अध्याय
57
शासन
की कला
राज्य
का शासन
सामान्य के
द्वारा करो।
युद्ध
असामान्य, अचरज
भरी
युक्तियों से लड़ो।
संसार
को बिना कुछ
किए जीतो।
मैं
कैसे जानता
हूं कि यह ऐसा
है?
इसके
द्वारा:
जितने
अधिक निषेध
होते हैं,
लोग
उतने ही अधिक
गरीब होते
हैं।
जितने
अधिक तेज
शस्त्र होते
हैं,
राज्य
में उतनी ही
अधिक अराजकता
होती है।
जितने
अधिक तकनीकी
कौशल होते हैं,
उतने
ही अधिक
चतुराई के
सामान बनते
हैं।
जितने
ही अधिक कानून
होते हैं,
उतने
ही अधिक चोर
और लुटेरे होते
हैं।
इसलिए
संत कहते हैं:
मैं
कुछ नहीं करता
हूं और लोग आप
ही सुधर जाते हैं।
मैं
मौन पसंद करता
हूं और लोग आप
ही पुण्यवान होते
हैं।
मैं
कोई व्यवसाय
नहीं करता और
लोग आप ही
समृद्ध होते
हैं।
मेरी
कोई कामना
नहीं और लोग
आप ही सरल और
ईमानदार हैं।
मनुष्य
को जिस बड़ी से
बड़ी बीमारी ने
पकड़ा है और
जिससे कोई छुटकारा
होता दिखाई
नहीं पड़ता, उस
बीमारी का नाम
है आदर्श।
समझना
कठिन होगा, क्योंकि
हम सब उसी
बीमारी में
दीक्षित किए
गए हैं। और हम
इस कुशलता से
दीक्षित किए
गए हैं कि
आदर्श हमें
बीमारी नहीं
मालूम पड़ती, जीवन का लक्ष्य
मालूम पड़ता
है। लगता है
वही परम ध्येय
है। बीमारी ही
स्वास्थ्य की
तरह हमें
समझाई गई है।
और हमारे मन
पूरी तरह से
बीमारी से ही
भर दिए गए
हैं।
दूध
पीने के साथ
बच्चे को
आदर्श का जहर
दिया जा रहा
है। आदर्श का
अर्थ है: तुम
किसी और जैसे
होने की कोशिश
करना। एक बात
भर आदर्श
समझाता है कि
तुम अपने जैसे
मत होना, किसी
और जैसे होना;
कोई महावीर,
कोई बुद्ध
बनना। जैसे
तुम अपने लिए
पैदा नहीं हुए
हो। जैसे यहां
तुम इसलिए हो
कि किसी और का अभिनय
करो। जैसे
यहां तुम उधार
जीवन जीने को
पैदा हुए हो।
जैसे
परमात्मा के
द्वारा तुम
तिरस्कृत हो।
और कोई और
व्यक्ति
तुम्हारा
आदर्श है जिसके
अनुसार
तुम्हें अपने
को ढालना है।
बस फिर
तुम्हारे
जीवन में सब
रुग्ण हो
जाएगा। जिस
व्यक्ति ने
स्वयं होने को
छोड़ा और कुछ
और होने की
कोशिश की, उसके
रोगों का कोई
अंत नहीं है।
वह रोज नए रोग खड़े
कर लेगा; क्योंकि
उसकी पूरी
जीवन-शैली ही
रुग्ण है।
व्यक्ति, समाज,
राज्य, सभी
आदर्श से
अनुप्राणित
होकर चल रहे
हैं। इसलिए
जगत एक
पागलखाना हो
गया; पृथ्वी
रुग्णचित्त
लोगों की भीड़
हो गई है।
लाओत्से
कहता है, सामान्य
को ध्यान में
रखो, असामान्य
को नहीं। और
सामान्य के
द्वारा अनुशासन
हो, सामान्य
के आधार पर
अनुशासन हो।
राज्य, समाज,
व्यक्ति
सामान्य को
सूत्र मान कर
चलें। सामान्य
नियम हो, असामान्य
नहीं।
इसे
थोड़ा समझें।
असामान्य
व्यक्ति कथा
के आधार बन
जाते हैं, क्योंकि
वे विशिष्ट
होते हैं।
विशिष्ट यानी भिन्न।
मैं विशिष्ट
शब्द का उपयोग
किसी आदर के
कारण नहीं कर
रहा हूं।
सामान्य से
भिन्न होते
हैं।
मैं एक
महाविद्यालय
में अध्यापक
था। नया-नया पहुंचा; एक
शिक्षक से
मेरा परिचय
करवाया गया।
शिक्षक की
ऊंचाई साढ़े
सात फीट थी।
जिन मित्र ने
परिचय करवाया
उन्होंने बड़ी
प्रशंसा की कि
देखिए, ऊंचाई
हो तो ऐसी हो!
मैंने उन
मित्र को
देखा। सभी
उनकी प्रशंसा
करते रहे
होंगे; शायद
मैं पहला ही
आदमी था जिसने
उन्हें चेताया।
मैंने कहा कि
मैं समझता हूं
कि आपकी ग्लैंड्स
ठीक से काम
नहीं कर रही
हैं; यह
ऊंचाई रोग है।
आप चिकित्सक
को दिखाएं, कहीं कोई
गड़बड़ हो गई
है। क्योंकि
आपकी आंखें
बाहर निकली पड़
रही हैं। आपका
शरीर स्वस्थ नहीं
मालूम पड़ता, शांत नहीं
मालूम पड़ता; कोई बड़ी गहन
बेचैनी भीतर
है। और मैंने
उनसे पूछा कि
क्या अभी भी
आपकी ऊंचाई बढ़
रही है?
उन्होंने
कहा,
हां। तो
मैंने कहा, पूरा खतरा
है। आप
चिकित्सक को
दिखाएं, और
इसको गौरव मत
मानें।
उन्हें
कुछ मेरी बात
पर भरोसा आया, क्योंकि
बेचैनी तो
उनको भी अनुभव
होती थी। प्रशंसा
के कारण वे
कभी किसी को
बेचैनी कहते
नहीं थे।
चिकित्सक को
दिखाया तो
पाया कि वे तो
बड़े महारोग से
ग्रस्त हैं
जिसका कोई
इलाज नहीं है।
प्रत्येक
व्यक्ति का
ऊंचाई का
मापदंड पहले
वीर्याणु में
छिपा होता है।
उसमें
ब्लू-प्रिंट
छिपा होता है
कि वह छह फीट
ऊंचा होगा, कि
पांच फीट ऊंचा
होगा। उतनी
ऊंचाई, जैसे
ही व्यक्ति
कामवासना की
दृष्टि से
प्रौढ़ होता है,
पूरी हो
जाती है। उसके
बाद ऊंचाई का
बढ़ना खतरनाक
है। और उसके
बाद ऊंचाई का
बढ़ता ही जाना,
और उनकी
उम्र अब तो
कोई अट्ठाइस
वर्ष थी, अभी
भी ऊंचाई बढ़
रही है तो
उसका अर्थ ही
यह है कि
ब्लू-प्रिंट
कहीं खो गया, कोई
प्राकृतिक
भूल हो गई, और
सेल को पता
नहीं है कि अब
कहां रोकना; रुकने की
व्यवस्था
भीतर नहीं है।
जिस
दिन से वे
चिकित्सकों
के पास गए उस
दिन से उनकी
अकड़ चली गई। न
केवल अकड़ चली
गई,
बल्कि उलटी
हालत हो गई।
वे अब झुक कर
चलने लगे और
छिपाने लगे
ऊंचाई को।
मैंने
कहा कि अब यह
दूसरा रोग मत
पालो। पहला रोग
यह था कि तुम
अकड़े हुए थे
कि बड़ी ऊंचाई
है तुम्हारी, तुम
जैसे मापदंड
थे। और
तुम्हारे
आस-पास सब बौने
मालूम पड़ते
थे। और तुम
प्रत्येक को
एक हीनता की ग्रंथि
से भर रहे थे।
अब बीमारी
उलटी पकड़ रहे
हो तुम। अब
इसका इलाज करो,
लेकिन अब
दूसरी हीनता
मत पकड़ो कि
तुम झुक कर चलो,
कि तुम छिपाओ।
जिन
व्यक्तियों
को मैं
विशिष्ट कहता
हूं,
इसी अर्थ
में कह रहा
हूं। कहीं इस
जीवन का सामान्य
सूत्र खो गया
है। तुम कितना
ही उनका सम्मान
करो, कहीं
बुनियादी भूल
है। उसके कारण
वे, जीवन
की जो सहज
व्यवस्था है,
उससे भिन्न
हो गए हैं।
समझो। चाहे वे
कितने ही बड़े
व्यक्ति हों,
इससे कोई
भेद नहीं
पड़ता।
क्योंकि
लाओत्से या मेरे
लिए बड़े से
बड़ा व्यक्ति
वही है जो अति
सामान्य हो
जाए। क्योंकि
सामान्य में
छिपा है
स्वभाव। सत्य
सार्वभौम है।
सत्य कोई
विशिष्टता
नहीं है। सत्य
तो कण-कण में
छिपा है। वह
जो स्वभाव के
अनुसार बहने
की व्यवस्था
है वही सत्य
है। तो जो अति
सामान्य है, जिसमें तुम
कुछ भी
विशिष्ट न खोज
पाओगे, वही
स्वास्थ्य का
मापदंड है।
लेकिन ऐसा हुआ
नहीं है।
धृतराष्ट्र
की कथा में
उल्लेख है कि
उन्होंने जिस
स्त्री से
विवाह किया, गांधारी
से--तो
धृतराष्ट्र
तो अंधे
थे--गांधारी
ने पति के
प्रेम में
अपनी आंखें
बंद कर लीं और
जीवन भर आंखें
न खोलीं, पट्टी बांधे
रही। गांधारी
का उल्लेख
किया जाता है
कि स्त्री हो
तो ऐसी हो।
एक
आदमी अंधा है, उसकी
पत्नी के पास
चार आंखें
होनी चाहिए। न
कि अपनी और दो
आंख बंद कर
लेना। पति के
लिए जरूरत थी
पत्नी की जो
कि आंख वाली
हो। पति को
आंख की कमी है;
आंख की कमी
पूर्ति होनी
थी। लेकिन
गांधारी को कहानियां
कहती हैं, प्रेम
में उसने अपनी
दोनों आंखें
भी करीब-करीब फोड़ लीं, क्योंकि कभी
खोलीं
नहीं। बड़ी
प्रशंसा है
शास्त्रों
में गांधारी
की कि पत्नी
हो तो गांधारी
जैसी।
यह
पत्नी थोड़ी सी
विशिष्ट है, लेकिन
स्वाभाविक
नहीं। कथा
इसके आधार पर
अच्छी बनेगी,
क्योंकि
स्वाभाविक
मनुष्य के
आधार पर कोई
कथा नहीं बन
सकती। इसलिए
पुराणों में
तो कथा ही
उनकी लिखी होती
है जो कुछ
स्वभाव से
भिन्न, अन्यथा
हो गए होते
हैं।
स्वाभाविक
आदमी की क्या
कथा?
एक
धोबी ने कह
दिया कि सीता
के आचरण पर शक
है और राम ने
उसे निकाल कर
फेंक दिया। अब
राम जो हैं वे
मर्यादा
पुरुषोत्तम
हैं। पति हो
तो ऐसा!
अगर
सभी लोग ऐसा
करें तो एक भी
पत्नी घर में
न रह पाएगी।
क्योंकि धोबियों
की कोई कमी है? बिना
किसी विचार के,
बिना
पूछताछ के, बिना सीता
को कोई न्याय
दिए सीता को
जंगल में फिंकवा
दिया। यह
अहंकार पति का
हो भला, लेकिन
यह कोई
स्वाभाविक
घटना नहीं है।
इतने हजार-हजार
लोग हैं, हजार-हजार
उनके मंतव्य
हैं। उनके मंतव्यों
के आधार पर
अगर कोई जीवन
को इस तरह
छिन्न-भिन्न
करने लगे तो
यह जीवन का
कोई सामान्य
मापदंड नहीं
बन सकता। इस
आदमी के
आस-पास कहानी
अच्छी बन सकती
है, यह कथा
का पात्र होगा,
लेकिन यह
जीवन का आदर्श
नहीं हो सकता।
महावीर
नग्न हो गए।
सर्दी हो, धूप
हो, छाया
हो, गर्मी
हो, नग्न
खड़े हैं। इनको
आधार नहीं
बनाया जा
सकता। इनको
आधार मान कर
अगर लोग नग्न
खड़े हो जाएं
तो आत्मा को
पहचान पाएंगे
इसमें तो
संदेह है, शरीर
को जरूर खो
देंगे। लेकिन
महावीर के
आस-पास कथा गढ़ने
की बड़ी सुविधा
है। विशिष्ट
के पास कथा
निर्मित होती
है, ध्यान
रखना। और कथा
को तुम
मनोरंजन की
तरह लेना, आदर्श
मत बना लेना।
उसको पढ़ना,
समझना।
सुंदर है।
लेकिन
साहित्य की
कृति है, जीवन
का आधार नहीं
बुद्ध
पत्नी को छोड़
कर चले गए, घर-द्वार
छोड़ जंगल में
भाग गए। सभी
लोग घर-द्वार
छोड़ कर जंगल
में भाग जाएं
तो बुद्धों का
पैदा होना भी
बंद हो जाएगा।
जीवन उससे
गरिमा को उपलब्ध
न होगा। जीवन
की सारी गरिमा
खो जाएगी। और
बुद्ध से इस
संसार में फूल
न खिलेंगे फिर,
संसार
मरुस्थल जैसा
हो जाएगा।
उदासी-उदासी
के मरुस्थल
फैल जाएंगे।
दुख और रुदन
के सिवाय यहां
कुछ भी दिखाई
न पड़ेगा।
पर
बुद्ध की कथा
में इस घटना
से बड़ा कुतूहल
आ जाता है। और
बुद्ध की कथा
एक अनूठापन ले
लेती है।
अनूठे लोग
कथाओं के लिए
ठीक हैं; जीवन
के लिए तो
सामान्य ही
सूत्र है। जब
तुम जीवन को
बनाना चाहो तो
कभी किसी
अनूठी बात के
प्रभाव में
जीवन को मत
बनाना।
अन्यथा तुम
रुग्ण होओगे;
तुम परेशान
होओगे।
और फिर
यह भी हो सकता
है कि जो
महावीर को हुआ, जो
बुद्ध को हुआ,
जो राम को
हुआ, वह
उनके लिए
स्वाभाविक
रहा हो। तुम
अपने स्वभाव
की परख करना।
और तुम अपने
स्वभाव को ही
अपने जीवन का
मापदंड
बनाना। अगर
तुमने आदर्श
को अपने जीवन
का मापदंड
बनाया तो तुम
एक कारागृह
में जीने
लगोगे। वह
आदर्श तो कभी
पूरा न होगा, क्योंकि
स्वभाव के
प्रतिकूल कुछ
भी पूरा नहीं
हो सकता। न
पूरा होने के
कारण तुम
हमेशा दंश से
पीड़ित रहोगे,
तुम हमेशा
अपने को हीन
मानते रहोगे
कि यह आदर्श
पूरा नहीं हो
रहा, मुझ
जैसा क्षुद्र
कौन! पापी!
पतित! तुम
पापी-पतित
अपने आदर्श के
कारण हो रहे
हो; तुम
पापी-पतित हो
नहीं।
तुम्हें पापी
और पतित होने
का खयाल इसलिए
पैदा हो रहा
है कि तुमने एक
आदर्श बना
लिया जो पूरा
नहीं होता।
तुमने कसम ले
ली
ब्रह्मचर्य
की जो पूरी
नहीं होती। अब
तुम पापी हो
गए। न ली होती
कसम तो? और
न तुमने
ब्रह्मचर्य
का आदर्श
बनाया होता तो?
तो तुम पापी
होते?
एक और
ब्रह्मचर्य
है जो
कामवासना की
स्वाभाविकता
में से खिलता
है,
किसी आदर्श
के कारण नहीं;
अपने जीवन
को जीने की
प्रक्रिया से
ही निकलता है,
किसी दूसरे
के जीवन के
पीछे चलने के
कारण नहीं।
अपने ही जीवन
के आविर्भाव
में एक क्षण
आता है।
कामवासना
तुम्हारी है,
ब्रह्मचर्य
भी तुम्हारा
ही होगा तभी
सत्य होगा।
तुम दूसरे से
ब्रह्मचर्य
सीखते हो; कामवासना
तुमने किससे
सीखी है? तुम
कामवासना
सीखने
पापियों के
पास नहीं जाते
तो ब्रह्मचर्य
सीखने के लिए
पुण्यात्माओं
के पास क्यों
जाते हो? जब
कामवासना
प्रकृति से
मिली है तो
तुम कामवासना
की प्रकृति को
ही समझो, कामवासना
की प्रकृति को
बोधपूर्वक जीओ। और
उसी से आने दो
तुम्हारे
ब्रह्मचर्य
को। तभी तुम्हारे
जीवन में
वास्तविक फूल
आएगा।
आदर्श
थोथे हैं, क्योंकि
उधार हैं। और
आदर्श तुम
बाहर से थोपोगे,
भीतर की समझ
से नहीं
निकलेंगे। वे
तुम्हारे भीतर
के प्रकाश से
न आएंगे, बाहर
के संस्कार से
आएंगे। वे
नैतिक होंगे,
धार्मिक न
होंगे।
अंतस
को खिलने
दो। अड़चनें
तो हैं ही। पर
तुम्हारी अड़चनें
कोई दूसरा
थोड़े ही चलेगा; तुम्हीं
को चलना होगा।
सपना देखना एक
बात है। महावीर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होते हैं, तो
कामवासना की अड़चनें
महावीर ने
झेली हैं। ऐसे
ही मुफ्त कोई
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
नहीं होता।
तुम बिना
यात्रा किए घर
बैठे महावीर
का
ब्रह्मचर्य
पाना चाहते
हो। तो महावीर
की यात्रा कौन
करेगा? तुम
फूल तो चाहते
हो; बीज
बोने की, वृक्ष
को सम्हालने
की कठिनाई को
नहीं झेलना चाहते।
तब तुम्हारे
फूल
प्लास्टिक के
होंगे।
सभी
आदर्श
प्लास्टिक के
हैं,
कागजी हैं,
असली नहीं
हैं। असली तो
सदा स्वभाव से
आता है। असली
तो सदा
सामान्य से
आता है। नकली
सदा आदर्श से
आता है, जो
कि झूठा है, जो कि दूर
आकाश में
तुमने अपनी
कामनाओं के
आधार पर बनाया
है।
अब यह
भी समझ लेना
जरूरी है:
आवश्यक नहीं
है कि तुम
जैसा महावीर
को कहते हो
वैसे वे रहे
हों। न यह
आवश्यक है कि
तुमने राम की
जो प्रतिमा गढ़ी है
वैसी राम की
रही हो। तब
जाल और गहरा
है। पहले तो
तुम राम के
जीवन में
आदर्श को थोप
देते हो--जो कि
रहा हो, न रहा
हो। पहले तो
तुम महावीर के
आस-पास प्रकाश
की कल्पना कर
लेते हो--जो कि
रहा हो, न
रहा हो। फिर
तुम उसको
आदर्श बना कर
उसका अनुसरण
करते हो। और
जब तुम उसका
अनुसरण करने
लगते हो तो
पहले तुमने ही
तो आरोपित
किया।
तुम्हें क्या
पता कि महावीर
कैसे व्यक्ति
हैं?
तुम
शास्त्रों से
पढ़ते हो।
शास्त्र
प्रशंसक लिखते
हैं,
प्रशंसक
अतिशयोक्ति
करते हैं, प्रशंसक
भावावेश में
होते हैं। जो
नहीं होता वह
भी उन्हें
दिखाई पड़ता
है। प्रशंसक
और निंदक, दो
का भरोसा कभी
मत करना।
दोनों ही अंधे
होते हैं। और
दो के अलावा
तीसरा आदमी तो
खोजना मुश्किल
है। और तीसरा
आदमी अगर होगा
तो वह कोई महावीर
का चरित्र
लिखने जाएगा?
वह अपना
चरित्र
निर्मित
करेगा।
क्योंकि तीसरा
आदमी जो इतना तटस्थ
होगा कि न
प्रशंसा न
निंदा, वह
किसकी फिक्र
करेगा? अपने
जीवन को वह
क्यों गंवाएगा
किसी दूसरे के
जीवन को लिखने
में? वह
अपने को ही
लिखेगा। उसकी
कथा उसकी
भीतरी कथा
होगी।
निंदक
को अगर सुनो
तो जीसस सूली
पर लटकाने जैसे
योग्य हैं; प्रशंसक
को सुनो तो वे
ईश्वर के
पुत्र हैं।
दोनों अतिशय
कर रहे हैं।
और दोनों
अतिशय को
खींचे चले जा
रहे हैं।
निंदक और प्रशंसक
में होड़
लगी है। और
दोनों खींच
रहे हैं अति
की ओर। जिन्होंने
जीसस को सूली
दी उन्होंने
दो चोरों को भी
साथ में सूली
दी, सिर्फ
यह बताने को
कि हम चोरों
से ज्यादा
हैसियत नहीं
मानते जीसस
की। और
प्रतिवर्ष एक
व्यक्ति को
माफ करने का
अधिकार था
गवर्नर जनरल
को, क्योंकि
यहूदियों का
मुल्क इजरायल
रोमन साम्राज्य
के अंतर्गत
था। तो जो
रोमन वाइसराय
था उसको हक था
प्रतिवर्ष एक
व्यक्ति को
मुक्त करने
का। चार
व्यक्तियों
को फांसी दी
जानी थी इस
वर्ष, एक
जीसस और तीन
चोर। तो उसने
पूछा लोगों से
कि इन चार में
से तुम किसकी
मुक्ति चाहते
हो? तो
उन्होंने एक
चोर चुना
जिसकी मुक्ति
मांगी, जीसस
की मुक्ति
नहीं।
वाइसराय
थोड़ा जीसस के
प्रति सदय था, क्योंकि
वाइसराय को
यहूदियों की
निंदा से कुछ
लेना-देना न
था। वह ज्यादा
निष्पक्ष
आदमी था, बाहर
का आदमी था।
उसका मन था कि
किसी तरह जीसस
छूट जाए। यह
सीधा-सरल आदमी
मालूम पड़ता है;
नाहक फंस
गया है। इसके
प्रशंसक इसको
परमात्मा का
बेटा कह रहे
हैं; वैसा
भी यह नहीं
है। इसके
दुश्मन इसको
कह रहे हैं कि
यह महापापी है,
इससे देश का
विनाश हो
जाएगा; वैसा
भी नहीं है।
सीधा-सादा
आदमी है, सरल
चित्त का आदमी
है; कुछ
कीमती बातें
कहता है। कुछ
किसी का
उपद्रव भी
नहीं कर रहा
है। उसके भीतर
आकांक्षा थी,
यह छूट जाए।
उसने तीन बार,
बार-बार
पूछा कि तुम
फिर से सोच लो
कि तुम उस चोर
को छोड़ना
चाहते हो या जीसस
को? तीनों
बार भीड़ ने
हाथ उठा कर
चिल्लाया कि
जीसस को हम
मारना चाहते
हैं; चोर
को हम छोड़ने
को राजी हैं।
यह तो
विरोधी था जो
यहां तक खींच
लिया बात को। और
पक्ष में लोग
थे जिन्होंने
ईश्वर का बेटा
जीसस को घोषित
किया। न केवल
बेटा, बल्कि
एकमात्र बेटा!
ताकि कोई दूसरे
बेटे का दावा
भी न कर सके।
निंदक और प्रशंसक
दोनों ही अति
पर चले जाते
हैं। मध्य में
कहीं सत्य
होता है, जो
कि छिप ही
जाता है।
तो
पक्का पता भी
नहीं है कि
तुम पहले
आदर्श थोप
देते हो, फिर
उस आदर्श को
मान कर तुम
अपने अनुसरण
करना शुरू कर
देते हो।
तुम्हारे आदर्श
तुम्हारी
आकांक्षाओं
की सूचना देते
हैं, सत्यों
की नहीं। तुम
चाहोगे कि ऐसा
हो सके। जो
तुम चाहते हो,
तुम आरोपित
कर लेते हो
किसी व्यक्ति
में। आरोपित
इसलिए कर लेते
हो कि अगर यह
किसी व्यक्ति में
कभी हुआ ही
नहीं तो फिर
तुम भरोसा न
कर सकोगे।
तो अगर
तुम ब्रह्मचर्य
चाहते हो, जो
कि कौन नहीं
चाहता? क्योंकि
जो भी काम की
पीड़ा को झेलता
है उसके मन
में
ब्रह्मचर्य
की आकांक्षा
पैदा होती है।
जो काम की
व्यर्थता को
झेलता है उसके
मन में ब्रह्मचर्य
की आकांक्षा
पैदा होती है।
उसे लगता है, कब आएगी वह
घड़ी, परम
सौभाग्य का
क्षण, जब
मेरी ऊर्जा
मुझमें ही
बसेगी और मैं
व्यर्थ उसे
फेंकता न फिरूंगा।
कब होगा वह
मधुर क्षण
जीवन में जब
दूसरे की मुझे
कोई जरूरत न
रह जाएगी और
मैं अपनी परम
शुद्धि में, अपने एकांत
में तृप्त हो
सकूंगा? स्वाभाविक
है। लेकिन
तुम्हें
भरोसा कैसे आएगा
कि यह हो भी
सकता है? यह
आकांक्षा है।
लेकिन यह हो
कैसे सकता है?
अपने
आपको अगर तुम जांचोगे
तब तो तुमको
भरोसा नहीं आ
सकता।
क्योंकि तुम जानते
हो,
कितनी बार
तुमने तय किया
और कितनी बार
तोड़ा। कितनी
बार व्रत लिया
और कितनी बार
उल्लंघन किया।
कितनी बार
निर्णय लिया
और निर्णय तुम
ले भी नहीं
पाते हो कि
निर्णय टूट
जाता है, एक
दिन भी तो
नहीं टिकता।
अगर तुम गौर
से जांचो,
तो इधर तुम
निर्णय ले रहे
हो और उसी
वक्त मन का दूसरा
कोना वासना की
तैयारी कर रहा
है। एक क्षण
भी, जब तुम
निर्णय ले रहे
हो उस क्षण
में भी, तुम
ईमानदार नहीं
हो। अगर तुम
पूरा मन देखोगे
तो तुम पाओगे,
तुम क्या कर
रहे हो! भीतर
तो तुम्हारे
मन में तैयारी
हो रही है
वासना की, और
ब्रह्मचर्य
का तुम निर्णय
ले रहे हो। तो
तुम अपने पर
तो भरोसा कर
नहीं सकते, और
ब्रह्मचर्य
की आकांक्षा
पैदा होती है।
फिर क्या करो?
फिर
यही करो कि
तुम किसी में
मान लो कि वह
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
गया है। और ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होकर तुम
जो-जो कल्पना
करते हो अपने
लिए वह-वह सब
कल्पनाएं कर
लो। महावीर के
अनुयायी कहते
हैं कि महावीर
के शरीर से पसीने
की दुर्गंध
नहीं उठती, सुगंध
आती है। ये
तुम्हारी
कल्पनाएं
हैं। पसीना
पसीना है।
पसीना जिस
नियम से बहता
है वह नियम
महावीर और
गैर-महावीर
में फर्क नहीं
करता। महावीर
के अनुयायी
कहते हैं कि
महावीर
मल-मूत्र
विसर्जन नहीं
करते।
क्योंकि
मल-मूत्र
विसर्जन करने जैसी
क्षुद्र बात
महावीर
करेंगे, यह
सोच कर ही मन
को धक्का लगता
है। तुम्हीं
सोचो कि बुद्ध
और महावीर टॉयलेट
पर बैठे हैं।
मन इनकार करता
है कि नहीं, यह हो ही
नहीं सकता। वे
तो बोधिवृक्ष
के नीचे ही
ठीक मालूम
पड़ते हैं।
तुम भी
चाहोगे कि
तुम्हारे
जीवन से
मल-मूत्र बिलकुल
विदा हो जाए।
तुम परिशुद्ध, खालिस
सोना हो जाओ।
यह आकांक्षा
है। इस आकांक्षा
को पहले तुम
आरोपित करते
हो। वर्तमान
में करोगे तो
मुश्किल
पड़ेगी।
क्योंकि
वर्तमान का
महावीर तो
मल-मूत्र
विसर्जन
करेगा। इसलिए
अतीत के महावीर
सुखद हैं। वे
चिल्ला कर कह
भी नहीं सकते
कि क्या कर
रहे हो! और तुम
उनको कभी उलटा
काम करते हुए
पकड़ भी न
पाओगे। तुम जो
कहोगे, अतीत
पर थुप
जाता है।
इसलिए तो मरे
हुए गुरु
ज्यादा आदृत हो
जाते हैं
जीवित गुरुओं
की बजाय। जैसे
ही गुरु मरता
है कि कथा रचनी
शुरू हो जाती
है। तुम्हारी
सब आकांक्षाएं
हमला कर देती
हैं गुरु पर।
जो-जो मानवीय
था, तुम सब
काट देते हो।
जो-जो सामान्य
था, तुम सब
अलग कर देते
हो। जो-जो
असामान्य
तुम्हारे
सपनों में उठता
है, वह सब
तुम आरोपित कर
देते हो।
अब ये
सपने हैं और
झूठे हैं। और
अगर इनको तुमने
आदर्श मान
लिया तो तुम
सोच लो कि तुम
हमेशा ही
अतृप्त
रहोगे। जब तक
पसीने में
बदबू आएगी और
जब तक तुम्हें
मल-मूत्र
विसर्जन करना
पड़ेगा, तब तक
तुम जानते हो
कि तुम पापी
हो। और यह
तृप्ति कभी
होने वाली
नहीं है। और
अगर इसकी दौड़
में तुम लग गए
तो तुम एक ऐसी
रुग्णता की
तरफ जा रहे हो
जिसका कोई
इलाज नहीं हो
सकता और कोई
औषधि नहीं है।
यह तो कैंसर
से भी ज्यादा
घातक बीमारी
है आदर्श की।
कैंसर का मारा
बच जाए, आदर्श
का मारा नहीं
बचता।
इसे
समझने के लिए
बड़ी समझ
चाहिए। यह
पूरा का पूरा
जाल है
तुम्हारे मन
का। तुम
महिमा-पुरुषों
को उठाते चले
जाते हो आकाश
में;
उस जगह रख
देते हो जहां
वे मनुष्यता
के बिलकुल पार
हैं। मैं
तुमसे कहता
हूं कि सभी महिमावान
पुरुष तुम्हारे
जैसे ही
मनुष्य थे।
उनमें वह सब
था जो तुममें
है; सिर्फ
उन्होंने, तुममें
जो सब है, उसका
आयोजन भर बदला
था। वीणा
तुम्हारे पास
भी है। अंगुलियां
तुम्हारे पास
भी हैं।
उन्होंने
वीणा और अंगुली
को जोड़ दिया
था और उनकी अंगुलियां
सध गई थीं और
वीणा में
संगीत उठ गया
था। तुम भी छेड़ते
हो तो सिर्फ विसंगीत
उठता है और
मुहल्ले-पड़ोस
के लोग
लड़ने-झगड़ने को
खड़े हो जाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से मैंने पूछा
एक दिन कि
कैसा अभ्यास
चल रहा है
हारमोनियम पर?
उसने
कहा,
फुरसत कहां!
कार में ही
उलझा रहता
हूं।
तुम्हें
कार किसने दे
दी?
कहां से कार
मिल गई?
उसने
कहा कि
मुहल्ले
वालों ने
हारमोनियम के
बदले में कार
दी है।
तुम एक
हारमोनियम ले
आओ और
बजाने-पीटने
लगो,
मुहल्ले
वाले देंगे
ही। आखिर उनको
अपनी सुख-शांति
की थोड़ी
चिंता...।
सिर्फ
आयोजन बदलता
है। महावीर, बुद्ध,
राम, कृष्ण,
ठीक तुम
जैसे व्यक्ति हैं।
तुम्हारे पास
जितना है उतना
ही उनके पास है;
रत्ती भर
ज्यादा नहीं।
इस जगत में
अन्याय है भी
नहीं; रत्ती
भर ज्यादा हो
भी नहीं सकता।
यहां न किसी
को कम मिलता
है, न
ज्यादा; बराबर
मिलता है।
फर्क इतना है
कि कोई अपने
आटे और पानी
को मिला कर आग
पर सेंक कर
रोटी बना लेता
है और तृप्त
हो जाता है।
और तुम बैठे
हो, आग जल
रही है, उससे
पसीना बह रहा
है। आटा पड़ा
है, वह सड़
रहा है, और
तुम भूखे हो।
पानी भरा है, सब मौजूद
है। मौजूद सब
है पूरा का
पूरा, उसका
सरंजाम, संगीत,
उसका
समन्वय
बिठाने का
फर्क है।
महावीर
जब तीर्थंकर
हो जाते हैं
तब भी वे
तुम्हारे ही
जैसे हैं।
तीर्थंकर तो
संगीत है जो
उन्होंने
पैदा कर लिया, उसी
इंतजाम से जो
तुम्हारे पास
भी है। जीसस
जब ईश्वर जैसे
हो जाते हैं
तो वह संगीत
है। जीसस में
तुमसे जरा भी
भेद नहीं है।
भूख भी लगती
है, प्यास
भी लगती है, मल-मूत्र
भी--सब कुछ वही
है। लेकिन उस
इंतजाम में से
अब एक नई
सुवास उठ रही
है, एक नया
संगीत उठ रहा
है, जो
तुममें से भी
उठ सकता है।
लेकिन
तुम दीन हो
अपनी ही
नासमझी से।
तुमने अपने
प्राणों की
पूरी
व्यवस्था को
नहीं पहचाना, और
इन विभिन्न
विपरीत जाते
स्वरों को
कैसे बिठाएं
एक राग में, वह तुमने न
सीखा।
एक
नर्तक को
देखो। उसके
पास शरीर
तुम्हारे ही जैसा
है,
लेकिन
नृत्य के
क्षणों में
नर्तक ऐसा
लगता है जैसे वेटलेस, भाररहित हो
गया। उसकी
छलांग, उसकी
कूद, उसकी
भाव-भंगिमाएं
किसी अलौकिक
को उतार लाती
हैं। एक समां
बंध जाता है।
तुम विमुग्ध
हो जाते हो, क्षण भर को
तुम भूल ही
जाते हो कि
तुम हो भी। तुम्हारे
ही जैसा शरीर
है, तुम्हारे
ही जैसे अंग
हैं, सब
कुछ तुम्हारे
जैसा है; लेकिन
इसी शरीर से
एक कला को
जन्मा लिया, एक नया कौशल
पैदा हुआ। वह
कौशल सब कुछ
बदल देता है।
शरीर को एक
नया रूप दे
देता है। शरीर
को एक नया ढंग
दे देता है।
जीवन की एक नई
शैली का जन्म हो
जाता है।
और यह
जो जीवन की नई
शैली है यह
आदर्श को
स्थापित करने
से कभी भी
नहीं फलित
होगी। आदर्श
झूठे हैं।
तुम्हारी मनोकांक्षाएं
हैं,
मृग-मरीचिकाएं
हैं। दिखाई
पड़ते हैं दूर
से मरुस्थल
में सरोवर, जब तुम पास
जाते हो तब
वहां कुछ भी
नहीं है।
सरोवर और आगे
हट गया।
क्षितिज की
भांति हैं
तुम्हारे
आदर्श। तुम
इन्हें कभी पा
न सकोगे। जैसे
जमीन और आकाश
कहीं भी मिलते
नहीं, सिर्फ
मिलते मालूम
होते हैं, ऐसे
हैं तुम्हारे
आदर्श। कभी
मिलते नहीं, बस ऐसा लगता
है कि मिल रहे
हैं, मिल
रहे हैं।
सामान्य
को स्वर बनाओ, सहज
को पहचानो; असहज से
बचो। विशिष्ट
को मत अपने
ऊपर थोपो,
सामान्य को उघाड़ो। जो
तुम्हारे
भीतर है उसे
विकसित करो।
और किसी ढांचे
में नहीं।
क्योंकि
ढांचा विकास
नहीं देता, बंधन देता
है। तुम
तुम्हारे
जैसे ही
होओगे। जब तुम
खिलोगे
अपनी परिपूर्णता
में तो तुम न
महावीर जैसे
होओगे, न
कृष्ण जैसे, न मेरे जैसे,
न किसी और
जैसे। जब तुम खिलोगे तो
तुम्हारा फूल
अनूठा होगा, तुम्हारे
जैसा ही होगा।
आनंद वही होगा,
जो महावीर
का है, बुद्ध
का है, लाओत्से
का है; भीतर
की शांति वही
होगी। लेकिन
तुम्हारे जीवन
की रूप-शैली
बिलकुल भिन्न
होगी।
लाओत्से
कहता है, "राज्य
का शासन
सामान्य के
द्वारा करो।'
समाज
को सामान्य से
सम्हालो; आदर्श
मत थोपो।
इसलिए जितना
आदर्शवादी
समाज होता है
उतना ही
भ्रष्ट हो
जाता है। भारत
इसका प्रमाण
है। हमने
जितने आदर्श
थोपे हैं, दुनिया
में कभी किसी
ने नहीं थोपे।
और इससे
ज्यादा
भ्रष्ट समाज
तुम कहीं खोज
पाओगे?
और बड़े
मजे की बात और
बड़ा
दुष्ट-चक्र
है। बड़ा दुष्ट-चक्र
है और वह
दुष्ट-चक्र यह
है कि आदर्शवादी
जब भी देखता
है कि समाज
भ्रष्ट हो रहा
है तो वह और नए
आदर्शों की
तजवीज करता
है। वह कहता
है,
आदर्श नष्ट
हो रहे हैं।
और बड़े आदर्श
लाओ। और सख्ती
से आरोपित करो
आदर्श। और
नियम बनाओ। और
नीति खोजो।
आचरण को शिथिल
मत छोड़ो, अनुशासन दो।
और उस बेचारे
को पता नहीं
कि वही बीमारी
की जड़ है--उसके
आदर्श ही। जब
आदर्श को टूटते
देखता है वह
तो और आदर्श
ले आता है। और
आदर्श के साथ
और
भ्रष्टाचार
आता है।
भारत
के
भ्रष्टाचार
में गांधी का
जितना हाथ है
उतना किसी का
भी नहीं। इसे
कोई कहता नहीं; कोई
कहेगा भी
नहीं। इसे
कहने के लिए
लाओत्से की
समझ चाहिए।
क्योंकि
गांधी ने
ऐसे-ऐसे आदर्श
थोपने की
कोशिश की जो
संभव नहीं
हैं। जिनको गांधी
चाहें तो अपने
आश्रम में भी
नहीं थोप सकते,
इतने बड़े
समाज में तो
थोपने का सवाल
क्या है!
गांधी अचौर्य को
आदर्श मानते
हैं कि चोरी
बिलकुल न हो।
यह
असंभव है।
क्योंकि जब तक
संपदा है तब
तक चोरी होगी।
संपदा मिट जाए
तो चोरी मिट
सकती है। क्योंकि
चोरी सिर्फ इस
बात की कोशिश है
कि किसी के
पास ज्यादा है
और किसी के
पास कम है। और
जिसके पास
ज्यादा है और
जिसके पास कम
है,
उनके बीच
चोरी पैदा
होती है।
तुम्हारा
नौकर चोरी
करता है। तुम
सोचते हो, शायद
इसलिए चोरी
करता है कि
कोई आदर्श
नहीं रहे। तो
तुम गलती में
हो। उसके पास
कम है; तुम्हारे
पास ज्यादा
है। और जीवन
का एक सहज
नियम है कि चीजों
को एक तल पर ले
आओ। जैसे पानी
है। तुम घड़ा भर
लो नदी से, फिर
तल बराबर हो
जाता है; तुम
घड़ा भर डाल दो
नदी में, फिर
तल बराबर हो
जाता है। नदी
का जल अपना तल
समान रखता
है--कितना ही निकालो, कितना ही डालो।
और समाज के जीवन
का तल इतना
भिन्न है कि
चोरी
अनिवार्य है।
अगर तुम अचौर्य
को लक्ष्य बना
लोगे तो कुछ
हल न होगा; सिर्फ
चोर और बढ़
जाएंगे।
अगर
चोरी को तुम
समझने की
कोशिश करो कि
चोरी इसलिए
है--कोई पाप
नहीं है
चोरी--चोरी
इसलिए है, क्योंकि
किन्हीं के
पास बहुत है
और किन्हीं के
पास ना-कुछ
है। यह फासला
इतना ज्यादा
है कि इस फासले
में चोरी होगी,
तुम कितना
ही रोको। तुम
जितना रोकोगे,
चोर नए उपाय
खोजेगा। तो
असली सवाल
फासले को कम
करने का है।
चोर को मिटाने
का और कोई
उपाय नहीं है।
फासला
अस्वाभाविक
है।
इसे हम
उदाहरण से
समझें।
स्मगलर या तस्करी
नया शब्द है।
आज से पचास
साल पहले कोई
भी नहीं जानता
था,
स्मगलर कौन
है? तस्कर
कौन है? लेकिन
अभी तस्कर
सबसे बड़ा पापी
है, सबसे
बड़ा चोर है।
तस्करी क्या
है? चीन
में एक दाम है
सोने का, भारत
में दूसरा दाम
है, पाकिस्तान
में तीसरा दाम
है। सोने का
दाम एक होने की
कोशिश करता है,
जैसे पानी
एक होने की
कोशिश करता
है। सोना एक ही
दाम का हो
सकता है, अगर
दुनिया में
कोई व्यर्थ की
दीवारें न हों;
राज्य बंटे
न हों तो सोने
का एक ही दाम
होगा। क्योंकि
जहां खड्डा
होगा वहां
सोना भागेगा,
जैसे पानी
भागता है
खड्डे की तरफ।
अगर इस मुल्क
में सोने का
दाम ज्यादा है
और पाकिस्तान
में कम है तो
पाकिस्तान से
सोना भारत की
तरफ दौड़ेगा।
यहां खड्डा
है। जैसे ही
खड्डा भर
जाएगा, दाम
बराबर हो
जाएगा; सोने
की दौड़ बंद हो
जाएगी। तस्कर
कौन है?
तस्कर
कानून के
खिलाफ है, सोने
के पक्ष में
है। वह सोने
को सहायता दे
रहा है, इधर
से उधर ला रहा
है। वह स्वभाव
को सम्हालने की
कोशिश कर रहा
है। कानून
स्वभाव के
विपरीत खड़ा
है। पूरी
राज्य की
सत्ता खड़ी है
कि नहीं, सोने
का जो दाम
हमारे मुल्क
में है हम
उसको जारी
रखेंगे।
दूसरे मुल्क
में अगर कम है
तो वह उनकी
बात, लेकिन
हम अपने मुल्क
का दाम न
गिरने देंगे।
तस्कर बेचारा
कुछ भी नहीं
कर रहा है, तस्कर
इतना ही कर
रहा है कि वह
जीवन की जो
सामान्य
व्यवस्था है
उसमें सहायता
पहुंचा रहा है।
लेकिन वह पापी
है। होना यह
चाहिए, अगर
तस्करी मिटानी
है, तो
दुनिया में लैसे-फेअर
की व्यवस्था
होनी चाहिए।
तो ही तस्करी
मिटेगी।
बाजार खुले
होने चाहिए, नहीं तो
तस्करी जारी
रहेगी।
हिंदुस्तान
में तो तस्करी
मुल्क के भीतर
भी चलती है।
अगर बंबई से
दिल्ली जाओ तो
कम से कम बीस
दफा कार खोल
कर देखी जाएगी, जांच-पड़ताल
की जाएगी।
क्या पागलपन
है! अपने ही
मुल्क में
चलने में
स्वतंत्रता
नहीं है!
क्योंकि यहां
भी
प्रांत-प्रांत
नियम की दीवार
खड़ी है। गेहूं
कहीं सस्ता
बिक रहा है, कहीं मंहगा
बिक रहा है।
कहीं चावल को
खरीदने वाला
कोई नहीं है, कहीं लोग
कतार लगाए खड़े
हैं। चावल
भागता है। वह
नियम की
व्यवस्था है,
सीधी जीवन
की व्यवस्था
है। लोग चावल
को लाने लगते
हैं वहां जहां
कतार लगी है।
और ठीक ही कर
रहे हैं, क्योंकि
कतार को हटाने
का यही एक
उपाय है।
लेकिन
सरकार नियम
बना कर खड़ी
है। जितने
नियम होंगे
उतनी चोरी
होगी। चोरी का
कुल मतलब इतना
है कि तुमने
जरूरत से
ज्यादा, स्वभाव
के विपरीत
नियम बना दिए।
नियम को कम
करो, चोरी
कम हो जाएगी।
भ्रष्टाचार
है मुल्क में।
तो जयप्रकाश
कहते हैं, नियम
को बढ़ाओ
तो
भ्रष्टाचार
कम हो जाएगा; सख्ती करो
तो
भ्रष्टाचार
कम हो जाएगा।
भ्रष्टाचार
और बढ़ेगा।
जयप्रकाश
गांधी की संतान
हैं। गांधी ने
जो उपद्रव
मुल्क को दिया
उसको वे फिर
थोपना चाहते
हैं। जरूरत इस
बात की है कि
नियम को कम करो, छांटो।
यह तो पक्का
है कि बिलकुल
बिना नियम के
हम समाज नहीं
बना सकते; आदमी
की अभी इतनी
ऊंचाई नहीं।
लेकिन लक्ष्य
वही है कि कभी
ऐसा वक्त आए
कि कोई नियम न
हो, ताकि
कोई चोर न हो, ताकि कोई
नियम का
उल्लंघन करने
वाला न हो।
पहले
तुम नियम
बनाते हो, फिर
तुम चोर को
पकड़ लेते हो।
समझ लो कि एक
कानून बना
दिया जाए, अगर
योगियों के
हाथ में सत्ता
आ जाए जैसे गांधीवादियों
के हाथ में आ
गई तो योगी
नियम बना दें
कि सुबह उठते
वक्त दाएं
स्वर से ही
सांस लेते हुए
उठना! जो बाएं
स्वर से सांस
लेता उठा, वह
पकड़ा जाएगा; क्योंकि
दाएं स्वर से
ही सांस लेना
सुबह अच्छा
है। अब फंसे
तुम। अगर सुबह
तुम बाएं स्वर
से सांस लेते
उठ गए, अदालत
में पहुंचाए
गए--क्यों
तुमने बाएं
स्वर से सांस
ली? तो तुम
कृत्रिम उपाय
करोगे, बाएं
स्वर में रुई
लगा कर सोओगे,
ताकि सुबह
कुछ भी हो
दाएं स्वर से
सांस चले।
फिर
कुछ ऐसे होंगे
जो इस बात को
व्यर्थ
मानेंगे कि
क्या फिजूल
है! हम सांस भी
नहीं ले सकते? सांस
हमारी
स्वतंत्रता
है। अगर उनके
दाएं स्वर से
भी सांस चल
रही होगी तो
वे बाएं से
लेते हुए
उठेंगे।
क्योंकि
कानून को
तोड़ने में भी
एक रस है, एक
बगावत है, एक
विद्रोह है।
और अहंकार
कानून को
तोड़ने में बड़ा
रस लेता है।
अपराधी पैदा
होते हैं, डाकू
पैदा होते हैं,
चोर पैदा
होते हैं। और
इन सबके पैदा
होने के पीछे
बुनियादी
कारण यह है कि
तुम ऐसे असंभव
आदर्श सिर पर
खड़े कर देते
हो जो पूरे
नहीं किए जा सकते।
गांधी
ने आश्रम में
आदर्श बना
दिया
ब्रह्मचर्य
का,
सब
ब्रह्मचर्य
का पालन करें।
गांधी के सेक्रेटरी
खुद न कर पाए, प्यारेलाल। और बुढ़ापे
में गांधी को
खुद अपने
ब्रह्मचर्य
पर संदेह होने
लगा था। और
संदेह उनका
इतना बढ़
गया--बढ़ेगा ही,
क्योंकि
ऊपर से थोपा
हुआ आदर्श
था--कि एक
युवती को नग्न
लेकर एक वर्ष
तक वे सोते
रहे अंतिम
दिनों में, सिर्फ यह जांचने
के लिए मेरा
ब्रह्मचर्य
सच्चा है या
नहीं।
लेकिन
जब
ब्रह्मचर्य
सच्चा होता है
तो जांचने
का सवाल ही
नहीं उठता। जांचने का
खयाल ही बताता
है कि कोई चीज
ऊपर से थोप ली
है,
पक्का
भरोसा खुद भी
नहीं आ रहा
है। जब
तुम्हारे सिर में
दर्द होता है
तो तुम्हें
किसी से पूछना
पड़ता है? जांच
करनी पड़ती है?
जांच इसलिए
करवा सकते हो
तुम कि क्यों
दर्द हो रहा
है। लेकिन यह
तो नहीं कि
तुम संदिग्ध
हो कि दर्द हो
रहा है कि
नहीं हो रहा
है। जब तुम
प्रसन्न होते
हो तो
प्रसन्नता
अपने आप में
प्रमाण होती है।
जब तुम दुखी
होते हो तो
दुख प्रमाण
होता है।
ब्रह्मचर्य
का आनंद तो
ऐसा, ऐसा
अपूर्व है कि
जब
ब्रह्मचर्य
फलता है तो किसी
से पूछना
पड़ेगा, कोई
परिणाम की
जांच-परीक्षा
करनी पड़ेगी?
लेकिन
गांधी का
ब्रह्मचर्य
ऊपर से थोपा
हुआ था। वह
जबरदस्ती
थोपा गया था।
आखिरी क्षणों
में डर पैदा
होने लगा
उन्हें खुद भी
कि मैं
ब्रह्मचारी
हूं या नहीं!
और डर के कारण
भी थे।
क्योंकि
आखिरी, सत्तर
वर्ष, पचहत्तर
वर्ष की उम्र
में भी, स्वप्न
में कामवासना
पीछा करती थी।
स्वप्नदोष भी
आखिरी उम्र तक
जारी रहा। तो घबड़ाहट
स्वाभाविक
थी। चिंता, भय था। इस भय
को पार करने
के लिए एक
युवती को साथ
लेकर सोने
लगे--यह जांच
के लिए कि
मेरे मन में वासना
उठती है कि
नहीं उठती।
गांधी
के
अनुयायियों
ने बुरी तरह
इस बात को छिपाने
की कोशिश की
है कि यह कभी
जैसे हुआ ही
नहीं। क्योंकि
यह तो सारी की
सारी ढांचे को
तोड़ देने वाली
बात है। अगर
गांधी खुद
संदिग्ध हैं
तो अनुयायियों
का क्या भरोसा? गांधी
को खुद ही
अपने पर भरोसा
नहीं है, तो
क्या दूसरे को
सिखाना? और
क्या हुआ
गांधी का
अनुभव इस
युवती के साथ सोकर, उसकी
कोई जाहिर खबर
नहीं की
गई--उन्होंने
पाया कि नहीं
पाया कि
ब्रह्मचर्य
सही था कि
नहीं था। और
बड़ी कठिनाई
है। क्योंकि
एक आदर्श को
ऊपर से थोप
लिया है; अब
उसको पूरा
करने की जिद्द
है। और वासना
भीतर कहीं न
कहीं छिपी है,
कहीं न कहीं
अचेतन में दबी
है। घाव की
तरह है। उसे
हमने ऊपर से ढांक लिया,
मलहम-पट्टी
कर दी है।
लेकिन घाव
मिटा नहीं है।
असंभव
को मत थोपो, असाधारण
को मत थोपो,
अगर तुम
चाहते हो कि
लोग
पुण्यात्मा
हों। क्योंकि
जितना तुम
असंभव थोपोगे
उतने ही लोगों
के मन में
अपराध और पाप
का भाव पैदा
होगा कि हम
पापी हैं, हम
पापी हैं; हमसे
कुछ भी नहीं
हो रहा। न हम
उपवास कर सकते,
न हम
ब्रह्मचर्य
साध सकते, न
हम लोभ छोड़
सकते, न
क्रोध छोड़
सकते। कुछ भी
तो नहीं कर
सकते। तो हमसे
ज्यादा महागर्त
में कोई भी
नहीं है।
और
जिसको यह
भरोसा आ गया
कि मैं महागर्त
में हूं, उसके
उठने के उपाय
बंद हो गए।
कौन उठेगा अब
जब तुम्हीं गिर
पड़े, और जब
तुम्हीं ने
हताशा ले ली, और जब तुमने
आशा छोड़ दी।
अब तुम्हारा
आकाश दूर आकाश
का तारा है
जिसको तुम
अपने गङ्ढे
में पड़े हुए
देखते रहते
हो। गङ्ढा
असलियत है, आकाश का
तारा तो बहुत
दूर है।
और
तुम्हें पता
नहीं है, जहां
तारे दिखाई
पड़ते हैं वहां
होते नहीं।
वहां कभी थे
वे; क्योंकि
प्रकाश को आने
में बड़ा समय
लगता है। जो
निकटतम तारा
है जमीन के
उससे आने में
चार साल लगते
हैं। चार साल
पहले वह तारा
वहां था, अब
है नहीं। तो
रात तो
तुम्हारी
बिलकुल झूठी है।
जो तारे
तुम्हें
दिखाई पड़ते
हैं बिलकुल झूठे
हैं। वहां कोई
तारा नहीं है
जहां तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है, वहां
वह कभी था।
चार साल में
यह भी हो सकता
है, वह
नष्ट हो गया
हो। लेकिन चार
साल तक दिखाई
पड़ता रहेगा, क्योंकि जब
तक रोशनी आती
रहेगी। चार
साल तक का
फासला रहेगा।
और यह
तो निकटतम
तारा है। फिर
दूर के तारे
हैं,
जिनसे करोड़
वर्ष में
रोशनी आती है,
दस करोड़
वर्ष में
रोशनी आती है,
अरब वर्ष
में रोशनी आती
है। और ऐसे
तारे हैं जिनकी
रोशनी उस दिन
चली थी जब
पृथ्वी नहीं
बनी थी और अभी
तक पहुंची
नहीं है। वे
तारे कहां खो गए
होंगे, कुछ
पता नहीं।
लेकिन दिखाई
पड़ते हैं।
तुम्हारे
अतीत के
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, बस
ऐसे ही तारे
हैं जो कभी
थे। और तुम
अपने गङ्ढे
में पड़े हो और
दूर तारों पर
आंखें लगाए हो
जो हैं ही
नहीं।
तुम्हारा गङ्ढा
तुम्हारी
असलियत है। और
उस असलियत को
तुम जितना
ढांकना चाहते
हो उतने ही
आदर्श की तरफ
देखते हो।
आदर्श की तरफ
देखने में एक
सुविधा है, अपना नरक
नहीं दिखाई
पड़ता। पड़े
रहते हो लोभ
में, पड़े
रहते हो
कामवासना में;
ब्रह्मचर्य
के तारे पर
आंखें लगाए
रहते हो। तो
जो है असलियत
वह दिखाई नहीं
पड़ती। और
ध्यान रखना, जो है उसे
देखना पड़ेगा;
तभी किसी
दिन
ब्रह्मचर्य
का जन्म होगा।
तुम्हारा
आदर्श तुम्हारा
पलायन है, एस्केप
है, बचने
की तरकीब है।
कब तक बचे
रहोगे? तारे
को देखते पड़े
रहोगे, गङ्ढा नहीं मिट
जाएगा। तारे
को देखने से
कभी गङ्ढा
नहीं मिटा है।
गङ्ढे को
ही देखना
पड़ेगा। उठना
पड़ेगा, चलना
पड़ेगा। तारे
को तो छोड़ो;
असलियत को,
यथार्थ को
पकड़ो।
क्योंकि
यथार्थ में ही
सत्य छिपा है;
तुम्हारी
कल्पनाओं, मनोवांछाओं में नहीं, तुम्हारे
सपनों में
नहीं।
क्रोधी
आदमी अक्सर
अहिंसा का
आदर्श बना
लेता है। उससे
सुविधा हो
जाती है।
क्रोध को कहता
है,
है, माना।
लेकिन अहिंसा
की कोशिश कर
रहा हूं; देखो,
पानी छान कर
पीता हूं, रात
भोजन नहीं
करता।
धीरे-धीरे
सधेगा। कोई
जल्दी तो हो
भी नहीं सकती;
लंबा सवाल
है, जन्मों-जन्मों
की बात है।
कभी न कभी
अहिंसा को
उपलब्ध हो जाऊंगा।
आज तो क्रोध
करूंगा, क्योंकि
अभी तो अहिंसा
सधी नहीं
है। कभी!
भविष्य में
टालता है। और
आज जो कर रहा
है उसी में से
भविष्य निकलेगा;
वह जो कह
रहा है उसमें
से नहीं।
इसे
तुम ठीक से
समझ लेना, बारीकी
से। तुम जो कर
रहे हो उसी से
तुम्हारा भविष्य
निकलेगा। आज
क्रोध कर रहे
हो और सोच रहे
हो, कल
अहिंसा! तो
अहिंसा
तुम्हें राहत
दे रही है।
कंसोलेशन है,
सांत्वना
है। कोई फिक्र
नहीं; तुम्हारा
अहंकार कहता
है कि मान
लिया क्रोध कर
रहे हो, क्योंकि
मजबूरी है, जरूरत है, वैसे अहिंसा
तुम्हारा
लक्ष्य है।
तुम आदमी तो
बड़े गजब के
हो। अभी
तुम्हारा
वक्त नहीं आया;
तुम तो छिपे
हुए प्रकाश हो;
कल प्रकट
होगा। तो इससे
तुम्हें आज
क्रोध करने
में सुविधा
मिल जाती है।
अहिंसा कल पर
टल गई। आज
खाली बचा, क्रोध
से भर लो। दिल
खोल कर भर लो; क्योंकि कल
तो अहिंसा हो
जानी है। कल
तो ब्रह्मचर्य
आ जाएगा; आज
आखिरी दिन और
है, भोग कर
लो। तुम्हारा
ब्रह्मचर्य
तुम्हें भोगी
बनाता है।
क्योंकि
आदर्श
तुम्हारी
असलियत
छिपाता है।
तुम छोड़ो
आदर्शों को।
तुम सामान्य
सत्य को
पहचानो। क्या
स्थिति है? और
उसी स्थिति को
जीओ
सजगता से।
आदर्श नहीं; जागरूकता!
भविष्य नहीं;
वर्तमान! यह
तो क्रांति
घटित होगी। और
जब तुम आज को
बदलोगे
बोधपूर्वक, समझपूर्वक। क्योंकि
समझ ही
एकमात्र
बदलाहट है, और कोई
बदलाहट नहीं।
समझ ही
एकमात्र
मुक्ति है, और कोई
मुक्ति नहीं।
आज जब
तुम्हारी समझ
के प्रकाश से
प्रकाशित
होगा और
बदलेगा, उसी
से तो कल का
जन्म होगा। आज
अगर तुम कम
क्रोध
किए--होशपूर्वक--तो
कल और कम होगा,
परसों और कम
होगा, एक
दिन अक्रोध की
दशा आ जाएगी।
उस दिन अहिंसा
का फूल
खिलेगा। वह
आदर्श की तरह
नहीं, वह
जीवन के
यथार्थ से
गुजर कर मिलता
है।
लाओत्से
कहता है, सामान्य
को सूत्र बना
लो। तुम जैसे
हो उसे देखो।
और राज्य को
कहता है कि
राज्य भी
मनुष्य के सामान्य
को नियम बनाए,
असामान्य
को आदर्श न
बनाए।
अब हम
क्या कर रहे
हैं?
हम चाहते
हैं कि हमारे
मंत्री, प्रधान
मंत्री, राष्ट्रपति
झोपड़े
में रहें। तब
तुम आदमी की
सामान्य
स्थिति को नहीं
समझ रहे।
जिसको झोपड़े
में रहना है
वह पागल है जो
प्रधान
मंत्री बनने
जाए! जब झोपड़े
में ही रहना
है तो
तुम्हारे पैर
दबा-दबा कर वोट
पाने की जरूरत
क्या है? झोपड़े
में रहने के
लिए तुम से
कोई आज्ञा
नहीं लेनी। सामान्य
आदमी की
सामान्य
मनोदशा है। वह
महल में रहने
के लिए तो जा
रहा है, तुम्हारे
पैर दबा रहा
है, तुम्हारे
सामने हाथ
जोड़े खड़ा है।
तुम, जिनसे
कुछ लेना-देना
नहीं है, तुम्हारे
सामने झुक रहा
है, जी-हुजूरी
कर रहा है।
तुम अकड़े खड़े
हो और वह
तुम्हें
फुसला रहा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
चुनाव में खड़ा
हुआ। तो गांव
भर में उसने
चक्कर लगाया
जांच-पड़ताल के
लिए--कौन अपने
पक्ष में है, कौन
विपक्ष में
है। तो
वोटर-लिस्ट
लेकर निशान लगाता
गया। जिसने
कहा पक्ष में
उस पर लगा दिया
पक्ष, जिसने
कहा विपक्ष
में उस पर लगा
दिया विपक्ष। एक
महिला के
द्वार पर गया,
वह अपने बगीचे
में काम कर
रही है। उसने
वहीं से कहा
कि बाहर रहो, भीतर मत आओ!
तो भी
मुस्कुराया, फाटक खोल कर
कहा कि और
किसी कारण से
नहीं आया हूं,
सिर्फ यह
पूछने आया हूं
कि चुनाव में खड़ा
हो रहा हूं
मेयर के, तो
आपका मत तो
मुझे मिलेगा?
वह स्त्री
आगबबूला हो
गई। उसने कहा,
लावारिस!
आवारा!
तुम्हें मत? और मेयर
बनना है? तुम
सड़क पर भीख
मांगने के
योग्य भी
नहीं। तुम्हें
तो असल में
गांव के बाहर
निकाला जाना
चाहिए। हटो
बाहर! वह झाडू
से जिससे साफ
कर रही थी, झाडू
उसने उठा ली। नसरुद्दीन
पीछे हटता जा
रहा है, मुस्कुराता
जा रहा है, और
कह रहा है कि
नहीं, कोई
बात नहीं, सोच
लेना, अभी
कोई जल्दी भी
नहीं है। उस
स्त्री ने कहा,
सोचने का
सवाल ही नहीं।
तुम निकलते हो
कि मैं झाडू चलाऊं? तो
वह बाहर आ
गया। बाहर से
उसने फिर
नमस्कार किया,
अपनी डायरी
देखी, और
उसने डायरी पर
लिखा: डाउटफुल,
संदिग्ध।
विपक्ष
में है, उसको
भी विपक्ष में
राजनीतिज्ञ
नहीं मानता। तुम्हारे
हाथ-पैर जोड़
रहा है।
फिर
मैंने सुना है
कि मुल्ला नसरुद्दीन
बूढ़ा हो गया
और उसका बेटा
एक दफा चुनाव
में खड़ा हुआ, तो
यही गुजरी
बेटे पर। उसने
बाप से आकर
कहा कि यह तो
बड़ा कठिन काम
है, लोग
बड़ा अपमान
करते हैं।
नसरुद्दीन ने
कहा,
अपमान? कितने
चुनाव मैं लड़ा,
ऐसी भी नौबत
आ गई कि पीटा
गया, फेंका
गया, घरों
से धक्के देकर
निकाला गया, लोगों ने
जूते मारे, केले के
छिलके फेंके,
सड़े टमाटर
मारे। लेकिन
अपमान? अपमान
कभी किसी ने
नहीं किया।
सब तरह
झुकता है, और
तुम चाहते हो झोपड़े में
रहने के लिए!
तो झोपड़े
में रहने के
लिए यहीं कौन
सी तकलीफ थी? और जब वह
जाकर महल में
रहता है, तुम
कहते हो
भ्रष्टाचारी।
तुम अजीब हो।
सीधी-सीधी बात
है। आदमी का
सामान्य मन
है। तुम जैसा
ही आदमी है।
उसी आकांक्षा
से बेचारा
दिल्ली की
यात्रा किया
है। जूते खाता
है, सड़े टमाटर खाता
है, छिलके
फेंके जाते
हैं, गाली-गलौज
झेलता है।
जगह-जगह काले
झंडे, और
लोग मुर्दाबाद
कर रहे हैं; वह सब झेल कर
जाता है--झोपड़े
में रहने के
लिए? तो
जाएगा ही काहे
के लिए? इतनी
सीधी सी बात
है। वह जाता
इसीलिए है कि
महल में रह
सके थोड़ी देर।
यह आदमी का
सामान्य मन है।
फिर जब वह महल
में रहता है
तो
भ्रष्टाचारी
है। वह साइकिल
पर चलना चाहिए
तो तुम्हें
ठीक लगता है।
साइकिल पर ही
चलना था तो
यहां कौन सी दिक्कत
थी? वहां
अगर वह बड़ी
कार में चलता
है तो मुसीबत।
वह जाता इसीलिए
है।
जीवन
को सामान्य की
तरह सोचो। तब
तुम्हें तुम्हारे
राजनेता इतने
भ्रष्टाचारी
न दिखेंगे
जितने दिखाई
पड़ते हैं। और
तब तुम्हें
मुल्क भी इतना
भ्रष्टाचारी
नहीं मालूम
पड़ेगा जितना मालूम
पड़ता है। इतना
है भी नहीं।
क्योंकि इतना
भ्रष्टाचारी
हो तो कोई
समाज टिक ही
नहीं सकता; वह
नष्ट ही जो
जाए। सम्हल ही
नहीं सकता।
लेकिन
भ्रष्टाचार
तुम बड़ा करके
देखते हो; क्योंकि
तुम्हारे
आदर्श बड़े
असामान्य
हैं। झूठे
तुम्हारे
आदर्श हैं, उनके आधार
पर तुम नियम
बनाते हो। और
वही आदर्श
तुम्हारा नेता
भी मानता है।
उसी के आधार
से वह तुमको
कहता है कि
जनता भ्रष्ट
है। और जनता
कहती है, नेता
भ्रष्ट है।
सामान्य
को देखो।
मनुष्य की
सामान्य
आकांक्षा पर
दया करो।
सामान्य को
समझने की
कोशिश करो।
उससे ही
असामान्य को
पैदा करना है।
असामान्य को
ऊपर से नहीं
थोपना है।
कहता
है लाओत्से, "राज्य
का शासन
सामान्य के
द्वारा करो।
रूल ए किंगडम
बाइ दि नार्मल।'
तब
जीवन
व्यवस्थित हो
पाता है। क्या
है नार्मल? आदमी
को समझो, आदर्शों
को मत। वहीं
से सूत्र
खोजो।
सामान्य आदमी
क्या चाहता है?
चाहता है:
छप्पर हो, रोटी
हो, कपड़ा हो, प्रेम
हो जीवन में, सुरक्षा हो।
यह सामान्य
आदमी की
आकांक्षा है।
न तो सामान्य
आदमी चाहता है
कि कोई
परमात्मा मिल
जाए आज, न
कोई मोक्ष, न कोई
ब्रह्मचर्य।
तुम जो
सामान्य आदमी
चाहता है उसको
देख कर
व्यवस्था दो।
उसी व्यवस्था
में जब वह
शांत होने
लगेगा तभी उस
शांति की समृद्धि
से ये नई
अभीप्साएं
पैदा होंगी।
छोटे-छोटे
बच्चों को हम
ब्रह्मचर्य
का पाठ सिखा
रहे हैं। छोटे
बच्चों को
पहले
कामवासना का पाठ
सिखाओ, ताकि
वे कामवासना
में गलत न चले
जाएं। अभी ब्रह्मचर्य
का कोई सवाल
ही नहीं है।
लेकिन स्कूलों
में लिखा है
कि
ब्रह्मचर्य
परम धर्म है।
छोटे-छोटे
प्राइमरी
स्कूलों में
मैंने तख्तियां
लगी देखी हैं
कि
ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।
यह प्राइमरी
के बच्चे को, ब्रह्मचर्य
ही जीवन है, इससे क्या
मतलब है? यहां
कोई बूढ़े पढ़ने
आते हैं? अभी
इस बच्चे को
पता ही नहीं
कि
ब्रह्मचर्य
क्या है। अभी
तुम इसे क्षमा
करो। अभी तुम
इसे समझाओ कि
जीवन में
कामवासना
आएगी, उसे
कैसे सम्यकरूपेण
जीया जाए, कैसे
तू कामवासना
में ठीक-ठीक
कुशलता से
प्रवेश करे, ताकि तू
भटके न। अगर
कोई व्यक्ति
कामवासना में
ठीक से प्रवेश
कर गया तो
दूसरा कदम
ब्रह्मचर्य
का स्वाभाविक
है। बिना
कामवासना में
गए हुए बच्चे
को अगर तुमने
ब्रह्मचर्य
का पाठ पढ़ा दिया
तो बड़ी
मुश्किल हो
जाएगी।
मेरे
पास लोग आते
हैं,
युवक, वे
कहते हैं कि
विवाह करें या
नहीं, क्योंकि
है तो
ब्रह्मचर्य
ऊंची बात।
युवकों के मन
में भी विवाह
की निंदा हो
जाती है। है
तो ब्रह्मचर्य
ऊंची बात। मैं
उनसे पूछता
हूं, ब्रह्मचर्य
की तुम बात ही
मत करो, तुम
अपने हृदय की
कहो। कहते हैं,
हृदय तो
वासना से भरा
है। लेकिन आप
कोई तरकीब बताएं
लड़ने की, ताकि
वासना को काट
कर अलग कर
दें।
वासना
को कभी किसी
ने काट कर अलग
किया है? और
अगर वासना को
ही काट दिया
तो फिर
ब्रह्मचर्य
कैसे लाओगे? जो पैर
वेश्याघर की
तरफ जाते हैं
उनको तुमने काट
दिया तो वे ही
पैर तो मंदिर
की तरफ भी ले
जाते थे। पैर
तो वही हैं, चाहे
वेश्याघर जाओ,
चाहे मंदिर
जाओ। दिशा
बदलनी है; पैर
थोड़े ही काट
देने हैं।
ऊर्जा
तो वही है, शक्ति
तो वही है; चाहे
व्यर्थता में
खोओ, चाहे
सार्थकता में
उठाओ; चाहे
अधोगामी बनाओ
और चले जाओ
नरक में और
चाहे
ऊर्ध्वगमन
करो और पहुंच
जाओ परम
उत्कृष्ट जीवन
की अवस्था में,
ब्रह्मचर्य
को। काटना
थोड़े ही है; जानना है, पहचानना है,
ठीक से
जमाना है; सीढ़ियां बनानी हैं
पत्थरों की।
होशियार
कारीगर तिरस्कृत
पत्थर को भी
उपयोग में ले
आता है, नासमझ
उस बहुमूल्य
पत्थर को भी
फेंक देता है
जिसमें कोई
महान प्रतिमा
छिपी थी। जरा
छेनी लेकर साफ
करने की बात
थी और प्रतिमा
उघड़ आती।
अगर तुम बड़े मूर्तिकारों
से पूछो तो वे
यह नहीं कहते
कि हम मूर्ति
बनाते हैं, वे कहते हैं,
मूर्ति तो
छिपी ही होती
है, किसी-किसी
पत्थर में
हमें दिखाई पड़
जाती है कि
इसमें छिपी
है। बस, फिर
हम जो उसमें
व्यर्थ है
उसको छांट
देते हैं, जो
आवरण है उसको
हटा देते हैं।
मूर्ति तो थी
ही। सिर्फ
आवरण को हटाने
की कुशलता है।
कूड़े-कर्कट
को अलग कर
देते हैं, मूर्ति
प्रकट हो जाती
है। हम मूर्ति
बनाते थोड़े ही
हैं। कभी किसी
ने कोई मूर्ति
बनाई है!
इसलिए
मूर्तिकार
जाता है
पहाड़ों में, पत्थरों
को देखता
है--किस पत्थर
में छिपी है?
जब तुम
मेरे पास आते
हो तो मैं भी
तुम्हें ऐसे ही
देखता हूं।
क्योंकि तुम अनगढ़
पत्थर हो।
देखता हूं, मूर्ति
छिपी है, थोड़ा
सा अनगढ़पन
है। थोड़ा
यहां-वहां
छेनी के लगाने
की जरूरत है; जल्दी ही
रूप उघड़
आएगा। मिटाना
कुछ भी नहीं
है; संवारना
है, सजाना
है, ठीक
दिशा देनी है।
और ठीक
दिशा सामान्य
से मिलती है।
तुम सामान्य
होने की
आकांक्षा
करो।
असामान्य
होने से तुम
रुग्ण हो।
कहता
है लाओत्से, "युद्ध
हो तो ठीक, चलो,
असामान्य
अचरज भरी
युक्तियों से लड़ो।'
क्योंकि
युद्ध तो गलत
है ही। तो
उसमें अगर गलत
चलता हो तो
चले,
लेकिन कम से
कम जीवन के
शांत क्षणों
में तो गलत को
मत चलाओ।
युद्ध तो गलत
है, इसलिए
गलत से ही
चलता है।
रोमन
सम्राट एक
तरकीब करते
थे। उनका
सिंहासन
दीवार के पीछे
एक यंत्र से
जुड़ा हुआ था।
जब सम्राट उस
पर बैठता था, सिंहासन
ऊपर उठ जाता
था। चमत्कृत
हो जाते थे लोग
कि सम्राट कोई
साधारण
पृथ्वी का
आदमी नहीं है।
गुरुत्वाकर्षण
का भी कोई
प्रभाव नहीं
सम्राट पर, बैठते ही
सिंहासन ऊपर
उठ जाता है।
यह तो बहुत
बाद में पता
चला लोगों को,
जब सम्राट
खो गए, कि
दीवार के पीछे
यंत्र लगा रखा
था जिसको एक आदमी
चलाता था। मगर
इसका बड़ा
प्रभाव था।
रोमन
सम्राट जब
वर्ष के प्रथम
दिन पर अपनी
परेड का
निरीक्षण
करता था तो इस
तरह का इंतजाम
किया था कि दस
हजार सैनिक
लाखों
सैनिकों जैसे
मालूम पड़ें।
क्योंकि
सैनिक सामने
से गुजरते और
वे ही लौट कर
फिर पीछे से
पंक्ति में
जुड़ जाते। तो
जो दूसरे
राजाओं के राजदूत
थे या मित्र
राजा थे वे
खड़े होकर जब
देखते परेड तो
उनकी छाती बैठ
जाती कि इस
सम्राट से झगड़ना
खतरे से खाली
नहीं है। इतनी
भयंकर फौज-फांटा!
इतनी तोपें!
बस उनको देख
कर ही उनके
प्राण ठंडे हो
जाते थे। था
कुछ भी नहीं।
थोड़े से सैनिक
थे,
थोड़ी सी
तोपें थीं, लेकिन
उस्तादी यह थी
कि उनको फिर
वापस--एक गोल वर्तुल
में घूमता था
पूरा का पूरा
मामला। और सैनिकों
की शक्लें तो
होती नहीं, इसलिए तुम
पहचान भी नहीं
सकते कि ये
सैनिक। वर्दी
होती है।
सैनिक यानी
वर्दी। शक्ल
तो होती नहीं।
पहचानना
बिलकुल
मुश्किल है कि
ये वे ही आदमी
आ रहे हैं।
दूसरे राजा
हतप्रभ हो
जाते थे।
लाओत्से
कहता है, युद्ध
में तुम चालाकियों
का उपयोग करो,
अचरज भरी
बातों का, असामान्य
का, समझ
में आता है।
क्योंकि
युद्ध तो
बीमारी ही है।
वहां और
बीमारियां भी
चलेंगी।
लेकिन कम से
कम जीवन के
शांत क्षणों
में, सामान्य
जीवन में तो
अचरज को, विशिष्ट
को, असामान्य
को मत लाओ।
"संसार
को बिना कुछ
किए जीतो।'
करके
जीता तो क्या
जीता? क्योंकि
करके जो जीत
मिलती है वह
जीत होती ही
नहीं। तुम
जबरदस्ती
किसी को भी
हरा नहीं
सकते। हरा
सकते हो, उसकी
छाती पर बैठ
सकते हो, लेकिन
बस ऊपर ही ऊपर
रहोगे। भीतर
वह आदमी बिना
हारा है, उसका
हृदय नहीं
हारता। तुम
गर्दन काट
सकते हो, लेकिन
वह आदमी बिना
हारा मरेगा।
करके कभी किसी
ने किसी को जीता
है? सिर्फ
प्रेम जीतता
है। और प्रेम
कोई कृत्य नहीं
है, भाव की
दशा है। प्रेम
कुछ करना नहीं
है, प्रेम
तो एक मनोदशा
है, ए
स्टेट ऑफ
बीइंग है, एक
होने का ढंग
है।
लाओत्से
कहता है, संसार
को बिना कुछ
किए जीतो,
प्रेम से जीतो।
"मैं
कैसे जानता
हूं कि ऐसा है? इसके
द्वारा।'
और तब
वह कहता है, ये
मेरे अनुभव
हैं।
"जितने
अधिक निषेध
होते हैं, लोग
उतने ही अधिक
गरीब होते
हैं।'
निषेध
का बड़ा आकर्षण
है। जिन
मुल्कों में
कानून बन जाता
है कि शराब
बंद,
प्रोहिबीशन लागू, उन
मुल्कों में
लोग दुगुनी
शराब पीने
लगते हैं। यह
सारी दुनिया
जानती है। फिर
भी मूढ़ता
का कोई अंत
नहीं है। फिर
भी पागल लोग
पीछे पड़े हैं
कि शराब बंद
करो। सारी
दुनिया का
अनुभव यह है
कि जिस मुल्क
में शराब बंद
होती है उस
मुल्क में लोग
दुगुनी-तिगुनी
शराब पीने
लगते हैं।
चोरी से शराब
बनने लगती है।
चोरों के लिए
रास्ता खुल
जाता है।
सब
निषेध चोरी को
बढ़ाते हैं। और
सब निषेध लोगों
को गरीब करते
हैं। क्योंकि
जितना तुम
कहते हो कि मत
करो! उतना
लोगों के
अहंकार को चोट
लगती है; वे
करने को तत्पर
हो जाते हैं।
वे यह भी भूल
जाते हैं कि
क्या जरूरी था,
क्या
गैर-जरूरी था।
ऐसे ही जैसे
इस दरवाजे पर
हम एक तख्ती
लगा दें कि
भीतर झांकना
मना है। फिर
तुम बिना
झांके निकल
सकोगे? तख्ती
पढ़ना न
आता हो तो बात
और, लेकिन
तख्ती लगी है
कि झांकना मना
है तो तुम बिना
झांके नहीं
निकल सकते।
क्योंकि
तख्ती खबर
देती है कि
कुछ झांकने
योग्य भीतर
होना ही चाहिए।
कोई सुंदरी बैठी
हो। कुछ न कुछ
मामला है, नहीं
तो तख्ती
क्यों है? तुम
झांकोगे। अगर
दुर्जन हुए तो
वहीं अड़ कर खड़े
हो जाओगे। अगर
सज्जन हुए तो
जरा चोरी-छिपे
से झांकोगे।
चलोगे इधर को,
देखोगे उधर को। अगर
बहुत ही सज्जन
हुए, कमजोर,
बिलकुल लचर,
तो रात को
लौटोगे जब
भीड़-भाड़ न रहे,
कोई न रहे, तब झांक कर देखोगे।
अगर बिलकुल ही
कमजोर रहे, बिलकुल
नपुंसक, सपने
में झांकोगे,
मगर
झांकोगे।
बिलकुल असंभव
है।
तुमने
देखा, दीवारों
पर जहां लगा
रहता है कि
यहां पेशाब करना
मना है, वहां
पहुंचते ही से
पेशाब लग आती
है। पढ़ा नहीं
कि बस एकदम
खयाल...अभी तक खयाल
भी नहीं था।
तो जिस दीवार
पर लिखा हो
वहां तुम देख
लो, हजार
निशान पेशाब
के बने होंगे।
सामान्य आदमी
है। अगर दीवार
बचानी हो तो
भूल कर लिखना
मत। अगर
बिलकुल ही
बचानी हो तो
लिखना कि यहां
करना सख्त
अनिवार्य है।
अगर यहां
पेशाब न की तो पकड़े
जाओगे, मारे
जाओगे। फिर
तुम देखना, जिसको लगी
भी है वह भी
सम्हाल कर
निकल जाएगा कि
यह क्या मामला
है। कोई
परतंत्र हैं!
कोई हम किसी
के गुलाम हैं
कि तुम हमको
आज्ञा दो कि
कहां हम करें
और कहां हम न
करें!
निषेध
लोगों को दीन
और दरिद्र बना
रहा है। क्योंकि
निषेध के कारण
लोग व्यर्थ
चीजों की तरफ
आकर्षित होते
हैं। शराब बंद
है तो लोग शराब
की तरफ
आकर्षित होते
हैं। खाना छोड़
देंगे, लेकिन
शराब पीएंगे।
क्योंकि जब
बंद है तो जरूर
कोई मामला
होगा। शराब
में कुछ न कुछ
होगा रहस्य।
मिलता होगा
कोई न कोई
आनंद। कोई न
कोई हर्षोन्माद
आता होगा।
नहीं तो क्यों
इतने लोग पीछे
पड़े हैं? कानून
इतने पीछे
क्यों पड़ा है?
सरकारें
इतने पीछे
क्यों पड़ी हैं?
नेतागण
इतने पीछे
क्यों पड़े हैं?
और लोग
जानते हैं कि
नेतागण खुद पी
रहे हैं; दूसरों
को रोक रहे
हैं। जरूर कुछ
रहस्य है। जरूर
कोई बात है।
और एक दफा
आदमी पड़ जाए
जाल में तो उस
जाल के बाहर
आना मुश्किल
होता जाता है।
अगर
दुनिया को कम
शराबी बनाना
हो,
शराब को
खुला छोड़ दो।
तुम्हारे
रोकने से कोई
रुकता नहीं, तुम्हारे
रोकने से
सिर्फ और गलत
शराब पीयी
जाती है। कोई
स्पिरिट पी
लेता है, कोई
पेंट पी जाता
है। सैकड़ों
लोग मर जाते
हैं। अगर शराब
खुली हो तो कम
से कम कोई
स्पिरिट तो न पीएगा, पेट्रोल
तो न पीएगा।
अगर शराब खुली
हो तो कम से कम
ठीक शराब तो पीएगा।
बंद होते ही
से अंधेरे में
चला जाता है
सब काम। और
अंधेरे के
व्यवसायी हैं,
वे तत्क्षण
हाथ में ले
लेते हैं। अगर
तुम ठीक से
समझो तो जो
लोग शराब
बेचते हैं, उनके पक्ष
में है कि
कानून हो
शराब-बंदी का।
मोरारजी भाई
सोचते हों कि
वे शराब-बंदी
के पीछे पड़े
हैं तो उन
लोगों के साथ
शराब-बंदी
वाले लोग खड़े
हैं; वे
गलती में हैं।
उनसे लाभ तो
होने वाला है
उन्हीं का जो
शराब बेचते
हैं। क्योंकि
शराब बढ़ जाती
है एकदम से, जैसे ही
निषेध हो जाता
है।
जिस
फिल्म पर लिख
दिया गया कि
यह सिर्फ, केवल
वयस्कों के
लिए है, ओनली फॉर एडल्ट्स,
उसको
छोटे-छोटे
बच्चे भी
देखने पहुंच
जाते हैं। वह
ज्यादा चलती
है। उसमें
वयस्क तो
पहुंचते ही
हैं, जो
वैसे न गए
होते, कि
कुछ मामला है,
उसमें
छोटे-छोटे
बच्चे भी
पहुंच जाते
हैं।
जितने
होंगे निषेध
उतना ही लोगों
का आकर्षण बढ़ता
है और गलत
दिशाओं में
यात्रा शुरू
हो जाती है।
गलत को इतना
महत्वपूर्ण
मत बनाओ।
निषेध महत्व
दे देता है।
गलत की
उपेक्षा करो; इतना
आकर्षक मत
बनाओ। गलत की
बात ही मत
उठाओ। बच्चे
से भूल कर मत
कहो कि झूठ
बोलना मना है,
झूठ मत
बोलना।
क्योंकि इससे
बच्चे को रस
आता है। और
बच्चे को लगता
है, झूठ
में जरूर कोई
मजा है।
है तो
मजा,
क्योंकि
दूसरे को धोखा
देने में
अहंकार की एक तृप्ति
है। और बच्चा
ऐसे कमजोर है;
जब उसे पता
चल जाता है कि
झूठ बोल कर भी
हम हरा सकते
हैं लोगों को
तो वह झूठ
बोलने लगता
है। फिर वह
कुशल होने
लगता है
धीरे-धीरे।
फिर झूठ एक
कला बन जाती
है। वह इस
तरकीब से
बोलता है कि
तुम पहचान ही
न पाओ।
छोटे-छोटे
बच्चे बड़े
कुशल कारीगर
हो जाते हैं।
उन्होंने अभी
कोई शैतानी की;
और तुम
पहुंच जाओ, देखोगे कि बिलकुल
ऐसे शांत बैठे
हैं। तुम उनसे
कहो, तो वे
कहेंगे: क्या?
जैसे
उन्हें कुछ
पता ही नहीं
है। किसने
किया? यह
वे एक खेल खेल
रहे हैं। वे
यह दिखा रहे
हैं कि तुम
बड़े समझदार
होओगे, ऊंचाई
तुम्हारी छह
फीट होगी, होगी!
लेकिन हम भी
तुम्हें मात
दे सकते हैं।
बच्चे
से भूल कर मत
कहना कि झूठ
बोलना मना है।
क्योंकि जो
मना है वह किया
जाएगा। और
बच्चे ही हैं
सब तरफ। उनकी
उम्र ज्यादा
हो जाए, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? कोई
पांच साल का
बच्चा है, कोई
पचास साल का
बच्चा है। बस
बच्चे ही हैं
सब तरफ।
और
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
कैसे मैंने
जाना यह? मैंने
जाना यह देख
कर कि जितने
अधिक निषेध, उतने लोग
दरिद्र।
जितने तेज
शस्त्र, उतनी
अराजकता।
जितना राज्य
कोशिश करता है
दबाने की, उतने
ही लोग दबंग
होते जाते हैं,
दबते नहीं।
पच्चीस
सालों से भारत
में हम कोशिश
कर रहे हैं
लोगों को
दबाने की, वे
और दबंग होते
जाते हैं।
जितनी तुम
व्यवस्था
जमाते हो, पुलिस
के हाथ में बम
हैं, बंदूक
हैं; क्या
फर्क पड़ता है?
तुम रोज
लोगों को मार
रहे हो; इससे
कुछ हल नहीं
होता। लोगों
का उपद्रव
बढ़ता जाता है।
लोगों का
उपद्रव दबाने
से नहीं दबता।
उपद्रव को
समझो; उपद्रव
के पीछे के
कारण को समझो।
कारण को बदलो।
दबाने से कुछ
भी न होगा।
कारण को कोई
बदलने की नहीं
सोचता। लोग
सोचते हैं कि
बस दबाने में।
हर सत्ता यही
सोचती है कि
शक्ति काफी
है।
लोग
भूखे हैं; शक्ति
से कोई पेट
भरता है? कि
तलवार से कोई
पेट भरता है? लोग अगर
भूखे हैं तो
रोटी का
इंतजाम करो।
दबाने से न
होगा। और भूखे
आदमी को जब
तुम दबाते हो
तो एक ऐसी घड़ी
आ जाती है जब
वह देखता है
कि भूख तो
मिटती ही नहीं,
जीवन में
कोई सार है
नहीं, कुछ
खोने को बचता
नहीं, वह
पागल हो जाता
है। फिर तुम
उसे नहीं दबा
सकते। और
व्यवस्था
चलती है सिर्फ
धारणा से।
नहीं तो क्या
कीमत है पुलिसवाले
की? अब इस
गांव में दस
लाख लोग हैं।
दस लाख आदमियों
को कंट्रोल
में अगर रखना
हो तो कितने
पुलिसवाले
चाहिए? कम
से कम दस लाख
तो चाहिए ही।
लेकिन दस
पुलिसवालों
से काम चलता
है। क्योंकि
मान्यता है।
पुलिसवाले को
देख कर लोग
रुक जाते हैं।
लेकिन
अगर तुमने
ज्यादा
जबरदस्ती की
तो पुलिसवाले
की स्थिति खुल
जाती है। तब
लोग देख लेते
हैं कि इस
वर्दी के पीछे
भी छिपा तो
साधारण आदमी
ही है। मारो
पत्थर, यह भी
भागता है।
उठाओ लट्ठ, यह भी छिपता
है। एक बार
लोगों को पता
चल गया कि पुलिसवाले
के पीछे भी
साधारण आदमी
है और राष्ट्रपति
के पीछे भी
साधारण आदमी
है, और
बाकी सब ऊपरी
चाकचिक्य है,
भीतर कुछ
खास नहीं है; यह भी वैसे
ही डरा हुआ है
जैसे कि हम
डरे हुए हैं; यह भी वैसे
ही घबड़ाया हुआ
है जैसे हम घबड़ाए
हुए हैं; एक
बार आस्था उठ
गई, फिर
जमानी
बहुत-बहुत
मुश्किल है।
वही हो
जाता है जब
तुम ज्यादा
उपाय करने
लगते हो।
पुलिस सब उपाय
कर रही है। अब
उसके पास कुछ
सुरक्षित
उपाय बचा भी
नहीं है।
व्यवस्था
तुम्हारी बड़ी
तलवारों से
नहीं चलती।
तुम्हारा
तलवार उठाना
यह बताता है
कि तुम घबड़ा
गए हो। पुलिस
का गोली चलाना
यह बताता है
कि पुलिस घबड़ा
गई है और जनता
ने पुलिस की
हिम्मत तोड़ दी
है।
इंग्लैंड
की पुलिस को
सूचना है कि
बिलकुल असंभव
स्थिति में ही
चोट की जाए, क्योंकि
चोट खतरनाक
है। क्योंकि
चोट करके तुम
यह बता रहे हो
कि तुम्हारा
होना काफी
नहीं है, तुम्हारी
मौजूदगी काफी
नहीं है।
इंग्लैंड भर
अकेला मुल्क
है जो इस पूरी
सदी में सबसे
ज्यादा
व्यवस्थित
है। और कारण
है कि
व्यवस्था
करने की बहुत
चेष्टा नहीं
है। क्योंकि
चेष्टा जितनी
ज्यादा की जाए
उतना ही साफ होता
जाता है कि
चेष्टा करने
वालों की भी
कोई ताकत नहीं
है। क्या
करोगे तुम? भीड़ बड़ी है, अराजकता फैल
जाएगी।
लाओत्से
कहता है, कैसे
मैंने जाना? कहता है, मैंने
जाना यह देख
कर कि जितने
तेज शस्त्र
होते हैं, उतनी
ही अराजकता
बढ़ती है।
शस्त्रों
पर भरोसा मत
करो।
व्यवस्था एक
मनोदशा है, व्यवस्था
कोई तलवार
नहीं है। और
ध्यान रखो, मरता क्या न
करता! क्योंकि
अगर तुम मारने
पर उतारू हो
गए तो जो मर रहा
है वह भी
मारने पर
उतारू हो जाता
है। और एक बार
जनता मारने पर
उतारू हो जाए,
फिर कोई
उपाय नहीं है;
फिर तुम कुछ
भी नहीं कर
सकते। बड़े से
बड़े सम्राट
धूल में गिरते
देखे जाते
हैं। हेलसिलासी
अभी-अभी गिरा
धूल में। वह
शक्तिशाली
आदमी था।
चालीस साल तक
सख्ती से उसने
हुकूमत की। और
ऐसे गिर गया
जैसे कि घास
का पुतला हो।
क्या हो गया?
सख्ती
ही यहां ले
आई। जनता उस
सीमा पर आ गई
जहां अब कुछ
खोने का डर न
रहा। उलटा
दिया। हेलसिलासी
को उलटाना
बड़ी अनूठी
घटना है; कोई
सोच भी नहीं
सकता था।
क्योंकि वह
कहता था किंग
ऑफ किंग्स
अपने को, कि
वह राजाओं का
राजा है। और
था भी वह
शक्तिशाली आदमी।
और चालीस साल
तलवार के बल
पर उसने हुकूमत
की। लेकिन ऐसे
गिर गया जैसे
खेत में खड़ा
हुआ धोखे का
आदमी गिर जाता
है, आवाज
भी न हुई। जिस
दिन उसको
उतारा
राज-सिंहासन
से उस दिन
सिर्फ दो आदमी
अंदर गए और
उन्होंने
उससे कहा कि
आप बाहर चल कर
कार में बैठ
जाएं। स्थिति
को भांप कर...।
क्योंकि जनता
पूरे विरोध
में है, और
पूरा सैनिक
धीरे-धीरे
जनता के साथ
हो गया। क्योंकि
आखिर सैनिक
जनता का
हिस्सा है। कब
तक तुम सैनिक
से जनता को पिटवाओगे?
अगर
जनता को तुम
सैनिक से पिटवाओगे
तो आज नहीं कल
सैनिक भी समझ
जाएगा कि मैं
अपने को ही
पीट रहा हूं।
ये मेरी मां
है,
मेरे पिता
हैं, मेरे
भाई हैं, मेरे
बेटे हैं। यह
कितनी देर चल
सकता है? तुम
सैनिक और जनता
के बीच कितनी
देर फासला रख सकते
हो? क्योंकि
सैनिक आता तो
जनता से है।
वर्दी उतारी
कि वह भी जनता
का हिस्सा हो
जाता है। यह
वर्दी का धोखा
कितनी देर?
सैनिक
भी विरोध में
हो गया। सिर्फ
दो सैनिक भीतर
गए और हेलसिलासी
से कहा कि आप उठें, बिना
कुछ ना-नुच
किए, बाहर
खड़ी गाड़ी में
बैठ जाएं। हेलसिलासी
ने चारों तरफ
देखा और
चुपचाप उठ कर
बाहर आया। सिर्फ
उसने एक बात
कही, क्योंकि
वह इतनी छोटी
गाड़ी में कभी
नहीं बैठा था।
एक फिएट! वह
बैठता था बड़ी गाड़ियों
में, लंबी
से लंबी गाड़ियों
में। उसने कहा,
इस छोटी
गाड़ी में? उस
सैनिक ने कहा,
चुपचाप बैठ
जाएं। हेलसिलासी
चुपचाप सरक कर
भीतर बैठ गया।
गाड़ी चली गई।
उसे ले जाकर
उन्होंने
गांव के एक
छोटे से मकान
में रख दिया।
जैसे कि कोई
खेत में खड़ा हुआ
पुतला गिर
जाए।
व्यवस्था
एक भाव-दशा है; तलवारों
से नहीं चलती।
और जब कोई
राज्य तलवार का
भरोसा करने
लगता है, समझो
कि उसके गिरने
के दिन आ गए; आखिरी वक्त
आ गया। यह मौत
की घड़ी है।
जैसे मौत के
क्षण में एक
भभक आती है
जीवन की, और
लपट बुझने के
पहले जोर से
भभकती है, ऐसे
ही जिस दिन
बड़ी तलवार
राज्य के हाथ
में उठी देखो,
समझो कि मौत
करीब आ गई। यह
आखिरी भभक है।
अब आखिरी उपाय
किया जा रहा
है।
लाओत्से
कहता है, "जितने
तकनीकी कौशल
होते हैं, उतने
ही लोग ज्यादा
चालाक हो जाते
हैं।'
लाओत्से
यंत्रों के
विरोध में था।
और उसकी बात
सच है।
क्योंकि
यंत्र एक तरह
की चालाकी है, प्रकृति
के साथ एक तरह
की कनिंगनेस।
तुम प्रकृति
से वह निकाल
लेने की कोशिश
कर रहे हो जो
प्रकृति देने
को तैयार न
थी। यंत्र का
मतलब यही है।
तो जितने
तकनीकी कौशल
बढ़ते जाते हैं
उतने लोग
चालाक होते
जाते हैं। जब
तुम प्रकृति
के साथ चालाक
हो तो क्या
वजह है कि
मनुष्य के साथ
चालाकी न की
जाए? कोई
कारण नहीं है।
चालाकी
चालाकी है।
तुम जब चीजों
को धोखा दे
रहो हो...।
अब
अमरीका में हर
चीज को धोखा
दिया जा रहा
है। फलों में
इंजेक्शन
लगाए जाते हैं, ताकि
फल खूब बड़ा हो
जाए। अब फल को
इंजेक्शन देकर
तुम वृक्ष के
प्राण सोख रहे
हो। मुर्गियां,
भैंसें, सब
इंजेक्शन
देकर उनसे
ज्यादा दूध
लिया जा रहा
है। कोई फर्क
नहीं पड़ता, बेहूदे ढंग
से या सुसभ्य
ढंग से।
कलकत्ते
में एक पाप
चलता है कि
गाय या भैंस
की योनि में
एक डंडा डाल
देते हैं दूध
लगाते वक्त।
उससे उसे इतनी
बेचैनी होती
है,
लेकिन उस
बेचैनी के
कारण वह
ज्यादा दूध दे
देती है घबड़ाहट
में। उसे पीड़ा
होती है, लेकिन
ज्यादा दूध दे
देती है। अब
यह बहुत अभद्र
ढंग हुआ। एक
इंजेक्शन लगा
दिया, उस
इंजेक्शन के
कारण, हार्मोन्स के कारण
ज्यादा दूध
निकल आता है।
लेकिन अब तुम
गाय को धोखा
दे रहो हो।
जो
गाएं
मांसाहार के
लिए काटी जाती
हैं,
उनको तो वे
बिलकुल
इंजेक्शन
देकर कोमा में
रखते हैं।
उनको बाहर भी
नहीं लाते, रोशनी में
भी नहीं लाते।
उनको तो
बिलकुल वातानुकूलित
गृहों में
इंजेक्शन देकर
ही रखते हैं।
वे कोमा में
पड़ी रहती हैं
बेहोश, लेकिन
उनका मांस
बढ़ता जाता है
इंजेक्शन
दे-देकर। इतना
मांस बाहर
नहीं बढ़ सकता।
क्योंकि वे चलेंगी-फिरेंगी
तो मांस पचता
है। तो उतना
नुकसान होता
है धंधे वाले
को। तो उनको
चलने-फिरने ही
नहीं दिया जाता।
उनका जीवन
बिलकुल पौधों
की तरह कर
दिया जाता है।
पड़ी है गाय, उसको
इंजेक्शन दिए
जा रहे हैं।
उसका मांस बढ़ता
ही जाता है।
वह मांस का लोथड़ा
है सिर्फ। वह
बेहोश है। बस
उसको काट
देंगे। वह
जीयी, इसका
भी उसको कभी
पता नहीं
चलेगा। उसने
कभी सांस भी
जीवन की ली, इसका उसे
कोई पता नहीं
चलेगा। अब यह
सब चालाकी है।
लाओत्से
कहता है कि
जितना तकनीकी
कौशल बढ़ता है, उतनी
ही चालाकी
बढ़ती जाती है।
एक
घटना घटी। एक
आदमी ने किसी
को गोली मारी
अमरीका के एक
नगर में। जिस
आदमी ने गोली
मारी वह तो
भाग गया; और यह
आदमी मर गया, और तत्क्षण
उसका हृदय
निकाल लिया
गया। क्योंकि
आदमी मर ही
रहा था तो
उसका हृदय निकाल
लिया ताजा। और
वह हृदय दूसरे
आदमी को लगा दिया
गया। कोई हजार
मील दूर
तत्क्षण
एरोप्लेन से
ले जाकर वह, किसी मरते
हुए मरीज को
हृदय के, लगा
दिया गया। फिर
एक बड़ी कानूनी
दिक्कत आई। वह
आदमी पकड़ लिया
गया जिसने
गोली मारी थी।
उसके वकील ने
अदालत में कहा
कि जब तक हृदय बंद
न हो जाए तब तक
किसी को मरा
हुआ नहीं माना
जा सकता। और
उस आदमी का
हृदय अब भी चल
रहा है--दूसरे
आदमी के भीतर।
इसलिए पहले तो
यह प्रमाणित करना
जरूरी है कि
वह आदमी मर
गया। अब ऐसी
कोई घटना पहले
कानून के
इतिहास में घटी
नहीं थी। यह
बड़ी मुसीबत हो
गई अदालत को
कि करना क्या!
क्योंकि जब तक
हृदय बंद न हो
जाए तब तक
आदमी मरा नहीं
है। तो वकील
का कहना यह था
कि आप उसको
दंड दे सकते
हैं हमला करने
का, लेकिन
हत्या का
नहीं। हमला
करने का दंड
तो साधारण है,
हत्या का
दंड भयंकर है।
संयोग
की बात थी, इसलिए
निबटारा हो
गया। लेकिन अब
कानूनविद बड़ी
चिंता में पड़े
हैं। क्योंकि
यह तो रोज
मामला बढ़ेगा।
संयोग की बात
थी कि जिसको
हृदय का आरोपण
किया था वह मर
गया। इसलिए
कानून का
मामला सुलझ
गया कि ठीक है,
अब हृदय भी
बंद हो गया, वह आदमी मर
गया पूरा।
इसको अब हम
फांसी की सजा
दे सकते हैं, अपराधी को।
लेकिन अगर वह
न मरता?
जैसे-जैसे
तकनीकी कौशल
बढ़ता है
वैसे-वैसे लोग
सब तरफ से
चालाक भी होते
जाते हैं।
विज्ञान चालाकी
है,
कनिंगनेस है। वह
प्रकृति के
छिपे हुए
रहस्यों को
जबरदस्ती
उघाड़ना है।
प्रकृति देना
भी नहीं चाहती
तो भी ले लेना
है। वह
बलात्कार है।
और उस बलात्कार
की जितनी
ज्यादा
व्यवस्था हो
जाती है उतना आदमी
फिर सब तरफ से
चालाक हो जाता
है। फिर आदमी
से भी क्या
फर्क है? आदमी
को भी धोखा
देने में क्या
अड़चन है? निकालना
ही ज्यादा है
तो आदमी से भी
ज्यादा निकाला
जा सकता है।
"जितने
ही अधिक कानून
होते हैं, उतने
ही अधिक चोर
और लुटेरे
होते हैं।'
कानून
से चोर-लुटेरे
मिटते नहीं, कानून
से ही बनते
हैं। अगर तुम
चाहते हो कि
दुनिया में कम
चोर-लुटेरे
हों तो कम से
कम, न्यूनतम
कानून चाहिए।
जितने कम
कानून होंगे उतने
कम चोर-लुटेरे
होंगे। क्योंकि
कानून
परिभाषा देता
है--कौन चोर है,
कौन लुटेरा
है। कानून पर
निर्भर करता
है चोर-लुटेरा।
जैसे मैंने
अभी तस्करों
की बात की।
अगर दुनिया
में कोई कानून
न हो कि एक
राज्य से
दूसरे राज्य
में सामान को
ले जाने में
कोई बाधा नहीं
है, कोई
पहरेदार नहीं
खड़ा है, तस्कर
विदा हो
जाएगा। तस्कर
की कोई जरूरत
न रही। अगर दुनिया
में संपत्ति
समान रूप से
विभाजित हो या
संपत्ति न हो,
चोर विदा हो
जाएंगे। चोर
की कोई जरूरत
न रही।
लेकिन
बड़ी कठिनाई है; चोर
विदा नहीं किए
जा सकते।
क्योंकि अगर
चोर विदा हो
जाए तो
न्यायाधीश
कहां रहेगा? वह उसका दूसरा
पहलू है। अगर
तस्कर विदा हो
जाए तो तस्कर
को पकड़ने
वाले लोग कहां
जाएंगे? अगर
चोर-लुटेरे
चले जाएं तो
वकीलों का
क्या होगा? न्यायाधीशों
का क्या होगा?
मजिस्ट्रेटों
का क्या होगा?
कानूनविद, जिनको तुम
पद्म-विभूषण
की उपाधियां
देते हो, इनका
क्या होगा? ये सब एक ही
धंधे के
साझेदार हैं।
चोर और
न्यायाधीश एक ही
धंधे के
हिस्से हैं।
उनका संबंध
वैसे ही है
जैसा ग्राहक
का और
दुकानदार का।
उनमें से एक गया
कि दूसरा नहीं
बचेगा। पुलिस
का क्या होगा अगर
लोग चोर न हों?
सच तो यह है
कि अगर लोग
बुरे न हों तो
नेता का क्या
होगा? राष्ट्रपति
को किसलिए
सिर पर बिठा
कर रखोगे? प्रधानमंत्रियों
की क्या जरूरत
है? क्योंकि
लोग बुरे हैं,
उनको
सुधारने की
उनको जरूरत
है।
तुम्हें
लगता है ऊपर
से,
वे सुधारने
में लगे हैं।
वे सुधार नहीं
सकते, क्योंकि
यह उनका
आत्मघात है।
वे खुद मरेंगे,
अगर लोग
सुधर गए। कोई
राजनीतिज्ञ
नहीं चाहता कि
लोग सुधर
जाएं। कहता
कितना ही हो, चाह नहीं
सकता।
क्योंकि
चाहने का तो
मतलब होगा कि
मैं मरा, मैं
गया। कानून
चोरों को बना
रहा है। और
फिर तुम और
कानून बनाते
हो, क्योंकि
चोरों को
रोकना है। तब
और चोर बनते
हैं। तब तुम
और कानून
बनाते हो। कानून
बढ़ते जाते हैं,
चोर बढ़ते
जाते हैं।
अदालत बड़ी
होती जाती है।
कारागृह बड? होते जाते
हैं।
चोर-लुटेरे
बढ़ते चले जाते
हैं। एक बड़ा
जाल है। फिर
वकील चाहिए।
फिर विशेषज्ञ
चाहिए।
अगर
तुम गौर से
देखो तो सारी
बात कहां से
पैदा हो रही
है?
क्योंकि
तुमने कानून
बनाया। इसका
यह मतलब नहीं
है कि कानून
बिलकुल न हो
तो चोर बिलकुल
न होंगे।
न्यून रह
जाएंगे। अति
न्यून रह
जाएंगे। और
अगर कानून
बिलकुल ही खो
जाए और जिस
वजह से हम
कानून बनाते
हैं वह वजह
मिटा दी
जाए--जो कि मिट
सकती है, जिसमें
कोई अड़चन नहीं
है।
अभी
कोई पानी नहीं
चुराता, क्योंकि
पानी खुला है,
कोई भी ले
सकता है। और
अभी पानी के
चोर नहीं हैं,
न पानी के
चोरों के वकील
हैं, न
अदालतें हैं।
क्योंकि पानी
सुलभ है, सभी
को उपलब्ध है।
और सबकी जरूरत
है। लेकिन मरुस्थल
में पानी चोरी
होने लगता है।
और मरुस्थल
में कानून
बनाना पड़ता है
कि कोई पानी न
चुरा ले।
तुम्हारी
जिंदगी में
जरूर बहुत से
मरुस्थल हैं, जिनके
कारण
चोरी-बेईमानी
है। उनको मिटाओ
मरुस्थलों
को। कानूनों
से वे नहीं
मिटते। कानूनों
से चोर बढ़ते
हैं, मरुस्थल
बढ़ते हैं।
करीब-करीब
सारी दुनिया
चोर होने की
हालत में आ गई
है। इस वक्त
ऐसा आदमी खोजना
मुश्किल है जो
किसी न किसी
तरह की चोरी न
कर रहा हो।
टैक्स बचा रहा
होगा; टिकट
न दे रहा होगा
ट्रेन में; कोई और
तरकीब लगा रहा
होगा।
और मैं
कहता हूं कि
इसमें लोग
जिम्मेवार
नहीं हैं।
लोगों को जीना
है;
तुमने जीना
ही असंभव कर
दिया है।
तुमने सब तरफ
से उपद्रव बांध
दिया है। और
उपद्रव इतना
ज्यादा हो गया
है कि उसे
बिना तोड़े कोई
जी नहीं सकता।
और जब कोई तोड़ता
है तो वह चोर
हो जाता है।
और जब तुम एक
चोरी कर लेते
हो तो तुम
दूसरे के लिए
तैयार हो जाते
हो। फिर
धीरे-धीरे
चोरी सुलभ हो
जाती है। वह
जीवन का ढंग
हो जाता है।
फिर तुम्हें
खयाल भी नहीं
रहता कि कुछ
गलत कर रहे
हैं। कोई गलत
का सवाल ही
नहीं है। तुम
अगर इनकम टैक्स
बचा रहे हो तो
कोई गलत का
सवाल नहीं है।
तुम भूल ही गए
हो कि इसमें
कुछ गलत है।
चोरी बढ़ती है,
जितने
कानून की जकड़
बढ़ती है।
लाओत्से
कहता है, "इसलिए
संत कहते हैं,
मैं कुछ
नहीं करता हूं
और लोग आप ही
सुधर जाते
हैं।'
एक और
ढंग है। शासक
का ढंग है, उससे
संसार भ्रष्ट
हुआ। एक संत
का ढंग है
जिसका उपयोग
भी कभी नहीं
हुआ। कभी
छोटे-छोटे
कबीलों में
उपयोग हुआ है।
बुद्ध के पास
कुछ साधु इकट्ठे
हो गए, उनके
जीवन में एक
उपयोग हुआ।
लाओत्से के
पास कुछ लोग
इकट्ठे हो गए।
छोटे-छोटे
समुदायों में
प्रयोग हुआ
है। लेकिन
जहां भी
प्रयोग हुआ है,
अनूठा है।
संत कुछ कहता
नहीं...।
"मैं
कुछ नहीं करता,
लोग आप ही
सुधर जाते
हैं।'
संत के
होने में, संत
के होने मात्र
में, मौजूदगी
में कोई बात
है जो लोगों
को बदलती है।
"मैं
मौन पसंद करता
हूं, लोग
अपने आप
पुण्यवान हो
जाते हैं। मैं
कोई व्यवसाय
नहीं करता और
लोग आप ही
समृद्ध होते
हैं। मेरी कोई
कामना नहीं है,
लोग आप ही
सरल और
ईमानदार हैं।'
संत के
होने का ढंग
संक्रामक है।
वह तुम्हें नियम
नहीं देता, न
तुम्हें कोई
अनुशासन देता
है। वह
तुम्हें
सिर्फ अपनी
मौजूदगी देता
है। उसकी
मौजूदगी से
तुम्हारे
जीवन में नियम
आने शुरू होते
हैं। उन नियम
के निर्धाता
तुम होते हो।
एक अनुशासन
पैदा होता है
जो भीतरी है, जो तुम्हारा
बनाया हुआ है,
जो किसी और
के निषेध पर
खड़ा नहीं है।
वह तुम्हें
कोई आज्ञा नहीं
देता, वह
तुम्हें कोई
आदेश नहीं
देता। उसकी
मौजूदगी
तुम्हारे
भीतर एक आज्ञा
बन जाती है।
उसकी मौजूदगी
तुम्हारे
भीतर एक आग बन
जाती है। उसकी
मौजूदगी
तुम्हें एक नई
दिशा में
इंगित देने लगती
है, और तुम
चल पड़ते हो।
वह तुम्हें
चलाता नहीं।
उसकी कोई
कामना नहीं
है। और तुम
रूपांतरित हो
जाते हो।
संसार
तब तक भ्रष्ट
रहेगा जब तक
शासक संसार का
केंद्र है। जब
संत संसार का
केंद्र होंगे, और
संत शासक नहीं
हैं, क्योंकि
वे अनुशासन
देते ही नहीं।
संत का होना
ही, उसके
होने का स्वाद
ऐसा है कि
तुम्हें उसका
स्वाद एक बार
लग जाए कि फिर
तुम वही न रह
सकोगे जो तुम
थे। उसकी
सुगंध ऐसी है
कि तुम्हारे
नासापुट एक
बार पहचान लें
तो सभी सुगंधें
दुर्गंध हो
जाएंगी। उसके
होने का ढंग, उसकी ऊर्जा,
उसका
वायुमंडल ऐसा
है कि तुम
पहली बार उसकी
मौजूदगी में
स्वस्थ, शांत
और आनंदित
अनुभव करोगे।
उसकी मौजूदगी
समाधि बन
जाएगी। और जब
स्वाद लग जाता
है तब फिर
तुम्हें कोई
नहीं रोक
सकता। तब तुम
जीवन के अंतिम
शिखर तक
पहुंचे बिना न
रुकोगे।
स्वाद
खींचेगा।
स्वाद एक
चुंबक हो
जाएगा।
तो दो
ढंग हैं
दुनिया को
चलाने के। एक
शासक का ढंग
है। अतीत पूरा
कह रहा है कि
वह हार गया
ढंग,
असफल हुआ।
उससे दुनिया
ठीक न हुई; बिगड़ी, बुरी
हुई। एक संत
का ढंग है।
दुनिया को
चलाने के दो
ढंग हैं--एक
राजनीति का, एक धर्म का।
राजनीति का
ढंग असफल हो
गया है। लेकिन
चलता क्यों
जाता है?
चलता
इसलिए जाता है
कि तुम सदा
सोचते हो कि
एक राजनीतिज्ञ
असफल हो गया
तो दूसरा सफल
होगा। इंदिरा
असफल हुई तो
जयप्रकाश सफल
हो सकते हैं।
इस तरकीब से
राजनीतिज्ञ
जीते हैं। जब
इंदिरा की हवा
आती है तो लोग
कहते हैं, बस
अब बड़ी आशा आ
गई, अब
इंदिरा कुछ
करके
दिखाएगी। लोग
पूछते नहीं कि
राजनीतिज्ञों
ने कभी कुछ
करके
दिखाया--कभी? पूरे
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
उनसे कुछ हुआ
है? वे
सिर्फ
आश्वासन देते
हैं, कभी
पूरा नहीं
करते। लेकिन
तरकीब कहां है?
तरकीब
यह है कि जब एक
राजनीतिज्ञ
हारता है, दूसरा
खड़ा हो जाता
है। और वह
कहता है कि यह
हार गया, यह
गलत सिद्ध हुआ;
इसकी नीति
गलत थी, इसकी
व्यवस्था गलत
थी। हम नई व्यवस्था
देते हैं, हम
नई नीति देते
हैं; इससे
सब ठीक हो
जाएगा।
तुम्हारी आशा
फिर जग जाती
है। तुम इसके
पीछे हो लेते
हो। तुम जैसा
पागल आदमी
खोजना
मुश्किल है।
तुम कितनों के
पीछे हो लिए!
इसकी बात
तुम्हें
भरोसे की लगती
है। क्योंकि
इसके हाथ में
सत्ता नहीं
है। यह सेवक
मालूम पड़ता
है। फिर तुम
इसे सत्ता पर
बिठा दोगे।
चार-पांच साल
लगेंगे
तुम्हें फिर
आशा को खोने
में, फिर
तुम निराश
होओगे। तब तक
कोई दूसरा
राजनीतिज्ञ
खड़ा हो जाएगा।
राजनीतिज्ञ
एक-दूसरे के
विरोधी हैं, यह
तुम समझते हो।
तुम्हें यह
पता नहीं है
कि नीचे दोनों
मिले हैं; षडयंत्र
सम्मिलित है।
एक हारता है
तो दूसरा खड़ा
हो जाता है।
राजनीति को वे
नहीं हारने
देते।
और जिस
दिन
राजनीतिज्ञ
नहीं, राजनीति
हारेगी, उस
दिन भाग्य उदय
होगा। जिस दिन
तुम यह सारा उपद्रव
देख पाओगे कि
ये सब हार
जाते हैं और
ये एक ही थैली
के
चट्टे-बट्टे
हैं। इनमें
जरा भी कोई
फर्क नहीं है।
हां, एक
सत्ता में है,
एक सत्ता के
बाहर। सत्ता
में जो है वह
हार गया तो
सत्ता के बाहर
वाला खड़ा हो
जाता है कि
मुझसे आएगा, अब पूर्ण
क्रांति
मुझसे होने
वाली है।
पूर्ण
क्रांति कभी
हुई नहीं; क्रांति
ही कभी नहीं
हुई। सिर्फ वे
बदल जाते हैं।
एक
राजनीतिज्ञ
दूसरे को बदल
देता है। तुम्हारी
आशा थोड़ी देर
के लिए फिर लग
जाती है।
तुम्हारी आशा
वैसी ही है
जैसे लोग मरघट
ले जाते हैं
किसी को, अरथी
को, तो एक
कंधा थक जाता
है तो अरथी को
दूसरे कंधे पर
रख लेते हैं।
थोड़ी देर राहत
मिलती है। फिर
दूसरा थक जाता
है, तब तक
पहला आराम कर
लेता है; फिर
अरथी बदल लेते
हैं।
राजनीतिज्ञ
तुम्हारे
एक-दूसरे को
राहत दे रहे
हैं।
राजनीति
असफल हो जाए
तो तुम्हारे
जीवन में पहली
दफा धर्म का
बोध आएगा। तब
तुम समझोगे कि
सफलता सिर्फ
एक मार्ग से
मिल सकती है, और
वह है ऐसे
लोगों का
प्रादुर्भाव
जो बिना कुछ
किए करने की
कला जानते हैं।
आज
इतना ही।
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