देवता और एकुदान का उपदेश—(कथा—यात्रा)
एकुदान नामक एक छीनास्रव— आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके— ऐसे अर्हत थे भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था— बस एक ही उपदेश जैसा मुझे आता है— बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावत: उनका कोई शिष्य नहीं था
हो
भी कैसे! कोई
आता भी तो भाग
जाता, वही
उपदेश रोज। शब्दशः
वही। उसमें
कभी भेद ही
नहीं पड़ता था।
उन्हें कुछ और
इसके अलावा
आता ही नहीं
था। लेकिन वे
देते रोज थे।
कोई
आदमी तो उनके
पास टिकता
नहीं था लेकिन
जंगल के देवता
उनका उपदेश
सुनते थे। और
जब वे उपदेश
पूरा करते तो
जंगल के देवता
साधुकार देकर
स्वागत करते
थे— साधु! साधु!
सारा जंगल
गुंजायमान हो
जाता था— साधु।
साधु!
धन्यवाद!
धन्यवाद!
एक
दिन पांच—
पांच सौ
शिष्यों के
साथ दो त्रिपटकधारी
साधु आए
भिक्षु आए।
एकुदान ने
उनका हार्दिक
स्वागत किया
और प्रसन्न
होते हुए बोले
भंते आप भले
पधारे। मैं एक
ही उपदेश
जानता हूं
बेचारे जंगल
के देवता उसे
ही बार— बार
सुनकर थक गए
होंगे। आज आप
लोग उपदेश
दें। हम भी
सुनेने और
देवतागण भी
आनंदित होंगे
दयावश वे इस
बूढ़े के एक ही
उपदेश का भी
साधु— साधु
कहकर स्वागत
करते हैं आप दोनों
ज्ञानी हैं
त्रिपटकधारी
हैं आपके पांच—
पांच सौ शिष्य
है?
देखें मेरा
तो एक भी
शिष्य नहीं
है— एक ही
उपदेश देना हो
तो शिष्य कोई
बनेगा ही
क्यों? बनेगा
ही कोई कैसे?
तो
उस के ने कहा
कि मुझ के का
भी उपदेश वे
सुनते हैं, देवता
हैं, भले
लोग हैं, तो
धन्यवाद भी
देते हैं, हालांकि
मैं जानता हूं
ऊब गए होंगे।
ये
त्रिपटकधारी
महापंडित इस
बूढ़े पागल की
बात सुनकर एक—
दूसरे की तरफ
अर्थगर्भित
दृष्टियों से
देखते हुए
मुस्कुराए।
अकेले रहते—
रहते यह
एकुदान
विक्षिप्त हो
गया है उन्होने
सोचा। अन्यथा
कोई एक ही
उपदेश रोज— रोज
देता है! फिर
कहा के देवता!
आह बेचारा! इस
बूढ़ी अवस्था
में मन इसका
कपोल—
कल्पनाओं से
भर गया है। यह
यथार्थ से
स्तुत हो गया
है
फिर
उन दोनों ने
बारी— बारी से
उपदेश दिया वे
बड़े पंडित थे
त्रिपटक के
ज्ञाता थे
बुद्ध के सारे
वचन उन्हें
कंठस्थ थे
पांच— पांच सौ
उनके शिष्य
थे
उन्होंने
बारी— बारी से
उपदेश दिया—
शास्त्र—
सम्मत
पांडित्य से
भरपूर तर्क से
प्रतिष्ठित।
उनके शिष्यों
ने हर्षध्वनि की—
साधु। साधु!
बूढ़ा एकुदान
भी परम आनंदित
हुआ। बस एक ही
बात उसे खटक
रही थी कि
जंगल के देवता
कुछ भी न
बोले। जंगल के
देवता चुप थे
सो चुप ही रहे!
उसने यह बात
पंडितों को भी
कही कि बात क्या
है?
आज जंगल के
देवता चुप ही
क्यों हैं? इनको क्या
हो गया? आज
ये कहा चले गए?
ये रोज मेरा
उपदेश सुनते
हैं और
साधुवाद से पूरा
जंगल भर जाता
है। और आज ऐसा
परम उपदेश हुआ
ऐसा ज्ञान से
भरा!
वे
फिर वे पंडित
फिर इस बूढ़े
पागल की बात
पर हैंसे।
मजाक में ही
उन्होने इस
बूढ़े को भी
उपदेश देने को
कहा उन्होंने
सोचा कि चलो
इसका एक उपदेश
भी सुन लें।
बूढ़ा
बड़े संकोच से
धर्मासन पर
गया और उसने
और भी संकोच
और झिझक से
अपना वह एक ही
संक्षिप्त सा
उपदेश दिया।
उपदेश के पूरे
होते ही जंगल
साधु! साधु!
साधु ?? के
अपूर्व निनाद
से गूंज उठा।
जैसे वृक्ष—
वृक्ष से आवाज
उठी पत्थर—
पत्थर से आवाज
उठी— सारे
जंगल के
देवता!
पंडित
तो बड़े हैरान
हुए। तो यह
बूढ़ा पागल
नहीं था।
देवता थे। और
अब पंडितों ने
सोचा मालूम होता
है देवता पागल
हैं। क्योंकि
इसके उपदेश में
कुछ खास बात
ही नहीं
साधारण सा
उपदेश है जो कोई
भी दे दे।
अब
ऐसा उन
पंडितों ने सोचा
कि ये जंगल के
देवता पागल
हैं। पहले
सोचते थे, यह
का पागल है, देवता कहीं
होते! अब
उन्होंने
सोचा कि देवता
तो जरूर हैं
और का पागल भी
नहीं है, मगर
देवता पागल
हैं। क्योंकि
हमने इतने
पांडित्य की
बातें कहीं और
इनकी समझ में
न आयीं, और
इस बूढ़े का
वही उपदेश!
वे
दोनों तो इस
संबंध में चुप
ही रहे लेकिन
उनके शिष्यों
ने भगवान से
जाकर यह
अपूर्व
चमत्कार की
बात कही।
भगवान ने उनसे
कहा सत्य
शास्त्र में
नहीं है सत्य
शब्द में भी
नहीं है सत्य
तथाकथित
बौद्धिक
ज्ञान में भी
नहीं है सत्य
है अनुभव। और
अनुभव शून्य
में प्रगट
होता है मौन
और आंतरिक एकांत
में प्रगट
होता
है। और वैसे
जीवंत अनुभव
की
अभिव्यक्ति पर
सारा
अस्तित्व
आह्लादित हो
उठे तो इसमें
कोई आश्चर्य
नहीं।
और
तब उन्होंने
यह गाथा कही—
न
तेन पंडितो
होति होति
यावता बहु
भासति।
खेमी
अवेरी अभसो
पंडितोति
पवुच्चति ।।
'बहुत भाषण
करने से कोई
पंडित नहीं
होता, बल्कि
जो क्षेमवान,
अवैरी और
निर्भय होता
है, वही
पंडित है'
यह
कथा बड़ी
प्यारी है।
पहले तो यह का
एकुदान क्षीणासव
था। क्षीणासव
बौद्धों का
पारिभाषिक
शब्द है, इसका
अर्थ होता है,
जिसके आसव
क्षीण हो गये।
चार आसव हैं।
पहला आसव
है—कामास्रव।
जिसके मन में
अब कामना नहीं
उठती, जिसके
मन में वासना
नहीं उठती, महत्वाकांक्षा नहीं
उठती; जो
अब ऐसा नहीं
सोचता, यह
कर लूं वह कर
लूं। जिसके मन
में करने का
रोग चला गया, तो पहला आसव
क्षीण हो गया।
जो अब बस है, करने की सुन
नहीं है।
तुम
देखते हो अपने
को,
जब भी बैठे,
करने की धुन
रहती—यह कर
लें, वह कर
लें। .कुछ तो
करके दिखा दें,
इतिहास में
नाम छोड़ जाएं।
ऐसे ही आए, ऐसे
ही न चले
जाएं। हम तो
चले जाएंगे
लेकिन नाम रह
जाएगा, कुछ
कर लें, कहीं
पत्थरों पर
खोद जाएं नाम।
हम तो मिट
जाएंगे, लेकिन
नाम रह जाए।
इसका नाम है, कामासव।
दूसरा
आसव है—भवासव।
भवों के लिए
कामना। स्वर्ग
मिल जाए, मोक्ष
मिल जाए, अच्छी
योनि मिल जाए
कम से कम।
जीवन मिले, लंबा जीवन
मिले, आयु
मिले, मैं
होता ही रहूं
सदा होता रहूं
यह हो जाऊं, वह हो जाऊं, इसका नाम
भवासव। कुछ
होते हैं जो
करने की धुन में
लगे रहते हैं—यह
कर लूं वह कर
लूं। कुछ होते
हैं जो होने की
धुन में लगे
रहते हैं कि
यह हो जाऊं, वह हो जाऊं।
यह दूसरा आसव
है। जिनका
भवासव गिर गया,
जिनकी होने
की धुन गिर
गयी, जो
कहते है—अब जो
हूं हूं; जैसा
हूं हूं जिनकी
जीवेषणा गिर
गयी, वे
क्षीणासव।
तीसरा आसव
है—दृष्टास्रव।
दृष्टिराग, शास्त्रराग,
सिद्धांतराग।
मैं हिंदू हूं?
मैं
मुसलमान हूं
मैं ईसाई हूं
मैं जैन हूं
मैं बौद्ध हूं
ऐसे जिनके राग
पैदा हो जाते
हैं। ऐसे राग
को बुद्ध कहते
हैं, दृष्टासव।
इनकी बुद्धि
निर्मल नहीं
रहती। इनकी
आंखों पर
पर्तें पड़
जाती हैं। फिर
अपने ही चश्मे
से ये दुनिया
को देखते हैं।
अगर उन्होंने
लाल चश्मा लगा
लिया तो सारी
दुनिया लाल
दिखायी पड़ती
है, ये
सोचते हैं कि
दुनिया लाल
है। जिनका
दृष्टासव भी
गिर गया, वे
क्षीणासव।
और
चौथा आसव
है—अविद्यास्रव।
मैं हूं मैं
आत्मा हूं यह
है
अविद्यासव।
यह बड़ी अनूठी
बात है। बुद्ध
कहते हैं, यह
मानना कि मैं
हूं अविद्या
के कारण है।
सर्व है, मैं
कहा? सागर
है, लहर
कहा? अलग—अलग
हम हैं ही
नहीं, बस
एक ही है।
अलग—अलग होने
का जो दावा
है—मेरी सीमा,
मेरी
परिभाषा, मैं
यह, मैं
वह—यह दावा
अविद्या है।
जिनके
ये चारों आसव
गिर गए हैं, उनके
लिए
पारिभाषिक
शब्द है, क्षीणासव।
तो यह एकुदान
नाम का बूढ़ा
भिक्षु क्षीणासव
था। इसके सब
आसव गिर गए
थे। यह परमदशा
है। अर्हत की
दशा है।
अर्हत
शब्द भी
महत्वपूर्ण
है। उसका अर्थ
होता है, जिसके
सब शत्रु गिर
गए। अरि का
अर्थ होता है
शत्रु, और
जिसके सब
शत्रु हत हो
गए अब बचे
नहीं। यही चार
शत्रु हैं। ये
शत्रु गिर गए
तो आदमी अर्हत
हो गया।
जैनों
में इसी के
लिए शब्द है, अरिहंत।
अर्हत के लिए
ही
पर्यायवाची
है।
ऐसे
यह के भिक्षु
थे,
यह जंगल में
अकेले रहते।
अब दूसरे की
कोई आकांक्षा
भी न थी। कोई आ
जाता कभी, रुक
जाता, ठीक।
कोई न आता, ठीक।
न यह कहीं
जाते, न
आते। लेकिन
नियम से रोज
उपदेश देते
थे। अकेले
होते तो भी।
कोई न होता तो
भी।
यह
भी बड़ी महत्व
की बात है।
ऐसे ही समझो
कि एकांत में
फूल खिला तो
सुगंध तो
बहेगी ही न, चाहे
कोई सुगंध
लेने वाला हो
या न हो, चाहे
कोई राहगीर
पास से गुजरे
कि न गुजरे।
कि अंधेरे में
दीया जला, रोशनी
तो फैलेगी ही
न, कोई हो
आंख वाला या न
हो आंख वाला।
मंदिर खाली ही
क्यों न हो, लेकिन दीया
जलेगा तो
रोशनी तो
फैलेगी ही न।
इसलिए उपदेश
फैलता था। यह
उपदेश सुगंध
जैसा था। यह
किसी के लिए
दिया गया, ऐसा
नहीं। यह हो
रहा था। जैसे
झरने बहते हैं,
फूल खिलते
हैं, दीया
जलता है, चांद—तारे
चलते हैं, ऐसी
यह सहज घटना
थी। इसका मतलब
तुम यह मत
समझना कि
इसमें कोई
मजबूरी थी, कि देना
पड़ता था। नहीं,
एकुदान
अपने को पाते
होंगे कि उनसे
कुछ बहा जा
रहा है। जो
मिला है, वह
बहता है। जो
जाना है, वह
बटता है।
महावीर
को जब पहली
दफा ज्ञान हुआ, तो
उनसे ज्ञान
झरा। बड़ी
प्यारी कथा
है। आदमी वहां
कोई भी न था, देवता ही थे,
तो देवताओं
ने सुना।
उन्होंने बड़ा
निनाद किया, उदघोष किया
धन्यवाद का।
बस बात खतम हो
गयी।
देवताओं
के साथ एक
खराबी है। वे
केवल धन्यवाद कर
सकते हैं, कुछ
कर नहीं सकते।
देवता एक अर्थ
में नपुंसक
हैं। इसलिए
सारे भारत के
मनीषियों ने
कहा है, मुक्ति
का द्वार
मनुष्य से
जाता है, देवताओं
से नहीं।
देवताओं को भी
फिर मनुष्य होना
पड़ता है, तभी
मुक्त हो सकते
हैं। देवता
कुछ कर नहीं
सकते, बातचीत
कर सकते हैं।
करने के लिए तो
देह चाहिए, उनके पास
देह नहीं है।
तुम
ऐसा ही समझो
कि तुम्हारा
मन ही तैर रहा
है आकाश में, बस
वही देवता है।
मन ही बचा। कर
कुछ नहीं सकते।
सोच बहुत सकते
हो, बोल
बहुत सकते हो,
लेकिन
करोगे कैसे? करने के लिए
देह का उपकरण
चाहिए।
पशु
नहीं कर सकते
हैं,
क्योंकि
उनके पास मन
नहीं है। और
देवता नहीं कर
सकते हैं, क्योंकि
उनके पास देह
नहीं है। केवल
मनुष्य कर
सकता है कुछ, क्योंकि
उसके पास मन, देह, दोनों
हैं। देवता
ऐसे हैं— भाप
ही भाप, इंजिन
नहीं है।
पशु—पक्षी ऐसे
हैं—इंजिन तो
है, भाप
नहीं है। आदमी
भर ऐसा है कि
इंजिन भी है, भाप भी है।
चल सकता है, कुछ हो सकता
है।
तो
महावीर की बात
देवताओं ने
सुनी, खूब
साधुवाद किया,
लेकिन बस
सन्नाटा हो
गया। तब
महावीर को
चलना पड़ा
बस्तियों की
तरफ, आदमी
खोजने पड़े।
क्योंकि
देवता सुनते
रहेंगे, साधुवाद
करते रहेंगे,
और तो कुछ
होगा नहीं।
यह
एकुदान जंगल में
रहते थे, इनसे
उपदेश झरता
होगा। किया
उपदेश, ऐसा
कहना ठीक नहीं,
झरा उपदेश,
ऐसा ही कहना
ठीक है। जैन
ठीक कहते हैं,
वे कहते हैं,
महावीर से
वाणी झरी।
बोले, ऐसा
कहना ठीक नहीं,
बोलने में
तो वासना आ
जाती है, झरी,
घटी।
और
वही उपदेश
रोज—रोज था।
अब बेला
खिलेगा तो बेले
की ही गंध
निकलेगी न, और
गुलाब खिलेगा
तो गुलाब की
ही गंध
निकलेगी। अब
तुम यह थोड़े
ही कहोगे कि
रोज—रोज गुलाब
गुलाब की ही
गंध दिए जा
रहा है, और
बेला रोज—रोज
बेले का ही
संचरण किए जा
रहा है। वही
तो होगा न जो
घटा है। तो एक
ही तो सार था, वही सार
निनादित होता रहता
था। वे रोज
वही कहते थे
और जंगल पूरा
गुंजित हो
जाता था।
देवता
साधुवाद देते
थे। देवता
कहते, साधु—साधु!
सुंदर!
श्रेष्ठ!
सत्य!
फिर
आए ये दो
पंडित, जिन्हें
बुद्ध के सारे
वचन याद थे।
बड़े पंडित थे,
इनके
पांच—पांच सौ
शिष्य थे। वे
तो समझे कि यह का
पागल हो गए है।
पंडित तो सदा
से यही समझा
है कि
समाधिस्थ जो
है वह पागल हो
गया है। पंडित
को तो समझ में
ही नहीं आती
है बात हृदय
की। पंडित को
तो केवल शब्द
ही समझ में
आते हैं, शांति
समझ में नहीं
आती। पंडित को
सिद्धांत समझ
में आते हैं, समाधि समझ
में नहीं आती।
तो वे हंसे, एक—दूसरे की
तरफ देखकर
मुस्कुराए कि
यह का, इसका
दिमाग गडबड़ हो
गया है। एक तो
अकेले में ही
रहता है और
कहता है, मैं
उपदेश करता
हूं अकेले में
किसको उपदेश!
दूसरी बात, कह रहा है कि
देवता
साधुवाद करते
हैं, कहा
के देवता! सब
बातचीत है।
निश्चित ही यह
बेचारा
विक्षिप्त हो
गया, अकेले
में रहते—रहते
पगला गया है।
लेकिन
उस के ने कहा, आप
आ गए तो भला
हुआ। मेरा एक
ही उपदेश
सुनते—सुनते
देवता थक भी
गए होंगे। आप
कुछ उपदेश
करें, मैं
भी सुन लूंगा,
देवता भी
सुन लेंगे।
उन्होंने
उपदेश किया भी,
शास्त्र—सम्मत,
ठीक—ठीक
जैसा होना
चाहिए। लेकिन
ठीक—ठीक
पर्याप्त
थोड़े ही है।
तुम बिलकुल
दोहरा दो मशीन
की तरह बुद्ध
के वचन, लेकिन
अगर बुद्धत्व
तुम्हारे
भीतर फलित न
हुआ हो, तो
तुम्हारी
वाणी
निर्वीर्य
होगी, निष्प्राण
होगी।
देवता
चुप रहे। कोई
निनाद न हुआ, कोई
उदघोषणा न
हुई। तब उस के
ने उपदेश किया,
झिझकते—झिझकते,
संकोच से
भरे हुए। बड़ा
परेशान हुआ
होगा का कि क्या
हुआ? मुझ
अज्ञानी की
बात सुनकर
देवता
साधुवाद करते
हैं, इन
ज्ञानियों की
बात सुनकर
साधुवाद न
किया! तो
झिझका होगा।
लेकिन जब उसने
अपना वही
संक्षिप्त सा
उपदेश
दोहराया, तो
साधुवाद का
झंकार उठा।
सारा जंगल मन—प्राण
से साधुवाद कर
उठा।
पंडित
की भांति
देखो। पहले
सोचा, यह का
पागल। अब बात
तो बदल दी, अब
तो यह बात समझ
में आ गयी कि
देवता भी हैं,
तो अब देवता
पागल! क्योंकि
इस के की बात
में क्या रखा
है। फिर भी
पंडितों को न
दिखायी पड़ा—पंडित
का अंधापन बड़ा
गहरा होता
है—फिर भी
उन्हें न
दिखायी पड़ा कि
जब इतना विराट
उदघोष उठा है,
तो जरूर इस
बात में कुछ
होगा, जो
हमारी समझ में
नहीं आ रहा
है। बात
सीधी—सादी थी।
कुछ बड़ी गहरी
न थी। लेकिन
बात की गहराई
बात में थोड़े
ही होती है, बात की
गहराई अनुभव
में होती है।
वे
दोनों तो चुप
ही रहे। लौटकर
उन्होंने
बुद्ध को यह
बात भी न
बतायी, क्योंकि
यह तो उनके
अहंकार का
खंडन होता।
लेकिन उनके
शिष्यों ने
बुद्ध को कहा।
तो
बुद्ध ने कहा, सत्य
शास्त्र में
नहीं, सत्य
शब्द में नहीं,
सत्य
तथाकथित
बौद्धिक
ज्ञान में
नहीं; सत्य
है अनुभव, अनुभूति।
जिसने समाधि
जानी, उसने
सत्य जाना। और
समाधि से जो
सुगंध उठती है,
उस सुगंध
में अगर जगत
आंदोलित हो
उठे, उत्सव
से भर जाए, तो
इसमें कुछ भी
आश्चर्य नहीं
है।
वही
उपदेश था, एकुदान
ने जो उपदेश
किया, वही
उपदेश था। इन
पंडितों ने जो
कहा, वह तो
व्यर्थ की
बकवास थी।
इसे
स्मरण रखना।
जब तक तुम्हारी
समाधि न पके
तब तक तुम जो
भी कहोगे, वह
बातचीत ही
बातचीत है।
इसलिए सारी
शक्ति समाधि
के पकने में
लगाना। सारी
शक्ति, सारी
ऊर्जा एक ही
बात पर दाव पर
लगा देनी है
कि तुम्हारे
भीतर अनुभव
घटित हो जाए।
ईश्वर—ईश्वर
की गुहार न
मचाओ, आत्मा—आत्मा
के शब्द मत
दोहराओ, कुछ
जीओ, कुछ
जानो। किसी
दिन ऐसा हो
सके कि तुम
क्षीणासव हो
जाओ और
तुम्हारे
भीतर से सत्य
का सहज उदघोष
उठे।
तब
बुद्ध ने कहा, बहुत
भाषण करने से
कोई पंडित
नहीं, बल्कि
जो क्षेमवान
है, जिसके
भीतर अवैर है,
निर्भय है
जो, और
जिसके भीतर
क्षमा है, और
जिसके भीतर
धैर्य है।
ये
सब समाधि की
छायाएं हैं।
समाधि के आते
ही धैर्य आ
जाता है, अनंत
धैर्य धर्म
तुम हो आ जाता
है, कोई
तडूफन नहीं रह
जाती। कुछ हो,
ऐसी वासना
नहीं रह जाती।
जो होता है, ठीक होता है;
और जो होता,
समय पर होता
है। कोई चीज
गैर—समय पर
नहीं होती। सब
चीजें अपने
समय पर होती
हैं। जब बसंत
आता, फूल
खिल जाते हैं,
जब ऋतु पकती,
वृक्ष फलों
से लद जाते।
सब समय पर
होता है। अधेर्य
क्या है? अधैर्य
करने की जरूरत
क्या है? समय
के अन्यथा कभी
कुछ होता
नहीं। सब अपने
समय पर होता
है। सब जैसा
हो रहा है, ठीक
ही हो रहा है, ऐसी प्रतीति
का नाम धैर्य
है। तो ऐसे
व्यक्ति में
बड़ी क्षमता पैदा
हो जाती है।
अपूर्व झील बन
जाता है ऐसा
व्यक्ति।
उसमें लहर
नहीं उठती
तनाव की।
और
अवैर। किससे
वैर?
यहां सब एक
ही का वास है।
यहां एक ही का
निवास है। ये
एक ही की
तरंगें हैं।
तो किससे वैर,
कोई दूसरा
नहीं है। और
निर्भय। जब
वैर नहीं और
दूसरा नहीं, तो फिर भय
कैसा! ऐसी दशा
में ही कोई
व्यक्ति पंडित
कहलाता है।
यह
बुद्ध की
पंडित की नयी
परिभाषा।
इसमें न तो
वेद के जानने
से पांडित्य
को कहा, न
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होने से
पांडित्य को
कहा, समाधिस्थ
होने से
पांडित्य को
कहा। पंडित
शब्द का मौलिक
अर्थ यही है, प्रज्ञावान।
जिसकी
प्रज्ञा जाग
गयी हो। समाधि
में ही जगती
है प्रज्ञा।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो—कथा
यात्रा
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