अध्याय
51
रहस्यमय
सदगुण
ताओ
उन्हें जन्म
देता है,
और
तेह (चरित्र)
उनका पालन
करता है;
भौतिक
संसार उन्हें
रूपायित करता
है;
और
वर्तमान
परिस्थितियां
पूर्ण बनाती
हैं।
इसलिए
संसार की सभी
चीजें ताओ की
पूजा
करती हैं और
तेह की
प्रशंसा।
ताओ
पूजित है और
तेह
प्रशंसित।
और
ऐसा अपने आप
है,
किसी
के हुक्म से
नहीं।
इसलिए
ताओ उन्हें
जन्म देता है,
तेह
उनका पालन
करता है,
उन्हें
बड़ा करता है, विकास
देता है,
उन्हें
आश्रय देता है, शांति
से रहने की
जगह देता है।
यह
उन्हें जन्म
देता है, और
उन पर
स्वामित्व
नहीं करता;
यह
कर्म (सहायता)
करता है, और
उन्हें
अधिकृत नहीं
करता;
श्रेष्ठ
है,
और
नियंत्रण
नहीं करता।
-- यही
है रहस्यमय
सदगुण।
शुभ
को शुभ मानना
साधारण सी बात
है,
कोई सदगुण
नहीं। अशुभ को
भी शुभ मानना
सदगुण की
महिमा है।
साधु पर भरोसा
तथ्यगत है, तुम्हारा
कोई गौरव
नहीं। असाधु
पर भी भरोसा तुम्हारा
गौरव है, सदगुण
की श्रद्धा
है।
सबसे
पहले सदगुण का
अर्थ समझ लें।
सदगुण
नीति नहीं है।
नीति तो तथ्य
पर पूरी हो जाती
है। कोई अच्छा
है,
उसका
स्वागत करो; कोई बुरा है,
उसे दंड दो।
नीति बहुत
साधारण सामाजिक
व्यवहार है।
साधु की
प्रशंसा करो,
असाधु की
निंदा। अगर
असाधु की भी
प्रशंसा करोगे
तो इससे
साधुता की
हानि होगी।
भेद रखो। नीति
भेद करती है।
बुरे को दंड
दो; भले को
पुरस्कार दो।
नीति नरक और
स्वर्ग बनाती
है। जो भले
हैं उनके लिए
स्वर्ग, जो
बुरे हैं उनके
लिए नरक। नीति
पापी और
पुण्यात्मा
को अलग-अलग
करती है।
सदगुण
नैतिक बात
नहीं है; सदगुण
नीति के पार
है।
लाओत्से
कहता है, बुरे
की भी मैं
प्रशंसा करता
हूं, भले
की भी; यही
सदगुण की
श्रद्धा है।
तो
सदगुण पारनैतिक
है--बियांड
मारेलिटी।
उसका सामाजिक
व्यवहार से
कोई संबंध
नहीं। उसका
अगर कोई भी
संबंध है तो
विश्व की
आंतरिक सत्ता
से है, परमात्मा
से है।
नीति
का संबंध है
समाज से, समूह
से, हमारे
आस-पास जो लोग
हैं उनसे।
धर्म का संबंध
है व्यक्ति का
समष्टि से; समाज से
नहीं, समष्टि
से। हम जैसे
ही आदमियों से
नहीं, बल्कि
हमारे पार जो
हमारा मूल
स्रोत है, जो
हम सबकी नियति
है, उस
पारलौकिक
तत्व से। उस
पारलौकिक
तत्व की दृष्टि
में न तो कोई
बुरा है, न
कोई भला। न तो
वह किसी को
दंड देता है
और न किसी को
पुरस्कृत
करता है।
लेकिन
तुम थोड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि
तुम्हारे
धर्मशास्त्र
कहते हैं, परमात्मा
बुरे को दंडित
करेगा और
परमात्मा भले
को स्वर्ग
देगा, और
बुरे को नर्क
में डालेगा, सड़ाएगा,
गलाएगा,
आग में जलाएगा।
ये शास्त्र भी
सामाजिक हैं,
और ये
शास्त्र भी
नीति के ही
आधार से लिखे
गए हैं। इन
शास्त्रों
में भी
सामाजिक
व्यवहार
सिखाया गया
है। लाओत्से का
शास्त्र
भिन्न है। यह
पारलौकिक है।
उपनिषद न दंड
की बात करते, न पुरस्कार
की। उपनिषद
पारलौकिक
हैं।
दुनिया
में दो तरह के
शास्त्र हैं, नैतिक
शास्त्र और
पारलौकिक
शास्त्र। जो
पारलौकिक
शास्त्र हैं
वही धार्मिक
शास्त्र हैं।
नीति के
शास्त्र
जरूरी हैं, पर उनमें
कोई गुण-गौरव
नहीं। नीति के
शास्त्र इसलिए
जरूरी हैं कि
तुम बुरे हो, अन्यथा उनकी
कोई उपादेयता
नहीं। राह के
चौराहे पर
पुलिसवाला
खड़ा है, वह
कोई गरिमा
नहीं है।
अदालत में
मजिस्ट्रेट बैठा
है, वह कोई
गौरव नहीं है।
वे हमारी दीनता
के प्रतीक
हैं। वे हमारी
क्षुद्रता के
सबूत हैं। वह
पुलिसवाला
खड़ा है वहां
इसलिए, क्योंकि
तुम पर भरोसा
नहीं किया जा
सकता कि तुम
रास्ते के
नियम का पालन
करोगे। तुम
भरोसे योग्य
नहीं हो। वह
पुलिसवाला
तुम्हारी
महिमा की खबर
नहीं दे रहा
है, तुम्हारे
चोर, बेईमान,
नियमहीन
होने की सूचना
दे रहा है।
अदालतों के बड़े-बड़े
भवन तुम्हारे
गौरव की गाथा
नहीं कहते; तुम्हारे
अपराधों के
भवन हैं। बड़े
आश्चर्य की
बात है!
अदालतों के हम
बड़े आलीशान
भवन बनाते हैं।
अपराध की कथा
है वहां। वहां
तुम्हारा सारा
नरक लिखा हुआ
है। वह अदालत
खड़ी इसलिए है
कि तुम ठीक
नहीं हो।
अदालत
अस्पताल है।
अस्पताल से
ज्यादा उसका
मूल्य नहीं
है। क्योंकि
आदमी रुग्ण है,
इसलिए नीति
की जरूरत है।
अगर सारे लोग
स्वस्थ हो
जाएं तो
चिकित्सा खो
जाएगी। और
सारे लोग अगर सदवृत्ति
के हो जाएं तो
नीतिशास्त्र
खो जाएगा।
लेकिन धर्मशास्त्र
फिर भी रहेगा।
वस्तुतः तभी
धर्मशास्त्र
शुरू होता है
जहां नीति
पूरी होती है।
धर्मशास्त्र
के नाम से
बहुत से
नीतिशास्त्र
भी
धर्मशास्त्र
माने जाते
हैं। क्योंकि
तुम्हारी
आंखें उतने
ऊपर नहीं देख
सकतीं, जहां
धर्मशास्त्र
हैं। तुम नीति
तक देख पाते हो।
जब
पहली दफा
उपनिषदों का
अनुवाद हुआ
पश्चिम की भाषाओं
में तो पश्चिम
के विचारक बड़े
चिंतित हुए।
क्योंकि
उपनिषदों में
बाइबिल जैसी
दस आज्ञाएं
नहीं हैं; टेन
कमांडमेंट्स
का कोई उल्लेख
नहीं है। चोरी
मत करो, बेईमानी
मत करो, पर-स्त्री
को मत देखो, ऐसी
उपनिषदों में
कोई बात ही
नहीं। पश्चिम
के विचारक बड़े
हैरान हुए कि
ये कैसे
धर्मशास्त्र
हैं! इनमें
कुछ भी तो नीति-व्यवहार
की बात नहीं।
नीति, नियम,
व्रत, अनुशासन,
कुछ भी तो
नहीं। सिर्फ
ब्रह्म की
चर्चा करते हैं।
इस चर्चा से
कहीं कोई
धार्मिक हुआ
है?
बाइबिल--पुरानी
और नई
दोनों--किन्हीं-किन्हीं
हिस्सों में
धार्मिक हो
पाती हैं।
अन्यथा वे
नैतिक
शास्त्र हैं।
कुरान कभी-कभी
धार्मिक हो
पाता है; अन्यथा
नब्बे
प्रतिशत
नीतिशास्त्र
है। वेद कभी-कभी
धार्मिक हो
पाता है, अन्यथा
नीतिशास्त्र
है। उपनिषद
शुद्ध सोना है।
आभूषण हम सोने
का बनाते हैं
तो कुछ न कुछ
अशुद्ध करना
पड़ता है, कुछ
मिलाना पड़ता
है। तो अठारह
कैरेट होगा, सोलह कैरेट
होगा, चौदह
कैरेट
होगा--लेकिन
ठीक चौबीस
कैरेट नहीं होता।
क्योंकि सोना
इतनी मुलायम
धातु है कि उसके
आभूषण नहीं बन
सकते; थोड़ी
सख्ती चाहिए।
धर्म का शुद्ध
सोना, चौबीस
कैरेट, तो
मुश्किल से
कभी किसी
शास्त्र में
मिलता है। फिर
तुम जहां खड़े
हो उतने ही
नीचे धर्म को
उतारना पड़ता
है, क्योंकि
तुम्हीं को
सम्हालना है।
जितना धर्म
नीचे उतरता है
उतना नैतिक हो
जाता है।
तो
उपनिषद या
लाओत्से का
ताओ तेह किंग
या हेराक्लाइटस
के वचन परम, आखिरी
हैं। चौबीस कैरेट
सोना हैं। तुम
अगर न समझ पाओ
तो अपनी मजबूरी
समझना।
तुम्हें अगर
लाओत्से को
समझना हो तो
बड़ी ऊंची
आंखें उठानी
पड़ेंगी। अब
अगर तुम गौरीशंकर
देखना चाहते
हो तो टोपी
गिरेगी। तुम
अगर टोपी को
सम्हाले रहे
तो गौरीशंकर
न देख सकोगे।
उतनी ऊंची
आंखें उठानी
हों तो तुम
वैसे ही थोड़े
खड़े रहोगे
जैसे तुम
बाजार में चलते
हो, समतल
भूमि पर चलते
हो। आंख उठाने
के लिए गर्दन मुड़ेगी, टोपी
गिरेगी।
जिन्होंने भी
धर्मशास्त्र
को जाना, टोपी
ही नहीं, उनका
सिर गिर गया, उनकी बुद्धि
गिर गई, उनका
सोचना-विचारना
तहस-नहस हो
गया। तभी वे
जान पाए। उतने
शुद्ध को
जानने के लिए
उतना ही शुद्ध
होना पड़ेगा।
सदगुण
की परिभाषा
लाओत्से की है
कि जब तुम बुरे
को भी भला
जानो, और जब
तुम पापी को
भी आशीर्वाद
दे सको, और
जब तुम्हारे
हृदय में पापी
के लिए भी
स्वर्ग की
सुविधा हो।
पुण्यात्मा
के स्वर्ग के
जाने में कौन
सा गुण-गौरव
है? गणित
की बात है; काव्य
तो बिलकुल
नहीं।
दुकानदारी की
बात है। जो
भला है वह
स्वर्ग जाएगा;
जो बुरा है
वह नरक जाएगा।
परमात्मा
दुकानदार है
जैसे। लिए है
तराजू, बैठा
है, तौल
रहा है; तराजू
में जो हिसाब
में आ जाए। तो
परमात्मा भी
बुद्धि बन
जाता है फिर, हृदय नहीं।
हृदय तो
शुभ-अशुभ को
पार कर जाता
है।
एक मां
के दो बेटे
हैं। एक अच्छा
है,
एक बुरा है;
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
और अगर फर्क
पड़ जाए तो मां
भी दुकानदार
है, मां
नहीं। सच तो
यह है कि
अच्छे की चाहे
मां थोड़ी कम
चिंता करे, बुरे की
ज्यादा
करेगी।
क्योंकि
अच्छा तो अच्छा
है ही, बुरे
को भी उठाना
है। जो खड़ा है
उसको
सम्हालने की
क्या जरूरत, जो गिर गया
है उसको
सम्हालना है।
जो स्वस्थ है
उसको औषधि की
क्या मांग, जो अस्वस्थ
है उसे औषधि
देनी है। तो
भला तो अगर
नरक में भी
चला जाए तो
कोई हर्ज नहीं,
क्योंकि वह
अपना स्वर्ग
अपने साथ लिए
है, बना
लेगा वहां भी;
बुरे को तो
स्वर्ग में ले
जाना ही होगा,
अपने हाथ से
तो वह नरक चला
जाएगा।
तो
लाओत्से कहते
हैं,
सदगुण की
श्रद्धा क्या
है? सदगुण
की श्रद्धा
अशुभ में भी
शुभ को देखने
की क्षमता।
अशुभ में भी
छिपे शुभ के
दर्शन। अंधेरी
रात में भी जो
सुबह को देख
ले, वही
सदगुण की
श्रद्धा है।
सुबह
तो,
सुबह के
सूरज को तो
फिर अंधा भी
पहचान लेता है,
आंखों की
कोई गरिमा
नहीं। सुबह का
उत्ताप तो अंधे
को भी मालूम
पड़ने लगता है;
वह भी कह
देता है, सूरज
उग गया। रात
के घने अंधेरे
में, जब
सूरज की एक
किरण भी नहीं
रहती, जब कोई
भी प्रमाण
नहीं रह जाता
सूरज का, जब
सब तरफ से
सूरज विलीन हो
जाता है, तब
भी जो सुबह को
जानता है, पहचानता
है, जो
सुबह की आशा
और भरोसे से
भरा है, उसी
के पास आंख है
देखने वाली।
इसी को
लाओत्से
सदगुण की
श्रद्धा कहता
है। पापी में
भी
पुण्यात्मा
के दर्शन, अंधेरी
रात में सुबह
के दर्शन हैं।
बुरे में भले
को देख लेना, कांटे में
भी छिपे हुए
फूल के रस को
पहचान लेना
है। तब तुम
सभी को
आशीर्वाद दे
सकते हो। तब तुम्हारे
मन से निंदा
विलीन हो जाती
है। जब तक निंदा
है, तब तक
सदगुण नहीं।
जब प्रशंसा
बेशर्त है, जब तुम कोई
शर्त नहीं
लगाते कि मैं
इसलिए
प्रशंसा
करूंगा। जब
तुम्हारी
प्रशंसा
मनुष्य के
होने मात्र
में काफी है।
तुम हो इतना
ही क्या कम है!
बुरे हो या
भले हो, ये
गौण बातें हैं;
चोर हो कि
साधु हो, ईमानदार
हो कि बेईमान
हो, ये तो
ऊपर-ऊपर
व्यवहार की
बातें हैं।
इससे तुम्हारी
आत्मा का क्या
लेना-देना?
तुम्हारे
कृत्य
तुम्हारी
परिधि से
ज्यादा नहीं
हैं। जैसे
सागर की छाती
पर लहरें हैं, लेकिन
सागर की गहराई
में कहां
लहरें हैं? ऐसे ही
तुम्हारी ऊपर
की सतह पर
लहरें हैं।
अपराध की लहर
तुम्हें
अपराधी नहीं
बनाती। लहर तो
ऊपर ही घूमती
है, खो
जाती है; बनती
है, मिट
जाती है; तुम
भीतर तो अछूते
रह जाते हो।
लहर तो हवा का
झोंका है, तुम
नहीं। कृत्य
तुम्हारा
बुरा भी हो या
भला हो, इससे
तुम्हारे
अस्तित्व का
कोई भी
लेना-देना नहीं
है। तुम्हें
पता न हो, तुम
भी सोचते होओ
कि मैं अपराधी
हूं, बुरा
हूं, लेकिन
जिसके पास आंखें
हैं उसे तो
दिखाई पड़ता
है। तुम भला
संत के पास
इसलिए जाओ कि
मैं पापी हूं,
उसके पास जाऊंगा तो
शायद पुण्य की
तरफ मुझे भी
स्वाद लग जाए,
तुम चाहे
अपनी आत्मनिंदा
से भरे होओ, लेकिन संत
तो तुम्हारे
भीतर उगते हुए
सूरज को ही
देखता है। संत
तो तुम्हारी
संभावना को
देखता है, तुम्हारे
भविष्य को
देखता है। संत
तो तुम्हारे
केंद्र को
देखता है, तुम्हारी
परिधि को
नहीं।
वही
सदगुण है।
सदगुण द्वंद्वातीत
है। द्वैत से
उसका कोई
संबंध नहीं; अच्छे-बुरे
का विभाजन
नहीं करता।
क्या है इस बात
को कहने का
अर्थ कि शुभ
में भी शुभ
देखता है, अशुभ
में भी शुभ
देखता है, भले
पर श्रद्धा
करता है, बुरे
पर भी श्रद्धा
करता है? इसका
मतलब क्या है?
इसका
मतलब इतना ही
है कि अब भले
और बुरे में
कोई फासला न
रहा। अब भला
और बुरा समान
हो गए। अब जहर
और अमृत एक
जैसे हैं। अब
जन्म और
मृत्यु बराबर
हैं। अब पाना
और खोना एक ही
बात हो गए। सब
द्वंद्व मिट
गया,
सब द्वैत
गिर गया।
अद्वैत की
धारा जगी है।
अद्वैत
सदगुण है। एक
को जान लेना
सदगुण है। और
उस एक को
जानना ही धर्म
है।
नीति
तो दो को
मानती है।
इसलिए नीति
धर्म नहीं है।
इसे समझो, क्योंकि
नैतिक होने के
लिए धार्मिक
होना जरूरी भी
नहीं है।
नास्तिक भी
नैतिक हो जाता
है। हो सकता
है; अक्सर
होता है। तुम
अगर नैतिक
आदमी खोजना
चाहो तो जितने
तुम्हें माओ
और स्टैलिन के
देश में
मिलेंगे उतने
और कहीं नहीं।
रूस नास्तिक
है, लेकिन
अगर तुम नैतिक
आदमी खोजना
चाहो तो तुम्हें
जितने रूस में
मिलेंगे उतने
कहीं भी नहीं।
भारत में तो
कभी भी नहीं।
नास्तिक
भी नैतिक हो
सकता है। सच
तो यह है कि नास्तिक
के पास नैतिक
होने के
अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं
है। वह उसकी
ऊंची से ऊंची
दशा है। नास्तिक
भी नैतिक हो
सके तो फिर
आस्तिक होने
में सार क्या
है?
आस्तिक
का सार उस
सदगुण में है
जो नीति के
पार है।
आस्तिकता
समाज के पार
ले जाती है।
समाज सब कुछ
नहीं है।
तुम्हारे
संबंधों का
जाल सब कुछ
नहीं है। सच
तो यह है, संबंधों
का जाल
बाहर-बाहर है;
समाज बाहर
है, तुम्हारे
भीतर नहीं।
तुम्हारे
भीतर तो तुम ही
हो--अपनी प्रगाढ़ता
में, नीरव निबिड़ता
में, शून्य
में। भीतर की
परम सत्ता में
तुम्हारे प्रकाश
के अतिरिक्त
वहां कुछ भी
नहीं है। वहां
न मित्र हैं, न प्रियजन
हैं, न
सगे-संबंधी
हैं। वहां
बाहर की कोई
रेखा भी नहीं
पहुंचती, कोई
धुन भी नहीं
पहुंचती, कोई
आवाज भी भीतर
सुनी नहीं
जाती। वहां तो
तुम बिलकुल अकेले
हो।
कबीर
ने कहा है, एक-एक
जिन जानिया।
जिन्होंने
भी जाना
उन्होंने एक
होकर जाना, भीतर
अकेले होकर
जाना। उनका
अकेलापन बड़ी
रोशनी से भरा
है। तुम कभी
अकेले भी होते
हो तो तुम्हारा
अकेलापन बड़ी
उदासी से भर
जाता है। क्योंकि
अकेला होना
तुम जानते ही
नहीं। दो तरह
के अकेलेपन
हैं। दो शब्द
याद रखो: एक
शब्द है एकांत
और एक शब्द है
एकाकीपन।
एकांत का अर्थ
है अलोननेस।
एकांत बड़ा
विधायक, पाजिटिव शब्द है।
उसका अर्थ है:
अपने होने के
रस में निमग्न,
जहां दूसरे
की याद भी
नहीं, जहां
दूसरे का अभाव
खलता नहीं, जहां दूसरा
है भी इसका भी
पता नहीं।
जहां अपना
होना इतना
विस्तीर्ण है,
इतना गहरा
है कि चुकता
नहीं; जहां
अपने ही रस
में तुम डूबे
हो; जहां
अपने में ही
निमग्न हो, अपने में ही
लीन हो। और यह
होने की दशा
बड़ी पाजिटिव,
विधायक है;
क्योंकि
दूसरे का न
कोई पता है, न कोई
स्मृति है, न दूसरे का
अभाव खलता है।
अपना होने का
भाव इतने आनंद
से भर रहा
है--एकांत, अलोननेस।
और तब
एक दूसरी दशा
है: लोनलीनेस, एकाकीपन।
वह नकारात्मक
है, निगेटिव
है। तब भी तुम
अकेले हो, लेकिन
अकेले होने
में कोई रस
नहीं है; तुम
अपने में डूबे
नहीं हो; दूसरे
की याद सता
रही है, दूसरे
की कमी खल रही
है। नजर दूसरे
पर लगी है कि
दूसरा नहीं
है। वह पत्नी
हो, मित्र
हो, प्रेयसी
हो, कोई भी
हो; लेकिन
दूसरे की
मौजूदगी का
अभाव एकाकीपन
है। और अपनी
मौजूदगी का
भाव एकांत है।
और जब
तक तुमने
एकांत नहीं
जाना तब तक
तुम लाओत्से
को न समझ
पाओगे। तुमने
एकाकीपन तो
बहुत बार जाना
है,
वह खालीपन
की बात है। मन
अपने को कहीं
उलझा लेना
चाहता है। तो
तुम अखबार
पढ़ने लगते हो,
रेडियो खोल
देते हो, टेलीविजन
देखने लगते हो,
सिनेमा चले
जाते हो, क्लब
पहुंच जाते हो,
होटल में
जाकर बैठ जाते
हो। दूसरे की
मौजूदगी तुम्हें
बाहर उलझाए
रखती है। और
जब भी दूसरे
की मौजूदगी
नहीं होती, तुम्हें
लगता है, अब
क्या जीवन में
सार? तुमने
अपना सार कभी
जाना नहीं; तुम्हारा
सारा सार
दूसरे से जुड़ा
है। तुम्हारे
होने के सब
ढंग में दूसरा
हमेशा मौजूद
रहा है। तुमने
अकेले का रस
नहीं जाना; तुमने कभी
अपने को पीया
नहीं।
तुमने
और सब तरह की
शराब जानी, लेकिन
वह सब शराब
दूसरे से आती
है। तुमने एक
शराब नहीं
जानी जो अपने
ही भीतर
निर्मित होती
है, जो
स्वयं के होने
में ही छिपी
है। और जो
उसमें बेहोश
हो जाता है वह
सदा के लिए
होश से भर
जाता है।
एकांत
को तुम जानोगे
तो ही तुम
धर्म को
जानोगे। और
एकांत तक जिसे
पहुंचना हो
उसे द्वंद्व
पैदा करने
वाली सभी
धारणाओं को
छोड़ देना
जरूरी है। और
तुम्हारे
शुभ-अशुभ की
धारणाएं भी
द्वंद्व पैदा
करती हैं।
किसी की तुम
निंदा करते हो; किसी
की तुम
प्रशंसा करते
हो; किसी
की तुम पूजा
करते हो; किसी
का तुम अपमान
करते हो।
तुम्हारी
धारणा--क्या
ठीक है, क्या
गलत है; यह
ठीक है, यह
गलत
है--तुम्हें
बांटे रखती
है। भीतर जाना
हो तो अनबंटा
होना पड़ेगा। अनबंटा
होना सदगुण
है। वह सदगुण
की श्रद्धा
है।
क्यों
तुम करते हो
निंदा? क्यों
करते हो
प्रशंसा? पीछे
बड़े गहरे जाल
हैं, वे समझ
लेने जरूरी
हैं। तब हम
लाओत्से के
सूत्र में
प्रवेश कर
सकेंगे।
लाओत्से
के समय में एक
आदमी हुआ कनफ्यूशियस।
जगत में दो ही
तरह के लोग
हैं। तुम भी
या तो लाओत्से
के मानने वाले
हो सकते हो या कनफ्यूशियस
के। बस दो ही
विभाजन हैं।
और सदा से एक
धारा कनफ्यूशियस
की है, वह अलग
बह रही है। और
एक धारा
लाओत्से की है,
वह बिलकुल
अलग बह रही
है।
कनफ्यूशियस है
नीतिवादी, समाजवादी,
समूहवादी--आचरण, व्यवहार।
लाओत्से है
नीति का
अतिक्रमण
करने वाला, समाज के पार
एकांत में ले
जाने वाला।
लाओत्से का
संबंध स्वभाव
से है, आचरण
से नहीं; तुम्हारी
मूल प्रकृति
से है, तुम्हारे
होने से है, तुम क्या
करते हो इससे
नहीं। और जब
हम ठीक से समझेंगे
तो हम समझ
पाएंगे कि
क्यों इतना
जोर उसका है।
कहते
हैं कनफ्यूशियस
लाओत्से से
मिलने गया था
तो बहुत डर
गया। क्योंकि
जब लाओत्से की
बातें उसने सुनीं तो
उसने कहा, यह
तो अराजकता हो
जाएगी। तुम तो
नष्ट कर दोगे समाज
को। नीति कहां
बचेगी?
नीति
का आधार ही
दंड और
पुरस्कार है। कनफ्यूशियस
का जोर उस पर
है कि बुरे को
दंड दो, ताकि
बुरा दुबारा
बुरा काम न कर
सके; भले
को पुरस्कृत
करो, ताकि
दुबारा भला
काम करने का
लोभ जगे।
और ध्यान रखना,
दुनिया कनफ्यूशियस
को मान कर चल
रही है।
लाओत्से को
मानने वाला तो
कभी कोई एकाध
है--कोई विरला
जन। सारी
दुनिया कनफ्यूशियस
के आधार पर
निर्मित हुई
है। फिर कनफ्यूशियस
की धारा में
बहुत लोग आए
हैं; माक्र्स,
स्टैलिन, लेनिन, माओ,
सभी कनफ्यूशियस
की धारा में
हैं।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि चीन
जैसे बौद्ध
मुल्क में कम्युनिज्म
सफल कैसे हो
गया?
सफल
होने का कारण
है। क्योंकि
चीन के विचार
का जो आधार है
वह कनफ्यूशियस
है। और कनफ्यूशियस
और माक्र्स
बिलकुल एक
जैसे चिंतक
हैं। अगर भारत
में किसी दिन कम्युनिज्म
आया तो तुम
चकित होओगे, उसका
कारण बुद्ध और
महावीर नहीं
होंगे, उसका
कारण मनु और
मनु की स्मृति
होगी। क्योंकि
मनु ठीक कनफ्यूशियस
जैसा विचारक
है। कनफ्यूशियस,
मनु, माक्र्स,
माओ--अगर
राजनीति के
जगत में
तुम्हें
देखना हो तो
ये एक ही
सूत्र में
बंधे हुए लोग
हैं। माक्र्स
कहता है कि
चेतना का कोई
भी मूल्य नहीं
है; समाज
की परिस्थिति
मूल्यवान है।
समाज की जैसी
परिस्थिति
होती है, चेतना
वैसी ही ढल
जाती है।
चेतना का कोई
मूल्य नहीं है,
मूल्य है
समाज की
व्यवस्था का।
अगर लोगों को
बदलना हो, व्यवस्था
को बदल दो। और
अगर लोगों को
बदलना हो तो
बुरे को दंडित
करो।
इसलिए
तो रूस में
कोई एक करोड़
लोग मार डाले
उन्होंने।
जिसको वे बुरा
समझते थे उसको
फिर उन्होंने
ठीक से ही
दंडित कर दिया।
चीन में भयंकर
दंड दिया जा
रहा है। लाखों
लोग जेलों में
पड़े हैं। बुरी
तरह सताए
जा रहे हैं।
जिसको भी चीन
की आज की
धारणा, माओ
की धारणा
समझती है कि
बुरे लोग हैं,
उनके जीने
का कोई उपाय
नहीं है। और
बुरा कौन है? बुरा वही है
जो तुम्हारी
धारणा से मेल
न खाए।
आखिर
चोर का कसूर
क्या है, जिसको
हमने जेल में
डाल रखा है? उसका कसूर
इतना ही है कि
वह हमारी
व्यक्तिगत संपत्ति
की धारणा में
भरोसा नहीं
करता। उसका
कसूर क्या है?
वह एक तरह
का साम्यवादी
है। वह यह
कहता है कि संपत्ति
सब की है।
इसलिए
तुम्हारी
संपत्ति उठा
कर ले गया। वह
कहता है, संपत्ति
पर किसी की
मालकियत नहीं
है। कहता न हो,
लेकिन यह
उसकी भीतरी
गहरी धारणा
है। तुम मालिक
हो, यही
सिद्ध नहीं है,
वह यह कह
रहा है। इसलिए
तुम्हें
अधिकार क्या
है कि तुम रखे
रहो? वह यह
कह रहा है कि
जिसके पास
ताकत हो वह ले
जाए। ताकत
मालिक है। माइट
इज़ राइट।
जिसको भी तुम
गलत समझते
हो--और गलत तुम
उसे समझते हो
जो तुम्हारी
धारणा के
प्रतिकूल है--उसे
तुम जेल में
डाल देते हो।
तुम
सोचते हो कि
दंड देने से
वह फिर यह काम
न करेगा। तो
तुम गलती में
हो। और तुम
अंधे हो, और
इतिहास को तुम
कभी देखते
नहीं।
क्योंकि हमने
कितना दंड
दिया, लेकिन
पाप रत्ती भर
कम नहीं हुआ।
और लाओत्से खिलखिला
कर हंस रहा है
पूरे इतिहास
के राह के किनारे
खड़े कि तुमने
कितना दंड दिया,
लेकिन
अपराधी कम
कहां हुए? बढ़ते
चले गए। और
जिसको तुम एक
बार दंड देते
हो, फिर
कभी तुम लौट
कर नहीं देखते
कि तुम्हारे
दंड से वह
सुधरा? जेलखाने में जो एक
बार हो आया, वह फिर
बार-बार जाता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के बेटे पर
मुकदमा चला।
कई बार उसे
सजा दी जा चुकी।
जेब काटने की
उसे आदत है।
मजिस्ट्रेट
को भी दया आने
लगी,
क्योंकि वह
कई बार सजा
काट चुका और
फिर भी वही करता
है। आखिर उसने
मुल्ला को
बुलाया और कहा
कि तुम बाप
होकर इसे
समझाते क्यों
नहीं? यह
बार-बार वही
कर रहा है; दंड
पा रहा है।
तुम इसे
समझाओ।
मुल्ला ने कहा,
समझा-समझा
कर मैं भी हार
गया; सुनता
ही नहीं।
कितनी बार इसे
समझाया कि ढंग
से काट, पकड़ा
मत। सिखा-सिखा
कर परेशान हो
गए हैं।
जेलखाने से
लोग सीख कर
लौटते हैं कि
कैसे ढंग से
काटें, कैसे
ढंग से चोरी
करें।
क्योंकि वहां
उस्ताद उपलब्ध
हो जाते हैं।
जेलखाना एक
विश्वविद्यालय
है अपराधों
का। आदमी
नया-नया जाता
है, सिक्खड़ होता है, चेला
होता है। वहां
बड़े गुरु मिल
जाते हैं जो निष्णात
हैं, जिनसे
वह कई कलाएं
सीख कर लौटता
है, जिनके
अभाव में वह
पकड़ा गया था।
वह वहां से और मजबूत
होकर लौटता है,
वहां से वह
और तैयार होकर
लौटता है।
सारा इतिहास
यह कहता है कि
जितना हमने
दंड दिया, उतने
लोग बुरे होते
गए। लेकिन
अंधे लोग
देखते भी नहीं
कि क्या हो
रहा है।
तुम्हारे
पुरस्कार से
कौन भला हो
गया है? तुम्हारे
पुरस्कार से
इतना ही हुआ
है कि लोग भले
का नाटक कर
रहे हैं; पाखंडी
हो गए हैं। और
जो आदमी
पुरस्कार के
लोभ और लालच
में भला है, क्या वह भला
है? उसकी
साधुता कितनी
गहरी है? चमड़े
की जितनी गहरी
भी नहीं है।
हड्डियों तक नहीं
पहुंच सकती; आत्मा तक तो
पहुंचने का
कोई उपाय नहीं
है।
लेकिन
यह सूत्र है
हमारी धारणा
का। मनोविज्ञान
में भी कनफ्यूशियस
से राजी होने
वाले लोग हैं:
रूस का पावलफ, अमरीका
में जिंदा एक
मनोवैज्ञानिक
है बी.एफ.स्कीनर।
उन सबका कहना
यह है कि एक ही
ढंग है नीति
को लाने का और
वह यह है कि
बचपन से ही
बच्चे को, अगर
वह बुरा करे
तो ठीक से दंड
दो, वह भला
करे, पुरस्कार
दो। और यही हम
सब कर रहे
हैं। यद्यपि
पूरा इतिहास
हमारा असफल
हुआ है, लेकिन
लाओत्से की
कोई सुनने को
राजी नहीं। सुनते
हम कनफ्यूशियस
की हैं।
क्योंकि
किन्हीं
कारणों से वह
सरल मालूम
पड़ता है। उसे
मैं समझाऊंगा
कि क्यों। कनफ्यूशियस
गलत होते हुए
सरल मालूम
पड़ता है, लाओत्से
ठीक होते हुए
गलत मालूम
पड़ता है, या
सुनने योग्य
मालूम नहीं
पड़ता।
तुम भी
यही कर रहे हो
अपने बच्चों
के साथ। उससे
कुछ बदलता
नहीं। तुम दंड
देते हो; बच्चा
दंड के लिए
धीरे-धीरे
राजी हो जाता
है। इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
अच्छे बाप
बुरे बेटे
पैदा करते हैं;
अच्छे
परिवारों से
अपराधी
निकलते हैं।
जब बाप बहुत
कोशिश करता है
अच्छा करने की
तो बेटे बुरे
हो जाते हैं।
वहीं कुछ सड़
जाता है, उस
चेष्टा में ही
कुछ मर जाता
है, क्योंकि
बाप अतिशय
चेष्टा करता
है। तो दो ही उपाय
हैं। या तो
बेटा पाखंडी
हो जाए, वह
ऐसा चेहरा
दिखाने लगे
जैसा वह नहीं
है; चेहरा
ओढ़ ले। तो पुरस्कार
भी पा ले और
कोई पीछे का
दरवाजा भी खोल
ले, जहां
से जो उसे
रसपूर्ण लग
रहा है वह भी
किए जाए। और
जिस-जिस को हम
पाप कहते हैं,
वह हमारे
पाप कहने से
और भी रसपूर्ण
हो जाता है, उसमें और
आकर्षण आ जाता
है, उसमें
चुंबक पैदा हो
जाता है।
एक घर
में ऐसा हुआ
कि घर के लोग
बड़े नीति-नियम
वाले लोग थे; एक
भोज में
आमंत्रित थे।
तो घर के छोटे
से बच्चे को
उन सबने कहा
कि देखो, ध्यान
रखना, कोई
चीज मांगना
मत। सब चीज दी
जाएगी; प्रतीक्षा
करना, मांगना
मत। घर में
मांगते हो, वह एक बात।
कोई चीज पसंद
भी पड़े तो
अपने पर नियंत्रण
रखना और चुप
रहना। जितना
मिले उतने में
राजी रहना। संयोग
की बात, काफी
लोग थे भोज
में और लोग
गपशप में लगे
थे, छोटे
से बच्चे को
लोग भूल ही
गए। उसके हाथ
में प्लेट तो
दे दी गई, आइसक्रीम
बांटी जा
रही थी, लेकिन
लोग उसे भूल
ही गए।
वह
थोड़ी देर तो
प्लेट लिए
बैठा रहा। अब
सोच सकते हो, एक
छोटा बच्चा, आइसक्रीम बंटती हो
और प्लेट लिए
खाली बैठा हो।
काफी दमन करना
पड़ा होगा। फिर
उसे जब आशा
छूट गई, लगा
कि अब तो
आइसक्रीम दूर
भी चली गई और
अब कोई लौट कर
आने का उपाय
नहीं है, लोग
बातचीत में
लगे हैं, उसका
किसी को खयाल
ही नहीं है; मौका पाकर
जब उसने देखा
कि एकाध-दो
क्षण को
सन्नाटा था, लोग
आइसक्रीम
खाने में लग
गए, तो
उसने खड़े होकर
जोर से कहा कि
किसी को खाली
प्लेट तो नहीं
चाहिए! खाली
प्लेट ऊपर उठा
कर। तब लोगों
को पता चला कि
उसको
आइसक्रीम
नहीं मिली।
छोटे
बच्चे भी
रास्ता तो
निकाल ही
लेंगे। तो बड़ों
का तो क्या
कहना? न मांगेंगे
आइसक्रीम तो
खाली प्लेट
बता देंगे।
पीछे से कोई
द्वार खोलना
पड़ेगा। आगे एक
झूठा चेहरा और
जीवन का पीछे
का एक द्वार।
करो कुछ, कहो
कुछ, बताओ
कुछ। जीवन
खंड-खंड कर लो;
इकट्ठे न रह
जाओ।
सारे
दंड और सारे
पुरस्कार का
परिणाम इतना
हुआ है कि कुछ
लोग पापी हो
गए हैं, अपराधी,
और कुछ लोग
पाखंडी हो गए
हैं।
पाखंडियों को
तुम नैतिक
कहते हो।
पाखंडी का कुल
मतलब इतना है कि
कर तो वह भी
वही रहा है जो
दूसरे कर रहे
हैं, लेकिन
कुशलता से कर
रहा है। वह
ज्यादा चालाक
है। निक्सन
पकड़ लिया गया,
इससे तुम यह
मत सोचना कि
तुम्हारे
दूसरे
राजनीतिज्ञ, दूसरे
मुल्कों के, वही नहीं कर
रहे हैं जो निक्सन
ने किया।
करीब-करीब सभी
राजनीतिज्ञ
वही करते हैं।
निक्सन
थोड़ा ज्यादा
आत्मविश्वास
में फंस गया।
अपने ही हाथ
से फंस गया कि
वह जो भी
बोलता था वह
उसने टेप करवा
लिया। बोलते
तो सभी राजनीतिज्ञ
यही हैं।
तुम
अगर उनकी
अंतरंग
वार्ता सुनो
तो बड़े हैरान
होओगे। वह
बिलकुल
सड़क-छाप है; वह
बातचीत, जो
सड़क के किनारे
बैठे हुए लोग
करते हैं, उससे
भी बेहूदी है।
होगी ही।
क्योंकि
एक-दूसरे की
जड़ें काटने की
ही तो सारी
बात है। ऊपर
से मिलते हैं
तो
मुस्कुराते
हैं, और
भीतर एक-दूसरे
को काट रहे
हैं। और ऐसा
नहीं कि
विरोधी ही काट
रहे हैं, जो
अपने हैं वे
भी काट रहे
हैं। क्योंकि
राजनीति में
सभी एक-दूसरे
के विरोधी
हैं। अपना तो
कोई है ही
नहीं वहां।
अपना तो
राजनीति में
कोई हो ही
नहीं सकता।
क्योंकि जहां
पूरी दौड़ प्रतिस्पर्धा
की हो वहां
कोई जयप्रकाश
ही इंदिरा के
खिलाफ नहीं
होते, चव्हाण भी भीतर से
वही करते हैं।
कोई बाहर से
विरोधी है, कोई भीतर से
विरोधी है; कोई भेद
नहीं है। कुछ
शत्रु हैं जो
मित्र की तरह
खड़े हैं और
कुछ शत्रु हैं
जो शत्रु की
तरह खड़े हैं, बस इतना ही
फर्क है। अगर तुम
उनकी भीतरी
बातें
सुनो--जैसा
मुझे सुनने का
मौका मिला
है--तो तुम
चकित होओगे।
वे साधारण आदमी
से गए-बीते
हैं।
लेकिन
तुम उनके
पब्लिक चेहरे
से परिचित हो; सार्वजनिक
उनका जो
मुखौटा है, जब वे सभा के
मंच पर आते
हैं, उससे
तुम परिचित
हो। तब वे लोकोद्धारक
हैं, सर्वोदयी हैं, तब
वे जनता के
कल्याण के लिए
हैं। और ये सब
थोथे शब्द हैं,
और इनके
पीछे सिवाय पद
की आकांक्षा
के और शक्ति
की लोलुपता के
कुछ भी नहीं
है। और शक्ति
की लोलुपता इस
जगत में बड़ी
अंधी दौड़ है।
वह न अपने को
जानती है, न
पराए को जानती
है। क्योंकि
शक्ति की
लोलुपता महा
हिंसा है। ये
सब बातें हैं।
पांच साल पहले
इंदिरा
समाजवाद की
बात कहती थी; वह खो गई।
अभी जयप्रकाश
कहते हैं।
उनको बिठा दो
पद पर, ऐसे
ही खो जाएगी।
पद मिलते ही
सब खो जाता
है। क्योंकि
सब बातें पद
पाने के लिए
थीं। और पद पाने
के बाद असली
चेहरा प्रकट
होना शुरू
होता है।
क्योंकि
शक्ति मिल
जाने के बाद
तुम वह करना
चाहोगे जो तुम
छिपाए थे और
सदा करना चाहते
थे।
लार्ड एक्टन ने
कहा है, पावर करप्ट्स
एंड करप्ट्स
एब्सोल्यूटली।
शक्ति
व्यभिचारिणी
है और
परिपूर्ण रूप
से व्यभिचार
कर देती है
व्यक्ति के
साथ।
लेकिन
मैं एक्टन
से राजी नहीं
हूं। शक्ति
व्यभिचारिणी
नहीं है। असल
में,
व्यभिचारी
व्यक्ति ही
शक्ति की तरफ
उत्सुक होते
हैं। शक्ति तो
केवल उघाड़ती
है। जैसे ही
शक्ति मिलती
है तुम्हें...।
तुम एक वेश्या
के घर जाना
चाहते थे, लेकिन
कभी तुम उतने
नोट न इकट्ठे
कर पाए। तो तुम
द्वार से भटक
कर, गीत
गुनगुना कर
लौट आए। चक्कर
तुमने बहुत
मारे। लेकिन
जिस दिन
तुम्हारे पास
रुपए होंगे, जिस दिन
उतने नोट
होंगे, उस
दिन तुम्हें
कैसे रोका जा
सकेगा? नोट
किसी को बिगाड़ते
नहीं। धन क्या
बिगाड़ेगा?
धन से
ज्यादा
नपुंसक क्या
है? धन
कैसे बिगाड़
सकता है? और
पद से ज्यादा
नपुंसक क्या
है? पद
कैसे बिगाड़
सकता है? बिगड़े
हुए लोग ही पद
की तरफ लोलुप
होते हैं।
लेकिन जब वे
पद की तरफ
लोलुप होते
हैं तब चारों
तरफ एक साधुता
का आवेष्टन
निर्मित करना
पड़ता है; क्योंकि
तुम साधु को
ही पद तक
पहुंचाओगे।
तो उनको साधु
होना पड़ता है।
ऐसा
हुआ कि सम्राट
एक विनम्र
आदमी की खोज
में था। और उसने
अपने लोग भेजे
और उसने कहा, कोई
ऐसा आदमी खोज
कर आओ जो
बिलकुल
विनम्र हो। वे
मुल्ला नसरुद्दीन
के गांव में
आए। नसरुद्दीन
बाजार से निकल
रहा था। उसके
पास काफी धन
था, बड़ी
हवेली थी, लेकिन
कंधे पर उसने
मछलियों को पकड़ने का
एक जाल लटका
रखा था। उस
मंडल ने, जो
विनम्र आदमी
की तलाश में
था, पूछा
कि क्या बात
है? तुम
इतने बड़े धनी
हो, तुम यह
मछली का जाल
क्यों लटकाए
हुए हो पुराना,
फटा हुआ? नसरुद्दीन ने कहा कि
मैं मछलियां
पकड़-पकड़ कर ही
बड़ा हुआ। मैं
उस छोटेपन
को भूल नहीं
जाना चाहता
जहां से मूल
स्रोत है। मैं
गरीब मछुआ था।
इस जाल को मैं
अपने साथ रखता
हूं, ताकि
अहंकार न आ
जाए।
उन्होंने कहा
कि यह आदमी, यह आदमी ठीक
विनम्र आदमी
है। जिसके पास
बड़ी हवेली है,
राजाओं
जैसा जो रह
सकता था, वह
मछुए के कपड़े
पहने हुए है
और जाल लटकाए
हुए है। उसे
चुन लिया गया।
उसे राज्य का
वजीर बना दिया
गया। जिस दिन
वह वजीर बन
गया उस दिन वह
शानदार कपड़े
पहन कर राजभवन
पहुंचा। उस
मंडल के लोगों
ने कहा कि नसरुद्दीन,
क्या हुआ उस
जाल का? उसने
कहा कि जब
मछली पकड़ ली
गई तो जाल को
कौन लिए फिरता
है!
सब
जाल--नाम कुछ
भी हों--मछलियां
पकड़ने के
लिए हैं। जब
मछली पकड़ ली
गई,
जाल फेंक
दिए जाते हैं।
गणित सीधा है।
नीति ने, कनफ्यूशियस,
माक्र्स, पावलफ, इन
सबने एक ही
बात सिखाई है
कि नीति का
आचरण ऊपर से
थोपा जा सकता
है। नीति एक कल्टीवेशन
है, एक
संस्कार है।
पावलफ का शब्द
है: कंडीशंड
रिफ्लेक्स।
नीति एक
संस्कार है।
तो पावलफ का
प्रसिद्ध
प्रयोग तुमने
सुना होगा। एक
कुत्ते को वह
खाना खिलाता
है। जब रोटी
कुत्ते के
सामने आती है
तो उसकी जीभ
से लार टपकती
है। यह
स्वाभाविक
है। वह घंटी
बजाता है। जब
भी रोटी देता
है, घंटी
भी बजाता है।
पंद्रह दिन के
बाद रोटी तो नहीं
देता, सिर्फ
घंटी बजाता
है। लार टपकनी
शुरू हो जाती
है। अब घंटी
बजने से
कुत्ते की लार
टपकने का कोई
भी स्वाभाविक
संबंध नहीं
है। यह
कंडीशंड
रिफ्लेक्स
है। रोटी के
साथ घंटी बजती
थी, इसलिए
कुत्ते के मन
में घंटी और
रोटी एक हो गए।
रोज घंटी रोटी
के साथ बजती
थी; इसलिए
घंटी के बजने
से लार शुरू
हो गई।
पावलफ
यह कह रहा है
कि समस्त नीति
कंडीशंड रिफ्लेक्स
है। अगर बच्चे
ने कुछ गलत
काम किया, उसे
मारो, दंड
दो। क्योंकि
दंड देने का
संबंध हो
जाएगा गलत काम
से। तो दुबारा
जब भी वह गलत
काम करेगा, उसे याद
आएगा कि मार
पड़ेगी। घंटी
जुड़ गई! तो वह
बुरा काम नहीं
करेगा। भला
काम करे--मिठाई
दो, पुरस्कार
दो, खिलौना
दो। भला काम
और पुरस्कार
जुड़ जाएगा। जब
भी वह
पुरस्कार
पाना
चाहेगा--जो
कौन नहीं पाना
चाहता--तो वह
भला काम
करेगा। और
धीरे-धीरे यह
इतनी गहरी आदत
हो जाएगी, यह
आदत ही आचरण
है।
लाओत्से
कहता है, यह
आदत धोखा है, आचरण नहीं।
क्योंकि जो
ऊपर से थोपा
गया है वह ऊपर
ही रहेगा।
समाज के लिए
काफी हो, परमात्मा
के खोजियों के
लिए काफी नहीं
है। फिर कैसे
सदगुण पैदा
होता है?
लाओत्से
कहता है, सदगुण
का जन्म
स्वभाव की
अनुभूति से
होता है, आत्मबोध
से होता है, ध्यान से हो
सकता है। पाप,
दंड, पुरस्कार,
पुण्य, इस
तरह की
धारणाओं को जोड़ने से
नहीं हो सकता।
इस तरह की
धारणाएं आदत
बना सकती हैं,
और आदत को
हम आचरण समझ
लेते हैं।
तुम
अगर जैन घर
में पैदा हुए
हो तो
मांसाहार नहीं
कर सकते।
लेकिन यह
तुम्हारी आदत
है। पचास साल
तक तुमने
मांसाहार
नहीं किया। और
मांसाहार
गंदी बात है, घृणित
है, शब्द
ही मांस से
तुम्हें
बेचैनी होने
लगती है; घंटी
जुड़ गई रोटी
से। शास्त्र
सुने, गुरुओं
के वचन सुने; जिस परिवार
में रहे, वे
सभी नाक-भौं सिकोड़ते
हैं जैसे ही
मांस का शब्द
आ जाए। अगर
जैन परिवार के
बूढ़े लोग भोजन
कर रहे हों और
तुम मांस शब्द
का नाम ले दो
तो वे भोजन
बंद कर देंगे।
बहुत दिनों तक
जैनी टमाटर
नहीं खाते थे,
क्योंकि वह
मांस जैसा
दिखाई पड़ता
है। कटहल नहीं
खाते, क्योंकि
उसे काटने से
खून जैसा
निकलता हुआ मालूम
पड़ता है।
प्रतीक! तो
अगर तुम जैन
घर में बड़े हुए
हो तो शाकाहार
तुम्हारी आदत
है। और अगर कोई
मांस
तुम्हारे
सामने ले आएगा,
तुम्हें
उलटी होने
लगेगी, नासिया मालूम होगा,
सारा पेट खड़बड़ हो
जाएगा। लेकिन
इससे तुम यह
मत समझना कि
तुम महावीर हो
जाओगे। यह आदत
है; यह तुम कनफ्यूशियस
के अनुयायी हो,
महावीर के
नहीं। यह आदत
है; तुम
पावलफ के
अनुयायी हो।
तुम्हारे साथ
वही किया गया
है जो पावलफ
ने कुत्ते के
साथ किया: भोजन
और घंटी। इस
आदत को तुम
आचरण अगर समझ
लिए तो तुमने
अपना जीवन
गंवा दिया।
शाकाहार
तो उस शुद्ध
चैतन्य से
पैदा होता है, जहां
तुम इतने
प्रेम से भर
जाते हो कि
जहां तुम किसी
को भी चोट न
पहुंचाना
चाहोगे। यह भीतर
से आता है।
वास्तविक
आचरण का जन्म
अंतस से होता
है; झूठे
आचरण का जन्म
ऊपर के आरोपण
से होता है। और
यही भेद है।
और दोनों एक
जैसे दिखाई पड़
सकते हैं।
व्यवहार में
क्या फर्क
करोगे कि कोई
आदमी किसलिए
मांस नहीं खा
रहा है? महावीर
भी मांस नहीं
खाते, क्योंकि
उनके अंतस से
हिंसा खो गई।
साधारण जैनी
भी मांस नहीं
खाता; अंतस
से हिंसा नहीं
खोई है। अंतस
में पूरी हिंसा
है, क्रोध
है, वैमनस्य
है,र् ईष्या है, जलन है, सब
है। लेकिन आदत
के कारण
मांसाहार
नहीं करता।
लेकिन और-और
ढंग से मांसाहार
करेगा। कहीं न
कहीं वह भी
चिल्ला कर
कहेगा कि किसी
को खाली प्लेट
तो नहीं
चाहिए! और-और
रास्ते
खोजेगा। किसी
और ढंग से
लोगों को
सताएगा।
मांस
नहीं खा सकेगा, खून
नहीं पी सकेगा,
तो शोषण
करेगा।
क्योंकि धन भी
खून है। वह
प्रतीक है खून
का, वह
समाज का खून
है। और जैसे
खून बहता है
शरीर में और
आदमी स्वस्थ
रहता है, वैसा
धन घूमता रहे
समाज में तो
समाज स्वस्थ
रहता है। धन
रुक जाए, तो
जैसे खून रुक
जाए, आदमी
मर जाए, वैसे
समाज मर जाता
है। लेकिन
जैनियों ने
जगह-जगह धन
रोक लिया। वे
अकारण ही
धनवान नहीं हो
गए हैं। उनके
धनवान होने का
कुल कारण इतना
है कि जो भी
उनकी
मांसाहार और खून
पीने की
वृत्ति थी, वह एक आदत से
रोक दी गई है।
उसको वे दूसरे
रास्ते से
खींच रहे हैं,
दूसरे
रास्ते से
इकट्ठा कर रहे
हैं। उन्होंने
एक सब्स्टीटयूट,
एक परिपूरक
मार्ग खोज
लिया।
मन को
बदलना इतना
आसान नहीं है
कि ऊपर से
बदला जा सके। स्कीनर, पावलफ,
कनफ्यूशियस आदमी को बदल
नहीं सकते, आदमी को
ढोंगी बना
सकते हैं, झूठा
बना सकते हैं।
समाज के लिए
काफी है, क्योंकि
समाज को कोई
लेना-देना भी
नहीं कि तुम्हारी
आत्मा से आ
रहा है या
नहीं। इतना
काफी है कि
तुम डर के
मारे भी न करो
तो काफी है।
पुरस्कार के
लिए करो तो भी
काफी है; समाज
इतना ही चाहता
है कि
तुम्हारा
व्यवहार ठीक
हो। व्यवहार
कहां से पैदा
हुआ, इससे
समाज को कोई
प्रयोजन नहीं
है।
लेकिन
धर्म को
प्रयोजन है।
अगर व्यवहार
बाहर से पैदा
हुआ तो तुमने
जीवन गंवाया।
तुम अभिनेता
बन कर रह गए; तुमने
नाटक किया।
अगर तुम्हारा
आचरण भीतर से आया
तो तुम्हारे
जीवन में
क्रांति हुई।
अब इस
सूत्र को तुम
समझ पाओगे।
सदगुण का जन्म
कहां से होता
है?
"ताओ
जन्म देता है
सदगुण को।'
ताओ का
अर्थ है
स्वभाव। ताओ
का अर्थ है
तुम्हारा
आंतरिक धर्म।
ताओ का अर्थ
है तुम्हारी
चेतना।
"ताओ
से जन्म होता
है सदगुणों का,
और चरित्र
उनका पालन
करता है।'
तो
चरित्र मूल
नहीं है, छाया
की तरह है।
जन्म तो भीतर
की प्रज्ञा
में होता है, ध्यान की
गहन अवस्था
में होता है।
लेकिन उतना काफी
नहीं है, वह
बीज है। उसके
पालने के लिए
तुम्हें उसके
अनुसार आचरण
करना होता है।
तो वह प्रगाढ़
होता जाता है।
जो तुमने जाना
है भीतर, उसे
अपने जीवन में
उतार लेने से
वह प्रगाढ़
होता है, उसकी
जड़ें जमने
लगती हैं। तो
चरित्र मूल
नहीं है, मूल
तो बोध है। और
फिर बोध को प्रगाढ़
करने का
प्रयोग
चरित्र है।
इसलिए ताओ से
जन्म और तेह
से पोषण।
तेह का
अर्थ है
चरित्र। जो
तुम जानो भीतर, उसे
करना। अन्यथा
तुम्हारा
ज्ञान झलक की
तरह बनेगा और
खो जाएगा। जब
तुम ध्यान की
गहरी अवस्था
में कुछ उदभाव
पाओ, कोई
भीतर आदेश
मिले, भीतर
तुम्हारा
अंतःकरण कुछ
कहे, तो
उसे करना भी।
नहीं तो उसको
जड़ न मिल
पाएगी। अगर
तुम करोगे तो
आदेश रोज-रोज
स्पष्ट होने
लगेगा, और
अंतःकरण की
आवाज रोज-रोज
साफ सुनाई
पड़ने लगेगी।
जितना ही तुम
करोगे, जितना
ही तुम अपने
बोध को चरित्र
में रूपांतरित
करोगे, उतना
ही तुम पाओगे,
बोध साफ
होने लगा, भीतर
की ज्योति
स्पष्ट जलने
लगी; धुआं
कम होने लगा, चीजें साफ
दिखाई पड़ने
लगीं। जन्म तो
होता है भीतर,
लेकिन
व्यवहार में
लाने से
चरित्र की
जड़ें गहरी
होती हैं।
"ताओ
में जन्म, चरित्र
में पालन।
भौतिक संसार
उन्हें रूप देता
है।'
तुम्हारा
चारों तरफ जो
संसार है।
जन्म तो होता
है भीतर, चरित्र
में जड़ें
मिलती हैं, और जो
विस्तार है
तुम्हारे
जीवन का, वह
चारों तरफ के
भौतिक संसार
से उसे रूप
मिलता है।
"भौतिक
संसार उन्हें
रूपायित करता
और वर्तमान
परिस्थितियां
पूर्ण बनाती
हैं।'
स्रोत
है भीतर। फिर
तुम्हारे
व्यवहार पर
आते हैं, वहां
तुम्हारा
चरित्र है, उससे जड़ें
जमती हैं। फिर
बाहर की भौतिक
परिस्थितियों
पर आते हैं, उनसे रूप
मिलता है।
जैसे अगर आज
महावीर पैदा होना
चाहें तो उनका
रूप वही नहीं
होगा जो ढाई हजार
साल पहले था।
क्योंकि आज की
भौतिक परिस्थितियां
उन्हें रूप
देंगी। अगर वे
तिब्बत में
पैदा हुए होते
तो नंगे नहीं
खड़े हो सकते
थे। नंगे खड़े
होते तो मर
जाते। नग्नता
भारत में सरल
थी, क्योंकि
भारत का भौतिक
संसार भिन्न
है। महावीर
अगर लंदन में
पैदा हों तो
व्यवहार और
होगा, क्योंकि
परिस्थितियां
भिन्न हैं।
महावीर के
नग्न रहने के
कारण दिगंबर जैन
मुनि भारत के
बाहर नहीं जा
सका। वह संदेश
भी नहीं ले जा
सका बाहर, क्योंकि
नंगा कैसे जाए
बाहर! वह
नंगापन अड़चन बन
गई। महावीर को
न बनती, क्योंकि
ज्ञानी तरल
होता है।
रूप
देती हैं
परिस्थितियां।
तुम्हारे दीए
का क्या रूप
है,
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
तुम्हारी
ज्योति जगनी
चाहिए। दीए तो
हर मुल्क में
अलग होंगे, उनका ढंग
अलग होगा, मिट्टी
अलग होगी, रंग
अलग होगा, लेकिन
ज्योति का रंग
एक ही होगा।
दीए बदल जाएंगे,
ज्योति
नहीं बदलेगी।
तो तुम
जिस
परिस्थिति
में पैदा हुए
हो,
जिस भौतिक
परिस्थिति
में तुम हो, तुम्हारे
आचरण का रूप
उससे बनेगा।
इसलिए आचरण का
कोई बंधा हुआ
रूप नहीं है।
और जो भी बंधे
हुए रूप को
मान कर चलता है
वह जड़ता
को उपलब्ध हो
जाएगा।
परिस्थिति
बदलेगी, रूप
बदलेगा।
लेकिन
तुम्हें बड़ी
मुश्किल है, क्योंकि
तुम्हें भीतर
का तो कोई
आदेश ही नहीं है।
तुम तो
शास्त्र से
नियम उठा लिए
हो। शास्त्र
जा चुके, उनका
समय जा चुका, उनकी
परिस्थिति
बदल गई। इसलिए
शास्त्र के अनुसार
जो भी जीएगा
वह जड़ हो
जाएगा। स्वयं
की
अंतःप्रज्ञा
के अनुसार जो
भी जीएगा,
उसके जीवन
में तरलता, उसके जीवन
में जीवंतता
होगी।
इसलिए
तो तुम
तुम्हारे
पुराने
परंपरागत संन्यासियों
को देखो, उनके
चेहरों पर धूल
जमी हुई है।
वे ऐसे लगते हैं--अब
गए, तब गए।
वे ऐसे लगते
हैं जैसे म्युजियम
में पुरानी
चीजें रखी
हों। दर्शनीय
भला हों, किसी
काम के न रहे।
खंडहर हैं।
अतीत की कोई
गौरव-गाथा
कहते होंगे, लेकिन
गौरव-गाथा आज
की और वर्तमान
की नहीं है।
किसी पुराने
समय की
ऐतिहासिक
सामग्री हैं
वे, फोसिल्स,
सम्हाल कर
रखने योग्य, जैसा कि हम
पुरानी चीजों
को सम्हाल कर
रखते हैं।
लेकिन उपयोग
के योग्य नहीं;
आज के जीवन
से उनका कोई
भी संबंध नहीं
है।
अगर
तुम्हारी
अंतःप्रज्ञा
से पैदा होता
हो,
ताओ से पैदा
होता हो आचरण,
तो तुम कभी
भी मुर्दा न
होओगे, तुम
सदा जीवंत
रहोगे, तरल
रहोगे, बहोगे।
और जैसी
परिस्थिति
होगी, वैसा
तुम्हारा रूप
निर्मित हो
जाएगा। तुम्हें
चिंता नहीं
करनी है, तुम्हें
सिर्फ
संवेदनशील और
बोधपूर्ण
होना है।
"और
वर्तमान
परिस्थितियां
उसे पूर्ण
बनाती हैं।'
और जो
भी तुम्हारे
भीतर से प्रकट
होगा...। तुम किसी
अतीत की
पूर्णता को
आधार मान कर
मत चलना। तुम
किसी अतीत की
पूर्णता को
आदर्श मत मान
लेना। अन्यथा
तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे। आज
की परिस्थिति, वर्तमान
क्षण ही
तुम्हें
पूर्णता
देगा। कोई भी
नहीं जानता कि
वर्तमान क्षण
अगर पूर्णता
देगा तो तुम
कैसे होओगे--महावीर
जैसे? बुद्ध
जैसे? लाओत्से
जैसे? सच
तो यह है, तुम
उनमें से किसी
जैसे भी नहीं
होओगे। तुम तुम
जैसे ही
होओगे।
क्योंकि उनकी
कोई की भी
परिस्थिति
ऐसी न थी। सब
कुछ बदल गया।
शास्त्र
नहीं बदलते, क्योंकि
शास्त्र मुर्दा
हैं। लेकिन
चेतना का आदेश
सदा बदलता रहता
है। जैसी
परिस्थिति
होती है, उसके
अनुकूल उदभाव
होता है, और
प्रति क्षण एक
तरह की
पूर्णता
निर्मित होती
है। वह
पूर्णता किसी
आदर्श के
अनुसार नहीं होती,
वह पूर्णता
तुम्हारे
भीतर के आनंद
की होती है।
और इसीलिए तो
ऐसा हो जाता
है कि जब भी
कोई एक
व्यक्ति
तीर्थंकर, अवतार
की भांति पैदा
होता है, तब
जिस धर्म में
पैदा होता है
उस धर्म के
लोग ही उसे
स्वीकार नहीं
करते।
क्योंकि वह एक
नए तरह की
पूर्णता होती
है जो पहले
कभी नहीं हुई।
तो उसका कोई
मापदंड पीछे
से नहीं तौला
जा सकता।
जीसस
यहूदी घर में
पैदा हुए, यहूदी
जीवन भर रहे; लेकिन
यहूदियों ने
इनकार कर
दिया।
क्योंकि यहूदी
कहते कि तुम
अब्राहम जैसे
हो? इजेकिल जैसे हो? तुम
किस जैसे हो? वे अपने
पुराने
पैगंबरों का
नाम लेते। और
जीसस बिलकुल
भिन्न थे। और
जीसस बिलकुल
नए थे। वैसा
फूल पहले कभी
हुआ नहीं था, क्योंकि
वैसी
परिस्थिति
कभी न थी। यह
सुबह और थी।
यह हवा और थी।
यह वक्त और
था। एक नई
पूर्णता खिली
थी। लेकिन
यहूदी पंडित
अपने
शास्त्रों
में खोज रहे
थे कि इस तरह
की पूर्णता का
मेल बैठता है
या नहीं।
और
जीसस ने बड़ी
अनूठी बात कह
दी। जब उनसे
पूछा गया कि
क्या तुम
अब्राहम जैसे
हो?
पुराना, पुरानी
याददाश्त, पुराना
पैगंबर। तो
जीसस ने कहा, बिफोर अब्राहम वाज़,
आई एम।
अब्राहम के
पहले भी मैं
हूं। अखर गई
बात यहूदियों
को। यह तो बड़ा
अहंकारी
मालूम होता है
कि अब्राहम के
पहले भी और यह
कहता है मैं
हूं।
वे समझ
न पाए। जीसस
यह कह रहे हैं
कि मैं समय के बाहर
हूं।
जब भी
कोई चेतना
परिपूर्णता
को उपलब्ध
होती है, समय
के बाहर हो
जाती है। समय
तैयार करता है,
समय
निर्मित करता
है, समय
पूर्णता के
करीब लाता है,
निन्यानबे
डिग्री तक
लाता है; सौ
डिग्री पर
तत्क्षण
चेतना समय के
बाहर हो जाती
है। वे यह कह
रहे हैं कि
अब्राहम से भी
पहले मैं हूं।
कोई अतीत नहीं
मेरे लिए अब, कोई भविष्य
नहीं मेरे लिए
अब; अब मैं
शाश्वत हूं।
यह घोषणा
यहूदी न समझ
पाए।
यहूदियों ने
जीसस को सूली
दी।
ऐसा
सदा हुआ है; ऐसा
सदा होगा।
बुद्ध को
हिंदू
स्वीकार न कर
पाए। हिंदू घर
में पैदा हुए,
हिंदू घर
में बड़े हुए, और बुद्ध से
बड़ा कोई हिंदू
नहीं हुआ, और
हिंदू
स्वीकार न कर
पाए। क्योंकि
न राम से उनकी
शक्ल मिलती है,
न कृष्ण से।
कृष्ण नाच रहे
हैं गोपियों
के साथ, और
बुद्ध को
राग-रंग
बिलकुल पसंद
नहीं। नाच का
बुद्ध से क्या
संबंध? तुम
बुद्ध के
ओंठों पर
बांसुरी रखो,
वे बड़े
बेहूदे मालूम
पड़ेंगे। और
मोर-मुकुट बांध
दो तो मजाक हो
जाएगी। वे
बोधिवृक्ष के
नीचे शांत, बिना
मोर-मुकुट के
ही सुंदर
मालूम पड़ते
हैं।
कृष्ण
को तुम बिठाल
दो बोधिवृक्ष
के नीचे, वे
ऐसे लगेंगे
जैसे किसी
बच्चे को जबरदस्ती
बिठाल
दिया है। उनको
बांसुरी
जरूरी है। रूप
परिस्थिति से
मिलता है। वह
मोर-मुकुट
कृष्ण पर बहुत
शोभा देता है,
लेकिन बस उन
पर ही शोभा
देता है। कोई
और करेगा तो
सर्कस का जोकर
मालूम पड़ेगा।
कोई और करेगा
तो लोग
हंसेंगे।
लेकिन कृष्ण
के साथ सारा
अस्तित्व
राजी था वैसे।
वह उस क्षण की
पूर्णता थी।
वह क्षण अब कभी
न आएगा; वह
पूर्णता अब
कभी न आएगी।
परमात्मा
चुकता नहीं
अपने कृत्य से, वह
रोज नए को
निर्मित किए
चला जाता है।
वह पुराने को
दोहराता
नहीं। पुराने
को तो वही
दोहराता है
जिसकी
प्रतिभा कम
हो। परमात्मा
की प्रतिभा अनंत
है, अस्तित्व
की संभावना
अनंत है। क्या
जरूरत है दोहराने
की?
तो
बुद्ध न तो
राम जैसे लगे
कि लिए खड़े
हैं धनुष-बाण।
तुलसीदास
राम के भक्त
हैं। कहते हैं, मथुरा
में वे कृष्ण
के मंदिर में
गए तो झुके नहीं।
क्योंकि
उन्होंने कहा
कि तब तक न झुकूंगा,
जब तक
धनुष-बाण हाथ
में न लोगे। तुलसीदास
जैसा आदमी भी
कृष्ण के
सामने नहीं
झुक सकता, क्योंकि
उसका अपना एक
रूप है धारणा
का, अपना
एक आदर्श है।
कहा कि तुलसी
का माथा न झुकेगा
तब तक, जब
तक धनुष-बाण
हाथ न लोगे।
और कहानी है
कि कहती है कि
फिर कृष्ण ने
धनुष-बाण हाथ
लिए, तब
तुलसी का माथा
झुका।
तो
माथा झुकता है
तब जब तुम
वर्तमान में
अतीत की
पुनरुक्ति
देखो, नहीं तो
नहीं झुकता।
और अतीत की
कोई पुनरुक्ति
नहीं होती। यह
कहानी झूठ है।
कृष्ण भूल कर
भी हाथ में
धनुष-बाण नहीं
ले सकते; वे
जंचेंगे
ही नहीं। वह
बात मौजू
नहीं है। और
अगर तुलसीदास
को दिखा होगा
तो वह उनके मन
का ही भ्रम
रहा होगा।
अक्सर प्रेमी
भ्रम को देख
लेते हैं। अगर
तुम किसी के
प्रेम में
दीवाने हो, कोई दूसरी
स्त्री
निकलती
रास्ते से, एक क्षण को
भ्रम हो जाता
है कि वही आ
रही है, तुम्हारी
प्रेयसी आ रही
है। ऐसे ही
कोई भ्रम हुआ
होगा तुलसी
को। धनुष-बाण
के प्रेमी थे,
राम के
प्रेमी थे; प्रेम में
आंखें अंधी हो
जाती हैं, देख
लिया होगा
क्षण भर को।
लेकिन क्या
जरूरत पड़ी
कृष्ण को
धनुष-बाण लेने
की?
लेकिन
हिंदू बुद्ध
को स्वीकार न
कर सके। और बुद्ध
का अस्वीकार
इतना प्रगाढ़
था कि
यहूदियों ने
भी इतना बड़ा अस्वीकार
जीसस का नहीं
किया।
उन्होंने कम
से कम सूली तो
लगा दी। सूली
लगाने से जीसस
की जड़ें जम
गईं।
यहूदियों को
बड़ी मात्रा
में ईसाई हो
जाना पड़ा।
क्योंकि सूली
ने एक घाव बना
दिया। हिंदुओं
ने ज्यादा
होशियारी की।
वे ज्यादा चालाक
कौम हैं, ज्यादा
पुरानी कौम
हैं। उन्होंने
क्या चालाकी
की?
हिंदुओं
ने एक कथा गढ़ी।
और कथा यह है
कि परमात्मा
ने नरक बनाया, स्वर्ग
बनाया। नरक
में बिठाया
शैतान को। लेकिन
सदियां बीत
गईं, कोई
पाप ही न करे, कोई नरक ही न
जाए। शैतान थक
गया। उसने
परमात्मा से
कहा कि मिटाओ
यह नरक और
मुझे छुटकारा
दो। यह डयूटी
किस काम की है?
यहां
बैठे-बैठे
क्या सार? कोई
आता नहीं। तो
परमात्मा ने
कहा, तू
घबड़ा मत। मैं
बुद्ध को पैदा
करूंगा। वह
अवतारी पुरुष
होगा, लेकिन
गलत बातें
लोगों को समझाएगा;
लोगों को
भ्रष्ट कर
देगा। जब लोग
भ्रष्ट हो जाएंगे,
अपने आप नरक
आने लगेंगे।
तू घबड़ा मत।
हिंदू
ज्यादा कुशल
हैं,
ज्यादा
चालाक हैं।
सूली न दी, तरकीब
लगाई। बुद्ध
को मान भी
लिया, क्योंकि
बुद्ध मानने
जैसे थे। तो
अवतार भी स्वीकार
कर लिया; कहा
कि दसवां
अवतार हैं।
लेकिन भ्रष्ट
करने को पैदा
हुए हैं।
इसलिए
स्वीकार मत
करना, बचना।
और इसका
परिणाम इतना घातक
हुआ कि बुद्ध
और बुद्ध का
विचार भारत से
तिरोहित हो
गया। पूरा
एशिया डूब गया
बुद्ध के प्रेम
में, सिर्फ
भारत वंचित रह
गया। बादल
यहां पैदा हुआ;
बरसा कहीं
और। हमारे खेत
सूखे पड़े रह
गए।
होने
का कारण है।
और कारण यह है
कि जिस धर्म
में कोई
तीर्थंकर, कोई
बुद्ध, कोई
क्राइस्ट
पैदा होता है,
उस धर्म की
अपनी मान्यता
होती है। उस
मान्यता से वह
मेल नहीं खाता,
क्योंकि हर
तीर्थंकर नए
कोंपल की तरह
नया है, नई
दूब की ओस की
तरह नया है।
उसका नयापन
अप्रतिम है, आत्यंतिक
है। वह बासा
और पुराना
नहीं है। उसे वर्तमान
परिस्थितियां
पूर्ण बनाती
हैं। वह
बिलकुल नया
फूल है जो
पहले कभी नहीं
खिला था।
सदगुण
एक फूल है। जब
तुममें खिलता
है तो न तो शास्त्रों
में उसका
उल्लेख है, न
समाज की
परंपराओं में
उसका पता है।
तुम एक बिलकुल
नए फूल की तरह
खिलते हो। वह
सदा नया है, कुंआरा है।
सदगुण सदा
कुंआरा है; नीति सदा
बासी है।
क्योंकि नीति
दूसरे लोगों ने
सिखाई है, और
सदगुण
तुम्हारे
भीतर
आविर्भूत
होता है। नीति
ऐसी है जैसे
तुम किसी
बच्चे को गोदी
ले लो। कितना
ही लाड़-प्यार
करो, कितना
ही अपने को
समझाओ कि अपना
है, लेकिन
हर समझाने में
ही पता चलता
रहता है कि अपना
नहीं है। और
फिर एक बच्चा
तुम्हारे घर
पैदा होता है,
तुम्हारी
ही कोख से
जन्मता है, तुम्हारी ही
मांस-मज्जा को
लेकर आता है।
तब बात और हो
जाती है; समझाने
की कोई जरूरत
नहीं रहती।
नीति
गोद लिए गए
बच्चे की
भांति है, और
धर्म, धर्म
अपनी ही जीवन
की ऊर्जा से
पैदा हुआ है। और
जब तक तुम
धार्मिक न हो
जाओ तब तक तुम
जीवन का जो
परम आनंद है, वह न जान
पाओगे।
क्योंकि वह
तुमसे ही पैदा
हो तो ही
तुम्हारा
होगा। इसे तुम
कसौटी की तरह
अपने हृदय में
रख लो कि जो
तुमसे पैदा हो
वही तुम्हारा
है; जो
तुमसे पैदा न
हुआ हो, किसी
और ने दिया हो,
वह उधार है।
उधार का कोई
भी अस्तित्व
में मूल्य नहीं
है। तुम धोखा
दे रहे हो।
गोद लेकर तुम
अपने को धोखा
दे रहे हो।
"इसलिए
संसार की सभी
चीजें ताओ की
पूजा करती हैं
और तेह की
प्रशंसा।'
लाओत्से
कहता है, चूंकि
सदगुण धर्म से
पैदा होता है,
भीतर के
स्वभाव से
पैदा होता है,
इसलिए
संसार में सभी
धर्म की पूजा
करते हैं। जब
भी बुद्ध जैसा
व्यक्ति
तुम्हारे बीच
खड़ा हो जाए तो
तुम्हें माथा
झुकाना थोड़े
ही पड़ता है, वह झुकता
है। वह बुद्ध
के होने में
ही छिपा है।
समादर तुमसे
बहने लगता है।
उसके लिए
तुम्हें कोई
चेष्टा नहीं
करनी पड़ती। वह
ऐसे ही बहता
है, जैसे
पानी गङ्ढे
की तरफ बहता
है। वह स्वभाव
है--कि
प्रशंसा, पूजा
सदगुण की तरफ
बहती है।
और उस
सदगुण से पैदा
हुए चरित्र की
एक गहरी प्रशंसा, एक
गीत, एक
गूंज तुममें
छूट जाती है।
जहां भी तुम
देखते हो...।
तुम साधारण
चरित्र की भी
प्रशंसा करते हो
जो कि नकली
है। तुम खोटे
सिक्कों को भी
सम्हाल कर रख
लेते हो, यही
सोच कर कि वे
असली हैं। जब
तुम्हें असली
सिक्का
मिलेगा, जब
तुम किसी असली
सिक्के को
पहचान पाओगे,
जब
तुम्हारी
आंखों की धुंध
हटेगी, तुम्हारा
पीलिया हटेगा,
और तुम जीवन
का वास्तविक
रूप देख पाओगे,
उस दिन तुम्हारे
भीतर जो
प्रशंसा पैदा
होगी चरित्र की
और तुम्हारे
भीतर जो पूजा
पैदा होगी
सदगुण की, उसे
तुम इससे ही
सोच सकते हो
कि नकली चीजें
भी पूजी
जा रही हैं।
नकली
की पूजा ही
इसलिए होती है
कि असली में
कोई पूजा है।
नकली धोखा
क्यों दे पाता
है?
क्योंकि वह
असली की नकल
कर रहा है, वह
काफी दूर तक
असली का ढंग
जाहिर कर रहा
है। इसीलिए तो
तुम पूजा करते
हो। चोर भी, बेईमान भी
ईमानदारी का
सहारा लेता
है। और तुम्हें
झूठ भी बोलना
हो तो तुम्हें
सच बोलने का आभास
पैदा करना
पड़ता है।
बेईमान को भी
पहले ईमानदारी
की हवा अपने
चारों तरफ
पैदा करनी
पड़ती है। अगर
तुम्हें किसी
आदमी को धोखा
देना हो तो
तुम उससे एक
रुपया उधार
मांगते हो, लौटा देते
हो; भरोसा
आ गया। दस
रुपया मांगते
हो, लौटा
देते हो; भरोसा
और बढ़ गया।
फिर हजार रुपए
लेकर चंपत हो जाते
हो। अगर ठीक
से समझो तो
हुआ क्या? तुम्हें
बेईमानी भी
करनी हो तो भी
तुम्हें
ईमानदारी
करनी पड़ती है।
बेईमानी के
पास अपने पैर
नहीं हैं, ईमानदारी
के पैर उधार
लेने पड़ते
हैं। झूठ के पास
अपना प्राण
नहीं है, उसे
भी सच का
प्राण ही लेना
पड़ता है। इससे
सिर्फ एक ही
बात पता चलती
है कि सत्य के
प्रति कोई सहज
पूजा है और
ईमानदारी के
प्रति कोई सहज
आकर्षण है।
तभी तो बेईमान
भी लाभ उठा
लेता है।
"संसार
की सभी चीजें
ताओ की पूजा
करती हैं, तेह
की प्रशंसा।
ताओ पूजित है,
तेह
प्रशंसित।'
धर्म
की पूजा है, चरित्र
की प्रशंसा।
"और
ऐसा अपने आप
है, किसी
के हुक्म से
नहीं।'
यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है। ऐसा
अपने आप है, ऐसा
कोई करवा नहीं
रहा है।
शास्त्रों
में कहा है, गुरु का
समादर। मैं एक
विश्वविद्यालय
में मेहमान
था। और वहां
विश्वविद्यालय
के अध्यापकों
की एक छोटी
गोष्ठी थी। और
जैसा कि
अध्यापकों को
सारे संसार
में एक ही
चिंता है अब
कि विद्यार्थियों
में उनका
सम्मान खो गया
है, उनको
भी चिंता थी।
वह बात उठ गई
कि ऐसा क्यों
हो रहा है कि
विद्यार्थी
क्यों पूजा
नहीं देते? क्यों आदर
नहीं देते? और भारत
जैसे मुल्क
में, जहां
कि हजारों साल
की परंपरा है
गुरु को भगवान
मानने की! तो
वे सभी दोष दे
रहे थे कि कुछ
दोष वर्तमान
समय का, परिस्थितियों
का; विद्यार्थियों
का चरित्र हीन
हो गया।
लेकिन, मैं
सुनता रहा और
हैरान हुआ, किसी ने भी
यह न कहा कि अब
गुरु गुरु
जैसा नहीं है।
शास्त्र में
जो कहा है कि
गुरु को पूजा
मिलती है, वह
कोई आदेश थोड़े
ही है। जब भी
कोई गुरु होता
है तो पूजा
मिलती ही है।
जब न मिलती हो
तो समझ लेना
चाहिए गुरु
वहां नहीं है।
यह सीधी सी
बात है। इसमें
कुछ अड़चन नहीं
है। इसमें
हजार कारण
खोजने की कोई
जरूरत नहीं
है।
शिक्षक
कोई गुरु नहीं
है। वह शिक्षा
का धंधा कर
रहा है। वह
वैसे ही
दुकानदार है
जैसे और दुकानदार
हैं। वह कुछ
बेच रहा है।
ठीक है। और
लोग पैसा देकर
ले रहे हैं।
खत्म हो गई
बात। अब आदर
का और क्या
सवाल है? विद्यार्थी
फीस चुका रहा
है, शिक्षक
पढ़ा रहा है।
कोई आंतरिक
नाता नहीं है।
गुरु है नहीं
वहां, इसलिए
श्रद्धा उठती
नहीं। जब कहीं
गुरु हो, श्रद्धा
अपने आप उठती
है। जैसे
पतिंगा जाता
है प्रकाश की
तरफ भागा हुआ
ऐसे ही गुरु
की तरफ
श्रद्धा जाती
है भागी हुई।
ऐसा
अपने आप है।
यह स्वभाव का
गुणधर्म है।
जैसे सौंदर्य
की तरफ वासना
जगती है; कोई
जगाता है? कोई
आज्ञा देता है?
कोई प्रेसिडेंट
को अधिनियम
बनाना पड़ता है?
राष्ट्रपति
को घोषणा करनी
पड़ती है कि अब
आज से पक्का
कर दिया गया
कि जब भी कोई
सुंदर
व्यक्ति को
देखे तो वासना
से भर जाए, और
जो न भरेगा वह
दंडित किया
जाएगा।
कोई
जरूरत नहीं
है। ऐसा अपने
आप है कि
सुंदर की तरफ
मन आकर्षित
होता है। तुम
कितना ही दबाओ, तुम
कितना ही आंख छिपाओ, तुम्हारे
आंख छिपाने में
भी इसी बात का
पता चलता है।
तुम कितनी ही
आंख बंद करो, आंख बंद
करने में उसी
की ही खबर
मिलती है। सौंदर्य
की तरफ वासना
दौड़ती है; सत्य
की तरफ
श्रद्धा
दौड़ती है; सदगुण
की तरफ पूजा
दौड़ती है। ऐसा
अपने आप है। ऐसा
कोई परमात्मा
नियंता की तरह
बैठा हुआ नहीं
है जो आज्ञा
दे रहा है कि
ऐसा करो, ऐसा
मत करो।
इस
संसार में
आज्ञा है ही
नहीं। तुम परम
स्वतंत्र हो।
लेकिन इस
स्वतंत्रता
में भी कुछ
नियम हैं। वे
स्वतंत्रता
के ही नियम
हैं;
उनसे तुम
परतंत्र नहीं
हो। वे
स्वतंत्रता
का स्वभाव
हैं।
"ऐसा
अपने आप है, किसी के
हुक्म से
नहीं।'
लाओत्से
किसी ईश्वर
में नहीं
मानता है, कि
जो दुनिया को
चला रहा है।
तुम थोड़ा
सोचो। अगर
ईश्वर दुनिया
को चला रहा हो
तो या तो कब का
पागल हो गया
होता, या
कभी का
आत्मघात कर
लिया होता, या कभी का
भाग गया होता
इस दुनिया को
छोड़ कर कहीं
हिमालय--अगर
हो अस्तित्व
में कोई--संन्यासी
हो गया होता।
गृहस्थ भाग
जाते हैं। एक
गृहस्थी काफी
थका देती है।
यह पूरे संसार
की गृहस्थी
कोई चला रहा
हो, तुम
सोच सकते हो।
नहीं, कोई
व्यक्ति नहीं
है जो चला रहा
है। अस्तित्व अपने
से चल रहा है, किसी की
आज्ञा से
नहीं। यह
अस्तित्व का
पूरा होना ही
परमात्मा है;
यहां कोई
व्यक्ति की
तरह बैठा हुआ
नहीं है।
"ताओ
उन्हें जन्म
देता
है--सदगुणों
को--चरित्र, तेह उनका
पालन करता है,
उन्हें बड़ा
करता है, विकास
देता है, आश्रय
देता है, शांति
से रहने की
जगह देता है।'
सदगुण
का जन्म तो
होता है ताओ
में,
फिर विकास,
सुविधा विकास
की, अवकाश,
स्थान
चरित्र देता
है। इसलिए एक
बात खयाल रखना।
जो भी
तुम्हारे
ध्यान में
पैदा हो उसका
तुम रस ही मत
लेना, उसे
जीवन में भी
लाना। उसका रस
लेना खूब गहरा
है, लेकिन
काफी नहीं है।
क्योंकि वह खो
जा सकता है।
तीन
तरह की स्थितियां
हैं साधक के
लिए। एक तो
स्थिति है कि
तुम दूर से
देखते हो
हिमालय के शिखर
को,
हिमाच्छादित।
बादल हट गए
हैं, सुबह
सूरज निकला है,
तुम हजारों
मील दूर से
देखते हो
हिमाच्छादित शिखर
को। देख कर भी
एक शीतलता मन
में छा जाती है;
हृदय
आनंदित, उत्फुल्लित हो जाता है।
एक पुकार मच
जाती है और
पास जाने की।
लेकिन इसको
तुम सब कुछ मत
समझ लेना। तुम
यहीं मत बैठ
जाना। यह
सिर्फ झलक है।
यह पहली समाधि
है--झलक।
यहूदी
फकीर झुसिया
के संबंध में
एक कथा है। एक
दिन अपने
शिष्यों के
साथ बैठा था।
अचानक उठा और
एक शिष्य को
हाथ पकड़ कर
खिड़की के पास
ले गया और कहा
कि देख! शिष्य
ने खिड़की के
बाहर देखा।
चांद की रात
थी,
पूरे चांद
की रात। बड़ी
शांत, स्निग्ध
रात्रि थी।
बड़ा नीरव
संगीत छाया
था। सब चुप था।
और गुरु ने
इतने जोर से
कहा कि देख कि
उस कहने में
विचार की
प्रक्रिया
बंद हो गई।
उसने गौर से
देखा कि क्या
मामला है? ऐसा
तो कभी झुसिया
ने किया नहीं।
देखा और तब
उसे याद आया, विचार एक
क्षण को रुक
गए। उस क्षण
में एक अपरिसीम
सौंदर्य
प्रकट हुआ। वह
घुटने टेक कर गुरु
के चरणों में
सिर रख दिया, रोने लगा, और कहा कि जो
आज देखा है वह
कब मेरा जीवन
बन पाएगा? कितने
जन्म लगेंगे?
झलक
जीवन नहीं है; झलक
से स्वाद जग
जाएगा। लेकिन
उसे तुम काफी
मत समझ लेना।
ध्यान के रस
में डूब मत
जाना। ध्यान
का रस झलक है, उसे आचरण
में सम्हालना,
जड़ें देना,
जगह बनाना,
उसको
फैलाना।
जैसे-जैसे तुम
फैलाओगे,
झलक बदलने
लगेगी।
तब एक
दूसरी अवस्था
है,
कि एक आदमी गौरीशंकर
पर पहुंच गया।
अब वह वहीं
बैठा है जहां
परम सौंदर्य
है; उसके
बीच में बैठा
है। लेकिन यह
भी अंत नहीं है।
अभी भी गिरना
हो सकता है।
अभी भी लौट सकता
है। अभी लौटने
का उपाय है।
जिन पैरों से
आया है वे ही
वापस ले जा
सकते हैं। जिस
मन से यहां तक
आ गया है उसी
मन से वापस भी
लौट सकता है।
सीढ़ी लगी है।
फिर एक
तीसरी अवस्था
है,
यह भी काफी
नहीं है: जब वह
व्यक्ति
स्वयं हिम का
शिखर हो गया।
एक सत्य की
झलक, दूसरा
सत्य का अनुभव,
और तीसरा
सत्य के साथ
एक हो जाना।
बस तीसरे को लक्ष्य
रखना। उसके
बाद फिर लौटना
नहीं है। क्योंकि
कोई बचा नहीं
जो लौट सके।
सीढ़ी गिर गई; सीढ़ी पर चढ़ने
वाला ही खो
गया। यह
प्वाइंट ऑफ नो
रिटर्न है; अब यहां से
कोई वापस नहीं
लौटता।
ध्यान
में पहले झलक
मिलती है
स्वभाव की। उस
स्वभाव को तुम
काफी मत समझ
लेना। बहुत
वहां रुक जाते
हैं। समझ लेते
हैं मंजिल आ
गई;
पड़ाव बना लेते
हैं; वहीं
डेरा-डंगर डाल
देते हैं। वह
काफी नहीं है।
सुखद है, उसका
स्वाद लेना।
और उसे आचरण
में ढालना।
अगर स्वभाव
में उतर कर
प्रेम की झलक
मिली हो तो अब
आचरण में
प्रेम को
लाना। अगर
स्वभाव में
शांति की झलक
मिली हो तो अब
आचरण में
शांति को
लाना।
उठते-बैठते, बाजार में, दुकान पर
काम करते भी
उस शांति को
सम्हालना। वह
खो न जाए। वह
तुम्हारा
कृत्य भी बने,
तो मजबूत
होगा। अगर
तुमने, जो
तुमने झलक
देखी, उसको
आचरण बना लिया
तो तुम दूसरी
घटना के लिए
तैयार हो गए।
तुम अब सत्य
का पूरा अनुभव
कर सकोगे। और
जब सत्य का
तुम्हें
अनुभव होगा तब
सत्य के अनुभव
के कुछ अलग
गुण हैं:
करुणा, अहोभाव,
एक सदा
अकारण आनंदित
रहना, एक्सटैसी। अब उसको
आचरण में
लाना। सदा
आनंदित रहना।
चाहे अच्छा हो
चाहे बुरा, चाहे हानि
हो चाहे लाभ, चाहे सफलता
चाहे असफलता,
तुम्हारा
आनंद खंडित न
हो। जब
तुम्हारे
आचरण में आनंद
प्रगाढ़
हो जाएगा, करुणा
सघन हो जाएगी,
तब तुम
तीसरे के
योग्य हो
जाओगे। और जब
तीसरे के कोई
योग्य हो जाता
है तो उसके
आचरण को ही हम ब्रह्मचर्य
कहते हैं।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है:
ब्रह्म जैसा
आचरण, ब्रह्म
जैसी चर्या।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ सेलीबेसी
से जरा भी
नहीं है। वह
तो उसका एक
अंग मात्र है,
छोटा सा, क्षुद्र अंग
है। क्योंकि
उसके जीवन से
वासना खो जाती
है, कामवासना
खो जाती है।
और उसका सारा
जीवन ब्रह्मचर्य,
ब्रह्म
जैसी चर्या का
हो जाता है।
वह इस पृथ्वी
पर एक ईश्वर
जैसा है--एक
बुद्ध, कृष्ण,
क्राइस्ट।
वह एक अवतार
है, तीर्थंकर
है। वह
परमात्मा है।
अब उसके व्यवहार
में सारी
मनुष्यता खो
गई। वह आखिरी
शिखर है। जब
तुम गौरीशंकर
ही हो गए। अब
कोई लौटना न
हो सकेगा।
"यह उन्हें
जन्म देता है,
और उन पर
स्वामित्व
नहीं करता।'
ये
भीतर के कुछ
गुप्त रहस्य, जो
साधक के लिए
परम उपयोगी
हैं। जन्म तो
ताओ से होता
है, स्वभाव
से होता है, लेकिन उन पर
स्वामित्व
नहीं करता, मालकियत
नहीं करता। और
इसलिए कई बार
तुम चूक जा
सकते हो।
क्योंकि भीतर
तुम जो भी
पाओगे, अगर
तुमने न
सम्हाला, तो
जहां से पैदा
हुआ है वह
स्रोत आग्रह
नहीं करेगा
सम्हालने का।
वह तुम्हें दबाएगा
नहीं कि करो
ऐसा। कोई दबाव
नहीं है भीतर।
स्वभाव परम
स्वतंत्रता
है। वह
तुम्हें दिखाएगा,
लेकिन कोड़ा
नहीं उठाएगा
कि चलो! इशारा
करेगा, लेकिन
इशारा परोक्ष
होगा। समझा तो
समझा, नहीं
तो चूक गए।
सीधे-सीधे
आज्ञा नहीं
देगा। क्योंकि
सीधी आज्ञा
हिंसा है। और
स्वभाव में कोई
हिंसा नहीं हो
सकती। वह
तुम्हें भला
बनाने की
कोशिश भी नहीं
करेगा, क्योंकि
सब कोशिश
जबरदस्ती है।
भला बनाने की कोशिश
भी जबरदस्ती
है। इसलिए अगर
तुम न सम्हले
तो तुम्हारे
हाथ में है
बात।
स्वभाव
से रोशनी
मिलेगी; रोशनी
लेकर चलना
तुम्हें है।
जहां भी तुम
चलोगे, रोशनी
तुम्हें
प्रकट कर
देगी। लेकिन
रोशनी यह न
कहेगी कि
अंधेरे में मत
जाओ, गलत
जगह पर मत जाओ,
सांप-बिच्छू
हैं वहां मत
जाओ। रोशनी
कुछ न कहेगी।
रोशनी तो तुम
जहां जाओगे
वहीं जो भी है
प्रकट कर
देगी। रोशनी
आदेश नहीं है।
और तुम्हारी
अगर सारी
जिंदगी आदेश
पर बनी हो, कि
तुम सदा सुनते
रहे हो कि कोई
बताए, यह
करो, यह मत
करो, तो
तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे। तो तुम
चूक ही जाओगे।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
ध्यान रखना,
"यह उन्हें
जन्म देता है,
पर उन पर
स्वामित्व
नहीं करता। यह
सहायता करता
है, पर
उन्हें
अधिकृत नहीं
करता।'
सहायता
पूरी मिलेगी, लेकिन
तुम्हारी
मालकियत को
जरा भी न छुआ
जाएगा।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
पर कोई बाधा न
डाली जाएगी।
तुम चाहो तो
लौट सकते हो
विपरीत, तुम्हें
हाथ पकड़ कर
प्रकाश भीतर
का रोकेगा नहीं
कि मत जाओ।
कुछ भी न
कहेगा।
"श्रेष्ठ
है...।'
यह
भीतर की जो
प्रतीति है, परम
श्रेष्ठ है।
"पर
नियंत्रण
नहीं करता।'
तुम्हें
कंट्रोल नहीं
करेगा।
"यही
है रहस्यमय
सदगुण।'
सदगुण
का जन्म
स्वभाव में; चरित्र
में पालन, और
बिना किसी
आग्रह के, न
कोई दंड, न
कोई
पुरस्कार।
वहां कोई
पावलफ नहीं है,
कोई कनफ्यूशियस
नहीं है। वहां
पावलफ और कनफ्यूशियस
पहुंच ही नहीं
पाए। और
इसीलिए तो कनफ्यूशियस
घबड़ा गया
लाओत्से से
मिल कर, डर
गया। क्योंकि
वह तो
नीति-नियम
वाला आदमी है,
मर्यादा
वाला आदमी है।
और ये बातें
तो बड़ी खतरनाक
हैं कि भीतर से
लो अपना आदेश;
मत सुनो
शास्त्र की, मत सुनो
परंपरा की, मत सुनो
समाज की; सुनो
अपने भीतर के
स्वर की।
कनफ्यूशियस डर
गया,
क्योंकि
उसने कभी भीतर
का स्वर सुना
नहीं। वह तो
एक ही बात
जानता है कि
अगर बाहर से
नियंत्रण न किया
गया तो आदमी
पशु हो जाएगा।
आदमी आदमी बनाया
है बाहर के
सहारे लगा कर।
तुम्हें
कितनी बैसाखियां
लगी हैं चारों
तरफ से; उसी
से तुम आदमी
हो। ऐसा कनफ्यूशियस
का खयाल है।
और सब तरफ से हथकड़ी
डाली है, इसलिए
तुम आदमी हो।
अगर तुम्हारी
जरा हथकड़ी
छोड़ दी तो तुम
खतरनाक हो। और
लाओत्से कहता
है, परम
स्वतंत्रता, यही सदगुण
की रहस्यमयता
है।
जब कनफ्यूशियस
वापस लौटा, उसके
शिष्यों ने
पूछा, क्या
हुआ? तो कनफ्यूशियस
ने कहा, भूल
कर इस आदमी के
पास मत जाना।
तुमने जंगली जानवर
देखे होंगे, लेकिन उनमें
इतना खतरा
नहीं है। शेर,
सिंह कोई
इतने खतरनाक
नहीं हैं। चीन
में एक आकाश
में उड़ने
वाले अजगर की पुराणकथा
है, जो
कहीं पाया
नहीं जाता, सिर्फ
पौराणिक है।
तो कनफ्यूशियस
ने कहा, इस
आदमी के संबंध
में सोचता हूं
तो ऐसा लगता है,
यही है वह
आकाश में उड़ने
वाला अजगर।
तुम इसकी छाया
से बचना।
क्योंकि यह
आदमी जगत में
अराजकता ला
देगा।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, यही
आदमी जगत में
व्यवस्था ला
सकता है। और
अब तक नहीं
सुनी गई है
इसकी बात, इसलिए
जगत में
अराजकता है। कनफ्यूशियस
की काफी सुन
ली गई।
नियंत्रण
बहुत किया जा
चुका और आदमी
के जीवन में
कोई क्रांति
नहीं घटती, कोई रोशनी
नहीं आती, कोई
आनंद नहीं
प्रकट होता, और आदमी
वहीं के वहीं
बना रहता है
जहां था।
लेकिन
इसका अनुशासन
दूसरे तरह का
है। ऊपर से कोई
देखेगा तो
डरेगा। इसका
अनुशासन
ध्यान का अनुशासन
है,
चरित्र का
नहीं। इसका
अनुशासन भीतर
से जन्मता है
और बाहर की
तरफ फैलता है।
जैसे हम एक
पत्थर फेंकते
हैं झील में, लहरें पैदा
होती हैं
पत्थर के पास,
और फैलती
चली जाती हैं।
ऐसे ही तुम जब
अपने को भीतर
की चेतना में
फेंकोगे--वही
ध्यान है--तब उस
झील में, भीतर
की झील में, जो तुम्हारे
चारों तरफ
फैली है और
तुम्हारे भीतर
भी छिपी है, जिसका नाम
परमात्मा है,
उस झील में
लहरें उठेंगी
अनंत और वे
तुम्हारे
चारों तरफ
फैलती जाएंगी।
वह तुम्हारा
चरित्र है।
ताओ है
झील,
तेह है
उसमें उठी
लहरें। तुम
ध्यान में
गहरे जाना।
जितने गहरे
जाओगे उतना ही
एक नया अनुशासन
पैदा होगा जो
तुम्हारे
भीतर से ही
आता है। और न
तो उसमें कोई
नियंत्रण है,
न कोई
कारागृह है, न कोई दंड है,
न कोई
स्वर्ग-नरक का
भय और प्रलोभन
है। और उस सदगुण
की पूजा सहज
ही शुरू हो
जाती है। ऐसा
स्वभाव है।
ऐसा किसी की
आज्ञा से नहीं
होता, ऐसा
अपने आप होता
है।
आज
इतना ही।
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