दिनांक
18 मई, 1975, प्रातः,
ओशो
आश्रम, पूना
सूत्र
:
प्रीति
लागी तुम नाम
की, पल बिसरे नाही।
नजर
करो अब मिहर
की, मोहि
मिलो गुसाई।।
बिरह
सतावै
मोहि को, जिव तड़फे
मेरा।
तुम
देखन की चाव
है, प्रभु
मिला सबेरा।
नैना
तरसै दरस
को, पल पलम न लागे।
दर्दबंद
दीदार का, निसि बास
जागे।।
जो
अब कै प्रीतम
मिलें, करूं
निमिख न
न्यारा।
अब
कबीर गुरु पाइया, मिला प्राण पियारा।
प्रेम, जीवन की परम
समाधि है।
प्रेम ही शिखर
है जीवन ऊर्जा
का वही गौरीशंकर
है। जिसने
प्रेम को जाना,
उसने सब जान
लिया। जो
प्रेम से
वंचित रह गया,
वह सभी कुछ
से वंचित रह
गया।
प्रेम
की भाषा को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
है। प्रेम के
शास्त्र को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
है। क्योंकि
प्रेम ही
तीर्थयात्रा
है। उससे ही पहुंचनेवाले
पहुंचे हैं।
और जो नहीं
पहुंचे, वे
इसलिए नहीं
पहुंचे कि उन्होंने
जीवन को कोई
और रंग दे
दिया, जो
प्रेम का नहीं
था।
प्रेम
का अर्थ है, समर्पण की
दशा, जहां
दो मिटते हैं
और एक बचता
है। जहां
प्रेमी और
प्रेम-पात्र
अपनी सीमाएं
खो देते हैं।
जहां उनकी
दूसरी समग्र
रूपेण शून्य
हो जाती है। यह
भी कहना उचित
नहीं, कि
प्रेमी और प्रेम-पात्र
करीब आ जाते
हैं; क्योंकि
करीब होना भी
दूरी है। कहना
उचित नहीं, कि
प्रेमी-पात्र
करीब आ जाते
हैं; क्योंकि
करीब होना भी
दूरी है। पास
नहीं आते, एक
दूसरे में खो
जाते हैं।
निकटता में भी
तो फासला है।
प्रेम उतना
फासला भी
बर्दाश्त
नहीं करता।
प्रेम दो को
एक बना देता
है। प्रेम
अद्वैत है। इस
प्रेम को हम
थोड़ा समझें।
तुमने
भी प्रेम किया
है। ऐसा तो
व्यक्ति ही खोजना
कठिन है, जिसने
प्रेम न किया
हो। गलत ढंग
से किया हो, गलत
प्रेम-पात्र
में किया है, लेकिन प्रेम
किए बिना तो
कोई बच नहीं
सकता। क्योंकि
वह जो जीवन की
सहज
अभिव्यक्ति
है।
तो तीन
तरह के प्रेम
हैं, वे समझ
लें।
पहला, जिसमें सौ
में से
निन्यानबे
लोग उलझ जाते
हैं। वह
वस्तुओं का
प्रेम है--धन
का, संपदा
का, मकान
का, तिजोड़ियों का।
वस्तुओं का
प्रेम, प्रेम
के लिए सबसे
बड़ा धोखा है।
लेकिन
उसमें कुछ
खूबी है; इसलिए
सौ में से
निन्यानबे
लोग उसमें पड़
जाते हैं। और
वह खूबी यह है,
कि वस्तुओं
के प्रति
तुम्हें
समर्पण नहीं
करना पड़ता।
वस्तुओं को
तुम अपने
प्रति
समर्पित कर
लेते हो।
तुम्हारी कार,
तुम्हारी
कार है।
तुम्हारा
मकान, तुम्हारा
मकान है। तुम
समर्पित होने
से बच जाते
हो। और तुम्हें
यह अहसास होता
है, कि
वस्तुएं
तुम्हारे
प्रति
समर्पित हैं।
एक तरह का
अद्वैत सध
जाता है।
तुम
हाथ में रुपया
रखे हो। रुपए
की सीमा और तुम्हारी
सीमा मिट गई।
रुपया बाधा
नहीं डालता सीमा
के मिटने में।
और तुम्हें
समर्पण करने
के लिए मजबूर
नहीं करता।
रुपया समर्पित
है। तुम जो
चाहो करो, रुपया नानुच
नहीं करेगा।
तुम चाहे नदी
में फेंक दो, तुम चाहे
भिखारी को दे
दो, तुम
चाहे कुछ
सामान खरीद लो,
तुम चाहे तिजोड़ी
में सम्हाल कर
रखो रुपए की
अपनी कोई
मनोदशा नहीं
है। रुपया
पूरा समर्पित
है।
तुमने
समर्पित कर
लिया वस्तुओं
को, इससे
तुम्हें
अहसास होता है
कि अद्वैत सध
गया। यह अहसास
झूठा है।
क्योंकि
वस्तुओं के
समर्पण का कोई
अर्थ ही नहीं
होता।
वस्तुएं तो
चेतन नहीं है।
उनका समर्पण,
ना समर्पण
बराबर है। तुम
भ्रांति में
हो।
रुपया
जितना
तुम्हारे लिए
समर्पित है, उतना ही उस
भिखारी के लिए
जिसको तुम दे
दोगे, उसके
लिए भी
समर्पित है।
नदी में फेंक
दोगे, नदी
के लिए भी
समर्पित है। तिजोड़ी
में रख दोगे, तिजोड़ी के लिए
समर्पित है।
रुपया
तो वेश्या है।
उसका कोई
समर्पण नहीं
है। वह तो
जिसके पास है
उसके लिए
समर्पित है।
उसकी कोई
आत्मा थोड़ी ही
है। लेकिन
समर्पित कर
लिया किसी को, इससे भीतर
एक भ्रांति
पैदा होती है
कि अद्वैत सध
गया।
सौ मैं
से निन्यानबे
लोग इसी प्रेम
में जीते और
समाप्त हो
जाते
हैं--वस्तुओं
का प्रेम यह
सुविधापूर्ण
भी है।
क्योंकि
रुपया, धन
संपदा किसी
तरह की कलह की
स्थिति पैदा
नहीं करते।
तुम्हें उनसे
लड़ना नहीं
पड़ता। कोई
संघर्ष नहीं
है। बड़ी शांति
है। तिजोड़ी
चुप बैठी है।
तुम जब आज्ञा
दो, सक्रिय
हो जाती है।
ज्ञान न दो, शांत
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करती है। धन
परिपूर्ण
सेवक है।
इसलिए सौ में
से निन्यानबे
लोग धन पाने
को ही प्रेम
समझ लेते हैं।
फिर धन
में सुरक्षा है।
किसी मित्र से
प्रेम करो, पक्का नहीं
है कि कल भी
प्रेम करेगा।
कल का कौन
जानता है? क्षण
भर में हवा
बदल जाती है।
मौसम बदल जाता
है। क्षण भर
पहले जो
प्रेमपूर्ण
था, क्षण
भर बाद प्रेम
से भर जाता है,
अभी जो
मित्र था, अभी
शत्रु हो सकता
है।
इसलिए
मित्र पर
भरोसा नहीं
किया जा सकता।
पत्नी का क्या
भरोसा है? पति का क्या
भरोसा है? आज
है, कल न
हों। प्रेम का
भी भरोसा हो, मौत का क्या
भरोसा? धन
कभी नहीं
मरता। धन अमृत
है। व्यक्ति
तो मरते हैं।
कल ही
एक युवती
मुझसे पूछती
थी, कि उसको
प्रेम किसी
व्यक्ति से
है। लेकिन दोनों
की उम्र में
बड़ा फासला है।
उसकी उम्र
होगी कोई तीस वर्ष।
और उस व्यक्ति
की उम्र है
पचास वर्ष। प्रेम
दोनों में गहन
है, लेकिन
वह भयभीत है।
डर है उसे कि
कहीं वह व्यक्ति
मर न जाए, जल्दी,
अन्यथा
जीवन का अंत
वैधव्य होगा।
जीवन का अंत दुख
से भर जाएगा।
पीड़ा से भर
जाएगा। इसलिए
अपने को
सम्हाले है।
रोके हैं।
मौत का
डर तो है।
व्यक्ति तरे
हैं, वस्तुएं
कहां मरती हैं?
और जब
व्यक्ति मरते
हैं, तो
उनको रिप्लेस
नहीं किया जा
सकता। कोई
दूसरा
व्यक्ति उसकी
गहन नहीं भर
सकता।
क्योंकि हर
व्यक्ति
अनूठा है। एक फियाट कार
मर जाए, दूसरी
फियाट कार
उसकी जगह आ
सकती है। कोई
अंतर नहीं है।
एक तरह की
लाखों कारें
हैं।
लेकिन
एक व्यक्ति मर
जाए, तो उस
जैसा व्यक्ति
फिर इस संसार
में कहीं भी नहीं
है। उसे खो
देने पर सदा
के लिए ही खो
देना होता है।
कोई दूसरा
उसकी जगह को
भर नहीं सकता।
जगह सदा रिक्त
रह जाती है।
और हृदय में
रिक्त जगह
खलती है, चोट
करती है, घाव
बन जाती है।
खतरा है
व्यक्तियों
के प्रेम में पड़ना।
पचास साल के
व्यक्ति के
प्रेम में तो
खतरा है ही, तीस साल के
व्यक्ति के
प्रेम में भी
खतरा है; क्योंकि
तीस साल के
व्यक्ति भी मर
जाते हैं।
मौत तो
सदा मौजूद है।
सुरक्षा नहीं
है
व्यक्तियों
के साथ। एक तो
व्यक्ति बदल
सकते हैं; न बदलें, तो
भी कर सकते
हैं।
और भी
बड़ा खतरा है, कि जिन
व्यक्तियों
से तुम्हें आज
प्रेम है, हो
सकता है कल भी
तुम्हारे
प्रेम में हों,
लेकिन तुम
उनके प्रेम
में न रह जाओ।
तब वे बोझ हो
जाएंगे। तब
उन्हें उतारना
मुश्किल हो
जाएगा। तब
उनकी जंजीरों
को तोड़ना संभव
हो जाएगा। तब
उन्हें
उतारना मुश्किल
हो जाएगा। तब
उनकी जंजीरों
को तोड़ना
असंभव हो
जाएगा। तब
कहां भागोगे?
कैसे
भागोगे? और
अपने ही दिए
वचन पैर में
मजबूत बेड़ियों
की तरह पड़
जाएंगे। अपने
ही प्रेम की
हवा में गए शब्द
गर्दन को जकड़
लेंगे। कहां
जाओगे? खतरा
भारी है।
वस्तुओं
के प्रेम में
कोई भी खतरा
नहीं है। बड़ी
सुरक्षा है। न
तो वस्तुएं
मरती हैं। मिट
भी जाएं, तो
बदली जा सकती
हैं। और अगर
तुम्हारा
प्रेम खो जाए,
तो वस्तुएं
जंजीर नहीं
बनती। एक कार
को तुमने बहुत
चाहा था। आज
तुम्हारा मन
उठ गया। बाजार
में बेच आते
हो। कार
रोती-धोती
नहीं। शोरगुल
नहीं मचाती, दया की
भिक्षा नहीं
मांगती।
चुपचाप मौन
बिदा हो जाती
है। इसलिए
निन्यानबे
प्रतिशत
लोगे...।
समर्पण
सुविधापूर्ण
है वस्तुओं
का। खुद समर्पण
नहीं करना
पड़ता, अहंकार
बचा रहता है
और वस्तुएं
अहंकार को
बढ़ाती चली
जाती है।
प्रेम
में तो अहंकार
खोयेगा।
वस्तुओं के
प्रेम में
बचता है, बढ़ता
है। जितनी
तुम्हारी
संपदा होती है,
उतना
अहंकार ऊपर
उठने लता है।
वस्तुओं का
प्रेम
वस्तुतः
प्रेम नहीं है,
प्रेम का
धोखा है।
लेकिन वही
पहला प्रेम है;
जिसमें निन्यानबे
प्रतिशत लोग
पड़े हैं।
इसलिए बुद्ध
तृष्णा के
विरोध में
हैं। क्योंकि
तृष्णा वस्तुओं
के प्रेम का
नाम है।
महावीर
परिग्रह के विरोध
में हैं, क्योंकि
परिग्रह
वस्तुओं के
प्रेम का नाम
है। समस्त
ज्ञानी
संग्रह के
विरोध में
हैं। क्योंकि
संग्रह का
अर्थ है, तुम्हारा
प्रेम गलत
यात्रा कर रहा
है।
ऐसा जो
व्यक्ति है, जो वस्तुओं
के प्रेम में
पागल है।
तुमने कृपण को
देखा? उसके
चेहरे को कभी
अध्ययन किया?
अगर तुम खुद
कृपण हो, तो
कभी आईने में
तुमने अपनी
कृपणता की छवि
देखी? कृपण
आदमी से
ज्यादा कुरूप
आदमी नहीं
होता।
इसलिए
कोई तुम्हें
कंजूस कह दे
तो बड़ी चोट
लगती है। भला
तुम कंजूस हो, लेकिन कंजूस
कोई कह दे, तो
बड़ा आघात लगता
है, कंजूस
है, कंजूस
को भी अलग है।
इससे बड़ी गाली
नहीं मालूम
होती, कि
कोई तुम्हें
कृपण कह दे।
क्यों?
क्योंकि
कृपण का अर्थ
है, तुम
वस्तुओं के
प्रेम में पड़े
हो। वस्तुएं
तुमसे नीचे
हैं। तुम
आत्मवान हो।
तुम अपने से
नीचे के प्रेम
में पड़े हो।
और यह बात कोई
स्वीकार करने
को राजी नहीं
होता कि मैं
वस्तुओं के
प्रेम में पड़ा
हूं। वस्तुओं
के प्रेम का
अर्थ है कि
तुम्हारी
आत्मा नीचे
झुक रही है।
वस्तुओं के
प्रेम का अर्थ
है कि तुम
अपनी आत्मा खो
रहे हो।
क्योंकि जहां
तुम्हारा
प्रेम होगा, वहीं
तुम्हारी
आत्मा होगी।
जहां
तुम्हारा प्रेम
होगा, वहीं
तुम्हारा
हृदय धड़केगा।
जो
व्यक्ति
वस्तुओं को
प्रेम करता है, वह
धीरे-धीरे
वस्तुओं जैसा
हो जाते है।
क्योंकि
प्रेम बड़ा
रूपांतरण
करनेवाला
तत्व है। तुम
जिसे प्रेम
करते हो, उसी
जैसे हो जाती
हो।
तुमने
कभी खयाल किया
कि दो व्यक्ति
अगर एक दूसरे
को प्रेम करते
हैं तो
धीरे-धीरे
उनमें एक दूसरे
की छवि दिखाई
पड़ने लगती है।
अगर एक स्त्री
ने किसी पुरुष
को एकांत भाव
से प्रेम किया
हो तो तुम
धीरे-धीरे
पाओगे, उसके
चलने में, उसकी
आंखों में, उसके चेहरे
पर उस पुरुष
की छाप आने
लगती है।
अगर
किसी पुरुष ने
किसी स्त्री
को एकांत रूपेण
प्रेम किया हो, तुम पाओगे
कि उसकी वाणी
में उस स्त्री
का माधुर्य
समा जाता है।
उनके हाव-भाव
में, भंगिमाओं
में एक दूसरे
प्रविष्ट हो
जाते हैं। अगर
उन्होंने ठीक
से प्रेम किया
हो, तो तुम
उन्हें भीड़
में भी उनको
खोज सकते हो
कि दोनों एक
दूसरे के
प्रेमी मालूम
पड़ते हैं। क्योंकि
एक दूसरे की
छवि उनमें
धीरे-धीरे
प्रविष्ट हो
जाती है।
प्रेमी
धीरे-धीरे एक
जैसे हो जाते
हैं।
शरीर
शास्त्री
बहुत चिंतन
करते रहे हैं, कि यह कैसे
घटित होता है?
बच्चा पैदा
होता है, तो
कभी तो बच्चे
में छवि
स्त्री की
झलकती है, कभी
पुरुष की
झलकती है। कभी
दोनों की नहीं
झलकती, कभी
दोनों की
सम्मिलित
झलकती है। कभी
बिलकुल ही
किसी तीसरे
व्यक्ति की
छवि झलकती है,
जिसका कोई
लेना-देना
नहीं है।
शरीर-शास्त्री
चिंतित रहे
हैं, यह कैसे
घटित होता है?
अगर
स्त्री-पुरुष
के ही ऊर्जा
से निर्माण
हुआ है, तो
सदा घटना एक
सी ही घटनी
चाहिए, लेकिन
ऐसा नहीं
होता।
मनोवैज्ञानिक
एक अनूठी बात
पर पहुंचे हैं
और वह यह है, कि अगर
स्त्री पुरुष
को ठीक से
प्रेम करती हो,
पूर्ण
प्रेम करती हो,
तो ही उसके
बच्चों में
पति की छवि
झलकेगी। क्योंकि
वह छवि उसमें
लीन हो जाती
है। यह उसके
रोएं-रोएं में
समा जाती है।
अगर
स्त्री अपने
को ही प्रेम
करती हो, पति
को प्रेम नहीं
करती हो, और
पति एक
नौकर-चाकर हो,
तो स्त्री
की स्वयं की
छवि ही उसमें
प्रवेश होगी।
और यह भी हो
सकता है कि
स्त्री, पत्नी
तो किसी और की
हो, बच्चा
किसी और से ही
पैदा हुआ हो, लेकिन भाव
किसी और पुरुष
का मन में हो, तो उस पुरुष
की छवि भी उस
बच्चे में
प्रवेश कर जाएगी।
क्योंकि
छवि तो मन में
झलकती है। मन
के दर्पण पर
बनी हुई छाया
है। अगर एक
स्त्री किसी
व्यक्ति को
प्रेम करती है
और बच्चा किसी
और से पैदा
होता है, तो
भी जिसको वह
प्रेम करती है,
वही उस
बच्चे में झलक
आएगा। तो छवि
शरीर से निर्मित
नहीं होती, छवि मन से
निर्मित होती
है।
दो
व्यक्ति जब एक
दूसरे को
प्रेम करते
हैं, तो
धीरे-धीरे एक
जैसे होते
जाते हैं।
उनके ढंग, उनकी
आदतें, उनका
व्यवहार।
आखिरी क्षणों
में जीवन के
तुम उन्हें
पाओगे, कि
वे एक ही हो
गए। उनकी दुई
खो गई।
वस्तुओं
को जो व्यक्ति
प्रेम करता है, वह वस्तुओं
जैसा हो जाता
है। इसलिए
कृपण से ज्यादा
कुरूप आदमी
संसार में
दूसरा नहीं।
क्योंकि
विराट आत्मा
थी और क्षुद्र
के प्रेम में
छोटी हो गई।
इसलिए कृपण को
तुम हमेशा
छोटा पाओगे।
हमेशा ओछा
पाओगे। वह
मनुष्यता की
कसौटी पर भी
पूरा नहीं
उतरता।
परमात्मा की
कसौटी की तो
बात ही अलग
है। तुम पाओगे,
कि वह पूरा
मनुष्य भी
नहीं है। उसकी
मनुष्यता में
भी कुछ कमी
मालूम पड़ती
है। वस्तुएं
ज्यादा हैं
उसके ऊपर; चेतना
कम है। होश कम
है, बोझ
ज्यादा है।
कृपण आदमी के
चेहरे पर
तुम्हें धन
में जो छिपी
हिंसा है, वह
दिखाई पड़ती।
धन बड़ी
गहरी हिंसा से
पैदा होता है।
वह गहन शोषण
है। धन पर
रक्त के चिन्ह
तो हैं ही।
उससे धन मुक्त
हो नहीं सकता।
वह किसी से
छीना गया है।
किसी के साथ
जबर्दस्ती की
गई है। किसी
को मिटाया गया
है। चाहे
मिटाने के ढंग
कितने ही
परिष्कृत
क्यों न हों। मिटानेवाले
को भी पता न
चलता हो, मिटनेवाले को भी पता न
चलता न हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
धन पर खून के धब्बे
हैं।
इसलिए
कृपण के चेहरे
पर भी धब्बे आ
जाएंगे। और
कृपण के चेहरे
से तुम लार
टपकती हुई देखोगे।
वह हमेशा
वस्तुओं के
लिए दीवाना है, पागल है।
उसे वस्तुएं
ही दिखाई पड़ती
हैं। और कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। संसार
उसके लिए, व्यक्तियों
का महोत्सव
नहीं, केवल
वस्तुओं का
बाजार है।
खरीदना है, इकट्ठा करना
है, मर
जाना है। जीना
नहीं है।
कृपण
जीता नहीं, केवल जीने
की तैयारी
करता। है कभी
पूरी नहीं होती।
जीने का भी
मौका नहीं
आता। सिर्फ
समायोजन करता
है कि कभी
जीएंगे। जीने
को स्थगित
करता है, पोस्टपोन करता है। आज
कैसे जी सकते
हैं, जब तक
महल न हो? आज
जीना संभव ही
कैसे है, जब
तक तिजोड़ी
भरपूर न हो? जब तक सारे
कलों के लिए
इंतजाम न कर
लिया हो और भविष्य
पूरा
सुरक्षित न कर
लिया हो, तब
तक जी कैसे
सकता है? मूढ़ जी
सकता है, कृपण
कहता है, समझदार
कैसे जी सकता
है? कल की
चिंता
निश्चिंतता
में बदल जाए, तिजोड़ी हो, बैंक-बैलेन्स
हो, सब सुख
सुविधा हो, फिर मैं जीऊंगा।
ऐसी
घड़ी कभी नहीं
आती। सिकंदर
को नहीं आती, तुम्हें
कैसे आ सकती
है? किसी
को नहीं आती।
ऐसी घड़ी आती
ही नहीं, जब
समायोजन पूरा
हो जाए।
जिन्हें
जाना है, उन्हें
हमेशा आधे
समायोजन में
ही जीना होता
है। जिन्हें
जीना है, उन्हें
हमेशा आधी
तैयारी में ही
जीना होता है।
उन्हें आज ही
जीना होता है।
जिन्हें
हंसना है, नाचना
है, वे इस
की बहुत चिंता
नहीं करते कि
आंगन टेढ़ा
है...कहावत है, नाच न आवे
आंगन टेढ़ा।
जीने की कला
नहीं आती और
लोग कहते हैं
आंगन टेढ़ा
है, पहले
सीधा कर लें।
वह कभी सीधा
हुआ मालूम
होता नहीं। वे
मर जाते हैं, आंगन टेढ़ा
ही रहता है।
वस्तुओं
को इकट्ठा
करनेवाले के
चेहरे पर तुम्हें
रुपए का घिसापिटापन
दिखाई पड़ेगा।
जैसे रुपया
सरकता है
हाथों हाथ।
बासा होता
जाता है। हर
साथ की गंदगी
उसमें लगती
जाती है। हर
प्राण की तृष्णा
उसमें भरती
जाती है।
रुपया सरकता
जाता है एक
हाथ से दूसरे
हाथ हजारों
हाथ।
रुपये
से ज्यादा
जूठा इस संसार
में और कुछ
नहीं हो सकता।
अच्छिष्ठ!
कितने हाथों
में चलता है।
कितनी
गंदगियों से
गुजरता है।
कितनी यात्रा
करता है। घिस-पिट जाता
है। वैसा ही
घिसन और घिसापिटापन
तुम्हें कृपण
के चेहरे और
आंखों पर
दिखाई पड़ेगा।
वहां तुम्हें
ताजगी न
दिखेगी। सुबह
की ओस की।
वहां तुम्हें
फूलों की गंध
न दिखेगी
नये-नये खिले।
वहां तुम्हें
रुपये का घिसापिटापन
दिखाई पड़ेगा।
कृपण
कभी मौलिक
नहीं होता।
हमेशा उधार
होता है। उसके
जीवन में कभी
कोई ऊर्जा
सुबह जैसी
नहीं होती।
हमेशा थकान
होती है। वह
हमेशा ऊबा हुआ
होता है।
स्वाभाविक
है कि धन के
साथ किसी के
जीवन में नृत्य
न कभी आया है, न आ सकता है।
ऊब आती है।
इसलिए धनी
आदमी को तुम बोअर्ड
पाओगे, ऊबा
हुआ पाओगे।
तुम उसके
चेहरे पर गौर
करोगे तो तुम
पाओगे, वह
थका है। उसे
विश्राम
चाहिए। वह
विश्राम कर नहीं
सकता; क्योंकि
वस्तुएं अभी
बहुत बाकी हैं,
जो इकट्ठी
करनी हैं।
धीरे-धीरे
कृपण व्यक्ति
वस्तुओं जैसा
हो जाता है।
उसमें और उसकी
वस्तुओं में
बहुत फर्क नहीं
रह जाता। उसके
और उसके मकान
में बहुत फर्क
नहीं रह जाता।
क्योंकि
प्रेमी एक
जैसे हो जाते
हैं। इसलिए
कभी क्षुद्र
से प्रेम मत
करना। अन्यथा
तुम क्षुद्र
हो जाओगे। तुम
वही हो जाओगे, जिसको तुम
प्रेम करोगे।
धन और
वस्तुओं का
प्रेमी
मनुष्यों को घृणा
करता है।
क्योंकि हर
मनुष्य उसके
धन के लिए
खतरा है। हर
मनुष्य और मनुष्य
का संबंध उसे
भयभीत करता
है। क्योंकि
मनुष्य के साथ
संबंध बनाने
का अर्थ होता
है, अपने धन
में भागीदार
खोजना। कृपण,
मनुष्यों
से बचना चाहता
है। मनुष्यों
से दूर रहना
चाहता है।
मनुष्यों से
एक फासला रखता
है, कि
कहीं कोई जेब
तक न पहुंच
जाए। उसकी तिजोड़ी
तक न आ जाए।
कृपण, वस्तुओं को
प्रेम
करनेवाला
व्यक्ति
मनुष्यों के
प्रति घृणा से
भरा होता है, और परमात्मा
के प्रति
उपेक्षा से।
इसलिए वास्तविक
नास्तिक कृपण
है; वस्तुओं
का प्रेमी है।
वह चाहे मंदिर
में पूजा करते
हो, उसकी
पूजा के पीछे
भी धन की ही
मांग छिपी
होती है। वह परमात्मा
को नहीं
मांगता, वह
और धन को
मांगता है।
परमात्मा
अगर मौजूद भी
हो जाए, और
उससे कहे, तू
एक वरदान मांग
ले, तो वह
परमात्मा को
छोड़ कर और सब
चीजों की सोचेगा।
कि एक रोल्स
रायस मांग लूं,
कि
राष्ट्रपति
का पद मांग
लूं, कि
सारी दुनिया
की संपदा मांग
लूं। एक बात
उसे याद न
आएगी कि
परमात्मा को
मांग लूं। उस
भर को वह सोच
भी न सकेगा।
वह उसकी सीमा
के बाहर है।
वस्तुओं
से जो घिरा है, वह मनुष्यों
से घृणा करेगा,
और
परमात्मा की
उपेक्षा। और
बड़े मजे की
बात यह है, कि
ये ही तीन लोग
तुम्हें
मंदिरों, मस्जिदों में बैठे
मिलेंगे।
इन्हीं से
मंदिर, मस्जिद
भरे हैं।
इन्हीं के
कारण धर्म मर
गया। ये
वस्तुएं
मांगने ही
वहां जाते
हैं। इनकी तिजोड़ी
और कैसे बड़ी
हो जाए! इनका
राज्य और कैसे
फैले, उसकी
ही मांग करने
परमात्मा के
पास जाते हैं।
ध्यान
रखना, जो
परमात्मा के
पास परमात्मा
के अतिरिक्त
कुछ भी मांगने
गया, वह
उसके पास कभी
पहुंच ही नहीं
पाता।
जाननेवाले तो
कहते हैं कि
उसके पास वे
ही पहुंच पाते
हैं, जो
उसको भी नहीं
मांगते। जो
मांगते ही
नहीं। जिनकी
मांग ही खो
जाती है। जो
बिना मांगे
उसके द्वार पर
खड़े हो जाते
हैं। बिना
मांगे मोती मिले।
वह बरस आता है उनके
ऊपर।
लेकिन
वह बहुत दूर
की बात है।
क्योंकि
बुद्ध कभी
उसके द्वार पर
बिना मांगे
खड़ा होता है।
लेकिन तुम जिस
जगत में जी
रहे
हो--भिखारियों
के--वहां कम से
कम इतना तो कर
ही सकते हो, कि परमात्मा
को मांगो।
इतना
ही फर्क है, भक्त और
ज्ञानी में।
भक्त
परमात्मा को मांगता
है, ज्ञानी
उतना भी नहीं
मांगता।
इसलिए ज्ञान
से ऊंची भक्ति
नहीं है।
इसलिए भक्ति
द्वार तक पहुंचा
देती है।
लेकिन आखिरी
क्षण में
भक्ति को भी
खो जाना पड़ता
है। क्योंकि
तभी मिलन पूरा
होता है। जब
परमात्मा की
मांग भी छूट
जाती है। क्योंकि
उतनी मांग भी
तो परमात्मा
और तुम्हारे
बीच में बनी
रहेगी। उतनी
मांग भी नहीं
चाहिए।
नास्तिक
वही है, जो
वस्तुओं से
घिरा है।
इसलिए पश्चिम
नास्तिक है।
इसलिए नहीं, कि वहां लोग
परमात्मा को
नहीं मानते।
तुमसे ज्यादा
लोग चर्च जाते
हैं। हिंदुओं
के पास तो मंदिर
जाने की कोई
व्यवस्था ही
नहीं है। जाओ,
न जाओ। जब
मौज हो, जाओ।
लेकिन
ईसाइयों में
तो व्यवस्था
है कि रविवार
जाना ही है।
अगर
तुम मंदिरों
की कोई जांच
करें मंगल
ग्रह से आकर, तो सदा उनको
खाली पाएगा।
या कभी इक्के
दुक्के आदमी
आते हुए जाते
हुए मालूम
पड़ेंगे। किसी
की पत्नी
बीमार है, आना
पड़ा। किसी का
दिवाला
निकलने के
करीब है, आना
पड़ा।
लेकिन
चर्चा में मरे
हुए लोग पाए
जाएंगे। क्योंकि
रविवार नियम
से जाना है।
वह एक सामाजिक
औपचारिक है।
लेकिन पश्चिम
की दौड़
वस्तुओं के लिए
है। इसलिए
पश्चिम
आस्तिक हो
नहीं सकता।
इससे
तुम यह मत सोच
लेना कि तुम
आस्तिक हो। अक्सर
ऐसा होता है, कि जब भी कोई
कहता है कि
पश्चिम
आस्तिक नहीं है,
तब तुम बड़े
प्रसन्न होते
हो। तुम सोचते
हो, हम
आस्तिक हैं।
तुम भी आस्तिक
नहीं हो।
आस्तिक
होना बड़ा
क्रांतिकारी
घटना है। उसका
पूरब-पश्चिम
से कोई लेना
देना नहीं है।
वह भूगोल की
बात नहीं है।
आस्तिक होता
है। समाज तो
अब तक कोई
आस्तिक नहीं
हुआ। न हिंदू
समाज, न जैन
समाज, न
भारतीय समाज,
न चीनी
समाज। कोई
समाज, कोई
राष्ट्र अब तक
धार्मिक नहीं
हुआ। क्योंकि
समूह तो
निन्यानबे
प्रतिशत
लोगों से बना
है--वे जो
वस्तुओं के
प्रेमी हैं।
दूसरा
प्रेम है, व्यक्तियों
का प्रेम।
व्यक्तियों
का प्रेम वस्तुओं
से ऊपर है। कम
से कम तुम समानधर्म,
समान
व्यक्ति से
प्रेम करते
हो। कम से कम
तुम किसी
चैतन्य से
प्रेम करते
हो। माना, वह
भी तुम जैसा
अहंकार से भरा
है। फिर भी
उसकी जागने की
संभावना है; जैसी
तुम्हारी है।
व्यक्तियों
का प्रेम, वस्तुओं
के प्रेम के
ऊपर है। जो
व्यक्तियों को
प्रेम करता है,
उसके जीवन
में वस्तुओं
के प्रति
उपेक्षा होती
है। और
परमात्मा के
प्रति
तटस्थता होती
है।
इन
शब्दों को ठीक
से समझ लेना।
क्योंकि
भाषा-कोष में
उपेक्षा और
तटस्थता का एक
ही अर्थ लिखा
है। वह गलत
है। जो
व्यक्ति, व्यक्तियों
को प्रेम करता
है, वह
वस्तुओं के
प्रति
उपेक्षा से भर
जाता है। वह
वस्तुओं को दे
सकता है, सहजता
से दान कर
सकता है। उसकी
पकड़ नहीं रह
जाती।
क्योंकि
जिसने
व्यक्तियों
को प्रेम कर
लिया, जिसने
प्रेम के रस
को चख लिया, उसे तत्क्षण
दिखाई पड़ जाता
है कि वस्तुओं
से तो कभी कुछ
मिलनेवाला
नहीं है।
व्यक्तियों
से मिलनेवाला
है। इसलिए
व्यक्तियों
को वस्तुएं
देने में उसे
अड़चन नहीं
आती। वह बांट
सकता है। वह
दानी हो सकता
है। वह कृपण
नहीं रह जाता।
कृपणता उसकी
खो जाती है।
वह जानता है
कि
व्यक्तियों
के प्रेम में
सुरक्षा नहीं
है। लेकिन
व्यक्तियों
को प्रेम
जीवंत है।
वस्तुओं
का प्रेम
मुर्दा हैं, वैसे ही
प्लास्टिक के
फूल में
सुरक्षा होती
है। मिटने का
डर नहीं होता।
असली गुलाब का
फूल तो सुबह
खिलेगा, सांझ
मिट जाएगा। डर
मिटने का है, लेकिन क्या
इसी कारण तुम
प्लास्टिक का
फूल लिए घूमते
रहोगे? जीवन
में खतरा है।
प्लास्टिक के
लिए कोई खतरा नहीं
है। वर्षों तक
वैसा ही बना
रहेगा। जब चाहे
तब धूल झाड़
देना, वह
फिर ताजा
मालूम पड़ेगा।
असली
फूल तो खिलते
हैं और मिटते
हैं। असली फूलों
का मजा ही यही
है, कि क्षण
भर को जीवन और
मृत्यु के बीच
ऊपर उठते हैं।
असली फूलों की
असलियत यही है,
कि क्षण भर
को मृत्यु के
ऊपर अतिक्रमण
कर जाते हैं।
क्षण भर को, चारों तरफ
घिरी मृत्यु
के बीच भी वे
कमल की तरह
ऊपर उठ आते
हैं। क्षण भर
को जीवन का उदघोष
होता है।
प्लास्टिक
के फूल में यह उदघोष कभी
भी नहीं
होता। वस्तुओं
से प्रेम, प्लास्टिक,
के फूलों से
प्रेम है।
जिसको असली
फूल मिल गए, वह
प्लास्टिक के
फूलों को फेंक
आता है कचरे
में। उसे
वस्तुओं को
छोड़ना नहीं
पड़ता, व्यक्तियों
का प्रेम मिल
जाए, वस्तुएं
छूटना शुरू हो
जाती हैं।
वस्तुओं
का प्रेम तो
व्यक्तियों
के प्रेम का सब्स्टीस्यूट
था परीपूरक
था।
व्यक्तियों
को प्रेम
करनेवाला
व्यक्ति कृपण
नहीं रह जाता।
उसके जीवन में
ऊब नहीं होती, पुलक होती
है। एक उत्साह
होता है।
पैरों में एक
लगन होती है।
कंठ में एक
छोटा सा गीत
उठने लगता है।
ये
पक्षियों को
तुम गाते
देखते हो, ये प्रेम के
गीत हैं। आदमी
के कंठ को
क्या हो गया? आदमी क्यों
कोयल जैसी धुन
नहीं उठा पाता?
आदमी क्यों
पपीहा जैसा
पुकार नहीं
पाता? आदमी
क्यों...? छोटे-छोटे
पक्षी गा लेते
हैं बिना कहीं
सिखे, बिना
किसी संगीत
महाविद्यालय
में प्रविष्ट हुए,
बिना किसी
गुरु के चरणों
में वर्षों
सेवा किए।
पक्षी पा लेते
हैं, आदमी
के गीत को
क्या हो गया
है?
आदमियों
का गीत
वस्तुओं में
दबकर मर गया
है। आदमियों
के कंठ में
वस्तुएं भरी
हैं। गीत निकल
नहीं पाता।
व्यक्तियों
से प्रेम होता
है, कंठ के
अवरोध टूट
जाते हैं। एक
पुलक आती है, एक लगन पैदा
होती है। जीवन
अर्थपूर्ण
मालूम होता
है। जीवन से
ऊब हटती है और
लगता है, जीवन
में एक रस है।
लेकिन
व्यक्तियों
का प्रेम भी
कभी पूर्ण प्रेम
नहीं हो
पाता--हो नहीं
सकता।
क्योंकि दो अहंकार
कैसे मिट सकते
हैं? दोनों की
चेष्टा होती
है कि दूसरा
मिट जाए। प्रेमी
चाहता है, कि
प्रेयसी का
अहंकार टूट
जाए और वह
मेरे प्रति
समर्पित हो
जाए।
सभी
प्रेमी वही कह
रहे हैं, जो
कृष्ण ने
अर्जुन से कहा
था, मामेक शरणं
व्रज! सब
छोड़कर, तू
मेरी शरण में
आ जा।
कृष्ण
ने कहा था, वह तो
सार्थक है।
क्योंकि वहां
एक निरहंकारी था।
वहां एक शून्यवत--महाशून्य
था। तो कृष्ण
ने कहा, सब
छोड़कर मेरी
शरण आ जा।
इसमें अड़चन
नहीं है क्योंकि
कृष्ण
महाशून्य
हैं। अर्जुन
डूब सकता है।
लेकिन
दो प्रेमी भी
यही कह रहे
हैं, मामेक शरण्र
व्रज। पति
पत्नी से कह
रहा है, आ, मेरी शरण।
पत्नी कह रही
है, तुम्हीं
आ जाओ। लाख चेष्टाएं
चलती है। छुपी,
प्रकट, अप्रकट,
जाने में
अनजाने में कि
दूसरा झुक जाए
और मिट जाए।
इसलिए प्रेम
एक संघर्ष हो
जाता है। व्यक्तियों
से प्रेम एक
संघर्ष हो
जाता है।
इसलिए
तुम कृपण आदमी
के जीवन में
थोड़ी शांति पाओगे।
लेकिन प्रेमी
आदमी के जीवन
में तुम्हें
शक्ति शांति न
मिलेगी। पुलक
तो मिलेगी, पर पुलक के
पीछे अशांति
छिपी होगी। और
एक संघर्ष
दिखाई पड़ेगा
सतत। कौन मिटे?
कोई मिटना
नहीं चाहता।
कोई मिटने की
तैयारी में
नहीं है। और
समर्पण के
बिना प्रेम न
होगा पूरा।
बिना मिटे वह
परम अनुभूति न
होगी।
और
मिटे कोई कैसे? पति पत्नी
के लिए मिटे, पत्नी के
लिए मिटे? बहुत
चेष्टाएं
समाज ने कर
लीं। लाख
समझाया है
स्त्रियों को,
कि
परमात्मा है।
पतिया ने ही
समझाया है।
पुरुषों ने ही
समझाया है कि
तुम दासी हो।
वे लिखी भी
हैं पत्र में,
कि
तुम्हारी
दासी; लेकिन
पत्र मग यह
भाव नहीं
होता। नीचे
दस्तखत में
होता है
सिर्फ। पति को
वे कहती भी
हैं कि तुम
स्वामी हो।
लेकिन उनके
व्यवहार से
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
औपचारिकता
दिखाई पड़ती
है।
पुरुष
की चेष्टा रही
कि स्त्री झुक
जाए, स्त्री
की चेष्टा रही
कि पुरुष झुक
जाए। पुरुष ने
आक्रमण के
उपाय किए हैं।
स्त्री ने
ज्यादा
सूक्ष्म उपाय
किए हैं। वे
आक्रमण के
नहीं हैं। वे
ज्यादा हन
हैं। पुरुष
सीधा ही सिर पकड़कर
झुकाना चाहता
है। स्त्री
पैर पकड़कर
चाहती है।
लेकिन झुकाना
चाहती है।
और
दोनों में से
तब तक आश्वस्त
कोई भी नहीं
होता, जब तक
उसे पक्का
भरोसा न आ जाए
कि दूसरे को
झुका लिया गया
है। खतरा यह
है, कि अगर
दूसरा सच में
ही झुक जाए, तो दूसरा
वस्तु जैसा हो
जाता है।
उसमें से व्यक्ति
खो जाता है।
इसलिए
अगर पत्नी
तुमसे बिलकुल
समर्पण कर दे, तो उसमें
तुम्हारा रस
चला जाएगा।
इसलिए तो पत्नियों
में रस चला
जाता है। अगर
पत्नी बिलकुल ही
झुक जाए, सच
में ही झुक
जाए जैसा तुम
चाहते थे, तो
वह वस्तु बन
जाती है।
इसलिए
हिंदुओं ने
कहा कि पत्नी
संपत्ति है। झुका
लिया होगा
उन्होंने।
जिन्होंने यह
लिखा है, उनका
अनुभव होगा, कि पत्नी
अगर झुक जाए, तो संपत्ति
हो जाए। तब यह
गाय, बैल
की तरह है। बांधो,
जो करना है,
करो। आज्ञा
दो, वह मानती
है। और जब मर
जाए, तब
तुम दूसरी
पत्नी ले आओ।
परिपूरक हो
सकता है, उसका
स्थान भरा जा
सकता है। वह
कार हो गई, मकान
हो गई, लेकिन
स्त्री न रही।
उसका
व्यक्तित्व
चला गया।
अब यह
बड़ी दुविधा
है। अगर न
झुके, तो
कलह है। लेकिन
जब तक नहीं
झुकती, तब
तक आकर्षण है।
क्योंकि वह
व्यक्ति है, आत्मा है, आत्मवान है,
अपना बल है।
उसका अपना
निजी
व्यक्तित्व
है। जैसे ही
झुकती है, वैसे
ही शांति हो
जाती है, लेकिन
मन में दूसरी
स्त्रियों का
आकर्षण उठने
लगता है। और
जो स्त्री
जितनी ही
कठिनाई पैदा
करती है झुकने
में, उतना
ही चुनौती
मालूम पड़ती
है।
ऐसा ही
पुरुष के
संबंध में सच
है। अगर पुरुष
बिलकुल झुक
जाए, स्त्री
को वह पुरुष
ही नहीं मालूम
पड़ता। उसकी कोई
स्थिति न रही।
अगर न झुके तो
झुकाने का संघर्ष
चलता है।
क्योंकि जब तक
झुक न जाए तब
तक उसे भरोसा
नहीं आता कि
मैं जीत गई।
तो एक विजय का
संघर्ष है
व्यक्तियों
के साथ। झुकने
से पूरा नहीं
होता क्योंकि
झुकने में
व्यक्ति
वस्तु हो जाता
है। बात ही
खतम हो गई। और
झुकना न हो तो
संघर्ष चलता
है, समर्पण
नहीं हो पाता।
लेकिन
जो व्यक्ति, व्यक्तियों
को प्रेम करता
है उसकी
वस्तुओं के
प्रति
अपेक्षा हो
जाती है। यह
बहुत बड़ी घटना
है। वह
परिग्रही
नहीं होता। और
परमात्मा के
प्रति उसकी
तटस्थता हो
जाती है।
तटस्थता
का अर्थ है, वह परमात्मा
के प्रति खुला
होता है।
निर्णय नहीं
लिया उसने अभी
कि परमात्मा
है या नहीं, लेकिन खुला
है। जिसको
पश्चिम में एगनोस्टिक
कहते हैं--अज्ञेयवादी,
अनिर्णीत।
उसका निर्णय
मुक्त है। वह
खड़ा है। वह कहता
है कि हो भी
सकता है, न
भी हो। खोज से
पता चलेगा। जाऊंगा। पहचानूंगा
जब समय होगा।
यह जरा बारीक
बिंदु है, इसे
ठीक से समझना।
व्यक्तियों
के साथ प्रेम
में दो स्थितियां
बन रही हैं।
एक स्थिति है
कि अगर
व्यक्ति न झुके
तो संघर्ष।
अगर व्यक्ति
झुक जाए, तो
वस्तु हो जाता
है। दोनों ही
विकल्प चुनने
योग्य नहीं
हैं। दो
घटनाएं
होंगी। इसलिए
व्यक्तियों
को प्रेम
करनेवाले
लोगों के जीवन
में दो घटनाएं
घटेंगी।
जवान
व्यक्ति
व्यक्तियों
को प्रेम
करेगा। बूढ़े
होते-होते
उसमें दो
घटनाओं में से
एक घट गई
होगी। या तो
उसने
व्यक्तियों
से हार कर
वस्तुओं से
प्रेम शुरू कर
दिया होगा। और
या
व्यक्तियों
में जो थोड़ा
सा रस पाया, उसकी समझ के
आधार पर, उसने
परमात्मा की
खोज शुरू कर
दी होगी। या
तो वह
व्यक्तियों
के ऊपर बैठकर
महा व्यक्ति
को, समष्टि
को प्रेम करने
लगेगा। और या
नीचे गिरकर
वस्तुओं को
प्रेम करने लगेगा।
ये दो
घटनाएं इसलिए
घटती है, क्योंकि
व्यक्तियों
के प्रेम दो
विकल्प सदा मौजूद
हैं।
व्यक्तियों
के प्रेम में
रस भी मिलता
है। और
व्यक्तियों
के प्रेम में
संघर्ष भी
मिलता है। दुख
भी मिलता है
और सुख भी
मिलता है। व्यक्तियों
का प्रेम
दोहरा है।
प्रेमी सुख भी
देते हैं दुख
भी देते हैं।
तुम सभी जानते
हो। अगर कभी
किसी को प्रेम
किया है, तो
उससे दोनों
चीजें मिलती
हैं।
अब यह
तुम पर निर्भर
है कि तुमने
व्यक्ति के
द्वारा पाये
गए अगर दुख पर
बहुत ध्यान दिया, तो
धीरे-धीरे तुम
वस्तुओं के
प्रेम के गिर
जाओगे। और अगर
व्यक्तियों
के द्वारा
मिले सुख पर
ध्यान दिया, तो तुम
धीरे-धीरे
महा-व्यक्ति
की तलाश में
निकल जाओगे।
यहीं गुरु की
जरूरत शुरू
होती है।
कृपण
के लिए तो
गुरु किसी काम
का नहीं है।
कृपण तो गुरु
से डरता है।
क्योंकि गुरु
के प्रति समर्पित
करना होगा, और यही तो
कृपण का भय
है। वह समर्पण
कर नहीं सकता।
इसलिए कृपण
अगर गुरु के
पास भी आता
है। तो खुद को
समर्पित नहीं
करता, एक
आम ले आता है।
एक दो केले ले
जाता है। यह
तरकीब है बचने
की। वह कह रहा
है, लोग
महाराज, मुझे
छोड़ो।
इतना काफी है।
गुरु
के पास केला
लेकर आ रहे हो, कि आम लेकर
चले आ रहे हो!
कुछ तो सोचो।
लाते हो तो
अपने को लाओ।
अन्यथा मत आओ।
उससे कम में न
चलेगा। उससे
कम में जो
गुरु राजी हैं,
वे
तुम्हारे
जैसे ही हैं।
वे गुरु है।
वे भी तीसरे
ही दर्जे के
लोग हैं, जो
वस्तुओं के
प्रेम में पड़े
हैं।
गुरु
तुम्हें
चाहता है।
उससे कम काम
नहीं चलेगा।
अपना सिर ही
लेकर आओ। कबीर
ने कहा है कि
जिसकी हिम्मत
हो, आ जाए; सिर रखे और
ले जाए सब।
लेकिन वह सिर
रखना शर्त है।
गुरु
एक मृत्यु है
क्योंकि एक
पुनर्जीवन भी
है। मृत्यु के
बाद ही
पुनर्जीवन
होगा। गुरु एक
मृत्यु है क्योंकि
गुरु एक जन्म
भी है। अब
केले का क्या
कसूर है? केले
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा?
इसको तुम
काहे को चढ़ा
रहे हो? आदमी
सदा से चढ़ता
आया है दूसरी
चीजें। कभी
पशु चढ़ाता
रहा है, कभी
फल चढ़ाता
रहा, कभी
फूल चढ़ाता
रहा। यह सिर्फ
अपने को चढ़ाने
से बचने की
व्यवस्था है।
फिर
आदमी ने कई
तरकीबें
निकाल लीं।
नारियल चढ़ाता
है। क्योंकि
वह आदमी के
सिर जैसा लगता
है। वह सब्स्टीयूट
है, परिपूरक।
उसमें आंखें
भी हैं, दाढ़ी भी है, मूंछ
भी है, सब
है। इसलिए तो
हिंदी में
उसको खोपड़ा
कहते
है--खोपड़ी!
उसको आदमी चढ़ाता
है जा कर
मंदिर में।
अपनी
खोपड़ी ले जाओ।
आदमी
सिंदूर लगाता
है। वह खून का
प्रतीक है।
अपना खून दो, सिंदूर
लगाने से क्या
होगा?
आदमी
प्रतीक खोजता
है, अपने को
बचाता है।
जो इन
प्रतीकों का
सम्मान कर रहा
है, वह भी
तुम्हारे ही
जात का हिस्सा
है। वह तीसरे
दर्जे का
प्रेमी है।
गुरु और चेला
एक ही नाव में
सवार हैं। और
तुम दोनों
डूबोगे: आप डूबते
पांडे ले डूबे
जजमान। वे डूब
ही रहे थे गुरुजी,
तुम और चढ़
गए नाव पर!
दूसरे
कोटि का
व्यक्ति, जो
प्रेम करता है
व्यक्तियों
से, उसके
जीवन में गुरु
की संभावना
शुरू होती है।
काश, उसे
गुरु मिल जाए!
अन्यथा डर है
कि वह तीसरे
प्रेम में
नीचे गिर
जाएगा। अभी
मौका था, कि
वह पहले प्रेम
की तरफ ऊपर उठ
जाए। गुरु उसे
सिखाएगा
कि यह जो कलह
थी, यह कलह
प्रेम के कारण
न थी। यह कलह
अहंकार के कारण
थी। प्रेम में
जो तुम्हें
दुख मिला
प्रेयसी से, प्रेमी से
जो तुम्हें
पीड़ा मिली, वह पीड़ा
प्रेम के कारण
न मिली, वह
तुम्हें
अहंकार के
कारण मिली।
प्रेम
से तो सुख ही
मिला। इतने
अहंकार के
होते हुए भी
थोड़ा सा सुख
मिला, यह
चमत्कार है।
लेकिन प्रेम
के कारण कभी
दुनिया में
कोई दुख किसी
को मिला नहीं।
अगर तुमने समझा,
प्रेम के
कारण दुख मिला,
तो फिर तुम
वस्तुओं के
प्रेम में लग
जाओगे।
क्योंकि वहां
फिर कोई दुख
नहीं है।
लेकिन
अगर तुम्हें
यह समझ में आ
गया, कि दुख
मिला अहंकार
के कारण। और
अहंकार कैसे समर्पित
करोगे दूसरे
अहंकार को? दूसरा
अहंकार बांधा
देता है
समर्पण में।
क्योंकि
दूसरा अहंकार
मांग करता है,
समर्पित
करो। सिर्फ
परमात्मा
मांग नहीं
करता समर्पण
की।
जहां
मांग नहीं है, वहां समर्पण
आसान है।
प्रेम
से थोड़ा सा
सुख मिला; अगर तुम
पूरा समर्पण
कर सको तो
अनंत सुख की
वर्षा हो जाए।
सुख के मेघ
कभी घिर
आएं--घिरे ही
हैं।
तुम्हारा
हृदय थोड़ा
खाली हो
अहंकार से, कि वर्षा हो
जाए।
परमात्मा
की तरफ वही
व्यक्ति जाता
है, जिसने
प्रेम में सुख
को पहचाना। और
यह भी पहचान
कि बाधा थी
मेरे कारण, अहंकार के
कारण। अब मैं
वह तलाश
करूंगा उस बिंदु
की, जहां
मैं अपने
अहंकार को छोड़
दूं।
व्यक्तियों
के साथ कैसे
छोड़ा जा सकता
है? वे
तुम्हारे
जैसे ही है।
वे उसी तल पर
खड़े हैं, जहां
तुम खड़े हो।
कोई
चाहिए विराट, कोई चाहिए
इतना विराट, कि उसके
पैरों तक
तुम्हारा सिर
पहुंचे। उतना भी
पहुंच जाए तो
बड़ी यात्रा।
कोई चाहिए
शून्य की
भांति, जो
मांग न करे, ताकि
तुम्हें
चुपचाप
समर्पण करने
की सुविधा मिल
जाए। जो कहे
ना कि झुको।
क्योंकि जब भी
कोई कहता है, झुको, तभी
तुम्हारा
अहंकार बाधा
डालने लगता
है। वह कहता
है, मत
झुको।
जब कोई
कहता है झुको, तो अहंकार
में अकड़ जाती
है। वह कहता
है, क्यों झुकें? क्यों
झुकें, यह झुकनेवाला
कौन है? मैं
क्यों किसी के
सामने झुकूं?
अहंकार की
मजबूती बढ़ती
है। प्रतिशोध
बढ़ता है। परमात्मा
तुमसे नहीं
कहता कि झुको।
वह महाशून्य है,
पह
आकाश है। तुम
झुक जाओ, तुम्हारी
मर्जी। और
अहंकार को
झुकने में सुविधा
होती है, वहां,
जहां कोई झुकनेवाला
नहीं होता।
तीसरे
तरह का प्रेम
है, परमात्मा
की तरफ प्रेम।
वह प्रेम है।
क्योंकि तुम
झुक जाते हो।
कोई झुकनेवाला
पहले से ही
नहीं है।
परमात्मा है
थोड़े ही! होता,
तो आदमी कभी
भी न झुक
पाता।
परमात्मा
नहीं होने का
नाम है।
परमात्मा की
कोई मौजूदगी
थोड़ी ही है।
अगर मौजूदगी
होती, तो
अड़चन पड़ती।
परमात्मा एक
गैर-मौजूदगी
है। परमात्मा
उपस्थिति
नहीं है, परमात्मा
परम-अनुपस्थिति
है--एबसोल्यूट
एबसेन्स।
इसलिए
तो तुम उसे
खोज नहीं
पाते। लाख भागो, दौड़ो, हिमालय पर
जाओ, कैलाश
चढ़ो, मानसरोवर
में खोजो, कहीं
नहीं मिलता।
परमात्मा एक
महान गैर-मौजूदगी
है, अनुपस्थिति
है।
वह ऐसे
है, जैसे न
हो। उसका होना,
न होने जैसा
है। इसका होना
शून्यवत
है। वह आकाश
जैसा है।
इसीलिए
कबीर आकाश
शब्द का
प्रयोग
बार-बार करते
हैं। वह
परमात्मा का
स्वभाव है।
शून्य उसका स्वभाव
है। वह
तुम्हें
झुकाता नहीं।
तुम झुक रहे
होओगे, तो
वहां कोई
मुस्कुराता
नहीं है।
क्योंकि उतनी
मुस्कुराहट भी
तुम्हें रोक
देगी। तुम झुक
रहे होओगे तो
कोई तुम्हारी
पीठ थपथपाता
नहीं।
क्योंकि उतने
में ही अकड़
लौट आएगी, कि
अरे! यहां भी
कोई मौजूद है।
तुम्हारी अकड़
वापस आ जाएगी।
संघर्ष शुरू
हो जाएगा।
परमात्मा
से लड़ने का
उपाय नहीं है।
क्योंकि वह
इतना छिपा हुआ
है कि तुम कैसे
लड़ोगे? परमात्मा को
पाने का भी
उपाय नहीं है।
सिर्फ अपने को
खोने का उपाय
है। जो खो
देते हैं, वे
पा लेते हैं।
जो पाने
निकलते हैं, वे कभी नहीं
खोज पाते।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हमें
ईश्वर खोजना
है। मैं उनसे
कहता हूं कि
तुम खोजो।
बाकी तुम्हें
मिलेगा नहीं।
वे कहते हैं, क्यों? क्या
गलती?
सवाल
गलती का है ही
नहीं। खोजनेवाले
को कभी मिलता
ही नहीं। जो
खोने को तैयार
है, उसको
मिलता है।
खोना ही उसे
पाने का ढंग
है। क्योंकि
वह खुद खोया
हुआ है। तुम
भी वैसे ही हो जाओ,
तत्क्षण
मेल हो जाता
है। तुम
अनुपस्थित हो जाओ।
तुम्हारा
अहंकार चला
जाए। तुम न
रहो। तुम ऐसे
हो जाओ, जैसे
हो ही नहीं, तत्क्षण मेल
हो गया। भीतर
का आकाश बाहर
के आकाश से
मिल गया।
और तब
प्रेम का परम
प्रकाश प्रकट
होता है। तब प्रेम
का गौरीशंकर
उठता है, प्रेम,
मोक्ष है।
क्योंकि
प्रेम तुमसे
ही मुक्ति है।
प्रेम परम
प्रकाश है।
क्योंकि
तुम्हारे
अहंकार के
अतिरिक्त और
कोई अहंकार
नहीं है। सब
तरफ सूरज उगा
है। एक तुम
आंख बंद किए
बैठे हो। आंख खुली
प्रकाश ही
प्रकाश।
ऐसी
जिसे प्रतीति
होने लगे--ऐसी
प्रतीति कब होती
है? जब तुमने
व्यक्तियों
का प्रेम जाना
हो और उस प्रेम
की विफलता भी।
जब तुमने
व्यक्तियों
के प्रेम का सुख
जाना हो और
उसकी पीड़ा भी।
इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं, प्रेम
करा। क्योंकि
उस प्रेम के
बिना तुम परमात्मा
की तरफ जाओगे
कैसे? वही
प्रेम
तुम्हें रस
लगाएगा
परमात्मा की
तरफ जाने का।
वही प्रेम
तुम्हें
व्यक्तियों
से मुक्त होने
की सुविधा भी
देगा। प्रेम
बड़ी अनूठी कला
है।
लेकिन
वस्तुओं से
प्रेम मत करना, अन्यथा तुम
अटके रह जाओगे
व्यक्तियों
से प्रेम
करना।
क्योंकि
व्यक्तियों
का प्रेम तुम्हें
तृप्ति भी
देगा और
तृप्ति होने
भी न देगा। यह
खूबी है।
व्यक्तियों
का प्रेम
तुम्हारे कंठ
को भिगाएगा
और प्यास को बुझाएगा
भी नहीं।
बल्कि प्यास
और प्रज्वलित
हो कर जलने
लगेगी।
व्यक्तियों
का प्रेम एक
ऐसी दुविधा
देगा, ऐसे दोराहे पर
खड़ा कर देगा, जहां से एक
रास्ता तो
वस्तुओं के
प्रेम की तरफ
जाता है, जहां
परिग्रही
गिरता है और
भटकता है; वही
नर्क है। और
जहां से दूसरा
रास्ता
स्वर्ग में
जाता है, परमात्मा
की तरफ जाता
है।
मैंने
निरंतर अपने
साधकों को
कहता हूं कि
एक बात ध्यान
रखना, प्रार्थना
शुरू नहीं
होगी, जब
तक तुम्हारा
प्रेम पक न
जाए; जब तक
तुम प्रेम को
न जान लो, और
प्रेम को
जानने का अर्थ
है, प्रेम
का नर्क भी
जानना और
प्रेम का
स्वर्ग भी।
प्रेम का नर्क
तुम्हें
व्यक्तियों
के प्रेम से
ऊपर उठाएगा और
प्रेम का
स्वर्ग
तुम्हें
परमात्मा के प्रेम
में ले जाएगा।
अब हम
कबीर के इन
सूत्रों को
समझने की
कोशिश करें।
प्रीति
लगी तुम नाम
की, पल बिसरे नाही।
जब
व्यक्तियों
के प्रेम के
ऊपर कोई उठता
है और
परमात्मा का
प्रेम जगता है, तब प्रीति
लागी तुम नाम
की। नाम का ही
पता है; अभी
उसका तो कुछ
पता नहीं। अभी
उस प्रेमी को
देखा भी नहीं
है। अभी वह
प्रेमी मिल
जाए तो पहचान
भी न सकेंगे।
प्रत्यभिज्ञा
भी न होगी।
अभी तो उस
प्रेमी की खबर
मिली है। एक
हवा का झोंका आया
है। प्रीति
लागी तुम नाम
की। अभी तो
नाम सुना है।
एक भनक पड़ी
है।
यह
कैसे लगती है
नाम की प्रीति? क्योंकि
जिसे देखा
नहीं, जिसे
जाना नहीं, जिसे पहचाना
नहीं, जिसे
कभी आलिंगन
नहीं किया, जिसका कभी
स्पर्श नहीं
हुआ, उसकी
प्रीति कैसे
लगती है?
व्यक्तियों
के जगत में, नंबर दो के
प्रेम में तो
जिस स्त्री को
तुमने देखा हो,
पहचाना हो,
स्पर्श
किया हो, उसकी
ही प्रीति
जाती है। कोई
अपरिचित
स्त्री, जो
कहीं तिब्बत
में हो, जिसका
कुछ पता ही
नहीं, न
जिसकी तस्वीर
देखी हो, या
न कभी जिसे
फिल्म में
देखा हो, उससे
तुम्हारा
प्रेम होता है?
कैसे होगा?
नाम भी कोई
बता दे, तो
भी क्या सुन
कर प्रेम हो
जाएगा?
फिर
परमात्मा का
प्रेम कैसे
लता है? प्रीति
लागी तुम नाम
की--यह घटना
घटती है? यह
अनघट
घटना कैसे
घटती है? इसका
राज है। यह
गुरु के कारण
घटती है।
कबीर
के गुरु थे रामानंद।
कबीर उनको
नाचते देखते।
तंबूरा बजता
है, रामानंद नाचते हैं।
कबीर उनके पास
बैठते हैं।
उनसे बहते
आनंद के झरने
का स्पर्श
होता है। उनकी
मस्ती, उनकी
समाधिस्थ
आनंद की दशा, सोते-जाते रामानंद
को सब रूपों
में देखते
हैं। उस रूप
में धीरे-धीरे
अरूप की भनक
पड़ने लगती है।
रामानंद
के पास
होते-होते राम
के पास होने
लगते। क्योंकि
रामानंद
यानी राम को
पा कर मिला
आनंद।
यह नाम
बड़ा प्यारा है
कबीर के गुरु
का--रामानंद।
जिसको मिल गया
और जो उसके
आनंद से भरा
है। राम का
पता नहीं है
कबीर को, लेकिन
रामानंद
में घटे आनंद
का पता है। वह
घट रहा है। वह
प्रतिपल बरस
रहा है। वहां
मेघ गरज ही
रहे हैं। चहुं
दिस दमके
दामिनी। वहां
तो बिजली चमक
रही है। वह रामानंद
के पास रोग
लगता है। रामानंद
संक्रामक
बीमारी हो
जाते हैं।
जैसे
बीमारियां पकड़ती हैं, वैसे
स्वास्थ्य भी पकड़ती है।
और जैसे
बीमारियां पकड़ती हैं
और बीमारियों
के कीटाणु
होते हैं, वैसे
ही स्वास्थ्य
के भी कीटाणु
होते हैं और वैसे
ही परमात्मा
की धुन भी पकड़ती
है। क्योंकि
वह परम
स्वास्थ्य
है।
रामानंद
के पास एक नई
पुलक उठने
लगी। एक नई
पुकार! कोई दूर
से बुलाता है।
पहचाना नहीं, जाना नहीं, लेकिन हृदय
आंदोलित होता
है। प्रीति
लागी तुम नाम
की। अभी
तुम्हारा कुछ
पता नहीं। अभी
सिर्फ नाम
सुना है। वह
भी रामानंद
से सुना है।
लेकिन रामानंद
में ऐसा घट
रहा है, कि
भरोसा आ रहा
है कि वह नाम
जरूर किसी का
होगा। उसकी
खोज करनी
पड़ेगी।
बुद्ध
से कोई पूछता
कि क्या आपको
सुन कर ज्ञान
हो जाएगा? क्या आपको
समझ कर ज्ञान
हो जाएगा? बुद्ध
कहते नहीं।
बुद्धों को
सुन कर तो
केवल प्यास
लगती है। ज्ञान
तो परमात्मा
के मिलने से
होगा; सत्य
के मिलने से
होगा।
बुद्धों के
पास पीड़ा जगती
है, विरह
उठता है। हृदय
रुदन से भर
जाता है।
आंखों में
आंसू झलक आते
हैं। कोई
अनजानी पुकार,
कोई आवाज, जिसकी दिशा
भी पहचानी
नहीं, जहां
कभी पैर भी
नहीं चले, ऐसा
कोई रास्ता, ऐसा कोई
मार्ग बुलाने
लगता है। और
ऐसे उठती है
पुकार--पल
बिसरे नाही।
कि एक क्षण भी
भूलती नहीं।
प्रीति
लागी तुम नाम
की पल बिसरे नाही,
नजर
करो अब मिहर
की, मोहे मिलो गुसाई।
अब
बहुत हो चुका।
अब थोड़ी कृपा
इस तरफ भी हो
जाए। नजर करो
मेहर की।
अनुकंपा मुझ
पर भी हो जाए।
अब मिला गुसाई।
अब बहुत विरह
हो गया।
जिस
दिन पहली दफा
विरह का भाव
उठता है। विरक
के भाव का
अर्थ है, लगता
है कि
परमात्मा को
पाए बिना कुछ
भी सार्थक
नहीं है। लगता
है सब कुछ
दांव पर लगा
देने जैसा है,
लेकिन
परमात्मा को
पाना है। लगता
है अपने को खोने
को तैयार हूं,
लेकिन
तुम्हें अब और
खोए रहने को
तैयार नहीं। सब
चुकाने को
राजी हूं, लेकिन
तुमसे मिलना
होना ही चाहिए,
जिस दिन
सारा जीवन-मरण
दांव पर लगता
है, जिस
दिन हम जीते
हैं तो उसके
लिए, और
मरते हैं तो
उसके लिए, उस
दिन फिर पल भर
भी उसकी याद
नहीं भूलती।
सोते
जागते भी
प्रेमी
प्रेयसी की ही
याद करता है।
गालिब का कोई
पद है, कि
रात आंख नहीं
झपकाता; क्योंकि
पता नहीं उसी
क्षण
तुम्हारा आना
हो जाए। पता
नहीं मैं सोया
रहूं, तुम
द्वार पर दस्त
दो और लौट
जाओ।
बड़ी
बेचैनी की दशा
हो जाती है
की। पत्ते खड़खड़ाते
हैं, लगता है,
प्रेयसी आई
कि प्रेमी
आया। हवा का
झोंका गुजरता
है वृक्षों से,
प्रेमी
द्वार खोल कर
देखता है, शायद
आना हो गया।
राहगीर
गुजरते हैं, पदचाप सुनाई
पड़ती है, प्रेमी
भागा द्वार के
पास पहुंच जाता
है कि शायद आ
गए।
प्रीति
लागी तुम नाम
की, पल बिसरे नाही।
एक
क्षण को भी
भूलती नहीं
याद। और तभी
याद, याद है।
जो भूल भूल
जाए, जिसे
सम्हाल-सम्हाल
कर लाना पड़े, वह भी कोई
याद है?
कबीर
कहते हैं, जैसे पनघट
से कोई, पानी
भरकर चलती है
नारी, गपशप
करती, गीत
गुनगुनाती, सखियों से बात करती
हंसी ठिठोली
होती, लेकिन
उसकी याद तो
सिर पर रखे घड़े
पर लगी रहती।
है। यह सब
चलता है
बारह-बाहर। वह
हाथ से भी
नहीं
सम्हालती घड़े
को। घड़ा सम्हला
रहता है। याद
सम्हाले रहती
है। बात चलती,
चर्चा होती,
हंसती, गीत
गाती, हजार
गपशप होती, लेकिन यह सब
बाहर-बाहर का
व्यापार होता
है। केंद्र पर
एक सुरति बनी
रहती है, एक
स्मृति बनी
रहती है घड़े
को सम्हालने
की।
जब
विरह की अग्नि
पहली दफा उठती
है, तो गुरु
से उठती है।
गुरु के बिना
नहीं उठ सकती।
जब तक तुमने
ऐसा आदमी ने
देखा हो, जिसके
जीवन से मिलने
की सुवास उठ रही
हो, जिसके
भीतर तुम्हें
अहसास होने
लगे कि गुसाई
का आना हो गया;
जिसके
पदचापों में
तुम्हें किसी
तरह उस अज्ञात
परमात्मा की
धुन सुनाई पड़े
जिसके पदचिन्हों
में उसके ही पदचिन्ह
हों, परमात्मा
के भी पदचिन्ह
मालूम पड़ने
लगे। इसलिए तो
हमने बुद्धों
के पैर बचा के
रखे हैं, क्योंकि
वे सिर्फ गौतम
सिद्धार्थ
नाम के आदमी
के पदचिन्ह
नहीं है।
अन्यथा कौन
फिकर करता है?
कितने लोग
इस पृथ्वी पर
चलते हैं और
जाते हैं। उन
पैरों में, जो लोग निकट
थे, उन्होंने
किसी और पैर
को भी देखा
है। उस बुद्ध
की मूर्ति की
मूर्ति में
सिर्फ शुद्धोधन
के बेटे गौतम
सिद्धार्थ की
प्रतिमा को
हमने निर्मित
नहीं किया है;
उस प्रतिमा
में कुछ
अप्रतिम है जो
किसी प्रतिमा
में बांधा
नहीं जा सकता;
कोई मूर्ति
जिसे सम्हाल
नहीं सकती, वह अमूर्त
झलका है। उस
बूंद में हमने
सागर को देखा
है। उस पत्ते
में हमें पूरे
वृक्ष की खबर
मिली है। उस
मिट्ठी में
हमने सारे
आकाश को देखा है।
हम किसी को कह
भी नहीं सकते,
समझा भी
नहीं सकते।
इसलिए
शिष्य की बड़ी
सुविधा है।
शिष्य अपने गुरु
के संबंध में
किसी को कुछ
नहीं समझा
सकता। क्योंकि
जो उसने देखा
है, वह उसने
देखा है।
समझाने का कोई
उपाय नहीं है।
प्रमाण देने
का कोई मार्ग
नहीं है।
कौन
प्रेमी अपनी
प्रेयसी के
संबंध में
समझा पता है? तुम लाख कहो
कि तुम्हारी
प्रेयसी
विश्व सुंदरी
होने के योग्य
है, कोई
सुनता नहीं।
विश्व
सुंदरियों के
चित्र छपते
हैं, तुम
देखते हो, तुम
ऐसा फेंक देते
हो, कि कुछ
नहीं; मेरी
पत्नी के मुकाबिले
क्या? या
मेरी प्रेयसी
के मुकाबिल
क्या? और
पड़ोसी विचार
में पड़ते हैं,
कि तुम इस
स्त्री के
पीछे दीवाने
क्यों हो? क्या
देख लिया
तुमने? दिमाग
खराब हो गया? माथा बिगड़
गया है? सम्मोहित
हो? उस
स्त्री ने कुछ
खिला-पिला
दिया? कोई
ताबीज बांध
दिया? मामला
क्या है? इसमें
हमको तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता।
शिष्य
भी गुरु के
संबंध में कुछ
नहीं समझा पाता।
कोई प्रमाण
नहीं दे सकता।
कुछ अप्रमाण
उसे घटा है।
कुछ बिना
प्रमाण के घटा
है। कुछ देखा है, बस देखा है।
उस देखने में
वह मोहित हुआ
है। परमात्मा
के प्रति विरह
जगता है, जब
तुम गुरु के
पास आते हो।
जैसे-जैसे
गुरु के प्रति
प्रेम बढ़ता है, वैसे-वैसे
परमात्मा की
तरफ विरह बढ़ता
है--यह सूत्र
है।
यह सार
समझ लेना।
जैसे-जैसे
गुरु के प्रति
प्रेम बढ़ता है, वैसे-वैसे
परमात्मा के
प्रति विरह की
अग्नि जलती
है। धीरे-धीरे
गुरु तुम्हें तड़फा देता
है। गुरु
तुमसे सब छीन
लेता है, जो
कल तुम्हारा
सुख था। सब
छीन लेता है, जो कल तक
तुम्हारा
प्रेम था। सब
छीन लेता है। तुम्हारी
नींद छीन लेता
है, तुम्हारा
चैन छीन लेता
है। जैसे-जैसे
गुरु के प्रति
प्रेम बढ़ता है,
वैसे-वैसे
परमात्मा की
विरह जगती है।
एक अनूठी
प्यास कंठ को
पकड़ लेती है।
प्राण जकड़
जाते हैं।
अब तुम
तड़फते हो, जैसे मछली तड़फती है।
पानी से निकाल
ली किसी ने
मछली को और
डाल दी रेत पर;
और तड़फती
है। ऐसा गुरु
तुम्हें पहली
दफा तुम्हें
तुम्हारे गलत
प्रेम से
निकाल कर ठीक
प्रेम की रेत पर
डाल देता है।
तुम तड़फते
हो। पहली दफा
विरह की अग्नि
पैदा होती है।
प्रीति
लागी तुम नाम
की, पल बिसरे नाही।
नजर
करो अब मिहर
की, मोहि
मिलो गुसाई।।
बिरह सतावै
मोहि को, जिव तड़फे
मेरा,
तुम
देखने की चाव
है, प्रभु
मिला सबेरा।।
विरह सतावै
मोहि को, जिव तड़फे
मेरा--
प्राण तड़फते हैं
तुम्हारे लिए।
श्वास चलती है
तुम्हारे
लिए। पलभर को
भी विश्राम
नहीं है। याद
चुभती है
कांटों की तरह; जैसे हृदय
में कांटा लगा
हो। एक मीठी
पीड़ा जो घेर
लेती है; जिससे
बाहर होने का
कोई उपाय नहीं
सूझता। क्या
करे विरह का
मारा हुआ? रोता
है, गाता
है। उसके रोने
में तुम गीत
पाओगे, उसके
गीत में तुम
रोना पाओगे।
हंसता है, उसके
हंसने में तुम
आंसू पाओगे।
आंसू टपकते हैं।
उसके आंसू में
तुम
मुस्कुराहट
पाओगे।
क्योंकि
एक तरह से तो
वह बड़ा
प्रसन्न है कि
विरह पैदा हो
गया। क्योंकि
आधा मिलन हो
गया। विरह
यानी आधा
मिलन।
सौभाग्य है कि
विरह जग गया।
कम से कम
यात्रा शुरू
तो हो गई। राह
पर तो आ गए।
मंदिर कितनी
ही दूर हो, लेकिन शिखर
दिखाई पड़ने
लगा। अभी
मंदिर की प्रतिमा
नहीं दिखी, लेकिन आकाश
में चमकता हुआ
स्वर्ण शिखर
दिखाई पड़ने
लगा। आशा बंधती
है, भरोसा
आता है। भक्त
दौड़ने लगता
है।
बिरह सतावै
मोहि को, जिव तड़फे
मेरा।
तुम
देख की चाव है--
बस, एक ही चाह
बनी। सब चाहे
एक चाह में
गिर गई। जैसे
सभी नदियां
एक ही सागर
में गिर
जायें। वह है,
तुम देखने
की
चाव।...प्रभु
मिला सबेरा।
सुबह
हो गई। अब
अंधेरा नहीं
है। अब दिखाई
पड़ता है। बस
अब एक ही चाह
है कि उस
रोशनी में तुम
भी दिखाई पड़
जाओ।
यह
ध्यान की
अवस्था है। अब
रोशनी तो हो
जाती है, लेकिन
समाधि नहीं
फलती। जब
प्रकाश तो हो
जाता है, सुबह
तो हो गई, लेकिन
अभी सूरज नहीं
निकला है। रात
जा चुकी, अंधेरा
अब नहीं है, सुबह हो
गई--सबेरा; लेकिन
सूरज अभी नहीं
निकला है। अभी
सूरज के दर्शन
नहीं हुए।
वह जो
मध्यकाल है, रात्रि के
जाने और सूरज
के आने के बीच
में जो संध्याकाल
है, उसको
ही हिंदुओं ने
अपनी
प्रार्थना का
समय बनाया।
क्योंकि वही
ध्यान है। वही
ध्यान का प्रतीक
है। इसलिए
हिंदू
प्रार्थना को
संध्या कहते
हैं। संध्यान
का अर्थ है, सुबह। रात
गई, दिन
अभी आया नहीं।
वह जो मध्यकाल
है संध्या या--सांझ।
सूरज जा चूका,
रात अभी आई
नहीं वह भी
संध्या है।
ध्यान, संध्या
की अवस्था है।
इसलिए
हिंदुओं ने
ध्यान का नाम
ही संध्या रख
लिया। ठीक किया।
वह प्रतीक
बिलकुल सही
है। ध्यान की
अवस्था में
प्रकाश तो हो
जाता है, लेकिन
प्रभु का
दर्शन नहीं
होता। सूरज
अभी निकला
नहीं है।
कबीर
कहते हैं--
बिरह सतावै
मोहि को, जिव तड़फे
मेरा।
तुम
देखने की चाव
है, प्रभु
मिला सबेरा।।
सुबह
हो गई। अब तो
दिखाई पड़ जाओ।
नैना तरसै दरस
को, पल पलक न लागे।
दर्दबंद
दीदार का, निसि बास
जागे।।
अब
आंखों में बस
एक ही तड़फ, एक ही तरस
है--नैना तरसै
दरस को।
तुम्हारे
दर्शन हो
जाएं। तुम
दिखाई पड़ जाओ।
जन्मों-जन्मों
से भूखी आंखें
तृप्त हो जाएं।
ये
जन्मों-जन्मों
से तड़फीं
आंखें तुम से
भर जाए। तुम्हें
समा लें अपने
भीतर।
पल पलक
न लागे--
इस डर
से पलक नहीं
झपकता कि पता
नहीं, इधर
पलक झपके, उधार
तुम आओ। अवसर
चूक जाए। पलक झपकाने से
ही डर लगता
है। एक
क्षण...कौन
जाने वही क्षण
मिलने का क्षण
हो।
दर्द
बंद दीदार का...
वह जो
देखने के लिए
दीवाना है, वह जो देखने
के लिए पीड़ा
से भरा है, निसि
बास जागे। वह
सोता ही नहीं।
सोने की सुविधा
उसे नहीं। वह
जागता है--दिन
भी और रात भी।
कौन जाने कब
उसका आगमन हो!
कब उसका रथ
रुक जाए आकर द्वार
पर! कहीं ऐसा न
हो, कि वह
मुझे सोया हुआ
पाए।
ध्यान
की अवस्था सतत
जागरण की
अवस्था है। सतत
चेष्टा है, कि जागा
रहूं।
जो अब
कै प्रीतम
मिलें, कूः निमिख न
न्यारा।
अब
कबीर गुरु पाइया, मिला प्राण पियारा।
जो अब
कै प्रीतम
मिलें...
ये
शब्द बड़े
अनूठे हैं।
इनका अर्थ...
कबीर
कहते हैं, जो अब कै
प्रीतम मिलै।
वे कहते हैं
कि मिले तो
तुम पहले भी
होओगे। मेरे अनजाने
मिले। मिलते
तो तुम पहले
भी रहे होओगे,
क्योंकि
तुम्हारे
बिना जीवन
कहां? बहे
तो तुम पहले
भी मेरी
सांसों में
होओगे, लेकिन
मैं सोया था।
आए तो तुम
बहुत बार मेरे
द्वार पर
होओगे, क्योंकि
कैसे तुम मुझे
भूल सकते हो? मैं
तुम्हारा ही
हूं। कितना ही
दूर भटक गया होऊं,
तुमने छाया
की तरह मेरा
पीछा किया
होगा। लेकिन
मुझे
तुम्हारी
पहचान न थी। न
मालूम कितने
रूपों में तुम
आए होओगे।
मैंने रूप तो
देखे, लेकिन
तुम्हें न देख
पाया। फूल में
तुम हंसे होओगे।
मुझे दिखाई न
पड़ा मैं अंधा
था। वृक्ष में
तुम खिले
होओगे, मैं
गाफिल था। मनुष्यों
की आंखों में
तुमने झांका
होगा मेरी तरफ,
लेकिन
मैंने सिर्फ
समझा कि
मनुष्यों की
आंखें हैं।
इसलिए कबीर
कहते हैं, जो
अब कै प्रीतम
मिलें।
वे यह
नहीं कहते कि
यह मिलन कोई
पहली दफा होने
वाला है। वे
यह नहीं कहते
कि यह मिलन
नया है। हम हो
ही नहीं सकते
बिना परमात्मा
के। हमारा
होना वही है।
जैसे मछली
नहीं हो सकती
बिना सागर है।
पैदा होती
सागर में, जीती सागर
में, मिटती
सागर में, ऐसे
हम परमात्मा
के सागर में
हैं। चेतना की
मछली, परमात्मा
का सागर।
चेतना हो ही
नहीं सकती परमात्मा
के बीना। हम
चेतन हैं।
तो यह
तो नहीं कहते
कबीर कि यह
पहली दफा
मिलना हो रहा
है। वे कहते हैं
कि मिलना तो
बहुत बार हुआ
होगा, लेकिन
मैं बेहोशी
में सोया, मैं
गाफिल, मैं
नशे में धुत
पड़ा रहा। तुम
आए होओगे।
क्षमा करो उन
भूलों को।
जो अब
कै प्रीतम
मिले--
लेकिन
अब एक बात
पक्की है, कि इस बार
अगर मिलना हुआ,
अगर अब
तुम्हें
पहचान पाया, कहीं भी
किसी भी चांद
तारे के पास
तुम्हारी छाया
दिख गई, तो
पकड़ लूंगा। अब
न छोडूंगा।
...करूं
निमिख न
न्यारा।
अब एक
क्षण को भी
तुमसे अलग न
हो सकूंगा। अब
मैं तुम्हें
अलग न करूंगा।
अब मैं
तुम्हारी छाया
बन जाऊंगा।
अब
कबीर गुरु पाइया
और अब
भरोसा है
क्योंकि गुरु
मिल गया। अब
डर नहीं है।
अब तुम ज्यादा
दिन न बच
सकोगे। अब तुम
कितने ही छिपो, छिपा न
पाओगे। कितने
ही अवगुंठन धरो, कितने
ही घूंघट पहनो,
अब कबीर
गुरु पाइया।
अब मैं अकेला
नहीं हूं। अब
कोई है, जो
तुम्हें
पहचानता है और
साथ है। और
कोई है, जिसकी
भली भांति
पहचान है और
जिसे तुम धोखा
नहीं दे सकते,
और जिससे
तुम छिप नहीं
सकते। अब वह
साथ है, अब
मेरा हाथ किसी
के हाथ है।
अब
कबीर गुरु पाइया, मिला प्राण पियारा।
अब तुम
कितनी देर
बचोगे? गुरु
के मिलने में
तुम मिल ही
गए। करीब-करीब
मिल गए।
यात्रा पूरी
होने की करीब
है। अब गुरु पाइया
मिला प्राण पियारा।
अब
प्राण-प्यारा
मिल ही गया।
समझो कि मिलन
हो गया।
गुरु
मिल गया कि
परमात्मा का
द्वार मिल
गया। गुरु मिल
गया कि
गुरुद्वारा
मिल गया; गुरु
मिल गया सहारा
मिल गया। अब
हाथ किसी ने सम्हाल
लिया। अब तुम
अंधेरे में
नहीं भटक रहे
हो। अब तुम
यूं ही अंधेरे
में नहीं टटोल
रहे हो। कोई
है जिसकी आंख
खुली है। और
जो परिपूर्ण
रोशनी में जी
रहा है।
जो अब
कै प्रीतम
मिले, करूं
निमिख न
न्यारा।
अब
कबीर गुरु पाइया, मिला प्राण पियारा।
गुरु
को पा लिया, सार में
परमात्मा को
पा लिया।
इसलिए तो गुरु
की इतनी चर्चा
इस देश में
चलती रही है।
जैसे गुरु के
बिना कुछ भी न
हो सकेगा।
जैसे गुरु के
बिना कोई उपाय
नहीं है।
गुरु
इतना
महत्वपूर्ण
क्यों हो गया
है इस देश में? जिन्होंने
भी पाया, सदा
गुरु के द्वार
से पाया। गुरु
की आंखों से झांक
कर पाया। गुरु
के हाथा से छू कर
पाया। गुरु के
हृदय में धड़क
कर पाया।
जो अब
कै प्रीतम
मिलें, करूं
निमिख न
न्यारा
अब
कबीर गुरु पाइया, किला प्राण पियारा।
आज
इतना ही।
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