भगवान
के तातविंस
भवन में
पांडुकमल
शिलासन पर बैठे
समय देवताओं
में यह चर्चा
चली— कि इंदक के
अपने लिए लाए
भोजन में से
कलछीभर
अनुरुद्ध स्थविर
को दिया दान
का फल अंकुर
के दस हजार
वर्ष तक बारह योजन
तक चूल्हों की
कतार बनवाकर
दिए हुए दान से
भी महाफल का
हुआ। यह कैसा
गणित है? इसके
पीछे तर्क—
सरणी क्या है?
इसे
सुनकर शास्ता
ने अंकुर से
कहा : अंकुर!
दान चुनकर
देना चाहिए।
ऐसा करने से
वह अच्छे खेत
में भली प्रकार
बोए हुए बीज
के सदृश्य
महाफल होता
है। किंतु
तूने वैसा
नहीं किया
इसलिए तेरा
दान महाफल नहीं
हुआ। दान ही
सब कुछ नहीं
है;
जिसे दिया
वह भी अति
महत्वपूर्ण
है। और जिस भावदशा
से दिया वह भी
अति
महत्वपूर्ण
है। और तब उन्होंने
ये गाथाएं
कहीं.
तिणदोसानि
खेत्तानि रागदोसा
अयं पजा।
तस्मा
हि वितरागेसु
दिन्नं होति
महप्फलं ।।
तिणदोसानि
खेत्तानि
दोसदोसा अयं
पजा।
तस्मा
हि वीतदोसेसु
दिन्नं होति
महप्फलं ।।
तिणदोसानि
खेत्तानि
मोहदोसा अयं
पजा।
तस्मा
हि वीतमोहेसु
दिन्नं होति
महप्फलं ।।
तिणदोसानि
खेत्तानि
इच्दादोसा
अयं पजा।
तस्मा
हि विगतिच्देसु
दिन्नं
महप्फलं ।।
'खेतों का
दोष है
घास—पात, खेतों
का दोष है तृण,
इसी तरह
प्रजा का दोष
है राग। इसलिए
वीतराग लोगों
को दान देने
में महाफल
होता है।’
'खेतों का
दोष है तृण, इसी प्रकार
प्रजा का दोष
है द्वेष।
इसलिए वीतद्वेष
व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।’
'खेतों का
दोष है तृण, इस प्रजा का
दोष है मोह।
इसलिए वीतमोह
व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।'
'खेतों का
दोष है तृण, इस प्रजा का
दोष है इच्छा।
इसलिए
विगतेच्छ व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।'
पहले
तो परिस्थिति
को खूब
हृदयंगम कर
लें। यह कथा
थोड़ी अनूठी
है। इस कथा
में दो दृश्य
हैं। इस एक
दृश्य में दो
दृश्य समाए
हैं।
पहला.
भगवान तो अपने
भिक्षुओं के
पास बैठे हैं।
भिक्षुओं ने
उन्हें घेरा
हुआ है। उनके
सामने ही एक
महादानी
अंकुर नाम का
व्यक्ति बैठा
हुआ है, उसने
अपूर्व दान
किया है। उसका
दान ऐसा है कि
इतिहास में खोजे
से न मिले।
उसने ऐसा दान
किया है. दस
हजार वर्ष
तक—जन्मों—जन्मों
से वह दान कर
रहा है—बारह
योजन तक
चूल्हों की
कतार बनवाकर
दान देता रहा
है निरंतर।
जितना
दिया है, उतना
उसे और मिला
है। लेकिन हर
बार जितना
मिला है, वह
भी उसने दे
दिया है। ऐसे
उसका धन भी
बढ़ता गया, उसका
दान भी बढता
गया। जितना
दान बढ़ा है, उतना धन
बढ़ा। जितना धन
बढ़ा, उतना
उसने दान
बढ़ाया है। ऐसे
दस हजार सालों
में उसकी सारी
जीवन—यात्रा
दान की महाकथा
है। बारह योजन
तक चूल्हों को
बनवा रखा है
उसने। और उसमें
जो भी तैयार
होता है रोज
भोजन, वह
दान करता है।
लाखों लोगों
को भोजन देता
है, कपड़े
देता है।
वह
अंकुर
महाश्रेष्ठी
सामने ही
बुद्ध के बैठा
है।
ऊपर
आकाश में
देवताओं की
बैठक हो रही
है। वे देवता
आपस में सोचते
हैं कि एक बड़ी
अजीब बात है।
यह अंकुर बैठा
है बुद्ध के
सामने। इसने
इतना दान दिया
है। लेकिन
हमने सुना है
कि एक छोटे से
दान के सामने
भी इसका दान
कुछ .नहीं है।
वह दान किया
था इंदक नाम
के आदमी ने।
वह
इंदक भी वहां
बुद्ध के पास
मौजूद है।
कहीं पीछे
बैठा होगा।
क्योंकि वह
महाश्रेष्ठी
नहीं है। उसको
कोई जानता भी
नहीं है। उसका
दान भी ऐसा
नहीं है कि
उसकी कोई
प्रशंसा करे। उसने
दान दिया था
अनुरुद्ध नाम
के एक के
भिक्षु
को—स्थविर
अनुरुद्ध को।
वे बुद्ध के
खास शिष्यों
में एक थे, जो
बुद्ध के
सामने ही
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए।
इंदक
ने अपने लिए
लाए भोजन में
से—इंदक खुद
ही भिक्षु है, लेकिन
अनुरुद्ध
बीमार थे, और
इंदक अपने लिए
मांगकर भोजन
लाया था——बूढे
अनुरुद्ध को
उसने कलछीभर
अपने भोजन में
से भोजन दिया।
और देवता कह
रहे हैं कि
हमने सुना है
कि उसका दान
अंकुर के दान
से ज्यादा
श्रेष्ठ है और
महाफल लाने
वाला है।
भगवान
के तातविस भवन
में पांड़कमल
शिलासन पर
बैठे समय
देवताओं में
यह चर्चा
चली—कि इंदक
के अपने लिए
लाए भोजन में
से कलछीभर
अनुरुद्ध
स्थविर को
दिया दान का
फल,
अंकुर के दस
हजार वर्ष तक
बारह योजन तक
चूल्हों की
कतार बनवाकर
दिए हुए दान
से भी महाफल
हुआ है। यह
कैसा गणित है?
इसके पीछे
तर्क —सरणी
क्या है?
इसके
पीछे बड़ी तर्क
—सरणी है।
अंकुर ने जो
दिया है, उसके
पास बहुत है, इसलिए दिया
है। देकर उसे
कोई अड़चन
नहीं होती।
देना
सुविधापूर्ण
है। सच तो यह
है कि उसे हाथ
में एक कला
पकड़ गयी, एक
कुंजी पकड़
गयी। दस हजार
सालों में
जितना दिया, उतना धन
बढ़ता गया।
उसने और दिया,
तो और धन
बढ़ता गया है।
देने से उसे
कोई कष्ट नहीं
हुआ है। देने
से उसे कोई
पीडा नहीं हुई
है। देने में
कोई त्याग
नहीं है, कोई
बलिदान नहीं
है। देना
सुविधापूर्ण
है।
इंदक
का देना
ज्यादा
मूल्यवान
सिद्ध हुआ है।
इंदक भीख
मांगकर लाया
है। वह गरीब
भिखारी जैसा
भिक्षु है।
उसकी कोई
प्रतिष्ठा
नही है। उसे
कोई जानता
नहीं है। उसे
भीख मिलना भी
मुश्किल होती
होगी।
तुम
थोड़ा सोचो!
बुद्ध जब एक
गांव में आते
थे,
तो उनके साथ
दस हजार
भिक्षु आते
थे। छोटे—छोटे
गांव बिहार के,
उनमें दस
हजार
भिक्षुओं को
भोजन मिलना!
बड़ी कठिन बात
थी। जो अग्रणी
थे, उनको
तो सरलता से
मिल जाता था।
लोग निमंत्रण
दे देते
थे—महाकाश्यप
को, कि
सारिपुत्त को,
कि
मौद्गल्यायन
को, कि
अनुरुद्ध को,
कि
मंजुश्री
को—ये तो बड़े
—बड़े प्रसिद्ध
बोधिसत्व थे,
इनको तो लोग
निमंत्रण
करके ले जाते
थे। लेकिन फिर
दस हजार
भिक्षुओं की
भीड़ थी। उसमें
दीन—हीन
भिक्षु भी थे,
जिनका कोई
नाम भी नहीं
जानता था।
इनको भिक्षा मिलनी
भी कठिन हो
जाती थी।
इंदक
ऐसा ही गरीब
भिक्षु है, अज्ञात
नाम, अज्ञात
कुल। मुश्किल
से भिक्षा
मिली होगी। हो
सकता है, दो
—चार दिन बाद
मिली हो। दो
—चार दिन भूखा
रहा हो। और
इधर आया और देखा
कि अनुरुद्ध
बीमार हैं। के
हैं। और भिक्षा
मांगने नहीं
जा सके हैं।
शायद जो थोड़ा
सा लाया था, उसमें से
आधा या आधे से
ज्यादा, कलछीभर,
अनुरुद्ध
को उसने दे
दिया है।
इसके
पीछे सीधा
गणित है। जब
तुम बिना किसी
कष्ट के देते
हो—देना तो
अच्छा है, लेकिन
इसका महाफल नहीं
हो सकता। फल
होगा। महाफल
तो तब होगा, जब दुम
जरूरत पड़े, तो अपने को
त्याग कर भी
देते हो, अपने
को दाव पर लगाकर
भी देते हो—तब
महाफल होगा।
फल
और महाफल में
क्या फर्क है? फल
बाहर का होता
है; महाफल
भीतर का। फल
तो हुआ अंकुर
को। धन दिया था,
धन मिलता
रहा। जितना
दिया, उतना
धन मिलता रहा।
यह फल है।
इससे यह मत
समझना कि उसको
कम मिला। दस
रुपए दिए थे, तो हजार
मिले। हजार
दिए, तो दस
हजार मिले। दस
हजार दिए तो
लाख मिले, कि
करोड़ मिले।
तुम्हारे
हिसाब में तो
खूब महाफल
हुआ। लेकिन बुद्ध
की विचार सरणी
में वह महाफल
नहीं है, क्योंकि
धन ही मिला न।
एक रुपया दिया
था, करोड
रुपए मिले, तो भी मिला
तो धन ही न।
बाहर का ही
दिया था, बाहर
का ही मिला।
फिर ये करोड़
भो दे दोगे, तो और अनंत
करोड़
मिलेंगे। फार
मिलेगा बाहर
का ही। बाहर
का दोगे, तो
बाहर का ही
मिलेगा। बाहर
के देने से
भीतर का नहीं
मिलता है। और
भीतर है, असली
महाफल।
इस
इंदक गरीब
भिक्षु ने वह
जौ कलछीभर
दिया, इसमें
भीतर का भी
कुछ दिया।
बाहर का तो
दिया ही, वह
तो सब को
दिखायी पड़ रहा
है। भीतर का
भी कुछ दिया।
इसमें त्याग
है, इसमें
आहुति है।
इसमें अपने को
बाद देने —की क्षमता
है। इसने अपने
को हटा लिया
बीच से। इसने
अपने अहंकार
को बीच में
नहीं आने दिया,
अपनी
अस्मिता को
बीच में नहीं
आने दिया—कि
मुझे भी जरूरत
है, कि मैं
भी भूखा हूं? कि मैं दो
दिन का भूखा
हूं —इसने यह
कोई बात नहीं
आने दी। वृद्ध,
बीमार
अनुरुद्ध, इसने
अपना भौजन
उन्हें दे
दिया। यह शायद
उस दिन भूखा
ही रह गया
होगा। अध—पेट
रह गया होगा।
पानी पीकर ही
सो गया होगा।
इसने भीतर का
कुछ दिया है। इसका
महाफल हुआ है।
देवताओं
में चर्चा
चलती है।
क्योंकि
देवता भीतर की
बात नहीं देख
सकते। देवता
बाहर की ही देख
सकते हैं। जो
भीतर की देख
लें,
वे तो
बुद्धपुरुष
हो जाते हैं।
उनको देवता
नहीं कहा
जाता। वे
देवताओं के पार
हो जाते हैं।
देवता
तो सुख देख
सकते हैं— धन
का,
पद का, प्रतिष्ठा
का। देवता तो
सुख में
तल्लीन हैं, उनकी बाहर
की पकड़ है।
उनको समझ में
नहीं आ रहा है—कि
यह बात कुछ
जंचती नहीं।
यह कोन सा
नियम है? हमने
सुना कि इंदक
का फल ज्यादा
है! शायद
बुद्ध ने कहा
होगा कि इंदक का
फल ज्यादा है।
अंकुर
का फल है, लेकिन
बहुत ज्यादा
नहीं है।
बाहर—बाहर का
है। इससे इसकी
आत्मा अछूती
रह गयी है।
इसे
सुनकर—देवताओं
की इस चर्चा
को सुनकर—शास्ता
ने अंकुर से
कहा,
जो सामने ही
बैठा हुआ है, कि अंकुर! दान
चुनकर देना
चाहिए। ऐसा
करने से वह
अच्छे खेत में
भली प्रकार
बोए हुए बीज
के सदृश्य
महाफल होता
है। किंतु
—तूने वैसा
नहीं किया है।
इसलिए तेरा
दान महाफल
नहीं हुआ। दान
ही सब कुछ नहीं
है। जिसे दिया,
वह भी अति
महत्वपूर्ण
है। और जिस
भाव से दिया, वह तो और भी
अधिक महत्वपूर्ण
है।
किसको
दिया!
जीसस
भी बीज और खेत
की बात करते
हैं। वे कहते
हैं. किसी ने
आकर खेत में
बीज फेंके।
कुछ बीज रास्ते
पर पड़े, रास्ता
कठोर था, पथरीला
था। बीज नहीं
ऊगे। कुछ बीज
मेड़ पर पड़े।
ऊगे तो जरूर, लेकिन मेड़
पर लोग चलते
थे, इसलिए
ऊगे और मर गए।
कुछ बीज खेत
के बीच पड़े।
ऊगे भी और बड़े
फलवान हुए।
ऐसा
ही,
बुद्ध कहते
हैं, बीज
कहां डाला, इस पर भी
बहुत कुछ
निर्भर है।
बीज तो है ही
महत्वपूर्ण; लेकिन बीज
को किस भूमि
में बोया, यह
भी बहुत
महत्वपूर्ण
है। अच्छी
भूमि खोजी, कि ऐसे ही
कहीं डाल
दिया! रास्ते
पर डाल दिया!
मेड़ पर डाल
दिया! जहां से
लोग चलते हैं,
वहां डाल
दिया, कि
ठीक—ठीक भूमि
खोजी! दान अगर
ठीक भूमि
खोजकर किया
जाए, तो
महाफलदायी
होता है।
किसको दिया? फिर किस भाव
से दिया?
अंकुर
को एक कुंजी
हाथ लग गयी
है। वह देखता
है. धन देने से
धन मिलता है।
यह तो बड़ा
हिसाब सस्ता
हो गया! यह तो
दुकानदारी हो
गयी। यह तो
जिसको मिल
जाएगी कुंजी, वही
यह करने
लगेगा।
तुम
डरते हो कि
देने से कहा
मिलने वाला है, जो
हाथ में है, वह चला
जाएगा; इसलिए
नहीं देते।
लेकिन तुममें
और अंकुर में बहुत
फर्क नहीं है।
तुम इसलिए
नहीं देते कि
तुम डरते हो
कि देने से
चला जाएगा।
अंकुर देता है,
क्योंकि
जानता है कि
देने से मिलता
है।
आमतोर
से यही हम सब
सोचते हैं कि
दिया, तो गया!
इसलिए हम
पकड़ते हैं। इस
अंकुर को यह
कला हाथ लग
गयी कि दिया, तो बढ़ता है।
मगर
तुममें और
अंकुर में
बुनियादी भेद
नहीं है। तुम
भी धन को पकड़
रहे हो, वह भी
धन को पकड़ रहा
है। इसलिए भाव
कोई शुभ नहीं
है। अशुभ भाव
से ही दिया जा
रहा है। इसलिए
बीज तो फेंक
रहा है, लेकिन
ठीक भूमि मैं
नहीं पड़ रहे
हैं। और चूंकि
देने से मिलता
है, इसलिए
देने में वह
पात्रता की भी
फिकर नहीं करता।
देने से मिलता
है—कोई ले
जाए। चोर ले
जाएं, हत्यारे
ले जाएं। फिर
चाहे इसके धन
को पाकर हत्यारे
हत्या करें, और चाहे चोर
इसके धन को
पाकर चोरी
करें—इसकी इसे
कोई चिंता
नहीं है। यह
फिकर ही नहीं
करता कि किस
खेत में बीज
पड़ रहे हैं।
इसको तो मिलने
का राज हाथ लग
गया।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं : किसको
दिया, यह भी
खयाल में रहे।
और किनको देने
योग्य है.।
'खेतों का
दोष तृण है.।’
जैसे
खेतों में
घास—पात उगी
हो,
वहां तुम
बीजों को फेंक
दो, खराब
हो जाएंगे।
घास—पात खा
जाएगी उन
बीजों को।
पैदा भी होंगे,
तो बढ़ न
पाएंगे, घास—पात
में खो
जाएंगे।
'ऐसे ही
प्रजा का दोष
राग है।'
रागी
को दोगे, तो
तुम्हारा
दिया हुआ खो
जाएगा। उसके
राग को ही
बढ़ाएगा। जैसे
किसी आदमी को
तुमने रुपए दे
दिए और वह
वेश्यागामी
है, तो
करेगा क्या
रुपयों का! वह
वेश्या के
यहां चला
जाएगा।
पुरानी
कहानी है। उन
दिनों ईश्वर
देखता रहता था
ऊपर से कि
कहां क्या हो
रहा है! अब तो
थक गया, ऊब
गया। और अंधे
—लंगड़ों को कब
तक देखता रहे!
उसे बड़ी दया
आयी! उसने कहा
कि इन दोनों
को ठीक कर दूं
जाकर। आया।
दोनों नाराज
होकर एक—दूसरे
से अलग— अलग
झाड़ों के नीचे
बैठे थे।
विचार कर रहे
थे कि किस तरह!
अंधा सोच रहा
था कि इस
लंगड़े की आंखें
किस तरह फोड़
दूं। बड़ी अकड़
बनाए हुए है
आंखों की। और
लंगड़ा सोच रहा
था कि इस अंधे
की टाग कैसे
तोड़ दूं।
तभी
ईश्वर आया।
उसने पूछा
पहले को। उसने
सोचा कि जब
मैं अंधे से
पूछंगा कि तू
कोई एक वरदान
मांग ले, तो वह
मांगेगा
वरदान कि मेरी
आंखें ठीक कर
दो। जब उसने
अंधे से कहा
कि तू एक
वरदान मांग
ले। तो अंधे
ने कहा कि हे
प्रभु! जब दे
ही रहे
हों—इतना दिल
दिखा रहे
हो—तो एक काम
करो : इस लंगड़े
की आंखें फोड़
दो। और यही
लंगड़े ने भी
किया।
ईश्वर
तो बहुत
चौंका। तभी से
तो आता नहीं
कि ये अंधे
—लंगड़े बड़े
खतरनाक है
लंगड़े
से पूछा।
सोचता था यही
कि कम से कम यह
बुद्धिमानी
दिखाएगा; अपने
पैर ठीक करवा
लेगा। लेकिन
उसने कहा कि
जब आ ही गए आप, और यही तो
मैं सोच रहा
था, जन्मों
—जन्मों की
आशा मेरी पूरी
कर दी। तो अब इतना
कर दो कि इस
अंधे की टागें
तोड़ दो!
आदमी
जैसा है, ईश्वर
के वरदान का
भा गलत ही
उपयोग होगा।
तुम्हारे दान
की क्या बात
है!
'खेतों का
दोष घास—पात, इस प्रजा का
दोष द्वेष है।
इसलिए
वीतद्वेष व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।'
उन्हें
देना जो
वीतद्वेष हैं, तो
तुमने जो दिया
है, उसकी
शुभ ही शुभ
परिणति होगी।
'खेतों का
दोष घास—पात, प्रजा का
दोष मोह है। इसलिए
वीतमोह
व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।'
'खेतों का
दोष घास—पात, प्रजा का
दोष इच्छा।
इसलिए
विगतेच्छ, जो
इच्छा के पार
हो गए हैं, ऐसे
व्यक्तियों
को दान देने
में महाफल
होता है।'
इन
वचनों पर
विचार करना, चिंतन
करना, मनन
करना।
तुम्हारा
जीवन दान बने, प्रेम
बने, निरअहंकार
भाव बने। और
तुम्हारा
जीवन उन दिशाओं
में संलग्न हो
जाए, उन
खेतों में
तुम्हारे बीज
पड़े—दान के और
प्रेम के—जहां
राग के, द्वेष
के, इच्छाओं
के, घृणाओं
के, तृष्णाओं
के जहर नहीं
हैं। फिर
महाफल निश्चित
है।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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