अध्याय
58
आलसी
शासन
शासन
जब आलसी और
सुस्त होता है,
तब
उसकी प्रजा
निष्कलुष
होती है।
जब
शासन दक्ष और
साफ-सुथरा
होता है,
तब
प्रजा
असंतुष्ट
रहती है।
विपत्ति
भाग्य के लिए छांहदार
रास्ता है,
और
भाग्य
विपत्ति के
लिए ओट है।
इसके
अंतिम नतीजों
को जानने
योग्य कौन है?
जैसा
यह है, सामान्य
कभी भी
अस्तित्व में
नहीं होगा,
लेकिन
सामान्य
शीघ्र ही पलट
कर छलावा बन
जाएगा,
और
मंगल पलट कर
अमंगल।
इस
हद तक
मनुष्य-जाति
भटक गई है!
इसलिए
संत ईमानदार
या दृढ़
सिद्धांत
वाले होते हैं,
लेकिन
काट करने वाले
या तीखे नोकों
वाले नहीं;
उनमें
अखंडता, निष्ठा
होती है, लेकिन
वे दूसरों की
हानि नहीं
करते;
वे
सीधे होते हैं, पर
निरंकुश नहीं;
शासन
एक अपरिहार्य
बुराई है, ए नेसेसरी ईविल; उससे
बचना मुश्किल
है।
लेकिन जितना
बचा जा सके
उतना शुभ।
शासन
का मूलभूत
हिंसा है; शासन
अहिंसक नहीं
हो सकता।
इसलिए शासन है
तो बीमारी।
शासन औषधि
नहीं है; उपचार
का धोखा है।
शासन
भी वही करता
है जिस बुराई
को कि शासन
मिटाना चाहता
है। एक आदमी
हत्या करता है
तो शासन उसे
फांसी देता
है। हत्या मिटती
नहीं, हत्या
दो गुनी हो
जाती है। आदमी
की भूल थी कि उसने
किसी की हत्या
की; अब
शासन उसकी
हत्या करता
है। हत्या
बुरी है, ऐसा
मालूम नहीं
होता। कौन
हत्या करता है,
इस पर सब
कुछ निर्भर
है। अगर शासन
करे तो शुभ, अगर लोग
करें तो अशुभ।
यह कैसा शुभ
है और कैसा अशुभ
है?
शासन
जब अदालतों के
द्वारा हत्याएं
करवाता है तो
न्यायाधीश
जरा भी अपने
को अपराधी
नहीं समझते, बल्कि
समाज के सेवक
समझते हैं।
न्यायाधीश कभी
एहसास नहीं
करता अपने
अंतःकरण में
कि उसने कुछ
बुरा किया है।
क्योंकि शासन
की स्वीकृति है।
न्यायाधीश तो
राज्य में
व्यवस्था ला
रहा है; बुरों
को मिटा रहा
है। लेकिन
मिटाना ही
बुराई है, यह
उसके खयाल में
नहीं है।
दूसरे
महायुद्ध के
बाद जब जर्मन
अपराधियों पर
मुकदमे चले तो
यह बात बड़ी प्रगाढ़
रूप से सामने
आई। क्योंकि
जिन्होंने
लाखों हत्याएं
की थीं हिटलर
की आज्ञा से
उन्होंने
अदालत से कहा
कि हमारा कोई
कसूर नहीं है, हम
तो सिर्फ
आज्ञा का पालन
कर रहे थे। और
इस बात में
सचाई है। ऊपर
से आज्ञा मिली
थी, हम वही
कर रहे थे। और
सारी दुनिया
चकित होकर यह
बात अनुभव की
कि जो लोग
अपने सामान्य
जीवन में भले
थे, जो
किसी को कांटा
भी न चुभाएंगे,
जो किसी का
बुरा और अहित
भी न चाहेंगे,
उन लोगों ने
लाखों लोग इस
तरह जला दिए
जैसे घास-पात
हों।
जो
आदमी हिटलर के
सबसे बड़े
कारागृह का
प्रधान था, कहते
हैं, अंदाजन
उसने दस लाख
लोगों को
जलाया। हिटलर
ने ऐसी भट्टियां
बनाई थीं
जिनमें दस-दस
हजार लोग एक
साथ एक सेकेंड
में जलाए जा सकें।
उन भट्टियों
का वह आदमी
मालिक था।
लेकिन वह रोज
बाइबिल पढ़ता
था, चर्च
नियमित जाता
था; जो भी
थोड़ा दान कर
सकता था, दान
भी करता था।
और कभी किसी
ने नहीं जाना
कि वह आदमी
बुरा हो या
किसी का उसने
कोई अहित किया
हो। रात
प्रार्थना
करके ही सोता
था। उसके कमरे
में जीसस का
चित्र सूली पर
लटका हुआ टंगा
था। और यह
आदमी दस लाख
आदमियों की
हत्या के लिए
जिम्मेवार
था। उसने
अदालत से कहा,
मेरा कोई
कसूर नहीं, मैं
सीधा-सादा
आदमी हूं।
मैंने सिर्फ
आज्ञा का पालन
किया है। और
आज्ञा का पालन
बुराई नहीं है।
जिस
अदालत के
सामने इस आदमी
ने यह कहा उस
अदालत ने भी
इसे फांसी की
सजा दी। अगर कल
कहीं कोई और
ऊपर बड़ी अदालत
हो और वह इस
अदालत के
न्यायाधीशों
से पूछे कि
तुमने यह क्या
किया? तो वे भी
कहेंगे कि
हमने तो न्याय
का पालन किया,
जो
न्याययुक्त
था वही किया।
अपराधी
में और
न्यायाधीश
में फर्क क्या
है?
अपराधी
और न्यायाधीश
में इतना ही
फर्क है: अपराध
तो दोनों करते
हैं,
एक समाज की
सहमति से करता
है और एक समाज
की असहमति से
करता है। बस
इतना ही फर्क
है।
शासन
से बड़ा अपराधी
संसार में कोई
भी नहीं। क्योंकि
जब तुम अपराध
को न्याय के
नाम पर करते हो
तब करने का
मजा ही और हो
जाता है। बड़े
से बड़े अपराधी
को भी पीड़ा अनुभव
होती है। उसका
भी अंतःकरण
कभी उसे कहता
है,
चोट करता है;
उसके
अंतःकरण में
भी कभी आवाज
उठती है कि तू
जो कर रहा है
वह गलत है।
लेकिन
अदालतों के
न्यायाधीशों
के मन में यह
कभी सवाल नहीं
उठता। उनका
गलत भी सही है;
वे जो बुरा
कर रहे हैं वह
भी ठीक है।
क्योंकि वे न्याय
के नाम पर कर
रहे हैं; सत्य,
शासन, सुव्यवस्था
के नाम पर कर
रहे हैं।
एक बात
ठीक से समझ
लेना कि बुराई
कभी इससे ज्यादा
बुराई नहीं
होती जब तुम
उसे भलाई के
नाम में करते
हो। क्योंकि
भलाई का आवरण
उसे छिपा लेता
है। भलाई के
आवरण में
बुराई जितनी
जहरीली हो जाती
है उतनी
जहरीली कभी भी
नहीं होती।
क्योंकि तुम
जहर के ऊपर
शक्कर चढ़ा
लेते हो। कंठ
में उतर जाना
बड़ा आसान हो
जाता है।
लेकिन जहर पर
तुम शक्कर भी
चढ़ा लो, इससे
जहर अमृत नहीं
हो जाता।
दुनिया
का इतिहास दो
तरह के
लुटेरों से
भरा है। एक तो
वे लुटेरे हैं
जो समाज के
विपरीत हैं; वे
डाकू हैं जो
समाज के
विपरीत हैं।
और एक वे लुटेरे
हैं जो समाज
के अनुकूल
हैं। वे
लुटेरे शासन
की सीढ़ियां
चढ़ जाते हैं।
वे अपराध भी
करते हैं गहन,
तो भी धर्म
के नाम पर
करते हैं। वे
तुम्हें मारते
भी हैं, तो
तुम्हारे हित
में और
तुम्हारे
मंगल में। वे
तुम पर गोली
भी चलाते हैं,
तुम्हारी
छाती भी बेध
देते हैं, वे
तुम्हारी
आत्मा को भी
कुचल डालते
हैं जूतों के
तले, तो भी
तुम्हारे
उत्कर्ष के
लिए।
इसलिए
लाओत्से जो
कहता है वह
तुम्हें बहुत
हैरानी का
मालूम पड़ेगा।
लेकिन वह सत्य
है।
लाओत्से
कहता है, "शासन
जब आलसी और
सुस्त होता है,
तब उसकी
प्रजा
निष्कलुष
होती है।'
यह तुम
भरोसा ही न
करोगे कि कोई
संत ऐसी बात
कहेगा!
"व्हेन
दि गवर्नमेंट इज़ लेजी
एंड डल, इट्स पीपुल
आर अनस्पॉइल्ड।'
क्या
मतलब है? शासन
सुस्त, आलसी?
तुम तो सभी
चाहते हो कि
शासन आलसी है,
सुस्त है, उसे सजग
होना चाहिए, चुस्त होना
चाहिए, कर्मठ
होना चाहिए।
तुम तो सोचते
हो कि समाज में
इतनी बुराई है,
क्योंकि
शासन आलसी है।
और लाओत्से
तुमसे ठीक उलटा
देखता है। और
लाओत्से के
पास तुमसे
बहुत दूर
देखने वाली
आंखें हैं। वह
तुमसे बहुत
गहरे देखता
है। लाओत्से
कहता है, शासन
जब आलसी और
सुस्त होता है
तब लोग
निर्दोष होते
हैं। क्या
मतलब है? इसे
बहुत गहरे में
जाकर समझना
पड़े।
आलस्य
भी कभी-कभी
बड़ा गरिमावान
होता है, और
सुस्ती में भी
गुण है। एक
बात तो तुम
ध्यान रख लो
कि दुनिया में
आलसी लोगों ने
कभी भी कुछ
बहुत बुरा
नहीं किया है।
तुम कितने ही
आलसियों को
गाली दो, लेकिन
आलसियों के
ऊपर कोई बड़ा
अपराध नहीं
है। क्योंकि
अपराध करने के
लिए भी आलस्य
तो तोड़ना ही
पड़ेगा।
दुनिया में
जितना
उत्पात-उपद्रव
है वह कर्मठ, जिनमें से
कुछ को तुम
कर्मयोगी भी
कहते हो, उन्हीं
के कारण है।
आलसी तो
उपद्रव करने
की झंझट भी नहीं
लेगा। उपद्रव
करने में भी
तो समृद्ध होना
पड़ेगा, कुछ
करना पड़ेगा।
कौन आलसी तैमूरलंग
हुआ है? कौन
आलसी सिकंदर
हुआ है कभी? कौन आलसी
कभी हिटलर हुआ
है?
नहीं, आलसी
राजनीतिज्ञ
हो ही नहीं
सकता। आलसी
बुराई करने
जाएगा कैसे? उसे जाने और
उठने की भी
फुरसत नहीं
है। आलसियों
ने भला न किया
हो, बुरा
भी नहीं किया
है। आलसी यहां
इस समाज से निर्दोष
गुजर गए हैं, बुरे-भले की
कोई लकीर उनके
ऊपर नहीं है।
नादिरशाह
ने किसी
ज्योतिषी को
पूछा; नादिरशाह
को नींद बहुत
आती थी तो
उसने ज्योतिषी
को पूछा कि
मुझे नींद
बहुत आती है; और सभी
धर्मग्रंथ
कहते हैं कि
आलस्य बुरा है,
और मैं
ज्यादा सोता
हूं; इससे
छूटने का उपाय
क्या है? उस
ज्योतिषी ने
कहा कि
धर्मग्रंथ की
आप मत सुनें, वे किसी और
के लिए कहते
होंगे, आप
तो चौबीस घंटे
सोए रहें; यही
आपके लिए
सदगुण है।
नादिरशाह
समझा नहीं।
क्योंकि
राजनीतिज्ञ आमतौर
से प्रतिभा के
धनी नहीं होते, आमतौर
से उनकी
बुद्धि में
जंग लगा होता
है। नहीं तो
वे
राजनीतिज्ञ
ही क्यों हों?
नादिरशाह
ने कहा, मैं
समझा नहीं।
तुम्हारा
मतलब? उसने
कहा, ज्यादा
खोल कर मैं
कहूंगा तो
मुश्किल में
पडूंगा।
नादिरशाह जिद्द
पकड़ गया कि
मैं तुम्हें
किसी मुश्किल
में न डालूंगा,
तुम बात
पूरी खोल कर
कहो। तो
ज्योतिषी ने
कहा कि बात
सीधी-साफ है।
आप जितनी देर
जगेंगे उतनी
ही बुराई होती
है। जितना आप
जागते हैं
उतना ही
उपद्रव होता
है। आप चौबीस
घंटे के लिए
सो जाएं, आप
सोए ही रहें, ताकि संसार
में शांति
रहे। आपका
आलस्य बड़ा हितकर
है।
धर्मग्रंथ
किसी और के
लिए कहते
होंगे; वे
आपके लिए नहीं
लिखे गए हैं।
वह
ज्योतिषी यह
कह रहा है कि
सबसे बड़ी बात
तो यह होती कि
आप पैदा ही न
होते। फिर
दूसरी बड़ी बात
यह होती कि आप
पैदा ही हो गए
हैं तो सोए
रहें। और
तीसरी बड़ी
घटना जो आपके
जीवन से घट
सकती है वह यह
कि आप जितने
जल्दी मर जाएं
उतना अच्छा।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
शासन सुस्त
हो, आलसी
हो।
सुस्त
का अर्थ ही यह
है कि शासन
प्रत्यक्ष न हो, परोक्ष
हो। सुस्त का
मतलब यह है कि
शासन हर जगह
तुम्हारे बीच
में न आ जाए, कि तुम उठो
तो शासन खड़ा
है तुम्हारे
साथ, तुम
चलो तो शासन
खड़ा है, तुम
हिलो तो शासन
में बंधे हो।
कानून इतना न
हो कि तुम
कारागृह में
बंध जाओ।
आज
कारागृह में
जो लोग हैं वे
तुमसे ज्यादा
स्वतंत्र
हैं। दिखाई
नहीं पड़ते, क्योंकि
उनकी दीवारें
बहुत स्थूल
हैं।
तुम्हारे पास
पारदर्शी
दीवारें हैं
कानून की, इसलिए
तुम सोचते हो
तुम स्वतंत्र
हो। हो तुम नहीं
स्वतंत्र।
तुम्हारे
चारों तरफ
कानून है। और
सब तरफ से
कानून
तुम्हें घेरे
हुए है। तुम
जरा भी हिलने
के लिए
तुम्हें
आजादी नहीं
है। तुम बंधे
हो। तुम्हारा
कंठ घुट रहा
है।
शासन
के सुस्त होने
का अर्थ है कि
शासन तुम्हें
थोड़ी सुविधा
दे,
स्वतंत्रता
दे, और बीच
में न आए। जब
तक कि तुम
किसी के लिए
विधायक रूप से
हानिकर न हो
जाओ तब तक
शासन को बीच
में नहीं आना
चाहिए। जब कि
तुम किसी की
दूसरे की स्वतंत्रता
छीनने जा रहे
हो तब शासन को
बीच में आना
चाहिए, लेकिन
तुम्हारी
स्वतंत्रता
के बीच में
नहीं आना
चाहिए। जब तक
तुम अपने में
जी रहे हो तब
तक शासन को
ऐसा होना
चाहिए जैसे वह
है ही नहीं।
लेकिन
तुम अगर रात
रास्ते पर
शांत भी खड़े
हो आंख बंद
करके तो
पुलिसवाला आ
जाएगा कि यहां
क्यों खड़े हो? आंख
क्यों बंद की?
मतलब क्या
है? क्या
कर रहे हो
यहां? तुम
किसी का कोई
नुकसान नहीं
कर रहे हो, तुम
आंखें बंद किए
रास्ते के
किनारे खड़े
हो। इतनी भी
स्वतंत्रता
नहीं है; होने
के लिए इतनी
भी जगह नहीं
बची है। कानून
सब तरफ खड़ा है;
कोने-कोने
में, जगह-जगह,
छिपा हुआ, गैर छिपा हुआ
तुम्हारा
पीछा कर रहा
है।
लाओत्से
कहता है, शासन
सुस्त हो।
उसका अर्थ है
कि शासन कम से
कम हो। दि लीस्ट
गवर्नमेंट इज़ दि
बेस्ट। जितना
कम हो, न के
बराबर हो, उतना
ही शुभ है।
क्योंकि उतने
ही तुम
स्वतंत्र
होओगे। और
उतने ही तुम
स्वयं होने के
लिए मुक्त
होओगे। उतनी
ही तुम्हारे
व्यक्तित्व
की गरिमा
अक्षुण्ण
रहेगी।
शासन
कोई सौभाग्य
नहीं है कि
उसे बढ़ाए
चले जाओ। शासन
एक दुर्भाग्य
है जिसे कम
करना है। शासन
का अर्थ है, परतंत्रता।
शासन का अर्थ
है, व्यक्ति
का मूल्य कम
है, समाज
का मूल्य
ज्यादा है।
शासन का अर्थ
है कि व्यक्ति
को समाज का
अनुसरण करना
चाहिए हर कीमत
पर। और अगर
कोई झंझट हो
तो व्यक्ति की
कुर्बानी दी
जाएगी समाज के
लिए। यह तो
बिलकुल उलटा
है धर्म के।
धर्म
का सूत्र है
कि व्यक्ति की
गरिमा अंतिम है; व्यक्ति
के ऊपर कुछ भी
नहीं। और
व्यक्ति की आत्मा
का मूल्य चरम
है; उसे
किसी भी
बलिवेदी पर चढ़ाया
नहीं जा सकता।
समाज सिर्फ
शब्द है, राज्य
केवल शब्द है।
न तो समाज के
पास कोई आत्मा
है और न राज्य
के पास कोई
आत्मा है। ये
मुर्दा
संस्थाएं
हैं। इनके लिए
जीवंत
व्यक्ति को चढ़ाया
नहीं जा सकता।
जीवित
व्यक्ति
आखिरी मूल्य
है। और
व्यक्तित्व
की गरिमा को
अक्षुण्ण
रखना हो तो
शासन जितना कम
हो उतना ही
शुभ है।
शासन
जितना ज्यादा
होगा उतना
व्यक्ति कम हो
जाता है। अगर
शासन
परिपूर्ण हो
तो व्यक्ति
बिलकुल खो
जाता है।
व्यक्ति का
फिर कोई पता
नहीं रह जाता।
नाजी
जर्मनी में या
फासिस्ट इटली
में व्यक्ति
की कोई गरिमा
नहीं है।
व्यक्ति जैसी
कोई चीज ही
नहीं है। राष्ट्र
के नाम पर सब कुर्बान
है। व्यक्ति
को पोंछ कर
मिटा दिया
गया। एक भीड़
है अब--आत्मारहित।
क्योंकि
स्वतंत्रता
के बिना आत्मा
होती ही नहीं।
इसीलिए तो हम
आत्मा की परम
दशा को मोक्ष
कहते हैं।
मोक्ष का अर्थ
है,
आत्मा इतनी
मुक्त होती
जाती है, इतनी
मुक्त होती
जाती है कि
आत्मा के होने
में और मुक्ति
में कोई फासला
नहीं रह जाता;
दोनों एक ही
चीज के नाम हो
जाते हैं। तुम
स्वतंत्रता
हो। और
व्यक्ति की गहनतम
प्रतीति
स्वतंत्रता
की है। वही
उसकी आकांक्षा
है, मोक्ष
की खोज है।
लेकिन
अगर शासन बहुत
हो तो तुम
बंधे हो जाओगे; तुम
मुक्त नहीं हो
सकते। इसीलिए
तो संन्यासी को
जंगलों में
भागना पड़ा।
जंगलों की
किसी खूबी के
कारण नहीं; जंगल में
क्या रखा है? समाज की
बेहूदगी की
वजह से एकांत
में जाना पड़ा।
क्योंकि समाज
इतना अतिशय है
कि वह तुम्हें
होने ही नहीं
देता।
बर्ट्रेंड
रसेल ने अपने
जीवन के अंतिम
दिनों में
लिखा है कि एक
आदिवासी
कबीले में
जाकर मुझे
प्रतीति हुई
कि काश, मैं
भी इतना ही
स्वतंत्र
होता कि जब
मौज होती तब
गीत गाते!
चाहे रास्ते
पर नाचना होता
तो नाचते, कोई
बाधा न देता!
लेकिन
लंदन के
रास्ते पर तो
नहीं नाच
सकते। फौरन जेलखाने
पहुंचा दिए
जाओगे। जोर से
गीत भी नहीं
गाकर निकल
सकते रास्ते
पर,
क्योंकि
दूसरों को
अड़चन आ जाएगी।
गीत गाना दूर,
तुम बिलकुल
चुप भी खड़े हो
जाओ लंदन या
दिल्ली या
बंबई के
रास्ते पर, तुम किसी का
कुछ भी नहीं
कर रहे हो, तुम
सिर्फ चुप्पी
साधे हो, कठिनाई
शुरू हो
जाएगी।
अभी
तीन दिन पहले
ही पूना के
अखबार में
किसी का पत्र
छपा है मेरे
किसी
संन्यासी के
विरोध में कि
वह रास्ते पर
चुपचाप खड़ा
था। और भीड़ लग
गई और लोगों
को इससे बाधा
हुई। वह कुछ
भी नहीं कर रहा
था। जिसने
लिखा है उसने
भी लिखा है कि
वह आंख बंद
किए शांत खड़ा
था,
किसी का कुछ
नहीं कर रहा
था। लेकिन
ट्रैफिक में
उससे उपद्रव
हुआ, लोगों
को उससे बच कर
निकलना पड़ा और
वहां भीड़ लग
गई। और उसके
कारण अड़चन
हुई। इस तरह
की घटनाएं
रोकी जानी
चाहिए।
तुम
किसी को
चुपचाप खड़े
होने का मौका
भी नहीं देते।
तुम्हें इतना भय
है व्यक्ति की
स्वतंत्रता
से। तुम
करीब-करीब भीड़
के हिस्से हो
गए। तुम्हारा
अपना कोई होना
नहीं है।
लाओत्से
संन्यास का
पक्षपाती है, इसलिए
शासन का
विरोधी। जो भी
इस संसार में
संन्यास का
पक्षपाती है
वह शासन का
विरोधी होगा। क्योंकि
संन्यास का
मतलब है, आखिरी
मूल्य है
व्यक्ति का, समाज का कोई
मूल्य नहीं
है। समाज तो
केवल एक व्यवस्था
मात्र है।
समाज व्यक्ति
के लिए है, व्यक्ति
समाज के लिए
नहीं। ऐसी चरम
उदघोषणा
संन्यास है।
जीसस
पर यहूदियों
का सबसे बड़ा
जो विरोध था, वह
यही था कि
उन्होंने
कानून तोड़े।
कानून ऐसे जिन्हें
तोड़ कर
उन्होंने
किसी को
नुकसान नहीं
पहुंचाया, कानून
तोड़ कर लाभ
पहुंचाए।
लेकिन यह सवाल
नहीं है; कानून
तोड़े।
यहूदी
मानते हैं कि
सप्ताह के एक
दिन,
जिसको वे सबथ का दिन
कहते हैं, उस
दिन कोई काम
नहीं करना
चाहिए।
क्योंकि उस दिन
परमात्मा ने
भी विश्राम
किया। और जो सबथ के दिन
काम करे वह
आदमी बड़ा
अपराधी है, क्योंकि वह
नियम तोड़ रहा
है।
जीसस जेरूसलम
के मंदिर में
जा रहे थे और
एक अंधे आदमी
ने आवाज दी और
कहा कि सुनो
मेरी आवाज, मेरी
पुकार, मैं
अंधा हूं। और
मैंने सुना है
कि तुम्हारे छूने
से आंखें ठीक
हो जाती हैं!
तो जीसस लौटे।
प्रार्थना
करने जा रहे
थे; वह
उन्होंने एक
तरफ सरका दी
बात। लौटे; उसकी आंखें छुईं।
कहानी कहती है,
उसकी आंखें
ठीक हो गईं।
मंदिर के
पुरोहित बड़े नाराज
हुए। भीड़ लगा
ली। और
उन्होंने कहा,
यह तुमने
कैसे किया? सबथ
के दिन कोई
कृत्य नहीं
किया जा सकता।
तो
जीसस ने कहा
कि मैंने किसी
का नुकसान
नहीं किया, किसी
की आंखें नहीं
फोड़ दीं।
यह अंधा आदमी
चिल्लाया और
मैं इस प्रार्थना
के क्षण में
था कि यह
चमत्कार हो
सकता था। तो
मैं
प्रार्थना
करने जाता या
इस आदमी की
आंखें ठीक
करता!
उन्होंने कहा
कि यह
प्रार्थना का
दिन है। तो
जीसस का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है; जीसस
ने कहा, दि सबथ इज़
फॉर मैन, दि
मैन इज़
नाट फॉर सबथ।
कानून मनुष्य
के लिए है, मनुष्य
कानून के लिए
नहीं।
यह
सबसे बड़ा
अपराध था
जिसके लिए
यहूदी जीसस को
माफ न कर पाए।
क्योंकि
कानून तोड़ा
गया।
समाज, मनुष्यता
नियमों के लिए
है या नियम
तुम्हारे लिए?
वही
प्रयोजन है
लाओत्से का जब
वह कहता है, राज्य
आलसी और सुस्त
हो। सोया हुआ
हो, खड़ा
हुआ नहीं।
इतनी कर्मठता
की जरूरत नहीं
है, विश्राम
करता हुआ हो।
जब बहुत ही
जरूरत पड़े तभी
बीच में आए उठ
कर। आलसी का
यह अर्थ है।
जैसे घर में
आग लगी हो तो
आलसी चलता हुआ
दिखाई पड़ेगा।
ऐसे बाहर से
कोई बारात
निकल रही हो तो
आलसी कोई
देखने नहीं
आने वाला, कि
बाहर कोई झगड़ा
हो गया है तो
आलसी कोई बाहर
उठ कर आने
वाला नहीं।
लेकिन घर में
आग लग गई हो तो
शायद उठ कर आए,
तो शायद कुछ
करे।
आलस्य
प्रतीक है। वह
प्रतीक है इस
बात का कि जब
तुम्हारी
अनिवार्य
जरूरत हो तभी
कृपा करके तुम
प्रकट होओ, अन्यथा
तुम्हारे
प्रकट होने की
कोई आवश्यकता
नहीं है। राजधानियां
मरघटों जैसी
होनी
चाहिए--गांव
के बाहर। जब
बहुत जरूरत हो
तभी पता चलना
चाहिए कि
राजधानी है।
राजनेता को
छिपा कर रखना
चाहिए, जैसे
पहले लोग कोढ़
के बीमारों को
गांव के बाहर
कर देते
थे--अंत्यज, छूने योग्य
नहीं, अछूत।
जब बहुत ही
जरूरत हो तब
उनको भीतर
लाना चाहिए, अन्यथा गांव
के बाहर। उनकी
कोई आवश्यकता
जब पड़े तभी।
लेकिन
वे अतिशय हैं; जरूरत,
गैर-जरूरत
वे हमेशा खड़े
हैं, हमेशा
आगे खड़े हैं।
जहां उनकी कोई
भी आवश्यकता
नहीं है वहां
भी वे मौजूद
हैं। अतिशय, उन्होंने सब
तरफ से
तुम्हें घेर
लिया है। इतनी
अतिशय
कर्मठता नहीं
चाहिए। उनके
कर्म से शुभ
नहीं हो सकता।
स्वभाव शासन
का शुभ नहीं
है।
शासन
का मतलब है:
किसी को दबाओ, परतंत्र
करो; वह जो
करना चाहता हो
वह न करने दो; जो तुम
करवाना चाहते
हो वह करवाओ।
ठीक है, एक
जगह जरूरत
मालूम पड़ती है,
इसलिए
अपरिहार्य
बीमारी है। जब
तक कि मनुष्य--सभी
मनुष्य--संतत्व
को उपलब्ध न
हो जाएं तब तक शासन
रहेगा। लेकिन
कोई गुण-गरिमा
नहीं है शासन
की। तुम
चिकित्सक के
पास जाते हो
जब तुम बीमार
हो।
राजनीतिज्ञ, शासन, राज्य
तभी तुम्हारे
पास आने चाहिए
जब तुम कुछ ऐसा
उपद्रव कर रहे
हो जिससे
दूसरों को
हानि हो; अन्यथा
नहीं। बस एक
ही जगह उनकी
जरूरत होनी चाहिए:
जब तुम अपनी
सीमा के बाहर
जाकर दूसरे की
स्वतंत्रता
को नुकसान
पहुंचा रहे
हो। जब तक तुम
अपनी सीमा के
भीतर हो, जब
तक तुम किसी
को नुकसान
नहीं पहुंचा
रहे, जब तक
तुम अपने भीतर
अपने सुख में
लीन हो, तब
तक शासन को
आलसी होना
चाहिए।
लाओत्से
कहता है, "जब
शासन आलसी और
सुस्त होता है
तब उसकी प्रजा
निष्कलुष
होती है।'
यह जरा
हैरानी का है।
क्योंकि तुम
इससे उलटी बात
के लिए तो
राजी हो जाओगे
कि जब प्रजा
निष्कलुष
होती है तब शासन
सुस्त और आलसी
होता है। यह
तो तुम्हें
समझ में आ
जाएगा, गणित
साफ है कि जब
प्रज्ञा
निष्कलुष है
तो अपने आप
शासन सुस्त
होता है, कोई
प्रयोजन नहीं
होता शासन को
बीच में आने
का। लेकिन
लाओत्से उससे
उलटी बात कह
रहा है। और
उलटी बात भी
उतनी ही सही
है। यह बात
वैसी ही है
जैसे मुर्गी
पहले या अंडा
पहले; तय
करना मुश्किल
है। मुर्गी से
अंडा पैदा होता
है, अंडे
से मुर्गी
पैदा होती है।
वे अन्योन्याश्रित
हैं, इंटरडिपेंडेंट हैं।
लाओत्से
कहता है, प्रजा
को निष्कलुष
करो और शासन
को सुस्त।
क्योंकि वे
दोनों अन्योन्याश्रित
हैं। प्रजा को
निर्दोष बनाओ
और शासन को
अकर्मठ।
क्योंकि वे
दोनों
मुर्गे-अंडे
की तरह जुड़े हैं।
जब प्रजा
निर्दोष होती
है तो शासन की
कोई जरूरत
नहीं होती। जब
शासन जरूरत से
पीछे हट जाता
है, अपनी
जरूरत नहीं
बनाता, तब
प्रजा अपने आप
निर्दोष होने
लगती है।
अब
यहां यह भी
समझ लेना
जरूरी है कि
शासन प्रजा को
निर्दोष होने
नहीं देगा।
क्योंकि अगर
शासन प्रजा को
निर्दोष होने
दे तो शासन की
जरूरत कम होती
है। इसलिए
शासन की पूरी
चेष्टा होती है
कि प्रजा कभी
भी निष्कलुष न
हो जाए। इसलिए
शासन नए कानून
बनाता है ताकि
नए कानून तोड़े
जा सकें। और
शासन
करीब-करीब ऐसी
स्थिति पैदा
कर देता है कि
तुम बिना
कानून तोड़े जी
नहीं सकते। जब
तुम जी नहीं
सकते तब शासन
की जरूरत आ
जाती है। तब
शासन कहता है, हम
कैसे शिथिल हो
सकते हैं, क्योंकि
लोग अनाचारी
हैं। और शासन
इतने कानून बना
देता है कि या
तो अनाचार
करें लोग या
मर जाएं, आत्मघात
कर लें। दो के
बिना कोई उपाय
नहीं रह जाता।
अब
इतने कानून
हैं,
इतने कर हैं,
इतना
टैक्सेशन है
कि अगर कोई
आदमी ईमानदार
हो तो जितना
वह कमाए उससे
ज्यादा उसे कर
देना पड़े। तो
वह कमाए किसलिए?
वह जीए कैसे?
अगर वह
निर्दोष हो तो
वह लुट जाए।
और फिर भी कोई
उसका भरोसा न
करेगा।
अगर
तुम इनकम
टैक्स आफिसर
के पास जाओगे, और
तुमने दस हजार
रुपए ही कमाए
हैं और तुम
पूरे ही बता
दो कि मैंने
दस हजार कमाए
हैं, तो भी
वह कहेगा, कम
से कम पचास
हजार कमाए
होंगे।
क्योंकि कौन सच
बोलता है? तुम्हारा
कोई भरोसा
करने वाला
नहीं है। इस
समय सच्चा
आदमी जितना
झूठा मालूम
होगा उतना कोई
झूठा नहीं
मालूम होता।
क्योंकि कोई
सच्चा है ही
नहीं। तो
तुम्हें भी दो
हजार से शुरू
करना पड़ता है।
तुम दो हजार
कहते हो, वह
पांच हजार
कहता है। ऐसा
खींचतान करके
कहीं तीन-चार
हजार पर राजी
हो जाते हो।
तुम भी जानते
हो, वह
राजी नहीं
होगा, अगर
तुम सच बोल
दो। वह भी
जानता है कि
तुम सच बोलोगे
नहीं, इसलिए
राजी हो जाना
जल्दी आसान
नहीं है। खींचतान
चलेगी।
कानून
अगर अतिशय हो
तो लोगों को
अपराधी बनाता है।
क्योंकि इतना
कानून कोई भी
बरदाश्त नहीं
कर सकता कि
जीना मुश्किल
हो जाए। कानून
जीने में
सहायता देने
को है, जीने को
मिटा देने को
नहीं। इसलिए
कम से कम कर होने
चाहिए और कम
से कम कानून
होने चाहिए।
न्यूनतम
कानून से काम
चलेगा तो कम
से कम अपराधी
होंगे। जब तक
कि अपरिहार्य
न हो जाए तब तक
कानून मत बनाओ।
यह अर्थ है
लाओत्से का कि
शासन सुस्त हो,
आलसी हो।
अति आवश्यक
घड़ी में ही
आए। अनावश्यक घड़ियों
में बीच से हट
जाए; लोगों
को मुक्ति की
श्वास दे। तो
लोग निष्कलुष
होंगे।
आखिर
कलुषता क्या
है?
तुमने कभी
खयाल किया कि
तुम जितने
कानून बनाओ उतनी
ही कलुषता
बढ़ती जाती है,
क्योंकि
उतने ही कानून
के टूटने की
संभावना बढ़ती
जाती है।
मैं
घरों में
देखता हूं।
बच्चा कहता है, मुझे
बाहर खेलने
जाना है; मां
कहती है, नहीं।
बच्चा कहता है,
आइसक्रीम
चाहिए; मां
कहती है, गला
खराब हो
जाएगा। बच्चा
कहता है, चलो
तो मिठाई ही
ले लें; मां
कहती है, ज्यादा
मिठाई खाने से
ये-ये नुकसान
हो जाएंगे।
तुम खड़े करते
जाते हो कानून
चारों तरफ से,
बच्चे को
कुछ होने का
उपाय छोड़ते हो?
कुछ भी
सुविधा है
उसको बच्चा
होने की या
नहीं है? रेत
में खेले तो
कपड़े खराब
होते हैं, मिट्टी
में खेले तो
गंदगी हो जाती
है। पड़ोस के
बच्चों के साथ
खेले तो वे
बच्चे भ्रष्ट
हैं, उनके
साथ बिगड़
जाएगा। एक
छोटे बच्चे से
एक औरत ने
पूछा कि तू तो
अच्छा बच्चा
है न? उसने
कहा कि अगर सच
पूछो तो मैं
उस भांति का
बच्चा हूं
जिसके साथ
मेरी मां
मुझको खेलने न
देगी।
कोई
सुविधा नहीं
है। तब बच्चा
अपराधी मालूम
होने लगता है।
उसे बाहर जाना
जरूरी है।
बच्चा है, बाहर
जाएगा। खुले
आकाश के नीचे
सांस लेनी जरूरी
है। अब अगर
जाता है तो
अपराधी हो
जाता है; नहीं
जाता है तो
अभी से बूढ़ा
होने लगता है।
तुम ऐसी
असुविधा खड़ी
कर देते हो।
रोको, आग
में जाने की
आज्ञा मांग
रहा हो, मत
जाने दो; समझ
में आता है।
लेकिन बाहर
खुले आकाश में
खेलने दो।
कपड़े इतने
मूल्यवान
नहीं हैं
जितना रेत के
साथ खेलना।
फिर यह उम्र
दुबारा न
आएगी। कपड़े धोए जा
सकते हैं, लेकिन
जो बच्चा
खेलने से
वंचित रह गया
वह सदा कुछ न
कुछ कमी अनुभव
करेगा। उसका
जीवन कभी पूरा
न होगा। जो बच्चा
मिट्टी में न
लोट पाया, खेल
न पाया, उसके
जीवन में
उत्सव की
क्षमता कम हो
जाएगी। वह कभी
नाच न सकेगा, गीत न गा
सकेगा। तुम
उसे मारे डाल
रहे हो। अब अगर
बच्चा अपनी
स्वतंत्रता
की घोषणा करे
तो बगावती है।
अगर
स्वतंत्रता
की घोषणा न
करे, आज्ञा
मान ले, तो
जीवन का घात
कर रहा है
अपने। क्या
करे?
और जो
तुम बच्चे की
हालत घर में
कर देते हो
वही शासन
तुम्हारी
हालत किए हुए
है। कहीं कोई
सुविधा नहीं
है। कहीं कोई
जगह नहीं है, जहां
तुम खुल सको
और मुक्त हो
सको। तुम किसी
का कोई नुकसान
नहीं पहुंचा
रहे हो। तुम
किसी की हानि
नहीं कर रहे
हो।
मेरे
कैंपों में
मैंने लोगों
को आज्ञा दी
थी कि अगर
उन्हें उचित
लगे और वे
आनंदपूर्ण
समझें, तो
वस्त्र निकाल
दें। तो
राजनीतिज्ञ
बड़े बेचैन हो
गए। विधान
सभाओं में
चर्चा हो गई।
कानून सख्त हो
गया।
अब जब
तुम नग्न हो
रहे हो तो तुम
किसी दूसरे को
नग्न नहीं कर
रहे हो। तुम
खुद नग्न हो
रहे हो।
तुम्हारे शरीर
को खुले सूरज
के नीचे खड़े
करने की
तुम्हें
स्वतंत्रता
नहीं है! तुम
किसी के भी तो
जीवन में कोई
बाधा नहीं डाल
रहे। तुम किसी
से यह भी नहीं
कह रहे कि आओ
और हमें देखो।
अगर वे देखते
हैं तो उनकी
मर्जी। अगर वे
नहीं देखना
चाहते, वे
अपनी आंख बचा
कर जा सकते
हैं।
तुम्हारी कोई
जबरदस्ती भी
नहीं है।
लेकिन
राजनीति बहुत
जरूरत से
ज्यादा है। अब
इस छोटी सी
स्वतंत्रता
में,
जो कि
व्यक्ति का
निजी अधिकार
है। अगर मुझे
ठीक लगता है
कि मैं नग्न
चलूं तो किसी
को भी अधिकार
नहीं होना
चाहिए कि मुझे
रोके। हां, मैं किसी को
दबाव डालूं
कि तुम नग्न
चलो, तब
राज्य को बीच
में आ जाना
चाहिए कि भई
गलत बात हो
रही है; दूसरे
पर दबाव मत डालो!
तुम्हारी मौज
है, तुम्हें
नग्न चलना है,
तुम नग्न
चलो। मेरी
नग्नता से
किसी दूसरे का
क्या
लेना-देना है?
तुम तो
महावीर को भी
नग्न न होने
दोगे। महावीर
अच्छा हुआ
पहले हो गए; तब
शासन थोड़ा
सुस्त था।
खुला आकाश था,
स्वतंत्रता
थी। लोगों ने
महावीर की
महिमा में कोई
बाधा न डाली; कोई कानून
बीच में न
आया। आज बड़ी
मुश्किल में पड़ते।
आज बड़ी अड़चन
हो जाती।
छोटे
से,
थोड़ी सी
संख्या है
दिगंबर जैन
मुनियों की, बीस-बाईस।
इस समय भारत
में बीस-बाईस
दिगंबर जैन
मुनि हैं, जो
नग्न हैं।
बड़े-बड़े नगरों
में उन पर
रुकावट है।
बंबई में, दिल्ली
में वे ऐसे ही
नहीं जा सकते,
पुलिस को
खबर करनी पड़ती
है। तो उनके
अनुयायी पुलिस
को खबर करते
हैं कि हमारे
गुरु इस-इस
रास्ते से, इस-इस जगह से
निकलेंगे। और
तब भी वे ऐसा
नहीं जा सकते
खुले, उनके
शिष्य उनके
चारों तरफ
घेरा बांध कर
चलते हैं, ताकि
वे किसी को
दिखाई न पड़ें।
तुमने
कभी जैन मुनि
की सीधी खड़ी
हुई फोटो किसी
अखबार में कभी
छपते देखी? नहीं।
जैन मुनि की
तुम जितनी
फोटो देखोगे
उन सब में वह
इस भांति
बैठता है
पालथी लगा कर
कि उसकी
नग्नता दिखाई
न पड़े।
क्योंकि वह
सीधी फोटो खतरनाक
होगी। कानून
उसके खिलाफ
है।
समझ
में आता है कि
कानून बीच में
आए जब तुम किसी
का अहित करो, अकल्याण
करो, लेकिन
जब तुम कुछ भी
नहीं कर रहे
हो तब कानून को
बीच में आने
का क्या
प्रयोजन है? पार्लियामेंट-असेंबलियों
में चर्चा
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। अगर कोई
ध्यान में
नग्न खड़े होकर
ध्यान करना
चाहता है तो
किसी का भी
इसमें कोई
लेना-देना
नहीं है। और
अगर किसी का
लेना-देना है
तो यह उसका
रोग है; उसको
अपने रोग की
चिकित्सा
करवानी चाहिए।
अगर उसको लगता
है कि किसी की
नग्नता से उसके
मन में वासना
उठती है तो यह
उसका रोग है; इससे नग्न
होने वाले का
कोई लेना-देना
नहीं है। और
जिसको नग्न
देख कर वासना
उठती है क्या
तुम सोचते हो
कपड़ों में
छिपे शरीर को
देख कर उसे वासना
न उठेगी? थोड़ी
ज्यादा
उठेगी। क्योंकि
जो छिपा हो
उसे उघाड़ने
का मन होता है;
जो उघड़ा
हो उसे उघाड़ने
का मन नहीं
होता।
सच तो
यह है कि नग्न
आदमी या नग्न
स्त्री कम से कम
वासना उठाती
है। छिपा हुआ
शरीर निषेध बन
जाता है, ज्यादा
वासना उठाता
है।
स्त्रियां
इतनी सुंदर
नहीं हैं
जितनी कपड़ों
में ढंकी हुई
मालूम पड़ती
हैं। अगर
स्त्रियों की
नग्न कतार खड़ी
हो, तो तुम
बड़े चकित हो
जाओगे, उसमें
शायद ही कोई
एकाध स्त्री
सुंदर मालूम पड़े।
लेकिन कपड़ों
में ढंकी हैं;
कुछ भी पता
नहीं चलता।
कपड़ों में
ढंकी सभी स्त्रियां
सुंदर मालूम
पड़ती हैं। और
अगर बुरका ओढ़ा
हो, तब तो
कहना ही क्या!
तो कुरूप से
कुरूप स्त्री
भी बुरका पहने
सड़क से निकल
जाए तो हर
आदमी सचेत हो
जाता है। और
सभी झांक कर
देखने की
कोशिश करते
हैं मामला
क्या है। यही
स्त्री बिना
बुरके के
निकले, कोई
देखने की
फिक्र नहीं
करता।
जीवन
के सीधे-सीधे
सत्य हैं कि
जो छिपा हो वह
आकर्षक हो
जाता है, जो
प्रकट हो वह
आकर्षक नहीं
रह जाता।
आदिवासियों
को जाकर देखो,
नग्न हैं।
तुम्हें भी
कुछ न लगेगा
कि उनके नग्न
होने में कुछ
अपराध हो रहा
है। तुम भी
थोड़े दिन में
राजी हो
जाओगे।
तुम्हें
लगेगा कि अगर
तुम्हें कुछ
लग रहा है तो
वह तुम्हारी
अपनी बेचैनी
है, जिसका
इलाज चाहिए।
पार्लियामेंट
में जो लोग
बैठे हैं, जिनको
चिंता होती है
कि कोई ध्यानी
नग्न खड?ा न हो, इनको
अपनी
मनोचिकित्सा
करवानी
चाहिए। लेकिन
नहीं, उनके
ऊपर पूरे देश
का भार है। यह
किसी ने दिया भी
नहीं है भार, यह अपने हाथ
से ले लिया
है। सारे देश
के कल्याण का
उन्हें विचार
करना है।
लाओत्से
कहता है, कृपा
करो, तुम
अपना ही कल्याण
कर लो तो काफी
है। तुम सबका
कल्याण मत करो;
क्योंकि
तुमसे
अकल्याण
होगा।
"शासन
जब आलसी और
सुस्त होता है,
तब उसकी
प्रजा
निष्कलुष
होती है।'
कानून
कम से कम, शासन
कम से कम, स्वतंत्रता
ज्यादा से
ज्यादा।
क्योंकि स्वतंत्रता
के बिना
निष्कलुषता
का फूल खिलता
नहीं। स्वतंत्रता
की भूमि
चाहिए।
"जब
शासन दक्ष और
साफ-सुथरा
होता है, तब
प्रजा
असंतुष्ट
होती है।
व्हेन दि
गवर्नमेंट इज़ एफीशिएंट
एंड स्मार्ट,
इट्स पीपुल
आर डिसकंटेंटेड।'
क्यों
ऐसा हो जाता
है?
क्योंकि जब
शासन बहुत
दक्ष होता है,
उतनी ही
परतंत्रता बढ़
जाती है।
जितना शासन
कुशल होता है,
उतनी ही
गर्दन का फंदा
कस जाता है।
शासन की कुशलता
का अर्थ ही यह
है कि
परतंत्रता
बहुत कुशल हो
गई और तुम्हें
सब तरफ से
बांध लेगी।
तुम्हें पता
भी न चले, इस
तरह बांध लेगी;
तुम्हारे
होश में भी न
आए, इस तरह
बांध लेगी।
तुम लगोगे
स्वतंत्र, और
तुम स्वतंत्र
बिलकुल भी
नहीं रहोगे।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
करीब-करीब
धोखा है। शासन
ने तुम्हें सब
तरफ से कस
लिया है। और
शासन ने सब
इंतजाम कर रखा
है कि अगर तुम
जरा भी स्वतंत्रता
की घोषणा करो
तो शासन और
कसता जाता है।
तत्क्षण
इमरजेंसी
घोषित हो जाती
है। अगर जनता
जरा स्वतंत्रता
की घोषणा करे
तो तत्क्षण
इमरजेंसी हो
जाती है। सारा
शासन
लोकतंत्र को
भूल जाता है
और तानाशाही
हो जाता है।
जितना
दक्ष होगा
शासन, उतने ही
तुम्हारी
आत्मा को बंधन
होंगे। शासन की
दक्षता नहीं
चाहिए। शासन
ऐसा होना
चाहिए जैसा
परमात्मा
है--अदृश्य। न
दिखाई पड़ता, न बीच में
आता, न
नियम और
अनुशासन की
घोषणा करता।
पता ही नहीं
चलता है। जिस
दिन शासन ऐसा
हो कि उसका
कोई बोध न हो, दंश मालूम न
पड़े, उसी
दिन ठीक शासन
उपलब्ध हुआ।
और न केवल यह
बाहरी शासन के
संबंध में सही
है, यह
अनुशासन के
संबंध में भी
सही है।
तुम
मेरे पास हो।
मेरे पास बहुत
से लोग आते
हैं,
वे कहते हैं,
आप अपने
संन्यासी को
ठीक-ठीक
डिसिप्लिन, अनुशासन
क्यों नहीं
देते?
मैं
कौन हूं किसी
को अनुशासन
देने वाला? और
जो अनुशासन
दूसरे के
द्वारा दिया
जाए वह तुम्हें
कैसे मोक्ष की
तरफ ले जाएगा?
अनुशासन तो
कम करना है, आत्मानुशासन
बढ़ाना है।
बाहर से थोपा
गया शासन तो
हटा लेना है; भीतर की
प्रज्ञा ही
एकमात्र
अनुशासन बने,
ऐसी स्थिति
लानी है। मैं
तुमसे न
कहूंगा, कब
तुम उठो, कब
तुम बैठो, कब
तुम सोओ, क्या
तुम खाओ। ये मूढ़ता की
बातें मैं
तुमसे न
करूंगा। मैं
तो सिर्फ तुम्हारे
परिशुद्ध चैतन्य
को तुम कैसे
खोज लो, उसकी
विधि तुम्हें
दूंगा।
तुम्हारी
चेतना फिर
तुम्हारे
अनुशासन को
बनाएगी।
लेकिन
गुरु भी
शासकों की
भांति हैं। वे
भी बांध लेते
हैं। वे
रत्ती-रत्ती
तुम्हारी
फिक्र रखते
हैं कि तुम
क्या खाते, क्या
पीते, कब
सोते, कब
उठते। गुरु
जैसे पुलिसवाले
हैं। और
पुलिसवाला तो
उतना गहरा
नहीं जाता जितने
गुरु जाते
हैं। क्योंकि
पुलिसवाले की उतनी
समझ भी नहीं
है गहरे जाने
की। गुरु तो
बिलकुल भीतर
तुम्हें हर
चीज में बांध
लेता है। तुम्हारी
मुक्ति के नाम
पर गुरुओं ने
तुम्हारे लिए
कारागृह खड़े
कर रखे हैं।
तुम मुक्त नहीं
होते, गुलाम
हो जाते हो।
तुम आत्मवान
नहीं होते, आत्मा को खो
देते हो। आशा
तुम यह रखते
हो कि शायद इस
अनुशासन से
आत्मा
मिलेगी।
लेकिन जो पहले
ही कदम पर
परतंत्रता है
वह अंतिम समय
में कैसे
स्वतंत्रता
हो जाएगी? स्वतंत्रता
पहले कदम पर
भी
स्वतंत्रता
है, और
अंतिम कदम पर
भी। जो काटनी
है फसल, उसके
ही बीज बोने
होंगे।
तो मैं
स्वतंत्रता
के बीज बोता
हूं। मैं तुम्हें
पूरा
स्वतंत्र
करता हूं; तुम्हारे
बोध पर ही
तुम्हें
छोड़ता हूं।
तुम्हारा बोध
भर जगे।
और तुम अपने
बोध से ही
अपने जीवन को
अनुशासन देना।
तो ही किसी
दिन संभव है
कि तुम्हें
मुक्ति की झलक
आ सके।
"विपत्ति
भाग्य के लिए
छायादार
रास्ता है, और भाग्य
विपत्ति के
लिए ओट है।'
लाओत्से
कहता है कि
सदा विपरीत
जुड़े हुए हैं।
इसे जिसने देख
लिया उसने
जीवन की कुंजी
पा ली।
जब
विपत्ति आए तो
तुम घबड़ाना
मत,
क्योंकि
विपत्ति के ही
छाएदार
रास्ते से
भाग्य भी
यात्रा करता
है। विपत्ति के
पीछे ही भाग्य
आता है।
विपत्ति के
पीछे ही सुख, महासुख की संभावना
छिपी है। जब
विपत्ति आए तो
तुम घबड़ा मत
जाना, उद्विग्न
मत हो जाना, जल्दी ही
भाग्य
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देगा।
विपत्ति तो
उसकी आने की
खबर है। वह पूर्व-सूचक
है, संदेशवाहक
है; पत्र
है कि मैं आ
रहा हूं।
तो जब
विपत्ति आए
तुम उत्तेजित
मत होना, परेशान
मत होना, क्योंकि
जल्दी ही
भाग्य आ रहा
है। और जब
भाग्य के फूल खिलें तब
तुम सुख के
कारण हर्षोन्मत्त
मत हो जाना।
क्योंकि
भाग्य के पीछे
ही फिर विपत्ति
छिपी है। जैसे
दिन के पीछे
रात है और रात
के पीछे दिन
है, ऐसा
सुख के पीछे
दुख है, दुख
के पीछे सुख
है, सफलता
के पीछे
असफलता है, असफलता के
पीछे सफलता
है। सब विरोधी
जुड़े हैं।
तो न तो
दुख तुम्हें
उद्विग्न करे, और
न सुख तुम्हें
उत्तेजित
करे। तुम
दोनों ही स्थिति
में साक्षी
बने रहना।
क्योंकि
दोनों में से
कोई भी ठहरने
वाला नहीं है।
जो भी आया है, चला जाएगा।
जो भी आया है, जल्दी ही
उसका विपरीत
आएगा। तो यहां
पकड़ने को
कुछ भी नहीं।
यहां किसी भी
चीज के साथ
मोह बना लेने
की कोई सुविधा
नहीं है। न तो
तुम विपत्ति
को हटाने की
कोशिश करना; क्योंकि
विपत्ति को
हटाओगे तो
भाग्य भी हट
जाएगा जो उसके
पीछे आ रहा
था। न तुम
भाग्य को पकड़ने
की कोशिश करना;
क्योंकि
भाग्य को पकड़ोगे
तो विपत्ति भी
पकड़ में आ
जाएगी जो कि
उसके पीछे ही
छिपी है। तो
तुम करोगे
क्या?
तुम
साक्षी रहना।
तुम देखते
रहना। तुम
सिर्फ हंसना।
क्योंकि
तुम्हें
दोनों दिखाई
पड़ जाएं तो तुम
हंसने लगोगे।
किसी ने दी
गाली तो तुम
दुखी न होओगे, क्योंकि
तुम जानते हो
कि कहीं से
कोई प्रशंसा शीघ्र
ही मिलने वाली
है। तुम गिर
पड़े, घबड़ाना मत।
क्योंकि जो
ऊर्जा गिराती
है वही उठा भी
लेती है।
तुम्हारा कुछ
लेना-देना
नहीं है। तुम
बीमार पड़े, तो जिस
ऊर्जा से
बीमारी आती है
उसी ऊर्जा से
स्वास्थ्य भी
आता है। तुम
एक ही काम कर
सकते हो कि
तुम देखते
रहना। आने
देना, जाने
देना, और
तुम देखते
रहना।
धीरे-धीरे
जैसे-जैसे
तुम्हारे
देखने की क्षमता
सघन हो जाएगी, जैसे-जैसे
तुम्हारा द्रष्टा
जड़ें जमा लेगा,
वैसे-वैसे
तुम पाओगे कुछ
भी नहीं छूता;
तुम कमलवत
हो गए। वर्षा
भी हो जाती है,
पानी गिरता
भी है, तो
भी छूता नहीं;
अनछुआ गुजर
जाता है। तुम
अस्पर्शित रह
जाते हो।
और अगर
तुम यह न कर
पाए तो तुम
कभी भी
सामान्य न हो
पाओगे।
"जैसी
स्थिति है, सामान्य कभी
भी अस्तित्व
में नहीं
आएगा।'
तुम एक
अति से दूसरी
अति पर भटकते
रहोगे। कभी दुख, कभी
सुख; कभी
छांव, कभी
धूप; कभी
दिन, कभी
रात; कभी
जन्म, कभी
मृत्यु; बस
तुम एक से
दूसरे पर
भटकते रहोगे।
दोनों के बीच
में छिपा है
जीवन का राज।
"जैसी
स्थिति है, सामान्य कभी
अस्तित्व में
नहीं होगा।
लेकिन
सामान्य शीघ्र
ही पलट कर
छलावा बन
जाएगा, और
मंगल पलट कर
अमंगल हो
जाएगा। इस हद
तक मनुष्य-जाति
भटक गई है।'
उसे यह
भी पता नहीं
है कि हम जो भी
करते हैं वह हमेशा
विपरीत में
पलट जाता है।
तुम सोचते हो, यह
बड़ी मंगल घड़ी
है और पकड़
लेते हो।
जल्दी ही तुम
पाते हो कि
मंगल घड़ी तो
कहीं खो गई, उसकी जगह
सिर्फ अमंगल
रह गया है।
देखते हो प्रेम,
पकड़ लेते हो;
मुट्ठी खोल
भी नहीं पाते
कि पता चलता
है, प्रेम
तो कहीं
तिरोहित हो
गया, घृणा
हाथ में रह गई
है। आकर्षण खो
जाता है, विकर्षण
रह जाता है। पकड़ने गए
थे सुबह को, सांझ हाथ
में आती है।
लाओत्से
कहता है, यह
आखिरी भटकाव
है। इससे
ज्यादा और
क्या भटकना
होगा? लौटो पीछे, थोड़ा
सम्हलो।
और सम्हलने
का एक ही मतलब
है: द्वंद्व
से बच जाओ। एक
ही सम्हलना है
कि जहां-जहां
तुम्हें दो
दिखाई पड़ें, तुम उनमें
से चुनाव मत
करना; तुम चुनावरहित
साक्षी हो
जाना। मन तो
कहेगा, सुख
को पकड़ लो; इतने
दिन तो
प्रतीक्षा की,
अब द्वार पर
आया है, अब
जाने मत दो।
मन तो कहेगा, दुख को हटाओ।
हटाओगे तो
जल्दी हट
जाएगा, अन्यथा
न मालूम कितनी
देर टिक जाए।
न
तुम्हारे टिकाए
कुछ टिकता है, और
न तुम्हारे
हटाए कुछ हटता
है। इसे अगर
तुमने जान
लिया तो तुम
समझदार हो।
क्या हटता है
तुम्हारे
हटाए? किस
दुख को तुम
हटा पाते हो? चित्त जब
उदास होता है,
तुम कोई
उपाय करके
उदासी से बाहर
हो सकते हो? चित्त जब
प्रसन्न होता
है, कोई
उपाय है जिससे
तुम
प्रसन्नता को
पकड़ लो और तिजोड़ी
में कैद कर लो
कि जब चाहो तब
निकाल लिया तिजोड़ी से,
थोड़ी देर
खेले, प्रसन्न
हुए, बंद
कर दिया। इतना
लंबा जीकर भी
तुम्हें यह समझ
में नहीं आया
कि न तुम्हारे
पकड़े कुछ
बचता है, न
तुम्हारे
हटाए कुछ हटता
है। आती है
प्रसन्नता और
चली जाती है, जैसे तुमसे
अलग ही उसकी
यात्रा का पथ
है। छाया आती
है, धूप
आती है; तुमसे
कुछ लेना-देना
नहीं है। जैसे
उसके आने-जाने
का अलग ही
वर्तुल है।
तुम तो सिर्फ
दर्शक हो।
तुम्हारी
भ्रांति एक ही
है कि तुमने
अपने को कर्ता
मान लिया।
अगर
तुम कर्ता न
मानो तो तुम
बड़े हैरान
होओगे, जैसे
उदासी आती है
वैसे ही चली
जाती है; तुम
अनछुए, अस्पर्शित
पीछे खड़े रहते
हो। तब
खुशी-हंसी भी आती
है, वह भी
चली जाती है।
जैसे-जैसे यह
भाव प्रगाढ़
होता है
वैसे-वैसे तुम
मुक्त होने
लगते हो। तब
तुम अपने जीवन
को भी अनुशासन
नहीं देते।
लाओत्से
कह रहा है, अनुशासन
के बहुत तल
हैं। दूसरे तुम्हें
अनुशासन दे
रहे हैं--वह
राज्य। फिर
तुम अपने को
अनुशासन देने
की कोशिश करते
हो--वह नीति।
इसलिए तो हम
राजनीति और
नीति शब्द का
उपयोग करते
हैं। क्योंकि
दोनों का मतलब
एक ही है गहरे
में। राजनीति
का अर्थ है, दूसरे
तुम्हें
नैतिक बनाने
की कोशिश कर
रहे हैं। और नीति
का अर्थ है, तुम खुद ही
अपने को नैतिक
बनाने की
कोशिश कर रहे
हो।
न
दूसरे
तुम्हें बना
सकते हैं, न
तुम खुद अपने
को बना सकते
हो। दूसरे
भ्रांति में
हैं कि उनके
ऊपर दुनिया का
भार है सुधारने
का। तुम भी इस
भ्रांति में
हो कि यह
कर्तृत्व
तुम्हारा है
कि तुम अपने को
शुद्ध, चरित्रवान,
शीलवान बना
कर रहोगे।
राजधानियों
का अहंकार भी
झूठा है, और
तुम्हारा
अहंकार भी
झूठा है। इस
जगत में चेतना
साक्षी की
भांति है, कर्ता
की भांति
नहीं। कर तो
तुम कुछ भी न
पाओगे। करने
की भ्रांति के
कारण ही तो
इतना भटके हो
जन्मों-जन्मों
तक। कब तक
भटकते रहोगे?
क्यों नहीं
छोड़ देते उस
भ्रांति को और
एक बार साक्षी
होकर देखते?
और तब
साक्षी के
पीछे एक
अनुशासन आता
है जो लाया
गया नहीं है, जो
प्रयास से
नहीं आया है, जो निष्प्रयत्न
फला है। तब एक
वर्षा हो जाती
है
आशीर्वादों की,
तब सब तरफ
से आनंद सघन
होकर तुम्हारे
ऊपर गिरने
लगता है। बिन
घन परत फुहार।
कोई बादल भी
दिखाई नहीं
पड़ता और वर्षा
होती है। कोई
कारण समझ में
नहीं आता, कोई
कर्ता नहीं है,
कोई लाने
वाला नहीं है,
और आनंद
बरसता चला
जाता है। जब
तक यह घड़ी न आ
जाए, बिन
घन परत फुहार,
तब तक समझना
कि भटक रहे
हो।
लाओत्से
कहता है, मनुष्य-जाति
इस सीमा तक
भटक गई है कि
जो आनंद बिना
किए मिल सकता
है, उसको
भी वह उपलब्ध
नहीं कर पाती।
इससे ज्यादा भटकाव
और क्या होगा?
जो संपदा
बिना कुछ किए
मिल सकती है, तुम उसको भी
नहीं खोज पा
रहे! नहीं खोज
पा रहे हो, क्योंकि
तुम उस संपदा
को खोजने में
लगे हो जो कि
मिल ही नहीं
सकती। तो सारी
ऊर्जा गलत
दिशा में
प्रवाहित है।
"इसलिए
संत ईमानदार,
दृढ़
सिद्धांत
वाले होते हैं,
लेकिन काट
करने वाले या
तीखे नोकों
वाले नहीं।'
यह संत
के स्वभाव को
समझने की
कोशिश करो।
"देयरफोर दि सेज इज़
स्क्वायर, हैज
फर्म प्रिंसिपल्स,
बट नाट
कटिंग, शार्प
कार्नर्ड।'
चौकोन
आकार का है
संत,
क्योंकि
चौकोन आकृति
की कोई भी चीज
दृढ़ होती है।
उसे तुम जमीन
पर रख दो, वह
जम जाती है, वह थिर होती
है। उसे हटाना
आसान नहीं
होता। उसे
कंपन नहीं आता,
वह निष्कंप
होती है।
तो
लाओत्से कहता
है,
"दि सेज इज़
स्क्वायर।'
एक दृढ़ता
है संत की जो
बड़ी अनूठी है, जो
उसके होने के
ढंग से आती
है। इसलिए
स्क्वायर, इसलिए
चौकोन आकृति
वाला है संत।
तुमने
अगर एक जापानी
गुड़िया दारुमा
देखी हो--दारुमा
डॉल। उस गुड़िया को
तुम कैसा ही
फेंको, वह
सदा पालथी मार
कर बैठ जाती
है। दारुमा
जापानी में
भारतीय अनूठे
पुरुष
बोधिधर्म का नाम
है। जापानी
भाषा में
बोधिधर्म का
नाम दारुमा
है। और वह जो
पुतली है वह
बोधिधर्म की
है, जिसने
भारत से चीन
में
बौद्ध-धर्म की
शाखाएं आरोपित
कीं।
स्क्वायर का
वह अर्थ है कि
तुम संत को
कैसा ही
घुमाओ-फिराओ,
उलटा-सीधा पटको, कुछ
भी करो, हमेशा
तुम सिद्धासन
में बैठा हुआ
पाओगे। वह दारुमा
डॉल घर
में रखनी
चाहिए, उसे
फेंक-फेंक कर
देखना चाहिए
कि वह संत का
स्वभाव है।
तुम उसे उलटा
सिर के बल
फेंको, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि वह
वजनी है पैरों
में, वह
तत्क्षण बैठ
जाती है।
संत को हिलाने
का उपाय नहीं; वह
दारुमा डॉल है। वह
कंपित नहीं
होता। तूफान
आएं, सुख
आएं, दुख
आएं, कुछ
उसे उत्तेजित
नहीं करता। वह
हर घड़ी अपने सिद्धासन
में बैठा रहता
है। उसके भीतर
सिद्धासन लगा
है।
यह
सिद्धासन
शरीर का नहीं
है। हमने जो तीर्थंकरों, बुद्धों
की, सबकी
प्रतिमाएं
सिद्धासन में
बनाई हैं, इससे
तुम यह मत
समझना कि वे
इसी तरह बैठे
रहते थे चौबीस
घंटे। ये तो
भीतर के
प्रतीक हैं; इस भांति
भीतर हो गए थे,
दारुमा डॉल की
भांति। इनकी
पालथी ऐसी लग
गई थी कि अब
उसे हिलाने का
कोई उपाय न
था। ये ऐसे
दृढ़ हो गए थे।
तो एक
तो दृढ़ता मन
की भी होती
है। वह दृढ़ता
झूठी होती है।
उसके भीतर डर
छिपा होता है।
मैं
जहां पढ़ता था, मेरे
स्कूल में एक
शिक्षक थे जो
हमेशा कहते कि
अंधेरे से
मुझे बिलकुल
डर नहीं लगता;
अंधेरी रात
में मैं मरघट
भी चला जाता
हूं।
तो
मैंने उनसे
कहा कि आप
इतनी बार यह
बात कहते हैं
कि शक होता
है। इस बात को
बार-बार कहने
की क्या जरूरत
हम छोटे
बच्चों के
सामने कि मैं
बिलकुल नहीं
डरता? यह कोई
बात है! नहीं
डरते तो
अच्छा। मगर आप
किस पर रोब
गांठ रहे हैं
कि मरघट अकेला
चला जाता हूं?
जरूर इसमें
कहीं आपके
भीतर डर है।
डर को आप अपने
मन की बातों
से भुलाने की
कोशिश कर रहे
हैं कि मैं
बिलकुल सुदृढ़
आदमी हूं, मैं
भयभीत नहीं
होता।
अक्सर
तुम ऐसी दृढ़ता
करते हो। तुम
कहते हो कि
मैं जो कसम खा
रहा हूं, सदा
इसका पालन
करूंगा।
लेकिन अगर तुम
उसी वक्त भी
भीतर झांक कर
देखो तो तुम
पाते हो तुम
जानते हो कि
यह पूरा होने
वाला है नहीं।
अपने को भुला
रहे हो। और
जितना तुम
अपने को
भुलाना चाहते
हो उतने ही
जोर से बोलते
हो। खुद की
आवाज सुन कर
भरोसा लाने की
कोशिश कर रहे
हो।
तुम्हारी
दृढ़ता का
कोई मतलब नहीं, तुम्हारी
दृढ़ता के
पीछे जब तक कि
तुम्हारी
चेतना न हो।
मन के संकल्प
कोई संकल्प
नहीं, पानी
पर खींची
लकीरें हैं।
वे टिकने वाली
नहीं, तुम
कितने ही जोर
से खींचो। कुछ
टिकेगा नहीं मन
पर; मन कभी
दृढ़ होता ही
नहीं। मन का
स्वभाव दृढ़ता
नहीं है, चंचलता
है। वह कभी
चौकोर नहीं
है। तुम मन की दारुमा
पुतली नहीं
बना सकते, तुम
लाख उपाय करो।
वह पालथी तो
चेतना की ही
लगती है। वह
सिद्धासन तो
आत्मा का ही
है। उसके पहले
नहीं हो सकती
वह दृढ़ता।
संत
दृढ़ होता है।
उसे खुद पता
भी नहीं होता
कि वह दृढ़ है।
क्योंकि पता
अगर हो तो
विपरीत का भी
पता होगा। वह
दृढ़ होता है।
उसकी दृढ़ता
स्वाभाविक
है। संत दृढ़
होते हैं और
उनकी दृढ़ता
से ही उनका
ईमान प्रकट
होता है। उनकी
दृढ़ता से
ही उनकी
प्रामाणिकता
आती है, उनके
संकल्प से
नहीं। वह उनके
स्वभाव से
आविर्भूत
होती है।
एक तो
ईमान है जो
तुम सोच-विचार
कर लाते हो।
और एक ईमान है
जो तुम्हारे
स्वभाव की
अनुभूति से प्रकट
होता है।
ऐसा
हुआ कि मोहम्मद
का एक शिष्य
यहूदियों की
किताब तालमुद
पढ़ रहा था।
मोहम्मद ने
उसे तालमुद
पढ़ते देखा तो
उससे कहा, देख,
अगर तालमुद
पढ़नी हो
तो यहूदी हो
जा! क्योंकि
बिना यहूदी
हुए तू कैसे तालमुद
समझ पाएगा? मुसलमान
रहते हुए तू तालमुद
समझ न पाएगा, क्योंकि
तेरा पूरापन तालमुद से
नहीं जुड़ेगा।
अगर मुसलमान
रहना है तो
कुरान पढ़। अगर
तालमुद पढ़नी है तो
यहूदी हो जा।
कुछ भी बुराई
नहीं है यहूदी
होने में, लेकिन
जो भी करना है
पूरे मन से
कर।
और
जहां तुम पूरे
मन से कुछ
करते हो वहीं
मन विदा हो
जाता है।
क्योंकि मन
पूरा हो ही
नहीं सकता; वह
उसका स्वभाव
नहीं है। वह
आधा-आधा ही हो
सकता है। जब
भी तुम पूरे
मन से कोई भी
चीज करते
हो--अगर तुम गङ्ढा
भी खोद रहे हो
जमीन में और
पूरे मन से
खोद रहे हो--तत्क्षण
तुम पाते हो
ध्यान लग गया।
तुम खाना बना
रहे हो, पूरे
मन से बना रहे
हो, तत्क्षण
तुम पाते हो
ध्यान लग गया।
जहां-जहां मन
को तुम पूरा
कर लोगे वहीं
तुम पाओगे, मन विसर्जित
हो गया और
ध्यान लग गया।
और वह ध्यान
दृढ़ स्वभाव
वाला है। वह
ध्यान
सिद्धासन है।
अब तुम
इसे ठीक से
समझ लो। लोग
सोचते हैं, सिद्धासन
में बैठने से
ध्यान लगेगा।
वे गलत सोचते
हैं। ध्यान
लगने से सिद्धासन
उपलब्ध होता
है। सिद्धासन
तो कोई भी मदारी
लगा लेगा।
सिद्धासन में
क्या है लगाने
में? थोड़े
दिन का अभ्यास
किया जाए, एकदम
सिद्धासन लग
जाएगा। पैर
थोड़े दिन बाद मुड़ने
लगेंगे। थोड़े
दिन तकलीफ हुई
तो मसाज
करवा लेना।
सिद्धासन तो
कोई भी लगा
लेगा। सिद्धासन
से अगर ध्यान
लगता होता तो
बड़ी सरल बात
थी। ध्यान से
सिद्धासन
लगता है।
जिसका भी
ध्यान लग
गया...। मोहम्मद
की कोई
प्रतिमा नहीं
है, जीसस
की कोई
प्रतिमा नहीं
है सिद्धासन
लगाए हुए।
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं कि जीसस
का सिद्धासन
लग गया। कभी
बैठे नहीं वे
बुद्ध जैसे, महावीर जैसे।
लेकिन भीतर वह
बैठक लग गई।
वह बात भीतर की
है। बाहर से
सहारा मिल जाए,
लेकिन बाहर
को तुम
पर्याप्त मत
समझ लेना।
संत
ईमानदार हैं।
उनका ईमान
भीतरी है। वह
उनके होने का
ढंग है। और
इसीलिए वे काट
करने वाले और
तीखे नोकों
वाले नहीं
हैं। इस फर्क
को खयाल में
ले लो। अगर
तुम्हारा
ईमान ऊपर-ऊपर
है,
चेष्टित है,
तो तुम
बेईमान की
निंदा करोगे,
बेईमान को
काटोगे। तुम
घोषणा करोगे
कि मैं ईमानदार,
तुम बेईमान!
तुम जहां जरा
सा भी कुछ गलत
होते देखोगे,
तुम टूट
पड़ोगे। तुम इस
मौके को न छोड़ोगे
अपनी घोषणा
किए कि मैं
श्रेष्ठ और
तुम अश्रेष्ठ!
तुम सारी
दुनिया को ऐसे
देखोगे
कि सारी
दुनिया नरक की
तरफ जा रही है
एक तुमको छोड़
कर--तुम
स्वर्ग की तरफ
जा रहे हो।
अगर
तुम्हारी
गुणवत्ता
दूसरे की
निंदा बन जाए
तो समझ लेना
कि यह आत्मा
से नहीं आ रही, यह
मन का ही धोखा
है। संत दृढ़
होते हैं, लेकिन
तीखे नोकों
वाले नहीं।
उनमें कोने
नहीं होते। वे
किसी को चोट
पहुंचाने में
रस नहीं लेते।
निंदा उनसे नहीं
हो सकती; बुरे
को भी बुरा
कहने में वे
संकोच
करेंगे। बुरे
में भी भले को
देखने का उनका
स्वभाव होगा। बुरे
से बुरे में
भी, कितने
ही गहरी छिपी
हो ज्योति, कितने ही
अंधेरे में
दबी हो, उसे
वे देख लेंगे।
तीखी
नोक वाला तुम
संत को न
पाओगे। मृदु
होगा। उसके
व्यक्तित्व
में एक गोलाई
होगी, स्त्रैण
गोलाई। उसमें
नोक नहीं
होगी।
"उनमें
अखंडता, निष्ठा
होती है, लेकिन
वे दूसरों की
हानि नहीं
करते।'
वे
अखंड होंगे, लेकिन
तुम्हारे
खंडित व्यक्तित्व
को वे अपनी
अखंडता से
दबाएंगे नहीं,
परतंत्र
नहीं करेंगे।
वे तुम पर
शासन करने के काम
में अपनी
अखंडता का
उपयोग न
करेंगे। वे अखंड
होंगे, गहन
निष्ठा से भरे
होंगे, लेकिन
उनके कारण वे
तुम्हें हीन
दर्शित न करेंगे।
ध्यान रखना, जब भी तुम
अपने चरित्र
का उपयोग किसी
की हीनता के
लिए करने लगो,
तब तक समझ
लेना कि तुम
चरित्र का
उपयोग भी दुश्चरित्रता
की तरह कर रहे
हो।
वे
सीधे होते हैं, लेकिन
यह सीधे होने
का कोई दंभ
उनमें नहीं
होता। इसलिए
उनमें कोई
निरंकुशता
नहीं होती।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
एक डाक्टर के
पास गया। सिर
में उसे दर्द
था। और बहुत
तेज दर्द था, जैसे
कोई स्क्रू
भीतर घुमा रहा
हो, या कि
कोई छुरी से
भीतर काट रहा
हो। तो वह बड़ा
बेचैन था, सिर
पकड़े हुए
प्रवेश किया।
डाक्टर ने
उससे पूछा, बीमारी की
जांच-पड़ताल की,
तो पूछा कि
सिगरेट, सिगार, ऐसी
कोई चीज तो
नहीं पीते? धूम्रपान तो
नहीं करते? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं,
कभी नहीं।
चाय-काफी, पूछा
डाक्टर ने, इस तरह की
कोई चीज तो
नहीं लेते
जिसमें निकोटिन
हो? नसरुद्दीन ने और भी जोर
से कहा कि कभी
नहीं! उस आदमी
ने पूछा, और
शराब इत्यादि
का तो उपयोग
नहीं करते? नसरुद्दीन क्रोध से
खड़ा हो गया।
उसने कहा, तुमने
समझा क्या है?
डाक्टर ने
कहा, और
आखिरी बात और
कि कोई
परस्त्रीगमन,
वेश्यागमन,
कोई इस तरह
की लत में तो
नहीं पड़े हैं?
नसरुद्दीन तो झपट्टा
मार दिया उस
डाक्टर पर।
नसें खिंच गईं।
उसने कहा, तुमने
समझा क्या है?
कोई
चोर-लफंगा? कोई ऐरा
गैरा नत्थू
खैरा? तुम्हें
पता नहीं मैं
कौन हूं? मैं
अखंड
ब्रह्मचारी
हूं, बाल
ब्रह्मचारी।
और इतना ही
नहीं कि मैं
ब्रह्मचारी
हूं, मेरे
पिता भी अखंड
बाल
ब्रह्मचारी
थे। यह हमारे
वंश में सदा
से ही चला आया
है। उस डाक्टर
ने कहा, इलाज
हो जाएगा; बीमारी
पकड़ ली गई।
तुम शांति से
बैठो।
तुम्हारा
चरित्र
तुम्हारे सिर
में जरूरत से
ज्यादा घुस
गया है; उससे
दर्द हो रहा
है।
जब
चरित्र
तुम्हें
सिरदर्द देने
लगे तो थोड़ा सावधान
हो जाना। जब
चरित्र
तुम्हारा दंभ
बन जाए और अकड़
बन जाए और
तुम्हारी चाल
बदल जाए तो तुम
सावधान हो
जाना। यह
चरित्र न हुआ, दुश्चरित्रता
हो गई। इससे
तो
दुश्चरित्र
बेहतर, कम
से कम विनम्र
तो है।
दुश्चरित्रता
इतनी बुरी
नहीं जितना
दंभ बुरा है।
संत
में चरित्र
होगा और
चरित्र का कोई
एहसास नहीं
होगा, सेल्फ-कांशसनेस
नहीं होगी।
चरित्र ऐसे
होगा जैसे कि
हाथ हैं, कान
हैं, नाक
है; इनके
लिए कोई अलग
से घोषणा नहीं
करनी पड़ती, हैं। चरित्र
ऐसे होगा जैसे
श्वास चलती
है। अब इसकी
कोई घोषणा तो
नहीं करनी
पड़ती कि हम
श्वास ले रहे
हैं, देखो।
इसके लिए कोई
यश-गौरव करे, ऐसी तो
आकांक्षा
नहीं होती कि
हम श्वास ले
रहे हैं।
उसमें कोई खास
बात ही नहीं
है। चरित्र श्वास
जैसा होगा संत
का। और अगर
चरित्र ऐसा न
हो तो समझ
लेना कि वह
चरित्र असाधु
का है, साधु
का नहीं।
"वे
सीधे होते
हैं।'
उनकी
सादगी इतनी
सादी होती है
कि उन्हें
उसका पता भी
नहीं होता।
क्योंकि जिस
सादगी का पता
चल जाए वह
सादी न रही।
जिस सीधेपन
का पता चल जाए
वह सीधापन
तिरछापन हो
गया। उसमें
नोक आ गई।
उसमें अकड़
पैदा हो गई।
"वे
दीप्त होते
हैं, पर
कौंध वाले
नहीं।'
बड़ा
कीमती वचन है!
"ब्राइट,
बट नाट डैजलिंग।'
उनमें
एक माधुर्य और
माधुर्य से
भरी ज्योति होती
है,
लेकिन
शीतल। तुम
उससे जल न
सकोगे। उसमें
कोई उत्ताप
नहीं होता, कोई बुखार
नहीं होता, कोई ज्वर
नहीं होता।
संत के पास
तुम जल न सकोगे।
तुम उसके
प्रकाश को
कितना ही पी
लो तो भी वह शीतल
ही अनुभव
होगा। वह
तुम्हारे
रोएं-रोएं को
पुलकित करेगा,
लेकिन
पसीने से न भर
देगा।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लो।
क्योंकि संत
ठंडी आग है।
आग होना भी
बहुत आसान है, ठंडा
होना भी बहुत
आसान है। ठंडी
आग होना बहुत
कठिन है। वह
परम ज्ञान का
लक्षण है। जब
दीप्ति तो
होती है, लेकिन
दीप्ति में
कोई ज्वर, त्वरा,
चोट नहीं
होती। आंखें
चकाचौंध से
नहीं भर जातीं
संत के पास।
वैसा
चाकचिक्य
देखना हो तो
सिंहासन के
पास होगा, राजधानी
में होगा, सम्राटों
के पास होगा।
वहां
तुम्हारी
आंखें चकाचौंध
से भर जाएंगी।
वहां
तुम्हारी
आंखें थक
जाएंगी। वहां
से तुम ताजे
होकर न
लौटोगे। वहां
से तुम कितने
ही अभिभूत हो
जाओ, प्रभावित
हो जाओ, लेकिन
वह प्रभाव
बीमारी की
भांति होगा, भारी होगा।
सम्राट भी
लोगों को
प्रभावित
करते हैं, लेकिन
उनके प्रभाव
में बड़ा दंश
है। फफोले उठ
आएंगे उनके
प्रभाव से
तुम्हारे
ऊपर। तुम्हारे
व्यक्तित्व
में घाव की
तरह उनका
प्रभाव पड़ेगा।
तुम वहां से
दीन होकर
लौटोगे। तुम
उस चाकचिक्य
से, चकाचौंध
से भर कर
तुम्हारी
आंखें अंधेरे
में होकर
लौटेंगी, तुम
अंधे होकर
लौटोगे। एक
प्रभाव
सम्राटों का
है।
इसलिए
तो हमने इस
देश में कहा
है कि
चक्रवर्ती भी
कुछ नहीं है
एक संत के
सामने।
चक्रवर्ती हम
उसको कहते हैं
जो सारी
पृथ्वी का
सम्राट हो।
तलवार की धार
की तरह वह
तुम्हें काट
देगा। लेकिन
तुम कट कर
लौटोगे। तुम
खंड-खंड होकर
आओगे। तुम जल
कर आओगे। उतनी
आग तुम्हें
केवल बीमारी
दे सकती है।
संत भी अनूठी
महिमा को
उपलब्ध होता
है। सब
सिंहासन फीके
हैं,
चक्रवर्ती
भी चरण छुएं।
क्या
होगा? संत की
क्या खूबी है?
उसकी
खूबी है कि
उसके पास एक
और तरह की आग
है। तुम उसकी
आग को पी सकते
हो,
तुम उसकी आग
को भोजन बना
सकते हो, तुम
जलोगे न।
उसकी आग में
कहीं भी चोट
नहीं है।
दीप्ति
बड़ा कीमती
शब्द है। जैसे
सुबह जब सूरज नहीं
उगा होता, रात
जा चुकी, सूरज
अभी नहीं उगा,
तब जैसा
प्रकाश होता
है वह दीप्ति
है। रात गई, अंधेरा अब
नहीं है, सूरज
अभी आया नहीं।
क्योंकि सूरज
चक्रवर्तियों
जैसा है, वह
जला देगा। तुम
उसकी तरफ आंख
उठा कर न देख
सकोगे, तुम्हारी
आंखें अंधेरे
से भर जाएंगी।
अगर ज्यादा
देखा तो अंधे
हो जाओगे।
सुबह का आलोक
दीप्ति है। या
सांझ को जब
सूरज जा चुका
और अभी रात नहीं
आई, वह बीच
का जो संध्या
काल है, वह
दीप्ति है।
इसलिए
हिंदू अपनी
प्रार्थना को
संध्या कहते हैं।
वह दीप्ति
जैसी होनी
चाहिए
प्रार्थना। आग
तो हो विरह की, पर
बड़ी ठंडी और
शीतल हो।
तृप्त करे, भरे; जलाए
न, जिलाए;
राख न कर दे
तुम्हें, तुम्हारी
राख को
अंकुरित करे,
तुम्हें
नया जन्म दे।
"संत
दीप्त होते
हैं, पर
कौंध वाले
नहीं।'
लाओत्से
क्या कहना
चाहता है? लाओत्से
यह कहना चाहता
है कि शासन
संतों जैसा होना
चाहिए।
दीप्ति तो हो,
कौंध न हो।
लाओत्से यह कह
रहा है कि
वस्तुतः शासन
संत का होना
चाहिए, जो
कि जला नहीं
सकता, जो
कि मिटा नहीं
सकता, जो
कि तुम्हें
लूट नहीं
सकता।
क्योंकि जो भी
पाने योग्य है
उसने पा लिया
है। जिसे तुम
कुछ भी नहीं
दे सकते, जिसके
पास सब कुछ है,
जो भरपूर है,
जो आकंठ
डूबा है आनंद
में, जिसे
तुमसे लेने को
कुछ भी नहीं
बचा है, उसका
ही शासन होना
चाहिए। उसका
शासन अदृश्य होगा।
जैनों
ने महावीर के
वचनों को
महावीर का
शासन कहा है।
बौद्धों ने भी
बुद्ध के
वचनों को
बुद्ध का शासन
कहा है।
बौद्धों और
जैनों ने, दोनों
ने महावीर और
बुद्ध को
शास्ता कहा
है--जो शासन
दें, जिनसे
शासन मिले।
शासन उससे
मिलना चाहिए
जो स्वयं
स्वतंत्र हो
गया है। जो
स्वयं
स्वतंत्र हो
गया है वह
किसी को
परतंत्र नहीं
करता। उसकी स्वतंत्रता
दूसरों के भी
बंधन खोलती है,
निर्ग्रंथ
करती है। उसकी
स्वतंत्रता
दूसरों को भी
स्वतंत्र
करती है। वह
वही दूसरों के
लिए करता है
जो उसके लिए
हो गया है।
संत का
शासन लाओत्से
की अभीप्सा है, कि
कभी ऐसी घड़ी
आएगी जब संत
से हम शासन
लेंगे।
दीप्ति की तरह
फैल जाएगा
उसका शासन।
कुछ
सौभाग्यशाली
लोग संतों से
शासन ले लेते
हैं। पूरी
पृथ्वी कब
लेगी, न
लेगी, कुछ
कहना कठिन है।
कुछ
सौभाग्यशाली
ले लेते हैं।
बौद्धों
ने अपने
भिक्षुओं का
जो समूह है
उसको संघ कहा
है;
बुद्ध को
शास्ता कहा
है। शास्ता वह
है जिससे शासन
मिले, और
संघ वह है जो
शासन ले। थोड़े
से लोगों ने
बुद्ध से शासन
लिया, और
उनके जीवन
रूपांतरित हो
गए। जिसने भी
कभी किसी संत
से शासन लिया
उसका जीवन
रूपांतरित हो जाता
है। वही तो
दीक्षा है। इनीशिएशन
का वही अर्थ
है: संत से
शासन लेने की
कामना कि अब
मैं तुमसे
शासित
होऊंगा। तुम मुझे
चलाना, जिनकी
अब किसी को
चलाने की कोई
आकांक्षा न
रही।
इसे
बहुत गौर से
सोचना।
क्योंकि
लाओत्से जो भी
कह रहा है
एक-एक शब्द
बहुमूल्य है।
जिस दिन तुम
तैयार हो जाते
हो संत से
शासन लेने को, उसी
दिन संन्यास
फलित होता है।
उस दिन तुम इस
पृथ्वी के
हिस्से न रहे,
उस दिन तुम
राजनीति के
बाहर हुए। उस
दिन इस पार्थिव
में जो उपद्रव
चल रहा है
उससे
तुम्हारा कोई
लेना-देना न
रहा। तुमने एक
और ही राह पकड़
ली। तुम्हें
अब इस जगत में
अंधे शासन
नहीं देंगे।
कबीर
कहते हैं, अंधे
अंधे ठेलिया
दोऊ कूप पड़ंत।
अंधे अंधों को
चलाते हैं, फिर दोनों
कुएं में गिर
जाते हैं।
एक तो
है अंधों का
शासन जो
तुम्हें
परतंत्र करेगा, जो
तुम्हें जकड़ेगा,
जो तुम्हें
जंजीरें पहना
देगा। और एक
है संतों का
शासन जो
तुम्हें
मुक्त करेगा।
जो तुम्हें
परतंत्र करते
हैं उनसे
तुम्हें शासन
मांगना नहीं
पड़ता, वे
बिना मांगे
देते हैं। तुम
भागो भी
तो तुम्हारा
पीछा करेंगे।
तुम न भी चाहो
तो भी तुम्हें
शासित
करेंगे। संत
तुम्हें पीछा
नहीं करेंगे
और न तुम्हें
शासित करने की
कोई चेष्टा
करेंगे।
तुम्हें
मांगना पड़ेगा,
तुम्हें
अपनी झोली फैलानी
पड़ेगी। और जिस
दिन तुम्हारी
झोली में किसी
संत का शासन
पड़ जाए, तुम्हें
एक गर्भ मिला।
अब तुम दूसरे
ही हो गए। अब
तुम्हारा
पुनर्जन्म
बहुत करीब है।
आज
इतना ही।
आँखे खोल देने वाली बाते हैं, जीवन जीने की कला का नाम है ओशो
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