सुरति
का दीया—(प्रवचन—सोलहवां)
दिनांक
6 जून, 1975, प्रातः,
ओशो
कम्यून
इंटरनेशनल, पूनां
प्रश्नसार:
1—ज्ञानी
साथ साथ रोता
और हंसता है।
क्या देखकर रोता
है और क्या
देखकर हंसता
है?
2—क्या
हम सबकी मनःस्थितियों
को देखकर भी
आप कह सकते
हैं "साधो सहज
समाधि भली"?
3—आपके
पास कभी-कभी
अकारण सघन
पीड़ा का
अनुभव। यह
क्या है?
4—कृपया
बताएं, कि
ऊंट किस करवट
बैठे?
पहला
प्रश्न :
सुना
है, कभी-कभी
ज्ञानी
साथ-साथ रोता
है और हंसता
है। वह क्या
देखकर रोता है
और क्या देखकर
हंसता है?
कभी-कभी
नहीं, सदा
ही ज्ञानी
साथ-साथ रोता
और हंसता है।
हंसता है अपने
को देखकर, रोता
है तुम्हें
देखकर। हंसता
है यह देखकर, कि जीवन की
संपदा कितनी
सरलता से
उपलब्ध है। रोता
है यह देखकर, कि
करोड़ों-करोड़ों
लोग व्यर्थ ही
निर्धन बने हैं।
हंसता है यह देखकर कि सम्राट होना बिलकुल सुगम था और रोता है यह देखकर कि फिर क्यों अरबों लोग भिखारी बने हैं?
हंसता है यह देखकर कि सम्राट होना बिलकुल सुगम था और रोता है यह देखकर कि फिर क्यों अरबों लोग भिखारी बने हैं?
जिसे
तुम पाकर ही
पैदा हुए हो, जिसे तुमने
कभी खोया नहीं,
जिसे तुम
चाहो तो भी खो
न सकोगे, जिसे
खोने का उपाय
ही नहीं है, उसे तुमने
खो दिया है यह
देखकर रोता
है।
यह
देखकर हंसता
है, कि जो
मुझे मिल गया
है, उससे
मिलाने के लिए
कुछ भी करने
की कभी कोई जरूरत
न थी। कहीं
जाने की, किसी
यात्रा की कोई
जरूरत न थी।
यह देखकर हंसता
है कि सभी
मेरे भीतर था
और मैं कैसे
चूकता रहा!
और
अचानक एक क्षण
में आती है
आंधी और सब कूड़ा-करकट
उड़ जाता है।
और भीतर
परमात्मा
विराजमान है।
तुम उसके
मंदिर हो।
तो जब
भी भीतर देखता
है, मुस्कुराता
है; जब भी
बाहर देखता है,
उसकी आंखें
आंसुओं से भर
जाती हैं।
और ऐसा
एक ज्ञानी के
साथ नहीं होता, सभी
ज्ञानियों के
साथ होता
है--और होगा
ही। इससे
अन्यथा होने
का उपाय नहीं
है।
इतना
सरल है और
इतना कठिन हो
गया है!
कबीर
कहते हैं, कि मुझे
हंसी आती है
कि मछली पानी
में क्यों प्यासी
है? चारों
तरफ पानी ही
पानी है, बाहर
भीतर पानी ही
पानी है; मछली
पानी में ही
पैदा होती है,
पानी में ही
जीती है, पानी
में ही लीन हो
जाती है; फिर
भी प्यासी! तो
कबीर कहते हैं,
"मुझे आवै
हांसी"; मुझे बड़ी
हंसी आती है।
आदमी
परमात्मा में
ही पैदा होता
है, जैसे
परमात्मा
सागर हो
तुम्हारे
चारों तरफ--और
चारों तरफ ही
नहीं, भीतर
भी। वही हो
भीतर, वही
हो बाहर और
फिर भी तुम
अतृप्त रह
जाओ। अहर्निश
उसका नाद बज
रहा हो और
तुम्हें धुन
भी न सुनाई
पड़े, एक कण
भी तुम्हारे
कानों में न
आए। चारों ओर
उसी के फूल
खिलते हों और
तुम्हें कोई
सुगंध न मिले।
सब तरफ उसी की
रोशनी हो और
तुम अंधे ही
बने रहो और
अपने अंधेरे
में ही जी लो।इस
उलझन को देखकर
ज्ञानी हंसता
भी है, रोता
भी है। तुम पर
उसे दया भी
आती है और
तुम्हारी
अत्यंत
हास्यास्पद
स्थिति देखकर
वह हैरान भी
होता है।
और
इसलिए अक्सर
ज्ञानी पागल
मालूम होगा।
क्योंकि तुम
उस आदमी को भी
समझ सकते हो, जो रोता
हो--दुखी
होगा। तुम उस
आदमी को भी
समझ सकते हो, जो हंसता
है--सुखी
होगा। वह आदमी
तुम्हारी समझ
के बाहर हो
जाता है, जो
हंसता भी है, रोता भी है
साथ-साथ!
अलग-अलग
तुम समझ लेते
हो। तुम भी
हंसे हो, तुम
भी रोए
हो। हंसे हो, जब प्रसन्न
थे; एक
मनोदशा थी। रोए हो, जब
दुखी थे; एक
दूसरी मनोदशा
थी। कभी दिन
था, कभी
रात थी; कभी
सुख था, की
दुख था; कभी
खिले थे, कभी
मुरझा गए थे।
उन दोनों
स्थितियों को
तुम जानते हो;
लेकिन
दोनों साथ-साथ
तो तुमने या
तो पागल में देखी
हैं, या
ज्ञानी में
देखी हैं।
पागलखाने
में जाओ तो
तुम्हें पागल
कभी-कभी, हंसते-रोते,
साथ-साथ मिल
जाएंगे। और
ज्ञानी में
फिर यही घटना
घटती है।
तो
ज्ञानी पागल
जैसा लगता है।
इसलिए बहुत
बार
ज्ञानियों से
हम वंचित ही
रह गए हैं।
क्योंकि
बेबूझ मालूम
पड़ती है, वह
जो कहता है, पहेलियां मालूम होती
हैं। वह जो
कहता है, उससे
कुछ सुलझता
नहीं, और
उलझता मालूम
पड़ता है। उसे
देखकर ऐसा
नहीं लगता है,
कि कोई
समाधान मिल
जाएगा। ऐसा
लगता है, कि
तुम वैसे ही उलझे
थे, इसे
देखकर और उलझ
जाओगे।
हंसता
और रोता है
साथ-साथ, इसका
गहरा अर्थ है।
इसका अर्थ है,
कि जिनको
तुमने अब तक
विपरीत की तरह
जाना है, ज्ञानी
उन्हें एक की
तरह जानता है।
उपनिषद कहते
हैं, "एकं सत विप्रा
बहुधा वदंति"।
एक ही सत्य है;
जानने
वालों ने उसे
बहुत ढंग से
कहा। एक ही
अवस्था है
जीवन की, अभिव्यक्ति
बहुत तरह से
हो सकती है।
वही
रोता है, वही
हंसता है; वह
एक ही है--एकं
सत। वह सत्य
एक ही है, जो
हंसता है और
रोता है। जो
दुखी होता है,
जो सुखी
होता है, वह
एक ही है।
लेकिन
तुम कभी उसे
देख नहीं पाए।
या तो तुमने उसे
दुखी देखा, जब दुखी
देखा, तब
तुम सुख को
भूल गए। और जब
तुमने उसे
सुखी देखा, तब तुम दुख
को भूल गए।
इसलिए
तुम्हारे
जीवन में
अधूरापन है।
तुम उसे अखंड
न देख पाए, कि
वही हंसता है,
वही रोता
है। और अगर
तुम यह देख
पाओ कि वही
हंसता है, वही
रोता है, तो
तुम दोनों के
पार हो गए।
हंसना एक
भाव-दशा रह गई,
रोना भी एक
भाव-दशा रह गई,
तुम साक्षी
हो गए। तुम
जाग गए।
तो
ज्ञानी जागता
है। उस जागने
में सभी
अवस्थाएं
सम्मिलित हो
जाती हैं एक
साथ। तुम
खंड-खंड हो, ज्ञानी अखंड
है। इसलिए
ज्ञानी के सुख
में भी तुम
दुख की छाया
पाओगे। और
ज्ञानी के दुख
में भी तुम
सुख का रंग देखोगे।
बुद्ध
की प्रतिमा को
गौर से देखो
या महावीर की
प्रतिमा को
गौर से देखो, तो तुम्हें
एक बात बड़ी
हैरानी की
लगेगी। जितना
तुम गौर से देखोगे......
तुमने
शायद गौर से न
देखी होगी।
जैन भी नहीं देखते।
मंदिर में
जाकर पूजा के
फूल चढ़ा कर
भाग खड़े होते
हैं। फुरसत
कहां है
महावीर की तरफ
देखने की? सुविधा कहां
है? एक काम
है, कृत्य
है, निपटा
देना है। जब
महावीर के
सामने हाथ जोड़कर
खड़े होते हैं,
तब भी बाजार
में होते हैं।
तब भी मन कहीं
और होता है।
हो सकता है
वेश्या के
द्वार पर
दस्तक दे रहा
हो, तिजोड़ी के रुपए गिन
रहा हो। मन
कहीं और होता
है। कौन देखेगा
महावीर को?
अगर
गौर से देखोगे, तो तुम देखोगे
दोनों बातें
एक साथ--कि
महावीर की
प्रतिमा में
एक अखंड आनंद
की भाव-दशा
मालूम होती
है। लेकिन वह
आनंद उथला
नहीं है। वह
छिछला नहीं
है। जैसा सड़क
पर हंसते हुए
लोगों का आनंद
है, होटल
में बैठे हुए
मजाक करते
लोगों का आनंद
है, वैसा
छिछला नहीं
है। बड़ा गहरा
है। जैसा बड़ी
गहरी नदी बहती
है, जिसमें
आवाज भी नहीं
होती। छिछली
नदी बहती है, कंकड़-पत्थरों पर
बड़ा शोरगुल
करती है।
तो
महावीर के
आनंद में से
खिलखिलाहट
नहीं दिखाई
पड़ेगी। एक बड़ी
गहरी दशा है।
और उस गहराई
में अगर तुम उतरोगे
तो पाओगे, एक बड़ी गहरी
उदासी भी है।
एक आनंद है, पर उदासी
संयुक्त है।
उदासी ही आनंद
को गहराई देती
है। एक सुख है,
लेकिन दुख
की छाया साथ
है।
क्या
मतलब है इसका? इसका मतलब
यह है कि जो
व्यक्ति भी
पार हो गया, उसमें दोनों
लीन हो जाते
हैं; उसमें
द्वैत लीन हो
जाता है। वह
एक को नहीं चुनता
दो के बीच से; वह दोनों को
ही एक साथ
स्वीकार कर
लेता है। इस स्वीकार
में ही वह
दोनों से
भिन्न हो जाता
है। वह दोनों
से भिन्न हो
जाना ही
आत्मवान हो
जाना है।
तो
ज्ञानी हंस
सकता है, रो
सकता है एक
साथ। या पागल
हंस सकता है, रो सकता है
एक साथ।
ज्ञानियों और
पागलों में थोड़ा-सा
साम्य है।
ज्ञानियों और
बच्चों में थोड़ा-सा
साम्य है।
ज्ञानियों
में और पशुओं
में थोड़ा-सा
साम्य है। वह
साम्य समझ
लेना चाहिए।
जब
ज्ञानी अपने
ज्ञान की परम
अवस्था में
पहुंचता है, तो
अज्ञानियों
जैसा हो जाता
है।
क्योंकि
अब उसे यह भी
खयाल नहीं
रहता कि मैं जानता
हूं। क्योंकि
यह "मैं जानता
हूं", यह भी
अज्ञान का
हिस्सा है। यह
भी अहंकार है।
यह भी अज्ञानी
की प्रतीति है
कि मैं जानता
हूं। यह भी
अकड़ है। यह
अकड़ भी खो
जाती है। जो
वस्तुतः जान लेता
है उसकी यह
अकड़ भी चली
जाती है कि
मैं जानता
हूं। कौन
जानने वाला? किसको
जानेगा? एक
ही है। वही
जाना जाता है,
वही जानने
वाला है। कौन
किसको जानेगा?
बात ही खो
गई। धीरे-धीरे
वह यह भूल ही
जाता है कि
मैं जानता
हूं।
तब
उसकी अवस्था
में एक साम्य
हो जाता है
छोटे बच्चों
जैसा, जो
कुछ भी नहीं
जानते। साम्य
है, वैषम्य
भी है। साम्य
इतना है कि
बच्चा भी नहीं
जानता, ज्ञानी
भी नहीं
जानता।
वैषम्य इतना
है, कि
बच्चे को अभी
जानना पड़ेगा;
ज्ञानी जान
चुका। बच्चा
अभी यात्रा के
पहले है, ज्ञानी
यात्रा के
बाद। दोनों
विश्राम कर
रहे हैं। एक
की यात्रा
शुरू नहीं हुई,
इसलिए
विश्राम कर
रहा है। एक की
यात्रा पूर्ण हो
गई, इसलिए
विश्राम कर
रहा है। दोनों
यात्रा में नहीं
हैं, इतना
साम्य है।
लेकिन बड़ा
वैषम्य है।
पशुओं
और ज्ञानियों
में तुम्हें
साम्य दिखेगा।
बुद्ध की
आंखों में कभी
गौर से झांको
और अपनी गाय
की आंखों में
झांको। तुम
पाओगे, एक
साम्य है। एक
सरलता है, जो
दोनों में एक
जैसी है। न तो
गाय की आंखों
में चिंता
तैरती, न
बुद्ध की
आंखों में।
गाय की आंखें
ऐसी हैं, जैसी
गहरी झील।
वैसी ही आंखें
बुद्ध की भी
हैं। वही
नीलिमा, वही
खुला आकाश गाय
की आंखों में है,
जो बुद्ध की
आंखों में है।
एक साम्य है
ज्ञानियों
में और पशुओं
में, क्योंकि
पशु अभी विकृत
नहीं
हुए--होंगे।
ज्ञानी
विकृति के पार
उठ गया। पशु
अभी पाप में
नहीं पड़े, ज्ञानी
पाप से उठ
गया। पशु आज
नहीं कल
भ्रष्ट होंगे,
ज्ञानी
भ्रष्ट हो
चुका; अब
भ्रष्ट होने
को जान चुका
और सम्हल गया।
साम्य है, वैषम्य
है।
ऐसे ही
पागलों और
ज्ञानियों
में साम्य और
वैषम्य है।
पागल बुद्धि
से नीचे गिर
गया, ज्ञानी
बुद्धि के पार
चला गया।
तुम्हारे पास थोडी
बुद्धि है, ज्ञानी के
पास पूर्ण हो
गई, पागल
के पास पूरी
नष्ट हो गई।
तुम मध्य में
अटके हो। पागल
नीचे गिर गया,
उसकी
बुद्धि खो गई।
अब वह सोच
नहीं सकता, विचार नहीं
सकता। ज्ञानी
की बुद्धि
पूर्ण हो गई।
अब उसे सोचने
की जरूरत न
रही, विचारने
की जरूरत न
रही। नहीं कि
सोच नहीं सकता;
सोचने का
प्रयोजन ही न
रहा। विचार की
कोई बात ही न
रही। जान लिया
जानने
योग्य। विचार
को उसने उठाकर
किनारे रख
दिया कि तू अब
रुक। हो गया
तेरा काम
पूरा। ज्ञानी
घर लौट आया।
और पागल इतना
भटक गया राह
के किनारे कि
कहीं भी बैठकर
उसने अपना घर
मान लिया।
दोनों
में एक साम्य
है। और कई बार
तो ऐसा हो सकता
है, बहुत बार
हुआ है; और
अभी पश्चिम में
मनस्विद
इस संदेह से
भर गए हैं, कि
पश्चिम के पागलखानों
में कुछ
ज्ञानी भी बंद
हैं। पश्चिम
के कुछ बड़े
महत्वपूर्ण
मनोचिकित्सक
इस बात को
एहसास कर रहे
हैं कि पागलखानों
में बंद सभी
लोग पागल नहीं
हैं। उनमें
कुछ लोग तो
बड़े गहरे
अनुभव के लोग
हैं और ऐसा
लगता है, कि
हम से ऊपर चले
गए हैं। लेकिन
हमें वे पागल
जैसे लगते हैं;
उनको भी
उठाकर पागलखानों
में बंद कर
दिया है।
तुम
थोड़ा सोचो, अगर
रामकृष्ण
परमहंस योरोप
या अमरीका में
पैदा हुए होते
तो पागलखाने
में होते; या
किसी अस्पताल
में उनकी
चिकित्सा चल
रही होती।
इसके
अतिरिक्त कुछ
हो नहीं सकता
था। क्योंकि
जब रामकृष्ण
समाधिस्थ
होते थे, तो
उस समाधि की
अवस्था में
ऐसा ही लगता
था, जैसे एपिलेप्टिक
फिट आ गया, जैसे
मिर्गी आ गई।
मिर्गी में और
समाधि की कुछ
अवस्थाओं में
साम्य है।
क्योंकि
मिर्गी में भी
आदमी का
मस्तिष्क
जराजीर्ण हो
जाता है। और
शरीर की
विद्युत
मस्तिष्क में
दौड़ती है और मस्तिष्क
एक तरह के
विद्युत के
शाक में
डांवाडोल
होकर गिर पड़ता
है। मुंह से फसूकर
गिरने लगता
है। आदमी
बेहोश हो जाता
है।
समाधि
में भी वैसी
घटना घटती है
कि आदमी इतने भीतर, इतने भीतर
उतर जाता है
कि शरीर से
संबंध टूट जाता
है। शरीर बड़े
फासले पर हो
जाता है। आदमी
इतने भीतर हो
जाता है कि
शरीर को जितनी
ऊर्जा मिलनी
चाहिए स्वयं
से, वह
नहीं मिल
पाती। शरीर तड़फने
लगता है। जैसे
मछली तड़फने
लगे बिना पानी
के, ऐसा
जीवन की ऊर्जा
न मिलने से
शरीर तड़फने
लगता है।
मिर्गी जैसा
मालूम होने
लगता है।
रामकृष्ण
के मुंह से फसूकर
गिरने लगता था
छह-छह घंटे।
और कभी-कभी तो
छह-छह दिन तक
वे बेहोश पड़े
रहते थे। कुछ
लोगों ने पश्चिम
में तो लिखा
भी है कि हमें
संदेह है, कि यह आदमी
ज्ञानी है। यह
तो इपिलेप्टिक
फिट है। इसका
तो इलाज होना
चाहिए।
अगर
मीरा को
दुर्भाग्य से
पश्चिम में
पैदा होना
पड़ता, तो वह
भी किसी
मनोवैज्ञानिक
की कोच पर
लेटी इलाज
करवा रही
होती।
क्योंकि
मनोवैज्ञानिक,
मीरा जो कह
रही है, जो
हाव-भाव प्रकट
कर रही है, उससे
कुछ और ही
समझता।
क्योंकि
कुछ साम्य है।
वह साम्य वैसे
ही है, जैसे
कभी कोई पागल
प्रेमी अपनी प्रेयसी
के लिए दीवाना
हो जाता है, होश खो देता
है। या कोई
प्रेयसी अपने
प्रेमी के लिए
पागल हो जाती
है, होश खो
देती है, लोक-लाज
छोड़ देती है।
वही
घटना मीरा को
घट गई थी।
प्रेमी कहीं
अज्ञात में
था। वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता था।
लेकिन जो मीरा
दिखाई पड़ती थी, उस पर जो
घटना घट रही
थी, वह
घटना वही थी
जो अत्यंत
कामाविष्ट
अवस्था में
घटती है।
पश्चिम के लोग
और पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
तो कहते, यह
तो कामविकार
है, सेक्स पर्वर्शन
है। और फिर
अगर मीरा के
पद उनकी समझ
में आ जाते तो
वे कहते, पक्की
हो गई बात।
क्योंकि
वह कहती, हे
कृष्ण! तेरे
लिए मैंने सेज
सजाई है, फूल
बिछाए हैं।
मैं जागकर
तेरी राह
देखती हूं, तू कब आएगा?ये प्रतीक
तो प्रेम के
हैं, काम
के हैं। मीरा
कहती है, "तेरे
लिए मैंने सब
लोक-लाज खो दी
है। तेरे बिना
मुझे अब कुछ
और रस नहीं
आता। तू ही
दिखाई पड़ता
है। तू ही
मेरा प्राण है,
तू ही मेरी
सांस है।" और
मीरा नाचती
है।
मनोवैज्ञानिक
कहेगा कि कामविकार
है। इसकी
कामवासना
तृप्त नहीं हो
पाई। उसी कामवासना
के आधार पर
इसका मन विकृत
हो गया है। ये
गीत, यह
रहस्य--न तो
रहस्य है
इसमें, न
गीत है कुछ।
यह सीधा दबा
हुआ काम है :
सप्रेस्ड सेक्स।एक
साम्य है।
साम्य से
भ्रांति में
मत पड़ जाना।
साम्य के साथ
ही साथ वैषम्य
भी है। जब कोई
व्यक्ति कामातुर
होता है, तो
तुम उसमें
पीड़ा देख सकते
हो, दुख
देख सकते हो, आनंद नहीं।
वहां वैषम्य
है। जब कोई
स्त्री कामपीड़ित
होती है, तो
उसका चेहरा
कुरूप हो जाता
है, सुंदर
नहीं। और मीरा
जैसा सुंदर
चेहरा हमने
कभी देखा नहीं।
जब कोई स्त्री
कामपीड़ित
होती है और
उसका काम
तृप्त नहीं
होता, तो
वह विक्षिप्त
हो जाती है।
लेकिन मीरा
जैसा होश हमने
नहीं देखा। और
मीरा के जीवन
में जो शांति
की सुगंध है, वह तो
कामवासना से
कैसे उठेगी? जो
आनंद
का अहोभाव
है--उसके
चारों तरफ
जैसे मंदिर चल
रहा है, एक
पवित्रता है।
एक अलौकिक
शुद्धि, एक
अलौकिक
कुंआरापन है।
लेकिन उसके
प्रतीक तो वही
हैं।
कठिनाई
यह है, कि इस
जगत में ही तो
संत पैदा होता
है, परम
ज्ञानी पैदा
होता है।
उसमें तुमसे
बहुत सी बातें
मिलती-जुलती
दिखाई पड़ेंगी।
लेकिन उनसे
तुम भूल में
मत पड़ जाना। अगर
तुम्हें कभी
भी साम्य
दिखाई पड़े, तो तुम
तत्क्षण
खोजना कि
वैषम्य कहां
है? और उस
साम्य के नीचे
छिपा हुआ तुम
वैषम्य पाओगे।
पागल
भी रोते हैं, हंसते हैं
साथ-साथ; ज्ञानी
भी रोता है, हंसता है
साथ-साथ। पर
दोनों की जीवन
की गुणवत्ता
अलग है। दोनों
के जीवन का
ढंग अलग है।
ज्ञानी सुलझा
हुआ है, पागल
बिलकुल उलझा
हुआ है। पागल
को सुलझाने के
लिए दूसरों की
जरूरत है।
ज्ञानी
दूसरों के उलझाव
को सुलझा देता
है। ज्ञानी को
समाधान उपलब्ध
हो गया है।
और तुम
अगर उसके निकट
बैठोगे और
समझने की कोशिश
करोगे, तो
उसका समाधान
तुम्हारी समझ
में आना शुरू
हो जाए भीतर
सब तूफान शांत
हो गया है। एक
शून्य आविर्भाव
हुआ है। प्रभु
का मंदिर भीतर
निर्मित हुआ
है।
भीतर
वह देखता है
तो हंसता है।
तुम्हारी तरफ
देखता है तो
रोता है। उसकी
करुणा रोती है, उसका ज्ञान
हंसता है।
और
बुद्ध ने कहा
है, ज्ञानी
के दो ही
लक्षण
हैं--प्रज्ञा
और करुणा।
प्रज्ञा का
अर्थ है, स्वयं
को जानना, आत्मज्ञान,
और करुणा का
अर्थ है, दूसरे
के लिए चिंता,
फिक्र।
उसकी करुणा
रोती है, उसकी
प्रज्ञा
हंसती है। और
उसमें सब
संयुक्त हो
जाता है। वह
अखंड है। उसके
भीतर पुराने
खंड नहीं रहे।
इसलिए
ज्ञानी को
समझना बड़ी
अड़चन की बात
है। इसलिए
केवल वे ही
ज्ञानी को समझ
पाते हैं, जो बड़ी
श्रद्धा, बड़े
प्रेम और बड़ी
आस्था से उसके
करीब आते हैं।
जिनके मन में
संदेह है, वे
कैसे समझ
पाएंगे? संदेह
ने समझने का
द्वार ही बंद
कर दिया।
दुनिया
में दूसरे को
समझने का एक
ही उपाय है और
वह प्रेम है।
वस्तुओं को
समझना हो तो
विज्ञान
सहयोगी हो
सकता है।
व्यक्तियों
को समझना हो, तो प्रेम, तो काव्य, तो संगीत।
अगर वस्तुओं
को समझना हो, तो बिना
प्रेम के भी
समझ सकते हो।
वैज्ञानिक
को वस्तु को
समझने के लिए
कोई प्रेम की
जरूरत नहीं
है।
जिन्होंने
अणु खोजा, उनके लिए
कोई प्रेम की
जरूरत नहीं
है। अणु खोजा
जा सकता है।
लेकिन
जिन्होंने
जीवन के परम
रहस्य खोले
हैं, उन्हें
समझने का उपाय
तो एक ही है, कि तुम्हारा
हृदय उन्हें
समझने की
चेष्टा करे।
वस्तुएं
मस्तिष्क से
समझी जाती हैं,
व्यक्ति
हृदय से। और
ज्ञानी तो
व्यक्तित्व की
परम गरिमा है।
वह तो गौरी
शंकर है, वह
तो आखिरी शिखर
है। उसे समझने
के लिए तो तुम्हें
बहुत हृदयपूर्वक
होकर आना पड़े,
तो ही उसे
समझ सकते हो।
अगर तुम संदेह
से, आलोचना
से भरे हुए गए,
तो समझना
मुश्किल है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के पड़ोस में
एक नए व्यक्ति
आकर बसे। उसके
तो देखने का
ढंग ही आलोचना
है। सभी पड़ोसियों
की वह निंदा
मुझसे कर चुका
है। नए पड़ोसी
आए तो मैंने
सोचा, देखें,
क्या कहता
है! तो उससे
मैंने पूछा, कि नए पड़ोसी
आ गए, क्या
खबर है उनके
संबंध में? क्या सोचते
हो?
उसने
कहा, ग्यारह
भाई हैं। पहला
भाई राजनेता
है और दूसरा
उससे भी गया
बीता। तीसरा
भाई
विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
है और चौथा उस
से भी गधा।
पांचवां
मनोवैज्ञानिक
है, छठवां भी पागल।
सातवां
दुकानदार है,
आठवां भी
चोर। नौवां
कवि है और
दसवां भी
लफंगा। और
ग्यारहवां
अपने बाप-जैसा
ही बाल
ब्रह्मचारी
है।
एक
देखने का ढंग
है, जहां
चीजें बुरी से
बुरी, और
बुरी से बुरी
दिखाई पड़ती
हैं। एक चश्मा
है संदेह का, निंदा का, घृणा का, वैमनस्य
का, दुर्भाव
का, वहां
हर चीज अपने
बुरे से बुरे
रूप में दिखाई
पड़ती है।
एक सदभाव
की वृति है. . .
झेन फकीर
हुआ रिंझाई।
एक गांव में
मेहमान था। एक
आदमी से उसने
कहा कि मैंने
सुना है, तुम्हारे
गांव में एक
संगीतज्ञ है।
एक बांसुरीवादक
है, उसके
स्वर बड़े
अनूठे हैं।
कहते हैं कि
ऐसे स्वर कभी
कृष्ण के थे
या यूनान में
हुए आफर्यूअस
के।
उस
आदमी ने कहा, "छोड़ो बकवास! वह
आदमी क्या
बांसुरी बजाएगा?
वह निपट
बेईमान और चोर
है।"
दूसरे
आदमी से भी
उसके बाद. . . वह
आदमी
बैठा
ही था, कि
दूसरा आदमी
आया। रिंझाई
ने उससे भी
कहा, कि
"मैंने सुना
है, तुम्हारे
गांव में एक
चोर है, बेईमान
है, बहुत
बुरा आदमी
है।"
उस
आदमी ने कहा, "मैं समझ गया,
तुम किसकी
बात कर रहे
हो। लेकिन मैं
तुमसे कहता हूं,
कि वह चोर
हो नहीं सकता,
वह बेईमान
हो नहीं सकता।
एक बार उसकी
बांसुरी सुन
लो, तुम भी
विश्वास कर
लोगे कि वह
चोर हो नहीं
सकता; अफवाह
है। वह इतनी
सुंदर
बांसुरी
बजाता है, चोर
हो कैसे सकता
है?"एक ही
आदमी! वह
दोनों हो सकता
है। चोर भी हो,
बेईमान भी
हो, बांसुरी
भी बजाता हो, कोई अड़चन
नहीं है।
बांसुरी चोरी
में कोई बाधा नहीं
डालती। चोरी
की कोई अड़चन
नहीं है
बांसुरी में।
उससे कोई
प्रयोजन भी
नहीं है।
लेकिन
ये दो आदमी
हैं। एक आदमी
इसलिए नहीं
मान सकता कि
वह अच्छा बांसुरीवादक
है, क्योंकि
चोर है। और एक
आदमी इसलिए
नहीं मान सकता
कि वह चोर हो
सकता है, क्योंकि
वह अच्छा बांसुरीवादक
है।
ये
आस्तिक और
नास्तिक की
दृष्टियां
हैं। ये श्रद्धा
और संदेह की
दृष्टियां हैं।ज्ञानी
को समझना हो, तो बड़े भाव
और बड़े प्रेम
से ही समझा जा
सकता है।
अन्यथा वह
पागल मालूम
पड़ेगा।
रामकृष्ण के
पास जाओ, तो
संदेह लेकर मत
जाना; अन्यथा
लगेगा कि ये
मिर्गी के
मरीज हैं।
मीरा के पास
जाओ, तो
फ्रायड की
बुद्धि लेकर
मत जाना; अन्यथा
लगेगा कि ये
मीरा मानसिक
रोग से ग्रस्त
है। महावीर के
पास जाओ, तो
मनोविश्लेषण
करने मत जाना;
नहीं तो
लगेगा यह आदमी
नग्न खड़ा है, एक्झिबिशनिस्ट है। पुलिस
को खबर करो।
यह आदमी अपने
को नंगा दिखाने
में उत्सुक
है।
एक
बीमारी होती
है, मनोवैज्ञानिक
उसको एक्झिबिशनिज्म
कहते हैं कि
कुछ लोग बीमार
होते हैं।
उनको मजा आता
है इसमें कि
वे अपना नग्न
रूप तुम्हें दिखा
दें। एकांत
में, सड़क
पर चलते हुए
कोई न देखेंगे,
वहां वे
जल्दी से अपना
पाजामा गिरा
देंगे, ताकि
तुम उन्हें
नग्न देख लो।
वह रोग है।
महावीर
नग्न खड़े हैं।
पाजामा ही
नहीं गिराते, बिलकुल ही
सब गिराकर खड़े
हैं--जरूर
रुग्ण हैं।
कहीं कोई गड़बड़
है।
महावीर
के पास
मनोवैज्ञानिक
की तरह मत
जाना।
क्योंकि तुम
तब जा ही न
सकोगे। ये
इतनी
महिमा-मंडित स्थितियां
हैं, कि इनके
पास तुम्हें
जाना हो, तो
तुम्हें
पर्वत-शिखर की
यात्रा करनी
होगी। और अपनी
बुद्धि के
सारे बोझ नीचे
रख देने होंगे।
अन्यथा तुम
पर्वत-शिखरों
तक जा न
सकोगे। फिर
तुम जो निर्णय
लेकर लौट आओगे,
वे
तुम्हारे
अपने ही
निर्णय
होंगे। उनका
महावीर से कोई
संबंध न होगा।
ज्ञान
इस जगत में
सबसे बड़ी
पहेली है, अगर
तुम्हारी जगह
से देखा जाए।
असंभव घटता है
ज्ञानी में।
जो नहीं घटना
चाहिए, वह
घटता है।
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता, ऐसी
घटना घटती है।
क्योंकि
ज्ञानी का
अर्थ है, जिसके
भीतर
परमात्मा
घटा। वह असंभव
क्रांति है।
वह असंभव
क्रांति है।
उस पर भरोसा
आता नहीं। यह
हो कैसे सकता
है कि किसी
में परमात्मा
घट जाए?तुम्हारा
मन इनकार करता
है। लेकिन उस
इनकार से
तुम्हीं खोओगे
कुछ, ज्ञानी
का कुछ भी
नहीं खोता है।
उस इनकार से
तुम ही बंद हो
जाओगे। उस
इनकार से तुम्हारा
ज्ञानी से
संबंध
निर्मित नहीं
हो पाएगा। और
उस संबंध के
निर्मित होने
में तुम्हारी
भी क्रांति की
संभावना छिपी
थी। जो असंभव
ज्ञानी के
भीतर घटा है, वह तुम्हारे
भीतर भी घट
सकता है। बीज
रूप से तुम भी
वही हो। "तत्त्वमसि
श्वेतकेतु"--उपनिषद
कहते हैं, "तू
भी वही है
श्वेतकेतु।"
लेकिन
यह होना तभी
संभव है, जब
तुम्हें कोई
महिमा-मंडित
व्यक्ति पर
भरोसा आ जाए।
वह भरोसा ही
तुम्हारे
भीतर के बीज
को तोड़ेगा,
अंकुरित
करेगा, तुम
भी खुले आकाश
में उठोगे।
कभी संभावना
है, कि
तुम्हारे भी
फूल खिल सकें।
दूसरा
प्रश्न :
क्या
हम सब की मनःस्थितियों
को देखकर भी
आप कबीर की
भांति कह सकते
हैं, "साधो
सहज समाधि भली?"
कबीर
ने तुम्हारी
मनःस्थिति
देखकर ही कहा
था। तुम्हारे
जैसे ही लोग
कबीर के पास
इकट्ठे थे। अलग
तरह के लोग
लाओगे कहां से?दो
ही तरह के लोग
हैं। ज्ञानी
हैं, अज्ञानी
हैं। और जब भी
कभी कोई
ज्ञानी का
दीया जलता है,
तो जो दीये
की खोज में
हैं, रोशनी
की खोज में
हैं; वे
इकट्ठे हो
जाते हैं। तुम
ही बुद्ध के
पास थे, तुम
ही महावीर के,
तुम ही कबीर
के। तुम्हारे
जैसे ही लोग!
तुम से
ही कहा था
"साधो सहज समाधि
भली;" किसी और
से नहीं। अगर
किसी और से
कहा होता तो मैं
तुम्हें
समझाता ही
नहीं, फायदा
ही क्या? अगर
किसी और को
कहा था, तो
तुमको समझाने
की क्या जरूरत
है? तुमसे
ही कहा था। उस
बार तुम चूक
गए; सोचता
हूं, शायद
इस बार समझ
जाओ!
और
क्यों कहा था, "साधो सहज
समाधि भली?"क्योंकि तुम
सब के मन में
यह खयाल है, कि समाधि
बड़ी कठिन बात
है। कठिन ही
नहीं, असंभव!
और यह खयाल
तुमने ही पैदा
कर लिया है। कोई
ज्ञानी नहीं
कहता कि समाधि
कठिन बात है।
यह तुमने ही
पैदा कर लिया
है। यह
तुम्हारी
तरकीब है।
तुम्हें
जो काम नहीं
करना, उसको
तुम असंभव
कहते हो।
जिससे
तुम्हें बचना
है, उसे
तुम कठिन कहते
हो। जिस तरफ
तुम्हें जाना
ही नहीं, उस
तरफ तुम कहते
हो, यह
होने वाला ही
नहीं; यह
बहुत मुश्किल
है। यह अपने
वश के बाहर
है। जो वश के
भीतर है, वही
हम करें।
यह तो
वश के बाहर
है--मोक्ष, निर्वाण, आनंद। सुख
तो मिल नहीं
रहा हमें, आनंद
कैसे मिलेगा?
यह तो असंभव
है। हम तो सुख
खोज लें। यह
परम-धन मिलेगा,
नहीं
मिलेगा!
सांसारिक धन
ही नहीं मिल
पा रहा है; पहले
तो हम इसे खोज
लें। क्षुद्र
पर ही हाथ नहीं
आ रहे, विराट
पर कैसे आएंगे?
क्षुद्र का
ही द्वार नहीं
खुल रहा, चाबी
नहीं लग रही, विराट का
द्वार कैसे हम
से खुलेगा?कठिन
है। असंभव है।
ऐसे तुम
स्थगित कर
देते हो। इस
तरकीब से तुम
टाल देते हो।
तुम
ध्यान रखना इस
बात का कि जब
तुम किसी चीज
को कठिन कह
देते हो, तो
तुम्हारे
प्रयोजन क्या
हैं? क्यों
तुम कठिन कहते
हो? वस्तुतः
कठिन है या तुम
बचना चाहते हो?
या तुम कहते
हो अभी समय
मेरा नहीं आया,
अभी मुझे
करना नहीं है,
इसलिए कठिन
कहते हो?मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, शांति
चाहिए। उनसे
मैं कहता हूं,
थोड़ा ध्यान
करो। वे कहते
हैं, समय
नहीं है।
अशांति
के लिए समय है, और शांति
के लिए
समय नहीं! और
शांति चाहिए, मुफ१३२त
चाहिए। कोई दे
दो। प्रसाद
में कहीं बटती
हो, मिल
जाए।
इन्हीं
लोगों को मैं
सिनेमा में
बैठे देखूं, इन्हीं
लोगों को होटल
में बैठे देखूं;
ये ही ताश
खेलते हैं।
इनको ही तुम
घर में बैठे देखो,
उसी अखबार
को तीसरी बार
पढ़ रहे हैं!
सुबह दो बार
पढ़ चुके हैं।
अब कुछ काम
नहीं है, उसी
को फिर पढ़ रहे
हैं। इनसे तुम
कभी मिलो घर पर
तो इनसे पूछो,
कि क्या कर
रहे हैं? तो
कहते हैं क्या
करें, समय
नहीं कटता।
और जब
इनसे कहो
ध्यान करो, तो ये ही
सज्जन, जो
समय नहीं कटता,
जो ताश
खेल-खेल कर
समय काट रहे
हैं, सिनेमा
देख-देख कर
समय काटते हैं,
हजार तरह की
मूर्खताएं कर
के समय काटते
हैं; अचानक
उनके मुंह से
एकदम निकलता
है, समय
नहीं है।
और ऐसा
नहीं कि वे
सोच कर कह रहे
हों। यह हो ही
कैसे सकता है, कि समय न हो? क्योंकि समय
तो सभी के पास
बराबर है।
चौबीस घंटे से
ज्यादा न तो
बुद्ध के पास
है, न
तुम्हारे पास
है, न कम
है। अगर चौबीस
घंटे में ही
कोई बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गया
तो तुम भी
चौबीस घंटे
में ही उपलब्ध
हो सकते हो।
और तुम यह आशा
मत रखो कि तुम्हें
कोई पच्चीसवां
अतिरिक्त
घंटा दिया
जाएगा, तब
तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध
होओगे।
चौबीस
ही घंटे हैं।
और तुम सोचते
हो, कि क्या
कर रहे हो तुम?
आठ घंटे कम
से कम सोते
हो। अगर ध्यान
में सच में ही
उत्सुकता है,
और जगह से न
काट सको, नींद
में से एक
घंटा काट सकते
हो। नहीं, लेकिन
नींद में से
कैसे काटोगे?
छह
घंटे दफतर
में रहते
होओगे, पांच
घंटे। दो-चार
घंटे खाना-पीना,
दफतर आने-जाने
में लग जाते
हैं। बाकी समय
का क्या कर
रहे हो? आठ
घंटे सो लेते
हो, आठ
घंटे समझो दफतर
में लगा देते
हो, चार
घंटे
खाना-पीना
स्नान में लग
जाते हैं; बाकी
चार घंटे बचते
हैं। चार घंटे
भी मैं नहीं
कहता। कहता
हूं, एक
घंटा काफी है।
एक
घंटा भी तुम्हारे
पास नहीं है? तो फिर कौन
फिल्म देख रहा
है? सिनेमा
घरों के बाहर
जो क्यू लगे
हैं, उनमें
कौन खड़ा है? तुम को ही
खड़ा देखता
हूं। ताश कौन
खेल रहा है? अखबार कौन
पढ़ रहा है? रेडिओ
कौन सुन
रहा है? टेलिविजन
कौन देख रहा
है? होटलों
में बैठकर
गपशप कौन कर
रहा है? क्लब
किसने बनाए
हैं? कौन लायंस
क्लब में बैठा
है? कौन
रोटरी क्लब
में जाकर
फिजूल की
बातें कर रहा
है? पूना
क्लब में
तुम्हीं बैठे
मिलते हो। यह
सब किसके लिए
चल रहा है
रागरंग?और
जब भी तुमसे
मैं पूछता हूं,
तो तुम कहते
हो समय नहीं
है। तुम्हें
होश भी नहीं
है, तुम क्या
कर रहे हो।
तुम टाल रहे
हो। तुम बात
यह कह रहे हो
कि समय है ही
नहीं; इसलिए
करने का कोई
सवाल न रहा।
जिम्मेवारी
समाप्त हो गई।
अशांति
पैदा करने के
लिए तुम्हारे
पास चौबीस घंटे
हैं। शांति
पैदा करने के
लिए तुम्हारे
पास एक घंटा
नहीं है।
परमात्मा को
लोग कहते हैं
बहुत कठिन है।
तुमने ही
कहानियां गढ़
ली हैं। तुम
ही कहते हो कि
जन्मों-जन्मों
का पाप जब
कटेगा, तब
परमात्मा
मिलेगा।
किस
नासमझ ने
तुमसे कहा है? तुम ही अपने
शास्त्र बना
लेते हो। तुम
बड़े कुशल हो! अगर
जन्मों-जन्मों
का पाप कटने
में उतना ही
समय लगेगा, जितने में
तुमने पाप
किया, तब
तो परमात्मा
कभी भी नहीं
मिलेगा।
जन्मों-जन्मों
से तुम पाप कर
रहे हो, जन्मों-जन्मों
तक काटने में
लगेगा; अगर
इसको हम मध्यबिंदु
समझ लें, तो
अतीत एक
अनंतता है।
क्योंकि कभी
कोई जगत का
प्रारंभ तो
हुआ नहीं। तुम
सदा से ही हो
और पाप कर रहे
हो। और आधा
समय तो तुमने
पाप में बिता
दिया, अब
आधा तुम काटने
में बिताओगे,
परमात्मा
मिलेगा कैसे?
कब मिलेगा?और जब तुम
अपने पाप काट
रहे हो, तब
भी तुम पाप
करना बंद कर
दोगे क्या? इस बीच भी तो
पाप जारी
रहेंगे, कर्म
तो लगते ही
रहेंगे। कुछ
तो करोगे!
उनका कर्म-बंध
होता रहेगा।
तब तो छुटकारा
कभी नहीं
दिखाई पड़ता।
नहीं, ये तुमने ही
सिद्धांत गढ़
लिए हैं अपने
को समझाने के
लिए।
वास्तविक अवस्था
बिलकुल अन्य
है। जैसे
अंधेरे में
दीया जलता है
और हजारों साल
का अंधेरा
क्षण भर में
मिट जाता है, वैसे ही
हजारों साल के
पाप ध्यान के
दीये के जलते
ही मिट जाते
हैं।
क्योंकि
तुमने जो पाप
किए हैं, वे
तुमने
मूर्च्छा में
किए हैं। उनका
तुम पर कोई
दायित्व भी
नहीं है।
बेहोशी में
किए हैं, नशे
में किए हैं।
शराब पीए थे
और कर लिए।
कोई अदालत भी
तुम पर मुकदमा
नहीं चला
सकती; परमात्मा तो
तुमको कैसे
नरक में
डालेगा?
मैंने
सुना है, अकबर
निकलता था एक
रास्ते से; और एक आदमी
ने अपने छप्पर
पर खड़े होकर
उसे गालियां
देनी शुरू कर
दीं। आदमी पकड़
लिया गया, जेलखाने में डाल
दिया गया।
दूसरे दिन
अकबर के सामने
लाया गया।
अकबर ने पूछा,
कि क्या हुआ?
क्यों तू
गालियां बक
रहा था? और किसलिए
तूने यह
उपद्रव किया?उस आदमी ने
कहा, कि
क्षमा करें; मैंने गाली
बकी ही नहीं।
अकबर ने कहा, मैं खुद
मौजूद था, किसी
गवाह की कोई
जरूरत नहीं।
तू गाली बक
रहा था।
उस ने
कहा, मैं फिर
आप से कहता
हूं, गाली
आपने सुनी
होगी, किसी
ने बकी होगी, लेकिन मैंने
नहीं बकी, क्योंकि
मैं शराब पीए
था, मुझे
होश ही न था।
क्या
करोगे इस आदमी
को? अकबर ने
कहा, अगर
होश ही न था तो
छोड़ दो। आगे
से थोड़ा होश
रखने का खयाल
रख।
गाली
देने के लिए
जिम्मेवारी
खत्म हो गई।
होश ही न हो. .
.छोटे बच्चों
को अदालत भी
दंड नहीं देती
क्योंकि
उन्हें होश
नहीं है। शराबी
को अदालत भी
छोड़ देती है, क्योंकि
क्या करोगे? पागल को कोई
अदालत दंड
नहीं देती। वह
हत्या भी कर
दे, तो भी
उसको क्या दंड
दिया जा सकता
है? उसे
पता ही नहीं, वह क्या कर
रहा है।
तुमने
जन्मों-जन्मों
में जो किया
है, उसका
तुम्हें पता
है? या तो
तुम बच्चे हो,
या शराब में
हो, या
पागल हो। नींद
में तुमने
किया है। सपना
था तुम्हारा
अतीत। उसी
सपने को हम
माया कहते हैं।
माया का अर्थ
ही यह है, कि
जिसमें तुमने
जो भी किया है,
वह सपने के
बराबर है।
उसका कोई
मूल्य नहीं
है।
तब तक
जागे नहीं हो, तब तक मूल्य
है। रात सपना
देखते हो; जब
तक जागे नहीं,
तब तक सपने
में मूल्य है।
तुमने एक आदमी
की हत्या कर
दी है और तुम
घबड़ा गए और
भाग रहे हो और
बच रहे और छिप
रहे हो पहाड़ों
में और तब
सपना टूट गया!
अब तुम क्या
करोगे? छिपोगे,
डरोगे,
कि पुलिस
कहीं पकड़ न ले?
तुम सिर्फ
हंसोगे; तुम
कहोगे, सपना
टूट गया। सपने
में हत्या की
थी, सपने
में ही भाग
रहा था।
माया
का केवल अर्थ
इतना है कि
सोए
हुए तुमने
सारे कृत्य
किए हैं। सोए
हुए ही तुम
उनसे बचने की
कोशिश कर रहे
हो।
और
सारी साधना का
सूत्र एक है
कि तुम जाग
जाओ। जागते ही, सोए हुए
तुमने जो किया
है, वह
व्यर्थ हो जाता
है। वह सपने
से ज्यादा
नहीं है।
लेकिन
तुम्हारी
तरकीबें हैं।
तुम कहते हो
कि जब तक अनंत
जन्मों के पाप
न कटेंगे, तब तक कैसे
ज्ञान होगा? ज्ञान कहीं
तत्क्षण हो
सकता है?
और मैं
तुमसे कहता
हूं, ज्ञान जब
भी होता है, तत्क्षण
होता है।
ज्ञान कोई
क्रमिक
प्रक्रिया नहीं
है कि
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
होता है। तुम
जब सुबह जागते
हो तो धीरे-धीरे
जागते हो? एक
क्षण पहले
नींद थी और एक
क्षण बाद होश
है। दोनों के
बीच में कोई
ऐसी जगह होती
है, जब तुम
कह सको कि आधा
होश है, आधा
होश नहीं है? क्योंकि अगर
आधा होश भी है
तो नींद टूट
गई। अगर तुम
कहो कि जरा सा
होश है, बाकी
नींद है; तो
भी नींद टूट
गई। क्योंकि
जिसको इतना भी
पता है, कि
जरा सा होश है,
वह जाग गया।
ऐसी ही
घटना घटती है
अंतस के लोक
में। तुम जाग जाते
हो क्षण में।
लेकिन
तुम कहते
हो--असंभव, कठिन, मुश्किल!
तुम कहते हो
मैं पापी; मुझसे
कैसे होगा? मैंने बड़े
बुरे कर्म किए
हैं, मैं
कैसे
परमात्मा को
पा सकता हूं?सभी ने कर्म
किए हैं और
सभी ने बुरे
कर्म किए हैं।
क्योंकि
बेहोशी में
कोई अच्छे
कर्म कर ही कैसे
सकता है? पाप
से परमात्मा
को पाने में
कोई बाधा नहीं
है। जब तक
तुमने
परमात्मा को
नहीं पाया है,
तब तक पाप
जारी रहेगा।
परमात्मा से
पाप में बाधा
पड़ती है, पाप
से परमात्मा
में बाधा नहीं
पड़ती। और अगर
पाप से
परमात्मा में
बाधा पड़ जाए
तो पाप बड़ा हो गया
है, परमात्मा
छोटा हो गया।
पाने-योग्य भी
न रहा । दो कौड़ी
का हो गया।
फेंक दो उसे
कचरे-घर में।
जब प्रकाश
आता है, तो
अंधेरे में
बाधा पड़ती है।
अंधेरे से
प्रकाश में
बाधा नहीं
पड़ती। दीया
जला, अंधेरे
में बाधा पड़
जाती है।
लेकिन क्या
तुम अंधेरा ला
सकते हो बाहर
से टोकरियों
में भरकर और
दीये पर पटक
सकते हो, कि
दीया बुझ जाए
अंधेरे से? तुम अंधेरा
कैसे
टोकरियों में लाओगे?
तुम दीये
के पास
अंधेरे को न
ला सकोगे। कोई
उपाय नहीं है।
तुम्हारे
ध्यान के पास
कभी पाप नहीं
आता। और ध्यान
बाधा बनता है
पाप में, पाप
बाधा नहीं
बनता ध्यान
में। लेकिन
तुम बड़े होशियार
हो। तुम अपने
को बचाने की
कोशिश में लगे
हो।
इसलिए
तुम कहते हो
कि बड़ा कठिन
है। फिर कठिन
है, तो बड़े
कठिन मार्ग
तुम निर्मित
करते हो। जहां
एक कदम रखकर
पहुंचा जा
सकता है, वहां
तुम हजारों
मील की यात्रा
करके पहुंचते हो।
वह भी पोस्टपोन
करने का, स्थगित
करने का उपाय
है। तुम कहते
हो पूजा करेंगे,
प्रार्थना
करेंगे, यज्ञ
करेंगे, क्रियाकांड करेंगे, तब
कहीं
पहुंचेंगे।
इससे
कुछ संबंध
नहीं पहुंचने
का। यह तुम
करते रहो।
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं पहुंचने
का। यह तुम
जन्मों-जन्मों
तक करते ही
रहे हो। इसलिए
कबीर जैसे लोग, जिन्होंने
जान लिया, वो
कहते हैं, साधो
सहज समाधि
भली। व्यर्थ
ही असहज मत
बनो। व्यर्थ
ही शीर्षासन
करके खड़े मत
हो जाओ; इससे
कुछ हल नहीं
है। व्यर्थ के
उपक्रम मत करो।
बड़ी
सीधी है बात, सीधा है
सत्य। होना भी
चाहिए। असत्य
तिरछा है, आड़ा टेढ़ा
है सत्य तो
सीधा और सरल
है। सत्य तो
बिलकुल निकट
है, असत्य
दूर है। सत्य
में तो कोई
उलझन नहीं है।
सिर्फ तुम्हारा
मन भर उलझा हो,
तो उलझन
दिखाई पड़ती
है। मन सुलझ
जाए, सत्य
बिलकुल साफ
है। सदा से
सुलझा हुआ है।
कभी उलझा न
था।
तो
कबीर कहते हैं, साधो सहज
समाधि भली।"
सहज-समाधि का
अर्थ है : तुम
उठो, बैठो,
चलो, जीयो;
यही
तुम्हारी
जीवन-साधना बन
जाए। इससे
अन्यथा कुछ
करने की जरूरत
नहीं। तुम उठो
तो होश से, चलो
तो होश से, बैठो
तो होश से।
तुम बाजार में
रहो भला, लेकिन
स्मरण
परमात्मा का
बना रहे बस!
मंदिर जाने से
कुछ हल नहीं
है। क्योंकि
मंदिर भी जाकर
क्या होगा अगर
स्मरण बाजार
का बना रहा? और वैसा ही
बना रहता है।
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
मैंने
एक सूफी कहानी
सुनी है, कि
एक आदमी बहुत
भक्त था एक
सूफी फकीर का।
लेकिन उसकी
पत्नी बड़ी
अधार्मिक थी।
न तो कभी धर्म-चर्चा
सुनती, न
संतों के
दर्शन को जाती,
न मंदिर, पूजा, प्रार्थना,
मस्जिद
इससे कुछ
लेना-देना था।
पति बहुत चिंतित
था कि किसी
तरह
पत्नी
भी धार्मिक हो
जाए। तो उसने
अपने गुरु को
कहा, कि मैं तो
थक चुका। अब
आप ही एक दिन
घर आएं; शायद
आप ही उसे जगा
सकें।
गुरु
हंसा; लेकिन
निमंत्रण
दिया था तो वह
दूसरे दिन
सुबह आया।
सुबह-सुबह
पत्नी बुहारी
लगा रही थी और
पति अपने
ध्यान-गृह में
बैठकर ध्यान
कर रहा था। उस सूफी
फकीर ने कहा
कि तुम्हारे
पति ने मुझे
निमंत्रण
दिया था, तो
मैं आ गया
सुबह-सुबह।
मैं तुमसे
पूछता हूं कि
तुम ध्यान में
क्यों उत्सुक
नहीं हो? वह
पत्नी हंसने
लगी। उसने कहा,
आप समझकर भी
पूछ रहे हैं।
मैं आपसे कहती
हूं कि मेरे
पति को थोड़ा
ध्यान में
लगाओ।
सूफी हंसने
लगा। उसने कहा
कि तू मुझे
बता, तेरे पति
अभी कहां हैं?
उस पत्नी ने
कहा कि मेरे
पति इस समय
बाजार में हैं।
और एक जूते की
दुकान पर जूता
खरीद रहे हैं।
और चमार से
उनका झगड़ा
हो गया है और
मारपीट की
नौबत आ गई है।
पति
सुन रहा था
अपने ध्यान
कक्ष में बैठा
हुआ कि यह तो
बिलकुल सरासर.
. .मैं ध्यान
कक्ष में बैठा
हूं।
सुबह-सुबह अभी
दुकान खुली भी
नहीं, बाजार
भी नहीं खुला
और यह पत्नी
सरासर झूठ बोल
रही है!
वह
भागा हुआ बाहर
आया। उसने कहा, मैं घर में
मौजूद हूं।
गुरु से कहा, देख लें
इसको--यह क्या
अवस्था मेरी
कर रखी है! यह
कह रही है, कि
बाजार. . .बाजार
अभी खुला नहीं,
चमारों की
दुकानें अभी
बंद हैं। और
मैं यहां ध्यान
कर रहा हूं और
यह कह रही है
चमार की दुकान
पर. . उस फकीर ने
कहा कि तुम
आंखें बंद करो
और ठीक से
देखो क्योंकि
मैं भी मानता
हूं, तुम्हारी
पत्नी ठीक है।
तब तो
वह घबड़ाया। उसने
आंख बंद की और
उसने गौर किया
तो उसने पाया
कि पत्नी ठीक
कह रही है।
जूते फट गए
हैं और वह कल
रात से सोच
रहा है कि
बाजार खरीदने
जाना है। तो
ऐसे बैठा था
ध्यान करने, माला फेर
रहा था, लेकिन
वह माला हाथ
में ही फिर
रही थी। भीतर
कल्पना में वह
बाजार पहुंच
गया था और
चमार की दुकान
पर जूते खरीद
रहा था।
मोल-भाव हो
रहा था और झगड़ा
बढ़ गया। वह
बहुत ज्यादा
दाम मांग रहा
था और वह कम
बता रहा था, और फजीहत हो
गई ज्यादा और
एक दूसरे के
गर्दन को पकड़
लिया। और जब
इस पत्नी ने
बताया फकीर को,
तब वह गर्दन
को पकड़े
ही था; मारपीट
होने के करीब
थी।
तुम
अपने मंदिर
में बैठ कर भी
चमार की दुकान
पर हो सकते
हो। तुम चमार
की दुकान में
होकर भी मंदिर
में हो सकते
हो। इसलिए
मंदिर में
होने का सवाल
नहीं है; सवाल
तुम्हारे
चित्त के गुण
का है, तुम्हारे
स्मरण का है।
तुम कहां हो
यह सवाल नहीं
है; तुम
क्या हो, वही
सवाल है।
तुम
दुकान पर बैठो, लेकिन स्मरण
परमात्मा का
रहे। तुम
रास्ते पर चलो,
लेकिन
स्मरण
परमात्मा का
रहे। तुम भोजन
करो, लेकिन
स्मरण
परमात्मा का
रहे। तुम
बिस्तर पर सोओ,
लेकिन
स्मरण
परमात्मा का
रहे।
परमात्मा का स्मरण
धीरे-धीरे
रोएं-रोएं में
समा जाए।
और अगर
परमात्मा को
मानना कठिन हो, जो कि बहुत
लोगों के लिए
कठिन है। वह
भी तुमने कठिन
बना रखा है
मानना।
क्योंकि
मानेंगे तो फिर
खोजना पड़ेगा।
मानेंगे तो
फिर बदलना
पड़ेगा। इसलिए
अधिक लोग
नास्तिक हैं।
नास्तिकता का कुल
इतना ही अर्थ
है, कि हम
मानते ही नहीं,
इसलिए झंझट
ही नहीं खोज
की। फिर जो हम
कर रहे हैं, ठीक है।
उससे अन्यथा
कुछ हो ही
नहीं सकता।
तुम
मानते भी नहीं
हो। मानने की
कोई जरूरत भी नहीं
है। नास्तिक
हो अगर तुम, तो परमात्मा
का स्मरण मत
करो, अपना
स्मरण करो।
असली सवाल
स्मरण
है--किसका, यह
भी सवाल नहीं
है। राम का, रहीम का, कृष्ण
का, बुद्ध
का--यह भी सवाल
नहीं। अपना ही
करो।
अंग्रेज
कवि हुआ टेनिसन।
और उसने अपने
संस्मरण में
एक बड़ी अनूठी
बात लिखी है।
उसने लिखा है
कि मैं छोटा
बच्चा था और
मुझे घर में
जल्दी सोने
भेज दिया
जाता। घर के
लोग तो देर तक
जागते, लेकिन
बच्चे को
जल्दी भेज देते।
मुझे नींद न
आती और कोई
उपाय न था और
अंधेरे में
मुझे डर भी
लगता। अंधेरा
कर देते कमरे
में और दरवाजा
बंद कर देते
और कहते, कि
सो जाओ। और
सोना पड़ता। और
नींद न आती और
अंधेरे में
भूत-प्रेत
दिखाई पड़ते और
डर भी लगता।
तो मैं
आंख बंद करके, कि क्या
करूं--पिता नास्तिक
थे इसलिए कोई
प्रार्थना
कभी सिखाई नहीं
थी। परमात्मा
का कोई नाम
नहीं सिखाया,
तो क्या
करूं? तो
मैं अपना ही
नाम दोहराता :
"टेनिसन-टेनिसन-टेनिसन"।
उससे थोड़ी
हिम्मत बढ़ती,
थोड़ी गर्मी
आती और "टेनिसन,
टेनिसन,
टेनिसन
दोहराते-दोहराते
मैं सो जाता।
धीरे-धीरे
यह अभ्यास हो
गया। और जब भी
चिंता पकड़ती, कोई तनाव
होता तो टेनिसन
कहता है, बस
तीन बार भीतर
आंख बंद करके
मुझे इतना ही
कहना पड़ताः
"टेनिसन,
टेनिसन,
टेनिसन;
और सब शांत
हो जाता।
मंत्र हो गया
अपना ही नाम।
और टेनिसन
ने लिखा है, कि मैं इससे
बड़े गहरे
ध्यान में
उतरने लगा। यह
तो मुझे बहुत
बाद में पता
चला कि इसे
लोग ध्यान
कहते हैं।
अपना
ही नाम का
स्मरण भी
तुम्हें
परमात्मा तक पहुंचा
सकता है। यह
सवाल नहीं है, क्योंकि सभी
नाम उसके हैं।
तुम्हारा नाम
भी उसी का है। टेनिसन भी
उसी का नाम
है। अल्लाह
उसी का नाम है,
राम उसी का
नाम है। कोई
दशरथ के बेटे
ने ठेका लिया
है? तुम भी
किसी दशरथ के
बेटे हो।
तुम्हारा नाम
भी उसी का नाम
है।
तुम
अपना ही नाम
भी अगर दोहराओ, तो भी
परिणाम वही
होगा।
क्योंकि असली
सवाल बोधपूर्वक
भीतर स्मरण को
जगाने का है।
अगर "टेनिसन,
टेनिसन,
टेनिसन" या "राम, राम, राम"
कुछ भी तुम
दोहराते हो, उस के
दोहराने के
क्षण में ही
भीतर एक शांत
अवस्था बनने
लगती है। और
उसको
दोहराते-दोहराते
तुम्हें यह
दिखाई पड़ने
लगता है कि
दोहराने वाला
अलग है और जो
दोहराया जा
रहा है, वह
अलग है। तुम
धीरे-धीरे
साक्षी-भाव को
उत्पन्न होने
लगते हो।
स्मरण
साक्षी-भाव की
सीढ़ियां
हैं। जितना
स्मरण गहरा
होता है, उतने
तुम
साक्षी-भाव से
भर जाते हो।
इसे तुम करके
देखो। अगर न
हो परमात्मा
पर भरोसा, कोई
चिंता नहीं, तुम अपना ही
स्मरण करो।
बुद्ध
ने यही कहा है, कि न कोई
परमात्मा है,
न कोई आकाश
में बैठा हुआ
नियंता है। तो
साधक क्या
करें? तो
बुद्ध ने कहा
है, होश से
चले, होश
से बैठे, होश
से उठे।
बुद्ध
का एक भिक्षु
आनंद पूछने
लगा; वह एक
यात्रा पर जा
रहा था और
उसने पूछा कि
भगवान, कुछ
मुझे पूछना
है।
स्त्रियों के
संबंध में मन
में अभी भी
काम-वासना
उठती है; तो
स्त्रियां
मिल जाएं तो
उनसे कैसा
व्यवहार करना?
तो
बुद्ध ने कहा, "स्त्रियां
अगर मिल जाएं
तो बचकर चलना।
दूर से निकल
जाना।"
आनंद
ने कहा, "और
अगर ऐसी
स्थिति आ जाए
कि बचकर न
निकल सकें?
तो
बुद्ध ने कहा, " आंख नीची
झुकाकर निकल
जाना।
आनंद
ने कहा, और
यह भी हो सकता
है कि ऐसी
स्थिति आ जाए
कि आंख भी
झुकाना संभव न
हो। समझो, कि
कोई स्त्री
गिर पड़ी हो और
उसे उठाना
पड़े। या कोई
स्त्री कुएं
में गिर पड़ी
हो और जाकर
उसको सहारा
देना पड़े; या
कोई स्त्री
बीमार हो; ऐसी
स्थिति आ जाए
कि आंख बचाकर
भी चलना
मुश्किल हो
जाए?
तो
बुद्ध ने कहा, "छूना मत।"
और आनंद
ने कहा, "अगर
ऐसी अवस्था आ
जाए कि छूना
भी पड़े?तो
बुद्ध ने कहा,
कि जो मैं
इन सारी बातों
से कह रहा हूं,
उसका सार
कहे देता हूं :
छूना, देखना,
जो करना हो
करना--होश
रखना।
इन
सारी बातों
में मतलब वही
है। स्त्री से
बचकर निकल
जाना, तो भी
होश रखना
पड़ेगा।
स्त्री को
बिना देखे
निकल जाना, तो भी होश
रखना पड़ेगा।
बेहोशी में तो
आंख स्त्री की
तरफ अपने आप
चली जाती है।
बेहोशी में तो
पैर स्त्री की
तरफ चलने लगते
हैं, विपरीत
नहीं जाते।
बेहोशी में तो
भीड़ में स्त्री
को धक्का
लगाने के लिए
शरीर तत्पर हो
जाता है। बच
कर निकलना तो
दूर, अगर
स्त्री बच कर
निकलना चाहे
तो भी उसको बच
कर निकलने
देना मुश्किल
हो जाता है।
बेहोशी में तो
स्त्री को
छूने का मन
होता है।
तो
बुद्ध ने कहा, फिर मैं
तुझे सार की
बात कहे देता
हूं। ये तो गौण
बातें थीं।
लेकिन उन सब
गौण बातों में
वही धागा
अनुस्यूत था।
जैसे माला के
मनकों में
धागा
अनुस्यूत
होता है। मनके
दिखाई पड़ते
हैं, धागा
दिखाई नहीं
पड़ता--वह है
होश।
कबीर
उसको ही सुरति
कहते हैं। और
जिस व्यक्ति का
होश सध जाए, फिर उसे कोई
असहज क्रम
नहीं करना
पड़ता उलटा-सीधा।
कबीर कहते हैं,
न तो मैं
नाक बंद करता,
न आंख बंद
करता, न उलटी-सीधी
सांस लेता, न प्राणायाम
करता, न
उलटा सिर पर
खड़ा होता, न
शीर्षासन
करता; कुछ
भी नहीं करता;
सिर्फ होश
को सम्हालकर
रखता हूं।
सिर्फ सुरति
को बनाए रखता
हूं। बस, सुरित
का दीया भीतर
जलता रहता है।
और जीवन
पवित्र हो
जाता है।
सुरति
का दीया भीतर
जलते-जलते एक
ऐसी घड़ी आती
है, जब
निष्कंप हो
जाता है। उस
घड़ी का नाम
समाधि।
शुरू-शुरू
में सुरति का
दीया कंपता
है। पुरानी
वासनाओं के
झोंके आएंगे, पुरानी
आदतों के
झोंके आएंगे,
पुराने
संस्कार के
झोंके आएंगे।
बहुत बार दीया
झुकेगा, कंपेगा,
लौ कंपित
होगी, जीवन
भीतर चंचल
रहेगा, भान
कभी रहेगा, कभी छूटेगा,
कभी होश सम्हलेगा,
कभी नहीं भी
सम्हलेगा,
कभी गिरोगे,
कभी उठोगे,
शुरू में
स्वाभाविक
है।
तो
सुरति की दो स्थितियां
हैं। जब भीतर
की चेतना
कंपती रहती है, उस स्थिति
का नाम ध्यान।
और जब भीतर की
चेतना अकंप हो
जाती है, उस
स्थिति का नाम
समाधि। और
कबीर कहते हैं,
सहज ही सध
जाती है; तुम
व्यर्थ के
उपद्रव क्यों
कर रहे हो?और
यही मैं तुमसे
भी कहता हूं।
क्योंकि कबीर
को भी
सुननेवाले
तुम ही थे, तुम
ही हो। लेकिन
तुम तरकीबें
निकाल लेते
हो। कबीर से
बच जाते हो, बुद्ध से बच
जाते हो, कृष्ण
से बच जाते हो,
तुम बचे चले
जाते हो।
बुद्ध
ने जो स्त्री
से बचने को
कहा, वही तुम
बुद्धों के
साथ व्यवहार
कर रहे हो! पहले
तो बुद्ध
दिखाई पड़े तो
बच कर निकल
जाना! अगर मजबूरी
आ जाए और
देखना ही पड़े,
पास से
निकलना पड़े तो
आंख झुकाकर
निकल जाना! अगर
फिर भी मजबूरी
खड़ी हो जाए और
आंख भी न झुका
पाओ तो छूना
मत! अगर छू भी
लो, तो होश
रखना कि यह
आदमी बुद्ध है,
अछूत है, बीमारी है!
यह तुम्हें
मिटा डालेगा।
इस
भांति तुम चल
रहे हो। इससे
तुम चूकते गए
हो। और जितना
तुम चूकते हो, उतना ही तुम
सोचते हो कठिन
होगा, कठिन
होगा, तभी
तो हम चूक रहे
हैं। तुम चूक
रहे हो चालाकी
से।
सत्य
कठिन नहीं है, तुम्हारी
चालाकी बड़ी
जटिल है।
तीसरा
प्रश्न :
आपके
पास आकर पीड़ा
का रूप ऐसा
बदल गया है कि
पहले कारण पता
चलता था, अब तो कारण
ही कभी-कभी
पता नहीं चलता
है और पीड़ा
बहुत घनी होती
है। यह क्या
है?
शुभ
लक्षण है।
पीड़ा
का कारण बाहर
नहीं है, तुम्हारे
होने का ढंग
है। लेकिन
साधारण आदमी की
तरकीब यह है
कि वह सदा
बाहर कारण
खोजता है। तुम
दुखी हो। तुम
तत्क्षण कारण
खोजते हो बाहर
कि कौन मुझे
दुखी कर रहा
है? क्या
कारण है मेरे
दुख का?और
बड़ा संसार है
चारों तरफ।
कोई न कोई
कारण तुम खोज
लेते हो। वह
कारण झूठा है।
दुखी तुम हो
बिना कारण।
क्योंकि
तुम्हारे
जीवन का ढंग
मूर्च्छा से
भरा है। और
मूर्च्छा का
अर्थ है दुख।
मूर्च्छा में
दुख ही फलता
है और कुछ
नहीं फलता।
मूर्च्छा में
दुख के ही फूल
लगते हैं और
कोई फूल नहीं
लगते। दुख के
कांटे लगते
हैं, कहना चाहिए।
जहर ही लगता
है।
लेकिन
कारण तुम बाहर
खोजते हो। तुम
दुखी हो, तो
तुम कारण बाहर
खोजते हो। तुम
क्रोधित हो, तो तुम कारण
बाहर खोजते हो,
कि किसी ने
अपमान किया
होगा जरूर!
कोई दुख दे रहा
है तभी तो मैं
दुखी हूं।
जैसे-जैसे
तुम्हारा
ध्यान सम्हलेगा, वैसे-वैसे
तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कारण तो कोई
भी नहीं है, तुम ही हो।
तब धीरे-धीरे
तुम पाओगे कि
किसी के गाली
देने से तुम
क्रोधित नहीं
होते; तुम
क्रोधित होते
हो, क्योंकि
क्रोध
तुम्हारे
भीतर है। गाली
तो सिर्फ
निमित्त है।
गाली
तो ऐसे है, जैसे किसी
ने कुएं में
बालटी डाली और
पानी भरके
बालटी में
बाहर आ गया।
अगर कुएं में
पानी न होता
तो बालटी पानी
ला सकती थी? गाली तो
बालटी है।
किसी ने
तुम्हारे
भीतर डाली; अगर क्रोध न
होता तो गाली
की बालटी
क्रोध को बाहर
ला सकती थी? कुआं अगर
खाली होता तो
बालटी भटकती,
थोड़ा
शोरगुल करती,
उठती-गिरती
खाली वापस लौट
आती।
और जब
मैं यह कह रहा
हूं, तो ऐसा
होता रहा है।
बुद्ध को भी
तुमने गालियां
दी हैं, जीसस
को भी गालियां
दी हैं, तुम्हारी
बालटी खाली ही
वापस लौट आई
है। कोई क्रोध
वहां से वापस
नहीं लौटा।
गाली
ज्यादा से
ज्यादा निमित्त
हो सकती है, लेकिन कारण
नहीं है। कारण
और निमित्त का
यही फर्क है।
कारण तो तुम
हो, गाली
निमित्त है।
और अगर आज कोई
गाली न
देता
तो तुम कोई और
निमित्त खोज
लेते।
निमित्त
तुम खोजते ही; क्योंकि
तुम्हारे
भीतर जो क्रोध
उबल रहा था, उसे बाहर
निकलने के लिए
कोई सहारा
चाहिए था। अगर
बिना सहारे
निकलेगा तो
तुम पागल
मालूम पड़ोगे।
तुम कोई न कोई
कारण खोज लेते।
तुम घर आते और
पत्नी के
व्यवहार में
तुम्हें कोई
कमी दिखाई पड़
जाती, या
रोटी जली हुई
मालूम पड़ती।
रोज भी ऐसी ही
जली थी, लेकिन
कल जली दिखायी
न पड़ी थी। आज
भीतर क्रोध उबल
रहा है, तुम
कोई बहाना खोज
रहे हो। तुम
कहीं न कहीं
टूट पड़ते। तुम
कारण खोजकर
बहते। मवाद
भीतर है। तुम
जरा सा धक्का
बाहर का चाहते
हो। कोई दे दे
तो ठीक; कोई
न दे, तो
तुम कल्पित कर
लेते कि किसी
ने धक्का
दिया।
क्योंकि मवाद
बहना चाहेगी।
दुख
तुम्हारे
भीतर है, पीड़ा
तुम्हारे
भीतर है। तुम
जैसे हो, पीड़ा
की एक गांठ
हो। तुम जैसे
हो, एक घाव
हो, एक
नासूर हो, जो
सदा दुख रहा
है। किसी तरह
सम्हाल कर
उसको चलते हो।
किसी का धक्का
लग जाता है।
कभी
तुमने खयाल
किया? पैर
में चोट लग गई
है, तो फिर
उस दिन, दिन
भर पैर में ही
चोट लगती है।
तुम भी चकित
होते हो कि
मामला क्या है?
आज दरवाजा
पैर में ही
क्यों लगता है?
कुर्सी की
टांग पैर में
ही क्यों लगती
है? बच्चा
भी आकर उसी
पैर पर क्यों
खड़ा हो गया? यह सारी
दुनिया पैर के
पीछे क्यों
पड़ी है?
कोई
पीछे नहीं पड़ा
है। रोज भी
यही होता था, लेकिन रोज
तुम्हारे पैर
में दर्द न था,
आज दर्द है
तो चोट लगती
है। बच्चा रोज
उसी पैर पर
खड़ा हो जाता
था आकर, पता
ही न चलता था।
आज पता चलता
है। जहां घाव
होता है, वहां
पीड़ा पता चलती
है।
पीड़ा
तुम हो।
जैसे-जैसे
ध्यान बनेगा, सधेगा, वैसे-वैसे
कारण गिरते
जाएंगे। तब
बड़ी घबड़ाहट
होगी। घबड़ाहट
यह होगी कि
मैं अपने ही
कारण दुख में
हूं। जब कोई
कारण न दिखेगा,
तभी
तुम्हें मूल
कारण दिखाई
पड़ेगा, कि
मैं ही कारण
हूं, मैं
ही अपना नरक
हूं।
और यह
बहुत बड़ा
अनुभव है।
इससे गुजरना
ही पड़ता है।
बहुत पीड़ादायी
है। बड़ा संतापपूर्ण
है। छेद देता
है बुरी तरह
प्राणों को। तड़फड़ाते
हो। पीछे लौट
जाने का मन
होगा, कि
वही दुनिया
अच्छी
थी, दूसरे पर
दोष डालकर जी
तो लेते थे! अब
तो कोई दूसरा
दोषी भी न
रहा। हम ही
दोषी हो गए।
लेकिन
अगर हिम्मत से
इसको पार कर
गए, तो तुम
पाओगे कि जो
व्यक्ति
हिम्मत से इसे
पार कर जाता
है, पहले
दूसरों पर से
कारण हट जाते
हैं। सब कारण
स्वयं में आ जाते
हैं। और जब सब
कारण स्वयं
में आ जाते
हैं तो
जीवन-क्रांति
अनिवार्य हो
जाती है।
अब तक
तुम सोचते थे
दूसरों को बदल
दें। पत्नी सोचती
थी, पति बदल
जाए तो सब
शांति होगी।
पति सोचता था,
पत्नी बदल
जाए, तब सब
शांति होगी।
बेटा सोचता था
बाप बदल जाए, बाप सोचता
था बेटा बदल
जाए। अभी तक
का तर्क यह था
कि सारी
दुनिया बदल
जाए तो हम
शांत होंगे। और
यह होनेवाला
नहीं; इसलिए
तुम शांत होने
के लिए कोई
उपाय ही न पाते
थे।
अब
सारा तर्क यह
होगा, कि अब
मुझ को ही को
बदलना है।
किसी को बदलने
का सवाल नहीं।
संसार को नहीं
बदलना है, स्वयं
को बदलना है।
जिसे
ऐसा दिखाई पड़
गया, वह मंदिर
के बिलकुल
द्वार पर खड़ा
हो गया। भाग सकता
है मंदिर के
द्वार से।
क्योंकि
पुरानी दुनिया
ज्यादा राहतपूर्ण
मालूम होती
थी। दूसरे को
दोष दे लेते
थे। चित्त को
राहत मिल जाती
थी।
अब यह
बड़ी पीड़ा
मालूम होगी।
पीड़ा सघन
होगी। हम ही
दुख हैं, इसे
झेलना
मुश्किल
होगा। लेकिन
अगर तुम झेल गए
तो इसी झेलने
से क्रांति
पैदा होती है।
जब तुम देख
लेते हो, मैं
ही कारण हूं।
तो अब
तुम्हारे हाथ
में है। दुखी
होना हो, तो
जैसे हो वैसे
ही बने रहो।
दुखी न होना
हो, रूपांतरित
हो जाओ। और
दुनिया में
कोई किसी दूसरे
को नहीं बदल
सकता, सिर्फ
स्वयं को बदल
सकता है। एक
ही बदलाहट संभव
है, वह
तुम्हारी
अपनी। किसी
दूसरे को
बदलने का कोई
भी उपाय नहीं
है। जितने
जल्दी तुम समझ
लो उतना अच्छा,
कि कोई किसी
को कभी नहीं
बदल पाया है।
ज्यादा से
ज्यादा कोई
अपने को बदल
लेता है। लेकिन
अपने को बदलते
ही सारी
दुनिया बदल
जाती है। तब
एक नया जन्म
होता है
तुम्हारा। और
जैसे कल तक
तुम पीड़ा के
घाव थे, अब
तुम भीतर एक
आनंद के नृत्य
हो जाते हो।
और अब एक
दूसरी यात्रा
शुरू होती है
कि हर कोई कारण
बन जाता है
तुम्हारे
आनंद के बहने
के लिए।
एक
बच्चा
मुस्कुराता
हुआ निकल जाता
है और तुम अपूर्व
पुलक से भर
जाते हो। एक
फूल खिलता है
और तुम्हारे
भीतर कुछ
नाचने लगता
है। आकाश में तारे
उगते हैं और
तुम मग्न हो
जाते हो। कोई
वीणा बजाता है
और तुम्हारे
भीतर के तार छिड़ जाते
हैं। झरने में
कलकल का नाद
होता है और
तुम्हारा हृदय
आकंठ भर जाता
है किसी
अपूर्व आनंद
से। अब सब तरफ
आनंद के कारण
मिलने लगते
हैं। जैसे कल
सब तरफ दुख के
कारण मिलते थे, अब सब तरफ
आनंद के कारण
मिलने लगते
हैं।
तुम ही
हो दुख, तुम
ही हो नरक, तुम
ही हो स्वर्ग,
तुम ही हो महासुख।
महावीर ने कहा
है तुम ही हो
शत्रु अपने और
तुम ही हो
मित्र। न तो
तुमसे बड़ा
तुम्हारा कोई
शत्रु है, और
न तुमसे बड़ा
तुम्हारा कोई
मित्र है।
शत्रु हो, अगर
तुम दुख को
दूसरों पर खोज
रहे हो। अगर
मित्र बनना है
अपने, तो
आनंद को भीतर
पैदा कर लो और
तुम पाओगे, सारा जगत
तुम्हारे
उत्सव में
सम्मिलित हो
जाता है। सारा
जगत उत्सव मना
ही रहा है। वह
तुम्हारे लिए
रुका भी नहीं
है। पक्षी गीत
गाए चले ही जा
रहे हैं।
वृक्षों में हवाएं नाच
रही हैं। आकाश
में बादल तिर
रहे हैं।
झीलें परम
शांति से भरी
हैं। हिमालय
के शिखर परम
आनंद में उठे
हैं।
सब तरफ
आनंद है। एक
तुम अपने भीतर
दुख की गांठ लिए
चल रहे हो। अब
वह गांठ पक गई
है बुरी तरह।
जरा भी छू
जाती है, तो
बस नरक फूट
पड़ता है। इस
गांठ को हटा
दो। यह हट
सकती है, इसके
हटाने का पहला
उपाय तो यह है
कि तुम दूसरों
फर दोष देना
बंद कर दो। सब
बात के लिए
स्वयं दोषी हो
जाओ। यही है रिस्पांसिबिलिटी;
यही है
उत्तरदायित्व
कि तुम अपने
लिए स्वयं जिम्मेदार
हो। कोई दूसरा
जिम्मेदार
नहीं है।
इससे
ही पहली आत्मभावना
पैदा होती है।
फिर नरक से
गुजरना
पड़ेगा। थोड़े
दिन बड़ी पीड़ा
होगी, जैसी
कभी न थी।
जैसे सुबह होने
के पहले गहन
अंधकार हो
जाता है, ऐसे
ही स्वर्ग के
उठने के पहले
नरक बहुत सघन
हो जाता है।
आखरी
प्रश्न :
तृष्णा, पीछा न छोड़े,
मन कोलाहल
से भरा हो और
बेईमानी चोरी
का साम्राज्य
हो; करें
तो मुश्किल, न करें तो
मुश्किल, इस
स्थिति में
आचरण तो कोई
भी अंदर से न आएगा।
कृपया बताएं,
कि ऊंट किस
करवट
बैठे--विधायक
या
निषेधात्मक?
ऊंट
का बैठना
जरूरी नहीं
है।
इस तरह
के सारे
प्रश्न यह
मानकर चलते
हैं कि दो ही
विकल्प हैं।
"ऊंट किस करवट
बैठे"-- यह हम मान
ही लेते हैं
कि ऊंट को
बैठना ही
पड़ेगा। करवट
लेनी ही पड़ेगी, इसलिए चुनाव
जरूरी है।
तर्कशास्त्र
में एक तर्क
की व्यवस्था
है, जिसको डायलेमा
कहते हैं; मेढ़ा-न्याय।
उसमें इस तरह
के प्रश्न
होते हैं कि तुम
भैंस के दो
सींगों के बीच
फंसे हो तो
तुम कौन सा
सींग चुनोगे?
कुआं या खाई?
मान लिया
जाता है कि दो
ही विकल्प
हैं। और तब अड़चन
खड़ी होती है, क्योंकि कोई
भी सींग चुनो,
दुख पाओगे।
कोई भी करवट
ऊंट बैठे, दुख
पाएगा।
चुनाव
किया कि दुख
पाया।
अगर
तुम्हारे
भीतर
कामवासना उठ
रही है--उदाहरण
के लिए-- अब दो
ही विकल्प
हैं। दो ही
सींग हैं भैंस
के। या तो
विवाह कर लो
और या
ब्रह्मचारी हो
जाओ। विवाह
करो, तो भी दुख
पाओगे। जाकर
विवाहित
लोगों को देख
लो। सभी
विवाहित लोग
सोचते हैं कि
ब्रह्मचारी
ही रह गए होते
तो अच्छा था।
ऐसा विवाहित
आदमी तुम्हें
न मिलेगा
खोजने से, जिसके
मन में कई बार
यह खयाल न उठा
हो कि अविवाहित
ही रह गए होते
तो अच्छा था।
दुख
पाओगे। करवट
चुन ली।
फिर ब्रह्मचारी
हैं। तुम यह
मत समझना कि
वे सुखी हैं।
वे दुखी हैं, क्योंकि
कामवासना
उन्हें सता
रही हैं। विवाह
नहीं किया, इससे क्या
होता है? सपने
में सताती है,
मन में
घूमती है, चारों
तरफ से ग्रसती
है। विवाहित
व्यक्ति से भी
ज्यादा
कामातुर हो
जाता है
ब्रह्मचारी
का मन।
क्योंकि
विवाहित को तो
थोड़ा सा निकास
है। ब्रह्मचारी
को तो कोई
निकास न रहा।
और
कामवासना कोई
ऊपर से थोपी
गई चीज नहीं
है कि तुमने
फिल्मों में
देखकर सीख ली
है, जैसे
दूसरे
तुम्हारे मूढ़
साधु-संन्यासी
समझते रहते
हैं कि लोग
कामातुर हुए
जा रहे हैं? तो जानवर भी
फिल्म देख रहे
हैं? वे
काहे को
कामातुर हुए
जा रहे हैं? कि लोग
कामुक हो गए
हैं, क्योंकि
गलत साहित्य
पढ़ रहे हैं।
वृक्ष भी कामातुर
हैं; नहीं
तो फूल नहीं
लगेंगे, फल
न लगेंगे।
पक्षी भी
कामातुर हैं।
वह जो कोयल बोल
रही है, वह
काम का गीत
है। जो मोर
नाच रहा है, वह काम का
नृत्य है।
उन्होंने कौन
सी गंदी
किताबें पढ़ी
हैं?
कौन सा
अश्लील
साहित्य पढ़ा
है?
कामवासना
नैसर्गिक है।
इसलिए तुम उसे, सिर्फ
निर्णय कर
लेने से कि हम
विवाह न
करेंगे, बच
नहीं सकते।
इसलिए
ब्रह्मचारी
और भी ग्रसता
है, और भी
बुरी तरह फंसता
है । और तुम
ऐसा
ब्रह्मचारी न
पाओगे, जिसके
मन में यह
खयाल न आता हो
कि विवाह ही
कर लिया होता
तो अच्छा था।
यह बड़ी
मुश्किल की
बात है। ऊंट
किसी करवट
बैठे, फंसता है। और अगर
तुम कहते हो
कि दो ही
विकल्प हैं तो
मैं कहता हूं,
विवाह करके
ही फंसना।
अगर दो
ही विकल्प हैं
तो मैं कहता
हूं, विवाह
करके ही
फंसना।
अगर दो
ही विकल्प
हैं! यद्यपि
वह मेरी
मान्यता
नहीं। तीसरा
विकल्प मैं
तुमसे
कहूंगा। लेकिन
अगर ऐसा हो कि
दो ही विकल्प
सूझते हों, तो कर के
पछताना बेहतर
है, बजाय न
करके पछताने
के। क्यों? क्योंकि
करके आदमी कुछ
सीखता है। न
कर के कुछ भी
नहीं सीखता।
तो विवाहित
आदमी किसी न
किसी दिन
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकता है ऊब कर,
थककर, उपद्रव से
परेशान होकर,
देखकर, जीवन
की स्थिति को
समझकर प्रौढ़
हो सकता है।
लेकिन
जो
ब्रह्मचारी
रह गया है
पहले से, वह
कभी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध न
हो पाएगा। उसके
मन में दमित
वासना अपना
जाल फैलाती
रहेगी। इसलिए
मैं देखता हूं
कि अगर आदमी
ठीक से गृहस्थ
रहा हो, तो
पचास साल के
करीब आते-आते
अपने आप ही एक
सहज ब्रह्मचर्य
पैदा होना
शुरू हो जाता
है।
इसलिए
हिंदुओं
ने--जो कि
संसार में
बहुत ही ज्यादा
निसर्ग के
अनुकूल धर्म
है। उससे
ज्यादा
निसर्ग के
अनुकूल कोई
धर्म नहीं है।
महावीर और
बुद्ध का धर्म
निसर्ग के
अनुकूल नहीं
मालूम पड़ता।
लेकिन हिंदू
बहुत निसर्ग के
अनुकूल हैं।
शायद इसका
कारण है कि
हिंदू इतनी
पुरानी जाति
है, और इसने
इतने अनुभव
लिए हैं
हजारों
प्रकार के, वह उन सब का निचोड़ है।
तो
हिंदू कहते
हैं पच्चीस
वर्ष तक, शुरू
के प्रथम चरण
में जीवन के
विद्यार्जन
करना, तब
ब्रह्मचर्य
को साधना।
लेकिन वह
ब्रह्मचर्य
अस्थायी
है। वह कोई
जीवन का व्रत
नहीं है। वह तो
सिर्फ
विद्या-अर्जन
के लिए साधा
जा रहा है; ताकि सारी
ऊर्जा
विद्या-अर्जन
में लग जाए।
वह कोई व्रत
नहीं है, आत्यंतिक
नहीं है।
बल्कि बड़े मजे
की बात है; हिंदू
कहते हैं अगर
वह
ब्रह्मचर्य
ठीक साधा गया,
तो उसके बाद
आने वाला जो
चरण है गृहस्थ
का, वह
बहुत
सुखपूर्ण हो
जाएगा।
आज
वैज्ञानिक भी
इस बात से
राजी हैं कि
जिन लोगों ने
भी अपनी वीर्य
ऊर्जा को खो
दिया है विवाह
के पूर्व, उनका विवाह
कभी भी सुखी न
हो पाएगा, क्योंकि
सुख की
संभावना तभी
थी, जब वे
ऊर्जा से भरे
हों, परिपूर्ण
भरे हों, बाढ़
हो, तो काम
का ठीक-ठीक
अनुभव हो
जाता। और जिस
चीज का ठीक
अनुभव हो जाता
है, उससे
मुक्ति हो
सकती है।
मुक्ति बिना
अनुभव के होती
ही नहीं।
तो
पच्चीस वर्ष
तक, पहले
जीवन के चरण
में
ब्रह्मचर्य
और फिर पच्चीस
वर्ष ब्रह्मचर्य
के बाद
गृहस्थ।
ऊर्जा इकट्ठी
है, पच्चीस
वर्ष बांधकर
रखा है।
संयमित रहा है
व्यक्ति। एक
तेज है, एक
शक्ति है। अब
वह गृहस्थ में
गुजरेगा। इस
ऊर्जा से
गुजरेगा कि
अनुभव प्रगाढ़
हो जाए। हिंदू
कहते हैं, पच्चीस
वर्ष तक
गृहस्थ।
पचास
वर्ष में फिर
वानप्रस्थ हो
जाए। अब अनुभव
हो गया। जान
लिया, जो
जानना था और
पहचान लिया, जो पहचानना
था। अब सपने
नहीं सता
सकते। क्योंकि
सपने तभी तक
सताते हैं, जब तक अनुभव
न हो। देख
लिया जीवन को।
उसका रस पहचान
लिया। और देख
लिया कि रस
में भी कुछ है
नहीं--खाली है,
ऊपर-ऊपर है,
भीतर रिक्त
है। इस
अनुभूति से
आदमी
वानप्रस्थ हो
जाए।
वानप्रस्थ का
अर्थ है, अभी
जंगल न जाए, जंगल की तरफ
मुंह हो जाए।
अभी पहुंच ना
जाए जंगल एकदम
से, क्योंकि
हिंदू बड़े
नैसर्गिक ढंग
से चलना चाहते
हैं। वे कहते
हैं, अभी
मुंह जंगल की
तरफ कर ले।
बैठे दुकान पर,
लेकिन मुंह
जंगल की तरफ।
काम करे, लेकिन
मुंह जंगल की
तरफ।
उसका
कारण है।
पच्चीस वर्ष
के बाद उसके
अपने बच्चे अब
घर लौटने के
करीब होते
होंगे।
पच्चीस वर्ष
वह खुद ब्रह्मचारी
था, फिर
पच्चीस वर्ष
जब वह गृहस्थ
रहा, उसके
बच्चे पैदा
हुए, बच्चे
गुरुकुल गए।
अब वे गुरुकुल
से घर आते होंगे।
अभी बाप अगर
घर छोड़ कर भाग
जाए तो यह बड़ा
अनैसर्गिक
क्रम हो
जाएगा।
बच्चों को कौन
सम्हालेगा?
बच्चे
घर लौटते
होंगे। अब वे
तैयार हो गए
हैं, उनके
विवाह करने
हैं, उनको
घर-गृहस्थी
जमानी है, उनको
जीवन में उतार
देना है। तो
इसलिए वानप्रस्थ
हो जाए। मन तो
हटा ले, शरीर
भर रहने दे।
मन तो पूजा
में लग जाए, स्मरण में
लग जाए, शरीर
घर में बना
रहे। मन जंगल
चला जाए।
यह वानप्रस्थ
शब्द बड़ा
प्यारा है। मन
से तो प्रस्थान
हो ही गया, जंगल जा
चुके। मन तो
जंगल में रमने
लगा। लेकिन
अभी घर रुके
हैं, कर्तव्य
पूरा कर देना
है। बच्चे घर
लौट आए, उनका
विवाह हो गया।
पचहत्तर
वर्ष की उम्र
में आदमी
संन्यासी हो जाए।
क्योंकि अब तो
बच्चों के वानप्रस्थ
होने का वक्त
आ गया। और
हिंदुओं की
व्यवस्था यह
थी कि जब
बच्चे घर आ
जाएं तो फिर
पिता के बच्चे
पैदा नहीं
होने चाहिए।
वह अशोभन है।
यह
मुझे भी लगता
है कि यह बात
अशोभन है। जब
बच्चे को
बच्चे पैदा
होने लगें, फिर भी
तुम्हें
बच्चे पैदा
होते
जाएं--बच्चा तुम्हें
कैसे आदर देगा?
वह पाएगा
तुम भी उसी
कामवासना में
पड़े हो, उसी
नरक में पड़े
हो, जिसमें
वह पड़ा है।
तुम भी वैसे
ही गैर-अनुभवी
हो, जैसा
वह है। तुम भी बचकाने
हो। तुम्हारे
भी जीवन की प्रौढ़ता
नहीं आई। यह
सोचकर भी
बच्चे की
श्रद्धा नष्ट होती
है, कि
उसके मां और
पिता अभी भी
संभोग करते
हैं।
जब
बच्चा घर आए
गुरुकुल से तब
उसे पता होना
चाहिए कि
मां-बाप पार
हो गए। गुजरे
उस अवस्था से, लेकिन ऊपर
उठ गए। अब वह
बच्चों का खेल
उनके लिए नहीं
रहा। और जब
बच्चों के
बच्चे होने
लगे और उनका
गुरुकुल से
आना शुरू हो
जाए, तो
वक्त आ गया कि
अब तुम विदा
हो जाओ। अब
तुम्हारे
यहां होने की
कोई जरूरत
नहीं। अब
तुम्हारा
लड़का पचास साल
का होता होगा।
अब वह सम्हाल
लेगा सब पीछे
आने वालों को,
अब तुम हटो।
और यह अनुभव
है सभी गृहस्थों
का कि पचहत्तर
वर्ष के बाद
बूढ़े बोझिल हो
जाते हैं घर
पर। उनकी अब
किसी से
उत्सुकता
नहीं रह जाती
और न उनमें
किसी की
उत्सुकता रह
जाती है। उनकी
दुनिया जा
चुकी। अब भी
अगर वे अटके
रहे तो वे
उपद्रव पैदा
करते हैं, झगड़ा-झंझट
खड़ी करते हैं।
चिढ़चिढ़े
हो जाते हैं।
उन्हें जंगल
चले जाना
चाहिए। उनके
संन्यास का
समय आ
गया। और ये जो
जंगल चले
जाएंगे ये ही
गुरु हो
जाएंगे छोटे
बच्चों के, जो अभी आने
हैं पढ़ने के
लिए।
हमने
एक वर्तुल
पूरा कर लिया।
पचहत्तर वर्ष
की उम्र के
लोग--जिन्होंने
जीवन को पूरा
जान लिया, निचोड़ लिया और
पाया कि
व्यर्थ है और निचोड़ कर
फेंक दिया। जो
संसार में गए और संसार
के बाहर आ
गए--अछूते, ये
ही योग्य हैं
गुरु होने के।
ये
गुरुकुल बना
लेंगे। जंगल
में रहेंगे, छोटे बच्चे
आते होंगे
पढ़ने उनको ये
जीवन का सार
दे देंगे। यह
हमने जीवन के
दो छोरों को
मिला दिया--बूढ़ों
को, जन्म
और मृत्यु को;
वर्तुल
हमने पूरा कर
दिया।
एक
नैसर्गिक
व्यवस्था है।
और नैसर्गिक व्यवस्था
हमेशा अनुभव
से जाती है।
अप्राकृतिक
व्यवस्था
अनुभव को
छोड़ने का
आग्रह करती
है। नैसर्गिक
व्यवस्था
अनुभव को
भोगने का
आग्रह करती
है।
उपनिषदों
का बड़ा अदभुत
वचन है--तेन
त्यक्तेन भुंजीथाः।
यह बड़ा
क्रांतिकारी
सूत्र है। यह
कहता है, वे
ही त्याग सकते
हैं, जिन्होंने
भोगा। जो भोग
के पहले भाग
गए, वे भोग
से सदा पीड़ित
रहेंगे।
जिन्होंने
भोग लिया, उनकी
स्थिति शांत
हो गई, उफशम को उफलब्ध
हो गए। अब वे
जा सकते हैं।
अब कोई उन्हें
रोकने वाला न
रहा।
तो मैं
तुमसे कहूंगा,"अगर करें तो
मुश्किल, न
करें तो
मुश्किल"-- ऐसी
दुविधा हो, तो करना।
"ना-करना" मत
चुनना। उसको
जिसने चुना, वह भटकेगा।
अगर
तुम्हारे मन
में ऐसा सवाल
हो कि
कामवासना में
उतरें कि न
उतरें, तो
उतरना
क्योंकि सवाल
उठ रहा है।
इसका मतलब ही
यह है कि
तुम्हारे
जीवन में
अनुभव पका
नहीं। अगर
तुम्हारे
सामने सवाल
उठे कि झूठ
बोलें कि सच; सवाल उठ रहा
है, उसका
मतलब ही यह है
कि झूठ का रस
कायम
है--बोलना! क्योंकि
अगर बोलोगे न,
तो रस सदा
के लिए कायम
रह जाएगा।
बोलो! झूठ की पीड़ा
झेलो, झूठ
में भटको,
गिरो, हाथ-पैर
तोड़ो, ताकि
अनुभव हो; वापस
आ सको।
भूल
करने से कभी
मत डरना।
क्योंकि जो
भूल करने से
डरता है, उसकी
यात्रा ही बंद
हो जाती है।
हां, इतना
ही स्मरण रखना,
एक ही भूल
बार-बार मत
करना। नई-नई
भूल करना, मगर
एक
ही भूल
बार-बार मत
करना। एक भूल
को पूरी तरह
कर लेना, ताकि
दोबारा करने
का सवाल भी न
रह जाए।
मेरी
अपनी दृष्टि
यह है कि
ब्रह्मचर्य
एक संभोग में
भी उत्पन्न हो
सकता है, अगर
संभोग
परिपूर्ण है।
क्योंकि फिर
तो पुनरुक्ति
ही है उसी-उसी
की। लेकिन वह
परिपूर्ण नहीं
हो पाता, क्योंकि
तुम पूरे मन
से अपने को
संभोग में नहीं
डाल पाते।
संस्कृति, सभ्यता, नीति,
शिक्षा, धर्म
सब तुम्हें
रोके हुए हैं।
उन्होंने सब जहरीला
कर दिया है।
तो तुम
संभोग में भी
उतरते हो
डरते-डरते, कंपते-कंपते,
आधे-आधे।
इसलिए अनुभव
कभी पूरा नहीं
हो पाता। और
इसीलिए मरते
दम तक संभोग
पीछा करता है,
कामवासना पकड़े रहती
है।
मरता
है आदमी, राम
का स्मरण नहीं
उठता; वहां
भी काम का ही
स्मरण चलता
रहता है। मरते
आदमी की भी
खोपड़ी तुम खोलो,
तो वहां
तुम्हें
स्त्री
मिलेगी, परमात्मा
नहीं। अधूरा
रह गया सब, अटका
रह गया।
मेरी
दृष्टि में
स्त्रियां
पुरुषों से
सरलता से
कामवासना से
मुक्त हो जाती
हैं। और उसका कारण
है, क्योंकि
स्त्रियां
उतनी सभ्य
नहीं हैं, जितना
पुरुष। स्त्रियां
ज्यादा
प्राकृतिक
हैं, पुरुष
ज्यादा
सामाजिक है।
स्त्रियां
अभी भी प्रकृति
का हिस्सा
हैं।
इसलिए
स्त्रियों को
रोना होता है, तो रो लेती
हैं, पुरुष
नहीं रोता।
हंसना होता है,
तो हंस लेती
है। पुरुष हर
चीज को रोकता
है। रोना कैसे
संभव है? मर्द
होकर और रो
रहे हो? अब
परमात्मा ने
मर्दों की
आंखों में भी
उतनी ही
ग्रंथियां
बनाई हैं
आंसुओं की, जितनी
स्त्रियों की
आंखों में। तो
परमात्मा ने
बड़ी भूल की!
मर्द की आंख
में आंसू की
ग्रंथी बनाई
ही क्यों, अगर
मर्द को रोना
ही नहीं है? लेकिन तुम
रोने को भी
रोक रहे हो, क्योंकि
मर्द कैसे रो
सकता है?
स्त्री
प्राकृतिक
है। थोड़ी करीब
है प्रकृति के।
और ज्यादा बौद्विक
नहीं है।
इसलिए बहुत
सिद्धांत और
शास्त्र उसको
परेशान नहीं
करते। वह जी
लेती है। और
स्त्रियां
जल्दी मुक्त
हो जाती हैं।
यह
मेरे अनुभव
में आया कि
मेरे पास सैकड़ों
स्त्रियां
आती हैं, जो
कहती हैं हम
कामवासना से
थक गए हैं, लेकिन
पति
हमें घसीट रहा
है। लेकिन ऐसे
पुरुष कभी मुश्किल
से आते हैं, जो कहते हैं,
हम
कामवासना से
थक गए हैं और
पत्नी हमें
घसीट रही है।
अगर
निन्यानबे
स्त्रियां
आती हैं ऐसा
कहने, तो
एक पुरुष आता
हैः यह अनुपात
है।
इसके पीछे
कुछ कारण
होगा। पुरुष
ज्यादा सभ्य
हो गया है, बौद्धिक हो
गया है, शिक्षित
हो गया है, सामाजिक
हो गया है, प्राकृतिक
नहीं रह गया
है।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं,--"करें तो
मुश्किल, न
करें तो
मुश्किल"-- अगर
ऐसा सवाल हो, और तुम्हें
दो ही विकल्प
दिखाई पड़ें, तो करना और
मुश्किल
भोगना। न-करने
वाली मुश्किल
से करने वाली
मुश्किल
बेहतर है। ऊंट
को उसी करवट
बिठाना।
क्योंकि
जिसने किया ही
नहीं, वह
हमेशा अटका रह
जाता है। और
हमेशा मन में
लगा रहता है
अगर कर
लेते--पता
नहीं कर लेते
तो कितना सुख
मिलता!
मुझे
संन्यासी आकर
कहते हैं; एक जैन मुनि
ने मुझसे कहा,
कि पचास साल
हो गए हैं
मुनि हुए, बीस
साल के थे, तब
उन्होंने
दीक्षा ली। अब
तो सत्तर साल
के ऊपर उम्र
हो गई।
उन्होंने
मुझे कहा, लेकिन
अभी मेरे मन
में यह सवाल
बना रहता है
कि कहीं मैंने
भूल तो नहीं
की! कहीं ऐसा
तो नहीं है, सांसारिक
लोग मजा ले
रहे हैं और
मैं नाहक ही
परेशान हुआ!और
यह स्वाभाविक
है। क्योंकि
आनंद तो कुछ
मिला नहीं है।
सिर्फ
परेशानी
मिली। तुम
संन्यासी की
परेशानी समझ
ही नहीं सकते।
तुमने
कभी उपवास
किया है? एक
तीन दिन उपवास
करके देखो! तो
भोजन ही भोजन
की याद आएगी।
चाहे मंदिर
जाओ, मस्जिद
जाओ, रेस्त्रां
ही दिखाई
पड़ेगा। चाहे
गीता खोलो,
चाहे कुरान,
भोजन ही
तैरते हुए
दिखाई
पड़ेंगे।
पूर्णिमा की
रात आकाश में
देखो, लगेगा
सफेद रोटी तैर
रही है। जहां देखोगे, वहां भोजन
दिखाई पड़ेगा।
वही
दशा तुम्हारे
संन्यासियों
की हो जाती है।
जहां देखते
हैं वहीं कामवासना, वहीं
कामवासना
दिखाई पड़ती
है। समझाते
हैं चौबीस
घंटे उसी के
विपरीत। वह भी
इसीलिए
समझाते हैं. . .
तुम यह मत
समझना कि
तुम्हें
समझाते हैं, जोर-जोर से बोलकर
अपने को ही
समझाते हैं कि
बड़ा पाप है।
इसमें पड़ना
ही मत। दूसरों
के बहाने अपने
को ही समझाते
हैं। लेकिन
मुक्त नहीं हो
पाते।
मुक्ति
का एक ही
मार्ग है; वह है : अनुभव,
ज्ञान।
तो अगर
तुम्हें
चुनना ही पड़े
तो करके
मुश्किल भोगना।
मुश्किल तुम
भोगोगे। यह
मैं नहीं कह रहा
हूं कि करने
से तुम्हें
मुश्किल नहीं
होगी। करने से
भी होगी, न-करने
से भी होगी।
लेकिन करने
वाली मुश्किल
से कुछ लाभ
है--ज्ञान
उपलब्ध होता
है। न-करने
वाली मुश्किल
से कुछ उपलब्ध
नहीं होता ।
वह मुश्किल
नपुंसक है, बांझ है, उससे
कुछ पैदा नहीं
होता।
लेकिन
अगर तुम्हें
मेरी बात समझ
में आ जाए, तो मैं
तुमसे कहता
हूं दो में
चुनने की कुछ
जरूरत ही नहीं
है। तुम साक्षीभाव
चुनना। वह
तीसरा विकल्प
है।
कामवासना
उठे, तुम
देखते रहना।
कामवासना
उठेगी, साथ
ही दो विचार
भी उठेंगे-भोग
लें, न भोगें;
तुम दोनों
को देखते
रहना। तुम
चुनना ही मत।
ऊंट को बैठने
ही मत देना, खड़ा ही
रखना।
उसी को
होश कहा है
ज्ञानियों ने, साक्षीभाव कहा है। ऊंट
खड़ा ही रहे।
ऊंट की बड़ी
इच्छा होगी।
ऊंट कहेगा, ऐसे नहीं तो
ऐसे बैठ जाएं।
बैठना सुगम
मालूम पड़ता
है। लेकिन तुम
ऊंट से कहना, कि हमने खड़ा
होना ही तय
किया है। हम
मध्य में ही
खड़े रहेंगे।
हम चुनेंगे
ही नहीं।
इसको
कृष्णमूर्ति च्वाइसलेसनेस
कहते हैं--निर्विकल्पना।
इसी निर्विकल्पना
को
साधते-साधते, जिसको
पतंजलि ने कहा
है, निर्विकल्प
समाधि, वह
उपलब्ध होती
है।
चोरी
करना कि नहीं
करना--दोनों
को तुम देखते
रहना। न इसको
चुनना, न
उसको चुनना।
विवाह करना कि
ब्रह्मचारी
रहना--न इसको
चुनना, न
उसको चुनना।
तुम दोनों को
देखते रहना। तुम
कहना, मैं
तो द्रष्टा
मात्र हूं, मैं सिर्फ
देखूंगा। मैं
कर्ता नहीं बनूंगा, मैं चुनूंगा
नहीं। मन में
उठने देना
लहरें। सब तरह
की उठेंगी,
तुम देखते
रहना। अगर
तुमने हिम्मत
रखी देखते रहने
की और ऊंट को
खड़ा रखा, तो
धीरे-धीरे
पाओगे, सागर
शांत हो जाता
है। दोनों ही
लहरें खो जाती
हैं। कोई भी
विकल्प चुनना
नहीं पड़ता।
और उस
निर्विकल्प
दशा में ही
जीवन की परम
अनुभूति, जीवन
का परम आकाश
उपलब्ध होता
है। उस
निर्विकल्प
दशा में ही
अमृत के बादल बरसते
हैं। उस
निर्विकल्प
को ही चुनो।
अगर चुनना ही
है तो
"न-चुनने" को
चुनो।
अगर यह
तुम्हारी समझ
के बाहर हो, तो करने को
चुनना।
लेकिन
निर्विकल्प
को अगर चुन
सको--निर्विकल्प
को चुनने का
मतलब है कुछ
भी न चुनना; तब तुम जीवन
से ऐसे गुजर
जाओगे जैसा
कबीर ने कहा
है,--"ज्यों
कि त्यों धर दीन्हीं
चदरिया।
खूब
जतन से ओढ़ी
चदरिया, ज्यों
की त्यों धर दीन्हीं।"
यह
जतन. . . ऊंट खड़ा
ही रहा। बैठा
ही नहीं। होश
रखा, चादर
खराब न हो
जाए। ऐसी, जैसी
पाई थी, वैसी
ही परमात्मा
को लौटा दी।
अगर
तुम दो
विकल्पों के
बीच
निर्विकल्प
रह सको, तो
तुम्हारे
जीवन में परम
सूत्र का
आविर्भाव हो
गया। वही है
कुंजी उसके
द्वार की।
आज
इतना ही।
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