दिनांंक 2 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न सार:
प्रश्न सार:
1—बुद्ध
पुरुष
दैनंदिन जीवन
में
समग्ररूपेण
कैसे भाग लेते
हैं?
2—तामसिक, राजसिक
और सात्विक व्यक्तियों
के लिए——कौन सी
ध्यान
विधियां
अनुकूल होती है? आप हमेशा
सक्रिय ध्यान की
विधि ही क्यों
देते हैं?
3—बुद्धत्व
व्यक्तिगत
है, तो क्या
बुद्धत्व के
बाद भी व्यक्तित्व
बना रहता है?
4—हम कहां
से आए और
हमारा होना
कैसे घटित हुआ?
5—आपने
मुझे भ्रमित, सुस्त
और पागल जैसा
बना दिया है।
अब मैं
श्रद्धा भी
अनुभव नहीं
करता। मैं क्या
करूं? कहां
जाऊं?
6—कई बार
स्नान करने
और कपड़े
बदलने की आदत
के बारे में कुछ
कहें।
7—आप निरंतर
ताओत्सु पर
ही क्यों
नहीं बोलते
रहते?
8—क्या
वर्नर
एरहार्ड
बुद्धत्व के
निकट है?
पहला
प्रश्न :
बुद्ध पुरुष
दैनंदिन जीवन
में समग्ररूपेण
कैसे भाग लेते
हैं?
कैसे' की इसमें
कोई बात ही
नहीं है। जब
तुम होशपूर्ण
होते हो तो 'कैसे' की
कोई जरूरत
नहीं रहती। जब
तुम जागे हुए
होते हो तो
तुम सहज—स्फूर्त
रूप से जीते
हो, किसी
योजना को मन
में नहीं रखते,
क्योंकि अब
मन ही नहीं
होता। बुद्ध
पुरुष क्षण—
क्षण
प्रतिसंवेदन
करते हैं—जैसी
स्थिति होती
है। कोई योजना
नहीं, 'कैसे
करें'—इसकी
कोई धारणा
नहीं, कोई
विधि नहीं, वे केवल
प्रतिसंवेदन
करते हैं।
उनका
प्रतिसंवेदन
किसी अनुगूंज
की भांति होता
है। तुम पहाड़
पर जाते हो, तुम आवाज
करते हो, और
पहाड़ियां उसे
गुंजा देती
हैं। क्यों? तुमने कभी
सोचा कि
पहाड़ियां
कैसे गूंजती
हैं? वे
प्रतिसंवेदित
होती हैं। जब
तुम सितार
बजाते हो तो
क्या सितार के
पास कोई 'कैसे'
जैसी बात
होती है? तुम्हारे
मन में कोई
विधि और कई
बातें हो सकती
है—कि क्या
बजाना है, क्या
गाना है—लेकिन
सितार? वह
तो बस
प्रतिसंवेदित
करता है
तुम्हारी अंगुलियों
को।
एक
बुद्ध पुरुष
होता है शून्य, खाली। तुम
आते हो उसके
पास; वह
प्रतिसंवेदन
करता है। इस 'प्रतिसंवेदन'
शब्द को
स्मरण रखना।
यह
प्रतिक्रिया
नहीं है; यह
प्रतिसंवेदन
है। जब तुम
प्रतिक्रिया
करते हो तो
तुम्हारे मन में
विचार रहता है—कैसे,
क्या! जब
तुम
प्रतिक्रिया
करते हो तो वह
किसी पूर्व—निर्धारित
धारणा से
निकलती है। जब
तुम किसी
बुद्ध पुरुष
के पास जाते
हो, तो वे
किसी पूर्व—निर्धारित
धारणा से
उत्तर नहीं
देते, उनके
पास कोई धारणा
होतीं ही नहीं।
उनमें कोई
पूर्वाग्रह
नहीं होता, कोई धारणा
नहीं होती, कोई वैचारिक
सिद्धात नहीं
होते। वे
प्रतिसंवेदित
होते हैं। वे
उस परिस्थिति
के प्रति
प्रतिसंवेदन
करते हैं।
एक दिन
एक आदमी बुद्ध
के पास आया और
उसने पूछा, 'क्या
ईश्वर है?' बुद्ध
ने उसकी ओर
देखा और कहा, 'नहीं।’ और
उसी दिन दोपहर
को एक दूसरा
आदमी आया।
उसने पूछा, 'क्या ईश्वर
है?' बुद्ध
ने उसके भीतर
झांका और कहा,
'ही।’ और
उसी दिन सांझ
एक तीसरा आदमी
आया। उसने
पूछा, 'क्या
ईश्वर है?' और
बुद्ध मौन रहे,
उन्होंने
कोई उत्तर
नहीं दिया।
यदि
उनके मन में
कोई
निर्धारित
दृष्टि रही होती, तो उत्तर
में एक संगति
होती, क्योंकि
वह स्थिति के
प्रति
प्रतिसंवेदन
नहीं होता, वह सदा मन की
धारणा से आता;
वह बिलकुल
संगत होता।
यदि वे
नास्तिक होते,
उनका ईश्वर
में कोई
विश्वास न
होता, तो
प्रश्नकर्ता
कोई भी हो
उससे कुछ
अंतर न
पड़ता। असल में
बंधी—बधाई
धारणा रखने
वाला व्यक्ति
कभी तुमको नहीं
देखता, परिस्थिति
को नहीं देखता।
उसके पास एक
जड़ विचार होता
है, सच
पूछा जाए तो
उसे अपनी ही
धुन होती है।
बुद्ध ने
तीनों
आदमियों से कह
दिया होता, 'नहीं' —यदि
वे नास्तिक
होते। यदि वे
आस्तिक होते
तो उन्होंने
तीनों आदमियों
से कह दिया
होता, 'ही।’
असल में जब
तुम्हारे पास
कोई निश्चित
धारणा होती है,
कोई
दृष्टिकोण
होता है, कोई
पूर्वाग्रह, कोई बंधा
हुआ ढांचा
होता है—मन
होता है —तो
व्यक्ति, वह
जीवंत स्थिति
अप्रासंगिक
हो जाती है; तब तुम
परिस्थिति की
ओर नहीं देखते।
अन्यथा
प्रतिसंवेदन
बिलकुल ही अलग
होंगे। एक गहन
आंतरिक संगति
होगी—अस्तित्व
की संगति, उत्तरों
की नहीं।
बुद्ध वही हैं
जब उन्होंने कहा
नहीं। बुद्ध
वही हैं जब
उन्होंने कहा
ही। बुद्ध वही
हैं जब
उन्होंने कुछ
नहीं कहा और
चुप रह गए।
लेकिन
स्थितियां
भिन्न—भिन्न
थीं।
इन
तीनों
स्थितियों
में बुद्ध का
शिष्य आनंद उपस्थित
था। वह उलझन
में पड़ गया।
वे तीनों आदमी
कुछ जानते न
थे उन दो
उत्तरों के
विषय में जो
बुद्ध ने दिए
थे, लेकिन
आनंद मौजूद था
तीनों ही
स्थितियों
में। जब रात
को बुद्ध
शय्या पर
विश्राम के
लिए लेटने
वाले थे तो
आनंद ने कहा, 'एक प्रश्न
है। आपने एक
ही प्रश्न का
उत्तर तीन ढंग
से क्यों दिया—परस्पर
विरोधी ढंग से,
विरोधाभासी
ढंग से?'
बुद्ध
ने कहा, 'मैंने
तुम्हें कोई
उत्तर नहीं
दिया—तुम
चिंता मत करो।
तुम अपना
प्रश्न पूछ
सकते हो और
मैं तुम्हें उत्तर
दूंगा। वे
उत्तर
तुम्हें नहीं
दिए गए थे।
तुम बीच में
क्यों आए?'
उत्तर
स्थिति के
अनुकूल दिया
जाता है। जब
स्थिति बदल
जाती है, उत्तर बदल
जाता है। यह
एक प्रतिसंवेदन
है।
बुद्ध
ने कहा, 'वह पहला
पूछने वाला
आदमी नास्तिक
था। वस्तुत:
वह जिज्ञासु
था ही नहीं।
जब मैंने उसे
देखा तो उसके
पास एक
निश्चित धारणा
थी—वह पहले से
ही तय कर चुका
था, निष्कर्ष
पर पहुंच चुका
था। एक
निष्कर्ष था
उसके पास कि
कहीं कोई
ईश्वर नहीं है।
वह आया था
केवल मुझसे
पुष्टि पाने
के लिए, ताकि
वह कह सके
लोगों से कि
बुद्ध का भी
विश्वास वही
है जो मेरा
विश्वास है :
कि कहीं कोई
ईश्वर नहीं है।
इसलिए मुझे
उसे नहीं कहना
पड़ा।
'जो
आदमी दोपहर को
आया, वह भी
एक निष्कर्ष
लिए आया था।
वह आस्तिक था,
पक्का
परंपरागत आस्तिक—उसका
विश्वास था कि
ईश्वर है। वह
भी उसी मतलब
से आया था, मेरा
समर्थन पाना
चाहता था।
'तीसरा आदमी
जो आया, वह
बिना किसी
धारणा के आया
था, उसका
कोई निष्कर्ष
नहीं था। वह
जिज्ञासु था।
वह किसी बात
में विश्वास
नहीं रखता था :
वह किसी भी
निष्कर्ष पर
नहीं पहुंचा
था। वह रास्ते
पर था; वह
शुद्ध था।
मुझे उसके साथ
मौन ही रहना
पड़ा। अब, यदि
तुम्हारे पास
भी वही प्रश्न
है, तो तुम
पूछ सकते हो।’
प्रतिसंवेदन
सदा ही अलग
होगा, और
फिर भी गहरे
तल पर अंतस सत्ता
की एक अनवरत
धारा उससे
बहती होगी।
बुद्ध पुरुष
सदा व्यक्ति
में, स्थिति
में झांकते
हैं। स्थिति
ही निर्णय
लेती है, न
कि बुद्ध
पुरुष का मन; उनके पास मन
होता ही नहीं।
तो तुम
पूछते हो, 'बुद्ध
पुरुष
दैनंदिन जीवन
में
समग्ररूपेण कैसे
भाग लेते हैं?
यदि
तुम कोशिश
करते हो समग्र
रूप से भाग
लेने की, तो वह समग्र
न होगा : कोई
प्रयास कभी भी
समग्र नहीं हो
सकता। कोई
विधि, कोई
तरकीब कभी
समग्र नहीं हो
सकती, क्योंकि
तुम करने वाले
होओगे, तुम
तो उससे अलग
रह जाओगे। तुम
समग्र होने की
कोशिश कर रहे
होओगे। तुम
कोशिश कैसे कर
सकते हो समग्र
होने की? तुम
विश्रांत हो
जाओ, केवल
तभी समग्रता
पैदा होती है।
तुम प्रवाह के
साथ बहो, तभी
तुम समग्र
होते हो।
समग्रता
कोई अनुशासन
नहीं है। सारे
अनुशासन आशिक
होते हैं।
इसलिए जो आदमी
बहुत ज्यादा
अनुशासित
होता है, वह कभी नहीं
पहुंच पाएगा
सत्य तक, क्योंकि
वह सदा बोझ
लिए रहेगा—निरंतर
कुछ न कुछ
करते हुए.
स्थूल या
सूक्ष्म, सतह
पर या गहराई
में, लेकिन
रहेगा वह सदा
कर्ता ही।
नहीं, बुद्ध
पुरुष कर्ता
नहीं हैं। असल
में जब तुम
विश्रांति
में होते हो, तब होने का
दूसरा कोई ढंग
ही नहीं बचता—एकमात्र
जो ढंग बचता
है, वह है
समग्र रूप से
सहभागी होने
का। उसमें कोई
'कैसे' नहीं
होता। लेकिन
तुम्हारे मन
में प्रश्न
उठता है, क्योंकि
तुम जानते
नहीं कि सजगता
क्या है। यह
ऐसे ही है
जैसे कोई अंधा
आदमी पूछे, 'जिन लोगों
के पास आंखें
हैं, वे
हाथ में लकड़ी
लिए बिना कैसे
ढूंढ लेते हैं
अपना रास्ता?'
यदि तुम
उससे कहो कि
उन्हें कोई
जरूरत नहीं किसी
लकड़ी की, कि
उन्हें कोई
जरूरत नहीं
ढूंढने की, तो वह
विश्वास न कर
पाएगा। वह
हंसेगा। वह
कहेगा, 'तुम
मजाक कर रहे
हो। यह कैसे
संभव हो सकता
है? क्या
आप यह कहना
चाहते हो कि आंख
वाले लोग बिना
टटोले ही चलते—फिरते
हैं?' अंधा
आदमी इसे नहीं
समझ सकता है।
उसके पास इसका
कोई अनुभव
नहीं है। वह
सदा टटोलता ही
रहा है और तब
भी बार—बार
ठोकर खाता रहा
है और गिरता
रहा है। वह
किसी भांति
सँभले रहने की
कोशिश करता
रहा है। बुद्ध
पुरुष
संभालते नहीं
हैं। वे अपने
को छोड़ देते
हैं, और हर
चीज अपने आप
ही ठीक होती
है।
दूसरा
प्रश्न:
कृपया
समझाएं कि
तामसिक
राजसिक और
सात्विक व्यक्तियों
के लिए ध्यान
की कौन— कौन सी
विधियां अलग—
अलग रूप से
अनुकूल होती
हैं। आप हमेशा
सक्रिय ध्यान
की विधि ही
क्यों देते
हैं?
सक्रिय
विधि असल में
बड़ी अदभुत
विधि है। यह
किसी खास
प्रकार के
व्यक्ति से
संबंधित नहीं
है; यह
सभी की मदद कर
सकती है। जो
आदमी तमस से, आलस्य से, निष्कि्रयता
से भरा है, यह
उसे बाहर ले
आएगी उसके तमस
से। यह उसमें
इतनी अधिक
ऊर्जा भर देगी
कि तमस टूट जाएगा;
सारा न भी
टूटे, तो
भी उसका एक
हिस्सा तो
टूटेगा ही।
यदि तामसी
व्यक्ति इसे
कर सके तो यह
बहुत चमत्कार
कर सकती है, क्योंकि
तामसी आदमी
में असल में
ऊर्जा का अभाव
नहीं होता।
ऊर्जा तो होती
है, लेकिन
सक्रिय
स्थिति में
नहीं होती, सक्रिय दशा
में नहीं होती।
ऊर्जा गहरी
नींद में पड़ी
होती है।
सक्रिय ध्यान
एक अलार्म की
भांति काम, कर सकता है :
वह निष्क्रियता
को सक्रियता
में बदल सकता
है; वह
ऊर्जा को
गतिशील कर
सकता है; वह
तामसी
व्यक्ति को
तमस के बाहर
ला सकता है।
दूसरे
प्रकार का
व्यक्ति, राजसिक
प्रकार का, जो कि बहुत
सक्रिय होता
है—असल में
जरूरत से
ज्यादा
सक्रिय होता
है, उसके
भीतर इतनी
ऊर्जा होती है
कि उसे सूझता
नहीं कि वह
क्या करे, एक
ऊर्जा का
उफनता आवेग
होता है—सक्रिय
विधि उसे मदद
देगी निर्भार
होने में, हलके
होने में।
सक्रिय विधि
के बाद वह
निर्भार
अनुभव करेगा।
और जीवन में
सक्रियता के
लिए जो उसकी
उत्तेजना है,
निरंतर पागलपन
है, वह
धीमा पड़ जाएगा।
व्यस्त रहने
की उसकी दौड़
तिरोहित हो
जाएगी।
निश्चित
ही, उसे
तमस में जीने
वाले व्यक्ति
से ज्यादा लाभ
मिलेगा, क्योंकि
तामसिक
व्यक्ति को तो
पहले सक्रिय बनाना
पड़ता है। वह
सीढ़ी के
निम्नतम तल पर
जीता है।
लेकिन एक बार
वह सक्रिय हो
जाए, तो सब
संभव हो जाता
है। एक बार वह
सक्रिय हो जाए,
तो वह दूसरे
प्रकार का हो
जाएगा; अब
वह राजसिक हो
जाएगा।
और
सात्विक आदमी
को सक्रिय
ध्यान बहुत
सहायता देता
है। वह जड़ता
में नहीं जीता; उसकी
ऊर्जा को ऊपर
लाने की कोई
जरूरत ही नहीं
होती। वह
पागलपन की हद
तक सक्रिय भी
नहीं होता, तो किसी
कैथार्सिस की,
किसी रेचन
की कोई जरूरत
नहीं होती
उसको। वह
संतुलित होता
है, दूसरे
दोनों
प्रकारों से
कहीं ज्यादा
शुद्ध, दूसरे
दोनों
प्रकारों से
ज्यादा
प्रसन्न, दूसरे
दोनों
प्रकारों से
ज्यादा हल्का।
तो सक्रिय
ध्यान उसकी
मदद कैसे
करेगा? वह
उत्सव बन
जाएगा उसके
लिए। वह बस बन
जाएगा एक गीत,
एक नृत्य, समग्र के
साथ एक
सहभागिता। सब
से ज्यादा लाभ
उसे ही मिलेगा।
यही है
जीवन का
विरोधाभास।
जीसस कहते हैं, 'जिनके
पास है, उन्हें
और मिलेगा; और जिनके
पास नहीं है, उनसे वह भी
ले लिया जाएगा
जो उनके पास
है।’ तामसी
व्यक्ति को
ज्यादा दिए
जाने की जरूरत
है, लेकिन
उसे ज्यादा
दिया नहीं जा
सकता, क्योंकि
उसकी ग्रहण
करने की
क्षमता नहीं
है। सक्रिय
ध्यान, अधिक
से अधिक, उसे
उसके तमस के
बाहर सीढ़ी के
दूसरे तल तक
ले आएगा; और
वह भी इस शर्त
के साथ कि वह
सम्मिलित हो।
लेकिन इतनी
सक्रियता भी
उसके लिए कठिन
हो जाती है कि
वह सम्मिलित
होने का
निर्णय ले।
ऐसे
लोग आते हैं
मेरे पास—उनके
चेहरों से तुम
समझ सकते हो
कि वे गहरी नींद
में सोए हैं, गहन
निद्रा में
पड़े हैं—और वे
कहते हैं, 'हमें
नहीं चाहिए ये
सक्रिय
विधियां, हमें
कोई शांत ढंग
बताइए।’ वे
शाति की बात
करते हैं। वे
कोई ऐसा ढंग
चाहते हैं
जिसे वे
बिस्तर पर लेटे
हुए ही कर
सकें! या
ज्यादा से
ज्यादा वे बड़े
प्रयास से बैठ
सकते हैं। वह
भी पक्का नहीं
है कि वे बैठ
सकेंगे। फिर
सक्रिय ध्यान
तो उन्हें
बहुत ज्यादा
सक्रिय मालूम
पड़ता है। यदि
वे पूरी तरह
सम्मिलित
होते हैं तो
उन्हें मदद
मिलेगी; निश्चित
ही दूसरे
प्रकार के
लोगों जितनी
तो न मिलेगी, क्योंकि
दूसरे प्रकार
का आदमी तो
पहले से ही जी
रहा होता है
दूसरे तल पर।
उसमें पहले से
ही कुछ बात
होती है; उसे
ज्यादा मदद
मिलेगी। वह इस
विधि के
द्वारा
विश्रामपूर्ण
होगा, हल्का
होगा, निर्भार
होगा। धीरे—
धीरे वह सरकना
शुरू कर देगा
प्रथम तल की
ओर, उच्चतम
की ओर।
सात्विक
व्यक्ति, जो निर्मल
है, निर्दोष
है, सब से
ज्यादा मदद
पाएगा। उसके
पास बहुत कुछ
है, उसकी
मदद की जा
सकती है।
प्रकृति का नियम
करीब—करीब
बैंक जैसा है.
यदि तुम्हारे
पास धन नहीं है,
तो वे नहीं
देंगे। यदि
तुम्हें
जरूरत है धन
की तो वे
हजारों शर्तें
खड़ी कर देंगे,
यदि
तुम्हें
जरूरत नहीं है
धन की तो वे
तुम्हें देने
के लिए आतुर
होंगे। यदि
तुम्हारे पास
अपना ही काफी
है तो वे जितना
तुम चाहो उतना
देने के लिए
सदा तैयार
रहते हैं।
प्रकृति का
नियम ठीक इसी
तरह का है :
तुम्हें ज्यादा
दिया जाता है
जब तुम्हें
जरूरत नहीं होती।
तुम्हें कम
दिया जाता है,
जब तुम्हें
जरूरत होती है।
अस्तित्व
ले लेता है
यदि तुम्हारे
पास कुछ नहीं
होता, और
अस्तित्व
हजार—हजार ढंग
से दे देता है
यदि तुम्हारे
पास कुछ होता है।
ऊपर—ऊपर
से तो ऐसा
लगता है जैसे
कि यह
विरोधाभासी हो—गरीब
को तो ज्यादा
मिलना चाहिए।’गरीब' से
मेरा मतलब है
तामसिक
व्यक्ति।
संपन्न
व्यक्ति को, सात्विक
व्यक्ति को तो
बिलकुल दिया
ही नहीं जाना
चाहिए। लेकिन
नहीं, जब
तुम्हारे पास
एक निश्चित
समृद्धि होती
है तो तुम
ज्यादा
समृद्धि को
अपनी ओर
खींचने के लिए
चुंबकीय
शक्ति बन जाते
हो। गरीब आदमी
दूर हटाता है;
वह समृद्धि
को आने नहीं
देता अपने पास।
गहरे तल पर, गरीब
व्यक्ति
इसलिए गरीब
होता है, क्योंकि
वह समृद्धि को
आकर्षित नहीं करता।
उसके पास कोई
चुंबकीय
आकर्षण नहीं
समृद्धि को
अपनी तरफ
आकर्षित करने
के लिए; इसीलिए
वह गरीब होता
है। किसी ने
उसे गरीब
बनाया नहीं है।
वह गरीब है, क्योंकि वह
आकर्षित नहीं
करता; उसके
पास चुंबकीय
आकर्षण नहीं
है।
ये
सीधे—साफ
आर्थिक नियम
हैं कि यदि
तुम्हारी जेब
में कुछ रुपए
हों, तो
वे रुपए दूसरे
रुपयों को
तुम्हारी जेब
में खींच
लेंगे। यदि
तुम्हारी जेब
खाली है तो
जेब भी खो
जाएगी, क्योंकि
कोई दूसरी जेब
जिसमें काफी
ज्यादा है, तुम्हारी
जेब को
आकर्षित कर
लेगी। तुम जेब
भी खो दोगे।
जितने ज्यादा
तुम समृद्ध
होते हो उतने
ही और ज्यादा
समृद्ध तुम
बनते जाते हो।
तो मूल
आवश्यकता
तुम्हारे
भीतर कुछ होने
की है।
तामसिक
व्यक्ति के
पास कुछ नहीं
होता। वह तो
बस एक मिट्टी
का लोंदा होता
है। वह
निष्किय जीवन
जीता है।
राजसिक आदमी
मिट्टी का
लोंदा नहीं
होता; वह
एक सक्रिय
ऊर्जा होता है।
तेज सक्रिय
ऊर्जा के साथ
बहुत संभावना
होती है। असल
में ऊर्जा के
सक्रिय हुए
बिना किसी चीज
की संभावना
नहीं होती।
लेकिन फिर
उसकी ऊर्जा
पागलपन बन
जाती है—वह
अति पर चली
जाती है। बहुत
ज्यादा
सक्रिय होने
के कारण वह
बहुत कुछ खो
देता है। बहुत
ज्यादा
सक्रिय होने
के कारण वह
नहीं जानता कि
क्या करे और
क्या न करे।
वह कुछ न कुछ
करता ही रहता
है। वह उलटी
बातें किए चला
जाता है : एक
हाथ से वह कुछ
करेगा, दूसरे
हाथ से उसे
अनकिया कर
देगा। वह करीब—करीब
पागल होता है।
सदा स्मरण रहे
कि पहले
प्रकार का
व्यक्ति, तामसिक
व्यक्ति, कभी
पागल नहीं
होता। इसीलिए
पूरब में
पागलपन
ज्यादा नहीं
फैला है।
तुम्हें बहुत
ज्यादा
मनोविश्लेषण
की आवश्यकता
नहीं है, तुम्हें
बहुत ज्यादा
पागलखानों की
आवश्यकता
नहीं है। नहीं,
पूरब में
लोग मिट्टी के
लोंदों की
भांति हैं, कैसे तुम
पागल हो सकते
हो? तामसिक
में पागलपन की
संभावना ही
नहीं होती।
तुम कुछ करते
ही नहीं कि
पागल होओ।
पश्चिम
में पागलपन
करीब—करीब
सामान्य बात
हो गई है। अब
केवल मात्रा
का ही अंतर है
सामान्य और
असामान्य
लोगों के बीच।
जो पागलखाने
के भीतर हैं
और जो
पागलखाने के बाहर
हैं, वे
सभी एक ही नाव
में सवार हैं—सिर्फ
मात्रा का
अंतर है। और
हर कोई सीमा
पर खड़ा है. जरा
सा धक्का, और
तुम भीतर हो
जाओगे। कोई भी
चीज गलत हो
सकती है—और
हजारों बातें
हैं तुम्हारे
जीवन में। कोई
भी चीज गलत हो
सकती है, और
तुम भीतर हो
जाओगे।
पश्चिम
राजसिक है—बहुत
ज्यादा गति है।
गति ही लक्ष्य
है. चलते रहो, कुछ न कुछ
करते रहो। और
अब तक कोई ऐसा
समाज नहीं बना
जो सात्विक व्यक्तियों
का हो, अब
तक ऐसा संभव
नहीं हुआ।
भारत
का दावा है, पूरब का
दावा है कि वे
सात्विक लोग
हैं। वे
सात्विक नहीं
हैं; वे
तामसिक हैं।
बहुत कम, कभी—कभार
कोई बुद्ध
होते हैं या
कोई कृष्ण
होते हैं—उससे
कुछ सिद्ध
नहीं होता। वे
अपवाद हैं; वे सिर्फ
नियम को सिद्ध
करते हैं।
पूरब तामसिक
है—बहुत धीमी
गति है, बिलकुल
जड़, गतिहीन।
मैं
अपने गांव
जाता था। तो
मैं वर्षों के
बाद जाता और
हर चीज लगभग
वही होती।
स्टेशन पर
मुझे वही कुली
मिलता, क्योंकि एक
ही कुली है वहां।
वह का होता जा
रहा है, पर
है वही आदमी।
मुझे वही
तांगे वाला
मिलता, क्योंकि
बहुत थोड़े
तांगे हैं
वहां, और
उनमें से एक
सदा मुझ पर
अधिकार
दिखाता, कि
मैं उसकी
सवारी हूं। और
वह बहुत मजबूत
आदमी है, इसलिए
कोई लड़ नहीं
सकता उससे, तो वह पकड़
लेता मुझे और
जबरदस्ती बिठा
देता मुझे
अपने तांगे
में। और फिर
वही चीजें
सामने आती चली
जातीं, जैसे
कि मैं स्मृति
में यात्रा कर
' रहा हूं
वास्तविक
संसार में
नहीं। मुझे
वही—वही आदमी
सड़क पर मिलते।
कई बार कोई मर
गया होता और
वही बहुत बड़ी
खबर होती।
अन्यथा, संसार
चलता वर्तुल
में : वही सब्जी
वाला होता, वही दूध
वाला होता—हर
चीज वही! लगभग
स्थिर ही।
पश्चिम
में कोई चीज
स्थिर नहीं है, और हर चीज
नया समाचार है।
तुम कुछ समय
बाद घर लौटो—हर
चीज बदल गई
होती है। हो
सकता है
तुम्हारी मां
तुम्हारे
पिता को तलाक
दे चुकी हो, हो सकता है
तुम्हारा
पिता किसी दूसरी
स्त्री के साथ
भाग गया हो; घर जैसा
वहां कोई घर
नहीं होता—परिवार
का कोई
अस्तित्व ही
नहीं है!
मैं
अमरीकी ढंग के
जीवन के विषय
से संबंधित एक
लेख पढ़ रहा था।
लगभग हर आदमी
अपना काम बदल
लेता है तीन
वर्षों में; अपना शहर
भी बदल लेता
है तीन वर्षों
में। हर चीज
बदलती रहती है।
और लोग जल्दी
में हैं। और
लोग ज्यादा से
ज्यादा तेज
दौड़ रहे हैं।
और कोई फिक्र
नहीं करता कि
कहां जा रहे
हो तुम।
और
सात्विक समाज
कहीं है नहीं।
केवल बहुत
थोड़े से
व्यक्ति कई
बार इतने
संतुलित होते
हैं कि तमस और
रजस बिलकुल एक
ही अनुपात में
होते हैं।
उनके पास
पर्याप्त
ऊर्जा होती है
सक्रिय होने
के लिए, और उनके पास
पर्याप्त समझ
होती है
विश्राम करने
के लिए। वे
अपने जीवन को
एक लयबद्धता
बना लेते हैं :
दिन में वे
सक्रिय रहते
हैं; रात
को वे विश्राम
करते हैं।
पूरब
में दिन में
भी वे विश्राम
करते हैं। पश्चिम
में रात में
भी वे सक्रिय
रहते हैं—अपने
सिरों में, स्वम्नों
में। सारे
पश्चिमी
स्वप्न दुख—स्वप्न
बन गए हैं।
पूरब में
तुम्हें ऐसी
आदिवासी
जातियां मिल सकती
हैं जो नहीं
जानतीं कि
स्वप्न क्या
होता है। यह
बिलकुल सच है।
मैं भारत की
कुछ आदिवासी
जातियों के
संपर्क में
आया हूं. यदि
तुम उनके
स्वप्नों के
विषय में पूछो
तो वे कहते
हैं, ' आपका
मतलब क्या है?'
बहुत कम ऐसा
होता है, और
जब ऐसा होता
है तो यह गांव
की एक बड़ी खबर
होती है कि
किसी को
स्वप्न आया।
क्योंकि लोग
तो स्वप्न—रहित
विश्राम कर
रहे होते हैं।
पश्चिम में तो
नींद असंभव हो
गई है, क्योंकि
स्वप्न इतने
चल रहे हैं और
इतनी तीव्रता
से चल रहे हैं,
कि हर चीज
कंपित हो रही
है। कोई चीज
संतुलन में
नहीं मालूम
पड़ती। पूरब
में हर चीज
मुर्दा है।
सत्व
तभी संभव है
जब रजस और तमस
दोनों संतुलन में
होते हैं। जब
तुम जानते हो
कि कब काम
करना है और कब
विश्राम करना
है; जब
तुम जानते हो
कि दफ्तर को
दफ्तर में ही
कैसे छोड़ आना
है और उसे घर
में लिए नहीं
आना है; जब
तुम जानते हो
कि आफिस के मन
को आफिस में
ही कैसे छोड़
आना है और
फाइलों को घर
साथ नहीं लाना
है—तब सत्य
घटता है। सत्व
है संतुलन; सत्य है
समत्व।
सात्विक
आदमी के लिए
सक्रिय
विधियां
आश्चर्यजनक
रूप से सहायक
होंगी, क्योंकि वे
उसके जीवन में
न केवल शांति
ही लाएंगी, बल्कि आनंद
भी लाएंगी। शांत
तो वह पहले से
है ही, क्योंकि
संतुलन लाता
है एक मौन, एक
शांति। लेकिन
शांति एक
नकारात्मक
घटना है—जब तक
कि वह नृत्य न
बन जाए, एक
गीत न बन जाए, एक आनंद न हो
जाए, वह
काफी नहीं है।
अच्छा है मौन
होना, अच्छा
है शांत होना,
लेकिन उसी
से संतुष्ट मत
हो जाना, क्योंकि
अभी बहुत कुछ
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है।
शांत
होना तो उस
आदमी जैसा है
जिसकी
डाक्टरों ने
जांच—पड़ताल की
और उन्होंने
उसमें कुछ गलत
नहीं पाया।
लेकिन यह कोई
स्वास्थ्य
नहीं है। हो
सकता है तुम
बीमार न होओ, लेकिन
जरूरी नहीं है
कि तुम स्वस्थ
भी हो।
स्वास्थ्य की
तो एक अलग ही
सुवास है, एक
ओज है। रोग के
न होने का
प्रमाणपत्र
स्वास्थ्य
नहीं है।
स्वास्थ्य एक
विधायक घटना
है। तुम
आनंदित होते
हो उससे; तुम
पुलकित होते
हो उससे। इतना
काफी नहीं है
कि तुम्हें
कोई रोग नहीं
है।
स्वास्थ्य
केवल अभाव
नहीं है रोग
का, वह
स्वयं एक
मौजूदगी है।
एक शांत
व्यक्ति, एक सात्विक
व्यक्ति शांत
तो होता है; वह बड़ी शांत
जिंदगी जीता
है। शांत, पर
कोई मुस्कुराहट
नहीं। शांत, पर ऊर्जा का
कोई उमडाव
नहीं। शांत, लेकिन कुछ
आभा नहीं। शांत,
पर अंधकार;
प्रकाश
नहीं उतरा
होता उसमें।
एक सात्विक
व्यक्ति
बिलकुल शांत
हो सकता है, लेकिन उस
शाति में वह
नाद, वह
अनाहत नाद, वह दिव्य
गान नहीं उतरा
होता। सक्रिय
ध्यान उसकी
सहायता करेगा
नाचने में, नृत्य को
उसके हृदय तक
लाने में, गान
को उसके
अस्तित्व के
रोएं—रोएं तक
लाने में।
निश्चित
ही, सात्विक
व्यक्ति को
सबसे ज्यादा
सहायता मिलेगी,
सबसे
ज्यादा लाभ
मिलेगा।
लेकिन कुछ
किया नहीं जा
सकता, यही
नियम है। यदि
तुम्हारे पास
है, तो
तुम्हें और ज्यादा
दिया जाएगा; यदि
तुम्हारे पास
नहीं है, तो
जो तुम्हारे
पास है वह भी
ले लिया जाएगा।
तीसरा
प्रश्न:
आपने
कहा कि
बुद्धत्व
व्यक्तिगत
होता है लेकिन
क्या
बुद्धत्व के
बाद भी
व्यक्तित्व
बना रहता है?
नहीं, बुद्धत्व के
बाद
व्यक्तित्व
नहीं बना रहता,
लेकिन बुद्धत्व
व्यक्तिगत
होता है।
तुम्हें इसे
ऐसे समझना
होगा : नदी मिल
जाती है सागर
में। जब मिल
जाती है तो
नदी खो जाती
है—उस नदी का
कोई
व्यक्तित्व
नहीं बचता, लेकिन केवल वैयक्तिक
नदी ही सागर
में मिलती है।
तुम बुद्धत्व
के सागर में
व्यक्ति की
तरह उतरते हो.
तुम अपनी
पत्नी को या
अपने मित्र को
साथ नहीं ले
जा सकते—कोई
उपाय नहीं है।
तुम अकेले
जाते हो। कोई
किसी को साथ
नहीं ले जा
सकता।
कैसे
तुम किसी को
अपने साथ ले
जा सकते हो? जब तुम
ध्यान करते हो
तो तुम अकेले
ही ध्यान करते
हो। जिस क्षण
तुम आंखें बंद
करते हो और शांत
हो जाते हो, हर कोई
तिरोहित हो
जाता है —पत्नी,
मित्र, बच्चे।
निकटतम लोग भी
निकट नहीं
रहते; निकटतम
भी अब एकदम
दूर हो जाते
हैं।
तुम्हारे गहन
मौन में, आत्यंतिक
केंद्र में, तुम अकेले
ही होते हो।
यही एकाकी
सत्ता मिलेगी
सागर में।
तो
बुद्धत्व
व्यक्तिगत
होता है।
निश्चित ही, बुद्धत्व
के बाद
व्यक्तित्व
तिरोहित हो
जाता है, कोई
व्यक्तित्व
नहीं बच रहता।
तो याद रखना
इसे तुम्हारा
भीतर जाना
सामूहिक नहीं
हो सकता; तुम
संगठन की
भांति भीतर
नहीं उतर सकते,
तुम
संप्रदाय की
भांति भीतर
नहीं डूब सकते।
तुम नहीं कह
सकते, 'सारे
ईसाइयो! चले
आओ,' या ' आओ,
हिंदुओं!
मैं चला
बुद्धत्व की
ओर—और मैं
सारे हिंदुओं
को अपने साथ
ले जाऊंगा।’
कोई
किसी दूसरे को
नहीं ले जा
सकता। यह बात
नितांत अकेले
में घटती है।
और यही इसका
सौंदर्य है, यही इसकी
शुद्धता है।
अपने
परिपूर्ण
एकाकीपन में
तुम निर्वाण—सागर
में उतरते हो।
अभी एक क्षण
पहले तुम नदी
थे, बस
क्षण भर पहले
तुम एक
व्यक्ति थे—वैयक्तिकता
के शिखर थे, गौतम थे—और
बस क्षण भर
बाद कुछ नहीं
बचता। तुम नदी
की भांति नहीं
रहते; तुम
सागर हो जाते
हो। तुम अब यह
भी नहीं कह
सकते, 'मैं
हूं।’ सागर
ही है, नदी
खो गई है।
तुम
इसे दो ढंग से
कह सकते हो. एक
तो ढंग यह है
कि नदी खो गई
है—यह बौद्ध
ढंग है; या तुम कह
सकते हो कि
नदी सागर हो
गई है—यह
दूसरा ढंग है,
वेदांत का
ढंग है। लेकिन
दोनों एक ही
बात कह रहे
हैं।’नदी
सागर हो गई है'
या 'नदी
खो गई है; केवल
सागर है', ये
एक ही बात को
कहने के दो
ढंग हैं।
चौथा
प्रश्न:
हम
कहां से आए
हैं और हमारा
होना कैसे
घटित हुआ है?
कहीं से भी
नहीं। फ्राम
नोव्हेअर! और
यह शब्द 'नोव्हेअर' दो शब्दों
में बांटा जा
सकता है, तब
यह बन जाता है—'नाउ हिअर'। ये दो
संभाव्य
उत्तर हैं।
दोनों सच हैं।
क्योंकि
दोनों का अर्थ
एक ही है। तुम 'नोव्हेअर' से आते हो या
तुम 'नाउ
हिअर' से
आते हो।
जब तुम
पूछते हो, 'कहा से?' तो तुम
जानना चाहते
हो शुरुआत के
विषय में।
लेकिन कोई
शुरुआत है
नहीं। तुम सदा
से हो, तुम
सदा रहोगे।
अस्तित्व
आदिहीन है, अंतहीन है।
ऐसा नहीं है
कि कभी वह
शुरू हुआ। ऐसा
संभव नहीं, क्योंकि यदि
अस्तित्व कभी,
किसी तारीख
को, किसी
दिन शुरू हुआ—जैसा
कि ईसाई कहते
हैं कि यह
जीसस से चार
हजार चार वर्ष
पहले शुरू हुआ—तो
इसका अर्थ हुआ
कि समय
अस्तित्व से
पहले भी था।
यह बात मूढ़तापूर्ण
होगी, क्योंकि
समय अस्तित्व
का ही हिस्सा
है। इसका अर्थ
हुआ कि अवकाश,
स्पेस
अस्तित्व के
पहले था—अन्यथा
कहो रखोगे तुम
इस नई रचना को?
और स्पेस
अस्तित्व का
ही हिस्सा है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, वस्तुत:
अवकाश और समय,
स्पेस और
टाइम ही
अस्तित्व है।
इसलिए समय
शुरू नहीं हो
सकता, क्योंकि
तब दूसरे समय
की आवश्यकता
होगी। तब तुम
पूछोगे, 'कब
शुरू
हुआ यह समय?' चार हजार
चार वर्ष पहले?
सोमवार को,
सुबह छह बजे?
तब तो समय
पहले से ही था;
अन्यथा
कैसे तुम
जानते कि यह
सोमवार है, और कैसे पता
चलता तुम्हें
कि इतवार गुजर
गया, और
कैसे तुम
जानते कि सुबह
के छह बजे हैं?
नहीं, समय
की कोई शुरुआत
नहीं हो सकती,
क्योंकि तब
दूसरे समय की
आवश्यकता
पड़ती है। और
यदि तुम कहते
हो, 'ठीक है,
हम दूसरे
समय को मान
लेते हैं।’ तब इस दूसरे
समय की शुरुआत
नहीं हो सकती।
फिर उससे आगे
एक और समय की
आवश्यकता
होगी। तुम एक
अनंत कम में
जा पड़ते हो।
तुम एक
निरर्थक
तर्कजाल में
पड़ जाते हो
जिससे कुछ हल
नहीं होता।
तो
शुरुआत कहीं
है नहीं। और
यदि शुरुआत
नहीं है तो
कोई अंत नहीं
हो सकता, क्योंकि जो
चीज कभी शुरू
नहीं हुई, वह
समाप्त नहीं
हो सकती। कैसे
होगी वह
समाप्त?
तो तुम
कहीं से नहीं
आते। यह एक
उत्तर हुआ कि
तुम कहीं से
नहीं आते; तुम सदा
से यहीं हो।
इससे एक दूसरी
और ज्यादा
संगत बात आती
है. 'नोव्हेअर'
को तोड दो 'नाउ हिअर' में।
मैंने
एक कहानी सुनी
है। एक
नास्तिक था, और वह
वकील था और
बहुत तार्किक
था। और अपने
विश्वास की घोषणा
करने के लिए
उसने बड़े—बड़े
अक्षरों में
दीवार पर लिख
रखा था, ताकि
जो भी आए जान
ले—उसने बड़े—बड़े
अक्षरों में
दीवार पर लिख
रखा था 'गॉड
इज नोव्हेअर'
ईश्वर कहीं
नहीं है। फिर
वह पिता बना; उसके घर एक
बच्चा पैदा
हुआ। और उस
बच्चे ने
लिखना—पढ़ना
शुरू किया।
लेकिन इतने
बड़े शब्द 'नोव्हेअर'
का उच्चारण
उसके लिए कठिन
था। तो वह
बच्चा पढ़ता था—वह
'गॉड इज' पढ़ सकता था
लेकिन वह 'नोव्हेअर'
नहीं पढ़
सकता था, वह
बहुत बड़ा शब्द
था। तो उसने
उसे दो में
तोड़ दिया। वह
पढ़ता था. 'गॉड इज नाउ
हिअर।’ और
मैंने सुना है
कि एक दिन
पिता ने यह
सुना और वह
रूपांतरित हो
गया। अचानक
कुछ पिघलने
लगा उसमें. वह' बच्चा
एक संदेश ले
आया था।
तो इस
शब्द को दो
में तोड़ दो; बच्चे बन
जाओ। जब मैं
कहता हूं 'नोव्हेअर'
तो कोशिश
करो ' नाउ
हिअर' सुनने
की। या तो तुम
कहीं से नहीं
आते हो और या
तुम हर घड़ी, हर क्षण, अभी
और यहीं पैदा
होते हो। क्षण—
क्षण है जन्म।
क्षण— क्षण
मरते हो तुम
और तिरोहित
होते हो, और
क्षण— क्षण
तुम फिर से
जन्मते हो।
तुम एक
प्रक्रिया हो,
एक बहाव हो,
कोई वस्तु
नहीं; वस्तु
जन्मती है, और जब वह चुक
जाती है तो मर
जाती है। नहीं,
तुम कोई
वस्तु नहीं हो।
तुम ठहरे हुए
नहीं हो। तुम
एक प्रक्रिया
हो, नदी की
भांति एक बहाव
हो। हर क्षण
तुम फिर—फिर
नए हो रहे हो; हर क्षण तुम पुनरुज्जीवित
हो रहे हो। हर
क्षण तुम मरते
हो, और हर
क्षण तुम
पुनरुज्जीवित
होते हो।
यदि
तुम वर्तमान
क्षण के प्रति
सजग हो जाओ तो तुम
इस घटना के
प्रति भी सजग
हो जाओगे. कि
हर क्षण तुम
अंधेरे में
विलीन हो जाते
हो, तुम
तिरोहित हो
जाते हो, और
फिर बाहर आ
जाते हो नए
होकर। हर क्षण
घट रही है यह
बात, लेकिन
तुम सजग नहीं
हो इसीलिए तुम
चूक जाते हो। उस
अंतराल को
देखने के लिए
बड़ी गहन सजगता
चाहिए।
और तब
तुम प्रश्न का
दूसरा हिस्सा
नहीं पूछोगे, '…. हमारा
होना कैसे
घटित हुआ है?'
तुम
सदा से हो। यह
होना ही है
तुम्हारा
अस्तित्व।
तुम सदा से
विकसित हो रहे
हो, सदा—सदा
से, कोई
अंत नहीं है
इसका। ऐसा मत
सोचना कि कोई
समय आएगा जब
तुम संपूर्ण हो
जाओगे
और कोई
विकास नहीं
होगा—क्योंकि
वह तो मृत्यु
होगी। ऐसा कोई
समय नहीं आता।
व्यक्ति
रूपांतरित
होता रहता है—एक
संपूर्णता से
दूसरी
संपूर्णता तक।
जाओ
हिमालय।
तुम्हें एक
शिखर दिखाई
पड़ता है, और कोई शिखर
दिखाई नहीं
पड़ते। जब तुम
उस शिखर पर
पहुंचते हो तो
अचानक दूसरे शिखर
तुम्हें
दिखाई पड़ते
हैं। जब तुम
उन शिखरों पर
पहुंचते हो तो
और कई शिखर तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगते हैं।
जितने ज्यादा
विकसित होते
हो तुम, उतना
ज्यादा तुम
देखते हो कि
विकसित होने
की और संभावना
है। जितना
ज्यादा सृजन
होता है
तुम्हारा, उतने
ज्यादा द्वार
खुलते हैं
तुम्हारे
सृजन के—नए
परिदृश्य, नए
मार्ग, नए
आयाम।
जीवन
एक सतत गति की
घटना है, एक सातत्य
है। तुम ऐसे
बिंदु पर कभी
नहीं पहुंचते
जब तुम कह सको,
'अब मैं
पूर्ण हो गया।’
और यदि तुम
मांग करते हो
ऐसी घड़ी की तो
तुम मांग कर
रहे हो
आत्महत्या की।
ऐसा कभी मत
चाहना। बहाव
के साथ बहे
जाना। यदि तुम
जुड़े रह सको
बहाव से, प्रक्रिया
से, तो वह
बड़ी सुंदर बात
है. बार—बार
जन्म लेना, बार—बार नए
होना। यदि तुम
पूर्ण होना
चाहते हो, जड़
चट्टान की
भांति, तब
कुछ बनने की
जरूरत नहीं।
तुम मृत्यु की
मांग कर रहे
हो : तुम जीवन
के प्रेम में
नहीं हो; तुमने
जीवन को जीया
नहीं, जाना
नहीं।
जीयो
जीवन को, स्वीकार करो
जीवन को, वर्तमान
क्षण के प्रति
सजग रहो, और
सारे रहस्य
तुम्हारे
सामने
तुम्हारी सजगता
द्वारा ही
आविष्कृत हो
जाएंगे।
दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
तुम
कहीं से नहीं
आए हो और कहीं
नहीं जा रहे
हो। तुम सदा
मध्य में हो; तुम सदा मार्ग
पर हो। असल
में मैं कहना
चाहूंगा कि
तुम ही मार्ग
हो, क्योंकि
मार्ग तुम से
कहीं अलग
अस्तित्व नहीं
रखता। जब मैं
कहता हूं कि
तुम विकसित हो
रहे हो, तो
गलत मत समझ
लेना मेरी बात—तुम
सोच सकते हो
कि तुम अलग हो
और तुम विकसित
हो रहे हो।
नहीं; तुम्हीं
हो विकास, तुम्हीं
हो विकास की
प्रक्रिया, तुम से अलग
कुछ भी नहीं
है।
फिर
अचानक, इस होने की
सारी
प्रक्रिया
में, होने
के इस तेज
भंवर में, तुम
पा लेते हो वह
शून्यता—तुम्हारे
अपने भीतर। और
वह अंतराकाश
बहुत अदभुत है।
वह अंतराकाश
वही है जिसे
हम परम आशीष
कहते हैं।
पांचवां
प्रश्न :
आपने
मुझे पूरी तरह
भ्रमित और
सुस्त बना
दिया है मैं
पागल जैसा हो
गया हूं। अब
तो मैं
श्रद्धा भी
अनुभव नहीं
करता अब मुझे
बताएं कि मैं
क्या करूं? कहां
जाऊं?
यह प्रश्न है 'स्वभाव' का।
तुम्हारा भी
जरूर सामना
हुआ होगा उसके
पागलपन से। अब
वह स्वयं भी
इसके प्रति
सजग हुआ है—यह
एक सुंदर घड़ी
है।
यदि
तुम भ्रमित हो
सकते हो, तो इससे
इतना ही प्रकट
होता है कि
तुम बुद्धिमान
हो। केवल एक
जड़बुद्धि
व्यक्ति
भ्रमित नहीं
हो सकता; केवल
एक मूढ़
व्यक्ति
भ्रमित नहीं
हो सकता। यदि
तुम्हारे पास
थोड़ी बुद्धि
है तो तुम
भ्रमित हो
सकते हो। एक
बुद्धिमान
व्यक्ति ही
भ्रमित हो
सकता है।
इसलिए भ्रमित
होने से डरो
मत। जरूर
तुम्हारे पास
थोड़ी सी
बुद्धि है। अब
बुद्धि बढ़ रही
है, परिपक्व
हो रही है।
भ्रांति
सदा से थी, लेकिन
तुम सजग न थे, इसलिए तुम
उसे जानते
नहीं थे। अब
तुम सजग हो और
तुम जान सकते
हो। यह बिलकुल
ऐसा ही है. तुम
एक अंधेरे
कमरे में रहते
हो। वहां जाले
लगे हैं, चूहे
दौड़ते रहते
हैं जहां—तहां,
कोनों में
धूल इकट्ठी है।
और अचानक मैं
दीया लिए आ
जाता हूं
तुम्हारे कमरे
में। तो तुम
कहते हो, 'बुझाइए
अपना दीया, क्योंकि आप
गंदा किए दे
रहे हैं मेरा
कमरा। यह ऐसा
कभी न था; अंधेरे
में हर चीज
कैसी सुंदर
थी!'
मैं
कैसे तुम्हें
भ्रमित कर
सकता हूं? मैं यहां
तुम्हारी
सारी भ्रांति
मिटाने के लिए
हूं। लेकिन
मिटाने की इस
प्रक्रिया
में पहला चरण
यही होगा कि
तुम्हें अपनी
भ्रांति के
प्रति सजग
होना होगा।
यदि तुम्हारा
कमरा साफ किया
जाना है, तो
पहला काम यही
होगा कि कमरे
को वैसा देखा
जाए जैसा कि
वह है; अन्यथा
कैसे तुम साफ
करोगे उसे? यदि तुम
मानते हो कि
वह साफ ही है—और
जो धूल के ढेर
वहां जम चुके
हैं उनका
तुम्हें कभी
पता ही नहीं
चला अंधेरे
में, और
मकडिया क्या—क्या
चमत्कार करती
रहीं
तुम्हारे
कमरे में, और
कितने सांप—बिच्छू
अपने घर बना
चुके हैं वहा—यदि
तुम अंधेरे
में गहरी नींद
सोए रहते हो, तब तो कोई
समस्या ही
नहीं है।
समस्या केवल
उसी आदमी के
लिए है जिसकी
बुद्धि
विकसित हो रही
है।
इसलिए
जब तुम मेरे
पास आते हो और
मुझे समझते हो
तो पहली बात, पहला
सामना होगा
भ्रांति से।
अच्छा लक्षण
है यह। ठीक
मार्ग पर हो
तुम, बढ़ते
चलो। चिंता मत
करना। यदि
भ्रांति है, तो स्पष्टता
भी संभव है।
यदि तुम
भ्रांति को
नहीं देख सकते,
तब कोई
संभावना नहीं
है स्पष्टता
की। बस इसे
देखो. कौन कह
रहा है कि तुम
भ्रमित हो।
भ्रमित मन तो
यह भी नहीं कह
सकता कि 'मैं
भ्रमित हूं।’
तुम एक ओर
खड़े एक
द्रष्टा
मात्र हो—तुम
भ्रांति को
अपने चारों ओर
छाया देखते हो,
धुएं की
भांति। लेकिन
यह कौन है जो
देख रहा है कि
भांति है? सारी
आशा इसी बात
में निहित है
कि तुम्हारा
एक हिस्सा—निश्चित
ही बहुत छोटा
हिस्सा, लेकिन
वह भी काफी है
शुरू में—तुम्हें
सौभाग्यशाली
अनुभव करना
चाहिए कि तुम्हारा
एक हिस्सा
ध्यान दे सकता
है और देख सकता
है सारी
भ्रांति को।
अब इसी हिस्से
को और बढ़ने
देना।
भ्रांति से
भयभीत मत हो जाना;
अन्यथा तुम
इस हिस्से को
दबाने में लग
जाओगे कि यह
फिर से सो जाए
ताकि तुम फिर
से सुरक्षित अनुभव
कर सको।
मैं स्वभाव
को बहुत पहले
से जानता हूं।
वह भ्रमित
नहीं था, यह सच है—क्योंकि
वह पूरी तरह
मूढ़ था। वह
हठी था, जिद्दी
था। वह करीब—करीब
'सब कुछ' जानता था, बिना जाने
हुए! अब पहली
बार उसका एक
हिस्सा बुद्धिमान,
सचेत, सजग
हो रहा है; और
वह हिस्सा देख
रहा है आस—पास
चारों तरफ :
वहा भांति ही
भ्रांति है।
सुंदर
है यह बात। अब
दो संभावनाएं
हैं : या तो तुम
इस हिस्से की
सुनते हो जो
कह रहा है कि
सब भ्रमित है, और तुम
इसे विकसित
करते हो—यह एक
प्रकाश—स्तंभ
बन जाता है।
और उस प्रकाश
में सारे
उलझाव विलीन
हो जाएंगे। या
फिर तुम घबड़ा
जाते हो और
भयभीत हो जाते
हो —तुम भागना
शुरू कर देते
हो इस हिस्से
से जो कि सजग
हो चुका है, तुम इसे फिर
से धकेलना
शुरू कर देते
हो अंधेरे में।
तब तुम फिर से
ज्ञानी हो
जाओगे. जिद्दी,
हठी, हर
चीज एकदम साफ—सुथरी,
कोई उलझाव
नहीं। केवल
वही आदमी जो
ज्यादा जानता
नहीं, केवल
वही आदमी जो
सजग नहीं है—बिना
भ्रम के रह
सकता है।
एक
असली सजग आदमी
तो देखेगा, झिझकेगा—हर
कदम पर
झिझकेगा—क्योंकि
कुछ भी
निश्चित नहीं
है। लाओत्सु
कहता है, 'विवेकशील
व्यक्ति बहुत
ध्यान—पूर्वक
चलता है, जैसे
कि हर कदम पर
मृत्यु का भय
हो।’
एक
विवेकशील
व्यक्ति सजग
हो जाता है
भ्रांति के
प्रति; यह है पहला
चरण। और फिर
आता है दूसरा
चरण. जब
विवेकशील
आदमी इतना
बोधपूर्ण हो
जाता है कि
सारी ऊर्जा
प्रकाश बन
जाती है, तो
अब वही ऊर्जा
जो भांति
निर्मित कर
रही थी और
भ्रांति में
व्यय हो रही
थी, बचती
ही नहीं; वह
विलीन हो जाती
है। सारी
भ्रांति मिट
जाती है; अचानक
एक नई सुबह
होती है। और
जब अंधकार
बहुत ज्यादा
होता है, तो
ध्यान रहे कि
सुबह करीब
होती है।
लेकिन तुम भाग
सकते हो।
'आपने
मुझे पूरी तरह
भ्रमित.।’
बिलकुल
ठीक है बात, यही तो
मैं कर रहा
हूं। तुम्हें
इसके लिए
धन्यवाद देना
चाहिए।
'... और
सुस्त बना
दिया है।’
ही, यह भी ठीक
है। क्योंकि
मैं जानता हूं
स्वभाव को। वह
रजोगुणी
प्रकृति का है—बहुत
ज्यादा
सक्रिय। जब वह
पहले—पहले आया
मुझ से मिलने
तो पूरा भरा
हुआ था ऊर्जा
से। अति
सक्रिय—रजोगुणी
प्रकृति का था।
अब ध्यान और
समझ उसकी
सक्रियता को
मध्यम सुर तक,
संतुलित
अवस्था तक ला
रहे हैं। एक
रजोगुणी
व्यक्ति जब
संतुलित हो
रहा होता है, तो वह सदा
अनुभव करेगा
कि वह सुस्त
हो रहा है। यह उसका
दृष्टिकोण
होता है। वह
सदा अनुभव
करेगा कि कहां
चली गई उसकी
ऊर्जा? वह
सुस्त हो गया
है! क्या हो
रहा है उसे? वह यहां आया
था बड़ा योद्धा
बनने के लिए
और सारे संसार
को जीत लेने
के लिए, और
मैं कुल इतना
ही कर रहा हूं
कि उसे अति
सक्रियता से,
व्यर्थ की
भाग—दौड़ से
वापस लौटा रहा
हूं।
पश्चिम
में तुम्हारे
पास एक कहावत
है कि खाली मन
शैतान का घर
है। इसे गढ़ा
है रजोगुणी
व्यक्तिउयों
ने। यह सच
नहीं है, क्योंकि
खाली मन घर है
परमात्मा का।
शैतान वहां
काम नहीं कर
सकता, क्योंकि
खाली मन में
शैतान बिलकुल
प्रवेश ही नहीं
कर सकता। शैतान
तो केवल
सक्रिय मन में
प्रवेश कर
सकता है। तो
खयाल में ले
लेना इसे.
रजोगुणी मन घर
है शैतान का।
अति सक्रियता
है, तो
तुम्हारी
सक्रियता का
शैतान फायदा
उठा सकता है।
तुमने
दो
विश्वयुद्ध
देखे हैं। वे
रजोगुणी
व्यक्तियों
की देन हैं।
यूरोप में
जर्मनी
रजोगुणी है, बहुत
ज्यादा
सक्रियता है।
पूरब में
जापान
रजोगुणी है, बहुत ज्यादा
सक्रियता है।
और ये दोनों
स्रोत बन गए
दूसरे
विश्वयुद्ध
की सारी
मूढ़ताओं के।
बहुत ज्यादा
सक्रियता!
जरा
सोचो, जर्मनी
आलसी
व्यक्तियों
से, सुस्त
व्यक्तियों
से भरा होता
तो क्या करता
हिटलर? तुम
उनको दाएं
मुड़ने के लिए
कहते, और
वे खड़े हैं।
तुम उनसे घूम
जाने के लिए
कहते, और
वे खड़े हैं।
असल में तब तक
तो वे बैठ
चुके होते और
सो गए होते।
एडोल्फ
हिटलर बिलकुल
मूढ़ मालूम
पड़ेगा तामसिक
लोगों के बीच।
और वह बिलकुल
विक्षिप्त
मालूम पड़ेगा
सात्विक समाज
में—बिलकुल
पागल लगेगा।
सात्विक समाज
में लोग पकड़
लेंगे उसे और
चिकित्सा
करेंगे उसकी।
तामसिक समाज
में वह एकदम
मूड मालूम
पड़ेगा, नासमझ। लोग
आराम कर रहे
हैं और तुम
नाहक घूम रहे
हो झंडे लेकर
नारे लगाते
हुए—और कोई
तुम्हारा अनुयायी
नहीं; अकेले
हो! लेकिन
जर्मनी में वह
नेता बन गया, 'फ्यूहरर', जर्मनी का
सब से महान
नेता, क्योंकि
लोग रजोगुणी
थे।
स्वभाव
रजोगुणी
प्रकृति का था, क्षत्रिय
वृत्ति का, लड़ने को
तैयार, क्रोधित
होने को सदा
ही तैयार; अब
थोडा शांत हुआ
है। वह दौड़
रहा था एक सौ
मील प्रति
घंटा की
रफ्तार से, और मैं उसे
ले आया हूं दस
मील प्रति
घंटा तक।
निश्चित ही वह
सुस्त अनुभव
करता है। यह
आलस्य नहीं है,
यह
सक्रियता की
विक्षिप्तता
को सामान्य
अवस्था तक ले
आना है, क्योंकि
केवल वहीं से
संभव हो पाएगा
सत्व; अन्यथा
वह संभव नहीं
हो पाएगा।
तुम्हें
संतुलन पाना
होगा रजोगुण
और तमोगुण के
बीच, आलस्य
और गति के बीच।
तुम्हें
जानना होगा कि
आराम कैसे
करना है और तुम्हें
जानना होगा कि
सक्रिय कैसे
होना है
केवल
विश्राम करना
सदा आसान है, और केवल
सक्रिय होना
भी आसान है।
लेकिन इन
दोनों विपरीत
ध्रुवों को
जानना और उनके
बीच संतुलन
करना और एक लय
निर्मित करना
बहुत कठिन है—और
वह लय ही सत्व
है।
'आपने
मुझे पूरी तरह
भ्रमित और
सुस्त बना
दिया है।’
सच है।
'मैं
पागल जैसा हो
गया हूं।’
बिलकुल
सच है। तुम
सदा से हो। अब
तुम जानते हो
इसे—और यह उस
आदमी का लक्षण
है जो पागल
नहीं है। एक
पागल आदमी कभी
नहीं जान सकता
कि वह पागल है।
जाओ पागलखाने; जरा पूछो
वहां। कोई
पागल नहीं
कहता, 'मैं
पागल हूं।’ प्रत्येक
पागल मानता है
कि सिवाय उसके
सारा संसार
पागल है—यही
है परिभाषा
पागलपन की।
तुम्हें ऐसा
कोई पागल नहीं
मिल सकता जो
कहे, 'मैं
पागल हूं।’ यदि उसके
पास इतनी
बुद्धि हो
कहने की कि वह
पागल है, तो
फिर वह
बुद्धिमान ही
हुआ, फिर
वह पागल न हुआ।
पागल व्यक्ति
कभी स्वीकार
नहीं करता।
पागल व्यक्ति
बहुत ही
जिद्दी होते
हैं। डाक्टर
के पास जाने
के लिए भी वे
राजी नहीं होते।
वे कहते हैं, 'क्यों? किसलिए?
क्या मैं
पागल हूं? कोई
जरूरत नहीं है,
मैं बिलकुल
ठीक हूं। तुम
जा सकते हो।’
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
मनस्विद के
पास गया और उसने
कहा, ' अब
कुछ करना
पड़ेगा—चीजें
मेरे वश के
बाहर हो गई
हैं। मेरी
पत्नी पूरी
तरह पागल हो
गई है, और
वह सोचती है
कि वह
रेफ्रिजरेटर
बन गई है।’
वह
मनस्विद भी
थोड़ा चौंका।
उसके सामने भी
ऐसी कोई समस्या
अभी तक नहीं
आई थी। उसने
कहा, 'यह
तो गंभीर बात
है। जरा
विस्तार से
बताओ मुझे।’
उसने
कहा, 'बताने
के लिए ज्यादा
कुछ है नहीं।
वह
रेफ्रिजरेटर
बन गई है, वह
मानती है कि
वह
रेफ्रिजरेटर
है।’
मनस्विद
ने कहा, 'लेकिन यदि
यह केवल मानना
ही है तो
इसमें कुछ बुरा
नहीं। निर्दोष
बात है। मानने
दो उसे। वह
कोई और उपद्रव
तो नहीं खड़ा
कर रही है?'
नसरुद्दीन
ने कहा, 'उपद्रव? मैं
बिलकुल सो ही
नहीं पाता, क्योंकि रात
भर वह मुंह
खोल कर सोती
है—और
रेफ्रिजरेटर
की रोशनी के
कारण मैं सो
नहीं सकता।’
अब कौन
पागल है? पागल आदमी
कभी नहीं
सोचते कि वे
पागल हैं।
स्वभाव, यह
सौभाग्य की
बात है कि तुम
सोच सकते हो, 'मैं पागल
हूं।’ यह
तुम्हारे
भीतर का
बुद्धिमान
हिस्सा है जो इसे
देख रहा है।
हर कोई पागल
है। जितनी
जल्दी तुम देख
लो इसे, उतना
शुभ है।
'अब
तो मैं कोई
श्रद्धा भी
अनुभव नहीं
करता।’
अच्छा
है। क्योंकि
जब तुम थोड़े
सजग होते हो
तो श्रद्धा
अनुभव करना
कठिन हो जाता
है। बहुत सी
अवस्थाएं हैं।
एक अवस्था है
जब लोग संदेह
अनुभव करते
हैं। फिर वे
संदेह का दमन
करते हैं
क्योंकि
श्रद्धा से
बहुत आशा
बंधती है. 'समर्पण
करो, और
तुम सब कुछ
पाओगे।’ मैं
तुम्हें आशा
दिए जाता हूं 'समर्पण करो,
और
तुम्हारा
बुद्धत्व
निश्चित है।’
श्रद्धा
बड़ी आशापूर्ण
मालूम पड़ती है।
तुम्हें लोभ
पकड़ता है। तुम
कहते हो, 'ठीक
है, तो हम
श्रद्धा
करेंगे और
समर्पण
करेंगे।’ लेकिन
यह श्रद्धा
नहीं है, यह
लोभ है—और
भीतर गहरे में
तुम संदेह
छिपाए रहते हो।
तुम भीतर—
भीतर संदेह
करते रहते हो।
तुम सजग रहते
हो कि श्रद्धा
ठीक है, लेकिन
बहुत ज्यादा
श्रद्धा भी
नहीं करनी है।
क्योंकि कौन
जाने, यह
आदमी क्या
चाहता हो, मूर्ख
ही बना रहा हो,
धोखा दे रहा
हो!
तो तुम
श्रद्धा करते
हो, लेकिन
तुम आधे—आधे
मन से श्रद्धा
करते हो। और
कहीं भीतर
संदेह बना ही
रहता है।
जब तुम
ध्यान करते हो, जब
तुम्हारी समझ
थोड़ी बढ़ती है,
जब तुम मुझे
निरंतर सुनते
हो, और मैं
कई दिशाओं से,
कई आयामों
से तुम पर चोट
करता रहता हूं—तो
मैं तुम्हारे
अस्तित्व में
कई छिद्र बना
देता हूं। मैं
चोट करता रहता
हूं तुम्हें
तोड़ता रहता
हूं। मुझे
तुम्हारा
सारा ढांचा
तोड़ना है।
मुझे तुम्हें
तोड़ना है; केवल
तभी तुम
पुनर्निर्मित
हो सकते हो।
और कोई उपाय
नहीं है। मुझे
तुम्हें पूरी
तरह मिटा देना
है, केवल
तभी नया सृजन
संभव है।
तो मैं
मिटाए जाता
हूं; फिर
तुम्हें थोड़ी
समझ आती है—समझ
की झलकें मिलती
हैं। उन झलकों
में तुम
देखोगे कि तुम
श्रद्धा भी नहीं
करते; संदेह
वहा छिपा हुआ
है। पहले तुम
संदेह करते हो।
दूसरी सीढ़ी पर
तुम गहरे छिपे
संदेह सहित
श्रद्धा करते
हो। तीसरी
सीढ़ी पर तुम
सजग हो जाते
हो भीतर छिपे
हुए संदेह और
ऊपर—ऊपर की
श्रद्धा के
प्रति—और तुम
एक साथ
श्रद्धा और
संदेह कैसे कर
सकते हो? तो
तुम झिझकते हो,
तुम भ्रम
में पड़ जाते
हो।
इस जगह
से दो
संभावनाएं
खुलती हैं : या
तो तुम संदेह
को पकड़ लेते
हो, वह
पहली अवस्था
है—जैसे तुम
मेरे पास आए
थे; या फिर
तुम में
श्रद्धा
विकसित होती
है और तुम
सारे संदेह
गिरा देते हो।
यह एक बहुत ही
तरल अवस्था
होती है। यह
दो ढंग से
विकसित हो
सकती है. या तो
तुम नीचे उतर
जाते हो जहां
तुम फिर से
संदेहों से भर
जाते हों—झूठी
श्रद्धा भी
मिट चुकी होती
है; या तुम
में श्रद्धा
का विकास होता
है और श्रद्धा
एक सुदृढ़ आधार
बन जाती है, संदेह का
दमित हिस्सा
खो जाता है।
तो यह अवस्था
बहुत नाजुक
होती है और
व्यक्ति को
बहुत सावधानी
और सजगता से
बढ़ना होता है।
'अब मुझे
बताएं कि मैं
क्या करूं? कहा जाऊं?'
एक बार
तुम मेरे पास
आ गए तो अब
कहीं कोई जगह
नहीं है जाने
के लिए। वैसे
तुम कहीं भी
जा सकते हो, लेकिन तुम्हें
वापस आना
पड़ेगा। मेरे
पास आना
खतरनाक है :
फिर तुम कहीं
भी जा सकते हो,
लेकिन सब
जगह मैं
तुम्हें घेरे
रहूंगा। तो
कोई जगह नहीं
है जाने के
लिए।
और कुछ
नहीं है करने
के लिए। बस, सजग रहो
सारी स्थिति
के प्रति।
क्योंकि यदि
तुम कुछ करने
लगे, यदि
तुम कुछ करने के
लिए आतुर होने
लगे, तो
तुम सब कुछ
गड़बड़ कर दोगे।
जो जैसा है
उसे वैसा ही
रहने दो।
उलझाव है, पागलपन
है, श्रद्धा
जा चुकी है—केवल
प्रतीक्षा
करना और देखना
और बैठे रहना
किनारे पर और
नदी को थिर
होने देना
अपने आप। वह
थिर होती है
अपने से ही; तुम्हें कुछ
करने की जरूरत
नहीं है।
बहुत
कर लिया तुमने—अब
विश्राम करो।
बस प्रतीक्षा
करो और देखो
कि कैसे नदी
थिर होती है।
वह साफ नहीं
है; कीचड़
है उसमें और
सूखे पत्ते
तैर रहे हैं
सतह पर—कूद मत
पड़ना उसमें।
तुम आतुर हो
रहे हो उसमें
कूद पड़ने के
लिए कुछ करने
के लिए, ताकि
पानी साफ हो सके—जो
कुछ भी तुम
करोगे, तुम
और ज्यादा
कीचड़ मचा दोगे।
कृपा करके इस
प्रलोभन को
रोकना।
किनारे पर ही
रुकना, नदी
में मत उतरना,
और बस देखते
रहना।
यदि
तुम देखते रह
सको बिना कुछ
किए ही... और
करना सब रो
बड़ा मोह है मन
का। मन कहता
है, 'कुछ
न कुछ करो; अन्यथा
चीजें कैसे
बदलेंगी?' मन
कहता है. 'केवल प्रयास
से ही, केवल
कुछ करने से
ही कुछ बदल
सकता है।’ और
यह बात
तर्कपूर्ण, आकर्षक, भरोसे
की मालूम पड़ती
है—और यह
बिलकुल गलत है।
तुम कुछ नहीं
कर सकते।
तुम्हीं हो
समस्या। और
जितना अधिक
तुम कुछ करते
हो, उतना
ज्यादा तुम
अहंकार अनुभव करते
हो; 'मैं' मजबूत हो
जाता है; अहंकार
शक्तिशाली हो
जाता है।
कुछ
करो मत, केवल देखो।
देखने से
अहंकार
तिरोहित होता
है, करने
से अहंकार
मजबूत होता है।
बस साक्षी बने
रहो। स्वीकार
करो इसको—बिलकुल
मत लड़ना इससे।
यदि उलझाव है
तो गलत क्या
है? बस एक
बादलों भरी
शाम, बादलों
से घिरा आकाश—बुरा
क्या है? आनंदित
होओ। बहुत
ज्यादा सूर्य
भी अच्छा नहीं;
कई बार
जरूरत होती है
बादलों की।
क्या बुरा है
इसमें? सुबह
धुंध से भरी
है और तुम
धुंधला—
धुंधला अनुभव
करते हो। क्या
बुरा है इसमें?
धुंध का भी
आनंद मनाओ।
जैसी भी
स्थिति हो, तुम देखो, प्रतीक्षा
करो, और
आनंदित होओ।
स्वीकार करो।
यदि तुम
स्वीकार कर
लेते हो इसे, तो वही
स्वीकार
रूपांतरित कर
जाता है, वही
स्वीकार क्रांति
कर देता है।
जल्दी
ही तुम देखोगे
कि तुम बैठे
हो वहां, नदी खो गई—केवल
कीचड़ ही नहीं,
बल्कि पूरी
नदी खो गई। अब
कोई धुंध वहां
नहीं है, बादल
तिरोहित हो
चुके, और
एक खुला आकाश,
एक विराट
आकाश उपलब्ध
है।
लेकिन
धैर्य की
जरूरत पड़ेगी।
इसलिए यदि तुम
जोर देते हो
कि 'अब
मुझे बताएं, मैं क्या
करूं?' तो
मैं कहूंगा, 'धैर्य रखो।’
यदि तुम जोर
देते हो कि 'मैं कहा
जाऊं?' तो
मैं तुम्हें
कहूंगा, 'और
निकट आओ मेरे।’
छठवां
प्रश्न:
रोज कई
बार स्नान
करने और कपड़े
बदलने की
ब्राह्मणों
की आदत के
बारे में आप
कुछ कहेंगे? क्या
वर्तमान
संन्यासी के
लिए यह उचित
होगा?
ब्राह्मण
पागल हो गए
हैं। वे पीड़ित
हैं नियमों से, रूढ़ियों
से, विक्षिप्तता
से। साफ रहना
अच्छा
है, लेकिन
निरंतर सफाई
में लगे रहना
पागलपन है। और
मन अतियों में
डोलता है। तुम
या तो गंदे
रहते हो, तब
तुम नहाते ही
नहीं
एक
इतालवी
संन्यासिनी
को मैं जानता
था। वह एक
कैम्प में साथ
थी। मैं बहुत
चकित हुआ, वह कभी
स्नान ही नहीं
करती थी! तो
मैंने पूछा और
उसने बताया कि
साल में एक
बार वह स्नान
करती है। और
वह चकित होकर
पूछने लगी, 'क्या यह
काफी नहीं है—साल
में एक बार
स्नान?' और
फिर ब्राह्मण
हैं जो कुछ और
कर ही नहीं
रहे—बस, केवल
स्नान कर रहे
हैं!
एक
आदमी को मैं
जानता हूं वह
करीब का
रिश्तेदार है, थोड़ा सनकी
आदमी है। वह
सारी जिंदगी
अविवाहित ही
रहा। केवल एक
बात को छोड़ कर
हर ढंग से
अच्छा आदमी है।
और वह एक बात
भी निर्दोष है,
किसी का
नुकसान नहीं
होता, लेकिन
उसका पूरी तरह
नुकसान हो गया
है। वह गरीब
आदमी है, क्योंकि
ज्यादा उसने
कभी कमाया
नहीं। अपने
पिता द्वारा
छोड़ी गई
संपत्ति पर ही
जीया है। और
उसे बहुत
कंजूसी से
जीना पड़ता है,
क्योंकि
उसके पास कुछ
ज्यादा नहीं
है और जो है
उसे पूरी
जिंदगी चलाना
है। और कमाने
के लिए उसके
पास समय नहीं
है उस सनक के
कारण; और
वह सनक है
सफाई। दिन भर
वह अपना घर
साफ करता रहता
है। साफ करने
के लिए कुछ है
नहीं : एक छोटा
सा कमरा है, वह उसे ही
साफ करता रहता
है। फिर वह
स्नान करेगा।
और यह उसकी
सनक का हिस्सा
है कि यदि वह
किसी स्त्री
के लिए देख ले,
तो फिर
स्नान करेगा,
क्योंकि वह
कुंआरा है, बाल
ब्रह्मचारी, कि स्त्री
की छाया मात्र
अशुद्ध कर
जाती है उसे!
वह
पानी लाने के
लिए एक
सार्वजनिक नल
पर जाता है।
वह एकदम सुबह
चला जाता है
जिससे कि
रास्ते में
कोई उसे मिले
नहीं, क्योंकि
अगर कोई
स्त्री राह से
गुजर जाए तो
वह फिर से साफ
करेगा अपना
बर्तन। पानी
फेंक देगा, बर्तन साफ
करेगा, फिर
से पानी लाएगा।
और कभी—कभी
ऐसा हुआ कि
तीस, चालीस,
साठ बार गया
होगा वह पानी
भरने—पूरे
दिन! और तुम
किसी का आना—जाना
तो रोक नहीं
सकते, और
लोग गुजर रहे
हैं, और
उतनी ही
स्त्रियां
हैं जितने कि
पुरुष। कठिन
है बात। और वह
चूक सकता नहीं—वह
तो तलाश ही
रहा है
स्त्रियों को।
यदि वह बहुत
दूर से भी देख
ले किसी
स्त्री को, तो तुरंत.।
सारा दिन
व्यर्थ हो
जाता है। वह
इतनी सफाई से
रहता है, लेकिन
क्या करेगा इस
सफाई का? सारा
जीवन व्यर्थ
गया।
स्मरण
रहे कि संतुलन
सदा ठीक है।
गंदे भी मत
रहो; गंदगी
से भी मत जुड़
जाओ। अब
हिप्पी
सम्मोहित हैं
गंदगी से। यह
एक
प्रतिक्रिया
है। यह कोई
स्वतंत्रता
नहीं है, क्योंकि
प्रतिक्रिया
कभी
स्वतंत्रता
नहीं हो सकती।
ईसाइयत बहुत
ज्यादा जोर
देती है
स्वच्छता पर।
उनके पास एक
मुहावरा है कि
क्लीनलीनेस
इज नेक्स टु
गॉडलीनेस।
उन्होंने
बहुत ज्यादा
जोर दिया
स्वच्छता पर,
अब नई पीढ़ी
ने, आधुनिक
पीढ़ी ने विद्रोह
कर दिया है
इसके विरुद्ध।
अब हिप्पी
स्नान नहीं
करते। वे कोई
फिक्र नहीं
करते कपड़ों को
धोने की—जैसे
कि गंदगी ही
उनकी साधना हो
गई है; गंदे
रहना उनका
अनुशासन हो
गया है। वे
सोचते हैं कि
वे समाज के
पुराने ढांचे
से पूरी तरह
मुक्त हो गए
हैं।
नहीं, तुम
मुक्त नहीं हो
गए हो।
प्रतिक्रिया,
विद्रोह
कोई क्रांति
नहीं है। तुम
दूसरी अति पर
जा सकते हो, लेकिन तुम
उसी ढांचे में
बने रहते हो।
वे सफाई के
पीछे पागल थे;
तुम गंदे
होने के पीछे
पागल हो। और
यदि मुझ से
पूछते हो, अगर
एक ही रास्ता
हो. व्यक्ति
को अति चुननी
ही पड़ती हो तो
मैं स्वच्छता
की अति
चुनूंगा, कम
से कम वह
स्वच्छ तो है।
लेकिन मैं सदा
संतुलन के
पक्ष में हूं।
और कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए
अनुशासन नहीं
दे सकता।
तुम्हें अपने
शरीर को, अपने संतुलन
को अनुभव करना
होगा—क्योंकि
अस्वच्छता, गंदगी एक
बोझ बन जाती
है तुम्हारे
शरीर पर, तुम्हारे
चित्त पर।
स्वच्छता
किसी दूसरे के
लिए या समाज
के लिए नहीं
है, वह
तुम्हारे ही
लिए है—हलका
अनुभव करने के
लिए है, प्रसन्न
अनुभव करने के
लिए है, शुद्ध
और साफ अनुभव
करने के लिए
है। एक अच्छा
स्नान
तुम्हें पंख
दे देता है।
एक अच्छा
स्नान, और
तुम थोड़ी दिव्यता
पा लेते हो, पृथ्वी का
हिस्सा नहीं
रहते; तुम
थोड़ी उड़ान भर
सकते हो।
अच्छा स्नान
जरूरी है।
और कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए
नियम नहीं बना
सकता; अपने
शरीर को
तुम्हें ही
समझना पड़ेगा।
कई बार तुम
बीमार होते हो
और स्नान की
कोई जरूरत
नहीं होती, क्योंकि
स्नान झंझट पैदा
कर सकता है; तो स्नान से
बंध मत जाना।
कई बार स्थिति
ऐसी नहीं होती
कि तुम स्थान
कर सकी; तो
इसको लेकर
पागल मत हो
जाना—अपराध मत
अनुभव करना।
इसमें ऐसा कुछ
नहीं है कि
अपराध अनुभव
करो; स्नान
करना कोई
पुण्य नहीं है,
स्नान न
करना कोई पाप
नहीं है। अधिक
से अधिक यह
स्वास्थ्यप्रद
है।
और
तुम्हें अपने
शरीर का खयाल
रखना है; शरीर मंदिर
है ईश्वर का।
उसे स्वच्छ
होना चाहिए; उसे सुंदर
होना चाहिए।
तुम्हें
उसमें रहना है;
तुम्हें
उसके साथ रहना
है। यह कई ढंग
से तुम्हें
प्रभावित
करेगा। एक
स्वच्छ शरीर
में, एक
स्वस्थ मंदिर
में एक स्वच्छ
मन के घटने की
और होने की
संभावना ज्यादा
होती है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
ऐसा जरूरी है।
मैं इतना ही
कह रहा हूं कि
संभावना है—एक
स्वच्छ शरीर
में ज्यादा
संभावना है।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
अस्वच्छ शरीर
में कोई
संभावना नहीं
है स्वच्छ मन
के लिए, संभावना
है, लेकिन
यह बात थोड़ी
कठिन होगी, प्रकृति के
विरुद्ध होगी।
ध्यान आंतरिक
स्नान है
चेतना का, और स्नान
शरीर के लिए
ध्यान है।
सातवां
प्रश्न :
आप
निरंतर लाओत्सु
पर ही क्यों
नहीं बोलते
रहते?
यदि तुम मुझे
समझते हो तो
मैं सदा ही
लाओत्सु पर
बोल रहा हूं।
यदि तुम मुझे
नहीं समझते, तो जब मैं
लाओत्सु पर
बोलता हूं वह
भी किसी काम
का न होगा।
असल में मैं
किसी दूसरे के
साथ कभी
न्यायपूर्ण
नहीं होता—पतंजलि,
जीसस, महावीर,
बुद्ध।
नहीं, मैं
बिलकुल
न्यायपूर्ण
नहीं होता, मैं हो नहीं
सकता।
लाओत्सु चले
ही आते हैं।
मैं निरंतर
लाओत्सु पर
बोल रहा हूं।
जब मैं पतंजलि
पर बोल रहा
होता हूं जब
मैं बुद्ध पर
या जीसस पर
बोल रहा होता
हूं तो यदि
तुम मुझे समझ
सको तो
लाओत्सु
निरंतर एक
अंतर— धारा
बने रहते हैं।
लेकिन यदि तुम
मुझे नहीं
समझते, तो
यह प्रश्न खड़ा
होता है, 'आप
निरंतर लाओत्सु
पर ही क्यों
नहीं बोलते
रहते?'
लाओत्सु
मेरे लिए कोई
विषय नहीं हैं, पतंजलि
हैं। मैं जब
पतंजलि पर
बोलता हूं तो
मैं पतंजलि पर
बोलता हूं।
मैं जब
लाओत्सु पर
बोलता हूं तो
मैं लाओत्सु पर
नहीं बोलता
हूं; मैं
जो बोलता हूं
वह लाओत्सु ही
है। और भेद
बड़ा है, बहुत
बड़ा है।
अंतिम
प्रश्न :
क्या
वर्नर
एरहार्ड
बुद्धत्व के
निकट हैं?
पूछा है
माधुरी ने।
एरहार्ड उतना
ही निकट है
जितना कि
माधुरी। हर
कोई उतना ही
निकट है जितना
कि एरहार्ड।
असल में
बुद्धत्व एक
छलांग है, कोई
क्रमिक घटना
नहीं है—एक ही
कदम में
यात्रा पूरी
हो जाती है।
यह ऐसे ही है
जैसे तुम आंखें
बंद किए बैठे
हो, और तुम आंखें
खोलते हो और
सूर्य सामने
है, सारा
संसार अपूरित
है प्रकाश से।
कोई आंखें बंद
किए बैठा है :
तब भी संसार
आलोकित है
प्रकाश से और
सूर्य मौजूद
है, केवल
वही आंखें बंद
किए बैठा है।
और यदि इससे
वह आनंदित हो
रहा है तो
इसमें कुछ गलत
नहीं है, एकदम
ठीक है; लेकिन
यदि वह दुखी
है तो मैं
कहता हूं कि
तुम आंखें
क्यों नहीं
खोल लेते?
अज्ञान
और ज्ञान के
बीच भेद बस आंखें
खोलने का ही
है। भेद कुछ
ज्यादा नहीं
है, यदि
तुम आंखें
खोलने के लिए
तैयार हो। तुम
आंखें खोलने
के लिए तैयार
नहीं हो, तो
भेद बहुत
ज्यादा है।
एरहार्ड
उतना ही निकट
है जितना कि
कोई और, लेकिन लगता
है कि बुद्धि
एक रुकावट है
उसके लिए। ठीक
ऐसे ही जैसे
कि बुद्धि
तुम्हारे लिए,
करीब—करीब
तुम सभी के
लिए एक रुकावट
है। उसने बात
समझ ली है।
एकदम ठीक समझ
ली है उसने
बात, लेकिन
बौद्धिक रूप
से। जब मैंने
पिछली बार
उसके थोड़े से
वक्तव्यों पर
बात की, तो
मैंने उन सभी
को ठीक बताया।
वे सभी बिलकुल
सही हैं, लेकिन
मैंने उसके
बारे में कोई
बात नहीं कही
है। जो कुछ
उसने कहा है, एकदम ठीक है।
लेकिन तुम
लाओत्सु का
अध्ययन कर
सकते हो, बौद्धिक
रूप से तुम
समझ भी सकते
हो और तुम वही बातें
दोहरा भी सकते
हो। जहां तक
शब्दों का
संबंध है वे
सही हैं, लेकिन
वह स्वयं
बौद्धिक रूप
से जुड़ा हुआ
लगता है; अस्तित्वगत
रूप से नहीं
जाना है उसने।
और यही समस्या
है।
और यही
सब से बड़ी
समस्या है
जिसका सामना व्यक्ति
को करना होता
है। मेरी हर
बात तुम समझ
लेते हो, तुम दूसरों
को भी समझा
सकते हो, लेकिन
बुद्धत्व
उतना ही दूर
रहेगा जितना
कि सदा था।
बौद्धिक रूप
से समझने का
प्रश्न ही
नहीं है, यह
बात है समग्र
समझ की—तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व उसे
समझता है, केवल
तुम्हारा मस्तिष्क
ही नहीं।
तुम्हारा
हृदय समझता है
उसे। और केवल
तुम्हारा
हृदय ही नहीं—तुम्हारा
रक्त और
तुम्हारी
हड्डियां, तुम्हारे
मांस—मज्जा को
समझ आती है
बात। कोई चीज
छूटती नहीं, तुम्हारा
संपूर्ण
अस्तित्व उस
बोध में नहा जाता
है, उस समझ
में स्नान कर
लेता है। तब
एक सुगंध उठती
है, तब एक
नृत्य घटित
होता है, तब
तुम खिल उठते
हो।
और
केवल एक कदम
उठता है और
यात्रा पूरी
हो जाती है।
तुम्हारे और
मेरे बीच दूरी
केवल एक कदम
की है—दूरी
ज्यादा नहीं
है। दो कदमों
की भी जरूरत
नहीं है।
लेकिन
भूलो एरहार्ड
को। बस अपनी
फिक्र कर लो, क्योंकि
एरहार्ड तो
अपने लिए ही
एक समस्या है,
तुम्हारा
इससे क्या
लेना—देना कि
उसकी फिक्र
करो? तुम
केवल अपनी
फिक्र कर लो। क्या
तुम्हें बहुत
बार ऐसा अनुभव
नहीं हुआ कि तुम
मुझे पूरी तरह
समझ गए हो, और
फिर—फिर तुम
चूक जाते हो? क्यों? यदि
तुम मुझे समझ
लेते हो, तो
फिर तुम क्यों
चूकते हो?
तुम
मुझे समझ लेते
हो बौद्धिक
रूप से, शाब्दिक रूप
से, सैद्धातिक
रूप से, लेकिन
तुम्हारा
अस्तित्व
उसमें
सम्मिलित नहीं
होता। तो जब
तुम मेरे निकट
होते हो तो
तुम समझ लेते
हो, जब तुम दूर
जाते हो तो
समझ खो जाती
है। तुम फिर
अपने उसी
पुराने रंग—ढंग
में, तुम्हारे
उसी पुराने
संसार और
ढांचे में लौट
जाते हो। जब
तुम मेरे साथ
होते हो तो
तुम स्वयं को
भूल जाते हो
और हर चीज स्पष्ट
हो जाती है, एकदम
पारदर्शी।
मुझ से दूर
होकर तुम फिर
अपने अंधेरे
में जा पड़ते
हो और हर चीज
उलझ जाती है
और कोई चीज
साफ नहीं रहती।
बस एक
कदम। और वह
कदम अपने पूरे
प्राणों से
उठाना होता है।
तुम बस बैठे
हो और कल्पना
कर रहे हो कि
तुमने कदम उठा
लिया है। तुम
बैठे रह सकते
हो और तुम
कल्पना किए
चले जा सकते
हो एक
महायात्रा की।
यदि तुम ऐसा
ज्यादा देर तक
करते रहे तो
यात्रा इतनी
वास्तविक
लगने लगती है, इतनी
सत्य मालूम
होने लगती है
कि तुम किसी
बुद्ध पुरुष
की भांति
बोलने भी लग
सकते हो—लेकिन
उससे कुछ हल
नहीं होगा।
तुम्हें
जागना ही होगा।
यह कोई कल्पना
नहीं है; यह कोई
विचार नहीं है;
यह है स्वयं
की उपलब्धि।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें