दिनांक
17 मई, 1975, प्रातः,
ओशो
आश्रम, पूना
सूत्र
:
अंबर
बरसै
धरती भीजै, यहु जाने सब
कोई।
धरती
बरसै
अंबर भीजै, बूझै बिरला
कोई।।
गावन
हारा कदे
न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर
पेखि पेखना
पेखै, अनहद बेन बजावै।।
कहनी
रहनी निज तत जानै, यह सब अकथ
कहानी।
धरती
उलटि आकासहि
ग्रासै, यहु परिसा
की बाणी।।
बाज
पियालै
अमृत सौख्या, नदी नीर भरि
राख्या।
कहै
कबीर ते बिरला
जोगी, धरणि
महारस चाख्या।।
जीवन
के प्रति एक
तो दार्शनिक
की दृष्टि है
और एक धार्मिक
की। दार्शनिक
की दृष्टि परिधि
को छू पाती है, केंद्र तक
उसका प्रवेश
नहीं। वह
बाहर-बाहर से देखता
है। कितना
महाशून्य की
अवस्था ही
जाती है; जहां
न कोई विचार
है, न
विचार की कोई
तरंग है।
विचार नहीं, केंद्र तक
तो केवल ध्यान
जाता है।
विचार नहीं, केंद्र तक
तो केवल समाधि
की पहुंच है।
दार्शनिक
बहुत सोचता है, सिद्धांत
निर्मित करता
है, शास्त्र
बनाता है, लेकिन
उसके सभी
शास्त्र
अधूरे होंगे।
और सभी शास्त्र--उनके
शब्द कितने ही
गहरे मालूम
पड़े, उथले
होंगे।
धार्मिक
व्यक्ति
विचारता नहीं, विचार को
छोड़ता है।
तर्क नहीं
करता, चिंतन-मनन
नहीं करता, उन सभी तरंगों
को शांत करता
है। धार्मिक
व्यक्ति केंद्र
पर स्थिर होने
की चेष्टा
करता है। उस
स्थिरता में
ही जीवन के
परिपूर्ण
रहस्य का
द्वार खुल
जाता है।
समाधि द्वार
है।
और
धार्मिक जो
जान पड़ता है, वह बड़ा
अनूठा है। वह उलटबांसी
जैसा लगता है,
क्योंकि हम
सब दार्शनिक
से प्रभावित
हैं। इसे तुम
ठीक से समझ
लो।
हमारे
मन दार्शनिक
की बड़ी छाप
है। विचारशील
लोगों ने हमें
खूब आक्रांत
कर रखा है। स्वभावतः
उनके तर्क बड़े
प्रभावशाली
मालूम पड़ते
हैं और उनके
तर्क के आधार
पर उनके
सिद्धांत, हमारे मन पर
गहरी लकीरें
छोड़ जाते हैं।
इसलिए कबीर
जैसे
व्यक्तियों
की वाणी उलटबांसी
लगती है, कि
क्या उल्टी
बातें कह रहे
हैं?
वे
उलटी लगती हैं, क्योंकि तुम
उलटे खड़े हो।
जैसे कोई आदमी
शीर्षासन कर
रहा हो, उसे
सारी दुनिया
उलटी चलती
मालूम पड़ती
है। वह हैरान
होता है कि
सारी दुनिया
उलटी क्यों चल
रही है? दुनिया
उलटी नहीं है।
वह स्वयं उलटा
खड़ा है।
अस्तित्व तो
सदा से
सीधा-साफ है, तुम तिरछे
हो। अस्तित्व
तो कहीं भी
तिरछा नहीं
है। उसकी
कहानी तो बड़ी
साफ है, सुस्पष्ट
है, उसका
रहस्य तो
बिलकुल खुला
रहस्य है।
द्वार-दरवाजे
बंद भी नहीं
हैं। अगर तुम
प्रवेश नहीं कर
पा रहे, तो
तुम्हारी
आंखें ही
किन्हीं
शब्दों के
द्वारा बंद हैं।
किन्हीं
विचारों, शास्त्रों
में दबी हैं।
और
विशेष कर इस
देश में तो
बड़ा
दुर्भाग्य
घटित हो गया
है। हजारों
साल का
पांडित्य है।
उसमें
तुम्हें
स्पष्ट
लकीरें दी
हैं। उन
लकीरों से भिन्न
को तुम मानने
को भी राजी
नहीं हो सकते।
इसलिए
पंडितों की
नगरी काशी में
कबीर उल्टे
मालूम पड़ने
लगे। लोग कहने
लगे, कबीर की
बात कर रहे हो?
सिर फिर गया
है? ये तो उलटबासियां
हैं। ये तो पहेलियां
हैं, जो
सुलझाई नहीं
जा सकतीं।
क्या
है पहेली कबीर
में? क्योंकि
कबीर पूरे को
देखते हैं।
तुम अधूरे को
देखते हो। तुम
आधे को देखते
हो। आधे के
आधार पर तुम
पूरे की
कल्पना करते
हो। तुम लकीर
के फकीर हो।
फिर लकीर का
फकीर एक दफा
आदमी हो आए, तो उस
विस्तार का
कोई अंत नहीं
है।
मैंने
सुना है, एक
मजाक मैंने
सुनी है। सच न
भी हो फिर भी
सच मालूम होती
है। चूहों की
बढ़ती के कारण
सरकार बहुत
बेचैन और
व्यथित हो गई।
क्योंकि पांच
चूहे उतना
भोजन कर जाते
हैं, जितना
एक आदमी। और
आदमी से कहें गुने
ज्यादा चूहे
हैं। कम से कम
पच्चीस गुने
ज्यादा चूहे
हैं भारत में।
तो घबड़ाहट
तो स्वाभाविक
है। लेकिन
चूहे जैसे
महत्वपूर्ण
विषयों पर
चर्चा उठाना
भी खतरनाक है।
क्योंकि इस
मुल्क की
बुद्धि का कोई
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
तो
मैंने सुना है, कि इंदिरा
गांधी ने
मुल्क के सारे
विचारशील नेताओं
को इकट्ठा
किया, कि
पहले हम सोच
लें फिर कुछ
कदम उठाएं। और
इंदिरा ने कहा
कि इन चूहों
को मार डालना
अब एकदम जरूरी
है। एक महाअभियान
चाहिए कि सब
चूहे समाप्त
कर दिए जाएं।
तत्क्षण
कोलाहल और
उपद्रव शुरू
हो गया, जैसा
कि भारत की
सभी संसदों
में, विधान-सभाओं
में मचता है, वहां भी मच
गया। घड़ी दो
घड़ी तो पता ही
नहीं रहा, कि
क्या हो रहा
है?
बामुश्किल
समझ में आया
कि श्री अटल
बिहारी बाजपेयी
कह रहे हैं कि
यह कभी नहीं
हो सकता।
क्योंकि चूहा गणेशजी का
वाहन है। क्या
तुम गणेशजी
को वाहन से
च्युत करना
चाहते हो? बिना वाहन
के गणेशजी
कैसे चलेंगे?
और यह तो
सरासर
अधार्मिक है।
यह तो हिंदू
धर्म की हत्या
है। तो यह कभी
बर्दाश्त
नहीं किया जा
सकता, कि
चूहे की हत्या
की जाए।
कोई
सुझाव मांगा
गया, कि फिर
कुछ उपाय? तो
उन्होंने कहा,
जैसा
आदमियों के
लिए हम कर रहे
हैं, परिवार
नियोजन का
प्रचार किया
जाए। हर चूहे
के बिल पर
लिखा जाए, हम
दो, हमारे
दो। समझाने
बुझाने की
जरूरत है।
हत्या नहीं हो
सकती।
लेकिन
तभी जयप्रकाश
ने खड़े होकर
कहा, कि यह कभी
नहीं होगा।
गांधी-विनोबा
के देश में
परिवार-नियोजन?
यह तो अनीति
का मार्ग है।
इससे तो लोग
भ्रष्ट होंगे,
भ्रष्टाचार
फैलेगा। और डर
यह है कि तुम
चूहों के लिए
तो प्रचार
करोगे लेकिन गणेशजी तक
भ्रष्ट हो
सकते हैं
सुनते-सुनते
परिवार-नियोजन।
क्योंकि
परिवार-नियोजन
का अर्थ है, कि स्त्री
को बच्चा पैदा
होने का भय तो
रह नहीं जाता।
उसी भय पर तो
तुम्हारी
सारी सभ्यता
खड़ी है। उसी
भय पर तो
तुम्हारी
निति-नियम खड़े
हैं। स्त्री पकड़ी जा
सकती है, अगर
वह किसी दूसरे
व्यक्ति से
संबंध बनाए।
एक बार स्त्री
मुक्त हो जाए,
भय न रहे तो
फिर कौन नियम
रोकेगा? चूहे
तो बिगड़ेंगे
ही, डर यह
है कि गणेशजी
तक बिगड़ जाएं।
तो
जयप्रकाश ने
कहा, सर्वोदयी इसको कभी
बर्दाश्त
नहीं करेंगे।
पूछा गया क्या,
किया जाए? तो उन्होंने
कहा, बजाय
परिवार-नियोजन
के अभियान के,
ब्रह्मचर्य
की शिक्षा दी
जाए। ब्रह्मचर्य
की
शिक्षा--गांधी,
विनोबा
दोनों यही
कहते हैं।
बजाय
तख्तियां लगाने
के परिवार
नियोजन के, ब्रह्मचर्य
के वचन लिखे
जाएं, कि
ब्रह्मचर्य
ही जीवन है।
किसी
ने डरते-डरते
कहा कि लेकिन
चूहे अशिक्षित
हैं।
तो
जयप्रकाश ने
कहा कि
विस्तार में
जाने का मेरा
प्रयोजन नहीं।
हम केवल
लोकनायक हैं, लोकनेता नहीं। हम
मार्गदर्शन
देते हैं।
पूर्ण क्रांति
की विस्तार की
बातें आप लोग
सोचें। यह
सरकार का फर्ज
है, कि वह
पहले उनको
शिक्षित
करे--चूहों को,
फिर उनको
ब्रह्मचर्य
समझाए।
सिद्धांत की
बात हमने कह
दी। बाकी
विस्तार में
जाना सरकार का
कर्तव्य है।
अन्यथा सरकार किसलिए है?
श्री
अटल बिहारी
बाजपेयी: यह
तो हिंदू धर्म
पर सीधा आघात
है। यह कभी
बर्दाश्त न
किया जाएगा।
हिंदुओं, इकट्ठे
हो जाओ!
तुम्हारा
धर्म खतरे में
है।
और तक
कम्युनिस्ट
नेता श्रीपाद
अमृत डांगे
ने कहा:
प्रश्न चूहों
के मारने या न
मारने का नहीं
है। प्रश्न है
कि यह गणेश
कौन है जो गरीब
सर्वहारा
चूहों पर चढ़ा
बैठा है? इस
गणेश को नीचे
उतारना होगा।
यह
वर्ग-संघर्ष है।
गणेश मुर्दाबाद
चूहों, विश्व
के चूहों, इकट्ठे
हो जाओ!
तुम्हारे पास
खोने को कुछ
भी नहीं सिवाय
गणेश के बो
के।
श्री
जयप्रकाश
बोले: मैं
पूर्ण
क्रांति
चाहता हूं।
चूहों में ब्रह्मचर्य
का व्रत
फैलाने से ही
यह हो सकेगा।
महात्मा
गांधी और संत
विनोबा के
सारे जीवन का
संदेश ही
ब्रह्मचर्य
है। और
विस्तार की
बातें मुझसे
मत पूछो। मैं
क्षुद्र
बातों में
उलझता ही
नहीं। मैं तो
केवल और केवल
पूर्ण क्रांति
के पक्ष में
हूं।
और तभी
लकीरों के फकीरों
में मारपीट
शुरू हो गई।
जूते-चप्पल
फेंके जाने
लगे। पूर्ण
क्रांति का
ऐसा शुभ आरंभ
देख कर श्री
जयप्रकाश अति
प्रसन्न हुए।
और संपोपा
नेता राजनारायण
ने बीच में
कूद कर, युद्ध
शुरू कर दिया।
प्रधानमंत्री
श्रीमती
इंदिरा गांधी
सम्मेलन के
अपेक्षित अंत
को देख कर सभा
भवन के बाहर
जाने लगी। तभी
श्री मोरारजी
देसाई की आवाज
उन्हें सुनाई
पड़ी: मैं अल्टीमेटस
देता हूं कि
यदि वर्षा के
पूर्व
महात्मा गांधी
के विचारानुसार
चूहों में
ब्रह्मचर्य
और नशाबंदी का
प्रचार प्रारंभ
न किया तो मैं
आमरण अनशन
प्रारंभ कर
दूंगा।
वह सभा
जैसी खत्म हो
गई होगी, वैसे
ही सब सभाएं
इस मुल्क में
खत्म होती
हैं। लकीरें
हैं! एक दफा
लकीर को छू दो,
फिर होश लोग
खो देते हैं।
इतना कहना
काफी है, कि
चूहा गणेशजी
का वाहन है; फिर कोई होश
की बात नहीं
हो सकती। इतना
कहना काफी है,
कि
गांधी-विनोबा
क्या कहते हैं,
कि यह देश
गांधी बिनोबा
का है। जैसे
यह देश उन्हीं
का है। किसी
और का नहीं
है।
लकीर
से बंधकर जीनेवाला
व्यक्ति सब
भांति अंधा हो
जाता है। और
सभी लोग विचार
की लकीरों से
बंधे हैं।
इस देश
की सबसे गहरी
विचार की लकीर
है, कि संसार
माया है। यह
सच है। यह परम
अनुभव है कि
संसार माया है।
लेकिन यह कोई
सिद्धांत
नहीं है। यह
तो सिद्धावस्था
की प्रतीति
है। अगर तुमने
इसे सिद्धांत
की तरह समझा
कि संसार माया
है तो तुम
अड़चन में पड़ोगे।
तब तुम लड़ना
शुरू कर दोगे।
और जिससे तुम
लड़ रहे हो, वह
स्वयं
परमात्मा है।
तब तुम्हारा
पूरा जीवन उलझ
जाएगा।
इस देश
के सारे
शास्त्र कहते
हैं, कि
द्वंद्व के
ऊपर उठना है।
दो के पार
जाना है। एक
को पाना है।
अद्वैत को
पाना है। वही
परम सत्य है।
यह तुम्हारे
मन में लकीर
की तरह बैठ गई
है बात। इसलिए
किसी भी चीज
की तुम्हें
निंदा करनी हो,
तो तुम कह
दो कि यह तो
द्वंद्व के
भीतर है। बात निंदित
हो गई।
इसीलिए
कबीर ने जब ये
वचन कहे, तो
बड़ी कठिनाई
खड़ी होगी। कहै
कबीर ते बिरला
जोगी, धरणि
महारस चाख्या--जिसने
पृथ्वी के
महारस को चखा,
वह
महायोगी।
लेकिन
तुम्हारे
योगी तो कह
रहे हैं, कि
धरती, धरती
का रस, पदार्थ,
पदार्थ का
रस, शरीर, शरीर का रस
सब त्याज्य
है। इनको तो
छोड़ना है। यह
तो माया है।
और कबीर कहते
हैं, जिसने
धरणी का महारस
चख लिया, वह
कोई बिरला
जोगी है। वह
कोई अद्वितीय
जोगी है।
तुमने
सदा सुना है, कि पदार्थ
को छोड़ना है
और कबीर कह
रहे हैं कि पदार्थ
में महारस
छिपा है।
पदार्थ
परमात्मा
छिपा है। पदार्थ
को छोड़ना नहीं
है, जानना
है। पदार्थ से
भागना नहीं है,
जीना है।
शरीर में
अशरीरी छिपा
है। शरीर को
काटना और
गलाना नहीं है,
शरीर को
मिटाना नहीं
है, शरीर
तो मंदिर है।
वही परमात्मा
की प्रतिमा विराजमान
है। वह तो सिंहासन
है। उस पर
प्रभु बैठा
है। शरीर को
पहचानना है, जानना है, जीना है।
शरीर के भीतर
गहन में
प्रवेश करना
है। शरीर की
परिधि नहीं, उसका केंद्र
भी उपलब्ध हो
जाए। जिस दिन
तुम शरीर के
केंद्र को जान
लोगे, कि
वह परमात्मा
है, उस दिन
तुम पाओगे, कि शरीर में
भी बड़े रस छिपे
हैं। छोड़ने
योग्य कुछ भी
नहीं है।
स्वाद
को छोड़ना नहीं
है और अस्वाद
को साधना नहीं
है। स्वाद को
इस
परिपूर्णता
से जीना है, कि स्वाद
में ही छिपा
अस्वाद मिल
जाए। तब वो अस्वाद
जैसा नहीं
होता, परम-स्वाद
जैसा होता है।
गांधी
के आश्रम में
ग्यारह
नियमों में एक
नियम था, अस्वाद।
इस तरह भोजन
करो, कि
उसमें स्वाद न
आए। तो भोजन
खराब करके
करो--नमक मत डालो।
और अगर ज्यादा
ही याग सिर पर
चढ़ गया, तो
थोड़ी सी नीम
की चटनी मिला
लो, ताकि
भोजन भ्रष्ट
हो जाए, ताकि
स्वाद न आए। गांधीजी
नीम की चटनी
के बिना भोजन
ही नहीं करते
थे। वह भोजन
को खराब करने
की व्यवस्था
थी। सोचते थे,
यह अस्वाद
है।
यह
अस्वाद नहीं
है, यह केवल
जीभ को मारना
है। अस्वाद तो
उन्हें उपलब्ध
हुआ, उन
ऋषियों को, जिन्होंने
कहा है
उपनिषदों में अन्नं
ब्रह्म।
जिन्होंने
जाना है, अन्न
में ब्रह्म
छिपा है; उन्हें
अस्वाद
उपलब्ध हुआ।
जिन्होंने
अन्न को इस
परिपूर्णता
से इस समाधिपूर्णता
से, इस समाधिपूर्वक
ग्रहण किया, कि अन्न में
छिपे हुए
ब्रह्म की
जिन्हें झलक मिलने
लगी--धरणि
महारस चाख्या,
वे परमयोगी
है। उन्होंने
पृथ्वी को
छोड़ा नहीं, पृथ्वी के
महारस को चख
लिया।
क्योंकि
जिसने बनाई है
सृष्टि, वह
बनानेवाले से
भिन्न नहीं हो
सकती। और शत्रु
तो हो ही नहीं
सकती। विरोध
में तो हो ही
नहीं सकती।
सीढ़ी ही बनने
को बनाई गई
है। सृष्टि
में छिपा है
स्रष्टा।
कृति में छिपा
है कर्ता। काव्यों
में छिपा है
कवि। नृत्य
में छिपा है
नर्तक। वह
भिन्न नहीं
है। परमात्मा
यहां
पत्ते-पत्ते
पर छिपा है।
तुमने जिसे बुरा
कहा है, तुमने
जिसकी निंदा
की है, वह
भी परमात्मा
है। और
परमात्मा की
निंदा करके
तुम परमात्मा
को न पा
सकोगे। हां, तुमने एक
अपना
परमात्मा बना
लिया है
सिद्धांतों
का, जिसको
तुम मंदिर में
पूजा करते हो।
असली, जीवंत
परमात्मा की
तुम निंदा
करते हो। झूठे
आदमी द्वारा
निर्मित
परमात्मा की
तुम पूजा करते
हो।
तुम
कभी किसी हरे
वृक्ष के
सामने हाथ जोड़
कर झुके हो? कि जब कोई
वृक्ष फलों से
भरा हो, हवाओं
में नाचता हो,
तब तुमने
घुटने टेक कर कहां
प्रार्थना की
है? कि जब
आकाश में तारे
भरे हों, तब
तुम पृथ्वी पर
लेट कर उस
अनिर्वचनीय
के भजन से भरे
हो? तुमने
तारों में
उसकी आंखों को
झलकते देखा? कि फूलों
में इसकी
सुवास उठते
देखी?
नहीं, तुम बिलकुल
अंधे हो। तुम
भागे जा रहे
हो मंदिर--मस्जिद
की तरफ। तुम कहते
हो, वहां
परमात्मा की
पूजा करनी है।
और यहां कौन है?
चारों तरफ
कौन है? पक्षियों
के कंठों में
कौन गा रहा है?
वृक्षों
में कौन फूल
बना है? झरनों
में किसका
कलकल नाद है? ये उसी एक
ओंकार की
अनेक-अनेक
अभिव्यक्तियां
हैं। ये उसी
एक के
अनेक-अनेक रूप
हैं। तुम कहां
भागे चले जाते
हो? तुम
किसी की पूजा
करने जा रहे
हो? तुम
जहां हो, वहीं
वह मौजूद है।
तुम्हारे
चारों तरफ उसी
ने तुम्हें
घेर रखा है।
उपनिषद
कहते हैं, वह परमात्मा
दूर से भी दूर,
और पास से
भी पास है।
दूर से
दूर--अगर
मंदिरों में
खोजा; पास
से पास--अगर
आंख खुली, और
चारों तरफ
देखा। वह
परमात्मा
निकट से भी निकट
है। क्योंकि
तुम भी वही
हो। श्वास भी
वही ले रहा है
तुम्हारे
भीतर।
मोहम्मद ने
कहा है, कि
श्वास की नली
से भी वह पास
है। एक बार
तुम बिना
श्वास के भी
जी लो, उसके
बिना तुम जी
सकोगे। उसके
बिना कोई जीवन
ही नहीं है।
वह जीवन का
सारभूत है।
तब
जीवन की निंदा
से कोई उस तक
नहीं पहुंच
पाएगा। और सभी
धर्मों ने
जीवन की निंदा
की है। सिर्फ
ज्ञानी
पुरुषों ने
जीवन की निंदा
नहीं की है।
उन्होंने तो
जीवन का गौरव
गाया है। असल
में उनके जीवन
में गौरव का
जो गीत है, वही तो उनकी
परमात्मा की स्तृति
है।
इसलिए अन्नं
ब्रह्म है।
स्वाद भी उसी
का है। शरीर
भी उसी का है, काम भी उसी
का है। राम भी
वही है। और
जिस दिन तुम
द्वंद्व खड़ा न
करोगे, और
तुम्हें
दोनों में वही
दिखाई पड़ने
लगेगा, उसी
दिन अद्वैत
उपलब्ध होगा।
अद्वैत कोई
सिद्धांत
नहीं है, कि
तुमने शंकराचार्य
के ग्रंथ पढ़
लिए और
तुम्हें
अद्वैत की समझ
आ गई।
अद्वैत
तो जीवन को
जीने की एक
शैली है। इस
भांति जीना है, कि दो के बीच
विरोध खड़ा न
हो। दो के बीच
दो पन न आए। दो
के बीच भी एक
ही दिखाई पड़ता
रहे। इसलिए कबीर
के वचन उलटबांसी
मालूम पड़ते
हैं। वह सीधी
बांसुरी है।
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु
जाने सब कोई।
यह तो
हमें पता ही
है कि आकाश
बरसता है, मेघ घिरते
हैं आषाढ़ में,
धरती भीगती
है, तृप्त
होती है।
लेकिन यह बात
तो अंधे को भी
पता है, मूढ़ को भी पता
है। इससे
जानने से तुम
कोई बहुत समझदार
न हो जाओगे।
जाननेवाला तो
यह कहता है--
धरती बरसै, अंबर
भीजै, बूझै बिरला कोई।
धरती
भी बरसती है।
क्योंकि जीवन
एक गहन एकात्म
है। यहां तुम
लेते ही लेते
नहीं चले जा
सकते। यहां
लेने और देने
में एक संतुलन
है।
आकाश से
तुमने मेघों
को बरसते
देखा लेकिन
तुमने धरती के
मेघ आकाश पर बरसेते
देखे हैं? ये हरे हो गए
वृक्ष! इनसे
धरती वापस
लौटा रही है
जला के। ये
मेघ हैं, जो
आकाश में वापस
बरस रहे हैं।
प्रति पल
पत्ते-पत्ते
से भाप उठ रही
है। अन्यथा
आकाश मेघ कहां
से जाएगा
बरसाने को? नदी-नदी से, झरने-झरने
से भाप उठ रही
है। सूरज की
किरणों पर
चढ़-चढ़ कर
जगह-जगह से
भाप इकट्ठी हो
रही है आकाश
में। धरती
वापस लौटा रही
है।
इन
फूलों की गंध
में कौन वापस
जा रहा है? इन पक्षियों
के कंठ से कौन
आकाश पर बरस
रहा है? सब
तरफ से पृथ्वी
लौटा रही है।
और जितना
लौटती है, उतना
ही गहन हो कर
वापस आता है।
एक
वर्तुलाकार
प्रक्रिया
है। आकाश धरती
को देता है, धरती आकाश
को देती है।
धरती छोटी
नहीं है, लेन-देन
सदा बराबर है।
संतुलन
ही तो जीवन का
नियम है।
अन्यथा
संतुलन टूटता
जाएगा। एक
लेता जाए, एक देता जाए,
दोनों ही
दिन हो जाएंगे
अंततः। एक
कृपण हो कर
मरेगा, एक
दरिद्र हो कर
मरेगा। जीवन
लेन-देन है।
जीवन प्रतिपल
संतुलन को
बनाए रखता है।
जितना आकाश से
धरती को मिलता
है, उतना
ही लौट जाता
है।
और यह
तो छोटा-सा
प्रतिदिन है, जो फूलों
में, वृक्षों
में, पहाड़ों
में, नदी
झरनों में, दिखाई पड़ता
है। पक्षियों
के कंठों में,
हवा के
झोंकों में
जिसकी
सरसराहट
सुनाई पड़ती है।
लेकिन जब धरती
का कोई बेटा, कोई बुद्ध, कोई कबीर
खिलता है, हजार
कमलों का कमल
खिलता है जब
उसके सहस्रार
में, और जब
उसकी पूरी
प्राण-ऊर्जा
आकाश की तरफ
प्रवाहित
होती है, तब
महादान घटित
होता है। तब
आकाश पर मेघ
घिर जाते हैं
बुद्धों के।
बुद्ध ने तो
जो शब्द
प्रयोग किया
है उस परम
अवस्था को, उसका नाम ही
मेघ समाधि है।
एक बादल की
तरह आकाश पर
बरस जाती है
पृथ्वी।
कबीर
कहते हैं, धरती बरसै
अंबर भीजै।
कबीर कहते हैं,
हमने उल्टा
भी देखा है।
धरती को बरसते
और अंबर को भीजते
भी देखा है।
स्रष्टा ने तो
सृष्टि को
बहुत कुछ दिया
ही है।
परमात्मा ने
तो सबको बनाया
ही है; उसने
तो सबको आपूर
दिया ही है, लेकिन हमने
एक और बात भी
देखी है। कि
हमने परमात्मा
की तरफ सृष्टि
से जाते हुए
मेघ भी देखे हैं।
और हमने
पृथ्वी को ही नाचते
नहीं देखा है
मेघों में
घिरे, हमने
परमात्मा को
भी नाचते देखा
है।
जब
बुद्ध का मेघ
लौटाता है
परमात्मा की
तरफ, तब
परमात्मा भी
नाचता है। वह
नटराज है।
उसकी प्रसन्नता
का क्या कहना
उन क्षणों
में!
इसलिए
बुद्ध के जीवन
में कथा है, कि जब बुद्ध
ज्ञान को
उपलब्ध हुए, तो असमय ही
वृक्षों पर
फूल खिल गए।
इतनी महान घटना
घटी हो, तो
परमात्मा भी
नाचता है। अगर
प्रकृति नाची
हो उस क्षण
में, तो
कुछ अनूठा
नहीं है। सूखे
वृक्ष हरे हो
गए, नई
कोंपलें फूट
गई। फूल आने
को न थे, यह
मौसम न था और
फूल खिल गए
आधी रात। अभी
सूरज भी नहीं
उगा था, जब
बुद्ध उस परम
अवस्था की तरफ
धीरे-धीरे बह
रहे थे। भोर
का आखिरी तारा
डूबा और बुद्ध
परम मेघ-समाधि
को उपलब्ध
हुए। उस क्षण
पृथ्वी ने जो
दान दिया है, वह परमात्मा
भी सदियों तक
याद
रखेगा--रखना
ही पड़ेगा।
और अगर
गौर से देखा, तो सृष्टि
का दाम बड़ा
मालूम होगा स्रष्टा
के दान से।
क्योंकि
स्रष्टा ने तो
एक साधारण
बच्चा ही पैदा
किया था।
पृथ्वी ने
बुद्धत्व दे
कर वापिस
लौटाया।
अंबर बरसै धरती भीजै, यह
जाने सब कोई।
परमात्मा
का ऋण चुकाना
है। तुमने
पितृ-ऋण सुना
है। तुमने
गुरु-ऋण सुना
है। लेकिन
तुमने कभी
सोचा कि
परमात्मा का
भी ऋण
है--जिसने
तुम्हें
बनाया है? जिसने सारी
प्रकृति बनाई
है, जो इस
सारे खेल के
पीछे छिपा हुआ
स्रष्टा है, उसका ऋण भी
चुकाना है।
कोई बुद्ध
इसका ऋण भी चुकाता
है। कोई कबीर
उसका ऋण
चुकाता है।
उस घड़ी
में, जब महिमा
से भरी हुई
चेतना वापिस
लौटती है परमात्मा
की तरफ--धरती बरसै अंबर भीजै। उस
दिन आकाश भीग
जाता है। आकाश
का भीगना बहुत
मुश्किल
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
आकाश तो शून्य
है। लेकिन
कबीर कहते हैं,
शून्य भी
भीग जाता है, आर्द्र हो
जाता है।
शून्य भी उस
क्षण में कठोर
नहीं रह जाता,
तटस्थ नहीं
रह जाता।
शून्य भी उस
क्षण में कांप
जाता है, आप्लावित
हो जाता है।
धरती
भीगती है, यह तो समझ
में आती है।
क्योंकि गहन
धूप में, सूरज
के ताप में
धरती फट जाती
है, प्यासी
हो जाती है।
इसलिए जब
वर्षा होती है,
तो पृथ्वी
के रोएं-रोएं
प्राण-प्राण
में एक तृप्ति
समा जाती है।
एक सोंधी गंध
उठती है
तृप्ति की, चारों तरफ
फैल जाती है।
यह समझ में
आता है लेकिन
आकाश तो कोई
पृथ्वी नहीं
है। आकाश में
तो कोई दरारें
नहीं पड़
सकतीं। आकाश
तो महाशून्य है।
आकाश तो सिर्फ
अवकाश है, रिक्तता
है। उसमें
कैसी दरारें!
लेकिन
कबीर ठीक ही
कहते हैं। मैं
भी सहमत हूं।
आकाश में भी
दरारें पड़
जाती हैं।
बुद्धत्व की
वहां भी प्रतीक्षा
होती है।
पृथ्वी खिले
और बरसे आकाश
पर। तभी तो यह
खेल चल पाता
है। यह खेल एकत्तरफा
नहीं है। यह
द्वंद्व
पृथ्वी और
आकाश का, शरीर
और आत्मा का, पदार्थ और
परमात्मा का,
सृष्टि और
स्रष्टा का।
यह द्वंद्व को
के बीच विरोध
नहीं है, यह
दो के बीच एक
गहन सामजस्य
है।
इसलिए
तो हम इसे
लीला कहते
हैं। एक खेल
है। शत्रुता
नहीं है। अगर
पृथ्वी और
आकाश दूर भी
जाते हैं, तो करीब आने
को। अगर
पदार्थ और
परमात्मा में
भेद भी पड़ता
है, तो वह
भेद केवल पास
आने की
प्रतीक्षा
है। पास आने
की तैयारी है।
तुमने
कभी अनुभव
किया हो, अगर
तुमने कभी
प्रेम किया
है। इसलिए
कहता हूं, कि
अगर तुमने
प्रेम किया है,
क्योंकि
बहुत कम लोग
प्रेम को
उपलब्ध हो
पाते हैं।
प्रार्थना तो
बहुत दूर, जीवन
प्रेम से भी
वंचित रह जाता
है। अगर तुम कभी
प्रेम किया है,
तो तुम एक
लय अनुभव
करोगे
प्रेमियों
में। कि
प्रेमी दूर होते
हैं, करीब
आते हैं--एक
छंद है।
क्योंकि अगर
तुम सदा ही
करीब-करीब रहो,
तो भी रस
जाता है। अगर
तुम सदा ही
दूर-दूर रहो, तो भी प्रेम
टूट जाता है।
एक लय बुद्धता
है। कि प्रेमी
दूर हटते हैं,
ताकि पास आ
सकें। पास आते
हैं, फिर
दूर हट जाने
को।
अगर
तुमने कभी
प्रेम किया है, तो तुमने
पाया होगा कि
प्रतिपल यह
यात्रा चलती
रहती है, दूर
होने की, पास
होने की कभी झगड़ते हैं,
दूरी बनाने
को। कभी
क्रोधित हो
जाते हैं, ताकि
मुख एक दूसरे
से फिर जाएं।
एक दूसरे की तरफ
पीठ हो जाए।
लेकिन वह
क्रोध उन्हें
और भी पास ले
आता है। जब
क्रोध का तूफान
जा चुका होता
है, तो
पीछे के
सन्नाटे का
क्या कहना! तब
वहां प्रेम की
मधुरिमा
खिलती है। जब
दो प्रेमी लड़ चुकते हैं,
झगड़ चुकते
हैं, तब उस झगड? के
बाद प्रेम फिर
से अभिनव हो
जाता है। हर
झगड़े के बाद
नई सुहागरात
है। और हर
सुहागरात के
बाद फिर नया झगड़ा है।
प्रेमी झगड़ते
हैं। झगड़े में
राज है।
अगर
प्रेमी झगड़ते
न हों, तो
समझना कि
प्रेम समाप्त
हो चुका है।
अब दूर जाने
की भी कोई
जरूरत न रही
क्योंकि पास
आने की कोई
आकांक्षा न
रही। अब
प्रेमी एक
दूसरे को सहते
हैंत्त, झगड़ते नहीं। समझना,
प्रेम चुक
गया है। जो
पति-पत्नी कभी
नहीं झगड़ते,
समझना कि
वहां प्रेम
रहा ही नहीं।
हां, जो सतत झगड़ते
हैं, वहां
भी प्रेम नहीं
है। जो चौबीस
घंटे झगड़े पर
ही उतारू हैं,
जिन्होंने
उसे कोई युद्ध
कर मैदान बना
लिया है, जो
उसे धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे...!
जो उसे समझ
रहे हैं कि
यही जीवन है, उनका भी
प्रेमी नहीं
है। प्रेम कीमियां
है, रसायन
है। झगड़ते
हैं, थोड़ा-सा
फासला हो जाए।
फासले में रस
पैदा होता है।
गरमी
के उत्तप्त
दिनों में जब
सूरज आग की
तरह बरसता है, पृथ्वी
तैयारी कर रही
है वर्षा में
तृप्त होने
की। फिर वर्षा
में डूब जाएगी
आकंठ। नदियों
में पूर
आएंगे। झरने
बड़े होकर बहेंगे।
बाढ़ फैलेगी।
रोआं-रोआं
सिक्त हो
जाएगा जल से।
पृथ्वी फिर
तैयार हो रही
है धूप के
लिए। सूखना
होगा, गीले
होने के लिए।
गीला होना
होगा, सूखने
के लिए।
जिसने
जीवन के इस
संगीत को समझा, उसके लिए
पृथ्वी और
परमात्मा का
द्वंद्व नहीं
है। खेल है।
उसे आत्मा और
शरीर के बीच
कोई संघर्ष
नहीं है। सतत
पास आना और
सतत दूर जाने
की छंद-बद्धता
है। योग, परम
संगीत की कला
है। वह कोई
दुश्मनी नहीं
है इसलिए शरीर
से लड़ना मत।
पृथ्वी को
त्याज्य मत
समझना।
पदार्थ को असार
मत कहना।
बाजार को
व्यर्थ मत
कहना। क्योंकि
बाजार और
हिमालय के बीच
छंद चल रहा
है। एक गहरा
छंद है।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं, कि उन
संन्यासियों
को कुछ भी
उपलब्ध न होगा,
जो सदा के
लिए हिमालय
भाग गए। उन गृहस्थों
को भी कुछ
उपलब्ध न होगा,
जो बाजार
में ही खो गए।
वहां भी एक
छंद चाहिए, कि कभी तुम
बाजार में
बैठे हो, दूर
हो गए मंदिर
से बहुत। और
कभी तुम मंदिर
में बैठे हो, पास हो गए
मंदिर के
बहुत। दूर हो
गए बाजार से बहुत।
अगर तुम इस
छंद-बद्धता को
संभाल लो, तो
तुम मेरे संन्यास
का अर्थ समझ
पाओगे।
अन्यथा मेरा
संन्यास कबीर
की उलटबांसी
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, कि यह
कैसा संन्यास
है? पत्नी
है, बच्चे
हैं, लोग
दुकान पर बैठे
हैं, दफ्तर
जा रहे हैं, ये कैसा
संन्यास? क्योंकि
संन्यास वे
जानते हैं, जो सदा के
लिए भाग गया, उसको वे
संन्यासी
कहते हैं। जो
सादा के लिए
बाजार से में
रह गया, उसको
वे गृहस्थ
कहते हैं।
मेरा
संन्यासी गृहस्थ
और पुराने
संन्यास के
बीच एक छंद
है। कभी वह सब
छोड़ कर हट
जाता है।
ध्यान में लीन
हो जाता है।
कभी वह फिर
बाजार में
वापस लौट आता
है। बाजार और
मंदिर में
विरोध नहीं है।
जैसे
तुम्हारी
श्वास जाती है
बाहर फिर भीतर
आती है। फिर
बाहर जाती है।
तुम्हारी
श्वास में विरोध
नहीं है।
तुमने कभी
श्वास को
संभाल लिया
होता अगर
शास्त्रों के
अनुसार, तो
तुम कभी के मर
गए होते।
श्वास को अगर
भीतर ही रोक
लोगे, तो
भी मर जाओगे।
श्वास को अगर
बाहर ही रोक
दोगे, तो
भी मर जाओगे।
श्वास को भीतर
भी आने दो, बाहर
भी जाने दो।
श्वास कोई
प्रतिबंध
नहीं मानती।
वह दोनों
किनारों पर
आती जाती है।
बाहर
जाती श्वास
संसार है।
भीतर आती श्वास
संन्यास--पुरानी
परिभाषा में।
भीतर ही साध
लो तो संन्यास, बाहर ही साध
लो तो गृहस्थ।
लेकिन मैं
मानता हूं वे
दोनों मर जाते
हैं। पुराना
गृहस्थ भी मर
चुका है। सड़
रहा है
बाजारों में,
दुकानों
में। उसके
जीवन में
विपरीत की गंध
न रही। वह मर
रहा है
क्योंकि उसके
जीवन में केवल
उत्ताप है, ग्रीष्म है।
वह केवल पतझड़
जानता है। और
पुराना
संन्यासी भी सड़ गया है।
उसे तुम मंदिर
में, आश्रमों
में सड़ता
हुआ पाओगे।
अगर तुम्हारे
पास थोड़ी भी
सुगंध लेने की
क्षमता हो, तो तुम उसकी
दुर्गंध को
समझ पाओगे। वह
सड़ रहा
है। क्योंकि
उसने भी सांस
को रोक लिया
है। उसने भी
एक किनारे से
अपने को बांध
लिया है। वास्तविक
संन्यास
दोनों के मध्य
में है--निरति
और सुरति।
अतियों पर नहीं
है, मध्य
में है और होश
में है। भागने
में नहीं है।
परिस्थिति को
बदलने में
नहीं है, अपने
होश को बदलने
में हैं। और
बड़ा प्यारा
संगीत है, जो
हिमालय और
बाजार के बीच सघ जाए, मंदिर
और दुकान के
बीज सध जाए।
बड़ा प्यारा संगीत
है।
दूर
होओ, ताकि पास
आ सको। पास आओ,
ताकि दूर जा
सको। तभी तुम
इस विराट की
लीला के सजीव
अंग हो सकोगे।
तभी तुम इस
वीणा के कंपते
हुए तार हो
सकोगे।
अन्यथा तुम
निर्जीव हो
जाओगे।
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु
जाने सब कोई।
इसलिए
कबीर ने कभी
बाजार नहीं
छोड़ा कबीर कपड़ा
बुनते ही रहे।
जुलाहे थे, जुलाहे बने
ही रहे।
शिष्यों ने
बहुत समझाया,
कि अब यह
शोभा नहीं
देता।
तो
कहते हैं, कबीर ने कहा,
जो
परमात्मा को
शोभा देता है,
वह मुझे
शोभा क्यों न
देगा? वह
बाजार को नहीं
मिटा रहा। कभी
का मिटा देता
चाहता तो।
संसार को नहीं
मिटा रहा। रोज
संसार को बनाए
ही चला जाता
है। रोज नए
बच्चे निर्मित
होते चले जाते
हैं। नई दुकान
खुलती है। नया
बाजार बनता
है। नया गांव
बसता है।
मुर्दों को
हटाता है। जो सड़ गए
उन्हें हटा
लेता है। नयों
को भेजता है।
ताजों को
भेजता है। जो
फिर से वासना
में पड़ेंगे।
फिर से
महत्वाकांक्षा
जागेगी
जिनको। जो फिर
से धन इकट्ठा
करेंगे। लोभ
करेंगे, क्रोध
करेंगे, प्रेम
करेंगे। सारी
लीला खड़ी
होगी।
और उस
लोभ, क्रोध, काम की समझ
से ध्यान की
तरफ जागेंगे।
जीवन का विषाद
उन्हें समाधि
के आनंद की
तरफ ले जाएगा।
फिर से संगीत
सधेगा।
पुरानों को
हटा लेता है।
समझदारों को
हटा लेता है।
परमात्मा
समझदारों के
विरोध में
मालूम पड़ता
है। नासमझों
को भेजता है।
समझदारों को
हटाता है।
क्योंकि समझदार
थोड़े ज्यादा
समझदार हो
जाते हैं। और
जीवन का संगीत
खोने लगता है।
उनकी समझदारी जड़ता हो
जाती है। वे
किसी एक से
चिपट जाते
हैं। या तो
गृहस्थ को पकड़
लेते हैं, जोर
से, या
संन्यस्त भाव
को पकड़ लेते
हैं जोर से।
छोटे बच्चों
की तरह सरल
नहीं रह जाते।
छोटे
बच्चों की
सरलता का
रहस्य तुमने
जाना, क्या
है? कभी
तुमने छोटे
बच्चे को देखा
गौर से? अभी
देखो, नाराज
है। खिलौना
टूट गया, चिल्ला
रहा है। क्रोध
से भर गया है, उत्तप्त है।
तब तुम सोच भी
नहीं सकते, कि यह बच्चा
कभी शांत
होगा। घड़ी भर
बाद भूल गया
खिलौना। शांत
है कोने में
बैठा। आंख बंद
हो गई। झपकी
लग गई। तुम
सोच भी नहीं
सकते, कि
यह बच्चा कभी
क्रोधित रहा
होगा। इतनी
सरलता से
डोलता है
क्रोध से
अक्रोध में, अशांति से
शांति में।
अभी प्रेमी कर
रहा है, कह
रहा है, तुम्हारे
बिना न रह
सकेगा एक
क्षण। अभी
नाराज हो गया।
अब यह कहता है,
तुम मर ही
जाओ।
तुम्हारी कोई
भी जरूरत नहीं
है। क्षण भर
बाद क्रोध जा
चुका। घृणा जा
चुकी। फिर
तुम्हारे गले
मिल रहा है।
छोटे
बच्चे की
सरलता क्या है? क्यों जीसस
मोहित हैं
छोटे बच्चों
पर? क्यों
वे कहते हैं
मेरे
परमात्मा के
राज्य में वे
ही प्रवेश कर
सकेंगे, जो
छोटे बच्चों
की भांति हैं।
जो
द्वंद्व के
बीच सरलता से
गतिमान हो जाए, वही सरल है।
तुम्हारे संन्यासी
भी जटिल हैं
तुम्हारे
गृहस्थ भी जटिल
हैं। अकड़ गए
हैं। एक ने
भीतर ही श्वास
बांध रखी है।
एक ने बाहर ही
रोक रखी है।
दोनों मर रहे
हैं। श्वास को
भीतर बाहर आने
दो।
यह
श्वास बड़ा
गहरा प्रतीक
है। जिस तरह
श्वास भीतर-बाहर
आती है, इसी
तरह तुम्हारी
चेतना भी बाहर-भीतर
आए। अब
तुम्हारी
चेतना भी
जीवित होगी।
इसलिए जो लोग
आंख बंद कर
लेते हैं
संसार की तरफ
और कठोर होकर
हठयोग को साधकर,
भीतर ही
रहने की कोशिश
करने लगते हैं,
उनका जीवन
भी दीन और
दरिद्र हो
जाता है। तुम
उनके जीवन में
गरिमा न
पाओगे। तुम
उनके जीवन में
सृजन की क्षमता
न पाओगे।
तुमने
कभी सुना है, कि इन आंख
बंद करनेवाले
अंतर्मुखी
लोगों ने, इन्ट्रोवर्टस ने दुनिया
को कोई सुंदर
गीत दिया हो? कि दुनिया
को कोई सुंदर
चित्र दिया हो,
कि कोई
सुंदर मूर्ति
बनाई हो कि
किसी बीमारी का
नया इलाज दिया
हो? इन्होंने
दुनिया को कुछ
दिया है? इनकी
सृजनात्मकता
क्या है? इनकी
क्रियेटीविटी
क्या है? ये
तो मुर्दा
हैं। ये हों
या न हों, बराबर
है। ये भीतर
बंद होकर
बैठते हैं।
इनका जीवन सड़
जाएगा। ये
पोखरे की तरह
हो गए। नदी न
रही, जो
बहती है। बंद
हो गए। इनसे
दुर्गंध
उठेगी।
भारती
अधिकतम
दुर्गंध, भारत
के जड़ हो गए
संन्यासियों
के कारण है।
और उनकी संख्या
बड़ी है; लाखों
में है। वे
लाखों लोग इस
मुल्क की छाती
पर बैठे हैं
जड़ हो कर। और
उनका प्रभाव
भारी है क्योंकि
वे पूज्य हैं।
सदियों से
तुमने उन्हें
पूजा है। उनके
पैर छुए हैं।
तुम उनको अब
भी पूजे चले
जा रहे हो।
लाश की पूजा
चल रही है। वे
तुम्हें भी
लाश में रूपांतरित
कर देंगे।
पश्चिम
का दुर्भाग्य
कि वहां लोग
बाहर ही बाहर
निर्मित कर
लेते हैं, लेकिन गीत
में बहुत है, लेकिन भीतर
की शांति नहीं
है। वे गीत तो
बहुत निर्मित
कर लेते हैं, लेकिन गीत
में भीतर का
स्वर नहीं
आता। वे
मूर्तियां
बहुत निर्मित
कर लेते हैं, लेकिन उनकी
मूर्तियां
ऐसी गलती हैं
जैसे पागलों
ने बनाई हों।
पिकासो
के चित्र देखो
तो ऐसा लगता
है, कोई
विक्षिप्त
आदमी चित्र
बना रहा है।
कितने ही
कलात्मक हों,
तो भी सुंदर
नहीं हैं।
कितना ही श्रम
उनमें लगाया
गया हो, तो
भी उनसे भीतर
से कुछ अहोभाव
नहीं उठता।
कोई आशीर्वाद
नहीं बरसता।
वे ऐसे हैं, जैसे जीवन
की दुखांत
कहानी कहते
हैं। विषाद भरी!
विक्षिप्तता
से भरी! पागल
आदमी का चित्र
प्रकट करते
हैं। किसी
बुद्धत्व की
मूर्ति उनसे
प्रकट नहीं
होती।
पश्चिम
में सृजन बहुत
है। चीजें
बढ़ती जाती
हैं। मकान
सुंदर होते
जाते हैं।
रास्ते अच्छे
होते जाते
हैं। कपड़े
बेहतर होते
जाते हैं।
मशीनें बनती
जाती हैं।
लेकिन भीतर
बड़ा कोलाहल
है। भीतर की
कोई शांति
नहीं है। पूरब
में भीतर की
शांति है
लेकिन मुर्दा
है।
ये
दोनों ही
अधूरी बातें
हैं। और दोनों
परमात्मा का
विरोध हैं।
परमात्मा
चाहता है, तुम श्वास
भी लो, तुम
श्वास छोड़ो
भी। तुम आकाश
को भी चाहो और
तुम पृथ्वी को
भी चाहो। और
तुम्हारी
दोनों चाहों
में कोई विरोध
न हो।
तुम्हारी
दोनों चाहे
किसी महाचाह
का अंग हो
जाएं। एक
विराट संगीत
के दो स्वर हो जाएं।
अन्यथा तुम
इकट्ठे हो
जाओगे और
संतुलन खो
जाएगा।
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु
जाने सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला
कोई।।
गावन
हारा कदे
न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना
पेखै, अनहद बेन बजावै।
गावन
हारा बदे न गावै--वह
जो असली गीत
गानेवाला है
वह कभी गाता
नहीं।
जटिल
है बात। इसलिए
तो लोग कहते
हैं, कबीर की
बातें उलटबांसी
हैं। जो असली
गानेवाला है,
वह कभी गाता
नहीं। उससे
गीत पैदा होता
है, वह
गाता नहीं। और
जब तक तुम
गाते हो, तब
तक गीत
ऊपर-ऊपर होगा।
तुम्हारी
आत्मा से पैदा
न होगा। चीन
में एक बड़ी
पुरानी उक्ति
है, कि जब
संगीतज्ञ
परिपूर्ण हो
जाता है, तो
वीणा को तोड़
देता है।
क्योंकि वीणा
भी सिक्खड़
की खबर देती
है। और जब
धनुर्धारी
परिपूर्ण हो
जाता है, तो
धनुष को छोड़
देता है।
एक बड़ी
पुरानी ताओ
कथा है कि एक
आदमी बहुत बड़ा
धनुर्विद हो
गया। सम्राट
ने घोषणा की राज्य
में, कि इससे
बड़ा कोई
धनुर्विद
नहीं है। अगर
कोई
प्रतियोगी सोचता
हो कि इससे
बड़ा धनुर्विद
है तो आ कर
प्रतियोगिता
कर ले। अन्यथा
यह आदमी राज्य
का सर्वोत्तम
धनुर्विद
घोषित कर दिया
जाएगा। तीन
महीने का समय
दिया।
दूसरे
ही दिन एक
बूढ़ा आदमी
आया। और उस
धनुर्विद से
बोला, इस
पागलपन में मत
पड़ो।
क्योंकि मैं
एक ऐसे आदमी
को जानता हूं,
जो तुमसे
बड़ा धनुर्विद
है। तो उस
धनुर्विद ने कहा,
तो वह आ जाए
और
प्रतियोगिता
कर ले।
तो वह
बूढ़ा हंसने
लगा। उसने कहा, जो जितना
बड़ा हो जाता
है, उतना
प्रतियोगिता
के पार हो
जाता है। यह
तो बच्चों का
काम
है--प्रतियोगिता,
काम्पीटीशन। वह नहीं
आएगा। अगर
तुम्हें
सीखना है तो
तुम्हें ले चल
सकता हूं।
धनुर्विद
हैरान हुआ।
क्योंकि उसने
सोचा भी न था, कि यह बात भी
हो सकती है कि
बड़ा धनुर्विद
हो, लेकिन
बड़े होने के
कारण
प्रतियोगिता
में न उतरे।
छोटे उतरते
हैं
प्रतियोगिता
में--स्वभावतः।
क्योंकि छोटे
ही बड़ा होना
सिद्ध करना
चाहते हैं।
इसलिए
प्रतियोगिता
में उतरते
हैं। ताकि
सिद्ध हो सके,
हम बड़े हैं।
जो बड़ा है। वह
बिना किसी
प्रमाण के बड़ा
है। उसे कोई
प्रतियोगिता
और किसी सम्राट
का
सर्टिफिकेट
नहीं चाहिए।
मनसविद
कहते हैं, सिर्फ हीन
ग्रंथि से पीड़ित
लोग
प्रतियोगिता
में उतरते हैं;
जिनके मन
में इनफिरिआरिटी
काम्प्लेक्स
है, जो डरे
हैं। जो भीतर
तो जानते हैं,
कि हम योग्य
नहीं हैं, लेकिन
किसी तरह
सिद्ध करना है,
तो कैसे
सिद्ध करें? जिसकी गरिमा
स्वयंसिद्ध
है, स्वतः
प्रमाण है, तो
प्रतियोगिता
में तो उतरता
नहीं।
बात तो
जंची।
धनुर्विद ने
कहा, मैं आता
हूं। वह पीछे
उस बूढ़े के
गया। वह धनुर्विद
को ले गया पास
के जंगल में।
और वहां एक व्यक्ति
था। वह लकड़ी
काट रहा था।
तो धनुर्विद
ने पूछा, यह
आदमी
धनुर्विद है?
कहा, यह
आदमी
धनुर्विद है।
इसका धनुष
कहां है? तो
उस बूढ़े आदमी ने
कहा, कि जो
वास्तविक
धनुर्विद है,
वह धनुष को
चौबीस घंटे
टांगे हुए
नहीं घूमता। पर
धनुर्विद ने
कहा, अगर
ऐसा मौका आ
जाए और संघर्ष
हो जाएं? उसने
कहा, धनुर्विद
है। वह तो हाथ
से भी तीर चला
सकते हैं। तीर
की भी जरूरत
नहीं।
तो उस
धनुर्विद ने
दूर से खड़े
होकर एक आड़
से और तीर
मारा। वह जो
लकड़ी काटने
वाला लकड़
हारा था, उसने
लकड़ी का एक
छोटा सा टुकड़ा
ले कर तीर पर
चोट की, जो
तीर आ रहा था।
तीर वापस लौट
गया। जा कर
धनुर्विद की
छाती में चुभ
गया।
धनुर्विद
आया, पैर पर
गिर पड़ा। उसने
कहा, मुझे
क्षमा करें।
मैं तो सोचता
था, धनुष
के बिना कहीं
धनुर्विद्या
आई है? मगर
तुमने तो
अनूठे हो। यह
कला मैं कैसे
सीख सकूंगा? उसने कहा, मेरे पास
रहो, सीख
जाओगे।
तीन
वर्ष लगे। वह
यह कला सीख
गया। लौटने
लगा सम्राट के
महल, तो उस
धनुर्विद ने
कहा, लेकिन
रुको। मैं कुछ
भी नहीं हूं।
मेरा गुरु अभी
जीवित है। मैं
तो ऐसे ही लकड़हारा
हूं। ऐसा थोड़ा
अच्छिष्ट
गुरु से पा
लिया, वही
हूं। क्योंकि
जो वास्तविक
धनुर्विद है,
वह लकड़ी भी
क्यों फेंकेगा?
उसकी आंख
इशारा काफी
है। आंश
का इशारा भी
क्यों? उसके
मन की धारणा
काफी है। अभी
जाओ मत।
यह
यात्रा तो
लंबी मालूम
पड़ी। तीन साल
तो इस आदमी के
साथ बीत गए।
सोचा था कि अब
पारंगत हो गया।
अब कोई उपद्रव
न रहा। इसका
गुरु भी है।
लेकिन अब
लौटने का भी
कोई उपाय न
था। रस उसे भी
लग गया था।
चला इस
लकड़हारे
के साथ पहाड़
की बड़ी ऊंची
चोटियों पर। एक
अत्यंत बूढ़े
आदमी को देखा, जिसकी कमर
झुकी हुई थी।
जो कम से कम सौ
के पार कर
चुका था उम्र।
उस लकड़हारे
ने कहा, यही
मेरे गुरु
हैं। उसे थोड़ी
हंसी आने लगी।
इसकी तो कमर
झुकी है, यह
तो निशाना भी
नहीं लगा
सकता। लेकिन
अब हिम्मत खो
चुकी थी
पुराने
अहंकार की।
उसने कहा, पता
नहीं...! उस बूढ़े
से कहा, कि
हमें भी सीखना
है। तुम्हारे
चरणों में आए
हैं। उसने कहा,
पहले
परीक्षा से
गुजरना
पड़ेगा। आओ
मेरे पीछे।
वह
पहाड़ की कगार
पर गया। एक
भयंकर चट्टान, जो खड्ड के
ऊपर दूर तक
चली गई थी और
जिसके नीचे हजारों
फीट गहरा
खड्डा था; जिस
पर जरा से चूक
गए, कि
मृत्यु
सुनिश्चित
थी। वह बूढ़ा
जा कर उस चट्टान
की कगार पर
खड़ा हो गया।
आधा पैर खड्डे
में झांकता
हुआ कमर झुकी
हुई, सिर्फ
ऐड़ी के बल
खड़ा। उसने कहा,
आओ मेरे
पास।
उसके
हाथ-पैर कंपने
लगे। वह उससे
दूर ही, उससे
चार फीट दूर
ही गिर पड़ा
घबड़ा कर। जो
उसने खड्ड के
नीचे देखा, ज्वरग्रस्त
हो गया शरीर।
उस
बूढ़े ने कहा, तुम कैसे
धनुर्विद हो
सकोगे? जिसके
मन में भय है, उसका तीर
निशाने पर
कैसे लगेगा? भय तो
कांपता ही
रहता है। उसका
हाथ कंपता
रहेगा। अंधों
को न दिखाई
पड़े, लेकिन
जिसके पास आंख
है, वह तो
देख ही लेता
है, कि तेरा
हाथ कंप रहा
है। जहां भय
है, वहां
कंपन है। अभय
ही निष्कंप
होता है। तू
तो यहां इतना
कंप रहा है कि गङ्ढे के
पास नहीं जा
सकता। तो तू
निशाना क्या
लगाएगा? भाग
जा यहां से।
उस
धनुर्विद ने
कहा जाते समय, मैं घबड़ा
गया हूं। मेरी
हिम्मत नहीं
है इस शिक्षा
में आगे उतरने
की। मैं पहली
परीक्षा में
ही सफल हो गया।
मैं यह खयाल
ही छोड़ देता
हूं अब
धनुर्विद होने
का। आप ठीक
कहते हैं, मेरे
भीतर कंपन है,
डर है घबड़ाहट
है।
और
निश्चित ही जब
भीतर भय हो, तो हाथ भी कंपेगा।
दिखाई पड़े न
दिखाई पड़े। और
जब हाथ कंपेगा,
तो चाहे
दुनिया को दिखाई
पड़े कि निशाना
लग गया है, लेकिन
उस बूढ़े
धनुर्विद ने
कहा, हम तो
जानते हैं, निशाना चूक
गया। निशाना
लगाने से थोड़े
ही लगता है।
निशाना वहां
थोड़े ही है।
निशाना तो
भीतर है। अकंप
हृदय चाहिए।
बस फिर सब हो
जाता है।
ऊपर
पक्षियों की
एक कतार उड़
रही थी। उस
बूढ़े आदमी ने
ऐसे हाथ का
इशारा किया और
हाथ को नीचे
गिराया।
पच्चीस पक्षी
नीचे गिर गए।
सिर्फ इशारे से!
भाव
काफी है। अगर
अकंप हृदय हो
तो जो भाव हो, वह तत्क्षण
यथार्थ हो
जाता है। अगर
अकंप हृदय हो
तो विचार
वस्तुएं हो
जाते हैं।
शब्द घटनाएं
हो जाती हैं।
इसलिए
तो ऋषियों के
आशीर्वाद का
इतना मूल्य
है। लोग उनके
पास सिद्धांत
समझने थोड़े ही
जाते थे; उनकी
अनुकंपा
लेने। वे
आशीर्वाद दे
दें। बस, उतना
ही काफी है।
इसलिए तो ऋषि
से अगर अभिशाप
निकल जाए, तो
उससे बचना
मुश्किल है।इसलिए
तो सारी हिंदू
कथाएं हैं कि
ऋषि ने अगर
अभिशाप दे
दिया तो जन्मों-जन्मों
तक पीछा
करेगा।
हालांकि ऋषि अभिशाप
देते नहीं। जो
दे, उनके
ऋषि होने में
थोड़ा संदेह
है। दुर्वासा
को ऋषि कहना
उचित नहीं है।
अभिशाप
ऋषि से निकल
कैसे सकता है? वे तो कथाएं
हैं। वे तो
कथाएं सिर्फ
इस बात की सूचक
हैं, कि
यदि ऋषि
दुर्वासा
जैसा हो और अभिशाप
दे दे, तो
जन्मों-जन्मों
तक उससे
छुटकारा
नहीं। क्योंकि
उसके शब्द
सत्य हो कर
रहेंगे। ऋषि
तो आशीर्वाद
ही देता है।
इसलिए
दुर्वासा कभी
हुए नहीं। वह
तो समझाने के
लिए है। वह तो
समझाने के लिए
है कि विपरीत
भी सच है।
होता नहीं, लेकिन अगर
हो, तो
जन्मों-जन्मों
तक उससे
छुटकारा नहीं
है। ऋषि तो
वही है, जिसका
प्राण
प्रतिपल
आशीर्वाद दिए
जाता है। वस्तुतः
ऋषि से
आशीर्वाद
मांगना भी
नहीं पड़ता।
तुम सिर्फ
अपने भिक्षापात्र
को लेकर मौजूद
हो जाओ, हृदय
को लेकर मौजूद
हो जाओ, उसके
आशीर्वाद गिर
ही रहे हैं।
वह जो कहता है,
वह होकर रहेगा।
वह जो सोचता
है, वह
होकर रहेगा।
इसलिए
जो लोग ध्यान
में उतरते हैं, उनके लिए
बुद्ध ने एक
नियम बनाया
है। ध्यान के
पूर्व उन्हें
अपने विचारों
पर परिपूर्ण
नियंत्रण कर
लेना चाहिए।
क्योंकि
कभी-कभी ऐसा
हो सकता है, कि तुम्हें
थोड़े से ध्यान
की क्षमता हो
जाए और कभी
क्षण भर को
तुम मौन होने
लगो, और
विचारों पर
पूरा
नियंत्रण न हो
और कोई अलग विचार
उस समय
तुम्हारे मन
के आकाश से
गुजर जाए, तो
वह पूरा हो
जाए।
और गलत
विचार
तुम्हारे मन
में चौबीस
घंटे गुजर रहे
हैं। जरा किसी
ने गाली दे दी
और तुम कहते हो, मर जाओ। अभी
कहते हो, कोई
हर्जा नहीं।
क्योंकि कोई
मरता नहीं।
तुम्हारे
कहने से क्या
होता है? लेकिन
अगर ध्यान का
क्षण हो, मन
थोड़ा शांत हो,
और यह विचार
की तरंग दौड़
जाए, वह
आदमी मर
जाएगा।
तत्क्षण मर
जाएगा।
इसलिए
समस्त
ध्यानियों ने, पतंजलि ने, बुद्ध ने, समस्त
ज्ञानियों ने
ध्यान के पहले
शील को रखा
है। उसका कारण
यह नहीं है, कि
चरित्रहीन
ध्यान को नहीं
पा सकता है।
चरित्रहीन
ध्यान को पा
सकता है।
लेकिन
चरित्रहीन का
ध्यान खतरनाक
हो जाएगा।
इसलिए शील
प्राथमिक है।
इसलिए
पतंजलि के आठ
नियम हैं।
बुद्ध का
अष्टांग
मार्ग है।
महावीर के पंच
महाव्रत
है। उनका
ध्यान से कोई
सीधा संबंध
नहीं है। ध्यान
उनके बिना हो
सकता है।
लेकिन तब
ध्यान अभिशाप
पैदा हो सकता
है। तब
दुर्वासा
पैदा हो सकता
है। अगर
दुर्वासा कभी
भी हुआ हो, तो शील के
नियम छोड़कर
उसने ध्यान
किया होगा। तब
दुर्घटना घट
सकती है।
गावन
हारा कदे
न गावै...
कबीर
कहते हैं, जो असली
गायक है, वहां
गाता थोड़े ही
है। उससे गीत
पैदा होता है।
असली गायक
स्वयं ही गीत
है। वह गाता
नहीं। क्योंकि
गाना तो कृत्य
है। असली गायक
की तो आत्मा
ही गीत है।
उसका होना गीतपूर्ण
है। तुम उसके
पास जाकर
संगीत सुनोगे।
वह चुप बैठा
हो, तो भी
उसके चारों
तरफ मधुर
संगीत गूंजता
हुआ तुम
पाओगे। एक
गुनगुनाहट
हवा में होगी।
एक गीत उसके
होने से पैदा
रहेगा। एक
सन्नाटा--लेकिन
संगीतपूर्ण।
तुम्हें
छुएगा, स्पर्श
करेगा, तुम्हें
भर देगा।
गावन
हारा कदे
न गावै।
इसलिए
तो परमात्मा
का गीत
तुम्हें
सुनाई नहीं पड़ता।
क्योंकि वह गा
नहीं रहा, वह स्वयं
गीत है। जब तक
तुम परिपूर्ण
शून्य न हो
जाओ तुम उस
गीत को न सुन
पाओगे--अवधू,
शून्य गगन
घर कीजै।
जैसे ही तुम
शून्य-घर में
प्रविष्ट हो
जाओगे, वैसे
ही वह गीत
सुनाई पड़ने
लगेगा, जो
परमात्मा है।
गावन
हारा कदे
न गावै, अनबोल्या नित गावै।
बोलता
नहीं, फिर
भी नित उसका
गीत चलता रहता
है
नटवर पेखि पेखना
पेखै, अनहद बेन बजावै।
और
जिसने उसको
देख लिया, नाचनेवाले को, उस गानेवाले
को, उस
नटवर को, उस
नटराज को, उसने
सब देख लिया।
क्योंकि उसका
नृत्य ही तो सारा
दृश्य जगत है।
ये जो तुम्हें
फूल-पत्ते, आकाश, वृक्ष,
बादल दिखाई
पड़ रहे हैं, ये सब उसके
नृत्य की भाव-भंगिमाएं
हैं। पूरा
अस्तित्व नाच
रहा है। इसलिए
हिंदुओं ने
परमात्मा की
जो गहनतम
प्रतिभा गढ़ी
है, वह
नटराज है। और
सारी
प्रतिमाएं
फीकी हैं। नटराज
बेजोड़
है। नाचनेवालों
का राजा! वह
दिखाई नहीं
पड़ता।
तिब्बत
में एक कथा है, कि एक
व्यक्ति
नाचते-नाचते
ऐसी दशा में
पहुंच गया कि
जब वह नाचता
था, तो नाच
ही रह जाता था
और नाचनेवाला
खो जाता था।
सभी नर्क उसी
दशा में पहुंच
जाते हैं। तब
उनके जीवन में
अनूठी घटनाएं
घटती हैं। वह
नर्तक इस
अवस्था में
पहुंच गया
वर्षों के नृत्य
के बाद। जब वह
नाचता था, तो
शुरू में तो
लोगों को
दिखाई पड़ता
था। थोड़ी देर
में धुंधला हो
जाता। और थोड़ी
देर में धुएं
की रेखा रह
जाती और थोड़ी
देर में नाचनेवाला
खो जाता। कुछ
दिखाई न पड़ता।
लेकिन जो शांत
हो सकते थे, वह उसके
नृत्य को पूर
शरीर पर
स्पर्श होते
अनुभव करते।
क्योंकि उसके
नृत्य से सारी
हवा तरंगायित
होती।
नटराज
का अर्थ है, ऐसा नर्तक, जिसके भीतर
नर्तक और
नृत्य में भेद
नहीं है। जो
स्वयं अपना
नृत्य है। जो
नर्तक भी है
और नृत्य भी
है। यह सारा
अस्तित्व
उसका नर्तन
है। और इस
नर्तन को तुम
समझ लो तो
नर्तक मिल जाए।
नर्तक मिल जाए,
तो तुम
नर्तक को समझ
लो। प्रकृति
को तुम ठीक से
पहचान लो, तो
परमात्मा की
प्रतिमा उभर
आए। या तो
परमात्मा से
तुम्हारा
मिलन हो जाए, तो प्रकृति
तुम्हें उसकी
भाव-भंगिमा
मालूम होने
लगे।
आकाश पर
घिरते बादल
उसके चेहरे पर
ही घिरते हैं।
झीलों में चमकती
शांति उसकी
आंखों में ही
चमकी है, उसकी
आंखों की ही
गहराई है। सब
वही है।
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है, सबका
सारभूत! इसलिए
तुम उसे खोजने
जाओ, तो
कहीं मिलेगा
नहीं। तुम इस
भ्रांति में
मत रहना कि
कहीं किसी दिन
पहुंच जाओगे,
परमात्मा
आमने-सामने
खड़ा है और तुम जैरामजी
कर रहे हो।
कभी तुम्हें
परमात्मा
आमने-सामने न
मिलेगा। वह सब
है।
गावना
हारा कदे
न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना
पेखै,
और
जिसने उसे देख
लिया, नृत्य
के विस्तार को
देख लिया।
उसने सारा दृश्य
समझ लिया, जिसने
द्रष्टा को
समझ लिया।
अनहद
बेन बजावै--उसकी
वीणा तो अनहद
बज रही है।
तुम्हीं को
अपने कान
सम्हालने
हैं। उसकी
वीणा तो कभी
रुकती नहीं।
तुम्हें ही
अपने को
सम्हाल लेना
है, ताकि तुम
वीणा को सुन
सको।
कहनी
रहनी निज तत जानै, यह
सब अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि
ग्रासै, यहु पुरिसा
की बाणी।
कहनी
रहनी निज तन जानै--
तीन
तरह के लोग
हैं। एक, जिसको
हम असाधु कहते
हैं। उसकी
कहनी और रहनी
विपरीत होती
है। कहता कुछ
है, करता
कुछ है। कहता
कुछ है, होता
कुछ है। बोलता
कुछ। कहता
पश्चिम जाता,
जाता पूरब।
उसके कहने में
और उकसे
होने में एक
भयंकर अंतराल
है। एक
विपरीतता है।
वह बंटा हुआ
है, खंड-खंड
है। यही द्वैत
का अर्थ है।
असाधु सोचता
कुछ बोलता कुछ,
कहता कुछ
है। तुम उस पर
भरोसा नहीं कर
सकते।
दूसरा
व्यक्ति है, जिसे हम
साधु कहते
हैं। वह जैसा
बोलता है, वैसे
ही रहने की
चेष्टा करता
है। कहानी और
रहनी में एक
तारतम्य
बिठाता है।
जैसा सोचता है,
वैसा ही
जीने का उपाय
करता है।
लेकिन कोई
उपाय कभी पूरा
नहीं हो पाता।
असाधु
से बेहतर। कम
से कम उपाय
करता है।
लेकिन कहनी और
रहनी एक हो
नहीं पाती।
बड़े से बड़े
साधु की भी
करनी एक नहीं
हो पाती।
इसलिए तो साधु
को तुम दुखी
देखते हो।
असाधु
को तुम दुखी
देखते हो, क्योंकि
उसके जीवन में
इतना विरोध है
कि इस विरोध
के कारण सुख
पैदा नहीं हो
सकता। तुम उसे
कारागृह में
देखते हो।
अपराध से भरा
हुआ देखते हो।
अपराध से घिरा
हुआ देखते हो।
हजार तरह का समाज
उसे दंड देता
है और हजार
तरह के दंड वह
खुद अपने को
देता है। उसका
जीवन एक व्यथा
है, पीड़ा
है। छूटना भी
चाहता है उससे,
तो छूट नहीं
सकता। उस पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
वह खुद अपने
पर भरोसा नहीं
कर सकता। उसका
धोखा गहरा है,
इसलिए वह
दुखी है।
साधु
भी सुखी नहीं
दिखाई पड़ता
है। यह बड़ी
चमत्कार की
बात है। असाधु
दुखी है, समझ
में आता है।
साधु क्यों
सुखी नहीं है?
मैं ऐसे
साधुओं को
जानता हूं जो
साठ-साठ वर्ष से
साधु रहे हैं।
उनकी उम्र
अस्सी हो गई।
जवान थे, बीस
वर्ष के थे, तब सक छोड़
दिया था। अब
भी दुखी वहीं
का वही है। बल्कि
और घना हो गया,
क्योंकि
जैसे-जैसे मौत
करीब आती है, वैसे-वैसे
विफलता दिखाई
पड़ती है। बस
असार हो गया।
उनके भीतर भी
गहन पीड़ा है।
भले लोग! इसका
क्या दुख है?
इनका
दुख यह है कि
ये लाख उपाय
करते हैं कहनी
और करनी को
बिठाने के, वह बैठ नहीं
पाती। उसमें
भेद बना ही
रहता है। अहिंसा
सोचते हैं, हिंसा पूरी
तरह खो नहीं
पाती। करुणा
सोचते हैं, चेष्टा भी
करते हैं, चेहरा
भी करुणा का
बनाते हैं, आचरण भी
सम्हालते हैं,
लेकिन
क्रोध जाता
नहीं।
ब्रह्मचर्य
साधने की
सोचते हैं, निष्ठापूर्वक,
आग्रहपूर्वक
आयोजन करते
हैं, लेकिन
काम-वासना
जाती नहीं।
बल्कि कई बार
बढ़ती मालूम
पड़ती है।
कहनी
और रहनी में चेष्टापूर्वक
जो भी सामज्य
बिठाएगा, वह भी दुखी
रहेगा। चेष्टापूर्वक
सामजस्य
बैठ ही नहीं
सकता।
फिर
तीसरा
व्यक्ति है, जिसको हम
संत कहते हैं,
जिसको हम
परम साधु कहते
हैं, ऋषि
कहते हैं--कोई
भी नाम दें।
इस तीसरे
व्यक्ति की
रहनी और कहनी
में एकता होती
है। लेकिन यह
एकता बाहर से
बिठाई नहीं
होती। वह
निजत्व को जान
लेता है, इसलिए
होती है। वह
स्वयं को
पहचान लेता है,
इसलिए उसके
बाएं हाथ के
भीतर एक एकता
आ जाती है।
क्योंकि
दोनों उसके ही
हाथ हैं।
इस भेद
को ठीक से समझ
लेना। वह
स्वयं को
जानता है, पहचान लेता
है। उस पहचान
के साथ ही
उसका कहना, उसको सोचना,
उसका आचरण,
सब एक हो
जाता है।
क्योंकि सबके
पीछे वह एक को खोज
लेता है। यह
जो एक की खोज
है, यह
विरोध में सामजस्य
बिठाने से कभी
हीं आती। यह
सीधा एक को
खोजने से ही
फलित होता है।
कहनी
रहनी निज तत जानै।
जिसने निज
तत्व को जान
लिया, उसकी
कहनी और रहनी
एक हो जाती
है।
यह सब
अकथ कहानी।
यह
कहानी है, जिसे कहना
बहुत
मुश्किल।
क्यों कहना
मुश्किल है? संतों ने
सदा कही है।
फिर भी तुम
सुन नहीं पाए,
इसलिए कहनी
मुश्किल है।
इसलिए अकथ
कहानी।
संत
सदा से कहते
रहे हैं कि
तुम स्वयं को
जान लो तो
तुम्हारे
आचरण और विचार
में एकता आ
जाएगी। आत्मा
को पहचान लो, तो एकता आ
जाएगी। तुम
एकता करने की
कोशिश करते हो
और सोचते हो, एकता आने से
शायद आत्मा को
जानना हो
जाएगा। तुम
गाड़ी के पीछे
बैल जोतते हो।
और
तुम्हारा भी
कारण है, कि
ऐसा तुम क्यों
करते हो। वह
कारण समझ लेना
चाहिए।
तुम्हारी भांति
के पीछे जरूर
कोई बुनियादी
आधार है। वह
आधार यह है कि
संतों को जब
भी तुमने देखा
है, तो
उनकी आत्मा तो
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ती, उनका
आचरण दिखाई
पड़ता है। आचरण
दिखाई पड़ता है,
आत्मा तो
दिखाई नहीं
पड़ती। इसलिए
जो दिखाई पड़ता
है वह तुम्हें
बहुत
मूल्यवान
मालूम पड़ता
है। और जो
नहीं दिखाई
पड़ता, उसका
तो तुम
मूल्यवान
कैसे समझोगे?
इसको
समझो। महावीर
को आत्मज्ञान
हुआ। आचरण में
अहिंसा आ गई।
उनका
आत्मज्ञान तो
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ेगा। उसे तो
तुम कैसे देखोगे? तो तुमने
आचरण में आई
अहिंसा को
देखा। वह तुम्हें
दिखाई पड़ी। वह
महत्वपूर्ण
हो गई। तुमने
समझा कि
महावीर
अहिंसक हो गए
हैं। शायद
इसीलिए
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हुए
हैं। बात
बिलकुल उलटी
थी। महावीर
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हुए थे,
इसलिए
अहिंसा को
उपलब्ध हुए
थे। तुमने
जाना, अहिंसा
को उपलब्ध हुए,
इसलिए
आत्मज्ञान
मिला है।
आत्मज्ञान तो
तुम्हें
दिखाई नहीं
पड़ता।
स्वभावतः
दृश्य को तुम
आधार बनाते हो, अदृश्य को
उसका परिणाम
तुम्हारी आंख
जो दिखाई पड़ता
है उसको पकड़ती
है। जो नहीं
दिखाई पड़ता, उसको कैसे पकड़ेगी? तो तुम
सोचते हो, मैं
भी अहिंसा को
उपलब्ध हो
जाऊं, तो
मुझे भी
आत्मज्ञान
उपलब्ध होगा।
बस, गणित
गलत हो गया।
यात्रा गलत
शुरू हो गई।
अब तुम
लाख उपाय
करोगे अहिंसक
होने के, थोड़े
बहुत होते हुए
मालूम भी
पड़ोगे, लेकिन
जितनी ही
चेष्टा करोगे,
उतनी ही तुम
पाओगे कि
असंभव है यह
होना। हो नहीं
पाता। बिठा
पाते हो समाज,
बिखर जाता
है। किसी तरह
सम्हाल पाते
हो, जरा सी घना
मिटा देती है।
वर्षों
सम्हालते हो,
क्षण भर में
टूट जाता है।
ताश के पत्तों
का घर मालूम
होता है। जरा
सा झोंका हवा
का आया कि गया।
अहंकार को
मिटाने की
कोशिश करते हो,
मिटता
नहीं। क्रोध
को हटाने की
कोशिश करते हो,
हटता नहीं।
कबीर
कहते हैं, यह सब अकथ
कहानी। इसे
कहना
मुश्किल।
क्योंकि कहते
से ही यह गलत
समझी जाती है।
उल्टी समझ
लेते हैं लो।
हम कुछ कहते
हैं, लोग
कुछ समझ लेते
हैं। इसलिए
अकथ कहानी।
इसलिए नहीं, कि यह कही
नहीं जा सकती।
इसलिए कि
कितना ही कहो,
समझी नहीं
जाती।
धरती उलटि आकासहि
ग्रासै, यहु परिसा
की बाणी।
और यही
परम-पुरुषों
की वाणी है; आप्त
पुरुषों की।
धरती उलटि
आकासहि ग्रासै--कि
तुम जिस जीवन
को अब तक
समझते रहे हो,
उसे ठीक
उलटा नियम है।
जैसे धरती उलट
कर आकाश को
ग्रस जाए, या
जैसे बूंद में
सागर गिर जाए।
तुम जो समझते हो,
उसने उलटा
नियम है।
तुम्हारी समझ
का नियम काम
नहीं आएगा।
तुम्हारी समझ
के नियम के
अनुसार तुम
चलते रहे हो।
वही तुम्हें
भटकाया है।
इससे
ठीक उलटा नियम
है। उलटा क्या
है? कि तुम
स्वयं को जान
लो, सब सध
जाएगा। और तुम
सब साधते रहो,
तुम स्वयं
को न जान
पाओगे।
उपनिषदों ने
कहा है एक को
साधने से सब
सध जाता है। महावीर
ने भी कहा है, एक को जानने
से सब जान
लिया जाता है।
इक साधे सब
सधे, सब
साधे सब जाय।
तुम बहुत साध
रहे हो। बहुत
को साधने की
जरूरत नहीं
है।
समझो, क्रोध को
आदमी साधता है,
तो क्रोध को
किसी तरह अगर
दबा ले, तो
उसमें
कामवासना बढ़
जाएगी।
क्योंकि
जितनी ऊर्जा क्रोध
में जाती थी, उतनी ऊर्जा
अब दूसरी तरफ
से बहने
लगेगी। एक आदमी
कामवासना को
साधता है। वह
किसी तरह
ब्रह्मचर्य
को बिठा लेता
है।
जबरदस्ती।
कामवासना तो
कम हो जाती है,
लेकिन जो
ऊर्जा
कामवासना से
निकलती थी, वह क्रोध
में निकलने
लगती है।
इसलिए
ब्रह्मचारियों
को तुम सदा ही
क्रोधी
पाओगे। भयंकर
क्रोधी। उनके आंख
पर ही क्रोध
रखा है। यह
अकारण नहीं है,
वैज्ञानिक
है। अगर तुम
लोभ को दबाओगे,
तो कुछ और
बढ़ जाएगा।
लेकिन
तुम्हारे
जीवन की दशा
वही रहेगी।
चुकता हिसाब
उतना ही
रहेगा। उसमें
फर्क न पड़ेगा।
एक साधे सब
सधे। अगर
बीमारी को
साधने गए, तो कितनी
बीमारियां
हैं। अनंत
बीमारियां हैं।
साधते-साधते
जनम-जनम बीत
जाएंगे। तुम
कभी न साध
पाओगे। एक तरफ
से सम्हालोगे,
पाओगे
दूसरी तरह से
उपद्रव शुरू
हो गया है। दूसरी
तरफ सम्हालने
जाओगे, पाओगे
पुरानी तरफ से
फिर यात्रा
ऊर्जा की शुरू
हो गई। तुम पगला
जाओगे। तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे। तुम थक
जाओगे। तुम
हार जाओगे।
तुम्हारा
आत्मविश्वास खो
जाएगा। नहीं,
बहुत को
साधने में मत पड़ना।
कुंजी एक है।
उससे सब ताले
खुल जाते हैं।
कहनी
रहनी निज तत जानै--
वही
सूत्र है:
स्वयं को जान
लेना। इसलिए
ध्यान पर इतना
जोर है मेरा।
लोग
मेरे पास आते
हैं। कहते हैं, क्रोधी हैं,
क्या करें?
उनसे मैं
कहता हूं, तुम
अलग से मत
सोचो। तुम
ध्यान करो।
उनकी समझ में
नहीं आता। वे
कहते हैं, क्या
ध्यान से
क्रोध चला
जाएगा?
ध्यान
से समझ आएगी; क्रोध नहीं
जाएगा। लेकिन
समझ आ जाए, तो
क्रोध पैदा
नहीं होता।
ध्यान से बोध
बढ़ेगा, क्रोध
नहीं जाएगा।
लेकिन क्रोध
तो उन्हीं को आता
है, जो
अबोध में हैं।
कामी आतै
है, कहता
है, कि बस!
पागल हुआ जा
रहा है। उससे
भी मैं कहता
हूं, तुम
ध्यान करो। वह
कहता है, क्या
ध्यान से
काम-वासना चली
जाएगी? इसको
कोई संबंध
नहीं दिखाई
पड़ता।
नहीं, ध्यान से
काम-वासना
कैसे जाएगी? लेकिन ध्यान
से भीतर तुम
सुखी होने
लगोगे। जो भीतर
सुखी है, वह
दूसरे से सुख
की मांग नहीं
करता। जो
स्वयं सुखी है,
वह किसी
द्वार पर सुख
मांगने नहीं
जाता। काम भिक्षा
है दूसरे से
सुख मांगने
की। जो भीतर
आनंदित है, वह संभोग
में आनंद नहीं
पाता। जिसको
बड़ा आनंद मिल
गया, वह
छोटे आनंद की
क्यों मांग
करेगा? जहां
रुपये बरस रहे
हों, वहां
वह कौड़ियां
क्यों गिनता
फिरेगा? और
जहां
हीरे-जवाहरात
हाथ में आ
जाएं, वहां
कोई समुद्र के
किनारे रंगीन
पत्थर, सीप,
मोती
इकट्ठे करते
फिरता है? बात
गई!
लोग
मुझसे कहते
हैं, कि आप
तो--हम अलग-अलग
बीमारियां
लेकर आते हैं,
इलाज एक ही
बता देते हैं।
मैं भी क्या
कर सकता हूं? इलाज एक ही
है।-- लोग
चाहते हैं, उनकी
बीमारियों की
मैं चर्चा
करूं। उनकी
बीमारियों पर
ध्यान दूं।
विशिष्टता है,
वे अलग
बीमारी लाए
हैं। बीमारी
का कोई मूल्य
नहीं है। औषधि
तो एक है।
औषधि रामबाण
है। कोई अलग-अलग
इलाज की जरूरत
नहीं है।
तुम
सबकी बीमारी
एक है; वह
आत्म-अज्ञान
है। बाकी सब
बीमारियां उस
बीमारी की
छायाएं हैं।
छायाओं से कौन
लड़ेगा? लड़
कर कौन कब
जीता है? तुम
मूल बीमारी पर
चोट कर दो।
इसलिए समस्त
ज्ञानी कहते
हैं, आत्मज्ञान
एकमात्र
मार्ग है और
आत्मज्ञान के
लिए ध्यान
एकमात्र
कुंजी है।
और तब ऐसी
घटना घटती है।
धरती उलटि आकासहि
ग्रासै--
कि तुम, जो छोटे
मालूम पड़ते हो,
छोटे हो
नहीं। तुमने
वामन का अवतार
लिया होगा, मगर वामन
में भी
परमात्मा का
अवतार छिपा
है। तुम कितने
ही छोटे हो, तुम छोटे हो
नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के गांव में
एक सर्कस आया
था और उसने
सर्कस में
दरख्वास्त
दी। कोई और
काम मिल नहीं
रहा था, उसने
सोचा, सर्कस
में भरती हो
जाएं।
दरख्वास्त
में उसने लिखा
कि मैं दुनिया
में सबसे बड़ा
ठिगना आदमी
हूं। मैनेजर
भी थोड़ा चकित
हुआ, कि यह
किस तरह का
आदमी है? सबसे
बड़ा ठिगना
आदमी? बुलाने
योग्य है।
क्योंकि
सर्कस तो ऐसे
करिश्मों में
उत्सुक रहते
हैं। नसरुद्दीन
को बुलाया। जब
नसरुद्दीन
वहां जाकर खड़े
हुए तो मैनेजर
भी थोड़ा
परेशान हुआ।
होंगे कम से
कम छह फीट चार
इंच। उसने कहा,
तुम अपने को
ठिगना आदमी
कहते हो? उसने
कहा, मैंने
पहले ही लिखा
है, सबसे
बड़ा ठिगना
आदमी। मुझसे
बड़ा कोई ठिगना
आदमी नहीं।
तुम
कितने ही
ठिगने हो, तुम कितने
ही वामन हो, कितना ही
छोटा रूप रखा
हो तुमने, पर
पूरा
परमात्मा
तुममें मौजूद
है। रत्ती भर कम
नहीं।
बूंदें। बूंद
में सागर
मौजूद है। बूंद
में सागर का
सारा सार
मौजूद है। एक
बूंद को समझ
लो, सारा
सागर समझ में
आ गया। अब बचा
क्या सागर में
समझने को? एक
बूंद का सूत्र
पकड़ में आ जाए
एच. टू. ओ, पूरा
सागर पकड़ में
आ गया। एक
बूंद को तोड़
कर जान लिया, कि उदजन और
आक्सीजन की
मेल है, पूरा
सागर का रहस्य
खुल गया। अब
कोई हरेक बूंद
को थोड़े ही
जानना पड़ेगा।
इसलिए
कबीर का वचन
है, हेरत-हेरत हे सखि, रहया
कबीर हिराई।
बूंद समानी
समुंद में, सो कत हेरी
जाई। यह पहला
वचन है। इसके
वर्षों बाद
उन्होंने
दूसरा वचन भी
लिखा। पहले
वचन में वे
कहते हैं, बूंद
समानी
समुंद में, सो कत हेरी
जाई। बूंद
समुद्र में खो
गई। अब उसे
वापस कैसे निकालूं?
कुछ
वर्षों बाद
उन्होंने पद
को फिर से
लिखा और लिखा, हेरत हेरत हे
सखि, रहया कबीर हिराई,
समुंद
समाना बूंद
में, सो कत हेरी जाई।
समुद्र बूंद
में समा गया।
अब उसको कैसे निकालें?
बूंद
समुद्र में
गिरी थी, तो
कोई रास्ता भी
तो था निकालने
का। छोटी चीज,
बड़ी चीज में
गिरी थी। खोज
लेते। अब तो
बड़ी मुश्किल
हो गई। समुद्र
बूंद में गिर
गया। अब कहां
खोजूं?
दूसरा
पद समाधि का
है। पहला पद
ध्यान का है।
पहले पद में
कबीर को ध्यान
की पहली झलक
मिली होगी।
लेकिन जिसको
जापान में सतोरी
कहते
हैं--पहली
झलक। पहली झलक
में ऐसे ही लगता
है, कि बूंद
गिर गई समुद्र
में। लेकिन जब
ध्यान परिपूर्ण
होता है जब
ध्यान समाधि
बनता है। जब
ध्यान से वापस
लौटना बंद हो
जाता है, जब
ध्यान सतत
रहता है, अनर्निश बहती है
धारा, अखंड
होता है, तब
दूसरा पद कबीर
ने लिखा है।
समुंद समाना
बूंद में सो
कत हेरी
जाई। अब और
मुसीबत हो गई।
बूंद तो खोज
भी लेते। किसी
तरह निकाल भी
लेते। अब यहां
समुद्र बूंद
में गिर गया
है। अब खोजने
का कोई उपाय न
रहा।
और यह
सच है। ध्यान
के बाद तो
लौटना संभव
है। समाधि के
बाद लौटना
संभव नहीं है।
ध्यानी तो वापस
लौट सकता है, गिर सकता
है। ध्यानी चढ़ता है
शिखर पर। किसी
क्षण में
ध्यान की प्रगाढ़ता
होती है। फिर
सो जाता है।
फिर वापस उतर
आता है। फिर
अंधेरी
गलियों में
भटकने लगता
है। फिर घाटियों
का अंधेरा आ
जाता है। पहाड़
का सूरज खो जाता
है। शिखर की
चमक खो जाती
है। फिर चढ़ता
है, फिर
खोता है।
ध्यानी तो बहुत
बार लौटता है।
इसलिए सतोरी
समाधि नहीं है।
समाधि
तो ऐसी अवस्था
है, जिससे
लौटना नहीं
होता। बुद्ध
ने दो शब्द
उपयोग किए
हैं। ध्यान को
वे कहते हैं, स्रोतापन्न;
जो नदी की
धारा में उतरा,
लेकिन चाहे
तो वापस लौट
सकता है।
किनारा अभी मौजूद
है। स्रोतापन्न--स्रोत
में उतरा। बस,
उतरा ही है
अभी। चाहे, तो छलांग
लगा कर वापस
किनारे पर आ
जाए।
समाधिस्थ
को बुद्ध कहते
हैं अनुगामी; जो फिर नहीं
लौट सकता।
जैसे नदी सागर
में गिर जाए।
फिर किनारा
बचता ही नहीं
है। कबीर का
पहला सूत्र तो
स्रोतापन्न
का है और
दूसरा सूत्र
अनुगामी का।
फिर कोई उपाय
नहीं। फिर वह
समाधि में ही
भोजन करता, समाधि में
ही सोता, समाधि
में ही चलता, समाधि में
ही बोलता।
उसका होना
समाधिस्थ होगा।
सागर बूंद में
खो गया।
धरती उलटि आकासहि
ग्रासै, यहु परिसा
की बाणी।
यह
परम-पुरुषों
की वाणी है।
आप्त पुरुषों
की वाणी है।
जिन्होंने
जाना है, उनकी
वाणी है। ऐसी
घड़ी आती है कि
बूंद ग्रस लेती
है सागर को।
ऐसा अंश ग्रस
लेता है अंशी
को। ऐसी घड़ी
आती है, आत्मा
में परमात्मा
लीन हो जाता
है। ऐसी घड़ी आती
है, कि अणु
में विराट छिप
जाता है।
बाज पियालै
अमृत सौख्या...
उस घड़ी
में पानी नहीं
पड़ता और अमृत पीया जाता
है। प्याली की
जरूरत नहीं
होती। पीने की
जरूरत नहीं
होती। बाज पियालै
अमृत सौख्या
अमृत पीया
जाता है। न
प्याली की
जरूरत होती, न पीने की
जरूरत होती।
नदी
नीर भरि राख्या--फिर
नदी सागर में
नहीं गिरती।
अब तो सागर ही
नदी में गिर
गया। फिर तो
नदी में ही सागर
समा जाता है।
...नदी
नीर भरि राख्या।
इसलिए
समाधिस्थ
व्यक्ति भरा
है अनंत सागर
से। तुम कितना
ही उससे ले लो, चुकेगा न।
तुम जितना
चाहो, उतना
ले लो। तुम
लेने में
संकोच मत
करना। नदी नीर
भरि राख्या।
अब तो नदी
नहीं है यह, कि तुम चुका
दो। कि गर्मी
के दिन आए और
सूख जाए, रेत
रह जाए और
कहीं-कहीं
डबरों में
थोड़ा पानी रह
जाए। अब यह
कोई नदी नहीं
है। जिसे सूरज
सुखा दे। नदी
नीर भरि राख्या--अब
तो नदी सागर
को भर ली अपने
में। अब यह सूखेगी
न। अब कोई
सूरज इसे सुखा
न सकेगा। अब
कोई ग्रीष्म न
आएगी। अब यह
सदा भरपूर
रखेगी। समाधि सदा
हरी अवस्था
है। सदा यौवन।
कहै
कबीर ते बिरला
जोगी धरणि
महारस चाख्या।
उस
जोगी को कबीर
कहते हैं वह
बिरला है।
तीन
तरह के लोग
मैंने तुमसे
कहे। एक असाधु, जो धरती का
रस चखने की
कोशिश करते
हैं। लेकिन जानते
नहीं, कैसे
चखें! जानते
नहीं, कहां
से चखें!
असाधु सुख के
पानी की कोशिश
करता है।
लेकिन जानता
नहीं सुख कैसे
पाया जाए।
पाने
की कोशिश तो
असाधु भी सुख
की ही करता है, पाता सुख
है। आकांक्षा
तो सुख की है, मिलता दुख
है। क्योंकि
आकांक्षा
पर्याप्त नहीं
है। जरूरी है,
काफी नहीं
है। फिर मार्ग
भी चाहिए फिर
विधि भी
चाहिए। फिर
ठीक-ठीक खोज
भी चाहिए। ठीक
खोज के लिए
चेतना चाहिए,
होश चाहिए।
असाधु सुख
खोजता है, लेकिन
जहां खोजता है,
वहां दुख
पाता है।
साधु
भी सुख खोजता
है। उसके पास
थोड़े सूत्र भी
हैं, लेकिन
उलटे हैं।
जैसे चाबी को
कोई उलटा ताले
में लगाता हो,
तो ताला
नहीं खुलता।
सिर मारता है
साधु। चाबी हाथ
में है। उलटी पकड़ी है।
ताला बिलकुल
करीब है। जरा
चाबी को ठीक
कर लेने की
जरूरत है।
लेकिन उलटी
चाबी को ताले
में डालने की
कोशिश करता
है। उससे
कभी-कभी ऐसा भी
हो जाता है, कि ताला भी
खराब हो जाता
है। फिर शायद
सीधी भी कर लो
चाबी, तो
भी मुश्किल
होती है खोलने
में।
फिर
संत पुरुष हैं, जो चाबी को
सीधा पकड़ते
हैं। जो एक को
खोजते हैं। एक
को साधते हैं।
निजत्तत्व
को जानते हैं।
फिर उनकी कहनी,
रहनी एक हो
जाती है। ताला
खुल जाता है।
तुमने
लाते देखे हैं, ऐसे ताले, जो पहली की
तरह होते हैं?
जिनमें
चाबी नहीं
लगानी पड़ती
जिनमें कुछ
नंबर लगे होते
हैं। बहुत बड़े
धनी लोग उस
तरह के ताले
का उपयोग करते
हैं। नंबरो
को एक खास ढंग
पर बिठाना
पड़ता है तो
ताला खुल जाता
है। वह तो कोई
जानता है। जो
जानता है, वही
नंबरो को
खास ढंग में
बिठा सकता है।
चोर उसकी चाबी
नहीं बना
सकते।
क्योंकि वह तो
बड़ा गणित का
सवाल है।
वर्षों की
मेहनत करके भी
कोई उसके ठीक
से नहीं जमा
सकता। जानता
है, तो ही
ठीक जमा सकता
है। क्योंकि
अगर तुम ऐसा भूल-चूक
के सिद्धांत
से जमाने की
कोशिश करो, तो लाखों
बार जमाओगे
तब कहीं एकाध
बार जम जाए।
वह भी पक्का
नहीं है।
ये
कहनी और रहनी
अंक हैं उस
ताले पर। ये
दोनों बिलकुल
ठीक जम जाते
हैं जब तुम
वही कहते हो, जो तुम हो।
जब तुम वही हो,
जो तुम कहते
हो। जल
तुम्हारे
होने में कोई
द्वंद्व नहीं
रह जाता, एक
ही संगीत छा
जाता है, तब
ताला खुल जाता
है। संत पुरुष
ताले के खोल
लेते हैं एक
को जानकर। वे
दो को जमा
लेते हैं।
जमाना पड़ता
नहीं, वे
अपने आप जम
जाते हैं। एक
के जानने में
दो जम जाते
हैं। अद्वैत
के जानने में
द्वैत जम जाता
है।
कहै
कबीर ते बिरला
जोगी, धरणि
महारस चाख्या।
और ऐसा
व्यक्ति
परमात्मा का
ही आनंद नहीं
लेता, ऐसा व्यक्ति
धरणी के भी
महारस को पाता
है। ऐसा व्यक्ति
परम तत्व को
चखता है, उस
परमात्मा को
तो पीता ही है,
लेकिन इस
प्रकृति को भी
पीता है। वह
फूलों को देखकर
भी आनंदित
होता है। और
तुम इतने
आनंदित न हो
सकोगे फूलों
को देखकर।
सोचा
थोड़ा बुद्ध को
फूलों के पास
से गुजरते!
बुद्ध को जैसा
आनंद मिलेगा।
फूल में, तुम्हें
न मिलेगा।
क्योंकि असली
सवाल फूल हनीं
है। असली सवाल
तुम हो। बुद्ध
अपने आनंद भरे
हृदय से फूल
की तरफ देखते
हैं। फूल अनंत
रहस्य से भर
जाता है। फूल
में तुम वही
देखते हो, जो
तुम हो। फूल
तो दर्पण है।
फूल के दर्पण
में बुद्ध
अपने को ही
देखते हैं।
इसलिए फूल जो
सुवास बुद्ध
को देगा, वह
तुम्हें न
देगा।
जिसने
अपन हृदय की
कुंजी पा ली, जिसने भीतर
का हृदय खोल
लिया, उसके
हाथ थे
मास्टर-की आ
गई। उसके हाथ
में मूल कुंजी
आ गई। वह फूल
को भी खोल
लेगा। वह झरने
को भी खोल
लेगा। वह भोजन
को भी खोल
लेगा। वह
प्रेम को भी
खोल लेगा। और
सब तरफ से उस
पर वर्षा हो
जाएगी। उसकी
संवेदनशीलता
अनंत हो जाती
है।
ध्यान
रखना, महायोगी
संवेदनशून्य
नहीं होता, महासंवेदनशील होता है।
महायोगी
अस्वाद में
नहीं जीता, परम स्वाद
में जीता है।
इसलिए परम
स्वाद को बनाना
अपना व्रत। और
महायोगी
संसार के
विपरीत नहीं
होता। संसार
से भी
परमात्मा के
ही रस को पाता
है।
एक बार
खुद का दीया
जल जाए, कि
सभी तरफ से
आनंद की
धाराएं बहनी
शुरू हो जाती
हैं। इसलिए
कबीर उसको
महायोगी कहते
हैं। विरला
योगी कहते
हैं।
...धरणि
महारस चाख्या।
योगी
हैं...जो
परमात्मा का
रस चखते हैं, वह महायोगी
नहीं। उनका
परमात्मा अभी
आधा है। वे
अधूरे योगी
हैं, जो
आंख बंद करके
परमात्मा का
रस तो चख लेते
हैं, आंख
खोल कर
प्रकृति का रस
चखने में डरते
हैं। इनका योग
पूरा नहीं है,
ये भयभीत
हैं। इनका
परमात्मा
काफी नहीं है।
इनका परमात्मा
इतना काफी हनीं
है, कि ये
डरें न।
वास्तविक
योगी भीतर आंख
बंद कर के
परमात्मा को
चखता है। आंख
खोल कर जगत को
चखता है। भीतर
चैतन्य को
चखता है। बाहर
संवेदनाओं को
चखता है। बाहर
और भीतर खो ही
जाता है। बाहर
और भीतर एक हो
जाते हैं। जो
बाहर है, वही
भीतर है। जो
भीतर है, वही
बाहर है। जब
तब बाहर भीतर
का भेद है, तब
तक तुम महायोग
को उपलब्ध
नहीं हुए। जिस
दिन एक ही रह
जाता है, क्या
बाहर और क्या
भीतर? तुम्हारे
घर के बाहर जो
आकाश है, वही
तुम्हारे घर
के भीतर भी।
जो तुम्हारे
आंगन में
समाया है, वही
तो परम आकाश
में भी फैला
हुआ है।
आंगन
और आकाश में
भेद कहां है? एक ही है। एक
ही लहरें डोल
रही हैं, बाहर
और भीतर।
बाहर-भीतर दो
किनारे हैं।
चैतन्य का
सागर बीच से
बह रहा है।
कहै
कबीर ते बिरला
जोगी, धरणि
महारस चाख्या।
इसलिए
मैं तुमसे
कहता हूं, रस के विरोध
में मत जाना।
महारस को
चखना। जीभ को
जला मत लेना।
आंख को फोड़
मत लेना। कान
को बधिर मत कर
लेना। नाक को
मार मत
डालना--जगाना।
उनको
संवेदनशील
बनाना। घबड़ाना
मत।
मैं इस
कहानी में
भरोसा नहीं
करता कि
सूरदास ने
आंखें फोड़
लीं--इस डर से
कि आंखों से
देखते हैं, तो सुंदर
स्त्रियां
दिखाई पड़ती
हैं। अगर उन्होंने
ऐसा किया हो
तो सूरदास दो कौड़ी के
हैं। मैं नहीं
जानता कि ऐसा
किया होगा। क्योंकि
सूरदास के
वचनों में ऐसा
रस है। इसलिए
मैं कहता हूं
कि नहीं किया
होगा। वचनों
में ऐसा रस है,
वह कैसे आंख
फोड़ लेगा?
यह कहानी नासमझों
की गढ़ी
होगी। जिसके
वचनों में
इतना प्रेम है,
वह कैसे आंख
फोड़ लेगा?
जिसके
वचनों में
कृष्ण के रूप
का ऐसा वर्णन
है, वह
कैसे आंख फोड़
लेगा?
नहीं।
सूरदास अगर
रहे होंगे, तो सुंदर
स्त्रियों
में भी उन्हें
कृष्ण ही दिखाई
पड़ें होंगे।
सूरदास अगर
हरे होंगे, तो सुंदर
स्त्री की
पायल में उनको
कृष्ण की ही
झंकार सुनाई
पड़ी होगी।
सूरदास अगर
रहे होंगे, तो सुंदर
स्त्री के रूप
में भी
उन्होंने उस
एक का ही रूप
देखा होगा।
मैं
तुमसे नहीं
कहता। रस को
मारना मत, अन्यथा तुम
कभी भी पूरे
परमात्मा को
जानने में
समर्थ न हो
जाओगे। और
अधूरा
परमात्मा भी
कोई परमात्मा
है? अधूरा
परमात्मा तो
ऐसे ही है, जैसे
कोई कहे आधा
वृत्त। आधा
कहीं वृत्त
होता है!
वृत्त तो पूरा
होता है, तभी
होता है। तभी
होता है। आधार
परमात्मा कहीं
परमात्मा
होता है? यह
तो तुम्हारी
मन की धारणा
होगी, सिद्धांत
होगा, शास्त्र
होगा।
परमात्मा
तो पूर्ण है।
प्रकृति उसका
अंग है। शरीर
उसका घर है।
तुम महारस को
उपलब्ध हो सको, इसका ध्यान
रखना। रूप में
अरूप दिखने
लगे, आकार
को निराकार
दिखने लगे।
शुद्ध में
विराट की
प्रतिध्वनि
सुनाई पड?ने
लगे, तब
तुम इस अवस्था
को उपलब्ध हो
जाओगे, जिसको
कबीर कहते
हैं--
कहै
कबीर ते बिरला
जोगी, धरणि
महारस चाख्या।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें