एक
बार देवताओं
में यह प्रश्न
उठा कि दानों
में कोन दान
श्रेष्ठ है? रसो
में कोन रस
श्रेष्ठ है? रतियों में कोन
रति श्रेष्ठ
है? और
तृष्णा— क्षय
को क्यों
सर्वश्रेष्ठ
कहा जाता है?
कोई
भी इन
प्रश्नों का
उत्तर न दे
सका। देवताओं
ने सबसे पूछने
के बाद इंद्र
से पूछा। वह
भी इसका उत्तर
न दे सका। तब
इंद्र सहित सभी
देवताओं ने
जेतवन में
जाकर भगवान के
पास आ इन
प्रश्नों को
पूछा।
भगवान
ने कहा धर्म
के अनुभव में
सब प्रश्नों के
उत्तर हैं।
फिर प्रश्न
बहुत नहीं हैं
एक ही है।
सोचने मात्र
से समाधान
नहीं होगा।
जागो। जागने
में समाधान
है। धर्म के
अनुभव में
समाधान है। सब
व्याधियों के
लिए एक ही
औषधि है—
धर्म। तब
उन्होंने यह
सूत्र कहा।
सबदानं
धम्मदानं
जिनाति सब्बं
रसं धम्मरसो जिनाति।
सब्बं
रति धम्मरती
जिनाति
तण्हक्सयो
सबदुखं
जिनाति ।।
'धर्म का दान
सब दानों में
बढ़कर है।
धर्म-रस सब रसों
में प्रबल है।
धर्म में रति
सब रतियों में
बढ़कर है। और
तृष्णा का
विनाश सारे
दुखों को जीत लेता
है और धर्म की
उपलब्धि उससे
होती है, इसलिए
वह
सर्वश्रेष्ठ
है।'
पहले
इस दृश्य को
हृदयंगम कर
लें।
एक
बार देवताओं
में प्रश्न
उठा..।
देवताओं के पास
कुछ और काम है
भी नहीं।
व्यर्थ की
बकवास! देवता
करेंगे भी
क्या? काम तो
वहां कुछ बचता
नहीं! काम तो
समाप्त हो गया।
कल्पवृक्षों
के नीचे बैठकर
सभी इच्छाएं पूरी
हो जाती हैं!
देवता सुख ही
सुख में जीते
हैं। जीवन का
बाहर का
व्यवसाय तो
बंद हो जाता है।
जब बाहर का
व्यवसाय बंद
हो जाता है, तो चित्त के
सब व्यवसाय
शुरू हो जाते
हैं। तब बड़ा
सोच-विचार
उठता है। बड़े
विवाद उठते
हैं।
खयाल
करना, दर्शनशास्त्र
तभी पैदा होता
है, जब पेट
ठीक से भरा
हो। भूखे भजन
न होईं गोपाला।
भूखे भजन हो
भी नहीं सकता।
जीवन
की सीढियां
हैं। शरीर की
जरूरतें पूरी
हो जाएं, तो मन
की जरूरतें
पैदा होती
हैं। शरीर की
जरूरतें अधूरी
रहें, तो
मन की जरूरतें
कभी पैदा नहीं
होतीं। अब कोई
भूखा मर रहा
है, उसको
तुम कहो कि यह
बीथोवन का
संगीत सुनो।
वह तुम्हारा
सिर फोड़ देगा।
वह कहेगा मैं
भूखा मर रहा
हूं। बीथोवन
का संगीत! आप
कह क्या रहे
हैं? आप मेरा
अपमान कर रहे
हैं!
और
भूखे पेट में
बीथोवन का
संगीत जाएगा
कैसे! भूखा
संगीत सुन
कैसे सकता है?
कोई
भूखा मर रहा
है,
और तुम कहते
हो, पढ़ो
कालिदास की
कविताएं! इनसे
बड़ा आनंद
आएगा! वह कहता
है. कुछ रोटी
मिल जाए!
कालिदास आप
पढ़ो, रोटी
मुझे दे दो!
एक
सीडी है। शरीर
की जरूरत पूरी
हो,
तो मन की
जरूरत। मन की
जरूरत में
काव्य है, संगीत
है, कला
है। फिर मन की
जरूरतें पूरी
हो जाएं, तो
आत्मा की
जरूरतें पैदा
होती हैं।
जिसने
अभी संगीत
नहीं सुना, और
जिसने काव्य
का रसास्वादन
नहीं किया, वह धर्म के
जगत में
प्रवेश न कर
सकेगा। और जिसने
अभी
दर्शन-शास्त्र
के ऊहापोह में
उलझन नहीं ली,
नहीं डोला,
वह भी धर्म
में प्रवेश
नहीं कर
सकेगा। धर्म
आखिरी जरूरत
है। धर्म
अंतिम है। वह
आत्मा की जरूरत
है। इसलिए जब
कोई देश
समृद्ध होता
है, तो वह
धार्मिक होता
है। जब कोई
देश गरीब हो
जाता है, अधार्मिक
हो जाता है।
इसलिए
भारत जैसे देश
की अभी
धार्मिक होने
की संभावना
नहीं है। अभी करते
धर्म की। और
भारत
के
कम्युनिस्ट
होने की
संभावना है, धार्मिक
होने की
संभावना नहीं
है।
इसलिए
लोग हैरान भी
होते हैं।
पश्चिम से लोग
आ रहे हैं
पूरब में, तलाश
करते धर्म की।
और पूरब के
लोग हैरान
होते हैं कि
यह मामला क्या
है! पूरब के
लोग पश्चिम जा
रहे हैं! कैसे
अच्छी
इंजीनियरिंग
आ जाए; कैसे
अच्छे डाक्टर
हो जाएं। कैसे
टेक्योलाजी, कैसे
विज्ञान, इसके
लिए पश्चिम जा
रहे हैं।
पूरब
के सोच
-विचारशील लोग
पश्चिम की तरफ
भाग रहे हैं
कि एक डिग्री
पश्चिम से और
ले आएं। और
पश्चिम से लोग
डिग्रिया
इत्यादि फेंककर, कूड़े-कर्कट
में डालकर.......।
यही
मेरे
संन्यासियों
में कम से कम
बीस पी.एच डी.
हैं! तुम एक को
भी न पहचान
पाओगे कि यह
आदमी पी.एच डी.
है। यहां कम
से कम पचास एम
ए. हैं। तुम एक
को भी न पहचान
पाओगे। और ऐसा
तो बहुत कम है
कि
ग्रेब्यूएट
कोई न हो। मगर
तुम एक को न
पहचान पाओगे।
सब कचरे में
डालकर चले आए
हैं। दो कोड़ी
की हो गयीं
बातें।
यहां
कोई पी.एच. डी.
हो जाता है, तो
अखबारों में
खबर छपती है।
जुलूस निकाला
जाता है!
मैंने सुना है,
इलाहाबाद
में जब पहला
आदमी मेट्रिक
हुआ था, तो
हाथी पर बैठकर
जुलूस निकाला
था!
यहां
कोई आदमी
पश्चिम पढने
जाता है, तो
अखबारों में
खबर निकलती
है। जैसे कोई
भारी घटना घट
रही है कि वे
पश्चिम पढ़ने
जा रहे हैं! पश्चिम
पूरब की तरफ आ
रहा है, क्योंकि
पश्चिम अब
संपन्न है, उसने शरीर
का सुख जाना।
मन के सुख
जाने। अब
आत्मा की पीड़ा
उठनी शुरू हुई
है।
इस
बात की बहुत
संभावना है कि
भविष्य में
पश्चिम पूरब
हो जाए और
पूरब पश्चिम
हो जाए। इस
बात की बहुत
संभावना है कि
सूरज पश्चिम
से उगे और पूरब
में डूबे।
देवताओं
के पास कुछ और
तो काम नहीं, इसलिए
अक्सर ऐसी
बहुत
कहानियां आती
हैं बौद्ध
शास्त्रों
में, जैन
शास्त्रों
में, हिंदू
शास्त्रों
में, देवताओं
में बड़ा विवाद
उठता है
छोटी-छोटी बात
पर। हालांकि
देवता उत्तर
किसी बात का
भी नहीं पा
सकते।
क्योंकि सब
बुद्धि का
खिलवाड़ है। आत्मिक
अनुभव नहीं
है। स्वर्ग
में आत्मिक
अनुभव नहीं
घटता, नहीं
घट सकता।
सुखी
आदमी आत्मा का
चिंतन शुरू
करता है। मगर
चिंतन में ही
अटका रहता है।
सुखी आदमी को
चिंतन से आगे
जाना पड़े
-अनुभव में, साधना
में।
एक
बार देवताओं
में प्रश्न
उठा दानों में
कोन दान
श्रेष्ठ? रसों
में कोन रस
श्रेष्ठ? रतियों
में कोन रति
श्रेष्ठ? और
तृष्णाक्षय
को क्यों
सर्वश्रेष्ठ
कहा जाता है? कोई भी इन
प्रश्नों का
उत्तर न दे
सका।
यह
मत समझना कि
उत्तर लोगों
ने नहीं दिए।
उत्तर तो दिए
होंगे। हजार
उत्तर दिए
होंगे। लेकिन
कोई भी उत्तर
उत्तर नहीं था।
तुम यह मत
सोचना कि
देवता बिलकुल
बुद्ध हैं।
क्योंकि तुम
यह कहानी पढ़ोगे, तुमको
लगेगा अरे! हम
ही उत्तर दे
सकते हैं! इसमें
देवता उत्तर
नहीं दे सके!
यह तो बात कुछ
जंचती नहीं।
तुमसे
कोई पूछे
दानों में कोन
दान श्रेष्ठ? तुम
भी कुछ उत्तर
दोगे, सही—गलत
की बात और।
उत्तर
तो दिए गए
होंगे। लेकिन
कोई उत्तर
समाधानकारक
नहीं था। कोई
उत्तर ऐसा
नहीं था कि
उसको सुनते ही
चित्त शांत हो
जाए;
उसको सुनते
ही सत्य का
अनुभव हो जाए;
उसको सुनते
ही, श्रवण
करते ही चित्त
का विकल्प—जाल
टूट जाए—और
लगे कि हां, यही ठीक है।
कोई
ऐसा सत्य नहीं
खोजा जा सका, जो
स्वयं—सिद्ध
मालूम पड़ा हो।
तब देवताओं ने
इंद्र से
पूछा। इंद्र
है देवताओं का
राजा। सोचा, शायद इंद्र
को पता हो। वह
भी इसका उत्तर
न दे सका।
नहीं
कि उसने उत्तर
न दिए होंगे।
जरूर उत्तर दिए
होंगे। उत्तर
तो कोई भी
देता है। तुम
गधे से गधे को
पूछो, वह भी
उत्तर देगा।
तुम जरा किसी
से भी पूछो, कोई भी .बात
पूछो। उसे पता
हो कि न हो, मगर
वह उत्तर
देगा। उत्तर
देने का मौका
कोई नहीं
चूकता।
क्योंकि
ज्ञानी बनने
का मौका मुफ्त
में कोन चूके!
किसी से भी
पूछो, जिन
बातों का
उन्हें कोई
अनुभव नहीं
है.।
ऐसा
आदमी तुम्हें
मुश्किल से
मिलेगा, जो
कहेगा : मुझे
पता नहीं है।
ऐसा आदमी मिले,
उसके चरण
पकड़ लेना।
क्योंकि उस
आदमी में कुछ
सचाई है।
नहीं
तो हरेक उत्तर
दे रहा है।
कुछ भी पूछे
जाओ,
उत्तर दे
रहा है। कुछ
पता नहीं, और
उत्तर दे रहा
है।
जिन्होंने
खुद कभी जिंदगी
में कुछ नहीं
किया, वे
हरेक को सलाह
दे रहे हैं! जो
अपनी सलाहों
पर कभी नहीं
चले—मौका आ
जाए, फिर
भी नहीं
चलेंगे—वे
दूसरों को
सलाह दे रहे हैं!
दूसरों को
मार्ग दिखा
रहे हैं! यहां
अंधे अंधों को
मार्ग दिखा
रहे हैं! और
इसलिए सारे लोग
गड्ढों में
पड़े हैं—नेता
भी और अनुयायी
भी।
इंद्र
ने भी उत्तर
दिया होगा।
राजा है
देवताओं का।
ऐसे स्वीकार
तो नहीं कर
लिया होगा—कि
मुझे पता
नहीं। पहले तो
अकड़कर बैठा होगा
सिंहासन पर।
कहा होगा
अच्छा सुनो।
सब समझाया
होगा। मगर कोई
तृप्त नहीं
हुआ। मजबूरी
में बुद्ध के
पास आना पड़ा।
उत्तर
तो बुद्धों के
पास ही हैं।
बुद्धत्व में
ही उत्तर है।
जागे हुए में
ही उत्तर है।
जो भीतर
ज्योतिर्मय
हुआ है, उसी
के पास उत्तर
है। भगवान ने
क्या कहा?
भगवान
ने कहा. धर्म
के अनुभव में
सब प्रश्नों के
उत्तर हैं।
तुम्हारे
प्रश्न अलग—
अलग नहीं हैं।
तुम पूछते हो, दानों
में कोन दान
श्रेष्ठ? रसों
में कोन रस
श्रेष्ठ? रतियों
में कोन रति
श्रेष्ठ? और
तृष्णा— क्षय
को सर्वश्रेष्ठ
क्यों कहा है?
ये कोई अलग—
अलग प्रश्न
नहीं हैं। एक
ही प्रश्न है।
और एक ही इनका
उत्तर है। मगर
सोचने मात्र
से समाधान न
कभी हुआ है, न होगा।
जानने से
समाधान
होता
है। दर्शन से
समाधान होता
है। अनुभव से
समाधान होता
है।
सब
व्याधियों की
एक ही औषधि
है—बुद्ध ने
कहा—जागो, मेरे
जैसे हो जाओ।
जैसे मैं जागा,
ऐसे तुम
जागो। जागते
ही सारे
प्रश्नों का
उत्तर मिल
जाएगा। और
क्या उत्तर
हैं इन
प्रश्नों के?
तो
बुद्ध ने कहा : 'धर्म
का दान सब
दानों से बढकर
है।'
धन
देने से क्या
होगा? धन से
तुम्हें ही
कुछ नहीं मिला,
तो दूसरे को
देने से क्या
होगा? धन
देने का मतलब
ही यह है कि
तुमने तो पाया
कि कचरा है; अब तुम
दूसरे पर टाल
रहे हो!
धर्म
के दान से।
धर्म—दान क्या? पहले
तो धर्म को
पाओगे, तभी
तो दान कर
सकोगे न! जो
तुम्हारे पास
नहीं, उसका
दान कैसे
करोगे? धन
हो, तो धन
का दान कर
सकते हो। धर्म
हो, तो
धर्म का दान
कर सकते हो।
धर्म भीतर का
धन है। धर्म
आत्म— धन है।
पहले
धर्म को पा लो, फिर
उसे बाटो। फिर
जो भी धर्म के
लिए प्यासा दिखे,
उसमें
उंडेल दो। तुम
जागो और
दूसरों को
जगाओ।
'धर्म का दान
सब दानों में
श्रेष्ठ। और
धर्म —रस सब
रसों में
प्रबल है।'
संगीत
में थोडा सा
रस है। क्यों? क्योंकि
संगीत में भी
थोड़ी सी
तन्मयता हो
जाती है।
संभोग में भी
थोड़ा रस है, क्योंकि
संभोग में भी
क्षणभर को
तन्मयता हो जाती
है। मगर
धर्म—रस में
सदा को
तन्मयता हो जाती
है। गए सो गए, फिर कोई
लौटता नहीं।
डूबे सो डूबे।
एकरस हो जाते
हो परमात्मा
में।
संभोग
में,
जिससे
तुम्हारा
प्रेम है, क्षणभर
को एकरस होते
हो। फिर अलग
हो गए। और फिर
अलग होने की
पीड़ा और भयंकर
हो जाती है।
संगीत थोड़ी
देर को कानों
को मीठा लगता
है। फिर संगीत
चला गया। फिर
शोरगुल है जगत
का। शराब पी
ली, थोड़ी
देर को तन्मय
हो गए। फिर
नशा उखडेगा।
धर्म
ऐसा नशा है, जो
एक दफे हुआ, तो फिर
उखडूता नहीं।
पीया सो पीया।
और धर्म ऐसा
नशा है कि
बेहोशी भी
लाता है और
होश को नष्ट नहीं
करता; होश
को बढ़ाता है।
धर्म अदभुत
नशा है, होश
और बेहोशी साथ
—साथ पैदा
होते हैं। एक
तरफ मस्ती छा
जाती है और एक
तरफ परम होश
भी होता है।
'तो धर्म —रस
सब रसों में
बढ़कर, और
धर्म में रति
सब रतियों से
बढ़कर है।’प्रेमों
में सबसे बड़ा
प्रेम है, धर्म
से प्रेम।
रतियों में
सबसे बड़ी रति
है, धर्म
—रति। स्त्री
के साथ थोड़ी
देर खेलो, थोड़ा
सुख है। पुरुष
के साथ थोड़ी
देर खेलो, थोड़ा
सुख है—रति—क्रीडा।
लेकिन
परमात्मा के
साथ खेल लो ——सदा
के लिए। धर्म
—रति बुद्ध कह
रहे हैं उसको।
अस्तित्व के
साथ संभोगरत
हो जाओ; अस्तित्व
के साथ एक हो
जाओ। फिर कोई
अलग न कर सकेगा।
क्यों? क्योंकि
अस्तित्व के
साथ वस्तुत:
हम एक ही हैं।
हमने अलग मान
लिया, वह
हमारी भ्रांति
है। उसी
भ्रांति के
कारण दुख है।
भ्रांति गिर
जाए, फिर
सुख ही सुख
है।
'और तृष्णा
का विनाश
सर्वश्रेष्ठ
कहा है, क्योंकि
तृष्णा के
विनाश से ही
धर्म उपलब्ध होता
है।'
इसलिए
बुद्ध ने कहा :
तुम्हारे
प्रश्न अलग —
अलग नहीं, एक
ही प्रश्न है।
और मेरा उत्तर
भी एक है, एक
शब्द में है
—धर्म। एस
धम्मो
सनंतनो।
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो
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