पंचेंद्रियों का संबर करने वाल पाँच बोद्ध—भिक्षुओं का विवाद.(एस
धम्मो
सनंतनो)
भगवान
के जेतवन में
विहरते समय
पांच ऐसे
भिक्षु थे जो
पंचेद्रिय
में से एक— एक
का संवर करते
थे। कोई आंख
का कोई कान का
कोई जीभ का।
एक दिन उन पांचों
में बड़ा विवाद
हो गया कि
किसका संवर
कठिन है।
प्रत्येक
अपने संवर को
कठिन और फलत:
श्रेष्ठ
मानता था।
विवाद की
निष्पत्ति न
होती देख
अंतत: वे
पांचों भगवान
के चरणों में
उपस्थित हुए
और उन्होंने
भगवान से पूछा
: भंते! इन पांच
इंद्रियों
में से किसका
संवर अति कठिन
है?
भगवान
हंसे और बोले
भिक्षुओ! संवर
दुष्कर है।
संवर कठिन है।
इसका संवर या
उसका संवर
नहीं— संवर ही
कठिन है।
भिक्षुओ। ऐसे
व्यर्थ के
विवादों में
नहीं पड़ना
चाहिए
क्योंकि
विवाद मात्र
के मूल में
अहंकार छिपा
है। इसलिए
विवाद की कोई
निष्पत्ति
नहीं हो सकती।
विवादों में
शक्ति व्यय न
करके समग्र
शक्ति संवर
में लगाओ। सभी
द्वारों का
संवर करो।
संवर में
दुखमुक्ति का
उपाय है।
इस
दृश्य को ठीक
से समझ लें, फिर
सूत्र समझ में
आना आसान हो
जाएंगे। पहली
बात, संवर
शब्द में गहरे
जाना जरूरी
है। संवर, या
संयम, या
समता या
सम्यवत्व, या समाधि, या संबोधि, या संबुद्ध—सब
एक ही मूल
धातु से
निष्पन्न
होते हैं—सम।
भारत
ने जितनी
श्रेष्ठ
दशाएं चित्त
की खोजी हैं, सभी
को सम से
निर्मित
शब्दों से
इंगित किया है
समाधि, संबोधि,
सबुद्ध। इस
सम धातु का
क्या अर्थ है?
सम
का अर्थ होता
है जहां
व्यक्ति ऐसी
दशा में आ जाए, जैसे
तराजू तब आता
हैरअ? ज३बु
काटा बिलकुल
मध्य में होता
है। दोनों पलड़े
समान हो जाते
हैं, समतुल
हो मनुष्य के
मन में दुख है,
सुख है, असफलता
है, सफलता
है, अंधेरा
है, उजाला
है, जीवन
का मोह है, मृत्यु
का भय है। ये
सारे द्वंद्व
जब सम हो जाते
हैं, न
जीवन का मोह, न मृत्यु का
भय; न
सफलता की
आकांक्षा, न
विफलता से
बचाव, न
सुख की खोज, न दुख से
भागना—ऐसी
स्थिति सम है।
सम
की अवस्था में
शून्य अपने आप
निष्पन्न होता
है। क्योंकि
धन और ऋण जब
बराबर हो जाते
हैं,
एक —दूसरे
को काट देते
हैं। सीधा
गणित है। धन और
ऋण जब बराबर
हो गए, तो
एक—दूसरे को काट
देते हैं; बचता
है शून्य। वह
शून्य ही
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। उस शून्य
का नाम ही सम
है।
उस
शून्य की दशा
में ले जाने
वाले सब उपाय, और
उस दशा में
पहुंचने के
बाद की सब
भंगिमाएं सम
शब्द से
उदघोषित की
गयी हैं।
सोचो।
परखो। कभी
क्षणभर को तुम
भी इस समता
में आ सकते
हो। कभी क्षणभर
को तुम्हारा
तराजू भी थिर
हो सकता है, जब
न तुम इस तरफ
झुके, न उस
तरफ झुके।
रस्सी
पर चलते किसी
नट को देखा है!
वही कला समता
को पाने की
कला है। ठीक
मध्य में है।
जरा यहां —वहा
हुआ कि
गिरेगा। अगर
जरा बाएं की
तरफ झुक जाता
है,
तो खतरा।
दाएं तरफ झुक
जाता है, तो
खतरा। अगर
बाएं तरफ झुक
जाता है नट, तो तत्क्षण
अपने को दाएं
तरफ झुका लेता
है, ताकि
संतुलन फिर
कायम हो जाए।
दाएं तरफ
झुकने लगता है,
तो बाएं तरफ
झुका लेता है,
ताकि फिर
संतुलन कायम
हो जाए। नट
प्रतिपल बाएं
—दाएं के बीच
अपने को मध्य
में सम्हालता है।
बुद्ध
ने कहा है
ध्यान की
प्रक्रिया
रस्सी पर चलने
जैसी
प्रक्रिया
है। ध्यान का
अर्थ है : अभी
कुछ—कुछ झुकना
हो रहा है, कभी
बाएं, कभी
दाएं; कभी
दाएं, कभी
बाएं। समाधि
का अर्थ है? अब कहीं भी
झुकना नहीं हो
रहा है। समता
थिर हो गयी।
ध्यान उपाय है;
समाधि
अंतिम फल है।
ध्यान के
वृक्ष पर
समाधि का फूल
खिलता है।
यह
जो समता है, इसे
कभी—कभी
क्षणभर को तुम
सम्हाल ले
सकते हो। और
उसी से
तुम्हें धर्म
का द्वार
खुलेगा। कभी
बैठे हो शांत,
उस क्षण में
सम्हालो। चलो
रस्सी पर। न
सुख से विरोध,
न दुख से
विरोध। न सुख
की आकांक्षा,
न दुख की
आकांक्षा।
ध्यान
रखना. अक्सर
लोग वही कर
लेते हैं, जो
नट कर रहा है।
जब सुख उन्हें
काफी परेशान करने
लगता है, चिंताओं
से भरने लगता
है, तो वे
कहते हैं?
सुख तो दुख
लाता है।
इसलिए सुख से
उनका विरोध हो
जाता है।
इन्हीं को तुम
त्यागी कहते
हो, जिनका
सुख से विरोध
हो गया है।
जिनके मुंह
में सुख कड़वा
हो गया है।
अब
ये उलटी
आकांक्षा
करने लगते हैं, ये
दुख की
आकांक्षा
करने लगते
हैं। इस दुख
की आकांक्षा
से ही
तुम्हारी
सारी
तपश्चर्या निर्मित
होती है। पहले
ये खोजते थे
अच्छी सुख—शय्या।
अब खोजते हैं
कंकड़—पत्थर, कांटे भरी
भूमि! पहले ये
खोजते थे
सुस्वादु
भोजन; अब
अगर सुस्वादु
भोजन भी मिल
जाए, तो
उसे पानी में,
नदी में
जाकर डूबाकर
खराब करके फिर
स्वीकार करते
हैं। पहले
खोजते थे
रेशमी वस्त्र,
अब अगर
रेशमी वस्त्र
मिल जाएं, तो
उनसे दूर
भागते हैं। अब
इन्हें
खुरदरे, गड़ने
वाले वस्त्र
चाहिए!
तुम
जानकर चकित
होओगे कि
त्याग के नाम
पर आदमी ने
क्या—क्या
किया है! अपने
को कोड़े मारे
हैं,
लहूलुहान
किया है।
ईसाइयों में
एक संप्रदाय ही
रहा है कोड़े
मारने वाले
साधुओं का।
सुबह उनकी
पहली
प्रार्थना
यही थी कि वे
अपने को खड़ा करके
नग्न, कोड़े
मारें; लहूलुहान
कर लें। जो
जितने ज्यादा
कोड़े मारे, वह उतना बड़ा
साधु। और लोग
देखने आते!
गावभर की भीड़
लग जाती। यह
प्रार्थना का
समय साधु
का—जब वह कोड़े
मारता है—सब
देखते। लोगों
के देखने के
कारण कोड़े
मारने में और
रस आ जाता, प्रतियोगिता
छिड़ जाती।
एक—दूसरे को
हराने का भाव
पैदा हो जाता।
ये
वे ही लोग हैं, जो
संसार में
प्रतिरूपर्धा
करते थे; अब
संन्यास में
प्रतिरूपर्धा
कर रहे हैं!
जरा भी कुछ
बदलाहट नहीं
हुई। समता आयी
नहीं। शून्य
निर्मित नहीं
हुआ। पहले सुख
मांगते थे, अब दुख
मांगते हैं, मगर मांग
जारी है। और
जैसे एक दिन
सुख मांग—मांगकर
ऊब गए थे और
दुख की तरफ
झुक गए, ऐसे
ही किसी दिन
दुख
माग—मांगकर ऊब
जाएंगे और फिर
सुख की तरफ
झुक जाएंगे।
समता
का अर्थ है. इस
सत्य को जानना
कि सुख और दुख
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं। तुमने एक
को मांगा, तो
दूसरा भी मांग
लिया गया। और
जब तक दोनों
रहेंगे—द्वंद्व
रहेगा—तब तक
तुम डावाडोल
रहोगे। जब तक
द्वंद्व रहेगा,
तब तक तुम
शांत नहीं हो
सकोगे।
तुम
इस कोने से उस
कोने जा सकते
हो,
घड़ी के
पेंड़लम की
तरह डोलते
हुए। मगर मध्य
में कब ठहरोगे?
देखा, घड़ी
चलती है, पेंड़लम
घूमता है तो।
अगर पेंड़लम
मध्य में रुक
जाए, तो
घड़ी रुक जाती
है। ऐसे ही
जिस दिन तुम
मध्य में रुक
जाओगे, समय
रुक जाएगा।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है मन समय
है। महावीर ने
तो आत्मा को
नाम ही समय का
दिया है।
महावीर कहते
ही आत्मा को
समय हैं। इसलिए
कुंदकुंद का
प्रसिद्ध
शास्त्र है :
समय—सार।
मैं
का भाव ही समय
से पैदा होता
है। मैं का
भाव ही समय का
मूल है। जिस
दिन मैं मिटा, उसी
दिन समय भी
मिट गया। और
मैं उसी दिन
मिटता है, जिस
दिन तुम मध्य
में आ जाते
हो। जब तुम
दोनों में से
कहीं नहीं
डोलते; जब
तुम्हारा कोई
चुनाव नहीं रह
जाता—तब समता।
इसलिए
कृष्णमूर्ति ठीक
कहते
हैं—च्चाइसलेस
अवेयरनेस। जब
तुम चुनाव ही
नहीं करो। जब
तुम नहीं चुनोगे, तब
तुम थिर हो
जाओगे।
तो
कभी—कभी शांत
बैठकर अचुनाव
की दशा में
थोड़ी डूबकी
लेना, तो
तुम्हें सम
शब्द का अर्थ
मिलेगा। ये
शब्द ऐसे नहीं
हैं कि
भाषाकोश में
इनका अर्थ तुम
खोजने जाओ, तो मिल जाए।
भाषाकोश में
अर्थ लिखा है,
मगर उससे
कुछ खुलेगा
नहीं; राज
प्रगट नहीं
होगा। ये शब्द
इतने
बहुमूल्य हैं,
अस्तित्वगत
हैं, कि
इनको तुम
जानोगे अनुभव
से, तो ही
पहचानोगे।
और
सम की अनुभूति
हो जाए, तो
धर्म का मूल
सूत्र हाथ लग
गया। फिर यही
सम समता बन
जाएगा; यही
सम सम्यक्त्व
बन जाएगा; यही
सम समाधि बन
जाएगा; यही
सम संबोधि बन
जाएगा। यही सम
संवर—संयम बन जाएगा।
तो
अर्थ हुआ सम
का : धन और ऋण, विपरीत
जो एक—दूसरे
के हैं, एकदम
बराबर वजन के
हो जाएं, ताकि
एक—दूसरे को
काट दें और
हाथ में शून्य
बच रहे। उस
रिक्तता का ही
नाम समता है।
उस निष्पक्षता
का नाम ही
समता है।
तुमने
अगर संसार छोड़
दिया मोक्ष को
पाने के लिए, तो
तुम समता को
उपलब्ध न हो
सकोगे। फिर
झुक गए; फिर
चुनाव कर
लिया। बाएं
झुके थे, अब
दाएं झुक गए।
तुम अगर
स्त्री को
छोड़कर जंगल
भाग गए...। पहले
स्त्रियों के
पीछे भागते थे,
अब
स्त्रियों से
भागने लगे—मगर
समता नहीं
आयी।
विपरीतता आ
गयी। विपरीतता
में कहां समता?
एक चुना था,
अब उससे
उलटा चुन
लिया। पहले
पैर के बल
चलते थे, अब
सिर के बल खड़े
हो गए! मगर
तुममें क्या
फर्क आएगा
इससे!
तुम
पैर के बल
खड़े रहो कि
सिर के बल खड़े
रहो,
तुम तुम हो।
इस तरह की
क्षुद्र
बातों में
चुनाव कर लेने
से कुछ फल
होने वाला
नहीं है। एक
क्षुद्रता
हटेगी, दूसरी
क्षुद्रता
पकड़ लेगी।
पहले धन पकड़ते
थे, अब धन
को देखकर
कंपते हो। इस
तरह तो तुम
कभी भी द्वंद्व
के बाहर न हो
सकोगे। नहीं
हो सके हो जन्मों—जन्मों
में। और
द्वंद्व के
बाहर होने का
सूत्र है.
चुनो मत, समझो।
देखो, गहरे
देखो। आंख को
पैना करो। धार
रखो आंख पर। दृष्टि
को निखारो। और
तब तुम्हें
क्या दिखायी
पड़ेगा?
जिसने
सफलता मांगी, उसने
विफलता भी
मांग ली। और
जिसने न सफलता
मांगी, न
विफलता, वह
शांत हो गया।
जिसने धन
मांगा, उसने
गरीबी भी मांग
ली। और जिसने
सुख मांगा, उसने दुख भी
मांग लिया।
उलटा पीछे ही
चला आता है
छाया की तरह
लगा हुआ।
तुमने प्रेम
मांगा, घृणा
भी माग ली।
मांगो
ही मत।
गैर—माग की
चित्त में दशा
हो जाए; कोई
आधी—अंधड़ न
चले, कोई
तूफान न उठे; कोई लहर न
बने। उस
निष्कंप दशा
का नाम है—सम।
उसी सम से बनता
है शब्द—संवर।
अब
संवर को समझ
लेना उचित
होगा।
आमतोर
से लोगों ने
संवर को समझा
नहीं, क्योंकि
वे सम को ही
नहीं समझ पाए।
तो संवर, नासमझी
के कारण, दमन
हो गया। संवर
का अर्थ दमन
नहीं होता।
संयम का अर्थ
भी दमन नहीं
होता।
संयम
और संवर दमन
से बिलकुल
भिन्न हैं।
दमन का अर्थ
होता है—समझे
तो नहीं और
दबा लिया। लोगों
ने कहा. क्रोध
बुरा है, सुना,
शास्त्रों
में पढ़ा; संतों
की वाणी समझी
और बार—बार
सुना—क्रोध
बुरा है, क्रोध
जहर है, क्रोध
आग है, और
क्रोधी बुरा
आदमी है, अपमानित
होता है, अक्रोधी
सम्मानित
होता है।
तुम्हारे मन
में भी
सम्मानित
होने की
आकांक्षा है।
और तुम भी नहीं
चाहते कि
तुम्हें कोई
बुरा समझे। और
तुम भी नहीं
चाहते कि
दुर्जनों में
गिने जाओ। तो
तुमने कहा.
साधेंगे।
क्रोध को संयम
में ले लेंगे।
लेकिन
तुम अभी समझे
ही नहीं हो, तो
तुम क्रोध को
साध नहीं
पाओगे; संयम
में नहीं ले
पाओगे। सिर्फ
दबाने में
कुशल हो
जाओगे। तुम
दबा लोगे अपनी
छाती में
क्रोध को। तो
ऊपर—ऊपर प्रगट
न होगा, लेकिन
भीतर— भीतर
जहर की तरह
तुम्हारी
जीवन—रचना में
फैल जाएगा; तुम्हारे
रग—रेशे में
प्रविष्ट हो
जाएगा।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित मुनि, साधु,
त्यागी
अत्यंत क्रोधी
मालूम होते
हैं। क्रोध
चाहे न करें, मगर क्रोधी
मालूम होते
हैं। तुम
दुर्वासा को हर
मंदिर में
बैठा हुआ
पाओगे। कारण
क्या है? क्रोध
चाहे न करें, लेकिन तुम
उनकी भाव—
भंगिमा क्रोध
से भरी पाओगे।
साधारण
आदमी इतना
क्रोधी नहीं
होता, जितने
तुम्हारे
महात्मा होते
हैं तथाकथित।
साधारण आदमी
तो रोज—रोज
क्रोध कर लेता
है, छुटकारा
हो जाता है।
साधारण आदमी
का क्रोध तो चुन्नभर
होता है। कोई
बात हुई, प्रसंग
आया, क्रोध
कर लिया। बात
खतम हो गयी; क्रोध भी
खतम हो गया।
लेकिन
तुम्हारे
महात्मा
क्रोध को
इकट्ठा करते
जाते हैं।
चुल्ल—चुल्ल
आता है, वे
इकट्ठा करते
जाते हैं। और
बूंद—बूंद से
तो सागर भर
जाता है।
चुल्ल—चुल्ल
इकट्ठा
होते—होते
इतना हो जाता
है कि महात्मा
की पूरी
जीवन—चर्या ही
क्रोध की हो
जाती है।
क्रोध करता
नहीं है, मगर
क्रोध इकट्ठा
होता है। और
जो इकट्ठा
होता है, वह
ज्यादा
खतरनाक है।
मनस्विद
कहते हैं कि
छोटा—मोटा
क्रोध हो
जाए—स्वाभाविक
है,
मानवीय है!
लेकिन जो आदमी
क्रोध को
दबाता चला जाएगा,
यह खतरनाक
है; इससे
सावधान रहना।
यह किसी दिन
किसी की हत्या
कर देगा। किसी
दिन अगर फूटा
क्रोध, तो
छोटी—मोटी
घटना नहीं
घटेगी। किसी
दिन क्रोध
फूटा, तो कुछ
बड़ी दुर्घटना
होगी। इसके
पास काफी जहर
है।
दमन
संयम नहीं है।
दमन संवर नहीं
है। दमन तो अपने
को दो हिस्सों
में विभाजित
करना है, खंड—खंड
कर लेना है।
दमन तो एक तरह
का रोग है। दमन
से तो
नैसर्गिक
आदमी बेहतर
है। लेकिन दमन
से धोखा पैदा
होता है कि
संयम हो गया।
तुम
विपरीत हो
सकते हो, लेकिन
विपरीत से
फर्क नहीं
होता। जब तुम
सम होते हो, तब फर्क
होता है। सम
में क्रांति
है।
हमारे
पास अच्छा
शब्द
है—संक्रांति।
वह क्रांति और
सम से मिलकर
बना है। वह
क्रांति से
ज्यादा
बहुमूल्य है।
क्रांति तो एक
कोने से दूसरे
कोने पर चला
जाना है। अमीर
थे,
गरीब हो गए।
सुंदर कपड़े
पहनते थे, नग्न
हो गए। धन के
अतिरिक्त और
किसी चीज में
रस नहीं था, तो धन को
छूना भी बंद
कर दिया। यह
क्रांति है। संक्रांति
क्या है? संक्रांति
है मध्य में
हो जाना। न इस
तरफ रहे, न
उस तरफ। न
त्यागी, न
भोगी। जब
दोनों न रहे, तब जो घटना
घटती है, वह
समता।
दमन
से नहीं घट
सकती। दमन
कैसे संवर
बनेगा? दमन
तो संवर कभी
नहीं बन सकता।
इसलिए संवर और
संयम—दमन का
नाम नहीं है।
दमन
तो भोग का ही
विपरीत रूप
है। यह भोग ही
है जो
शीर्षासन
करने लगा।
इसमें जरा
अंतर नहीं है।
इसे तुम
समझोगे, तो ये
सूत्र
तुम्हें साफ
होंगे।
भगवान
के जेतवन में
विहरते समय
पाच ऐसे भिक्षु
थे जो
पंचेंद्रिय
में से एक—एक
का संवर करते थे।
वह
संवर नहीं रहा
होगा, दमन ही
रहा होगा।
संवर होता, तो विवाद न
उठता। संवर
होता, तो
दृष्टि खुल
गयी होती।
विवाद कैसे
उठता? संवर
होता, तो
अनुभव हो गया
होता। संवर
होता, तो
बुद्ध के पास
जाने की जरूरत
न थी। संवर
होता, तो
बुद्ध स्वयं
भीतर आ गए
होते; बुद्धत्व
पास आ गया
होता। संवर
नहीं था।
सुना
होगा बुद्ध
को—कि साधो
इंद्रियों
को। जागो
इंद्रियों
से। होश को
सम्हालो।
संवर में उतरो।
संयमी बनो।
ऐसा बार—बार
सुना होगा।
रोज बुद्ध यही
कहते थे।
क्योंकि इसी
से दुखमुक्ति
होने वाली है।
समता को
उपलब्ध हो जाओ, तो
दुख के पार हो
जाओगे। समता
के पाते ही
संसार के पार
हो जाओगे। वही
मोक्ष है।
तो
बुद्ध की
मोक्ष के
संबंध में कही
प्यारी बातों
ने मन में लोभ
जगाया होगा।
और बुद्ध के नर्क
के विवेचन ने
मन में भय
जगाया होगा।
बुद्ध की बात
सुनकर हेतु
पैदा हुआ होगा, स्वार्थ
पैदा हुआ
होगा—कि ठीक!
यही बात करने
जैसी है। मगर
समझ न जगी
होगी, बोध
न जगा होगा।
बुद्ध की बात
सुन तो ली
होगी, समझ
में न आयी
होगी।
सुन
लेना एक, समझ
लेना बिलकुल
और बात है। सुन
तो सभी लेते
हैं; समझता
कोन है! समझता
वही है, जो
सुनी गयी बात
पर प्रयोग
करता है। और
प्रयोग
जबर्दस्ती
नहीं करता, सहज—स्फूर्तता
से करता है।
प्रयोग हेतु
से भरे नहीं
होते। अगर
हेतु से भरे
हैं, तो
उनको प्रयोग
नहीं कहा जा
सकता।
जैसे
तुमने मोक्ष
पाने के लिए
सोचा कि चलो, भोजन
का त्याग कर
दें, मोक्ष
मिलेगा। तो यह
प्रयोग नहीं
हुआ। यह लोभ ही
हुआ। एक नया
लोभ हुआ।
तुमने सोचा कि
चलो, नर्क
में जाने से
बचना है, इसलिए
सुंदर स्वाद
का त्याग कर
दो, कि
संगीत का
त्याग कर दो; कि सुख का
त्याग कर दो, नहीं तो
नर्क में
सड़ना पड़ेगा।
यह तो भय हुआ, यह संवर
नहीं हुआ।
संवर
न तो लोभ
जानता, न भय
जानता; संवर
हेतु ही नहीं
जानता। संवर
अहेतुक है। जीवन
को समझने के
लिए किया जाता
है। किसी और
प्रयोजन से
नहीं, निष्प्रयोजन
है।
तो
ये भिक्षु
एक—एक इंद्रिय
को साधते थे।
कोई भोजन पर
नियंत्रण कर
रहा था, कोई
रूप पर, कोई
ध्वनि पर। कोई
आंख को झुकाकर
चलता था, ताकि
रूप दिखायी न
पड़ जाए।
अब
जो आंख झुकाकर
चलता है, वह
रूप पर कभी भी
संवर न पा
सकेगा। संवर
पाने के लिए
अगर आंख झुका
ली, तो यह
तो भय ही हुआ।
संवर तो तब
उपलब्ध होता
है, जब रूप
को कोई पूरी
खुली आंख से
देखे और भीतर
कोई भाव न उठे,
भीतर
निर्भाव दशा
रहे। रूप को
गौर से देखे
और रूप से
मुक्त हो
जाए—उसी देखने
में, उसी
दर्शन में—तो
संवर। सुंदर
स्त्री सामने
से गुजरे, स्त्री
गुजर जाए, मन
में कुछ न
गुजरे। मन
जैसा था, वैसा
का वैसा रहे, जैसे कोई
गुजरा ही नहीं,
तो संवर।
संवर
को उपलब्ध
होने वाला
आदमी आंख को
निखारता है, आंख
को खोलता है, ठीक से
देखना सीखता
है। अंधा नहीं
हो जाता। और न
आंख को झुकाता
है। प्रसिद्ध
झेन कथा है, जो मैंने
तुमसे बहुत
बार कहीं है।
दो भिक्षु एक
नदी के किनारे
आए। एक का है, एक जवान है।
और नदी के
किनारे उन्होंने
खड़ी एक सुंदर
युवती देखी।
का साधु आगे
है, जैसा
कि नियम है कि
का आगे चले, जवान पीछे
चले। उस के
आदमी ने तो
जल्दी आंखें झुका
लीं। स्त्री
अपूर्व सुंदर
थी।
शायद
इतनी सुंदर न
भी रही हो, लेकिन
बूढ़े
संन्यासियों
को सभी
स्त्रियां सुंदर
दिखायी पड़ती
हैं! जो स्त्रियों
से भागेगा, उसे सभी
स्त्रियां
सुंदर दिखायी
पड़ने लगती हैं।
तुम जितना
भागोगे, उतनी
ही सुंदर
दिखायी पड़ने
लगती हैं। मगर
हो सकता है, सुंदर ही
रही हो। वह
बहुत विचलित
हो गया।
और
उस स्त्री ने
कहा कि मैं डर
रही हूं; मुझे
नदी के पार
जाना है, क्या
आप मुझे हाथ
में हाथ नहीं
देंगे? वह
का तो सुना ही
नहीं। वह तो
तेजी से भागा।
उसने सोचा
सुनना खतरनाक
है, क्योंकि
उसे अपने मन
की हालत
दिखायी पड़ रही
है। मन कह रहा
है ले लो हाथ
में हाथ। यह
हाथ प्यारा
है। फिर मिले,
न मिले! और
अपने आप आ रहा
है हाथ में, छोड़ो मत। और
जितना मन यह
कहने लगा.। तो
चालीस साल का
नियम—व्रत, सब मिट्टी
में मिल जाएगा;
तो घबड़ाहट
बढ़ गयी। वह
पसीना—पसीना
हो गया होगा
उस सांझ। शीतल
हवा बहती थी।
सूरज ढल गया
था। लेकिन वह
पसीना—पसीना
हो गया होगा।
वह तो नदी तेजी
से पार करने
लगा। उसने तो
लौटकर नहीं
देखा। उसने तो
जवाब नहीं
दिया।
क्योंकि जवाब
में खतरा है।
जब
वह नदी पार कर
गया,
तब उसे
अचानक याद आयी
कि मैं तो पार
कर आया, लेकिन
मेरा जवान
साथी पीछे आ
रहा है। कहीं
वह झंझट में न
पड़ जाए! उसने
लौटकर देखा।
और झंझट में
जवान साथी पड़
गया था उसे
लगा।
जवान
भी आया नदी के
तट पर। उस
स्त्री ने कहा
मुझे पार जाना
है,
हाथ में हाथ
दे दो। उस
जवान ने कहा
कि नदी गहरी है,
हाथ में हाथ
देने से न
चलेगा, तू
मेरे कंधे पर
बैठ जा। वह
उसको कंधे पर
बिठाकर नदी
पार कर रहा
था।
जब
के ने लौटकर
देखा, तो मध्य
नदी में थे वे
दोनों। का तो
भयंकर क्रोध
से और रोष से
भर गया। शायद
ईर्ष्या का
तत्व भी उसमें
सम्मिलित रहा
होगा—कि मैं
तो हाथ में
हाथ न ले पाया
और यह उसे
कंधे पर ला
रहा है! ऐसी
सुंदर स्त्री!
सपने जैसी
सुंदर! फूलों
जैसी सुंदर!
रोष उठा होगा।
ईर्ष्या उठी
होगी। जलन उठी
होगी। मैं चूक
गया—इसका
पश्चात्ताप
उठा होगा। और
इस सब का
इकट्ठा रूप यह
हुआ कि उसने
कहा कि यह
बर्दाश्त के
बाहर है। यह
भ्रष्ट हो
गया। जाकर
गुरु को
कहूंगा। कहना
ही पड़ेगा।
और
जब युवक नदी
के इस पार आ
गया और दोनों
आश्रम की तरफ
चलने लगे, तो
बूढ़ा फिर दो
मील तक उससे
बोला नहीं।
भयंकर क्रोध
था। जब वे
आश्रम की
सीढ़ियां चढ़ते
थे, तब
बूढे ने कहा
कि सुनो! मैं
इसे छिपा न
सकूंगा। यह
जघन्य पाप है,
जो तुमने
किया है। मुझे
गुरु को कहना
ही पड़ेगा।
संन्यासी के
लिए स्त्री का
रूपर्श
वर्जित है। और
तुमने रूपर्श
ही नहीं किया,
तुमने उस
युवती को कंधे
पर बिठाया। यह
तो हद हो गयी!
पता
है,
उस युवक ने
उस के को क्या
कहा!
उस
युवक ने कहा :
आश्चर्य! मैं
तो उस स्त्री
को नदी के
किनारे कंधे
से उतार भी
आया। आप उसे
अभी भी कंधे
पर लिए हुए
हैं?
जो
कंधों पर कभी
नहीं लेते, हो
सकता है, कंधों
पर लिए रहें।
जिन्होंने
कंधों पर लिया
है, वे कभी
न कभी उतार ही
देंगे। बोझ
भारी हो जाता
है।
सूरदास
ने अगर आंखें
फोड़ ली होंगी, तो
जिंदगीभर
कंधे पर लिए
रहे होंगे।
नहीं, वह
कोई उपाय नहीं
है। और मैं
सूरदास को
समझता हूं।
इसलिए कहानी
को कहता हूं
गलत ही होगी।
कहानी सही
नहीं हो सकती।
किन्हीं
मूढ़ों ने रची
होगी। उन्हीं
मूढ़ों ने, जिनसे
पूरा धर्म
विकृत हुआ है।
ये
भिक्षु
पांच—आंखें
बंद कर रहे
होंगे; कान
बंद कर रहे
होंगे, जबर्दस्ती
अपने को किसी
तरह बाध रहे
होंगे। जब कोई
जबर्दस्ती
अपने को
बांधता है, तो अहंकार
पैदा होता है।
अहंकार लक्षण
है। अहंकार
तभी पैदा होता
है, जब तुम
कुछ
जबर्दस्ती
अपने साथ करते
हो और उसमें
सफल हो जाते
हो।
जब
कोई आदमी
समझपूर्वक
जीवन में गहरे
उतरता है, तो
अहंकार
निर्मित नहीं
होता।
क्योंकि करने को
वहां कुछ है
ही नहीं। समझ
से ही अपने आप
गुत्थियां
सुलझ जति हैं।
करना कुछ भी
नहीं पड़ता है।
जिसने
जागकर शरीर के
रूप को देख
लिया, उसे
दिखायी पड़
जाएगा, क्षणभंगुर
है; पानी
का बबूला है।
आज है, कल
चला जाएगा। अब
कुछ करना नहीं
पड़ता। बात खतम
हो गयी।
जिसने
जागकर संगीत
को सुन लिया, उसे
साफ हो गया कि
केवल
ध्वनियों की
चोट है। आहत
नाद है। इसमें
कुछ खास नहीं
है; शोरगुल
है। और जिसे
यह दिखायी पड़
गया कि बाहर
का संगीत
शोरगुल है, उसे भीतर का
संगीत सुनायी
पड़ने
लगेगा—जिसको हमने
अनाहत नाद कहा
है। वहां बज
ही रही है वीणा।
और वहा बजाने
वाला स्वयं
परमात्मा है।
लेकिन
बाहर के संगीत
में जो उलझा
है,
उसे भीतर का
संगीत सुनायी
भी नहीं पड़ता।
और बाहर के
स्वाद में जो
उलझा है, उसे
भीतर के अमृत
का स्वाद नहीं
आता। मगर बाहर
के स्वाद को
दबाओगे, तो
भी बाहर के
स्वाद में ही
उलझे रहोगे।
दबाने से
मुक्ति नहीं
है 1 बाहर का
स्वाद समझो।
इन
पांचों में एक
दिन भारी
विवाद छिड़
गया।
पाचों
अहंकारी हो गए
होंगे। एक आंख
झुकाकर चलता
था। वह उसका अहंकार
हो गया
होगा—कि देखो, मैंने
रूप का जैसा
संवरण किया है;
ऐसा किसी ने
भी नहीं किया।
और बड़ा कठिन
है रूप का
संवरण।
क्योंकि आंख
पर विजय पाना
सबसे बड़ी कठिन
बात है।
दुष्कर बात
है। क्योंकि
रूप का आकर्षण
बड़ा प्रबल है।
और
दूसरा कहता
होगा : इसमें
क्या रखा है!
असली बात तो
जिह्वा है।
जीभ पर
नियंत्रण
चाहिए। मुझे
देखो! न नमक
लेता हूं; न
शक्कर लेता
हूं; न घी
लेता हूं; न
यह लेता हूं न
वह लेता हूं।
रूखा—सूखा
खाता हूं।
असली चीज तो
जिह्वा है।
रूप का स्वाद
तो तब पैदा
होता है, जब
आदमी चौदह साल
का हो जाता
है। जीभ का
स्वाद तो जन्म
के पहले दिन
ही पैदा हो
जाता है। रूप
का स्वाद तो
आदमी का होने
लगता है, तो
समाप्त हो
जाता है।
लेकिन जीभ का
स्वाद तो मरते
दम तक साथ
रहता है।
तो
जो जीभ पर
नियंत्रण
करता था, वह
कहता था कि
देखो, पहले
दिन से लेकर
आखिरी दिन तक,
झूले से
लेकर कब्र तक
जो चीज चलती
है, वह
ज्यादा
दुष्कर है।
रूप तो आता है
और चला जाता
है।
कोई
नाक पर
नियंत्रण कर
रहा था—गंध
पर। कोई कान
पर नियंत्रण
कर रहा
था—ध्वनि पर।
कोई शरीर पर
नियंत्रण कर
रहा था—रूपर्श
पर। सब अपनी
दलीलें दे रहे
होंगे।
जो
रूपर्श की
दलील दे रहा
था,
वह कह रहा
होगा—कि ठीक
है, बच्चा
पैदा होता है,
तब दूध पीता
है। लेकिन
बच्चे को
रूपर्श का आनंद
तो मां के
गर्भ में ही
आना शुरू हो
जाता है। वहीं
दोनों की
देहें रूपर्श
करती हैं। और
यह रूपर्श की
आकांक्षा
जीवनभर बनी
रहती है। एक
शरीर से दूसरे
शरीर के
रूपर्श में जो
ऊष्मा मिलती
है, जो गर्मी
मिलती है, उसका
रस सदा बना
रहता है।
ऐसे
उनमें विवाद
चलता होगा। यह
विवाद संवर के
कारण तो हो ही
नहीं सकता। यह
विवाद इसीलिए
हो रहा है कि
सभी ने
नियंत्रण
किया है। और
जिसने नियंत्रण
किया है, वह यह
कहना चाहता है
कि मेरा
नियंत्रण
तुझसे बडा है।
और स्वभावत:
मेरा
नियंत्रण
तुझसे कठिन है,
तुझसे बड़ा
है, इसलिए
मैं तुझसे बड़ा
हूं। यह
अहंकार उसमें
भीतर होगा।
अगर
त्यागी
अहंकारी हो, तो
समझना कि
त्यागी नहीं
है। अगर
त्यागी निरअहंकारी
हो, तो ही
त्यागी है। और
निरअहंकारी
त्यागी मिलना
ही मुश्किल
है। क्योंकि
निरअहंकारी
त्यागी नहीं
होता है, न
भोगी होता
है—मध्य में
खड़ा हो जाता
है। उसकी घड़ी
रुक गयी, उसका
पेंड़लम ठहर
गया। वह सम को
उपलब्ध हो जाता
है।
दुनिया
में तीन तरह
के लोग हैं
भोगी, त्यागी;
और दोनों के
मध्य में मैं
रखता हूं
संन्यासी को,
क्योंकि वह
शब्द भी सम से
ही बनता है।
संन्यासी को
मैं त्यागी
नहीं कहता। और
संन्यासी को
मैं संसारी भी
नहीं कहता।
इसलिए
मैं अपने
संन्यासी को
नहीं कहता कि
तुम संसार
छोड़ो और
त्यागी बन
जाओ। मैं उनसे
कहता हूं तुम
सम्यक्त्व
को उपलब्ध हो
जाओ। तुम जहां
हो,
वहीं रहो।
वहीं
तुम्हारी
तराजू को
सम्हाल लो।
उलटे जाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
उन
पांचों में
बड़ा विवाद हो
गया कि किसका
संवर दुष्कर
है। प्रत्येक
अपने संवर को
दुष्कर और फलत:
श्रेष्ठ
बताता था।
विवाद की
निष्पत्ति नहीं
हुई।
हो
नहीं सकती।
किसी विवाद की
कभी नहीं
होती। पांच
हजार साल में
कितने विवाद
चले,
लेकिन एक
विवाद की भी
निष्पत्ति
नहीं है।
निष्पत्ति
विवाद की हो
ही नहीं सकती।
आदमी
सदियों से सोच
रहा है ईश्वर
है या नहीं? जो
कहते हैं.
नहीं है, वे
कहे चले जाते
हैं, नहीं
है। जो कहते
हैं. है, वे
कहे चल जाते
हैं; है।
कोई
निष्पत्ति
नहीं है। न तो
आस्तिक नास्तिक
से राजी हो पाता
है, न
नास्तिक
आस्तिक से
राजी हो पाता
है। वेद को मानने
वाला वेद की
ही दुहाई दिए
चला जाता है। कुरान
को मानने वाला
कुरान की
दुहाई दिए चला
जाता है। और
सब अपने पक्ष
में दलीलें
निकाल लेते
हैं। लेकिन न
तो किसी को
वेद से मतलब
है, न किसी
को कुरान से
मतलब है। न किसी
को ईश्वर से
मतलब है, न
ईश्वर के न
होने से मतलब
है। सबको मतलब
है कि मेरी
बात ठीक होनी
चाहिए, क्योंकि
मैं ठीक हूं।
जब
तुम विवाद
करते हो, तुमने
खयाल किया, तुम्हें
इसकी फिक्र
नहीं होती कि
सत्य क्या है।
तुम्हें इसकी
फिक्र होती है
कि जो मैं
कहता हूं वह
सत्य है या
नहीं।
रस्किन
का एक
प्रसिद्ध वचन
है कि दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं एक तो
वे जो सत्य को
अपने साथ
चलाना चाहते
हैं,
अपने पीछे।
जैसे कोई गाय
को बांध ले
रस्सी में, और चलाए
अपने पीछे। ये
ही लोग विवादी
हैं। ये सत्य
को अपने पीछे
चलाना चाहते
हैं। ये सत्य
को भी अपना
अनुगामी
बनाना चाहते
हैं। और दूसरे
वे लोग हैं, जो सत्य के
पीछे चलना
चाहते हैं, सत्य जहां
जाए, वहीं
जाने को राजी
हैं। सत्य अगर
विपरीत विरोधी
के शिविर में
ठहरा है, तो
वे वहीं जाने
को राजी हैं।
जहां सत्य है,
वहां वे
जाएंगे। वे
छाया बन जाते
हैं सत्य की।
ये ही सत्य के
खोजी हैं। ये
ही खोज पाते
हैं। विवादी
नहीं खोज
पाते।
विवादी
का तो कहना यह
है कि मैंने
पा ही लिया। इसीलिए
तो विवाद पैदा
हो रहा है। वह
तो कहता है :
मैंने जान ही
लिया। और मैं
सिद्ध कर सकता
हूं।
और
ध्यान रखना, तर्क
सभी कुछ सिद्ध
कर सकता है।
तर्क वेश्या
जैसा है। उसको
कुछ लेना—देना
नहीं है कि
कोन ठीक है, कोन गलत है।
तुम उपयोग करो,
तो
तुम्हारे काम
आ जाता है, दूसरा
उपयोग करे, तो उसके काम
आ जाता है।
तर्क वकील है।
एक
बड़े वकील
थे—डाक्टर हरि
सिंह गौर।
सागर विश्वविद्यालय
का उन्होंने
निर्माण
किया। वे दुनिया
के बड़े
ख्यातिलब्ध
वकीलों में एक
थे। लेकिन कभी—कभी
ज्यादा पी
जाते थे।
प्रीवी
कौंसिल में एक
मामला था।
किसी भारतीय रियासत
का झगड़ा था।
बड़ा मामला था।
करोड़ों का मामला
था। वे कुछ
रात ज्यादा पी
गए क्लब में।
सुबह गए तो
खुमारी कायम
थी। वे भूल गए
कि किसके पक्ष
में हैं। तो
विपरीत की तरफ
से बोल गए। और
घंटेभर जब
बोले। उनका जो
सहयोगी था, उसने
कई बार उनका
कोट इत्यादि
खींचा। मगर वे
पीए ही हुए थे,
तो वे उसका
हाथ झटक दें।
उनको और क्रोध
आ रहा था।
क्रोध आता तो
और उनका तर्क
प्रखर होता जा
रहा था। वे
रुके नहीं।
दूसरा, विपरीत
का वकील भी
हैरान था, कि
अब मेरे लिए
कुछ बचा ही
नहीं!
मजिस्ट्रेट भी
हैरान था कि
अब होगा क्या!
और जो विपरीत
पार्टी थी, वह चकित थी।
और जो हरि
सिंह गौर की
पार्टी थी, वह चकित थी
कि मार डाला, अपने ने ही
मार डाला।
इनको हो क्या
गया! दिमाग खराब
हो गया!
जब
घंटेभर बाद वे
रुके—सफाया
करके बिलकुल, तो
उनके सहयोगी
ने कहा. आपने
मार डाला!
अपने आदमी को
मार डाला! आप
भूल गए।
उन्होंने कहा
तू घबडा मत।
उन्होंने
फिर शुरू
किया।
उन्होंने कहा
अभी मैंने वे
दलीलें दीं, जो
मेरा विरोधी
पक्ष का वकील
देगा। अब मैं
उनका खंडन
शुरू करता
हूं। और उन्होंने
खंडन भी उसी
कुशलता से
किया। और
मुकदमा जीते
भी।
तर्क
वकील है। तर्क
की कोई निष्ठा
नहीं है। जो
तर्क को अपने
साथ ले ले, उसी
के साथ हो
जाता है। तो
हर चीज के लिए
तर्क दिया जा
सकता है। और
मजा ऐसा है कि
जिस तर्क से बातें
सिद्ध होती
हैं, उसी
से असिद्ध भी
होती हैं।
जैसे
कि ईश्वर को
मानने वाला
कहता है.
ईश्वर होना ही
चाहिए, क्योंकि
दुनिया है।
घड़ा होता है, तो कुम्हार
होना चाहिए।
बिना बनाए
कैसे बनेगा? इतना विराट
सृष्टि का
फैलाव! ईश्वर
होना ही चाहिए,
बनाने वाला
होना ही
चाहिए। बिना
बनाए कैसे बन सकता
है? यह
उसका तर्क है।
नास्तिक
से पूछो।
वह
कहता है. हम
मानते हैं। यह
तर्क बिलकुल
सही है। अब हम
पूछते हैं.
ईश्वर को
किसने बनाया? अगर
हर बनायी गयी
चीज का—अगर हर
चीज का, जो
है—बनाने वाला
होना चाहिए, तो ईश्वर का
बनाने वाला
कोन है?
आस्तिक
कहता है : यह
नहीं पूछा जा
सकता। ईश्वर को
किसी ने नहीं
बनाया।
आस्तिक कहता
है कि कभी तो
तुम्हें
मानना ही
पड़ेगा न एक
जगह जाकर कि
इसको किसी ने
नहीं बनाया, नहीं
तो फिर तो यह
चलता ही जाएगा
अ को ब ने बनाया,
ब को स ने
बनाया। चलता
ही जाएगा!
इसका कोई अंत
नहीं होगा। तो
आस्तिक कहता
है कि एक जगह
तो रुकना होगा
न। हम ईश्वर
पर रुकते हैं।
नास्तिक
कहता है हम भी
राजी हैं। एक
जगह रुकना
होगा, तो
सृष्टि पर ही
क्यों न रुक
जाएं? स्रष्टा
तक जाने की
जरूरत क्या है?
तर्क
एक ही है, दोनों
के काम पड़ता
है। मगर दोनों
में से किसी को
भी सत्य की
कोई आकांक्षा
नहीं है। मैं
ठीक!
अहंकार
विवाद लाता
है। जहां
अहंकार
समाप्त होता
है,
वहां सत्य
से संवाद शुरू
होता है।
विवाद
की कोई
निष्पत्ति न
होती देख वे
पांचों भगवान
के चरणों में
उपस्थित हुए।
यह भी बात प्रतीकात्मक
है। जब तुम
विवाद की कोई
निष्पत्ति न
कर सको, तो
किसी ऐसे
व्यक्ति के
पास जाना चाहिए
जो निर्विवाद
हो। किसी ऐसे
व्यक्ति के
पास जाना
चाहिए जो तर्क
से न जी रहा हो,
जिसने सत्य
का अनुभव किया
हो।
तुम
तो सत्य के
संबंध में सोच
रहे हो। सोचने
से विवाद हल
नहीं होता। अब
उसके पास जाओ, जिसने
सत्य को जाना
है। उस जानने
वाले से ही हल
हो सकता है।
मगर
एक और बात
समझना। यह तो
जाना फिर भी
बाहर से होगा।
और बुद्ध जो
कहेंगे, ये
पाचों उसके
अलग—अलग अर्थ
भी ले सकते
हैं। और विवाद
फिर शुरू हो
सकता है। अगर
विवाद जारी ही
रखना हो, तो
कोई उपाय नहीं
है उससे छूटने
का।
बुद्ध
के पास जाकर
भी ये पांचों
लौट आएंगे। और
एक कहेगा? बुद्ध
ने ऐसा कहा।
और दूसरा
कहेगा? गलत
कह रहे हो।
ऐसा कहा ही
नहीं। उनका
प्रयोजन यह
था। फिर विवाद
नयी समस्या को
लेकर शुरू हो जाएगा।
लेकिन विवाद
जारी रहेगा।
बुद्ध के मरते
ही बुद्ध के
संप्रदाय में
छत्तीस खंड हो
गए! जो बुद्ध
के मरते ही
छत्तीस
संप्रदाय
पैदा हुए, वे
बुद्ध के जीते
भी रहे होंगे;
एकदम से
कैसे पैदा हो
जाएंगे! ऐसा
थोड़े ही होता
है कि आज
बुद्ध मरे और
एकदम लोग अलग—
अलग हो गए। ये
छत्तीस वर्ग
रहे ही होंगे,
दबे रहे
होंगे। बुद्ध
की प्रतिष्ठा,
बुद्ध के
प्रभाव, बुद्ध
की गरमी में, बुद्ध की
ऊष्मा में
ठहरे रहे होंगे।
बुद्ध के
सामने प्रगट न
हो सके। इधर
बुद्ध मरे, उधर सब
विवाद उठ खड़े
हुए। बुद्ध—
धर्म छत्तीस खंडों
में टूट गया।
महावीर
के जाते ही
जैन— धर्म
खंडों में टूट
गया। ये विवाद
रहे होंगे। ये
एकदम से आकाश
से पैदा नहीं
हो सकते। कुछ
तो समय लगता।
महावीर जाएं
दुनिया से, सौ
दो सौ साल बाद
विवाद पैदा हो,
समझ में आता
है—कि ठीक है, अब दो सौ साल
हो गए। अब
जिन्होंने
महावीर को सुना
था, वे
नहीं हैं।
जिन्होंने
देखा था, वे
नहीं हैं। अब
विवाद
स्वाभाविक
है। लेकिन इधर
महावीर
मरे—इधर लाश
पड़ी होती
है—उधर विवाद शुरू
हो जाता है!
कबीर
मरे —लाश पर ही
विवाद हो गया!
कि हिंदू
चाहते हैं कि जलाए; और
मुसलमान
चाहते हैं कि
गड़ाएं। ये किस
तरह के भक्त
थे? यह
कबीर की
मौजूदगी में
हिंदू हिंदू
था, मुसलमान
मुसलमान था।
सिर्फ कबीर की
प्रभा में, ज्योति में
दबा हुआ पड़ा
था। उस ज्योति
के जाते ही सब
जुगनू
टिमटिमाने
लगे। सब विवाद
वापस लौट 'आए।
तो
इसका एक और
प्रतीक गहरा
है और वह यह है
कि बाहर के
बुद्ध के पास
जाकर विवाद हल
शायद हो, शायद
न हो। अगर
भीतर के बुद्ध
के पास जाओगे,
तो निश्चित
हल हो जाएगा।
तुम्हारा
बुद्धत्व ही
विवाद की
निष्पत्ति
बनेगा।
वे
पांचों भगवान
के चरणों में
उपस्थित हुए
और उन्होंने
भगवान से पूछा
: भंते! इन पांच
इंद्रियों
में से किसका
संवर कठिन है?
भगवान
हंसे और बोले।
हंसे, क्योंकि
उन पांचों को
किसी को भी
इससे प्रयोजन
नहीं है कि
किस इंद्रिय
का संवर कठिन
है। उन्हें
सत्य से कुछ
लेना—देना
नहीं है। वे
पांचों अपने
को सिद्ध करने
आए हैं।
पांचों अकडकर
खड़े हैं!
पांचों चाहते
हैं, भगवान
उनका समर्थन
करें। इसलिए
हंसे। मूढ़ता पर
हंसे।
इतने
दिन आंख
झुकाकर रखी, इतने
दिन भोजन का
त्याग किया, इतने दिन
एकांत में
रहे! और फिर
उठा आखिर में
विवाद!
दुर्गंध उठी
अंत में, सुगंध
का कुछ पता
नहीं। इस
दुर्दशा पर
हंसे। इस
मनुष्य की
दयनीयता पर
हंसे। इस
मनुष्य की
मूढ़ता पर हंसे।
भिक्षुओ!
उन्होंने कहा
संवर दुष्कर
है। इस इंद्रिय
का संवर, उस
इंद्रिय का
संवर—ऐसा
विवाद व्यर्थ
है। संवर
दुष्कर है, जागना
दुष्कर है।
समता की
स्थिति पाना
दुष्कर है। और
तुममें से
किसी ने भी उस
स्थिति को
पाया नहीं है।
तुम अभी दमन
में ही लगे
हो।
असली
कठिनाई तो
वहां है, जहां
तुम जागो और
तुम्हारे
जागने के कारण
संवर सध जाए; साधना न
पड़े। साधु वही
जो सध जाए; साधना
न पड़े।
कबीर
ने कहा है
साधो! सहज
समाधि भली।
सहज समाधि!
उसी को बुद्ध
संवर कहते
हैं। वही
बुद्ध की भाषा
में संवर है।
सहज समाधि!
क्या अर्थ हुआ? अर्थ
होता है जैसे
तुम्हारे घर
में आग लगी है,
और तुम्हें
दिखायी पड़ गया
कि आग लगी है, और तुम
निकलकर भागे
और बाहर हो
गए। यह सहज
समाधि।
तुम्हें
दिखायी पड़ा कि
आग लगी है, अब
भीतर रुकोगे
कैसे? दिख
गया, आग
लगी है, बाहर
चले गए।
लेकिन
तुम्हारे घर
में आग लगी है
और तुम अंधे हो, और
कोई आया पड़ोसी
और तुमसे कहता
है भई! बाहर निकलो,
घर में आग
लगी है! तुम
कहते हो छोडो
भी जी! कहां की
बातें कर रहे
हो! कोई घर
लूटना है मेरा?
कैसी आग? कहां की आग? मुझे कुछ
नहीं दिखायी
पड़ता है। और
जब तक मुझे
नहीं दिखायी पड़ता,
मैं कैसे
भागूं?
लेकिन
अगर पड़ोसी
बहुत समझदार
हो,
और समझाने
में कुशल हो
और तुम्हें
समझा दे, और
राजी कर दे कि
घर में आग लगी
ही है, तो
तुम बेमन से, जबर्दस्ती
अपने को
घसीटते हुए घर
के बाहर निकालो।
निकलना नहीं
चाहते।
निकलना पड़ रहा
है। अब इस
पड़ोसी से कैसे
झंझट छुडाएं!
यह पीछे ही
पड़ा है, तो
निकलना पड़ रहा
है। यह असहज
दशा हो गयी।
जबर्दस्ती हो
गयी। सहज का
अर्थ होता
है—स्वस्फूर्त।
बुद्ध
ने कहा : संवर
दुष्कर है।
इसका संवर या
उसका संवर
नहीं—संवर ही
स्वयं दुष्कर
है। भिक्षुओ!
ऐसे व्यर्थ के
विवादों में न
पड़ो। क्योंकि विवाद
मात्र के मूल
में अहंकार
है। विवाद की
कोई
निष्पत्ति
नहीं हो सकती, क्योंकि
अहंकार की कोई
निष्पत्ति
नहीं है। अहंकार
भरमाता है, भटकाता
है—पहुंचाता
नहीं। पहुंचा
ही नहीं सकता
है।
विवादों
में व्यय न
करके शक्ति को
भिक्षुओ, समग्र
शक्ति को संवर
में लगाओ।
सारी शक्ति को
उंड़ेल दो
अपने भीतर के
दीए में, ताकि
ज्योति भभककर
उठे। उस
ज्योति के
जगने में ही
सब दिखायी
पड़ेगा. क्या
व्यर्थ है, क्या सार्थक
है। क्या असार
है, क्या
सार है। और
असार को असार
की तरह देख
लेना, असार
से मुक्त हो
जाना है।
सभी
द्वारों का
संवर करो
भिक्षुओ!
इस
झंझट में मत
पड़ो कि आंख का
करूं, कि कान
का करूं, कि
नाक का करूं।
आंख का कर
लोगे, तो
क्या फर्क
पड़ेगा? अगर
आंख को किसी
तरह दबा लिया,
तो जितनी
आंख की वासना
थी, वह कान
में सरक
जाएगी।
यह
रोज होता है।
तुमने देखा, अंधा
आदमी संगीत
में बहुत कुशल
हो जाता है।
उसकी ध्वनि की
क्षमता बढ़
जाती। क्यों?
क्योंकि
आंख से जो
ऊर्जा बाहर
जाती थी, अब
आंख से तो
मार्ग न रहा, अब वह कान से
जाने लगी।
जैसे झरने को
एक तरफ से रोक
दिया, तो
वह दूसरी तरफ
से बहने
लगेगा। दूसरी
तरफ से रोक
दिया, तो
तीसरी तरफ से
बहने लगेगा।
झरना बहेगा।
इसलिए
अक्सर ऐसा हो
जाता है कि जो
लोग किसी एक इंद्रिय
को नियंत्रण
करने में लग
जाते हैं, उनकी
कोई दूसरी
इंद्रिय खूब
सशक्त होकर
प्रगट होने
लगती है। और
कभी—कभी ऐसा
भी हो जाता है
कि दूसरी
इंद्रिय
ज्यादा भयंकर
सिद्ध हो। क्योंकि
दो इंद्रियों
का बल इकट्ठा
मिल जाएगा
उसे।
इसलिए
सवाल यह नहीं
है कि इसका
करूं संवर या
उसका। बुद्ध
कहते हैं :
संवर करो।
जागो। सारी इंद्रियों
के द्वारों के
पार हो जाना
है। संवर दुखमुक्ति
का उपाय है।
तब
उन्होंने ये
गाथाएं कहीं :
चक्खुना
संवरो साधु
साधु सोतेन
संवरो।
घाणेन
संवरो साधु
साधु जिह्वाय संवरो
।।
'आंख
का संवर शुभ
है, साधु
है—साधु बनाता
व्यक्ति को।
कान का संवर भी
शुभ है—साधु
बनाता
व्यक्ति को।
बाण का संवर भी
शुभ है, जीभ
का संवर भी
शुभ है।'
सब
संवर शुभ हैं, क्योंकि
संवर व्यक्ति
को सरल बनाते
हैं, जटिलता
से मुक्त
कराते हैं।
संवर व्यक्ति
को एकता देते
हैं। नहीं तो
पांच
इंद्रियां
पांच खंडों में
तोड़ देती हैं।
एक इंद्रिय एक
तरफ खींचती है;
दूसरी
इंद्रिय
दूसरी तरफ
खींचती है। जब
इंद्रियां
खींचती ही
नहीं, तो
व्यक्ति
जितेंद्रिय
हो जाता है।
उस जितेंद्रियता
में ही साधुता
है।
कायेन
संवरो सा सा
वाचाय संवरो।
मनसा
संवरो सा सा
सब्बत्थ
संवरो।
सबत्थ
संवुतो भिक्खु
सब्बदुक्खा
पमुच्चति ।
'शरीर
का संवर शुभ
है। वचन का
संवर शुभ है।
मन का संवर
शुभ है।
सवेंन्द्रियों
का संवर शुभ
है। सर्वत्र
संवरयुक्त
भिक्षु सारे
दुखों से मुक्त
हो जाता है।
'
'शरीर का
संवर शुभ है।
वचन का संवर
शुभ है। '
शरीर
के संवर का
अर्थ होता
है—अकेले होने
की क्षमता का
आ जाना। यह
संवर की पहली
परिधि, एकांत
में जीने का
मजा।
तुमने
देखा, स्वात
काटता है! जब
तुम घर में
अकेले रह जाते
हो, हजार
मन उठने लगते
हैं : कहा जाऊं?
सिनेमा चला
जाऊं, होटल
चला जाऊं; किसी
क्लब में चला
जाऊं, पड़ोसी
के घर चला
जाऊं—कहां चला
जाऊं?
क्या
कारण है? किसलिए
सिनेमा जा रहे
हो? किसलिए
पड़ोसी के घर
जा रहे हो? किसलिए
क्लब जा रहे
हो? अकेले
होने की
क्षमता नहीं
है। दूसरे
चाहिए। दूसरे
रहते हैं, तो
तुम दूसरों
में उलझे रहते
हो।
शरीर
के संवर का
अर्थ है :
अकेले होने की
क्षमता, एकांत
की क्षमता। और
इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
जाओ, हिमालय
की किसी गुफा
में बैठो।
यहीं, बाजार
में चलते
—चलते भी तुम
चाहो तो अकेले
हो सकते हो।
और गुफा में
बैठकर भी चाहो
तो भीड़ में हो
सकते हो।
गुफा
में बैठकर भी
अगर लोगों के
संबंध में सोच
रहे हो, तो यह
शरीर का संवर
न हुआ। और राह
में चलते हुए,
बाजार में
चलते हुए भी
अगर किसी के
संबंध में नहीं
सोच रहे हो; शांत, मौन
से चल रहे हो; संतुलित
अपने भीतर
आरूढ़—तो संवर
है।
शरीर
का संवर यानी
स्वात की क्षमता।
वचन का संवर
यानी मौन की
क्षमता, चुप
होने की
क्षमता।
वचन
दूसरे से
जोड़ता है। तो
वचन सेतु है
संबंधों का।
अगर वचन से
मुक्त होने की
क्षमता हो...।
इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
बोलो ही मत।
इसका यही अर्थ
है
कि जब जरूरी
हो,
अत्यंत
जरूरी हो, तो
बोलो।
बोलने
में आदमी को
वैसा ही संयम
होना चाहिए
जैसा जब तुम तार
करते हो, तो
सोचते हो. यह
शब्द काट दूं
र यह शब्द काट
दूं। यह
ज्यादा, यह
ज्यादा।
क्योंकि नौ ही
शब्द जा
सकेंगे; ये
दस हो गए, तो
एक और काट
दूं। और तुमने
एक मजा देखा!
कि चिट्ठी से
तार का परिणाम
ज्यादा होता
है! चिट्ठी
में तुम्हें
जो दिल में
आता है, लिखते
हो। दस पन्ने
लिख डालते हो।
उसी की वजह से
जो तुम लिखते
हो, उसकी
त्वरा चली
जाती है। जो
तुम लिखते हो,
उसमें बल
नहीं रह जाता।
जो तुम लिखते
हो, उसकी
सघनता और चोट
खो जाती है।
तार
के दस शब्दों
में बड़ी सघनता, इटेसिटि
आ जाती है।
शब्द काटते
जाते हैं—यह
भी गैर—जरूरी,
यह भी
गैर—जरूरी।
फिर जो
जरूरी—जरूरी
रह गया, उसका
वजन बढ़ जाता
है। इसलिए तार
का परिणाम होता
है। तार की
चोट होती है।
वचन के संवर
का अर्थ है.
जितना जरूरी
हो, उतना
बोलने की
क्षमता।
क्षमता क्यों
कहते हैं इसे?
क्योंकि
तुम अकारण
बोलते हो; बोलने
में अपने को
उलझाते हो।
बोलना एक तरह
का उलझाव है, व्यस्तता
है।
जो
मिला, उसी से
बोलते हो! कुछ
भी बोलते हो।
वह भी कुछ बोल
रहा है; तुम
भी कुछ बोल
रहे हो। कुछ
नहीं होता, तो मौसम की
ही बात करते
हो! उसको भी
पता है; तुमको
भी पता है।
लेकिन कर रहे
बात! वह भी वही
अखबार पढा है,
जो तुम पढ़े
हो। उसी की
बात कर रहे!
लेकिन कुछ न कुछ
बात करनी है।
और जिन बातों
को तुम हजार
बार कर चुके
हो, वही
बात फिर दोहरा
रहे हो।
वचन
की क्षमता का
अर्थ है :
जरूरी बोलना, गैर—जरूरी
नहीं बोलना।
फिर
मन का संवर।
मन का संवर है.
भीतर का मौन।
एक
तो बाहर का
मौन है—व्यर्थ
न बोलना। और
फिर एक भीतर
का मौन
है—व्यर्थ न
सोचना। ऐसे
धीरे— धीरे
स्वात बढ़ता
है। पहले बाहर
से,
भीड़ से
मुक्त हो जाओ।
फिर शब्दों से
मुक्त। फिर मन
की तरंगों से
मुक्त। तब
सवेंन्द्रियों
का संवर सध
जाता है। आदमी
जितेंद्रिय
हो जाता है।
सर्वत्र
संवरयुक्त
भिक्षु सारे
दुखों से मुक्त
होता है।
हत्थसज्जतोपादसज्जतो
वाचाय सज्जतो
सज्जतुत्तमो।
अज्झत्तरतो
समाहितो एको
संतुसितो
तमाहु भिक्खुं
।।
'जिसके हाथ, पैर और वचन
में संयम है, जो उत्तम
संयमी है, जो
अध्यात्मरत, समाहित, अकेला
और संतुष्ट है,
उसे भिक्षु
कहते हैं। '
बुद्ध
ने बहुत जोर
दिया है इस
बात पर कि चलो
भी तो संयम
रखना। चलने
में कैसा संयम? होशपूर्वक
चलना। एक पैर
भी उठाओ, तो
याद रहे कि
मैंने यह पैर
उठाया।
मूर्च्छा में
मत उठाना।
'जिसके हाथ, पैर और वचन
में संयम है...।'
जो
बोलता है, तो
जानता है तो
ही बोलता है।
तुम
कितनी बातें
बोलते हो, जो
तुम जानते भी
नहीं! कोई
तुमसे पूछता
है : ईश्वर है? तुम कहते हो '
ही, है।
छाती ठोंककर
कहते हो. है।
तुम्हें
ईश्वर का कोई
पता नहीं है।
संसार में झूठ
बोलो, चलेगा।
कम से कम
परमात्मा को
तो छोड़ो! उस संबंध
में तो झूठ मत
बोलो!
तुमसे
कोई पूछता है.
आत्मा है? तुम
कहते हो है।
और न तुम कभी
भीतर गए, और
न कभी इस
आत्मा का
दर्शन किया!
कोई पूछता है लोग
मरने के बाद
बचेंगे? तुम
कहते हो ही।
पुनर्जन्म
है। आत्मा अमर
है।
तुमने
जीवन तक देखा
नहीं; मृत्यु
की तो बात ही
छोड़ो। रात
नींद में सो
जाते हो, तब
तुम्हें पता
नहीं रहता कि
तुम कोन हो! तो
मृत्यु की
गहरी निद्रा
में उतरोगे, तो तुम्हें
कहा पता रहेगा?
रात की नींद
तक में
रोज—रोज तुम
टूट जाते हो
अपने
तादात्म्य से,
भूल जाते हो,
मैं कोन हूं;
तो
महामृत्यु जब
घटेगी, सब
तरह से जब तुम
मरोगे, क्या
तुम्हें याद
रहेगा?
न
तुम्हें
पुनर्जन्मों
की कुछ याद है, न
तुम्हें
आत्मा की
शाश्वतता का
कुछ पता है। लेकिन
कहे जा रहे हो!
कुछ भी कहे जा
रहे हो! इन छो से
बचो। इन खो से
जो बच जाए, वही
सत्य को
उपलब्ध हो
सकता है।
जिसके
हाथ,
पैर और वचन
में संयम है, जो उत्तम
संयमी है, जो
अध्यात्मरत—जो
अपने में लीन
रहता—समाहित..।
फिर एक शब्द
आया जो सम से
बना
है—समाहित। सब
तरह से अपने
में ठहरा हुआ;
सब तरह से
अपने में थिर,
सब तरह से
अपने में
प्रतिष्ठित; अकेला और
संतुष्ट है...।
फिर सम
आया—संतुष्ट,
संतोष।
जो
जैसा है, जहां
है—वैसा ही
अपने को
धन्यभागी
जानता है; इससे
अन्यथा की कोई
मांग नहीं है।
जिसको
अन्यथा की माग
नहीं है, उसकी
जिंदगी में
चिंता नहीं
है। जिसको
अन्यथा की
मांग नहीं है,
उसकी
जिंदगी में
कभी कोई दुख
नहीं है। जैसा
है, उसी से
राजी।
तुम
कहते हो : ऐसा
होगा तो मैं
राजी होऊंगा।
फिर तुम कभी
राजी नहीं
होने वाले। क्योंकि
कोन तुम्हारी
आकांक्षाएं
तृप्त करने को
है?
सब अपनी
आकांक्षाएं
तृप्त करने
में लगे हैं। और
यह विराट
अस्तित्व
एक—एक की
आकांक्षाएं
तृप्त करने
चले, तो
कभी का बिखरकर
खंडित हो जाए।
लेकिन
जो कहता है. जो
अस्तित्व से मुझे
मिले, वही
मेरा सुख है; इस आदमी को
दुखी नहीं
किया जा सकता।
जिसने अस्तित्व
के साथ अपना
गठबंधन बाँध लिया,
जो
अस्तित्व की
धारा में बहने
लगा, वह संतुष्ट
है, समाहित
है, अकेला है।
बुद्ध कहते
हैं. उसे ही
भिक्षु कहते
हैं।
यो
मुखसज्जतो
भिक्खु
मंतभाणी
अनुद्धतो।
अत्थं
धम्मज्च
दीपेति मधुरं
तस्स भासितं
।।
'जो
मनुष्य मुख
में संयम रखता;
मनन करके
बोलता; उद्धत
नहीं होता; अर्थ और
धर्म को प्रगट
करता—उसका
भाषण मधुर होता
है।'
यो
मुखसज्जतो
भिक्खु
मंतभाणी
अनुद्धतो।
जो उतना
ही बोलता है, जितना
जानता है; जो
उतना ही बोलता
है, जितना
जीया है। जो
उतना ही बोलता
है, जिसका
स्वयं गवाह
है—उसकी वाणी
स्वभावत: मधुर
हो जाती है।
सत्य जहां है,
वहा
माधुर्य है।
अत्थं
धम्मन्च
दीपेति......।
उसके
वचनों से धर्म
के दीए जलने
लगते हैं।
मधुरं
तस्स भासितं।
और उसके
व्यक्तित्व
से माधुर्य
बरसने लगता
है। उसके पास
भी जो आएगा, वह
मस्त हो
जाएगा। उसके
पास जो आएगा, वह
ज्योतिर्मय
होने लगेगा।
जितने पास
आएगा, उतना
ज्योतिर्मय
होने लगेगा।
बुझा
दीया जैसे जले
दीए के पास
आकर जल जाता
है,
ऐसे ही ऐसे
समाहित
व्यक्ति के
पास, संतुष्ट
व्यक्ति के
पास, समाधिस्थ
व्यक्ति के
पास, संबुद्धत्व
को उपलब्ध
व्यक्ति के
पास बुझे से
बुझा आदमी आकर
भी धर्म के
दीए से
ज्योतिर्मय
हो जाता है।
जल उठती उसके
भीतर सोयी हुई
चेतना।
अंधेरा मिट
जाता है। और
परम माधुर्य
की वर्षा होती
है।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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