भगवान
के मिगारमातु—
प्रसाद में
विहार करते समय
एक दिन आनंद
स्थविर ने
भगवान को
प्रणाम करके
कहा भंते! आज
मैं यह जानकर
धन्य हुआ हूं
कि सब प्रकाशों
में आपका
प्रकाश ही बस
प्रकाश है। और
प्रकाश तो
नाममात्र को
ही प्रकाश कहे
जाते हैं।
आपके प्रकाश
के समक्ष वे
सब अंधेरे
जैसे मालूम हो
रहे हैं।
भंते! मैं आज
ही आपको और
आपकी अलौकिक
ज्योतिर्मयता
को देख पाया
हूं दर्शन कर
पाया हूं और
अब मैं कह सकता
हूं कि मैं
अंधा नहीं
हूं।
शास्ता
ने यह सुन
आनंद की आंखों
में देर तक झांका।
और और—और आलोक
उसके ऊपर
फेंका।
आनंद
डूबने लगा
होगा उस
प्रसाद में, उस
प्रकाश में, उस प्रशांति
में।
और
फिर उन्होंने
कहा. हां आनंद
ऐसा ही है।
लेकिन इसमें
मेरा कुछ भी
नहीं है। मैं
तो हूं ही नहीं
इसीलिए
प्रकाश है। यह
बुद्धत्व का
प्रकाश है
मेरा नहीं। यह
समाधि की
ज्योति है
मेरी नहीं।
मैं मिटा तभी
यह ज्योति
प्रगट हुई है।
मेरी राख पर
यह ज्योति
प्रगट हुई है।
दिवा
तपति आदिच्चो
रतिं आभाति
चन्दिमा।
सन्नद्धो
खत्तियो
तपति झायी
तपति
ब्राह्मणो।
अथ
सब्बमहोरत्तिं
बुद्धो तपति
तेजसा ।।
'दिन
में केवल सूरज
तपता है, दिन
में केवल सूरज
प्रकाश देता
है। रात में
चंद्रमा तपता
है; रात
में चंद्रमा
प्रकाश देता
है। अलंकृत
होने पर राजा
तपता है।' जब
खूब स्वर्ण
सिंहासनों पर
राजा बैठता है,
बहुमूल्य
वस्त्रों को
पहनकर, हीरे—जवाहरातों
के आभूषणों
में, हीरे—जवाहरातों
का ताज
पहनता—तब राजा
प्रकाशित होता
है।
'ध्यानी होने
पर ब्राह्मण
तपता है।’
और
जब ध्यान की
पहली झलकें
आनी शुरू होती
हैं,
तो एक
ज्योति आनी
शुरू होती है
ब्राह्मण से,
ध्यानी से।
'और बुद्ध
दिन—रात तपते
हैं।’
अकारण
तपते हैं। बिन
बाती बिन तेल।
फर्क
समझना। सूरज
की सीमा है, दिन
में तपता है।
चांद की सीमा
है, रात
तपता है। फिर
सूरज एक दिन
बुझ जाएगा। और
चांद के पास
तो अपनी कोई
रोशनी नहीं है,
उधार है। वह
सूरज की रोशनी
लेकर तपता है।
जिस दिन सूरज
बुझ जाएगा, उसी दिन
चांद भी बुझ
जाएगा। चांद
तो दर्पण जैसा
है। वह तो सिर्फ
सूरज की रोशनी
को प्रतिफलित
करता है। सूरज
गया, तो
चांद गया।
सूरज
की सीमा है; हालांकि
सीमा बहुत बड़ी
है। करोड़ों
—करोड़ों वर्ष
से तप रहा है।
लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं एक
दिन बुझेगा।
क्योंकि यह
बिन बाती बिन
तेल नहीं है।
इसका ईंधन
समाप्त हो रहा
है, रोज—रोज
समाप्त हो रहा
है। बड़ा ईंधन
है इसके पास, लेकिन रोज
सूरज ठंडा
होता जा रहा
है। उसकी गर्मी
कम होती जा
रही है। गर्मी
फिंकती जा रही
है, खर्च
होती जा रही
है।
एक
दिन सूरज चुक
जाएगा। यह
प्रकाश —सीमित
है। तुम्हारे
घर में जला
हुआ दीया तो
सीमित है ही।
क्या है उसकी
सीमा? उसका
तेल। रातभर
जलेगा; तेल
चुक जाएगा; बाती भी जल
जाएगी फिर।
फिर दीया पड़ा
रह जाएगा।
ऐसे
ही सूरज भी
जलेगा—करोड़ो
—करोडों
वर्षों तक।
लेकिन उसकी
सीमा है। और
चांद में तो
प्रतिफलन है
केवल।
'अलंकृत होने
पर राजा तपता
है।’
राजा
की जो
प्रतिष्ठा
होती है, प्रकाश
होता है, वह
अपना नहीं
होता, उधार
होता है।
देखते
तुम,
एक आदमी जब
गद्दी पर
बैठता है, तो
दिखायी पड़ता
है सारी
दुनिया को; नहीं तो
उसका पता ही
नहीं चलता
किसी को। कोई
आदमी
मिनिस्टर हो
गया, तब
तुम्हें पता
चलता है कि
अरे! आप भी
दुनिया में
थे! फिर वह
एकदम दिखायी
पड़ने लगता है।
सब अखबारों
में दिखायी
पड़ने लगता है।
प्रथम पृष्ठ
पर दिखायी
पड़ने लगता है।
सब तरफ शोरगुल
होने लगता है।
फिर
एक दिन पद चला
गया। फिर वह
कहां खो जाता
है,
पता ही नहीं
चलता! फिर तुम
उसे खोजने
निकलो, तो
पता न चले!
यह
उधार है, यह
प्रतिष्ठा
उधार है। यह
ज्योति अपनी
नहीं है। यह
अपनी नहीं है,
यह पद की
है।
तो
बुद्ध कहते
हैं राजा भी
तपता है, लेकिन
अलंकृत होने
से।
'ध्यानी होने
पर ब्राह्मण
तपता है।’
राजा
से बेहतर
ब्राह्मण है।
उसके भीतर की
संपदा प्रगट
होनी शुरू
हुई। ध्यान
उमगा। लेकिन ध्यान
ऐसा है कभी
होगा, कभी चूक
जाएगा।
ब्राह्मण, ध्यानी—
कभी—कभी बिजली
जैसे
कौंधे—ऐसी दशा
है। बिजली
कौंध जाती है,
सब तरफ
रोशनी हो जाती
है। फिर बिजली
चली गयी, तो
सब तरफ अंधेरा
हो जाता है।
ध्यान
का अर्थ है :
समाधि की
कौंध। और जब
ध्यान इतना
गहरा हो जाता
है कि अब
समाधि की तरह
निश्चित हो
गया,
ठहर गया, अब जाता
नहीं, आता
नहीं। जब
रोशनी थिर हो
गयी, तो
बुद्धत्व।
बुद्धत्व
ब्राह्मण की
पराकाष्ठा
है। ध्यान है
झलक,
समाधि है
उपलब्धि।
'ध्यानी होने
पर ब्राह्मण
तपता है।
बुद्ध रात—दिन
अपने तेज से
तपते हैं।’
और
बुद्ध.........
अथ
सब्बमहोरत्ति
बुद्धो तपति
तेजसा ।
……..
उन पर कोई
सीमा नहीं है।
न तो ऐसी सीमा
है, जैसी
चांद—तारों
पर। न ऐसी
सीमा है, जैसे
अलंकृत राजा
पर। न ऐसी
सीमा है, जैसे
ध्यानी
ब्राह्मण पर।
उनकी सब
सीमाएं समाप्त
हो गयीं। वे
प्रकाशमय हो
गए हैं। वे
प्रकाश ही हो
गए हैं। वे तो
मिट गए हैं, प्रकाश ही
रह गया है।
यही
दिशा होनी
चाहिए। यही
खोज होनी
चाहिए। ऐसी
ज्योति
तुम्हारे
भीतर प्रगट हो, जो
दिन—रात जले, जीवन में
जले, मृत्यु
में जले; देह
में जले, जब
देह से मुक्त
हो जाओ, तो
भी जले। और
ऐसी ज्योति, जो ईंधन पर
निर्भर न हो, किसी तरह के
ईंधन पर
निर्भर न हो।
जो निर्भर ही
न हो। ऐसी
ज्योति, जिसको
संतों ने
कहा—बिन बाती
बिन तेल।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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