुंनि
मंडल में मंदला
बाजै, तहि
मेरा मन नाचै।"
और अब
शून्य आकाश
में अनहद के बाजे
बज रहे हैं।
और अब मैं
वहीं नाच रहा
हूं।
कबीर
तुम्हें जहां
दिखाई पड़ते
हैं, वहां
नहीं हैं।
दिखाई तो पड़ते
हैं देह में।
वहां तो अब बस,
जुड़ा हुआ एक
धागा भर रह
गया है। कबीर
को खोजना हो, तो दूर
शून्य गगन में
खोजना। वहीं
वे नाच रहे हैं।
अगर तुमने
कबीर को शरीर
में देखा, तो
तुम्हें अपने
जैसा ही शरीर
दिखाई पड़ेगा।
वहां तो बस, जरा सा धागा
जुड़ा रह गया।
जैसे नाव बस
जरा एक रस्सी
से बंधी
किनारे पर रही
हो, छूटने
को तैयार हो।
छूट ही चुकी
हो। तड़फ
रही हो छूटने
को।
लेकिन
असली कबीर को
खोजना हो तो
शून्य गगन में
खोजना, क्योंकि
वहीं अब
उनका नाच चल
रहा है। जहां
अनहद का बाजा
बज रहा है; जहां वीणा
बज रही है
परमात्मा की,
वहीं वे नाच
रहे हैं।
अब तुम
उन्हें शरीर
में न पा
सकोगे। शरीर
में देखोगे
तो चूक हो
जाएगी। सदा
लोग इसी तरह
चूके हैं बुद्ध
को, महावीर
को, कृष्ण
को, क्राइस्ट
को, कबीर
को, नानक
को, मोहम्मद
को। तुम शरीर
में देखते हो,
क्योंकि
तुम अपने को
शरीर में
मानते हो। वही
भ्रांति तुम
उनकी तरफ भी
लगाते हो।
वहां
वे नहीं हैं।
वहां तो बस, जरा सा
संबंध रह गया
है; वह भी
तुम्हारी
करुणा के
कारण।
तुम्हारे प्रति
करुणा के
कारण। जुड़े
हैं, ताकि
शरीर का थोड़ा
सा उपयोग कर
लें तुम्हारे
लिए। तुम शरीर
के बिना न समझ
पाओगे। थोड़ी
तुमसे बात कह
दें। जो मिला
है, उसकी
थोड़ी खबर
तुम्हें दे
दें। जो पा
लिया है, उस
तरफ तुम्हें
भी गतिमान कर
दें। थोड़ा
इशारा कर दें।
हाथ की
अंगुलियों से
इशारा कर लें,
क्योंकि
फिर अदृश्य
हाथों को तुम
न देख सकोगे।
अन्यथा. . .
"सुंनि
मंडल में मंदला
बाजै, तहि
मेरा मन नाचै।
गुरु प्रसादि
अमृत फल पाया, सहजि सुषमना काछै।"
और
गुरु के
प्रसाद से
अमृत का फल
मिल गया। अब सब
सहज हो गया, सब शांत हो
गया। अब परम
आनंद, सहजानंद। अब उसमें
रत्तीभर कमी नहीं
रह गई।
लेकिन
कबीर सदा याद
रखते हैं एक
बात--गुरु प्रसादि।
क्योंकि
तुम्हारे
यत्न से बहुत
कुछ होगा, अंतिम घटना
न घटेगी।
तुम्हारे
प्रयत्न से बहुत
कुछ होगा; अंतिम
घटना की
तैयारी
बनेगी। अंतिम
घटना तो गुरु-प्रसाद
से घटेगी।
ऐसा
क्यों है?
क्योंकि
तुम आखिरी
क्षण तक
अज्ञात में
कैसे उतर
पाओगे? अज्ञात
तुम जानते
नहीं हो। तुम
तैयार भी हो
जाओगे तो भी
तुम ज्ञात को
ही पकड़े
रखोगे। डरोगे
अज्ञात में
जाने से। गुरु
ही तुम्हें
धक्का देगा।
वही तुम्हें
आश्वस्त
करेगा। वही
कहेगा, कूद
जाओ। अगर
आस्था हुई तो
कूद सकोगे।
कूदकर ही
पाओगे, सब
पा लिया। मिटकर
ही सब पाया
जाता है।
तो जब
तक तुम बच
रहोगे, तब
तक परमात्मा
से मिलन न
होगा। जरा सी
बारीक रेखा
खिंची
रहेगी
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच में। और
उसको मिटाने
का एक ही उपाय
है, कि गुरु
तुम्हें
धक्का दे दे।
गुरु
का मतलब है, जिस पर
तुम्हारा भरोसा
इतना है, कि
वह अगर
तुम्हें मरने
को कहे तो तुम
मरने को राजी
हो। तो ही तो, वह जब
तुम्हें
धक्का देगा, तुम राजी
रहोगे। वह
तुम्हें
दुश्मन न
मालूम पड़ेगा;
वह तुम्हें
मित्र मालूम
पड़ेगा। और उस
पर आस्था इतनी
है, कि तुम
अज्ञात में
छलांग लगाने
को राजी हो
जाओगे। तुम
जैसे हो, वैसे
मरने को राजी
हो जाओगे जिस
दिन, उसी
दिन तो
तुम्हारा परम
रूप प्रकट
होगा।
"गुरु प्रसादि"!
इसलिए
कबीर इसे कभी
नहीं भूलते।
सारी यात्रा का
अंतिम पड़ाव, वे सदा "गुरु
प्रसादि"
से करते हैं।
"गुरु प्रसादि
अमृत फल पाया, सहज सुषमना काछै।"
अब सब
हो गया, जो
होना था। पा
लिया, जो
पाना था।
लेकिन पाया
गुरु के
प्रसाद से।
"पूरा मिल्या
तबै सुख उपज्यो, तन की तपति
बुझानी
कहै
कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहि जोति समानी।।"
"पूरा मिल्या
तबै सुख उपज्यौ"—
आधा-आधा
मिलने से सुख
नहीं उपजता, दुख और बढ़ता
है।
मनस्विद
कहते हैं, कि जितना
मिलता है, उतना
दुख बढ़ता है।
क्योंकि उतने
ही पूरे मिलने
की आशा बढ़ती
है। तुमने
"निन्यानबे
का चक्कर"--ये
शब्द सुने
हैं। इसका
मतलब यह होता
है कि जिसके
पास
निन्यानबे
हों, वह सौ
की कोशिश में
लग जाता है।
क्योंकि जब तक
सौ न हो जाएं, वह खटकती है
कमी।
निन्यानबे
हैं, और एक
कम है, तब
तक सुख नहीं
मालूम पड़ता।
लेकिन वह
चक्कर ऐसा है
कि जैसे ही सौ
हो जाते हैं, वैसे ही एक
सौ एक हो जाएं,
एक सौ दो हो
जाएं--चक्कर
चलता ही चला
जाता है।
इस
संसार में तो
पूरा कभी हो
ही नहीं सकता, इसलिए इस
संसार में कभी
कोई सुखी हो
नहीं सकता। सुख
की आशा करो, लेकिन
उपलब्धि कभी
नहीं होगी। इस
संसार में कुछ
भी कभी
पूरा नहीं
होता। कुछ न
कुछ बाकी रहता
है। कुछ न कुछ
बाकी रहता है
और जितना
ज्यादा बाकी
रहता मालूम
होता है, उतनी
पीड़ा बढ़ती
जाती है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है। गरीब
आदमी उतना
परेशान नहीं
होता, क्योंकि
उसके पास एक
रुपया भी नहीं
है। निन्यानबे
जिसके पास हैं,
वह ज्यादा
परेशान होता
है। क्या
मामला है? मामला
यह है कि गरीब
को अभी
महत्वाकांक्षा
ही नहीं जगती
पूरा करने की।
जरा भी नहीं
है पास में, पूरा क्या
करना? जरा
सा भी टुकड़ा
नहीं मिला है,
पूरे की
वासना कैसे जगे? तो
गरीब को जो
मिलता है, ठीक
है।
मैंने
सुना है, एक
सम्राट का एक
नाई था। वह
बड़ा प्रसन्न
था। सम्राट भीर्
ईष्या करता था
उससे। कि वह
बड़ा मस्त आदमी
था। सम्राट की
मालिश करता, दाढ़ी बनाता, हजामत
बनाता, गीत
गुनगुनाता
रहता, गपशप
करता रहता।
हमेशा
प्रसन्न था।
एक दिन
उदास हो गया।
फिर उसकी
उदासी बढ़ती
गई। सम्राट ने
पूछा, क्या
मामला है? उसने
कहा, मेरी
तनख्वाह बड़ा
दें। तनख्वाह
दुगुनी कर दी गई।
सम्राट उसको
प्रेम करता
था। लेकिन कुछ
हल न हुआ।
तनख्वाह तिगनी
कर दी गई, कुछ
हल न हुआ। वह
और भी सूखता
गया, और दुबला
हो गया!
आखिर
एक दिन सम्राट
ने कहा, "सुन!
तू जंगल तो
नहीं गया था?"
उसने
कहा, "मैं गया
था।"
"तू एक
पीपल वृक्ष के
नीचे तो नहीं
था, जहां
किसी ने आवाज
दी हो कि ले, यह धन अपने
साथ ले जा?"
उसने
कहा, "अरे!
आपको पता कैसे
चला?"
उसने
कहा, "तू वह
मटका वापस
लौटा दे। उसी
के चक्कर में
तू पड़ा है। एक
दफे मैं भी उसी
चक्कर में पड़
चुका हूं। वह
पीपल के वृक्ष
में एक यक्ष
रहता है। और
उसके पास एक
मटका है, जिसमें
निन्यानबे
रुपए हैं। और
जो भी वहां से निकलता
है, वह
लोगों से कहता
है कि ले जाओ।
यह मटका ले
जाओ।"
और जो
भी ले जाता है, वह मुश्किल
में पड़ जाता
है। क्योंकि
जब वह घर जाकर
गिनता है
निन्यानबे, तो सौ करने
की
वासना
पैदा होती है।
ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है
जिसके पास
निन्यानबे
हों, और सौ
करने की वासना
पैदा न हो।
वह
वैसा ही
स्वाभाविक है, जैसे
तुम्हारा
दांत टूट जाता
है तो जीभ वहीं-वहीं
जाती है। पहले
कभी नहीं जाती
थी! वर्षों तक
वह दांत वहां
था, तुमने
कभी चिंता न
की, न जीभ
ने उसकी खोज
खबर ली। आज
दांत टूट गया।
उठते, बैठते,
सोते, जागते
जीभ वहीं-वहीं
जाती है। वह
जगह खाली हो गई।
वह खाली जगह
को भरने का मन
होता है।
वे जो
निन्यानबे
रुपए हैं, खतरनाक हैं।
उस राजा ने
कहा, "तू जा
वापस और मटका लौटाकर आ।
मैं भी उस
झंझट में पड़
चुका था। और
बड़ी मेरी जान
मुसीबत में पड़
गई थी।"
क्योंकि
जिस दिन से वह
मटका उस नाई
को मिल गया, वह मुश्किल
में पड़ गया।
उसे एक रुपया
रोज मिलता था
राजा से। उसने
सोचा, कल
उपवास ही कर
लें। एक दिन
की ही तो बात
है। एक रुपया
डाल देंगे, सौ हो
जाएंगे।
लेकिन जब वे
सौ हो गए, तो
लगा, एक सौ
एक करने में
और भी ठीक
रहेगा। फिर
बढ़ती गई बात।
फिर कभी अंत
नहीं आता।
इस जगत
में पूरा तो
मिल ही नहीं
सकता। पूरा तो
सिर्फ
परमात्मा ही
मिल सकता है।
और कोई चीज
पूरी नहीं मिल
सकती। पूरा तो
तुम्हें तुम्हारा
स्वरूप ही मिल
सकता है और
कोई चीज पूरी नहीं
मिल सकती।
इसलिए
जिन्होंने
खोजा है, जिन्होंने
पाया है, उन्होंने
कहा है, जब
तक अपने को ही
न पा लोगे, तब
तक दुखी ही
रहोगे, तड़पोगे।
"पूरा मिल्या
तबै सुख उपज्यो"
तभी सुख
उपजा।
". . . तन
की तपनि बुझानी"
और तब
सब तप, ताप, सब प्यास, सब जलन, सब
खोज खो गयी।
. . . तन की तपनि बुझानी"
कहै
कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहि जोति समानी।।"
और उसी
क्षण, जिस
दिन पूरा
स्वभाव प्रकट
होता है, तब
तुम बचते
नहीं। तब तो
जैसे छोटी सी
ज्योति सूरज में
समा जाए--फिर
तुम्हारा
दीया अलग नहीं
रह जाता। तुम
व्यक्ति की
तरह बचते
नहीं। तुम
परम-प्रकाश के
साथ एक हो
जाते हो--"जोतिहि
जोति समानी।"
इस
शराब को बनाना
सीख लो। घर-घर
भट्टी होनी चाहिए
इस शराब की।
और घर-घर
भट्टी होगी, तभी तुम इसे
बना पाओगे।
क्योंकि बाहर
तो यह मिलती
नहीं। किसी
फैक्टरी में
बनाई नहीं जा
सकती। तुम ही
जब कारखाने बन
जाओगे इसे
बनाने के; और
तुम्हारी
शराब तुम
दूसरे को नहीं
पिला सकते, तुम ही पी
सकते हो। वहां
शराबी और शराब,
और साकी सभी
एक हैं। वही
पीने वाला है।
वही पिलाने
वाला है और
वही है जिसे
पीना है और जो पीया
जाएगा।
ऐसी
मधुशाला तुम
बन जाओ, तो
ही तुम्हारे
जीवन में, जिसकी
तुम संभावना
लिए हो वह
पूरा हो सकता
है। जिसके तुम
बीज हो, वह
प्रकट हो सकता
है।
और जब
तक तुम्हारा
बीज वृक्ष न
बने, तुम तड़पोगे।
तड़पोगे
वृक्ष होने
को। जब तक
तुम्हारी
गंगा सागर में
न गिरे, तुम
तपोगे।
प्यास, जलन--तुम
रोओगे विरह
से। जब तक
तुम्हारी
भीतर की
प्रेयसी और
भीतर का
प्रियतम मिल न
जाएं, आलिंगनबद्ध
न हो जाएं, तब
तक तुम भटकोगे।
खोजोगे
और पाओगे
नहीं।
बहुत
खोजा है बाहर।
बहुत मधुशालाओं
के द्वार खटखटाए, अब आखिरी
मधुशाला का
द्वार खटखटा
लो। उसको पाते
ही सब पा लिया
जाता है।
क्योंकि उसको
पाने के बाद
ही कुछ भी
पाने को शेष
नहीं रह जाता
है।
"कहै
कबीर भव-बंधन छूटै, जोतिहि जोति समानी।।"
आज
इतना ही।
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