अध्याय
52
परम
की चोरी
ब्रह्मांड
का एक आदि था,
जिसे
ब्रह्मांड की
माता माना जा
सकता है।
माता
से हम उसके
पुत्रों को
जान सकते हैं।
पुत्रों
को जान कर, माता
से जुड़े रहो;
इस
प्रकार
व्यक्ति का
पूरा जीवन
हानि से बचाया
जा सकता है।
उसके
छिद्रों को भर
दो,
उसके
द्वारों को
बंद करो,
और
व्यक्ति का
पूरा जीवन
श्रम-मुक्त हो
जाता है।
उसके
छिद्रों को
खुला छोड़ दो, उसके
कारोबार में
व्यस्त रहो,
और
फिर आजीवन
मुक्ति का कोई
उपाय नहीं है।
जो
लघु को देख
सके, वह
स्पष्ट
दृष्टि वाला
है;
जो
कुलीनता के
साथ जीता है, वह
बलवान है।
प्रकाश
को काम में
लाओ, और
स्पष्ट
दृष्टि को
पुनः प्राप्त
करो।
इस
प्रकार अपने
को बाद में
आने वाली पीड़ा
से बचा सकते
हो।
-- इसे
ही परम में
विश्राम करना
कहते हैं।
लाओत्से
को चोरी का
प्रतीक बहुत
प्रिय है। इस
प्रतीक को थोड़ा
हम समझ लें, फिर
सूत्र में
प्रवेश करें।
सूफी
फकीर हुआ
जुन्नैद। वह
एक गांव से
गुजरता था। और
गांव के काजी
ने एक चोर को
आजीवन कारावास
की सजा सुनाई
थी।
गांव का
काजी जुन्नैद
का भक्त था।
खबर सुन कर
जुन्नैद
अदालत गया और
काजी से बड़ी
प्रार्थना की
कि इस आदमी को
छोड़ दो; कितना
ही बड़ा पाप हो,
लेकिन पूरा
जीवन इसका
नष्ट न करो।
और अभी यह जवान
है, शायद
सुधर जाए।
काजी ने चोर
को क्षमा कर
दिया।
चोर को
अदालत के बाहर
लेकर जुन्नैद
निकला और उस
चोर से कहा कि
अब बहुत हो
गया,
अब सम्हलो,
अब चोरी बंद
करो। और जीवन
बचाया है तो
इसीलिए मैंने
कि तुम्हारे
जीवन में अब
प्रार्थना और परमात्मा
का जन्म हो।
उस चोर ने कहा,
क्यों करूं
बंद चोरी? एक
बार असफल हुए
तो क्या सदा
असफल होते
रहेंगे? और
जीवन मिला है
तो एक बार
प्रयास करना
और जरूरी है।
वे दिन
जुन्नैद के
जीवन में बड़ी
कठिनाई के दिन
थे। और वह बड़े
संकट से गुजर
रहा था।
वर्षों से खोज
रहा था परमात्मा
को,
और उस सुबह
ही उसने यह तय
किया था कि अब
बहुत हो गया; नहीं मिलता,
होगा ही
नहीं। चोर की
यह बात सुन कर
जुन्नैद आंख
बंद करके वहीं
बीच रास्ते पर
खड़ा हो गया और उसने
सोचा, एक
चोर भी कहता
है कि जीवन
मिला है तो एक
प्रयास और। अब
तक असफल हुए, लेकिन आगे
भी होंगे इसका
क्या पक्का
है! सफलता
संभव है।
भविष्य सदा
खुला है। मौके
का और उपयोग
कर लेना जरूरी
है। जुन्नैद
ने आंखें खोलीं,
चोर को कहा,
धन्यवाद! और
अपने रास्ते
पर चलने लगा।
चोर ने
कहा,
रुको! किस
बात का
धन्यवाद? जुन्नैद
ने कहा, मैं
भी उस घड़ी में
आ गया था, जहां
हताशा मन को
पकड़ ली थी। और
सोचता था, छोड़
दूं यह प्रयास;
न कोई
परमात्मा है,
न कोई
मोक्ष। बहुत
हो गया। खोज
लिया बहुत, कुछ हाथ न
आया। संसार भी
गंवा रहा हूं,
शक्ति भी खो
रहा हूं, जीवन
हाथ से जा रहा
है, और
उसकी कोई खबर
नहीं मिलती।
लेकिन तूने
मेरी हिम्मत
जगा दी। और जब
एक चोर भी
चोरी छोड़ने को
राजी नहीं है,
क्योंकि एक
अवसर और मिला
है, इसका
उपयोग करना
चाहता है, तो
अभी मेरे पास
भी जीवन है और
मैं भी तब तक
उपयोग करूंगा
जब तक कि
आखिरी क्षण
बचता है। तू
मेरा गुरु है।
धन्यवाद!
जब जुन्नैद
ज्ञान को
उपलब्ध हुआ
कोई बीस वर्ष
बाद इस घटना
के तो उसके
शिष्यों ने
पूछा, कौन है
तुम्हारा
गुरु? किसकी
कृपा से? तो
उसने उस चोर
का स्मरण
किया। और
जुन्नैद ने कहा,
परमात्मा
को पाना भी
चोरी है। और
चोर की तरह ही
सतत हिम्मत
चाहिए--अंधेरे
में चलने की, अंधेरी रात
में यात्रा
करने की। खतरा
वहां चोर जैसा
ही है। मिले न
मिले, कुछ
पक्का नहीं
है। जीवन खो
जाए और न
मिले। आजीवन
कारावास हो
जाए, फांसी
लगे, और
कोई संपदा हाथ
न लगे। चोर
जैसे ही
हिम्मतवर
लोगों का काम
है। दूसरे के
घर में ऐसे
चलना है जैसे
अपना हो--रात
अंधेरे में।
यह संसार
दूसरे का घर
है, जुन्नैद
ने कहा, यह
अपना घर नहीं
है। और यहां
हिम्मत बनाए
रखनी है। और
अंधेरा हताशा
न बन जाए, असफलता
गहरी न बैठ
पाए। आशा को
जगाए रखना
है--आज नहीं तो
कल होगा; कल
नहीं तो परसों
होगा; होकर
रहेगा। यह बात
कभी टूटे न मन
से, यह
धागा कभी छूटे
न। तो उस चोर
ने ही मुझे
बचाया। उस दिन
तो मैंने तय
कर लिया था:
लौट जाऊं
संसार में
वापस।
लाओत्से
को भी चोरी
शब्द बड़ा
प्रिय है।
हिंदुओं ने भी, जिन्होंने
भी खोज की है
कभी, चोरी
शब्द का कहीं
न कहीं प्रयोग
किया है। हिंदुओं
ने तो
परमात्मा का
एक नाम, हरि,
चोरी के
कारण ही चुना
है। हरि का
मतलब है जो हर
ले, चुरा
ले। हरि का
मतलब है चोर, परम चोर।
उसने तुम्हें
चुरा लिया है।
और जब तक तुम
उसे न चुरा लो
तब तक यात्रा
अधूरी है। जैसे
उसने तुम्हें
चुरा लिया है,
जैसे उसने
एक दांव खेला
है, ऐसा ही
तुम्हें भी
जवाब देना है।
तुम जब तक उसे
न चुरा लोगे
तब तक तुम
हारी बाजी हो।
इसलिए हिंदू
परमात्मा को
हरि कहते हैं।
लाओत्से
कहता है, उस
परम सत्य को
भी चुराना है।
क्यों चुराना
है? क्योंकि
है तो वह
हमारे हृदय का
हृदय, लेकिन
हमसे बहुत दूर
पड़ गया है।
अपना ही है, लेकिन इतना
पराया हो गया
है कि अब उसे
पाने की कोशिश
चोरी ही कही
जाएगी। तुमने
ही उसे इतना पराया
कर दिया है, इतना दूर कर
दिया है। अपनी
ही संपदा है, लेकिन फासला
तुमने इतना कर
लिया है कि अब
उसे भी पाने
के लिए
तुम्हें
करीब-करीब चोर
की हालत से
गुजरना पड़ेगा।
तुम उसे पूरा
गंवा चुके हो,
तुम उसे
पूरा खो चुके
हो। अब फिर से
पाने जाओगे।
तुम्हारा कोई
दावा नहीं रह
गया है; तुम्हारी
मालकियत कभी
की समाप्त हो
गई है। तभी तो
तुम भिखारी की
तरह भटक रहे
हो। यह भिखारी
अब सम्राट फिर
बनना चाहे तो
करीब-करीब
चोरी की हालत
है। क्योंकि
साम्राज्य तो
कभी का उसका
नहीं रहा है।
न मालूम अतीत
के किन क्षणों
में, किन
जन्मों में, तुम उसे
गंवा दिए हो।
फिर से पाना
है, फिर से
दावा करना है।
वह दावा चोर
जैसा ही दावा
है। और चोर
जैसा ही
प्रयास है।
अंधेरे में टटोलना
है; रोशनी
अभी है नहीं।
रोशनी को धीरे-धीरे
निर्मित करना
है। और दूसरों
को पता न लगे।
क्योंकि
दूसरों को पता
लग जाए तो भी
बाधा पड़ जाती
है। इसलिए
चोरी जैसा है।
सूफी
कहते हैं कि
तुम जब
प्रार्थना
करो तो रात के
गहन अंधकार
में,
जब
तुम्हारे
बच्चे और
तुम्हारी
पत्नी भी सो गई
हो तब करना।
क्यों? क्योंकि
किसी को पता
चल जाए कि तुम
प्रार्थना कर
रहे हो, इससे
हर्जा नहीं है;
लेकिन किसी
को यह पता चल
जाए कि तुम
प्रार्थना कर
रहे हो, इससे
तुम्हें रस
पैदा होता है
और तुम्हारा
अहंकार
निर्मित होता
है। तब तुम, किसी को पता
चले, इसीलिए
प्रार्थना
करने लगते हो।
तब परमात्मा
की खोज तो दूर
रह जाती है, प्रार्थना
भी अहंकार की
पुष्टि बन
जाती है। लोग
जानें कि तुम
साधक हो, लोग
जानें कि तुम
खोजी हो, लोग
जानें कि तुम
परमात्मा की
यात्रा पर
निकले हो--यह
जो तुम्हारी
चेष्टा है, यह चेष्टा
ही बाधा बन
जाएगी।
जीसस
ने कहा है, तुम
बाएं हाथ से दो
तो तुम्हारे
दाएं हाथ को
खबर न लगे।
तुम दान करो
तो पता न चले, तुम पुण्य
करो तो पता न
चले; तुम्हीं
को पता न चले, कानों-कान
खबर न हो।
देना और भूल
जाना।
सूफी
कहते हैं, नेकी
कर और कुएं
में डाल।
अच्छा किया और
कुएं में डाल
दिया। उसको घर
मत ले आना।
उसको हृदय में
मत रख लेना कि
मैंने अच्छा
किया, कि
मैंने पूजा की,
कि
प्रार्थना की,
कि पुण्य
किया, कि
दान किया, सेवा
की। अगर
तुम्हारा
कर्ता आ गया
तो तुमने गंवा
दिया; पाया
कुछ भी नहीं।
तो दूसरे को
पता न चले।
क्योंकि
दूसरे की
आंखों में
अपनी झलक देख
कर तुम्हारा
अहंकार बड़ा होता
है।
चोरी
का काम है, चुपचाप
निबटा लेना
है। कानों-कान
खबर न हो। जब
सब सोए हों--और
सब सोए हैं--तब
किसी की नींद
न टूटे, ऐसे
चुपचाप निबटा
लेना है काम
को। इसलिए
चोरी जैसा
कृत्य है, और
बड़ा सम्हल कर
करना होगा।
चोर को बड़े
सम्हल कर चलना
पड़ता है।
तुमने
कभी देखा नहीं, तुमने
कभी सोचा भी
नहीं; चोर
को तुमने कभी
उसकी पूरी
महिमा भी नहीं
दी, तुम
सिर्फ निंदा
ही करते रहे
हो। अपने ही
घर में तुम
चलते हो तो
टेबल-कुर्सी
से टकरा जाते
हो--दिन के
उजाले में।
हाथ से बर्तन
छूट जाता है--दिन
के उजाले में,
भरे होश
में। चोर
दूसरे के घर
में चलता है, जहां के
रास्ते उसे
पता नहीं, कमरों
के द्वार पता
नहीं। रात के
अंधेरे में चलता
है, जरा भी
आवाज नहीं
होती, आहट
नहीं होती; कोई चीज
टकराती नहीं।
दीवारें तोड़
लेता है, और
घर के लोग मजे
से घुर्राते
रहते हैं, सोये
रहते हैं--प्रगाढ़
निद्रा में।
बिना रोशनी जलाए खजाने
खोज लेता है।
तुमने खुद भी गड़ाया हो
अपना खजाना तो
भी खोदने में
बड़ा शोरगुल मचेगा; उसने
गड़ाया भी
नहीं है।
दूसरे के मन
और दूसरे की
चेतना के नियमों
को समझ कर, कहां
गड़ाया
गया होगा, कैसे
गड़ाया
गया होगा, चुपचाप
सब निबटा लेता
है। तुम सोए
ही रहते हो, और चोरी हो
जाती है। चोर
को बड़ी सजगता
रखनी पड़ती है,
बड़ा होश
रखना पड़ता है।
जिसको
अवेयरनेस, सम्यक
बोध कहा है, वह चोर को
रखना पड़ता है।
ऐसा
हुआ एक बार कि
एक चोर एक झेन
फकीर के पास
गया। झेन फकीर
बड़ा प्रसिद्ध
फकीर था, लिंची।
और चोर ने कहा
कि मुझे ध्यान
सिखाएं। लिंची
को पता भी
नहीं कि वह
कौन है। लेकिन
लिंची ने कहा,
ध्यान? ध्यान
तू जानता है; तेरी हवा
में ध्यान है।
तुझे देख कर
लगता है, तू
मुझे धोखा
देने की कोशिश
मत कर, तूने
ध्यान पहले
सीखा है। उस
आदमी ने कहा
कि आप भ्रांति
में पड़ गए हैं
और आपको मैं
गलत कहूं, यह
उचित नहीं।
लेकिन ध्यान
से मेरा क्या
नाता? आप
मुझे जानते
नहीं हैं; ध्यान
मैंने कभी
नहीं किया।
लिंची
विचार में पड़
गया। उसने
आंखें बंद कीं, बहुत
खोजा। उसने
कहा कि तूने
जरूर कुछ न
कुछ किया है।
तू तलवार
चलाना जानता
है?
क्योंकि
झेन फकीर
तलवार के
माध्यम से भी
ध्यान करवाते
हैं। तलवार का
खेल ध्यान का
खेल है। क्योंकि
रत्ती तुम
चूके होश कि
गए। दूसरा
तलवार उठाए, इसके
पहले बचाव हो
जाना चाहिए।
दूसरा वार करे,
इसके पहले
तैयारी हो
जानी चाहिए।
बड़ी सजगता चाहिए।
और जरा सा
फासला नहीं है
समय का, तलवार
सामने खड़ी है।
तो तलवार के
माध्यम से
ध्यान का
जापान में बड़ा
प्रयोग किया
गया है।
तो तू
तलवार चलाना
जानता है?
नहीं, मेरा
काम ऐसा नहीं,
उसमें
तलवार की
जरूरत नहीं।
मेरा कोई नाता
नहीं है।
तो तू
क्या करता है? लिंची
ने पूछा फिर; क्योंकि मैं
यह समझ ही
नहीं पा रहा
हूं। और मेरी
भूल कभी नहीं
हुई आज तक
जीवन में। मैं
भलीभांति
पहचान सकता
हूं कि ध्यान
की आभा क्या
है। और तेरे
चारों तरफ
ध्यान का मंडल
है।
वह
आदमी रोने
लगा। उसने कहा
कि जरूर कोई
भूल हो रही है; जीवन
भर न किए हों, लेकिन इस
बार हो रही
है। मैं एक
साधारण चोर हूं।
अब मत वह बात
उठाएं, उससे
मन में ग्लानि
उठती है।
लिंची
हंसने लगा।
उसने कहा, बात
साफ हो गई; मैं
गलती में नहीं
हूं। क्योंकि
चोर को ध्यान तो
साधना ही पड़ता
है। पर तू
साधारण चोर
नहीं है, मास्टर
थीफ। तू
बड़ा असाधारण,
असाधारण
चोर है। और तू
मुझसे क्या
सीखने आया है?
जो तूने
चोरी में जाना
है उसको ही तू
जीवन में उतार
ले। जितनी
सजगता से तूने
चोरी की है
उतनी सजगता से
और काम भी कर।
बस, हल हो
जाएगा। सूत्र
तुझे मिल गया
है; तुझे
खबर नहीं है।
तेरे पास क्या
है उसका तुझे
पता नहीं है।
जितनी सजगता
से दूसरे के
घर रात के
अंधेरे में
पैर उठाता था,
श्वास लेता
था...।
श्वास
भी चोर जोर से
नहीं ले सकता
दूसरे के घर में; उसको
प्राणायाम
साधना होता
है। और तुम
जानते हो, जब
भी तुम कभी
ऐसा कोई काम
कर रहे हो
जिसमें घबड़ाहट
होती है तो
श्वास ज्यादा
हो जाती है।
और चोर को
श्वास साधनी
पड़ती है कि वह
ज्यादा न हो
जाए, एक
लयबद्धता
रहे। श्वास का
भी पता न चले। खांसता
नहीं चोर, खखारता
नहीं चोर।
तुम्हें पता
है कि
संन्यासी भी
ध्यान करने
बैठता है तो
खांसी आ जाती
है तो नहीं रोक
पाता, लेकिन
चोर को तो
रोकना ही
पड़ेगा।
क्योंकि खांस
दे तो सब बात
ही खराब हो
गई। कैसा
सम्यक! काम गलत
है, लेकिन
काम करने की जो
प्रक्रिया है
उसमें होश तो
रखना ही
पड़ेगा।
लाओत्से
को भी बड़ा
प्रिय है चोर
का प्रतीक। और
लाओत्से कहता
है,
उस
परमात्मा को
चुराना है; चोर की तरह
अंधेरे में
चलना है दूसरे
के घर में। यह
दुनिया पूरा
दूसरे का घर
है, अपना
यहां कुछ भी
नहीं। यहां हर
जगह संभावना है
टकराने की, यहां हर जगह
कलह, संघर्ष
की। उस संघर्ष
से बचना है, कलह से बचना
है। यहां हर
जगह संभावना
है भटक जाने
की, क्योंकि
अंधेरा है
घना। उस भटकाव
से बचना है, और एक ऐसे
ढंग से चलना
है कि अंधेरे
में भी दिखाई
पड़ने लगे। चोर
को धीरे-धीरे
अंधेरे में
दिखाई पड़ने लगता
है।
तुम भी
अगर अंधेरे
में थोड़े दिन
बैठ कर शांत देखने
की कोशिश करो
तो तुम पाओगे, जैसे-जैसे
तुम्हारी
कोशिश गहन
होती है
वैसे-वैसे
तुम्हें
हलकी-हलकी
प्रतीति होने
लगती है।
क्योंकि कोई
अंधकार
अंधकार नहीं
है; सभी
अंधकार
प्रकाश के रूप
हैं। जिसको हम
अंधकार कहते हैं
उसको अगर हम
ठीक से कहें, वैज्ञानिक
भाषा में कहें,
आइंस्टीन
से पूछ कर
कहें, तो
हम कहेंगे, वह कम
प्रकाश है।
सापेक्ष।
अंधकार कहना
उचित नहीं है;
थोड़ा कम
प्रकाश।
क्योंकि उस
अंधेरे में भी
बिल्ली देखती
है। बिल्ली की
आंखें ज्यादा
सचेत हैं। अगर
तुम कभी
बिल्ली की
आंखों में
देखो तो
तुम्हें बहुत
बेचैनी मालूम
पड़ेगी।
इसीलिए तो
बिल्ली शैतान
का प्रतीक हो
गई। बहुत सचेत
है। और इसीलिए
तो बिल्ली को,
जो लोग भी
काली
विद्याओं में
यात्रा करते
हैं, बिल्ली
उनकी साथी हो
गई। अंधेरे
में देख सकती है,
यह उसकी बड़ी
गहन कला है।
और
बिल्ली को
तुमने कभी
चलते देखा? बस
चोर भी वैसे
ही चलता है।
जब बिल्ली
चूहे को पकड़ने
जाती है तब
उसे देखो, चोर
भी वैसे ही
चलता है, आवाज
भी नहीं होती।
और जब चोर
संपत्ति के
करीब पहुंचता
है, दूसरे
की संपत्ति के,
तब वह वैसी
ही हालत में
सजग होता है
जैसे बिल्ली
चूहे के छेद
के पास बैठी
रहती है। जरा
भी पता नहीं
चलता कि वह
है। हलकी
थिरकन भी नहीं
करती, लेकिन
तैयार ऐसी कि
ओलंपिक में
दौड़ने के लिए
जो प्रतियोगी
खड़े होते हैं
वे भी इतने
तैयार नहीं।
चूहा निकला
नहीं कि वह
झपटी नहीं, लेकिन झपट
में भी आवाज
नहीं होती।
दूसरे चूहों
को भी पता
नहीं चल पाता
कि एक चूहा
पकड़ा गया है, नहीं तो वे
निकलना बंद कर
देंगे।
बिल्ली
की नींद तुमने
देखी? गहन
निद्रा में
लीन होती है; हो सकता है
कोई गहरा सपना
देख रही हो; मूंछों को चाटती है,
हो सकता है
सपने में चूहा
खा रही हो; बड़ी
गहरी नींद में
लीन है। लेकिन
जरा सी खटक, चूहे का
चलना-हिलना, आंख खुल गई।
योगी की
निद्रा
बिल्ली जैसी
होनी चाहिए।
और बिल्ली
चोरों में चोर
है। बिल्ली, जानवरों में
वैसा कोई
दूसरा चोर
नहीं जैसा बिल्ली।
चुरा कर ही
जीती है; सारा
धंधा ही चोरी
का है।
स्मरण
रहे कि सारा
संसार पराया
है,
दूसरे का घर
है। सब तरफ
अंधेरा है।
लेकिन अगर तुम
थोड़ी अपनी
दृष्टि को
जमाना सीख
जाओ--और
दृष्टि के जमाने
के अतिरिक्त
ध्यान क्या
है--अगर
तुम्हारी दृष्टि
थोड़ी थिर होने
लगे, तो यह
अंधकार
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
कम अंधकार होता
जाता है और
इसमें प्रकाश
का आविर्भाव
हो जाता है।
और एक घड़ी ऐसी
आती है कि जब
तुम्हारा
ध्यान पूरी तरह
थिर हो जाता
है तो अंधकार
बचता ही नहीं।
तुम्हारे
भीतर का दीया
जल उठता है; उस दीए की
रोशनी चारों
तरफ पड़ने लगती
है। और जब तक
तुम ऐसी
अंतर-ज्योति
को उपलब्ध न
हो जाओ तब तक
परमात्मा की
चोरी नहीं हो
सकती। इसलिए
चोर का प्रतीक
है।
दूसरी
बात सूत्र के
पहले। तुमने
कहावत सुनी है
कि वृक्ष को
जानना हो तो
फल से जाना
जाता है। हम
सभी कहते हैं
कि बेटे से
बाप की परख हो
जाती है।
लेकिन
लाओत्से ठीक
उलटी बात कहता
है। वह कहता
है,
फल को जानना
हो तो वृक्ष
से जाना जाता
है, और
बेटे को जानना
हो तो बाप को
या मां को
पहचानना
जरूरी है।
साधारण
कहावत ठीक है।
लेकिन साधारण
कहावत साधारण
लोगों ने
निर्मित की
है। और
लाओत्से जो कह
रहा है वह
उलटा दिखाई
पड़ता है, लेकिन
बहुत गहरा है।
जिससे हम पैदा
होते हैं उससे
हम बड़े नहीं
हो सकते। मूल
से बड़े नहीं
हो सकते; उदगम
से बड़े नहीं
हो सकते।
क्योंकि
जिससे हम आते
हैं उससे बड़े
हम कैसे हो
सकते हैं? उससे
छोटे हो सकते
हैं। और अगर
जीवन को साधना
बनाएं तो
उसके जैसे हो
सकते हैं, लेकिन
उससे बड़े होने
का कोई उपाय
नहीं। अगर भटक
जाएं तो छोटे
हो सकते हैं।
इसलिए बेटे से
बाप की पूरी खबर
नहीं मिल सकती,
क्योंकि
बाप सदा बेटे
से बड़ा है।
इसीलिए
तो पूरब के
मुल्कों में
हम बाप को, मां
को इतनी
श्रद्धा देते
हैं। पश्चिम
में वैसी
श्रद्धा नहीं
है। और कारण
उसका है कि
पश्चिम में वे
सोचते हैं, जो दिखाई
पड़ता है स्थूल,
वह उनका
तर्क है। अगर
तुम गंगोत्री
पर जाओ तो
गंगा बहुत
छोटी है, बड़ी
सूक्ष्म है।
काशी में आकर
खूब विराट है।
लाओत्से कहता
है कि अगर
गंगा को
पहचानना हो तो
गंगोत्री! और
हम तो कहेंगे,
गंगोत्री
में क्या रखा
है? जरा सा
झरना बहता है;
बूंद-बूंद
पानी रिसता
है। गौमुख
से बहती है
गंगा
गंगोत्री
में--कितनी
छोटी होगी।
वहां क्या रखा
है? वृक्ष
की जड़ों में
क्या रखा है? देखना हो
वृक्ष को तो
फूलों और फलों
में देखो। बड़ा
विस्तार है
वहां।
माना
विस्तार है, लेकिन
जो विस्तीर्ण
होकर दिखाई पड़
रहा है, वह
सब अंकुर में
छिपा था, बीज
में छिपा था, जड़ में छिपा
था। और ध्यान
रहे, जो
दिखाई पड़ रहा
है उससे
ज्यादा मूल
में हमेशा
छिपा है। मूल
अनंत है। जो
दिखाई पड़ रहा
है...। यह वृक्ष
सामने खड़ा है,
यह पूरा
नहीं है।
क्योंकि हर
वर्ष ये पत्ते
गिर जाते हैं;
फिर नए
पत्ते आ जाते
हैं। ऐसा सैकड़ों
बार हुआ है, सैकड़ों बार होगा।
हर बार
हजारों-लाखों
बीज लगते हैं,
फिर लग जाते
हैं। मूल देता
ही चला जाता
है। गंगा बहती
ही चली जाती
है। गंगोत्री
सूक्ष्म है, छोटी नहीं।
और जिसने
सूक्ष्म को
पहचान लिया वही
विस्तार को
समझ पाता है।
विस्तार
दिखाई पड़ता है,
स्थूल
आंखें उसे देख
लेती हैं। मूल
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
मूल में सब
छिपा है। और
मूल में अनंत
संभावनाएं छिपी
हैं। मूल में
वह भी छिपा है
जो हो गया; वह
भी छिपा है जो
हो रहा है; वह
भी छिपा है जो
होगा।
विस्तार तो एक
क्षण का है; मूल शाश्वत
है। विस्तार
तो अभी है, सीमित
है; मूल
असीम है। सब
आदि और अंत
उसमें छिपे
हैं।
तो लाओत्से
की समस्त
प्रक्रियाएं
मूल की तरफ
जाने वाली
हैं। लाओत्से
कहता है, मूल
उदगम को खोज
लो। परमात्मा
विकास का
आखिरी फूल
नहीं है
लाओत्से के
हिसाब से।
परमात्मा सभी
चीजों का मूल
उदगम है, मूल
स्रोत है।
जितना तुम
स्रोत की तरफ
जाओगे उतना वह
छोटा होता
जाता है। जितना
स्रोत की तरफ
जाओगे उतना वह
अदृश्य होता
चला जाता है।
और उस अदृश्य
को देखना हो
तो तुम्हारी
दृष्टि को
जमाना पड़ेगा।
इस दृष्टि से
तुम न देख
पाओगे; उसके
लिए बड़ी
सूक्ष्म, पैनी
दृष्टि
चाहिए।
तुम्हारी
आंखें थिर चाहिए,
तुम्हारा
ध्यान अकंप
चाहिए। जितना
अकंप ध्यान होगा
उतना तुम
सूक्ष्म को
देख सकोगे। और
जिसने
सूक्ष्म देख
लिया उसने सब
देख लिया।
इसका
यह अर्थ हुआ
कि ध्यान का
अर्थ पीछे की
तरफ लौटना है।
पतंजलि ने इस
क्रिया को ही
प्रत्याहार
कहा है।
प्रत्याहार
का अर्थ है
वापस लौटना।
महावीर ने इसी
प्रक्रिया को
प्रतिक्रमण कहा
है।
प्रतिक्रमण
का अर्थ भी है रिटघनग
बैक,
पीछे की तरफ
लौटना।
आक्रमण है आगे
की तरफ जाना, झपटना, दौड़ना,
बाहर की तरफ;
प्रतिक्रमण
है भीतर की
तरफ लौटना।
प्रत्याहार।
मूल में समा
जाना; जहां
से आए हैं उसी
तरफ जाना।
अभी
पश्चिम में एक
बहुत
महत्वपूर्ण
प्रयोग चल रहा
है। जैनोव
नाम का एक
बहुत बड़ा
मनोवैज्ञानिक, पश्चिम
में जो थोड़ी
सी
महत्वपूर्ण
घटनाएं घट रही
हैं उनमें जैनोव
एक
महत्वपूर्ण
घटना है। उसने
एक नए
मनस-चिकित्सा
शास्त्र को
जन्म दिया है--प्राइमल थैरेपी।
पूरी की पूरी
चिकित्सा मूल
की तरफ लौटने
की है। अगर जैनोव
सफल होता है
तो पश्चिम में
जैनोव के
माध्यम से
लाओत्से का
प्रभाव बहुत
बढ़ेगा।
जैनोव की
प्रक्रिया है:
अगर तुम्हारे
जीवन में कहीं
भी कोई अड़चन
है,
दुविधा है,
कोई रोग है,
मानसिक
तनाव, चिंता
है, तो वह
कहता है, बचपन
की तरफ वापस लौटो। वह
कहता है, आंख
बंद करो और
पीछे लौटो।
ध्यान को पीछे
ले जाओ।
प्रतिक्रमण
करो, प्रत्याहार
करो। लौटो
पीछे की तरफ।
पहले जब तुम
लौटोगे तो तुम
ज्यादा नहीं
लौट पाओगे, चार साल की
उम्र तक लौट
पाओगे। तीन
साल, बहुत
अगर सचेत हुए
तो। फिर सब
धुंधला हो
जाता है, फिर
कुछ याद नहीं
आता, कोई
स्मृति खयाल
में नहीं आती।
लेकिन अगर तुम
रोज-रोज, रोज-रोज
याद को लगाए
रखो तो
धीरे-धीरे
अंधेरा कम
होने लगता है,
छोटी-छोटी
स्मृतियां
प्रकट होने
लगती हैं। अगर
तुम लौटते ही
चले जाओ तो
कुछ लोग सफल
हो जाते हैं
उस घड़ी को याद
करने में जब
उनका जन्म हुआ।
जब वे पैदा
हुए, जब
मां के गर्भ से
वे बाहर आए, उस तक
याददाश्त
पहुंच जाती
है। और जैसे
ही उस पर
याददाश्त
पहुंचती है, जैसे ही एक
बार उन्होंने
ठीक से याद कर
लिया--इसको प्राइमल,
इसको जैनोव
प्राथमिक
घटना कहता है।
जब तुम गर्भ
के बाहर आए, वहीं से
संसार शुरू
हुआ। वहीं से
विस्तार हुआ चीजों
का। बीज टूटा,
अंडा फूटा,
पक्षी उड़ा।
अगर तुम उस
क्षण में
पहुंच जाओ तो उस
क्षण तुम
बिलकुल
निर्दोष थे। न
कोई बीमारी थी,
न कोई तनाव
था, न कोई
चिंता थी। अगर
तुम उस क्षण
को लौट कर एक बार
फिर से जान लो
तो अचानक तुम
अपने मूल
स्वभाव को समझ
लोगे कि
चिंतित होना
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
है। चिंता
दुर्घटना है,
बाहर से आई
है। तुम इसे
लेकर न आए थे।
लेकिन जैनोव का
प्रयोग अभी
पूरा नहीं है, अधूरा
है। हिंदुओं
ने, लाओत्से
के
अनुयायियों
ने, पतंजलि
ने, महावीर
ने इसे और
गहरा किया। वे
कहते हैं कि जिस
दिन तुम्हारा
जन्म हुआ उस
दिन भी तुम नौ महीने
पुराने हो
चुके थे। उस
दिन भी तुम
पूरे शुद्ध न
थे। जन्म से
गंगा काफी दूर
निकल गई थी, गंगोत्री
यात्रा कर
चुकी थी। नौ
महीने लंबा वक्त
है। इसलिए
महावीर तो
कहते हैं कि
प्रतिक्रमण
तुम्हारा
वहां तक जाना
चाहिए जहां
गर्भाधान हुआ,
जहां तुम
शरीर में
प्रविष्ट हुए।
उस क्षण तुम
और भी शुद्ध
थे। क्योंकि
नौ महीने में
भी बच्चे की
स्मृतियां बन
जाती हैं। अगर
मां बीमार
पड़ती है तो
बच्चा पीड़ित
होता है; स्मृति
बनती है। अगर
मां गिर पड़ती
है, पैर
फिसल जाता है गुसलखाने
में, तो
बच्चे को चोट
लगती है, और
बच्चे को
स्मृति बनती
है। मां
प्रसन्न होती
है तो स्मृति
बनती है। अगर
मां गर्भवती
है और तब भी
पति संभोग किए
जाता है तो भी
बच्चे को
स्मृति बनती
है।
इसलिए
हिंदुओं ने
बिलकुल
वर्जित किया
है कि गर्भस्थ
स्त्री के साथ
संभोग न किया
जाए। अभी एक
बहुत बड़े
वैज्ञानिक ने
पश्चिम में
काम किया है
और उसने भी
हिंदुओं के
साथ सहमति
प्रकट की है
कि जब मां
गर्भवती हो तब
संभोग न किया
जाए। क्योंकि
संभोग की घटना
बच्चे के लिए
घातक है, और
बच्चे के
चित्त में
कामवासना को
अभी से पैदा
कर रही है। और
बच्चे की
निर्दोषता
अभी से नष्ट
हुई जा रही
है। फिर तुम
चिल्लाते हो
कि बच्चे
कामुक हैं; फिर तुम
चिल्लाते हो
कि बच्चे गंदे
हैं, और
बच्चे भटक गए
हैं, और
भ्रष्ट हो गए
हैं। और
तुम्हें पता
नहीं कि तुमने
उन्हें
भ्रष्ट किया।
जब वे बिलकुल
निर्दोष थे और
जब संसार का
कुछ भी भीतर न
प्रविष्ट
किया था, जब
वे अभी बिलकुल
कोमल थे, तभी
कामवासना का
वातावरण उनके
चारों तरफ
इकट्ठा हुआ।
और
तुम्हें पता
नहीं, अब तो
वैज्ञानिक
आधार से यह
बात पुष्ट हो
गई है।
क्योंकि जब
मां गर्भ की
अवस्था में
संभोग करे तो
संभोग पूरे
शरीर के रसायन
को बदलता है। श्वास
तेज हो जाती
है, आक्सीजन
की कमी हो
जाती है शरीर
में। इसीलिए तो
तेजी से श्वास
लेने लगते हैं
संभोग करते हुए
युगल; क्योंकि
ज्यादा
आक्सीजन की
जरूरत है।
जैसे दौड़ने
में जरूरत है
वैसे ही संभोग
में जरूरत है।
आक्सीजन की
कमी पड़ जाती
है। और बच्चा
आक्सीजन मां
से लेता है।
जब मां को
आक्सीजन की
कमी पड़ जाती
है तो बच्चा
एकदम सफोकेटेड
हो जाता है, उसको भीतर
श्वास लेने की
सुविधा नहीं
रह जाती, उसका
बिलकुल कंठ
अवरुद्ध हो
जाता है। वह
उसके लिए बहुत
संघातक है। और
इसलिए यह भी
हो सकता है कि
अगर नौ महीने
के गर्भ की
मां से संभोग
किया जाए तो
कभी-कभी बच्चा
गर्भ में मर
जाता है इसी
कारण। तब
हत्या हो गई।
क्योंकि उसकी
श्वास
अवरुद्ध हो
जाती है। और
अगर यह ज्यादा
देर तक चल जाए,
या रोज चलता
रहे, तो
भयंकर घातक
है--हिंसा है।
तो
महावीर और
लाओत्से और
गहरा ले जाते
हैं। वे कहते
हैं,
जन्म ठीक उस
क्षण होता है
जब गर्भाधान
होता है।
लेकिन वह भी
काफी नहीं है।
और पीछे जाया
जा सकता है।
क्योंकि
गर्भाधान तो
एक पहलू है
सिक्के का; दूसरा पहलू
है एक बूढ़े
आदमी का मरना।
वहां से शरीर-आत्मा
अलग होते हैं
और यहां फिर
से जुड़ते हैं।
तो जब एक बूढ़ा
आदमी मर रहा
है, तब आधा
हिस्सा वहां
है जन्म का, और आधा
गर्भाधान में
है। ये दो
पहलू हैं। अगर
तुम और गहरे
उतरोगे तो तुम
पिछले जन्म
में पहुंच
जाओगे। और तब
तुम्हारे लिए
द्वार खुल गया।
तब मूल इन
जन्मों में
खोजने से न
मिलेगा। तब तो
अनंत जन्म
हैं। और उन
जन्मों के पार,
और पार, और
पार जब तुम
मूल उदगम पर
पहुंचोगे
जहां तुम्हारा
पहला
आविर्भाव
हुआ। उसको लाओत्से
कहता है, वहां
तुम्हें माता
मिलेगी, जब
पहला
आविर्भाव हुआ,
जब पहली बार
चेतना ने शरीर
में प्रवेश
किया। वह जो
प्राथमिक है
वही प्राइमल
है।
अभी जैनोव
को बहुत
यात्रा करनी
पड़ेगी प्राइमल
को खोजने के
लिए। यह
प्राथमिक
नहीं है। यह
तो काफी
पुरानी
यात्रा है।
लेकिन फिर भी
उपयोगी है। और
अनेक
बीमारियां
सिर्फ जन्म तक
पहुंचते ही
विलीन हो जाती
हैं। स्मरण
मात्र से, तुम
चकित होओगे कि
मन तनाव खो
देता है, और
फिर से बच्चे
का तुम्हारे
भीतर उदय हो
जाता है।
तुम
कल्पना करो कि
जिन लोगों ने
प्रथम क्षण पा
लिया है अपने
जन्म का, अनंत
यात्राओं के
पूर्व, उनका
मन कैसा
निर्मल न हो
जाता होगा!
उसी को हमने
संत कहा है, जिसने आदि
उदगम पा लिया।
उसकी
निर्मलता परम
है। उसने
परमात्मा को
चुरा लिया। अब
उसे पाने को
कुछ भी न बचा।
जिसने
परमात्मा को
चुरा लिया उसे
पाने को क्या
बचा? सब पा
लिया गया। तब
परम तृप्ति
है। परमात्मा
को पाए बिना
कोई कभी तृप्त
नहीं हुआ है।
होना भी नहीं
चाहिए। जो हो
गए वे नासमझ
हैं। उन्हें हीरा
मिला ही नहीं;
कंकड़-पत्थर से
राजी हो गए।
कम से राजी मत
होना, परमात्मा
से कम से राजी
मत होना।
कितनी ही लंबी
हो यात्रा, कितना ही
श्रम हो, कितना
ही भटकना पड़े,
कितना ही
गहन अंधेरा हो,
जारी रखना
प्रयास।
अब हम
सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
"ब्रह्मांड
का एक आदि था, जिसे
ब्रह्मांड की
माता माना जा
सकता है। माता
से हम उसके
पुत्रों को जान
सकते हैं, लेकिन
पुत्रों को
जान कर माता
को नहीं।
पुत्रों को
जान कर भी
माता से जुड़े
रहो; इस
प्रकार
व्यक्ति का
पूरा जीवन
हानि से बचाया
जा सकता है।'
एक ही
उपाय है
तुम्हें हानि
से बचने का और
वह यह है कि
तुम पीछे लौटो; तुम
उस क्षण को
पुनः प्राप्त
करो जहां से
हानि शुरू
हुई। जैसे कोई
आदमी यात्रा
करता हो और किसी
चौराहे पर भटक
जाए; जहां
जाना था, वह
राह न पकड़े,
कोई और राह
पकड़ ले। फिर
कई मील चलने
के बाद पता चले
कि भूल हो गई, तो वह क्या
करेगा? वापस
चौराहे पर
लौटना होगा।
अगर वह कहे, अब इतने चल
चुके, अब
कैसे वापस
लौटें? अब
इतना तो लगा
चुके दांव पर,
अब कहां
जाएं? और
जाने से अगर
डरे। डर आएगा।
क्योंकि कोई
आदमी तीस साल
चल चुका, कोई
पचास साल चल
चुका, कोई
पचास जन्म, कोई पचास
हजार जन्म चल
चुका। इतना तो
इसमें न्यस्त
हो गया हमारा
जीवन। अब
अचानक पता
चलता है कि हम
गलत मार्ग चुन
लिए हैं; पीछे
छूट गया
चौराहा बहुत।
और
इसीलिए तो लोग
संतों के पास
जाने से डरते
हैं। क्योंकि
उनके पास जाकर
आनंद तो
मिलेगा, लेकिन
बहुत बाद में।
पहले तो बड़ी
पीड़ा मिलेगी।
पहली पीड़ा तो
यह होगी कि
तुम गलत हो।
अब तक तुम यही
माने रहे कि
तुम ठीक हो।
होगी सारी
दुनिया गलत, तुम कभी गलत
नहीं हो। संत
के पास जाकर
पहली पीड़ा तो
यह भोगनी
पड़ेगी कि तुम
अचानक पाओगे:
सारा जीवन
तुम्हारा
व्यर्थ है, तुमने सिवाय
भूलों के और
कुछ भी नहीं
किया। तुमने
बस भूलें ही
कीं। तुम जहां
भी चले, भटके।
तुम जिसे
यात्रा समझ
रहे हो, वह
यात्रा नहीं
है, सिर्फ
भटकाव रहा।
तुम कहीं
पहुंचे नहीं,
मंजिल करीब
न आई; दूर
भला निकल गई
हो। संत
तुम्हें
कहेगा, लौटो। और तुम बड़ी
अकड़ से चले जा
रहे थे। राह
की धूल को तुम
स्वर्ण समझ
रहे थे। राह
की धूल जम गई
थी, इसको
तुम अनुभव समझ
रहे थे। यह
तुम्हारी
संपदा थी। और
अचानक कोई मिल
गया और उसने
कहा, आंख
तो खोलो!
देखो तो सही!
हाथ में सिवाय
कंकड़-पत्थर
के कुछ भी
नहीं।
इसलिए
संसारी संत के
पास जाने से
डरता है। और चला
जाए,
भूले-भटके
ही सही, किसी
के संग-साथ
में ही सही, उत्सुकतावश
ही सही, कुतूहल
के कारण ही
सही, तो
फिर दुबारा
वही नहीं हो
सकता जो जाते
वक्त था। चोट
थोड़ी लग ही
जाएगी। दीवार
उस दुर्ग की थोड़ी
गिर ही जाएगी।
अनुभव पर शक आ
जाएगा। अपने
पर संदेह पैदा
हो जाएगा।
सारे धर्म की
प्रक्रिया
यही है कि
तुम्हें पहले
तुम पर संदेह
आ जाए; तभी
तुम किसी पर श्रद्धा
कर सकोगे।
तुम्हें अपने
पर अगर बहुत श्रद्धा
बनी रहे कि
तुम ठीक हो, तो तुम किसी
पर श्रद्धा न
कर सकोगे। और
तुम अगर ठीक
हो तो फिर
तुम्हारा दुख,
तुम्हारी
पीड़ा, तुम्हारा
संताप, सब
ठीक है। फिर
मत शोरगुल मचाओ,
फिर मत कहो
कि मैं दुखी
हूं। तुम
चाहते हो कि कोई
तुमसे कहे कि
दुख किसी और
के कारण है।
वैसे बताने
वाले लोग भी
हैं। इसलिए
उनकी जमात
बहुत बड़ी हो
जाती है।
आज
दुनिया में
करीब-करीब आधी
संख्या
कम्युनिस्ट
है। कम्युनिज्म
की अपील कहां
है?
इतनी बड़ी
अपील किसी और
विचारधारा की
कभी नहीं रही।
महावीर के
मानने वाले
लाखों में
हैं। उनमें भी
ठीक मानने
वाले कोई नहीं
हैं। लेकिन
माक्र्स के
मानने वाले
करोड़ों में
हैं। क्या
कारण है? अपील
कहां है? अपील
यहां है कि
माक्र्स कहता
है, तुम्हारे
दुख के लिए
तुम
जिम्मेवार
नहीं, समाज
जिम्मेवार
है। यहां है
सारा सार।
उत्तरदायित्व
तुम पर नहीं है।
तुम अगर कष्ट
पा रहे हो तो
दूसरे लोग
तुम्हारे
कष्ट का कारण
हैं, तुम
नहीं।
और
महावीर, पतंजलि,
लाओत्से, नानक, कबीर,
वह पूरी
जमात तुम्हें
आकर्षित नहीं
करती। क्योंकि
उसके पास जाने
पर वे पहली ही
बात यह कहते
हैं कि
तुम्हीं
जिम्मेवार हो;
यह नरक
तुम्हारा
बनाया हुआ है।
यह बात मन को
चोट करती है।
यह नरक किसी और
ने बनाया हो, यह बात समझ
में आती है।
हम क्यों अपना
नरक बनाएंगे?
और
तुम्हारे
अनुभव और
तुम्हारे
अहंकार और तुम्हारे
सयानेपन
को चोट लगती
है। तुम चाहते
हो कि स्वर्ग
तो तुम बनाने
वाले हो, नरक
दूसरे बना रहे
हैं।
कम्युनिज्म
फैलेगा।
क्योंकि आदमी
के
आत्म-अज्ञान
से उसका बड़ा
जोड़ है।
अज्ञानी आदमी
को कम्युनिज्म
में बड़ा रस
है। क्योंकि
अज्ञानी को कम्युनिज्म
अज्ञानी नहीं
कहता, शोषित
कहता है। और
सारे ज्ञानी
कहते हैं कि
तुम अज्ञानी
हो, शोषित
नहीं। तुम जो
पीड़ा पा रहे
हो, तुम्हारे
ही हाथों का
इंतजाम है।
तुम जिन गङ्ढों
में गिर रहे
हो, ये
तुम्हीं ने
खोदे हैं। यह
हो सकता है कल
खोदे हों, पिछले
जन्म में खोदे
हों। तुम भूल
ही गए हो कि हमने
कभी खोदे थे।
एक
गांव में मैं
मेहमान था।
वहां एक हत्या
हो गई। हत्या
बड़ी अनूठी थी।
छोटा गांव है।
पहाड़ी गांव
है। छोटा सा
स्टेशन है। बस
दिन में एक ही
बार ट्रेन
आती-जाती है।
एक आदमी--और
रात को कोई नौ
बजे ट्रेन आती
है--एक आदमी
बहुत सा रुपया
लेकर ट्रेन पकड़ने के
लिए आया हुआ
था। स्टेशन
मास्टर को
सुराग लग गया।
नौ बजे ट्रेन
आने वाली थी; वह
तीन घंटे लेट
थी। बारह बजे
आएगी। स्टेशन
सन्नाटा है।
कोई ज्यादा
लोग नहीं हैं।
स्टेशन
मास्टर है, एक पोर्टर
है; बस ऐसा दोत्तीन
आदमी हैं। उन
तीनों ने
तैयारी कर ली
इस आदमी को
समाप्त कर
देने की।
पोर्टर को
राजी कर लिया।
पता भी नहीं
चलेगा किसी
को। और वह
आदमी स्टेशन
के
प्लेटफार्म
पर एक बेंच पर
लेटा हुआ है, विश्राम कर
रहा है। बारह
बजे ट्रेन
आएगी। रुपए का
तो उसे भी भय
है। पोर्टर
तैयार है कि
ठीक वक्त
ग्यारह बजे तय
कर लिया है कि
वह आकर कुल्हाड़ी
से इस आदमी की
गर्दन काट
देगा।
संयोग
की बात। और वह
आदमी सो भी
नहीं सकता, क्योंकि
रुपए उसके पास
हैं। जिनके भी
पास रुपए हों
वे कहीं सो
सकते हैं? तो
वह बार-बार
अपनी बसनी को,
जो उसने कमर
में बांध रखी
है रुपयों से
भरी हुई, उसको
टटोल कर देख
लेता है। फिर
रात घनी होने
लगी और
सन्नाटा छा
गया। स्टेशन
पर कोई नहीं
है। तो वह उठ
कर टहलने लगा।
स्टेशन
मास्टर देखने आया।
वह उठ कर टहल
रहा है। जब
बैठे तभी कुछ
किया जा सकता
है। कहीं लेटे,
सो जाए, तो
सुविधा होगी;
चीख-पुकार न
मचा पाए। तो
वह उसी बेंच
पर बैठ कर देखने
लगा कि यह
कहां बैठता है,
क्या करता
है। स्टेशन
मास्टर को
झपकी आ गई। वह
उसी बेंच पर
लेट कर सो
गया।
और
पोर्टर ने ठीक
ग्यारह बजे
उसकी हत्या कर
दी। पोर्टर तो
यही समझ कर
मारा उसे कि
यह वही आदमी
लेटा हुआ है
रात के अंधेरे
में। बिजली
नहीं है; छोटी
सी लालटेन
स्टेशन पर जली
थी। और वह
पोर्टर इतना
भयभीत रहा
होगा, इतना
चिंतित रहा
होगा कि उसने
खयाल भी नहीं
किया कि क्या
हो रहा है।
स्टेशन
मास्टर की
हत्या हो गई।
इंतजाम
स्टेशन मास्टर
ने ही किया
था।
करीब-करीब
ऐसा ही हो रहा
है। तुम्हारी
हत्या हो रही
है;
तुम्हारा
ही इंतजाम है।
गङ्ढा
तुमने ही खोदा
है। अब
तुम्हीं गिर
गए हो और चिल्ला
रहे हो। मन
मानने को भी
नहीं होता कि गङ्ढा हम
अपने लिए
क्यों खोदेंगे!
इसलिए जो भी
तुमसे कहते
हैं कि
तुम्हीं ने गङ्ढा
खोदा, वे जंचते
नहीं। जो
तुमसे कहते
हैं कि गङ्ढा
किसी और ने
खोदा, वे
तुम्हें जंचते
हैं। उनमें
तुम्हारे
अहंकार का
बचाव है।
लाओत्से
कहता है कि
हानि से पूरा
जीवन बचाया जा
सकता है, लेकिन
लौटना पड़ेगा।
चौराहा तुम
पीछे छोड़ आए।
आगे ही बढ़ते
गए। तो जितना
आ गए हो, यह
भी काफी फासला
है। और अगर
बढ़ते गए तो
फासला बढ़ता
जाएगा। रुक
जाओ और पीछे
की तरफ लौटो,
मूल स्रोत
की तरफ देखो।
फेर लो अपनी
पीठ जिस तरफ
जा रहे थे; कर
लो अपना मुंह
उस तरफ जहां
से आ रहे
हो--उदगम की
तरफ।
"ब्रह्मांड
का एक आदि था, जिसे
ब्रह्मांड की
माता माना जा
सकता है।'
और
लाओत्से के
लिए जो परम
प्रतीक है वह
पिता नहीं है, मां
है। और यह
उचित है।
क्योंकि
अस्तित्व एक गर्भ
है। अस्तित्व
स्त्रैण है।
पुरुष सांयोगिक
है। स्त्री
अपरिहार्य
है। अब तो आर्टिफीशियल
इनसेमिनेशन
संभव है। तो
पुरुष का काम
इंजेक्शन भी
कर देगा। तो
पुरुष तो
बिलकुल ही
अपरिहार्य
नहीं है; उसके
बिना चल सकता
है। स्त्री
अपरिहार्य
है। और पुरुष
तो एक क्षण
में घटना के
बाहर हो जाता है।
स्त्री को तो
बच्चे को बड़ा
करने में नौ
महीने तो पेट
में सम्हालना
होता है और
फिर सालों तक
पेट के बाहर
सम्हालना
होता है।
प्रकृति
एक गर्भ है।
इसलिए
परमात्मा
लाओत्से के
लिए स्त्रैण
है,
पुरुष जैसा
नहीं। असल में,
पुरुष के
अहंकार ने ही
परमात्मा को
पुरुष का रूप
दे रखा है। तो
हम कहते हैं
पिता-परमात्मा,
गॉड दि
फादर। पर वह
बात सिर्फ
पुरुष के अहंकार
के कारण है।
मौलिक रूप से
परमात्मा मां की
तरह ही होगा।
क्योंकि
अस्तित्व एक
गर्भ है, और
अस्तित्व के
गर्भ से सब
निकल रहा है।
"ब्रह्मांड
का एक आदि था...।'
और वही
तुम्हारा आदि
भी है।
क्योंकि तुम
और ब्रह्मांड
दो नहीं हो।
अस्तित्व एक
है और इकट्ठा
है। यहां कोई
खंड-खंड बंटे
नहीं हैं।
वृक्ष से तुम
जुड़े हो, झरने
से तुम जुड़े
हो, पत्थरों
से, पहाड़ों
से तुम जुड़े
हो। अस्तित्व
एक जुड़ाव
है, एक जुड़ापन
है। यहां कोई
अलग नहीं है।
क्या तुम अलग
हो सकते हो? अगर सारा
अस्तित्व खो
जाए तो क्या
तुम हो सकते
हो? असंभव
है। यहां सब चीजें
साथ हैं।
कल मैं
बाइबिल पढ़ रहा
था। और बाइबिल
का उल्लेख देख
कर मुझे बहुत
हंसी आई कि
बाइबिल में
लिखा है, पहले
दिन परमात्मा
ने प्रकाश और
अंधेरा पैदा किया
और चौथे दिन
सूरज-चांदत्तारे
पैदा किए।
अब
पहले दिन
प्रकाश और
अंधेरा हो
कैसे सकता है? और
चौथे दिन सूरज-चांदत्तारे
पैदा किए! असल
में, यह
खयाल ही कि
पहले दिन कुछ
किया, दूसरे
दिन कुछ किया,
तीसरे दिन
कुछ किया, खंड-खंड
है। अस्तित्व
इकट्ठा है।
इसको तुमने एक
दिन थोड़ा सा
कर लिया, फिर
दूसरे दिन
थोड़ा सा कर
लिया, मुश्किल
में पड़ोगे।
पहले दिन अगर
प्रकाश और अंधकार
पैदा करोगे तो
करोगे कैसे
बिना सूरज के,
बिना चांदत्तारों
के? और
चौथे दिन चांदत्तारे
पैदा करोगे? नहीं, अस्तित्व
अखंड है। सारा
अस्तित्व
इकट्ठा है।
एक
बहुत बड़ा
विचारक हुआ
पश्चिम में, लुडविग
विटगिंस्टीन।
उससे किसी ने
कहा कि तुम
अपनी आत्मकथा
लिख दो। उसने
कहा, बहुत मुश्किल
है। तब मुझे
सारे
अस्तित्व की
आत्मकथा
लिखनी पड़ेगी,
क्योंकि सब
चीजें जुड़ी
हैं। मैं कहां
से शुरू करूंगा
और कहां अंत
करूंगा?
यह
बाइबिल की
घटना बच्चों
के लिए समझाने
के लिए तो ठीक
है,
लेकिन बुद्धिमानों
के समझाने के
लिए ठीक नहीं
है--कि पहले
दिन यह किया, दूसरे दिन
यह किया, तीसरे
दिन यह किया, और छह दिन
में सृष्टि
पूरी हो गई; और सातवें
दिन विश्राम
किया, छुट्टी
का दिन आ गया।
बात ठीक है, बच्चों को समझानी हो
ठीक है। लेकिन
अस्तित्व एक
साथ है; इसे
तुम बांट न
सकोगे। यहां
सब जुड़ा है।
यहां तुम एक
फूल को हिलाओ,
और आकाश के चांदत्तारों
तक खबर पहुंच
जाती है। तुम
यहां एक फूल
तोड़ो, और
परमात्मा के
हृदय तक कंपन
पहुंच जाता
है। सब
संयुक्त है।
यह जो
संयुक्तता है,
इसे जान
लेना ही
परमात्मा को
जानना है। और
इस संयुक्तता
को अगर
पहचानना हो तो
तुम मूल में ही
पहचान सकोगे।
क्योंकि वहां चीजें
सब साथ-साथ
होती हैं, संगठित
होती हैं, सूक्ष्म
होती हैं, शुद्ध
होती हैं।
यात्रा की धूल
नहीं होती। फिर
तो बहुत कुछ जुड़ता चला
जाता है।
गंगोत्री में
गंगा शुद्धतम
है; फिर तो
बहुत नदी-नाले
गिरते हैं।
फिर तो गंगा उन
नदी-नालों में
खो ही जाती
है। काशी में
आकर अपवित्रतम
हो जाती है, जहां तुम
जाकर पूजा
करते हो।
क्योंकि वहां
कितने
नदी-नाले, कितने
कानपुर और
कितने
इलाहाबाद और
कितना कूड़ा-कर्कट,
सब आकर मिल
गया।
गंगोत्री में
शुद्ध है; वहां
सिर्फ गंगा
गंगा है।
जैसे-जैसे
विस्तार होता
है वैसे-वैसे
चीजें अशुद्ध
होती जाती हैं।
सूक्ष्म को ही
जानना पड़ेगा।
"जिसे
ब्रह्मांड की
माता कहा जा
सकता है।'
उससे
हम विस्तार को
समझ लेंगे।
लेकिन विस्तार
से तुम उसे न
समझ सकोगे।
"माता
से जुड़े
रहो--मूल उदगम
के साथ बने
रहो--फिर तुम्हारे
जीवन में कोई
हानि न होगी।'
तुम
खोज लो अपने
भीतर ही गंगोत्री
को और उससे
जुड़े रहो। करो
कुछ भी, जुड़े
रहो उससे जहां
से चेतना
जन्मी है। उस
पहले
प्रकाश-क्षण
को, उस
पहले अलौकिक
ज्योतिर्मय
क्षण को तुम
पकड़ लो; तुम
समय के बाहर
हो गए। अगर
तुमने मूल को
समझ लिया, उदगम
को, तो
उसको समझ कर
तुम एक काम
करोगे।
"छिद्रों
को भर दो, द्वारों
को बंद करो, और व्यक्ति
का पूरा जीवन
श्रम-मुक्त हो
जाता है।'
छिद्र
क्या हैं? द्वार
कहां हैं? छिद्र
हैं तुम्हारे,
द्वार हैं।
द्वार हैं
तुम्हारी
वासनाएं। तुम
कभी सोचो।
तुम्हारे मन
में कामवासना
उठी, तो
मस्तिष्क एक
कामवासना के
धुएं से
आच्छादित हो जाता
है; विचार
चलने लगते हैं,
कामोत्तेजना
प्रगाढ़
होने लगती है।
यह द्वार है, क्योंकि
यहां से तुम
बाहर जाते हो।
तुम्हारे सब
द्वार
तुम्हारे
मस्तिष्क में
हैं, और
तुम्हारे जब
छिद्र
तुम्हारे
शरीर में हैं।
फिर जब बहुत
कामवासना घनी
हो जाती है तो
कोई उपाय नहीं
रह जाता; तुम
अपनी
जीवन-ऊर्जा को
शरीर के
छिद्रों से बाहर
फेंक देते हो।
तभी तुम्हें
राहत मिलती
है। वासना
पैदा होती है
मन में, शरीर
में पूर्ण
होती है।
द्वार मन में
है; छिद्र
शरीर में है।
जननेंद्रिय
छिद्र है, कामवासना
द्वार है। और
जब भी तुम
वासना से भरे
तब द्वार खुल
गया; तुम
चले बाहर। और
इसका आखिरी
परिणाम यह
होगा कि तुम
कुछ खोकर
लौटोगे,
कुछ गंवा कर
लौटोगे।
इसीलिए तो
संभोग के बाद ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
किंचित विषाद
से न भर जाता
हो। क्योंकि
कुछ खोया, पाया
कुछ भी नहीं।
कुछ गंवाया, जीवन-ऊर्जा
बाहर गई, तुम
थोड़े दरिद्र
हुए। मरते
वक्त भी ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
विषाद से न भर
जाता हो; क्योंकि
पूरा जीवन
सिवाय खोने के
कुछ भी न रहा।
कभी इस वासना
में गंवाया, कभी उस
वासना में
गंवाया।
लाओत्से
कहता है, "छिद्रों
को भर दो।'
निर्वासना
छिद्रों का भर
जाना हो
जाएगी।
"द्वारों
को बंद करो।'
मन को दौड़ाओ मत, क्योंकि
मन के घोड़े
दौड़े कि जल्दी
ही शरीर भी पीछा
करेगा। शरीर
को पीछा करना
पड़ता है; जहां
मन जाता है
वहीं शरीर
जाता है।
"और
व्यक्ति का
पूरा जीवन
श्रम-मुक्त हो
जाता है।'
तब तुम
अपने भीतर
परिपूर्ण हो
जाते हो। न
ऊर्जा बाहर
जाती है, न
तुम्हारा
चित्त बाहर
जाता; तुम
अपने एकांत
में परिपूर्ण
हो जाते हो, तुम अपने
भीतर आत्मवान
हो जाते हो, अब तुम दीन न
रहे। अब तुम
किसी के ऊपर
निर्भर न रहे।
अब तुम्हारा
आनंद अपना है।
अब कोई उसे दे,
ऐसी
आकांक्षा न
रही। अब तुम
भिखारी न रहे।
अब तुम
भिक्षा-पात्र
न फैलाओगे
किसी के सामने;
तुम
मांगोगे
नहीं। यही तो
संन्यास की
गरिमा है। यही
तो संत का
गौरव है कि वह
अपने में ऐसा
भरा-पूरा हो
जाता है। और
भरा-पूरा तुम
भी हो सकते हो,
लेकिन तुम
छेद भरी
बाल्टी हो।
भरते तुम भी
हो, लेकिन
छिद्रों से सब
बह जाता है।
भरो छिद्रों
को, रोक दो
द्वारों को।
लेकिन यह तुम
तभी कर पाओगे
जब तुम मूल
स्रोत से जुड़े
रहो। इसको
खयाल में रखना,
क्योंकि
बहुत से लोग
बिना मूल
स्रोत से जुड़े
छिद्रों को
भरने की कोशिश
करते हैं। वे
और मुश्किल
में पड़ जाते
हैं। उनसे तो
तुम्हीं
बेहतर हो। वे
पागल हो जाते
हैं।
मनसविद
कहते हैं कि पागलखानों
में बंद नब्बे
प्रतिशत लोग
कामवासना के
साथ दमन करने
के कारण पागल
हैं। तो तुम
ऐसा मत करना कि
मूल स्रोत से
बिना जुड़े और
तुम अगर
कामवासना से
लड़ने लगे, तो
तुम्हारी वही
दशा हो जाएगी
जो चाय बनाते
वक्त कभी
केतली की हो
जाती है--कि
ढक्कन मजबूत
है, खुलता
नहीं; सब
द्वार-छिद्र
बंद हैं और
भाप भयंकर है,
और आग नीचे
जल रही है। तो
विस्फोट
होगा। वही विक्षिप्तता
है। ऐसा ही जब
तुम्हारे
भीतर विस्फोट
होता
है--शक्ति तुम
लेते चले जाते
हो; द्वार-छिद्र
बंद कर देते
हो; आश्रमों
में, हिमालय
में छिपे अनेक
संन्यासी यही
कर रहे हैं--तब
एक विस्फोट
होता है। तब
सब टूट-फूट
जाता है। वह
विस्फोट
परमात्मा से
मिलना नहीं
है। वह
विस्फोट तो
सबसे बड़ी दूरी
है। फिर तो
रास्ता
बिलकुल भटक
गया।
पहले
मूल स्रोत से जुड़ो।
ध्यान पहले
है। फिर ही
जीवन-ऊर्जा का
रूपांतरण हो
सकता है। पहले
तुम चेतना को
शुद्ध, निर्मल,
प्रथम क्षण
में ले चलो।
उस प्रथम क्षण
में बैठ कर
द्वार को बंद
कर लेना
बिलकुल आसान
है। क्योंकि
उस प्रथम क्षण
में तुम इतने
आनंदित हो कि
अब कोई
आकांक्षा
नहीं है, जबर्दस्ती
करने की कोई
जरूरत नहीं है,
द्वार जैसे
अपने आप ही
बंद हो जाते
हैं। छिद्र
जैसे न उपयोग
में आने के
कारण धीरे-धीरे
अपने आप बंद
हो जाते हैं।
तुम अपने भीतर
समाविष्ट हो
जाते हो। तुम
अपने भीतर
काफी, पर्याप्त
हो जाते हो।
और तुम इतनी
ऊर्जा से भरे
होते हो, बाढ़
जैसे आ गई हो।
तुम्हारी
दीनता, दारिद्रय
सब मिट जाता
है। तुम पहली
दफा सम्राट हो
जाते हो।
"उसके
छिद्रों को
खुला छोड़ दो, उसके
कारोबार में
व्यस्त रहो, और फिर
आजीवन मुक्ति
का कोई उपाय
नहीं है।'
वासना
को बना लो
अपना
कारोबार--जो
कि तुमने बनाया
है--फिर जीवन
भर उसमें
व्यस्त रहो, छिद्र
खुले रहें, द्वार खुले
रहें, तुम
रिसते जाओगे,
तुम
धीरे-धीरे
खाली होकर मर
जाओगे। खाली
होकर मरे तो
दुख में
मरोगे। भरे
हुए मरे तो
जैसा कबीर
कहते हैं, जिस
मरने से जग
डरे मेरो
मन आनंद, कब
मरिहों
कब भेटिहों
पूरन
परमानंद।
और
जिससे सब जग
डर रहा है! ये
डर कौन रहे
हैं लोग? ये
खाली घड़े
हैं, छिद्र
भरे घड़े, जिनका सब
जीवन रिस गया
और अब मौत
द्वार पर खड़ी
है। मौत को
भेंट करने के
लिए जिनके पास
कुछ भी नहीं, जो भिखारी
होकर मौत के
द्वार पर आ गए
हैं। जीवन की
परिसमाप्ति आ
गई और संपदा
का जिनको
स्वाद भी न
लगा। ये न घबड़ाएंगे
तो कौन
घबड़ाएगा? ये
न रोएंगे-चिल्लाएंगे
तो कौन रोएगा-चिल्लाएगा?
वही
जिसने अपने को
बचाया है; जो
मृत्यु के
क्षण में
साबित चला आया
है। इसलिए
कबीर कहते हैं,
ऐसे जतन से ओढ़ी
चदरिया, ज्यों
की त्यों धरि
दीन्हीं
चदरिया। जैसी
पाई थी उसे
वैसी की वैसी
वापस लौटा दी।
जैसी पूर्ण
लेकर आए थे
जन्म के साथ
वैसी ही पूर्ण
परमात्मा को
भेंट कर दी
मृत्यु के समय,
जरा भी मैली
न होने दी।
ऐसे जतन से ओढ़ी
चदरिया। वह जो
जतन है वही
योग का सार
है। वह जो जतन
से ओढ़ना
है वही साधना
का सूत्र है।
और
जिसने
छिद्रों को
खुला छोड़ा; और
छिद्रों के, वासना के
कारोबार में
व्यस्त रहा; फिर आजीवन
मुक्ति का कोई
उपाय नहीं है।
"जो
लघु को देख
सके...।'
सूक्ष्म
को,
आणविक को, मूल को, क्योंकि
मूल में सब
चीजें बहुत
सूक्ष्म हैं;
गंगोत्री
को जो देख
सके।
"वह
स्पष्ट
दृष्टि वाला
है।'
उसके
पास ही दृष्टि
है।
"जो
कुलीनता के
साथ जीता है, वही बलवान
है।'
क्या
है कुलीनता? कुलीनता
का अर्थ किसी
कुलीन घर में
पैदा होना नहीं
है। कुलीनता
का अर्थ है कि
जिसकी भीतरी संपदा
अक्षुण्ण है।
तुम उसे पहचान
सकते हो। सिंहासनों
पर बैठना उसके
लिए जरूरी
नहीं है। तुम
उसे भिखारी के
वेश में भी
पहचान सकते
हो। क्या
तुम्हें कभी
कोई ऐसा आदमी
देखने मिला? न मिला हो तो
तुम एक बड़े
अनूठे अनुभव
से वंचित रह
गए। जो भिखारी
के वस्त्रों
में खड़ा हो, लेकिन जिसके
चारों तरफ हवा
बादशाहत की
हो! जिसके
वस्त्र चाहे
फटे-पुराने
हों, चीथड़े हों, लेकिन
जिसकी आंखों
में झलक किसी
सम्राट की हो!
उसी को
कुलीनता कह
रहा है
लाओत्से। किसी
परिवार से
संबंध नहीं, इस जगत के धन
से कोई नाता
नहीं, इस
जगत के पद से
कोई सवाल नहीं;
जो कुछ भी
है उसके भीतर
है। तुम उसे
छीन नहीं सकते।
वह जहां भी
चलेगा एक हवा
उसके साथ
चलेगी, एक
प्रभामंडल
उसे घेरे
रहेगा। तुम
उसके प्रभामंडल
में जाओगे तो
तुम अचानक
पाओगे कि तुम
शांत होने
लगे। वह ऐसे
ही है जैसे कि
रेगिस्तान
में एक मेघ आ
जाए--वर्षा से
भरा। जैसे सूखी
धरती पर बादल
बरस जाएं, तुम
उसके पास ऐसी
ही वर्षा
अनुभव करोगे।
तुम्हारा
रोआं-रोआं एक अननुभूत
तृप्ति से
भरने लगेगा।
उसका
सान्निध्य, उसका सत्संग
तुम्हें
समृद्ध
करेगा। कोई
सूक्ष्म
ऊर्जा बांटी
जा रही है। वह
कुछ दे रहा
है। उसका पूरा
जीवन एक दान
है। लेकिन दान
सिक्कों का
नहीं है, दान
वस्तुओं का
नहीं है; दान
जीवन का है।
इसको
लाओत्से
कुलीनता कहता
है। और जब तक
ऐसी कुलीनता
तुम्हें
उपलब्ध न हो
जाए तब तक
संन्यास फलित
नहीं हुआ। जब
तक बिना कुछ
कारण के, अकारण
तुम प्रसन्न न
हो जाओ, तब
तक तुम ठीक
अर्थों में
संन्यासी
नहीं। जब तुम
बिना कारण के
प्रसन्न हो, जब तुम बिना
कारण, कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता
तुम्हारे पास
और तुम ऐसे लगते
हो जैसे अनंत
संपदा के धनी
हो, तुम्हारे
फटे वस्त्रों
से भी जिस दिन
तुम्हारे
भीतर की गरिमा
झलकती
है--कुलीनता!
एक
अंग्रेज
चिकित्सक के
मैं संस्मरण
पढ़ रहा था।
वैज्ञानिक है, बड़ा
डाक्टर है।
पूरब आया था
सम्मोहन की
कुछ विधियां
सीखने, ताकि
सर्जरी में
उनका प्रयोग
किया जा सके।
तो वह अनेक
साधुओं से
मिला, संन्यासियों
से मिला।
बर्मा में उसे
एक भिक्षु
मिला, एक
फकीर, जो
एक खंडहर में
रहता था।
दूसरे
महायुद्ध में मकान
खंडहर हो गया
था बम के
गिरने से और
आस-पास सिवाय कूड़ा-कबाड़
और खंडहर के
टूटे-फूटे
सामान के कुछ
भी न था। दीवारों
पर छप्पर भी न
था। और वह
इलाका बर्बाद हो
गया था। लोगों
ने उसे छोड़
दिया था; उसको
सुधारा भी
नहीं गया था।
उसको उसने
अपना आवास बना
लिया था। इस
डाक्टर ने
लिखा कि जो
चीज पहली मुझे
प्रभावित की
वह यह थी कि उस
खंडहर में वह
इस तरह रह रहा
था जैसे कोई
किसी आलीशान महल
में रह रहा
हो। उसकी
शालीनता का
अंत नहीं था।
वह इस शान से
बैठा था उस खंडहर
में कि
बड़े-बड़े
सम्राटों के
महल फीके पड़ जाएं।
खंडहर भी
दीप्त था उसकी
मौजूदगी से।
और उस
चिकित्सक ने
लिखा है कि
मैं हैरान हो
गया, क्योंकि
मैंने ऐसा
आदमी पहले कभी
देखा नहीं था।
यह इतना अनूठा
था।
इसे
कुलीनता कहता
है लाओत्से।
कुलीनता क्यों
कहता है? क्योंकि
कुलीनता शब्द
तो कुल से आता
है। कुलीनता
इसीलिए कहता
है कि
तुम्हारा मूल
कुल, जहां
से तुम पैदा
हुए हो, वह
परमात्मा है;
तुम्हारा
परिवार नहीं।
वही तुम्हारा
कुल है; वस्तुतः
वही तुम्हारी
कोख है। वही, जहां से
सारा
अस्तित्व आया
है, वही
माता है। वही
तुम्हारा कुल
है। और जिस
दिन तुम
परमात्मा की
तरह चलने, उठने-बैठने
लगोगे, जीने
लगोगे, उसी
दिन तुम कुलीन
हो। उसके पहले
नहीं। उस दिन
तुम्हारी देह
बूढ़ी हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्योंकि देह
वस्त्रों से
ज्यादा नहीं
है। उस दिन
तुम्हारी देह
पर झुर्रियां
पड़ जाएं, कोई
फर्क नहीं
पड़ता; तुम्हारी
भीतर की आभा
उन झुर्रियों
के पार भी
प्रकट होती
रहेगी। उस दिन
तुम्हें बाहर
की दीनता दीन
नहीं बना
सकेगी। उस दिन
तुम्हारी
संपदा इस
संसार की न
रही, पारलौकिक
हो गई।
वही
संपदा संपदा
भी है। इस
संसार की
संपदा, छिपा
ले तुम्हारी
दीनता को, मिटाती
नहीं। तुम धनी
लोगों को
देखो। धन का
अंबार उनके
चारों तरफ
होगा, और
गौर से तुम
उन्हें देखोगे,
तुम उन्हें
दीन पाओगे।
तुम बड़े
राजनीतिज्ञों
को देखो। बड़ी
शक्ति उनके
पास होगी, वे
विध्वंस कर
सकते हैं, लाखों
को मार-जिला
सकते हैं।
लेकिन अगर तुम
उन्हें देखोगे
तो तुम उन्हें
बड़ा दीन
पाओगे। जिसने
भी बाहर की
संपत्ति को
संपत्ति समझा
वह कभी
संपत्तिशाली
नहीं हो पाता।
भीतर एक संपदा
का अजस्र
स्रोत है।
"जो
लघु को देख
सके, वह
स्पष्ट
दृष्टि वाला
है। जो
कुलीनता के
साथ जीता है, वह बलवान
है। प्रकाश को
काम में लाओ...।'
तुम
प्रकाश से ही
आए हो; प्रकाश
तुम्हारा
स्वभाव है।
उसे काम में
लाओ।
"...और
स्पष्ट
दृष्टि को
पुनः प्राप्त
करो।'
क्योंकि
वह दृष्टि कभी
तुम्हारे पास
थी। इसलिए
लाओत्से कहता
है,
पुनः। वह
कोई नई बात
नहीं है।
तुमने उसे
खोया है; वह
तुम्हारे पास
थी। लेकिन
शायद जरूरी है
कि जो हमारे
पास है, उसे
जानने के लिए
कि वह हमारे
पास है, उसे
खोना जरूरी
है। नहीं तो
हमें पता ही
नहीं चलता कि
हमारे पास
क्या है, जब
तक तुम खोओ न।
जो भी
तुम्हारे पास
होता है उसे
ही तुम भूल
जाते हो। और
उस प्रकाश से
ज्यादा पास
तुम्हारे कुछ
भी नहीं। पास
कहना भी ठीक नहीं,
क्योंकि
पास में भी
थोड़ी दूरी
होती है। तुम
प्रकाश हो।
तुम उसे भूल
गए हो। उसे
भूलना जरूरी
था। अब तुम जब
दुबारा पाओगे
तभी तुम उसे
आनंद से पा सकोगे।
बचपन
खोना जरूरी है, क्योंकि
वह मुफ्त
मिलता है।
मुफ्त की कोई
कीमत करता है?
फिर जब तुम
उसे अथक श्रम
और साधना से
पुनः पाओगे
तभी तुम
समझोगे उसका
मूल्य। हर चीज
का मूल्य
चुकाना पड़ता
है। बिना
मूल्य चुकाए
हमें कोई चीज
मूल्यवान
नहीं मालूम
होती। तुमने
गंवाया है
परमात्मा को।
यह भी जीवन की
एक अनिवार्य
प्रक्रिया है
कि गंवा कर ही
तुम जब उसे
श्रम से पाओगे,
चेष्टा से
पाओगे, तभी
तुम पाओगे उसे
पहली दफा। तभी
तुम समझोगे कि
अरे इतनी बड़ी
संपदा, मैं
ऐसे ही गंवा
आया था! तो
गंवाना भी प्रौढ़ता
का अंग है। एक
बार खोना
जरूरी है।
लेकिन खोए बैठे
रहना उचित
नहीं। खो चुके,
अब उसकी खोज
जरूरी है।
"प्रकाश
को काम में
लाओ, और
स्पष्ट
दृष्टि को
पुनः प्राप्त
करो। इस
प्रकार अपने
को बाद में
आने वाली पीड़ा
से बचा सकते
हो।'
पीछे
तो बहुत पीड़ा
हो गई। अब
उसको बदलने का
कोई उपाय
नहीं। अतीत जा
चुका; अब कुछ
किया नहीं जा
सकता। उसके
लिए बैठे मत पछताते
रहो। भविष्य आ
रहा है। अतीत
की चिंता छोड़ो।
प्रकाश को काम
में लाओ, ताकि
जो अतीत में
हुआ वह भविष्य
में न हो, वह
पुनरुक्त न
हो। लोग पीछे
के लिए बैठे
रोते रहते
हैं। लोग अपने
घावों को
उघाड़-उघाड़ कर
देखते रहते
हैं। घावों
में अंगुली
डाल-डाल कर
देखते रहते
हैं। जो जा
चुका, जा
चुका; अब
कुछ भी किया
नहीं जा सकता।
जो आ रहा है, जो हो रहा है,
जो होने
वाला है, उसे
बदला जा सकता
है।
लेकिन
अगर तुम
पछताते रहे
अतीत के लिए
तो भविष्य
तुम्हारे लिए
रुका नहीं
रहेगा। वह आ
ही रहा है। और
तुम अतीत के
लिए पछता रहे
हो। और अतीत के
लिए पछताने
में तुम अपने
को रूपांतरित
भी नहीं कर पा
रहे हो। फिर
तुम अतीत को दुहराओगे।
तुम्हारा
भविष्य भी
तुम्हारे
अतीत की
पुनरुक्ति
होगा। यही
दुर्भाग्य
है। तुमने जो
कल किया था
वही तुम कल भी
करोगे।
क्योंकि आज को
तुम गंवा रहो
हो। प्रकाश को
काम में नहीं
ला रहे, और
जीवन-ऊर्जा को
उसके मूल
स्रोत से नहीं
जोड़ रहे। वही
ध्यान है।
हम
क्या सिखा रहे
हैं ध्यान में? इतना
ही कि तुम
वापस अपने मूल
स्रोत में गिर
जाओ। तुम उसे
भीतर लिए चल
रहे हो। वह
सरोवर तुम्हारे
पास ही है। एक
डुबकी लगानी
है, और तुम
नए हो जाओगे।
तुम्हारी सब
अतीत की धूल झड़
जाएगी।
तुम्हारा सब
अंधेरा मिट
जाएगा। ध्यान
रखो, करोड़ों-करोड़ों
जन्मों का अंधेरा
भी हो, दीया
जल जाए तो मिट
जाता है।
अंधेरा यह
नहीं कहता कि
मैं करोड़ों
वर्ष पुराना
हूं, इस
छोटे से दीए
से कैसे मिटूंगा?
और तुमने
कितने ही
मार्गों पर
यात्रा की हो,
कितनी ही
धूल-धवांस
इकट्ठी कर ली
हो, एक
डुबकी पानी
में, और
धूल बह जाती
है। एक डुबकी
अपने में, सब
अतीत धुल जाता
है।
बैठे
पश्चात्ताप
मत करो।
प्रकाश को काम
में लाओ। और
तब अतीत में
पुनरुक्ति
नहीं होती, तब
अतीत की
पुनरुक्ति
नहीं होती। तब
भविष्य तुम्हारा
नया होगा; सुबह
की ओस जैसा
ताजा, नई
कोंपल जैसा
नया। उस नए को
द्वार दो। वह
तुम्हारे
द्वार पर दस्तक
दे रहा है।
तुम
पछता रहे हो, रो
रहे हो। या तो
तुम गलत करते
हो या गलत
करने के लिए
पछताते हो।
दोनों गलत
हैं। गलत करना
तो गलत है ही, अब गलत के
लिए पछताना और
भी गलत है। जो
हो चुका, हो
चुका; जा
चुका, जा
चुका।
मुर्दों को
दफना दो। उनको
ढोने की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
लाओत्से
कहता है, "इसे
ही परम में
विश्राम कहते
हैं।'
प्रकाश
को काम में ले
आना,
मूल में उतर
जाना, छिद्रों
का बंद हो
जाना, द्वारों
का अपने आप
अवरुद्ध हो
जाना, भीतर
की ऊर्जा का
संगृहीत होना,
कुलीनता की
उपलब्धि, एक
समृद्धि जो
भीतर की है, एक धन जो
आत्मा का
है--इसे ही परम
में विश्राम
कहते हैं। और
ऐसा व्यक्ति
ही परमात्मा
की चोरी करने
में सफल हो जाता
है।
चोरी
ही करनी है तो
परमात्मा की
करो। क्यों व्यर्थ
चीजों को
चुराने में
लगे हो? संगृहीत
ही करना है तो
परमात्मा को
करो। कूड़ा-कर्कट
संगृहीत करके
होगा भी क्या?
अगर जीना ही
है तो
परमात्मा में जीओ। अगर
मरना ही है तो
परमात्मा में
मरो। छोटे से
राजी मत हो
जाना। व्यर्थ
से, छुद्र
से राजी मत हो
जाना।
आज
इतना ही।
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