अध्याय
75
दंड (4)
जब
लोग भूखे हैं,
तो
उसका कारण है
कि शासक बहुत करान्न खा
जाते हैं।
इसलिए
भूखे लोगों का
उपद्रव,
उनके
शासकों के
हस्तक्षेप से
पैदा होता है।
इसी
कारण वे
उपद्रवी हैं।
लोग
मृत्यु से
भयभीत नहीं
हैं,
क्योंकि
वे जीविका
कमाने के लिए
चिंतित हैं।
यही
कारण है कि वे
मृत्यु से
भयभीत नहीं
हैं।
जो
उनकी जीविका
में
हस्तक्षेप
नहीं करते,
वे
ही जीवन को
ऊंचा उठाने का
विवेक रखते
हैं।
शासन
का आधिक्य
मनुष्य के
जीवन में सबसे
बड़ी कठिनाई
है। शासन
जितना कम हो उतना
श्रेष्ठ।
शासन बिलकुल न
हो तो वह
श्रेष्ठता की
पराकाष्ठा
है। शासन
जितना ज्यादा
हो उतना
निकृष्ट, और
जब शासन ही
शासन रह जाए
तो वह शासन का
अंतिम पतन है।
शासन
के आधिक्य का
अर्थ है:
स्वतंत्रता
की कमी। और
शासन के
आधिक्य का यह
भी अर्थ है कि
व्यक्ति को
व्यक्ति होने
की अब कोई
सुविधा नहीं
है;
जैसे
व्यक्ति एक कलपुर्जा
हो गया। वह इस
बड़े समाज के
यंत्र में
उसका उपयोग है;
उपयोग लिया
जाएगा; लेकिन
व्यक्ति की
आत्मा को कोई
स्वीकृति नहीं
है।
शासन
का आधिक्य
आत्मा का हनन
है।
मैंने
एक छोटी सी
कहानी सुनी
है। अमरीका
में एक कुत्तों
की अखिल विश्व
प्रदर्शनी
थी। उसमें रूस
से भी कुत्ते
आए थे। एक
अमरीकी
कुत्ते ने
पूछा रूसी
कुत्तों से कि
सब ठीक तो है? तुम्हारे
देश में सब
सुख-सुविधा तो
है? उसने
कहा, सब
सुख-सुविधा
है। ऐसा भोजन
कभी हमें
मिलता नहीं था
जैसा मिलता
है। रहने के
लिए जगह जैसी
हमें उपलब्ध
है, कभी भी
रूसी कुत्तों
को पहले न थी।
अब हम सड़कों
पर भटकते नहीं
और भोजन के
लिए दर-दर
ठोकर नहीं
खाते। अब हम
बड़े प्रसन्न
हैं!
लेकिन
अमरीकी
कुत्ते ने कहा
कि तुम इतने
प्रसन्न हो, लेकिन
चेहरे पर
प्रसन्नता
मालूम नहीं
होती।
उसने
कहा,
उसका एक
कारण है; किसी
को न बताओ तो
कहूं। और सब
तो ठीक है, भौंकने
की आजादी नहीं
है। और उस
कुत्ते ने कहा
कि भौंकने की
आजादी का वही
अर्थ होता है
जो मनुष्य की
भाषा में
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता का।
भौंक नहीं
सकते। भोजन
पूरा है; लेकिन
व्यक्तित्व
की कोई सुविधा
नहीं है।
शासन
जब अधिक हो
जाएगा तो
व्यक्तित्व
को पोंछ देता
है;
क्योंकि
व्यक्तित्व
खतरा है शासन
में। शासन चाहता
है समाज, व्यक्ति
नहीं; समूह,
व्यक्ति
नहीं; क्योंकि
व्यक्ति के
होने में ही
खतरा है। क्योंकि
व्यक्ति
स्वतंत्रता
की मांग है।
व्यक्तित्व
की आखिरी
गरिमा
परिपूर्ण
मुक्ति है; और शासन का
अर्थ ही बंधन
है।
दूसरी
बात,
जैसे ही
शासन बढ़ता है
वैसे ही शासन अपशोषित
करता है समाज
को। जैसे-जैसे
शासन का बोझ
बड़ा होता जाता
है वैसे-वैसे
शासन के नीचे
दबे लोग दुर्बल
होते जाते
हैं। शासन का
पेट ही नहीं
भर पाता; लोगों
का पेट कैसे
भरे?
इसे हम चिकित्साशास्त्र
से आसानी से
समझ सकते हैं।
चिकित्सक
कहते हैं कि
मनुष्य की
हड्डियों पर थोड़ी
सी चर्बी
चाहिए; वह
चर्बी
हड्डियों की
रक्षा करती
है। वह चर्बी
हड्डियों के
आस-पास एक
ऊष्मा, एक
गरमी बनाए
रखती है। वह
चर्बी
जरूरत-गैर-जरूरत
के समय, संकट
के समय
आत्मरक्षा का
उपाय है। अगर
बहुत दिन भूखा
रहना पड़े तो
वह चर्बी
तुम्हारा
भोजन बन
जाएगी।
हर
आदमी
करीब-करीब तीन
महीने भूखा रह
सकता है, इतनी
चर्बी उसके
शरीर में है।
इतना होना
जरूरी है, अन्यथा
आदमी मुश्किल
में होगा।
लेकिन फिर ऐसी
घटना घटती है
कि कुछ लोग
रुग्ण हो जाते
हैं और चर्बी
बढ़ती चली जाती
है। फिर चर्बी
शरीर को बचाती
नहीं, मारती
है; फिर
हड्डियों की
सुरक्षा नहीं
रहती, हड्डियों
को तोड़ने वाला
बोझ हो जाती
है। फिर हृदय
को उतनी चर्बी
को खींचना
मुश्किल हो
जाता है, तो
हृदय पर
आक्रमण होने
शुरू हो जाते
हैं। फिर
चर्बी इतनी बढ़
जाती है कि
मस्तिष्क तक
ऊर्जा नहीं
पहुंचती, तो
भीतर
मस्तिष्क जड़
होने लगता है।
ऐसी घटना घट
सकती है कि
चर्बी इतनी हो
जाए कि आदमी
हिल-डुल न सके;
उसकी गति
समाप्त हो जाए;
उसका जीवन
मृत्यु जैसा
हो जाए।
शासन
थोड़ा सा जरूरी
है। अगर शासन
बढ़ता जाए तो वह
ऐसा ही है
जैसे किसी
आदमी की चर्बी
बढ़ती जाए।
चर्बी एक
मात्रा में
बचाती है; एक
मात्रा के पार
जाने पर मारती
है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
इस पृथ्वी पर
मनुष्य के
आगमन के पूर्व
बड़े विराट
जानवर थे।
हाथी उनके
समक्ष कुछ भी
नहीं। हाथी से
दस-दस गुने
बड़े जानवर थे।
उनके
अस्थिपंजर
उपलब्ध हैं।
हाथी से दस
गुना बड़ा
जानवर, बड़ा
शक्तिशाली
जानवर था, लेकिन
वह बिलकुल
तिरोहित हो
गया। उसका
एकमात्र वंशज
बची है
छिपकली।
छिपकली इतनी
छोटी सी! वे छिपकलियां
थीं हाथियों
से दस गुनी
बड़ी। अचानक वे
कैसे विदा हो
गईं दुनिया से?
वैज्ञानिकों
ने बहुत खोज
करके पाया कि
उनकी चर्बी
इतनी बढ़ गई कि
उस चर्बी को
ढोना मुश्किल
हो गया। चर्बी
के बोझ के
नीचे दब कर ही वे
प्राणी मर गए।
शासन
सुरक्षा है।
शासन जरूरी
है। जहां एक
से ज्यादा लोग
हैं,
वहां कुछ
नियम चाहिए, व्यवस्था
चाहिए; अन्यथा
बड़ी अराजकता
होगी, जीना
मुश्किल हो
जाएगा। इसलिए
शासन की जरूरत
है। लेकिन बस
एक सीमा तक।
वहीं तक शासन
की जरूरत है
जहां तक एक
व्यक्ति को दूसरे
की
जीवन-स्वतंत्रता
में बाधा
डालने से रोकने
की जरूरत है।
बस! कोई
व्यक्ति किसी
के जीवन में
बाधा न डाले, इतने दूर तक
शासन का काम
है।
लेकिन
यह तो
निषेधात्मक
काम हुआ कि
तुम लोगों की
स्वतंत्रता
की रक्षा करो।
लेकिन जब ताकत
हाथ में आती
है शासन के तो
लोगों की स्वतंत्रता
की रक्षा तो
अलग रही, लोगों
को परतंत्र
बनाने की
व्यवस्था
शुरू हो जाती
है। तुम्हारे
जीवन को सुखी
बनाने का उपाय
तो दूर रहा, शासनत्तंत्र जिनके हाथ
में होता है, वे अदम्य
वासना से भर
जाते हैं--और
शक्ति, और
शक्ति! तो
जिनकी वे
रक्षा करने को
नियत किए गए
थे उनके अपशोषक
हो जाते हैं।
शासन छाती पर
बैठ जाता है; प्रजा सिकुड़ती
चली जाती है।
धीरे-धीरे
प्रजा का सब
मांस खो जाता
है, अस्थियां
शेष रह जाती
हैं--अस्थिपंजर!
ऐसे
क्षणों में
बगावत होनी
स्वाभाविक
है। लोग
उपद्रवी हो
जाएंगे। अगर
लोग उपद्रवी
हैं तो उसका
अर्थ इतना ही
है कि शासक
लोगों के ऊपर
अधिक भार की
तरह हो गए
हैं। कर बढ़ते
जाते हैं, टैक्सेशन
बढ़ता जाता है;
नियम बढ़ते
जाते हैं; स्वतंत्रता
कम होती जाती
है। तुम्हारे
चारों तरफ लोहे
की दीवाल बन
जाती है
नियमों की, हिलना-डुलना
मुश्किल हो
जाता है। और
इस सबको भी
लोग बरदाश्त
कर लें; पेट
भी भूखा होने
लगता है। जीवन
नीचे गिरने लगता
है; जरूरत
की चीजें भी
उपलब्ध नहीं
होतीं। और शासन
विराट भवन खड़े
किए चला जाता
है; और
शासन विराट
वैभव का
दिखावा करने
लगता है। लोग
मरते हैं, और
शासन लोगों की
मृत्यु से भी
जीने की कोशिश
करता है। ऐसी
घड़ी में बगावत
स्वाभाविक है,
लोग
उपद्रवी हो
जाएंगे। और
कोई न कोई
उपद्रवी लोगों
को भड़काने
के लिए तैयार
मिल जाएगा।
लोग
स्वयं
उपद्रवी नहीं
हैं;
लोग बड़े
शांत हैं।
लोगों की क्षमता
अपार है। लोग
कितना
बरदाश्त करते
हैं, इसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
लोगों ने सदियों
तक बरदाश्त
किया है; सब
तरह की तकलीफ
झेल ली है।
क्योंकि
उपद्रव में
उतरने का अर्थ
होता है, अपने
को भी उपद्रव
में डालना।
लोग चाहते
नहीं कि
उपद्रव हो।
लेकिन एक ऐसी
घड़ी आ जाती है
संकट की जब कि
जीवन में कोई
अर्थ ही नहीं
रह जाता, जीना
ही मुश्किल हो
जाता है। उस
अंतिम घड़ी में,
मरता क्या न
करता; उस
घड़ी में ही
लोग उपद्रव के
लिए राजी होते
हैं। और तब भी
लोग राजी होते
हैं, ऐसा
कहना कठिन है;
तब जो लोग
शासन में हैं,
उनके
विरोधी लोग जो
शासन में नहीं
हैं, वे
लोगों को राजी
करते हैं।
लोगों
ने अब तक कोई
क्रांति नहीं
की। लोगों का
संतोष अपार
है। लोग सब
तरह की
कठिनाइयां
बरदाश्त करके
चुपचाप जी
लेना चाहते
हैं। क्योंकि जीने
में इतना रस
है कि कौन उसे
उपद्रव में डाले।
लेकिन जब जीना
मुश्किल ही हो
जाए,
रोटी भी
उपलब्ध न हो, पानी भी
उपलब्ध न हो; तब समझो कि
लोग भूख, पीड़ा
में सूख गए
होते हैं, सूखा
ईंधन हो गए
होते हैं, तब
कोई भी
उपद्रवी, जो
शासन-सत्ता
में होना
चाहता है और
नहीं हो पाया,
वह जरा सी
चिनगारी लगा
दे, जरा सी
चकमक चला दे
बगावत की, कि
फिर दावानल उठ
जाता है। भूख
आग बन जाती
है। सभी
क्रांतियां
भूख से पैदा
होती हैं। लोग
जब मरने की
हालत में हो जाते
हैं, तभी
लड़ने को तैयार
होते हैं।
अन्यथा लोग तो
धरती जैसे
हैं--सब सहते
हैं।
लाओत्से
कह रहा है कि
जब लोग
उपद्रवी हों
तब तुम उन्हें
दंड देने की
बजाय इस बात
का विचार करना
कि शासन
अत्यधिक शोषण
कर रहा है।
अन्यथा लोग
कभी उपद्रवी न
होते। लोगों
का उपद्रव
केवल लक्षण है
कि शासन ने
ज्यादा चूस
लिया है लोगों
को। इतना चूस
लिया है कि अब
वे मरने को भी
तैयार हैं, मारने
को भी तैयार
हैं। उनकी भूख
ने उनके जीवन
का बोध, जीवन
का रस, संतोष
की क्षमता, सब छीन लिया
है। अब भूख
इतनी विकराल
है कि अब उन्हें
यह भी नहीं
लगता कि बचने
में कोई सार
है। मिटाने का
एक रस पैदा हो
जाता है भूख
के कारण।
ऐसा ही
समझो कि जैसे
किसी आदमी को
बुखार आ गया हो, शरीर
ज्वर से भरा
है, तापमान
बढ़ता जाता है।
ज्वर लक्षण है,
बीमारी
नहीं; सिम्पटम है। बीमारी
तो भीतर है
कहीं। ज्वर तो
मित्र है; वह
तो खबर दे रहा
है कि अब सब
तरफ से ध्यान
हटा लो; भीतर
कुछ रोग खड़ा
हुआ है, उसे
ठीक करो; उस
रोग को प्रियारिटी
देनी जरूरी है,
प्राथमिकता
देनी जरूरी
है। अब तुम
हजार काम कर
रहे हो, ज्वर
कहता है कि
उसने लाल झंडी
बता दी, अब
तुम रुक जाओ!
अब कुछ भी
करना इतना
महत्वपूर्ण
नहीं है जितना
भीतर की
बीमारी से
जूझना जरूरी
है। पहले
चिकित्सा
करवा लो, विश्राम
कर लो। ज्वर
का अर्थ यह
नहीं है कि शरीर
गरम हो गया है
तो उसको ठंडा
करने से कुछ
हल हो जाएगा।
ज्वर का इतना
ही अर्थ है कि
भीतर कोई रोग
है। उस रोग के
कारण सारा
शरीर उत्तप्त
है, और जल
रहा है और आग
में पड़ा है।
उस रोग को ठीक
कर लो, ज्वर
अपने से शमित
हो जाएगा।
लाओत्से
कहता है कि जब
लोग उपद्रव से
भरे हैं तो यह
लक्षण है
ज्वरग्रस्त
दशा का, समाज
बीमार है। तुम
इन बीमारों को
दंड देते हो? तुम
उपद्रवियों
को जेलों में
डालते हो?
तो तुम
ज्वर का इलाज
कर रहे हो, बीमारी
का नहीं। इससे
तो दावानल और
बढ़ेगा। इससे
तो आग और
फैलेगी। इससे
तो जो भूखे
अभी उपद्रव
में सम्मिलित
नहीं थे, वे
भी सम्मिलित
हो जाएंगे। जब
लोग उपद्रव
करें तो शासन
को समझना
चाहिए कि शासन
ने सीमा से
बाहर शोषण कर
लिया और शासन
लोगों के ऊपर
छाती पर पत्थर
की तरह बैठ गया
है। अब वह
गर्दन में
बंधा हुआ
पत्थर है, जिससे
लोग घबड़ा रहे
हैं, डूब
रहे हैं। अब
शासन बचाता
नहीं है, डुबा
रहा है। इसलिए
अगर चिकित्सा
करनी हो तो
शासन को अपने
ढंग और व्यवस्था
की करनी
चाहिए।
उपद्रवियों
को दंड देना
व्यर्थ है।
चोर
वहीं पैदा
होते हैं जहां
कुछ लोग बहुत
संपत्ति
इकट्ठी कर
लेते हैं, अन्यथा
चोर पैदा नहीं
होते। चोर का
केवल इतना ही
अर्थ है कि
कुछ लोगों के
पास जरूरत से
ज्यादा हो गया
है और कुछ
लोगों के पास
जरूरतें भी
पूरी करने
योग्य नहीं
बचा है। तब
कलह खड़ी हो
जाती है।
शासन
धीरे-धीरे
अपने जाल
फैलाता जाता
है। वह आक्टोपस
की भांति है, जिसके
आठ पंजे हैं, चारों तरफ
फैलाता जाता
है। शुरू में
तो रक्षक की
तरह जन्म होता
है शासन का; जल्दी ही वह
भक्षक हो जाता
है। क्योंकि
जिसके हाथ में
तुमने ताकत दे
दी, ताकत
देते ही उस
व्यक्तित्व
का गुणधर्म
बदल जाता है।
शक्ति के
मिलते ही
व्यक्ति
दुरुपयोग शुरू
कर देता है।
शक्ति
का सदुपयोग
करना बहुत
कठिन है।
शक्ति का
सदुपयोग करना
तो संत ही
जानते हैं।
लेकिन संत तो
राजी न होंगे
शासक बनने को।
शक्ति की आकांक्षा
संतों में
नहीं होती, लेकिन
शक्ति का
उपयोग करना वे
जानते हैं। और
जिनमें शक्ति
की आकांक्षा
होती है, जो
शक्तिवान
होना चाहेंगे,
वे शक्ति का
उपयोग करना
नहीं जानते, वे दुरुपयोग
करना जानते
हैं।
शक्ति
की आकांक्षा
दुर्बल
व्यक्ति में
होती है, सबल
व्यक्ति में
नहीं।
तुम्हारे पास
जो नहीं है, उसी की तो
तुम आकांक्षा
करते हो।
इसलिए जो व्यक्ति
भी राज्य में
पहुंच जाता है,
सत्ताधारी
हो जाता है, सत्ताधारी
होते ही
विक्षिप्त
उसकी दशा हो
जाती है। फिर
वह भूल ही
जाता
है--क्यों आया,
क्यों भेजा
गया, क्या
कारण थे? बात
तो उसने की थी
कि सेवा करने
को जा रहा है
सत्ता में; सत्ता में
पहुंचते ही वह
चाहता है, सब
उसकी सेवा
करें। और
सत्ता में
पहुंचते ही वह
जो व्यक्ति
तुमने भेजा था,
वही नहीं रह
जाता; वह
दूसरा ही
व्यक्ति है जो
पहुंचता है।
भेजते तुम
किसी को हो, पहुंचता कोई
और है।
क्योंकि मध्य
में क्रांति
घटित हो जाती
है।
सत्ता
को झेलने की
क्षमता, और
सत्ता मिल
जाने पर
अपरिवर्तित
रहने की क्षमता
तो संत में हो
सकती है। अब
यह एक उलझन
है। संत शक्ति
चाहता नहीं; मिल जाए तो
भी राजी न
होगा।
क्योंकि वह
अपने में काफी
पर्याप्त है,
वह किसी और
का शासक नहीं
होना चाहता।
वह तो सिर्फ
आत्म-शासन
चाहता है, अपना
शासन अपने ऊपर
चाहता है। उसे
दूसरों पर शासन
करने में कोई
रस नहीं है।
वह तो रस
उन्हीं को
होता है जो
अपने पर शासन
करने में
समर्थ नहीं
हैं। जिनके
जीवन में
मालकियत नहीं
है, वही
किसी और के
स्वामी होना
चाहते हैं।
तुम
संन्यासियों
को मैंने
स्वामी कहा है, सिर्फ
इसी कारण कि
तुम अपने
स्वामी होना
चाहना। तुम
दूसरे के
स्वामी होना
चाहो तो तुम
राजनीतिज्ञ
हो; तुम
अपने स्वामी
होना चाहो तो
तुम धार्मिक
हो।
मालकियत
अपनी संत
चाहता है, दूसरे
पर कोई
मालकियत नहीं
चाहता। तो संत
को राजी करना
मुश्किल कि वह
सत्ता में चला
जाए; सत्ता
दो तो भी लेगा
न। और संत ही
योग्य था सत्ता
में होने के, क्योंकि
उससे
दुरुपयोग
नहीं हो सकता
था। और जो
पागल लोग
सत्ता में
पहुंचने के
लिए दौड़ कर रहे
हैं, वे
सत्ता के
दीवाने हैं।
जब तक सत्ता
नहीं मिली है,
तब तक तुम
उनकी आंखों
में विनम्रता
पाओगे, वे
तुम्हारे पैर
दबाएंगे। जब
उनके हाथ में
सत्ता होगी तब
तुम्हारी
गर्दन
दबाएंगे। तब
उनकी आंखों की
विनम्रता खो
जाएगी। तब तुम
उनमें महा
अहंकार की
अग्नि को
प्रज्वलित देखोगे।
तब उनके पैर
जमीन पर न
पड़ेंगे। तभी
उनका असली रूप
प्रकट होगा।
क्या किया जाए?
भारत
ने एक इसके
लिए उपाय खोजा
था। वह उपाय
यह था कि संत
तो सत्ता में
जाने को राजी
नहीं है और
असंत सत्ता
में जाने को
अति आतुर है, तो
एक ही उपाय है
कि जो भी
सत्ता में हो
वह संतों के
चरणों में
बैठे। और तो
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए संत
तो चले जाते
थे जंगलों में,
लेकिन
सम्राट उनकी
तलाश करते
थे--सत्संग के
लिए। क्योंकि
उनसे शायद झलक,
बस उनसे ही
केवल झलक की
आशा थी कि
सत्ता का दुरुपयोग
न हो पाए।
संत
सत्ता से ऊपर
होना चाहिए।
जब संत सत्ता
से ऊपर हो तो
सत्ता तो उसके
हाथ में नहीं
है,
लेकिन
सत्ता उसके निर्देश
से चलने लगेगी,
उसके उपदेश
से चलने
लगेगी। संत को
राजा बनाने के
लिए तो राजी
नहीं किया जा
सकता, लेकिन
राजा संत के
चरणों में बैठ
कर शिष्य तो बन
सकता है। उसके
लिए राजा को
राजी किया
जाना चाहिए।
तो एक तालमेल
बन सकता है।
तो ही यह संभव
है कि शासन
भक्षक न बन
पाए। अन्यथा
शासन भक्षक हो
जाएगा।
लाओत्से
बिलकुल ठीक कह
रहा है।
लाओत्से कह रहा
है,
लोग भूखे
हैं, इसलिए
उपद्रवी हैं;
और तुम
उन्हें दंड
देते हो! जब
लोग उपद्रव
करें तब
तुम्हें दंड
तो अपने को
देना चाहिए, क्योंकि लोग
इसकी खबर दे
रहे हैं कि
तुमने अब बहुत
चूस लिया; अब
तुम सीमा से
आगे बढ़ गए; लोगों
की क्षमता
धैर्य की
समाप्त हो गई।
और लोगों की
धैर्य की
क्षमता बड़ी
गहन है; तुम
उसे भी समाप्त
कर दिए!
क्योंकि लोग
सदियों से
सहते हैं। अगर
हम लोगों की
सहिष्णुता का
विचार करें तो
वह अनंत मालूम
पड़ती है।
क्रांति, बगावत
के लिए तो वे
कभी-कभी राजी
होते हैं। और
वह भी लोग
राजी नहीं
होते, वह
भी दूसरी
सत्ता के
लोलुप उनको भड़काते
हैं, तभी
राजी होते
हैं।
लाओत्से
के वचन हम
समझने की
कोशिश करें।
"जब
लोग भूखे हैं,
तो उसका
कारण है कि
शासक बहुत करान्न
खा जाते हैं।'
लोगों
का कर के
माध्यम से इतना
ज्यादा शोषण
हो जाता है कि
उनके पास कुछ
बचता ही नहीं
जीने के लिए।
"इसलिए
भूखे लोगों का
उपद्रव उनके
शासकों के हस्तक्षेप
से पैदा होता
है।'
इसलिए
मूल कारण कहीं
शासन में है, लोगों
में नहीं है।
लोग तो केवल
उस मूल कारण के
कारण
प्रतिक्रिया
करते हैं। अगर
तुमने यह समझा
कि लोगों में
ही कारण है तो
तुम उन्हीं को
दबाने में लग
जाओगे, उन्हीं
को मारने में
लग जाओगे। तब
भूल हो गई। तब
तुमने लक्षण
को बीमारी समझ
लिया। बीमारी
कहीं गहरे में
थी; तुम
लक्षण को
मिटाने में लग
गए! जो अपराधी
न थे, उन्हें
तुमने जेलों
में डाल दिया।
जो अपराधी न
थे, उनकी
तुमने
गर्दनें काट
दीं। और जो
वस्तुतः अपराधी
थे, वे
मालूम पड़ते
हैं कि जैसे
समाज की
सुरक्षा कर
रहे हैं।
लोगों
के जीवन में
बहुत
हस्तक्षेप
नहीं होना चाहिए।
राज्य ऐसा
होना चाहिए कि
लोगों को पता ही
न चले कि वह
कहां है।
राज्य ऐसा
होना चाहिए कि
उसकी प्रतीति
न हो। क्योंकि
प्रतीति का
मतलब है कि
राज्य हर जगह
तुम्हारे
रास्ते में
खड़ा हो जाता
है। तुम उठते
हो तो राज्य
का विचार करना
पड़ता है, बैठते
हो तो विचार
करना पड़ता है,
तुम हिलते
हो तो विचार
करना पड़ता है।
राज्य ऐसा
होना चाहिए कि
तुम्हें
तुम्हारी
स्वतंत्रता
पर छोड़ दे।
राज्य तो तभी
बीच में आना
चाहिए जब तुम
किसी और की
स्वतंत्रता
पर आघात करो; इसके पहले
नहीं।
ठीक है, राज्य
की व्यवस्था
के लिए थोड़े
से कर की
जरूरत है कि
राज्य की
व्यवस्था
चलती रहे।
लेकिन जो काम
साधारणतः एक
आदमी कर सकता
है, वही
राज्य के हाथ
में जाने पर
पचास आदमी भी
नहीं कर पाते।
राज्य के हाथ
में जो काम
चला जाता है
उसका ही पूरा
होना मुश्किल
हो जाता है।
फाइलें सरकती
रहती हैं एक
टेबल से दूसरी
टेबल पर। उनके
अंबार हो जाते
हैं। उनका कोई
अंत ही नहीं
मालूम पड़ता कि
कोई चीज कभी
पूरी होगी।
छोटे-छोटे
मुकदमे चलते
हैं, वर्षों
तक चलते रहते
हैं। कोई
हिसाब नहीं कि
मुकदमे का
इतना मूल्य ही
न था; और
वर्षों जितना
उस पर व्यय
किया जाता है,
उसका कोई
हिसाब नहीं
है। जो काम
क्षण भर में निपट
सकता था, वह
सालों में भी
नहीं निपटता
मालूम पड़ता।
मेरे
एक परिचित हैं; उन
पर एक मुकदमा
चला। वह
मुकदमा उन पर
उन्नीस सौ बीस
में चला और
अभी खतम नहीं
हुआ है। उस
मुकदमे में
चार लोगों पर
मुकदमा चला था;
तीन मर
चुके। जितने
न्यायाधीशों
ने उस मुकदमे
को किया, वे
सब मर चुके।
जिस राज्य ने
मुकदमा चलाया
था, ब्रिटिश
राज्य ने, वह
मर चुका।
जितने वकीलों
ने मुकदमे में
भाग लिया था, वे सब मर
चुके। सिर्फ
एक आदमी बच
रहा है। वे मुझसे
कहते हैं कि
जब तक मैं न मर
जाऊं, यह
खतम न होगा; अब बस मेरे
मरने की और
बात है, तभी
यह खतम होगा।
पचास
साल कोई
मुकदमा चल रहा
है! लेकिन
उसका कोई अंत
ही नहीं मालूम
पड़ता। उसमें
से नये जाल निकलते
आते हैं, चीजें
आगे बढ़ती चली
जाती हैं।
सरकार जैसे हर
चीज को स्थगित
करने की बड़ी
गहरी तरकीब
है। फिर इस पर
व्यय होता है,
करोड़ों
रुपये का व्यय
होता है। वह
सारा व्यय उन
लोगों के पास
से आ रहा है
जिनके पेट
भूखे हैं।
यहां लोगों को
रोटी नहीं
मिलती, वहां
व्यर्थ की
बातें वर्षों
तक चलती रहती
हैं जिनका कोई
अंत नहीं आता।
और सभी सरकारी
नौकर कुशल हो
जाते हैं
टालने में।
किसी को कुछ
जरूरत ही नहीं
मालूम पड़ती कि
कोई चीज कभी
अंत होनी
चाहिए।
मैंने
सुना है कि
दिल्ली के एक
दफ्तर
में--बड़ा दफ्तर, बड़ा
कारोबार--किसी
की टेबल कभी
खाली नहीं, सब की टेबलों
पर फाइलों के
अंबार लगे
हैं। सिर्फ एक
आदमी की टेबल
सदा खाली, जैसे
कि हर काम वह
रोज निपटा रहा
है। लोग चिंतित
हुए कि ऐसा
कहीं हुआ है?
आखिर
एक आदमी ने
उससे पूछा कि
तुम किस तरकीब
से काम करते
हो?
तुम्हारी
टेबल पर कभी
फाइल नहीं
रहती! हर चीज तुम
रोज निपटा
देते हो जो कि
बिलकुल असंभव
है; कभी
हुआ ही नहीं
राज्यों के
इतिहास में!
तुम्हारी
तरकीब क्या है?
और तुम कभी
थके-मांदे भी
नहीं दिखते।
कभी ऐसा भी
नहीं कि तुम
समय के बाद
काम करते
दिखते हो। तुम
ठीक ग्यारह
बजे आते हो, ठीक पांच
बजे चले जाते
हो। और टेबल
सदा खाली!
उस
आदमी ने कहा, इसकी
एक तरकीब है।
तरकीब यह है
कि कुछ भी आए, मैं बिना
फिक्र उस पर
लिख देता हूं:
सेंड इट टु दयाराम
फार फर्दर
एक्सप्लेनेशंस--इसे
भेज दो दयाराम
के पास और आगे
की जानकारी के
लिए। अब मैं
सोचता हूं, इतना बड़ा
दफ्तर है, कोई
न कोई दयाराम
होगा ही।
उस
आदमी ने, जो
पूछ रहा था, सिर ठोंक
लिया। उसने
कहा, दयाराम मैं हूं! और
मेरी टेबल पर
चल कर देखो।
तो तुम्हारी
कृपा है यह कि
सारी दुनिया
की फाइलें
मेरी टेबल पर
चली आ रही हैं!
और मैं कोई हल
ही नहीं कर पा
रहा हूं कि
उनका हल कैसे
हो।
भेज
रहे हैं लोग
एक से दूसरे
के पास। नीचे
की पहली
पायदान से शुरू
होती है फाइल
और वह
प्रधानमंत्री
तक जाती है।
वर्षों लगते
हैं। फिर
प्रधानमंत्री
से वापस लौटती
है कोई नयी
जानकारी के
लिए। फिर
वर्षों लगते
हैं। ऐसे ही
सब डोलता रहता
है। राज्य काम
तो करता ही
नहीं, सिर्फ
टालता है। जो
काम राज्य के
हाथ में चला
जाता है, वही
होना बंद हो
जाता है। और
फिर भी, मजे
की बात है, राजनेता
कहे चले जाते
हैं समाजवाद
के लिए। जो उनके
पास है, कुछ
भी उनसे होता
नहीं; लेकिन
वे चाहते हैं
कि सारे मुल्क
का सारा काम
उनके हाथ में
हो जाए। वह
फिर कब होगा? फिर उसके
होने की कोई
संभावना ही
नहीं है। और इस
सब व्यवस्था
को जमाए रखने
में--यह सब
मुफ्त नहीं
जमती--इस
व्यवस्था को
जमाए रखने में
सारा राज्य का
शोषण चलता है।
मैं एक
सरकारी कालेज
में कुछ दिन
तक प्रोफेसर था।
तो मैं चकित
हुआ,
किसी
प्रोफेसर को
कोई पढ़ाने
की न इच्छा है,
न कोई
उत्सुकता है।
लोग प्रोफेसर्स
के कामन
रूम में बैठ
कर गपशप करते
हैं, बातचीत
चलाते हैं।
लड़के आते हैं,
चले जाते
हैं, कोई
किसी को
उत्सुकता
नहीं है।
मैंने एक मित्र
को पूछा कि यह
मामला क्या है?
तो उसने कहा,
यह कोई
प्राइवेट
कालेज नहीं है,
सरकारी
कालेज है।
प्राइवेट
कालेज में
पढ़ाई वगैरह
होती है। यह
सरकारी कालेज
है, यहां
कोई किसी को
जरूरत नहीं है
कुछ करने की। यहां
तो जो नासमझ
हैं वे ही पढ़ाते
हैं; जो
समझदार हैं वे
राजनीति करते
हैं। जो समझदार
हैं वे वाइस
चांसलर का इलेक्शन
लड़ने का उपाय
कर रहे हैं; और ऊपर कैसे
चढ़ जाएं, प्रिंसिपल
कैसे हो जाएं,
हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट
कैसे हो जाएं,
उस काम में
लगे हैं।
नासमझ कुछ
छोटे-मोटे नये
जो आ जाते हैं,
जिनको अभी
पता नहीं कि
क्या करना, वे क्लासों
में पढ़ाते
हैं।
सरकारी
होते ही कोई
भी काम स्थगित
हो जाता है।
और यह सब
भयंकर भार है।
लाओत्से
कहता है, लोग
भूखे हैं, उपद्रव
पैदा होगा।
लेकिन शासकों
के हस्तक्षेप
से यह सब हो
रहा है। लोगों
को उनके जीवन
पर छोड़ दो; वे
अपने लायक
कमाने में सदा
समर्थ थे; वे
अपना पेट भर
लेने में सदा
समर्थ थे।
जानवर, पशु-पक्षी
समर्थ हैं; आदमी क्यों
समर्थ न होगा!
बहुत
मजे की घटना
घटती रहती है!
राज्य कहता
रहता है, गरीबी
मिटानी
है। और राज्य
की वजह से
गरीबी पैदा
होती जाती है।
जो गरीबी पैदा
कर रहे हैं वे
उसको मिटाने का
नारा देकर
लोगों को धोखा
देते रहते
हैं।
राज्य
जितना कम होगा
उतने ही लोग
संपन्न होंगे।
क्योंकि लोग
अपने पेट भरने
लायक काफी
पैदा कर लेते
हैं;
उसके लिए
कोई कमी नहीं
है। और लोगों
की कोई बहुत महत्वाकांक्षाएं
नहीं हैं।
भरपेट रोटी
मिल जाए, तन
भर कपड़ा
मिल जाए, विश्राम
के लिए छप्पर
मिल जाए--इतनी
लोगों की आकांक्षा
है। लोगों की आकांक्षाएं
बहुत नहीं
हैं। उपद्रव
तो उन लोगों
के साथ है
जिनकी बहुत आकांक्षाएं
हैं। वे बहुत
थोड़े लोग हैं।
और उन्होंने
सारे समाज को
उपद्रव में
डाल दिया है।
उनकी थोड़ी सी
वासनाओं की
पूर्ति के लिए
सारा समाज
भूखा मरता है,
सड़ता है, बीमार
रहता है, दीन-दरिद्र
रहता है। समय
के पहले मर
जाते हैं लोग--हस्तक्षेप
राज्य में!
गरीब
भी प्रसन्न था; अब
अमीर भी
प्रसन्न नहीं
है। गरीब भी
कमा लेता था
रोटी अपने
लायक; सांझ
को बैठ कर
ढपली बजाता था,
गीत गाता था;
वर्षा आती
थी तो आल्हा-ऊदल पढ़ता
था। रात देर
तक अलाव जला
कर गपशप करता
था; गहरी
नींद सोता था।
गरीब की कोई
बहुत आकांक्षा
नहीं है।
लोगों की कोई
बहुत
आकांक्षा
नहीं है। थोड़े
से विक्षिप्त
लोग हैं, उनकी
बड़ी भयंकर आकांक्षाएं
हैं जो कभी
पूरी नहीं हो
सकतीं। उनकी न
पूरी होने
वाली
आकांक्षाओं
के लिए लोगों
की सहज आकांक्षाएं,
जो सदा पूरी
हो सकती हैं
और पूरी होनी
चाहिए, वे
पूरी नहीं हो पातीं।
समाज थोड़े से
पागलों के
कारण परेशान है।
जरूरत
की चीजें
पर्याप्त हैं
प्रकृति में।
भोजन जमीन
बहुत दे सकती
है--पेट भरने
लायक। लेकिन
अगर पेट की
जगह पागलपन हो
तो पागलपन को
भरने लायक
जमीन अन्न
नहीं दे सकती।
पानी बहुत है।
आकाश बड़ा है; सबके
लिए छाया हो
सकती है।
लेकिन जैसे ही
कुछ पागल लोग,
एंबीशस जिनको हम
कहते हैं, महत्वाकांक्षी,
और
महत्वाकांक्षा
पागलपन का
गहरे से गहरा
रूप है, जैसे
ही महत्वाकांक्षियों
के जाल में
समाज पड़ जाता
है वैसे ही
अड़चन खड़ी हो
जाती है। उन
पागलों की
पूर्ति के लिए
सब मिट जाते
हैं; और
फिर भी पागलों
की तो कोई
पूर्ति होती
नहीं; वह
भी हो जाती तो
भी कोई बात
थी।
लाओत्से
कहता है, लोगों
का उपद्रव
पैदा होता है
शासन के अति
भार से। शासन
लोगों की रोटी
छीन लेता है; और प्रतिपल
हस्तक्षेप
करता है।
हस्तक्षेप ऐसा
है कि आदमी को
लगता है कि वह
बिलकुल
स्वतंत्र ही नहीं
है, कुछ भी
करने को
स्वतंत्र
नहीं है। सब
तरफ परतंत्रता
खड़ी है। और
परतंत्रता के
नियम इतने ज्यादा
हैं कि अब ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
अपने को
अपराधी अनुभव
न करे।
क्योंकि अगर
जीना है तो
कोई न कोई
नियम तोड़ना
पड़े, नहीं
तो जी नहीं
सकते। या तो
मर जाओ, आत्मघात
कर लो; और
या फिर अपराधी
हो जाओ। राज्य
ने दो ही विकल्प
छोड़े हैं। हर
आदमी अपराधी
अनुभव करता है,
क्योंकि
उसे लगता है, कहीं थोड़ा
सा टैक्स बचा
लिया, कहीं
कुछ और नियम
तोड़ दिया, जो
चीज नहीं ले
आनी थी वह ले
आए, जो
नहीं खरीदना
था वह खरीद
लिया, जो
नहीं बेचना था
वह बेच दिया।
हर पल ऐसा
लगता है कि
आदमी कहीं न कहीं
जुर्म कर रहा
है, अपराध
कर रहा है। और
वह स्थिति
बहुत अच्छी नहीं
है जहां पूरे
समाज के सभी
लोग
आत्म-अपराध से
भर जाएं और
जहां उनको
प्रतिपल डर
लगता हो कि आज पकड़े कि कल पकड़े, कि
कब खुल जाएगा
यह भंडा, पता
नहीं।
और कोई
अपराधी नहीं
है। नियम
अपराधी हैं, अति
नियम अपराधी
हैं। अब जैसे
कि कोई यही
नियम बना दे
कि तुम बाहर
खड़े होकर खुले
आकाश में सांस
नहीं ले सकते
हो। तो फिर
तुम लोगे सांस
तो अपराधी
अनुभव करोगे।
और यह घड़ी कभी
न कभी आ जाएगी,
क्योंकि
हवा विषाक्त
होती जा रही
है। पश्चिम
में तो हो ही
गई है। पश्चिम
में छोटे-छोटे
बच्चे स्कूल
नकाब पहन कर
जा रहे हैं
जिसके साथ एक
आक्सीजन की
थैली जुड़ी
होती है।
क्योंकि
सड़कों पर जो
हवा है, कारों
के अत्यधिक
चलने से वह
विषाक्त हो गई
है; उसको
पीना खतरनाक
है।
इस बात
की बहुत
संभावना है कि
ऐसा वक्त आ
जाएगा पचास
साल के भीतर, जब
केवल शासक ही
खुले आकाश में
हवा ले सकेंगे,
क्योंकि
उनके पास ही
सुविधा होगी।
बाकी लोग तो
अपनी-अपनी
थैली लटका कर,
जैसे अभी
टिफिन लटका कर
दफ्तर जाते
हैं, ऐसे
ही अपनी-अपनी
आक्सीजन की
थैली लटका कर
दफ्तर जाने
लगेंगे। हवा
भी कम पड़
जाएगी, ऐसा
मालूम पड़ता
है। भोजन कम
पड़ गया है, पानी
कम पड़ गया है, हवा भी कम पड़
जाएगी। ऐसा
लगता है कि
जीवन कम पड़ता
जाता है। कौन
इस जीवन को
चूस लिए जा
रहा है? यह
कहां जीवन की
इतनी ऊर्जा
विलीन हो जाती
है? कौन
इसे हड़प
जाता है?
कहीं
भी तुम जी रहे
हो,
राज्य का हाथ
तुम्हारे
खीसे में है।
तुम कुछ भी
करो, तुम
कुछ भी बनाओ, तुम कुछ भी कमाओ, अधिक
हिस्सा राज्य
के पास चला
जाता है।
तुम्हें तो
उतना ही छोड़ा
जाता है जितने
में तुम जिंदा
रहो और काम
करते रहो, मर
न जाओ।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक गधा
खरीदा था।
जिससे खरीदा
था,
उसने कहा कि
इस गधे से
मेरा बड़ा लगाव
है; मजबूरी
में बेच रहा
हूं। बड़ा
प्यारा जानवर
है। इसको इतना
भोजन नियम से
देना, इतना
पानी, इतनी
व्यवस्था, तो
सदा तुम्हारी
सेवा करेगा।
बेचने
वाला बड़ा दुख
में था, गधे
से बिछुड़
रहा था। नसरुद्दीन
ने कहा, तू
फिक्र मत कर।
घर आकर लेकिन
उसने हिसाब
लगाया कि
जितना खाने का
उसने बताया है,
यह तो बहुत
ज्यादा है।
पहले मैं
कोशिश करूं कि
इससे आधे में
काम चल जाएगा
कि नहीं। तो
उसने गधे को
आधा भोजन देना
शुरू किया।
काम चल गया; गधा यद्यपि
थोड़ा दुबला हो
गया। पर नसरुद्दीन
ने कहा कि अब
जरा ठीक ही
लगते हो, थोड़े
सुडौल हो गए।
फिर उसने कहा
जब आधे से चल जाता
है तो और आधे
से क्यों न चल
जाएगा! तो और
आधा कर दिया।
उतने में भी
काम चल गया, लेकिन गधा
थोड़ा दुबला
होता गया।
लेकिन दुबलापन
तो धीरे-धीरे
आया, नसरुद्दीन को दिखाई भी
न पड़ा। जब, उसने
कहा, इतने
से ही काम
चलने लगा तो
बिलकुल बिना
भोजन के भी चल
सकता है; थोड़ा
दुबला ही होगा,
और क्या
होगा! उसने
भोजन ही बंद
कर दिया। जिस
दिन उसने भोजन
बंद किया, उसके
दूसरे दिन ही
गधा मर गया।
तो नसरुद्दीन
ने कहा, अगर
थोड़े दिन और
जी जाता तो
बिना ही भोजन
का अभ्यासी हो
जाता। वक्त के
पहले मर गया।
वक्त
के पहले मर
गया! भोजन न
देने से मर
गया,
ऐसा नहीं।
इसकी मौत आ गई
बेचारे की।
थोड़े दिन की
बात थी कि
अभ्यास पक्का
हो जाता, बिना
ही भोजन के जी
जाता!
जनता
मरती चली जाती
है;
राज्य
बहाने खोजता
चला जाता है।
क्यों ऐसा हो रहा
है? कभी
कहता है, जनसंख्या
बढ़ गई, इसलिए
ऐसा हो रहा
है। कभी कहता
है, युद्ध
हो गया, उसमें
ज्यादा खर्च
हो गया, इसलिए
ऐसा हो रहा
है। कभी
प्रकृति पर
थोपता है कि
बादल न बरसे; कभी धूप
ज्यादा आ गई; कभी बाढ़ आ
गई। लेकिन एक
बात पर कभी
राज्य ध्यान
नहीं देता कि
तुम भोजन
खींचे चले जा
रहे हो, और
तुम्हारी विराट
देह और विराट
होती चली जा
रही है, और
लोग उसके नीचे
दबते जा रहे
हैं, मरते
जा रहे हैं।
बादलों पर दोष
देते हो, नदियों
पर दोष देते
हो, संख्या
पर दोष देते
हो, सब
चीजों पर दोष
देते हो; सिर्फ
एक अपने पर
कभी दोष नहीं
देते--और जो कि
नब्बे
प्रतिशत कारण
है। राज्य
नब्बे
प्रतिशत कारण
है लोगों की
भूख, बीमारी,
गरीबी, उपद्रव
का। लेकिन
राज्य अपने को
कैसे दोष दे? कोई अपने को
दोष नहीं
देता।
लाओत्से
कहता है, "...शासकों
के हस्तक्षेप
से पैदा होता
है। इसी कारण
वे उपद्रवी
हैं।'
तुम
उन्हें दंड मत
दो;
तुम उनके
पेट को भरो।
और उनका
उपद्रव खो
जाएगा। तुम
उन्हें जेलखानों
में मत भेजो।
उन्हें कपड़े
और मकान की
जरूरत है।
उनकी जीवन की
न्यूनतम
आवश्यकताएं
भी पूरी नहीं
हो रही हैं, इसलिए वे
उपद्रवी हैं।
बड़ी
महत्वपूर्ण
बात इसके आगे
लाओत्से ने
कही है, "लोग
मृत्यु से भयभीत
नहीं हैं, क्योंकि
वे जीविका
कमाने के लिए
चिंतित हैं।'
इसे
समझें। इस पर
मैं निरंतर
जोर देता रहा
हूं।
मनुष्य
की सीढ़ी के
तीन पायदान
हैं। पहला
उसका शरीर; दूसरा
उसका मन; तीसरी
उसकी आत्मा।
और इन तीन
पायदानों पर
जो चढ़ जाता है,
वह चौथे को
उपलब्ध होता
है, जिसे हम
परमात्मा
कहते हैं।
जिसकी
शरीर की
जरूरतें पूरी
न होंगी, वह
दूसरे पायदान
पर न चढ़
पाएगा। जो
भूखा है--तो हमने
कहा है, भूखे
भजन न होईं
गोपाला--वह
कैसे भजन
करेगा? भूखे
को भजन चाहिए
नहीं, भोजन
चाहिए। और जब
प्राणों में
भूख भरी हो और रोआं-रोआं
भूखा हो, तो
तुम कैसे भजन
करोगे? तब
ब्रह्म की याद
न आएगी; तब
तो भोजन ही
तुम्हारे
चारों तरफ
घूमता रहेगा।
और इसमें
तुम्हारा कोई
कसूर नहीं है।
यह स्वाभाविक
है। यह बिलकुल
ठीक है। ऐसा
होना ही चाहिए।
यह प्रकृति का
नियम है।
इसमें तुम
अपने को दोषी
मत ठहराना कि
मुझे भोजन की
याद क्यों आती
है जब मैं भजन
करने बैठता
हूं! साफ है कि
तुम भूखे हो।
और शरीर पहली
जरूरत है।
शरीर अगर पूरा
न हो तो मन की
जरूरतें उठ ही
न पाएंगी। भूखे
भजन नहीं होता,
ऐसा ही नहीं;
भूखे चिंतन
भी नहीं होता,
विचार भी
नहीं होता।
अब तो
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर बच्चों को
ठीक-ठीक भोजन
न मिले तो
उनका
बुद्धि-अंक
नीचे रह जाता
है,
उनका आई.क्यू.
नीचे रह जाता
है। अगर
बच्चों को
ठीक-ठीक पौष्टिक
आहार न मिले
बचपन में तो
सदा के लिए
उनकी बुद्धि
कमजोर रह जाती
है; उनकी
बुद्धि कभी भी
ऊंचाई को
उपलब्ध नहीं
हो सकती।
जीवन-ऊर्जा ही
नहीं है इतनी
कि उसको इतनी
ऊंचाई पर ले
जा सके।
शरीर
की जरूरतें
पूरी जब हो
जाती हैं तो
मन की जरूरतें
पैदा होती
हैं। वह दूसरा
पायदान है। शरीर
की जरूरत है:
रोटी, पानी, छप्पर, कपड़ा।
बहुत छोटी
जरूरतें हैं।
और
ध्यान रखना, आवश्यकता
और वासना में
बड़ा फर्क है।
आवश्यकता तो
स्वाभाविक है;
वासना
विक्षिप्त
है। भूख लगे
तो भोजन करना
स्वाभाविक
है। लेकिन
भोजन के बाद
भी अगर कोई
चौबीस घंटे
भोजन का चिंतन
करता रहे और
विचार करता
रहे, तो आब्सेशन
हो गया, तो
वह भोजन के
पीछे पागल है।
भोजन, पेट
भर जाए, तब
भी कोई खाता
चला जाए, तो
वह विक्षिप्त
है। उसकी
चिकित्सा की
जरूरत है। वह
भोजन से शरीर
को मार
डालेगा।
जिस
चीज की जरूरत
पूरी हो जाए, उस
जरूरत के पीछे
पागल की तरह
लगे रहना रोग
है। वासना रोग
है, आवश्यकता
स्वाभाविक
है। आवश्यकता
पूरी करना और
वासना से
बचना!
आवश्यकता तो
रोटी की है, पानी की है; वासना स्वाद
की होती है।
आवश्यकता तो
कपड़ों की है, शरीर ढंकना
चाहिए; सर्दी
है, गरमी
है, जरूरत
है। शरीर तो
ढंका जा सकता
है, लेकिन
वासना का शरीर
तुम कभी न ढंक
पाओगे। कितने
ही बहुमूल्य
वस्त्र
तुम्हारे पास
आ जाएं, वासना
कायम रहेगी।
वासना दुष्पूर
है। आवश्यकता
की पूर्ति तो
बिलकुल सरल
है।
तो तुम
कैसे तय करोगे, क्या
है वासना? क्या
है आवश्यकता?
सोचना। जो
चीज पूरी हो
सके वह
आवश्यकता है;
जो कभी पूरी
न हो सके वह
वासना है। तुम
एक मकान में
रहते हो, सोचते
हो बड़ा महल हो
जाए। तो
विचारना कि
बड़ा महल होने
से और बड़े महल
की वासना
उठेगी या नहीं?
अगर उठेगी
तो झोपड़े
में ही रहना
बेहतर है; कुछ
अर्थ नहीं है
बड़े महल में
जाने से भी।
क्योंकि और
बड़ा महल पकड़ेगा।
वासना के पूरे
होने का कोई
उपाय नहीं है।
आवश्यकता तो
बड़ी निर्दोष
है, बड़ी
सरल है। उसमें
कोई जटिलता ही
नहीं है। आवश्यकता
तो भिखारी की
भी पूरी हो सकती
है; वासना
सम्राट की भी
पूरी नहीं
होती। वासना
का पूरा होना
स्वभाव ही
नहीं है।
शरीर
की जरूरतें
पूरी हो जाएं
तो मन की
जरूरतें पैदा
होती हैं।
संगीत है, साहित्य
है, नृत्य
है, काव्य
है। जैसे ही
शरीर की
जरूरतें पूरी
होती हैं, मन
की जरूरतें
आनी शुरू होती
हैं।
मन की
जरूरतें जब
पूरी होने
लगती हैं। सुन
लिया बहुत
संगीत, थोड़ी
शांति मिली; लेकिन वह
शांति और बड़ी
शांति की
आकांक्षा जगा गई।
थोड़ा सा स्वाद
पाया ध्यान का,
अब संगीत
काफी नहीं
मालूम पड़ता।
अब तो उस संगीत
में जाना है
जो शाश्वत है,
जो आदमी के
द्वारा पैदा
नहीं होता, जो परमात्मा
से उठता है।
अब तो उस
संगीत में खो
जाना है जिसके
स्वर भी शून्य
हैं। पढ़ा
काव्य को, गीत
गाए, गुनगुनाए,
पक्षियों
के गीत सुने, खिलते फूलों
को देखा, सौंदर्य
को पहचाना, स्वर को
जाना, लय
की समझ आई, छंद
का बोध हुआ; लेकिन सब कम
पड़ जाएगा!
मन तो
केवल झलक देता
है,
क्योंकि मन
तो दर्पण है।
उसमें तो
प्रतिबिंब बनते
हैं। लेकिन
प्रतिबिंब
अच्छे हैं।
अगर तुम
प्रतिबिंब
में ही उलझ गए
तो खतरा है।
जिसके
प्रतिबिंब
बनते हैं मन
में, अगर
दर्पण में देख
कर तुम उसकी
यात्रा पर
निकल गए, दर्पण
की तरफ कर ली
पीठ, खोजने
लगे उसको
जिसकी छाया
पड़ती थी दर्पण
में। संगीत
में सुना था
कुछ, वह
छाया ध्यान की
है।
इसलिए
संगीत सुनते
कभी-कभी एकदम
ध्यान लग जाएगा; सुनते-सुनते
ही सब शांत हो
जाएगा। फूल को
देखते-देखते
फूल भूल जाएगा;
कोई
सौंदर्य सब
तरफ से घेर
लेगा। दर्पण
को छोड़ कर
तीसरी यात्रा
शुरू होती
है--तीसरा
पायदान--कि मन
में जिसकी
छाया बनती थी,
अब हम उसको
खोजने निकलते
हैं। मन की
आवश्यकताएं
जब पूरी हो
जाती हैं तो
लोग आत्मा की
आवश्यकताओं
में उठते हैं।
तब प्रार्थना,
पूजा, अर्चना,
ध्यान, उनका
रस लगता है।
तब संन्यास।
भूखा
आदमी गीत भी
नहीं समझ
सकता। भूखे के
कान पर तुम
वीणा बजाओ
तो उसे सिर्फ
स्वरों का
उत्पात मालूम
पड़ेगा। भूखा
आदमी कहेगा, बंद
करो! अभी यह
क्षण सुनने का
नहीं। बंद करो
यह वीणा! इससे
चोट पड़ती है।
इससे हृदय में
घाव होता है।
भूखा आदमी
चांद को भी
देखे तो चांद
भी उदास मालूम
पड़ता है। भूखा
आदमी फूल को
भी देखे तो
फूल को भी खा
जाने का मन
होता है, फूल
के सौंदर्य को
अनुभव करने का
नहीं।
जैसे
शरीर की जरूरत
पूरी होती है, मन
की जरूरत उठती
है। जो लोग
शरीर की जरूरत
में ही उलझे
रह जाते हैं, उसे वासना
बना लेते हैं,
वे अभागे
हैं।
उन्होंने
पहले पायदान
को ही घर बना
लिया। वह सीढ़ी
थी, उससे
आगे जाना था।
अभी बहुत
रहस्य बाकी
थे। वे भवन के
बाहर सीढ़ियों
पर ही मकान
बना कर रह गए। आवश्यक
था सीढ़ियों को
पार करना, लेकिन
सीढ़ियों पर
रुक जाना
नहीं। जिसने
आवश्यकता को
वासना बना
लिया, वह
सीढ़ियों पर
रुक जाएगा। वह
जिंदगी भर
खाने में लगा
रहेगा, कपड़े
पहनने में लगा
रहेगा, मकान
बनाने में लगा
रहेगा। बहुत
लोग उसी तरह सीढ़ियों
पर जीवन बिता
रहे हैं। उनके
दुर्भाग्य की
सीमा नहीं है!
उन्हें पता ही
नहीं कि सीढ़ियां
आगे ले जाती
हैं; सीढ़ियां कोई घर नहीं
हैं।
दूसरी
जगह है मन।
कुछ लोग मन
में खो जाते
हैं। फिर उनका
यही राग-रंग
हो जाता
है--संगीत
सुनना है, चित्र
देखने हैं, फिल्म, उपन्यास।
जरूरी था, लेकिन
काफी नहीं।
उससे भी जागना
है; उससे
भी ऊपर जाना
है। तब कभी
ध्यान, संन्यास
की महिमा
प्रकट होती
है। और वह भी
सीढ़ी ही है; उसके भी पार
जाना है। तब
कहीं
परमात्मा के
जीवन में, परमात्मा
के मंदिर में
प्रवेश होता
है। तब नदी
सागर में
गिरती है।
लाओत्से
कहता है, "लोग
मृत्यु से
भयभीत नहीं
हैं।'
क्योंकि
जो व्यक्ति
मृत्यु से
भयभीत हो जाएगा, वह
तो धार्मिक हो
जाएगा।
मृत्यु का भय
तो तभी पकड़ता
है जब जीवन की
सब जरूरतें
पूरी हो जाती
हैं। मृत्यु
का भय तो
दूसरे चरण पर पकड़ता है।
जब शरीर भूखा
होता है तब तो
जीवन ही तुम्हारे
पास नहीं, मृत्यु
की तुम क्या
चिंता करोगे?
अभी पेट
भरना है; मृत्यु
की कौन फिक्र
करता है? अभी
तो तुम
आजीविका
जुटाने में
लगे हो, अभी
जीवन ही नहीं
थिर हो पाया; मरने की बात
ही कहां सोचने
की सुविधा है?
तो
लाओत्से कहता
है,
"लोग
मृत्यु से
भयभीत नहीं
हैं, क्योंकि
वे जीविका
कमाने के लिए
चिंतित हैं।'
उनका
पेट भूखा है; भजन
वे नहीं कर
सकते। अभी मौत
का बोध भी
नहीं उठता
उन्हें।
बुद्ध को उठा
मौत का बोध, क्योंकि
शरीर की
जरूरतें पूरी थीं,
मन की
जरूरतें पूरी
थीं, अब
जीवन में ऐसा
कुछ भी न था जो
जानने को बचा
हो। जब जीवन
में जानने को
कुछ भी नहीं
बचता, तभी
तो आंख ऊपर
उठती है; तभी
तो याद आती है
कि यह जीवन तो
समाप्त हो जाएगा;
क्या इसके
पार भी कुछ है?
क्या
मृत्यु के पार
भी कोई जीवन
है?
बुद्ध
के समय में
भारत में बड़ी
धार्मिक घटना
घटी। क्योंकि
देश बड़ा
संपन्न था; देश
बड़ा सुखी था।
लोगों के पेट
भरे थे। उनके
खलिहान खाली न
थे। लोग
प्रसन्न थे।
बुद्ध के पीछे
हजारों-लाखों
लोग चल पड़े।
महावीर के
पीछे हजारों-लाखों
लोग चल पड़े।
देश निश्चित
ही बड़ी अदभुत
शांति की
अवस्था में
रहा होगा। भूख
नहीं थी; भजन
हो सका। तो
बुद्ध के समय
में भारत ने
शिखर देखा
अपनी
संपन्नता का।
लाओत्से
कहता है, लोग
मृत्यु से
भयभीत नहीं, क्योंकि
जीवन ही उनके
पास नहीं।
खोने को कुछ पास
नहीं, मृत्यु
छीनेगी क्या
उनसे? वे
आजीविका
जुटाने में
लगे हैं, किसी
तरह रोटी-रोजी
पूरी हो जाए।
गरीब
आदमी धार्मिक
नहीं हो सकता।
व्यक्तिगत अपवाद
मिल जाएं, वह
बात और। लेकिन
नियम यही है
कि धार्मिक
आदमी होने के
लिए शरीर की
जरूरतें पूरी
हो जानी कम से
कम जरूरी हैं,
अन्यथा
आदमी वहीं
उलझा रहेगा।
मैं
देखता हूं कि
अगर मेरे पास
धनी व्यक्ति
आता है तो
उसके सवाल
कभी-कभी धार्मिक
होते हैं; गरीब
आदमी आता है, उसका सवाल
धार्मिक होता
ही नहीं।
मुझसे लोग कहते
हैं कि आप
गरीबों के लिए
क्यों नहीं
कुछ करते? यहां
आपके आश्रम
में गरीब के
लिए प्रवेश
नहीं मिल
पाता।
उसके
पीछे कारण
हैं। गरीब जब
भी मेरे पास
पहुंच जाता है
तभी मैं अपने
को असहाय पाता
हूं;
क्योंकि
मैं जो कर
सकता हूं, वह
उसकी मांग
नहीं है। जो
वह चाहता है, उससे मेरा
कोई लेना-देना
नहीं है।
हमारे बीच सेतु
निर्मित नहीं
हो पाता। एक
गरीब आदमी आता
है। वह कहता
है कि मुझे
नौकरी नहीं
है। वह ध्यान
की बात ही
नहीं पूछता।
उसको
प्रार्थना से
कुछ लेना-देना
नहीं है। वह
मेरा
आशीर्वाद
चाहता है कि
नौकरी मिल
जाए।
अब
मेरे
आशीर्वाद से
अगर नौकरी
मिलती होती तो
मैं एक दफा
सभी को
आशीर्वाद दे
देता। इसको
बार-बार करने
की क्या जरूरत
थी?
मेरे
आशीर्वाद से
कुछ मिल सकता
है, लेकिन
वह नौकरी नहीं
है। वह
तुम्हारी
मांग नहीं है।
तब मैं बड़े
पेशोपस में पड़
जाता हूं।
कोई आ
जाता है कि
बीमार है, आशीर्वाद
दे दें!
बीमार
को अस्पताल
जाना चाहिए।
उसको मेरे पास
आने का कोई
कारण नहीं है; उसको
इलाज की जरूरत
है। जब भी
गरीब आदमी आता
है तो मैं
पाता हूं कि
उसकी कोई
चिंतना
धार्मिक है ही
नहीं। वह मेरे
पास आना भी
चाहता है तो
इसलिए आना
चाहता है।
कभी-कभी
कोई धनी आदमी
आता है तो
उसकी चिंतना धार्मिक
होती है। वह
भी कभी-कभी।
तब वह कभी पूछता
है कि मन
अशांत है, क्या
करूं? गरीब
आदमी पूछता ही
नहीं कि मन
अशांत है। मन
का अशांत होना
एक खास विकास
के बाद होता
है। अभी पेट
अशांत है; अभी
मन को अशांत
होने का उपाय
भी नहीं है।
पेट भर जाए तो
मन अशांत
होगा। मन भर
जाए तो आत्मा
बेचैन होगी।
असल में, जब
आत्मा बेचैन
हो तभी मेरे
पास आने का
कोई अर्थ है।
आत्मा बेचैन
हो तो मेरे
आशीर्वाद से
कुछ हो सकता
है, मेरे
निकट होने से
कुछ हो सकता
है। जो मैं
तुम्हें दे
सकता हूं, वह
धन और है। जो
धन तुम मांगते
हो, वह
मेरे पास
नहीं।
तो
गरीब आदमी
जैसे ही पास
आता है, मुझे
बड़े पेशोपस
में डाल देता
है कि करो
क्या? उसकी
पीड़ा मैं
समझता हूं।
उसकी कठिनाई
मुझे साफ है; उससे भी
ज्यादा साफ है
जितनी उसे साफ
है। क्योंकि
मैं जानता हूं
कि कितनी
दयनीय दशा है
कि एक आदमी कह
रहा है कि
मुझे नौकरी
नहीं है! यह
कितनी कष्टपूर्ण
दशा है कि एक
आदमी बीमार है
और इलाज का
इंतजाम नहीं
जुटा पा रहा
है! तभी तो वह
मेरे पास आया
है, नहीं
तो वह अस्पताल
जाता। उसकी
आकांक्षा बड़े
क्षुद्र की
है। वह सुई
मांगने आया है;
मैं इधर
तलवार देने को
तैयार हूं।
लेकिन उसका क्या
प्रयोजन है? वह कहता है, कपड़े फटे
हैं, सुई
मिल जाए तो
मैं सी लूं।
मैं उसे तलवार
भी दे दूं तो
वह क्या करेगा?
कपड़े और फाड़
लेगा। तलवार
से तो कोई
कपड़े सीए
नहीं जाते।
गरीब
आदमी के मन
में धर्म का
विचार ही नहीं
उठ पाता।
अपवाद छोड़
दें। कभी सौ
में एक आदमी
गरीब होकर भी
धार्मिक हो
सकता है; लेकिन
उसके लिए बड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिए। अमीर
आदमी बिना
बुद्धि के भी
धार्मिक हो
सकता है; गरीब
आदमी को बड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिए। गरीब
आदमी को इतनी
बुद्धिमत्ता
चाहिए कि जो
उसके पास नहीं
है, उसकी
व्यर्थता को
समझने की
क्षमता
चाहिए।
अब बड़ा
मुश्किल है!
जो तुम्हारे
पास है, उसकी
व्यर्थता तक
नहीं दिखाई
पड़ती; तो
जो तुम्हारे
पास नहीं है, उसकी
व्यर्थता
तुम्हें कैसे
दिखाई पड़ेगी?
जिनके पास
महल हैं, उन्हें
नहीं दिखाई
पड़ता कि महलों
में कुछ नहीं
है, तो
तुम्हारे पास
तो महल हैं
नहीं, तुम्हें
कैसे दिखाई
पड़ेगा कि
महलों में कुछ
नहीं है?
इसलिए
अपवाद। कभी सौ
में एक
प्रतिभावान
व्यक्ति बिना
महलों में गए, सिर्फ
विचार से समझ
लेता है कि
वहां कुछ नहीं
है; बिना
धन पाए समझ
लेता है कि धन
में कुछ सार
नहीं है; बिना
पद पाए समझ
लेता है कि पद
में कुछ है
नहीं। कहते तो
बहुत लोग हैं
यह। गरीब कहते
हैं अक्सर कि
क्या रखा धन
में! मगर यह
संतोष के लिए
कहते हैं। यह
उनकी समझ नहीं
है; यह
सांत्वना है।
ऐसा वे अपने
मन को समझाते
हैं कि रखा ही
क्या है!
यह वही
हालत है जो लोमड़ी
ने अंगूर की
तरफ छलांग मार
कर अनुभव की
थी। अंगूर तक
नहीं पहुंच
सकी,
फासला बड़ा
था। चारों तरफ
उसने देखा कि
कोई देख तो
नहीं रहा, क्योंकि
बेइज्जती का
सवाल था। एक
खरगोश झांक रहा
था। उस खरगोश
ने कहा, क्यों
मौसी, क्या
मामला है? उस
लोमड़ी ने
कहा, मामला
कुछ नहीं; अंगूर
खट्टे हैं।
छलांग छोटी है,
इसे कहने
में तो अहंकार
को चोट लगती
है। अंगूर
खट्टे हैं, छलांग की
जरूरत ही नहीं;
बेकार सोच
कर छोड़ दिए
हैं।
बहुत
से गरीब आदमी
कहते मिलेंगे:
क्या रखा धन में!
क्या रखा
महलों में!
क्या रखा पदों
में! इससे यह
मत समझ लेना
कि समझ आ गई
है। यह तो
सिर्फ
सांत्वना है।
यह तो गरीब को
अपने मन को
समझाने का
उपाय है। जो
पाया नहीं जा
सकता, उसमें
कुछ रखा ही
नहीं है, इसलिए
तो हम नहीं पा
रहे हैं, नहीं
तो कभी का
पाकर बता देते,
यह वह कह
रहा है। वह कह
रहा है, अंगूर
खट्टे हैं!
लेकिन
जब कभी गरीब
आदमी को
वस्तुतः समझ
होती है। ऐसा
हो जाता है
क्योंकि अनंत
जन्मों से समझ
संगृहीत होती
है। किसी जन्म
में तुम अमीर
भी रहे हो, महलों
में भी रहे हो,
बड़े सुख
जाने हैं। तो
उस सबसे
संगृहीत समझ
के आधार पर
कभी कोई गरीब
भी धार्मिक हो
सकता है।
अन्यथा गरीब
आदमी की आकांक्षा
धार्मिक तक
पहुंच नहीं
पाती। उसकी
छलांग छोटी
है। उसकी मांग
छोटी चीजों की
है।
अब
मेरी तकलीफ
तुम समझ सकते
हो। तकलीफ यह
है कि मैं उसे
कुछ देना
चाहूं, जरूर
देना चाहूं; लेकिन जो
मैं देना
चाहता हूं, वह उसके काम
का नहीं है।
जो वह मांगने
आया है, वह
न तो मेरे पास
है, न देने
योग्य है, न
मांगने योग्य
है। लेकिन
उसकी समझ तो
उसे तभी आएगी
जब वह गुजर
जाए जीवन के
अनुभव से।
जब
किसी व्यक्ति
की आजीविका के
सब साधन पूरे
हो जाते हैं, जीवन
सुस्थिर हो
जाता है, तब
मृत्यु का
खयाल आता है।
आजीविका
कमाने की
आपाधापी में
मृत्यु का खयाल
किसको आता है?
आदमी जीता
है और मर जाता
है--बिना खयाल
किए कि मौत आ
रही है। जब
तुम शांति से
बैठ सकते हो, घड़ी भर दौड़
बंद कर सकते
हो, छप्पर
के नीचे
विश्राम करते
हो, तब
तुम्हें कभी
खयाल आता है
कि मौत करीब आ
रही है। मौत
के लिए थोड़ी
सी सुविधा
चाहिए। और
जिसको मौत का
खयाल आया, वही
व्यक्ति
धार्मिक हो
सकता है।
इसलिए तो पशु-पक्षी
धार्मिक नहीं
हो सकते, क्योंकि
उन्हें मौत का
कोई पता ही
नहीं है। इतना
होश ही नहीं
है कि मौत का
पता आ जाए।
जिनको मौत की
चोट खयाल में
आ जाती है
उनके जीवन में
एक नये अध्याय
का प्रारंभ
होता है।
"क्योंकि
वे जीविका के
लिए चिंतित
हैं, यही
कारण है कि वे
मृत्यु से
भयभीत नहीं
हैं। जो उनकी
जीविका में
हस्तक्षेप
नहीं करते, वे ही जीवन
को ऊंचा उठाने
का विवेक रखते
हैं।'
और
लाओत्से कह
रहा है, राज्य
को कुछ ऐसा
करना चाहिए कि
लोगों की
जीविका में
हस्तक्षेप न
हो। कम से कम
उनकी जीविका
उन्हें पूरी
मिल जाए, क्योंकि
तभी उनके जीवन
का विवेक ऊंचा
उठेगा। उनकी
शरीर की
जरूरतें पूरी
करो, पूरी
हो जाने दो, ताकि वे
शरीर से ऊपर
उठ सकें। उनकी
मन की जरूरतें
भी पूरी करो, ताकि वे मन
से ऊपर उठ
सकें; उनके
जीवन में भी
आत्मबोध आ
सके। वह सुबह
हो जहां वे
आत्मा की
जरूरतों का
खयाल, आत्मा
की बेचैनी और
प्यास, आत्मा
की तड़फ और
अभीप्सा पैदा
हो सके।
वह
आदमी अभागा है
जिसके जीवन
में आत्मा की तड़प न आई।
वह मंदिर के
बाहर-बाहर
भटकता रहा। वह
मंदिर के भीतर
प्रविष्ट ही न
हुआ। धन्यभागी
है वह व्यक्ति
जिसके जीवन
में आत्मा की तड़पन आ गई; जिसकी
आत्मा ने पंख फड़फड़ाए और
परमात्मा के
आकाश को खोजने
की अभीप्सा से
भर गई। ऐसे
व्यक्ति के
जीवन में
विवेक अपनी चरम
सीमा को छूता
है।
और
विवेकशील
कहीं उपद्रवी
हुए हैं? और
विवेकशील कभी
अपराधी हुए
हैं? और विवेकशीलों
ने जीवन को
कभी तहस-नहस
और
नष्ट-भ्रष्ट
करने की कोई
आकांक्षा की
है?
लाओत्से
यह कह रहा है
कि जब तक लोग
शरीर के तल पर
ही जीएंगे तब
तक उपद्रवी
रहेंगे। उनको
कभी भी भड़काया
जा सकता है।
वे सूखा ईंधन
हैं,
कोई भी
उनमें आग लगा
सकता है। और
आग लग जाए, पकड़
जाए, तो
फिर हवाएं
ही उसे फैला
देती हैं। जब
तक लोगों का
जीवन-विवेक
ऊपर न उठे तो
तुम दंड देकर
उसे ऊपर न उठा
सकोगे; न
उनकी हत्याएं
करके ऊपर उठा
सकोगे।
क्योंकि
मृत्यु का
उन्हें भय ही
नहीं है। तुम
मारने की धमकी
भी दो, कुछ
न होगा। तुम
छीनने की धमकी
दो, कुछ न
होगा। तुम
उन्हें जेलखानों
में डाल दो, कुछ न होगा।
क्योंकि
असलियत ऐसी है
कि जेलखाने
उनके घरों से
बेहतर हैं और
वहां कम से कम
भोजन दो बार
नियम से मिल
जाता है। जेलखाने
ज्यादा सुखद
हैं। तुम
उन्हें जेलखानों
में डाल कर
उपद्रव से न
बचा सकोगे, बल्कि उपद्रव
की शिक्षा
दोगे। तुम
उन्हें मार कर,
मिटाने की
धमकी देकर कुछ
भी रूपांतरण न
कर पाओगे।
क्योंकि मरने
की उन्हें कोई
चिंता ही नहीं,
उन्हें
जीने की चिंता
है। मरने की
किसको चिंता
है? मार डालो;
तुम्हारी
गोलियां उनकी
छातियों को
छेद देंगी, लेकिन
उन्हें बदल न
पाएंगी।
तुम्हारे कोड़े
उनके शरीरों
पर पड़ेंगे, लेकिन वे कोड़े
उन्हें जगा न
पाएंगे।
उन्हें
जगाओ। और उनके
जगाने का एक
ही उपाय है कि
राज्य उनका
शोषण न करे; राज्य
उन्हें जीने
दे अपने ढंग
से; बीच-बीच
में खड़ा न हो।
राज्य धन को
इतना न चूस ले
कि उनके पास
कुछ बचे ही न। जैसे
ही उनके पेट
भरे होंगे, वे
सुविधापूर्ण
होंगे, वैसे
ही कोई उनसे
उपद्रव न करवा
सकेगा, वैसे
ही कोई उन्हें
अपराध की तरफ
न ढकेल सकेगा।
और उनके जीवन
में धीरे-धीरे
मृत्यु का
दर्शन शुरू
होगा। उस
दर्शन से वे
धार्मिक हो
जाएंगे।
धर्मशास्त्रों के
अध्ययन से कोई
धार्मिक नहीं
होता; धार्मिक
होने के लिए
मृत्यु का
शास्त्र पढ़ना
जरूरी है।
पंडित-पुजारियों
की बकवास से
कोई धार्मिक
नहीं होता; धार्मिक
होने के लिए
मृत्यु के
स्वर सुनने जरूरी
हैं। मृत्यु
सबसे बड़ा गुरु
है। लेकिन आजीविका
में उलझे लोग
उस स्वर को
नहीं सुन पाते,
और आजीविका
में उलझे लोग
सब तरह के
अपराध, उपद्रव,
बगावतें,
विद्रोह, विनाश में
संलग्न हो
जाते हैं।
लाओत्से
का सूत्र
स्पष्ट है।
लाओत्से कह
रहा है, स्वभाव
पर छोड़ दो
लोगों को।
उनको ज्यादा
नियोजित मत
करो, ज्यादा
शासित मत करो।
वे शासन के
लिए पैदा नहीं
हुए हैं, जीने
के लिए पैदा
हुए हैं। और
वे अपने जीवन
का मार्ग खोज
लेंगे।
पशु-पक्षी खोज
लेते हैं; आदमी
क्यों न खोज
लेगा। लेकिन
राज्य कहता
है: हम बीच में
आएंगे, क्योंकि
तुम ठीक से
नहीं खोज
पाओगे; तुम
अपना पेट ठीक
से न भर पाओगे,
इसलिए हम
व्यवस्था
देंगे; तुम
फैक्ट्री
ठीक से न चला
पाओगे, इसलिए
राष्ट्रीयकरण
करेंगे।
और सब
राष्ट्रीयकरण
राज्यीकरण
है;
राष्ट्र का
नाम व्यर्थ और
झूठा है।
राष्ट्रीयकरण
का अर्थ कुल
जमा इतना है
कि सब सत्ता
राज्य के हाथ
में है।
व्यापार, व्यवसाय,
उद्योग, खेती-बाड़ी,
सब राज्य के
हाथ में है।
और जितना
राज्य के हाथ मजबूत
होते जाते हैं,
उतने लोग
सूखते जाते
हैं। फिर तुम
कहते हो, लोग
उपद्रव करते
हैं। फिर उनको
उपद्रव से रोकने
के लिए या तो
उन्हें मारो,
कारागृहों
में डालो।
जितना तुम
उन्हें मारते,
कारागृह
में डालते, और लोग
दूसरे
उपद्रवी होते
चले जाते हैं।
फिर भी सीधी
सी बात नहीं
दिखाई पड़ती कि
यह बीमारी का
लक्षण है। बीमारी
राज्य में
छिपी है!
राज्य
कम से कम हो तो
सौभाग्य है, और
ज्यादा हो जाए
तो दुर्भाग्य
है। राज्य की
एक मात्रा
जरूरी है, बस
एक मात्रा। और
मात्रा भी
होमियोपैथी
के डोज
जैसी होनी
चाहिए, एलोपैथी
का डोज
नहीं। बस एक
जरा सी मात्रा
राज्य की
जरूरी है।
और
उसको मैं फिर
से तुम्हें
याद दिला दूं।
राज्य का काम
नकारात्मक
है। उसका काम
इतना ही है कि
वह लोगों को
एक-दूसरे के
जीवन में बाधा
डालने से
रोके। बस, इससे
ज्यादा नहीं
है। जब तक लोग
अपना काम कर रहे
हैं और अपनी
मस्ती में हैं
तब तक राज्य
को बीच में
आने की कोई जरूरत
नहीं है।
राज्य का काम
ऐसा है जैसा
चौराहे पर खड़े
पुलिसवाले का
है। जब तक लोग
बाएं चल रहे
हैं उसे बीच
में आने की
जरूरत नहीं है,
न कुछ कहने
की जरूरत है।
हां, जब
कोई आदमी
रास्ते के बीच
में चलने लगे
और बाधा बन जाए
तब उसे आने की
जरूरत है। जब
तक लोग अपने
मार्ग से चल
रहे हैं, अपने
ढंग से काम कर
रहे हैं, ठीक
उन्हें अपना
काम करने दो।
चौराहे पर खड़े
पुलिसवाले से
ज्यादा राज्य
की कोई जरूरत
नहीं है।
और
राज्य के
अधिकारियों
को इतने
सम्मान और इतनी
पूजा की भी
कोई जरूरत
नहीं है। वे
सेवक हैं, मालिक
नहीं। कोई तुम
चौराहे पर खड़े
पुलिसवाले के
चरण नहीं छूते;
लेकिन
दिल्ली में
बैठे बड़े
पुलिसवाले, राष्ट्रपति
हों, प्रधानमंत्री
हों, उनके
चरण छूने की
भी कोई
आवश्यकता
नहीं है, और
न ही उनके
गुण-गौरव की
कोई आवश्यकता
है। लेकिन वे
छा जाते हैं
सारे समाज पर।
सारे अखबार
भरे हैं उनसे।
सारा रेडियो,
टेलीविजन
भरा है उनसे।
सब तरफ उनका
गुणगान चल रहा
है।
इस
गुणगान का बड़ा
खतरनाक
परिणाम होता
है। इसका
परिणाम यह
होता है कि जो
सत्ता में
नहीं हैं, वे
भी पागल हो
जाते हैं
सत्ता में
पहुंचने को, सत्ता की
दौड़ पैदा होती
है। तो सभी महत्वाकांक्षियों
को सत्ता
चाहिए। तब
इतना भयंकर
संघर्ष मच जाता
है, और वह
संघर्ष
उपद्रव का
कारण होता है।
शासकों
को बहुत
सम्मान देने
की कोई
आवश्यकता नहीं
है। वे एक काम
कर रहे हैं, उनकी
एक उपयोगिता
है; बात
खतम हो गई।
उनकी
उपयोगिता कोई
ऐसी नहीं है
कि उन्हें
सिर-आंखों पर
लिया जाए।
भंगी रास्ता
साफ कर रहा है,
ठीक है, धन्यवाद!
पुलिसवाला
चौराहे पर खड़ा
अपना काम कर
रहा है, धन्यवाद!
प्रधानमंत्री
दिल्ली में
अपना काम कर
रहा है, धन्यवाद!
बात खतम होनी
चाहिए। इससे
ज्यादा की कोई
जरूरत नहीं।
जिस
दिन हम
राजनीतिज्ञों
को आदर देना
कम कर देंगे
उस दिन दूसरे
लोगों में भी
राजनीति में
उतरने का
पागलपन कम हो जाएगा।
राजनीति
से बड़ी घटनाएं
घट रही हैं
दुनिया में, उनको
आदर दो। कोई
गीत गा रहा है,
किसी ने एक
नया गीत बनाया
है, किसी
ने बांसुरी पर
नयी धुन उठाई
है; किसी
ने नृत्य में एक
नया रंग जोड़
दिया है; किसी
ने फूलों के
चित्र बनाए
हैं, ऐसे
कि परमात्मा भीर्
ईष्या करे।
इनको
प्रसन्नता दो,
इनको
प्रशंसा दो, इनको आदर दो,
क्योंकि ये
जीवन में कुछ
जोड़ रहे हैं; जीवन को
समृद्ध बना
रहे हैं; जीवन
को ज्यादा
उत्सव में
परिणत कर रहे
हैं।
राजनेता
कर क्या रहा
है?
जीवन को कौन
सा दान है
उसका?
ज्यादा
से ज्यादा
उसकी स्थिति
इतनी है जैसे
द्वार पर बैठा
पहरेदार है।
ठीक है, काम
ठीक करे तो
धन्यवाद! काम
न ठीक करे तो
कान पकड़ कर
उसको अलग कर
देना है।
कवि
हैं,
चित्रकार
हैं, नृत्यकार
हैं, मूर्तिकार
हैं, संगीतज्ञ
हैं, जो
जीवन पर बड़ी
अहर्निश
वर्षा कर रहे
हैं; जो मन
की जरूरतें
पूरी कर रहे
हैं; उनको
धन्यवाद दो।
किसान है, मजदूर
है; उसको
धन्यवाद दो, क्योंकि वह
शरीर की
जरूरतें पूरी
कर रहा है। फिर
कोई संत है जो
आत्मा की
प्यास को
वर्षा दे रहा
है, जो मेघ
बन कर बरस रहा
है; उसको
धन्यवाद दो।
राजनीतिज्ञ
का काम एक
कोने में
पर्याप्त है। सारे
जीवन पर छा
जाए आकाश की
तरह,
यह
विक्षिप्त
बात है। लेकिन
राजनीति छा गई
है, इस
बुरी तरह छा
गई है कि उसने
कुछ और छोड़ा
ही नहीं है।
यह सूचक है इस
बात का कि लोग
साफ नहीं हैं
कि बीमारी
कहां है, और
इलाज जारी है।
तो इलाज और
खतरनाक बन
जाता है। बीमारी
बहुत गहन में
राजनीति के
समादर में है।
राजनीति
को उतारो
सिंहासन से!
इसलिए नहीं कि
किसी और को
सिंहासन पर
बिठालना है।
राजनीतिज्ञ
भी चिल्लाते
हैं,
उतरो
सिंहासन से, जनता आती है!
मगर वे इसलिए
चिल्लाते हैं
कि तुम उतरो, हम आ रहे
हैं।
राजनीतिज्ञों
को नहीं
उतारना है
सिंहासन से, राजनीति को
उतार दो
सिंहासन से।
राजनीति सेवा
से ज्यादा
नहीं है। जो
अच्छा करे उसे
प्रमाणपत्र
दे देना
धन्यवाद का।
लेकिन इससे
ज्यादा मूल्य
नहीं है।
लेकिन चौबीस
घंटे और सब
जीवन के आकाश
पर उसको छा
जाने दिया है।
उससे भयानक
परिणाम हुए
हैं। तो जो रक्षक
था वह भक्षक
हो गया है। जो
सेवक था वह शासक
हो गया है। और
जनता दबी जाती
है और लोग सिकुड़ते
जाते हैं।
उनकी आत्मा खो
गई है, उनका
मन खो गया है।
उनका शरीर भी
पूरी तरह बचा नहीं,
वह भी खोता
जा रहा है।
लाओत्से
का विश्लेषण, लाओत्से
का निदान अचूक
है। और जब तक
यह निदान लागू
न होगा, संसार
व्यथित
रहेगा। अगर
कोई क्रांति
करने जैसी है
तो वह लाओत्से
की क्रांति
है। वह राजनीति
को उसके पद से
हटा देने की
क्रांति है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं